Wednesday 19 October 2022

Graha Laghava



 च्यच्कतुहलम्‌ । भास्करा चायंकृत । संस्कृत हिन्दी टीका सिक्त । टीकाकार- 
० सत्येन्द्र मिश्च 
श्ल श्िचिन्तामनिः । मणेशदेन प्रणील । "विजयलक्ष्मौ' भाषा टीका सहित 
अध्य श्कालः 1 (उवोलिष) । जौवन्तथ श्चा प्रणी । हिन्दी टीका सहिश 
अग्यन्द दीपकः ॥ पद्मध्रभू सूरि विरचित । “दीप्ति' संस्कृत हिन्दी टीका सहित 
अ्व$्न्दसागर | 'मनोरमां' 1हन्दी टीका सहितं 


६९ ००० @ 
१०-~-०99 
२०५०-० 9 
२ ०~०० 


६५-०० 


रेष्छदगाणतम्‌ । षष्ठाध्यायः । पञ्चमाध्याय-परिभाषारूष । पं °मुरलीधर ठक्कर १०-०० 
चवहच्वई्वतो + भास्कराचाथं किरचित। ्िद्धान्तशिसेमणि पाटौीमणिताश्य प्रथम 
अकरण । कान्वय सोपपत्ति सौदाहरण "तत्त्वचन्दरिका' संस्कृत हिन्दी व्याह्यष 


खहिति ॥ प रामचन्द्र पाण्डयं 


४५०9 


` {किवद्हवन्दावनम्‌ । केशव।कदेवज्ञ विरचित । सकलागमाचायं वयं केशव सांवत्स- 


रात्मज श्री मणेशदेवज्ञ कृत "†ववाहदापिका' व्यास्या तथा सविशेष “ज्योति 


इन्दी टोका सहित 
व्यइ्कटारिक-ज्यौतिषतरवम्‌ । "तत्तवप्रभा' हिन्दी न्याख्या सहित 
शदे च्चबध । सान्वय "वुषमा' हिन्दी दीका सहित | 
प्रहगत का ऋिक 1वेक।स । श्रीचन्द्र पाण्डेय 


५ 9~-० 9 
9७ ७ 


१५-०० 


१०००० 


अरेच्छगमितम्‌ \ सविमशं सादाहरण “वासना' संस्कृत 'सुश्वा' हिन्दी व्याख्या 


खहित 
जेर्ञ्यनोसुत्रम्‌ । :विभला' संस्कृत हिन्दी टीका सहित ` 
हद्‌ अवकहडाचकम्‌ \ दिन्नो टाका सादते । डं रामचन्द्र पाण्डय 
चङङ्होडाचक्डिवरथम्‌ † !हन्दी टीका सहित । मुरलीधर ठक्कुर 
श्डड्वफलाध्यायः । सस्कृत हिन्के टीका सहित । शं० रामचन्द्र पाण्डेय 
चलच्यजतकभ्न्‌ । 'तत्वप्रभा' सस्कृत हिन्दी भ्याख्या सहित । प° लषणलाल ज्ञा 
13 ऋ 1698098 99 1161080 ६२४ ४110108 5 09 4, ४00०831, 
शह गख राके चर ५ “भरकाथिका' भाषा टीका खहित + सम्पष्दकोऽनुवादकरच ~ 
देवी प्रसाद त्रिपाठी 


जश्तक एल कर \ गणे सदवञ्जहव्र ।. संस्छृड हिन्दी टीका सहित । व्याख्याकार~ 


प० ब्रषणखाल सल्ला 
कडस्तु रत्नाकरः अहिवलचक्रसहितः । विन्ध्येरवरी प्रसाद द्विवेदीं कृत 
{न्दो रीका सहत 
खष्ययोगावलो ३ "गख्मेडा' हिन्दी टीका सहित । व्याख्याकार-आचायं 
मधुसूदन छास्त्रौ | 
शर्प्यं चा।शका ॥ संस्कृत-हिन्दी टीका सहित । पं० दीनानाथ क्षा 
च्न्दस्द्ला । १० जीवना शा कृत । 'भमृतधार7' हिन्दी रीका सहित 





भाप्तिस्थानम्‌-चौखम्बा संस्कृत सीरौज आणि, वाराणसी-२२१००१ 


एवं सखहमोयी संस्था-कृष्णदास अकादस्नो, चौक, वारागक्षीौ-२२१००१ 


७९० 9 
२ 9-~-०9 
५.२5 
4 --9 9. 
१५०५-० 9 


२५०9 
28.09 


७ 9 
१०-० #. 


५9 =@ 9 


१५-०० 


५ 9 


५-७9 9 





हरिदास संस्कृत ग्रन्थमाला ३०९ 
धौ गणे चदेगलधिरचितम 


हखाधवम्‌ 


 'मल्छारि कृतसं स्कृतव्यास्यया "चच्िका 
दिन्दीव्याख्यया च समलङ्कृतम्‌ 





सम्पा दक्ये व्याख्यः कारश्च 
प्रौ रामनल्रपण्डयः 


चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी-१ 


श्रीः | ॥ 
हरिदास संस्कृत ग्रन्थमाला 


२०६ 


[री 


भीगणेशदंवन्नविरचितम्‌ 


ग्रह लाववम्‌ 


-मट्लारि'कृतसंस्कृतव्याख्यया (चश्द्रिका"नाम्नीहिन्दीव्याख्यया 
च समलङ्कृतम्‌ 


सम्पादको व्याख्याकारश्च 
परोऽ रामचन््रषाण्डयः 


मध्यक्षः ज्योतिष-विभागे 
काशी.हिन्दू-विदवविद्याख्यः, वाराणसी 





चौरवम्बा संस्कृत सीरीज आफिस .वाराणसी -१ 


१९९ 


प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी 
पूद्रक ; जौखम्बा प्रेस; वाराणसी 

छंष्करण : प्रथमः; किण घं० २०५० 

प्रल्य : 59 50 @ 


© चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस 


के ३७/९९, गोपार मन्दिर ऊेन 
पो० बाण्नं* १४ ०८१ वाराणसी-२२१ ® १ ( भररत ; 
फोन ; १९६३४५४ 


परं च भाघिस्यानम्‌ 
व्छ्णद्धास्र अत्रच्छच्टन््र 
पोऽ बा० नं० १११८ 
चक, (चित्रा यिनेमा बिल्ठिग), वाराणसी- २२१००१ ( मारत) 
फोन : ५२३५८ 


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प्रार्ककयन 


माचार्यं श्री गणेक्ष दैवज्ञ की अद्भुत कृति ग्रहराधघव को ज्योतिष जगत्‌ में 
जितनी लोकप्रियता उपटब्ध हुई, उतनी कुछ ही इने-ग्नि अगचार्यो एवं उनकी 
कृतियों को मिल पायी । प्रायः सर्वत्र ज्योतिष के पाथ्यक्रम में इस ग्रन्थ को स्थान 
दिया गया ह। फिर भी एक समयरएेसामायाकि छात्रोंको श्रहुरखाघव ग्रन्थ 
बाजार में कहीं उपकलन्ध नहीं था । अध्यापकों एवं छात्रो को अत्यन्त कष्ट हो रहा 
था। अन्तिम संस्करण पंण्श्री सीतारामक्षा द्वारा सम्पादितथा, वह भी 
अनुपलन्ध था । इस कलिनाई को देखकर सन्‌ १९५७६ में मने नवीन उदाहरण के 
साथ ्रहलाघव कां हिन्दी भाषानुबाद कर श्री रणवीर केन्द्रीय संस्कृत विध्यापीठ से 
प्रकाङित किया, किन्तु वित्तीय नियमों एवं अन्य कारणों से केवल चन्दरग्रहणाचि- 
कार तकहीप्रकारानहो पाया । जेष अंश का प्रकाशन सन्‌ १९७७ में सम्भव 
हो पाया । द्वितीय खण्डके प्रकाशनमे व्याख्याके कुं अशोको निकाल देना 
पड़ा, जो मेरे मन में सदैव खटकता रहा । उस न्यूनता को दूर करते हृए तथा कुछ 
महत्वपूर्ण परिष्कारो के साय सम्पूणं ग्रहुलाघव चन्द्रिका हिन्दी व्याड्या, 
उदाहरण एवं मल्छारि कृत संस्कृत व्याख्या के साथ प्रकाशित करते हृए मह 
हषं का अनुभवहो रहा हं । मुक्षे विश्वास ह कि यह संस्करण सभी ज्योतिषानुरागी 
छात्रो के लिए सहयोगी सिद्ध होगा ) 


वाराणसी रामचन्द्र पाण्डेय 
१९९३ 


भस्तावना 


भास्वद्‌ रत्नाढचयमौलिः स्फुरदधररुचो रञ्जितश्चारुकेशो 
भास्वन्वे दिव्यतेजाः करकमल्युतः स्वणंवणप्रभाभिः 1 


विश्वाकाशावकाशग्रहपतिशिखरं भाति यश्चोदयाद्रौ, 
सर्वानन्दप्रदाता हरिहरनमितः पातु मां विश्वचक्षुः॥ 


अनन्त ब्रह्माण्ड में अनसुजक्षे रहस्य भी अनन्तदहुं। किसी भी रहुस्यको 
सुलक्चाने के लिए मानव जीवन अत्यन्त स्वल्प प्रतीत होता है । यहीकारणहकि 
एक वैज्ञानिक अपने जीवन मेँ किसी भी उपलन्धिके एक या एकाधिक अश्च को 
ही ज्ञात कर पाताहै। उसके आगे का कायं दूसरे वैज्ञानिक को जोवनसाघना का 
यंग बन जाता । बाविष्कार का यही क्रम स्दियोसे चलाञरहाह, जागे 
भी चता रहेगा ! भारतीय दैवज्ञो को मन्त्रद्रष्टया ऋषियों द्वारा असीप ज्ञानराह्षि 
सरलता से उपलमग्ध हो गयी थी । इस ज्ञानभण्डार को हृदयंगम कर लेने तथा उसक 
व्यवहार करलेनेमाघ्रसे भारतीय मनीषा अपने अपको त्त मान चेतीहै। 
परिणामतः अनुसन्धान कौ मावर्यक्ता हौ नहीं प्रतीत होतो रही, इसका दूरगामी 
प्रभाव पड़ा । जितना ज्ञान प्राप्त हो चुका था, हम उसे भागे उस सीमा तकर नहीं 
बढ़ा सके, जहां तक ठे जाने को क्षमता थी । इतना हो नही, अपितु इस विशाल 
ज्ञानभण्डारको पुरक्ना भी संदिग्ध दहो गयी । 


ज्योतिष शास्त्र त्रिपथ ( गंगा) की तरह अपनी प्रमुख तीन धारां 
अनादि कासे प्रवाहित हौ रहा ह । इसको जानघारा कभी भी अवष्ट्ध 
नहीं हई, अपितु समय-समय पर हमारी पिपिसाहीश्ञन्त हो गयी ओर 
हम संकुचित क्षत्र मँ भपने आपको सोमित कर ल्यि । ज्योतिष तो अनन्त है । 
इसमे संकोच की नहं, विकास को भावद्यकता है । मेरी दृष्टि में पण्डितराज 
जगन्नाथ की यह पेक्ति- 
सुधातः स्वादोयं सलिलमिदमातृप्नि पिबतां 
जनानामानन्वः परिहसति निर्वाणपदवौम्‌ ॥ 
इस अयोतिष रूपो गंगाख्हरी मे अधिक चररितार्थहो रही ह । त्रिपथगा की एक 
घारा भकाशगंगा है, जिसे गेलेकषो (0७९12;) या नित्को वे (1411८ ७2) 


( ४ ) 


आदि नामों से आधुनिक पादचात्य ज्योतिष में कहा गया ह । इसका एक रधुखण्ड 
हमारा ब्रह्माण्ड या सौरमण्डल हु । एेवे-एसे करोड़ों सौरमण्डल इस आकारगंगामें 
छिपे हुए है, जिनका स्पष्ट ज्ञान आज के स्वंपताधनसम्पन्न वैजानिक युगमें भी 
अत्यन्त कठिन ह । हमारा सौरमण्डल ही मनन्त एवं रहस्यमय रै, भभी हम 
सी का पू्णंडान नहीं केर पाये दहं । जव हुम प्राचीन भाचार्योकी तरफ दृष्टि 
डार्ते है तो आश्चयं होता है कि साघनहीन होते हुए भी इन महापुर्षो ने 
आका्ञगंगा मे इतने गोते लगाये भौर भपने अनुभवो को क्िपिबद्ध कर हम 
लोगों तकं पहुंचाया । भाचार्यो ने अनवरत वेध क्रिया । आवश्यक एवं यथासम्भव 
वेध उपकरणों का निर्माण भी क्रिया तथा ्रहुगति को अच्छी तरह पहचान कर एक 
सिद्धान्त स्थिर किया। कालान्तर मे गणित के विकास एवं सिद्धान्तो के संशोधन 
द्वारा ज्योत्तिष शस्व को उप्नत स्थान प्राप्त हुआ । वेध-प्रक्रिया को सवसुल्भेनं 
समक्चषकर ग्रहसाधन की गणिका खूप देकर करण ग्रन्थोकौ रचनाकी समयी! 
स पद्धति से साधनहीन ग्यक्ति भी प्रहगति को समक्षने एवं सिद्ध करने योग्यहो 
गया । पश्चात्‌ यह करण-प्रक्रिया बहुत रोक्प्रिय हौ मयी तथा इसी आधार पर 
पच्चांगादि का निर्माण प्रारम्भहो गया। 


कु विद्वानों ने इस पद्धत्तिको सुगमतो स्वीकार किया, किन्तु इसके 
भ्रचारक्रा विरोघ भी किया, क्योकि सुगम पद्धति प्रचलितिहो जानेस वेध-ए्क्रिया 
नष्टप्रायहो गयी । वेध कफे अभावमें ज्योत्तिषके क्षेत्र में नवीन कायं बन्दहो 
गये । समयका कुषं एता दुविपाक ह कि आज करणपद्धति भी नष्टहोरही 
है । कुछ इने-गिने करण-ग्रन्य उपलन्ध हूं । अध्ययन-मघ्यापन की व्यवस्थाके 
अभाव मेँ उने उपलन्ध ग्रन्थों का भी दिनीं-दिन अभावहोताजारहाह। कुछ 
स्थानों मेँ ग्रहखाघव को पाय्यक्रममें रखा गयाहं। इससे यह भ्रन्य अभीमी 
प्रचक्िति है, किन्तु भआचायं विश्वनाथके बाद किसी ने नवीन उदाहरण नहीं किया । 
पका कारण मेरी समक्षम यष्टी जआतादहंकिग्रहलाघवंकी सारणि बनचुकीह) 
जब किसी को आव्यकता होती है सारणिक्े ग्रह-साधनकरलेताहु1 परन्तु 
छात्रो मे सक्रियता खाने के लिए तथा करणपद्धत्ि को जीवित रखने के लिए यह्‌ 
भावक््यकं ह कि नये-नये उदा्रणो को ग्रन्थोक्त रीति से समन्षाया जाय । यही 
सोचकर सने इस प्रन्थकी हिन्दी टीका एवं नवीन उदाहरण शक १८९६ का 
प्रस्तुत क्रिया ह। साथहो प्रयासि किया गवाह कि पाठक स्वयं भी इस 
भ्रन्थ का अध्ययन करं प्रहुमणना में सक्षमहो सके, 


( ५ ) 


क्‌ रण~--पह एक पद्धति का नाम है, जो सिद्धान्त-उपोतिञ के अन्तगत 
परिगणित की गयी है । स्िद्धान्त-ग्रन्यौमें जो अहूर्गण द्वारा म्रहानपनादि कौ 
विधि बत्तायी गयी हि, उपरी का भायोगिक््‌ स्वल्प करण पद्धति कटकता ह । अतः 
इसे हम भ्रयोगिक सिद्धाम्त भी कहु सक्ते है । पूर्वाचार्यो ने सिद्धान्त ज्योतिष करो 
भो तीन भागों मे विभक्त कियाद, यवा--१. सुष्टिके आरम्भे प्रहगणना 
जिर शस्त्रम की ण्यी हो, उसे सिद्धान्त, र.युगके आरम्मसे जितम ग्रहादि 
की गणना हो, उसे तन्त्रे तथा ३. क्रिसी नियत कघुकाख्खण्ड या क्रिमो शक्ये 
ग्रहुगणना र्हा हो, उसे करण कहते ह । इप्तका विरलेषण प्रकृत ग्रन्थ को टीका में 
मल्लारि+नेभीकियाहं। 


ग्रहुलाधवम्‌ नाम रखने का अभिप्राय यहीथाज्ि इस प्रन्यमे प्रहौको 
अत्यन्त सरल ढगसे साधित क्रिया गया है । अतः अन्यं करभ-प्रन्यो की अपेक्ला 
ग्रहरछघव करण अतीव सरल एवं सुगम हं! यही कारण ह जि इस 
ग्रन्थ का विद्न्बण्डल ने अधिकं भादर किया तथा अध्ययन अध्यापन हारा 
इसका प्रसार भौ किया। 

टोका -ग्रहलाघव की बहुत पी टीका हुई, किन्तु समी उपरब्ध नहीं 
है । उपल्न्ध एवं मुद्रित टीकाओंमें सरवंशरेष्ठ मल्लारिको ही टोका है। 
सन्‌ १९२५ ई० में वेंकटेश्वर प्रेस से एक बार प्रकाशित मौ हुई है । मत्लारि कौ 
टीका, विड्राथ के उदाहरण को लेकर प° सुदाकर्‌ द्विषेदौ ने सम्पादन किया था 
तथा इसके साथ-साथ श्री हिवेदीजो ने स्थान-स्थान परर उपपत्ति भी दी ह । इनके 
मतिरिक्त म्रहृलाघव की दो हिन्दी दीकाद्‌ं मृञे देखने करो मिली है। दोनोंही 
टीकाकारों ने विर्वनाथ के उदाहरण को अंगोकार करते हए उनका हिन्दौ अनुवादं 
प्रस्तुत कियाहु। द्वितय ( परवर्ती ) टीकास्व० पं्श्री सीतारामक्षाकीह। 
इन्होंने उदाहरण तो विदवनाय का ही दिया ह, किन्तु उपपत्ति में अपनी मौलिकता 
भी प्रस्तुतकीह। 


प्रस्तुत टीकामें मैने मल्लारि कौ संस्कृत टीका तथा उपपत्ति का नवीन 
पद्धति से यथासम्भव उद्धरणों के संकेत पूर्वक सम्पादन करते हए छात्रौ कै हित के 
लिए स्वरचित चन्द्रिका नामक हिन्दौ टीका एवं नवीन उदाहरण भी प्रस्तुत किया 
ह । इसके साथ-साथ मार्गं मेँ आने वारो गत्थियों को भी सुलक्लाने का यथासम्भवं 


प्रयास किया है । यथा--मष्यम चन्द्रसाधरनके संगमे श्रौ गणेश दैवज्ञने देशान्तर 
संस्कार के किए लिला है- 


( ६ ) 


निज-निजपुररेखान्तःस्थितायोजनौघाद्‌ 
रसलवमितलिप्ना स्वणंमिन्दो परे प्राक्‌ ।1 


किन्तु यह संस्कार छत्रोंको तबत्तक समञ्ल भं नहीं भा सकता, जब तक 
उन्हे देशान्तर योजन का ज्ञान त हो। यद्यपि यह गूढ विषय नहीं है, परन्तु 
सुकुभार-मति छर को सा्वंदेधिक चन्द्रसाधन हेतु स्पष्ट देशान्तर साधन की 
विधि भो प्रस्तुत हिन्दी ( चन्द्रिका ) दीकामें प्रदक्शितकी गयीदह। इसी प्रकार 
आवक्यक विषयों का निर्देश भी किया गया ह। 


त्रिप्रश्नाधिकार मे सावयव अंकोंके वगेमूल की कमलाकर भट्कृत पडति 
लगभग सभी टीकाकारो ने उदृतकीहै। उन्हीं विद्वानों द्वारा उद्धृत इलोक मने 
भी उद्धृत कियारहु, किन्तु उस पद्धति के अतिरिक्त उससे समता रखती हई एकं 
भौर पद्धति का ज्ञान मुञ्चे टीका जिखते समय हभ, उसे भी छात्रो के हितार्थं 
यहां प्रस्तुत कर रहा हं । 
सवे प्रथम सामान्य विधिसेही मृलसाघन कर उसे प्रथम अवयव मानक, 
पद्चात्‌ शेष में १ जोड़कर ६०्से गुणाकर गुणनफलमें द्विगुणित प्रथम अवयवमें 
दो मिलाकर भाग देने से ठकब्धि ह्ितीय अवयव होगी । यथा-३३३६।२२ का 
वगमृर निकालना ह । लीलावती में बताये हुए त्यक्लयान्त्याद्‌ विषमादिव्यादि* 
विधि से अथक्रा आधृनिक प्रचरित वगमूलानयन पदति से वर्गमूल निकाल्गे-- 
५५ 
~। ~| 
५. > २== १० । ३३३६।२२ 
। २५ 
७५९७--४९ । ८३ 
| \७७ 


१२३६ 
४९ 
८७ 








सामान्य नियमानुसार ५७ वर्गमूल प्रथम अवयव हृजा । शेष ८७ मं १ जोड़ 
कर ६० से गुणा कर गुणनफर में संख्या का द्वितीय अवयव २२ जोड्गे- 
८७ + १== ८८ >€ ६० ==५२८० + २२५३०२९ 





१. पृण्द्र० ९ २. प्रा ला० १.९ 


( उ ) 


प्रथम मल ५७ को २ से गुणाकर २ जोड़ने से ( ५७ ९२११४ + २) = 
११६ हृभा । हस्वे ५३०२ मे भाग देने से न्धि ४५ वर्गमूल का द्वितीय भक्यव 
हुआ । अर्थात्‌ ३३३६।२२ का सावयव बगंमूर ५७१४५ हुआ । विश्वनाथ, सुघाक्रर 
आदि आचायोँ ने मी "ष्टिवर्गं गुणादङ्कानित्यादि' सूत्रसे जो विधि बताई है, 
उससे भी उक्तराशि का वगमल ५०।४५ ही आता है । प्रस्तुत विधि मे कदाचित्‌ 
द्वितीय अवयवमें १ संख्याका अन्तर मा सकता है, किन्तु अदुद्र नहीं होगा । 
वयोकि षष्टिवगंगुणादङ्कान्‌ इत्यादि पद्धति से आनीत वर्गमूल भी सूक्ष्म नहीं ह । 
अतः दोनो दही क्रिया उपयोग में खाई जा सकतीहं। 

न्थकार श्रीगणेकशषदेवज्ञ--यह तो सर्वचिदित ह ही कि ग्रहुलाधव की 

रचना श्रौगणेश दैवन्न ने कीरै, किन्तु प्रहलाधवके प्रथम श्लोक को देखकर 
सन्देह भी वैदा होता है । वहाँ स्पष्ट छिखा है--*'जयति केशववाकश्रुतिरभरुचः' 
अर्थात्‌ प्रहुलाघव रूपी वाणी केशव दैवज्ञ की है। यह मानना असंगत भी नहीं 
हं, क्योंकि केराव दैवज्ञ ने भी ्रहकीतुक' नामक एक करण ग्रन्थ कौ रचनाकी 
हैँ । प्रहकौतुक तथा प्रहलाधव करा प्रायः अभिप्रायएकहीदहै। अतः सम्भव ह 
केशव दैवज्ञे की पद्धति को गणेश दैवज्ञ ने सम्पादित किया हो । केशव दैवज्ञ बहुत 
प्रतिभाशाली गणितज्ञ थे इन्होंने जातर्कपद्धति भी बनाईहै तथा उसमें भी कुछ 
नई दिशाय दी है। आज वहु जातकपद्धति केशवीय जातकपद्ति नाम से 
भरसिद्ध दहं) 

केशव दैवज्ञ गणेश दैवज्ञ के पिताथे। यद्यपि ज्योतिष शास्त्रके इतिहासमें 
दो फैशवदैवज्ञ का नाम आाताहै। प्रथम शक ११६५ के आसन्न हृएये। 
द्नका प्रमु ग्रन्थ विवाहुवृन्दावन जाजमभी प्रचल्तिह। द्वितीय केश्चव शक 
१४१८ के आसन्न हुए थे । इनका जन्म स्थान कोकण प्रान्त में समुद्र के किनारे 
नम्दिग्राम ( माजका प्रचलितिनदिर्गाव ) मं हुाथा। इनकी पत्नीका नाम 
लक्ष्मी तथा पुत्रका नाम गणेश था। इन्होने जातक, ताजिक तथा करण तीनों 
रकार की रचना्येकीरहं। ये वेघक्रियामें भी पूणं दक्ष थे। भतः ग्रहलाचव जसी 
रचना उनके लिए असंगत नहीं हँ! परन्तु गणेक्च दैवज्ञ की रचनाभोंमें सवं- 
भरथम ग्रहुाचव काही नाम आताह1। अतः प्रायः सभी लोगोंने ग्रहुलाघव के 
रचयितामे सन्देह नहीं कथाह । परम्पराका अनुसरण करते हुए भी 
जयति केशव वाक्‌शरु तिश्च का अभिप्राय यहीके रहा किकेशवदैवज्ञने 
मपने पुत्र गणेश दैवज्ञ को ज्योत्तिष की शिक्षादी इसीलिए उन्होने मङ्धकाचरण में 
पिता एवं गुर की वाणी को श्रुतिस्वरूप मानकर प्रन्थरचना की । 


( ८ ) 


पटेञे बताया जा चुका ह कि गणेश दैवज्ञ कैरव (द्वितीय) के पुत्र हं । इनकी 
माताका नाम रक्ष्मीह। शक १४२० के आसन्न इनका जन्म कोंतण प्रदेश के 
नन्दिग्रामे कौशिक गोत्रमे हुमा था। इनका जन्म-स्यल बम्बई महानगर से 
लगभग ४० मील दक्षिण हे) 


ये बहुत परिश्रमो तथा अध्यवसाय थे \ इन्होने बहु त-सी टीक्रायें तथा स्वतन्त्रं 
ग्रन्थ भो च्खिंहुं। इनकी रचनाओं मे सर्वाधिक प्रचलित ग्रहलाघवहीह। 
दसके अतिरिक्त लघुतिथिचिन्तामणि, वृहत्तिथिचिन्तामणि, सिद्धान्तक्शिरोभणि 
टीका, छीलावती टीका, विवाहवृन्दावन टीका, मृहू्ततत्व टीका, श्रद्धनिणय, 
छन्दा्णव टीका, तर्जनी यन्त्र इत्यादि रचनायें हँ । इन पृस्तक्रों एवं टीरनों का 
उल्लेख विश्वनाथ नै किया हँ तथा इम सम्बन्धमें नर्सिह देंवज्ञ द।रा लिखित 
लोकं मो उद्धुत किया है ।* गणेश दैवज्ञ ने भी अपनी रचनाओं के सम्बन्ध में यरुछ 
संकेत क्या है- 
छत्वादौ ग्रहुकाघवास्यकरणं तिथ्यादिसिद्धिहयम्‌, 
रलोकैः श्राद्धर्विधि सकासनतया लोलावतीव्याङृतिम्‌ । 
सप्रक्षेपमुहुत्ततत्वविवुति पर्वादिसल्तिणय, 
तस्मान्मङ्धल्निणंयायथ कृता वेबाहुसहीपिका ॥1" 


गणेश दैवज्ञ ने न केवल ग्रहुखाघव की रचना कर ग्रहगणित को सरल बनाया, 
अपितु इन्होने भारतीय ज्योतिष की नीव को भी सुदृढ कियाहै। इन्होंने प्राचीन 
सिद्धान्तो का अन्धानुकरण न करके पद-पद पर ग्रहो का वेध कर गणितागत भौर 
वेधोपलन्ध मानों का समन्वय करते हुए एक तृतीय मां अपनाया, जिससे चिना 
बेध किये भारतीय प्डतिसेही गुद्धग्रहों का साधन कया जा सक्ता ह । प्राचीन 
भ्रचछित ब्राह्य-आ्यं-सौर्‌ निद्धान्तों को अपनाया तथा जहाँ कुछ संशोधन अपेक्षित 
था, वहां संशोधन भी करिया । सिद्धान्तो में जो पड़त दृश्य के आन्न थी, उसका 
ही यहां संग्रह किया गया है। इसका संकेत भी ग्रहछाघवमे ही मधघ्यमाधिकार कै 
अन्त मे करियागयादहं। 

सौ रऽ्कोऽपि विघृच्चमङ्कुलिकोनान्जो गुरुरत्वायंजोऽसृग्‌ राहु च कजं 
जकेन्द्रकमथाय सेषुमाणः शनिः ॥२ 


~न ---- --- ~-~- ~ - 


१. द्र° भारतोय ज्योतिष पु° २३५९ । 
१. वि° व° उद्धृत भाऽ ज्यो० पृक्षे ३६० । 
२. ध सि १.१६ 


५ ९ ) 
सर्वाधिक दुरवर्तीं प्रह शनि भी गणेश दँवन्ञ ने शुद्ध साधित किया । यह कायं 
भारतीय ज्योतिष का मस्तक उन्नत करते वाला ह । 
मल्लारि--इनके पिताकानाम दिवाकर था। येर्पाच भाईथे। इनमें 
विष्णु द॑वज्ञ, विश्वनाथ तथा मल्लारि ये तीनों ही यशस्वी हुए । मल्लारि भौर 
विश्वनाथ दोनों ने म्रहलाघव को ही अपना क्षेत्र बनाया । विक्वनाथ ने उदाहरण 
प्रस्तुत करिया, जिससे जिज्ञासु व्यक्तियों को बडा काभ हुआ । मल्लारि ने बहुत ही 
सरल एवं सुबोव संस्कृत टीका लिखी । इसके साथन्ाथ प्रहखावव को उपपत्ति 
भी क्ख, जो सर्वाधिक जटिल कायं था। इस कार्यको भी इन्होने बड़ी कुशरता, 
पूर्वक निभाया है। ्रहलाघव के अतिरिक्त भी बहुत-से अन्य ग्रन्थों की टीक्रां 
इन्होनें कीर । 
इनका जन्म शक १५०० के आसन्न हुजाथा। शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने 
इनके टीकाकाल के प्रसंग मेँ एक इ्लोक उद्धृत किया है. जिससे मल्लारि का नाम 
बालगणक' भी लक्षित होत्ता है । यथा-- 
बाणोनच्छकतः कुरामविहूतान्भुल हि मासः स युक्‌ 
बणेभंच्च॒ दशोनितं दिनमितिस्तस्या दलं स्यात्तिथिः। 
पक्षः स्यात्तिथिसंमितोऽखिर्यतिः सप्रान्धि तिथ्युन्मिता 
बालास्यो गणक्रो लिकेख च तथा टाकां परा्थत्विमाम्‌ ॥\" 


यह कार संकेत बहुत विष्ट पद्धति से किया है । इसका अभिप्राय यह है कि 
शक १५२४ आरिवन मास कौ शुक्ल प्रतिपदा सोमवार उत्तराफाल्गुनि नक्षत्र मे 
बार नामक गणकने दरूसरोंके लिए यह्‌ टीकां कौ। 

यह संस्करण प्रमुख रूपसे छाघ्रों के लिए ही प्रस्तुत किया गयाहै । बतः 
परीक्षोपयोगी ग्रन्थ परिचय, म्रन्थकार-टीकाकार परिचय भौ य्थासम्मव सन्निविष्ट 
कियागयाह। इस कार्यते यदि छात्र लाभान्वित हए तथा ग्रहमणनां के प्रति 
उनकी सचि बही तो मँ अपना प्रयास सार्थक समक्षुगा । 

माभार--सववंप्रथम मै कीतिजेष पूज्य पिता पं० श्री बल्देवपाण्डेयजी के 
चरणो में श्रद्धासुमन अर्पित करता हं, जिनके तपःपूत आशीष मै ज्योतिष 
शास्त्र के अध्ययन में प्रवृत्त हु, अनन्तर परम पूज्य गुरुदेव ज्योतिषश्ास्त्राणंव में 
मन्दरगिरि के समान विद्वद्वरेण्य स्व० पं श्री अवधविहारी च्रिपाठीके चरणों 


१, भा० ज्योऽ। 


( १० ) 


दातशः प्रणाम करता ह, जिनके ज्ञानलव के प्रकाशमें लेखन कायं में प्रवृत्तहो 
सका हं । प्राच्य-प्रतीची ज्योतिष शास्त्र एवं गणित के मूर्धन्य विट्रान्‌ गुखवयं 
स्व° डा° मुरारिलाल शर्माजी को प्रणामाञ्जलि मरित करते हुए उनके प्रति मं 
अपनी कृतज्ञता भपित करता हूं, जिनका स्नेहपु्णं सहयोग मुञ्चे सतत मिलता रहा 
है । साथ ही अपने अभिन्न मित्र डा° श्रो सुघाकर मार्वीयजी के प्रति भी आभार 
व्यक्त करना अपना कर्तंग्य सम्ञता हूं, जो प्रायः प्रकाक्षन कायं में मुञ्ञे सतत 
परित करते रहते हं । इस संस्करण कै मुद्रण मे श्रीकृष्णदास अकादमी परिवारके 
सदध्यों को मे हादिक धन्यवादं प्रदान करता हं, जिनके उत्साह एवं सहयोग से यह्‌ 
ग्रन्थ प्रकाशमे आयाहं। अन्तपें त्रिय पुत्री कु० मीनाक्षी दण्डय को सस्नेह 
आक्षीष प्रदान करता ह, जिसमे प्रफ संशोधन एवं प्रेस कापी तेयार करने में 
सहयोग कियाह ) 


५०५१ 


कष्टसाव्य एफ संशोधन कायं में स्रावघानी एवं प्रयासके अतिरिक्त भी 
तरि्यां सम्भव हैं, मतः ज्योतिषानुरागी विद्रञ्जनों से प्रा्थनाहकिवेघ्रृदियो के 
मार्जन का प्रयास करगे । अन्त मे सुजन गणितज्ञोँ कै प्रति प्रार्थना रूप भास्करा- 
चायंकीये पक्तियांरमे मी उदत कर रहारहं- 


तुष्यन्तु सुजना बुद्ध्वा विशेषान्‌ मदुदीरितान्‌ ! 
भबोधेन हसन्तो मां तोषमेष्यन्ति दुजनाः \ 


दीपमालिका विद्रद्विधेय 
संवत्‌ २०५० रामचन्द्र पाण्ड्य 


विषयानुक्रमणिका 


विषयाः पृष्ठांकाः 
मध्यमाधिकारः--१ १-३३ 
टीकाकारकृतं मगलाचरणम्‌ १ 
मङ्गलाचरणम्‌ ९ 
ग्न्थप्रयोजनम्‌ ५ 
अहर्गणसाघनम्‌ ६ 
ग्रहाणां ध्रुवाः ११ 
ग्रहाणां क्षेपकाः १३ 
ग्रहे संस्कारविधिः ० 
मध्यमरविबुधशुक्राणां साधनम्‌ १८ 
चन्द्रोच्चराह्वौः साधनम्‌ २० 
कुजस्य बुधकेन्द्रस्य च साघनम्‌ २२ 
गुरोः रुक्रकेन्द्रस्य च साधनम्‌ २६ 
शनेः साधनम्‌ २८ 
ग्रहाणां मघ्यमा गतिः २९ 
सौरादिसिद्धान्तानां वेशिष्टयम्‌ २२ 
रविचन्द्रस्पष्टाधिकारः - २ २३४-६२ 
भुजकोटशचचादीनामानयनम्‌ ३४ 
सूयमन्दफलसाघनम्‌ ३७ 
चन्द्रमन्दफलसाधनम्‌ ४२ 
रविचन्द्रयोः गतिफलानयनम्‌ ४३ 
चरखण्डसाधनम्‌ ४५ 
चरफलसाघनम्‌ ४६ 
चरफरूसस्कारः अयनांश-साधनं च ४७ 


पञ्चा ज्धंसाषनम्‌ ५९६ 


( १२ ) 


विषयाः पृष्ठ {का- 

पञ्चतारास्पष्टाधिकारः --३ ६२३-८८ 
भौमादीनां शीघ्रफरङ्काः ६१ 
शीध्रफलसाघनम्‌ ६७ 
मौपादौनां मन्दाङ्धुाः भन्दकेन्द्राक्च ७० 
मन्दफलानयनम्‌ ७२ 
फलसंस्करारविधिः ७३ 
भौमादीनां भन्दस्पष्टा गतिः ७६ 
मौभादीनां स्पष्टा गतिः ७८ 
शीघ्राङ्कागमे भौमशुक्रयोः वैशिष्ट्यम्‌ ८० 
शीघ्रां भौमवुघशुक्राणां गतिफले वेिष्ट्यम्‌ ८१ 
वक्रपागशीघ्रकेन्द्रक्षाः ८२ 
भौमगुरशनीनामुदयास्तकेन्द्राशाः ८२ 
बुधशुकयो एदयास्तकेन्द्रंशाः ८४ 
वक्रोदयस्तादोनां कालन्ञानम्‌ ८५ 
बुघशृक्रयोः वक्रोदयास्तानां दिनप्रमाणम्‌ ८६ 
भौमगुरशनीनां वक्रोदयादीनां दिनप्रमाणम्‌ ८७ 

तरिप्रहनाधिकारः-४ ८९-१२९ 
दयात्‌ स्वोदयज्ञानम्‌ ८९ 
लग्नसाधनम्‌ ९२ 
लग्नानयने वैरिष्ट्यम्‌ ९८ 
लग्नादिष्टज्ञानम्‌ ९९ 
गोलायनाक्षांशदिनमानानां सानम्‌ १०० 
नतोन्नतपलकर्णानां च ज्ञानम्‌ १०३ 
हारसाधनम्‌ १०४ 
भाज्यपराधनम्‌ १०६ 
छायातो नतकालज्ञानम्‌ ६०८ 
सूष्मक्रान्तिसाधनम्‌ १०९ 
स्थूलक्रान्तिसाघनम्‌ १११ 


क्रान्तितो भुजःक्षसाधनम्‌ ११२ 


विषयाः पृष्ठांकाः 
दिनमानात्‌ स्थूलक्रान्तिसाधनम्‌ ११४ 
बक्षांशान्‌ नतांशोन्नतांशाज्ञानम्‌ १.१५ 
उ्नतांशेन कणज्ञानम्‌ ११६ 
क्णदुच्चतचटिकासाधनम्‌ ११७ 
यन्श्रोत्थनतांशेम्य उन्नतक्रालज्ञानम्‌ ११८ 
उन्नतघटिकातो यन्त्रांशज्ञानम्‌ ९९९ 
यन्तरांशतो कर्ण कर्णाद्‌ यन्त्रोननतांशसाघनम्‌ १२० 
दिक्‌साघनम्‌ ९९ 
भुजाद्‌दिक्स्ाधनम्‌ १२२ 
यन्त्रद्रारा दिगंशासाघनम्‌ १२४ 
तु रीययन्त्राद्‌ दिक्साचनम्‌ १२९ 
नलिकराबन्धाथ भुजकोटिसाधनम्‌ १२७ 
नलिकराबन्धविधिः १२८ 
चश््रग्रहणाधिकारः--५ १२३०-१५२ 
इ९्टकालिकम्रहुसाधनम्‌ १३० 
ग्रहण सम्मवनज्ञानं शरसाधनञ्च १३४ 
रवि-चन्द्र-भूभाविम्बसाधनम्‌ १३५ 
ग्रासानयनम्‌ १३९ 
स्थितिदलमदंघटीज्ञानम्‌ १४१ 
र्पक्चमोक्षस्थितिज्ञानम्‌ १४३ 
स्पर्शादिकालन्ञानम्‌ १४४ 
इष्ट प्रासानयनम्‌ १४५ 
आयनवलनसाघनम्‌ १४९ 


आक्-स्फुटवलनयोः साधनम्‌ 


१४८ 

प्रासदिङ्मध्यग्रहणस्थलस्य च साधनम्‌ १५१ 

स्पशंमोक्षदिग्‌ज्ञानम्‌ ९९ 
सुयंग्रहणाधिकार.--६ १५३-१६५ 

लम्बनानयनम्‌ १५३ 


विराह्कं लम्बनसंस्कारः १५७ 


विषयाः पुष्ठांकाः 
नतिसाघनं शरसाधनख १५९ 
स्पशंमोक्षयोः कालसाघनम्‌ १६१ 
सम्मोलनोन्मीलनकाल्योः साघनम्‌ १६३ 
इष्टगुणसाधनम्‌ १६५ 
भास्तगणाधिकारः-७ १६६-१९१ 
उपयोगिता १६६ 
क्षेपकाः १६९ 
घ्रवा १६७ 
सूर्यविपातयोः साधनम्‌ १६७ 
वृत्तवा रादिकयोः साधनम्‌ १७० 
ध्रुवक्ञेपक्रयोः संस्कारः १७२ 
पाक्षिके चालनम्‌ १७२ 
रविचनद्रयोमंन्दफलम्‌ १७५ 
हारसाधनम्‌ १७७ 
तिथिस्पष्टीकरणम्‌ १७८ 
रविन्यगुस्पष्टीकेरणम्‌ १८० 
रविम्‌भाविम्बसाघनम्‌ १८१ 
ग्रहणस्षम्भवज्ञानम्‌ १८३ 
ग्रास्मानसाधनम्‌ १८४ 
सूयग्रहुणे स्थृलग्रारमानसाधनम्‌ १८५ 
पर्वेशानयनम्‌ १८७ 
सूर्याच्चिन्द्रादिसाघनम्‌ १८९ 
ग्रहणद्यसादनाधिकाशः- ८ १९२-१९९ 
पञ्चा द्वार्‌ ग्रहणद्रयसाधनम्‌ ११९ 
चन्द्रस्य प्राससाधनम्‌ ९३२ 
चन्द्रविम्बभ्‌भाविम्बसाघनम्‌ १९४ 
नक्षत्रघटिकाम्यर्चन्द्रग्रासानयनम्‌ १९५ 


नक्षत्रधटीभ्यरचन्द्र भूभाविम्बयोः साघनमू १९५ 


( १५ ) 


विषयाः पृष्ठांकाः 
सूयं ग्रहणे ग्राससाधनम्‌ १९६ 
सूर्यबिम्बसाधनम्‌ १९८ 
उदयास्ताधिकारः- १९९-२०० 
चन्द्रदरंनसम्मवासम्भवज्ञानम्‌ २०० 
गुरोरुदयास्तसाधनम्‌ २०४ 


शुक्रोदयास्त प्ाधनम्‌ २०७ 


गणेशदेवज्ञविरचितं 


पह ल्छा्रकम्‌ 


'मल्लारि' "चन्द्रिका-संस्कृत-हिन्वी-व्यास्याटयोपेतम्‌ 
~ -<र्०्व्द>-~ 


१. मध्यमाधिकारः 
चन्द्रिका*+^- 


आद्योकारप्रकारं भखचरगणनाम्भोधिनौकर्णधारं 
नत्वाथो विध्नवारं गणपतिमनिशं वक्रतुण्डावतारम्‌ । 
वीणापाणि च वाणीं नवमतिवरदां शारदां शास्त्रसारां 
पाण्डेयो रामचन्द्रः लिष्युमतिगतिदां संविधत्ते सुटीकाम्‌ ॥ 
मल्खारिः-- नाके नकेशमुख्याः सुरवरनिवहाः सन्ति येऽनन्तसंख्या । 
नाख्यामाख्यात्यमीषां कथमपि च मनः पूर्वकं वाङ्‌मदीया । 
एक हित्वकदन्तं सकलसुरशिरःसद्भुःसद्भुःषिताडिच्रम्‌ । 
शीघ्रं भवतेष्टसिद्धिप्रदमिह हि सुर सादरं तं नमामि।। १॥ 
मल्छारि कुलनायक रविमुखान्‌ सखेटांखच नत्वा गुरोः । 
स्मृत्वा पादयुगं ह्यवाप्य च तत॒ कच्चित्‌ सुबोधांशकम्‌ । 
मत्लारिग्रहखछाघवस्य कुरुते टीकां ससद्ासनां । 
यस्मादल्पमतिश्च कुण्ठितमतिः स्यात्‌ पूर्वंवचित्र्यवाक्‌ ॥ २॥ 
मध्यस्फुटास्तोदयवक्रपूवं कर्माखिलं यद्‌गणिते खगोत्थम्‌ ¦ 
जीवाधनुः संश्रयकं विना तन्न स्यादयं निद्चय एव गोले ॥ ३॥) 
कथमत्र कृतं विना घनुज्यें खगकर्माखिलमल्पकर्मणा । 
उपपत्ति विचारणाविघौ गणका मन्दधियो विमोहिताः ॥ ४॥ 
तस्माद्‌ वन्म्युपत्तिमस्य विमलां तन्मोहनाश्लाय तां । 
जञात्वा मन्मतिकौरालं च गणका प्रयन्तु तुष्यन्तु ते। 
हे वर्या गणका विलोक्य यदिहाश्ुद्धं च संशोध्यतां। 
कि वा प्रार्थनया परोपङृतिषु स्वाभाविकस्तद्गुणः । ५॥ 


#*टीकाकारकृतं मंगलाचरणम्‌ 


२ ग्रहलाधवे 


त्र॑कालं कालक्रारं भज-भज रजनीनायको यप्प्रियस्तं । 

जन्तो सन्तोषतो हि चत्रिनयनेजनकं नाकलोकप्रकर्षम्‌ । 

गेयज्ञं यज्वयज्ञं वरसुरशिरसा सेवितं वित्तविद्या- 

दातारं ताश्नतामं मवभवनवकश्षो नो नरो सम्ननत्या।५॥ 

है जन्तो प्राणिन्‌ तं ताभ्रताभं सिन्दुरव्णं गणाधीशं हीति निश्चयेन सन्तो- 
षतो भज-भज सेवस्व-सेवस्वेति । स कः । यस्य नस्ननद्या नश्ननमस्कारेण नरः 
पुरुषो भवः संसारः स एव यद्‌ भवनं तस्य वन्लो वश्यो नो स्यात्‌ । मुक्त एव 
स्यादिव्य्भिप्रायः तमेव विशेषणद्वारा स्तौति । विषूत्पत्ति-स्थितिनाराकालेषु 
वर्तते स तथा त्रिकालावस्थायिनमविनाश्ञिनमिव्यथः। कालमपि कलयत्याकल- 
यत्तिस तथा पुनः सकः! रजनीनायको रात्रिनाथङ्चन्द्रमा यस्य प्रियः सुहृत्‌ 
तत्सृहत्वं तु चतुर्थब्रतादौ प्रसिद्धम्‌ । त्रिनयनो जनको यस्य तं शिवतनय- 
मित्यर्थः 1 यद्वा त्िनयनस्य जनकं पितरं गणेशम्‌ । तत्सु कथनम्‌ । “गणेशा- 
च्छद्कुरोऽभूदिति” गणेशकल्पादौ प्रसिद्धम्‌ । नाकलोके स्वर्गलोके प्रकषं उत्कर्षो 
यस्य तम्‌ । गेयज्ञं गेयं गानं जानातीति तथा गानाद्यसद्धीतन्ञास्त्रप्रवर््तकम्‌ । 
यज्वयज्ञं यज्वनां य।गकत्तणां यज्ञं यज्ञरूपं यज्ञांशभोवतारमित्यर्थः । वरसुरश्चि- 
रसा वराः सुरा श्रेष्ठा इन्द्रादयो देवास्तेषां शिरसा मस्तकेन सेवितम्‌ । वित्त- 
विद्यादातारं वित्तं द्रव्यं विद्याचतुदर्शंम्‌ । 
पुराणन्यायमीमांसा ध्म॑दास्त्रांगमिध्रिताः । 
वेदाः स्थानानि विद्यानां ध्मश्य च चतुदश । इति 
तहातारमभीष्टफलग्र दायकमित्यथः । 
अथश्नीमज्जलनिधितटतिकटस्थितनानोपवन-विराजित-नन्दिग्रामामिघाननगर - 

निवासि सकलभूपतिसेवितचरणयुगर्कमलगणिताटवी विवटनपदुत राखिलदेवविन्मा- 
तंगकूम्भपीठद्ण्ठनोत्कण्ठक्ण्ठी रवश्रीमदुमारमणचरणद्र यपङ्कजावाप्तमहामति वदं - 
भ वित्केशवदंवज्ञात्मजा गणेशदं वन्ञवर्यां ग्रहलाघवाख्यं प्रहकरणं चिकीषवत्तत्रादौ 
निविष्नेन प्रन्थसमासिप्रचयगमनाभ्यां शिष्टाचारपरिपालनायान्लीनंमस्कारवस्तुनिदं- 
लात्मक्रानां मंगलादोनि मंगलमधघ्यानि मङ्खलान्तानि चास्त्राणि प्रथयन्त इति रिष्ट- 
नियमाच्चात्रं वस्तुनिदं शख्पमंग ख्सहितं प्रन्थारम्भं वसन्त तिककवृ रोनाहुः ॥ 


मद्धलाचरणम्‌- 
ज्योतिःप्रबोधजननौी परिशोध्यचित्तं 
त्सुक्तकमंचरणेगंहनाऽथपूर्णा ॥ 


मध्यमाधिकारः ३ 


स्वल्पाक्षराऽपि च तदंशक्रतैरपाये- 
व्यक्तीङकृता जयति केशववाक श्रु तिरच ॥ १ 


श्रुतिर्वेदो जयति सर्वोत्किषंण वर्तते । तमेव विशेषणद्वारा स्तौति कि 
विशिष्टा केशवस्य विष्णोर्वाक्‌ “यस्य निडवसितं वेदाः'* इत्याचुक्तत्वात्‌ ज्योति- 
घस्तेजसः प्रकाडकस्य गुणत्रयातीतस्य तेजो रूपस्य परब्रह्मणः प्रबोधो जानं तं 
जनयल्युत्पादयौति तथा । मायावेष्टितस्य जन्तोदंहात्ममानिनोऽसौ देहो नक््वर 
आत्मा नित्यो व्ापक्रो निराकार इत्यादि ज्ञानं वदिककर्मद्रारा श्रवणमनन- 
निदिष्परासनसाक्ात्कार्मवतीत्यथः 1 क्रि कृत्वा ॥ तस्सुक्तकर्मचरणैः। तस्यां 
श्रुतौ सुष्ट्‌ उक्तानि यानि सन्ध्याह्नानदानजपहोमयज्ञादीनि कर्माणि तैषां चरणै- 
राचरणैरनुष्ठानरिचत्तं मनः संशोष्य शुद्धं कृट्वा । यततः मनः शुद्धो जातायामेवा- 
तमज्ञानं भवति । गहनार्थन गम्भीरार्थेन पूर्णा अधपूर्णा चेत्‌ तहि बह्ुक्षरा स्यात्‌ 
तदपि न । यतः स्वल्पाक्षरा । स्वल्पाण्यक्षराणि यस्यां सा । नन्वथेपुर्णा 
स्वल्पाक्षरा या श्रुतिस्तस्या अर्थावबोधः कस्यापि न स्यात्‌ । अर्थावबोधं विना 
शरद्युक्तकर्माचरणं कथं स्यात्‌ अत एवाह । तदंशकृतंस्तस्य परमेश्वरस्य येऽदा 
रावणाद्यास्तंः कृता ये उपायां भाष्यादयस्तंव्यक्तीकृता प्रकटीकृता रावण 
भाष्याद्यवरोकनेन तदुक्तक्र्णाचरणं सम्यगेव ध्याद्‌ इति विष्णुपक्षे । अथ पितु- 
पक्षे । केशवध्य पितुर्वाक्‌ ग्रहकौतुकादिग्रन्थरूपा जयतीति । तामेव विशोषण 
दारा स्तौति। श्रुतिः श्रूतिसमाना । यथा वेदोतं कमं कायमेव सत्यत्वात्‌ 
तथेयं केडाववागपि । ज्योतिषां ्रहुनक्षत्रादीनां प्रबोधं ज्ञानं जनयतीति तथा । कि 
करत्वा । तस्यां केशववाचि सूक्तानि यानि ग्रहसाधनादीनि कर्माणि तैरिचन्तं मनः 
संशोध्य 1 गहुनार्थन पूर्णा स्वल्पाक्षरा च तद॑श्ास्तच्छ्ष्यास्तंः कताः ये उपा- 
यास्टीकाद्यास्तंः प्रकटीकृता ।। १ 


चन्दिका--वेद के पक्ष मे-वेदोक्त यज्ञानुष्ठानादि कार्यो के आचरण से 
मनको श्ुद्धकर, पर ब्रह्यके ज्ञान को उत्पन्न करनेवाली स्वत्पाक्षरा 
होते हुए भी गृढार्थो से युक्त सायण यास्कादिद्वारा किये गये भाष्यादि 
रूपी उपायों से स्पष्ट को गरदं केशव ( विष्ण ) की श्रुतिस्वूप वाणी 
सर्वोत्कृष्ट है । 


(ग्रहलाघव के पक्ष मे)--उस केशव देवज्ञ) के द्वारा बताये हुए ग्रह- 
करणो के अभ्यासे मन को निमेल कर ज्योतिषिपिण्डों (ग्रहुनक्षत्रो) के 
ज्ञान को उत्पन्न कराने वारी संक्षिप्त किन्तु गूढ अर्थो वाली उनके पृत्रो- 


४ ग्रहलाघवें 


शिष्यो द्वारा की गई टीका रूपी उपायों से स्पष्ट केशवदेवनज्ञ की श्रुतिरूए 
वाणी सर्वोक्करष्ट है । १ 

परिभग्नसमोविकेशचापं 

दृढगणहारलसतसुवुत्ताबाहुः । 

सुफलप्रदमात्तनप्रभं तत्‌ 

स्मर रामं करणं च विष्णुरूपम्‌ \\ २ 


मल्लारिः--अथ यथार्थमक्त्या भक्तं रामस्मरणं कर्तव्यं गणैकरपि करण- 
स्मरणं कर्तव्यमित्यादि विषमवृसेनाह ॥ है क्िष्य विष्णुरूपं स्मरे । ग्यापन- 
शीलो विष्णुः । तस्य भगवतोरूपमागमोक्तं चतुभु जादि स्मर मनसि धेहि । ननु 
व्यापकस्य निराकारध्य परब्रह्मणो ूपमेव नास्ति क्स्य स्मरणं कर्तव्यमिति । 
यदुक्तं श्रीमद्भागवते-- 

न॒ नामरूपे गुणजन्मक्मभिनिरूपिततग्ये तव तस्य साक्षिणः" इत्यादि) 
णवं सन्देहं केचिदापादयन्ति । अत्रोच्यते । प्रकृतेः परेण निराकारेणेदं विहवं 
स्वमायया सृष्टम्‌ । या या सत््वरजस्तमोगुणात्मिका। तें गुणाः परब्रह्मणि 
न ॒गुणातीतत्वात्‌ । अत इयं सृष्ट्यादि माया केवलं भगवत्‌ प्रयुक्तव परे 
भगवति नास्त्येव । अत्त इदं आब्रहमादि पिपीटिकान्तं सकलं त्वस्य सगुणत्वात्‌ । 
भत इदं वेदोक्तमचिलं कर्मकाण्डसत्यम्‌ । यतो यद्यत्‌ क्मं॑तत्‌ तत्‌ प्राणिसाध्यं 
प्राणिनस्तु मायारूपिणोऽसत्याः । ननु एकेन वेदेन यदुक्तं कर्मकाण्डं तदसत्यम्‌ । 
लानकाण्डमुपनिषद्‌भागाख्यं सत्यम्‌ । एवं कथं स्यात्‌ । उभयोः सस्यत्वमप्तत्यत्वं 
वा वक्तव्यम्‌ । सत्यम्‌ । असत्येनव कर्मकाण्डेन कल्पितभगवद्रूपादि सेवनेन 
सत्यस्य व्यापकस्य परब्रह्मणो ज्ञानं भवति यथा मिथ्याभूते प्रतिबिम्बे सत्य- 
बिम्बानुमापकत्वम्‌ । एवं भगवद्रपमसत्यमपि सत्यमेव कल्पितम्‌ । यथा बारानां 
प्रथममक्षरज्ञानाथ॑मोद्कारशिक्षायां वतु लपाषाणादि स्थाप्यते । तद्रन्मायावेष्टित्‌- 
लोकानां सत्यप्राप्त्यथं भगवद्रूपं दास्पाषाणमृदादि जनितं चतुभुं जद्विभुजंक दन्तादि 
कल्प्यते तदपि युक्तम्‌ । उक्तं च योगवारसिष्ठे - 

अक्ष रावगमलन्धये यथा स्थूलवतु लदृषत्परि ग्रहः । 
शुदढबुद्धपरिलबन्धये तथा दारमृन्मयशधिलामया्चनम्‌ ॥ इति 
तदेव ॒विक्ञेषणद्वारेण विशिनष्टि) परिभग्नं कृतशकलं मौविकया जीवयां 


_ सह ईशस्य शंकरस्य चापं धनुयेन तत्‌ तथा । जनकेन राज्ञा स्वगृहे श दरुरघतु 
१. भाग. ९, १०.२.३६ । 


दि ग्रहुलाधवे 


मल्लछारिः- भथ पृवंकृतग्रन्येभ्योऽस्य वैशिष्ट्य द्योतयन्‌ तदारम्भप्रयोजनं 

च प्रदर्शयन्नाह । यतः प्रयोजनादिक्रथनं विना ग्रन्थपठनाच्यौ ~ प्रवृतिं स्यात्‌ । 
उक्तं च-- | 

सिद्धिः श्रोतुप्रवृत्तीनां सम्बन्धकथनायतः | 

तस्मात्‌ सवषु शास्त्रेषु सम्बन्धः पूर्वमुच्यते ॥ 

किमवाश्रामिधेयं स्यादिति पृष्टस्तु केनचित्‌ । 

यदि न प्रोच्यते तस्म फएलशुन्यं तु तद्भवेत्‌ ॥ 

सवंस्यैव हि शास्त्रस्य कर्मणो वापि कस्यचित्‌ । 

यावत्‌ प्रयोजनं नोक्तं तावत्‌ तत्‌ केन गृह्यत इति ॥ 


इति बुद्धोपदेडां मत्वा वदति । 
अहु गणेशस्तथाऽपि ग्रहुप्रकरणं ग्रहा ग्रहसम्बन्धीनि ग्रहणोदयार्रन्दोनि कर्मीण 
प्रक्रियन्ते साध्यन्ते यस्मिन्निति तत्‌ कर्तुमुद्चत उदयं प्राप्तोऽस्मि । यत्र कत्पादेग्र 
हानयनं सर सिद्धान्तः । यत्र युगादेग्रंहानयनं तत्‌ तन्त्रम्‌ । यत्र शकाद्‌ ग्रहानयनं 
तत्‌ करणम्‌ । ग्रहुश्रकरणमित्यनेन श्चकाद्ग्रहानयनं करोमीति सूचितम्‌ । तथापि 
कथं यद्यपि उरवो महान्तो धीरा गर्गाद्या षमी भात्कराचार्यायाचा्यारिच कर 
णानि अकाषु इ्चक्नः परं तेषु ज्यकाधनुरपास्य जीवाघःषी त्यक्त्वा प्रहादिसिदि- 
यस्मान्न भवति अस्मादधेतोरिदं मया क्रियते । क्रि विशिष्टम्‌ । ज्या जीवा । 
चापं धनुः एतकत्कर्मभ्यां रहितं सुतरां लधुप्रकारं स्फुट स्पष्टार्थम्‌ ॥ ३ 
चन्द्रिका-- यद्यपि (प्राचीन) महषियों एवं आचार्यो ने बहुतसे करण 
ग्रन्थोंकी रचनाकी है (परन्तु) उनको षद्धतिसे जीवा चपभादिको 
निकाल देने से कायं सिद्धि नहीं होती | (अतः) जीवा चाप आदि क्रिणाओं 
से रहित सुन्दर एवं सरल विधि से स्पष्ट ्रहप्रकरण (ग्रहसाधन,उदयास्तादि) 
कीरचनाके लिए उद्यतहूं।३ 
अहगणसाघनम्‌-- 
हयग्धीन्द्रोनितश्कईशहत्‌ फलं स्या- 
च्चक्राख्यं रविहतशेषकं तु युक्तम्‌ । 
चैत्रा्यः पथगमुतः सद्ग्ध्नचक्राद्‌ 
दिग्युक्तादमरफलाधिमासयुक्तम्‌ ॥ ४ 
खतिध्नं गततिथियुडनिरग्रचक्रा- 
द्धगंगादयं पुथगमुतोऽन्धिषट्करब्येः- 


भष्यपाधिकारः ५ 


-रानीयैवं प्रतिज्ञा कृता थ. दवद्धनुः सज्यं करिष्यति तस्मै जानक कम्यां दास्या- 
मीति । एवं भगफता रामेण तत्‌ सज्जौकृत्य शकरीकृतमिति रामायणादौ प्रसि- 
द्धम) दढा गणा रज्जवो यस्मिन्‌ स चापौ हारश्च तेन कप्तत्‌ शोभमानम्‌ । 
सुतरां वतौ व्तलौ बहे यस्य तत्‌ तया । सुष्ट्‌ फं मोक्षादि त्त्‌ प्रकर्षेण 
ददातीति तथा । आत्ताऽद्ो कता नुमनुऽ्पर्य प्रभा यैत तत्‌ तवा 1 मनुष्यदेह्‌- 
घारःद्यधः ।। क ` 

अय करणपक्ने-ष्ै गणक करणं स्मर । तदेव विरोषणद्रारा स्तौति ईशं 
गरहक ततव्यतायां समर्थं यच्चापं मौधिकना सह परिभग्नं यस्मिन्‌ तत्‌ 1 अस्मिन्‌ 
करणे धनु्ज्ये न कृते दस्यर्थः । दा अगवतिताये गुणा हारश्च तैककत्‌ । 
सृष्ट्‌ वृत्तब्ाहू यस्मिन्‌ तत्‌ । अत्र ग्रन्थे वृत्तं साधितमस्तितत्‌ तु चन्द्रमन्दङेन्द्र, 
बाहुमुजः प्रषः 1 सुफल ग्रहणादि कानष्पं फल त्रंददाति त्फ. अद्या तुः 
संक: प्रभा छाया यस्मिन्‌ तत्‌ तथा । अत्र शंकूच्छायाप्राधनमपि कृतम :तीव्यथः । 
-रामं मनोरमं नाना छन्दोभिः ॥ २ । 

चन्द्रिका- {है गणक्‌ !} विष्णुरूप राम्‌ को तथा करणभ्को स्मरण 
करो | (राम के पक्ष मे) -- मौर्वी (प्रव्यञ्चा) के साथ शंक्रर.को धनुष को 
भद्ध करने वे दृढ़ सूत्र से निमित मालासे सुशोभित सुन्दर गोल 
भुजाओं से युक्त सुन्दर मोक्ष आदि फलो को देने वि मानव रूप धारी उस 
विष्णु स्वरूप राम क।( स्मरण करो। 

(करण पक्ष मे)--जीवा चाप आदि उच्च गणित को जहाँ भद्ध 
(निरस्त) कर दिया गया है तथा जो अपवत्तंन-गुण-भाज्य, सुन्दर छन्द एवं 
भुज-कोटि आदि से सुकशोभित्त (युक्त) है, उस सुन्दर फर (मन्द फल, लोघ्र 
फल आदि) को देने वाल्य शंकुच्छायारि \ज्ञान) से युक्त विष्णु सदुश 
करण पद्धति कास्मरणकरो।र२ 


प्रयोजनम्‌-- 
यद्यव्यकाषु रवः करणानि धोरा- 
स्तेषु ज्यकाधनुरपास्य न सिद्धिरस्मात्‌ । 
ज्याचापकभंरहितं सुलघुप्रकारं 
कतु ग्रहुप्रकरणं स्फुटमूद्यतोऽस्मि ।॥ ३ 


ष्णि णि भ जय 
* यहां करण शब्द का अभिप्राय करण पद्धतिसेहै। प्रायोगिक एवं इष्टः 
शकारम्भ ये गणना करने वलि सिद्धान्त ज्योतिष को करणः कहा गपा है । 


मघ्यमाधिकारः ७ 


अनाहैविथ्ुतमह्गंणो भवेद 
वारः स्याच्छरहतचक्रयुग्गणोम्जात्‌ ॥ ५ 

मल्ारिः--अथ प्रकृतं ग्रहाणां साधनं तदर्थमहु्गं णं व॒त्तद्वयेन साघयति । 
द चन्घीन्द्रोनितेति ! शको वतंमानः शाखिवाहनश्ञकयातवषंगणः । दचन्घीन्द्रोनितः 1 
द्रौ अन्धयश्चत्वारः इन्द्राद्चतुरदंश तद्धिचत्वारिशदधिकचतुदंशशतैः १४४२ 
उनितो वाजितः सन्‌ ग्रन्थारम्भमारभ्येष्टकालपर्यन्तं व्षसमृहः स्थात्‌ । स ईशैरे- 
कादशभिहु द्‌मक्तः एकस्थं यत्‌ फलं तजच्चक्राख्यं चक्रसंज्ञम्‌ । रविहतरोषकं 
रविभिई्ादशभिः १२ गुणितं यच्छेषकं तच्चैत्राचंश्चेचरसारम्येष्टकालपययन्तं गत 
मारसयुंक्तं तत्‌ पृथक्‌ स्थाप्यम्‌ ।॥ अमृतः पृथक्‌स्थात्‌ सद्‌ ग्न चक्रात्‌ । दुग्भ्यां हन्यते 
तत्‌ दृग््नम्‌ । एवं भरतं यच्चक्रं तेन सहितादिति । ततो दिग्भिः १ ण्युंतात्‌ । भसर- 
स्तरय्प्रिशदिभक्तात्‌ यत्‌ फलं तेऽधिभासास्तंस्तत्पु थकघ्थं युक्तं स मास्गणः 
स्यात्‌ ततस्तत्‌ खत्रिघ्नं तव्िशद्‌-३० गुणं सत्‌ शुद्ध प्रतिपदमारम्य यावय ईष्ट 
काख्पयन्तं तिथयो गतास्तामियुक्‌ युक्तं कायं ततस्तदेव निरग्रचक्रांगांश्षाढचं । 
निरश्रो निःखेषो नामेकस्थो यदचक्रस्यांगांशः षडषस्तेनाढय युक्त तत्‌ पृथक्‌ 
स्थाप्यम्‌ । अमुतः पु थक्‌स्थात्‌ अन्धिषट्‌ कलन्धैः । अन्धयश्चत्व(रः षट्कं षट्‌ । 
एभिश्चतुष्षष्टिमितं म॑क्तात्‌ ये ल्न्धा ऊनाहाः क्षयदिवसास्तंः पुथक्‌स्थं वियुतं 
हीनमहगंणोऽल्लां दिवसानां सावनानां गणः समूहो भवेत्‌ 1 सोऽहर्गण शरः 
पञ्चमिहुर्तं गुणितं यच्चक्रं तेन युक्‌ युक्तः सप्ततष्टो यच्छेषं तन्मितोऽभ्जात्‌ 
चन्द्रमारम्य गतस्तदिनजो वारःस्यात्‌ चन्न तहि सौऽहगंणो वाराथं संको निरेको 
वा कर्तग्यः । उक्तञ्च सिद्धान्तशिरोमणौ । 

अभीष्टवा राथमहर्गणद्चेत्‌ संको निरेकस्तिथयोऽपि तद्वदिति ॥ 

अत्रोपप्तिः- अत्र ग्रन्थारम्भे द्विचत्वारिश्दधिकवतुदशरत्तमितः १४४२ 
शक आसीत्‌ तच्छकमारम्य ग्रहानयनार्थमनेन रकेनेष्टशक ऊनीकृतो गतवर्षगणः 
सौरो जातः । यते उक्तम्‌ --- 

“'वर्षायन््त्‌युगदू वंकमतसौ रादिति'"2 

अतस्तेषां वेर्पाणां यासीकरणार्थमनुपातः-- यद्येकस्मिन्‌ वषे द्वादश सौर- 
मासाः भवन्ति तदेष्टसौरवषंः किमिति वर्णां द्रादशगुणो रूपं हरः तस्या- 
विङ्क तत्वान्नाश्चः । अत्र केचिन्मासानां चान्द्रत्वश्रममारोप्य 'दादक्लमासाः 


~ -------- ---. ---= ~ -~. 


१,सि.शि.म.म १(ञ. नि.) 
२. सि. दि. म.अ.३१(का.मा.) 


८ ग्रहुलाघवे 


संवत्सरः इति श्वृतेर्वेयधिकरण्यमापादयन्ते तदसत्‌ । अश्र मासाः सौरा एवं 
चान्द्रमासानां वषंमध्यं सावयवत्वमस्त्यतस्ते न पठिताः सौरास्तु सूर्यद्राददाराक्षि- 
भोगेन दादेव भवन्ति। अतः श्रुतिरियं समीचीना । एवं सेत्याचार्येण बहुषु 
वर्षेष्वहूर्गण बाहुल्यं स्थादतो लाघवार्थं रिष्यक्लेशभयाथं च प्रथमं वर्षाणि यानि 
तान्ये वंकादशतष्टानि कृतानि यल्लब्धं तस्य चक्रसंज्ञा कृता यच्छेषं तद्‌ द्ादशगुणितं 
यन्ासाः कृतास्ते सौरमासाः । चक्रादिमारमभ्येष्टशकचंत्रादिपयंन्तं जाताः । ततो 
यन्मासीयोऽहगंणः साध्यते चंश्रादिमारभ्य तन्मासावधि ये यातमासास्तचुक्ता- 
स्तन्मासावधि स्युरिति 1 अश्र क्रियावेषम्यं गणितदृष्टत्वं च दृश्यते। यतो 
वर्षाणि द्वादशगणितानि सौरमासाद्चेत्रादि यातमासाश्चान्द्राः । अन्यजात्योर्योग- 
सम्भवः । अत्र प्रथमं सौरमासेम्योऽचिमासानानीय सौरेषु संयोज्य चान्द्रा कार्या- 
दचैत्रादिचान्द्रा योज्याः अत्राचार्येण पूवंभिन्नजात्योर्योगः कृतः । तत्राधिकरोष- 
कमधिक जातमतोऽधिमासानयने रोषं त्यक्तमधिकत्वात्‌ । तद्यथा च॑त्रादिचान्द्राणां 
सौरीकरणाथमधिरेषं न्युनीकर्तव्यं यत एकस्मिन्‌ वषे सौरदिनेम्यश्चान्द्रदिनानि 
एकादशाधिकानि दृश्यन्ते । एवमधिमासाः सावयवा योज्याः अनुपातस्य सावयव- 
त्वात्‌ तच्राधिशेषं योज्यमत्रोनं तुल्ययोधंनणंयोर्नाशोऽतः सौरमासेम्योऽधिमासा- 


नयनम्‌ । यदि कत्पसौरमासैः ५१८४००००००० कल्पाधिमासाः 
१५९३३००००० लभ्यन्ते तदेष्टसौरमासः कि ? इति- 
यथा-- 


क. ठ. भा. १५९३३०००८.० 9 इ. सौ मा. 
क सौ. भा. ५१८४००००००० 
सत्र कलत्पाधिमासे+ कल्पसौरमासेषु भक्तेषु कन्धम्‌ २३२।१६।४ एभिर्मासैरेकोऽधि- 
मासः उक्त च ब्राह्यसिद्धान्ते- 
दार्धिशद्धिगंतमसिदिनैः षोडशभिस्तथा । 
घटिकानां चतुष्केण पतति द्यधिमासकः । इति 


इ, अ. भा. 


ततोऽनुपातः - यद भिर्मासं (३२।१६।४) रेकोऽधिमासस्तदेष्टः किम्‌ । अत्रा 
चार्येण सुखार्थं ॒हरस्थाने त्रयस्तरिशदेवगृहीता । एवं मासेभ्योऽपमरफलाधिमासयुक्त- 
भित्युक्तम्‌ । 

अत्र ग्रन्थारम्भे दशभिर्मासैरधिमासोऽभूदतो दिग्ुक्तादिति इदं स्थलं हरस्य 
स्थूलत्वात्‌ । तदनन्तरं साध्यते । एकं चक्र मेक।दशवर्षात्मिकं तद्‌द्रादशगुणितं जाता 
मासाः १३२ तेभ्यः कल्पा्यनुपातेन जाताः ४।२ त्रयस्त्रिश्द्‌ भक्तेषु जाता४ ४ । 
अत्रान्तरमेकचक्र द्वि मासतुल्यं ततोऽनुषातः । यद्यं कस्मिन्‌ चक्रे द्विमासतुल्यमन्तरं 


मध्यमाधिकारः ९, 


तदेष्टचक्रः किमतः सदुग््नचक्रादिति । एवमधिमासयुक्ताः सौ राष्चान्द्रमास- 
गणो जातः। ततो दिनीकरणा्थमनुपातः यद्यं कमासस्य त्रिशदिनानि तदेष्ट- 
मासैः किमतो मासास्त्रि्चदगुणाः 1 अत्र रूपहरस्याविकृतत्वान्नाश्चः । एवं जाता- 
ङच.नद्रदिवपास्ते तन्मासशुक्चप्रतिपदादिपरययन्तमभीष्टतिधिकरणार्थं गतितिथियुता 


इति ततोऽनुपातः । यदि कल्पचान्द्रैः (१६०२९९९००००००) कल्पदिनक्षया 
(२५०८२५४००००) लम्यम्ते तदेष्टचान्द्रैः किमिति । 


क. क्ष दि.>८द.चा. दि. 
कल्पचा. दि. 

कल्पदिनक्ष्यैः कल्पचान्द्रेषु भक्तेषु रग्धम्‌ ६३।५४।३२। यदयेभिदिनैरेको दिनक्षय- 
स्तदेष्टंः किमिति । अत्राचार्येण हरस्थाने चतुष्षपष्टिरेव धृता । एवं चतुष्षष्टि 
भक्ताश्चान्द्रा दिनक्नयाः स्युरिति । अत्रान्तरज्ञाने चेक्रषट्के वर्षाणि ६६ एषां 
दिनानि २४४८६ एकत्र ६२।५४।२३२ एभिरेकन्न च ६४एभिभक्तं खन्धे फले ३८३ । 
३८२ अवयवस्य त्यागः । फलान्तरम्‌ १ । तेनानुपातः--यदि षड्भिश्चक्ररेक- 
दिनतुल्यमन्तरं तदेष्ट्चक्रैः किमित्यतो निरग्रचक्राद्खांश्ञयुक्‌ कार्यमित्युपपन्नम्‌ । 
एवं दिनक्षयाश्चान्द्रेष ऊनाकार्या यतो वर्षमध्ये चान्द्रदिवसेभ्यः सावनदिनानि 
पञ्चदिनाल्पकानि दुश्यन्तेऽत उक्तमृनाहैवियुतमिति । भत्र दिनक्षयाः सावयवा 
ग्राह्यास्ते न गृहीताः । यतः सावयवदिनक्षयोनचान्द्रेषु कतेष्वहगणस्तिथ्यन्त 
कालीनः स्यात्‌ गततिथियुक्तत्वात्‌ ग्रहाः सूर्योदयिका कर्तन्याः एवं तिथ्यन्त- 
सूर्योदययोमंध्ये दिनक्षयल्ञेषमेव तत्‌ तेषु योज्यम्‌ । यतस्तिथ्यन्तादग्रे सूर्योदयः । 
पूवं वियोज्यमधुना योज्यं तुल्यत्वात्‌ तयोर्नाशः ॥ उक्तं च सिद्धान्तदिरोमणौ-- 

तिथ्यन्तसूर्योदययोस्तु मध्ये सदेव तिष्ठत्यवमावरेषम्‌ । 

त्यक्त न तेनोदयकालिकः स्यात्‌ तिथ्यन्तकाञे चुगणोऽन्यथाऽतः । † इति 

एवं सावनोऽहर्गंणो जातः सप्ततष्टः सन्नन्जाद्रारः स्यात्‌ यतो ग्रन्थादो 
सोमवार आसीत्‌ । अत्र चक्रदिनानि ८०१६ सक्षतष्टानि दोषम्‌ ५। तच्रानुपातः 
यद्येकचक्रे पञ्चवारा अन्तरं तदेष्टचक्रः किमित्यत: क्षरहतचक्रयुगिति । ४-५ 

चन्दिका-अभीष्ट कान्द की संख्या मे १४४२ घटाकर शेष मे ११ 
काभागदेनेसेप्राप्तन्धि चक्रकहखातीहै। कश्ेषकोश्र्से गुणा कर 
(गुणनफल मे) चेत्रादि गतमास संख्या को जोड़कर दो स्थानों मे रखें, एक 
स्थान में द्विगणितचक्र भौर १० जोड़कर ३े३का भाग देकर कन्धितुल्य 
अधिमास द्वितीय स्थान वाली संख्याम जोड़कर (योगफल को) ३० से 
गुणा कर (गृणनफल मे) वतंमान माप्त की शुक्छ प्रतिपदा से गततिथि 


==द्‌. क्ष. दि. 


१. सशि. गो. स. १८ 


१० ग्रहुलाघवे 


संख्या जोड़कर उसमे चक्र का षष्ठां (चक्रमे ६काभाग देकर केवल 
कन्ध) युक्तकर पूनः दो स्थानौ मे रखे । एकं स्थानम ६४्का भाग देकर 
कन्धितुल्य क्षयदिन प्रथम स्थानवालो संख्या मे घटाने से शोष अभीष्ट 
सूर्योदयकालिक अहगंण होगा । 
दिन काज्ञान करनेके किए चक्रको पांचसे गृणाकर गुणनफरको 
अहर्गण मे जोड़कर सात से भाग देने पर शेष संख्या तुल्य चन्द्रादि गतं 
वार होगा । ( अर्थात्‌ यदिन्शेष होतो गत रवि वतमान सोम एवं 
रोष हो तो गत सोम वतंमान मंगर आदि) । ४-५ 
विशेष - कदाचित्‌ एसी भौ स्थिति आ सकती है कि गहुगंणसे वार 
निकालने पर अभीष्ट दिनसे अगलाया पिचछटलावार आ जाय इस 
अवस्था मे अहगंणमे १ घटालं अथवा १जोडक्तो शुद्ध अह्गंण हो 
जायेगा । 
उदाहरण- संवत्‌ २०३१ रके १८९६ कातिक रुक्ल १५ शूक्रवार को 
अह्गं ग साधन करना है । 
राक १८९६-१४.४२ = ४५४ शेष 
४५४ ११ ) ४५४४ १ 


४५४ = १९ = ए छ 
रन्धि ४१ = चक्र १४ 
राध ३>८ १२३६ ह 
३६-{-७ गत मास = ४३ ३ 


४२कोदोस्थानोमे रखा एक स्थान में २चक्र + १० जोड़कर योगफ 
मे २३ का भाग दिया) 
४१९२ = ८२-- १० == ९२ + ४२३ = १३५ 
३२३) १३५४ अधिमास 
१३२ 
४ 
लन्वि ४ अधिमास को द्वितीय स्थानस्थित ४३ में जोडा) 


४२ 
+ ४ अधिभास 


ण 


४७ 
>९३० (खव्रिघ्नं) 


मघ्यमाधिकारः ११ 


१४१० 
+ १४ गततिधि 
१४२४ 
६) ४१६ स्वल्पान्तरतः ७ चक्र ४१मेदकराभाम 
_३६. देकर रुन्धि को जोड़ा । 
५ 
१४२४ 
+ ७ 
१४३६ 


एकस्थानमे १४२१ योगफठमें दथ काभाग देकर छन्वि क्षयदिनको 
द्वितीय स्थानें १४३१ से घटाया 


६४१ १४३१(२२ क्षयदिन्‌ 
९२८ 


षह 
१२८ 
९३ 
१४३१ 
-२२ -- क्षयदिन 
१४०९ == अहू्गण 
वार जानदहैतु - चक्र ४१को५ पे गुणा कर गुणनफल को भअहूर्गण १४०९ 
मे जोड़कर ७ से भाग दिया--५१ १९५ == २०५ 
भहूर्गण {४०९ + २०५ = १६१४ 





७)१६१४(२३० 
१४ 
२१ 
२१ 
>€ ४ शोष 


अतः चन्द्रादि गणना से गत गुरुवार वर्तमान शुक्रवार 
वार गणना शुद्ध होने से अहर्गण १४०९ शुद्ध है । 
प्रहाणा न्रुवा-- 
खविधुतानभवास्तरणेध्रुवः खमनला रसवाधंय ईङइवराः । 
सितरूचो भमुखोऽथ खगा यमौ शर कृता गदितो विधितुङ्कजः ॥ ६ ५ 


१२ ग्रहलाधवे 


शला द्वौ खक्षरा अगो; क्षितिभुवो भृतत्तवदन्ता विदः । 
केन्द्रस्याव्िगुणोडवः सुरगुरोः खं षड्यमा वस्विलाः ॥ 
्रव्केन्द्रस्य भगोः कुरशक्रयमला रादयादिकोऽथो शनेः 
दोाः पञ्चमुवो यमान्घय इमेऽथ क्षेपकः कथ्यते ॥ ७ ॥। 
मल्लारिः-- एवमहर्गणं प्रसाध्येदानीं श्लोकद्वयेन धरवानाह । खविध्विति । 
तरणेः सयस्य भमुखः 1 भानि राशयो मुखे यस्य स तथा राश्या्योऽयं धरुवः स्यात्‌ 
भयं कः । खविधुतान्‌भवाः । खं शून्यम्‌० । विधुरेकः १ तान एकोन पञ्चाशत्‌ ४९ । 
भवा एकादश ११। स्ितस्वः सिता शुभ्रा रग्दी्तियंस्य तस्य चन्द्रस्य ध्रृवः। 
खं शून्यम्‌° । अनलास्त्रयः ३। रसवार्द्धयो रसाः षट्‌ वार्धयज््चत्वारः एवं षट्‌- 
चत्वारिशत्‌ ४६ । ईश्वरा एकादश ११ अत्र सर्वत्रांकानां वामतो गत्तिरिति न्यायः] 
विधृतुङ्गजो विधोशचन्द्रस्य यत्‌ तुद्धं मन्दोच्चं तस्य ध्रुवो गदित उक्तः । 


खगा ग्रहाः नवर । यमौदह्ौ २1 श्रकृताः शराः पञ्च कृताश्चत्वार एवं पञ्च 
चत्वारिजत्‌ ४५ ॥ 


रला दवाविति । अगो राहोर्घवः। हखाः कुलाचलाः सप्त ७1 द्रौ र 
प्रसिद्धो । खशरा खशन्यं, शराः पञ्च एवं पञ्चाशत्‌ ५० । क्लित्िभुवः िते- 
भंवतीति क्षित्तमृस्तस्य मङ्खलस्यायं ध्रुवः । भूरेकः १ तत्त्वानि पञ्चविंशतिः 
२५ । दन्ता द ात्रिशत्‌ ३२ । विदो बुधध्य केन्द्रस्यायं ध्रुवः । अब्धयश्चार्‌ः ४। 
गुणास्त्रयः ३। उड्नि नक्षत्राणि सप्तविक्षतिः २७ । सुराणां देवतानां गुरोब ह्‌- 
स्पतेर्रुवः । खं शून्यम्‌० । षड्यमाः षटप्रसिद्धा यमौ द्वौ एवं षडविश्चतिः २६ 1 
वस्विला वसवोऽष्टौ इला पृथ्वी एका एवमष्टादश १८ । भृगोः शुक्रस्य यद्द्रा- 
क्केन्द्रं शीघ्रकेन्द्रं तस्य ध्रवः। कुरेकः १। शाक्रार्चतुदंश १४। यमलौदढौ २। 
रानेरपि राद्याद्योऽयं घ्रुवः । शंलाः सप्त ७। पञ्चभुवः पञ्चदश १५। 
यमान्धयो यमौ दौ अन्धयश्चत्वार एवं द्विचत्वारिशत्‌ ४२। एते ग्रहध्रुवा 
राश्याद्याः ।॥ ६-७ 


अत्रोपपत्तिः-आत्राचार्येण एकादशतष्टानि वर्षाणि कृत्वाऽहगंणानयनं 
कृतम्‌ । एवं योऽहूर्गणः स॒ एकादश वषंमध्यस्थ श्व । तदुत्पन्ना ये ग्रहास्ते 
एकादशवपमध्य एव भवन्ति । अतो यावन्ति चक्राणि युक्तानि तेषां ग्रहानानीय 
एतेषु प्रक्ञिप्य ग्रन्यशक्रादिमारम्य ग्रहाः स्युरिति । एवमाचार्येण एकमितचक्रा- 
देकादशवर्बात्मकाद्‌ ग्रहाः साधितास्ते यथा कल्पसतौरवषः कल्पग्रहुभगणास्त- 
दैकादशवर्षेः कतीती अत्रागतानां भगणानां प्रयोजनामावाद्राश्याद्या एव गृही- 


मध्यमाधिकारः १६ 


तास्तेषां ध्रूवसंज्ञा कृता स्थिरत्वात्‌ । अथवेकादशवर्षाणामहगंणं प्रसाध्य पूर्व 
करणोक्तरीत्या ग्रहाः साधितास्ते ग्रहेषु योज्याः अच्राचार्येण द्रादशरारिशुद्धान्‌ 
कृत्वा ध्रुवसंज्ञा कृता । अतो दिनगणागतग्रहेषु धरुवा वियोज्या इत्यग्रे उक्तमस्ति 
चक्रशुद्धत्ववात्‌ । अत्र बालावर्ोधार्थं धृलीकमणा एकादशवर्षाभामयमहर्गणः 
४०१६ । अतोऽयमहूर्गणो ` विश्वगुणस्विखांकेभक्त' इत्यादिना जातो मध्यमो- 
रविः ११। २८।१०।४९ । अयं दादशशुद्धो जातो रविध्रवः ०। १। ४९।११। 
एवं सवेषां ग्रहाणां ध्रुवा उत्या्या ७ 

चन्व्रिका- सूयं का ध्रुवा ख==०, विधु = ९, तान == ४९ भव == ११। 
चन्द्रमा का खे = ०, अनल = ३, रसवाधेय = ४६, ईरव र = ११ । चन्द्रोच्च 
का भमुखा = राश्यादिं खग==९, यम =२, शरकरता = ४५, राहुका 
दो --७, द्वौ = २. खररा ५०, । भौमक्रा भ्‌ = १, तत्तव = २५, दन्ता 
=२२ । बुध केन्द्र का अन्धि=४, गुण = ३, उडु = २७ । बृहति का ख = 
०, षड़यमा = २६, वस्विला = १८ । शुक्रशीघ्केन्द्र का कु = १, शक्र = १४, 
यमला = २ शनि का चेल-=७, पञ्चमुव = १५, यमान्धय = ४२,ये 
राश्यादि ध्रुव केहे गये हँ । इसके अनन्तर क्षेपक कहू रहा हूं । ६,७ 


सूर्यादि ग्रहों कं राद्यादि ध्रुवा 


सर्य ०।१।४९।११ नुध केन्द्र ४।३।२७1० 
चन्द्र ०।३।४६।११ गुर ०।२६।१८।० 
चन्द्रोच्च ९।२।४५।० रक्रकेन्द्र १।१४।२।० 
राहु ७।२।५०।० शनि ७।१५।४२।० 
भौम १।२५।३२।० 

क्षिपका :-- 


रुद्रा गोभ्नाः कुवेदास्तपन इह विधौ शिन गोभुवः षट्‌ । 
तुङगेऽक्नात्यष्ट देवास्तमासि खमुडवोऽष्टाग्नयोऽथो महीजे 1 
दिक्शखाष्टौ ज्ञकेन्द्रे विभकलनवभं पूजितेऽद्रयर्विभूषाः । 
शौक्र केन्द्रे गृहाद्योऽद्रिनखनवशनौ गोतिथिस्वगंतुल्यः॥८ 
मत्लारिः-एवं पघ्रुवानुक््वा क्षेपकमाह । अथेति । शब्दोऽनन्तरवाची 
घ्रुवकथनानन्तरं क्षेपकः कथ्यत इत्यथ । रद्रा इति । तपने सूर्ये (तपनः सविता 
रवि 'रित्यभिघानात्‌ । गृहायो गृहाणि राय आदौ यस्येति राश्याद्यः क्षेपः स्यात्‌ 
शुद्राएकादश्च ११। गोन्जा गावो नव अब्जइचन्द्र एक एवमेकोन विशतिः १९ । 


१४ ग्रहलाघवें 


कवेदाः कुरेकः वेदाइ्चत्वारः एवमेकचत्वारिशत्‌ ४१ इति । विघौ चन्द्रे शूलिन 
एकादज्ञ ११ । गोभुव एकोनविशतिः १९ । षट्‌ ६ प्रसिद्धाः । तुङ्धे चन्द्रमन्दोच्चै- 
ऽक्षाः पञ्च ५। अत्यष्टयः सप्तदशा १७। देवाप्त्रयस्त्रिशत्‌ ३२ । तमसि 
राहौ खं शून्यम्‌ । उडवः सक्तविशतिः २७ । अष्टाग्नयोष्टात्रिक्षत्‌ ३८ । अथ 
राहक्षेपकथनानन्तरम्‌ महीजे भौमे दिशो दश १०। रोलाः सप्त ७। अष्टौ ८ 
प्रसिद्धा । जकेन्द्रे बुधक्षीध्रकेन्द्रे विभक्लनवभं विगता भक्लाः ससविश्चतिकला 
यस्मात्‌ एवं भूतं यन्नवभं राहिनवक तेन रारयष्टक & । एकोनत्रिरद्‌भामाः २९ 
त्रयस्त्रिंशत्‌ कलाः ३३ चेति 1 पृजिते गरौ अद्रयः सप्त। अदिवनौ दौ र भृषाः 
पोडल १६। शौक्र शुकस्येदं तस्मिन्‌ शुक्रकेनद्रऽद्रिनखनव। अद्रयः सप्त ७ 
नखा विशतिः २० । नवप्रसिद्धाः ९। शनौ गोतिथिस्व्गतुत्यः । गावो नव ९। 
तिथयः पञ्चदश १५ । स्वर्गाः एकविशतिः २१ 1 एभिस्तुल्यः शनिक्षेपकः स्यात्‌ । 
अच्र गृहाययमिति सरवंत्र सम्बध्यते ॥ ८ 


अत्रोपपत्तिः - 

येऽत्र ग्रहास्ते ्र॑धारम्भमारभ्य जाता अतो प्रंथारम्भग्रहा अत्र॒ योज्यास्ते 
कत्पादतः स्युरिति । तत्साधनं यथा । द्रचन्धीन्द्रतुल्यं १४४२ शकं प्रकल्प्य 
चं श्रशुक्लप्रतिपदि सूर्योदयिका मध्यमा ग्रहाः यस्मायस्मात्‌ पक्नाये ये घटन्ते तत्तद. 
क्षेम्यस्ते ते साधितास्तेणं क्षेपसज्ञा कृता । यतः ज्िप्यते अक्तौ क्षेपः । अस्य ग्रहेषु 
क्षेप्यत्वात्‌ क्षेरत्वम्‌ ॥ ८ 

चन्द्रिका--तपन (सूय) का राश्यादि क्षेपक रुद्र = ११, गोढ्जा = १९, 
कुवेदा ४१ । चन्द्रमा का लिन्‌ = ११, गोभुव = १९, षट्‌ == ६ । चन्द्रोच्च 
का अक्ष ==५, अत्यष्टि = १७, देवाः = ३३ । राहुका ख = ०, उड व == २७, 
अष्टाग्नय = ३८ । महीज, (भौम) का दिक्‌ = १० शला = ७, अष्टौ = ८ 
नुधङेन्द्र का विभकनखव्रभ == २७ कला रदित ९ राहि अर्थात्‌ ९।९।०-- 
०।०।२७== ८ २९।३३ । पूजित (गुरु) का अद्रि७, आदिव ==२ भप = १६, 
शुक्रकेन्द्रका राद्यादि अद्रि--७, नख = २०. नव == ९, शनिका क्षेपक 
गो = ९, तिथि = १५, स्वगं = २१ केतुल्य होत। है । ८ 


सूर्यादि ग्रहों के राइयादि क्षेपक -- 


सूयं ११।१९४१1० राहु ०1२७१३८० 
चन्द्रमा ११।१९।६।० भौम १०।७।८।० 
चन्द्रोच्च ५।१७१३३।० सुध केन्द्र ८।२९।३३।० 


मघ्यमाधिकारः १५ 


गुर ७।२।१६1० दनि ९।१५।२१।० 
शुक्र के^द्र ७।२०।९।० 


अह्ग णोत्पन्नग्रहे संस्कारविधिः-- 
दिनगणभवचेटश्चक्रनिघ्नध्रुबोनो 
दिवसक्रदुदये स्वक्षेपयुडः मध्यमः स्यात्‌ । 
निज-निजपुररेखान्तः स्थिताद्‌ योजनोधाद्‌ । 
रसल्वमितलिप्ताः स्वणंमिन्दौ परे प्राक्‌ ॥ ९ 
मल्लारिः . एवं क्षेपानुक्तवा क्रमग्राप्तादहगंणात्‌ मध्यमग्रहानयनमाह । 
दिनगणेति । दिनगणादहर्गणोद्धव उत्पन्नो वक्ष्यमाणरीत्याऽहर्गणात्‌ साधितो 
ग्रहर्चक्रेण निघ्नो गुणितो यो धुवस्तेन ऊनः स्वस्य क्षेपो य उक्तस्तेन युक्तो 
दिवसकृतः सूर्यस्य उदये मध्यमः स्यात्‌ । लङ्कायां मध्यमाकदियापन्नसमये 
मध्यमो ग्रहः स्याद्‌ हत्यभिघ्रायः। 
उक्तं च सिद्धान्तशिरोमणौ -- 
दशरिरः पुरि मध्यमभास्करे क्षितिजप्तन्निधिगे सति मध्यमः ` । 
अयमृदयान्तर संस्कृतः सन्‌ लद्धुामध्यमार्कोदयकाकिको भवति उदयान्तरं 
तु स्वल्पत्वादाचार्येण त्यक्तमतो न दोषः । तस्य स्वदेशीयकरणा्थं संस्का- 
रमाह । निजनिजेति । निजं निजं स्वीयं स्वीयं यत्‌ पुरं ग्रहकर्तृ्गणकस्य यन्गरं 
तच्च रेखा च अनयोरन्तमध्ये स्थितो वर्तमानो यो योजनौघो योजनानां समूहः 
तस्माद्यो रसः षड्मिख्वस्तेन मिता या लिप्ता यत्‌ कलादि द्विष्ठं फलं तदिन्दौ 
चन्द्रे स्वं धनमृणं हनं च कायम्‌ । कस्मिन्‌ सति परे श्राक्‌ रेखातः स्वदेशे 
सति परिचमायां धनं पवंस्यामृ णमित्यथंः ॥ 
उपपत्तिः - अत्र पूर्वाधस्योपपत्तिः पूवंमेवोकंताऽस्ति। उत्तरार्भरतपत्तियंथा । 
यः कृतो लङ्कायां मध्यमो ग्रहः स स्वदेशीयः कर्तब्योऽतो देशान्तरं देयम्‌ । 
तहंशान्तरं द्विविधम्‌ । पूर्वापरं याम्योत्तरं च । याम्योत्तरं यत्‌ तच्चरं तच्च 
रेखार्कोदयलद्भार्कोदययोरन्तरं तदग्रेप्रतिपादयिष्यत्ति पूर्वापरं रेखार्कोदयस्वपुरार्को 
दयोरन्तरम्‌ । रेखा मध्यरेखा भुव इतिरोषः । 
उक्तं सिद्धान्तरिरोमणो- 
यल्लङ्कोज्जयिनी पुरोपरि कुरुक्षेघ्रादिदेशान्‌ स्पुजञत्‌ । 
सूरं मेरुगतं वुर्धनिगदिता सा मधघ्यरेखा भुवः ।।२ इति 


१. सि. लि. ग. म. अ. ४ (ग्रहा०) 
२.सि. जिग. म. अ. २ (भू० पर) 


१६ ग्रहछाघवे 


अत्र रेखार्कोदयात्‌ स्वार्कोदय कदा भविष्यतीति ज्ञानाथमुपायः। लङ्काया- 
मृक्तः परमो भृपरिधिः सप्तारिनन्दान्धितुल्यः ४९६७ । मेरौ परिधेरभावः। 
मघ्येऽनुपातः 1 स यथा लङ्कुायामक्षज्याभावाल्लम्बञ्या परमात्रिज्या तुल्या । 
अतो यदि त्रिज्या तुल्यया सम्बज्ययाऽयमुक्तो भृपरिधिस्तदेष्टलम्बज्यया किमिति 
लम्बज्यायाः सर्वत्र त्रिज्यातोऽल्पत्वादुक्तात्‌ सवत्रोन एव भूपरिधिः स्यात्‌ । अतः 
सुखार्थमष्टचत्वारिशच्छतमितो गृहीतः ४८०० । ततोऽनुपात्तः यचेभिः परिचि- 
योजनं: ४८०० ग्रहो गतिकलाः क्रामति तदेष्टः रेखा स्वदेशान्तरयोजनैः किमिति 
अत्रायं सस्काररचन्द्रस्यैव कृतः । अन्येषां गतेरत्पत्वान्‌ न कृतः । स्वत्पान्तरत्वात्‌ 
कर्मगौरवभयात्‌ त्यक्तमतो न दोषाय ! 
उक्तं च सिद्धान्तरशिरोमणौ- 

स्वल्पान्तरत्वादबहूपयोगात्‌ प्रसिद्धभावाच्च बहुप्रयासात्‌ । 
ग्रन्थस्य तज्जं गरुताभयेन यस्त्यज्यतेऽ्थो न स दृषणाय” ॥ इति ॥ 

अतो रेखा स्वदेशान्तरयोजनानां गतिः ७९० गुणः । परिधिः ४८०० हुरः 
गुणहरौ गुणेनापवतितौ जातो हरः षट, । अत उक्तं निज निजेत्यादिः । 

धनर्णोपपत्तियंथा--ये ग्रहास्ते मध्यरेखोदयजाः । मध्यरेखातः पूवंदेशे 
रेखोदयात्‌ धूढं सूर्योदयोऽत ऋणं क्रियते रेखायाः परिचमदेशे स्थितानां रेखो- 
दयान्तरं स्वार्कोदियऽतो घनं क्रियते इत्युपपन्नम्‌ । ९ 

चन्द्रिका -चक्रगुणित ( अपने-अपने ) प्तुवक को अहगंणोत्पन्न ग्रह॒ से 
घटाकर शेष परे (अपने अपने) क्षेपक जोड़ने से सूर्योदय कालिक मध्यम 
ग्रह होते है। 

अपने-अपने नगर के रेखान्तर योजनको ६से भागदेकर रन्धि 
तुल्य करादि फर को, स्वदेश रेखादेश से पर्चिम रहने पर मध्यमचन्द्र 
मे जोडने तथा प्वं होने पर घटाने से स्वदेशीय उदयकालिक मध्यमचन्द्र 
होता है । ९ 

विेषः- किसी स्थान के देशान्तर योजन को जानना भभीष्टहोतो 
मानचित्र से अभीष्टस्थान का रेखांश (देशान्तर) ज्ञात कर रेखा देश से 
अभीष्ट रेखां का अन्तर करर फिर, ३६०० में भूपरिधियोजन तो भभीष्ट 


रेखांशान्तर मे क्या? इस अनुपातसे देशान्तर योजनकाज्ञन दहो 
जाएगा । 





१. सि. शि. भ्र. व. छा. १६ 


मघ्यमाधिकारः १७ 


भारतीय ज्योतिष में रेखादेश अर्थात ° देशान्तर उज्जेन कुरुक्षेत्र एवं 
सूमेरु को स्पशं करने वाली रेखा को माना गयादहै। सारौ ग्रहगणना 
लंकाके आधारपरकी गरहौ तथा देशान्तर आदि स्थानीय संस्कार 
उज्जेन से किये गये हँ । उज्जैन से क्रिसी भी स्थान के देलान्तर योजन का 
ज्ञान अनुपात द्वारा किया जाता था। यथा ३६० अंशो मे भूपरिधधियोजन 
तो देशान्तरं में क्या ? लन्धि देशान्तर योजन । 

प्राचीन मतानुसार भृपरिधिका मान ४९६७ योजन बतलाया गया 
है किन्तु प्रत्येक स्थानका देशान्तर ज्ञान सुगम नहींहै। भतः इस 
परिधि के आधार पर भाधुनिक देशान्तर द्वारा अनुपात करने से शुद्ध 
फक नहीं प्राप्त होगा । 

आधुनिक देशान्तयों के आधार पर उज्जेन के देशान्तर एवं अभीष्ट 
स्थान के देशान्तर का अन्तर ज्ञात कर आधुनिक भूर्पारधि ह्यारा अनुपात 
करने से सूक्ष्म एवं शुद्ध फल प्राप्त होगा । 

माधुनिक मतानुसार पृथ्वी का भूमध्य रेखीय ग्यास्ष १२७५६ किरो- 
मोटर तथा परिधि ४००९० किलोमीटर है । 

घ्रुवीय व्यास १२७१३ करि° मी° तथा परिधि ३९९५५ कि मीण है । 
अतः अनुपात -- भृपरिधि > देशान्तरांश 
२६० 
भृपरिधि == ४००९० कारी गौर उज्जेन का रेखांशान्तर = ७।१४ 
४०७९० ८ ७।९ ८ 


== देशान्तरयोजन 


् = ८2०५ “ {र 
अत व १ देशान्तर 
१.६ कि. मी. = १ मील 
८ मी. = १ योजन 
अतः 


८०५.१ कि. मी. ==५०२३.१८ मील 

५०३१८ मीर = ६२.९ योजन 

उज्जेन ओर काशी का देशांतर ६२९ योजन हुमा यह्‌ आधुनिक मान 
भास्क राचार्यादि प्राचोन आचार्यो के मान क आसन्न हीह । केवल ११ 
योजन का अन्तर है। 


दूसीप्रकार किसी भी स्थानक्रा देशान्तरयोजन ज्ञातं किया जा 


सकता हे । 
२ 


१८ ग्रहुखाधवें 


रविबुघशुक्राणां साधनम्‌ -- 
स्वखनगखवहीनो च॒त्रजोऽकंलशुक्राः 
खतिधिहूतगणोनो किप्निकास्वंशकाद्याः 
गणमनुहतिरिन्दुः स्वाद्रिभूभागहीनः 
खमनुहूतगणोनो लिप्निकास्वंशपूर्वैः ॥ १० 


मल्लारिः--भथ सुयंबुधशुक्रचन्दरानेकवृत्तेन सावयति स्वखनगेति ! स्वध्याह्‌- 
गणस्यैव खनगल्वः सम्तत्यंशः । पैन हीनो चुत्रजोऽहणः स॒ एवाकंज्शुक्रा 
सूयतुघशुक्रा भागाद्याः स्युस्तेषामयं संस्कारो छिप्िकासु कलासु खतियि हृतेन गणेन 
साधंशतभक्ताहर्गणेन ऊन इति एतदुक्तं भवति अहर्गणः सप्तत्या ७० भाज्यः 
फर्‌ भागा यच्छेषं तत्‌ षष्ट्या ६० गुण्यं पुनः समतया ७० भाज्यं फलं कलाः 
पुनय॑च्छेष तत्‌ षष्ठिगुणं सप्तति ७० भक्तं फलं विकलाः । ततोऽहर्गणः सार्धशतेन 
१५० भाज्या फलं कलाः शेषं पष््टिगुणं साधंशत १५० भक्तं फलं विकलाः । 
तेन॒ कलादिना तत्फलं हीनं सत्‌ भागाद्या । मघ्यमाःसूंबुधशुक्राः स्युरिति । 
अत्र विकलाः षष्टया भाज्याः फलमूरध्वकलासु योज्यं कला अपि षष्टिभक्ताः 
फलं भागेषु योज्यं भागार््रशदभक्ता फलं राशयः स्युः 1 ततस्तत्र चक्रहतः 
स्वध्रुवको हीनः कार्यः क्षेपः संयोज्यः। ततध्तद्‌ राशयो टदवादशभक्तः भगणाः 
स्युस्ते प्रयोजनाभावात्‌ स्याज्याः । रविराह्वोभर्गणाः ग्रहणे परवंशानयनायोप- 
युक्ताः सन्त्यतस्तें स्थाप्या 1 

अत्रोपपत्तिः---अत्र पूर्वगत्या ग्रहसाघनं कर्तव्यम्‌ । तत्रपूर्वगतिज्ञानोषायो 
यथा पूवं ब्रह्मणा चैत्रादौ रविवासरे भवचक्र क्रान्तिमण्डङ्ञादिवृ चाद्यं प्रवहानिले 
परदिचमगतौ क्षिप्तं तत्र ग्रहाः प्रवहानिल्वशेन भचक्तं॑क्रामयित्वा भिन्न- 
भिन्नया पुर्वगत्या स्वस्थानात्‌ क्रचित्‌ किचिच्चकिताः। एवे प्रत्यहं विरोक््यमाने 
ग्रहाणां पू्वगतिभिन्ता-मिन्ना दृष्टा अत्र ग्रहानयने कश्चिदुपायो न दुरयतं प्रतिदिनं 
विलक्षणगतित्वात्‌ । तत्रत्यं ब्रह्मणा विरचितं गोलं चक्रविकरलाद्धुितं कृत्वा 
भ्रत्य ग्रहा वेधिता: । एवमद्यतनश्वस्तनयोरन्तरं ग्रहस्य गतिः । एवं ग्रहभगण- 
भोगपर्यन्तं प्रहणगतिरानीय तासु मघ्ये या परमाधिका गतिर्या च परमात्पा तयो. 
योगाधं मघ्यगतिरेवाङ्गाङृता । सा दुःसाध्या सूक्ष्माणां विकलाकोट्‌्यंशादीना- 
यखक्ष्त्वात्‌ । सा स्मूला जाता सैवाङ्खोकृता । एवं कियत्यपि काले जाते वसिष्ठा- 
दिविलोक्यमाने गतेरन्तरं दृष्टम्‌ । एवमन्यैरपि । आयंभटङ्रह्यगुप्तमास्करा्च- 


मध्याधिकारः १९ 


स्तस्य॑व युक्त्या गतयो भिन्ना दु ्टास्ताम्यो भगणा आपि साधितास्ते यथा । यये 
कदिनेनंतावती गतिस्तदा कल्पकुदिनः किमिति एवं सिद्धान्ते ग्रहमगणाः भिन्ता- 
भिन्नाः पाठपठितास्ते तत्कालमेव घटन्ते स्म । इदानीं महुदन्तरिता दृश्यन्ते । 
उक्तं च वराहिसंहितायाम्‌- 

उक्ताभावे विकृतिः प्रत्यक्षपरीक्षणैग्यं विततरिति । 
वसिष्ठसिद्धान्तेऽप-- 

इत्थं भाण्डग्य संक्षपादुक्तं शास्त्रं मयोदितम्‌ । 

विसखस्ती रविचन्द्राद्भंविष्यति युगे युगे ॥ 

युगे युगे महति काले विललंसनं विल्स्तिः शिथिलत्वमिति यावत्‌ । 

उक्तश्च सूर्यसिद्धान्ते 

शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्‌ पूवं प्राह भास्करः । 

युगानां परिवर्तन कालमेदोऽत्र केवलम्‌ ॥ 
ब्राहासिदढधान्तेऽपि-- 

घ्ानग्रहोपदेशाद्‌ बीजं ज्ञात्वा सुदेवज्ञः। 

तत्संस्छृतग्रहेभ्यः कत्तव्यौ नि्णंयादेक्लौ ।। इति ॥ 


अमुनाऽऽचार्येण नलिकाबन्धेन प्रहानावेध्य ग्रहान्तराणि रक्षितानि । तद्यथा 
सौरपक्षीयः सूयंश्चन्द्रोच्चं च । नवकरान्यूनः सौरपक्नीयश्चन्द्रो घटते । अस्मिन्‌ 
के एते दृगोचराः । एवमग्रेऽपि भविष्यन्महागणकंनंलिकाबन्धादिना ग्रहुवेधं 
कृत्वाऽन्तराणि लक्षयित्वा ग्रहुकरणानि कार्याणीर्यग्रे ग्रन्यसमातस्ावाचार्येणाप्यु- 
्तमस्ति। अतोऽस्मिन्‌ कालेऽत्रत्यां एव ग्रहा घटन्ते । एवमनया वतंमानघटनया 
ज्ञाता मध्यमा रविगतिर्भागाद्या ०[५९।८।३४।१७।९ तत्रानुपातः । यद्येकदिने- 
नैतावती गतिस्तदाहर्गणेन किमिति अहर्गणस्य गतिर्गुणः अत्र॒ खण्डगुणनाथं 
गतेरेकं खण्डं गस्यपेक्षया अधिक गृहीतम्‌ । रविगतिः = ०।५९।८।३४।१७।९ 
अत्रैको धृततः। अन्तरम्‌ ०।०।५१।२५।४२।५१ अनेनाहर्गणो गण्यः रूपगुणा- 
इर्गणाच्छोध्यः । अत्र॒ कमगौरवम्‌ । लाघवाथंमिदम्‌ ०।०।५१।२५।४२।५१ 
यथेकसंख्यं स्यात्‌ तथा केनापि गुण्यं एवं सप्तति गुणिते ऊर्ध्वं रूपं निनज्ञेषं 
भवति । अतो गणो रूपगुणः सप्ततिभक्तः फलेन रूपगरणोऽहगंभो हीनः कार्यः 
यतोऽधिकं गृहीतम्‌ । उभयत्र रूपतुल्यस्य गुणस्याविकृतत्वान्नाद्चः । एवं स्व- 
खनगल्वहीनं इति । अथ गते रवेक्षयाऽधिक गुहीतम्‌ यत्‌ खण्डम्‌ ००1०।२४।०० । 





१. स्‌. नि, १.९ 


२० ग्रहुकाधवे 


अनेन गणो गण्यः फलं रवौ हीनं कायमधिकत्वात्‌ । अत्रापि लाघवार्थमिदं 
खतिथिभिः १५० सवणितं जातम्‌ कलास्थाने रूपम्‌ अतः कलासु खतियि 
हूतगणेन इति । था मध्याकगतिः सैवः बुघशुक्रयोदु्टा । अतो रविबुघशुक्रा 
मध्यमास्त एव । 

अथ चन्द्रं साधयति --गणमनुहुतिरिति । गणोऽहर्गणः मनवश्चतुर्देश १४ 
अनयोरहुतिर्नामि चतुदशगुणोऽहर्गणशिपूर्वाो भागाद्य इन्दुश्वन््रः स्यात्‌ । कि 
विशिष्टः स्वाद्विभूभागेन स्वसप्तदश्ांरोन हीनः। पुनक्पिकासु कलासु खमनु- 
भिश्चत्वारिशदधिकशतेन हतो यो गणस्तेनोनः स कायं इत्यर्थः । 


अत्रोपपत्तिः--अत्र चन्द्रस्य मघ्यमागतिः १३।१०।३४।५१।५६1।० । अनया 
गणो गण्यः । तत्र गतेरधिक खण्डं गृहीतम्‌ १३।१०।३५।१७।३८।५१ । अत्रा- 
पिखाघवाथं पूर्णाश्चतुरद॑शगृहीता। अत उक्तं गणमनुहतिरिन्दुरिति। इदं 
चतुदलेम्यः क्रियदल्पमस्तीति चतुदश शुद्धम्‌ ०।४९।२४।४२।२१।९ । इदं सत- 
दशगुणितं जातमूर्वंस्थाने १४ अत्रोभयत्र चतुर्दशतुल्यगुणोऽतः स्वाद्विभूमाग- 
हीन इत्युक्तम्‌ । , ततो गतेरपेक्षया यद्‌ गुहीतमधिकं खण्डं तदिदम्‌ । ०।०।०।२५। 
४२।५१ 1 खमनुभिः सवर्णितं जातं कलास्थाने रूपं स॒ गणः खमनवो हरः 1 
रूपगणस्याविकृतत्वात्‌ खमनुहृतगणोनो किप्तिकास्तीति स्व स्व॒ घ्रूवः स्वस्वक्षेप 
संस्कारः सर्वेषां ग्रहाणां कायं एव ॥ १० ॥ 

चन्द्रिका --अहुगंणमे ७०्का भाग देनेसे प्राप्त अशादिफलको 
अहगंण में घटने से शेष अंशादि ही रहता है । पुनः अहगणमे १५० का 
भाग देनेसे फर कादि होगा! दोनोंका अन्तर करनेसे अंगादि 
सूये-बुध-शुक् होगे । [ अशमे ३० का भाग देने से फल रश्यादि 
होगा ]। राशिस्थानमे यदिश्२से अधिक संख्थाहो तो उषे १२से 
भागदेकरशेषको राशिकेषरूपमें ग्रहण करना चाहिए । 

अहगंण को १४से गणा कर उमे १७का भाग देनेसे लब्धि 
अंशादि फल को गुणनफल मे घटने से शेष अंशादि फर आएगा । उसमें 
अह्गंण को १४० से भाग देकर रन्धि तुल्य कलादि फर घटाने से शेष 
अंशादि चन्द्रमा होता है । १० 

उदाहूरण-गहुगंण १४०९ । इसे ७० से भाग देने पर रन्धि 
२०।७।४२ प्राप्त हृरई । इसे अह्गंण मे घटाया- 


मध्यमाधिकारः २१ 


१४०९ 
२० ७४३ 

१३८८।५२1१७ रोष अंराष्द 

पनः अह्गंणमें १५० का भाग देने से रन्धि ९।२३ कलादि प्राप्त 
हई ¦ इसे उक्त रोष से घटाया 

१३८८।५२।१७ 

1. 

१२८८।४२।५४ अ शादि सुयंबुधशुक्र हुये । 

अंशमे३०का भाग दिया तो ४५।८।४२।५.४। हुजा राशि स्थानमें 
१२ से अधिकसंच्याहोनेसे श्म श्रेका भाग द्या तो शेष १० 
बचा । अततः सयं बुध शुक्र कामान राद्यादि १०५८।४२।५४ हज । 
भह्गंणोत्पन्न ग्रह मे 'दिनगणभव खेटः' इत्यादि इलोक के अनुसार ध्रुव- 
क्षेपक संस्कार किया-- 

सयं का प्र्‌वा ०।१।४९।११ इसे चक्र ४१ से गुणा किया २।१४।२३६।३१ 
गुणनफल को अह्गंणोत्पन्त ग्रह १०।८।४२।५४ से घटाया तो शेष ७।२४।६।२३ 
बचा । इसमे सयं का रश्यादि क्षेपक ११।१९।४१।० जोड़ने से 
७।१३।४७२३ मध्यम सूये-नुध-शुक्र हुए । 

मध्यम चन्द्र साधन -अहगंण १४०९ इसमें १४ का गुणा करनेसे 
१९७२१ हआ । इसमे १७ का भाग देने से प्राप्त कल्ि ११६०।२१।१० को 
१९७२६ मं घटाने से १८५६५।३८।५० जेष बचा । पुनः भहगंण १४०९ में 
१४० क्रा भाग दिया तो कलादि लन्धि १०।३ हुई इसे १८५६५।३८।५० मं 
घटाया - 

, ८५९५।३८।५० 

_ १०३ 

१८५६५।२८।४७ अंशादि चन्द्र हुमा 

नोट-- चन्द्रस्पष्टोकरण में कुछ लोगो ने भ्रम पैदाकर दियाह। कुछ 
विद्धानों को अभिप्रायहै कि बहर्गणको १४ से गुणाकर उसे अंशादि मानं 
कर उसमें अहूर्गण का सत्रहर्वां भागवषटादे पुनः अहर्गणमें १४० काभाग 
देकर करादि फल घटा दं तो अहर्गणोत्यभ्न चन्द्र होगा क्रिन्तु यह्‌ प्रक्रिया 
असङ्कत हे । 


२९४ ग्रहुलाधवे 


इसे रार्यादि बनाने से ६।२५।२८४७ दिनगण भव चन्द्र हुआ | 
चन्द्रमा के ध्रुवा ०।३।४६।११ को चक्र ४१ से गुणा कर ५।४।३३।३१ 
को अहगंणोत्पन्न चन्द्र मे घटाने तथा शेष मे क्षेपक जोडने से- 
६।२५।२८} ४७ 
५।४।२२।२१ चक्र गुणित प्रवा 
९।२०।५५।१६ 
११।१९।६।० क्षेपक 
१२।१०।१।१६ राश्यादि मध्यम चन्द्र हुमा । 
देशान्तर संस्कार- कारी का देशान्तर योजन ६४ इसमे ६ काभाग 
देने से लन्धि कादि १०।४० प्राप्त हूर । रेखादेश से काशी पए॒वं है अतः 
पवंसाधित चन्द्र से वटाया- 
१।१०।१।६६ 
- १०४० 
१।९।५०।३६ मध्यम चन्द्र हुभा । 


चन्द्रोच्च राहो रानयनम्‌ - 


नवहूतदिनसङघश्चन््रतु ङ्ख ल्वादयं 
भबति खनगभक्तयुब्रजोपेत छिप्नम्‌ । 
नवकुभिरिषुवेदेघंस्रसं घाद्द्विधाप्रात्‌ । 
फललव कलिकेक्यं स्थादगु इचक्र शुद्धः \ ११ ॥ 
मत्लारिः--अथ चन्द्रं प्रसाष्येदानी चन्द्रोच्चराह्लौः साधनमेकवृत्तेनाह्‌ 
नवहुतेति । मव ९ भिहतो भक्तो यो दिनसंघोऽहूर्गणः स एव वाद्यं चन्द्रतुद्ध 
चन्द्रमन्दोच्चं भवति । कि विशिष्टं खनः सप्तत्या ७० भक्तो यो दुत्रजोऽरहुगंण- 
स्तेनोपेता युक्तालिप्ताः कलाः यस्य॒ तत्‌ । तथा गणस्य सप्तत्यंरोन कला- 
विकरलारूपेण युक्तमित्यर्थः । 
अत्रोपपत्तिः-- मन्दोच्चशीप्रोच्चादिगतिन्ञानं तत्‌ स्थानं चाग्रे स्पष्टी- 
करणोपपत्तौ सविस्तरं वक्ष्यामः। अत्रं तु केवेलामुच्चगतिमङ्धीकृत्योपपत्ति- 
रुच्यते । तत्र चन्द्रोज्वगतिः ०।६।४०।५१।२५।४३ । अत्रैक खण्डं गतेन्यूनं 
# काली का देशान्तर योजन प्राचीन भारतीय रेखादेश के आधार पर 
साधितं किया गयाहं) 


मध्यमाधिकारः २२ 


गृहीतम्‌ ।०।६।४०। अनेन गणो गुण्य । तत्र॒ छाघवार्थमिदं नव ९ सर्वणं 
जातमूरघ्वस्थाने रूपं १ स ॒गणोऽविकृतत्वात्‌ । अतो नवहूत इत्युक्तम्‌ ।! अवशिष्टं 
खण्डम्‌ ०।०।५१।२५।४३ । इद सप्तत्या ७० सर्वाणितं जातमूध्वं कलास्थाने 
रूपम्‌ । अतः घखनगभक्तयुत्रजोपेतकितमिति । यतः पूवंखण्डं न्युतं गृहीतमतो 
युक्तम्‌ । 


एवं चन्द्रोच्चं प्रसाष्येदानीं राहुं प्रसाधयति । नवकूभिरिषृवेदेरिति । नव- 
कुभिरेकोनविशत्या १९। इषुवेदैश्च इषवः पञ्चवेदाश्चत्वारः ऋग्वेदादयः प्रसिद्धा 
अनया पञ्चचत्वारिराता ४५ द्विधा गणादाप्तात्‌ । गण एकंत्रंकोनविशतिमक्तमंशादि 
फलं ग्राह्यम्‌ अन्यत्र च पञ्चचत्वारिचद्धक्तः फलं कला्यम्‌ । एवं फललवकलि- 
कैक्यं । उभयोर्भागादिककलादिकफलयोर्योगश्चक्रशुद्धो दादश १२ रुद्धस्ततो 
धरुवक्षेपसंस्कृतोऽ¶ू राहु स्यादित्यर्थः 


अत्रोपपत्तिः--राहूर्नाम पातः! पातो नाम क्रान्तिमण्डकविमण्डर्योः सम्पातः । 
सूर्यो यटिमन्‌ वृत्ते भ्रमति तत्‌ क्रान्तिमण्डलम्‌ । क्रन्तिमण्डलात्‌ ग्रहो यावतान्तरेणं 
दश्यते तस्यान्तरस्य क्लरसंज्ञा कृता । एवं रविभ्यतिरिक्ताः ग्रहाः क्रान्ति मण्डले 
न भ्रमन्ति । शरतुल्यान्तरेण ग्रहा यत्र भ्रमन्ति तद्‌तत्तस्य विमण्डलसंज्ञा। एवं 
क्रान्तिवृत्तशरवृत्तसम्पातस्य विरोमगतिदृष्टा । तज्ज्ञानं यथा । गोले पूर्वसम्पा- 
तादन्यसम्पातः कियद्धिभगिः पृष्ठतो दुष्स्ते भागाः ष्टि ६० गुणाःकलाः । 
ततोऽनुपातः। यदेभिः सम्पातद्वयान्तरदिनैरेता अन्तरकलाः कम्यन्ते तदेकदिनेन 
कतीति छभ्घा पातस्य विलोमगतिः । एवं चन्द्रपातगतिः । अन्येषां ग्रहाणां षात- 
साधनं नोक्तम्‌ । यतस्तेषां गतिरवर्षेणापि विकला न लमभ्यतेऽतश्चन्दरपात एव 
साध्यते । तद्गतिः ०।३।९१०।४८।२५।१५। अतोऽनुपातादहगंणो गुण्यः । अत्र 
गतेरपेक्षया ऊनं खण्डं धृतम्‌ ०।३।९।२८।२५।११. । अनेन सावयवेन खण्डन गणो 
गुण्य इति कमंगौरवम्‌ अतो लाघवा्थंमिदमेकोनविशत्या १९ सवणितं जातमृध्वं- 
स्थाने रूपम्‌ । एवं नवकुभिगंणो भाज्यः फक भागा इति । अवशिष्टं गतिखण्डम्‌ 
०।०।१।२०।०।०] इदं पञ्चचत्वारिशता सर्वाणितं जातं कलास्थाने हूपम्‌ । अत 
इषवेदैभेक्त इति फरक्यं कायं यतः पूवं ण्डं गतेरूनं धृतम्‌ । एवं जातः पातः स 
चक्रदुद्धो राहु भवतीत्यागमः ।। ११ 

चश्द्रिका--चन्द्रोच्च साधन-दिनसंघ ( अहगंण ) को नवसे भाग 


देकर लन्धं अं्ादि फल मे, अह्गंणमे ७० काभागदेनेसे प्राप्त कलादि 
रन्धि जोडने से चन्द्रोच्च होता है । 


२२ ग्रहुलाचवे 


राहुसाघ्न-दो स्थानों मे स्थित अहगण को क्रमसे १९ ओर ४५से 
अलग-अलग भाग देने पर रुन्धि अंशादि एवं कलादि अयेगी । अर्थात्‌ १९ से 
भाग देने पर अंशादि, तथा ४५से भाग देने पर कलादि फल होगा । दोनों 
के योगको १२ राध्िमे घटानेसे राहुहोतादै। ११। 

उदाहुरण--चन्द्रोच्चानयन--अहगण १४०९ को स्से भागदेनेसे 
१५६।३३।२० अंशादि फल प्राप्त हुआ । पुनः १४०९ को ७० से भाग दिया 
तो कलादि फर २०।७ हुआ । दोनों का योग १५६।५३।२७ इसका रारयादि 
बनाया ५।६।५३।२७ । अहगंणोत्पन्नचन्द्रोच्च हुआ । इसमें चक्रनिष्न ध्रुवा 
०।२२।४५।० घटाया तो ४।१४५।८।२७ दोष रहा इसमे क्षेपक ५।१७।२३३।० 
जोड़ने से १०।१।४१।२७ मध्यमचन्द्रोच्च हुभा । 

राहुसाधन--अहगंण १४०९ को दो स्थानां मे रखकर एक स्थानमें 
१९ का भाग दिया तः ७४।९।२८ अंशादि रुन्धि तथा द्वितीय स्थान मे ४५ 
काभागदेनेसे कलादि ल्न्धि३१।१९ प्राप्त हू । दोनों का योग 

७४।९।२८ + ८।२३१।१९ == ७४।४०|४७ 
दसे राद्यादि बनाकर १२ मे घटाया- 


१२] ०9|| ० 9 
२। १४४०] ४७ 


९।९१५।१९।९१३ 
इसमे चक्रगुणित ध्रुवा २।२६।१०।० घटाकर क्षेपक ०।२७।३८ जोड़ने 
से मध्यम राहु ७१६९।४७।१३ हु । 


कुजस्य बुधकेन्द्रस्य चानयनम्‌-- 


दिश्ध्नो द्विधा दिनगणोऽङ्घकुभिलिजञेलै- 
भक्तः फलांशककलाविवरं कुजः स्यात्‌ । 
त्रिघ्नो गणः स्ववसुदृग्लवयुग्ञशीघ्र- 
केन्द्र लवाद्यहिगुणाप्तगणोनलिप्तम्‌ \ १२ 
मत्लारिः-एवं पातं प्रसाध्येदानीं भौपं बुधशीध्रोच्चं चैकवृत्तेन साघ- 
यति दिर्ध्न इति । दिनगणो दिग्घ्नो दिग्िदशभिः १० हन्यते गुण्यते स तथा 
एवंभूतो द्विघा स्थानद्वये स्थाप्यः । एकच्राककुभिरंका नव कूरेक एवमेकोनविशव्या 
१९ भक्तः । अन्यत्र च त्रिरस्य: प्रसिद्धाः दौला: सतत एवं त्रिसप्तत्या ७३ 


मध्यमाधिकारः २५ 


भक्तः फलांशककलाविवरं पूर्वफलमत्रांशा भागां द्वितीयं कलायं तयोविवरमन्तरं 
कुजो भौमः स्यात्‌ ॥ 


अत्रोपपत्तिः- मौमगतिः ०।३१।२६।३१।३६ अच्राधिकं खण्ड गृहीतम्‌ 
०३ १।२३४।४४।१२।२३६ अनेन मणो गुण्यः । अत्र लाघवाथंमिदमेकोनविशत्या 
सर्वाणितं जाता भागस्थाने दश अत उक्तं दिग्घ्नो गणोऽद्कुकुभिर्भाज्य इति । 
अस्मात्‌ खण्डाद्गतिमपास्य शेषम्‌ ०।०।८। १३1९ इदं त्रिसप्तत्या सर्वाणितं जाता 
कलास्थाने दश्च १० उमयत्र दशतुल्यो गुणोऽतो दिग्ध्नौ द्विषेद्युक्तं फलयो रन्तरं 
कार्य यत पूर्वं खण्डं गतेरधिकं धृतम्‌ । 


एवं भौमसाधनं कत्वेदानीं बुघसीघ्केन्द्रसाघनमाह्‌ त्रिघ्न इति । च्रिभि- 
गण्यते हन्यते स तथा एवंभूतो यो गणः स स्ववसुदृग्लवयुक्‌ स्वस्थ त्रिगुणिता- 
हर्गणस्य यो वसुदग्मिरष्टाविशत्या २८ क्वो भागस्तेन स एव त्रिगुणितो गणो 
युग्युक्तः सन्‌ ख्वादि ज्ञस्य बुधस्य शीघ्रकेच्र स्यात्‌ । किविशिष्टम्‌ 1 अहिगुणाप्त- 
गणोनलिक्तम्‌ 1 अहयोऽष्टौ गुणस्य एवमष्टत्रिशद्धिः ३८ आप्तो भक्तो यो गण- 
स्तेन ऊना लिप्ताः कला यय्येति तत्‌ तथा गणस्याष्टत्रि्ञद्धाग द्विष्ठः कलादिस्तेन 
तदूनं कायं मित्यर्थः ॥ 


अत्रोपपत्तिः-- बुधशीध्केन्द्रगतिः ३।६।२४।८।७।०३ अनया गणो गुण्य 
इत्येक खण्डं त्रयः ३ त्रिभिर्गुण्योऽतस्तिघ्नो गण इति । अवशिष्टं खण्डं किञ्चि- 
दधिकं गृहीतम्‌ ०।६।२५।४२।५१।२५ अनेन गणो गुण्य इत्यत्रेदमष्टाविशत्या 
२८ सर्वाणितं भागस्थाने त्रयः ३। उभयत्रापि गुणस्ति तुल्योऽतः स्ववसुदुग्टवयुगिति । 
अन्राधिक्मेव तत्‌ खण्डम्‌ ०।०।१।३४।४४)१२ ददमष्टत्रिशद्धिः ३८ सर्वाणतं 
जातं कलास्थाने रूपं १ तस्याविकृतत्वादहिगुणाप्त गणोनलिप्तमिति पूरवंखण्डमधिकं 
गृहीतमत इदं हीनं कृतम्‌ । १२ 


चेन्द्रिका--भहुगंण को १०से गुणा करदो स्थानोंमे रखकर एक 
स्थानम {९्काभागदेनेसे कुल्व अंशादि तथा द्वितीय स्थानमे५७२३का 
भाग देने से फर एखादि आयेगा दोनों का अन्तर करने से अंशादि मंगल 
होता है) 

एवमेन अहगंण को रसे गुणाकर२८का भागदेनेसे जो रुन्धि 
श्रप्त हो उसे गुणनफर मे जोडने से अशादि होता है तथा अह्गण मे ३८ 
काभागदेनेसे लन्धि कलादि फर होताहै। अंश्चादि फलस कलादि 
कर को घटाने से रोष अंशादि बुध केन्द्र होता है। १२ 


२९ ग्रहुलकाघवे 


उदाहरण-मङ्कल साधन-अहगंण १४०९ को १०से गुणा कर 
गुणन फर १४०९० को दो स्थानों मे रखा एक स्थानमें १९ काभाग 
दियातो अंशादि रुन्धि ७४१।३४।४४ प्राप्त हुई द्वितीय स्थानमे ७२ेका 
भाग दिया तो १९३।१ कलादि फल प्राप्त हुआ । ईसे भी अंशादि बनाया 
तो ३।१३।१ हुआ । 
दोनों का अन्तर ७४९१।३४।४४ 
-२।१२।१ 
७२३८।२१।४३ अशादि 
राश्यादि बनाने से ०।१८।२१।४२ दिनगणभव भोम हुजा । इसमे 
चक्रगुणित ध्रुवा ३।२६।५२।० घटाकर क्षेपक १०।७]८।० जोड़ने से 
६।२८।३७।४२ मध्यम मङद्धुल हओ । 
नुधकेन्द्र साधन -अहूगंग १४०९ को ३ से गुणा किया गुणनफर ४२२७ 
मे २८ का भाग दिया रन्धि १५०५७५१ अंशादि को गुणनफल ४२२७ मे 
जोड़ने से ४२७७।५७।५९ हुभा । पुनः अहगंण १४०९ मेँ ३८ का भाग देकर 
लछन्धि ३७५ कलादि फल को पूवं साधित अंशादि मे घटाया-- 
४२७७।५७।५१ 
= २०. 4 
४२७७।२०।४६ दोष 
अंशादि को राश्यादि बनाने से १।२७।२०।४६ अहगंणोत्पन्न बुध 
केन्द्र हुआ । इसमें चक्रगणित ध्रुवा ०।२१।२७० घटाकर, क्षेप ८।२९।३३।० 
जोडने से १०।५।२६।४६ राश्यादि बुध केन्द्र हुमा । 


गूरोः शुक्रकेनद्रस्य चानयनम्‌ -- 
दय॒पिण्डोऽकभक्तो लवाद्यो गरः स्याद्‌ 
द॒ पिण्डात्‌ खलेलापरलिप्ताजिहीनः। 
त्रिनिघ्नाद्द्यपिण्डादृदिधाऽक्नेः क्विभान्नै- 
रवाप्रश्योगो भुगोरादुकेन्द्रम्‌ \॥ १३ 
मल्लारि-एवं बुषलीघ्केन्द्रं प्रसाध्येदानों गुरुं शुक्रशीध्केन्द्रं चैकवृत्तेन 
साधयति युपिण्ड इति। चुपिण्डोऽहगंणोऽवददशभिः १२ भक्तः सन्‌ ल्वाद्यो 
भागाद्यो गुरुबृहस्पतिः स्थात्‌ किविशिष्टः पिण्ड इति। अहर्गणात्‌ खरो 


मष्यमाधिकारः २७ 


सप्तत्या ७० आप्ता छन्धा या लिप्ताः कलादि फलं तेन फलेन विहीनो विवजितः 
कायं इत्यथः ॥ 

अन्रोपपत्तिः । गुरोर्गतिः ०।४।५९। ८।३४।१७ अनया गणो गुण्य इति । 
अत्रैकखण्डम्‌ ०।५ इदं द्वादशभिः १२ सर्वाणितं जातं भागस्याने सूपं १ हर- 
स्थाने दादश १२1 अत उक्तं दुपिण्डोऽकभक्तं इति! अस्माद्गतिमपास्य शेषम्‌ 
०।०।०।५१।२५।४३ इदं सप्ततिस्वणितं जातं कठास्थाने सूपं १ हुरस्थातें 
सप्ततिः ७० पूवं खण्डमधिकं गृहीतमत उक्तं खरेलाप्तलिप्ताविहीन इति । 

अथ रुक्रकेन्द्रं साधयति । त्रिनिध्नादुचयुपिण्डादद्विघेति। त्रिभिः ३ हन्यते 
गण्यते एवम्भूतो यो दुपिण्डोऽहगगणस्तस्मात्‌ द्विधा स्थानद्रये स्थापितात्‌ एकत्र 
अक्षैः पञ्चभिः ५ अन्यत्र ५ क्विभान्जः कुरेक इभा अष्टौ अन्न एक एभिरेका- 
रीव्यधिकशरतमितेर ङ्कः १८१ अवाप्तांरयोग अवाप्ता कन्धा ये अंज्ञास्तेषां योगो 
भृगोः शुक्रस्य शी ध्रकेनद्रं भवति ॥ 


अत्रोपपत्तिः-शुक्रशी घ्रकेन्द्रस्य गतिः ०।६६।५९।४०।६।६३७ अनया गणो 
गुण्यः । अत्रैक खण्डम्‌ ०।३६ इदं पञ्चभिः सर्वणितं जातं भागस्थाने त्रयं ३ 
हरस्थाने पञ्च ५। अत उक्त त्रिनिष्नाद्द्युपिण्डात्‌ अक्षेभक्तात्‌ अवाप्तांशा 
ग्राह्या इति । अव शिष्टखण्डम्‌ ०।०।५९।४०।६।३७ इ दमेकारीत्यधिकरतेन १८१ 
सर्वाणतम्‌ । अत्रापि जातं भागस्थाने त्रयम्‌ । उभयत्रापि गणस्त्रिभिगुण्यः। 
एकत्र पञ्चमिः ५ भाञ्यः अपरत्र चैकाशीत्यधिकशतन १८१ भाज्यः फलेक्यं 
कार्यमेव यतः पृवंखण्डं न्यूनं गृहीतमस्ति। अत एवोक्तं त्रिनिघ्नादुचुपिण्डादि- 
त्यादि 11 १३ 

चन्द्रिका-अह्गणमेश्र्काभागदेनेसे अंशादि तथा (अहगंण) में 
७०काभागदेनेसे कलादि फल अयेगा। दोनों का अन्तर करनेसे 
अंशादि गुरुहोताहै। 

अहगंण को रेसे गुणा करदो स्थानोंमें रखकर एकस्थानमें 
५ से तथा दूसरे स्थानमे १८१ से भाग देने पर प्राप्त अंशादि रन्धियोंका 
योग करने से अंशादि शुक्र केन्द्र होता है । १३। 

[ विज्ञेष - शुक्र केन्द्र साधन में दोनों ही र्न्धियां अंशादि होती ह । ] 

उदाहरण-गुरुसाधन-अहगंण १४०९ मे १२ का भाग देनेसे 
अंशादि रुन्धि ११७।२५।० तथा १४०९्मे५७०्का भागदेनेसे कलादि 
रन्धि २०।७ दोनों का अन्तर करने से शेष ११७।४।५३ अंशादि गुरु हुमा 


२८ ग्रहुटाघषे 


इसे राश्यादि बनाने से ३।२७१४।५३ दिनगणभव गुरु हुभा । इसमें चक्र 
गुणित ध्वा ११।२८।१८० घटाकर क्षेपक ७।२।१६।० जोडने से 
११।१।२।५३ राश्यादि गदयिक मध्यम गुरु हुआ । 

शुक्रकेनद्र॒ साधन-अटूर्गण १४०९कोर३ेसे गुणा कर गुणनफल 
४२२७ को दोनों स्थानोंमें रखकर एक स्थानम ५सेभाग दिया तो 
अंशादि न्धि ८४५।२४।०। प्राप्त हुई द्वितीय स्थान मे १८१ सेभग दिया तो 
२२३।२१।१३ अशादि रुन्धि प्राप्त हुई दोनों का योग ८९६८।४५।१२ अंशादि 
राक्रकेन्द्र तथा ४।२८।४.।१३ रश्यादि दिनगणभव शुक्रकरन्द्र हुभा 1 इसमें 
चक्रगुणितघ्रवा ०।५।२२।० घटाकर क्षेप ७।२०।९1० राश््यादि जोडने 
से ओदयिक मध्यमशुक्रकेन्द्र ०।१३।३२।१३ हुभ । 
रानिसाघनम्‌- 

खार्न्युद्धृतो दिनगणोंऽश्मुखः शनिः स्थात्‌ 
षट्पञ्चभूहूतगणात्‌ फललिप्चिकाढचः ।॥ १३२ 

मल्लारिः- अथेदानीं इलोकार्धेन शनि साघयति खाग्न्युद्धेत इति । दिन- 
गणोऽहर्गणः खागिनिभिस्तरि्शद्धि: ३० उद्धृतो भक्तः सन्‌ अंशमुखो भागाः 
रानि: स्यात्‌ । किविशिष्टः षटपञ्चभृहूतगणात्‌ षट्‌ पञ्चाजदधिकशत १५६ 
भक्तादहगणात्‌ याः फललित्षिका यत्‌ कालादि द्िष्ठं फलं तैन आढ्यो युक्तः 
रानिः स्यादित्य्थः ॥ 

अच्रोपपत्तिः । कशने्मध्यमागतिः ०।२।०।२३।४।०।३७ अनया मत्या अह्‌- 
गणो गण्य इति । अत्रैक खण्डं धृतम्‌ ०।२ इदं त्रिशता स्रणितं भागस्थाने रूपं 
१ जातं तस्याविङ्रतत्वात्‌ खाग्न्युद्धतो दिनगण इत्युपपन्नम्‌ ॥ एतत्‌ खण्डं गतेर- 
पास्य शोषम्‌ ०।०।०।२३।४।३७। इदं॑षट्‌पञ्चाशदधिकनलतसर्वणितं जातं कला- 
स्थाने रूपं तस्याप्यविकृतस्वात्‌ षट्पञ्चभूहूतगणा दित्युक्तम्‌ । फल्योयोगः कार्यो यतः 
पूवंखण्डं गतेरूनं धृतमत उक्तं फललिप्षिकाढय इति ॥ १३२ 

चन्द्रिका-अहूगंण को ३०्से भाग देने पर अंशादि फल तथा 
अहूर्गग को १५६ से भाग देने पर कलादि फल अयेगा। दोनोका योग 
अशादि शनि होताहि। १३२ 

उदाहरण -रानिसाधन--अहगंण १४०९ को ३०्से भाग दिया न्धि 
अंशादि ४६।५८।० हुई एवं १५६ का भग १४०्२्में दियातो रब्धि 
कलादि ९।२ हुई । दोनों का योग ४७।७।२ अंजञादि शनि हुआ । राश्यादि 


मधघ्यमाधिकारः २९ 


करने से १।१७।७।२ अहगंणोत्पन्न शति हुमा । इसमे चक्र गुणित ध्वा 
८।१३।४२}० घटाकर क्षेपक्र ९।१५।२१।० जोड़ने से २।१८।४६।२ भौदयिक 
राएयादि मध्यम शनि हुजा । 


ग्रहाणां मधघ्यमागतिः- 


गोऽक्षा गजा रविगतिः शशिनोऽच्नगोऽवाः 
पच्छाग्नयोऽथ षडिलाञ्धय उच्चभुक्तिः ॥ १४ 
राहोस्त्रयं कुाशिनोऽसज इन्दुरामा- 
स्तर्कारिविनो ज्ञचलकेन््रजवोऽयंहिक्ष्माः 
छिपा जिना विकलिकाहच गुरोः श्रः खं 
शुक्राश्युकेन्द्रमतिरद्रिगुणाः उनेद्रं । १५ 


मल्टारिः- एवं रेखार्कोदयकालीनान्‌ मध्यमान्‌ ग्रहान्‌ प्रसाघ्येदानीं सार्ध 
लोकेन मघ्यमग्रहाणां दिनगतीः कलाद्या वदति । गोऽक्ला इति । राहोरिति । इयं 
केखा्या रविगर्ताः। गोऽक्षाः। गावो नव अक्षाः पञ्च एवमेकोनषष्टिः ५९ 
कलाः | अष्टौ ८ विकलाः । शरिनश्चन्द्रस्येयं गतिः । अश्रगोदवाः। अश्रं शून्यं 
गावो नव अरवा: सप्त एवं नवत्यधिकशतसंपस्कमिष्ताः ७९० कलाः ! पञ्चा- 
रनयः पञ्चत्रिंशत्‌ ३५ विकलाः । अथ रशब्दोऽनन्तरवाची । चन्द्रगतिकथानन्तर- 
मियमुच्चभुक्तिश्वन््रमन्दोच्चगतिः षट्‌ ६ केखाः । इला एक भअन्धयश्चत्वार एव- 
मेकचत्वारिशत्‌ ४१ विकलाः ॥ १४ 


राहोरियं गतिः त्रयं तिलः ३ कराः । कुशरिन एकादश ११ विकलाः । असृजो 
भौमस्य इन्दुरामा एक्तरिशत्‌ ३१ कलास्तर्कारिवनस्तर्काः षट्‌ अर्विनौ दौ एवं 
षड्विशतिः २६ विकलाः । ज्ञस्य बुधस्य यच्चलकेन्द्रं शीध्केद्रं तस्य जवो गतिरि- 
यमयंहिक्ष्माः अरयः षट्‌ कामक्रोधादयः । अहयोऽष्टौ । क्ष्मा एकर एवं षडशीत्य- 
धिकश्तमिताः १८६ कलाः । जिनाश्चतुविश्चतिः २४ विकला । गुरोवुंहस्पतेः 
हाराः पच्च ५ कलाः । खं शून्यं ° विकला । शुक्रस्य यदाशुक्रकेन्द्रं शीधघ्केन्द्र तस्य 
गतिरद्विगणाः । अद्रयः सप्त गुणास्त्रय एवं सप्त त्रिशत्‌ ३७ कलाः । विकलाभावः शनेदँ 
२ कले तस्यापि विकलाभावः । एता ग्रहाणां मघ्यमगतय प्रत्यहं मध्यमा ग्रहा एताः 
कलाः पूवगत्या क्रामन्तीति भावः। भासां गतिकलानां ज्ञानोपायवासना पूर्वमेव 
प्रतिपादिताऽस्ति तथापि बालावबोघार्थं विस्तार्योच्यिते । रूपमहर्गणं भ्रवत्प्य सें 
ग्रहाः पूर्वोक्तवन्मध्यमाः साधितास्ता एव गतिक्लाः । राशिवृत्तस्य एतावतीः 
कलाः प्रत्यहु प्राच्यां ग्रहाः पृथक्‌ पृथक्‌ स्वस्वकक्षायां क्रामन्तीति भावः । तत्कथं 


३० ग्रहुलाघवे 


राशशिमण्डलं प्रवहानिले क्िप्तमत्तिवेमेन नियतं पश्चिमाभिमुखं भ्रमति शीघ्रमन्द- 
भेदेन भिन्नगत्या ग्रहा विचरन्तीति यदेवं तहि तेषां म्रहाणामेकमागंस्थानां मध्य 
मगतेः शीघ्रत्वमन्दत्वमित्यन्यथात्वं कथं संभवतीति । अतः पृथक्‌ पुथङ्मागंगता 
श्नमन्तीति भावः। गतेविसदृश्चत्वं कस्मादित्युच्यते । यो हि भूमेरासन्नः स 
स्वल्पेन कालेन भगणं भुड्क्तं तस्य शीधघ्रगतित्वं सम्भवति योहि दुरगः स महता 
कालेनेति तस्मात्तस्य मन्दगतित्वमिति । पएकस्मादेकेस्मादन्योऽन्यो मन्दगतिः 
सम्भवति । तथा चोक्तं सिद्धान्तशिरोमणौ ।" 


“कक्षाः सर्वा अपि दिविषदां चक्ररिप्ताद्कितास्ता 
वृत्ते रष्व्यो लघुनि महति स्युमहत्यश्च लिप्ताः । 
तस्मादेते शशिजभृगुजादित्यभौमेज्यमन्दा 
मन्दाक्रान्ता इव श्धराद्धान्ति यान्तः क्रमेण ।।'" 


एव ग्रहाणां कक्षाः सप्त ग्रहुकक्षोपरि अष्टमं नक्षत्रमण्डलं तदेव राशिपरण्डल 
तत्र समा दादश्च राक्ञयः। तदशास्ते क्षेत्रांशास्तस्य पूर्वाभिमुखनियतगतेरभावः 
भ्रवहानिलाक्षिपतं पश्चिमाभिमुखमेव पारश्नमतीति तदा रादयंशकलाद्यवयवभोग- 
वशात्‌ ग्रहाणां शीघ्रमन्दत्वमुवतं ननु यो हि योजनात्मको दिनगतिमागंः स सर्वेषां 
ग्रहाणां समान एव । अत एवाह भास्करः । २ 
“समा गतिस्तु योजननंभःपदां सदा भवेत्‌ । 
करलादिकल्पनावशाम्मृदुर्टूता च सा स्मृता ॥ 
अत्र॒ भचक्रमेकत्र स्थिरत्वेन स्थातुं न शक्नोति भतः किञ्चित्‌ प्राक्‌ पश्चादपि 
चलतीत्यवगम्यते । कस्मात्‌ । विषुवायनचिह्धोदयस्थानानां नैकत्रावस्थितत्वात्‌ । 
विषुवायनचिह्लानि स्वदेशस्थानादतिक्रान्तानि दृदयन्ते तदा चक्र प्रत्यक्चलितं 
भवति । अनागतप्राक्तानि तदा प्राक्‌ चलितमिति ज्ञेयम्‌ । अत उक्तं सूयंसिद्धान्ते । 
श्राक्चक्रं चलितं हीने छायार्कात्‌ करणागतें । 
अन्तरादौः समावर््यं पश्चाच्छंषेस्तथाधिकः ।।* इति । 
कस्पात्स्थानास्राक्‌परचाच्चलितं दृदयते तथा यत्र॒ विषये दक्षिणोत्तरध्रुवौ 
क्षित्तिजस्थौ भवतः स निरक्षदेशस्तस्मिन्‌ समं यद्पूर्वापिरवृत्तं तद्विषुवद्वृत्तसनं 
ततो यस्मिन्‌ मार्गे रविः पूर्वंगत्या द्वादश राशीन्‌ भुङ्क्ते तदुवृत्तस्य क्रान्तिमण्डल- 
१. सि. शि. ग. म. अ. २७ प्रु.) 
२.सि. लि. ग. म. अ. २६ त्र. शु.) 
२३. सू. सि. ३. ११ 


मध्यमाधिकारः ३१ 


संज्ञा कता । एवमुभयोः क्रन्तिवृत्तविषबद्वृत्तयोः षड भान्तरे पातद्रयं वत्तते 
तौ सम्पातौ राश्चिमण्डले मेषादितुलादिपंज्ञौ ज्ेयौ । तयोविषुवत्सम्पातयोः प्राग 
प्रत्र ल्ितिजस्थयोस्तिमे तद्विषवदवृत्तादक्षिणोत्तरतर्चतुधिशव्यंशान्तरे क्रान्ति 
स्तदक्षिणोत्त रवृत्तयोः सम्पातद्रयं तन्भृगककर्यादिसज्ञम्‌ । अनयोरयनचिद्धसंज्ञा 
कृता । एवं विषुवायनचिह्वचतुष्टयं राशिमण्डलस्थं प्रत्यग्धमणवशात्‌ क्षितिजे 
यत्रोदेति तत्र तत्र क्षितिजेऽपि तेषां ता एव संज्ञाः कृताः । तस्माद्‌ भचक्र चित 
सित्यवगम्यते । यथा सर्वोपरि रालिमण्डलं तत्र द्वादश राश्षीन्‌ समानान्‌ सावय- 
वान्‌ परिकत्प्य भमघ्यात्तदवयवप्राप्तानि सूत्राणि सलक्ष्याणि यरिमन्‌ सूत्रे 
स्वकक्षास्थितो ग्रहस्तिष्ठति स॒ तस्मिन्‌ राशौ तदंशाद्यावेयवस्थो ज्ञेयः) एवं 
श्रीब्रह्मणा राशिचक्र सनक्षत्रं तदधिष्टितग्रहुकक्षासहितं दक्षिणोत्तरध्रुवेयोबद्ध्वा 
तत्र सर्वान्‌ ग्रहान्‌ मेषादिचिह्वसूत्रगान्‌ संस्थाप्य एवं भचक्र सृष्ट्वा प्रवहानि- 
खस्य परिचमाभिमुखश्रमत्वे नियुक्तं ग्रहास्तु पूर्वाभिमुखश्रमत्वे नियुक्तः । ततः 
सर्वे ग्रहाः स्वस्वमागं प्रत्यश्भ्रमन्तोऽपि पूर्वाभिमृखमेकादरासहस्राणि अष्टरातानि 
च पादोनेकोनषष्टिसि हतानि योजनानि प्रत्यहं गन्त्‌ प्रवृत्ताः । उक्तञ्च । सृष्ट्वा 
भचक्रमित्यादि । तत्र स्वस्वक्रक्षास्थितलिप्तानां लघुमहत्वात्‌ चिप्तावहेन शीधघ- 
मन्दत्वमुच्चवरोन च गतोनामुपपन्तम्‌ । तत्र भचक्रस्य प्राक्‌ परचाच्चलनं तेऽय- 
नांशा एव तदशेन तत्र स्थितरासीनां विषुवदृवृताद्‌ दक्षिणोत्तरदूरासन्नत्वं याव- 
द्धिरशैमंवति तेषामंशानां क्रान्ति संज्ञा तत्र क्रान्तिवशेन यत्कम क्रियते तत्सायन- 
ग्रहादेव कतु प्रयुज्यते तेषामवस्थितिरथनांशाः । येषां मते रारिचक्रं भचक्रा- 
दन्यत्र स्थितं तेषां साधनमेव प्रमाणम्‌ । स्वस्वगतिकलानामुपपत्तिरेवमपि सक्षि- 
प्तोक्ता पूवं प्रतिपादितप्रमेयाच्च ॥ १५ ॥ 

चन्द्रिका- सयं की (मध्यम) कलादि गति गो ९ अश्न ५५९१ गज 
<, चन्द्रमा की भध्र°्गो ९ अदव ७ = ७९०, पञ्च ५ अग्नि ३२३५, 
चन्द्रोच्च की षट्‌ = ६, इला १ अब्धि ४४१, राहुकी चथ =३, कू १ 
शशि १= ११, भौमकीडइन्दु १ राम ३३१, तक ८ अर्वन २२६ 
बुधकेन्द्रकी अरि ९, अहि ८ क्ष्मा १= १८६ कला, जिना = २४ विकला, 
गुरुकी शर =५, खं = ° शुक्रकेन्द्रकी आद्वि७ गुण ३= ३७, तथा शनि 
की द्वि= २ मध्यम गति होती है। १४, १५। 


सूर्यादिगहुं की मध्यम कलादि गति 


सूयं ५९।८ चन्द्रमा ७९०।३५ 
चन्द्रोच्च ६।४१ राहू ३।११ 


३२ ग्रहुलाघवे 


मद्धल २३१।२६ बुध केन्द्र १८९२४ 
गुरू ५1० शुक्र केन्द ३७० 
शनि २।० 


सौ रादिसिद्धान्तानां वंशिष्ठ्यम्‌-- 
सौरोऽकऽपि विधूच्चमङककलिको नाम्नो गुरस्त्वायजो- 
ऽसग्राह च कजं सकेन्द्रकमथये सेषुभागः श्निः । 
गोौक्रं केन्द्रमजायं मध्यगमितीमे यान्ति दुकुल्यतां 
सिद्धेस्तेरिह पवंधमंनयसत्कार्यादिकं त्वादिश्ञेत्‌ ॥ १६॥ 
मल्लारिः--अथ कस्मिन्‌ पक्षेको ग्रहो घटत दत्येकवृत्तेनाह सौर इति 
अकः: सूर्यं; सौर पक्षयो घटत इति सर्वत्र । विधृच्चमपि सौरपक्षीयम्‌ । अंककला- 
भिनंव ९ कलाभिरूनोऽ्जश्वन््ः सौरपक्षोयः । गुरुरायज आर्यपक्षीयो गुररि- 
त्यथंः । असुगराहु मङ्खखराहु वचायपक्षीयौ । के ब्रह्मपक्षे जायते तत्तथा एवंभूतं 
ज्ञस्य बुधस्य केन्द्रम्‌ । अथ शब्दोऽनन्तरवाची । भयं आर्यपक्षे शनिः सेषुभागः 
पर्च ५ भागयुक्तो घटते । शुक्रस्येदं शौक्रम्‌। एवंभूतं यक्केन्द्रं तदजायमचघ्य- 
गम्‌ । अजो ब्रह्माभ्यं प्रसिद्धः। अनयोः पक्षौ तयोमंध्ये गच्छतीति तथा । 
उभयोः प्रसाच्यैतय्योगाद्धतुल्यं घटत इव्यथः । इति तेभ्यः पक्षेम्यः साधिता इमे 
ग्रहाः दशि तुल्यतां दुग्गणितक्यं यान्ति ब्रान्नुवन्तीति । एवं ग्रहणोदयास्तजव- 
कादौ ग्रहाणां साधनं बहुम्यो म्रन्थेम्यः कर्तव्यमिति जडकमं दुष्टरा आचार्यो 
लकाघवा्थमम्‌ं म्रन्थं कृतवान्‌ । इहास्मिन्‌ भ्ये सिद्धंस्तंग्रहः पर्वघर्मनयसत्कार्यादि- 
कमादिशेत्‌ । पर्वे ग्रहणं, घर्मो यज्ञानुष्ठानकादशीव्रतादिकम्‌ । नयो नोतिः। 
राजनीतिः दण्डनीत्यादिकः । सत्कायं लुभं कायं त्रतबन्धविवाहादि। एभ्यो 
ग्रन्थेम्य एतदुखन्नतिथ्यादेरेवादिशेद्‌ भयं भावः । एकादश्यादिनिर्णयोऽस्मादेक 
तिथेः कार्यः । जातकाविषु सवत्र ग्रहा अत्रत्या एव ग्राह्याः। यतो यस्मिन्‌ 
यस्मिन्‌ काले यद्यद्‌ दुग्रणितेवयङ्ृत्तदेव ग्राह्यं घटमानत्वात्‌ । जत्र युक्तिग्रहान्त- 
रलक्षणोपायर्च पूर्वमेव प्रतिपादितोऽस्ति ॥ १६ 
दैवज्ञेवयस्य दिवाकरस्य सुतेन मल्लारिसमाहूुयेन । 
वृत्तौ कृतायां प्रहराघवस्य जातं खगानानिति मध्यकं ॥ 


इति श्रीगणेरदेवज्ञकृतग्रहराघवस्य टीकायां मल्कारिदैवनज्ञविरचितायां 
मध्यमग्रहुसाधनाधिकारः प्रथमः। १॥ 


मध्यमाधिकारः ३३ 


चच्रिका--किस सिद्धान्तमे किस्त ग्रहकीं स्पष्टता दुग्गणित के 
आसन्न होती है इसका विवेचन करते हुए ग्रन्थकार लिखते हँ--सूयं- 
सिद्धान्त के अनुसार साधित सूयं तथा चन्द्रोच्च दृश्य गणित से साम्य 
रखते हैँ । सूयं सिद्धान्त से साधित स्पष्टचन्द्रमे नव ९ केला धटाने पर 
दृश्य चन्द्र हो जाता है । भयं सिद्धान्त के अनुसार साधित मद्धल गुरु 
तथा राहु दुकतुल्य होते हँ । ब्रह्म सिद्धान्तानुसार बुधकेन्द्र शुद्ध होता है। 
आयंसिद्धान्तानुसार साधित स्पष्ट शनि मे ५ अदा जोड दिये जायतो वह्‌ 
भो द्क्‌तुल्य हो जातां है । शुक्र केन्द्र ब्रह्य सिद्धान्त भौर आयं सिद्धान्त के 
मध्यम मान के तुल्य शुद्ध होता है] इस ग्रन्थ (ग्रहुलाघव) में शु द्धसिद्धाम्तों 
के ही आधार पर ग्रहुसाघन बताया गया है अतः पवं, धमं, नीति एवं 
रुभकार्यो का आदेश इसी सिद्धान्त के अनुसार करना चाहिए । 

श्रीगणेश देवज्ञविरचित ग्रहलाघव कै मध्यमाधिक्ार की डं० रामचन्द्र 
पाण्डेय कृत चन्द्रिका नामक सोदाहरण हिन्दो व्याख्या सम्पण । १ 


३ ्रहुखाघवे 


२. रविचन्द्र-स्पष्ठाधिकारः 


भुजकोव्यादीनामानयनम्‌- 


दनस्िरभोनं त्रिभोध्वं विशेष्यं रसै- 
दचक्रतोऽङ्धगधिकं स्याद्‌ भुजोनं त्रिभम्‌ । 
कोरिरेकेकक त्रित्रिभेः स्यात्‌ पदं 
सूरयमन्दोच्चमष्टाव्रथोऽदा भवेत्‌ ॥ १ 


मत्लारिः -अथ रविचन्द्रस्पष्टोकरणपञ्चाङ्गानयनाधिकारः। तत्रादौ भुज- 
को रिपदाकमन्दोच्वानां साधनमेकवृत्तेनाह दोरिति । त्रिभाद्राशित्रयाद्‌ रे उनं यत्‌ 
केन्द्रं ग्रहादिवास एव दोमुजः स्यात्‌ । त्रिभाद्राशित्रयादूर्घ्वमधिकं चेत्तहि रसैः 
षड्भिः ६ विश्टेष्यान्तरितं कार्यम्‌ । चेत्‌ त्निमाधिकं षड्भोतं षड्भाच्छोध्यम्‌ । 
षड्भाधिकं नवपर्यन्तं षड्भोनं मुजः स्यात्‌ । अद्भुतो नवर राशिभ्योऽधिकं 
चेत्तदा चक्रतो द्वादश्षरािभ्य शोध्यं भुजः स्यात्‌ । भुजोनं भुजेन ऊनं त्रिभं राक्षि- 
त्रयं कोटिः स्यात्‌ । त्रित्रिभेलिमिसिभी रारिभिरेकंके पदं स्यात्‌ । तद्यथा । 
प्रथमं राशित्रयं विषमं पदं स्यात्‌ ततो द्वितीयं समपदं ततस्तृतीयं विषमं पदं 
चतुथं समपदमित्यथंः 1 

अच्रोपपत्तिः 1 तत्रादौ दो्ज्याकोटिज्यास्वरूपमुच्यते । समायां भूमौ इष्ट- 
त्रिज्याग्यासार्धेन वृत्तं दिगद्धितं कृत्वा षष्ट धिकशतन्नयमिताद्‌ ३६० भागानङ्कु- 
येत्‌ । तत्र ति्यगूष्वरेखे च । एवं चतुर्भागाः स्युस्तेषां पदसंज्ञा । एवं चक्र 
चत्वारि पदानि तत्रैकंकस्मिन्‌ पदे नवतिनवतिर्भागाः । प्रथमपदे यद्गतं स एव 
दोः । द्वितीये एष्यं दोः । एष्यत्वाथं षडभशुद्धम्‌ । उक्तं च सिद्धान्तरिरोमणौ -- 

“अयुग्मे पदे यातमेष्यं युग्मे मुजो बाहृहीनं त्रिभं कोटिस्क्ते'* 

अत्र दोज्यीकोटिज्ये एकपदमध्ये बतो दोस्तिभात्‌ शुद्धः कोटिमंवतीति युक्त 
मुक्तम्‌ । एवं भुजकोटिपदान्‌ प्रसाष्येदानीं सूर्यमन्दोच्वं वदति । सूरयमन्दोच्च- 
मिति । सूर्यस्य मन्दोच्चमष्टाद्रयोऽष्टसपतति ७८ मिता भागा भवेत्‌ । राशिद्रय- 
मष्टाददाभागाः । 


१. सि. शि. स. अ. १९ 


रविचन्द्र-स्पष्टाधिकारः ३५ 


अ्रोपपत्तिः--अहर्गणत्‌ साधितो यो ग्रहः स॒ मघ्यमो यतो यन्त्रवेघेनाकाश्च- 
विलोक्यमाने तावत्‌ ग्रहो न दुष्टः किञ्चिदन्तरं दुष्टं प्रत्यहं गतेविद्क्षत्वात्‌ । 
एवं प्रत्यहं ग्रहान्‌ गोखेन चक्रयन्त्ेण वा विद्ध्वा अहर्गणोत्पन्नमषघ्यमग्रह्वेधितः 
स्पष्टग्रहयोरन्तराणि साधितानि \ एवं प्रत्यहं ग्रहाणां याम्योत्तरगमनानि क्रान्ति 
मण्डखाद्यावद्भागसित्तानि दुष्टानि तानि शरसंज्ञानि ज्ञातानि । एवं परमश्रपरमाल्प 
श्लरयोर्योगार्धं मध्यमः शरो ज्ञातिः । त एवं ग्रहाणां श्रा अग्रे आचार्येगोदयास्ताचि- 
कारे पठिताः सन्तिः ततोऽनुपातेनेष्टशरःप्रसाधितोऽस्ति । स यथा} यदि त्रिज्या 
तुल्यसपातग्रहदोज्यया एते शरास्तदेष्टदोज्यंया क इति । एवं दोर्ज्या त्रिज्याभक्ता 
पठितशरगुण इष्टः शरःस्यात्‌ सोऽपि ग्रहस्थानीयः । ग्रहस्थानानि त्रीणि तदुवृत्तानि 
च । मध्यमो ग्रहो मन्दप्रतिमण्डलेऽस्तीति कल्पना । मन्दस्पष्टो ्रहः शोघ्रध्रति 
मण्डले रमतीति ! स्पष्टो अ्रहः स्वस्वविपण्डलेऽस्तीति कल्प्यते । शरः साधितो 
मन्दस्पष्टग्रहात्‌ यतः पाताः प्रतिमण्डलस्था बेधिताः सन्ति। अतः शराः शोघ्र- 
प्रतिमण्डलस्था ग्रहस्यानीयास्तत्र शौघ्रकणं व्यासा तदग्रे शराः साधितस्ते तु 
त्रिञ्याग्रहुस्थानीयाः कार्या ज्याखरूपत्वात्‌ ! अतो द्वितीयोऽनुपातो यदि शौध्रकर्णागरेऽयं 
दारस्तदा च्रिज्याग्रे कः पूवं त्रिज्या हर इदानीं गुणस्तुल्यत्वात्‌ तयोर्नाशः । एवं 
दोर्ज्या पठितशरगुणा सीघ्रकर्णभक्ता शरः स्यात्‌ । शीघ्रकर्णो नाम कि तदुच्यते । 
दोर्ज्या भुजः कोटिज्यान्त्यफलज्योमूं गकक्यादिकेन्द्रे यदयोगान्तरं सा कोटिः। 
तदर्गेक्यपद कर्णः तस्य कर्णस्य च्रिज्यातः परमन्यूनाधिक यदन्तरं साऽन्त्यफ- 
फलज्यैव तद्धनुः परमफकरमित्यर्थः । अत्र शराद्विलोमविधिना कर्णः साधितः । स 
यथा दोर्ज्या परितशरगुणा शोघ्रकणेन परमाधिकेन यावद्‌भज्यते तावत्‌ पर- 
साल्वश्षरो भवति परमालपश्चोघ्रक्रणेन यावद्‌ मज्यते तावत्‌ परमाधिकशरो भवति । 
अतो वैपरीत्याद्दोज्यात्रिज्या तुल्या पठितररगुणा परमाधिकश्चरेण परमात्पशरेण 
च भक्ता सतो क्रमेण परमात्पपरमाधिकौ शोच्रक्र्णौ लभ्येते । उभयत्र त्रिज्यया 
सहान्तरे कतं जाता परमशौघ्रफरुज्या तुल्यैव । तस्या धनुः परमं शोध्रफलम्‌ । 
एवं यहिनिजाच्छरादवं शोध्रफलं साधितं तदिनजं मध्यग्रहस्पष्टग्रहान्तरमपि ज्ञात्व 
दमन्तरं परमफक शीघ्रफर्तुल्यं नासीत्‌ । अतोऽन्यत्‌ फलं कल्प्यम्‌ । मघ्यस्पष्टातरं 
फलयोगः । अस्मात्‌ परमं शीघ्रफल विन्ञोध्य जातं द्वितीयं फर तस्य मन्दफल- 
संज्ञा कता । एवं प्रत्यहं विलोक्यासाने यर्पिन्‌ दिने परमं मन्दफकं तस्य ग्रहस्य 
दोर्ज्या त्रिज्याऽमूत । पुनदृष्टिप्रतीत्यथं विरोक्यमाने परमफलस्याने दोर्ज्या ग्रहस्य 
क्रिञ्यातुल्या नाभूत्‌ । परमफर्दिने दोज्यंया च्रिज्यातुल्यय! भवितव्यम्‌ । परमत्वात्‌ 
सा न जाता । भतस्तस्मिन्‌ ग्रहे तथोनं कायं यथा राशित्रयं मुजःस्थात्‌ । यन्न्यूनं 
कायं तस्योचचसंज्ञा । मन्दफलशीघ्र फलानयने मन्दोच्चशी घ्रोच्चसंे कृते । पुनि- 


३६ म्रहिलाधवे 


रोक्यमाने ठावतोच्चेन परमत्वं न भवति । अतच्तस्योच्चस्य गतिज्ञतिा । तत्रोपायो 
यथा । अद्यतनहवस्तनमन्दस्पष्टग्रहयोरन्तराकं मन्दस्पष्टां गतिः: ! स्पष्टयोरन्तरालं 
स्पष्टा गतिः । एवमुभयोरूच्वयोरन्तरं कृत्वाञनुपातः कृतः । स यथा 1 यचेभिः 
परमफलान्तरदिनैरेतावत्य उच्चान्तरकलाः ऊमभ्यन्ते तदैकेन दिनेन केति ज्ञाते 
मन्दोचशीघ्रोचगती । एवं मन्दोव्वगतिदचन््रस्यैव । अन्येषां वषंणापि विकला 
नोत्पद्यते । अस्या गतेः कल्पे उच्वभगणाः पठितास्ते यथा । यदचेकदिनेनतावती 
गतिस्तदा कल्पकुदिनः किमिति एवं प्रसाष्योचभगणाः कत्परौरवर्षरेते ४८० 
लभ्यते तदा क॑ल्पगतान्दैः किमिति । अनुपातादग्रन्थादौ रवेमन्दोच्चं २।१७।४६। 
४१। सप्तर्भिवेर्षेरवेमन्दोचगतिरेका १ विकला छभ्यते 1 अत आचार्येण स्थिरं 
निबद्धम्‌ । बहुकाडे ये गणकतिलका उत्पत्स्यन्ते ते अनेनैवानुपातेन रचयिष्यन्ति 
एवं मन्दोच्चरीघ्रोच्चवासना सवेषां ग्रहाणां संक्षिप्तोक्ता म्रन्थविस्त- 
रभयात्‌ ॥ १ 


चन्िका--ग्रह या ग्रहकेन्द्र यदिरे राशि सेन्यूनदहो तो वही भुज 
होताहै। यदि ३ राशिसेअधिकहोतो ६ राशिके साथ अन्तर करने 
से तथा यदि ९ रादि से अधिक मग्रहुयाकेन््रहयी तो उसे १२ रा्लि में 
घटाने से देष मुज होता है । भुज कोर रारि मे घटनेसे कोटि होती 
है । तीन-तीन राशिर्यो का एक-एक पद होता है । सयं का मन्दोच्च ७८ 
अंश अथि २ राशि १८ अंशहोतारहै। १ 


उदाहुरण- बुध केन्द्र १०।५।२६।४६। यहु ९ राशि से अधिक है भतः 
इसे १२ रारिमे घटाने से भुज होगा । 


१२।०| ० 9 
१०।५।२६।४६ 


गयी , ग रीष 


१।२४।२३२।१४ 
यह्‌ भुज हुआ । इसे ३ रादि मे घटाने से 


कोटि होगी । 


३। ० ० 9 
९।२४।३३।१४ . 


 ' श १ गै गरक 


९। ५।२६।४६ == कोटि 


रविचन्द्र-स्पष्टाधिकारः ३७ 


सूर्यमन्दफलानयनम्‌ - 


मन्दोच्चं ग्रहुर्वाजतं निगदितं केन्द्रं तदाख्यं बुधः 

केन्द्रे स्यात्‌ स्वमृणं फलं क्रियतुखादयेऽयो विधेयं रवेः । 

केन्द्रं तद्भुजभागखेचरलवोनघ्ना नखास्ते पुथक्‌ 

तद्गोशोननगेषुभिः परिहूतास्तंशादिक स्यात्‌ फलम्‌ ॥ २ 

मत्लछारिः--एवं सूर्यमन्दोचमृक्तक्तवेदानीं केन्र सूर्यमन्दफलसाधनं चैकवृत्ते- 
नाह मन्दोचचचमिति । ग्रहेण वजितं हीनं यन्मन्दोन्वं तत्‌ तदाख्यं मन्दमेवाख्या 
नाम यस्येति मन्दकेन्द्रं बुधंरतीन्द्रियदुगमिराचार्येनिगदितं प्रोक्तम्‌ । क्रियतुखादे 
केन्द्रे क्रियो मेषस्तुला प्रसिद्धा एतदाचे फलं मन्दफटं शीघ्रफलं वा वश््यमाणं 
स्वमृणं स्यात्‌ । एतदुक्तं भवति । केन्द्रे मेषादिषड राशिस्थे फं घनं तुखादिष- 
इराशिस्थे फलमुणम्‌ । अत्र केन्द्रवासना । मन्दोच्चस्यात्पगतित्वात्‌ प्रहगतिबाहु- 
ल्याच्च मन्दोच्चरहितो ग्रहः कृतस्तस्य केन्द्रसंज्ञा । अव्र ॒मुहूर्व्यावृत्तितः केन्द्र 
शंन्दस्यार्थो न ज्ञायते केन्द्ररब्देन वृत्तस्य मघ्यमुच्यते । अथ म्रहस्फुटस्थानं ज्ञातुं 
बुद्धिमद्धिराैरतौन्द्रियज्ञैयन्वादिवेधेन वृत्तत्रयं कल्पितं तेष। यानि मध्यचिह्वानि 
तानि केन्द्रसज्ञानि वृत्तस्य मध्यं किल केन्द्रमुक्तमिति भास्कराचायंवचनात्‌ । 
प्रथम कक्लावृत्तं तत्परिधौ द्वितीयं मन्दनीचोच्ववृत्तं तत्परिषौ तृतीयं शीघ्ननोचो- 
वृत्तं ततरिघौ प्रहः स भूमध्याद्रारिमण्डलगामिसूत्रस्थो यस्मिन्‌ राद्यवयवे 
द्र्यते तत्रस्थः स्फुटो ज्ञेयः कक्षापरिधिस्थितमन्दनीचोचवृत्तपरिधौ शीध्रनीचो- 
चवृत्तमध्यपरिधिज्ञानाय मन्दकेन्द्रकत्पितम्‌ । भूमध्याद्‌ दूरे नीचोचवृत्तस्य यः 
भ्रदेशस्तस्योचसंज्ञा तदृच्चं यावद्ग्रहाद्िशोध्यते तावन्मन्दनीचोचवृत्तयोरन्तर- 
ज्ञानं भवति । तस्मादपि शीघ्नीचोच्चवृत्तपरिघाववस्थितस्फुटज्ञानाय शीध्रकेन्द्र 
कल्पितं तस्मिन्‌ केन्द्रविह्नं ग्रहस्तिष्ठतीति भावः| यद्यप्यत्र ग्रहभगणवयेक्षया 
मन्दोच्चभगणा अल्पा इति मन्दोच्चेन हीनो ग्रहो मन्दकेन्द्रमिति वक्तुमुचितं 
तथापि प्रहवजितमुच्चं केन्द्रमिति यदुक्त तदपि भगणानां प्रयोजनाभावाद्दो- 
जर्यदिसाम्येन फठेऽपि वलक्षण्याभावादेकोक्त्या मन्दफल्योघंनणंताकथनकलाघ- 
वाच्च युक्तमेवेति ध्येयम्‌ । एवं केन्द्रवासना । 

अथं केन्द्रकेथननन्तरं रविमन्दफठं साधयति । तदुमुजभागखेचरलवोनघ्ना 
नखा इति । तस्य रविमन्दकेन्द्रस्य ये भुजभागास्तेषां यः खेचरल्वो नवमांश- 
स्तेन ऊना ये ना विदाति २० मितास्ते तेनैव नवमांशेन गुण्यास्ततस्ते पृथक्‌ 
अन्यत्रैकान्ते स्याप्यास्ठेषां गोशेन नवमांशेनोना ये नगेषवः सप्तपञ्चाशत्‌ ५७ 
तरुन्धांशैः परिहृता भक्तास्ते पृथक्स्था अंशादिकं भागादिकं रवेमंन्दफलं स्यात्‌ ॥ 


३८ ग्रहुलाधवें 


अत्रोपपत्तिः । समायां भूमावभीष्टत्रिज्यामितेन ककंटेन वृत्तमालिख्य दिग- 
द्धितं कुर्यात्‌ पूर्वात्‌ प्रभृति मेषादीन्‌ राश्लीन्‌ परिकल्प्य राशौ च त्रिशबद्धागान- 
ङ्कयेत्‌ ततो ग्रहमन्दोच्चं यत्र रक्षौ भागे रिक्तायां वर्त॑ते तत्र चिं त्वा ततो 
भूमध्यं यावद्रेवां कुर्यात्‌ तच्र मध्यात्‌ ग्रहपरममन्दफलज्यापरिमितं सूत्रं प्रतीपं 
निःसायं चिल्ल क्रायं॑ततश्चिह्वात्‌ पृवंककटेन यदुवुत्तमुत्पद्यते तन्भन्दभ्रतिमण्डल 
तस्य तत्रादयुच्चता तत्रोच्चव्यपदेश्ः। एतदपि पूवंवदत्युच्चतायां राश्यादिभिरं- 
कयेत्‌ । एवं स्थिते कक्षायां ग्रहो यत्र वत्तते भध्यमस्तत्र चिह्न कारयेत्‌ ततो हि 
परममन्दफर्ज्यान्यासार्धेन यदुवृत्तमुत्पद्यते तन्मन्दनीचोच्चवृत्तं तद्भागांकितं च । 
ततः प्र तिमण्डलोच्चग्रदेशात्‌ तद्वृत्तमनुरोमं ग्रहप्रदेशमानीय ग्रहचिह्ञः तस्य मध्य 
कारयेत्‌ । एवं स्थिते परिधेः प्रतिमण्डलपरिषेश्च सम्पातो यस्तत्र पारमार्थिको 
ग्रहः । ननु सम्पातत्रयं तिष्ठति तेषां मध्ये कतमेनैव भवितव्यम्‌ । अ्रोच्यते । 
उच्चरेखायाः कक्षामण्डलपरिषेश्च यः सम्पातस्तस्माद्यावति दूरे मध्यमो ग्रहः 
स्वितस्तावत्येव दूरे प्रतिमण्डलमतोच्चतो भुजज्या गृहीता कक्षामण्डलप्रति' 
मण्डलयोस्तुल्या भवति । सा भुजज्या स्वमन्दपरिषिवृत्ते तच्चापं मन्दफलम्‌ । 
अत्र रवेम॑न्दपरिष्यश्षाः १३।४३।४२ अस्मादनुपातः । यदि भांरपरिधेः ३६० 
त्रिज्यामितं १२० व्यासार्धं ङभ्यते तदा एषां परिधिभागानां किमिति तेषां 
त्रिज्या १२० गुणो भगणांक्ञः ३६० भागहारः । अत्र गुणहारौ गुणेनापवत्यं 
हरस्थाने त्रयो लन्घास्तस्मात्‌ त्रिभक्ताः परिघयः परिषीनां व्यासार्घानि स्युस्ताः 
परमफलज्या एवं रवेः परमफलज्या ४।३४।३४ यस्या धनुः सूर्यस्य परममन्द- 
फटम्‌ २।१०।४५ । एवं चन्द्रादोनामपि परममन्दफलानि साध्यानि । इयं फलो- 
पपत्तिः पूर्वोक्तफलयुक्तिमृला । यथेष्ट्फलं साघ्यते । तत्र त्रिज्यातुल्यया दोर्ज्यया 
यदेदं परममन्दफलं तदेष्टकेन्द्रदोज्यया किमिति एवमिष्टफलानि साध्यानि) 
त्राचार्येणास्मिन्‌ प्रये धनुज्यं न साधिते जीवां विना फलादिसिद्धिनं स्यात्‌ 
भागेभ्यस्तरं राशिकासम्भवात्‌ वृत्तक्षत्रे यत्‌ परिष्याधितं तत्‌ त्रंराक्िकेन न 
सिध्यति वर्गत्मकत्वात्‌ । अत एवाह भास्करः-"वगं वर्गंपदं घनं घनपदं 
सन्त्यज्य यद्गण्यते तत्‌ त्रैराशिक" मिति। अतो जीवां विना फलसिद्धिं । 
मध्र घनुज्यं न क्रियेते इत्याचायंण ग्रन्थादौ प्रतिज्ञा कृताऽस्ति फरसिद्धिरपि 
कृताऽस्ति तत्र का युक्तिरिति केचिदल्पमतयोत्र मृह्यन्ति। अत्रोच्यते । तत्रा- 
चार्येण जीवाप्रतिफलं खण्डंविना फलमष्ये साधितमस्ति ॥ 

उक्त च-- 

कोट्यंशवर्गेण तदङ्घ्रिणा च द्विघोनयुक्ताः खखमभ्‌गजाश्च । 
मायौ गुणस्तेन गुणाः खसूर्यास्त्वन्यो हरस्तेन हृता क्रमज्या ॥ 


रविचन्द्रस्पष्टाधिकारः २३९ 


मथ वा मुजभागानां नवांडोेन ऊना हता द्वाविद्यतिः २२ खाकं १२० मिते 
न्यासारपे क्रमज्या भवति । अत्राचार्येण रविमन्दफलानयने त्रिज्या शत-१०० ` 
मिता धृता तत इष्टजीवा साधिता । सा यथा। परमभुजांशा नवतिः ९० । एषां 
नवांरोन १० विशतिः २० ऊना ततस्तेनैव हता जाता त्रिज्या १०० । एवमिष्ट- 
भागेभ्योऽपि इष्टा जीवा स्यात्‌ । अत एवोक्तं तद्भुजभागखेचरलवोन्ना नखा 
इति । इयं त्रिज्या केन भक्ता परमं मन्दफलं स्यात्‌ । अत॒ इयमेव परमफलभक्तो 
जातो हारः सावयवः ४५।५३।२० । अत्र॒ लाघवार्थं नगेषवो गुहीताः। भत्र 
हारान्तरम्‌ ११।६।४० इदं नवभिः सर्वाणतं जातमृष्वंस्थाने निदोषं शतं १०० 
सैव त्रिज्या । एवं दोर्ज्यानवांशहीननगेषुभिर्भष्छा लञ्चं फलं स्यादत उक्तं॒ते 
पृथगित्यादि । अथ घनर्णोपपत्तिमाहु-मन्दप्रतिमण्डलपरिपेर्मन्दोच्वपरिधेख्च 
सम्पाताद्यत्‌ सूत्रं भूमध्यं नीयते तस्य कक्षामण्डर्परिधेश्च मध्यमग्रहादपरेण 
सम्पातस्तत्र पारमार्थिको ग्रहः स च मध्यादूनोऽपरेण रिथतत्वात्‌ मध्यग्रहस्य 
कक्षायाः सूत्रयोगस्य च यदन्तरं तत्फलमतस्तेनोनो मध्यमः स्फुटो भवति । प्रथम- 
पदे भुजज्या वदधते फकर्मपि वर्धतं द्ितीयपदे प्रथमानीतं फलमपचीयते तच्चाल्पं 
भवति पदादर्वाक्‌ पदान्ते च तुल्यं तुल्यत्वात्‌ ऋणधनयोर्नाशि सति फलाभाव. 
स्तृतीयपदे मुक्तस्य भुजज्या भवति तत्र॒ मध्यमप्रहुप्रदेशे प्रततिमण्डलोच्चप्रदेशान्नी- 
चोच्चवृत्तं यावदानीयते । तस्य कक्षापरिधेश्च यः सम्पातः स मध्यश्रहात्‌ 
पूरवेणेव भवति तस्य मध्यग्रहस्य चान्तरं फं तेन मध्यमोऽधिकः सन्‌ स्फुटो 
भवति स्फुटग्रहात्‌ मध्यस्योनत्वात्‌ तृतीयपदे भुजज्या वदधते चतुर्थपदे फरमप 
चीयते पदान्तं फकाभावोऽतो मेषाविकन्द्रे ऋणं तुखादिकैन्द्रे धनमित्युपपन्नाम्‌ । 
परमिदं मुदूज्चेन हीनो ग्रहो मन्दकेन्द्रमिति पक्षे च कल्प्यं । इह्‌ तु, केन्द्रस्यैवं 
व्यत्यस्तत्वाद्धनणंत्वयोरपि व्यत्यासेन भान्यमत उक्तं केन्द्रे स्यात्‌ स्वमृणं फल 
क्रियतुलाद्य इति ॥ २ 

चन्द्रिका--मन्दोच्च से (मध्यम) ग्रहुको घटानेसे मन्द केन्द्र होता 
है । केन्द्र यदि मेषादि ६ राशि्योमें होतो फर धन तथा तु्ादि ई 
रारियोंमेदहोतो फक ऋण होता दहै। सूयं केन्द्र का भुज बनाकर अंशादि 
भुजमेंर्काभागदेनेसे प्राप्त अंशादि र्न्िको २०मे घटाकर शेषको 
रुन्धिसे ही गुणा करके पृथक्‌-पृथक्‌ दो स्थानों मे रखें । एक स्थानम 
९ का भाग देकर छ्न्धिको ५७ मे घटाकर दषस द्वितीय स्थान वालो 
संख्या मे भाग देने से सयं का अंशादि मन्दफर होता है । [भाग देते सम 
दोनों रारियो को सजातीय कर लेना चाहिए] | २ | 

सूत 


४० ग्रहुलाघवें 


( २० -भंगादि भुन) अंशादि भुज 











९ ९ 
॥ क 1 
५७ - रुन्धि शेष 
( २० ~ अंशादि भुज ) अंशादि भज 
श व 
शोष = मन्द्फट 


उदाहरण - मध्यमसूयं ७1१३।४७।२३ मन्दोच्च ७८ अंश मन्दोच्च कीं 
राद्यादि बनाया तो २।१८ हुआ । इसमे सूयं को घटाकर मन्द केन्द्र ज्ञात 
किया । यथा- 
२।१८ 
७।१२।४७।२३ 
७। ४।१२।३७ सूयं का मन्द केन्द्र 
केन्द्र ३ रादिसे अधिक दहै अतः राशि के साथ अन्तर करके भुज 
बनाया-- 
७।४।१२।२७ 
६ 





१।४।१२।२३७ भुज 
३४।१२।३७ अंशादि भुज 


९) २४।१२।३७ (३।४८।४ अंश्ादि कुन्ि को २० मे घटाकर रुन्धि 
२७ से गुणा किया । 


= ^~ ~ -- --~ 








७०८६० २९० 
४२०  २।४८] ४ 
९२ १९६।११।५६ 
४२३९ २।४८। 1 
२८ ४८) ३३।१६८ 
|< 4 ७६८।५२८।९६८८ 
७२ ६४। ४४२ २४ 
१ २७ ४८।८० १।७६०।२७२२।२२४ 
२६ 


रविचन्द्र-स्पष्टाधिकारः ४१ 


६० से अपवतित करने से गुणनफलर ६१।३२२५।२५। ४४। 


गुणनफल ६१।३४।२५ को दो स्थानों में स्थापित कर एकस्थानमेंर 
काभागदिया-- 


९) ६१।२४।२५ (६।५०।२९ 
। 




















५.४ 
७९६० 
४२० 
२४ 
४५४ लन्धि को ५७ मे घटाकर देष से 
४५ द्वितीय स्थानवारी संख्याम सजा 
४ >< ६० तोय करके भाग दिया- 
२४० 
२९५ ५७] ©} 9 
२२६५ ८।५०।२९. 
१८ ५०] ९।३१ 
८५ ५० 9 ६० = २३००० 
८२९ ९, 
१ २००९ 
०९६० 
१८०५४० 
२१ 
१९८०५७१ विका 
६१।२४।२५ 
६० 
२३६६० 
२४ 
२३६९.४ >८ ६० 
२२१६९४० 
२५ 


२२१६६५ विकला 


४२ ग्रहुलाघवे 
१८०५७९१) २२१६६५ (१।१३।३९ 
१८ ०५.७१ 


छ १०९.४ 
>< ६० 


२२४६५. ६४० 
१८ ०५७९ 


रन्धि १।१२।३९ अंशादि ९६५९९३० 
स॒यं का मन्द फर हुआ । ५४१.७१३ 


मन्द केन्द्र तुलादि ६ राशियों मे ११८२९१७ 
होने से साधित मन्दफल ऋण >€ ६० 


होगा । अतः इसे मध्यमसृयं मे ७०९३०२० 


घटा्एगे। ५४९१७१३ 
१६७६८९० 
१६२५१२३९ 
५०७५९ 
मध्यम सूयं ७।१३।४७।२३ 
-- १।९३।३९ 


७।१२।२३४४ मन्दफल संस्कृत सूयं सिद्ध हुमा । 
चन्द्रमन्दफलानयम्‌-- 


विधोः केन्द्रदोर्भागषष्ठोननिभ्नाः 

खरामा पृथक्‌ तन्नखांशोनितेइच । 

रसाक्षहतास्ते कुवाद्यं फलं स्याद्‌ 

रवीन्दू स्फटौ संस्कृतो स्तश्च ताभ्याम्‌ ॥ ३ 

मल्लारिः--एवं रविमन्दफङं प्रसाष्येदानीमेकवृत्तेन चन्द्रफलं साधयति 

विघोरिति विधोऽचन्द्रस्य यत्केन्द्रं तस्य दोष्णो भुजस्य भागास्तेषां षष्ठेन षडंदोन 
ऊना रहिता निघ्ना गुणितारच खरामाखिशत्‌ ३० ते पृथक्‌ भिन्नस्थाने स्थाप्या- 
स्तेषां पृथक्स्थानां यो नखांक्षो विशत्यंशस्तेनोनितो रसाक्षः षट्पञच्चाशद्भिः ५६ 
तैः पथकस्या हृता भक्ताः सन्तो ल्वाद्यं भागाचं तिष्ठं चन्द्रमन्दफलं स्यात्‌ । 
ताभ्यां स्व-स्वमन्दफलाभ्यां संस्कृतौ सूयचन्द्रौ धनं चेत्‌ तदा युक्तावृणं चेत्‌ तदा 


रविचन्द्रस्पष्टाधिकारः रे 


हीनौ तौ स्फुटौ स्पष्टो स्तः । 


अत्रोपपत्तिः । परमं चन्द्रफलं भागाद्यम्‌ ५। ४०। अत्र चन्द्रमन्दफला- 
नयने भ्रिज्या पञ्चविशत्यधिकशतद्यमिता धृता यांवद्यावदधिका तावत्तावत्‌ 
फलस्य सूष्षमत्वमतः सृष्ष्मत्वार्थमेतावती त्रिज्या २२५। परमभागाः नवतिः ९० । 
अत्र॑षां भुजभागानां षडंशेन १४ उनार्स्रिशत्‌ १५ ततस्तेनैव हता परमदोर्ज्या 
भवति २२५ । एवमिष्टभागेभ्योऽपोष्टजीवा भवन्ति । अत उक्तं केन्द्ररोर्भागष- 
ष्ठोननिध्नाः खरामा इति। सा त्रिज्या केन भक्ता परमं मन्दफटठं स्यादिति 
जञानाथं परमफलेनैव भक्ता जातो हरः सावयवः ४४।४५। ° असौ सावयवोऽतो 
लाघवार्थं रसाक्षाः गृहीताः । अनयोरन्तरं ११।१५। ° एतद्धिशत्या २० सर्वाणतं 
त्रिज्या भवति २२५ 1 अत एवोक्तं तन्नखांशोनित रसाक्षैस्ते हृता इति स्वस्वमन्द- 
फलसंस्कृतावेष सूर्येन्दू स्फुटौ भवतस्तयोः श्चीघ्रफलाभावात्‌ ॥ ३ 

चन्दरिका--चन्द्रमाकेकेन्द्रको भुज बना करअंशादिमभुजमेद का 
भागदेनेसेजो न्धि प्राप्तौ उसे ३०्मे घटाकर शोष की रुन्धिगत 
संख्या से गुणा कर गुणनफल को दो स्थानों मे रखे | एक स्थानमें २० 
काभागदेकर रुन्धि को ५६ में घटाकर दोषसे द्वितीय स्थान वाखो 
संल्या मे भाग देने से रन्धि अंशादि चन्द्रमा का मन्दफर होता है । अपने- 
मषने मन्द फलो से संस्कृत सुयं ओर चन्द्र स्पष्ट होते है। २ 


विशेष-- चन्द्रमा का वास्तविक मन्दफल साधन त्रिफल (दशान्तर, 
चरात्तर , भुजान्तर) सस्कृत चन्द्र से किया जाता है । अतः इसका उदा- 
हरण उक्त संस्कारों के पर्चात्‌ दिखलाया जायेगा । 


रविचन्द्रयोः गतिफलानयनम्‌ -- 


केन्द्रस्य कोटिक्वखार्विलवोननिघ्ना 
रद्रा रवेस्त्रिकहूताः शक्नो हिनिघ्नाः । 
स्वाद्धांशकेन सहिताहच गतौ धन्णं 
केन्र कुलोरमृगषट्कगते स्फुटा सा 1\ ४ 
मल्लारिः-एवं सूर्यचन्द्रयोः स्फुटत्वमुवत्वेदानीं तयोर्गतिरपष्टीकरणमेक- 
वुत्तेनाह कैन्द्रस्येति । केन्द्रस्य रवेर्वा चन्द्रस्य यन्मन्दकेन्द्रं तस्य कोटिल्वा भुजोनं 
त्रिमं कोरिस्तस्या छवा भागास्तेषां यः खारिविल्वो विक्नत्यंश्चस्तेन उना हीना 
निष्ना गुणिताश््च रुद्रा एकादश १ १कार्याः । ततस्ते चेद्रवेस्तदा च्रिकभिस्वयोदश- 
१३ भिता भक्ताः सन्तो रवेर्गतिफङं कठाद्य स्यात्‌ । शशिनश्ष्चन्द्रस्य चेत्‌ 


र ग्रहलाधवे 


तहि दिनिघ्ना द्वाम्यां निहन्यते गण्यते तथाभूताः सन्तः स्वाङ्कांशकेन सहिता 
युक्तास्तच्चनद्रगतेः फं तत्फलद्रयं स्वस्वमध्यमगतौ कुली रमगषट्‌कगते केन्द्रे । 
कुलीरः ककः । मृगो मकरः । ततः षट्के घनणं कायं कर्कादिषड़ाशिस्थे केन्द्र 
धनं मकरादिषड़ाशिस्थे ऋणं कार्य सा गतिः स्फुटा भवतीत्यर्थः । 

अत्रोपपत्तिः । अद्यतनश्वस्तनस्पष्टग्रहयोरन्तरं स्पष्टगतिस्तथाऽद्यतनश्व- 
स्तनयो ग्रहफल्योरन्तरं गतिफलं तञ्ज्ञानार्थमुपायः । प्रथमपदादौ भुजजञ्या शून्यं 
त्र ग्रहफलमपि शून्यं तत्र कोटिज्या परमा तत्र गतिफलमपि प्रमं यथा-यथा 
प्रहफलस्य वृद्धिस्तथा-तथा गतिफलस्यापचयो दृक्ष्यते । एवं कोटिज्यायाः परमत्वं 
गत्तिफलस्य परमत्वं कोटिज्याऽभावे गत्िफलाभावः । अतः केन्द्रकोटिज्यातो 
गतिफलसाधनं क्त्‌" युज्यते । तद्यथा । अत्रोभयत्रापि त्रिज्या सपादेकोनत्रिश्ष- 
न्मिता २९।१५ धृता । तत्साधनं यथा । कोटिमागानां परिमाणं ९० नखांदोन 
२०।३० ऊना सुद्रास्ततो हता जाता त्रिज्या २९।१५ एवमिष्टांशेम्य ईष्टा स्यादेव । 
अत एवोक्त कोटिल्वखादिविलवोननिध्ना इति ! ततो दोर्ज्यातिः फलसाघन रवेः 
परम गतिफलं २।१५च्रिज्या २९1 १५केन भक्ता सतीदं स्यादतस्तेन॑व त्रिज्या 
भक्ता जातो हरस्त्रयोदश १३ । अतो रवेस्तरिकरुहूता इति । एवं चन्द्रस्य॒परमगति- 
फलम्‌ ६८।१५ । अत्र दोर्ज्या केन गुणिता सतीदं फक स्यादतस्त्रिज्या भक्तं फल 
जातं गुणस्थने २।२० अत्र द्रवेव गृहीतावत उक्तं शश्लिनो दिनिध्ना इति । एवं 
द्विगुणत्रिज्यायां जातं ५८।३० अस्य परमगतिफलस्य चान्तरमिदं ९।४५ षड्मिः 
स्वणितं जातं तत्तुल्यमेव । अतः स्वाद्धांशकेन सहिता इति । तच्चन्द्रगतेः फलम्‌ 
तत्फल यं स्वस्वमधघ्यगतौ देयमेवं स्फुटा गतिः अथ घनर्णोपपत्तिः । तत्न तावदुच्चो 
नो ग्रहः केन्द्रमित्यस्मिन्‌ पक्षे मकरादिकेन्द्रं ग्रहस्य धनफलस्यापचधान्मृगादिकेन्द्र 
गतिफलमृणं वर्धते । मेषादिकेन्द्रे प्रहृष्य ऋणफल्वुद्धौ सत्यां मतिफलमृुणमपः- 
चोयते । अतो मुगादिके षड्भे केन्द्रे गतिफलमृणम्‌ । कवर्यादिकेन्द्रे ग्रहस्य ऋण- 
फरहामे गतेधनफलम्‌ वते । तुलादित्रये केन्द्रे ग्रहूघनफलवुद्धौ गतेः फल्मप- 
चीयते । अतः ककर्यादिषडमे धनमिति युक्तम्‌ । ग्रहोनमुच्चं केन्द्रमित्यस्मिन्नपि 
पक्षे मकरादित्रिके ऋणफलवृद्धिर्मेषादित्रिके घनफलहवासः । अतो मकरादिषडमे 
गत्तिफरमृणमेव । एवं कवर्यादिषट्के घनमित्ि । अतो युक्तियुक्तं धनणं केन्द्र 
वूःखोर मृगषट्‌ क्रगत इति ॥ ४ 

चन्द्रिका- सूयं ओर चन्द्रमा का गतिफल साधन-- 


सूयं ओर चन्द्रमा के केन्द्र से कोटि बनाकर उसके अंशादि मानमें 
२० का भाग देकर लन्धिको ११ में घटाकर रोषको र्न्धिसदही गुणाकर 


रविचन्द्र-स्पष्टाधिकारः + 1 


गुणनफल मे १२से भागदेने पर सूयंका गतिफल होता दहै! तथा उक्त 
गुणनफछको र२सेगुणा कर उपमे उसी का षष्ठांल मिलानेसे चन्द्रमा 
का गतिफल होता है । मन्द केन्द्र यदि कर्कादि ६ राशियोमेहो तो गति. 
फर धन तथा मकरादि ६ राशियोंमेदह्ोतो फल ऋण होताहि। ४ 


उदाहुरण--चन्द्रमन्दफल के साथ दिया गया है। 


पलभान्ञानाच्‌ चरखण्डज्ञानम्‌- 


मेषादिगे सायनभागसू्यं 
दिनाद्धभा या पकुभा भवेत्‌ सा । 
रिष्ठा हता स्थुद॑शभिम्‌ जद्धै- 
दिग्भिहचरार्धानि गुणोदताञन्त्या ॥ ५ 
भत्लारिः- एवं रविचन्द्रगतिस्पष्टीकरणं कृत्वे दानीं पलभाचरखण्डकानि 
चैकवु तेनाह । मेषादिग इति । अयनस्य भागा अयनांशा अग्रे वक्ष्यमाणाः तं: सह्‌ 
वतमानो युक्तो यः सूर्यस्तस्मिन्‌ सूये मेषादिगे राहिभागकलादिना शुन्यमिते 
सति तस्मिन्‌ दिने दिना्धं मध्याह्ल सममुवि द्वादशांगुलचंकुनिवेद्यः शंकुलक्षण- 
मुक्तं भास्करेण - 
'समतलमस्तकपारिधिश्रमसिद्धो दन्तिदन्तजः शंकुरितिं 1? 


एवं तस्य शंकोम॑ष्याह्नं भा छाया या भवतिसा पलभा भवेदित्यर्थः । 
सा पलभा त्रिष्ठा त्रिषु स्यानेषु तिष्ठतीति चिष्ठा। दशभिः १० भुजङ्खरष्टाभिः 
< दिग्भिः १० हता गुणिता ततोऽन्तिमा गुणस्त्रिभिः ३ उदृता भक्ता सती 
त्रीणि चरखण्डकानि भवन्ति । 


अत्रोपपत्तिः- सायनसूर्यो यदिन मेषादौ तददिने सूर्यस्य नाडिकामण्डले 
स्थितिः । नाडिकामण्डलं रंकापूर्वापिरम्‌ । अतस्तहिने मध्या खंकायां शकु- 
च्छाया नास्ति खमघ्यस्थितत्वात्‌ । अन्यदेशं तु पूर्वापरं सममण्डलमतस्तरिनेऽपि 
मध्याहुनेऽन्यदेदो शंकुच्छाया भवति सेव परभा । तस्याः परमा बरिषत्रतीति च 
पर्यायः । एवमत्रैकागुखां पकमां प्रकल्प्य ““अक्षप्रभा सडगुणिताऽपमज्ये" त्यादयुक्त 
प्रकारेण राशित्रयस्य चराणि प्रसाध्य तान्यधोऽघः शुद्धानि जातानि च रलण्ड- 
कानि १०।८।३। ततोऽनुपातः यचेकांगुख्याऽनप्रभया एतावन्मितानि चरखण्ड- 
कानि तदेष्टाक्षत्रभया कानीति । एवमक्षप्रभा त्रिष्ठा एभिः पृथम्गुणिता हरेण 
हता_सतीष्टचरखण्डानि भवन्तीति । अव्रैतत्‌ त्रैराशिकं सुखार्थमद्ीढृतम्‌ । 

१. सि. शि. गो.य.अ. ९ 


४६ ग्रहसाघवे 


अप्राप्तावेपि प्रप्तिः कृता वृत्तक्षत्रे परिध्यात्ितत्वात्‌ । अतो विरोधः प्रतिभाति 
स वक्तुः न शक्यते यन्महद्धिराचार्यरङद्धीकृपं तदोषयुक्तमप्यदृष्टम्‌ । यावदष्टा- 
गृलाक्षप्रमा तावदन्तरं नास्ति तत्रतः सान्तराणि भवन्तोति बुद्धिमद्धिविलो- 
क्यम्‌ ।। ५ 


चद्दिश्ल--मेषादि विन्दु पर निस्त समय सायन सूयं जाता है उस समय 
मध्यराह्लकालिक शङ्कुच्छाया पलभा कटराती दहै। पल्भाको तीन 
स्थानों मे रखकर क्रमसे एक स्थानमे १० क्षे, दूसरे स्थानमें<से तथा 
तीसरे स्थानम शग्सेगृणा करं। तीसरेस्थानकेगुणन फल्मेरका 
भागदे। इम प्रकार तीन चर खण्ड होगे। 

विशेष - प्रत्येक स्थान की पलभा भिन्च-भिन्न होगी अतः चरख्डभी 
अलग-अलग ही आरयेगे । 

उदाहरण--वाराणसी को पलभा ५।४५ है । इसे तीन स्थानों मे रख 
करक्रमसे १०, ८ ओर १०से गणा किया- 


५।४५ ५।४५ ५|४५ 

>» १० >< & > १० 
५० [४५० ४०।२६० ५ ० [५.9 
५७।२० ४६।० ५७।२३० 


तृतीय गुणनफल को तौन से भाग दिया 
३)५७।३०८१९।१० इस प्रकार ५७, ४६, १९ ये तीन 
रे चर खण्ड हुये । 








चरफलसाघनम्‌-- 
स्यात्‌ सायनोष्णांशुभुजक्षंसङख्या- 
चराधंयोगो कवभोग्यघातात्‌ । 
खारन्याप्ियुक्तस्तु चरं धनर्णं 
तुलाजषट्‌के तपनेऽन्यथाऽस्ते 1\ ६ 


रविचन्द्र-स्पष्टाधिकारः ४७ 


मल्लारिः--अथ चरसाघनमेकवृत्तेनाह ध्यादिति । सायनोऽयनांशयुक्तो 
य उष्णांशुः सूयंस्तस्य भुजस्तस्य ऋक्षाणि राशयस्तत्सङ्ख्यानि यानि चरार्घानि 
चरखण्डानि तेषां योगो ल्वेमागिभोग्यिस्य खण्डस्य यो .घातो गणनं तस्माद्‌ या 
खारन्याप्निस्त्रिशद्धागात्तिस्तस्या युक्तः स खण्डयोगश्चरं पलात्मक स्यात्‌ । 
तच्चरं तपने सूर्ये तुलाजषट्‌के घनणं स्यात्‌ । तुलादिषट्के धनं मेषादिषट्‌के 
ऋणम्‌ । इदमुदये सूर्योदयकालीनग्रहसाघने । भस्तं सायंकाखीनग्रहसाघनेऽन्यथा 
उक्तवेपरीत्यं वुरादावृणं मेषादौ घनम्‌ । 

अघ्रोपपत्तिः। चर नाम लकाकदियरेखार्कोदययोरन्तरमतस्तदह्‌क्षिणोत्तरम्‌ । 
तत्साघनायोपायः। अत्र॒ प्रतिराशिखण्डाति सन्त्यतो भुजराक्िमित्तखण्डयोगः 
कर्तव्यः शेषात्‌ त्र राशिकम्‌ । यदि त्रिशद्धिः ३० भा्ैरेष्यखण्डतुल्यं चरं म्यते 
तदा लेषभागैः किमिति सुगमम्‌ 1 

अथ धनर्णोपपत्तिः- जाता ग्रहा लंकार्कोदयकालीना रेार्कोदयकारीनाः 
कार्याः । तच्च लंकायां यद्‌ क्षित्तिजं तस्योन्मण्डलसंज्ञा । अन्यदेशोयस्य क्ितिजस्य 
क्षि तिजसंज्ञैव । उत्तरगोले उन्मण्डलार्कोदयात्‌ पूवं क्ितिजार्कोदयः । 
उन्मण्डलास्तात्‌ पश्चात्‌ क्षितिजास्तमयो यतः क्षितिजादुपयुन्मण्डलम्‌ । अत 
उत्तरगोले उदये चरमृणमस्ते च धनम्‌ 1 दक्निणगोलेऽस्माद्विपरीतम्‌ । तद्यथा । 
उन्मण्डलाकोदयानन्तरं क्षितिजार्कोदयः 1 उन्मण्डलास्तमयात्‌ पूवं क्षितिजास्तमयो 
यतः क्षितिजादधः उन्मण्डलमतो दक्षिणगोरे उदये चरं धनमतस्ते ऋ णमित्युप- 
पन्नम्‌ ।। ६ 

चन्द्रिका--सायन स॒यंका भुज बनाने पर राशिस्थान में जितनी 
संख्या हो उतने चरखण्डों का योग कर ले । पुनः अंशादि सायन सूर्य॑को 
भोग्य चरखण्डसे गुणा करके गुणनफल ३० का भागदेकर ल्न्धिको 
पूवंसाधित योगफर मे जोड़ने से चरफख होता है । तुलादि ६ राशियों 
4 यं हो तो चरफरू धन तथा मेषादि ६ राशियोमेहो तोक्ण 
ता 


उदाहुरण--भागे दिखाया गया है । 
चरफलसस्कारः-- 
देयं तच्चरमरुणे विलिप्तिकासु 
मध्येन्दौ द्विगुणनवोदधुतं कलासु । 
भाप्तं च दयुमणिफलं लवेऽथ वेदा- 
व्ध्यज्घ्युनः खरसहूतः शकोयऽनांज्ञाः ॥ ७ 


४८ ग्रहुराघवे 


मल्लारिः--अयास्य चरस्य संस्कारं सूर्यन्दोश्चन्द्रे द्युमणिफलसंस्कारं. 
मयनांशसाधनं चैकवृत्तेनाह । देयमिति । तदानीते चरपलात्मकमरुणे सूर्ये 
विलिसिक्रासु विकलासु देयम्‌ ।! तदेव चरं द्विगुणं सन्नवोद्धृतं नव ९ भक्तं 
मध्येन्दौ मघ्यमचन्दरे कलासु देयम्‌ । माप्तं सपतविशति-२७ भक्तं यतृदयुमणि- 
फलं सूथंस्य मन्दफलं तदपि यथागतं घनं भागेषु देयं ततः स्वमन्दफलं देयं स 
स्फुटश्चन्द्रः स्यात्‌ । अथ सूर्येन्दु स्फुटोकरणानन्तरमयनांशान्‌ साधयति शक 
बर्तमानः शालिवाहनशकः । वेदाग्ध्यश्ध्यूनश्चत्वारिशदधिकवतुःशत ४४४ 
हीनस्ततः खरसहूतः षष्टि-६० भक्तोऽयनांशाः स्युः । 


अत्रोपयत्तिः-- यदानीतं चरं पलं पलात्मकं तद्‌ ग्रहाणां स्वक्वगतिवश्याद्दे- 
यम्‌ । तद्यथा । यदाऽहोरात्रपलेः ३६०० एभिगंतिकला लभ्यन्ते तदेष्टचरपलैः 
किमिति । एवं सर्वेषां प्रहाणां देयम्‌ । तत्राचार्येणायं संस्कारो रवीन्द्रोरेव कतः । 
अन्येषां स्वल्पगतित्वात्‌ स्पत्पान्तरत्वात्‌ त्यक्तः। तत्र रविगतिः षष्टिः ६० 
तुल्या तयाऽपवत्तिते चरपलानि षष्ट्या भाज्यानीति जातम्‌ । एवं ताः कला 
विकलार्थं षष्टिगुणाः षष्टितुल्ययोगु णहारयोनशि कते चरपलतुल्या एवं विकला 
रवौ देया इत्युपपन्नम्‌ । ९वं चरपलानां चन्द्र मध्यगतिः७९० गुणो हरः स 
एव ३६०० । अत्र गुणहरौ गुणाघंनापवतत्यं जातो गुणः २। हरः किञ्चिदधिका 
नव तत्र सुखार्थं नवैव गृहीताः। अतो द्विगुणं नव~-९ भक्त चरं चन्द्र 
कलासु देयमिति युक्तमुक्तम्‌ । 


अथ दोः फलोपपल्तिः । देश्ञान्तरफलेन स्वदेशमवघ्यमार्कोदयकाटीना ग्रहाः 
कृताः । सूर्य॑स्य मन्दफलेन स्फुटार्कदयकालीनाः क्रियते । अस्माकं स्फुटाकरदि- 
येन॒ भवितव्यं मध्यमाकस्यादुश्यत्वात्‌ । अतस्त्रैराशिकम्‌ । यदि चक्रकराभिः 
२१६०० नित्यं प्रवहानिलेन पश्चान्नोयमानामिग्रहा अहोरात्रवृेन स्वीयगति- 
तुल्याः कलाः स्वग्यापारेण प्रापयन्ति तदा रविमन्दफखकलाभिरपरेण नीय- 
मानाभिः किमिति । फलं ग्रहेषु कऋणघनमतः क्रियते । णफले स्फुटाकस्योन्न- 
तत्वा द्ध जफलेनोनाः सन्तः स्फुटारकोदयकालिका भवन्ति । धनफले स्फुटार्काधि- 
कत्वान्मव्यमार्कात्‌ फलेनाधिकाः सन्तः स्फुटाकेदियकालीना भवन्ति । एवमत्रा- 
चार्येणायं संस्कारश्चचन्द्रस्यैव कृतो गतिबाहूल्यात्‌ । अन्येषां स्वेल्पगतित्वान्नोक्तः । 
एवं रविफलं कवाद्यं षष्टिगुणं कलाचं स्यात्‌ । तच्चन््रमध्यगत्या गुण्यम्‌ । एत्र 
गुणधातो गुणाः ४७४३५ चक्रकखा २१६०० हारो ल्वादिफलार्थं षष्टिः ६० च । 
एवं हरघातो हरः १२९६००० गुणहारौ गुणेनापवत्य जातो हरः २७ । अत 
उक्तं प्राप्तं च दयुमणिफलं ङ्व इति ॥ 


र विचन्द्र-स्पष्टाधिकारः ४९ 


भथायनांशोपपत्तिः--इष्टदिने दिनार्धं यन्वादिवेषेन सावयवानुन्नतांशान्‌ 
प्रसाध्य तान्‌ नवतेविशोच्य दोषाशस्वाक्षांगयोरेकान्यदिशोरन्तरं योगं विधाय 
तेभ्यः क्रान्तिमागेभ्यः क्रन्तिलण्डकश्चापं कुर्यात्‌ । स सायनसूयंस्य भुजः स्यात्‌ 
तात्कालिकगणितागतस्फुटारकस्यापि भुजः कायत्तद्भुजप्रागभुजयोरन्तरं तेऽय- 
नांश्चाः । यदि गणितागतान्मध्याद्भुजोऽधक्रस्तदा ते धनाख्याः । ऊनास्तदा 
वऋणाख्याः । एवमत्रोपलन्धिरेव वासना । एषां प्रतिवष॑मेकैका कला गतिहत्पद्यते 
चतुश्चत्वारिशदधिकचतुःरत-४४४मिते शकेऽयनांशाभावोभृत्‌ । प्रतिवषं कखा- 
वृद्धिरतो वेदाञ्व्यन्ध्यूने शके यावन्ति वर्षाणि तावत्य ९वायनांशकलास्ताः षष्टि- 
भक्ता भागा अतः खरपहुत इति 1 चत्वारिशरधिकचतुर्दंशशतवर्घे १४४० 
परमायनचलनस्य ग्यावृत्तिभवति । तत्र॒ यस्मिन्‌ पक्षे कलोपचयस्तस्मिनपक्ष 
चतुविशत्यंशाः परमायनचलनांशाः । यस्मिन्‌ पक्षे चतुःपञ्चाशद्‌५८ विक्रा 
उपचीयन्ते तत्पक्षे सप्त्विशव्य-२७ शाः परमा उत्पयन्ते । अष्टादशशत-१८०० 
वर्षमध्ये एवमेषां चयापचयवशात्‌ प्रागपरवश्चाच्च घ्रनणंसंभवः स्यात्‌ ॥ ७ 

चन्द्रिका--उस (पूवसाधित) चरफट का सूयं की विकला में संस्कार 
करना चाहिए । उक्तचरफल को २ से गुणाकरर्का भागं देकर क्न्धि- 
तुल्य फल का मध्यम चन्द्रकोकला विकलामें संस्कारकरे । सूर्यं के 
मन्द फर को २७ से भाग देकेर अशादि ङ्न्विका चन्द्रमा क अंशादिमें 
संस्कार करे । (इनस संस्कृत चन्द्रमा त्रिफर संस्कृत चन्द्र कहराता है |) 
दष्ट शकमे ४४४ घटाकर ६०्का भगदेनेसे छन्वि अंश्ादि मयनांश 
होता है । ७ 

विशेष--उक्तरीति से साधित भयनांश चेत्र शुक्छ प्रतिपदा का होगा 
अतः स्वल्पान्तर से यदि बाषिक मयनगति ५० विकला मान लेती एक 
मास को ४।१० विकलादि गति होतीदहै। भतः स॒यंके राशि अंशको 
४।१० से गुणाकर गुणनफल को प॒वं साधित भयनांश मे जोड देने से इष्ट 
कालिक अयनाश होगा । 


उदाहरण~--अयनाश साधन--इष्टशश्चक १८९६ 








१८९६ -४४४-= {४५२ ~~ ६० ६०)१४५२(२४।१२ ७२० 
रन्धि २४;१२==अयनांश (चत्र १२० ६० 
शुक्ल प्रतिपदा) इष्टकालिक २५२ ` १२० 
मयनांदा ज्ञात केरनेके किए २४५ १२० 
इष्टकालिक सूयं के रारि अंश १२०६० > 


५ ग्रहखाधवे 


५० ग्रहुखाधवे 


७।१२ को ४।१० से गुणा कर गुणनफल ३० विकला को पूवं साधित 
मयरनांश में जोड़ने से २४।१२।३० इष्टकालिक अयनांश हुभा । 


चरसाघन- 


मन्दफलर संस्कृत सूयं ७।१२।३२।४४ + अयना रा २४।१२।२०८।६।४६। १४ 
= सायनसुयं । 


सायनसूयं का भुज = २।६।४६।१४ मुज के राशि स्यानमे २ संख्या 
है । अतः क्रम से दो चरखण्डों का योग क्रिया | ५७ + ४६== १०३ = योग 
भुज के अंशादि मान ६।४६।१४ को अग्रिम (तृतीय) भोग्य खण्ड १९ से 
गृणा किया-- 
६।४६।१४ 
> १९ 
१९१४।८अ४।२६६ 
१२८ ३८। २९६ 


३०)१२८४ गुणनफल १२८ मे ३० का भाग देकर रुन्िष्को 
१२०  चरखण्डों के योग १०३ मे जोड़ने से १०७ चरफल 


८ हुआ । इसे करादि बनाते से १४७ हुआ । सायन 
सूयं तुखादि छः रश्शियों मे है अतः फल धन हुञा । 


चरफल संस्कार--मन्दफल संस्कृतसूयं ७।१२।२३।४४ 
चरफल -1- १।४७ 


भौदयिक स्पष्ट सयं ५७१२।२५।३१ 





त्रिफल संस्कार-उक्त चरफल १।४७ को २ से गुणा किया तयार 
से भागदिया तो कलादि २३।४६ रुन्धि हृई इसे देदान्तर संस्कृत चन्द्र में 
जोड दिया-- 

देशान्तर संस्कत चन्द्र १।९।५०।३१ 


+-२३।४६_ 
१।१५०।१४ २१ 


सूयंमन्दफल १।१३।३९ मे २७का भाग दिया रुन्धि ०।२ा४३को 
मन्द फल ऋण होने के कारण घटाया - 


रविचन्द्र-स्पष्टाधिकारः ५१ 











१।१०।१४।२१ 
 -०। २।४३ 
१।१०।११।३८ त्रिफल संस्कृत चन्द्र 
चन्द्र मन्दफल साघन-~चन्द्रोच्च १० १।४१।२७ 
त्रि० सं० चन्द्र १।९०।११।३८ 
मन्दकेन्द्र ८।२१।२९।४९ 
~ 
भुज  ररश्रयाण्रः 
अंशादि भुज ८१।२।९४९ 
६) ८१।२९।४९१३।३४।५८ 
९ 
२१ 
१८ 
३०८ ९६५ == १८० 
२९ 
[र 
९८ _ 
२९ 
९६ 
५ > ६०9 
३०० 
४९ 
२४९ 
२० 
४९, 
४८ 
१. 
२०| ०। 
१३।३४।५८ 
१६।२५। २ दोष 


दोषको रुन्धि से गुणा किया-- 


५२ प्रहलाघवे 


१३२३।३४।५८ 
१६।२५। २ 
 २०८।५४२४।९२८ 
२ २५।८५ ०१४५० 
२६। ६८।११६ 


` २०८८६२९ १८०४ १५१८११६ 
अर्थात्‌ २२२।५९।२९।२० 


गुणनफल को २० से भागदिया 


२०)२२२।५९।२९।११।८।५८ 
२०५ 
९ 
क 
२>६० 
१२० + ५९ 
१.७९ 
१६० 
१९ >८ ६० 
११४० + २९ 
११६९ 
१००५ 
१९६९ 
१६० 
स 











रन्धि अंशादि को ५६ मे घटाकर गुणनफर मे सजातीय करके भागं 
देने से-- 
५६] °| ° 
११। ८।५८ 
४४।५१। २ दोष 


रविचन्द्र-स्पष्टाधिकारः ५३ 





गुणनफल को एक राहि दोष की एक राशि 
#९१ ४४ >८ ६० = २६४० 
२८६ ५९ 
१३३२० [५९ १३३७९ >९ ६० २६९१ 
== ८० २७४० -{-२९ ८ ६० 
गुणनफल = ८०२७६९ १६९१४६०. 
र 





१६९१४६२ शोष 
२६ १४६२)८०२७६९(४।५८।१८ 








६४५. ८४८ स्वल्पान्तरतः रुन्धि ४।५८।१९ 
१५६९२१ (अर्दधाधिके रूपं ग्राह्यम्‌) 

८ ६० = चन्द्रमा का मन्दफल 
९४६५२६० तुलादि केन्द्र होने से फल ऋण 
८०७२३१० होगा । 

१३४२१६० 
१२९१६९६ 
५७.४६४ 
>€ ६० 
२० २७८४० 
१६१४९६२ 
१४१२२२० 
९९९१६९६ 
१२१५२५४ 
मन्दफल संस्कार--त्रिफलसंस्कतचन्द्र १।१०।११।३८ 
चन्द्रमन्दफल -४।५८।१९ 
स्वदेशोदयकाकिक स्पष्टचन्द्र २।५।१३।१९ 
सूयं गतिफक साधन--सूयं केन्द्र ७]४1१२।३७ 
भज १।४।१२।३७ 
इसे ३ मे घटाकर कोटि बनाया ३। ० °| ० 
१। ४।१२।३७ 


१।२५।४७।२३ कोटि 


५४ ग्रहखाघवे 


२०)५५।४७।२३(२।४७/२२  अंशादि कोटि = ५५।४अ।२३ 




















४० 
१५ >८ ६० 
९०० लच्धिको ग्यारह मे घटाया 
४७ ११ °| ° 
९४७ ८ २ 
८० ८।१२।३८ 
१४७ 
१४० 
७ > ९० 
४२० 
२३ 
४४९३ पर्वेक्ति रीति से ८१२।३८ को 
क २।४७।२२ से गुणाकर गुणनफर 
४३ २२।५४।१० मे १३ सभाग दिया 
४० 
३ 
१३)२२।५४।१०८(१४५।४२ 
१३ 
९ 
रन्धि १ ॥४५ ।४२ = गतिफल (1 4 ९ ५< ६७ 
कर्कादि केन्द्र होने से फल धन ५४ ५४० 
होगा । | 
€ म ५ 
मतः सूर्यं को मध्यम गति मे ५ 9 
गतिफल जोडने से- ५२ ५५४ 
५९।८ ७४ । ५२ 
अ ६५ ३४ 
६०।५३।४२ 
९ २६ 


रविचन्द्र-स्पष्टाधिकारः ५५ 


चन्द्रगतिकलसाधन-- 

चन्द्रमन्दकेनद्र ५८२१।२९।४९ 
भुज २।२१।२९।४९ 
कोटि ०} ८।२३०।१ १ 


अंशादि कोटि पे २० का भाग दिथा-- 


२०)८।३०।११(०।२५. 


[५। 





८ ॐ ६० 
४८०७ 
२9 
५१० 
४/9 





११० 
१०० 


भोगामेनयान-नना 


१० 


६)८।४८(१।२८ 
६ 


२६० 
१२० 
४८ 


च ------ 


१६८ 
१२९ 


7 मी 


४८ 
४८ 


ज 


> 


ल्न्धि को ११मे घटाया 
११ °। 
०।९५ 
१०।३५ रोष 
रन्धि ०1२५८ शेष १०।३५ 
= ४।२४ इसे द्विगुणित कर 
६से भाग दिया 
२(४।२४) = ०४८ ~ ६ 
== १।२८ रुन्धि 





द्विगुणितं गुणनफल <८४८ 
लब्धि ९12८ 


१०।१६ 
--चन्द्रमा का गतिफल 
कर्कादि केन्द्र होने से फल धनं 


होगा । 
अतः चन्द्रमा की मध्यमगति 
७९०।३५ 
+ ९०।१६ 


चन्द्रमा की स्पष्ट गत्ति = ८००।५१ 


५.६ ग्रहुलाघवे 
पञ्चा द्गसाधनम्‌- 


भक्ता व्यकविधोकवा यमकुभिर्याता तिधिःस्यात्‌ फलं 

शेषं यात मिदं हरात्‌ प्रपतितं भोग्यं विक्िप्तास्तयोः । 
भुक्त्योरन्तरभाजिताद्चघटिकायातेष्यकाःस्थुःक्रमात्‌ 
पुव्धिं करणं बवादुगततिर्यि्िघ्न्यद्रितष्टा भवेत्‌ ॥ ८ 

तत्‌ संक त्वपरे देऽथ शकुनेः स्युः कृष्णभूतोत्तरा- 
दर्घच्चाथ विघोडच साकसितगोकिप्ताः खखाष्टोद्धृताः । 
याते स्तो भयुती क्र माद्गगनषग्णिध्ने गतैष्ये तयो- 
रिन्दोभुक्िहूते जवक्यविहूते यातेष्यनाज्यः क्रमात्‌ ॥ ९ 


मल्टारिः-एवं स्पष्टार्कोदयकारीनौ स्पष्ट सूर्यचन्द्रौ कृत्वेदानीं तिथिन- 
क्षत्रयोगकरणासाधनं वत्तदयेन करोति । भक्ता इति । विगतोऽकः सूर्यो यस्मदेवभूतो 
यो विधुश्चद्दरस्तस्य लवा राशींस्विशता संगुण्य भागेषु संयोज्य खवा भागाः कार्याः 
ते यमकुमिदरद्शिभिभक्ताः सन्तो यत्‌ फलं ततुतरल्य( याता तिथिः स्यात्‌ । यच्छेषं 
तदपि यातं तद्‌ हरात्‌ हादथमितात्‌ प्रपतितं शोधितं सत्‌ भोग्य स्यात्‌ । तयोग 
तगम्ययोविलिक्ता विकला भुक्त्योः सूयंचन्द्रगत्योयंदन्तरं तेन भाजिता लन्धं 
यारतंष्यका घटिका : क्रमाद्‌भवन्ति । यातकलासु हतासु यातघटिक्ाः पूर्वदिने तस्या 
एवे तिथेभू क्तघटिकाः स्थुः । एवमेप्यरुलासु एष्या । तस्मिन्‌ विने सूर्योदयमारभ्य 
तिथेचटिकाः स्युरित्यर्थः । अथ करणं साघयत्ति-गततिथि्टिघ्नी द्विगुणा 
अद्रिभिः सप्तभिः ७ तष्टा भक्ता सति तिथेः पूर्वाधं करणं वदमानं स्यात्‌ 
"तदेव स कमेकयुक्तं सत्‌ अपरे दले तिथेरुत्तरा्धं स्यात्‌ । अथ स्थिरकरणचतुष्टय- 
स्य निवेशमाह । कृष्णमतोत्त रादर्धात्‌ । कृष्णःद्स्णपक्षः । तस्य यो मूतक्ष्चतुदशी 
तस्या उत्तरार्घात्‌ शकुनेः प्रभृति चत्वारि करणाति स्युः । एतदुक्तं भवति । 
कृष्णपक्षे चतुरदर्युत्त राधं शङ्निः 1 अमू वर्धे चतुष्पादम्‌ । अपराधं नागम्‌ । 
आये प्रतिपहुके किस्तुष्नं नाम करणम्‌ । एतानि स्थिराणि चत्वारि। अथ 
करणकथनानन्तरं विघोऽचन्द्रस्य तथा साकंसितगोः सूंयचन्द्रयोगस्य च्प्ताः कलाः 
खखाष्टोद्ता अष्टशत-८०० भक्ताः फलं क्रमात्‌ याते भयुती नक्षत्रयोगौ भवतः । 
चनद्राज्जातं नक्षत्रं योगाद्योग इति। तयोर्नक्षत्रयोगयो्गतं यत्‌ तदेव हराद- 
टरतमितात्‌ शोधितमेष्यम्‌ । ते षष्टिगुणे नक्षप्ताथमिन्दोरचद्द्रस्य भुक्त्या गत्या 
हृते भक्ते योगाथं सूर्यचन्द्रयोजवैक्येन गतियोगेन भक्ते क्रमात्‌ तयोयतिष्या 
नाडचः स्युरिव्यथंः ॥। 

अत्रोपपत्तिः - दर्शान्ते सूर्यचन्द्रौ समौ भवतः \ (दशं: सूर्येन्दुसट्गम' इति 


रविचन्द्र-स्पष्टाधिकारः ५७ 


स्मरणात्‌ । ततो दर्शान्ताच्चनद्रो बहुगतित्वादग्रे याति । पनरमान्ते समो । तयो- 
रन्तरे चान्द्र मासः । "दर्शावधिश्चन्द्रमसो हि मासः इत्ति स्मरणात्‌ । तयोरन्तरे 
त्रिश्यत्‌ तिथयः । त्रिशत्‌ तिथिभिर्यदि भांश-३६० तुल्यं सूर्यचन्द्रान्तरं ऊभ्यते 
तदेकतिथ्या किमत्ति जाता द्वादश्चभागा १२ एकतिथौ सू्यंचन्द्रान्तरम्‌ । यदि 
दादलभागतुल्येन रविचन्द्रान्तरेणैका तिथिस्तदेष्टसूर्थचन्द्रान्तरभागैः कियत्य इति । 
अघ्र सूयगत्याचिका चन्द्रगतिरतो व्यकविधोर्टवा यमकरुभिर्भक्ता इति । ततो 
यच्छेषं तत्‌ यातम्‌ । ग्रहभुक्तत्वात्‌ ततो हि तदद्रादशशुद्धं भोग्यं स्यात्‌। एवं 
ततो घटिकाज्ञानाथंमनुपातः । यदि गत्यन्तरकलाभिः षष्टिघटिकास्तदा गतेष्य 
कलाभिः किमिति । कलाः षष्टिगुणा विकलाः स्युः । अतो यार्तष्थविकला 
गत्यन्तरकरलाभक्तास्तिथियातष्यवरि कराः स्युरित्युपपन्नम्‌ ॥ 

अथ करणोपपत्ति:--एकत्तिथौ करणदयमित्यागमः ततोऽनुपातः 1 यद्ेकतिथ्या 
करणद्रयतदेऽटतिथ्या किमिति । अतल्तिथिद्टिगुणा कदाचित्‌ सप्ताधिका 
स्यात्‌ । करणानि सप्तंवातः सप्ततष्टा रोषमितं शुक्लप्रतिपदादितो गततिथि- 
ग्रहणात्‌ किप्तुघ्नादिकं करणं व्तमानतिथपूर्वाधगतं स्यात्‌ । तद्बवादितो गण- 
नाथं निरेक कायं वर्तमानत्वार्थं च सैकमिति तुल्ययोधन्ेक्षेप्ययोरेकयोन शि 
येषमितमेव वतंमानतिधिपूरवधिं वतमानं करणमिति युक्तम्‌ । तदेव सैकमृत्त- 
राधे स्यादिति प्रव्यक्षसिद्धम्‌ । शकुन्यादिकरणचनुष्टयसस्थानमागमप्रमाण- 
कम्‌ ॥ 

अथ नश्तत्रसाधनोपपत्तिः--समस्तो भपञ्जरो द्ादशराशिभिर्व्याप्तस्तथा 
सप्तविदातिनक्षत्रंश्च । अतो मगणे कलानामेकनक्षक्रकरणायानुपातः । यदि 
सप्तविशतिनक्षत्र ्चक्रकलाः २१६०० भवन्ति तदेकनक्लत्रेण किमिति। भतो 
जाता अष्टशतकलाः ८०० । अष्टश्तकलाभिरेक नक्षत्रं तदेष्टचन्द्रकलाभिः 
कियन्तोति लब्धानि गतनक्षत्राणि । शेषं भुक्तं हुरुद्धं भोग्यं स्यादेव । ततोऽन्यो- 
ऽनुपातः । यदि चन्द्रगतिकर्लाभिः षद्टिघटिकाश्नदा गततष्यकलाभिः का इति । 
कलाः ष्टगुणा विकलास्तास्चन्द्रगतिभक्ता नक्षत्रगतेष्ध्रवटिकाः स्युरित्युपपन्नम्‌ ॥ 

अथ योगवासना--रविचन्द्रयोभिलितयोयंन्नक्षत्र स योग इत्युच्यते । अतोऽत्र 
युकितर्नक्ष्रवत्‌ । गतगम्यधटिकाथंमनुपातो गतियोगेन कत्त युज्यते योगानयन- 
त्वादिति प्रव्यक्षोपपत्तिः 11 ८-९ 

देवज्ञवयस्य दिवाकरस्य सुतेन मल्लारिसमाह्वयेन । 

वृत्तौ कृतायां प्रहुलाघवस्य जातो रवीन्द्रौः स्फटताधिकारः ॥ २ 


इति रविचन्द्रस्पष्टीकरणधिकारो दवितीयः । २ 


५८ ग्रहुलाघवें 


चन्दिका-पञ्चाङ्गसाधन विधि- 

तिथिसाधन--स्पष्टचन्द्र से स्पष्ट सूयंको घटाकर शेष को अंशादि 
बनाकर १२ से भाग देने पर रुन्धि गततिथि देती है । शेष वतमान तिथि 
कायातांशदहोताहै। उसे रेमे घटनेसे भोग्यांशहोताटै। इन दोनों 
(यातांश ओर भोग्यांश) की विकला बनाकर सूयं भौर चन्द्रकी गतियो के 
अन्तरविकला से भागदेनेपरक्रमसे वतमान तिथि की गत एवं गम्य 
घटी होती है । [दोनो के योग से सम्पणं तिथि कामानहोतादहै।] 

केरणसाध्न--गत तिथि संख्याकोर्से गुणाकर का भागदेने 
से शेष वतमान तिथि के पूर्वाधिं में बव आदिकरण होते है। उसमें एक 
जोड़ने से वतंमान तिथि के उत्तराधंमे करण होता है । कृष्णपक्ष की चतु- 
दशी के उत्तराधं में शकुनि आदि (चार स्थिर) करण होति हैँ । 


नक्षत्रसाधन ~ स्पष्टराश्यादि चन्द्र की विकला बनाकर उसमे ८०० 
काभागदने से रुन्धि गतनक्षत्रहोतादहै। शेष वतंमान नक्षत्र की गत 
कला होती है इसे ८०० मे घटाने से भोग्यकला होती है । गतकला को ६० 
से गुणाकर चन्द्रगति कला स भाग देने पर वतमान नक्षत्र की यात घटी 
तथा भोग्य कलाकोरण्सेगणा कर चन्द्रगति कासे भाग देने पर 
भोग्य घटी होती है । [दोनों का योग नक्षत्र का पूर्णमान होता है ।, 

योगसाधन - स्पष्ट सूर्य ओर स्पष्ट चन्द्रकायोग कर उसकी कला 
बना कर ८०० से भाग देने पर छल्धि गत योग होगा । शेदको ८००मे 
घटाकर वतमान योग कौ भोग्यकला ज्ञात करेगे । गतकला कौ ६० से गुणा 
केर रविचन्द्र की गतिक्लाके योगकी विकलासे भाग दने पर वतं- 
मान योग की भुक्त घटी तथा भोग्य कलाको ६० स गृणा करके गतियुति 
विकला से भाग देने परयोग वी भाग्य घटी ज्ञात होती है) 

उदाहरण-पञ्चाङ्घ साधन विधि-- 

तिथिसाधन- 

स्पष्ट चन्द्र १। ५।१३।१९ 
स्पष्ट सयं ७।१२।२३५।३१ 


दोनो का अन्तर ५।२२।३७।४८ 
५५९ ३० १५०२२ 
अशादि == १७२।२३७।४८ इसमे १२से भाग्दया 


रविचन्द्र-स्पष्टाधिकारः | ५२ 


१२) १७२।३७।४८ (१४ गतितिथि 
१२९ 
५२ 
४८ 
४।२७।४८ शेष, वतमान तिथि का यातफट 


१२ 
४] ३७} ४८ 


७।२२।१२ वतमान तिथि का भोग्य पल 

चन्द्रगति ८००।५१-- सूयं गति ६०।५३ = ७१९।५८ 

गत्यन्तर विका ४४३९८ 

रविचन्द्र कौ गत्यन्तर कलछासे भागदेनेके लिए यातैष्य मानको 
एक जातीय बनाने पर यात विकला १६६६८ तथा भोग्यविकला २६५३२ 
हुई भाज्य भाजककी एक रूपताके लिए इनं फिर ध्ण्से गुणाकरनेसे 
यात विका १००००८० तथा भोग्य विकला १५९१९२० हुई । 

पात विकला १००००८० को ०४३९८ से भाग देने पर कल्पि २२।३१ 
वतंमान तिथि पूर्णिमा कौ गत घटी हुई इसी प्रकार एेष्य विकला 
१५९१९२० को ४४३९८ से भाग दिया तो रन्धि ३५।५१ पूणिमा तिथि 
का भोग्य मान हभ । दोनों का योग २२।३१ + ३५।५१ = ५८।२२ पणमा 
का सम्पणं मान हुभा | 


करणसाधन- 
गततिथि == १४१९ २२८ ७) २८ (४ 
९८ ~ ७ = २८ 


>€ रोष ° 
अतः पणिमा तिथि के पूर्वादधं मे विष्टि (अवँ) करण हुआ । इसमे १ 
जोडने से तिथि के उत्तराधंमे बव करणरहोगा। तिथिका आधाकरण 
होता है अतः तिथि मान ५८।२२ का आधा २९।११ विष्टि करण हआ । 


२० ग्रहुलाधवं 

विरोष--विष्टिकोदही भद्रा कहते हैँ । तिथिके अधमे तिथिका 
गत मान घटने से सूर्योदय के बादभद्राकी या अन्य करणोंके घटी पल 
का मान आयेगा । यथा-तिथिका यातमान २२।३१ तिथ्यघं २९।११। 
२९।११--२२।३१-६।४० सूर्योदय के बाद भद्राका मान हुभा\ यदि 
तिथि कायात मान तिथ्यधे से भधिकहोतो अग्रिम करण का सूर्योदियके 
बाद का मान अयिगा) 

नक्षत्र साधन - स्पष्टचन्द्र १।५।१३।१९ इसे कटादि बनाया तो 
२११३।१९ हुआ । चन्द्रगति विकला ४८०५१ 
८००) २११३।१९ (२ 
१६००५ 


५१३।१९ 

कन्ादिचन्द्र २११३।१९मे <०्०्से भागद्िथातो रुख्धि २ (भरणो) 
गत नक्षत्र हुईं शेष ५१३।१९ अग्रिम नक्षत्र कृत्तिका का गत मान हुआ इसे 
८०० मे वटने सं शोष २८६।४१ कृत्तिका का भोग्य मान हज । गतमान 
५१३।१९ का एक जातोय मान ३०७९९ ! भाज्य भाजक की एकरूपता 
देतु इसे ६० से गुणा कर गुणनफल १८४७९४० मे गतिविकला ४८०५१ का 
भाग दिया-- 

४८०५१) १८४७९.४० (२८।२७ 

९१४४१५३ 


^` -- + भकना कम, दिदि 


१३२०१९० 
९६१०९ 


२३५९१०० 
३२३६२५७ अतः कृत्तिका कौ गतघटी ३८।२७ 


रविचन््र-स्पष्टाधिकारः ६१ 


इसो प्रकार कृत्तिका कौ भोग्य कला २८६।४१ की एकराशि बनाया 
तो १७२०१ हुआ इसे ६० से गुणा कर गुणनफ १०३२०६९० मे गति 
विकला ४८०५१ का भाग दिया-- 
४८०५१) १०३२०६० (२१।२८ 
९६१०२ 





(७१ ०.४० 
४८२०१ 


२२८३९ 
>» ६9 





१३७०२४० 
९६१०२ 
४१८३२० 
३८४४० ८ लग्पि २१।२८ कत्तिका का भोग्य 
३३९१२ मान हुमा 
२१।२८ भोग्य 
३८।२७ भुक्त 





कृत्तिका का पृणं मान॒ ५९।५५ 
योग साधन-स्पष्ट सूर्यं ७।१२।३५।३१ स्पष्ट चन्द्र १।५।१३।१९ 
सूयं गति ६०।५३ चन्द्रगति ८००।५१ 


स्प. सयं ७।१२।३५।३१ सयं गति ६०।५३ 
स्प. चन्द्र १। ५।९१३।१९ चन्द्र गति ८००।५१ 


स्‌. च. योम ८।१७।४८।५० गतियोग ८६४ 
सूयंचन्द्र के कलात्मकं मान १५४६८१५० मे ८०० का भाग दिया-- 
८००) १५४६८।५० (१९ 

०9०9 


७४६८ 
७२०० 


२६८५० 





६२ ग्रहराघवे 


रुष्धि नूल्य गत योग परिघ तथा वतंमान “शिव' योग । शेष वतं- 
मान शिव योग की गत कला २६८५० को ८०० मे घटाया | शेष ५३१।१० 
शिवे योग को भोग्य कला । पूर्वोक्तं रीति से यात भौर रेष्य 
कलः को एक राशि बनाकर ६० से गृणा कर रवि चन्धरकी मतियुति 
विकला ५५७०४ से पुथक्‌-पुथक्‌ भाग दिया तो क्रम सें शिव योग की यात 
घटी १८.४३ तथा भोग्य घटी ३६।५९ प्राप्त हई । इस प्रकार शिव योग का 
पणमान ३६।५९-- १८।४३ == ५५।४२ हुआ । 


श्रीगणेश देवज्ञ विरचितं ग्रहुकाघव के रविचन्द्र-स्पष्टाधिकार की रामचन्द्र 
पाण्डेय कन चन्द्रिका नामक सोदाहरण हिन्दी व्याख्या सम्पूणं । २ 


३. पश्चतारास्पष्टाधिकारः 


भौमस्य शीघ्रफराङ्काः-- 


खमषटमरुतोऽद्रिभू भुव उदध्यगोर्व्योऽषटदुग्‌- 

दृक्षो नवनगार्विनोऽक्षदश्षनाः शराङ्काग्नयः । 
गुणाङ्कदहनाः खखान्धय इभाद्धरामाः क्रमान्‌- 
नवाम्बुधिदुक्लो नभः लिंतिभुवश्चलाङ्धम इमे ॥ १ 


मच्छारिः-अथ पञ्चातारास्पष्टीकरणाधिकारो व्याख्यायते । तत्रादौ 
भौमादीनां सिद्धानि चीघ्रफलानि पंचवृत्तेन बदति। खमिति । क्षितिभुवो 
भौमस्य चरखांकाः शीघ्रफलस्यैतेऽद्धुाः स्युः । खं शून्यम्‌ ० । अष्टमरतोऽष्टपचा- 
रात्‌ ५८ अद्रिम्‌ भुवः सप्तदशाधिकं शतम्‌ ११७ । उदघ्यगोन्यंङ्चतुः सप्तत्य- 
धिक शतम्‌ १७४ । अष्टद्‌ ग्दुशोऽष्टाविन्ञत्यधिक शतद्वयम्‌ २२८ । नवनगाह्विन 
एकोनासीत्यश्चक शतद्वयम्‌ २७९ । अक्षदशनाः पञ्चविशत्यधिकत्रिराती ३२५ । 
शराङ्गाग्नयः पञ्चषष्ट्यधिकत्रिशती ३६५ । गृणा ्कुदहुनास्त्रिनवत्यधिकत्रि शती 
३९३ । खखान्धयश्चतुदशती ४०० । इभाङ्गरामा अष्टषष्ट्यधिकत्िशती ३६८ । 
नवाम्बुचिदुा एकोनपञ्चाशदधिकद्विशति २४९ । नमः दृन्यम्‌० । एते भौम. 
स्य।। १॥ 

चन्द्रिका-खं = °, अष्ट ८ मरुत्‌ ५५८, अद्रि ७ म्‌ १ भुवः ==१ 
११७, उदधि ४ अगुः ७ उविः १== १७४, अष्ट ८ दृग्‌ २ दृशः २= ०२८, 
नव ९ नग ७ अश्विनः २= २७९, अक्ष ५ दशन ३२३२५, शर ५ अद्ध 
६ अग्नि ३३६५, गुण ३ मङ्क ९ दहन ३= ३९३! ख० ख० अन्धि 
४४००, इभ=८ अद्ध ६ राम ३=३६८, नव ९ अम्बुधि दृशः 
२२४९, नभः ०।९१ 

अर्थात मङ्कर के रीघ्रफर साधनोपयोगी क्रम से ये चलाडक हि-- 

०।५८१ १७ १७४।२२८।२७९}३२५।३६५।३९२।४००।३६८।२४९।०। 


६४ ग्रहुलाघवे 


बुधस्य शीघ्रफलद्धाः-- 


खं भूङृताः कु बसबोऽद्रिभवाः खतिथ्यो- 

ऽष्टाद्रीन्दवो नवनवक्षितयोऽकंपक्षाः । 

अर्काह्िविनः शरलगक्षितयोऽक्षतिथ्यो 

गोऽष्टौ खमाल्युफलजाः स्युरिमे विदोऽङ्ः ॥\ २ 

मल्छारिः-- विदोऽय बुधस्य एते शीघ्राङ्खाः । खं शृन्यम्‌० । भूढता एक- 
चत्वारिशत्‌ ४१। कुवसव एकाशीति ८१ आद्विभवाः सप्तदश्ाधिकशतम्‌ ११७} 
खतिथ्यः साधशतम्‌ १५० 1 अष्टाद्रौन्दवोऽट सप्तत्यधिकक्तम्‌ १७८ । नवनवक्षितय 
एकोना द्विरत्ती १९९ । अर्कपला ददश्षयुक्ता द्विरुती २१२। अ्कारिविनस्त 
एव २१२॥। शरखगक्षितयः पद्चोनद्विशती १९५ । अक्षतिथ्यः पञ्चपञ्चाशद- 
धिकं शतम्‌ १५५ । गोऽष्टौ एकोननवतिः ८९ । खं शन्यम्‌० । एते बुधस्य ॥ २ 

चन्द्रिका-खं=०, भ्‌ १ कृत ४--४१, कु १ वसवः ८८१, भद्रि 9 
भव ११ = ११७, ख ° तिथ्यः १५ १५०, अष्ट ८ अद्रि ऽ इन्दु ११७८ 
नव ९ नव ९ क्षिति १== १९९, अकं १२ पक्ष २२१२, भक १२ अङवन 
२--२१२, शर ५ खग ९ क्षति १= १९५, अक्ष ५ तिथ्यः १५ १५५ 
गो ९ अष्टौ ८== ८९, खं == ० । २ 

अर्थात्‌ शीघ्रफलोत्पन्न क्रमसं ये बुध के अङ्क है-- 

०।४१।८ १।११७।१५०।१७८।१९९।२१२।२१२। ६५।१५५।८९।० 


गुरोः शीघ्राङ्खाः-- 


खं तत्त्वानि नगान्धयोऽष्टषट्काः 
पञ्चेभा गजखेचरा रसाज्ञाः । 
नागाशा द्विदिशो नवाहयः षट्‌- 
षष्टिः षट्कगुणा नभो गुरोः स्थुः ॥ ३ 


क भभ, चण 


मल्लारिः- अथ गुरोः बृहस्पतेरेते शीघ्राङ्काः खं शून्यम्‌ ० । तत्त्वानि पञ्च- 
विशतिः २५ नगान्वयः सप्तचत्वारिशत्‌ ४७ । अष्टषट्‌का अष्टृषष्टिः ६८ । पञ्चेभाः 
पञ्चाशीति ८५. । गजखेचरया अष्टनवतिः ९८ । रसाश्चाः षडधिक शातम्‌ १०६। 
नागाशा अ्टोत्तरशतम्‌ १०८ । द्िदिक्षो द्विच तरश तम्‌ १०२ । नवाहय एकीन- 
नवतिः ८९ । षट्षष्टिः ६६ । षट्कगृणाः षट्त्रिंशत्‌ ३६। नभः शून्यम्‌° । 
एते गृरोः 11३ 


पञ्चता रा-स्पष्टाधिकारः ६५ 
चन्द्रिका--खं ०, तत्तत २५, नग ७ अच्छि ४ = ४७, अष्ट ८ षट्‌ ६= 
६८, पच्च ५ इभ ८=८५, गजं ८ खेचरा ९ = ९८ रस ६ आज्ञा १०== १०६, 
नाग ८ आहा १०== १०८, द्वि २ दिक्च १०== १०२, नव ९ अहि ८== ८९, 
षट्‌ षष्टिः = ६६, षट्क गुणा == ३६, नभः ° 
अर्थात्‌ ०।२५।४७।६८।८५।९८।१०६।१०८।१०२।८९।६६।२६।० 


ये गुरु के शीघ्फलसाध्नाथं लीघ्राद्धु है ।३ 


शुक्रस्य रीघ्राङ्काः-- 

खभग्न्यङ्कैस्तुल्या रसयमभुवः षट्कधुतयो- 

ऽरिसिद्धाः पक्षाश्नाग्नय उदधिनाराचदहनाः । 

द्विश्न्योदन्वन्तः खजलधिक्रता भुरसकरता- 

स्त्रवेदोदन्वन्तो रसयमगुणाः खं भुगुजने ॥ ४ 

मलत्लारिः--अथ भृग्‌ जनेः शुक्रस्येते शीध्रांकाः । खं शुन्यम्‌० । अग्न्यङ्नौस्तु- 
ल्या अंकास्तरिषष्टिः ६३ । रसयममुवः षडविशत्यधिकशतम्‌ १२६ षटकधृतयः 


षडरीत्यधिकरतम्‌ १८६ । भरिसिद्धाः षट्चत्वारिशदधिकद्िरती २४६ । पञ्ना- 
च्रागनयोद्चधिकेविशती ३०२ 1 उदधिनाराचदहूनाः उदधयक्चत्वारः नाराच 
बाणः पञ्च॒ दहना अग्नयः एवं चतुष्पच्चाशदधिकत्रिराती ३५४ । द्विश्‌- 
न्योदन्वन्तो देचचिकचतुःशती ४०२ । खजलधिकृताइचत्वारिर दधिचवतुःरतीः 
४४० । भूरसकृता एकषष्टयधिकचतुःशती ४६१ । त्रिवेदोदन्वन्तलिचत्वा रिशद- 
धिक्रचतुःशती ४४३२ । रसयमगुणाः षड्विरत्याधिकत्रिशती ३२६ । खं शुन्यम्‌० । 
एते शुक्रस्य ॥ ४ 

चद्दरिका--खं = ०, अग्नि ३ अङ्ग ६६३, रस ६ यम २ भुवः १ 
== १२६, षट्क ६ धृति १८= १८६. अरि ९ सिद्धा २४२४६, पक्ष २ 
अश्च ० अग्नि ३३०२, उदधि नाराच ५ दहना ३३५४, द्विर्‌ 
दन्य ° उदन्वन्त॒ ४== ४०२, ख ° जलधि ४ कृता ४४४० भू शरस \ 
करता ४४६१, त्रि ३ वेद ४ उदन्वन्तं ४४४३, रस ६ यमरगुणा 
३३२६, खं =° 

स्पष्टाथं --०।६३।१२६। १८६।२४६।३०२।३५.४।४० २।४४०।४६१।४४३। 
३२६।० ये शुक्र के रीघ्रचलाङ्कर हि) 

५ ग्रहुछाचवं 


६६ ग्रहखाषबे 
हने : शीद्घ्राकाः-- 

खनिषुक्षितयो गजाहिवनो गो- 

दहना ागकृताः पयोधिबाणाः । 

द्विरगेषुमिता हताश्बाणाः 

शरवेदारित्रगुणा धूतिः खमाकंः ।। ५ 

मल्लारिः--गथाकंः शनेरेते शीघ्राद्का. । सं शून्यम्‌० । षुक्षितयः 
पञ्चदश १५ । गजारिवनोऽष्टाविशछतिः २८ । गोदहना एकीनचत्वारिशत्‌ ३९ । 
नागकृता अष्टचत्वारिशत्‌ ४८ 1 पयोधिबाणादचतुष्पच्चाशत्‌ ५४ । द्विद्िवारम- 
गेषुमिताः सप्तपञ्चाशत्‌ ५७।५७ । हृताशबाणास्विपञ्चाश्चत्‌ ५३ । शशरवेदाः 
पञ्चचत्वारिशत्‌ ४५ । त्रिगुणास्त्रयस्तरिशत्‌ ३३ । धृतिरष्टादश्च १८ । खं शन्यम्‌० । 
एते शनेः शीघ्राङ्ाः ॥ ५ 

अत्रोपपत्तिः -- मत्र ग्रहश्यष्टोकरणाथं ग्रहाणामसकरृन्मन्दफलानि चीन्रफलानि 
प्रसाघ्य तत्संस्करृतो ग्रहः स्पष्टो भवति । तद्यथा । प्रथमं शीश्रफलं प्रसाघ्यम्‌ । 
दीघ्केन्द्रस्य दोर्ज्याकोटिज्ये विघाय ततः कोटिज्यान्त्यफलज्ययोः कक्रिमुगादि- 
केन्द्रेऽन्तरयोगौ क्रमेण सा कोटिः! दोर्ज्या भुजः ततस्तत्कृव्योर्योगपदमिति 
शीश्रकर्णः प्रसाघ्यः । ततोऽनुपातद्रयात्‌ फलम्‌ । यदि त्रिज्यातुल्यया शीध्रकेन्द्र- 
दोर्ज्यया परमं श्चीध्रफलज्यातुल्यं फं लम्यते तदेष्टया किमिति । ततोऽन्योऽनुपातः 
यदि शीघ्रकर्णग्रि इदं फलं तदा त्रिज्याग्रे किमिति चत्रिज्यातुत्योर्गुणहरयोर्नाशि 
शीध्रकेन्द्रदोर्ज्याज्न्त्यफलज्यागुणा शीघ्रकर्णभक्ता इष्टफलज्या भवतीति । तद्धनुः 
श्ीघ्रफलम्‌ । अत्रेदं जडकमं दृष्टाऽऽचा्येण शीश्रकेन्द्रं पञश्चदराभागवृद्धचा 
प्रकल्प्य श्ीध्रफलानि प्रसाध्य तानि सावयवान्यतो दश्चगुणानि । रारिषट्‌कमध्ये 
दवादश सर्वेषां ग्रहाणां पृथक्‌ पु थगुखादितानि । तत्र मन्दावबोघाथं धृलीकर्म- 
प्रतीत्योच्यते । तत्र प्रथमं भौमरीघ्रफलानयना्थं शून्यं शीध्रकेन्द्रं प्रकल्प्य जातं 
दीघ्रलमपि शून्यं भुजाभावात्‌ । एवं दितीयशीघ्रांकोत्पत्तौ लीध्केन्द्रं पञ्च- 
दराभागाः १५ । अस्य दोर्ज्या ३१ ।! कोरिज्य। ११५।३० । भौमस्य परमशौघ्- 
फलज्या ७७ । अन्यभास्किराचैः भूकुञ्जरा ८१ उक्ताः । भर्मिन्‌ काले भाचार्येण 
एतावती ज्ञाता । भत द्यं कोटिञ्या १७५।३० परेणानेन ७५ दाम्यां च गुणता 
१७७८७ । अनया खाभान्विशक्रः १४४०० युताः परकृति-५८२८ युक्ता कृता 
३८११६ 1 अश्र षपरकृतिर्युक्तैवकृता क्वचिदूनाऽपि र्तव्या । एवमस्या मूलं 
जातः शीप्रकर्णः १९५।७ । परेण ७७ दोर्ज्या ३१ गुणिता आता २३८७ । इयं 
कर्णेन भक्ता जाता १२१३ भ्या घनुः कीघ्रफलं भागाद्यम्‌ ५।४८ एतत्‌ 


पञ्चतारा-स्पष्टाधिकारः ६७ 
जञावयत्रमतो दशगुणं जातप्रिकस्थानम्‌ ५८ । अगतो मौमस्याङ्को दितीयोऽष्टमर 
रुत हत्ुक्तः । एवमग्रेऽपि पञ्चदशभामचृद्धया पीघ्रकेनद्र प्रकष्प्य सर्वेषां शीघ्राङ्काः 1 
अत्र दोरज्याकोटिज्ये राशित्रयमच्येऽतो राधिवयमध्ये षडेव शीध्राका वक्तव्याः । 
कथमत्र षड रारिमध्ये द्रदशोक्ताः। उच्यतं। इदं रीघ्रफलं कर्णाधितम्‌ 
दी घ्रफलस्य परमाधिक्यं त्रिभे न भवति किञ्चिदधिकेनैव त्रिभेण भवति । कर्णा- 
त्यल्पता तु द्वितीयवरि मे परमफलेन एव भवति । एवं षड्ाश्िमघ्ये कर्ण हुघवृद्धौ । 
अतः शीध्रफरानयने पदं त्रिभादूनाधिके भवतति । तद्यथा । प्रथमं पदं त्रिभं लोघ्र 
पफरलांशेरधिकम्‌ । द्वितीयं शीघ्रफलांशोनम्‌ । तृतीयं शीन्रफलांशोनम्‌ । चत 
शीघ्रफलांशाधिकमिति ॥ अत एवोक्त सिद्धान्तशिरोमणौ-- 

"चापेन शीघ्रान्त्यफलज्यकाया । 
त्रिभं युतोनोनयु्तं पदानि । 
दोस्तेषु यातैष्यसयुरमयुम्मे" इति ॥ 
मतः षड्राशिमघ्ये उक्तानि । षड्‌ राक्ञिभामा ` अक्षीत्यषिकक्शतम्‌ । अत एते 
पञ्चदशभक्ता द्वाददोवाद्धा भवन्ति ।॥ १-५ | 


चन्द्रिका - खं =°, इषु ५ क्षिति ९== १५, गज ८ मश्विन २ = २८, 
गो ९ दहन ३३९, नाग ८ कृता ४= ४८, पयोधि ४ नाण ५५४, द्वि 
अगु ७ इषु ५५७, ५७, हुताश ३ बाण ५=-५३, शर ५ वेदा ४४५, 
त्रि ३ गुणा २२३, धृतिः = १८, खं = 

रथात्‌ ०।१५।२८।२९।४८।५४।५७।५७।५३।४५।३३।१८० ये शनि कै 
शीघ्राङ्धुटैं) ५ 
लीध्फलसाधनम्‌ - 


भौमार्कोज्यविहीनमध्यमरविः स्यात्‌ स्वाशुकेन्रं तु विद्‌- 

भृग्बोरुक्तमिदं रसोध्वंमिनभाच्छुद्धं तदंश्षा दिनैः । 

भक्ताः खादिफलक्रमादिह गताङ्खोऽसो क्षयद्र्था हता- 

च्छेषादराणकुलब्विहीनयुगयं दिगृहुल्लवाद्यं फलम्‌ ॥\ ६ 

मल्लारिः--एवं शीध्फलोकानुत्ववेदानीं वक्कर्तग्यतामेकवृत्तनाह भौमेति । 
मौमो मङ्गलः आकरिः शनि ईज्यो गुरः एभिविहौनो मध्यमरविः स्वस्य आब्यु- 
केन्द्र शीच्चकेन्द्रं भवति । विदुमुग्बोः शीघ्केन्द्रमहर्गणादुक्तमस्ति। एतत्‌ केन्द्र 
चेद्रसोध्वं षद्ार्याधिकं ताहि दनभाद्द्टादशराशिभ्यः रुद्धं तस्यांश्ा दिनैः पश्च- 
दशभिभक्ताः सन्तः खादिफलक्रमातु । खं शून्य्रादिर्यस्येत्ति । एवं मृतो यः फल 


६८  ग्रहलाघवे 
क्रमस्तस्मादसौ गताद्कुः अग्रांकेन सह अन्तरे क्रियमाणे यः क्षयोः वा वृद्धिःस्यात्‌ 
तया हताद्‌ गुणिताच्छेषादबाणकरुरन्धिः पञ्चदक्षांशस्तेन क्षयो हीनः । वृद्धौ युक्तः 
कायं: । असौ दिग्हृृशभक्तो मागाद्यं शीध्रफलं भवति । तन्मेषादिकेन्द्रे धनं 
तुलादिकेन्द्रे ऋण पूरवमेवोक्तमस्ति ॥ 

अत्रोपपत्तिः--यदि पञ्चदशभागैरेकः शीघ्राङ्कस्तदेष्टैः केन्द्रभागैः किम्‌ 1 
एवं यत्लन्धं तन्मितो गतः स्यात्‌ । ततः शलेषादनुपातः । यदि पञ्चदशभागेयं- 
तैष्यान्तरतुल्या हासवृद्धिलंभ्यते तदा दोषांशेः किमिति । फलेन क्षये हीनो वृद्धौ 
युक्तो गताद्धुः कायं एव । ततो दशगुणाद्धाः सन्त्यतो दराभिर्भक्तोः भागाद्य 
शीध्रफलं भवतीत्युपपन्चम्‌ । ६ 


चन्दिका- (मध्यम) भौम, शानि भौर बृहस्पति को मध्यमसूयं मे 
घटाने से तत्तद्‌ ग्रहों के सीघ्केनद्र होते दहै । बुध ओर रृक्र के शीघ्र 
केन्द्रो को पहर (मध्यमाधिकारमेंही बतादिया गयादहै)। केन्द्र यदि ६ 
राशिसे अधिकं तो उन्हे १२ राशिमे घटाकर दषं को अंशादि बना- 
कर उसमे १५ का भाग देने से छ्न्धि तुल्य शून्य मदि पठित शोघ्- 
फलाङ्कों की गत संख्या होगी । गतशौघ्र फलाङ्‌क भौर एष्य शीघ्रफलाङ्क 
के अन्तर से (अन्तर धनात्मकहोतो चय ऋणात्मकहोतो क्षयसं्ञा 
होती है। यथा रेष्य अङ्कु से गताङ्कु घटे तो चय गताद्धुमें एेष्यष्रटेतो 
क्षय अन्तर होगा ।) दोष अंशादि को गुणा कर्‌ गुणनफल मे पूनः १५ कां 
भाग देने से लब्ध अंरादि को चयात्मक अन्तर होने पर गताङ्कु मे जोड 
कर तथा क्षयात्मक अन्तर होने पर गताद्धुमें धटाकरलेष मेश्ण्का 
भाग देने सं अंशादि शीध्रफल होता है। ६ 

उदाहरण--मङ्कल का शीघ्रफलानयन--मध्यमरवि ७] १३।४७।२३ से 
मध्यम मङ्कल ६।२८। ३७। ४३. घटाने से रष ०।१५।९।४० मङ्ग के मन्द 
केन्द्र हुआ । इसके अंशादि १५।९४० मे १५ का भागदेने से रन्धि १ 
तथा शोष ०।९।४० प्राप्त हज । छन्धि तुल्य मङ्कल का पूवंपठित प्रथमं 
गतांक ५८ तथा एेष्यांक १६७ के चथा८्मक अन्तर ५९ सें शेष ०।९।४० 
को गुणा केर गुणनफल ९।३०।२० मे पूनः १५ का भाग देकर लच्छि 
०३८१ को चयात्मक अन्तर होने से गतांक ५८ मे जोड़कर योगफल 
५८।३८१ मे १० का भाग देने से रुन्धि ५।५१।४८ मंगल का प्रथम चीघ्र- 
फठ हृभा । मेषादि केन्द्र होने स यह फ धनात्मक होगा । 

व का सीघ्रफलानयन--वुवयीघ्नकेन्द्र १०।५।२६।४६ यहु ६ रायि. 


पञ्चतारास्पष्टाधिकाराः ६९ 


से अधिक ह अतः १२ मे घटाकर दोष के अंशादि ५४।३३।१४े १५ का 
भाग देने से रन्धि ३ तथा शेष ९।२३।१४। इसमे रन्धि तुल्य गतांक 
११७ तथा रेष्यांक १५० के चयात्मके अन्तर ३३ से गृणा केर गणनफल 
३१५।१६.४२ मे १५ का भाग देने से अंश्ादि न्धि २१।१।६ को चयात्मक 
अन्तर होने के कारण गतांक ११७ मे जोड़ने से १३८१।६ हुमा इसमे १० 
का भाग देने से अंशादि रीघ्रफल १३२३।४८।६९ तुखादि केन्द्रहोने सें 
ऋणात्मक हुभा। 


गुरु का शीघ्फखानयन-- 


मध्यमरवि ७।१३।४७।२२ -- ११।१।२।५२ मध्यमगु == ८।१२।४४।३० 
गुरु का शीघ्रकेन्द्र ६ राशि सं अधिक है भत्तः १२ राशि मँ घटाकर 
दोष २।१७।१५।३० के अंशादि मान १०७।१५।३० को १५ से भाग दिया, 
रन्धि ७, शेष २।१५।३० } अतः गुरु का वाँ गतांकं १.८ तथा एेष्यांकं 
१०२ के क्षयात्मक अन्तर ६ से दोष २।१५।३० को गुणा कर॒ गुणनफल 
१३।३३।० को १५ से भाग दिया रुन्धि ०।५४1१२ को क्षयात्मक अन्तर 
होने से गतांक १०८ मेँ घटाकर शेष १०७।५।४८ भ १० से भाग देने पर 
लन्धि १०।४२।३४ गृरु का शीघ्रफल, तुलादि केन्द्र होने से, ऋण हुभा । 


शुक्र का शीघ्रफखानयन--शुक्र का शीघ्केन्द्र ०।१३।३२।१३ अंशादि 
१३।३२।१६ मे १५ काभाग देने से गतांक ° आया तथा शेष १३।३२।१३ 
रहा -रेष्यांक ६३ से गतांकण० के अन्तर ६३ से दोष को गणा 
किया गणनफल ८५२।४९।३९ को १५ से भाग दिया लन्वि ५६।५१।१८ 
को चयात्मक अन्तर होनेसे गतांक.०मे जोड़करश्ण्से भाग दिया 
लन्धि ५।४१।८ शुक्र का शीघ्र फर हज । मेषादि केन्द्र होने से फल 
धन होगा । 


शनि का शीघ्फलानयन--मध्यम सूयं ७।१३।४७।२३-- मध्यम शनि 
२।१८।४६।२--४।२५।१।२१ = मन्द केन्द्र । इसके अंशादि १४५।१।२१ को 
६५ से भाग देने पर न्धि ९ तथा शेष १०।१।२१ । अतः नवां गतांक 
४५ तथा ठेष्यांक ३३ हआ दोनों के क्षयात्मकं अन्तर १२ से शेष 
१०।१।२१ को गृणा किया गणनफल १२०।१६।१२ को १५ से भाग दिया 
लन्धि ८१।४ को क्षयात्मक अन्तर होने से गतांक ४५ मे घटाकर शेष 
३६।५८।५६ को १५ से भाग दिया लन्ि ३।४१।५३ शनि का शलीघ्रफक 
हमा । मेषादि केन्द्र होने से फर घन होगा । 


७9  अहराधवे 
मन्दाः मन्दकेन्द्राश्च-- | 
खं गोऽहवनोऽद्रिमस्तोऽक्षगजा नवाशाः 
सिद्धेन्दवः खदहनक्ितयोऽसृजोऽङूमः । 
मान्दा बुधस्य खमिनाः कुदृशोऽषटपक्षा 
देवाः शरानरुमिता रसवह्वयः स्थुः ॥ ७ 


लेन्द्र्षाणि नबाग्नयोहचुदधयोऽक्षाक्षा नगाक्षा गुरोः 

शुक्रस्थाश्ररलेदाविश्वमनवो द्विर्बाणचन्व्राः कमात्‌ । 

तरं गोऽन्नाः खरता: खषट्‌ नगनभा गोऽ्टौ त्रिनन्दाः रनः 

शुद्धोऽब्च्यद्रिषडग्निनागगृहतः स्यान्वन्दकेन्द्रं कुजात्‌ \\ ८ 

मल्लारिः--एवं शीध्रोकानुक्त्वेदानीं मन्दांकान्‌ मन्दकेन्द्रसाधनं च वृत्त 
दयेनाहे । खमिति । असृजो भौमस्यैते मान्दा मन्दफलाङ्काः स्थुः । खं शून्यम्‌ । 
गोऽर्विन एकोनत्िशत्‌ २९। अद्विमहतः सप्तपञ्चाशत्‌ ५७ । अक्षमजाः पञ्चा- 
शीतिः ८५। नवाजा नवोत्तरशषतम्‌ १०९ । सिद्धेन्दवश्चतुविंशत्यधिकश्चतकम्‌ 
१२४ । सलदहनक्षितयर्सिंशदधिकशतम्‌ १३० । बुधस्यैते । खं शुन्यम्‌० । इना 
वादश्च १२। कुदुश्ष एकविंशतिः २१ । भष्टपक्षा अष्टाविशतिः २८ । देवास्वरय- 
लिशत्‌ ३३ । शरानलमिताः पञ्चधरिशन्मिताः ३५ । रसवह्लयः षट्त्रिरात्‌ ३६। 
गुरोरेते । खं शून्यम्‌° । इन्द्राश्चतुदश १४। ऋक्षाणि सप्तविरातिः २७1 
नवाग्नयः एकोनचत्वारिंशत्‌ ३९। अहयोऽष्टौ । उदधयश्चत्वारः । एवमष्टचत्वा- 
रिषत्‌ ४८ । अक्षाक्षाः पञ्चपञ्चादात्‌ ५५ । नगाक्षा: सप्तपञ्चाशत्‌ ५७ ॥ 
भथ शुक्रस्य । अश्रं शून्यम्‌० । रसाः षट्‌ ६। ईशा एकादश ११ । विवे त्रयो- 
दश १३। मनवद्चतुर्हृश्ष १४। द्विद्विवारम्‌ । बाणचन्द्राः पञ्चदश १५।१५। 
अथ शनेः खं शृन्यम्‌० । गोऽब्जा एकोनविशतिः १९। खकृतास्चत्वारिशत 
४० । खषट्‌ षष्टिः ६० । नगनगाः सप्तसप्ततिः ७७ । गोऽष्टौ एकोननवतिः ८९ । 
त्रिनन्दास्तिनवति ९३ । ग्रहाः क्रमादन्घ्यद्रिषडग्निनागगृहतः शुदः कुजाद्भौम- 
भारभ्य मन्दकैन्द्रं स्यात्‌ । एतदुक्तं भवति । अन्धयश्चत्वारो राशयो भौम- 
भन्दोच्चम्‌ । अद्रयः सप्र राशयो बुधस्य । षड्गुरोः । अग्नयस्त्रयः ३ शुक्रस्य । 
नागा ष्टौ ८ राशयः रनेः । ` एवं स्वस्वमन्दोच्चाद्‌ ग्रहः शोधितो मन्दकेन्द्र मवे- 
दिति ॥ | 
 अच्रोपपत्ति--मन्दोच्वकेनद्रवासना मन्दफलपरमत्वज्ञानवासना च पूर्वमेवोक्ता । 
अभ्र मन्दफलानयने रारित्रयमेव षदं गृहीतं तत्‌ कथं कर्णानङ्गीकारात्‌ + 


पञ्चतारो-स्पष्टाधिकारः ७१ 
महो अत्र॒ शीघ्रफला्थं कर्णो गृहीतः । मन्दफलाथं न गृहीतः। स कथम्‌ । 
कर्णो हि ग्रहकक्षाव्यासार्धंम्‌ । एवं मन्दकर्णो मन्दप्रतिमण्डलग्यासा्घंम्‌ । शीघ्र 
कर्णः शीघ्रप्रतिमण्डलमग्यासार्धम्‌ । एवं यत्‌ साधितं भन्दफलं तर्मधघ्यमात्‌ । 
मध्यमो मन्दप्रतिमण्डलेऽतो जात मन्दफलं मन्दकर्णाप्रस्थानीयम्‌ । अतो मन्द 
फलानयने मन्दकर्णोऽपि ग्राह्यः स सर्वेरपि नाद्धीकृतः। तत्र प्रहुकर्णाग्रहुणे एक 
कारणं वक्तव्यम्‌ । शीघ्रफलान्मन्दफलस्योनत्वात्‌ स्वत्पान्तरत्वान्मन्दकर्मणि 
कर्णो न गृहीतः। एवं चेत्‌ तहि स्वल्पेऽपिश्ञीघ्नफले कर्णो गृह्यते । तदधिके 
मन्दफले न गृह्यते । एवं कथमिति चेन्नो । यतोऽत्र युक्त्या हैतुज्ञानं नैव 
भवति । फल्वासना विचिघ्राऽस्ति। एतादुरेनैव कर्मणा आकाल प्रहुस्पष्टत्वं 
दुद्यते । अतः भ्रत्यक्नप्रमाणोपलन्ध्या एतत्‌ कृतमिति वक्तव्यम्‌ । दति स्वं 
निरवद्यम्‌ ॥ उक्तं च सिद्धान्तरिरोमणौ-- 

“स्वल्पान्तरत्वान्मृदुकर्मणोह कणं: कृतो नेति च केचिदूचुः । 

नाञ्चंकनीयं न चले किमित्थं यतो विचित्रा फल्वासनाऽत्र' इति ॥ 

अत्र त्रिज्यातुल्यया मन्दकेन्द्रदोज्यंया यदि परमं मन्दफलं तदेष्टदोज्यया 
किमिति । एवं पञ्चदश्चभागवृद्धया मन्दकेन््रं प्रकत्प्य अनया युक्त्या मन्दफलानि 
प्रसाध्यानि । तानि सावयवान्यतो दशगुणानि कृत्वा रारित्रयमध्ये ग्रहाणां 
पृथक्‌ पृथक्‌ षड्धा मान्दा भवन्तीत्युपननम्‌ । भत्र धृीकमं । प्रथमांको भुजा- 
भावाच्छुन्यम्‌ । ततः पञ्चददा १५ भागास्तेषां ज्या ३१1 भौमपरममन्दफलेन 
गुणिता जाता ३४७ । १२। द्यं लाक-१२० भर्ता जातं फलम्‌ २। ५४ । 
हदं सावयवत्वाद्शगुणं २९ जातो भौमस्य द्वितीयो मन्दाद्धुः । एवं सवषां स्चऽद्धा 
उत्पादनीयाः ॥ ७-८ 

चन्द्रिका-ख = ०, गो ९ अष्विनः २=२९, अद्रि ७ मरत्‌ ५ = ५७, 
अक्ष ५ गज ८ = ८५, नव ९ आश्चा १०= १०९, सिद्ध २४ इन्दु १== १२४, 
ख० दहन ३ क्षिति १= १३०, गसुज न= मंगल के मन्दाङ्धु है । 

नुघ के मदाङ्धु लं = ०, इनः = १२, कू १ दृशः २२१, अष्ट ८ पक्षा 
२= २८, देवाः = ३३, शर ५ अनल ३३५, रस ६ बह्वयः ३ = ३६ दँ । 
ख == ०, इन्द्र = १४, ऋक्षणि = २७, नव ९ अग्नयः ३ = ३९, अहि ८ 





१.सि. शि. गो. ॐ. ६६। 


७२ श्रहलाघवे 
उदधयः ४==४८, भक्ष ५ भक्ष ५८५५, नम ७ अक्ष ५==५७ ये गुरुके 
मन्दाङ्कं है| 
शुक्र के अश्र =°, रस == ६, ईश = ११, विश्वं == १३, मनवः १४ द्व 
== दो बार बाण ५ चन्द्रः १-= १५, १५ मन्दाङ्क है । 
खं = ०, गो ९ भन्ज १= १९, खण कृता ४४०, ख० षट्‌ ६ = ६०, 
नग ७ नग ७ = ७७, गो ९ अष्टौ ८=८९, त्रि २३नन्दा९= ९३ शनिके 
मन्दाडक हैँ । स्पष्टज्ञानाथं भौमादि के मन्दाङ्क इस प्रकार ह - 
भौम -०, २९, ५७, ८५, १०९, १२४, १३० 
लुध --०, १२, २९, २८, ३३, ३५, ३६ 
गृ₹--०, १४, २७, २९, ४८, ५५, ५७ 
शुक्र -०, ६, ११, १३, १४, १५, १५ 
शनि --०, १९, ४०, ६०, ७७, ८९ ९३ 
7 ` भौमादि ग्रहं कोक्रमसे ४,७, ६, ३, ८, राशियों से घटाने पर उन 
ग्रहो के मन्दकेन्द्र होते हँ । [अर्थात्‌ भौमको ४रारिसे, बधकोसे, 
गुरुकोद्से, शुक्रकोरेसें तथाकनिको ८ रा्चिसे घटाने पर इनके 
मन्द केन्द्र होगे] । ७-5 


मन्दफलातयनम्‌-- 


म्रदुकेन्द्र भुजां शका दिनाप्राः 

फलमङ्धुः प्रगतस्तदूनितेष्यः । 

परिशोषहुतो दिनाप्नियुक्तो 

दशभक्तः फलमंशकादि मान्दम्‌ ।॥\ ९ 

मल्लारिः--ण्वं मान्दाङ्कानभिषायेदानीं मन्दफलकर्तभ्यताप्रका रमेकवत्तेनाह्‌ ! 
मृद्विति । मुदृकेन्द्रस्य ये भुजभागास्ते दिनः पञ्चदशभिः १५ आप्ता भक्ताः सन्तो 
यत्‌ फलं तन्मितः प्रगतोऽद्धुः स्यात्‌ । तेन गताद्धुनं ऊनितो य रष्योऽद्कुः स 
परिशेषेण शेषमागैहतो गुणितस्तस्माद्या दिनासिः पञ्चदकशभागस्तेन युक्तः स 
गताङ्कस्ततो दशभक्तीऽशकादि भागादि मन्दफल भवतीत्यथंः ॥ 

अत्रोपपत्तिरनुपातद्रयेन-- यदि पञ्चदशभागैरेको मान्दाङ्कस्तदेष्टेमन्दकेन्द्रारौः 
किमिति ! अतो गतांशा दिनाप्ता गताङ्कुः स्यादिति । रोषादनुपातः । यदि पञ्च- 
दशभायैरेतावती गतंष्यान्तरतुल्या वुद्धिलंम्यते तदा रोषांशेः किभिति। अकां 
दिग्गुणिताः सन्त्यतस्तद्दशभि्भाज्यं फलं भ वतीत्युपपन्तम्‌ ॥ ९ 


पञ्चता रा-स्पष्टाचिकारः ७३ 


चन्द्रिका--( भौमादि ग्रहों के ) मन्द केन्द्रका भुज बनाकर उसके 
अंशादि में १५काभाग देने से रन्धि तुल्य गत मन्दाद्कु होगा । गत भौर 
देष्य मन्दाङ्को के अन्तर से शेष अंशादि को गुणा कर गुणनफल मे पूनः 
१५का भाग देकर ल्ब्धिको गतांकमें जोड़कर १०्का भागदेनेसे 
अंशादि मन्दफल होगा । 

[उदाहरण १०वें श्टोक के बाद देखे ।] 

ग्रहै फल्पस्कारविधिः- 

प्राङमध्यमे चलफलस्य बलं विदध्यात्‌ 


तस्माच्च मान्दमखिल विदधोतं मध्ये । 
द्राक्केन्द्रकेऽपि च विलोममतश्च शीघ्रं । 


सर्वं च तत्न विदधीत भवेत्‌ स्फुटोऽसौ । १० 

मल्कारि--एवं शीघ्रफलमम्दफलसाघनमुत्वेदानीं ग्रहे कथं संस्कार्य॑मित्येक- 
वुत्तेनाह । प्रागिति । प्राक्‌ आदौ अहुगगणोत्पन्नमध्यमे प्रहे चलफलस्य शीघ्रफलस्य 
दख्मधं यथागतं घनणं विदध्यात्‌ प्रददययान्‌ । तस्मादहत्तली घ्रार्धन्मान्दं मन्दफलं 
साध्यम्‌ । तदखिलमपि मन्दफलं मध्यमेऽहगणोत्पन्ते यथागतं विदधीत कुर्वीति । 
तन्मन्दफलं द्रव्केन्द्रे शोघ्रकेन्द्रे पूवंकृते विलोमं विपरीतं धनर्णं देयम्‌ । अतो मन्द- 
फल संस्कृतशोध्रकेन्द्रात्‌ शीघ्रफल साध्यम्‌ । तत्‌ सर्वं तस्मिन्‌ दत्तमन्दफले विदघीत 
शर्वीति असौ ग्रहः स्फुटो भवतीस्यर्थः ॥ 

अत्रोपपत्तिः--प्रत्यक्षोपरन्धिरेव ।॥ १५ 

चन्दरिका- सवंप्रथम (पूवंसाधित) शीध्रफल के आपे का मध्यम ्रहुमें 
संरकार करे फिर फलार्धसंस्छृत ग्रह॒ से साधित सम्पूणं मन्दफल का 
संस्कार मध्यम ग्रहर्मे करे । अनन्तर मन्दफल का शीच्केन्रमेभी 
विपरीत संस्कार (धनहोततोऋण ऋणहो तो धन ) करके पुनः लीघ्र- 
फल का साधन कर, मन्द-स्पष्ट प्रहुमे संस्कार करनेसे स्पष्ट ग्रह्‌ 
होता दहै । १० 

उदाहरण--भौमादि ग्रहों का मन्दफर एवं द्वितीय शीघ्रफल सान 
भौम का पूवं साधितं शीघ्रफल ५।५१।४८ का आधा २।५५।५४ को शीघ्र 
फल धन होने से मध्यम मंगल ६।२८६७।४३ मे जोड़ने से ७।१।३३।३७ 
फलाधं संस्कृत भौम हआ । इसे भौम के मन्दोच्च ४ राशि मे घटाने से 
८।२८।२६।२३ मन्द केन्द्र हुभा दसका भुज २।२८।२६।२३ हा, इसके 
अंशादिमे १५ का भागद्यातौ लब्धि ५ एवं शेष १३।२६।२३ रहा । 
रन्धि तुल्य पांचवां मन्दाङ्धु १२४ गत तथा ` १३० एष्यांक हजा । इनं 


७४ ग्रहुलाघवे 


दोनो के अन्तर ६ से शोष १३।२६।२३ को गुणा कर गुणनफल ८०।३८१८ 
मे पूनः १५ का भाग देकर रन्धि ५।२२।३३ क्रो गतांक 
१२४ मे जोडा । योगफल १२९।२२।२३मे १०का भाग देनेसे रन्धि 
१२।५६।१५ अंशादि मन्दफल हुआ । यह तुलादि केन्द्र होने से ऋण हुआ । 
अतः मध्यम भौम ६।२८।३७।४३ मे घटाने स मन्दस्पष्ट मंगल ६।१५।४१।२८ 
हु । उक्त ऋण मन्दं फल १२।५६।१५ को प्रथम शोघ्रकेन्द्र ०।१५।९।४० 
मे विपरीतं संस्कार (अर्थात्‌ मन्दफल ऋण है तो धन) करने से 
०।२८।५।५५ द्वितीय शीघ्केन्द्र॒ हु । इसके अंशादि २८८५५ मे १५ 
का भाग देने से न्धि, शेष १३।५।५५ रहा 1 लब्धि तुल्य शीघ्रांक 
५८ गत॒ तथा ११७ एेष्यांक हुभा दोनो के चयात्मक अन्तर ५९ से शेष 
१३।५।५५ को गुणा किया, गुणनफल ७७२।४९।४ को १५ से भागं देकर 
रुन्धि ५१।३१।१६ को गतांकं ५८ में जोडकर १० से भाग देने पर रुन्वि 
१०।५७।७ अंशादि शीघ्रफर हुजा । मेषादि केन्द्र होने से धन हुआ । अतः 
मन्दस्पष्ट मंगल ६।१५।४१।२८ मे श्ीघ्रफल १०।५७।१६ को जोड़ने से 
६।२६।२८।३५ स्पष्ट मदकल हज । 

बुध स्पष्टीकरण-बुध का रीघ्रफल १३।४८।६ ऋणात्मक है दसके 
आपे ६।५४]३ को मध्यम बुध ७।१३।४७।३३ में घटाया तो ७।६।५३।३० 
फलाधं संस्कत बुधहुभा। इसे बुधकैे मन्दोच्च ७ रारिमे घटानैसे 
११।२३।६।३० बुधका मन्द केन्द्रहुभा। इसके भुज ०।६।५३।६० के 
अंशादि ६।५३।३०मे १५का भागदेनेसे ख्न्धि ° तथा शेष ६।५३।३० 
नचा । छन्वि तुल्यगतांक ( मन्दांक ) ° तथा ठेष्यांक १२। इन दोनों के 
अन्तर १२ स शेष ६। ५३।३० को गुणा किया । गुणनफर ८२।४२।० में 
पूनः १५ का भाग दिया | लब्धि ५।३०।४८ को गताङ्कु ° मे जोड़कर १० 
का भागदेनेसे अंशादि रन्धि ०।३३.४ बध का मन्दफल हुमा । तुलादि 
केन्द्र होने से ऋणात्मक मन्दफल को मध्यमनुध ७।१३।४७।३३ मे घटने से 
मन्दस्पष्ट बुघ ७।१३।१४१२९ राद्यादि हुमा । उक्त ऋणात्मक मन्दफ़ल 
को बुघ रीघ्केन्द्र १०।५।२६।४६ मे जोड़ा ( विपरीत संस्कार किया) तो 
द्वितीय लीघ्रजन्द्र १०।५।५९।५० भाया । इसे ९ राशिसे अधिकहोनेसे 
१२ राक्िमे घटाकर शोष १।२४।०।१० को १५ से भाग दिया । न्धि 
तथा रोष ९।०।१० रहा । हसे तृतीय शीघ्रांक ११७ गत तथा १५० 
एष्यांक के अन्तर ३३ से गुणा किवा\ गुणनफल २९७।५।२० को पुनः 
१५ से भाग दिा। रुन्धि १९।४८।२२ को चयात्मक अन्तर होनेसे 
णतांक ११७ मे जीड़कर योगफल १३२६।४८।२२ मे १०्का भागदिषा) 


पञ्चतारास्पष्टाधिकारः ७५. 


खन्धि १३।४०।५० अंशादि शीघ्रफल हभ । तुलादि केन्द्र होने से ऋण 
टुमा । अतः मन्दस्पष्टनुध ७।१३।१४।२९ में १३।४०।५० शीघ्रफल को 
घटाने से राहयादि स्पष्ट बुध = ६।२९।२३३।३९ । 

गृरुस्पष्टीकरण -गुरु का पूवंसाधित रीघ्रफर ऋणात्मक १०।४२।३४ 
है । इसके आधे ५।२१।१७ को मध्यम गुख ११।१।२।५३ में घटने से 
फलाधं संस्छृत गुद १०।२५।४१।३६ हुमा । इसे गुरु के मन्दोच्च ६ राशि 
मे घटाने से ७।४।१८।२४ मन्द केन्द्र हुभा । इसके भुज के अंशादि ३४११८] 
२४मे १५काभाग देने से रन्धि २ तथा शेष »।१८।२४ रहा इसे 
द्वितीय गत शीघ्ांकं २७ एवं एष्यांक ३९ के अन्तर श्रसेगुणाकिया। 
गुणनफल ५१।४०।४८ को १५ से भाग देकर लन्धि ३।२६।४३ को मर्तांक 
२७ मे जोड़कर १० का भागदेनेसे छन्धि अंशादि ३।२।४० ऋणात्मक 
मन्दफल हुआ । मध्यम गुर ११।१।२।५३ में ३।२।४० मन्दफर को घटाया 


दष १०।२८।०।१३ मन्दस्पष्ट गुह हुआ । उक्त ऋणात्मक 
मन्दफल ३।२।४० को गरु के प्रथम शीघ्र केन्द्र ८१२१४५३० मे जोडा | 


योगफल ८।१५।४७।१० द्वितीय शीघ्रकेन्द्र हुभा 1 यह्‌ ६ राक्ष से अधिक 
है भतः इसे १२ राशि में घटाकर शेष ३।१४।१२।५० के भंशादि १०४। 


१२।५० मे १५ का भाग देने से कन्धितुल्य गताङ्कु १०६ तथा एेष्याद्धु १०८ 
हमा इन दोनों कै अन्तर २ से शोष १४।१२।५० को गुणा किया । गुणनफलः 
२८।२५।४० मे पुनः १५ का भाग देकर रन्धि १।५३)४२ को गताङ्धुः १०६ 
मे जोड़ा योगफल १०७।५३।४्२रमे श०का भागदिया। रन्धि १०।५७} 
२२ ऋणात्मक द्वितोय शीघ्रफर हुभा । भतः मन्दस्पष्ट गर १०।२८।० 
१३ मे १०।४७।२२ शीघ्रफल अं्ञादि को घटाने से शेष १०१७।१२।५१ 
स्पष्टगुरु हुआ । 

शुङ्रस्पष्टीकरण-शुक्र का पूवंसाधित शीघ्रफल धनात्मक ५।४१।८ है 
इसके भधे २।५०।३४ को मध्यम शुक्र ७।१३।४७।३३ मे जोड़ा तो ७।१६ 
३८।७ फलाधं संस्कृत शुक्र हुमा । इसे शुक्र के मन्दोच्च ३ राशिमें 
घटाया } शेष ७।१२।२१।५३ इसका मन्दकेन्द्र हुआ । इसके भुज १।१३। 
२१।५३ के अंशादि ४२।२१।५३ मे १५ का भाग दिया। रन्धि र तुल्य 
गतमन्दाद्धुः ११ तथा एेष्यमन्दांक १।३ के अन्तर रसे शेष १३।२१।५३ 


को गुणा किया गुणनफल २६।४३।४६ में १५ का ५ रन्धि १।४६। 
५५ को गतांक ११ मे जोड़कर योगफरू १२।४६।५५ मे १० का भाग दिया 


रन्धि १।१६।४१ शुक्र का ऋणात्मक मन्दफल हुभा । इसे मध्यम शृङ्र 
७१२३।४७।३३ मे घटाया शेष ७।१२।३०।५२ मन्दस्पष्ट शुक्र हुमा ! 


७६ ग्रहुलाधवे 
 उक्तफल को शुक्र हीघ्रकैन्द्रमे विपरीत संस्कार (योग) किया तो 
-० १,४।४८।५४ द्वितीय शीघ्र केन्द्र हुमा । इसके अंशादि १४।४८।५४ मे १५ 
का भाग दिया । छन्धि तुल्य ° गतांके तथा ६३ एेष्यांक के अन्तर ६३ 
से दोष १४।४८।५४ का गुणा किया । गुणनफल ९२३३।२०।४२ को पुनः १५ 
से भाग देकर ञ्धि ६२।१३।२२ को गतांक ०मे जोड़कर १० से भाग 
दिया । रन्धि ६।१३।२० धनात्मक शुक्र का शीघ्फल हुभा । अत ॒मन्द- 
स्पष्ट शुक्र ७।१२।३०।५२ में ६।१३।२० को जोड़ने से ७।१८।४४।१२ स्पष्ट 
शुक्र हभा । 

शनिस्पष्टीकरण - शनि के पवंसाधित शीघ्नरफल २।४१।५३ के धे 
१।५०।५५ को मध्यम शनि २।१८।४६।२ मे धनात्मक होने से जोडातो 
फखाधं संस्कृत शनि २।२०।३६।५७ हुआ । इसे शनि के मन्दोच्च ८ रादि 
में घटाने से इसका मन्दकेन्द्र ५।९।२३।२ हुमा । इसके भुज ०।२०।२३६।५७ 
के अंशादि २०।३६।५७ को १५ से भाग देने से रुन्धि १ तुल्य गत मन्दाक 
१९ तथा एेष्यांक ४० के अन्तर २१ से शेष ५।३६।५७ को गुणा किया । 
गुणनफर ११५७।५५।५७ को पुनः १५ से भाग देकर रुन्धि ७।५१।१द को 
गतांक १९ मे जोड़कर योगफल २६।५१।४३ को १० से भाग देने प्र 
लन्धि अंशादि २।४९१।१० धनात्मक मन्दफल हुमा 1 इसे सभ्यमशनि २।१८। 
४६।२ मे जोड़ने से २।२१।२७१२ मन्दस्पष्ट शनि हजा । उक्त धनात्मक 
मन्दफल को दानि के शीघ्र केन्द्र ४।२५।१।२१ मे घटाने (विपरीत संस्कार) 
से द्वितीय शीघ्र केन्द्र ४।२२।२०।११ हुभा । इसके अंशादि १४२।२०।११ 
को १५से भाग दि्ा। लच्छि ९ तुल्य गत शीघ्रांक ४५ तथा रेष्यहीघ्रांक 
३३ के क्षयात्मक अन्तर १२ से रोष ७।२०।११ को गुणा किया । गृणनफल 
८८।२।१२ मँ १५ का भाग देकर लन्धि ५।५२।१८ को क्षयात्मक अन्तर 
होने से गतांक ४५ मे घटाया शेष ३९।७।५२ को १० से भाग देने पर 
रन्धि ३।५४।४७ अदादि धनात्मक शीघ्रफल हुभा । मन्दस्पष्ट शनि 


२।२१।२७।१२ में सघ्रफल ३।५४।४७ को जोड़ने से २।२५।२१।५९ स्पष्ट 
हानि हुमा । 


भौमादीनां मन्दस्पष्टा गतिः-- 
मान्दाद्धुन्तर माक्यंसुग्गुरूणां 
भक्तं बाणनभैः शरः खरामेः । 
विदुभृग्वोहिहताश्चुगोद्धतं तत्‌- 
दयात्‌ प्राग्वदितौ मृदस्फुटा सा ॥ ११ 


पञ्चता य-स्पष्टाधिकारः ७७. 
मल्लारि :- एवं ग्रहस्पष्टत्वमभिधास्येदानीं गतिमन्दस्पष्टतामेकवतौीनाह । 
मान्दांकान्तरमिति । आकिः शनिः । असु ग्‌भौमः । गुरुवंहस्पतिः । एषां मन्दफला- ` 
नयने यत्‌ कृतं भान्दांकरान्तरं तत्‌ क्रमेण बोाणानगेः पेञ्चयप्तत्या ७५ । शरैः 
पञ्चभिः ५। सरामेस्विशद्धिः ३०। भक्तं लन्धं कलाद्यं तन्मन्दगतिफकं 
स्यात्‌ । विद्भृग्बोः बृघञुक्योर्मान्दांकान्तर द्वि रहं सत्‌ । आशुगैः पञ्चाभिः. 
५। उदृत्तं फलं स्यात्‌ । तत्त्‌ भ्राग्वद्‌ इतौ मध्यगतौ दद्यात्‌ सा मुदृस्फुटा 
गतिभवतीत्य्थंः ॥ 
भत्रोपपत्तिः--प्रतिपादितप्रमेया तथाऽपि किञ्चिदुच्यते । अत्र प्रहफलाभावे 
गतिफल परमं ग्रहफलपरमत्वे गतिफलाभावः । ग्रहफलाभावस्तु भुजादौ । तत्र 


मान्दांकान्तरमपि परमम्‌ । तत्र॒ गतिफलानि मान्दादि परमाणि कलादीनि 
लक्षितानि । मौ. ५।४८ बु. ४ । ४८ । गु. ०। २८ । शु. २।२४। श. ० । 


१५ । १२ एम्योऽनुपातः । यदि मान्दाङ्कान्तरेण प्र थमाकतुल्येन एतानि तदेष्टेन 
कानीति । एवमिष्टमान्दाकान्तरमेमिः परमफङैगुःण्यं परममान्दांकन्तरैराद्यांक- 
तुर्य॑माज्यम्‌ । एवं सर्वत्र गणह्रौ गुणेनापवतितौ जाता भौमादीनां हरा भौ. ६। 
बु. २।३०। गु. ३०। बु. २।३०। शं. ७५ एवं मौमगुरुरनीनां हर 
निरवयवा: । अतो मान्दाद्धुन्तरमेभिर्भाज्यमिति । बुधशुक्रयोहुरौ सावयवावतस्की 
द्विसर्वाणिततौ जातौ समावेव ५। अतस्तयो्दिहताशुगौद्धृतमिति । एवमेतन्मन्दफल 
मध्यमगतौ देयम्‌ । सा मन्दस्पष्टा गतिभंवतीत्युपपन्नम्‌ । अत्र गत्तिफलधन्णत्ववासना 
पूवोकि्तव ज्ञातन्या ।} ११ 

चन्द्रिका ~ पूवं पठित मन्दांको के अन्तरको ( मन्दफल साधन कै 
समय आनीत गत-एष्याङ्ों के अन्तर को ) क्रमसे ७५ स भागदेने पर 
दनि का, ५से भाग देने पर मद्रु का, ३० से भागदेनेपर गुरु कामन्द. 
गति फल होता है ! बुध भौर शुक्र के मन्दाद्खोके अन्तरको २सेगणा 
कर५ काभागदेने से मन्द गतिफल होता है । इस मन्दगतिफछ को ग्रहों 
की मध्य गति में प्रागुक्त विधि से (अर्थात्‌ कर्कादि केन्द्र होने पर धन 
तथा मकरादि केन्द्र हीने पर ऋण) संस्कार करने पर मन्द स्पष्ट 
गति होतौ टै । 

उदाहरण --मङ्खल का. मान्दाङ्कुन्तर ६ उसे ५ से भागदेनेपर रुन्धि 
१।१२ मन्द गतिफल होगा । करसि कन्द्र होने से मङ्ख की मध्यमगति 
३१।२६ मे जोडने से ३२।३८ मन्द स्पष्ट गति हई | 

सुध कं मान्दाद्धुन्तर श्२्कोरसेगुणाकर | गुणनफल रथ म ५. 
काभाग देने से छन्वि ४।४८ गतिफठ मकरादि केन्द्र होने से 
ऋण हुमा ) । 


७८ ग्रहुखाघवे 
उक्त गतिफल को बुध की मध्यमगति ५९।८ मे घटाने से ५४।२० 
मन्द स्पष्ट गति हुई । 
गुर के मान्दाद्कान्तर १२को३० से भाग देने पर लन्धि ०।२४ मन्द- 
गतिफक कर्कादि केन्द्रव्वात्‌ धन हुमा । अतः गर गति ५।° में जोड़ने 
से ५।२४ मन्दस्पष्टगति हुई । ॥ 
शुक्रका मान्दाद्धुन्तर २५८२=४इसे ५से भाग दिया, लच्धि 
०।४८ मन्दगतिफर कर्कादि केन्द्रात्‌ धन हुआ । इसे शुक्र कौ मध्यमगति 
५९।८ मे जोड़ने से ५९।५६ मन्दस्पष्टगति हुई । 
इसी प्रकार रानि के मान्दाङ्कुान्तर २१ को ७५ से भाग देने पर लन्धि 
०१६ प्राप्त हुई । कर्कादि केन्द्र हाने से धनात्मक गतिफल को शनिकी 
मभ्यमगद्ि २।० मे जोड़ दिया तो २।१६ मन्दस्पष्टगति हूरई । 
भौमादीनां स्पष्टागति :-- 
भोमाच्चलाद्धुचिवरं शरहुद्‌ स्वकाणां 
शार्टयं नरिहृत्‌ कृतहूतं द्विगुणाल्ञभक्तम्‌ 1 
तद्धीनयुक्‌ प्षयचये तु मृदुस्फरा स्यात्‌ । 
स्पष्टाऽथ चेदुबहुऋणात्‌ पतिता तु वक्रा ॥ १२ 
मल्ट।र :- अथ गतेः स्पष्टाकरणमेकवृत्तेन वदति । भौमादिति । मौमा- 
भ्मङ्कलमारभ्य यच्चलांकानां सीघ्रांकानां विवरं द्वितीयद्ीघ्रफलानयनाथं कृतमस्ति 
तत्‌ क्रमात्‌ । शरैः पञ्चभिर्हुत्‌ भक्त भौमस्य । स्वनाणांडेन स्वपञ्चांशेन 
युक्तं बुधस्य । व्रिहत्‌ त्रिभक्तं गुरौः । कतह्च्चतु्भक्तं गुक्रप्य । द्वहतं द्वियुण 
सत्‌ अक्षभक्तं पञ्चभक्तं शनेः । तद्‌ गतेः सीघ्रफं स्यात्‌ । सा मृदस्फुटा गति- 
स्तेन फलेन क्षयचये हौोनयुक्‌ क्षये हीना चये युक्ता सतो स्पष्टा भवेत्‌ । अथ 
चैद्णफटं बहुगतेनं शुद्धथति तदा सा गतिरेव फलमत शोध्या रोषं वक्रा गतिः 
स्यादित्यथंः ॥ 
अश्रोपपत्ति ग॑तिभन्दफलवद्‌ । अश्र शीघ्रफलान्तरं गतेः शौघ्रफरं तक्रानुपातः । 
यदि पञ्चदश्भाभकलाप्रमाणेन ९०० ददं शीघ्राद्धान्तरं॑तदा शीघ्रकेन्द्रगति- 
कलाम्रमाणेन किमिति । ततः शीघ्राङ्कुानां दरागुणितत्वात्‌ तदश्षमिर्भाज्यिं 
कलां च षष्ट्या गृण्यम्‌ । एवं शीघ्राङ्कान्तरस्य हरघातो हरः ९००० । 
षष्टि : ६० गृणः । गुणहरौ गुणेन पिवत्त्यं जातो हरः १५५० । भस्य केन्द्रगतिः 
गृणोऽतस्ति। अत्र भोमगुरुलुक्राणां केन््रगतिभिराभिः २८।४५।३७ सार्ध॑श्चते 
-१५० हरे भक्ते जाता हराः । ५।३।४) बुघकेन्द्रगतिगुणः १८६ अत्र गृणहरौ 


पञ्वतारा-स्पष्टाधिकारः ७९ 
त्रि्षताऽपवत्तितौ जातो गृणः ६। हरः ५१ यौ राशिः षड्भिः ६ शृण्यते 
पञ्चभिः ५ भज्यते स स्ववबाणांशाद्‌चं एव भवतति । तथा कश्नेः केन्द्रगतिः ५७ । 
अश्र गुणहरौ गुणधंनापवत्तयं जातो गृणः २। हरेः ५ अतो द्विहवाक्षभकं 
तीघ्नांकान्तरं शनेर्गतिफलं स्यादित्युपपश्नम्‌ । एवमेतद्गतेः कशीघ्रफङं मन्दस्पष्ट- 
गतौ देयं स्पष्टा स्यादेव । तत्र घनर्णोपपत्तिः--धङ्कान्तररेभ्पि चेत्‌ क्षयस्तदा ग्रहे 
स्वत्पफलत्वाद्गते रपि न्युना । अग्रे चेद्‌वु द्धिस्तदा ग्रहै फलाधिकत्वात्‌ स्पष्ट- 
गतिरधिका । मतः क्षयो ऋणधनसंजोक्ता । चेत्‌ फलं मन्दस्पष्टगतेनं शुष्यति 
तदा विपरीतशोषनेन विपरीतगतिवंक्रा मतिभंवतीत्युपपन्नम्‌ । वक्रत्ववासनामग्र 
सविस्तरं वक्ष्यामः । १२ 


चश्िका-भौमादि ग्रहों के चलाङको (रीघ्राडको) के अन्तर, जो 
द्वितीयल्लीघ्रफल साघनमे प्रयुक्त हुए दहै, को क्रमशः ५ सेभागदेने पर 
मङ्कल का, अपना पञ्बमांश युक्त केरने पर बुधका, ३ सं भागदेने 
पर गुरुका, ४्सेभागदेने षर शुक्रका तथार्से गुणाकर ५सेभागदेने 
पर शनि का शीघ्रगतिफल होता है। उस गतिफर को रीघ्रांकान्तर 
चयात्मक होने पर मन्दस्पष्टगति में जोड़ने सं तथा क्षयात्मक होने 
पर घटाने से स्पष्टमति होती है । शीघ्र गतिफल से मन्दस्पष्टगति अल्प 
होने पर शोघ्र गतिफङ मे मन्दस्पष्टटगति को घटाने से शेष वक्रगति 
होतो है । १२ 

उदाहूरण--भौमादि ग्रहों के शीघ्रफर साधन द्वारा गति स्पष्टी- 
करभ- भौम का शीघ्राडकान्तर ५९ को ५ से भाग देकर रुन्धि ११।४८ 
शीघ्रगतिफल को चयात्मक भन्तर होने से मन्दस्पष्ट गति २२।३८ में 
जोडने से मङ्कल की स्पष्टगति ४४।२६ हुई । 

नुध का शोघ्राङ्कान्तर्‌ ३३ इसमे इसका पञ्चमांश ६।२३६ जोडने से 
३९।३६ शीघूफल हुआ । चयान्तर होने से मन्दस्पष्ट गति ५४।२० में 
जोड़ने से ९३।५६ बुध कौ स्ष्टगति हुई । 

गर के शीघूङ्कान्तर र्कोरेखे भाग दिया कन्ध ०।४० गुहे गति 
का श्ीघ्रफल हुमा चप्रान्तर होने बे मन्दस्पष्ट गति ५।२४ में जोड़ने से ६।° 
स्पष्ट गति हु ई । 


८० ग्रहुलाघवे 

शुक्र के चलाड्‌कान्तर ६२कोथ्से भाग देकर रन्धि १५।४५ शीः 
फ को चयात्मक होने से मन्दस्पष्ट गति ५९।५६ मे जोड़ने से ७५।४१ 
राक्र की स्पष्टगति हुई । 


शनि के शीघ्राडकान्तर श्रेको रसे गभाकेर गुणनफल रण्मे५ 
काभागं देने से छन्वि ५।४८ दीघ्रगत्तिफल हु । क्षयान्तर होने से 
मन्दस्पष्ट गतिम फल को घटाना चाहिए किन्तु यहाँ मन्दस्पष्ट 
गति २।१६ है तथा रीघ्रफल ४।४८ है अर्थात्‌ मन्दस्पष्ट गति अत्प ओर 
ीघ्रफल अधिक है । अतः विपरीत क्रिया करगे । शलीघ्रफल ४।४८ में 
२।२६ कौ घटाने से २३२ शनि कौ स्पष्ट ब्ग गति हुई ।१२ 


अन्त्यलीघ्ाङ्ागमे मौमलुक्रयोः वैचिष्टयम्‌- 


शुक्रारयोक्चलभवोऽन्त्यगतो यदाऽ्ुःः 
तोषांशकारच पतिताः पृथगक्षभूम्यः 1 

येऽल्पा भुगोस्त्रिविहूता असुजोऽक्षभक्ता 

देयाः स्वशीघ्रफल्वत्‌ स्फ़टयोः स्फ्टो तो ।॥ १३ 


मल्लारिः--अथ मौभशुक्रयोरन््यक्षीघ्रांकागमे ग्रहेऽन्तरं भवतीत्यतस्तत्र 
विदोषफलमेकवृत्तेनाह शुक्रेति । शुक्रः प्रसिद्धः । आरो भौमः एतयोरन्यतरस्य 
चलभवः श्षीघ्रफलोत्योऽङ्खो यदाऽन्त्यगतः स्याप्ु तदा ये शेषां शाः पञ्चदशमक्ता- 
वरिष्टाः शीघ्केन्द्रमागान्तेऽन्यत्र पृथक्‌ स्थाप्याः । अक्षभूम्यः पञ्चदशेम्य १५ 
एकत्र पतिताः शोधिताः । तयोः पृथक्स्थमागशोषधितमागयोम॑ष्ये येऽत्पास्ते 
ग्राह्याः । ते भगोः शुरस्य त्रिविहूतास्िभक्ताः । भसुजोऽश्नेः पञ्चवभिर्भक्ताः । 
भागादि लन्धं ग्राह्यम्‌ । तत्‌ स्वश्ीघ्रफलवद्‌ घनं ॒स्पष्टप्रहे देयं तौ भौमशुक्रौ 
स्फुटौ स्पष्टौ भवत्तः । एवं रीघ्रफलाऽन्त्यांकागमेऽन्त्याद्धुतुल्यहवाप्तानुपातादन्तरं 
जातम्‌ । तद्‌ मौमशुक्रयोरे्वाकबहुत्वादृक्तम्‌ । अन्येषामप्यन्तरमस्ति तेत्‌ स्वल्पत्वा- 
च्ाक्तम्‌ ॥ 

अत्रोपपत्तिः--अन्त्यांकः पञ्चषष्टघशध्िककशत १६५ नितशीघ्केन्द्रभागान्ते । 
मज्ञीत्यधिक्शत्त-१८० मागन्ते रून्यतुल्यः 1 पञ्चदञ्चभागानां मध्ये सार्घाः सत्त 
७।२३०) तेष्वन्तरं भीमस्य १।३० ; शुक्रस्य २।३० । अलोऽनुपाता्थं सार्घसप्त- 
भागालत्पप्रयोजनात्‌ पञ्चदशशुद्धा भागास्तयोरल्पा गृहीताः यदि सार््र॑सप्तमागै- 
रन्तरे भौमशुक्रयोरेते लभ्येते तदेभिभगिः किमुभयत्रापि सा्धंसप्त हरः स्वस्वान्तरे 


पञ्चतारा-स्पष्टाधिकारः ८१ 
गुणौ । गुणहरौ गुणाभ्यामपक्त्यं जातौ हरौ मंगलस्य ५ । सुक्रस्य २। आभ्यां ते 
लञ्धभागा माज्याः । फलं शौघ्रफलसम्बन्धित्वात्‌ स्पष्टयोः शीघ्रफलवद्धनणं कायं- 
भि्युपपन्नम्‌ । परन्तु अनेनापि विशेषफलेन संस्कृतौ भौमञुक्रो महान्तरितौ दुष्येत । 
भन्त्यांकबाष्ुल्यात्‌ । अत्र सुधीभिरेकान्त्यांकमध्ये प्रीदचतुरो वा अंकान्‌ इत्वा शीघ्र - 
फलसिद्धिः कत्तव्या 1 फरसाघनाथं सूत्रं मयोक्तम्‌ । 

कुजसितचपलां कोऽन्त्यस्ठदा रोषभागस्त्रिरवेमितगतांकस्तत्परांकान्तरेण 1 
विनिहुतनिजजलेषादग्नि भागेन हीनः स च ददाविहतः स्यादंश्ञपूवं फल हि । 
शीघ्नांकाः कुसुतस्य गोजिनसिता देच केन्दवोऽद्धन्रकाः 
शुन्याञ्चा द्विशराश्च खं त्वथ भृगोस्तर्काड्विरामास्तथा । 
शून्या द्खाश्विमिता गजाम्ब रदुक्नोऽन्धीन्द्रा नवाइवाश्च खं 
देयं तच्च परं फलं हि सकर भन्दस्फुटे स्यात्‌ स्फुटः ॥ १३ 
चन्दरिका-शुक्र मोर मद्र के रीघ्रफल साधन के समय यदि अन्तिम 
ग्या रह्वां गतांक आजाय तो शेषांक (१५ से भाग देने पर बचा हुआ शेष) 
को १५ मे घटाना चाहिये । धघटायी हुई संख्या ओर शेषमे जो भल्प 
हो उसमे यदिशुक्रकादहोतोरे सेभोम काहौ तो५से भाग देकर 
लन्धि का, शोघ्रफल की तरह मन्दस्फुट प्रहु में संस्कार करने से स्पष्ट ग्रह 
होता है \ १३ 
अन्त्य चलाद्कागमे मौमन्बुध-राक्राणां गतिफले वैशिष्टयम्‌- 
कुजबुवमुगुजानां चेच्चलाङ्कोऽन्तिमः स्थाद्‌ 
दशहतपरिजेषांश्ा नगाद्रचग्निभक्ताः । 
फलमिषुदहनैयु क्‌ सप्तगोभिस्तरिबाणे- 
भवति गतिफलं तत्‌ स्यात्‌ तदा नेव पु्वम्‌ ॥ शय 
मत्ला{रिः--भथ तत्रैवान्त्यांकागमने भौमबुधशुक्रगतीनामपि विरोषमेक- 
वृत्तेनाह । कुजेति । भौमवुषशुक्राणं शीघ्रांको यद्यन्तिमः स्यात्‌ तदा दशभिर्हता 
गुणिता ये परिशेषांशास्ते नगाद्रधग्निभक्ताः । भौमस्य सपस्तमक्ताः । बुघस्यापि 
सप्तभक्ताः । शुक्रस्य त्रिमक्ताः। यत॒ फलं कलाद्यं तद्भौमस्यं इषुदहनैः पञ्च- 
त्रिश्षदि्भयुक्तम्‌ । बुधस्य सप्तगोभिः सप्तनवत्या युक्तम्‌ । शुक्रस्य त्रिबार्ण- 
स्त्िपञ्चादता ५३ ग्ुक्तम्‌ । तत्‌ तेषां गतेः शीध्रफलं मवति } तदा पूवं भौमा- 
च्चलांकविवरसित्यादिप्रकारेणाचीतं तन्न ग्राह्यम्‌ । अनेनैव फलेन गतिः स्पष्टा 
चलांकविवरभित्यादिप्रकारेण न कक्तैग्मा 1 भच प्रव्यक्षोपरन्धिरेवे वासना ॥ १४ 
६ , म | | । ॥ 


८२ ग्रहुलाधवे 

चन्द्रिका - मङ्गल, बुघ भौर शुक्र के शीघ्र गृतिफल साधन के समय 
यदि अन्तिम शीश्राङ्क अवे तौ दीघ्रकेन््रके हेष ( १५से भागदैने पर 
चे हुये शेष) को भंगल को गति हेतु १०्से गुणा करका भाग 
देकर रन्धि को ३५ मे जोड़ने से तथा बुध के गतिफल हतु बुध के शेषांश 
कोष्ण्सेगुणाकरभ्सें भग देकर रन्धि को ९७ मे जोड़ने से तथा 
शुक्र के गतिफलर हतु शुक के शेषांश को ११ से गुणाकर ३ का भाग देकर 
लन्धि को ५३ भे जोडने से क्रम से मङ्कल-बुध ओर शुक्र के शीघ्र 
गतिफकर होते ह । इसे अपनी-अपनी मन्दस्पण्ट गति मे घटाने से तत्तद्‌ 


ऋ 


ग्रहों कौ स्पष्ट गति होगी । यहां पूर्वोक्त नियम सं गतिफर सिद्ध नही 


होगा । १४ 
वक्रमायचीघ्रकेन््रांचा :- 

त्रिनुपैः चरजिष्णुभिः छचराकं- 

नंगभूपेस्त्रिभदेः ऋमात्‌ कुजादयाः । 

चलकेन््रलवेः प्रयान्ति वक्र 

भगणात्‌ तेः पतितेत्रनन्ति सागंम्‌ ॥ १५ 

मल्छारिः- मथ वक्रमारंपरिक्लानाथं शीश्रकेनद्रमागान्‌ वृत्तकेनाह त्रिनुषै- 
रिति । कुजाद्याः भौमाद्याः पञ्चग्रष्ठाः क्रमादेभिश्चवलकेन्द्र भाग वक्तं वक्तारम्भं यान्ति । 
धिनुपैः त्रिषष्टयधिकशतेन १६३ । शरजिष्णुभिः पञ्चचत्वारिशदधिकश्चतेन १४५ । 
शरार्कः सपाददतेन १२५ । नगमषैः ससषष्ट्यत्तिकशतेन १९६७ । त्रिभर्वस्त्रयो- 
दश्ाधिकश्यतेन ११३ । एतै्मागि भंगणाच्चक्रमागेभ्यः ३६० पतितैः शेषांशतुल्यस्व- 
केन्द्रभार्मागं व्रजन्तीत्यथंः ॥ 

अच्रोपप्तिः-प्रहस्य वक्रारम्भेमार्गारम्मे च गतिः शून्यम्‌ ° । तच्च यदोर्चगतिसमा 

केन्द्रगतिस्तदैव । भत्र ग्रहाणां शीप्रोज्चगतिर्ञातिवास्ति तथा स्पष्टकेन्द्रगतितुल्य्या 
भवितव्यम्‌ । उ्रोदाहरमार्थं भौप्रस्य शीध्रोच्चगतिः ५९।८। तथा तस्य मघ्यमा 
गलिः ३१।२६1 केन्द्रयतिः २७१।४२। इयं तथा शशीघ्रफलक्रोटिज्यया गुण्या शीत्र- 
कर्णेन भाक्या यश्रा उच्नयतेः समा स्यात्‌ । तच्छीघ्रफठं कस्मात्‌ केन्द्रात्‌ 
सिध्यतीति विलोमेन सीश्चकरेन्द्रं जायते । अतस्तं दीघ्रकेन्द्रांश्चाः स्थि उच्छः) त 
एव चक्रदुढाः भागभागाः स्युयंतदचक्रमध्ये द्विवारं गतेरभावः ॥ १५ 


पञ्चतारा-स्फटाधिकारः ८९ 
चन्दिक्रा--मोमादि प्रहु क्रम सें १६३, १४५, १२५, १६७, ११३ 
केन्द्राशो मे वक्री हो जते है । स्पष्टाथं--मौम १६३ वैन्द्रांश पर, बुध 
१४५ पर, गुर १२५ पर, शुक्र १६७ तथा शानि ११३ कन्दरांश पर वक्रौ 
होता है । इन केन्द्राशों को भगण संया ३६० मे घटाने से शेष तुल्य 
केन्द्रं मे पुनः माग॑ंगति (मार्गी) हीते है। [अर्थात्‌ भंगल १९७, 
बुध २१५, गुर २३५, शुक्र १९३ तथा शनि २४७ केन्द्रांशों पर मार्गी 


होते है । १५ 


भौमगुरुशनीनाम्दयास्तकेद्राया :- 


क्षितिजोऽष्टयमेसूदेति पूतं 
गुदरिन्द्ररविजस्तु सप्रचन्द्रं : । 
स्वस्वोदयभागसंविहीन- 
भगगाशेरपरत्र यान्ति चास्तम्‌ ।॥ १६ 


मल्लारिः--अयोदयास्तयोः शीघ्रकैन्रभागासैकव्रृत्तेनाह क्षितिज इति । 
अष्टयमेरष्टार्विशत्यं शः शीघ्केन्द्रस्य मौमः पूर्वे पूर्वस्यां दिशि उदेति उदयं प्राप्नोति । 
इन्द्रैरचतुर्दशंभिर्गरः । रविजः शनिः सप्तचन्द्रः सप्तदशभिः । स्वस्वोदयभागसंविही- 
नैर्मगणांसीः कृत्वाऽपरत्र परिचमायां ते क्रमेणास्तं यान्तीत्यथंः ।। 


.. अत्रोपपत्तिः--पूर्ववत. कक्षावृत्तनीचोच्चवृत्तश्रतिमण्डल्मनि विनि्दिदोत्‌ । 
मौमगुखशनीनां रविः शीघ्रोच्चं नजुघशुक्रयोरपि ` सषधितमस्वि। अतो रवेः 
समुत्रस्थो यदा ग्रहो भवति तदा परास्तभ्यः) रद्यद्यन्तौ कालांशौ भवतः । 
उतएवास्तमये रवेरस्तमनानन्तरं ग्रहो दुश्यपे ्षीघ्त्वात्‌ रविरस्तमाखादयति तेत्र 
प्चादस्तः । उदये शीघ्रत्वात्‌ रवेरुदयात्‌ प्रथमं दृश्ये तस्मात्‌ प्रागुदय इत्युप- 
पक्षम्‌ । बुधशुक्रौ तु वक्रिणौ पर्चादस्तं त्रजतः । तयोविलोमगतित्वाद्रषेः प्राण- 
तित्वाच्चे । अत्त एव वक्रिणोः प्रागुदयः । तयो रपरगरतित्वाद्रवेः प्राग्गतित्वात्‌ । 
यद्राधिकगती भवनस्तदा शौघ्रत्वात्‌ रतिभासादग्रतस्तस्मात्‌ पूर्वास्तिः । तावेव 
शोच्रगत्ित्वात्‌ सूयं त्यक्त्वाऽगरे यच्छतः । अत एषास्तं गते पठिविमायां 
तयोरुदयः 1 उदयास्ताघ्याये ये कालांशा उक्ताः स्पष्टार्कसु तदंशान्तरिते रहे 
उदयोऽस्तो वा स्यात्‌ स स्थूलः । इट यच्छोघ्रकेन्रमुक्तं तम्भन्दस्पष्टमच्यःर्कान्तिरं 
स्थात्‌ 1 यथा भौमस्याष्टाविरहात्तिभागरेकादशभागाः कठं तैरभिको भौमोऽकचि(- 
वच्छोघ्यते तावत्‌ सपदशभागा भवन्ति । ससदरीव्र तस्यः कालं्चा अत्स्तावति 


८४ प्रहुलाघवे 
केन्द्र उदयः । एमिदचक्रशुद्ध रस्त: स्यात्‌ ।. यतोततरैभिभर्भिः ३३२ फलमेकादश- 
भागाः । तरधिकोऽरकदावच्छोघ्यते तावत्‌ सप्ठदशभागान्तरं स्ययत्‌ । एवं सरवे 


षाम्‌ ॥ १६ | 
| १}, $ : 


चन्द्रिका - अस्तत भौम २८ शौघ्र कन्दरांश पर, गुरु १४ केन्द्रांश पर 
तथा शनि १७ शीधूकेन्रक्ष. होने पर पूवं दिक्षा मे उदित्त होते है । भषने 
अपने उदय केनदरागों को.भगणांश ३६० मँ घ्रटाने से शेष तुल्य कन्दरांश 
मं पुनः परिचिमदिशा मे अस्त होते है । यथा- भौम ३३२ केन्द्रंश पर गुर 
३४६ तथा शनि ३४२ कन्द्राों पर पनः भस्तंगत होते हैँ । १६ 


बुरुक्रयोरुदयास्तकेन्द्रासः-- 


खक्षरेऽच जिने: परे ज्ञभुग्बो- 

सदयोऽस्तोऽक्षदिनैनगाद्रिभूसिः 

उदयोऽक्षनदेस्त्यहीन्दुभिः प्राग्‌ 

अस्तो दिग्दहनैक्च षटसूरः स्यात्‌ \\ १७ 

मल्कारिः-- अथ बुधञुक्रयोरुदथास्तकेन्द्रांशानेकवृत्तेनाह । वश्ररिति। धरे 
परिचमायां दिशि जभृग्वोबु घशुक्रयोरुदयः खश्षरैः ५० । जितैः २४। क्रमाह्‌ 
स्यात्‌ । तत्रैवास्तोऽश्ने दिनः पञ्चपञ्चाशदधिकशतमितैः १५५ । नयाद्विभमि 
सप्तसप्तत्यधिकशतितैः १७७ । भ्राक्‌ पूर्वदिशि तयोरुदयोऽक्षनखैः पञ्चाविक- 
शतद्टयेन २०५ । त्रयहौन्दुभिस्त्यशीत्यधिकरातेन १८३ । तत्रास्तो दिग्दहनैदशा- 
धिकशतत्रयेणं ३१० । षट्सुरेः षटत्रिशदधिकदातत्रयेण ३२६ । स्यादित्यथ ॥ 


अध्रोपपत्तिः पूर्वमेव प्रतिपादिता । १७ 


चन्द्रिका--बुध्‌ ५* .केन्द्रांरों पर तथा शुक्र २४ कैन्द्राशों पर पर्चिम 
दिला मे उदय होता है । एवमेव १५५ कैन्द्राशो पर बुध १७५७ केन्द्रांशों परं 
शक्र पदिचम दिशा में ही अस्त होते है । पनः २०५ कन्द्रांशों पर बुघ, 
२८३ केन्द्रांरों पर शुक्र पूवं दिशा मे उदित होते ह तथा बुघ ३१०, सुक्र. 
३३६ कैन्द्रंगों पर पूते दिशा भे अस्त होते ह ॥ १७ 


पञ््चतारा-स्पष्टीधिकारः ८५ 


ग्रहाणां षक्रोदयदिदिनज्ञानम्‌-- 


वक्रोदयादिगदितांशकतोऽधिकाल्पाः 
केन्त्रांरकाः क्षितिसुताद्‌ द्विग्‌ णारित्रभक्ताः \ 
साङ्ाहाका वशहताङ्चहूताः कुभक्तछा 
वक्राद्यमाप्रदिवसैः क्रमो गतेष्यम्‌ ॥ १८ 


मल्लारिः - इदानीं वक्रमार्गादिदिनज्ञःनमेकवुत्तेनाह । वक्रोदयादिति । वक्रो 
दयास्तमार्गाणां ये गदितांशा उक्ताः क्षीघ्केन्द्रभागास्तेभ्योऽधिका अल्पा इष्टदिने 
ये केन्द्रमागाः स्थुस्तदा ते क्ित्तिसुतादेमिर्हुरभीज्याः । ईइष्टकेन्दरंरोक्तकेन्द्रांशान्त- 
रंशा मौमस्य द्विता बुषस्य त्रिभक्ता गुरोः साङ्काश्चकाः सनवभांशाः शुक्रस्य 
दशहताः सन्तोऽद्खः षड्भिः ६ हता भक्ताः शनेः कुभक्ता अव्कृताः । एवमा. 
प्तैरन्पैदिवसर्वक्राद्यं वक्रोदयदमार्गादिकं गतेष्यं स्या । वचेदिष्ठकेन्द्रांशा उक्तेम्यो- 
ऽधिकांस्तदा गतमल्पास्तदा गम्यमित्यथंः ॥ 

अत्रोपपत्तिः सुगमा तथापि किञ्चिदुच्यते । उक्तरीघ्केन्द्रतुस्यं यदा शीघ्र 
केन्द्रं स्यात्‌ तत्कारे उदयास्ताद्यं स्यादेव * ऊनाधिकेऽनुपातः । यदि शोघ्रकेन्ध- 
गतिकलाभिरेकं दिनं तदाऽन्तरभागकलाभिः किमतोऽन्तरभागानां कंलाथं सर्वत्र 
षष्टिगु णः । स्वकेन्द्रगतिर्हुरः । तत्राचार्येण लाधवाथं स्वल्पान्तरत्वात्‌ शीध्रकेन्र- 
गतयो भध्यमा एव गृहीताः । तत्र भौमस्य शीघ्केन्द्रगतिः :७।४२। अत्र गुण 
हरौ हरेणापवत्य जातो गुणः २। एवं बुधस्य शौध्रकेन््रगतिः १८६ । अत्र ग्रुण- 
हरौ गुणेनापवत्यं जातो गुणः १, हरः ३, गुरोः शौश्रकेन्द्रगतिः ५४ । गुणहरी 
षड्भिरपवत्तितौ गुणः १०, हरः ९। यो रादिर्दशभिगुण्यो नवभिरभेज्यते स 
स्वनवमांशाधिके एवं भवति । एवं शुक्रस्य शौश्रकेन्द्रगतिः ३७ । अच्र गुणहरौ 
षड्भिरपवत्त्यं गुणः १०, हरः ६ । अतो दशहताङ्कृहृताः । एवं शनेः लीभ्रकेन्द्र- 
मतिः ५७।८। गुणहरयोः साम्यात्‌ कुमक्ता हति शन्धदिनर्वक्रायं गतैष्यं स्यादि- 
तयुपपन्नम्‌ ॥ १८ | 


चन्दरिका--वक्र-उदयादि पूवंपठित केनदरांशों से यदि इष्टकालिक केनद्रांश 
अल्प या समधिक हों तो इष्टकालिक ओौर पठितः केन्द्र का अन्तर करं 
मौम के केन्दरागान्तरमें २ कागुर्णा करने से, बुधके केनद्रशान्तरमें ३ 
कोाभागदेने से, गुरु के बेन्द्रांशान्तर मे उसी का नवमांश्ञ मिलाने से, शुक्र 
के अन्तरक्रो १०सेगणाकर\्काभागदेने से, शनि के अन्तरकौश्षसे 


८६ ` अ्र्हृछाघेवे 


भाग देने (अर्थात्‌ यथावत्‌) से रन्धि तुल्य दिवसो मँ वक्रादि का एष्य वं 


गत मान होता है । (अर्थात्‌ इष्ट कन्दरांश यदि अल्प ही तो एष्य, अधिक 
हो तो गत समञ्चना चाहिये) । १८ 


बुघराक्रयोवेक्रोदयादौनां दिनप्रमाणम्‌ -- 


पवस्तिादुदयः षरेऽनुजुगतिस्तोयास्तमेन्द्रयुदगमो 

मार्गोऽस्तोऽत्र च दन्तदन्तदहनाष्टचाज्याशदन्तैदिनेः। 

चान्द्र स्तत्परतत्परं त्वथ भुगोस्तद्रद्दिमास्यात्ततो- 

ऽष्टाभिन्यंड्चिभुवांचिणा विचर णेकेनाष्टमासेः क्रमात्‌ ॥ १९ 

मल्लारि : अथ बुघशुक्रयोमध्यमानि वक्रमार्गोदयास्तदिनानि सिद्धान्यैकबु- 
सेन व॑दति पूर्वास्तादिति । पूर्वास्तात्‌ परे परिचमायामुदयः । ततोऽनृजुगति्वक्र- 
त्वम्‌ । ततस्योदयास्तं परििमास्तम्‌ ! तत्‌ एन्रथुद्गमः पूर्वोदयः । ततो मागः । 
ततः पूर्वास्तः ! चन्दरेबुधस्य तत्परतत्परमेभिदिनैर्ययाक्रमं स्यात्‌ । एतैः कस्ता- 
नेवाहु । दन्ता द्वात्रिंशत्‌ ३२। पुनस्त एव ३२ । दहनास््रयः ३ ¦ अष्टिः षोडश 
१६ ज्याचा अभ्नयस्व्रयः ३। दन्ता द्वाचिद्यत्‌ ३२1 एभिदिनैरिति । अथं 
भृगोः शुक्रस्य तद्त्‌ तैनैव क्रमेणेभिदिनं रुदया्ं स्यात्‌ । दहिमास्या मासद्वयेन । 
तत्तोऽष्टाभिरष्टमासैः व्यङ्ि मुवा द्वाविदातिदिनैः अंचिणा दिनाष्टकेन । विचरर्णकेन 
दाविकश्तिदिनः मष्टमासैः ॥ 

अध्रोपपत्तिः -पूर्वास्तसीच्वेन्द्रांशाः परिचिमोदयडशीध्केन्परादकेभ्यी यावदम्त- 
रितास्सावर्दशानां कलाः कैन्द्रगतिभक्ता दिनानि स्थुः! एवं वक्रमर्गादीनामपि- 
तंत्तत्केन्द्रान्तराहिनानि स्थुरित्युपपन्षम्‌ ॥ १९ 


चन्द्रिका--वुध पूर्वदिशा म अस्त होने के ३२ दिन बाद पश्चिम में 
उदित होता है । उदय के ३२ दिन नाद वक्र, वङ्ग से ३ दिन बाद परिचम 
दिकश्षामे ही अस्त होताहै। भस्त से १६ दिन बाद पूवं दिक्षा उदय, उदय 
से २३ दिन मे मार्गी तथा मार्गी से ३२ दिन परचात्‌ एवं दिक्षामे ही भस्त 


होता हे। 


८७. पञ्चतारा-स्पक्षधिकारः 


शुक्र पवंदिशा मे भस्त होने के २ मास्त पश्चात्‌ पश््िमं म उदित 
हीर्ता है, उदय से ८ मास बाद वक्री, वक्रत्व से २२२१ दिन बाद पस््विम 
मे अस्त, अस्तं से ७९ दिन नाद पृवंदिशा मे पुनः उदय तथा उदय से २२३ 
दिन बाद मार्गी एवं भागंत्व से ८ मास पश्चात्‌ पुनः पव॑ दिला में अस्त 


होता है। १९ 
भौमगुरुशनीनामुदयादि दिनप्रमाणम्‌-- 


भोमस्यास्तादुदयकुरिलजु त्वमौटचं क्रमात्‌ स्या- 
न्मातेवेदेरथ दशमितेर्छोचनाभ्यां च दिम्भिः \ 
जीवस्योर्व्या सचरणयुगेः सागरैः साङ्ध्िवेदेः 
साङ्ध्चैकेन त्रियुगदहनेरधंयुक्तेस्तथाऽऽकँः ।॥ २० 


मल्लारि :--अजथ भौमगुखश नीनामुदयास्तवक्रमार्गदिनानि वृत्तकेनाह मौम- 
स्येति । भौमस्य अस्तादृदयः । ततः कुटिरं वक्रत्वम्‌ । तत॒ ऋजुत्वं मागंत्वम्‌ 
मौढयमस्तम्‌ । इदं क्रमात्‌ स्यात्‌। मासैवेदेदचतुभिः ४। मथदक्ष-१० मितः 
लोचनाभ्यां दाम्याम्‌ २1 दिभ्मिदंश्चभिः १० इति । जीवस्य गुरोस्तदेवास्ताद्यम्‌ । 
उर्व्या एकमासेन । सच रणयुगेः स्पादचतुर्मासेः 1 सामरेदचवतुभिः । सांच्िवेदेः 
सपादचतुभिः । तथाऽऽकः शनेः सांश्रयेकेन सपादेकमासेन । अधंयुवतेस्तरियुगदहनेः । 
सा्धत्रिभिः । साधंचतु्भिः । सारधंत्रिभिः । क्रमात्‌ स्यादित्यथ: । एतानि मध्य- 
मानि स्पष्टानि तेभ्यः किच्चिदूनाचधिकानि भवन्ति । स्थूलत्वेन जनन्यवहारार्थ- 
मेतान्युक्तानि ॥ २० 


अत्रोपपत्तिः पूवमेव प्रतिपादिता ।) २० 
दैवज्ञवर्यस्य दिवाकरस्य सुतेन मल्लारिसमाहुयेन । 


वत्तौ कृतायां ग्रहछाधवस्य जातः कु जादिस्फुटताधिकारः ॥ 


इति श्रीगणेश दैवज्ञकृतग्रहशाघवस्य पञ्चतारास्पष्ठीकरणाघि- 
कारस्तृतीयः ॥ ३ 


 ्रहरुध्वे ८८ 
चन्द्रिका-मङ्गुल भस्तंगत होने के ४ मास पश्चात्‌ उदित होता है 
तथा उदय से १० मास बाद वक्र, तत्पश्चात्‌ २ मासमे मायी, तद- 
नन्तर १० मास मेँ पूनः अस्त होता है। गुर अस्तंगत होने कै १ मास 
पश्चात्‌ उदित होता है उदयसे४% मासमे वक्री, वक्रत्वं से ४ मास 
बाद मार्गी, तत्पहचात्‌ ४४ मास में पुनः मस्त होता है । शनि भस्त 
होने के १४ मासं बाद उदित होता है। तदनन्तर ३२ मास मे वक्री, 
वक्रःव से ४२ मास पश्चात्‌ मार्गीं तत्पश्चात्‌ ३२ मास मे पनः शनि भस्त 
होता है| २० 


श्री गणेरादेवज्ञ कृत ग्रहुलाघव के षञ्चतारास्पष्टीकरणाधिकार कौ 
चन्द्रिका नामकं सोदाहुरण हिन्दो व्याख्या सम्पृणं ।। ३ 


 ) ) ति त | 


विपरश्नाधिक्रारः-४ 


-लङ्ोदयमानेन स्वोदयमानानयनम्‌- 


रुङ्कोदया विघटिका गजभानि गोऽद्ध- 

दलारित्रपक्षदहनाः क्मगोकत्करमस्थाः । 

हीनान्विताश्चरदङे- कमगोक्तमस्थे- 

मेषादितो घटत उत्करमतस्त्विमे स्युः ।। ९ 

भल्टारि :- भथ त्रिप्रदनाघ्यायो भ्याख्यायते। त्रयः प्ररना अत्राधिकारे 

कथ्यन्त दति त्िप्रह्नः । ते के दिग्देलकालादिभिरिष्टसमयादिक्मववुच्यते तदुच्यते 
तत्रादौ ङनोपयोगित्वाल्लङ्कोषया्तेम्यः स्वदेशीयकरणं चैकवुत्तेनाह लंकोदया 
इति । एते विघटिकाः परात्मका छंकोदयाः ्युस्तानेवाह्‌ । गजमानि अष्टसम- 
त्यधिकश्तद्यम्‌ २७८ । गोकदस्राएकोनध्रिश ती २९९ । त्रिपक्षदहनस्व्रयोविश. 
त्यधिक्चिशती ३२३ । एते मेषादीनां त्रयाणाम्‌ । त एवोत्क्रमस्थाः करकादित्रया- 
णाम्‌ । एते चरदलैः स्वदेखीयचरखण्डकंः । क्रमगोक्क्रमस्थर्हीनान्विताः कार्याः । 
क्र मस्यैस्तरिभिः क्रमस्थास्तयो हीनाः । उक्क्रमस्थे स्विभिरक्क्रमस्थास्नयो युक्ताः सन्तो 
मेषादितो मेषमारम्य षण्णां राशीनामुदयास्युः । अत एवोत्क्रमतो घटतस्तुखातः 1 
षड्दया स्युरित्यर्थः ॥ 


अत्रोपपत्तिः क्रान्तिवृतते क्षेत्रविभागेन द्वादक्षराशयस्तुल्यप्रमाणा एव भवन्ति । 
नाडोवृत्ते कालांशविमागेन स्वे राशय उदयन्ति । निरक्षे तश्नाडीवृत्तं समं पूर्वापर- 
मण्डलपद्‌ त्रम । क्रान्तिमण्डलं च दक्षिणोत्तरतस्तिरश्चीनमुदेति । क्रान्तिवृत्तस्थो 
मेषो यवत्‌ तिरश्चीन उदेति तावद्धिषुवद्वृत्तेऽष्टाविद्च तिभागाः किंञ्नचिन्न्यूनाः । 
एवं सर्वेऽपि । साधनोपायो यथा 1 सिद्धान्तोक्तबृहुज्ज्ययैवं मेषादीनां त्रयाणां 
स्वक्रान्त्यग्रेषु श्रीणि स्वाहोरात्रवृत्तानि विषवद्‌ उत्तरतो बध्नीयात्‌ । तथा तुला- 
दिकानां विषुवद्वृत्ततो दक्षिणतस्वीणि स्वाहोरात्रवृत्तानि स्वक्रान्त्यग्रेषु बध्नीयात्‌ । 
तत्करान्तिमण्डले मेषान्ते सूत्रष्यैकमम्प्रं बद्ध्वा द्वितीयमम्गरं मीनादौ बध्नीयात्‌ । एवं 
वुषमिथुनास्तयोः सूत्राग्रे बद्ष्वा तयोद्धितीयाग्रके कुम्भमकरादौ बघ्नीयात्‌ । तेषां 


४५ ग्रहुलाघवे 


सूत्राणां यान्यर्घानि तानि क्रमेण मेषवुषमिथुनान्तानां जौवास्त एवे मीनकूम्भम- 
कराणाम्‌ । ततस्ताभिः ककटसूत्राद्विषुवत्कत्पनामध्ये त्रीणि वृत्तानि कृत्वा 
निष्पादयेत्‌ 1 तत्र स्वजीवा कणेः । स्वक्रान्तिज्या याम्योत्तरा भुजः । कोरटिर्ष्वाधराः 
न ज्ञायते । मेषवृषयोः मिथुनज्यया यद्वृत्तमुत्पद्यते तद्याम्योत्तरवृत्तमेव भवति । 
तत्वोर्व्वाधरा कोटिः स्वाहोराच्रग्यासार्धतुल्या भवतति । मेषवृषयोरूष्वधिरा कोटिः 
स्वाहोरात्रे न ज्ञायते पतपरिज्ञानायानुपातद्टयम्‌ । तद्यथा यदि मिथुनज्यात्रिज्या- 
कर्णस्य भिथुनस्वाहोरात्र वृत्त व्यासार्ध॑तुल्योघ्वाधिरा कोटिस्तदा मेषज्याक्णंस्य 
केति । ततो व्यास।धंवृत्तपरिणामाय दहतीयं त्रं राशिकम्‌ । यदि मेषस्य स्वाहो- 
रात्रवृत्ते एतावती कोटिस्तदा त्रिज्यावुत्ते किमिति । एवं प्रथम त्रिज्यागुणोऽनन्तरं 
हरस्तुल्यत्वात्‌ तयोनशिं कृते मिथुनस्वाहोरात्रग्यासा्घंस्य मेषज्या गुणो मेषस्वाहोरात्र- 
वृत्तव्यासाधं हरः । फलं मेषस्य वृत्ते व्यासार्धं ऊर्ध्वाधिरा कोटिः! एवं वृष- 
मिथुनयोः कोटी साध्ये कोटिफलानां उ्यारूपाणां धन्‌'षि कर्तव्यानि । यतो वृत्तगत्या 
क्रान्तिमण्डलमुदेत्यतो धनुष्करणम्‌ । भिथुनकोट्या उदयन्त्या मेषवृषावप्युदयतः । 
मतो वृषचापं मिथुनचापाद्धिलोध्यते भिथुमोदयप्राणाः स्यु । मेषोष्यप्राणा यथागता 
एव । ते चैते । मेषे १६७० । वृषे १७९५ मिथुने १९३५ 1 एते षड्‌ मक्ताः पलानि 
स्युः । यतः षड्भिरसुभिरेकं पलम्‌ एवं जाता गजमानीत्यादयः । मेषज्या कर्णः 
संनिहित्तत्वान्मेषकोट्या उदेति । वृषज्या कर्णः किञ्चिद्विभ्रकृष्टत्वान्महत्या वृषकोदेचा 
उदेति 1 मिथुनज्या कर्णो विषुवन्मण्डलादतिदूरे स्थितत्वात्‌ तिर्यवत्वेनातिमहत्या 
मिथुनान्तादिभ्यां कंकंटायन्तौ पमावतो भिथुनोदयप्राणाः ककंटोदयः स्यात्‌ । एवं 
वृषमेषान्तादिभ्यां सिहकन्याद्यन्तौ समावतो वुषमेषसमा सिंहकन्योदयौ । द्वितीय- 
मण्डलार्धस्य विषुवतो दक्षिणेन स्थितत्वान्‌ मेषादयुदयानामुक्रमेणोदयप्राणास्तुलादिषु 
भवन्ति । एवं निरक्षदेशे । अन्यथा यदि विषवद्वृत्ते राशयः स्तुस्ठदा षपञ्चघटिका 
राष्युदयाः स्युः राशयश्ष्वापममण्डले तस्मादिमन्नप्राणा राश्युदया निरे स्युः । एतत्‌ 
सवं यथास्थिते निरक्षगोे दर्शयेत्‌ । 


अथ स्वदेश्ोदयोपपत्तिः--अक्षवशाद्िषववृत्तमपि तिर्यग्भवति । तद्शान्मेषा- 
दोनां स्वाहोरात्राण्यपि तिर्यस्मवन्ति मतो मेषोदयः स्वचरार्धवियुज्यतें । मेषोदय- 
स्तिर्यत्रकर्ण ल्पः । कर्णान्च कोटिरल्पा स्यात्‌ । क्रमाच्चरदलहीनाः स्वदेशोदयाः 
स्युः । भतो विषृवम्मण्डल्पादेन चरदलहीनेनायमपवृत्तपादः प्रथममुदेति । ककटा- 
दयो व्यस्तंर्चरदलैक्ताः क्रियन्ते यतस्तेषां विपरीतं तिय॑क्त्वम्‌ । तै उत्करमचर- 
खण्डयुक्ताः ककंटांदीनां श्रयाणामुदयाः स्युरिति । अतः क्रान्तिवृत्तपादो दितीय- 


त्िप्रदनाधिकारः ९६ 


ईचरदलयुक्तेम विषु वद्वृत्तपादेनोदेतीत्युपपन्नम्‌ । हितीयथादवत्‌ तृतीयः प्रथम- 
कृच्चतुर्थोऽपि वृत्तपाद उदेति । उक्तं च भास्करीये सिद्धान्ते । 
 मैषादेभिथुनान्तो नाडीर्भिस्तिथिमिताभिरुदच्ये । 
खगति कुजे तदघःस्थे प्रथमं ताभिस्बरोनामिः ॥ 
केन्यान्ताद्ध नुषोऽन्तस्तिथिमितनाडीभिरुदुवृत्चे । 
लगति कुजे चोष्वंस्थे पदचात्‌ ताभिर्चराद्चाभिः ॥ 


एवमत्र संक्षिप्तोदयोपपत्तिविस्तरभयदुक्ता ॥ 


चन्द्रिका-- २७८, २९९, ३२३ इनको क्रम एवं उक्क्रम से रखने से 
मेषादि ६ राशियों के लङ्कोदय पल होते दै) तथायेही भंक उक्क्रमसे 
तुलादि ६ राशियों के लडकोदयं पल होते हँ । यथा- मेष का २७८, वृष 
का २९९, मिथुन का ३२३, कक का ३२३, सिह का २९९, कन्याका 
२७८ पून: विपरीत क्रम से तुला का २७८, वृरचिकं का २९९ धनु का 
२२३, मकर का ३२३, कुम्भ का २९९ तथा मीन का २७८ ) 

इनमे क्रम से चरखण्डों को तीन राशियों (मेष, वृष, मिथुन) मे घटाने 
से तथा क्रम से तीन राशियों (ककं, सिह, कन्या) मे जोडने से मेषादि £ 
राशियों के स्वदेशोदय पल होगे तथाये ही विपरीत क्रमसे तुखदि ६ 
राशियों के भी स्वदेशीय उदय पर होगे ।* 
स्पष्टाथं उदाहरण - 

वाराणसी के चरखण्ड ५७, ४६, १९ को उक्त नियमानुसार घटाने 
एवं जोडने से-- 


लड. कोदय चरखण्ड वाराणसी का उदय 

२७८ - ५७ = मेष २२१ मीन 
(4४ -- ४९ == वृष २५३ कुम्भ 
३२३ -- १९ = मिथुन ३०४ मकर 
३२३ -- १९ = केकं २३४२ धनु 
२९९ + ४६ = सिह ३४५ वृश्चिक 
२७८ + ५७ = कन्या ३३५ तुला 


इसी प्रकार अभीष्ट स्थान की पल्भाद्ारा चरखण्ड छाकर उक्त 
रीति से ऋण धन संस्कार दारा अभीष्ट स्थानके उदय मानको जानाः 


१.सि. श्ि.गो. कत्रि. वा. २०। 


९२ ग्रहृलाघवे 


जा सकता है । यथा--जम्मू की पभा ७४३ चरखण्ड ७७, ६१, २५ 
इनका लड्कोदय मे ऋण-धन संस्कार करने से जम्मू का उदय मान मेष 
मीन का २०१, वृष कुम्भ का २३८, मिथुन मकर का २९८, ककं धनु का 
२४८, सिह वृदिचकं का ३६० तथा कन्या तुला का ३५५ हुभा । इसी 
भकार सवत्र समज्ञना चाहिए \ 
कग्नानयनम्‌-- 
तत्कााकः सायनः स्वोदयध्ना 
भोग्यांगाः खत्युद्ध.ता भोग्यकाछः ) 
एवं यातांशेभवेद्य'तकालो 
सोग्यः श्लोध्योऽभीष्टनाडीपलेम्यः २॥ 
तदनु जहीहि गृहोदयांश्च शेषं 
गगनगणधप्नमश्युद्धहूल्लवादयम्‌ । 
सहितमजादिगृहैरशुदधपर्वे- 
भंवति विलग्नमदोऽयनांज्ञहीनम्‌ ॥ ३ 
मल्लारिः--मथ कगनसाधनमाह तत्कालाकं इति । यस्मिन्‌ कालि कूग्नं 
साध्यते तत्कालीनः सूर्यः सायनोऽयनांशयुक्तः कार्यः । अस्य सूय॑स्य राशिवक्लाद्यः 
स्वदे्ीय उदयस्तेन भोग्यांशा रवेस्विशव्युता भृक्तभागा गुण्याः । ते खब्ुदता- 
सिशद्भक्ताः सन्तः पलाद्ो रवेरभोग्यिकालः स्यात्‌ । एवममुनैव प्रकारेण सायनस्यं 
यातांशेमु क्तभागैर्यातिकालो मुक्तकालः स्थात्‌ । स॒ यथा उदयगुणा मुक्त 
भागासिशद्‌ मक्ता इति कग्नमुक्तकालाथंमिदमुक्तम्‌ । भोग्यः काल ईष्टवटीनां 
पलेम्यः शोध्यः ! ततः किविधेयमित्यत आह । तदनु तदनन्तरं गृहोदयान्‌ तदग्र- 
राश्युदयान्‌ तस्मात्‌ कालात्‌ जहीहि यावन्तः शुद्धघन्ति तावन्तः शोधयेदित्यथंः । 
यच्छेषं तद्गगनगुणघ्नं चिशद्गुणमशुद्धेनोदयेन हद भक्तं । ल्वाद्य भागाद्य यल्लब्धं 
तदजाद्यशुंदपूवः संहितम्‌ । अशुद्धोदयतः पूवं यावन्तो मेषादयो रा्यशते तस्य 
ऊभ्वस्थाने गृहे स्थाप्याः । तदयनांशहीनं सत्‌ तात्कालिकं रा्यादिक रग्नं मव- 
तोति व्याख्या ॥ 
बत्रोपपत्तिः सुगमा क्रमपिदढा तथाऽपि किञ्चिदुच्यते । अभीष्ट्कले यः 
क्रान्तिमण्डलश्रदेशः क्षितिजे कग्नस्तल्लग्नमित्युच्यते ! उवेतं च सिद्धान्तशिरोमणौ । 
"यत्र लगनमपमण्डलं कुजे तद्गृहाद्यमिह रग्नमुच्यते' 1" 
तच्च लग्नमवघेः साध्यम्‌ । अवधिस्तु रविः । तस्य मण्डल्ठे स्थितत्वात्‌ । 


१. सि. शि. गो. च्चि. वा. २६। 


-९४ ्रहशाधवे 


उदाहुरण-(१) सं २०३२ शक १८९७ माव कृष्ण १० सोमार को 
१५।३० इष्ट घटी पर वाराणसी आनाश २५।२० पर रग्नसाधन भभीषटट 
है । अततः तात्काकिक सूयं ९।११।५७।३८ मँ तात्कालिक अयना २३।३०। 
२४ जोड़ने से सायनसूयं १०।५।२८२ हुभा इसके अंशादि ५।२८र को ३० 
मे घटाने शेष २४।३१।५८ भोग्यांश हुआ । सायन सूयं को रादि कुम्भ के 
उदयमान २५३ से गणा किया- 
२६। २३९ ५८ 
> २५३ 
६०.७२।७८४३। १४६७४ 
केलादि को ६० से ्रपवत्तित करने से मणनफछ ६२०६।४७।२४ को 
३० से भाग दिया-- 
३०) ६२०६।४७।३४ (२०६।५२।३५ 
९० 
२०६ 
१८० 


२६ ८६० 
१५६० 
४७ 
१६०७ 
१५० 
१०७ 
९७ 
१७ >८ ६० 
१०२० 
३४ 
१०५४ 
९० | 
१५४ 
१५० 
1 











त्रिप्रर्नाधिंकारः ९३. 


सदैव रब्युदये रविरेव ग्नम्‌ 1 तस्य ॒पूरवंगतित्वेन तात्कालिकत्वं क्रियते । प्रवहा- 
क्िप्तमपमण्डलमिष्टषरीषु प्रत्यक्‌ चलितं तदा सित्तिजेऽपमण्डलग्रदेक्षो लभ्नस्त- 
उज्ञानायोपायः । सायनारकेण यद्भोग्यं तत्र॒ कालः साध्यते । यदि त्रिंशद्भागः 
३० रन्याक्रान्तोदयपलानि लम्यन्ते तदा भोग्याः किमिति । एवं सद्भोग्यप- 


लानीष्टधटीपेभ्यः श्ोघ्यानि ततो यच्छेषं तस्मादुदयाः शोधष्याः । यावन्तः सिध्यन्ति 
तावन्तो राशयो रवौ योज्याः । यततो रविराशितोऽग्रे छगनस्य तावन्तो राशयो 


भप 


थाताः। ते त्वशुदधपूर्वां मेषादयो राशय एव भवन्ति । शोषपटेभ्योऽक्चानयनवा- 
सनाऽनुपाताद्यथा ! यचशुद्धोदयपलस्विश्ण्दागा लभ्यन्ते तदा लेषपलः किमिति । 


फर भागादि तदश्ुदध पूव मेषादि राधियुक्त लग्नं स्यादेव । तच्रायनांश्चा हीनाः 
कार्या । यतः पूवं योजिताः सन्ति । पूरवमुदयग्रहवा णा्थंमयनांश्ला योज्या एव । यतः 
सर्वाणि विषुवायनचिह्लानि सायनान्धेव ॥ २-३ 


चन्द्रिका-तत्कालिक ( इष्टकालिक ) सूयं को अयनांश मे जौडकर 
सायन बनाकर उसके भोग्यांश (अंशादि को ३० में घटाकर शेष) को अपने 
स्वोदय (जिस राशि पर सायन सयं हो उस रारि कै स्वदेश्ीय उदयमान) 
सगुणा कर ३० से भाग देने पर भोश्यकालहोताहै। इसी प्रकार 
भुक्तांश (सायन सूयं के अंशादि) को स्वोदय से गुणाकर ३०्सेभाग 
देने पर रन्धि भुक्तकाल होगी । रन्ध भोग्यकाल को पलात्मक इष्टवटी 
मे घटा कर शेषे अग्रिम राशियों के उदय मान (जितने घट सके) घटा 
कररोषको ३०से गुणा कर अशुद्ध राशि (जोन घट सकीहो) के 


उदयमान से भाग देकर रन्धि को मेषादि शुद्ध रारि (जो घट चुकी हो) 
की संख्या मे जोड़ने से सायन छन होगा । अयनांश घटाने से स्पष्ट 
लगन राश्यादि होगा । २.३ 


विशेष --यदि भुक्त रीति से छनानयन करना हो तो भुक्तकाल को 
इष्टपरु मे घटाकर दोष में गत रारियों के उदय मान घटाकर शेषको 
३०्से गुणा कर अशुद्ध राशि से भाग देकर र्न्धिको भरुद्ध राशि 
की संख्या मे घटाने से सायन रुन होगा] अयनांशं धटाने से स्पष्ट 
निरयन छन होगा । 


व्रिप्रद्नाधिक्रारः ९.५ 
लम्धि २२०६।५३।२५ भोग्यकाट को पलालमक इऽ्ट ९२० में घटाकर 
यथासम्भव राशियों के ददयमान घटनि से- 
९३० 9 9 
२०६।५२।२३५ 
७२३। ६।२५ 
७२३ ६। २५ 
२२१ मोन 


५०२ 
२२१ मेष 
२८१ 
२५३ वृष 
२८।६।२५ 
> २० 
८४३२।१२।३० 











वुष राशि के बाद मिथुन कां उदयमान नहीं षट रहा है अतः 
शेष को ३० से गुणा कर मिथुन के उदयभान ३०४ से गुणनफल में 
भाग दिया । 


३०४) ८४६३।१२।३० (२।४६।२५ 


२२३५ ‰ ६० १२८ >< ६० 
१४१०० ७६८९ 
९९ ३५ 
१४११२ ७७१० 
१२९१६ ६५८ 
१९५२ १६३२० 
१८२४ १५२०५ 


१२९८ ११० 


९६६ ` श्रहुलाधवं 





२1०] 9 ° 
_ २४६२५. 
लल्धि २।४६।२५ को शुद्ध राशि ०।२।४६।२५ सायनकग्न 
वृष को सख्या २ मे जोड़कर अयना २३।२३०।२४ अयना 
घटाया- १।९।१६। १ निरपनलग्न 


(२) सं ° २०३२ शकं १८९७ माघकृष्ण १० सोमवार इष्टयो ५०। 
३० पर जम्मू में छगनसाधन अभीष्ट है । तात्कािक सूर्यं ९।१२।३१।४८ 
अयनांश २३।३०।२४ इसे स्पष्टसु यं मे जोड़ने से १०।६।२।१२ सायनसुयं 
हभ । मध्यरात्रि के पश्चात्‌ काईइष्टहै इसलिए इष्ट घटोको ६० घटां 
मे घटा कर शेष ९।३० को रात्रि रोषको इष्ट मानकर भुक्त रीतिमे 
लग्न साधन सुगम होगा । सायन सयं के भुक्तांक्ष ६।२।१२ को सायत 
सूयंकी राशि कुम्भ कै जम्बुप्रदेलीम उद्यमान २३८ से मणा करगुणन- 
फल १४३६।४२।३६ मे ३० सो भागं देने पर रुन्धि ४७।५३।२७ भुक्त- 
काल हुआ । रात्रि शेष के ईष्ट पर ५७० में भुक्तकाल घटाकर शेष में 
सायन स्‌ यं जिस रा्चि परदहै उक्तसे पिछली रियो को यथासम्भवं 
घटाया । यथा-- 


५७७&} ०॥ ० 
४४५७।५३।२७ 


~ 


५२२ ६।३३ 
मकर २९८ 


"यणि 


२२४ ६।३२ 
५ २३० 


६७२३।१६।३० 


त्िप्रहनाधिकारः ९.७ 


धनु का उदयमान ३४८ नहीं घट सका अतः शेष मेँ ३० का गणा 
करधनु के उदयमानसे भाग दिया- 
३४८) ६७२३।१६।३० (१९ 
३४८ 
३२४३ 
२१३२ 
१११८९६० 
६६६० 
१९ 
९६६७६ (१९ 
२३.४८ 
३१९६ 
३१३२ 
६४ ९ ६० 
३८४० 
३० 
३८७ ® (११ 
२४८ 
३९० 
३४८ 








४२ 
रुन्धि १९।१९।११ को मशुद्ध राल्लि (जो नहीं घट सकी) धनु की 
संख्या ९ से घटाने पर सायन छन हमा । यथा-- 
९। ०} ०] ° 
~ १९।१९।११ 
८।१०।४०।४९ सा. ल, 
-२३।३०।२४ अयनांश 
७।१७।१०।२५ 
अयनांश घटाने से ७।१७।१०।२५ स्पष्ट लगन हुआ । 
७ ग्रहुलाघवे 


९८ ग्रहुलाघवे 
खगतानयने विदोषः, छग्नादिष्टसाधनञ्च - 


भोगयतोऽह्पेष्टक्ालात्‌ खरामाहूतात्‌ । 
स्वोदयाप्तांशयुग्भास्कारः स्यात्‌ तनुः 
अकभोग्यस्तनोमु क्त कालान्वितो 
युक्तमध्योदयोऽभीष्टकालो भवेत्‌ ॥ ४ ५ 
मल्छारिः--अथ भोग्याल्पकाछे छग्नसाघनमाह्‌ भोग्य इति । भोग्यतो भोग्य- 
कालतोऽत्पेष्टकालात्‌ खरामाहतात्‌ त्रिशुद्गुणात्‌ स्वोदेयन स्वराद्युदयेनहतात्‌ 
तस्माचे आप्तांश्ञा लन्धभागास्तयुक्तो भास्करस्तनुलगनं स्यात्‌ । 
मन्रोपपत्तिः । यचुदयपलंस्विशद्भागास्तदेष्टकालपलः किमिति सुगमा ॥| 
अथ छग्नादिष्टकारसाधनमाह अकभोग्य इति । अर्कस्य सायनस्य या भ,ग्य- 
कालः स तनोर्कग्नस्य सायनस्य भुक्तकालेनान्वितो युक्तः । ततो युक्तो मष्यो- 
दयो यत्र स तथा । सूर्यस्य रादयुदयादग्रे रग्नराश्युदयात्‌ पूर्व ये उदयास्तदुक्तः 
स्वाभीष्टकालो भवेदित्यर्थः । 
जत्रोपपत्तिः । इष्टका सूर्यादुदपपयंन्तमिष्टकालो वत्तते । रविमोग्यभागान्‌ 
य: कालस्तदग्रतो राष्युदयास्ततस्तदनु भुक्तकापस्तेषां योग ईइष्टकालो भवतीति 
सुगमं प्रत्यक्षं गोले च दुर्यते ॥ ४ ॥ 
चन्द्रिका--सूरयं के भोग्यकाङ से इष्टका अत्पहो तो,इष्टको ३०से 
गुणा कर अपने स्वोदय पल (जिस रारि पर सायन सूयं हो उप्त राशिके 
स्वदेशोय उदय पल) से भाग देकर रुन्धि को स्पष्ट सयं मे जोड़ने से कन 
होता ह । 
सूयं के भोग्य परमे कछग्न के भुक्त पल को जोड़कर सूं भौर लग्नके 
मध्यकी राशियों के उदय मान को जोड़ने से इष्टपल होता है । ४ 
उदाहरण--इष्टकार १।३० स्पष्टसुयं ७।१२।३५।३१ अयनांश्ञ २४। 
१२।३० । सायनसूयं ८।६।४८१ इसके मृक्तांश २३।११।५९ को धनु के उदय 
पल ३४२ से गुणाकर ३० से भाग देने पर २६५४।२५।३६ भोग्यकाल हुमा । 
यह्‌ इष्टका १।३० के पठ ९० से अधिकं है । अतः यह नदीं घट सकेगा । 
अतः इष्टपल ९० को ३० से गुणा किया गुणनफर २७०० मे धनु के उदय- 


विप्रहनाननिक्रारः ९९, 


पल ३४२ का भाग देने से ७।५३।४९ छन्धि पराप्त हई इसे स्पष्ट सूयं ७।१२। 
३५।३१ मे जोड़ने से ७।२०।२९।१२ स्पष्ट रग्न हुमा । 

दष्टकाल साधन--स्पष्टलरन १।९।१६।१ स्पष्टसूयं ९।११।५७।३८ 
भयनांशाः २३।३०।२४। इष्टकाल साधन हेतु सूयं का पर्वोक्तरौति से भोग्य- 
काल २०६।५३।३५ साधन कर, इसमे सायलग्न २।२।४६।२५ के मुक्तांश 
२।४६।२५ से भुक्तकालं २८।६।१ लाकर जोड़ने से २३२४।५९।३६ हुआ । 
अर्थात्‌ स्वल्पान्तरतः २३५ पठहुआ । इसमे सायन सूर्यं ओर सायन रग्न के 
नीच में आने वारी मोन, मेष भौर वृष राशियों के उदय मान क्रम से २२१ 


1२२१२५३ जोौडने से ९३० पर हुभा । यही इष्ट पछ हुभा इसे 
घटूयादि बनाने पर १५।३० इष्ट हु 


एकराशौ क्ग्नरव्योः स्थितौ इष्टानयनम्‌-- 


यदि तनुदिननाथवेकराशौ तद॑शा- 

न्तरहत उदयः स्यात्‌ खाग्निहूत त्विष्टकालः । 

इनत उदय ऊनरचेत्‌ स शोध्यो द्युरात्रान्‌- 

निक्षि तु सरसभार्कात्‌ स्यात्‌ तनूरिष्टकाले ॥ ५ 

मल्लारिः--अथ सूयंलग्ने यदैकराशिस्थे तदेष्टकालानयनमाह यदि तनु- 

दिननाथाविति । यदि सायनौ लग्नसुयविकयिस्मौ -तदा तदश्चानां तदागानां 
यदन्तरं तेन हतो गणितो यः स्वोदयः स खागिनिहूत्‌ त्रिक्षद्धक्त दष्टकालः स्यात्‌ । 
इनतः सूर्यादुदयो क्भ्नं चैदूनं तदा स कालस्तदशान्तरहत उदय इत्यादिना 
साधितः काल इत्यथः । स दयुरात्रात्‌ षष्टेः शोध्यः । एतदुक्तं भवति । अरकदि- 
यात्‌ पूर्वं किक लग्नमर्कादूनं मवति तत्र कालानयने सायनौ लग्नार्को यदि भिन्न 
रारिस्थौ भवतस्तदाऽकभोग्यस्तनोर्भृक्तकालान्वित इत्यनेन कालं साघयेत्‌ । 
यदि चैकराशिगौ तदा तद्॑षान्तरहत उदय इत्यादिना कालः समायाति रात्रि- ` 
शेषेऽर्कोदयाद्घटिकाज्ञानाथं स॒ षष्टः शोध्यः । रात्रिगतघटिकाज्ञानाय रात्रि- 
मानाद्वा शोष्यः) अत एव "शोध्यो ्युरात्रादथवा रजन्याः इति । निशि रात्रौ 
-सरसभार्कात्‌ सषडभसूर्यादिष्टकाले तनुरुग्नं स्यादिति ॥ 


१५० | ग्रहलाधवे 

त्रोपपत्तिः यदि त्रिशद्धागैः सूर्याधिष्ठितोदयपलानि लभ्यन्ते तदा तयो- 
रन्तरांडीः किमिति फलमिष्टकालः स्यात्‌ । सुर्याल्लग्ने उने सूर्योदय।त्‌ पूवमेव 
भविष्यति । अतः स कालः षष्टिशुद्ध इत्युक्तम्‌ । रत्रौ कग्नसाधना्थं रविः 


रुषड्भः कार्यं एव । यतः प्रागपरत्र क्षितिजयोरन्तरे षडराशय एव भवन्ति 
अत उदयरग्नं षड्‌ राशियुक्तमस्तरग्नं भवति । अत उवं सिद्धान्तशिरोमणौ । 


“योऽभ्युदेति समयेन येन तत्सष्तमोऽस्तमुपयाति तेन चः१ ॥ ५ 
चन्द्रिका--यदि सूयं भौर कुन एक ही राशि मे स्थित हों तो दोनों के 
अन्तर को स्वौदय (जिस राशि पर सूयंओौरल्ग्नही) पलसेगुणा कर 

३० से भागदेने पर इष्टकालहोताहै। यदिख्गनके अंश सूयंकेअंशसे 
भस्पहो तो उक्त रीति से धित इष्टको ६०्में घटाने से इष्टकाल 
होता है। 

यदि रात्रि में क्न स्ाघन अभोष्ट हो तो सूयंमे ६ राशि जोड़कर 
लग्न साधनं करना चाहिए 1 ४ 


विशोष--यदि मध्य रात्रि के पश्चात्‌ ग्न साधन करनाहौ तो इष्ट 
घटी कोद०्घटीमेंचघटाकरशेषको रात्रि रोष का इष्ट मान कर मुक्त 
रोति से भी रग्न साघनकियाजा सकता है। 

उदाहरण--सायनसू्यं ८।६।४८।१ सायनलग्न ८।१४।४१।४२ दोनों ही 
एक ही धनु राि में है । भतः दोनों के अन्तर अंशादि ७।५३।४१ को धन 
के उदय मान ३४२ से गुणा किया तो गुणनफल २७०० प्राप्त हा । इसे 
३० से भाग देने पर न्धि ९० इष्ट पल हुभा। इसे ६ण्सेभागदेने पर 
१।३० घट्यादि इष्टकाल हुभा । ५ 


गोलाथनपरिभाषां प्रदश्यं दिनरात्रिमानाक्षांशानयनम्‌ -- 


गोलौ स्तः सौस्यथाम्यौ क्रियधटरसभे वेचरेऽथायने ते 

नक्रात्‌ कीटाच्च षट्भेऽथ चरपलयुतोनास्तु पञ्चेन्दुनाङ्यः । 

घला धं गोलयोः स्यात्‌ तदयुतखगुणाः स्यान्निश्षाघं तथाऽक्न- 
च्छायेषुघन्यक्षभायाः कृतिदशमख्वोना यमास्चाः पलाशाः ॥ £ 
मल्लारिः--जथ गोखायनकथनं दिनरात्निपलांशस्ताधनमेकवृत्तेनाह गोलः 
१.सि.शि.गो.त्रिवा. २४॥। 





तरिप्रक्नाधिकारः १०१ 


विति । खेचरे सायने ग्रहे क्रियधटरसमे सौम्ययाम्यौ मोलौ स्तः । मेषादिषड्‌- 
राकषिस्थे उत्तरगोलः । तुलादिषड्राशिस्थे दक्षिणगोलः । नक्रात्‌ षड्मे मकरा- 
दिषड्मे उत्तरायणम्‌ । कर्कात्‌ षड्‌भे दक्षिणानयनम्‌ । | 

अत्रोपपत्तिः । क्रान्त्यभावो यत्र॒ स गोलादिः। क्रान्त्यभावः सायनभुजा- 
भावे । मुजामावो मेषादौ तुकादावतस्तौ गोखसन्धी । मेषादिषड्ाशयो भवचक्र 
उत्तरार्धे सन्त्यत उत्तरगोखः । तुकादयो दक्षिणार्धेऽतः स दक्षिणगोर इति । यत्र 
परमक्रान्तिः सोभ्यनसन्धिः । परमक्रान्तिस्तु मुजपरमत्वे । भुजपरमत्वं च ककटाद्दौ 
मकरादौ च भवत्थतस्तावयनसन्धी ॥। 


भथ दिनरात्री साधयति पञ्चेन्दुनाड्यः प्ञ्चदलघटिका गोलयोदचरपलयु- 
तो वा उत्तरगोले युक्ता दक्षिणगोले हीनास्तद्घस्राघं दिनार्घस्यात्‌ । तेनायुताः 
खगुणारस्तरिशन्निशाधं रात्रिदलं स्यात्‌ । ते द्विगुणे दिनरात्रिमाने भवत इत्य्थंत 
एव सिद्धम्‌ ॥ | 

अस्योपपत्तिः निरक्षदेशेऽहोरात्रवृत्तं उन्मण्डलायाभ्योत्त रवृत्तसम्पातं यावत्‌ 
सदा ¶ञ्चदशघरिका भवन्ति क्लिंतिजोन्मण्डलयोरेकत्वात्‌ं । तथा प्रवाहक्षिप्तचक्रस्य 
समपूर्वापरभ्रमणत्व।त्‌ । अन्यदेशे क्षितिजोन्मण्डलयोभिन्नत्वात्‌ तदन्तररवि- 
नाडीभिरूनाधिकाः पञ्चदश घटिकाः सम्भवन्ति उन्मण्डलक्षितिजयोरन्तरं चरम्‌ । 


उक्तं च भास्कराचायंण-- 
“उन्मण्डलक्ष्मावलयान्तराले चुरात्रवृत्तं चरखण्डकाल' ^ इति । 


उत्त रगोके उन्मण्डलादघः क्षितिजं स्थितं तस्मान्चरेणाधिकाः पञ्चदश- 
घटिकाः क्रियन्ते तदिना्धं॒स्यात्‌ । याम्ये तृन्मण्डलादूध्वं क्षितिजं तस्माद्‌ तदूना 
एव पञ्चदश घटिका दिनदल स्यात्‌ । ततस्तत्‌ त्रिशच्छद्धं रात्निदलं स्यादेव । ते 
द्विगुणे दिनरात्रिमाने 1 उदयाक्षितिजादस्तक्षितिजं यावदहोरात्रवृत्ते तत्र॒ यावत्यो 
घटिकास्तावहिनम्‌ । क्षितिजाघोविभागादस्तक्षि तिजपर्यन्तं रात्रिमानं तत सवं 
गोलोपरिदरयित्‌ 1 वासनामात्र मुक्तम्‌ । 


 अथेत्ति । अक्षच्छाया पलभा इषुघ्नी पञ्चगुणा । अक्षभायाः कृतेवंगंस्य यो 
दक्षमलवस्तेन ऊना सती यमाशा दक्षिणदिशः पलांशा अक्षांशाः स्यु: ॥ 
अत्रोपपत्तिः । यदि पलकर्णे पलभा भुजस्तदा त्रिज्याकर्णे कः फलमक्षज्या । 
तद्धनुरक्षांशा जाताः । धनुरानयनवासतना पूर्वोक्तेव ! अत्रीकांगृलां पलभां 
१ ष सि. शि, गो. कि, वा. १ 


१०२ ` ग्रहणघवे 


भरकल्प्याक्षांशाः साधिताः ४।५४। यद्ेकांगुखया पल्भया एते तदेष्टया क इति । 
एभिः परमा गुण्या इत्यत्रषां पञ्चैव गृहीता । अतः पञ्चगुणपकलभा पलांशा इति । 
अधिकं खण्डं गृहीतमिदम्‌० । ६ । इदं परमावगंस्य दशमांशेन समम्‌ । अतस्तदुना 
एव कार्या । अधिकस्य गृहीतत्वात्‌ । ते सदा दक्षिणा एव यतो रडकात उत्तरे 
सममण्डलान्नाड्क्रामण्डलं दक्षिणत एव सदा वर्तते । लङ्‌ कातो दक्षिणे मनुष्य- 
सञ्चार एव नास्त्यतस्ते नोक्ताः ॥ ६ 


चच्िका--मेषादि ६ रालियों में ग्रह हों तो सौम्य (उत्तर) गौर तथा 
तुलादि\६ राशियों मे ग्रह दहं तो दक्षिणगोल होता है। इसौप्रकार 
मकरादि ६ रागियोमेग्रहहींतो उत्तरायण एवं कर्कादि £ राथियोमे 
हों तो दक्षिणायन होता दै, 


उत्तर गोल मे पदि ग्रह्‌ (सूये) हो तो चरपल मे १५ घटी | जोड़ने से 
तथा दक्षिण गोल मे सयंहौ तो चरपल को १५ घटी में घटाने से दिना 
होता है। 


दिनाधं को ३० घटी मे घटने से रत्धं होता है। 


पल्भाको ५ से गुणा कर गुणनफल में पलभा के वर्गके दरमांश को 
घटाने से दक्षिण दिशा के भक्षां होते है 11६ 


उदाहरण--स्पष्ट स॒यं ७।१२।३५।३१ पलमा ५।४५ (वाराणसी) चरपल 
(धृवंसाधित) १०७। सूयं त्ुलादि रशिया मे है अतः दक्षिणगोल हंभा। 
कर्कर्पदि ६ राशियों के मन्तगंत है मतः दन्निण अयन हुमा । 

चरपरु १०७ कौ घट्धादि बनाने से ९।४७ हुं । दक्षिण गोर होने 
से १५ घटी मे घटाया । णेष १३।१३ दिनार्धं हु । दिनाधं १३।१३को 
३० घटी मे घटाने से १६१४७ रोत्यधं हुमा । 

पभा ५।४५ कौ ५ से गुणां किया तो २८।४५ हुआ । पलभा के वर्ग 
३३।३ के दशमांशं ३।१८ को २८४९ पे घटाने से शेष २५२७ वाराणतैः 
का अक्षांश हृभा । इसकी दिक्ता दक्षिण हे ।\६ 


तरिप्रदनाधिकारः १०३ 


नतोन्नतकाल्योः पककर्णस्य चानयनम्‌-- 


यातः शेषः प्राकपर्रोन्नतः स्यात्‌ 
कालस्तेनोनं द्युखण्डं नतं स्यात्‌ । 
मक्षच्छायावगतत्त्वांशयुक्ता 
मात्तण्डाः स्यादंगुराद्योऽक्षफणंः ।\ ७ 
मल्लारिः--अथ नतोन्नतसाघनमाह्‌ । प्राक्‌ पूर्वकाले यातः मुक्तः काल 
उन्नतः स्यात्‌ । अपरत्र पद्चिमकपाके रोष उर्वस्ति उन्नतक्रालः स्यात्‌ । तेन उनं 
दयुखण्डं दिनार्धं नते नतकालः स्यात्‌ ॥ 


अत्रोपपत्ति :-- दिनकरकरनिकरनिहततमसो नभसो वृत्ताकारतव प्रतिभासते 
तस्य याम्योत्त रवुत्त मवधि कृत्वा द्वे कपा परिकल्पिते । तत्र यत्स्थो रविरशुदयं याति 
तत्‌ पूवंकपालम्‌ । यत्रास्तमुपयाति तत्‌ परिचमकपालम्‌ । मतो रविरेव पूर्वादिदिग- 
भिन्यञ्जकः । ततः पूर्वक्षितिजाच्यावताऽभीष्टकालेन रविरन्नतस्तावानुन्नतकाङ 
इत्यभिधीयते । अपरकपालेऽस्तक्षित्तिजाद्यावान्‌ रोषकालः स॒ उश्नतकालः स्थात्‌ । 
उन्नतं कालं दिनार्घादपास्य य: शेषकालस्तेन रविर्मघ्याह्वतो नतो मवति । अपर- 
कपारे रविदिनार्घयोरन्तरे यः कालः स॒ एव नतो भवति । मघ्याह्वाद्रवेस्तावता 
काटेन नतत्वादिति । 

अथ क्णंसाधनमाह --अथ अक्षच्छायायाः पल भायां यो वरग॑स्तक्य यस्तत्तवांशः 
पञ्चविशत्य॑श्च स्तेन युक्ता मार्तण्ड द्वादशांगुखाद्योऽक्षक्णः स्यात्‌ । 

अत्रोपपत्ति :--पलमाः भुजः 1 द्वादशा गुलशंकुः कोटिः । प्रल्कर्णः कर्णं एव । 
पलभावर्गो द्वादशवर्गयुक्ततस्तस्य म॒ पलकर्णः स्यात्‌ । अत्रैकागुरपकभायां जातः 
पलकर्णः १२।२।२४ अस्मादुद्रादश विशोध्य शेषम्‌ ०।२।२४ इदं पलभावर्गतत्तवांश 
तुल्यम्‌ । अतस्तचुक्ता द्वादशं पलकर्णः स्यादित्युपपन्नम्‌ ।! ७ 


चन्िका--दिन के समय ज्र नतोन्नत काल ज्ञान करना हौ उस 
समय का इष्टकाल यदि दिनाधंसे अल्पहोतौ इष्टघटी (गतकाल) पूवं 
उन्नतकाल तथा दिनाधं से अधिक हो अर्थात्‌ अपराह्व का इष्टकारहो 
तो दिन की शेष घटी (दिनमान--इष्ट घटी) पर उन्नतकाल होता हे । 
दिनाधं मे उन्नतकाठ घटाने से नतकार टहोतादहै। इसी प्रकार रात्रिमें 


भी नतोन्नत काल का ज्ञान होतादहै। पलभाके कर्मका र५्वां भाग १२ 
मे जोडने से अड गुखादि पल्कणं होता है ॥७ 


१०४ ग्रहलाघवे 


उदाहुरण--दिनाधं १३।१३ राच्यधं १६।४७ दिनमान २६।२६ रात्रि. 


मान ३३।२३४। 

यदि इष्टवटी ८।४० हो तो दिनाधं से भल्प होने के कारण ८४० 
पुवं उन्नतकाल हुभा । इसे दिनाधं १३।१३ मे घटाने से दोष ४।३३ पूवंनत 
हु । यदि इष्टवटी अपराह्न कौ १८।३० कल्पना करे तो दिन शेष धटी 
(अर्थात्‌ दिनमान २६।२६-१८।३०)=७।५६ पर उन्नतकाल हुभा इसे 
दिनाधं १२।१३ मे घटने से ५।१७ पर नत हुभा। 

इसी प्रकार प॒वं राति का इष्ट ३६।४० कल्पना करे तो इष्ट में दिन- 
मान घटाने से रात्रिगत इष्ट १०।१४ हुभा यही पर उन्नतकाल हुषा । 
रत्यधं १६।४७ मे १०।१४ घटाने से रोष ६।३३ परनत हुभा । यदि ईष्ट 
मध्य रात्रिके बाद का ४८।३० प्रहुण करे तो दिनमान घटाने से २२।४ 
रात्रिगत इष्ट हुआ इषे रात्रि मान ३३।३४ में घटाने से शेषं ११।३० 
प्वंउन्नत घटी तथा ११।३० को र(्यधं १६।४७ मे घटाने से शेष ५।१७ 
प्वंनत घटी हुई । 

पलमा ५।४५ के वर्म ३३।३ का रवां भाग १।१९ को १२ म जोड़ने 
से १३।१९ अङ्गुः लादि पलकणं हुआ । 


छयाज्ञानाथं हारिसाधनम्‌- 


वेदेशाः शरहृच्चराढचयरहिताः सोम्यानुदगगोलयो- 

हा रोऽयो घटि ह घंधुड नतकृते ह चंशः समाख्यः स्मृतः । 

चेत्‌ सा्धत्रिक्रुतो नतं यदधिकं वेदाहं तद्वि युक्‌ 

स्पष्डोऽतो तदयुग्थरस्त्वभिमतः स्यादक्षकर्णोदुतः ॥ ८ 

मल्लारि--अयेष्टच्छायापाघानाथं हारमाह । वेदेशार्चतुर्दशाधिकशतमिताः 
ख रहूच्चरेण पञ्चभक्तचरेण सौम्यानुदग्गोखयोः । आद्य रहितः । उत्तरगोके युक्ता 
दक्षिणे रहिताः सन्तो हारः स्यात्‌ ॥ 

अथ हारकथननिन्तरं घटिक्राधंयुक्‌ त्रि्चत्यलयुग्‌ यन्नतं तस्य या कृतिस्तस्या 
यो हच लोऽ्वाशः स समाख्यः स्मृतः ॥ 


तरिप्रह्नाधिकारः १०५. 


अघ्रापिप्रत्ति :--अत्र गोलेऽहोरत्रवृत्ते क्लितिजसम्पातयोकंद्धं सूत्रं तदुदयास्त- 
सूत्रम्‌ । एतदृन्मण्डलसम्पातयोव्रद्रं॑तदहोरात्रग्याससूत्रम्‌ । तदुदयास्तसूत्रयोरन्तर 
कुज्यैव । अथ याम्योत्त रवृत्तसम्पातयोबंदधं तन्मितं तस्य व्यासमूत्रं तयोर्व्याससूत्रयोर्यः 
सम्पातस्तस्मादुपरितनं खण्ड चन्या । सा उत्तरगोलेऽघस्तनया कुज्यया युता 
यावत्‌ क्रियते तावहिनार्घेऽरकोदयास्तसूत्रयोरन्तरं स्यात्‌ \ दक्लिणे तु कुञ्यया हीना । 
यतस्तत्रोदयस्तिसूत्रादधः कुज्या । यदकदियास्तसृ्रयोरन्तरं साऽत्र हू तिरित्युच्यते । 
एवमन्त्याऽपि 1 चरज्यया त्रिज्या युततोना दिनार्घान्त्या स्यात्‌ । अहोरात्रव्यासा्घं 
त्रिज्यातुल्यैरङ्र्याक्दङ्क्यते तावत्‌ त्रिज्यातुल्यं भवति । तैरङ्‌कंर्यावत्‌ कुज्या गण्यते 
तावच्वरज्यातुल्या भवति ¦ अतक्चरज्यया च्रिज्या युतोनाऽन्त्या संज्ञा भवत्ति। 
नान्त्याहत्योः कषेत्रसंस्यानमेदः । किन्त्वङ्कानां गुरुलधुत्वात्‌ केवलः संख्याकृतो भेद 
इत्युपपन्नम्‌ । तत्र तावदन्त्याथं चरज्या साध्या । सा यथा । चरपलानि षष्टि- 
भक्तानि नाड्यः स्युः । ताः षड्गुणा भागाः स्थुः । तै द्विगुणा जीवां । अत्र चर्‌- 
पलानां हरः ६०। गुणदयघातो गुणः १२ 1। गुणह रयोगृणेनापवतितयोन्घाः 
पञ्च । अत उक्तं शरहुच्चरेणेति। शरहुच्चरं चरज्या जाता। तया त्रिञ्या 
सौम्ययाम्यगोल्योः क्रमेण युतोना कार्या। अत्राचार्येण त्रिज्या वेदेशमिता 
धृता । अतो वेदेशा इति । एवं जाता दिनाधण्त्या तस्या हारसंज्ञा कृता । इयं 
दिनाधन्त्या नतोत्रमज्यया हीना सतीष्टान्त्या स्यात्‌ । एवमत्र नतोक््रमज्या 
घटिका्धंयुक्तस्य नतस्य वर्गेण दलितेन तुल्य। भवति । भत्र प्रतीत्यथं कल्पितम्‌ 
५.। इदं षड्गुणमशाः ३० 1 एषां खाक: १२० मिते व्यासा उकक्रमज्या १६। 
यदि खाकमिते व्यासार्धे यं तदा वेदेशतुल्ये केति जाता १५।१२ । धटिका्ंसं 
युक्त नतम्‌ ५।३० भस्य वर्गः ,३०।१५। तदधंम्‌ १५।७। एवं स्वत्पान्तराज्जाता 
नतोत्करमज्यैव । तस्याः समसंज्ञा कृता । चेन्नतं सार्घ॑त्र योदशाधिकं स्यात्‌ तदा 
तत्‌ सा्धत्रयोदशहीनं कृत्वा यदधिकं तद्रदैश्चतुर्भिराहतं तेन वियुक्‌ हीनः समा- 
ख्यः स्फुटः स्यात्‌ । तेन समाख्येनयुक्‌ हीनो हरोऽक्नकर्णेन उदृतो भक्त इष्टहरः 
स्यादित्यर्थः ॥ 

भत्रोपपत्तिः--अच्र समामिधा या नतो्रमज्या साधिता सा सारधत्रयोदशन- 
त्पर्यन्तं भवति । ततः परं सान्तरा । अत्र करिपत नतम्‌ १४।३०। अस्य नतस्य 
वेदेशतुल्या्यां ११४ त्रिज्यायामुक्मज्या १०८।३३ । घटिकार्धयुक्तनतस्य १५ 
वर्गो २२५ दयाप्तः ११२।३०। भव्रानयोरन्तरं चत्वारः ४। तदन्तरमेकघटि कायां 
चतुमितम्‌ । तत्रानुपातः । यदयेकषटिकायां वचत्वारोऽन्तरं तदेष्टेन सार्घत्रयोदला- 


धिकेन नतेन किमिति फलं हीन कार्यम्‌ । अधिकमृतत्वात्‌ । ततस्तेन हीनो हर 


१०६ ग्रहुलाचघवे 


द्ष्टहरः स्यात्‌ । यत्ता नतोक्क्रमज्याहीना दिनार्थान्त्या इष्टान्त्या भवति सा इष्टहुर- 
संज्ञा । अवराज्न करणभ जने युक्तिस्त्वनुपदमेवर स्पष्टोकरिष्यते ॥ ८ 

चद्दरिका--चरपल को ५से भाग देकर लब्व्रिको उत्तरगोर मे ११४ 
जोडने तथा दक्षिणगोर मे ११५मे घषटनेसे हार होता दहै । नतकार मे 
आधो घटी जोड़ने से सम होता है । यदि १३।३० घटी से अधिक नतकाङ 
हो तो उसमे १३।३० घटाकर शेषक्रो ४मे गुणाकर गुणनफल को पूवं 
साधित सममे घटानेसे स्पष्ट समहोतादहै। समको हार से घटाकर 
दोष मे पलकण का भाग देने से अभीष्ट हूरदोताहै। 5 

उदाह्‌रण-सायन सूपं ८।६।४८। १ नत ३३ चरपल १०८ । सम मौर 
अमीष्ट हार का अनयन करना है । अतः चरपल १०७को५ सेभागदेकर 
लन्वि २१।२४ दल्षिगगोल होने से ११५ मे घटाने से ९२।३६ हार 
हुभा । नत ४।३३ में अघो घटौ ०।३० पल जोड़ने से ५।३ हुआ इसके वर्ग 
२५।३० का आधा १२।४५ सम हुआ । नतकार १३।३० से अत्प है अतः 
यही स्पष्ट सम हुआ । सम १२।४५ को हार ९२।३६ मे घटाकर शेष ७९। 
५१ को पलकणं १३।१९ से सजातीय बनाकर भाग देने ते कन्धि ५।५९ 
भभीष्ट हर हुआ । 


भाज्यवनाच्छायाताघनम्‌- 


दिण्ध्नाक्षभाहूत चरं स्वगुणं ह्िनिध्नं 
स्वेष्वं शयुग्थुगभवा न्वतमन्र भाज्यः । 
कर्णोऽङ्गुलादिक इहेष्टहु राप्तभाज्यः 
कर्णाकंवर्गविवरात्‌ पदमिष्टमा स्यात्‌ ॥\ ९ 
मल्लारिः - अथ भाज्यसाधनमाह । दिण्ध्नाक्षभया दज्ञगुणपलभया हृतं चरं 
स्वगुणं वगितं ततो द्विनिष्नं द्विगुण सत्‌ स्वेप्वंशकेन स्वपञ्च मांदेन युक्‌ ततो युगभवं- 
रन्वितं सत्‌ भाज्यो भवति । 
त्रोपपत्तिः  -अय भाज्यस्वरूपमुच्यते । इष्टहरसंजञेष्टान्त्या ज्ाताऽस्ति- 
तस्या हृतिकरणायानु तः । त्रिज्यावृत्ते इयप्मिष्टान्त्या तदा दयुज्यावुत्ते केति 
जातेष्टहू ति। । पलकणें द्वादशषक्रोरिस्तदेष्टहूतिकर्णे केति जात इष्टश्षंकुः । शंकुकोटौ 


त्रिप्रहनाधिकारः १०७ 


त्रिज्या कणंस्तदा दादशक्रोटौ के इति जात इष्टकर्णः । एवमत्र भिज्यावर्गस्य' 
पल्कर्णो गुणः । चुज्येष्टान्त्याघातो हरः । तेन त्रिज्यवर्गो दुज्याभक्तः 
फर्स्य भाज्यसंज्ञा कृता । तत्र परमात्पद्युज्यया १०९।४० करिज्यावगें भक्ते 
जातः परमो भाज्यः १३१। २०! खाकमिते व्यासार्धेऽयं तदा वेदेशामिते क दति 
जातो भाज्यः १२४४५ स भाज्यः पलणंगुणः इष्टान्त्याभक्तः कार्यः । तत्र 
पलकर्णेन गुणेन गुणहरावपवतितौ । एवं परक्णंभकतेष्टान्त्येवेष्टहरसंज्ञा 
कृता । अत दृष्टहुराण्तमाज्य इष्टकर्णः स्यादित्युपपन्नम्‌ । अस्य साघनक्रिया । 
यज्या क्रान्तिज्याभिविना न सिध्यति तद्प्रक्रियागौरवम्‌ । अतोऽतुकल्पेन दिर्ष्ना- 
क्षभेव्यादिना भाग्यो ज्ञातोऽनुकल्पः । स यथा । एकांगुलपकभाया खण्डत्रययोगः 
परमं चरम्‌ २१।२० । इदं दशगुणपलमा भक्तम्‌ २८ । कगितम्‌ ४।३३ द्विगुणम्‌ 
९।६ । इदं स्वपञ्चाशयुतं १०।५५ वेदेशयुतं स एव भाज्य इति प्रतीतिः । अयं 
भाज्यो हरहूतोऽमौष्टकर्णो मवति इति युक्तिः पूर्वमेवोक्ता | कर्णाकवगंविवरात्‌ 
कर्णवरगद्वादशवर्गान्त रान्मलमिष्टमा इष्टच्छाया स्यात्‌ । अस्योपपत्तिः-छाया-मुजो 
द दशांगुलशंकुः कोटिः छायाकर्णः कर्णः ¡ भतः कोटिक्णंयोवंर्गान्तरमूरं छाया 
भवतीत्युपपन्नम्‌ ॥ ९ 


चन्द्रिका --पलमा को दश से गुणाकर गुणनफर से चरमे भाग देकर 
रन्धि के वर्को २से गुणाकर गुणनफल मे उसी का पंचमांश जोड़कर फर 
मे ११४ जोड़ने से भाज्य होता है । भाज्यमें इष्टहुरकाभागदेनेसे रन्धि 
अंगुलादि (छाया) कणं होता है । कणं के वर्गमें १२ का वर्गं (१४४). 
घटाकर शेष का वर्गमूल रेने से ईष्ट छाया होती है । ९ 


उदाहरण --पलभा ५।४५ चर १०७ । इष्ट छाया अभीष्ट है । पूर्वोक्त 
नियमानुसार पलभा ५।४५ को १० से गणा किया गुणनफल ५७।३० इसे 
एक राक बनाकर सजातीय चरमं भागदियातो लच्छि १।५१ प्रा हुई 
इसके वर्ग ३।२५ को २ से गुणा किया गुणनफल ६।५० मे इसी का पञ्च- 
मांडा १।२२ जोड़ा तो ८।१२ हुआ इसमें पूर्वोक्त ११४ जोडने से १२२।१२ 
भाज्य हु । 


अभीष्ट हर (पवंसाधित) ५।५९ से भाज्य ११२।१२ को सजातीय करकैः 
भाग देने से रन्धि २०।२५ अड्गुलादि छाया कणं हुभा । 


य १ ०८ | ह्‌ ला धवे 


कर्णं २०।२५ के वर्ग ४१६।५० मे १२के वर्म १४४ को घटाने से २७२ 
५० हुमा इसका वर्गमूल १६।३१।२ भङ्गुलादि छाया हई । 


विशेष- सावयव भद्रं के मृलानयन हेतु श्रीकमलाकरभदटरु ने 
निम्नलिलित विधि प्रदशित की है-- 


षष्टिवर्गगुणादङ्कान्मूलं ग्राह्यं यथागतम्‌ 

मूलावशेषक सेकं षष्टिघ्नं विकलान्वितम्‌ । 

द्विनिघ्नेन द्वियुक्तेन मूलेनाप्तं स्फुटं भवेत्‌ ॥ 

भर्थात्‌- अभीष्ट अद्धुको६०्से दो बार गृणा कर गुणनफलका 
वर्गमूल के। शेष भद्धुमे १ जोड़कर ६० से गुणा करं गुणनर्फल मे द्विगु- 
णित मूर में २ जोड़कर योगफल से भाग देने पर न्धि द्वितीय भवयव 


होता है । सावयव मूल को ६० से भाग देने से वास्तविक मूर भाता है । 
इस नियम को पण श्री सुधाकर द्विवेदी जी ने भी स्पष्ट रूप से अपनी 
ग्रहुलाधव की टोकामें उद्धृत क्रियाहै। 


छायातो विखोमविधिना नतकालज्ञानम्‌-- 


कणं: स्यात्‌ पदमकंभाकृतियुतेस्तदृभक्त भाज्यो हरो- 

ऽभौष्टस्तत्‌ परू कर्णंघातरहितो मध्यो हरो हचयाहतः । 

चेद्‌ वेदाङ्धराधिकः पृथगतो वेदाङ्धुभूनाद्‌ गुणा- 

प्त्याढचस्तस्य पदं घटीमुखनतं स्यादघंनाडी वियुक्‌ । १० 

मल्लारिः-अथेष्टच्छायातो विलोमविधिना कर्णाद्यानयनमाह 1 अर्कमा. 
ृतियुतेः पदं द्वादशवर्गच्छायावर्गयोगान्मूकं कर्णः स्यात्‌ । तेन कर्णेन भक्तो 
भाज्योऽभीष्टह॒रः स्यात्‌ । तस्य पलक्र्णेन सह्‌ यो घातो गुणनं तेन मध्यो हरो 
रहितः) ततो दरयाहतो द्विगुणितः । स वेद्रेदाद्ुवराधिकः षड्नरतद्वथाधिकत्तदा 
पृथक स्थाप्यः 1 अतोऽस्मा़दाङ्कुमूनात्‌ पृथक्‌ स्थात्‌ या गुणाप्िस्तयाऽऽढ्यः कार्यः । 
नो चै्यथास्थित एव । तस्य मूलं धटिकादिकं नतं स्यात्‌ । परन्तु तन्नतमर्धनाड्या 
त्रिशत्परवियुक्‌ हीनं कार्यमित्यर्थः । 


त्रिप्रह्नाधिकारः | १०९. 
अत्रोपपत्तिधिलोमविधिना प्रसिद्धैव ॥ १० 


चच्िका--छायाके वगंमें १२ के वगं (१४४) को जोड़कर मृल केने 
से कणं होता है । कणं से प॒वं साधित भाज्यमे भाग देने से क्ग्धि अभीष्ट 
हूर होता है 1 अभीष्ट हर भौर पलकर्णंके घातकोहार में घटनेसे 
रोष (सम होताहै) । समकोरसे गुणा करने पर गुणनफल यदि १९४ 
से भधिकदहोतो अरम अर्गदो स्थानो मेँ स्थापित करे एक स्थान में 
१९४ घटाकर शेषम २ेकाभागदेकर छन्िको द्वितीय स्थान वाली 
संख्या (द्विगुणितत सम) मे जोड कर वर्गमूर लेने से नत होता है । उसमे १० 
पल घटाने से वास्तविक नत होता है। १९ 


उदाहरण--छाया १६।३१।३ इससे विलोम विधि द्वारा नत कार 
साधन करना है । अतः छाया १६।३१।३ के वगं २७२।५० मे १२कानगं 
१४४ जोडने से ४१६।५० हुआ । इसका वगंमूल २०।२५ छाया कणं हुमा । 
इससे पवं साधित भाज्य १२२१२ को सजातीय करके भाग देने से रन्धि 
५।५९ अभीष्ट हर हु । ५।५९ अभीष्टह॒र को पलकणं १३।१९ से गणा 
करिया । गुणनफल ७९।५१ (स्वत्पान्तरतः) को हार ९२।३६ मे घटाने से 
रोष १२।४५ सम हृभा । इसे रसे गुणा करने पर २५।३० हभा । यह्‌ 
१९४ से अत्प है अतः इसका वगंमूर ५३ नत हुभा इसमें ३० पल घटाने 
से ४।३३ स्पष्ट नतकार हुमा । 


सृष्षमक्रान्तिसाघनम्‌-- 


चत्वारिशदन्ञीतिरद्रिकु भुवः क्वक्षेन्दवो भधुती 

षट्खाक्नीणि जिनार्िनोऽद्खविकृती खाब्ध्याह्रिविनः सायनात्‌ । 

खेटादुदोलंवदिग्खवप्रमगतोऽङ्कोऽसो तदरूनागता- 

च्छेषध्नादृदशरूब्धियुगदज्ञहुतोऽशाद्योऽपमःस्यात्‌ स्वदिक्‌ ॥ ११ 

मल्लारः--अथ क्रान्तिसाधनमाह्‌ । सायनादयनांशयुक्तात्‌ खेटाद्‌ प्रहाद्दोर्छवा 
भुजभागास्तेषां दिग्लवो दरामांशः । तेन प्रमः संमिता गतोऽङ्कः स्यात्‌ । ततस्तेन ` 
गतादकेनोनादागतादग्राङ्कात्‌ शोषध्नात्‌ शेषांशगुणितात्‌ । या दशकन्धिस्तया 


२१० ग्रहला धवे 


गतादको युगृयुक्तः । ततो दरभक्तोऽशांद्यो भागाद्यः स्वदिक्‌ सायनग्रहगोलदिगपमः 
क्रान्तिः स्यात्‌ । चत्वारिशत्‌ ४० । अशीतिः ८० । भअद्विकू भुवः सप्तदशाधिकश्षतम्‌ 
११७ । क्वक्ेन्दव ॒एकपञ्चाशदधिकशतम्‌ १५१ । भूधृती एकान्लीत्यधिकरतम्‌ 
१८१ । षट्‌खाक्षीणि षडर्विकशतद्रयं २०६ । जिनारिवनदहचतुविशत्यधिक्रदतद्वयम्‌ 
२२४ । अंगविकरती षट्धिशदधिकरतद्रयम्‌ २३६ । खःउ्घ्यरिवन्‌ श्चत्वारिशदधिक- 
रत यम्‌ २४० । एते तवङ्काः स्युरिति ॥ ११ 

अत्रोपपत्तिः । ग्रहो यै्मगिविषुवद्वृताह्‌क्षिणोत्तरगमनं करोति ते क्रन्स्य॑श्षाः 
क्रमणं क्रान्तिः । तस्य अंशा ईइत्यन्वर्थं नाम । विषुवद्वृत्तं यदवत्तंते तन्निरक्षे समं 
पूर्वापरमित्यर्थः । मेषतुलादिस्थो ग्रहुस्तस्मिन्‌ वृत्ते तिष्ठन्‌ भ्रमति । मेषादयः 
षट्‌ तस्योत्त राद्धं तुलादिका दक्षिणा एव । न तु मेषादिषद़ारय उत्तरतच्चेकताव- 
तिष्ठन्तो श्रमन्तीति । किन्तु मेषादिरासित्रयं यावत्‌ प्रतिक्षणम्तरतः कमेण 
चतुविशत्यं शान्‌ यावदहोरात्रवृत्ते परिभ्रमन्‌ गच्छति । ततः परावत्त्य राशित्रयं 
कन्यान्तं यावत्तेनैव मार्गेण पुनस्तदेवविषुवद्‌वृत्तमाश्र यति एव॒ तुलादेरदक्षिणत 
एव रारित्रयं गत्वा पुनस्तेनैव पथा पराव््यं तदेव विषुवद्वृ्ं मेषादिश्य एवा- 
श्रयति । एवं भगोले तदिक्स्थक्रान्तिरिति परिभाषा । एवं सूर्यस्य अन्येषां ग्रह- 
नक्षत्राणां च स्वस्वविमण्डलानुगतत्वात्‌ गोलाद्धयोर्वेपरीव्यसम्भवः स्यादिति । 
तद्यथा । विषुवद्‌व तातक्रान्तिवृत्तं तिरद्चोनं वर्तते तयोमेषतुलादौ सम्पाट्यम्‌ । 
तत्र क्रान्व्यभावः। मकरककटादो परमं दक्षिणोत्तरं चतुविश्चत्यंशान्तर॒ तत्र 
क्रान्तेः परमत्वम्‌ । एवं तिरश्चोनात्‌ क्रान्तिमण्डलादपि प्रहमण्डलं तिरचौन 
वत्ति । तयोः स्वक्षेपपाते सषडभे च सम्पातौ तस्मात्‌ त्रिभेऽन्तरे परमं विक्षेपा- 
दतुल्यं दक्षिणोत्तरमन्तरं विक्षेपः । एवं पृथगग्रहनक्षत्राणां धिमण्डलानि तिरश्ची- 
नानि वर्तन्ते तत्क्षेपवशात्‌ तद्गोलान्यत्वसम्भवः स्यादित्युपपन्नम्‌ । तदुक्तं 
सिद्धान्तशिरोमणौ 1" 

नाडिकामण्डलात्तिर्यगेवापमः क्रान्तिवतावधिः क्रान्तिवृत्ताच्छरः । 

क्षेपवृ्यावधिस्तियंगेवं स्फुटो नाडिकरावत्त खेटान्तरालेऽपमः ॥ 

अतः शरसंस्कृतास्पष्टाक्रान्ति; स्यादित्यग्रे आचा्येणाप्युक्तमास्ति 1 भत्र 


१. सि. क्ञि, गो. गोल. १६। 


त्रिप्ररनाधिकारः १११ 


गुणक भाजकोपपत्तियंथा । यदि त्रिज्यातुल्यमुजज्यया परमक्रान्तिज्या तदेष्टदोज्यं 
याकिमिति फल क्रान्तिज्या तद्धनुः क्रान्तिः स्यात्‌ । अत्राचार्येण छाघवाथं दश- 
दशभुजभागानामनेनैव विधिना क्रन्तयंशाः साघित्ताः । ते सावयवा जाताः भतो 
दशगुणान्‌ कृत्वा पठिताः ततोऽन्तरेऽनुषातः । यदि दरभिर्भागिरेको सभ्यते तदेष्टक्ः 
किमिति । फरमितो गतांकः स्यात्‌ । शेषादनुपातः । यदि दरभिरमगि्तष्यान्तरं 


लभ्यते तदा दोषाः किमिति फलं गतां कयुक्तं कायं सा क्रान्तिः स्यात्‌ । परं दल. 
गुणा ततो दशभक्तेत्युपपन्नम्‌ }} ११ 


चच्द्िका--४०, ८०, ११७, १५१, १८१, २०६, २२४, ३३६, २४० 
ये क्रान्ति साधनाथं अंकपटित है । सायनसयंके मुजांशषको १० से भाग 
दरेने से रुन्धि तुल्य गतांकं होगा। गतांक भौर एेष्यांक के अन्तरसे 
भृजांश के शेष अंशादि को गुणाकेर गुणनकक मे १०का भाग देकर 
रभ्धि को गतांक में जोड़कर पूनः १० काभागदेनेसे अंशादि कान्ति 
होगी । सायनप्‌ यं यदि उत्तर गोलमंहोतो उत्तरा, दक्षिणगोलमेंहोतो 
दक्षिण क्रान्ति होगी ११ 

उदाहुरण--सु क्षमक्रान्ति साधन करना अभीष्ट ह जव कि स्पष्टः 
सूयं ७।१२।३५।३१ तथा अयनांशः २४।१२।३०॥ सायनसु यं ८।६।४८। १ का 
भुज२।६।४८।१। भुजांश ६६।४८। १ मे १० का भाग दिया लब्धि ६ प्राप्त हुई 
अतः उक्तपटित गताको से छठा गतांक १०६ तथा एेष्यांक २२४ के अन्तर 
१८ से दोष ६।४८।१ को गुणा किया । गुणनफल १२२।२४१८ को १० से 
भाग देकर छन्धि १२।१४।२५ को गतांक २०६ मे जोडने से २१८।९४।२५ 
इआ । इसमे पूनः १०्कामाग देने से छन्धि २१।४९।२६ स्पष्ट क्रान्ति 


हुई । सूयं दक्षिण गोल ( तुखादि) का है भतः स्पष्ट दक्षिणा क्रान्ति 
== २.१।.४९।२६ । 
स्थूलक्रान्तिसाघनम्‌ - 

षटषडिषूदधिदृक्त कुभिर्धः 

खेटभुजांशदिनांश मितेक्यम्‌ । 

शेषगतेष्यदिनांशय॒तं गं- 

शाद्यपमः सुखसंग्यवहूत्ये ॥ १२ 


११२ ग्रहराधवं 


मल्लारिः--अथ लाघवार्थं स्थुलक्रान्तिसाधनमाह । एमिरर्घैः खण्दैः कृत्वाः 
खेटस्य सायनग्रहस्य ये भुजांशला भुजभागाः । तेषां यो दिनांशः पञ्बदक्षाशः ६ 
तन्मितं खण्डंवयं कार्यम्‌ । तच्छेषेण हत्त यदेष्यं मोग्यखण्डं तस्य यो दिनांशः 
पञ्चदस्लांशः तेन युतं तदंशाद्यपमो भागादिः क्रान्तिः । सुखेन संव्यवहूतिन्य॑वहार- 
स्तदथं स्यात्‌ ॥ 


अत्रोपपत्तिः --अत्र तु पञ्चदशभागानां क्रान्तयो भागादिकाः साधिताः । 
तच्रानुपातः 1 यदि पद्चदशभाैरेकं खण्डं तदा मुजमा्गः । किमिति छन्धं गतख- 
ण्डानां योगमिता क्रान्तिः । दोषादनुपातः । प्चदशांरी्यदि भोग्यखण्डं लभ्यते तदा 
देषांशोः किमिति फक गतलण्डयोगे योज्यं क्रान्तिः स्यात्‌ । परं सा स्थूला खण्ड- 
भागोनाधिकर्कलापरित्यागादिव्युपवन्नम्‌ ॥ १२ 


चचन्रिका--६, ९, ५, ४,२, १ये सुख (सरलता) पुवंक क्रान्ति 
साधन हतु अडः क पठित हैँ । सायन ग्रह॒ के भुजांशमे १५ का भाग देकर 
रन्धितुल्य (पूवंपठित) अङ्कं का योग केरे शेष को अग्रिम अङ्कसे 
गुणा कर गणनफल मे १५ का भाग देकर रन्धि को उक्त योग में जोड़ने 
से अबश्लादि क्रान्ति होतीदरै। १२ 


उदाहरण--सायन सूयं ८1६४८११ भुज २।६।४८।५ भुजांश ६६।४८}१ 
म १५ भाग देने से रख्न्धि ४ तथा शेष ६।४८१ 1 सत्तः रन्धि 
तुल्य ४ अङ्को का योग = ६९ +६+५+ ४२१ | अग्रिम संख्या 
२से दोषं ६।४८।१ को गुणा किया। गुणनफर १३।३६।२ मे १५का 
भाग देने से प्राप्त लन्धि मशादि ०।५४।२४ को २१ मे जोड़ने से २१।५५२४ 
अ शादि क्रान्ति हुई । सायनसूयं के दक्षिण गोलमेहोनेसे क्रान्तिभी 
दक्षिणा हुई । 


क्रान्तितो विलोमविधिना भुजांशसाधनम्‌- 


ततो दलानि शोधयेत्‌ तिथिष्नदोषमेष्यहूत्‌ । 
तिथिघ्नशुद्धसंख्यया यतं भवन्ति दोलवा; ॥१९३ 


व्रिप्रह्नाधिकारः ११३ 


मल्लारिः-- अथानन्त रानी 5।न्तिभागेभ्यो वैपरीद्येन मूजभागानयनमाह । 
ततस्तस्मादपमाददलानि षडित्यादीनि यावन्ति शुष्यन्ति तावन्ति शोधयेत्‌ । 
तिथिभिः पञ्चदशमिरहुन्यते गण्यते यच्छेषं तदैष्येण भोग्यखण्डेन हृद्‌ भक्तं तिष्ठं 
लब्धं तिथिघ्नया पञ्चदशगणनया शुद्धखण्डसंख्यया युतं सदृदोवा भुजभागा भव- 
न्तीत्यर्थः ॥ 

सश्र विकोमविधिरेव वासना प्रत्यक्षसिद्धाऽस्ति । यदनेन प्रकारेण प्रागानीत- 
सृष्ष्मक्रान्तितो दोवः साध्यन्ते तदा किञ्चित्‌ सान्तरा भवन्ति। अपमखण्डानां 
स्थूरत्वात्‌ । अतस्तत्रत्यखण्डर्योलवा्थं व्यस्तविधिना प्रकारान्तरं चिन्त्यम्‌ । तद्यथा 


दराहुतापमातत्यजेहलानि शेषमेष्यहूत्‌ । 

विक्षुद्धसंख्यया युर दशाहतं भुंजांशका इति ॥ १३ 

चन्द्रिका--क्रान्ति मे (६, ६, ५, ४, २, १) पृवंपठित्त अङ्कों को 
घटानेसेजोशेषहो उसे १५ से गुणा कर भाग्रम खण्ड (जो नहीं घट 
सकाहो) उसते भागदेने परनोकन्धिहौ उसे घटित अङ्क संख्या 
(जितने अक घट चुके हों उनकी संख्या) को १५ से गुणा कर गुणनफल मं 
जोड़ने से श्रह के भुजांश होति हैँ । १३ 

उदाहूरण--दक्षिणा क्रान्ति २९१५४२४ नियमानुसार अको को 
घटाया | 

२१।५.४।२४ 


० ० | ~< 9 | ^+ | 9 
| 


०।५.४।२४ शेष 


११४ ग्रहुलाधवे 


शेष को १५ गृणा किया गुणनफल १३।३६।२ को अभिम संख्या 
(जो नही घट सकी) २२ भागदेने पर रन्धि अक्ादि ६।४८।१ प्राप्त 
हुई । कान्तिमे४अक घटे हं अतः ४०८ १५६० इसमे टल्धि ६।४८।१ 
को जोड़ने से ६६।४८।१ हआ । इसे राश्यादि बनने से २।६।४८ १ 
भज हुजा । १३ 


दिनमानात्‌ स्थूलक्रान्तिसाधनम्‌ - 


दयुदरृतिथिवियोगस्तष्टिनाडचर्चरं स्थाद्‌ 
अथ निजगजभागोपेतमक्लप्रभाप्तम्‌ । 
विनङृदपमभागास्तत्त्वकिप्तायुताः स्यु- 
धयुदलकरशपुथुत्वे ते क्रमाध्याम्यसौम्याः ॥ १४ 


मल्छारिः -अथ रवेरज्ञाने दिनमानादेव क्रान्तिषाघनं स्थुलं स्वयुक्तिद्श- 
नामाह चुदरं दिनाधं तिथयः पञ्चदश तयोवियोगः षष््टिगुणश्चरपलानि स्युः । 
तच्चरः निजेन स्वीयेन गजभागेनाष्टाशेनोपेतं युक्तम्‌ 1 ततोऽक्षप्रभयाऽऽप्तं भक्तं तै 
दिनकृतः सूरयस्यापमस्य कन्तेर्मागाः स्युः । ते तत्तवकलाभिः पञ्चविशतिक्लाभि- 
युवता; कार्याः । चुदलस्य पञ्चदशघटिकाम्यो न्यूनाधिकत्वे क्रमादुयाम्यसौम्याः । 
कृत्वे यम्याः 1 अधिकत्वे सोम्या दत्य्थः ॥ 


अत्रोपपत्तिः । दिनार्धपञ्चदश्नान्तरं पटीकृतं चरपलानि स्युः । एवं चर 
खानि पञ्चभक्तानि घरज्येति युक्तिः पूवं प्रतिपादिताऽस्ति । ततस््रिज्यावृत्तं इय 
चरज्या तश द्ुज्यावत्ते का लन्धं कुज्या । अच चुज्या स्थूरत्वात्‌ साधद्रादकश्षाधि- 
कशतमिता धृता । एवं पलभाभूजे द्वादश्चकोटिस्तदा कुञ्याभुजे क्रा कोटिरिति 
जाता क्रान्तिज्या । तद्धनुः करणाथं द्वौ हरः स्थूलत्वादङ्गीकृतः । एवं चरपलानां 
जातो गुणघातो गुणः १३५० । हरघातो हरः १२०० । पलभा हरस्तु वत्त॑त 
एव । गुणहरौ खतिथिभिः १५० अपवत्तितौ गुणस्याने जाताः ९ । हरस्थानेऽष्टौ 
८ । यो रारिनंवभिर्गुण्यतेऽष्टभिर्भेज्यते स स्वाष्टांशयुक्त एव भवति 1 अत्त उक्त 
चरं निजगजभागोपेतमक्षप्रभाप्तमिति । सा स्थला क्रान्तिरतः पञ्चविरतिकला- 
युक्ता सती सूक्ष्मासन्ना दृष्टा । दक्षिणोत्तरोपपत्तिर्यथा । विनदलं ॒दक्षिणगोरे 
पड्चदशघटिकाम्यो न्थूनमस्स्यतः कृशे याम्या । उत्त रगोले दिनदलं पञ्चदशानि- 
कतः पुथुत्वे सौम्या इत्युपपन्तम्‌ ॥ १४ 


त्रिपषनाधिकारः ११५ 


चन्द्रिका--दिनमानके अद्धंभागका १५घदी के साथ अन्तर कर 
रोष का पल बनानेसे चरपल होताहै। चरपल में उसी का अष्टमांश 
जोडकर पल्मासेभाग देने पर रुन्धि अशादिमें २५ कला जोडनेसे 
सयं की क्रान्ति होती है । यदि दिनाधं २५ से अल्पहो तो दक्षिणा, अधिक 
हयो तो उत्तरा क्रान्ति होती दै) १४ 


उदाहरण --दिनाधं (प्वंसाधित) १३।१२ इसे १५ मे घटाया शेष 
१।४७ को पलात्मक बनाने से १०७ चरपल हुभा ¦ चरपल के अष्टमांश 
१३।२२।३० को चरपल १०७ मेँ जोड़ने से १२०।२२।३० हुभा । इसे एक 
जातीय बनाने स ४८३३२५० हुआ । इसमे पलभा ५।४५ के एक जातीय 
मान २०७००्से भाग देने प्रर रुन्धि २०।५६।५ अंशादि फल हुभा । 
इसकी कला मे २५ कला जोड़ने र २३।२१।५ अंशादि सूयं की क्रान्ति 
हुई । दिनाधं (१३।१३) १५ से अल्प है अतः दक्षिणा क्रान्ति हुई । यह भो 
स्थर क्रान्ति है । १४ 


अक्षांराज्ञानात्‌ नतांशोन्नतांशयोरायनम्‌- 
क्रान्त्यक्षजसंस्करृतिनंतांश्षास्तद्धीना नवतिः स्युरन्नतांशाः 
दिनमध्यभवास्ततोऽपि ये स्युः कान्त्यंशा लघुख^डकैः पराख्यः ॥ १५ 
मल्लारिः--अथ दिनार्षे नतांशोन्नतांश्नसाधनमाह । ग्रहस्य क्रान्तिः । 
भक्षांशाः स्वदेशीयाः । एतदतन्ना या संस्कृतिः सा नतांशाः स्युः । अत्रंकदिशो 
योगो भिन्नदिशोरन्तरमिति संस्कृतिः तैनतांशेहीना नवतिर्नतांशाः स्युः । पर तें 
दिनमध्यभवा नहीष्टकाले क्रान्त्यक्षसंस्कारो नतांश्ाः । ततैःऽपि तेभ्य उन्नतभागेभ्यो 
लधुखण्डकंः षडित्यादिभियें क्रान्त्यंशाः स्युस्तेषां पर दति संज्ञा । अत्र प्राख्याथं 
या क्रान्तियन्त्रमागानां च क्रान्तिः सा अयनांलान्‌ दत्वैव कार्या 1 
अस्योपपत्तिः--भ्रत्यक्षसिद्धास्ति = तथाप्युच्यते । विषुवद्वृत्तादक्षिणोत्तरतः 
परमक्रान्त्यंशेः क्रान्तिवृत्तं भवति । रवौ क्रान्तिवृत्तं भ्रमति सति दुरात्रवृत्त 
दक्षिणोत्तरवृत्ते दिनार्घे यत्र॒ कग्नं तस्मास्प्रदेशात्‌ खस्वस्तिकपरयन्तं नतांशाः । 
खस्वस्तिकत्तर्भागदिनाधें सूर्यो वततत एवेत्यथंः । दक्िणोत्तरवृद्चक्षितिजसंयोगा- 
दिनार्धं वैभगिरुन्नतस्ते उन्नतांशाः । स्वद्युरात्रवृत्यविषुबन्सण्डलमध्ये क्रान्त्यशाः । 
खस्वस्तिकात्‌ चु रात्रवुत्तपयंन्तं नतताशाः। दल्िणगोले क्रान्त्यक्षांशयोगे कृते सति 


११९६ ग्रहुकाघवे 


खस्वस्तिकात्‌ चुराघ्रवृत्तपर्यन्तं दक्षिणा नतांशाः । उत्तरगोले क्रान्त्यक्षयोरन्तरे 
कृते सति उत्तरा दक्षिणा वा नताशा: । यदोत्तरक्रान्तिरक्नांदोभ्यो च्यूना तदाक्ा- 
शेभ्य क्रान्तौ शोधितायां दक्षिणतो दयुरात्रवृचं नं स्यात्‌ तदा दक्षिणा नतांशाः । 
यदाधिकास्तदा क्रान्त्यज्ञेभ्योऽक्ताशेषु शलोधितेषु खस्वस्तिकादुत्तरतो दूरात्रवुत्तं नतं 
स्यात्‌ । तदोत्तरा नतांशाः स्युः । अत उक्तं क्रान्त्यक्षजसंस्कृतिरिति । अत्रोन्न- 
तांशजीवाया उषपयोगोऽस्तीष्टकणंसाघनारथम्‌ । अतोऽत्राचायेंण त्रिज्या चतुविशत्ति- 
मित्ता धृता । ततः पञ्चदशभागानां खण्डान्युत्पादितानि तानि तु क्रान्तिः 
क्रान्ते्लघुखण्डान्येव । अत उन्नतां्ानां क्रान्तिः कार्येत्युक्तम्‌ । तस्याः परसंज्ञा 
कृता ॥ १५ 

चच्विका- क्रान्ति भौर भक्षश का संस्कार (यदिदोनोएकदही दिक्षा 
केहीतोयोग भिन्नद्शाकेहौ तो अन्तर) करने से मध्यान्ह्‌ कालिक 
नतांश होताहै। नतांशको ९० मे घटने से उन्नतांश होता है। इससे 
(उन्नतांश से) रघु खण्डां द्वारा साधित कृान्द्यंश पर संज्ञके होता है । १५ 

उदाहरण--दक्षिणा क्रान्ति २१।४९।२६ अक्षांशाः (वाराणसी) २५।२६। 
४२ दक्षिण । क्रान्ति ओर अक्षांश एकही दिशाके है अतः दोनो का योग 
४७।१६।८ मध्याह्ुकालिक नतांश हुआ इसे ९० मे घटाने से ४२।४३।५२ 

उन्नतांश हुआ । इसे भजमानकर षडषडिषूदधि इत्यादि नियमानुसार १५ से 

भागि दिया, छुन्धि २ तुल्य खण्डो का योग १२ हुमा \ अग्रिम भद्धुः५ सेशेष 
१२।४३।५२ को गुणाकर गुणनफल ६३।३९।२० में पुनः १५ का भागदेने से 
रन्धि ४।१४।२७ प्राप्त हुई । इसे अङ्को के योग १२ में जोड़ने से १६।३४। 
२७ पर हुआ । १५ 
इष्टोन्नतांरोन कणंसाघनम्‌ - 

नवतिगुणितमिष्टमुन्नतं चुदलहूतं फलभागतोऽपमः \ 

कथितपरगरुणस्तदूद्ता रविनवषट्‌ भवणोऽथवा भवेत्‌ ॥ १६ 

मल्लारिः --अथान्यथा लाघवेनेष्टकणं साधयति । दृष्टमुन्नतं घरिकाद्य नव- 
तिगुणितं द्युदलेन हूतं फलं यद्भागाद्य' ततोऽपमः क्रान्तिः । सोऽपमः कथितेन 
पराख्येन गुण्यस्ततस्तेन रविनवषट्‌ उद्धता भक्ता अथवा प्रकारान्तरेण श्रवेण 
ईइष्टकर्णो भवतीत्यर्थः ॥ 


त्रिप्रह्नाधिकारः ११७ 


सच्रोपपत्तिः --उन्नतघटिकानां भागकरणा्मनुपातः । यदि दूदलघटीभि- 
नवत्यंशास्तदेष्टोन्नतघटीभिः किमिति । जाता भागास्तेषां ज्या कार्या । अतोऽप- 
मज्या कृतेति । अत्र ज्या क्रान्तितुल्येव धृतास्ति । ततोऽभ्योऽनुपात्तः । यदि पर- 
संजोन्नतांश्ज्याकोटौ त्रिज्या २४ कर्णस्तदा दादशकोरौ कः कर्णं एवं दादरसि- 
घातो भाज्यः २८८ पराख्यो हारः । एवं जातो दिनार्धकर्णः । अन्योऽप्यनु- 
पातः । यदि त्रिञ्यातुल्यया उन्नतघटीज्यया २४ । भयं दिनार्धंकर्णस्तदेष्टोन्नत- 
घटीज्यया किमिति एवं छन्धमिष्टकर्णः । अत्र व्यस्तत्रं राशिकं यतः सव॑दा दिना- 
धकर्णादिष्टकणेनाधिकेनैव भवितम्यम्‌ । अतक्चतुविशतिर्गणः । एवं भाज्याङ्क 
चतुविशतिगुणे जातः सिद्धो माज्याङ्कु ६९१२ । नस्य हरः पराख्य उन्नतघटी- 
जातोऽपमइ्च । अतोऽपमः परगुणः । तदुद्धृता रविनवषडित्युपपन्नम्‌ ॥ १६ 


चन्द्रिका - इष्ट उन्नतकालकोर्ण्से गुणा कर दिनमानके आधेसे 
भागदेनेपर नजो लन्धि अंशादि प्राप्त हो उसमे ल्घु खण्डो द्वारा क्रान्ति 


साधन कर उते पूर्वोक्त परसे गुणा कर गृणनफलसे ६९१२ को भागदेने 
से इष्टकणं होता है । १६ 


उदाहुरण--इष्ट उन्नत घटी ८।४० को ९० से गुणा कर दिनमान के 
आधे १३।१२ से ग्‌ णनफर ७२० में एकजातीय करके भाग देने से कन्ध 
५९।०।५९ प्राप्त हुई । इससे च्यु खण्डों द्वारा साधित क्रान्ति 
२०।४४।१५ । इसे पूर्वोक्त पर १६।१४।३७ से ग्‌.णा करर ग्‌.णनफल 
३३९।५१।६ से ६९१२ को एकजातीय कर भगदेनेसे रन्धि २०।३१।९ 
इष्टकणं हुभा । १६ 


कर्णादुन्नतघटिकासाघनम्‌ - 


तरणिनवरसाः श्रवोदताः परविहूता अपमो भवेत्ततः । 
शिनिदलगुणिता भजांशका नवतिहूता अथवेष्टमुन्नतम्‌ ॥ १७ 


मल्छारिः अथ व्यस्तविधिनेष्टकर्णादुन्नतवरिकाज्ञानमाह्‌ । तरणिनवरसाः 
श्रवसा शष्टकर्णेन हृता । ततस्ते परेणापि हृता लन्धमपमः क्रान्ति्वेत्‌ । तत- 
स्ततो दलानि शोधयेदित्यादिना ये भुजांशास्ते दिनदलेन गुणिता नवत्िहूताः । 
अथवा इष्टमुक्नतमिष्टोन्नतत्ररिकाः स्युरित्यर्थः । भत्र विलोमविधिरेव वासना ॥१७ 


११८ ग्रहुलाधवे 


चन्द्रिका--६९१२ मे कणं का भागदेकर रुष्धिमे पूनः परकाभाग 
देने से इष्टक्रान्ति होती दहै। क्रान्ति द्वारा भुजांश साधन कर उसे दिनधं 
से गुणा कर ९० का भाग देने से रन्धि इष्ट उन्नतका होता है । १७ 


उदाहरण -इष्टकर्णं २०।३१ को सजातीय कर ६९१२ में भाग देने 
से रन्धि ३३९६।५३।४८ मे पुनः पर १६।१४।३७ से एक जातीय बनाकर 
भाग देने से रन्धि २०।४४।२५ क्रान्ति हई । इस क्रान्ति द्वारा “ततो 
दलानि शोधयेत्‌" इत्यादि रीति स ५९।१।३४ भुजांक्ञ साधित क्रिया, 
भुजांश को दिनाधं १२।१२३से गुणा कर गुणनफल ७८०।७।४२ मे ९० का 
भाग देने से छन्धि ८।४० उन्नतघटी सिद्ध हृई । १७ 


यन््रोत्योन्नतांज्ञेभ्य उन्नतकालक्ञानम्‌- 


भभिमतयन्त्रल्वास्ततोऽपमोऽसौ 
जिननिष्नः परहुत्ततो भजांश्ाः । 
दयुदलघ्नाः खनवोदधूताः कपाले 
प्राक्पदचादघटिकाः क्रमाद्गतेंष्याः ॥ १८ 


मल्छारिः -- अथ यन्यरवेधितोन्नतभागेभ्यः कालज्ञानं कथयति । अभिमता टा 
ये यन्त्रभागाः स्युः । ततो योऽपमोऽसौ चतुविक्चति गुणः । ततः परेण हृत्‌ यल्लवादयं 
फलं तस्माद्य भुजभागास्ते दचुदलगुणाः लनवभिनंवत्या उद्ृता भक्ताः फलं 
प्राक्‌कपाले गताः पर्चिम एष्या दिनशोषा घटिकाः स्युरित्यर्थः ॥ १८ 


भत्रोपपत्तिः- भत्र यन्तरांशानामपमः पराख्यग्यासार्घन्तिस्थितोऽस्ति धनुः 
करणार्थं त्रिज्याग्यासाधंस्थानीयः कायः अतोऽनुपातः। यदि पराष्ये ग्यासार्धेऽयं 
यन्त्रांशापमस्तदा चतुत्रिश्षतिमितग्यासार्घे कः , भतो जिननिध्नः परहृदिति । ततो 
भनुः करणार्थं भुजांश्चा इति । घटिज्ञानार्थमनुपातः । यदि नवतिभागैर्युदलतुल्या 
धटिकास्तदेभिर्भागः किमिति । अतो यूदल्घ्नाः खनवोद्धृता इति । यद्वा परपर्याय 
दिनाघंशंकुना जिनतुस्योन्नतचटीज्या कम्यते तदेष्टयन्धापमममेष्टशंकुना क्रिमिति 
दुष्टोननतनाडोजन्यभागज्या भवति तच्चापपिष्टोन्नतनाडीजन्यभागाः । ततो धरी- 
जानं तु चयुदछानुपातेनेति सवंमवदातम्‌ ॥ १८ 


त्रिश्रश्नाधिकारः ११९ 


चन्द्रिका-अभीष्ट (तुरीयादि) यन्त्र द्वारा प्राप्त इष्ट उन्नतांश पर से 
क्रान्ति छाकरउसे र्थसेगुणा करपरसेभाग देनेसेजो कन्ध प्राप्त 
हो उससे घु खण्डां द्वारा भुजांश साधितकर उसे दिनाधं से गुणाकर ९० 


से भाग देने पर पूवंकपाल में दिनगत तथा पश्चिम कपाल मे दिनशेष 
उन्नत धटी होती है। १८ 


उदाहुरण--पत्तर द्वारा प्राप्त उन्नतांश ३६।६।४५ । इससे उन्नतकाल 
का ज्ञान अभीष्ट है । अतः नियमानुसार यन्वोत्थ उन्नतांश ३६।६।४५ 
हारा ख्घुरीति से क्रान्ति साधित किया) क्रान्ति १४।२।१५ को २४्से 
गुणा किया गुणन रल ३३६।५४ में पूर्वोक्त पर १६।१५।३७ को एकजातीप 
बनाकर भाग देने से लन्धि २०।४४।२५ इसे क्रान्ति मानकर इससे ल्घु 
खण्डो दवारा मृजांश ५९।१।३४ साधन किया । भुजस्ि को दिनार्ध १२।१३ 
से गुणा कर गुणनफल ७८०।७।४२ को ९० से भाग दिया । छन्धि ८।४०५।८ 
(स्वत्पान्तरतः ८।४०) पवेकपाल मे उन्नत घटी हुई । १८ 


नततवटिकातो यन्त्राश्चानयनम्‌-- 


लाङ्घ्नोन्नतघटिका दिनाधंभक्ता 

भागाः स्थुस्तदपमजांशकाः परघ्ना । 
सिद्धाप्ता निगदितवत्ततो भुजांशा- 

स्तत्काले स्युरिति च यन्त्रजोन्नताशाः ॥ १९ 


मल्छारिः - जथोन्नतघटीभ्यो विलोमेन यन्धभागान्‌ कथयत्ति । खाद्खुन- 
वत्या हन्यन्ते गुण्यन्ते एवंमूता या उन्नतर्घिकास्ता दिनार्धेन भक्ताः सत्यो भागाः 
स्युस्तेभ्यो भागेभ्यो येऽपमजांशकाः क्रान्त्याः स्युस्ते परेण गुण्याः । ततः 
सिद्धेदचतुविशव्या आप्ता भक्ता रन्धं यत्‌ ततो निगदितवद्यं भुजांशाः स्युस्ते 
तस्मिन्‌ काले यन्त्रजा उन्नता अंशा भागाः स्युरित्यथः ॥ 

अच्रोपपत्तिः ' पूर्वोक्तवेपरीत्येन सुगमा ॥ १९ 


चन्द्रिका - इष्ट उन्नत घटीको ष््से गुणा कर दिनाधं से भाग 
देने पर जो अंशादि रन्धि प्राप्त हो उससे रघुखंडं द्वारा क्रान्ति साधन 


१२० ग्रहुलाधवे 


कर उसे परसे गुणा कर गुणनफट कोर४्से भागदेकर रन्धि द्वारा 
( पर्वोक्तिरीति से) साधित भुजांश इष्टकालिक यन्त्रोत्थ उन्नतांड 


होता है ॥ १९ 

उदाहरण-उन्नत घटी सावयवं ८।४०५।८ इसके हारा यत्त्रोत्थ उन्न- 
तारा जानना अभीष्ट है । अतः श्लोकोक्त विधि स उन्नतघटी ८।४०५।८ 
कोर्०सेगणा किया म्‌ गनफल ७८०।७।४२ में दिनाधं १३।१३ का भाग 
दिया । लब्धि ५९।१।३४ को भुजांश मानकर रचुखंडों द्वारा (लोक १२) 
क्रान्ति २०।४४।२५ साधित किया । इस क्रान्ति को पर १६।१८।३७ से 
गणाकर ग्‌.णनफ ३३६।५४मे र॑काभाग देने से छुन्धि १४।२।१५ 
दवारा पर्वेक्ति विधि (श्लो. १३) से साधित भुजांश ३६।६।४५ इष्टकाल 
यन्त्रोत्थ उन्नतांश हूभा ॥ १९ ॥ 


यन्त्राशतः कर्णस्य कणतक््च यन्वांशानामानयनम्‌ -- 
यन्त्रलवोत्थक्रान्तिलवाप्ता 
वस्विभदस्राः स्यादिह कर्णं: 
कर्णहतास्ते स्था दपमोऽतो 
बाहुलवाः स्युयेन्त्ररुवा घा ।! २० 
मल्कारिः- अथ यन्तराशेभ्य दइष्टकर्णसाघनर्मिष्टकर्णायन्व्रंशसाधनमेकवुते- 
नाह । यन्ध्रलवेभ्य उत्था उत्पन्ना ये क्रान्तिभागस्सैराप्ता भक्ता वास्विभदस्रा 
दरैष्टकणंः स्यात्‌ । 
भत्रोपपत्तिः । परमक्रान्तिभागाः २४ । परमाल्पेन दादक्शतुल्येनेष्टकणेन गुणिता 
जातो भाज्यः २८८ । स भाज्य: परमक्रान्त्या यावद्‌भज्यते तावत्परमा्पेष्टकर्णो 
भवति । एवमिष्टयन्त्रभागक्रान्त्या भाज्यमान इष्टकर्णो भवव्येवेति ॥ 
अथ कर्णेन हृता वस्विभदस्रा अपमः कान्तिः स्यात्‌ । अतोऽस्याः क्रात- 
बाहुमागास्ते वा प्रकारान्तरेण यन्त्रभागाः स्युरिव्यर्थः 1 अत्र व्यस्तविधिरेव 
वासना ।। ९० 
चन्द्रिका--यत्रोत्य उन्नतांश से (लोक १२ फे अनुस।र) क्रान्ति 
साधन केर उससे २८८ मे भाग देने से रन्धि (अङ्लादि) कणं होता है 1 


त्रिप्रदनाधिकारः १२१ 


(कणं से यन्त्रोव्थ उन्नतां ज्ञानक किए) कणं से २८८ मे भाग देने 
से लब्धि क्रान्तिहोतीहै। क्रान्ति द्वारा (इलोक १३ के अनुसार) भुजांश 
साधन करने पे भृजां्ष ही उन्नतांश होता है ॥ २० 

उदाहरण-- यन्त्र द्वारा प्राप्त उन्नतां ३६।६।४५ इससे कणं ज्ञान 
करना ह । अतः इसे भुजांश मानकर ल्घुखण्ड द्वारा क्रान्ति १५।२.१५ 
साधित किया। क्रान्तिको एक राक्ष ५०५३५ बनाकर इनक्ते २८८ के 
सजातीयमान १०३६८०० मे भागदेने से कन्धि २०।३०।५९ अङ्भुलादि 
कणं हज । 

इसके विपरीत कणेज्ञात होने पर यन्त्ोन्नतांश्च ज्ञानं हतु कणं 
२०।३०।५९ को एक जातीय ७३८५९ बनाकर २८८ के एकं जातीय 
१०३६८०० मेँ भाग देने से रुन्धि १५।२।१५ क्रान्ति हुई । इससे श्लोक 
१३ कै अनुसार भुजांश ३६।६।४५ साधित किया } यही भुजांश्च यन्त्रोत्य 
उन्नतांश हु ॥ २० 


दिक साधनम्‌-- 


वत्ते घमभृगते तु केन्द्रस्थित- 

रङ्नोः क्रमशो विशत्यपेति । 

छायाग्रमिहापरा च पूर्वा ताभ्या 

सिद्धतिमेरुदक्‌ च याम्या ॥ २१ 

मत्लारिः- अथ सर्वत्र नलिकाबन्धादिकृषण्डमण्डपादिविघौ च दिक्साधनो- 

पयोगोऽस्त्यतो दिक्साधनं कथयति । जलवत्समीकृतायां भूमौ वृसतेऽभीष्टककटेन कृते 
सति केन्द्रस्थितस्य वृत्तमष्यस्थस्य शङ्कोरद्रद्शांगुलस्थ छायाग्रं क्रमशो विक्षत्ति 
इहापरा पर्चिभदिक्‌ । यत्रोपैति दिनशेषकाठे वृत्ता्यत्र बहि गंच्छति तत्र चिन्हे 
पूर्वा दिक्‌ । ताम्यां परश्चिमपूवदिर्भ्यां सिद्धो यस्तिमिर्मत्स्यस्तस्मानमेत्स्यमुख- 
पुच्छसूत्रादुदगुत्तरा याम्या दक्षिणा स्यात्‌। एवं यदिन त्रिंशन्मितमेव दिनमानं 
तिवस एवामुना प्रकारेण दिक्साधनमन्यथा तु मुजं विना दिक्साधनं न भवति । 


अत्रोपपत्तिः-- भत्र दिक्ञस्तु प्रतिदेशं भिन्नान तु प्रतिकालम्‌ । तासां भिन्नत्वे 
हैतुष्च्यते । यस्मिन्‌ स्थाने पूर्योऽस्ति तदुजुमार्मो हि पूर्वापरा । तत्साधनोपायो 
यथा । मध्यसूत्रोदयास्तसूत्रयोयंदन्तरं ज्यारूपं साऽग्रा ततोऽग्रतः शंकुमूलपर्यन्तं 


१२२ प्रहुछाधवे 

यदन्तरं तत्‌ शंकुतलम्‌ । एवमग्राश्चकूतल्योर्योगान्तरं भुजः । स भुजो मध्यसूत्राद्य- 
धादिशि देयः सा वै 1 याम्योत्तरा दिक्‌ । तस्मात्‌ मत्स्याद्ुर्वापरेति। अत्र 
नाडिकामण्डलस्थो ग्रहो यदहिने भवति तहिवस एवे दिक्साधनं युक्तमस्ति । यतोऽत्र 
नाडिकामण्डलस्थे ग्रहे चरज्याक्रान्तिज्याग्राणामभावः अग्राऽभावात्‌ शकूतलतुल्य 
एव भुजः स मघ्यपूत्राहेय इत्यत्र यत्र दछायाप्रवेशनि ग॑मस्थानं तत्र॑व भवति यतो हि 
लघुक्षेत्रे शकूतलं पलमातुल्यम्‌ । तद्यथा । द्वादशक्रोटौ परभा भुजस्तदा शंकुकोटी 
कं इति जातं शकुतल तन्महाश्कुस्थानीयम्‌ । लधुनि छायाक्षे्रे ादज्ञतुल्यैव कोटिः । 
तत्रस्यकरणायानुपातः । महाशंकूकोटाविदं शंकूतलं तदा द्वादशकोटौ किमिति । 
एवं शंकुतुल्ययोद्रदशतल्ययोर्गृणहरयोर्नाडोे जाता परमेव । भतश्छायाप्रवेरानिगंम- 
स्थाने पूर्वापरे तन्मत्स्याद्‌क्षिणोत्तरे इति श्ोभनमुक्तम्‌ ।। २१ 


चन्द्रिका समतल भूमि परबने हुये वृत्त मे केन्द्रभाग मे स्थित 
शंक को छाया (सूर्योदय काल में) जहाँ भ्रवेश करे तथा (अष्तकालमे) 
जहां से निकरे (अर्थात्‌ स्पशं करे) उन दोनों अिन्दुभो मे जाने वाली रेखा 
पूर्वापर होती है। (अर्थात्‌ छाया का प्रवेश विन्दु परिचम तथा निर्गमन 
बिन्दु पृवं दिशामेंहोताहै।) इन दोनों बिन्दूभो पर चापोंँह्याराबने हए 
मत्स्य के मुख पृच्छ को मिलने वाली रेखा दक्षिणोत्तर रेखा होग । 


(अर्थात्‌ पर्वापर रेखा के मध्यविन्दु पर किया भा लम्ब दक्षिण ओर 
उत्तर दिशा का द्योतकं होताहै।) २१ 


भुजं संसाध्य दिक्‌साधनम्‌- 


वाकक्रान्तिखवाक्षकणंनिहतिर्भाक्णंनिघ्नी नभी 
ऽक्षारन्याप्ता रविदिग्भुजो यमदिल्ाद्विध्नाक्षभासस्कृतः । 
केन्द्रं भोत्थवृतौ स पृणंगुणवदुभाग्रात्‌ प्रदेयो भवेद्‌ 
याम्थोद्क स भृजाधंकेन््रनिहता रज्जुस्तु पूर्वापरा ॥ २२ 


मल्लारिः--अथ नाडिकामण्डलादन्यच्र यस्मिन्‌ कंस्मिर्दिचटिवपे दिक्‌ साधनां 
भुजमानयति । वा शब्दः प्रकारान्तरसूची । अकस्य ये क्रान्तिलवास्तेषामक्षकर्णंस्य 
च या निहत्तिः परस्परगुणनं सा भाकणंन छाप्राकर्णेन कणः स्याददमकभाकृतियु- 
तेरिति साधितेन निघ्नी गुणिता ततो नमोऽक्नाग्निभिः २३५० पञ्चाशदधिकशतत्रयेण 
भाप्ता भक्ता सती रविदिक्‌ सूर्यो यस्मिन्‌ गोले वत्तते तदिग्भुजः स्यात्‌ । स भुजो 
मध्यमो यमदि्ञया दक्षिणदिश्या द्विघ्नया द्विगुणयाक्षमया संस्कृतः सन्‌ स्फुटो 


व्रिप्रह्नाधिकारः १२३ 


भवति 1 स भुजः केन्द्रे भोत्थवृतौ छायोत्पादितवृत्ते भाग्रात्‌ छायाग्रात्‌ प्रवेशकारीनाद्‌ 
वा नि्गंमकाटीनात्‌ पूर्णगुणवत्‌ यथाशं पूर्णज्या दौयते तद्हेयः । भाग्राहीयमान- 
भुजमितकश्लाकाया अग्रं यथा वृत्तपरिधौ छगति तथा देयमित्यथंः । सा याम्योत्तरा 
भवति मुजा्धं मुजमध्यः । केन्द्रं वृत्तमध्यम्‌ । अनयोनध्ये मिक्ता या रज्जुः सा 
पर्वापिरा । 


अश्रोपपत्तिः-- भत्र भुजलक्षणं तु पूवमेव प्रतिपादितं तत्साधनं यथा। तक्रा- 


दावग्रा साध्यते । कुज्या भुजः । क्रान्तिज्या कोटिः । अग्रा कर्णं इति भक्ष्षेरं 
तथा च पलभा भुजः । द्रदिश्षकोटिः । पलकणंः कणं इत्ति अस्मात्साध्यते । 


तत्रानुपातः--यदि ादशकोटौ पलकर्णः कर्णस्तदा क्रान्तिज्या कोटौ कः कर्णं 
दति अभ्रा स्यात्‌ । क्रान्तिः । किञ्न्विदधिकेन द्वयेन गुणिता क्रान्तिज्या सा 
पलकर्णगुणा दादशभक्ता अग्रा सा त्रिज्यान्यापाधं ततोऽनुपातः । यदि त्रज्यावृत्ते 
इयमग्रा तदा छायाक्णवृत्ते का । अतश्छायाकर्णो गुणः । त्रिज्या हूरः। तत 
यमग्र द्विगुणा कार्या । यतः सम्पू्णंजीवावत्‌ वृत्तमध्ये भुजो देयोऽस्ति। एवं 
क्रान्तिः पशकर्णगुणा कार्या ततः सिद्धो गुणद्वयघातो गुणः ४।४ । हूर: १४४०। 
गुणहरौ गुणेनापवत्तितौ लन्वा हरस्थाने ३५० । अत॒ उक्तमकक्रान्तिलवाक्षकर्णं 
निहतिरिति । साग्रा शरुतेन संस्कार्या । तत्र लघुक्षत्रे शंकुतलं पलभातुल्यं तदग्रायां 
संस्कार्यम्‌ । अग्राया द्विगुणितत्वादिदमपि द्विगुण कार्यम्‌ । अत उक्तं यमदिदाद्िष्ना- 
क्षभासंस्ृत इति । स भुजो भाग्रादृत्तौ याम्योदक्‌ स्यात्‌ । भुजस्य द्विगुणल्वाद्‌ 
मुजमध्यकेन्द्रोपरिनीयमानो रज्जुः पूर्वापरेत्य्थत एव सिद्धम्‌ ॥२२॥ 


चन्द्रिका -(पुर्वक्ति रीति से) अथवा स॒यं की क्रान्ति को भअक्षकणं से 
गुणा कर गुणनफल में छायाकणेका गणा करने से जो गृणनफल हो 
उसमें ३५० काभागदेने से ठकन्धि सूयं की दिशा (सयं जिख गोल मेहो) 
क भुज होता है । पभा की दक्षिण दिशा होने के कारणं द्विगुणित परभा 
का भुज मे संस्कार (एकं दिक्च में योग भिन्न दिशा मे अन्तर) करने से 
स्पष्ट भुज होता है। इस भुज को छाया से उत्पन्न वृत्तं के मध्यस्य शं 
की छायाग्र विन्दु से पणज्याके रूपमे रखने से दक्षिणोत्तर रेखा बनती 
है तथा भुज के मध्य विन्दु से केन्द्रमे जाने वाटी रज्जु (रेखा) पूर्वापर 
होती है । २२ 


१२४ ग्रहुख।धवे 


उदाहरण-- स्पष्टसूयं ७।१२।३५।३१ दिग. ज्ञान हितु भुजसाधन करसा 
है । अतः पूर्वोक्त विधि से ७।१२।३५।३१ का भुज १।१२।३५।३१। 
इसके अंशादि ४२।३५।३१ द्वारा क्रान्ति १९।११।५० हुई । इसे परकणं 
१३।१९ से गुणा किया । गुणनफर २१५।४१।३४ मे पूनः छायाकणं २०।२५ 
का गुणा किया! गुणनफर ४३३२।३२।३९ में ३५० का भागदेने से रन्धि 
१२।२२।३८ भुज हुआ । सयं वृश्चिक राशि का होने से दक्षिण गोका 
है अतः द्विगुणित पलभा (५।४५ १९२) = ११।३० मे भुज को जोड़ने सष 
२३२३।५२।३८ स्पष्ट भुज हज । 


यन्त्द्वारा दिक््ताघनाथं दिगंशानयनम्‌-- 


दुमानखगरुणान्तरं क्षिवगरुणं दिनेऽत्पेऽधिके- 
ह्यपागरुदगथानुदक्‌ भवति यत्त्र भागापमः । 
वसुधघृन्युभयसंस्कृतिर्नवति यन्त्रभागान्तरोव्‌ 
भवापमहूता ततो भुजलवा दिगंशाः स्मृताः ॥ २३ 


मल्छारिः-- अय तुरीययन््रात्‌ दिक्‌साघना्थं दिगंशान्‌ साघयति । दमानं 
प्रसिद्धम्‌ । खगुणाः त्रिश्षत्‌ । अनयोयंदन्तरं तत्‌ शिवगुणमेकादशगुणित तत्‌ 
दिते अल्पाघिके अपाक्‌ उदक्‌ स्यात्‌ । धिशदल्पे दिनमाने दक्षिणमधिके सति 
उत्तरं फलं स्यात्‌ । अथ श्ब्दोऽनन्तरवाची । यन्त्रभागानामपभः क्रान्ति सदा 
अनुदक्‌ दक्षिणेति । उभयो्योः संस्कृतिः वसुध्नी अष्टगुणा सती ततो नवति- 
यन्त्रमागानां च यदन्तरं तदृ्धवस्तस्मादुत्पन्नो योऽपमः । तेन सा हृता । ततः 
फलाद्यं भुजलवास्ते दिशामदा दिक्‌शाधनार्थमेषेशाः स्युरित्यर्थः । एते दिगंशा 
यन्प्रोत्पन्ना एवेति । 


अश्रोपपत्तिः--भघ्र स्वक्षितिजे चक्रांला अद्धुयाः। ततः पूवंस्वस्तिकेष्टदिग्‌ 
विवरे ये भागास्ते दिगंशास्तज्ञ्या दिष्ञ्या । एवं पदिचमस्वस्तिकेऽपि । तत्साधनं 
यथा-बग्राकणवत्तीया कार्यां सा पलभया संस्कार्या स भुजः स्यात्‌ । ततःस 
त्रिज्यावृत्तीयः कार्यः सा दिग्ज्या भवति । तत्रादावग्रा साध्यते । द्युमानखगुणा- 
न्तर दङ्ितं चरघटिक्ाः ततः षष्टिगुणाः पलानि । ततस्तच्चरं नवगुणं पलभा- 
भक्तमष्टभवतं क्रान्त्यंशा इति युक्तिः पूर्वमुक्तास्ति। एवं दुमानखगुणान्तरस्य- 
सिद्धो गुणघातो गुणः २७० । अष्टौ पलभा च हरः। स क्रान्तिश्छायाकर्णगुणा 


ग्रहराघवे १ २५ 


खखाद्विभक्ता मुजो भवति इत्यग्रे वक्ष्यति । स मुजस्तरिज्यया गुण्यश्छायया 
भक्तो दिर्ज्या भवति । एवमत्र छयाकणंपलक्र्णावपि गुणौ खखाद्रीनामष्टानां- 
च धातो हरः ५६०० । चतुविशतिमितच्रिज्या गुणघातगुभा जातो गुणः 
६४८० । अत्र छायाकर्णच्छाये साध्ये 1 यदि शंकूकोटौ त्रिज्याकर्णस्तदा द्वादक्- 
कोटौ कः केणं इति । तथा च दुग्ज्या भुजो यदि शंकुकोटौ तदा द्रादशकोटौ क 
इति जाता छाया । एवमत्र छायया भाज्यमाने छायाकर्णेन गुण्यमाने छेदांशवि- 


पयसि शंकुतुल्ययोस्तथा द्वादश्तुल्योर्गणहरयोर्नाशि कृते पुवं त्रिज्या गुणो नतां- 
शज्या हरः । अत्र पलकर्णो गुणः पल्मा हरोऽस्ति ! अत्र पलभा चतुरता 
कल्पिता स्वत्पान्तरत्वात्‌ व्रिषञ्चपलमयोरपि स्यात्‌ । अन्यत्र ग्रन्थसञ्चारासंभवः । 


लाघवेन युक्तिदशनार्थं स्थूलमङद्धीकृतमतो न दोषाय । एवं चतु्मिततायां पलभार्यां 
पलकर्णः १३।३९। अयं परभया सषडंशत्रय ३।१० गुणितया तुल्या भवति । 
ततः पलक्णपलभयोर्गुणहरयोर्नशि तस्य॒ सषडशात्रयं गुणः ३।१० एवं सषडंश- 
व्रयचतुविशतिमितत्रिज्याघातेन ७६ गुणितः पूर्वगुणघातो गुणः ४९२४८० । 
अयं हरः ५६०० । गुणहरौ हरेणापवच्यं जातो गणः ८८ 1 अतोऽत्र चुमानख- 
गुणान्तरं गुणेनानेन गुण्यं नरताक्ञापमेन भाज्यम्‌ । एवमत्र चुमानखगुणान्तर 
शिवगुणितं कृतम्‌ । अष्टगुणस्य त्यागो यतोऽन्तिमफलस्य शंकुतलाख्यस्य च अष्टो 
गुणोऽस्ति नतांशापम एव हरः । अतः फलसंस्कार एवाष्टगुणो नताश्षापमभक्त 
इति वदिष्यति । तद्यथा । अत्तिास्यामग्रायां शंकुतलमपि त्रिज्यागुणितं छायया 
भक्तं संस्कार्यं दिग्ज्या स्यात्‌ । तत्र शंकूतलं पलभा ४ छायया भाज्यमिव्यत्रापि 
छाया साध्या । शंकुकोरौ दृग्ज्या भुजो द्वादक्षकोरौ क इति जाता छाया । अनया 
माज्यमाने छेदांशविपयसि दृग्ज्या दादश च हरः) शकरः परमा चतुविक्षतिमित- 
त्रिज्या च गुणः । भत्तो गुणघातो गुणः ९६। गुणहरयोर्गुणेनापवत्तितियोजति- 
गुणः ८ । नतांशापमो हरः । इदं फलं सदा दक्षिणम्‌ । पलक्माया दक्षिणत्वात्‌ । 
मतोऽत्र यन्तरांडापम एव चुमानेखमुणन्तरेण संद्कृतो यतस्तस्यापित्तौ गुणहरौ 
वतते अत फलसंस्कृतिरेवाष्टभिर्गुण्या नजांशापमेन भ ग्येत्युपपन्नं यन्त्रांशष्टीन- 
नवत्यंशापम एव नतांशापम इति प्रत्यक्षं सिद्धम्‌ । अत्र पूवंफलस्याग्रासज्ञस्योत्तर- 
दक्षिणोपपत्तिर्यथा । दक्षिणगोकेऽग्रा दक्षिणा तत्र दिनं त्रिक्शदल्पम्‌ । तथोत्तर- 
गोले उत्तराग्रा तत्र दिनं त्रिश्चदधिकंम्‌ । अतो दिनेऽल्पाधिके सपागुद गित्युषपन्नम्‌ । 
एवमश्रोत्पन्ना दिग्ज्या तस्या धनुद्धिगंशाः स्युरतो हि ततो भुजलवा दिगा 
दत्युक्तम्‌ ।॥ २३ 


१२६ त्रिपर्नाधिकारः 


चन्द्रिका -दिनमान भौर ३० के अन्तरको ११सेगुणा करनेसेजो 
गृणनफर हो, उसको ३० से अल्प दिनमान होने पर दक्षिण तथा अधिक 
होने पर उत्तर दिशा होती है । यन्त्रोत्थ उन्नतां से क्रान्ति साधन करन 
र (सदेव) दक्षिणा क्रान्ति होती है। इन दोनों (गुणनफल ओौर क्रान्ति) 
का संस्कार (एके दला मे योग भिन्न दिला मे अन्तर) करकं आठ से 
गुणा कर गृणनफल मे, ९० ओर यन्त्रोत्थ उन्नतांश के अन्तर से साधितं 
क्रान्ति द्वारा भागदैनेपरजो न्धि हौ उसका भुजांश बनाने से दिग 
होता है ।। २३ 


उदाहुरण-दिनमान २६।२६ को ३०्मे घटाया शेष ३।३४ को ११ 
से गृणा करिया। गुणनफल ३९।१४ की दक्षिण दिशा हुई क्योकि दिनमान 
२० स अल्प है। यन्त्रोन्नतांश ३६।६।४५ को भुजां मानकर १२बें श्लोक 
के आधार पर क्रान्ति १४।२।१५ खाया । जो दक्षिण क्रान्ति हुई । गृणन- 
फल ३९।१४ तथा क्रान्ति १४।२।१५ दोनों की एक ही दिक्ञा होने से दोनों 
का योग किया तौ ५३।१६।१५ हुमा) इसे ८ सगुणा किया गृणनफल 
४२६।१० मे ° ओर ३६।६।४५ यन्तोन्नतांश् के अन्तर ५३।५३।१५ से 
साधित क्रान्ति १९।२२।१२ को सजातीय केरके भाग देने से छन्धि २२।०।५ 
प्राप्त हई इससे इोके १३ के अनुसार साधित भुजांश ६७।३०।३० हूभा 
यही दिगंश्ञ होगा ॥२३ 


दिगशन्ञानात्‌ तुरीययन्त्राद्‌ दिगृज्ञानम्‌- 


समभुविनिहिते तुरीययन्त्र 

स्पृश्षति थथा च दिगंशकाग्रकेन्द्रे। 
अवलम्ब विभोत केन्द्रसंस्थे- 

षोकाभाऽय दिक्लोऽत्र यन्त्रगाः स्थुः ॥ २४ 


मल्लारिः -अथ तेदिगंदोर्यन्त्रात्‌ कथं दिक्‌ साधनं भवति तदाह । जल- 
वट समीकरृतायां भूमौ तुरीययन्त्रे निहिते सति स्थापिते दिगंशा यावन्तः स्युस्तद- 


ग्रहुकाधवै १२७ 


्रचिन्हमेव केन्द्र तस्मिन्‌ अवकलस्तरकस्य विभा छाया 1 तदृत्थकेन्द्रसस्थाया ईषी. 
कायाशछाया यथा स्पृशति तथा यन्त्रे साधिते सति तुरीययतरदिगंशकाग्रकेन्द्रोपरि यो 
रञ्जुः सा पूर्वापरा । तन्मत्ध्याच्याम्योत्तरे भवतः । अत उक्तं यन्त्रणा दिकः 
स्युरिति ।॥ २४ 


चन्द्रिका--पमतल भूमि में स्थापित तु रीययन्त्र मे पूवंस्ताधित रीति से 
दिगंश ज्ञान कर उतने ही अंश पर चिं लगाने से यन्त्र में दिगंशाग्र विन्दु 
होगा । अवरम्ब सूत्र या केन्द्रस्य इषीका (रालाका) कौ छाया जिस प्रकार 
(दि्गंश विन्दु को) स्पशं करे उसी दिशा मे यन््रको रखने से तदनुसार 
दिशा होगी । (अर्थात्‌) तुरीय यन्त्र का एक भुज पूर्वापर तथा दसरा 
द्निणोत्तर दिक्ाओं में होगा ॥ २४ 


प्रहदशंनाय नलिक्राबन्धोपयोगि भुजकोरिसाधनम्‌- 


क्रान्तिः स्फुटाभिमतकूणंगरुणाक्षकणं- 
निष्नी खलाद्वि-हूदषक्रमदिग्भजः स्यात्‌ । 
संस्कारितो यमिशाक्षभया स्फटोऽसौ 
तहरगभाकृतिवियोग पदं च कोटिः \॥ २५ 


मल्लारिः--अथ नलिकाबन्धनाथं भृजसाषनमाहू । यस्य प्रहस्य नलिका 
अन्धः क्रियते तस्थ क्रान्तिः स्वशरेण सस्कृता सती स्पष्टा कार्या सा क्रोान्तिरिष्ट- 
कर्णेन गुण्या रात्रौ यासु घटीषु मकिकाबन्धा त्रियते तद्षटीम्यश्छायेष्टकर्णंयन्वर- 
भागग्रह्युगतादिसाघ्यम्‌ 1 तत्साननमाचार्यणाग्रे प्रोक्तमस्ति । ततः सेष्टकर्णगुणा 
क्रान्तिरक्षक्णंगुणा सती खाखाद्विहुत्‌ । अपक्रमदिक्‌ स्पष्टक्रान्तेर्या दिक्‌ तदिग्भुजो 
भवति ष मध्यमः । यमदिक्षा दक्षिणदिशा । भअक्षभयाऽसौ सस्कृतः स्फुटः स्यात्‌ 
तस्य भजस्य यो वर्गो भायाश्छायाया यो वर्गस्तयोवियोगोऽन्तरं तस्य पदं मूलं 
कोरिः स्यात्‌ । अत्र भृजस्योपपत्तिः पुवंमेव प्रतिपादित।स्ति तत्र द्विगुणः कतोऽस्ति 
धत्रौकगुण्योऽतो हरो द्विगुणः पठित एकगुणया पलमया संस्कायः ॥ 


भथ कोटेहपपत्तिः । दक्षिणोत्तरो भुजः । छायैव कर्णः । यतो हि मूजदकछाया- 
बुस्तस्थोऽतो दोः कणंवगंयोिवरान्म्‌लं कोटिरिति ॥ २५ 


१२८ चिप्रह्नाधिकारः 


चन्द्रिका -ग्रह की स्फुटक्रान्ति को अभीष्टकणं से गुणा कर गुणनफल 
को पुनः अक्षक्र्णं से गुणाकर ७०० से भाग देने पर छ्न्धि भुज होताहै। 
भुूजकीवही दिशाहोतोदहै जो स्पष्टाक्रान्तिकी होती है) भुज में दक्षिण 
ष्दलाकी पल्भा का संस्कार (एक दिद्ामे योग भिन्न दिशा मे अन्तर) 
करने से स्फृट भज होता है। भुजवर्मं ओर छायावर्म के अन्तर का वर्भमूल 
छेनेसे कोटि होती है । २५ 


विरेष--यहां स्पष्ट क्रान्ति का भरभित्राय पूववंस्ताधित क्रान्ति से नहीं 
है। शर द्वारा साधित क्रान्ति की आवश्यकता उक्त इलोकमें है । इसका 
विवेचन ग्रहण एवं ग्रहच्छायाधिक्ारमे कियागयाहै। अतः शर ज्ञानक 
अभाव मे विरुष्टतां के भय से यहां उदाहरण नहीं दियाजारहाहै। 


ग्रहदश॑नार्थं नकिकाबन्धनम्‌-- 


जञात्वाऽऽश्ाः परखेचरे परमुखं प्राक्खेचरे प्राङमुखीं 
विन्दोः कोटिभितो भुजं स्वदिशि तन्मध्ये प्रभां विन्यसेत्‌ \ 
विन्दोर्भाग्रगशंकुमस्तकंगते सत्रे नरे खे खगं 

ते विन्दुस्थनराग्रभाग्रकगते सुत्ने ने सोकयेत्‌ ।॥ २६ 


मल्लारिः--भथ भजकोटिकर्णनलिकासंस्थानमाह । आशा रिशो ज्ञात्वा 
ूर्वोक्तवज्जरुसमीकृतमभूमौ दिक्साधनं कृत्वा तेत्रष्टकारीनच्छायान्यासार्धेन वृत्तं 
कृत्वा तत्र दिकूचिह्वानि कार्याणि । ततो विन्दोवृंत्तमध्यात्‌ परखेचरे खमध्यात्‌ 
परिचिमकषालस्थे ग्रहे परमुखीं परिचमाभिपरखीं कोटि यथागतां दद्यात्‌ । प्राक्‌खेचरे 
पर्वकपालस्थे प्रहे प्राङ्मुखीं कोटि विन्दोरेव दद्यात्‌ । अतः कोय्यान्तात्‌ स्वदिशि 
भूजं दद्यात्‌ । छायां विन्यसेत्‌ केन्द्रादारभ्य भूजान्ताग्रपर्यन्तं छाया प्रसार्या स एव 
कणं: । एव जातं तयं क्षेत्रम्‌ ॥ 





मथ नक्िकानिवेशमाह विन्दोरिति । षिन्दोवृत्तमध्याद्भाग्रे गच्छति स तथा 
एवं भूतो यः शंकरः । मुजान्तच्छायान्तसंयोगे द्वाद्शागः शंकु: स्थाप्याः । तथा 


त्रिप्रष्नाधिकारः १२९ 


केन्द्रे कौलकण्टकादिबद्धः सूत्र भूलग्नं कृत्वा तस्सूत्र' तच्छङ्कोमस्तकोपरि शीत्वा 
तेनेव ऋजुमार्गेणामग्रादूष्वं' नयेत्‌ । तत्र सूत्रे नलो निवेश्यः। तस्य द्वौ वंशौ 
आघारभृततौ कार्यो । नलो नामान्तः ससुषिरं वंशनालं तस्मिन्न नले यत्कालीनं 
मुजादि कृतं तद्वटीषु मलमध्यस्थदुष्टया खे आकारो खगं ग्रहं विखोकयेत्‌ । एवं 
विलोक्यमाने तस्मिन्‌ नलमध्ये स चेद्‌ ग्रही नावोक्यते तदास ग्रहन धरते 
तत्रान्तरमपि लक्ष्यम्‌ । एवमनयैव युक्त्याऽऽचारयेण सवं ग्रहाणां नकिकानन्धं विघाय 
अन्तराणि ज्ञात्वा ग्रहुसाघनं कृतम्‌ । 
भथ जले ग्रहदर्शनाथं नलिकानिवेशमाह क इति । उदके ग्रहं विलोकयेत्‌ 
तद्यथा । अत्र शकः केन्द्र स्थाप्यः । तच्छेङ्क्कवग्र त्‌ सूत्र भाग्रप्यन्तमघो नयेत्‌ । 
तत्सूत्र नलः स्थाप्यः । ततश्छायाग्रस्थाने जल्पूर्णपात्र स्थाप्यम्‌ । तत्र मध्येऽधो- 
दुष्टश्चा जे ग्रहो विलोक्यः। अत्रेदं स्वंदिक्साधननलिकानिवेादि कृत्वा तत- 
स्तस्मिन्नेव काले विलोक्यमित्ति । उक्तं च सिद्धान्तह्धिरोमणौ-- 
दशंयेद्विविचरं दिवि के वाऽनेहसि द्युचरदशंनयोग्ये 
पूवमेव विरचय्य यथोक्तं रञ्जनाय सुजनस्य नृपस्य ॥ 
अस्यःपपत्तिः । प्रत्यक्षसिद्धार्थत एव चायते । इदं दिक्साधननलिकाजन्धादि- 
नान्यक्ररणेष्वस्ति । आचायण राज्ञां चमत्कारदर्शना्थं स्वकरृतग्रहुधटनाथं 
कुतमिति । 
देवज्ञवयंस्य दिवाकरस्य सुतेन मत्लारिसमाह्ुयेन । 
वृत्तौ कृतायां प्रहलाघवस्य त्रिप्ररनाधिकारः परिपृत्तिमागात्‌ ॥ २६ ॥ 
इति श्रीगणेश्ञदैवन्ञक्ृतमग्र हसाघवस्य व्रिप्ररनाधिकारस्चतुथः ।। ४ ॥ 
चन्द्रिका--( पूर्वोक्त विधियोंसे) ग्रहोकौो दिज्ञाका ज्ञान केर, ग्रह 
यदि पश्चिम क्पालमे होतो पश्चिमाभिमुख, ग्रह यदि पवंकपारमें 
हो तो पूर्वाभिमुख पूर्वापर रेखा मे ( पूवंसाधित ) कोटि का न्यास केन्द्र 
विन्दु से केर, कोट्यग्र से पूर्वापर रेखा पर जिस दिशा का भुज हो उस 
दिशामे लम्बरूप रेखा खींचकर भुज भौर केन्द्रके मध्यमे छायाका 
न्यासं कर छायाके अग्र भागमे शंक स्थापित कर शङ्कू के अग्रभागसे 
( मस्तक से ) गए हए सूत्र मे नलिका द्वारा आकारस्य ग्रह का अवलोकन 
करे । यदि जल मे अवलोकन अभीष्ट हो तो छायाग्र विन्दु पर जल (पात्र) 
रख कर शङ्क्‌ के मस्तक से छायाकेभग्रमे नकिका द्वारा जल में ग्रह्‌ 
का प्रतिविम्ब देखे । २६ । 
श्री गणेश देवज्ञ विरचित ग्रहुलाधव कं चिप्रस्नाध्िकार की चच्दिका 
नामक सोदाहुरण हिन्दी व्याख्या सम्पूणं ॥ ४ ॥ 


१. सि. शि. ग. १०९। 
९ प्रहूण 


५. चन्द्रग्रहणाधिकारः 


ष्टकालिकग्रहसाघनम्‌-- 


गतगम्यदिनाहततदयुभुक्तेः खरसाप्ांशधियुग्युतो ग्रहःस्यात्‌ ! 
तेत्कालभवस्तथाघटोध्न्याः खरसेरन्धकलोनसंयुतःस्यात्‌ ॥ १ ॥ 


मत्लारिः--तक्रेदं चिन्त्यते ननु कि नाम ग्रहणम्‌ । गृह्यतेऽनेनेति ग्रहणं योऽयं 
ग्रहीतुमिच्छति स तं प्रति यदा गच्छेत्‌ तदेव ग्रहृणम्‌ । अतो प्राह्यग्राहकयोर्योमो 
ग्रहुणम्‌ । योगो नामान्तराभावः । अतो प्राह्यग्राहुकयोरन्तराभावो प्रहृणमिति । 


अस्ति ग्रहाणां गतिः षोढा पूर्वापरा याभ्योत्तरोर्ध्वाधरा चेतति । तत्र कि पूर्वा 
परयाम्योत्तरोर्घ्वाधरान्तराणामभावो प्रहुणम्‌ । कि वा पूर्वापरयामभ्योत्तरान्तरा- 
भावो ग्रहणम्‌ कि वा पूर्वापिरोर्घ्वाधरान्तराभावो ग्रहणम्‌ । वा पूर्वापररान्तरा- 
भावो ग्रहणम्‌ । उत याम्योत्तरान्तराभावो ग्रहुणम्‌ । किमुत ऊर्वाधिराभावो 
ग्रहणम्‌ । अधरोच्यते । ग्रहुकक्षयोमंहदन्तरस्य विद्यमानत्वादुग्राह्यग्राहकयोश्व्वाधरा- 
न्तराभावः कल्पान्तेऽप न स्यात्‌ । अतः प्रथमतुतीयषष्ठाः पक्षा न सुन्दराः । अथ 
वक्तव्यं पर्वापरयाम्योत्त राभावो ग्रहणमिति साऽपि संज्ञा न घटते यतोहि 
विद्यामाने श्रतुल्ये दक्षिणोत्तयान्तरे ग्रहणं भवत्येव । अनेन हेतुना द्वितीय्च्चम- 
पक्षौ न शोभनौ । अथ वक्तव्यं पूर्वापरान्तराभावो ग्रहणं तत्र प्रतिपवणि ग्राह्य 
ग्राहकयोः पूर्वापिरान्तराभावोऽस्त्येव न प्रतिपर्वंणि भवति । अतो नापि चतुर्थः 
पक्षः शोभनः । तत्र कि नाम ग्रहणमिति मन्दमत्तयोऽत्र मृद्यन्ति। अत्रोच्यते । 
पूर्वापिरान्तराभावे मानक्यखण्डादूने शरे ग्रहणं मौनक्यक्ण्डतुल्ये शरे बिभ्ब- 
प्रान्तयोः संयोगमा्रं भवति । यथा यथा मानैक्यखण्डाच्छयोन्यूनो भवति तथा 
तथा प्र।द्यनरिम्बं ग्राहकनिम्बे प्रविशति तावानेव म्रासः । एवं सत्यपि ऊर्ध्वाधरा- 
न्तरे ग्रहणम्‌ । तत्र हतुः । अस्मदादिदृष्टेरावरणौभृतत्वं तावदुग्रहणकत्त्‌ त्वं न 
तु ग्राह्यग्राहकयोविम्बसंयोगः । अहो भास्तां वावदने्त विचारेण । यतः प्रथमं 
सूयंचन्द्रयोर््रह्यग्राहकयोः को वा ग्राहक इति न ज्ञायते । अत्रोच्यते । अच्र सूर्य- 
चन्दरग्रहणे राहूरेव कारणी भूत+ । यतो राहूर्नाम पातः । पातवलाच्छरः । शरव- 


चन्द्रग्रहुणाधिकारः १३१ 


चदेव ग्रहणमतोऽवकष्यं ग्रहणे राह्हेतुभृतः । अश्र ग्रहणे कमलासनानुमभावात्‌ ।' 
“राहू्रस्ते दिवाकरे निशाकरे वे"ति स्मृतिवाक्यपर्यालोचनेन च ॒राहुरेव सूर्यचन्द्र 
ग्रहणयोर््राहक इति पूर्व॑ः पक्षः । अत्र वयं तु ब्रूमः। ननु राहोग्रंहणकत्तुतवे 
परोच्यमाने राहृणा सूर्यचन्द्रतुल्येन भवितन्यम्‌ । यतः पूर्वापरान्तराभावं विना 
ग्रहणं वक्तुः न शक्यते । नात्र ग्रहणं राहुणा सह पूर्वापरान्तराभावो दुर्यते 
नातो ग्रहणे राहोर््राहकत्वमिति सिद्धान्तः। ननु पूर्वपक्षीत्यालद्धुतै। अहो 
भवद्भिः ग्रहणे म्राह्यग्राहकयोः पूर्वापरान्तराभाव एवोच्यते तदयुक्तम्‌ । यत्ते 
यथा ग्रहाणाभस्ते भवन्तः काछांशान्तरिते सूर्याद्‌ ग्रहे सति म्रहास्तादिरिति मन्यन्ते । 
तथैवास्माभिः सप्तमिर््ादश्भिः कालांजञेःसु्यचन्द्राभ्यां यथाक्रममन्तरितं 
राहौ ग्रहणादिविम्बसंयोगमात्रं मन्यते कालंशान्तरामावे परमं ग्रहणम्‌ । यथा 
सू्यग्रहान्तराभावे परमास्तमय उच्यते । एते कालांशा राहुवश्ोनैव मानैक्यलण्ड- 
तुल्य रादुत्पन्ना युक्तियुक्ता एव सन्ति । अतो राहुणा ्राहकेण कालां शान्तरितेन 
सूर्यचन्द्रौ ग्रस्येते इति युक्तिः कथं भवच्चेतो न सहते । एवं चेत्‌ तदाऽस्तेऽपि 
सूर्यग्रहयोः पूर्वापरान्तराभावमेव वदन्तु भवन्तो न कालांशान्तरे। चेत्‌ क्त्र 
कालांशान्तरमङ्खीक्रियते तहि किमनेनापराद्धमिति ग्रहे प्रतिबन्धराहुरेव कारण- 
मिति युक्तम्‌ । सत्यम्‌ । अहो भवतु रहुग्र॑हणे कारणं परं तस्य राहोर््राहुकः 
स्य विम्बसिद्धिः कत्त व्या । तद्धिम्बं गगने नावरोक्यते। अत्र तु #जुक्निज्या- 
भितज्ञलाकाभ्यां विम्बग्रान्तौ वेष्यौ तन्मध्ये याः कास्ता विम्बकलाः 1 अन- 
यैव युक्त्या सर्वेषां विस्बानि साधितानि । अनेन वित्िना राहोिम्बं ज्ञातु नैव 
शक्यतेऽदशशनदेव । अतः सति कुड्ये चित्रमिति न्यायात्‌ रहो््रहुकत्वं नैव 
सम्भवतीति सिद्धान्तः । अत्रोच्यते! अहो भवद्भी राहुबिम्बसाघनोपायादशं- 
नान्न तस्य ग्राहुकत्वमुच्यते । तयथा । राहुश्चन्द्रकक्षायां क्रान्तिमण्डलविमण्डल- 
सम्परातेऽस्ति । तत्र सूयग्रहणे सूर्यचन्द्रौ समकलौ । सूर्यात्‌ सप्ताल्पेष्टकालांशा- 
न्तर एव राहुः स ॒पृच्छादियुतो मुखपृच्छाकारो वर्तते 1 तस्य मुखं तु क्रान्ति- 
विमण्डलसम्पातते नास्त्येव “अमृतास्वादवेलायां छिन्नश्चक्रेण विष्णुने'ति स्मृति- 
वाक्यबलेन राहुमुखं सम्पातात्‌ कालां शान्तरितमस्तीति कंल्पनीयमेव । यतो 
यदाकाशे दृश्यते तदेव गणितेन सिद्रचतीति राहुमुखाभावाद्‌ राहुमृखस्थानाज्ञानात्‌ 
तस्य मुखहीनशरीरस्य सम्पातसंज्ञ स्थानमगीकरुतम्‌ । ततस्ततसम्पातात्‌ कालां- 
शान्तरे राहुशौषं सम्पयतात्‌ कालांशान्तरे चन्द्रश्च । सूर्यक्चन्द्रतुल्यः । अतः सूर्यस्य 
ग्राह्यस्य राहुणा ग्राहुकेण सह॒ ॒पूर्वापरान्तराभावोऽप्यस्ति । राहुकश्षीषं तु चन्द्र 
विम्ब्रोपरि तत्समानमेव । एककंक्षत्वात्‌ तत्त्‌ ल्यत्वाच्च यच्चन्र विम्बं ह्यार्म तदेव 
सुय॑ग्रहणे सु्यंस्यावरणीभूतम्‌ । तथा चन्दर ग्रहणे चन्द्रः षड्भान्तरे सूर्याद्‌ भृखा- 


१३२ ग्रहुलाघवे 


याऽपि षड्भान्तरेण । चन्द्रभृचछाये समाने । चन्द्रादुवृत्तसम्पात दृष्टकालांशान्तरे 
सम्पाताद्राहृशीषमपि काखंशाम्तरेऽतो राहुशीषं भृच्छायातुल्यम्‌ । अत एव चन्द्रक- 
क्षायां यावती भूछायाविस्तृतिस्तावदेव राहूविम्बम्‌ । अतश्चन्दरग्रहुणेऽपि राहुविम्बं 
मूभातुल्यं चनद्रस्यावरणीभूतम्‌ । तयोः पूर्वापरान्तराभावोऽप्यस्ति । अतो बिम्ब- 
सिद्धिरपि वर्तते इति युक्तिबलादागमप्रामाण्याच्च राहुरेवावश्यं म्रहणद्वयेऽपि 
कारणीमूतो वक्तव्य इति सिद्धम्‌ । ननु सूर्यग्रहणे चन्द्रविम्बतुल्यं राहुविम्ब 
भवद्भिरुच्यते चन्दरहणे भृच्छायातुल्यं राहुविम्बम्‌ । इदं न॒ घटते यतत ॒एकक- 
क्षास्थितस्य राहोविम्बं कथं महान्तरितम्‌ । चन्द्रविम्बाद्‌ भृचाया तु त्रिगुणिता- 
सन्ना दरस्थग्रहं विम्बं रघुगतिश्च रघवी । समीपस्थे प्रहे विम्बं पुथु गतिच 
पृथ्वी । तत्र राहोर्गतिः सदा समव । अतो विम्बलुमहत्त्वं न स्यादेव । 

अथ वक्तव्यं चन्द्रकक्षायां राहुः । यथा चन्द्रस्योर्ध्वाधरगमनेन विम्बलधुमहस्वं 
त्थ॑व राहोरिति तदप्ययुक्तम्‌ । यतश्चन्द्रविम्बो््वाघर गमनवशेनेव यदास्य बिम्बो 
नाधिक्यं स्यात्‌ तदा सव॑दा सूरयग्रहणेऽपि चन्द्रविम्बतुल्यमेव राहुनिम्बं नाधिकं 
स्यात्‌ । कथं चन्द्रग्रहणे भच्छायातुस्यं राहुविम्बमुच्यते । अतस्तदसत्‌ । यदि 
गरहणद्वयेऽपि चन्द्रविम्बतुल्यमेव राहूुविम्बं वक्तव्यं तदा चन्द्ग्रहणे स्थितिमहती 
सुयंग्रहणे स्थितिकछंष्वी एवं कथं स्यात्‌ । स्थितिलधुमहत्वं तु प्रत्यक्ष ग्रहणे 
दृयते । अतशचन्द्रविम्बतुल्थं राहुविम्बं सर्वदा कस्प्यमित्यतेदप्यसत्‌ । अन्यच्च । 
सूयंग्रहणेऽध्॑रासे सू्॑विम्बग्णुगे तीक्ष्णे चन्दरग्रहुणे श्च गयोः कुण्डता दृश्यते । अतो 
हि छादको ग्रहणदये भिन्न एव कल्प्यः । अतोऽपि राहून छादकः । पूवं भवद्भिः 
कालांशान्तरेऽस्तप्रतिबधग्रहुणमित्ि यदुक्त तदप्यसत्‌ । यतः सूर्येण स्वतेजसा 
कालांशान्तरेऽपि ग्रहो निष्प्रभः क्रियते । अतस्तत्रंव तध्यास्त इति युक्तम्‌ । अत्र 
राहुरन्धकाररूपः । अन्धकारो नाम तेजोहानिः । तेजो हान्या कलांशान्तरेण 
सूर्यचन्द्रावाच्छाद्य ते इदं सर्वंथाऽत्पसंबन्धम्‌ । एवं सति गणितयुक्तिबटेन प्रत्यक्ष 
दर्रनतया च राहोग्रहुणे ग्राहकत्वं न सम्भवत्येवेति सिद्धान्तः । नन्वेवं चेत्‌ तहि 
वेदाप्रामाण्यप्रडगः स्यात्‌ । अत्रोच्यते । सूर्यग्रहणे चन्द्रश्छादकरचन्रग्रहणे भूछाया 
छादिनी । तत्रामायां चन्द्र विम्बं श्यामं राहुविम्बमपि श्यामं यद्यपि तत्र न काला- 
शान्तरे वृत्तसम्पातेऽरिति तथापि ब्रह्मवरदानादग्रहणकलि तत्र गच्छतीति कल्प्यते । 
एवं चन्द्रग्रहुणेऽपि भृछाया द्यामरी राहुविम्बमपि तथा यद्यपि तत्र न कालां 
शान्तरे वृत्तसम्पातेऽस्ति । तथापि वरवशादुग्रहणे भृचछायान्तवंत्ती राहुभवतीति 
कटप्यते अ।गममयात्‌ । उक्तं च भास्कराचा्येः । सिद्धान्तदिरोमणौ-- 


दिग्देशकारावरणादिभेदं न॑च्छादको राहुरिति भ्रवन्ति। 
यन्मानिनः केवेलगोलविद्यास्तत्संहितावेपुराण बाह्यम्‌ ॥ १ ॥ 


चन्द्रग्रहमाधिकारः १३३ 


राहुः कुभामण्डलगः शक्ञाङ्क शशांङ्कंगरछादयतीनविम्बम्‌ । 
तमोमयः शम्मुवरभ्रदानात्‌ सर्वागमानामाविरुद्धमेतत्‌ ॥ 


एवमत्र मुख्यतया सूपस्य चन्दररछादकश्चनदरस्य मृचछाया छादिनीति सिद्धम्‌ । 
अहो भवद्भी राहो््रहणकत्त्‌ खं कृतं चेत्‌ तदा सूर्यग्रहणे सूयं विम्बस्य पदिचमे 
स्पशंः चद्द्रग्रहुगे चन्द्रविम्बस्य पूव्यं: भूमेशछायायां प्र विशति इति कथम्‌ ॥! 

जथ प्रकृतं ग्रहसाघनं तदथ पर्वान्तकालीनौ चन्द्रसूर्यौ कायविव । राहुरपि 
कार्यः । यतो राहु विना शरसिदधिनं । अतः पञ्चांगीयावधिस्थितग्रहाणां तदिद- 
नजकंरणाथं स्थूरमेव तदवधिस्थितां गति तदिदनान्तरे समानामेवांगीकृत्य 
ग्रहाणां चानं वदति तत्स्वल्पान्तर स्यात्‌ । अतो न दोषाय भवति इति । अथ 
वा सूर्यचन्द्रयोः सूर्योदयिकयोः पर्वान्तिकालीनकरणाथं चालनमाह । व्याख्या 
यदिदनजो ग्रहस्तदि्दिनांत पूवंकालीनग्रहसाधना्थं गतदिनानि । अभ्रिमकारीनग्रह- 
साधनार्थं यावन्ति दिनानि तावन्ति गम्यानि । तैगं्ैरथ वा गम्यदिवस््रहश्य 
्.भुक्तेदिनगतेगु णिताया यः लरसः षष्ठया आप्तांशा लन्ध॒भागस्तंधियुग्युतो 
गर हर्चेत्‌ पूवं क्रियते तदा हीनः । अग्रिमइ्चेत्‌ तदा युक्तः । स तदि्दिनजो ग्रहः 
स्यात्‌ । तथा ईष्टघटीष्न्या गतेः खरसंर्या रन्धकलास्ताभिर्ययाक्रमम॒नसंयुतः सन्‌ 
तत्काङमवो ग्रहो भवतीत्यर्थः । 


अत्रोपपत्ति :--अत्रानुपातो यदि सावनाभिः षष्टिषटीभि गंतिकला ग्रहः पूरव 
गत्या क्रामति तदा इष्टवटीमिः कति कला 1 एवं दिनगुणितायां गतौ कलाः 
स्युः । षष्ट्या भाज्या भागाथम्‌ । अत उक्तं गतगम्पेत्यादि। धनर्णोपपत्तिः 
परत्यक्षतोऽतिसुगमा ॥ १ ॥ 


चन्द्रिका :--गत-गम्थ दिनादि (दिन, घटी-पला ) को ग्रहगतिसे 
गुणाकर ६ै०्से भागदेने पर जो रन्धि प्राप्त हो उसे पर्वं साधित ग्रह्‌ 
के अंशादिमें, गम्यदिनादि होने पर जोड़ने तथा गत दिनादि होने पर 
घटाने से अभीष्ट कारुका स्पष्ट ग्रह होता है। यदि गत-गम्यकाल 
घल्यादिहोत्तो उसे ग्रह गतिसते गुणकिर ६०्से भाग देकर रुन्धिको 
प्वं साधित ग्रहुको कला विकला मे उक्तरीतिसे संस्कार करने पर 
स्पष्ट प्रहु होतादहै॥ १॥ 


विज्ञेषं --गत-गम्यका निर्णय साधितग्रह्‌ के भाधार पर होता ह| प्रायः 
किपो एक दिन सूर्धादयकाछ्कि या मध्यरात्रि कालिकं प्रहु सिद्ध करके 
व्यवहाराथं रख लिये जाते थे । उससे पूवं यदि किसी समय का ग्रह 
भभीष्टदहो तो साधित ग्रह से अभीष्ट समय तक का अन्तर गत कार्या 


१३४ ग्रहुलाधवे 


शत दिनादि होता है तथा साधित ग्रह से अितने दिन घटी पश्चात्‌ ग्रहु- 
साधन अभीष्ट हो उतना समय गम्य काल या गम्यदिनादि कहलाता है | 
परन्तु आजकष् प्रत्येक दिन के प्रह सूर्योदय कालीन अथवा मिश्चमान 
कालिक दिये जति है, 

उदाहरण -सं० २०३१ शक १८९६ कतिक शुक्छ पूर्णिमा शुक्रवार 
को उदयथकालिक स्पष्टसूयं ७।१२।३५।३१ स्पष्टचन्द्र १।१५।१३।१९ राह 
७।१६।४७।१२ चन्द्रोच्च १०।१।४१।४७ स्पष्टासूयं गति ६०।५३।४२ स्पष्टा- 
चन्द्रगति ८००।५१ पुणिमा की रोग्य घटी ३५।५१ 1 स्पष्ट सूर्यादि को 
पर्वान्त कालिक बनाने के लिए तत्तद्‌ ग्रहों की गतियो को पणिमाके 
भोग्यकाख ६५।५१ से गुणाकर ६० से भागं देने पर प्राप्त रन्धि को 
उदयकाकछिक स्पष्ट ग्रहों मे जोड़ने तथा राहु मे घटाने से पर्वान्त कालिक 
सयं ७।१३।११।५४, चन्द्रमा १।२३।११।४९. ॥ चन्द्रो्च १०।१।४५।४६ 
तथा राहु ७।१६।४५।१९ हुआ ॥ १॥ 
ग्रहणसम्भवनज्ञानं शरसाधनञ्च- 


एवं पवन्ति विराहुकंबाहो- 
रिज्राह्पां्षाः समभ्भषःचेद्‌ग्रहुस्य । 
तेऽशा निघ्नाः शंकरे: होशभक्ता 
व्यग्यकशिः स्यात्‌ पुषत्कोऽङ्गुलादिः\॥ २ ॥ 
मल्कछारिः--अथ ग्रहणसम्भवासम्मवज्ञानाथं पर्वसम्मूत्ति कथयति । एवं कृते 
सति सूर्यचन्द्रौ तु पर्वान्ते समकलौ भवतः । उक्तं च सिद्धान्तशिरोमणौ -- 
'ुर्णान्तकाले तु समौ लवाद्यद॑रशान्तकालेऽवयवंगुंहार्चः* इति । 
ततः पर्वान्तकालीनराहूनितस्य सुयस्य यो बाहु्भुजस्तस्य भुजभागाश्चेत्‌ 
इन्दरात्पां शार्चतुदंशास्पास्तदैव ग्रहस्य ग्रहणस्य सम्भवः स्यादधिकेषु नैव ततस्तं 
उदा भुजभागाः शद्धुररेकादशभिनिध्ना गणिताः चैर: सप्तभिभभ॑क्ताः सन्त उदिष्टं 
फलं सोऽगुलादिरंगुलपूवंकः पृषत्कः शरो व्यग्वर्काशो भवति । राहूनितसूर्यौ 
यस्मिन्‌ गोरे तदिग्भवतीत्यर्थः । 
अत्रोपपत्तिः--अपवृत्ते यद्रा्शौ भागे कायां चन्द्रपातो वत्तते तंतु विलोमं 
दत्वा तच्र विमण्डलापमण्डलयोः सम्पातो द्वितीयः षेड्भान्तरेण दयोः सम्पात- 
योस्वरिभेऽन्तरे परमविक्षेपतुल्यैभगिरपवृत्ताद्विमण्डलायर्धमुदग्विदध्यात्‌ तथा 
द्वितीयं शक्षिणेन । एवं स्थिते चन्दरपातावपि दौ मेषादितः पूवंगतौ प्रवृत्तौ चन्द्रः 
शषीघ्नत्वादग्रतो याति पत्रं यदा पातसमश्चन्त्रौ भवतति तत्र विक्षेपाभावः । अतो 


चन्द्रग्रहणाधिकारः १३५ 


विगत राहुश्चन्द्र: । चन्द्रशरार्थं केन्द्रम्‌ । अत्र तु सूर्यग्रहणे चन्द्रसूयंयोः समत्वात्‌ 
राहुणा सूर्य एव हीनः कृतक्चन्दरग्रहणेऽःव सूर्यचन्द्रयोः षडभान्तरात्‌ विराहू- 
चन्द्रविराहुसूर्ययोर्भृजसाम्यमेव । परमत्र गोलान्यत्वात्‌ शराऽन्यदिक्‌ स एव परि- 
रेखे प्रयोजकः । अतः एवाचार्येण चन्द्रग्रहे व्यस्तदिक्‌ शर इति प्रोक्तम्‌ । तत्र 
त्रिमे परमः शरः अतोऽनुपात्तः । यदि त्रिज्यातुल्यया १२० विराह्कभुजज्यया 
परमो नवत्यंगुलतुल्यः श्रः ९० तदेष्टदोज्यया किमत्ति । अत्र मुजभागाः सप्त 
मिताः प्रकल्पिताः । तेभ्यः साधितः शरः ११। ततोऽनुपातः यदि सप्तभिर्भुजभा- 
गी भवतुल्यः शरस्तदेष्टैः किमिति । अत उक्तन्तंऽशा निष्नाः शद्धुरः दीरभक्ताः 
इति गोकवशादिग्भवतीत्यर्थतः एव सिद्धम्‌ । 


अय पूर्वार्घोपपत्तिः-मानेक्यखण्डा्धिके शरे श्रहणामावः । अतश्चन्द्रमूभा- 
विम्बे परमगतिप्रमाणेन कृत्वा तयोर्योगारधं भानैक्यखण्डं कृतम्‌ । २०।२३७ । एता 
वान्‌ रस्त चतुद॑ंशवुल्यमुजभागेम्य एव भवति 1 अत इन्द्राल्पांश्ा यदा तदा 
ग्रहुणमित्युपपन्नम्‌ । २ ॥ 

चन्द्रिका --ईइस प्रकार पर्वान्त कालकं सूयं सं पर्वान्तकाछ्िक राहु 
कोघटनेसेजोशेष हो उसक्ाभुजांश यदि १४ अश्से भत्पहोतो ग्रहण 
सम्भव होता है अन्यथा नहीं । यदि ग्रहण सम्भवदहो तो राहू रहित सूयं 
के भुजांश को ११से गुणा कर गुणनफरमं७काभागदेने से रञ्धि 
अंगुखादि उसी दिशाकाशर होता है जिस दिशा ( गोल) का राहुरहित 
स॒यं हौतादहै।२॥ 

उदाट्‌ रण--पर्वान्तकाचिक सूयं ७।१३।११।५४ राहु ७।१६।४५।१९ सयं 
से राहु को घटाने पर दोष ११।२६।२६।३५।बचा इसको १२ में घटाकर शेष 
का भुज बनाया ०।३।३३।२५ । भुजांदा (३।३३।२६) चौदह अंगों से अल्प 
है अतः ग्रहण सम्भव है । उक्त नियमानुसार भुजांश को ११ से गुणा कर 
गुणनफल ३९।७।३५ मे ७ का भागदेने से रन्धि ५।३५ शर अगुखछादि 
पराप्त हुमा । राहु रहित सूयं मीन रालिगत होने से दक्षिण गोल का है अतः 
शरकीभो दिशा दक्षिण होगी | २॥ 


रविचन््मुभा विम्बसाधनम्‌-- | 
व्यसुशरगतीष्वंशो दिभ्युग्भवेद्रपुरुूगगो- 
रथ सितरुचो विम्ब भुक्तियुगाचरभाजिता । 
तदपि हिमगोविस्बं न्रिघ्नं निजेशलवान्वितं 
विवयु भवति क्ष्माभाविम्बं फिराङगुलपूर्वकम्‌ ॥ २ \\ 


१३६ ग्रहराधवे 


मल्लारिः--अथ सूर्यचन्द्र भूच्छाया विम्बानां साधनं कथयति । विगता असुशराः 
पञ्चपञ्चाशत्‌ ५५ यस्याः सा तथा एवंभूता या गतिस्तस्या इष्वंशः पञ्चमांशा स 
दिगिमिदक्षर्भियुगृयुक्तः कार्यः । तत्‌ उष्णगोः सूयंस्य वपुरविम्बं स्यात्‌ । अंगुलपूर्वंक- 
मिति सर्वविम्बेषु संयुज्यते ॥ 

अथ सितरुचश्चन्द्रस्य भुक्तिगतिर्युगाचरुश््वतुःसपत्या ७४ भाजिता सती 
चन्द्रविम्बं स्यात्‌ ॥ 


अथ भूच्छायां साधयति । तदपि हिमगोरचन्द्रस्य विम्बं त्रिष्नं त्रिगुणं ततः 
निजेन ईशभागेन एकादशांशेन युक्‌ । विवसु अष्टोनं सत्‌क्ष्मायामुवोयाभा छाया 
तस्या विम्बं मूछायाविम्बं भवतीत्यर्थः ॥ 


अत्रोपपत्तिः-- उच्चस्थितग्रहस्य विम्बं लघु गतिश्च रुष्वी । तथा नीचसमस्य 
ग्रहस्य विम्बं पृथु गतिम॑हती । यथा यथा गतिवंधंते तथा तथा विम्बमपि वधंते । 
यथा हीयते तथाऽपचीयते । अतो गतेविम्बानयनं कर्तुः युज्यते । तद्यथा । यदि 
दिनगत्तियोजनैगतिकलास्तदा विम्बयोजनैः किमिति करादीनि विम्बानि स्युः । तानि 
त्रिभक्तान्यंगुलानि । यतोऽत्रांगुलं त्रिकलमेव कल्पितमस्ति । अघ्राचार्येण लाघवार्थं 
सूर्यगति पञ्चपञ्चाशन्मितां प्रकल्प्य सूर्यविम्बमगुलायं साधितम्‌ । तद्यथा । दिनगति- 
योजनानि पादोनगोक्षधु तिभूमितानि ११८५८४५ । एभिः पञ्चपञ्चाशन्मितायां गतौ 
भाजिततायामेभिः सूयविम्बयोजनैः ६५२२ गुणितायां जातं कलाचमर्वविम्बम्‌ ३० । 
इदं त्रिभक्तं जातमगुलाद्यम्‌ १० । अथ पञ्चपञ्चाशदचिकस्य गतेः खण्डस्य विम्बं 
साध्यं तदत्र योज्यं विम्बं स्यात्‌ । अत्र गतिकखण्डस्य सार्धपञ्चभागो भवति । 
गतिखण्डस्यात्यत्वात्‌ ञ्च्म एाङ्कोकृतः। अतो व्यसुारगतीष्वंशो दिग्यु- 
गित्युपपन्नम्‌ । एवमेव चन्द्रस्य मध्यगतिप्रमाणेनांगुलाद्यं चन्द्रविम्बं साधितम्‌ 
१०।४० चन्द्रविम्बयोजनानि ४८० अतोऽनुपातः । यदि मध्यगत्या ७९० कदं 
चन्द्रविम्दं तदा स्पष्टगत्या किमिति । स्पष्टगतेविम्ब गुणो मध्यगतिर्हुरः । गुणहरौ 
गुणेनापर्वत्तितौ हुरस्थाने जाता, ७४ । अतः सितसूचो विम्बं मृक्तिर्युगाचलभाजिते- 
त्युपपन्नम्‌ । 


अथ भूच्छायोपपत्तिः--अघ्राकविम्बभृग्यासान्तरयोजनानां रस्विक्रक्षायां कला- 
करणाथमनुपातः । यदि दिनगतियोजनं; ११८५९ गतिकला कमभ्यन्ते ५९।८ 
तदाऽकविम्बयोजनभून्यासान्तरयोजनैः ४९४१ किमिति । अतो काघवारथं 
मघ्यगतेरेवानीताः कलाः २४। एतार्त्रिभक्ताः जातानि रविगतिसम्बन्धीनि 
अंगानि ॥ ८ ॥ 


चन्द्रम्रहणाधिकारः १३७ 


अथ भृग्यासस्य चन्द्रकक्षायां कंलाकरणायानुपातः । यदि गतियोजनेः 
११८५९ चनद्रगतिकखा लभ्यन्ते तदा भूव्यासयो जर्नैः १५८१ किमिति । अगुलाथं 
श्रीणि हरः ३। चन्द्रगतेर्गणः १५८१ । हरघातो हरो जातः ३५५७७ । गुण- 
हरौ सार्ध्रिवेदैरपवत्तितौ ४३।३० । जातं गुणश्थाने ३६। हरस्थाने ८१७ । 
अत्र खण्डग्‌णनं विहितम्‌ । प्रथमस्थाने एकादश्षमिर्गुगह रावपवत्तितौ २ । ७४ । 
अत्र वेदाद्रिभक्ता चन्द्रगति्चन्द्रविम्बं भवति । अतदचन्द्रविम्बं त्रिगृणं पृथक्‌ 
स्थाप्यम्‌ । द्वितीयस्थानीयो हरश्चतुःसप्तत्या भक्तश्चन्दरविम्बस्य गृहीतत्वात्‌ । 
अतो जातो द्वितीयहरः ११। गृणकस्विमित एवोभयत्र । अत एव हिमगोविभ्बं 
त्रिनिष्नं निजेशखवान्वितमिति । तत्‌ सूयगतिसम्बन्धिभिरगुखः स्वल्पान्तरः८ 
हीनं कार्यम्‌ । यतो भूष्यासाद्यावद्रविविम्बमधिक तावेस्प्रमाणेनोप्युंपरि गच्छन्त्या 
भूभाया विस्तृतिसपचयिनी स्यात्‌ । यथा पृथुदीपेऽल्पवस्तुनश्छायागरेऽपचीयमाना 
सूच्यग्रा भवति । अल्पे दीपे पृथुवस्तुनोऽग्रे उपचीयमाना स्थूला भवति । अतो मृग्या 
साद्यावदधिकं तेन भृन्यासो हीनः कृत इति ॥ ३ ॥ 

चन्द्िक्ा- सूयं की स्पष्टागति में ५५ कला घटाकर दोष पञ्चमांश को 
१० मे जोडने से अंगुलादि सूयंबिम्ब होता दै। चन्द्रमा को गतिकला में 
७४ सेभागदेने पर अंगृलादि चन्द्रबिम्ब होता है। तथा उक्षी चन्द्रविम्ब 
को ३ से गृणाकर गणनफल मे उसी का एकादशा जोड़कर योगफल से ८ 
रहित करने पर अंगृखादि भभा विम्बरहोतादहै।॥३॥ 


उदाहरण, - यूयं की स्पष्टागति ६०।५३ इसमे से ५५ कला घटने से 


त. क 


१. आचायं विक्वनथ ते विम्बसाधनमे इस नियम का आश्रयं नहीं लिया 
है । यहां पर उन्होने सृष्ष्म प्रकार से आनयन क्या है किन्तु विधि का उल्टेख 
नहीं किया । प° सुघाकर द्विवेदी ने अपनी टीका में विहवनाथ द्वारा अपनये हृए 
नियम का उल्लेखे किया ह तथा प्रमाण पद्य भी उद्ृत कियारह। छात्रों के ज्ञान 
हेतु उक्त विधि सुधाकरोक्त उपपत्ति सहित यहाँ भी उद्ृत की जा रही है । 
विश्वनाथोक्त रीत्या रविविम्बभूभाविम्बयोरानयनम्‌-- 
` गतिद्धिष्नीशापनांगुलमुखतनुः स्यात्‌ खरसूचोः 
विधो मुक्िर्वेदाद्विमि रपहुता विम्बमुदितम्‌ । 
नुपाश््वोना चान्द्रौ गतिरपहूता लोचनकरैः 
रदाल्या मूभा स्याद्‌ दिनगतिनगांशोन रहिता ॥ 
अर्थात्‌--द्विगुणित रविगति को ११ से भाग देने पर कञ्धि अङ्‌गृलादि रवि. 
विम्ब होता है। 





१३८ ग्रहृराघवे 


चन्द्रमा की गति को ७४ से भाग देने पर रुन्धि अंगृलादि चन्द्रविम्ब होता 
हं । चन्द्रमा की गति से ७१६ घटाकर शेषम २२ काभागदेने से प्राप्त ठन्धिमें 
३२ जड कर रविगति का समांश चटनें से अंगुलादि भूभाविम्ब होता ह । 


उपष्तिः--तच्र भास्करविधिनैवाङ्गुलात्मकं रविविम्बम्‌ 
१९१ रग. _ ११०८२०५र.ग. --२ रग. 


६० ` १२० ११ 
== स्वल्पन्तरादृपपन्नम्‌ चन्द्रविम्बसाघनं तु पूर्ववदेव । 


रि (| ) 
( च्‌, व.= 4: 6 ) । 
७४ 


अथ भास्करविधिनवादुगुलात्मकं मूभाविम्बं प्रद्ितम्‌ 








च ध (मा र 
= . ( च.ग. - ७१६ + ७१६) - ध 
= --{ च.ग. - ७१९६) + - भः 
= (च. ७१६) + १४९९ 9 


(च.ग. - ७१६) -1- ३२ स्वल्पान्तरात्‌ । 
२२ ७ 


अत उपपन्नम्‌ 
उद्राहरण-~-स्पष्ट रविगति == ६०।५३ 
२(६०।५३) = १२१।४६ 


१. 
११ 


१२१।४६ > ११ = ११।४।१० == रविविम्ब अंगृकादि 


चन्द्रमति = ८००।५१ 


१०।४९।२० चन्द्रविम्ब 


८००।५१ ~> ॐ = ८००५१ 
9 


चन्द्रग्र टणाधिकारः १२३९ 
चन्द्रगति ८००।५१ ~ ७१६०० 


८. 


= ८,४।५१ ~ २२ = 
२२ 


= २।५१।२.४ 


३१५ १।२४ 
अत 
२३५।५ १।२४ 


रविगति ६०।५३ >+ ७ = दरः 


सप्तमांश्ष == ८।४१।५९ 
२५।५१। ४ 


=~८।४१।५ १ 


----~ ----- ---~---+* 


२७। ९।३३ -=भूमाविम्ब अंगृलादि 1. 





दोष ५।५३ रहा । इसके पञ्चमा १।१० मे १० जोडने से ११।१० संगृादि 
सूयं विम्ब हुभा ¦ 

चन्द्रमा की स्पष्टागति ८००।५१ । इसमे ७४ का भाग देने से रुन्धि 
१०।४९ अंगृलादि चन्द्रविम्ब हुभा । 


चन्द्रविम्ब १०।४९ को ३से गुणा कर गणनफल ३२।२७मे इसी का 
एकादश्शांश २।५७ जोड़ने से ३५।२४ हुभा । इसमे से ८ घटाने पर रोष 
२७।२४ भूभाविम्ब हुआ ॥ 


छादकचछायनिणंयपूर्वक म्रासानयनम्‌-- 
छादयत्यकमिन्दुविधु ` भूमिभा 
छादकच्छादमानेक्यखण्डं कुर । 
तच्छरोनं भवेच्छन्नमेतद्यवा 
ग्रह्यहीनावशिष्टं तु खच्छन्नकम्‌ ॥ ४।\। 


मल्छारिः--अथय मार्नक्यखण्डग्रासप्रमाणे साधयत्ति । इन्दुर्चन्द्रोऽकं छाद- 
यति । अस्मदादिदष्टेरावरणीभूतो भवति । मूमिभा विधुः चन्द्रमसं छादयति । 


१४० ग्रहलाधवें 


छादकच्छा्योः सूयंग्रहणे सूर्य चन्द्रयोश्चन्दरग्रहणे चन्द्रभछाययौये माने विम्बे 
तयो्यदैकयं तस्य यत्‌ खण्डमधं तत्‌ कुषए॒॑तन्मार्नक्यलण्डमिति शरेण पूवंसाधितेन 
ऊनं रहितं सद्यदवरिष्टं तच्छन्नमंगुराद्यो ग्रासः स्यात्‌ । चेन्मानंख्यलण्डाच्छरो 
न निर्गच्छति तदा ग्रहणमपि नास्तीति जेयम्‌ । ततच्छन्नं यदा ग्राह्येन छाय- 
विभ्बेन हीनं सदवशिष्टं तदा तु शेषतुल्यः खग्रासो भवति । खच्छन्नमिति यथार्थं 
नाम यततः सर्वविम्बं ग्रासयित्वाकाशमपि तावद्ग्रसितम्‌ । इदं तु सरवंग्रहणं एव 


भवति । 


अस्योपपत्तिः रवेरभार्घान्तरे क्रान्तिवृत्ते भूमा भ्रमति । रवेर्भार्धान्तरे चन्द्रश्च । 
अतः पौर्णामास्यन्ते भूभाचन्द्रौ समौ भवतः । अतश्चन्द्रस्य भूद्ठाया छादिनौ स्यात्‌ । 
दर्शान्ति चन्द्रादूध्वं रविक्चन्द्रसमोऽतो र वेश्चन्दर माश्छादको भवति । 


अथ ग्रासोपपत्तिः--चन्द्रविमण्डलापवत्तयोः सम्पातरचन्द्रपातः । तथा 
तस्मात्‌ षड़भान्तरेऽपि ! एवं स्थानद्वये शराभावः। ततस्त्रि मेऽन्तरे परमः शरः 
एवंकृते चन्द्रविम्बमध्यकेन्द्रविमण्डले सदंव वत्तते । सूयंस्य मण्डलकेन्द्रं क्रान्ति 
मण्डले । तस्मात्‌ षड्भान्तरे भूछायायाः केन्द्रमपि क्रान्तिमण्डल एव । यदा चन्द्र 
स्य शराभावस्तदा चन्द्रः क्रान्तिवृत्तमाश्रयति । एवमुभयोरेकमार्गाधितत्वान्मण्डल- 
भेदः स्यात्‌ । तदा चन्द्रमण्डलं भूक्ायां प्र विश्य पर्व॑तो निःसृत्य गच्छति तदा सवं- 
ग्रहण भवति । स्वल्पे दारे ग्रासादिकस्य सम्भवः । उभयोमण्डलयोर्योगार्पधिके 
शरे ्रहणाभाव एवमत्र राहोरकारणं परिदुश्यते । उक्र्ं च~ दिर्देशकालङावर- 
णादिभेदनच्छादक' इति । किन्तु संहितादिषु राहूकृतं ग्रहणमिति प्रसिद्धिः । 
तत्कारणं लल्टेनोक्तं ग्रहणे कमलासनानुभावा' दित्यादि । छादच्छादकयो- 
मण्डलमघ्यकन्द्रयोविमण्डलापमण्डलस्थयोर्नेमिस्पशं उ भयोमण्डलार्घमेव कन्द्रान्तरं 
भवति । तावति शरे मण्डलस्पशं एव । तदूने यावानुभथोः संयोगस्तावान्‌ ग्रास 
इति अधिकं मण्डञ्योः सम्पर्को न भवत्येवं ॒तस्मादग्रहणाभावः । छादयतुल्ये छन्ते 
प्णश्रहण तस्माच्छायोने छन्तं चाकाशग्रासः खच्छन्नसंज्ञा इति ॥ ४ 


चच्रिका- (सूयं ग्रहण मे) चन्द्रमा सूयं को आच्छादित करता है तथा 
(चन्द्रप्रहण मे। भूमि कौ छाया चन्द्रमा को आच्छादित करती ह 1 


ज ~ म ~ ५ 


१. छाद्य छादकं मेद से सूयं ओर चन्द्र ग्रहण की परिस्थितियों में पर्याप्त 
अन्तर होता है । चन्द्रमा पृथ्वी कीषछठाया मेँप्रविष्टहो जाने से भदृक्यहो जाता 
हं अथवा जितना भाग छाया घे ग्रस्त होता हैँ उतने भाग का ग्रहण होता ह । यही 
कारण है कि चन्द्रग्रहण जहा तक चन्द्रमा दुर्य होता है वहां तक एक ही रूप में 





चनद्रग्रहणाधिकारः १४९१ 


छाद्य ओर छादक के विम्बों का योगकर उसके आधे (मानैक्य खण्ड) 
मे शर घटाने से शेष ग्रासमान होता हं । ग्रासमान से छाद्य विम्ब घटाने 
पर शोष खग्रास होता ह्‌ ॥४ 

उदाहरण-छादक (भभा) विम्ब == २७।२४, छाद्य (चन्द्रमा) विम्ब 
१०।४९ इन दोनों का योग ३८।१३ मानेक्य हुजा इसका आधा १९।६ 
मानेक्याधं या मानैक्यखण्ड कहुलाता है । इसमें कशषर ५।३५ घटाने से १३।३१ 
ग्रासमान हुआ । यह्‌ छाद्य विम्ब १०।४९ से अधिक है । अतः ग्रासमान 
१३।३१ से १०।४९ को घटाने से दोष २।४२ खग्रास हुजा । 


स्थितिदरमर्दघस्योरानयनम्‌- 


मानेक्यखण्डमिघुणा सहतं दशघ्नं 
छन्नाहतं पदमतः स्वरसांशहीनम्‌ । 
ग्लोविम्बहूत्‌ स्थितिरियं घटिकादिका स्या- 
न्म्दं' तथा तनुदलान्तरखग्रहाम्याम्‌ ॥ ५ 


मल्लारिः--अथ ग्रहणस्य स्थितिसाधनमाह । मानकेयखण्डमिषुणा शरेण 
सहिते ततो दकशमिरहुन्येत तत्‌ तथा । तत्तश्छन्नेन प्रासेन भहत्तं गुणितम्‌ । अतः 
पदं मृं तत्‌ स्वषडंशहीनं चन्द्रविम्बभवतं घटिकादिका स्थितिः स्यात्‌ । तथा 
तनुदलान्तरखग्रहाभ्यां मदं स्यात्‌ । तद्यथा । विम्बार्धान्तिरं शरयुक्छं खग्रासगुणम्‌ । 
अतो मूक स्वषडंशहीनं चनद्रविम्बभक्तं घटिकादिकं मदं स्यादित्यर्थः । 


दक्ष्य होता हं । परन्तु सूर्यग्रहण की एेसी स्थिति नहीं है । सूर्यग्रहण स्थान भेद से 
पृथक्‌-पृथक्‌ दष्टिगोचर होता है । क्योकि सूयग्रहण में वस्तुतः सूयं भमाच्छादित 
नहीं होता अपितु द्रष्टा ओौर सूर्य के मध्य चन्द्रमा अवरोधक होता ह । चन्द्रमा 
हमारे दृष्टि पथ को जितना अवरुद्ध करता है उतना ही सूयं ग्रहण दृष्टिगोचर 
होता हं । चन्द्रविम्ब लघु ह सूयं विम्ब बृहद्‌ ह । अतः यदि द्रष्टा सूर्यं भौर 
चन्द्र कं कन्द्रगत सूत्र मे स्थित होकर सूयं को देवता है तो सूय का वल्य या ककण 
ग्रहण उसे दिखलाई देगा । वयोकि कन्दर गत होने से चन्द्रसा सय विम्ब के मध्य 
मे स्थिते होगा । तथा चन्द्रविम्ब कें चारों तरफ सूर्यं का अवशिष्ट प्रकारित भाग 
एवं मध्य में चन्द्रमा से छादित कृष्ण प्रदेश दिखाई देगा जो एक वल्य के आकार 
मे होगा 1 कुछ स्थल एसे भी होगे जहाँ पर सूर्यग्रहण दद्य नहीं होगा इसीलिए 
सूर्यग्रहण मेँ आगक्षांश देशान्तर से दृष्यादृश्य का निय करना पड़ता है । 


-१४२ ग्रहलाघवे 


अक्रोपपत्तिः--समायां मुवि अभीष्टव्यासार्घेन वृत्तमालिख्य दिगद्धुः कृत्वा 
या पूर्वापरा वृत्तरेखा ततः स्वदिशि म्यग्रहुणिकं शरं प्रसायं तदग्रे विन्दुः 
कार्यः । ततस्तदग्रसूध्रस्पुक्‌ पूर्वापरायता रेखा कार्या सा विमण्डलरेखा । ततो 
ऽपवुत्तरेखामध्ये मध्य॒ कृत्वा भूभाग्यासार्धेन यद्वत्तमु्द्यते तद्‌भूभावृत्तम्‌ । ततो 
विक्षेपाश्रबिन्दुं मध्यं कृत्वा ग्राह्यविम्बाधेन यद्‌वृत्तमुत्दयते तच्चन्द्रवृत्तम्‌ । 
तच्चन्द्रभूभावृत्तान्तयोः परस्परमनुप्रवेशो प्रासः । अत्र स्परान्मघ्यग्रहणं यावद्यन 
मागण छादको गच्छति तस्य छादकमा्गस्य प्रमाणं ज्ञातु त्रिभूजकल्पना कृता । 
सा यथा । प्राह्यग्राहकयो रव्यं (१) मानक्यार्तुल्यमन्तरं स एव कर्णः । मघ्यग्रहण- 
कालिकः शरः कोटिः । कोटिक कर्णंकृतेविशोध्यं मू पूर्वापरो भुजो भवति । 
अत्र वर्गान्तिरं योगान्तरघातस्षममतो मा्नक्यखण्डशरथोर्योगो भानेक्यखण्डलरान्त- 
रेण गुण्यो वर्गान्तिरं भवति । मानेक्यखण्डमिषुणा सहितं छन्नाहतमिति सिद्धम्‌ । 
ततस्तदंगुखाट्मकं जातं कलीकरणार्थं गुणः ३। ततो घटीकरणा्थंसनुपातेः 
यदि गत्यन्तरककामिः षष्टिघटिकास्तदाऽऽभिर्भजकराभिः किमिति । फलं स्थित्य- 
धधटिकाः । शवं मान्य खण्डशरयोगस्य प्रासगुणस्य पूवं गुणः ३ । इदानीं षष्ट- 
गुणः । एवं जातो गुणघातो गुणः १८० । गत्यन्तर हरः । गुणहरावष्टषष्टथा- 
६८ । अपवत्तितौ जातं॒गुणस्थाने सावयवं २।३८।२० । हरो गत्यन्तरं यावदष्टष- 
ष्ट्या भाज्यतं तावच्वन््विम्बमेव हरः 1 अत्र खण्डगरुणनाथं सषडंशत्रयमितो गुणो 
धृतः । भत्रे मरं गृहीत्वाऽ्तेन गुण्यम्‌ । अत्राचार्येण ३।१० अस्य गणस्य वर्गं 
कृत्वा १० अनेन वगं एव प्रथमं गुणितस्ततो मूर गृहीतं तुल्यमेव भविष्यति यो 
“वर्गेण वगं गुणये' दित्याद्यक्तमिति । अतो दश्नं ततो मूरमित्युक्तं पुवं गुण- 
खण्डस्थाते एतावदधिकं गृहीतम्‌ ०।३९१।४० इदं षड्भिः सर्वगतं जातम्‌ २३।१० 
इदं पूरवंगुणतुल्यं जातमतः स्वरसां शहीनमिति । चन्द्रविम्बं हरोऽस्ति। अतो 
ग्छोविम्बहूदिति । एवं स्थितिवटिकाः स्युरित्युपपन्नम्‌ । अथ मर्दानयनं युर्वितः 
तत्र॒ समीरुनकाल विम्बान्तरार्ध॑तुस्यं ग्रहकेन्द्रयोरन्तरं भवति स च कणः । मध्य- 
ररः कोटिः । अनयोर्वर्गान्तरात्‌ स्थितिवन्मर्दसिद्धिभंवतीति । अनुपातसाद्श्ष्यात्‌ । 
अतः उक्त॒तनुदलान्तरखग्रहाम्यां मर्दमिति ) एवं कृते स्थितिमर्दयोः खण्डे न 
सकले । यतः स्पर्शान्मध्यपयंन्तमेक स्थि्तिखण्डं मध्यान्मोक्षपर्यन्तमेकं स्थिति- 
खण्डम्‌ । तथेव मरदखेण्डमपि । मर्दखण्डं तु खग्राससम्भवे नान्यथेत्यर्थत एव 
सिद्धम्‌ ॥ ५ 


चन्द्रिका-- सानेक्याधे (छाद्य विम्ब गौर छादक किम्ब का योगाधं) में 
शर जोड़कर १० से गुणाकर गुणनफर में पुनः ग्रासमानसे गुणा करके 
वगं मूल्क्नेसेजो प्राप्त हो उसमे उसी का षष्ठांश घटाकर शेष मे चन्द्र 


चन्द्रग्रहुणाधिकारः १४३ 


विम्बकाभाग देने से छुन्धि घटयादि श्थिति' होतोहं। इसी प्रकार 
छाद्य छादक के विम्बान्तर एवं खग्रसि द्वारा घटथादि मदं का साधन 
होता हे | 


उदाहरण-छाद्य विम्ब १०।४९ छादकं बिम्ब २७।२४ दोनो का योग 
३८।१३ इसका आधा १९।६ (मनैक्याधं) इसमे शर ५।३५ जोड़कर योग- 
फल २४।४१ को १० से गुणा किया गुणनफल २४६।५० को पूनः ग्रासमान 
१३।३१ से गुणाकर गुणनफर ३३२३६।२१ के वगंमूख ५७।४५ मे इसका 
षष्ठां ९।३७ घटाया शेष ४८।८ को एक राशि २८८८ बताकर उसमें 
चन्द्रविस्ब १०।४९ कै एकं रारिगत मान ६५९्से भाग देने प्र रन्धि 


४।२७ स्थिति" घटी हुई । 


छादक (भूभा) २७।२४ तथा छाद् (चं.वि.) १०।४९ के अन्तर १६।३५ 
के आधे ८।१७ मे श्र ५।३५ जोड़कर योगफर १३।५२ को १० से गुणाकर 
गुणनफर १३८।४० को पूनः खग्रासत २।४२ से गुणाकर गुणनफर ३७४।२४ 
के वगंमूल १९।२१ मे इसी का षष्ठांश २।४८ घटाकर शेष १६।७ के पलात्मक 
मान ९६७ में चन्द्रविम्ब १०।४९ के एक राकिगत मान ६४९्सेभागदेने 
पर रन्धि १।२९ मद" घटी हुई । 


संस्कारविज्ञेषात्‌ स्पर्शमोक्षस्थिव्योः साधनम्‌ -- 
युग्माहतेव्यगुभजां्ञसमैः पलेः सा 
दिष्ठा स्थिर्तिविरहिता सहिताऽकंषडभात्‌ । 
उने च्यगावितरथाऽम्यधिके स्थिती स्तः 
स्पर्शान्तिमे क्ृमगते च तथेव मदं ॥ ६ 


मल्लारि :--अथ स्पर्ल॑मोक्षस्थितिसाधनमाह । युग्माहता द्विगुणिता ये व्यगो- 
भु जांशास्तन्मितंः पठः सा हिष्ठा स्थित्तिविरहिता सहिता सती स्पशशमोक्षयोः स्थितिः 
स्यात्‌ । इदं कदा तदाह । अकषडमादद्रादश राशिभ्यः षड्शिम्यश्च व्यगौ ऊने 
सत्ति । अधिके सति इतरथा विपरीतम्‌ । यत्र विरहिता सा मोक्षस्थितिः 1 मर्देऽपि 
तथेव काये । ¦ 

अश्रोपपत्तिः--अत्र त्वसकृत्प्रकारेण स्थितिखंण्डे साध्ये । ते यथा । स्थिति- 
खण्डेन गतिगु ण्या षष्ट्या भाज्या फलं स्पर्लाथं ग्रहेषु हीनं मोक्षायं युक्तं तेम्यः पुनः 
रादिकं विधाय पृथक्‌ स्थितिखण्डे साध्ये । ततः पुनस्ताभ्यां स्थितिखण्डाभ्यां रवि 
राह चायित्वा स्थिती कायं । एवं असङृत्समे भवतः । इदं जडकमं दृष्ट्वा भाचा- 


१४४ ग्रहुख। चवे 


येणेत्थमनुकल्पोऽङ्गीकृतः । द्विगुणितवग्यगुमुजभागतुल्यानि पलानि मघ्यस्पर्शस्थित्यन्त- 
रारे मध्यमोक्षास्थित्यन्तराये च स्वत्पान्तरत्वात्‌ तुल्यान्येव दृष्टानि सतो द्विगुणित- 
न्यगुभुजभागतुल्यैः पलः सा स्थितिरद्विष्ठा युतोना मोक्षस्पशंस्थितिखण्डे भवत इत्पुप- 
पन्नम्‌ । युतोनितस्योपपत्तियंथा षडभाकंभोने व्यगौ सति स्पक्ंकाला्थमृणं चालनं 
दत्वा मध्यकालीनान्न्यूने सति भुजवृद्धिरतः शरवृद्धिः । शरवृद्धौ स्थितेरल्पत्वम्‌ । 
अतो विरहिते सति मौक्षाथं घधनचालने दत्ते न्यगोराधिक्यं तत्र भुजशराल्पत्वात्‌ 
स्थितेराधिक्यम्‌ । अतः सहितेति । अकषडभादधिके ग्यगौ अग्रे मुजवृद्धिः एवं भुज~ 
हासः । भतो विपरीतमिति । एकक्षत्रमूलत्वात्‌ स्थिव्यर्धमदार्धं अपि कायें इत्युप- 
पन्नम्‌ ॥ ६ ॥ 


चन्द्िक्षा-राहु रहित मयं यदि १२ रारिया ६ राशिसे अल्पहो 
तो उसके (राहु रहित सूयं के) भुजांश को रे सेगुणा कर द्विगणित अंश 
(यर्हा पल नहीं लेना ह । ) तुल्य पल को स्थिति घटी मे एक स्थान पर 
घटाने से स्पशं स्थिति तथा दूसरे स्थान मे जोड़ने स मोक्ष स्थिति होती 
ह । यदि राहु रहित सूयं १२ रारियों सं अधिकहोतो विपरीत संस्कार 
अर्थात्‌ द्विगुणित भुजांश तुल्य पर को स्थिति धटी में जोड़ने से स्पर्शं 
स्थिति एव घटाने स मोक्ष स्थिति होतीहे! इसौ मदं घटीमे संस्कार 
करने से सम्मोलन एवं उन्मीरन मदं होता ह ॥ ६ ॥ 


उदाहरण--सूयं ७।१३।११।५४ राहु ७।१६।५५।१९ सूयं से राहु को 
रहित करने से शेष ११।२६।२६।३५ हृभा यह १२ राशि से अत्प ह अतः 
इसके भुज ०।३।३३।२५ को रसे गुणा कर गुणनफर ७।६।५० मे से केवल 
द्विगुणित अंश ७ तुल्य पल स्थिति घटी ४।२७ में घटाया तो ५२० स्पशं 
स्थिति हुई एवं ४५२७ मे ७ जोड़ा तो ४।३४ मोक्षस्थित्ति हई । 

इसी प्रकार मदं घटी १।२९ में ७ पर घटाने से १।२२ सम्मीलन मदं 
तथा ७ जोडने से १।३६ उन्मीकन मद हुभा ॥ ६ ॥ 


स्पर्लादिकालन्ञानम्‌- 
तिथि विरतिरयं ग्रहस्य मध्यः 
घ च रहितः सहितो निज स्थितिभ्याम्‌ । 
ग्रहुणमुख विरामयोस्तु काला- 
विति पिहितापिहिते स्वमेदंकाभ्याम्‌ ॥ ७ 


चन्द्रहुणाधिकारः १४५ 


मल्छारि : --अथ स्पर्शकालादिसाघनं कथयति । तिथेगंणितागता य विरति- 
रन्तोभ्यं ग्रहस्य ग्रहणस्य मध्यः । स मध्यकाकः । निजे ये स्थिती ताभ्यां विरहितः 
सहितः सन्‌ ग्रहणमुखं स्पर्शो विरामो मोक्षः ) तयोः कालौ भवत इत्यनेनैव प्रकारेण 
स्वमदकाभ्यां पिहितापिहिते सम्मीखनोन्मी लने भवत्तः । एवदुक्शं भवतति । तिथ्यन्त- 
कालो ग्रहस्य मध्यः । स चतुषु स्थानेषु स्थाप्यः । स्पशस्थित्या न्यूनः स्पश्ञंकालः 
स्यात्‌ । अन्यत्र मोक्षस्थित्या युक्तो मोक्षकालः स्यात्‌ । तथा प्रथममर्दनोनो मव्य 
सम्मीलनकाखो भवति द्वि्तीयमर्देनान्यत्र युक्तो मध्य उन्मीलनकालः । ७ 


भग्रोपपत्तिः--मध्यकारात्‌ पूवं स्थित्य्घकालेन स्पर्शो भवत्येवातो मध्यकाले 
स्पशंस्थितिन्प्‌ ना कृता । मोक्षकारस्तु मध्यादग्रतो मोक्षस्थित्यधंन भवत्यतो मोक्ष- 
स्थितियुक्तो मध्यो मोक्षो भवतीव्युपपन्नम्‌ । तथेव मध्यान्मर्कस्ंतुल्यकालाम्यां 
सम्मीलनोन्मीलने भवत एव ॥ ७ 
चद्धिका-तिथ्यन्त काल ग्रहण का मघ्यकाल होता है । उसमें (तिथ्यन्त 
कालम) स्थिति घटी घटाने से स्पशं कार तथा मोक्षस्थिति जोड़ने से 
ग्रहण का मोक्षकाल होता है 1 एवमेव तिथ्यन्तकाल में सम्मीलन मदं 
घटाने से सम्मोलन कारु तथा उन्मीलन मदं जोडने से उन्मोलन काल 
होता है ।॥ ७ 
उदाहरण : - स्वंशे स्थिति ४।२० मोक्षस्थिति ४३४ तिथ्यन्तकाल 
३५।५१ इसमे स्पा स्थिति ५।२० घटाने से ३१।३१ स्पशं कारु हु । 
मोक्षस्थिति ४।२४ को तिथ्यन्तकाल ३५।५१ मे जोडने से ४०।२५ मोक्ष 
काल हुमा । 
सम्मीलन मदं १।१० को तिथ्यन्तकाल ३५।५१ मे घटाने से शेष 
२३४।४१ सम्मीलन कारु एवं ३५।५१ मे १।२४ उन्मीखन मदं जोड़ने से 
६५।१५ उन्मीलन काल हुमा । 
दष्टप्रासानयनम्‌ ~ 
पिहितहतेष्टं स्थितिविहूतं तत्‌ । 
सचरणभ्‌युग्‌ प्रसनमभो-टम्‌ ॥ ८ 


मट्लारि : अथेष्टकाकले ग्रायमानयति । पिह्ितेन प्रासेन हतं गुणितं यर्दिष्ट- 
चघटिकायं रिथत्या विहृतं कार्यम्‌ । चेत्‌ पर्श का लकभिष्ट तदा स्पर्शस्थिस्यां भाजम्‌ । 
१५ ५९४५ 


१.८६ ग्रहुलाधवे 
मोक्षेष्टं चेत्‌ तदा भोक्षस्थित्या भाञ्यमिति । तत्‌ फं द्विष्ठं सचरणभुवा सपादेकेन 
युगभीष्टं ग्रसनमेगुलाद्ं स्यादिति व्याख्या ॥ ८ 
अघ्रोपपत्ति : अत्रष्टकणं प्रसाध्य तदूनमानव्यखण्डं कृट्वा यच्छेषं तदिष्ट- 
काले छन्नं स्यात्‌ , इष्टकर्णानियने प्रयासोऽस्ति । अतो लाघवार्थमनुपातः कल्प्यः । 
यदि स्थितिघटीभिर्यथागतो ग्रासस्तदेष्टघटीभिः किमिति अतः पिहितहतेष्ट स्थिति- 
विहूतमिति । अच्रानुपातस्यासम्भवः । वृत्तक्षेत्रपरिध्याधितत्वादप्राप्तावपि प्राप्तिः 
कृता । मतो महदन्तरं स्यात्‌ । तत्रानुकल्पेनेव्यमङ्खीकृतम्‌ । सचरणमूयुक्‌ सुक्ष्मा- 
सन्नं भवति । ८ । 
चन्द्रिका :--ग्रहुणकारु मे किसी समय का ग्रासमान अभीष्टहो 
तो इष्टकालको म्रसमानसे गृणाकर गृणनफरू मे स्थिति घटीसे भाग 
देने परनजो ल्च्धिप्राप्त हौ उसे १।१५ में जोडनेसे अभोष्ट मासमानं 
होता हं ॥ ८ 
उदाहरण : ` कल्पित इष्टघटी २।० ( ग्रहणकालान्तमतं ) । अनः इसे 
ग्रासमान १३।३१ से गृणाकर गुणनफल ३०।३.; सू एक ऊग्णोप कर 
स्थिति धटी ४।२० के एक राशिगत एनं रण से भ्म ने पर्‌ 
खन्ध ९।२१ को १।१५ में जोडने मे १०३६ ठङ्र-कदि घ्न ` = ॥ 
वलनसाधनम्‌--~ 
त्रिभयुतोनरदिः स्ददिधुश्रहै- 
ऽयनर बाढ इतशयरददूकेः । 
नगश्षरेन्दुमितेदंल्नं भवेद्‌ । 
स्वरधिदिक्‌ ल्य भथ्यनद्ार्- "५ 


महलारि :-अथ मध्यस्पशमोक्नार्िगूढयाना ६4 ४ ६ , सा, . 
धृस्तावदायनं साधन ` एयधिवुप्र १. :तोन ९. ' 4. 
कायं वन्दरप्रहणे र्वि धिमौन- म. । ततः र दरः "षणे यु 
तार्थः । इतः साग्नयः ~ ^ ^ दि" 

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चन्द्रग्रहणाधिकार+ १.४७ 


तद्ाक्षवलनमभन्वर्थं नाम । यतो नाडिकासममण्डल्योरन्तरमक्षांशा एव । तथं 
नाड़ीमण्डलप्राच्याः क्रान्तिमण्डलप्राची यावत्ताऽन्तरेण वति तदायनं वलनम्‌ । 
अयनसम्बन्धित्वादायनम्‌ । तदादौ साध्यते । गोलसन्धौ तु यद्यपि नाडिकामण्डल- 
क्रान्तिमण्डल्योगोऽस्ति तथाऽपि प्राच्यो ऋजुमार्गेण परममन्तरम्‌ । अयनसन्धौ तु 
क्रान्तिवत्तनाडीवृत्तयोयंद्यपि परममन्तरं तथाऽपि ऋजुमांर्गात्‌ प्राच्यन्तराभावाऽतो- 
ऽयनसन्धौ वलनाभावः । गोलसन्धौ परमम्‌ ! गोरसन्धौ ग्रहस्य वोज्याभावात्‌ब 
कोटिज्या परमा । अयनसन्घौ दोर्ज्यापरमत्वात्‌ कोटिज्याऽमावः 1 यत्र कोटिज्या- 
परमत्वं ॒तच्रायनवलनस्यः परमत्वं यत्र॒ कोटिज्याऽभावस्तत्रायनवलनाभावोऽसः 
कोटिज्याततो वलनं साध्यम्‌ । तत्र ग्रहः सत्रिभः। तस्य भुजज्या कोटिज्येव प्रत्यक्ष 
भवति । एवं सूर्यग्रहणे सूर्यस्वरिभयुक्त इति । एवं चन्दरग्रहणे चन्द्रस्यापि त्रिभं 
योज्यम्‌ । तत्र सूय॑चन्द्रयोःषड्भान्तरत्वादुभुजतुल्यत्वम्‌ । अतो रवावेव चरिभं देयम्‌ । 
परमत्र त्रिभं हीनं कायं गोखान्यत्वसद्‌भावात्‌ । ततः सायनः कायं एवायनसम्ब- 
न्वित्वादतस्त्रिमयुतोनशयनरविदोर्ज्यातो वलनसाधनेऽनुपातो यथा । यदि त्रिज्या 
१२० तुल्यया दोज्यंया परमक्रान्टिञ्यातुल्यमायनं वलनं ४८।४५ तदेष्टया किमिति । 
अन्योऽनुपातः । यदि दुज्यावृत्तं इदं त्रिञ्यावृते किमेवं जाताऽऽयनवलनज्या । 
अस्या घनुरायनं वलन स्यात्‌ । तत्रेदं गुरुकमं दृष्टवा भाचायेभ राशित्रयमभ्ये 
प्रति यकशिवक्नानि प्रसाध्य तान्यधोऽधो विरोध्य खण्डानि कृतानि ७।५।१। एवं 
ता. वलनानि । अन्यत्र सम्पूर्णज्यावद्वलनप्रदानार्थ' द्विधुणानि कृतानि सन्ति । 
एव; वण्डेडच - वद्रलनं साध्यम्‌ । यतदचं खण्डान्यपि रा्धित्रभमव्ये त्रीण्येव 
सा७। अलो मुगर्तदङ्वाचराधंयोग्‌ इत्यादि सममेव ।। ९ 

चन्द्रिका: स्यंग्रहणमे सूथंकौी राशिमे ३ रारि जोडकंर तथा 
चन्म. २ मृ की राशि स ३ राशि घटा कर शेष मे अयरनाश्ष जोड़कर 


सन्य, ,, व; (र. च. स्प. ब कलोत ९} ठी हरर ७५१ चन्दे 

। „व्ल स्वं, , वोत ` ण 
५?” : अयनः 

>. ¬ ५१ 


१४८ ग्रहलाघवें 


कल्पना कर भोग्य खण्ड ७ से भुज के अंशादि २२।३५।३७ कं गुणनफल 
१५८९ मे ३ेण्काभागदेने से छन्धि ५।१६ आयन वलन हुई | त्रिभोन 
सथं उत्तर गोर का है भतः भायनवलन की भी उत्तर दिक्षा होगी । 


आक्षवलनसाधनम्‌-- 
विषयलरन्वधष्ादित उक्तवद्‌ 
वरूममक्षटूतं परभाहूतम्‌ । 
छदगपागिह पूदपरे क्रमाद्‌ 
रसहूतोभय संस्छृतिरङ्घ्रयः ॥ १० 


मल्छारि -एवमायनं वलनं प्रसाध्येदानी माक्षजं वलनं साधयति मधघ्यनताच्चं 
यत्‌ । भध्यनतात्‌ मध्यकालचयुदलान्तरनत्ं ततः विषयैः पञ्चभिलग्धं यदुग्रहादि 
राक्यादि तत्‌ उक्तवत्‌ नगक्षरेन्दुमित्त॑रेव खण्डेवंलनं साध्यम्‌ । तत्‌ पल्भया हतं 
गुणितमक्षः पञ्चभिह्‌ तं भक्तं कायं तदाक्षं वलनं भवति । तत्‌ पूवं परे नते क्रणा- 
दुदगपाक्‌ स्यात्‌ ।! पूर्वनते उत्तरं परिचमनते दक्षिणम्‌ । एवमुभयोर्वलनयोर्या सस्छृतिः 
सा रसेः षडभिहुता भक्ता सती अंघ्नयो वरनदिक्‌चरणाः स्युरित्यथंः । १० 


अत्रोपपत्ति :--क्षितिजे यद्यपि नाडोमण्डरसममण्डलयो सम्पातस्तथाऽपि 
भराच्योक्रहुमार्गेण तत्र॒ परमनन्तरमक्षज्यातुल्यम्‌ । खमध्ये नाडिकामण्डलसम- 
मण्डलयोयंद्यपि परममन्तरमस्ति तथाऽपि ऋजुमागररिम्भात्‌ प्राच्योरन्तराभावः उदये 
षरमक्षज्यातुल्यमाक्षं वलनं तत्र नतमपि परमम्‌ । खमध्ये आाक्षवलनाभावः । तत्न 
नतस्याभावः 1 अतो नताद्रलनं साध्यम्‌ । भन्रानुपातो यथां । नतघटीनां पञ्चमांशो 
राशयः स्युः । अतः पद्चदश्षघटीनां म्यं राशित्रय एव । अतो नतस्य पञ्चमांदस्य 
दोज्यतो वलनं साध्यम्‌ । तद्यथा । यदि त्रिज्या-१२० तुल्यया नतज्या अक्षज्या- 
तुल्यं परम वनं तदेष्टनतदोज्यंया किमिति । ततोदयुज्यावृत्ते इदं तदा त्रिज्यावृत्ते 
किमिति । अत्र छाचवायं' पञड्चमिहठां परमां प्रकत्प्य सार्घदाविशति-२२।३० मितान्‌ 
मक्षांशान्‌ कत्वा पञ्चतु-पञ्चसु घटीषु त्रीणि वलनानि पृथक्‌ प्रसाध्य तान्यधोऽघो 
विशोष्य ततोऽर्घानि कत्वा वलनखण्डानि क्रियन्ते । तानि तु पूर्वायनतुल्यान्येव 
भवन्ति । अतस्तरेव वलनमि'त । परमेतद्रलनं पञ्चपलभा प्रमाणेन जात्तम्‌ । स्वदे- 
दीयकरणा्थमनुपातः । यदि पञ्चपलभाप्रमाणेनेदं तदेष्टाक्षमया किमिति। 
सतोऽक्नहृतं पलमाहतमिति । पूर्वाऽरे नते दक्षिणोत्तरमिति । अस्योपपत्तिर्गोखोपरि 
प्रत्यश्तो दृश्यते । अथ रयहतेत्यस्योपपत्तिः। अत्रोद वेनं भागाद्यं वत्तपरिघौ 
देयम्‌ ¡ सप्र एदमट"दिदिम्ध्यर्प्नौ वर्णाः फृत्मः ततेऽनृपातः यष्दत्त्रलि- 


चन्द्रग्रहुणापिकारः १४९ 


द्वात्रिशत्‌ सर्वचरणा ३२ कभ्यन्ते तदेष्टवलनांहौः किमिति । गुणहरयोर्गुणनाप- 
वत्तितयो्खब्धा हरस्थामे ११।१५। मत्र वलनार्घ' कृतमस्त्यतो हराधं कृतम्‌ । 
५।२३७॥ { १० ] 


चन्द्रिका :--( पूर्वश्लोक से “अथ मध्यनताच्च यत्‌" का भाव यहां 
ग्रहण करेगे ) अर्थात्‌ मभ्यनतकालमें५से भाग देकर लब्धि राष्यादि 
को स॒यमानं कर पूर्वोक्त विधि ( ७।५।९ खण्डो ) से चर की तरह साधित 
फल को पलभा से गुणाकर गृणनफल मे ५ काभागदेनेसे जो लन्धि प्राप्त 
हो वहु आक्षवलन होती है । पूवंनत मं आक्षवलन को दिक्ञा उत्तर परनत 
मे दक्षिण होती हं । दोनों ( आयन-आक्ष ) वलनों की दिका यदि एक 
हीहोतो दोनों का योग करने से तथा भिन्न दिशाहो तौ अन्तर करनेसे 
स्फुटवलन होता ह । स्फुटवलनर्मे ६ काभाग देने से लन्धिस्पुटवल- 
नाधि होता हं । १० 

उदाहरण - स्प. सू. ७।१३।११।५३ अयना २५४५।१२।३० दिनाधं 
१२।१३, रात्यधं १६।४७, पवन्तिकाल ३५।५१, पर्वान्तकाल में दिनाधं 
१३।१३ घटाने से दोष २२।३८ पूवेनत हुमा । दिनमान २६।२६ में रात्र्यधं 
१६।४७ जोड़ने से ४३।१३ रात्रिमध्यकाल हुमा । मध्यरत्रि से पवंही 
ग्रहणमध्यफाल होने से पवंकपाल हुभा । श्लोकोक्त नियमानुसार पवंनत 
२२।३८ में ५ का भाग देनेसे राद्यादि ५।१९।२३६।० हुभा । इमे सायन सृं 
मानकर इसका भुज १।१०।२४।० बनाया । राशि स्थान मे १ ह भतः प्रथम 
खण्ड ७ गताङ्क हुआ । रेष्याडर्कं ५ से शेष भंशादि भुज १०।२४० को 
गुणाकर गृणनफ ५२ मं ३० कामाग देकर रन्धि १।१४ को गताङ्क ७ में 
गोडने से <।४४ हुआ । इसे वलभा ५।४५ से गृणा कर गणनफल ५०।१३ 
मे५कामाग देने मसे रन्धि १०।२ आक्षवलन हृई\ पवंनत होने से 
आक्षवलन कौ भी उत्तर दिशा हई । एक ही दिका होने से दोनों वलधों 
का योगं किया) मायनवलन~+-आक्षवरन ==५।१६ + १०।२-= १५ १८ 


न=-स्फुटवलन। स्फुटवलन १५।२८ को ६से भाग देने पर न्धि ३।३३ 
उत्तरवलनारङघ्ि हुई ॥। १० 


१५० प्रहुखाधवे 


प्रासदिगच्िसाधनपूवंकमच्यमग्रहणादिस्थानसाधनम्‌ -- 

मानेक्याघंहूतात्‌ खषडघ्नपिहितान्ुरू तदाशांन्नयः 

खच्छन्नं सदलंकयुक्‌ च गदिताः खच्छन्नजाशांघ्रयः । 

सव्यासन्यमपागुदग्वलनजाक्नांघ्रीन्‌ प्रदद्याच्छरा- 

शायाः स्याद्प्रहुमध्यमन्यदिश्षि खग्रासोऽयवा शेषकम्‌ ।! ११ 

भस्टारि :- छन्नं दिक्‌ चरण साघनमाह । खषड्भिः षष्ट्या हन्यते तत्‌ तथा 

एवम्भूतं पिहितं छन्तं मान्येश्यार्धेन भानेक्यखण्डेन हृतं भक्तं सत्‌ यल्लन्धं तस्मात्‌ 
यन्मृलं तत्‌ तस्थ छन्नस्य आशांघ्रयो दिक्‌चरणाः स्युः । खच्छन्नं सदलंकेन सार्धकेन 
युक्‌ क्षच्छन्ना जायन्ते ते तथा । एवम्मृता आशांघ्रयो दिकचरणा गदिता उक्ताः 
स्युः । ग्राह्य विम्बार्धेन वृत्तं दिगद्धुं समदन्त ३ २-कोष्टाद्धं च कृत्वा तश्र शराश्षायाः 
शरस्य दिशमारम्य अपाक्‌ उदक्‌ वलनजाश्ांघ्रीन्‌ सम्यापसन्यं दद्यात्‌ । चैदृक्षिणा 
वलनां घ्रयस्तदा शरदिः सग्यक्रमेण देयाः चेदुत्तरास्तदाऽपसन्यं ग्युत्क्रमेण तत्र 
भध्यं मध्यग्रहणं स्यात्‌ । खग्रसनं खग्रासोऽन्यदिश्ि मध्यग्रहणस्पर्भिन्यामेव दिशि 
भवेत्‌ । खग्रासाभावे विम्बस्य दोषक मध्यस्पधिन्यामेव दिक्षि भवेत्‌ । 


त्रोपपत्ति --यदि मा्ैक्यखण्डतुल्यग्रासेन दिगंघ्ि-८ वं स्वल्वान्तरः 
षष्ितुल्यो भ्यते तदेष्टेन किमिति तन्मूलं ्रासादिकृचरणा इत्युपपन्नम्‌ । एवं 
खच्छन्नांघ्रयोऽपि साध्यास्तत्राचार्येण सार्धेकयुगित्युपन्घ्या स्वत्पान्तराः साधिताः 
शोषोपपत्तिः स्पष्टा ॥ ११ 

खन्द्रिका-- ग्रासमान को६० से गुणा कर मानेक्यदर (भूभावि,. + 
च. वि >) से भाग देकर रन्धि का वगंमूर लेने से ग्रासाड््ि होता है) 
तथा खग्रास को ६० से गुणाकर बिम्बान्तराधं (भूभा-वि. च. (ब) 
सेभागदेनेसे जो लन्धि हो उसका वगंमूर खग्रासाद्घ्र होता है । 


ग्राह्य विम्बाधं द्वारा वृत्त बनाकर उसमे यदि दक्षिण वलन होतो शर 
की दक्षिण दिश्लासे क्षव्य क्रम से (दाहिनी तरफ से) वलनाहिघ्नतुल्य भकन 
करने से तथा यदि वलन की उत्तर दिशादहोतो शर के उत्तर बिन्दुसे 
भपसम्य भर्थात्‌ बयि तरफ से वलनांध्ि तुल्य अंकन करने से प्रहूण का 
मध्यविन्दु ज्ञात होता है) ग्रहण मध्य विन्दुसे विपरीत दिक्ञामें खग्रास 
होक्षादहैया विम्ब का शेषां होता रै ।॥ ११ 


चन्द्रग्रहणाधिकारः १५ १ 


उदाहूरण- -ग्रासमान १३।३१ खग्रास २।४२ मानैक्याधं ५९।६ ग्रास- 

मान १३।३१ को ६० से गुणा कर गुणनफल ८११ को मानेक्याधं १९६ से 
एक जातीय करके भाग देने से रन्धि ४२।२७ का वगंमूल ६।३९१ ग्रासाङघ् 
हुआ इसी प्रकार भूभा विम्ब भौर चन्द्रविम्ब का अन्तर २७।२४ ~ १०।४९ 
= १६।३५ इसका आधा ८1१७ बिम्बान्तरार्घ हमा । खग्रास २।४२ को 
९०्से गणा कर गुणनफल १६२ मे विम्बान्तरार्घं ८।१७ का एकजातीय 
करके भाग देने से रुन्धि १९।३३ का वगंमूर ४।२५ खग्रासाङ्घ्न हआ ।११ 
स्पशमोक्षादिदिम्नारम्‌- 

मध्याच्छन्नाशांचिभिः प्राक्‌ च पश्चा- 

दिन्दोन्यंस्तं तुष्णगोः स्पशं मोक्षो । 

खग्रस्तात्‌ खच्छन्नपादः परे श्राग्‌- 

दत्तैरिन्दोर्मोलनोन्मीलने स्तः \\ १२ 


मल्लरि - अथ स्पर्शमोक्षदिगृज्ञानमाह । मष्यग्रहणात्‌ खच्छननस्य खग्रा- 
सस्य आशांच्रिमिदिक्चर णः भ्राकपदचाद्‌ तं रिन्दोश्ष्वन्द्रस्य स्पशंमोक्षौ स्तः । एतदुक्तं 
भवति । मध्यग्रहणचिन्हात्‌ छन्नांघ्रयः पूर्वदिशि यथागता गणयित्वा देयाः । तत्र 
स्पक्षश्ष्चन्द्रस्य भवेत्‌ । तथेव मध्यात्‌ छन्नांघ्रयः पर्चिमदि्लि देयाः । तश्र चन्द्रस्य 
मोक्षः । उष्णगोः सूर्य॑स्य व्यस्तं विपरीतम्‌ तद्यथा । मध्यात्‌ छन्नांश्रयो हि परचिमतो 
देयास्तत्र स्पशः पुर्वंदिशि देयास्तत्र मोक्ष इत्यथ: खग्रस्तात्‌ खग्रासचिन्हात्‌ खच्छ- 
न्नांघ्चिभिः पश्चिमायां दत्तैरन्मीलनं स्यादिति सूरयंस्य विपरीत पूर्वदिशि संमीलनम्‌ । 
पचिरइम्रदिषश्युन्भीलनं स्यात्‌ । 
अच्रोपपत्िः - चन््रग्रहणे तु ग्रासस्य चन्द्रस्य पूवंगेतर्बह्ित्यात्‌ । अग्रे सरण्याः 
पूवे दिशि ग्राहकत्वेन वत्तमानार्यां भृद्धायायाःविम्बान्तदचन्द्रमाःप्रविश्चति । अतरच- 
नद्रविम्बस्य पूवंदिश्ि प्रथमंग्राहकविम्बे लग्नत्वात्‌ त्र स्पर्शः । एवं ग्रहणं कृत्वा 
पुरवंगतिबाहूल्यात्‌ चन्द्रमा भृछछायां परिचमतस्त्यक्त्वा गतः । अतो निःसरणे ग्राह्य 
विम्बस्य पर्चिमदिदि संयोगोऽतस्तत्र मोक्षः । उक्तं च सिद्धान्तक्चिरोमणोौ । 
ूर्वाभिमुखो गच्छन्‌ भृष्ायान्तर्यतः शशी विशति । 
तेन ॒प्राक्‌श्रग्रहणं प्चान्मोक्षाऽस्य निस्सरतः ॥ 


सरयग्रहणे हि सूर्यस्य ग्राह्यस्य पूर्वगतेषेरक्षया चन्द्रस्य ग्राहकस्य पूर्वगति- 
बाहुल्यात्‌ ग्राहकेण पर्चिमस्थेन पूर्वदिग्वत्तंमानस्य श्राह्यस्य स्पंः कृतोऽतो 


१५२ ग्रहुलाधवे 

ग्राह्यविम्बस्य परचिमि्ठि स्पर्षः। निःसरणवेलायां ग्राह्यविम्बस्य पूर्वदिशि 
ग्राहकविम्बं रग्नमतोऽत्र मोक्षः अनयैव युक्स्या सम्मीलनोन्मीलनदिशोरपपत्तिर्ञा- 
तन्या ॥ १२ 


देवज्ञवर्यस्य दिवाकरस्य सुतेन मल्लारिसमाह्वयेन । 
वृत्तौ कृतायां प्रहलाघवस्य समाप्त इन्दुग्रहणाधिकारः ॥ 


इति श्रीगणेशेदवन्ञविरचितग्रहलाधवेस्य चन्द्रग्रहुणाधिकारः पञ्चमः ॥ ५ 

चन्द्रिका--चन्द्रग्रहुण मे मध्यविन्दु से पूवदि्ामे ग्रासाड्घ्नि तुल्य 
संस्कार करने से स्पशं तथा पश्चिम दिक्ष। में प्रासाङ्घ्रि तुल्य संस्कार 
करने से मोक्ष होता है। परन्तु सूर्यग्रहण मे विपरीत संस्कार भर्थात्‌ 
पूवंदिशा में ग्रासाद्घ्र तुल्य अन्तर पर मोक्ष तथा प्रासाद तुल्य अन्तर 
पर पश्चिम दिला मे स्पशं होता है। 

खश्रास बिन्दु स खग्रासांघ्रि तुल्यान्तर पर पर्चिभ दिशा मे चन्द्रग्रहण 
मे मीलन (सम्मीखन) तथा पूवंदिशा मे खग्रासाद्घ्नितुल्यान्तर पर उन्मीलन 
होतारहै॥ १२ 

श्री गणेशदेवज्ञ विरचित ग्रहुलाघव के चन्द्रग्रहणाधिकारकी 
चन्द्रिका नामक सोदाहरण हिन्दी व्याख्य' सम्पूणं ॥ ५ 


डदै 


॥ श्रीगणेक्षाय नमः ॥ 


ग्रहलाघवं करणम्‌ 
सुयेग्रहुनाधिकारः--६ 


लग्नं दर्णाश्ति त्रिभोनं पथकस्थं 
तत्‌ कृान्त्यंशं: संस्कृतोऽक्षो नतांशाः । 
तदृदिद्ंजो वगितश्चेद्‌ द्विकोर्थ्नो 
ऽघोऽसौ द्वचूनः खण्डितस्तद्युतः सः ।। १ 
सारे हारः स्यात्‌ न्रिभोनोद्याकं- 
धिशलेषां्ाशांकहोनघ्नशक्राः । 
हाराप्तश स्याल्छम्बनं नाडिका 
तिथ्यां स्वणं वित्रिभेऽर्कधिकोने ॥ २ 
खम्बनसाधनम्‌-- 


मल्छारिः--अय सूयंग्रहणाधिकारो व्याख्यायते । तत्रादौ शम्बनं वृत्तषटयेन 
साधयति । भमान्ते ग्नं कृत्वा तत्‌ तरिभेण राशित्रयेण उन सत्‌ पृथक्‌ अन्यत्र 
स्थाप्यम्‌ । तत्‌ क्रान्त्यंरोः संस्कृनोऽक्नोऽक्नोक्ाः नताहाः स्युः) संस्कारस्तु एक 
दिशोर्योगो भिन्नदिशोरन्तरमिति प्रसिद्धः तेषां नतां्लानां योद्धिद्रघंशो द्ाविशति- 
भागः संर्वागितः कृतवर्भः सनचैत्‌ द्विकात्‌ द्वयात्‌ ऊर्ध्वोधिको भवति तदाऽसौ 
भधोऽन्य स्थाने स्थाप्यः । ततोऽत्र यूनो द्विहीनः सन्‌ खण्डितोऽधित यत्‌ फलं तेन स 
पूर्गस्थापितौ युतः । ततः सार्को द्वादरयुतः सन्‌ हारः स्यात्‌ । ततस्विभोनोदयो 
राशित्रयोनलग्नम्‌ । अकः सूयः 1 अनयोर्यो विश्टेषोऽन्तरं यथा राशित्रयात्पं तथा- 
कायं तस्यं येंऽशाऽ तेषां य आशांशो दशममांशः तेन हीनाः संगुणिताश्च ये श्क्रा- 
इचतुदंश ते हारापताः सन्तो नाडिकाद्यं लम्बनं स्यात्‌ । तत्‌ तिथ्यामंमाघटीषु स्वर्णं 
कार्यम्‌ । कदेत्याहु--वित्रिभे त्रिभोनलग्नेऽरकाषिके धनं ऊने ऋणमिति ॥ 

अत्रोपपत्तिः- ननु कि नाम लम्बनं उच्यते । छम्बनभित्यन्वरथं नाम । यतो 
दृक्‌सूत्राच्चन्द्रो यावताम्तरेण लम्बितस्तल्लम्बनम्‌ । अहो लम्बनं चन््ग्रहुणे कथं 


१५४ प्रहलाधवे 


नास्ति सुयग्रहणे कथमित्युच्यते । चन्द्रग्रहणे तु चन्द्रो ग्राह्य: स्वकक्षायां भ्रमति । 
मूच्छायापि ग्राहुकरूपा चन्द्रकक्षाया मेव सा।धतास्ति । अतो ग्राह्य ग्राहकसमकक्षत्वात्‌ 
खम्बननत्योरभावः । सुरयंग्रहणे तु ग्राह्यग्राहुकयोः सूयं चन्द्रयोभिन्नकक्षात्वाल्लम्बन- 
नती उत्पन्ने । अत्र भद्ध विरचय्य सूर्यस्य रम्बनन्युपर्पात्त शिष्यान्‌ प्रति दर्शयेत्‌ । 
तत्रै किंचिदुच्यते । प्रथमं मूवृत्तं ल्घु गति तिथ्यंश तुल्यांशं कायं तदुपरि चन्द्- 
कक्लावृत्त कायम्‌ । तस्मादुपरि सूर्यकक्षावृत्तम्‌ । अत्र द्वयोर्वंत्तयो राश्चयो ददशा- 
ङ्खचः 1 तत्र यथा स्थाने चन्द्रकक्षयां चन्द्रो देयः । सूर्यकक्षायां सूयलग्ने अपि यथा 
स्थाने देये एवं भृगर्मान्नीयमानं चन्द्रस्योपरि यत्‌ सूत्रं तत्‌ गर्भसूत्रमित्युच्यत । एवं 
मूपुष्ठान्नीयमानं सूत्रं दुकू त्रमुच्यते । तत्‌ तु स्योपरि नीयमानं चन्दर सान्तर 
त्यक्त्वायाति । अत्तदचन्द्रकक्षायां दुक्‌ सृत्राच्चन्द्रो यावतान्तरेण लम्बितस्तत्लम्बनम्‌- 
उक्तञ्च - 'दुकसूत्राल्लम्बितक्चन्द्रस्तेन तल्टम्बनं स्मृतम्‌ ।"" 


मतो हि भृगभंस्थलोकानां सू्यग्रहणेऽपि छमस्बनाभावः । दृग्गर्मसूत्रयोरेकी- 
भूतत्वात्‌ । एवमत्र लम्बने केवलं भिन्नकक्षात्वमेव कारणं नो वाच्यम्‌ । भृगं 
छम्बनाभावदर्शनात्‌ अतो भिम्नकक्षात्वं द्रष्ट्णां भुपृष्ठस्थितित्व चेति द्वे लम्बन 
कारणे । लम्बनं तु पूर्वापरं यतो ग्भ॑सूत्रीय चन्द्रे दुक्सूत्रोकरणं पुरवंमत्यैव एवं प्रह 
पूर्वापरान्तरोत्पत्तौ दक्षिणोत्तरान्तरमप्युपपन्नम्‌ तन्नति संज्ञम्‌ ! अत्र लम्बनसाघनो- 
पायो यथा -- क्षितिजे दुशर्भसूत्रयोः परममन्तरं चन्द्रगतितिथ्यंजञतुल्यकलानां सूर्थ- 
गतितिथ्यंश कलानामन्तरतुल्यम्‌ ४८ । ४५.। खमध्ये तु दुग्गर्भसूत्रे एकोभूते अतो 
लम्बनाभावः । उक्तञ्च - 


दुगगर्भेसूत्रयोरैक्यात्‌ खमध्ये नास्ति लम्बनम्‌* ॥ 

क्षितिजे रवितुल्यं लग्नम्‌ । तस्मिन्‌ त्रिभे हीने कते तत्‌ सूर्यान्तरं त्रिभमेवातोऽ- 
स्मात्लम्बनं ससाघ्यम्‌ । यतः खमध्ये त्रि भोनलग्नम्‌ इति तुल्यमतस्तदन्तराभावे 
लम्बनाभावल्व । अत्रानुपातः-यदि त्रिज्यातुल्यया सूयत्रिमोनलग्नान्तरदोज्यंयेदं 
परमं छम्बनं तदेष्टदोज्यया किमिति । मत्र रम्बनकलानां घटीकरणाथंमनुपातः-- 
यदि गत्यन्तरकलामिः षष्टि घटिकास्दा लम्बनकलाभिः किमिति जातम्‌ घटिकाद्यं 
परमं लम्बनम्‌ । अनेन दोर्ज्या गुष्या त्रिज्ययाभाच्येष्टलम्बनं स्यादित्यत्राचायेण 
भागेभ्य एव साधितम्‌ । तथा --“त्रिभोनोदयाक विष्लेषांशाश्ांशच हीनघ्नशक्रा'' 


इति । परमिदं कम्बनं मध्यमम्‌ । यतः खमच्यक्षितिजयोरन्तरं सर्वत्र त्रिभमेव 
लक्षितम्‌ । तन्न 1 यतो याम्योत्तरक्षितिजयारन्तरं सर्वत्र त्रिभं नास्ति। अतः 





१. सि. शि. गो. भ्र. वा. १६ 
भ्सि. सि. गो. भ्र. वा. १७ 


ग्रहल धवं करणम्‌ १५५ 


खमध्य एवेदं ऊम्बनमिष्टयाम्योत्त रवृत्तीय करणार्थमनुपातः खमध्ये तु त्रिभोनलग्नस्य 
छायाकर्णे इदं ऊम्बनं तदेष्ट छ्वायाकर्णे किमिति । अत्र ग्यस्त त्रैराशिकम्‌ । एवम- 
व्रेष्ट त्रिभोनलग्नार्कान्तिरकोज्यायाः परमलम्बनमिदं घरटिकाद्यमसकृत्‌ भ्रकारत्यागाद्‌ 
वटीचतुष्टयादूनं गृहीतम्‌ ३।४५। अयं गुणः । द्रादल् च १२ गुण: । त्रिज्या १२० 
हरः । अच्र त्रिज्याचुल्येष्टदो्ज्या १२० गुणघातगुणा वरिज्याभक्ता। गुणाघातो 
जाताः ४५। एतावती भिज्या करता 1 इयं त्रिभोनी दक विर्छेषांशलाश्षांश्ञ हीनघ्नशक्र- 
तुल्या भवति । अतः सा दोर्ज्या छायाकणं भक्ता स्पष्टं कम्बनं स्यात्‌ । तदथं त्रिभोन- 
खग्नस्य नतोन्नतलवाः साघ्याः । ततोऽनुपात :-- 


यदि उन्नतांशाज्या कोटौ च्रिज्याकणस्तदा द्वादष्वकोटौ कं इति (वम्र छाया 
कर्णो हादशेभ्यो नतांश द्वाविकशशतव्यशवर्गेणाधिको भवति । अतो दादश्षनतांश्च दावि- 
शत्यंशवर्गयुक्ताद्छायाकर्णः स्यात्‌ । तस्य हरसंज्ञा कृता । यतः स ॒दो्ज्यंया हरः 
इदं नतांश द्वाविश्त्पंशवर्भे यने भवति । अधिके सान्तरम्‌ । तथा । दयधिकादुद्रयम- 
पास्य यच्छेषं । तेन नतांश्च दाविशत्यंश्च वर्गेण युक्तं तावद्‌ दादश छायाकणन्तिरम्‌ । 
अनेन द्वादश युक्तास्तरिभोनल ग्नच्छायाकर्णो भवति ¦ बनेनेष्टदोर्ज्या भक्ता लम्बनं 
स्थादित्युपपन्नम्‌ । एतल्लम्बनं चन्द्रगत्या गणयित्वा षष्ट्या र्ध चन्द्रे देयम्‌ । 
तथा रवावपि देयम्‌ । ताभ्यां तिथिः साध्या । अतो हि तल्लम्बनं तिथ्यामेव 
देयमित्युक्तम्‌ । घनर्णोपपत्तियया-- 

पूवकपाले दुक्सूत्राद्गभ॑सूत्रं पूर्वस्यामघो कम्दितमतो ग्रहे पूवंक्पाले घनं 
देयम्‌ । अत्र त्रिमोनलग्नमर्काल्पकमस्ति ग्रहे यद्धनं क्रियते तत्तिथौ ऋणमेव 
भवति भोग्यत्वात्‌ । तथा पदिचमकपाले दृक्‌सू त्रात्‌ ग्म॑सूत्रं पश्चिमतो वर्ततेऽतो ग्रह 
ऋणम्‌ | विमोनलग्न मक्लाकरपि कं यद्‌ ग्रहे ऋणं तत्‌ तिथौ घनम्‌ । अत उवं स्वेणं- 
वित्रिमेऽर्काधिकोन इति । एवं सूर्यग्रहे ऊम्बनसंस्कृतो दर्शान्तः एवं मध्यकारो 
भवतीयं युक्तिगखिपरि सविस्तरा । १-२ 


खल्द्रिका --अमान्तकाकिकि रग्न राक्षि घटाकर शेष (वित्िभः 
लग्न) को दो स्थानों मे <खकर एकं स्थान मे वित्िभ द्वारा ज्रान्तिसाधन कर 
मक्षांश के साथ संस्कार (दोनों उत्तर या दक्षिण एकही दिशाकेहोत्तोयोग 
भिन्न दि्ञा के अर्थात्‌ एक उत्तर दूसरा दक्षिण दिशाकाहो तो अन्तर) 
करनेसे नतांशहोतादहै। नतांशके ररव मागका नरगं यदिरसे अल्पं 


~~~ 


१. ग्न से ३ राशि ल्प वित्रिभ क्गनन होता है । 


१५६ ग्रहखाघबे 


हो तो उपमे १२ जोड़नेसे हारहोताहै। यदि वंरसे अधिकहोतो 
उसमें २ घटाकर शेष के भाधे को वगं में जोड़कर पुनः १२ जोड्ने से हार 
होता है । वित्रिभरुगन ओर सूयं के भन्तर१ को अंशादि बनाकर १० का 
भागदेनेसे प्राप्त ज्न्धिको १४ मे षटाकरशेषको रुन्धि (दशांश) से 
से गुणा कर गुणनफमे हार काभाग देने ते रन्धि घट्यादि कुम्बन होता 
है । स्पष्ट सयं से विधिभ रग्न अधिक होने पर भमान्त घटी मे लम्बन 
जोडने से तथा सृयं से वित्रिभे र्न अल्प होने परं भमान्त घटी से लम्बन 
घटने पर स्पष्ट तिथ्यन्त होता है । १-र 


उदाहरण--संवत्‌ २०३२ शक १८९८ वेशाख छृष्ण अमावस्या गुरु 
वार । तिथ्यन्त॒(अमान्त ) घटूयादि २५।१० पर्वान्त कालिक सूर्यं ०।१५ 
४१।३५ पर्वान्तकालिक राहु ६।१९।२४।३७, पर्वान्तकालिकचन्दर ०।१५। 
४२ा१३। पर्वान्तकालिक छग्न ५।७।१५।२६, सयंगति ५८1१८, चन्द्रगति 
६११।१७। पर्वान्त कालिक खनसे ३ राशि अल्प करने ये- 


५।७।१५।२६ + 
३ 


२।७।१५।२६ वित्रिभ गन 

वित्रिभ लग्न द्वारा चिप्रदनाधिकार इलो. ११ के अनुपार क्रान्ति साघ्न 
किया- विरभ २।७।१५।२६ में तात्कालिक अयनांश २३।३१।३६ जोडने 
से सायन विच्निभ्र ३।०।४७।२ के भुजांश ८९।१२।५८ मे १० का भागदेने 
से लन्धितुल्य आठवां गताद्भु २३६ तथा एेष्याद्धु २४० दोनों के चयान्तर 
४ से शेष भुजांश ९।१२।५८ को गुणाकर गृणनफल ३६।५१।५२ को १० 
से भामं देकर छटन्धि ३।४१।११ को गतांक २३६ मे जोड़कर १० का 
भाग देने से क्रान्ति २३।५८।७ हुई सायन वित्रिभ रग्न मेषादि ६ राशियों 
मे होने से उत्तरा क्रान्ति हुई 1 


र. सूर्यं ओर वित्रिभ का अन्तर करते समय यह ध्यान देना भाव्यक ह कि 
दोनों का अन्तर ३ राक्षे अधिकनहो) 


ग्रहलाघवं करणम्‌ १५७ 


पूवं साधित कारी का भक्षाश्च २५।२६।४२ दक्षिण है । इसका क्रांति 
के साथ संस्कार (क्रान्ति उत्तरा है तथा भक्षां दक्षिण है दोनों भिन्न 
दिशाके है मतः दोनोंका अन्तर) करनेसे अ. २५।२६।४२-क्रा. २३। 
५८।७ = १।२८।३५ नतांश हुभा । नतां मे र्रकरा भाग दैनेसे प्राप्त 
रुन्धि ०।४।१ का वगं करने से ०।१६ हुभा । पह दो से भल्प है मतः इसमे 
१२ जोड़ने से १२।१६ हार हुमा । १२।१६ का एकजातीय मान = ७३६ 


वित्रिभलग्न २।७।१५।२६ मे सूयं ०।१५।४१।३५ घटाने से १।२१।३३। 
५१ के अंशादि ५१।३३।५१ मे १० का भाग देने से प्राप्त रञ्धि ५।९।२३ 
को १४ घटाने से दोष ८।५०।३७ को दशमांश ५।९।२३ से गणा कर 
गुणनफलं ४५।३६।४ के एक जातीय मान २७३६ को हार के एक जातीय 


मान ७३६ से भागं देने प्रर २७३५ ~ ७३६ = उर ==३।४२३ धट्यादि 


म्बन हूभा । सूयं से वित्रिभ्र खगन अधिक है अतः लम्बन धन होगा। 
म्बन को पर्वान्त काल २५।१० में जोढने से २८५३ स्पष्ट पर्वान्तकार 
हुभा । १-२ 
विराह्के लम्बनसंस्कारः- 

त्रिकुनिघ्नविलस्बनं कलास्तत्‌ 

सहितोनस्तिथिवद्रचगरः शरोऽतः । 

भथ षडगुणलम्बनं लबास्त- 

युग्वित्रिभतः पुननंतांशाः ॥ ३ 


मत्लारि :--अथ रम्बनकाजे ग्यगोश्वालनमाह । श्रयोदश गुणितं लम्बनं 
कलाः स्युः । तिथिवद्भ्यगुस्ताभिः कलाभिः सहितोनः । तिथौ चैटलम्बनं घनं तदा 
व्यगावपि धनम्‌ । च्छणं चेदत्रापि ऋ णमिति । अतोऽमुष्माद्‌ व्यगोः श्रः पूववत्‌ 
साध्यः । भथनश्ब्दोऽनन्तरवाची षडगुणलम्बनं ठ्वा: स्युः| तैरुषेयु ग्‌ वियुग्‌ 
वित्रिभतो नताक्षाः साघ्या; । ततः क्रान्त्यक्षांश्चसस्कारेण नताक्ञाः साध्याः । एत- 
दुक्तं भवति षडगुणलम्बनं भागास्ते च्रिभोनलर्ने लम्बने धने सति धनं कार्याः ऋणे 
लम्बते स+त शणं कार्याम्ठतः क्रान्त्यक्षांशसंस्त्यरेण नतांशाः साघ्याः इत्यध ॥ 


१५८ ग्रहलाघवे 


मत्रोपपत्तिः-यदि षष्टिघटिकाभि्िपातचन्द्रगतिकलाः ७८७ एतास्तदा 
लम्बनकलाभिः किमिति गुणहरयोहुरेणापवतितयोर्जाता गुणस्थाने श्रयोदश्ष १३ । 
अतस्तिकरुनिघ्न विलम्बनमिति । अथ मध्यकालीनं त्रिमोनं कग्नं कार्यम्‌ । तत्र 
लाघवार्थं लम्बनेन द्न्तिकारीनं त्रिभोनं लरनमेव चालयति । तत्र घटिका षड्‌- 
गुणाभागा भवन्ति यतः षष्टिविटिकानां चक्रभागाः । अतो हि षड्गुणलम्बनं दक्शन्ति- 
कालीनं त्रि मोनलम्ने धनमृणं करार्य॒तन्मध्यकालीनत्रिमोनरग्नं भवति । भतो 
नतांशाः कार्या नतिस्राधनाथंमेव ॥ ३ 

चन्द्रिका :-- लम्बन को १३से गुणाकर कलादि गुणनफ को विरा- 
हकं मे तिथि की तरह ही संस्कार (धनात्मक लम्बन को जोड़कर तथा 
ऋणात्मके लम्बन को घटा) कर उससे शर साधन करना चाहि९। 

लम्बन घटीकोरद्से गृणा करने स मंशा होता है । धनात्मकं लम्बन 
होने पर उस अंशादि मान को वित्तिभ मे जोड कर तथा ऋणात्मक म्बन 
होने पर वित्रिभमे घटाकर शेष दित्रिभसे क्रान्ति साधन कर अक्षांश 
ओर क्रान्त्यंश कै संस्कार करने से स्पष्ट नतश्च होतार ॥ ३ 

उदाहरण : म्बन ३।४८ धनात्मके टू! इस १३से गुणाकर 
( ३।४८ ) >< १३--४९।२४ कलादि फल हुम; ' ईइ < {= -.थं (व्यय) 
मे धन म्बन होने द जोड दिथा-- 


न्यच ५।२६।१६।५८ 
र 
५।२७। ६।२२ == संस्कृत व्यग् 

संसृत व्यग का क्षरक्राधनायं भुज ~ (1२८३८ भुज, 
२।५३ २८ को १ १ मे गृक्तिर गुणनफलः २३१.५८ (+ ९ ठग श, ठेर 3" 
खन्ध ४।३३ क्षर हश । व्य -ङर गोर्न" ` शषः । ^" ^ 
दिशा टोपी 

ठेर्मन्‌ ३ ८ \ ५४ 4 त ( ~ ८ ले 
| +> ६ ^ 


४१०१४ , ४ 
2 ^ 


ग्रहलाघवं करणम्‌ १५९ 


नुसार क्रान्ति साधन करने से २३।५९।५१ उत्तर क्रान्ति हुई। दक्षिण 
अक्षांश २५।२६।४: हे । क्रान्ति भौर भक्षांश भिन्न दिशा के होने से दोनों 
का अन्तर १।२६।५१ दक्षिण दिशा का स्पष्ट नतांश हुभा॥ 


नतांश्तो नतिसाषनं ततः श्रसाधनञ्च- 
दक्ञहूतनतभागोनाहताष्टेन्दवस्तद्‌ 


रहितसधुतििप्तेः षडभिराप्तास्त एव । 
स्वदिभिति नतिरेतत्सस्कृतः सोऽद्धुलादिः 
स्फुटइषुरमुतोऽत्र स्थात्‌ स्थितिच्छन्नपवंम्‌ \\ ४ 


मल्टारि : अथ नतिसावनमाहु । दश्चभक्ता ये नतांशास्तंरूनाः सन्तस्त एव 
गुणिता ये भष्टेन्दवस्ते कलाद्याः पृथक्‌ स्थाप्याः तं रहिता हीना ये सधृतिलिप्ताः 
षडभागाः । अष्टादश कलान्विनोः षडभागास्ताभिः कराभिर्हीनिाः कार्या इत्यथ: । 
ततो यच्छेषं तेन ते पुथकस्था भाज्याः। यत्लन्धं सा स्वदिक्नतांशदिक्‌ नतिः 
स्यात्‌ एतया नत्या संस्कृतः सोड्गुलादिः शरः स्फुटः स्यात्‌ । अमृतो हि स्पष्टशरा- 
देब स्थितिच्छन्नपृ वं साध्यम्‌ ॥ ४ 

भश्रोपपत्ति :--नन्तिकारणं तु लरम्बनानयने उक्तमेव । तत्साघनार्थमनुपात :- 
यदि [~ प्रष्तुल्यथा १२२ नेत्ताशज्यया परमा नतिकला; ४८।४५। तदेष्ट नतांश- 
जंयय। {, 0 । ट धनिके मह्न भक्ता अदुगुनानि स्युः १६।१५। तथ।ञत्र त्रिज्या 
८९ ६५। । थं ५ हृल म। गोला हतगणष्टेन्दूतुव्या भवेति । इयं त्रिज्या ८१ केन 
भक्ता परमः न्तिः स्यादतः परमनत्यङ्‌गुलभक्ता जातो हरः ५।५७। अयं हरस्ति- 
उयातुत्पर दनम साष्टादशकलाषड्‌भागतुल्य एव्र { स्वल्पाम्तरात्त्‌ ) 1 अतस्सद्‌ 
रिफ "4" ,**०- षड्‌मिस्तं एव भक्ता गडः गुखद्या न्त. स्द्दित्युपपन्नम्‌ । 


स्म. ~+ ८ -गतोवा चरिभोनचग्नं पावद्र्नता्दी (द रः 7. फनी 
न न्त उ्च्तश्वीदा नि नन््तरेण 77 ˆ ` भैष, 

क ५. *1६॥ पप्र ~¢: स्पत्य र 9 ` 

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१६० ग्रहुलाधवे 


घटा कर शेष को एक जातीय करके गुणनकफलू के एक जातोय मनिमें 
भाग देने से रुन्धि नति होती है । नति कौ वही दिशा होती है जो नतांश 
को । नति मे पूवंसाधित शरका संस्कार ( दोनों एक दिशाकेहोंतो 
योग भिन्न दिक्ाकेहोतो अन्तर) करने से स्पष्ट शर होताहै। इसी 
( स्पष्टशर ) से स्थिति एवं म्रास का साघन करना चाहिए । ४ 

उदाहरण - दक्षिण नतांदा १।२६।५१ इसमे १०८्का भागदेनेसे 
लन्धि ०।८ प्राप्त हुई । इसे १८ मे घटाकर शेष १७५२ को दल्मांश 
०।८ से गुणा करने से गुणनफल २।२३ करादि हुभा । इसे ६ अश १८ 
कला मे घटाया- | 

६।१८। ° 


- २।९३ 
६।१५।२३७ इसके एकलातीय २२५१७, मान से 


गुणनफर के एक जातीयं मान ८५८० मे भाग देने से प्राप्त ०।२२ न्धि 
भडःगुखादि दक्षिण नति हुई ¦ भिन्न दिक्षा होने से उत्तर रर ४।३३ में 
घटाने से शेष ४।११ स्पष्ट उत्तरशर हुभा । 

स्पष्ट शर द्वारा पूर्वोक्त रीति ( व्यसुशरेष्यादि* ) से स्थिति एवं 
ग्रास साधन-सू्यंगति ५८।१८ चन्द्रगति ६११।१७ । विहित नियमानुसार 
सूयंगति से ५५ घटाने से ५८।१८-५५।०३।८ शेष को ५ तेभाग 
देकर रन्धि ०।३९ मेँ १० जोड़ने से १०।३९ अड गुलादि सूर्॑विम्ब हुभा । 
तथा चन्द्रकला ६११।१७ मे ७४के भागदेनेसे छन्धि ८१५ भङ्गृकादि 
चन्द्रविम्ब हणा । चन्द्रविम्ब ८।१५ को ३ से गुणाकर गुणनफल २४।४५ में 
इसी का एकादशं २।१५ जोड़ने से २७० हुमा इससे ८ घटाने से 
द्खुलादि १९।० भूभाविम्ब हुमा । छाद्य (सूयं) विम्ब १०६९ म छादक 
( चन्द्र ) विम्ब ८।१५ णोडने से मानयोग १८।५४ हुमा । इसके अधि 
९।२७ मानैक्य खण्ड मे स्पष्ट शर ४।११ घटाने से शेष ५।१६ अङ्गुलादि 


प्रस सिद्ध हुमा । ४ 





शप्र. ला. ५३ 


ग्रहलाधवं करणम्‌ १६१ 


स्थितिसाधन^-- सूयं चन्द्र के विम्बयोगाधं ९२७ मे शर ५११ 
जोड़कर फल १३।३८ में १० से गुणाकर गुणनफर १३६।२० मे पुनः ग्रास- 
मान ५।१६ से गणा करने पर ७१८।१ गुणनफल प्राप्त हुआ । इसका वर्ग. 
मूल २६।४७ मे इसी का षष्ठांश ५।२८ घटाकर शेष २२।१९ में चन्द्रविम्ब 
८।१५ का ( एकजातोय करक) भाग देने से कन्ध २।४२ घटिक्रादि 
स्थिति हुई । ४ 
स्पशमोक्षयोः कालसाधनम्‌-- 

स्थितिरसहतिरंशा विचिभं तेः पुथकस्थं 
रहितसहितमास्यां लम्बने ये तु तास्वाम्‌ । 
स्थितिविरहितयुक्तः संस्कृतो मध्यदज्ंः 

क्रमश इति भवेतां स्पशमुक्त्योस्तु कालौ ।॥ ५ 


मल्लारि :--अथ सपशं कालमोक्षकालौ साधयति । षडगुणा स्थितिरशाः 
स्युः । तैर शेमंध्यदर्शान्तिकालीन पृथक्‌ स्थापितं त्रिभोनलग्न स्पशथं रहितं मोक्षाथं 
सदिं कार्यम्‌ । आभ्यां त्रिभोनग्नाम्यां पृथक. गणितागतो दर्शः संस्कृतः कार्यः । 
तद्यथा । स्पर्शा थं' तिथौ स्थितिर्हीना कार्या । तस्यां तल्लम्बनं घनमृणं लक्षणगतं 
कूर्यात्‌ 1 स स्पशं॑कारो भवति । तथैव मोक्षाथं' दशन्ति स्थितिर्योज्या । तस्यां स्वीयं 
लम्बनं संस्कायं स मोक्षकालो मवतीत्यथंः ।\ ५ 


अत्रोपपत्ति :- स्थितिहीनयुव्तिथेः पृथक्‌ त्रिभोनलग्न साध्ये । ताभ्यां सम्बने 
मपि साध्ये । ते ;स्थितिहीनयुक्ततिथौ देयं तौ स्पशंमोक्षौ भवत इत्यत्र लघवायें 
त्रिमोनलम्ने स्वितिघटीमिश्वारिते 1 तत्र स्थि तिघटिका यावत्‌ षड्गुणा क्रियन्ते 
तावद्धागा भवन्ति । ते भागा दर्शान्तकालीने त्रिमोनलग्ने स्पर्शकालोनकरणाथमृणं 
देयाः प्राक्‌ कालत्वात्‌ । भोक्षाथं धनं देया अग्रेसरत्वादित्युपपन्नम्‌ अत्रार्कोऽपि 
स्थित्तिचालितो गृह्यते चेत्‌ सूक्ष्मता स्यादिति द्रष्टन्यम्‌ । ५, 


चन्द्रिका :--( एूवक्ति ) स्थित्ति धटी को\्से गुणा करने पर अंश 
होता है। दर्लान्त कालिक वित्रिभम मे इस गश को घटानेसे स्पशं 
कालिक पित्निम रुन तथा एक स्थानमें उक्तअश् को दे्चन्ति कालिक 
वित्निभमे जने से मोक्षक्ाकिकं वित्रिभख्ग्न होतादहै! इनदोनोंसे 


| 1 


१. स्थिति घटी का साधनः ग्रहुलाघव ५५ के भनुसार सिद्ध किया गया | 
१९१ प्रहु° 


१६२ ग्रहुखाधवं 


पृथक्‌-पुथक्‌ लम्बन साधन करना चाहिये । स्पशंकाटिक रुम्बन का 
स्थिति रहित मध्यदशं ( पर्वान्तकाल ) मे संस्कार ( छम्बनधनहोतो 
योग, ऋणहोतो अन्तर ) करने से स्पष्ट स्यश्ंकारु तथा मोक्ष कालिक 
लम्बन का स्थिति युक्त मध्यदशं ( पर्वान्तिकाल ) मे संस्कार करने से स्पष्ट 
मोक्षकाल होता है । ५ 


उदाहरण :- पूवंसाधित स्थिति काल २।४२, दर्लान्तकालिक वित्रिम 

लग्न २।७।१५।९२ ॥ ` 

स्थितिकाल राण्रको ६ से गुणाकर गुणनफर १६।१२ अंश्ादिको 
दर्शान्ति कालिक वित्रिभ २।७।१५।६ में घटानेसे शेष १।२१।२।२६ 
स्पशंकाकिक वित्रिभ तथा एक स्थान मे जोड़ने से २।२३।२७।२६ मोक्ष- 
कालिक वित्िभ हुञा | 

स्पलंकालिक लम्बन साधन :--स्पश्शकालिक वित्रिभ १।२१।३।२६ के 
भुजांश ५१।३।२६ द्वारा पूर्वोक्त ( प्र. ला. ४. ११) नियमानुसार क्रान्ति- 
साधन करने से उत्तर क्रान्ति १८।२१।५१ प्राप्त हू । भिन्न दिज्ञा होने से 
इसे दक्षिण अक्षांश २५।२६।४२ मे घटाने सें शेष ७ ४।५९१ दक्षिण नतां 
हुआ । नतांश कै २२वे भाग ०।१९।१८के वगं ०।६।१२ में १२ जोड़ने से 
१२।६।१२ हार सिद्ध हुजा । 

वित्रिभ ओौर सूयं का अन्तर करने से वि. ६।२१।३।२६-सू° ०।१५ 
३८।५७ = १।५।२४।२९ हेष रहा । दसके भ ्लौदि ३५।२४।२९ मे १० का 
का भाग देकर रन्धि ३३२को १८मे घटाने से १४५।०-३।३२ = १०।२८ 
दोष १०।२८ मे दशमांश ३।२२का गुणा करनेसे गुणनफल ३६।५९ 
हुजा । इसे एकजातोय बनाकर २२१९ में हार के एक जातीय मान ७२६ 
से भाग देने पर रन्धि ३।३ स्पशंकालिकं घट्ूयादि रम्बन हुमा । यहां 
वित्रिभलगन से सूयं अल्प है अतः लम्बन धनात्मक होगा । 

मोक्षकालिक लम्बन - मोक्षकालिक वित्रिभ॒ २।२२।२७।२६ इससे 

साधित २३।४४।१७ उत्तरा क्रान्ति को दक्षिण अक्षांश २५।२५।४२ मे घटाने 


गस्पशंकालिक रम्बनानयन मे पर्वान्तकालिक सूयंमें स्थिति धघटीको ऋण 
चालन मानकर तत्सम्बन्धो कलादि मान को घटाकर सूयं स्पष्ट समक्षं तया 
मोक्षक्राठिक लम्मन साधनम स्थिति वटी को धन चालन मानकर तत्सन्वन 
.न्छादि मान क पर्वान्तक्राकिकं सूयं में जोड़ने से स्पष्ट सूरं समक्षं । 


सावं करणम्‌ १६३ 


से हेष १।४२।२५ दक्षिण नतां हुभा । इसमे २२ का भाग देकर न्धि 
०।४।२९ के वगं ०।०।२१ मे १२ जोडने से १२।०।२१ हार हुभा । 


स्थिति धटी से संस्कृत सयं ०।१५।४४५१२ मोक्षकाकिकि वित्रिभ 
२।२३।२७।४६ दोनों का अन्तर करने से (२#२३।२७1४६-०। १५।४४।१३) 
= २।७।४३।३३ शेष रहा । इसके अंशादि ६७।४२।३३ के दश्मांश €।४६ 
को १४ मे घटाकर शेष ७।१४ को दशमां ६।४६ से गुणाकर गुणनफल 
४८।५६ मे हार १२।० के सजातीय मान से भाग देने पर प्राप्त रुन्धि ४५ 
मोक्षकालिक लम्बन हुभा । वित्रिभ से सूये मल्प है मतः धनात्मक छम्बन 
हुभा । 


लम्बन संस्कार~-पर्वान्तकाल २५।१० में स्थिति घटी २।४२ घटाने से 
शेष॒ २२।२८ स्थिति रदित मध्यदश्ञं काल हुभा । स्पशंकालिक लम्बन 
३।२ धेग्टत्मक होने से स्थिति रहित मध्यदशं २२।२८ मे जोडने से २५।३१ 
स्पष्ट स्पशंकाल हुमा । इसी प्रकार स्थित्ति काल २।४२ + २५।१० पर्वान्त- 
कार २७।५२ स्थिति युक्त मध्यदशं । मोक्षकालिकं म्बन ४।५ धनात्मक 
होने से २७।५२ मे जोड़ने स ३१।५७ स्पष्ट मोक्ष काल हुभा । ५ 
सम्मीलनोन्मीकनकाकयोः साधनम्‌, ग्रहणस्य वणज्ञानञ्च-- 

भद्दिवं भीरनोन्भोलने स्तो 
ग्रासो नादेदयोऽद्ः लाल्यो रधीन्द्रोः । 
घृ खः कृष्णः पिद्धलोऽल्पा्धेसव-- 
ग्रस्तः्चग््रोऽकस्तु कृष्मः सदेव 1 ६ 

मल्लारिः--अथ सम्मीलनोन्मीलनकाखौ साधयति । एवमनयैव रीत्या भर्शत्‌ 
मीलनोन्मीलने स्तः । एतदुक्तं भवति । मदं षड्गुणं भागाः स्थुः । ते दर्शान्त- 
कारीनत्रिभोनखग्ने सम्मीलनायं हौना उन्मीलनाथं युक्ताः । ताम्यां पृथक्‌ लम्बे 
साष्ये । तत्व सम्मीलनाथं तिथौ मदं न्यूनं कायंम्‌ । तश्र तल्लम्बनं 
संस्कार्य' सम्मोलनकाखो भवति । तथैव मदं तिथौ योज्यं तत्र लम्बनं द्वितीयं 
देयमुन्मीलनकालो भवति । 

भत्रोपपत्ति : -स्पशंमोक्षवत्‌ सुगमा ! रवीन्द्रः सू्यचन्द्रयोरगुलादल्पो म्रासो 
नादेश्यः । यतो हि किरणबलवशादल्यग्रासो न दृष्यव इति प्रत्यक्षहेतुः । चन्द्रौ हि 
अल्पाधसवेग्रस्तो चुत्रादिः स्यात्‌ । तद्यथा । अत्पाग्रहै धूप्रवर्णोऽवग्रहः कृष्णः 
सवग्रहः पिगलः स्यात्‌ । अर्कः सदा भल्पाद्दग्रागेषु कृष्ण एत्वर्णः 1 जत्र दृग्गो- 
चरतयैवोपपत्तिः ।। ६ 


१६४ ग्रहुलाधवे 


चन्द्रिका--दइसी प्रकार मदं घटी से सम्मौलन ओर उम्मील्न काल 
(सिद्ध) होते है । १ अङ्कुल से जल्प ग्रासमानहो तो सयं या चन्द्रमाके 
ग्रहण का अदेश नहीं करना चाहिये । चन्द्रमा अल्प ग्रस्त होने पर 
धूख्रवणं, भधंग्रस्त होने पर कृष्णवणं तथा सवंश्रस्त होने पर पिद्धल्वणं हो 
जाता है, सुयंग्रास सदेव कृष्ण वणं का होता है । ६ 

उदाहूरण--पवक्तिरीति (श्र. का. ५५) से सवप्रथम मदंघटी साधन 
कर उसे ६सेगृणाकरनेसे भशषादिहोगा। इसे वित्रिभमें एक स्थान पर 
जोड़कर तथा एक स्थान मे घटा कर दोनों से पृथक्‌ पुथक्‌ छम्बन साधन 
कर मद॑युक्तं पर्वान्तकाल मे घटाने से सम्मीलन तथा भदंयुग्त मध्यदर्शं 
(पर्वान्तकाल) मे जोडने से उन्मीलन कार होगा । 


थथा - मदंघटी साधन-- छादय (सूयं) विम्ब = १०।३९ 
छादकं (चन्द्र) विम्ब == ८।१५ 
ग्रास मान = ५।१६ 


विम्बान्तर ओर खग्रास द्वारा मदं घटी का भानयन होता है । 
परन्तु यहां ग्रासमान ५।१६ छाद्य विम्ब १०।३९ से अत्पहै अतः एेष्ती 
स्थिति मे खम्रास नहीं होगा । जहां खग्रास्त का अभाव होता है षहां सम्मी- 
लन तथा उन्मीखन मदं नहीं होता क्योकि ये सवेश्रास ग्रहृण मे ही उत्पन्न 
होते है । जब पूणं छाद्य विम्ब ठक जाता है तब सम्मीष्नकाल तथा विम्ब 
जब दुर्य होने रुगता है तब उन्मीलनकाल प्रारम्भ होता है । यहां एेसी 
स्थिति नहीं है । स्पष्टाथं क्षेत्र देखं । 






| च्यनद -विसण्ट 


मदं तथा तनुदलान्तर खग्रहाम्याम्‌ । प्र॒ खा. ५.५ 


ग्रहलाघवं करणम्‌ १६५ 


सथं विम्बको त्रिज्या ५।१९.५ 
तथा चन्द्र घिम्बे को त्रिज्या ४।७.५ 
ग्रासमान ५।९६ 
अर्थात्‌ स॒यं केन्द्र के आसन्न ही चन्द्र विम्ब क्रा भीतरी भागं होगा। 
अतः खण्डम्रास हौ हु । सयं पणं रूप से भाच्छादित नहीं होगा । छाय 
विम्ब जब पणं रूप से छाया में प्रविष्ट हो जाता है अर्थात्‌ सम्भीशलनकाकछ 
के प्रारम्भ से ग्रहणमध्य ठक मर्दधिघटी होती है । उसे द्विगुणित करतेसे 
मदंघटी होती है । प्रस्तुत उदाहरण मे खण्डग्रास होने से मदं एवं सम्मोल- 
नोन्मौकन का अभाव रहेगा | 
ईष्टग्राससाघनम्‌ - 
इष्टं द्विघ्नं छन्नक्षुण्णं स्पशनन्त्यान्तर्नाडी भक्तम्‌ । 
रूपाधंनोपेतं विद्यादिष्टे कालेऽकंस्थ ग्रासम्‌ \॥ ७ 
मल्लारिः~अयेष्टम्रासानयनमाह्‌ । इष्टं धटीपू्वं द्विगुणं ततो हि छन्नेन 
ग्रासेन क्षुण्णं गुणित सत्‌ स्पर्शान्व्ययोः स्पर्दामोक्षयोर्या अन्तमध्यनाडिका 


पवंकालाख्यास्ताभिभक्तं ततो रन्धं खूपार्घेन उपेतं युक्तं सत्‌ अकस्येष्टकाले ग्रासं 
विद्यात्‌ जानीयात्‌ । 


धत्रोपपत्तिः--यदि स्थितिघटिकाभिरयं ग्रासस्तदेष्टवटीभिः किमिति 
म्रासोऽमीष्टवटीगुणः स्थित्या भाज्य: । अत्र स्पक्शमोक्षस्थितीष्टं पृथक्‌ न कृतम्‌ । 
खतो हि पर्वंकाल एव हरो गृहीतः । एवं हरस्य द्विगुणितादिष्ट द्विगुणं कारय॑भित्यु- 
पपन्नम्‌ ॥ ७ 

चन््रिका- इष्ट घटी (ग्रहुणारम्भकाल से इष्ट समय) को रसे गृणा 
कर गुणनफरु को पुनः प्रासमान से गुणाकर गुणनफर में स्पशं तथा मोक्ष- 
काल के अन्तर नाडीसे भागदेकर रन्धिम आधा अगु ( ३० व्यंगुरु) 
जोड़ने से इष्टकाल मे सूयं का ग्रासमान होताहै। ७ 

उदाहुरण--स्पशंकाश के उपरान्त १ धटी ३० पल पर सूयं का 
ग्रासमान अभोष्ट है| अतः इष्ट घटी १।३* को रसे गणा करने 
(१।२०)२==३।०० हुभा इमे ग्रासमान ५।१६ से गुणा करने से गुणनफल 
१५।४८ भाया । मोक्षकाल ३१।५७ मे स्पशंकाल २५।३१ घटाकर शेष 
६।२६ से एक जातीय बनाकर गणनफर १५।४८ के एक जातीयमान मं 
माग देने से रुन्धि २।२७ प्राप्त हई इसमे ३० व्यदधु जोडने से २।५७ 
इष्टग्रास हुमा ॥ 

श्री गैश्च देवज्ञ विरचित ग्रहलाघव के सू्ग्रहणाधिक्रार की चन्द्रिका 

नामक सोदाहूरण हिन्दी व्याख्या सम्पण 1 \ 


मासगणाधिकारः--७ 


उपयोगिता-- 
मथ मासगणात्‌ युखुधुक्रियया 
ग्रहणद्रयसिद्धङृतेऽभिदधे । 
स्फुटसूर्यविपाततिथोश्च बपु- 
ग्र॑सनादि विशेषचमत्क्रतथे \॥ १ 


मल्लारिः--अथ मासमणद्रिव ग्रहणदयसाघनाधिकारो ग्यास्यायते 1 
मासगणात्‌ सुतरां खघुक्रियया प्रहणद्रयसिद्ध यथं स्फुटान्‌ सूयंविपाततिथोन्‌ तथा 
वपुषि विम्बानि ग्रसनं प्रास इत्यादि विशचेषचमत्कारदश्शनार्थमभिदषेऽभिघास्ये । १ 


चन्रिफा-अथ (पूर्वोक्त ग्रहणादि साधन के भनन्तर) मासगणो द्वारा 
स्पष्ट सूयं, विपात, तिथि, विम्ब तथा ग्रासमान भादि का साधन भत्यन्त 
सरल एवं चमत्कारिक विधि से कहताहूं 1१ 


क्षपकाः-- 
क्षेपो भायः खं कृता सभुवुक्रोऽकं 
रुढाः क्ञेखा नागचन्ब्रा विषति । 
वुत्ते शून्यं बच्तरिणह्चन््रबाणा 
वारे द्रौ व्यङघ्रनन्दान्धयःस्यातृ्ः ॥ २ 


मल्छारिः-- तत्रादौ क्षेपकानाह । अर्के भाद्यो राश्याद्योऽयं क्षेपः स्यात्‌ 
खम्‌० । कताः ४ । भृदृशषः २९१ इति । विपाते व्यगौ शद्रा: ११॥। रेखाः ७। 
नागचन्द्राः १८ । क्षेपः स्यात्‌ । वृत्ते शुन्यम्‌० । वच्िणश्चतुदंश १४। चन्धवाणा 
एकपञ्चाशत्‌ ५१ । वारा द्रौ ग्य्िनन्दान्धयो विचरणकोनपञ्चाक्षत्‌ । वारस्थाने 
द्री २। घटीष्वष्टचत्वारिदात्‌ ४८ । परेषु पञ्चचत्वारिंशत्‌ ४५ ॥ 


अत्रोपपत्तिः-ग्रन्थशकादौ रविचन्द्रराहणां क्षेपाः भ्रथममुक्ताः सन्ति । एवं 
राहुकतपे चन्द्क्षेपं त्यक्स्वा वरिपातः कृतः । सूर्यक्षेपस्तु सिद्ध एब । वृत्तं चन्द्रस्य 
मन्दकेनदरम्‌ । चन्द्रोच्चक्षेपयोरन्तरे जातस्तस्यापि क्षेपः । एवं तच्छकादौ यस्मध्यमं 





तिथर्वाराद्यं स वारादिकस्य क्षेपः । अधर मासगणोत्पन्नौ ग्रहा भासादिप्रतिपदि स्थः 


ऽ च' इति पाठन्वरम्‌ 


ग्रहुलाघवं करणम्‌ १६७ 


बतः शौर्णमास्यम्बकरणाथं पक्षचालनानि प्रेष क्षेष्याणि । ततो काषवा्थं क्षपेष्वेव 
मसतिन्यं श्रेपाः पाठपटिताः ॥ २ 

चन्दरिका-- सूयं का राश्यादि क्षेपक ०।४।२१, विपात का ११।७।१८ 
वुत्त ( चन्द्रक ) का ०।१४।५१ तथा तिथिका २।४८।४५ वारादि 
क्षेपक है । २ 

ध्रुवाः त 
भानोः खं भूः खे ध्रवः स्थात्‌ 
लैखाः क्वका राशपूर्वो व्यगोः स्यात्‌ । 
वुत्तस्याडः का भूरसार्चाऽयतिथ्यो 
वाराद्यस्याक्नाः खगास्तकरामाः ॥३ 

मल्लारिः- भथ घ्रुवानाह । भानोः सूर्यस्य खम्‌०। भुः १। खान्धयः 
४० । अयं रादिपूरवो धरुवः स्यात्‌ । व्यगो: । शैलाः सप्त ७ । कुरेकः १। अर्का 
दादश १२ घ्रुषः स्यात्‌ । वृत्तस्य । अद्धानव ९। भूरेकः १। रसाः षट्‌ ६। 
मथ तिथिवाराद्यस्य । अक्षाः पञ्च ५। खगानेव ९। तकरामा। षट्‌श्रिंशत ३६। 


अत्रोपपत्तिः- एकादक्षवषमितं चक्रम्‌ 1 अतो हि एकादश वर्षाहुगंणात्‌ 
रणग्यादयः पूर्वोक्तवत्‌ साधितास्ते ध्रृवसंज्ञा इति ॥ ३ 


चन्वरिका- सूयं का राश्यादि ध्वा ०१।४०, व्यगु का ७।१।१२ वृत्त 
( चन्द्रकेन्द्र ) का ध्र वाङ्धु ९१।६ तथा तिथिका वारादि घ्र्‌वा ५।९।३६ 


है। ३। 


मासगणात्‌ सुयंविपातयोः साधनम्‌- 
मासोधतो द्विगुणतान्नगषडभिराप्र- 
राह्याशना रहितमासगणो रिः स्यात्‌ । 
मासा गृहाणि विनिजत्रिलवाश्च तेऽहा 
मासाडः धिघुल्यकलिकाः स्थयुरयं विपातः ॥ ४ 


मल्छारिः-- मथ मासयणात्‌ सूर्यंविपातावेकनु ततेन साधयति । द्विगुणितात्‌ 
मासगणात्‌ नगषड्मिः सप्तषष्ट्‌ याऽऽपतं लन्घं यद्राह्यादि फलं तेन रहितो 
भासगणो मध्यमरविः स्यात्‌ । अथ यावन्तो मासगणे मासास्तावन्येव गृहाणि 
राशयः स्थुः विगतो निजः स्वकीयस्त्रिलवो येभ्यस्ते तथा । एवम्भूता मासा अंशा 


१६८ समागणाधिकारः 


भागाः स्युः मासानां योऽडिघ्रश्चरणः । तत्तुल्या एवं कलिकाः । अवं विपातः 
स्यात्‌ । 
अश्रोपपत्तिः--यदि कत्पचान्द्र मासैः कत्पग्रहमगणानां राक्शषयो लभ्यन्ते 
तदेकमासेन किमति लब्धाः पृथक्‌-पुथक्‌ सूर्यविपातवृत्तवारादिकानां मासागुणाऽ । 
ततोऽन्योऽनुपातः । यद्येकमासेनेते तदेष्टमाखगणेन के । अश्र रूपह्रस्याविकृत्त्वान्नादो 
कृते मासगणेनैव ते गुणा गुण्यास्ते ग्रहाः स्युरिति । अत्र गुणानां चतुः स्थितत्वात्‌ 
मासगणाङ्भुबाहल्यात्‌ गुणने जडकमं दृष्ट्वा भाचार्येण खण्डगुणनानि सर्वश्र 
विहितानि । तश्रादौ रवैरयं राक्यादिमरसिगुणः ०।२९।६।१६ अत्र खण्डगुणना्थमेको 
राक्िरेव धृतः । भतो मासगणतुल्यो रविः स्यात्‌ । ततस्तदेकस्माच्छदं जेषम्‌ 
०।५३।४४। इदं सप्तषष्ट्यासर्वाणतं जातावूपरि हौ २ । अतो द्विगुणमासगणात्‌ 
सप्तषष्टिलन्धं भास्गणे न्यूनीकृतं सत्‌ रवि्भ॑वतीस्युपपन्नम्‌ । तथैवायं विपातमासगुणः 
१।०।४०।१५ भअत्रैकराशिरतो मासा एवं राश्चयः । शेषस्यापि खण्डद्रयं कृतम्‌ । 
तत्रंकं खण्डम्‌ ०।४०। इदं त्रिभिः सर्वाणिं जातौ भागस्थाने द्रौ । अतो मासा 
द्विगुणास्त्रिसक्ता इत्यत्रापि परो राशिर्ढमस्यां गुण्यते त्रिभिभभज्यते स॒ तावत्‌ स्वत्रि- 
सागोन एव भवति अतो विनिजत्रिखवा इति मासा भागाः स्युरिति । अन्यत्‌ 
खण्डम्‌ ०।१५। इदं चतुभिः स्वणितं जातं कलास्याने रूपम्‌ । अतो माांघ्ितुल्य- 
कलिका इत्युपपन्नम्‌ 11४ 
चश्द्रिका- मासगणकोरसे गुणाकर गुणनफरुमे ६७ का भागदेने 
से प्राप्त राश्यादि ज्न्धिको मासगणमे घटनेसे सयंहोतादै। तथा 
मासगण को राशि स्थान मे, तृतीयांश रहित मासगण को अंश एवं मास्तगण 
के चतुर्था को कलास्थान में रखने से विपात होता ह । * 
उदाहरण--संवत्‌ २०३२ शक १८९८ भारिवन शुक्ल पूणिमा शुक्रवार 
को पूर्वोक्त रीति ( द्रयन्धीन्द्रोनित ) से मास्षगण बनाया । यथा `` 
तक १८९८ 
१४४२ 
११) ५५६५१ चक्र 
४४ 
१६ 
&। 


रसि 


५ शेष 





+ म्र° खा० १.५ 


ग्रहुटाघवं करणम्‌ १६९ 


५ > ९२६० + ६ गतमासि=-६६ 
# १ > २८२ -+-१० = ९२ 
९२ + ६६ १५.८ 
२३) १५८८४ अधिमास 
१. 
२६ 
६६ + ४ = ७० मासगण 
मागण से सूयं साधन~- 
श्लोकोक्त नियमानुसार मासगणको २ से गणा किया ७० ३६९२१४० 
इसमे ६७ का भाग देने से छन्धि २।५।२२।२३ प्राप हु ई इसे मासगण ७० 
मे घटाया-- 
७०|| 9 | ०919 
२। ५।२२।२३ 
६५७।२.४।२३७।३७ 
राश्यादि ७।२४।३७।३७ सूयं ह । 


सूर्य के घ्रूवा ०।१।४० को चक्र ४१ से गुणा कर गणनफल २।८।२० 
को स॒यं ७।२४।३७।३७ में घटाकर सूयं का क्षेपक ०।४।२१ जोड़ने से स्पष्ट 
स॒यं हमा यथा-- । 

७।२४।३७।२७ 
-२। ८1२० __ चक्र गुणित ध्रुवा 
५।१६।१७।३७ 
०। ४।२१  क्षेरक 
५।२०।३८।६७ पर्वान्ति कालिकं स्पष्ट सयं 


विपात साघन- 

मासगण ७० न= राशि मासगण का तुत्तीयांश 
४७9 
--- = २३।२० 
३ 


७०।०० ~ २३।२०--४६।४० --अंशादि 
भासगण का चतुर्था ०० = १७।१० कलादि 


१७० मासगणाधिकारः 


राक्ि अक्ष कला विकला 





५.1. ४६ 4, >< 
१७ ३० 
७० ४६ ५७ ३० 
७१ १६ ५७ ३९ 
अर्थात्‌ र्यादि १ १ १६ ५७ ३० विपात हुभा | 


अर्थात्‌ मासगण ७० को राशि मान ल्िया। मास्तगण मे ३का 
भाग देकर न्धि २३।२० को मासगण ७०्मे घटा कर्‌ शेष ४६।४० को 
अंश-कला मान स्या तथाज्न्मे ४्काभाग देकर रन्धि १७।३० को 
कलादि मान करसबकायोग करने से विपात सिद्ध हुभा। पव साधित 
विपातत म चक्रगुणित धरुवा ( ७।१।१२>८४१ = ०।१९।१२ ) एवं क्षेपक 
युक्त करने से- 


११।१६।५७।३० 

०।१९।१२ 
० €&। ९।३० 

क्षेपक जोडने से १९। ७१८ 
स्पष्ट विपात ११।१३।२७।३० 


वृत्तवारादिकयोः साधनम्‌ -- 
स्वाद्रचश्षकेन रहिता मनुतष्टमासा 
वुत्त गणाच्नकुख्वाढयलवं गृहादि । 
स्वार्घान्विता दिनमुखं मनुतष्टमासा 
मासौघतो दशगुणा -दुगुणाप्तियुक्तम्‌ । ५ 


मल्लारिः--मथैकवुत्तेन वृत्तवारादिके साधयति । मनुभिद्चतुदंशभिस्तष्टा 
भक्ता अवशिष्टा ये मासास्ते स्वस्याद्रयंशकेन सप्तभागेन रहिताः सन्तो गृहादि 
राक्यादि वृत्तं॒घ्यात्‌ 1 परमेतत्‌ गणस्य मासगणस्य अश्रकुमिदशमिलवाः 1 
तैराद्या युक्ता खवा भागा यस्य तत्‌ । एवम्भूतं कार्यम्‌ । तथैव मनुतष्टा मासा 
स्तस्य भअर्धेनान्विता युक्ताः सन्तो दिनमुखं वारादिक स्यात्‌ । 
दकशगुणात्‌ मासगणाद्धूगुणेः ससविकशत्यधिकशतत्रयेण = याऽऽप्तिलन्धिस्तया युक्त 


कायं मित्यथः । 


१७२ भासगणाधिकारः 


पूवंसाघित ° में जोड़ने से २८।२६ दिनादि हुभा । इसमे वारादि ध्रुवा 
५।९।२३६ को ४१ चक्र से गुणाकर गुणनफर १।३३।३६ को तथा २।४८।४५ 
क्षेपक को जोड़ने सं (२।८।२६ + १।३३।२६-+- २।४८।४५) = ६।२०1४७ 
स्पष्ट वारादि हुभा । 

घ्रुवक्षेपयोः संस्कारः- 

मासगणाज्जनितो रविरूनहचक्रहतघ्रुवकेण निजेन । 

संकचिता इतरेऽथ च ते स्युः क्षेपयुता निजमातसि सितान्ते ।\ ६ 

मट्खा{रि : ध्रुवकक्षेपका भत्र योज्या इत्याह । मासगणात्‌ जनित उत्पादितो 
रविनिजेन स्वेन चक्रहतेन ध्रुवकेण ऊनः कायः 1 इतर विपातादस्तेन संकरिताः 
संयोज्याः 1 ततस्ते सूर्यादयः स्वीयेन क्षेपकेण युताः सन्तो निजेऽमीष्टे मासि 
सितान्ते 'ोणमास्यन्ते स्युरिति ॥ 

भत्रोपपन्िः -- चक्रहतास्तु धुवका ग्रहेषु प्रक्षेष्या एव वर्षाणामेकादशचतष्ट- 
त्वात्‌ । तत्र रवेध्रु वको इादशश्ुद्धोऽस्ति । अतस्तद्नो रविः कायं: । भन्ये 
योज्याः । एवं क्षेपास्तु योज्या एव यतो प्रन्थश्कादिमारभ्याग्रेसरकालदेव 
ग्रहाः साधिताः। अतः सुष्ट्यादेः सकाश्चात्‌ साधिता ते ग्रहास्तदयुक्ता 
एवेत्य्‌ पपश्नम्‌ ।। ६ 

चन्द्रिका-मासगण से उत्पन्न रविसे चक्रगुणित ध्रुवा घटनेसे 
अन्य (विपात, वृत्त, वारादि) मे चक्रगुणित अपने ध्रुवा जोड़ने से प्रा 
योगफल मे भपने अपने क्षेपक जोडने से अभीष्ट मास के श्ुक्लपक्षसे 
अन्त अर्थात्‌ पूर्णान्त मे सूर्यादि स्पष्ट होते हैं ।॥। ६ 


पाक्षिक चालनम्‌-- 
रवौ पाक्षिकं चालनं चेन््रदेवा 
विषाति नमो बाणचन्द्रा नखाहच । 
षडर्का युमाक्षा गृह्यं च वृत्तं 
दिनादये नभोऽक्नान्धयो बाणबाणाः \॥ ७ 
मल्छारि :- पाक्षिकं चालनं कथयति । सूर्ये पाक्षिकं पञ्चदश्षदिनभवं 
तदेतच्चालनम्‌ ! खं शुन्यं राशिः । इन्द्राश्चतुदंश भागाः । देवास््रयस्त्रिश्त्‌ 
कलाः । विपाते नमः श्न्यं राशिः । बाणचन्द्राः पंचदश भागाः । नखा विशतिः 
कला । वृत्ते षट्‌ राश्षयः अर्का द्वादश्च भागाः । युगाक्षाः चतुष्पन्चाशत्‌ कलाः । 


ग्रडलाघव करणम्‌ १७९१ 


अत्रोपपत्ति :-वृत्तगुणो राक्ष्यादिः ०।२५।४८।५२। क्त्र चतुदंशभिर्मा- 
सैरेकं चक्रं भवति अतो भगणप्रयोजनाभावात्‌ मनुतष्टमासा इत्यक्तम्‌ । 
अत्रास्येको राशिधुतः। एकशुद्धघ्रुवः ५।४।११।८ भस्यापि खण्डद्वयं 
छृत्वात्रेदं खण्डमधिक गृहीतम्‌ ०।४।१७।८ सप्तभिः सर्वाणितं जातं राहिस्थाने 
ख्यम्‌ । अतो हि स्वाद्रयंशकेन रहिता इति । अधिकं खण्डम्‌ ०।६ दशभिः 
सर्वाणतं जातं भागस्थाने रूपम्‌ १। अतो गणाश्रकुलवाढययमित्युपपन्नम्‌ । अव्र 
तिथिवारादिकस्यायं मासगणः १।३१।५० अत्र खण्डद्वयं १।३० इदं द्वाभ्यां 
सर्वाणतं जातं गुणस्थाने त्रय ३ । यो राशिस्विगुणो द्वाभ्यां भज्यते स स्वार्घान्वित 
एव भवति । अन्यत्‌ खण्डम्‌ ०।१।५०। इदं भगुणेः स्वणि जाता गुणस्थाने दर 
१० । अतो दशगुणात्‌ भगुणाप्षियुक्तमित्युपपन्नम्‌ ॥ ५ 

चद्दिका-माकस्गणमे १४काभागदेनेसे जो शेष बचे उसमे उसी 
का सप्तमांश घटाने से राश्यादि तथां मासगण मेंष्०्का भागदेनेसे 
अंशादि फल होगा । दोनोका योग करनेसे वत्त अर्थात्‌ चन्द्रकेनट्र 
होगा | 

मासगणमेंश्टकामाग देनेसेजो शेष बचे उसमे उसका आधा 
जोड़ने से दिनादि होगा । उसमे, दशगुणित मासगण मे, ३२७ का भाग 
देकर रन्धि तुल्य दिनादि जोडने से वारादि होगा ॥ ५ 


उडाहरण-- वृत्त (चन्द्रकेन्द्र) साघन-मासगेण ऽन्को {छ्सेभाग 
देने से रोष ° प्राप्त हुभा। °्मेऽकाभागदेनेसे राश्यादि ०।०।५०्ही 
प्राप्तहुभजा। ० मे सून्यघटानेसेशन्यहौ रहा । मासगणञ्न्मे १०्का 
भाग देकर रन्धि ७।०।० अंशादि को राद्यादि ००।०।० मे जोडने से 
०।७।०।० राष्यादि वृत्त हज । 


वृत्त के ध्रुवा ९।१।६।० को चक्र ४१ से गुणाकर गुणनफल १०।१५।६।० 
को वुत्त ०।७।०}० भे जोड़कर १०।२२।६।० में वृत्त का क्षेप ०।१४।५१।० 
जोडने से ११।६।५७1० वृत्त (चन्द्रमा का केन्द्र ) हुमा । 


कारादि साधन--मासगण ७०मे १८ काभागदेनेसे शेष °में इसी 
काभाधा ० जोडने से रान्य ही रहा। मासतगण ७० > १०७०० दरा 
गुणित मासगणमें देरऽकाभाग देने से रब्धि २।८।२६ दिनादि को 


१७५ मासगणाधिकारः 


चतुस्तरिक्षदंशेन ऊनास्ता एव तिथयः । दिनेश सुय ल्वाद्यं चालनं स्यात्‌ । 
ततस्ता एव तिथयो विश्वेस्रयोदक्शषभिर्हुन्यन्ते गुण्यन्ते तास्तथा । ततः स्वस्य 
गुणनल्वेन त्रिनवति भागेन ऊना वृत्तं चालनं स्यात्‌ । ९ 

अत्रोपपत्ति :--अत्रंकचान््रदिनमानम्‌ । ०।५९।३।४५ यद्येकतिथावेतत्‌ 
तदेष्टतिथिभिः किमिति । इदमिष्टतिथिगुणं रूपहरस्याविकृतत्वान्नाशः । उ 
खण्डगणनाथमस्यैक एवे गृहीतः । अत इहमेकशद्धं कृत्वा जातम्‌ ०। ०।५६।१५ 
चतुःषष्ट्या सर्वाणतमृष्वंस्थाने रूपम्‌ । अतः स्वरसयुग ल्वोनास्तिथयो वाराद्य 
देयाः । पूर्वं ऋणमेव धनमिति चालनेऽ्प्यक्तमस्ति । 

अध रिचालनोपर्पात्तः--तत्रै रवेशचान्द्रदिनान्तवत्तिनो मधघ्यगतिरियं भागाचा 
०।५.८। १४ अस्या अप्येको गृहीतोऽत इदं रूपशुद्धं जातम्‌ । ०।१।४६ इदं 
चतुरस्तविशत्‌ स्वणितं जातमूघ्वं रूपम्‌ १ । अतो युगगुणल्वोनास्तिथयो रवि 
चाखनमिति । अथ वृत्तचालनम्‌ । वृत्तस्य चन्द्रमन्दकेन्द्रस्य चान्द्रदिनान्तवंत्तिनी 
मघ्यगतिर्भागाद्या १२।५१।३७। अस्यास्वयोदर गृहीताः अत इदं त्रयोद् शुद्धम्‌ 
०।८।२३। इदं च्रिनवतिसर्वरणितं जाता ऊउष्वं श्रयोदकशंव । अतो वि्वनिध्नाः 
स्वत्िनविभागोनास्तिथयो वु त्तचालनमित्ति ॥ ९ 

चन्द्रिका-- भभीष्ट तिथि साधन के लिए-पूणमा से पहरे तथा पश्चात्‌ 
जितनी तिथियां हों उनमे उसीका ६४वां भाग घटाने से दिनादि का चालन 
होता है इसी प्रकार यात-एेषय तिथि संख्या मे उसीका रेष्वां भाग घटनिं 
से शेष अंशादि सुयं का यातेष्य संख्या मे उसी का ९३ेवां भाग घटाकर 
शेषम १३कागुणा करने से वृत्त का चालन होता है।। ९ 


उदाहरण--राक १८९८ आश्विन शुक्छ १३ को सूर्यादि का साधन 
अभीष्टे । 


पणिमा से पूवं १३ तीसरो तिथिरहै। अतःर३ेमें्४का भागदेनेसे 
रन्धि ०।२।४५८ को ३ मे धटने से शेष २।५५८।१२ दिवसादि चालनऋण 
हआ । पूवं साधित तिथि सम्बन्धी दिनादि में २।५७।१२ घटाने से अभीष्ट 
हिनादि होगा | 

उक्त गत तिथि संख्यारेमे३४का भाग देकर लन्धि ०।५।१८ को ३ 
घटनेसे शेष २।५४,४२ सयं का चालन हमा पूणिमा के सूयं से २।५५।४२्‌ 
अंशादि फर घटानेते १३ तिथिमे सये इगा। 


ग्रहुखाघवं करणम्‌ १७३ 


दिनाद्ये वाराद्यं नभः शून्यं वारः। अक्षान्धयः पंचचत्वारिशत्‌ घटिकाः 
बाणबाणाः पञ्चप्ड्चाक्षत्‌ कलाः । 


अङ्रोपपत्ति :--पूषंमनुपातात्‌ रब्यादीनां भासगुणाः साधिताः सन्ति तेषामधं 
चालनं कृतम्‌ । भमान्तकाकिकग्रहसाघनार्थमिति । एतदेव दवादशमुणं षण्मास 
चालनं चतुविकशतिगुणं वषंचालनं भवतीति सुगमा ॥ ७ 

चन्द्रिा-- सूयं का ०।१४।३३।, विपातं का ०।१५।२० तथा वृत्त का 
६।१२।५४ राइयादि पाक्षिकं चाकन है । एवमेव ०।४५।५५ वारादि का 
दिवसादि पाक्लिक चालनहै।॥ ७ 


अरदढवाषिकं चालनम्‌- 
शरा वदपक्षा भुजङ्धगर्नयोऽकं 
व्यगौ षट्‌ कृताः कुञ्च षाण्मासिकं स्यात्‌ । 
शरा वा्धंयस्त्रीषवो भादिवत्ते 
दिनाद्ये तिथौ भवा भूदिनाद्यम्‌ \॥\ ८ 


मल्लारि -अथ षाण्मासिकं राक्यादिचालनमाह) शराः पञ्च) 
बेदपक्षादचतु्विशतिः मुजङ्धार्नयोऽष्टत्रिशत्‌ । इदमके षाण्मासिकं चालनं स्यात्‌ । 
ग्यगौ षट्‌ । कृताक्चत्वारः कुरेका । वृत्ते शराः पञ्च। वार्धंयक््चत्वारः । 
त्रीषबः त्रिपञ्चारत्‌ । ति्थेदिनायं द्वौ । भवा एकाददा । मूरेका। दं दिनाद्य 
चालनं स्यात्‌ ॥ ८ 


चन्द्रिका-सूय का ५।२४।३८, व्यगु कषा ६।४।१ तथा वृत्त का ५।४।५३ 
राषएयादि षाण्मासिकं ( अधेवाषिक ) चाल्नदरै। इसी प्रकार २।११।१ 
तिथि के वारादि षाण्मासिक चालनदहै॥८ 


इष्टतिथिसाधनम्‌ - 
अभिमततिथिसिद्धचे "क्‌ परे यास्तु तिथ्यः 
स्वयुगरसनयोनाऽच¶लनं स्याद्‌ दनं ! 
स्वथुगगुणलवोनाः स्याल्लवाद्यं उिनेह्ञ 
स्वगुणनवलवोना विहवनिध्नाहचः दृत्तं ॥ ९ 


मल्लारि :-अथेष्टतिथिसाघनमाह । भभिमताया इष्टायास्तिधेः सिद 
प्राक्‌ पौर्णमास्याः पूवं परे पश्चात्‌ यां यावल्य दष्टतिथ्यः स्युस्ता युगरसखवेन 
चतुःषष्टिभागेन ऊनाः सस्यो दिनाये चालनं स्यातु स्वस्य य॒गगृणचख्वेन 


ग्रहटाधवं करणम्‌ १७५ 


इसो प्रकार ३ेमे ९३से भाग देकर रुन्धि ०।१।५६९को ३ में घटाने 
से २।५८।४ शोष रहा इसमे १३ से गुणा करने से गुणनफल ३०।३४।५२ 
वृत्त { चन्द्र केन्द्र ) का चालनं हुआ । 


स्पष्टतियिसाघनाथं रविचन्द्रयोमन्दफलम्‌ -- 

अत्यष्ट॒यष्टिचुषाकगोक्षरदृशः खण्डानि तेवत्तयो - 

भागित्रोन्दुखव्रमेक्यमगतध्नोच्छिष्ट विहवां शयुक्‌ । 

प्राग्वत्‌ स्यात्‌ स्वमरणं फलं त्विति रवेः केन्द्राद्यदन्यच्च तद्‌- 

हूचाप्तं स्बाडः गलवोनितं करं तयोः कार्या पुनः संस्कृतिः ।\ १० 

मल्छारिः--अथ रवेः स्पष्टाथं तिथेरपि स्पष्टां सूयंचन्द्रयोर्मन्दफले 
साघयति । एतानि खण्डानि स्युः मत्यष्टिः सप्तदश १७ । अष्टिः षोडश १६। 
वृषार्चतुर्दश् १४ । भर्का द्रादकश्च १२। गावो नव र९। क्षराः पंच ५ | दृशौ २। 
तं: खण्डकः कृत्वा वृत्तस्य दोभु जः । तस्य ये भागाः । तेवां यस्त्रीन्दुभिस्वयोदश- 
भिटवो भागो यम्मितः रयात्‌ | तर्मितानां खष्डानामवयम्‌। तत्‌ आगतेन 
खण्डकेन हन्यते तथा । एवम्भूतस्य उच्छिष्टस्य शोषस्य यस्त्रीन्दुलवस्त्रयोदश 
भागस्तेन युक्तं सत्‌ । प्रास्वदित्ति वृत्ते मेषादिषट्‌के घमं तुलादिषट्‌के ऋणं चन्द्र 
फलं स्यात्‌ । इत्यनेनैव प्रकारेण रवेमन्दकेद्राद्ध्‌ जादिविधिना एभिः खण्डैः सूर्यमन्द- 
फलं साध्यं ततः स्वस्याङ्गुलवेन ऊनितं कार्यम्‌ 1 तयो सूयचन्द्रफल्योः संस्कृतिः 
कार्या | संस्कृतियंथा । घनयोर्योगः । ऋण योरपि योगः ! धनणंयोरन्तरभिति । 


मत्रोपपत्तिः--अत्र वु सत्रयोदशभागन्तरं प्रकल्प्य पूर्वोक्तवन्न्दफलखण्डानि 
चन्द्रस्य साधितानि राशित्रयमध्ये सप्त एव । एतानि मन्दफरखण्डानतिसावयवानि 
यतः पंचदश गुणानि निःरोषाणि भवन्ति । अतः पंचदह्ञगुणानि कृत्वा पठितानि । 
भत्रेष्टफलार्थमनुपातः । यदि त्रयोदश मागैरेक खण्डं तदेष्टवु्दो्भागिः किमिति 
लन्वमितखण्डानामेव्यं कायं ततः शेषादनुपातः । यदि त्रयोदशभागं भोग्यिखण्डं तदा 
शेषां शः किमिति रब्धं गतखण्डयोगे योज्य तत्‌ फलं स्यात्‌ । धनर्णोपपत्तिः स्पष्टी- 
करणाधिकारे उक्तवास्ति । एव रविकेन्द्रादपि मन्दफल साष्यम्‌ । तत्र लाचववाथ॑मे- 
भिरेव खण्डः रविकेन्द्रादपि फर साध्यमित्युपपन्नम्‌ । अत्र चन्द्र॒ फलं केन भक्तं 
रविफठं स्यादिति ज्ञानां सू्यफलेन परमेण २।१०। चन्द्रपरमफठे ५।२। भवते 
लन्धं द्रौ २। अतश्षवन्द्रफलं इयाम्‌ । एवं द्विभक्तं चन्द्रफलम्‌ २।३१। यदधिकम्‌ 
०।२१। तद्द्वभक्तस्य २।३१। षडश्षाः स्वल्पान्तरात्‌ । भत उवतं स्वषडंरविवजि- 
तमिति । एवपुमग्रीः फलयोः संस्कृतिः काय¶ तिथौ देयल्वात्‌ ॥ १० 


१७६ मासगणाधिकारः 


चश्द्रिका-- मन्दफल साधन के लिए १७।१६।१४।१२।९।५।२ ये खण्ड 
है) वृत्त के भुजांशमे १३ का भाग देनेसे प्राप्त र्न्ि को संख्याक 
बराबर खण्डो का योग करके एकं स्थानमे रखं । ओेष को अग्रिम खण्डकी 
संख्या से गुणा कर गुणनफल मे १३ काभाग देकर छन्धिको खण्डां के 
योगमे जोष्ने से चन्द्रमा का मन्दफल होतारह) मेषादि £ राशियों में 
मन्दफरु धन तुकादि ६ रायो मे ऋण होगा ! 

रकिकिन्द्र द्वारा उक्त खण्डो स उक्तरीति से साधित फलके अधेमें 
उसी का षष्ठां घटानेसे शेष सृयंका मन्दर्फरुहोगा। ऋणधनका 
ज्ञान पववत करे | | 

स॒येमन्दफर का चन्द्रमन्दफर में संस्कार ( दोनों धन होया दोनों 
ऋणदहोतो योग, एक धन ओौर दृसराक्रणहौ तो अन्तर) करनेसे 
संस्कृत मन्दफल होगा । १० 

उदाहरण ~ चन्द्रमन्दफल साघ्न-वृत्त ( चन्द्रमन्दकेन्द्र ) ११।६।१७।०. 
इसे १२ राज्िमे घटाकर भुज ०।२३।३।० बनाया । भुजांश २३।३।० में 
१२ काभागदेने से लब्धि १ तथा शेष १०।३।० रहा । रन्धि तुल्थ एक 
खण्ड १७ हु । एष्य खण्ड १६ से शेष १०।३।० को गुणाकर गुणनफल 
१६०।४८।० मे १२ का भाग देकर लन्धि १२।२२९को गत खण्ड १७में 
जोडने से २९।२२।९ चन्द्रमा का मन्दफल हभ । वृत्त तुलादि है, अतः 
मन्दफल ऋण हुञा । 

सू्य॑मन्दफर साघन सूयं ५।२०।३८)३७ को अपने मन्दोच्च २।१८ से 
घटाने से दोष ८।२७।२१।२३ सूयं का मन्दकेनद्र हूभा । इसमे ६ राशि 
घटाकर २।२७।२१।२२ भुज धनाया 1 भुजांश ८७।२१।२३ मे १३ काभाग 
देने से छन्धि ६ तथा शेष ९।२१।२३ बघा । रन्धि तुल्य ६ खण्डोंका 


योग किया -- | 
१७ + १६ + १४ १२९ 1५ = ७३ 


भग्रिमखण्ड २ से रोष ९।२१।२३ से गुणाकर गुणनफल १८४२।४६ में 
१३काभागदेने से रन्धि १।२६।२२ प्राप्त हुई । इये गत ख्डंके योगं 


प्रहलाधवं करणम्‌ १७७ 


७३ मे जोड कर ७४।२६।२२ के अपि २३७।२।११मे दका भाग दिया। 
रब्वि ६।१०।२० को फाधं २७।२।११ मे घटाने से ३०।५१।५१ सूयं का 
मन्दफर हुभा । मन्दकन्र तुलादि होने से मन्दफल ऋण हुभा | 

संस्कृतमन्दफल --चन्द्रमन्दफल=२९।२२।९, सयं मन्दफल=२०।५१।५१। 
दोना ही ऋणात्मक हैँ अतः दोनों का योग ( २९।२२।९ + ३०।५१।५१) = 
२।०।१४।० राश्यादि संस्कृत मन्दफर हूुभा । 

हारसाधनम्‌-- 

वृत्तष्यदलाद्रस्प्तियुक्ता रहिताः ककिमृगादिके च वत्ते। 

सगुणांशखवह्लयो हरः स्यादथ पूर्थाच्चरप्वमुक्तवत्‌ स्यात्‌ \\१९ 

मत्लारिः--अथ हरं साधयति । वृत्तस्य यदैष्यं दलं भोग्यखण्डं तस्माद्या 
रमापतिः षडशः | तेन सगुणांशाः सत्याः खवह्वयस्त्रिशत्‌ कक्रि मुगादिके वृत्तो 
युक्तां रहिताः कार्याः। कवर्यादिषड्मे युक्ता मकरादिषडमे रहिताः सन्तो हरः स्थात्‌ 
अथ सूर्याच्चरादिमानं चोक्तवत्‌ पूर्ववत्‌ साध्यम्‌ । 

अत्रोपपत्ति --इयं फलसंस्छृतिस्तिथौ देवाऽतो घटीकरणार्थमनुपातः । यदि 
गृत्यन्तरकलाभिः षष्टिघरिकास्तदाऽऽमिः फलकलाभिः कति घटिकाः एवमत्र 
फकरभागानां पूवं कलोकरणार्थं षष्टिगुणः । एतत्‌ फलं पंचदशगुणितमस्ति 
सावयवत्वात्‌ अतः पंचदद्च हरः । गुणहरयोह्रेगापवत्तितयोर्जातो गणः ४। 
इदानीं षष्टिगु णः । अतो गुणघातो जातो गुण। २४० । हरस्तु गत्यन्तर कलाः । 
तास्तु मध्यमा एव गृहीताः । गुणहरयोश्चतुविशत्या अपवतितयोर्जातो गुणः १० । 
हरः ३०।९०। फल संस्कृतिर्दशहूव्यये उक्तमस्ति । अय हरो साध्यः । अतः स्पष्टत्वं 
यथा । वृद्चभोग्यखण्डं परमम्‌ १७ । इयं केन्‌ गुणं परमं गतिफ़लं भवति । भक्रेदं 
भोग्यखण्डं वेदैगुःण्यं ततश्चतुर्विंशव्याऽपवतितगुणह रयोग णेनापवत्तितयोर्जातो हरः 
षट्‌ । इदं फलं सगुणां श्ञखव्निमिते हरे संस्कारम्‌ 1 तत्र कवर्थादिषट्के केन्द्रे गति 
फलं धनमतो युक्ता इति । मकरादिषट्‌के ऋणमतो रहिता इति । एवं जातः स्पष्टो 
हरः । अतो हि फलसंस्कतिदं शहता हारोद्धृता नाडयः स्युरित्युपपन्चम्‌ ॥ ११ 

चन्द्रिका- वृत्त के एष्य (अग्निम ) छण्डके षष्ठांशको कर्कादि होने 
पर तृतीयांश सहित ३० अर्थात्‌ २०३० मे जोडने तथा मकरादि केन्द्रमे 
घटनेसेहारहोताहे। 


सयं से पूर्वोक्त रोति से चर साधन करना चाहिए ॥ ११॥ 
१२-प्रह्‌० 


१ ८ | मासगणाधिकारः 


उदाहुरण- वृत्त का एेष्यखण्ड = १६ इसमे ६ काभाग देकर रन्धि 
२।४० को मकरादि वृत्त होने के कारण ३०।२० मे घटाने से (३०।२०- 
२।४०)-२७।४० हार्‌ हुम | 

चरसाधन-तात्कालिकिं अय्नांश २३।३१।५७ कौ स्ष्ट सुय 
५।२०।३८।३७ मँ जःडने स सायन सयं = ६।१५।१०।३४ । इसका भृज 
०।१४।१०।३४ बनाया । भुज के राशिस्यानमे ० है अतः भोग्यखेण्ड ५३ 
हुभा | इससे भज के अजादि १४।१०।३४ को गुणाकर गुणनपःल 
८०८।२।२६मे ३०का भाग देकर लब्धि २६।५६ कोण्मे जोडने से 
२६।५६ चरफल सिद्ध हुआ । सायनस॒यं तुलादि राशियों मे होने से चरफल 
२६।५६ धनात्मक हुजा । स्वल्पान्तरतः २७ पर ग्रहण करगे । 


तिधिस्पष्टीकरणम्‌-~ 
` नाडयः स्युः फलसंस्कृतिदंशहता हारोदताऽथो चरं 
सायं लक्षणक्तं त्वथो बिघटिकाः पश्चादृचऋणं प्राग्धनम्‌ , 
स्शाडध्रधूनान्तरयोजनान्यथ तिथिः स्पष्टा त्रिभिः संस्कृता 
तत्संस्कारघरीसमाऽच कलिका देया व्यौ चौष्णगौ ॥ १२ 


मल्खारि :--तदेवाह । फलयोः संस्कृतिर्दशगुणा स्पष्टहुर्‌मक्ता सती नाड्यः 
्यः। अयो चरं सायं लक्नणक त्रिपरतलक्षणम्‌ धनं चेत्‌ तदा ऋणमृणं चेत्‌ उदा 
घनभिति । स्वांच्रिणा स्वचरणेन उनानि रेखादेशान्तरयोजनानि । विघरिकाः 
पलानि । रेखातः पश्चात्‌ स्वपुरे ऋणम्‌ । पूर्वस्यां धनम्‌ । एवं त्रिभिः फलरपि 
संस्कृता तिथिः स्पष्टा स्यात्‌ । तत्पंस्कारस्तेषां फलानां यः सकारस्तद्‌षटोत्तमः 
कलिका व्यगौ उष्णगौ चं देय।:। १२ 


अच्रोपपत्ति : --फलनादीकरणोपपत्तिः पृवंमेनोर्ता । चरब्यघ्तत्वे हितुयशा । 
यद्‌ ग्रहै ऋणं तत्‌ तिथौ धनं यद्धनं तद्णं भोग्यत्वान्‌ । अतस्चरं विपगोतम्‌ । 
रेखास्कदशान्तरोपपतच्तिः पूवे प्रतिपादिताऽच्ति। तिथी रविचन्द्रान्ठरादूवति ; 
अत गत्यन्तरादनुपातः } यदि भूपरिधियोजनै; ४८०० गत्यन्तरकला लभ्यन्ते 
जदा रेष्रासरेहछान्तस्योगनेः क्रिमिति। पुनर्घटीकरणायानुपातः | यदि गव्यन्तर- 
कलाभिः षष्टिघ'टकास्तदाऽऽभिः किमिति गत्यन्तरकलातुल्ययौर्मुणहरयोर्नाडः 
पु ररञ फलस्य वलीकणार्थं षष्टिर्गुणः । णवं गुणचातो गुणः ३६०० हरः ४८००। 
गुणह्‌ , इाङ्धता ;7०° पर्वत्तितौ गुणः ३। हरः ४। अतः स्वाङ्घ्रयूनानि 


ग्रहलाचवं करणम्‌ १७९ 


योअनानि पलानि स्यरित्यपपन्नम्‌ । एतत्‌ फलत्रयसंस्कृता तिथिः स्पष्टा 
भवतीत्यपपन्नम्‌ । रविन्यग्‌ मष्प्रमतिथ्यन्तकालीनो तयोः स्पष्टतिथिकालोनकरणाथ 
फलसंस्कारघटी भिशष्वालनं देयम्‌ । भतो लाघवार्थं ल्पान्तरत्वात्‌ संस्कारघरटीसमषाः 
केला: सये व्यगौ देयास्तौ तात्कालिकौ मध्यमौ भवतं इति । अतस्तयोः स्पष्टत्वाथं 
फलमग्र साघयति ।। १२ 

चन्द्रिका :- पूर्वंाधित फलसंस्कार को १० से गुणाकर गुणनफल को 
एकजातीय कर हार से भाग देने पर घल्यदिक फल होता है । ( संस्कार 
धनदहोतो फन धन, ऋणहो तो ऋण होत। है) । पूवंताधित चरफंर का 
धनणंत्व विपरीत कल्पना करे ( भर्थात्‌ चरफलक्षनहोतो ऋण, ऋणहो 


तो धन ) । अभीष्ट स्थान के देशान्तर योजन मे उसी का चतुर्थश्च घटाने 
से शेष तुल्य पर देशान्तर संस्कार होता है । अभीष्टस्थानरखादेशासे 


पूवं होतो धन पञश्चिमहोतो ऋण होता है। ( तीनों फलों का परस्पर 
संस्कार करने से स्पष्ट संस्कार होता) स्पष्ट संस्ारकां तिथिमे 
संस्कार करने से स्पष्ट तिथि तथा संस्कार तुल्य कादि सस्र सू्यंओौर 
व्यगु मेंकरनेसे क्रमशः सूयं मौर व्थगु स्पष्ट होतेह । १२ 


उदाहरण -पूवंसाधित फर्संस्कार ६०।१५०् को १० से गुणाकर 
गृणनफर ६०२।२०।० को करादि (३६१४०।०) बनाकर हार २७।४५ के 
एक जातीय मान १६६०्स भागदेन पर ठनि घस्यादि २१।५६ संस्र 
होया । फच्संस्कारके्छण होने से यह फरुभी ऋण हूगा। 

पूवंक्ताधित चरफन २७ धन है अतः यहां ऋण २७ कलयना किया । 

रेखा देश से काशी का देशान्तर ६४ योजन पवेहै। अतः दका 
चतुर्थाश्ञ १६ चौसठ मे घटाने से शेष ४८ प्र देशान्तर फल हूर । काक्ञी 
प्व है! अतः यहु घनातमक हागा। 

उक्त तोनों फलों का संस्कार-प्रथम संस्कार फल २१।४६ ऋण है । 
हितीय चरफर २७दहै तथा तृतीय देशान्तर +४८ पलदहै) अतःदो 
ऋणःत्मकं फलों के योगमें तीतरा+४८ पल धघटानेसे सष्ट संस्कार 


होमा- 


१८० मासगणाधिकारः 


- २१।४६ 
~ ०२७ 
- २२।१३ 
न ०।६८ 
= २।९५ सएटसंस्कार ऋणात्मक 
रलोकोक्त नियमानुसार स्पष्टसंस्कार को स्पष्ट वारादि के घटो-पच मे 
घटाने से स्पष्ट तिथि होगी- 
वारादि ६।३०।४७ 
४. 
६। ९।२२ 
अर्थात्‌ शुक्रवार को स्पष्ट तिथिमान्‌ ९।२२ सिद्ध हुभा। इसी प्रकार 
२१।२५ का कादि संस्कार करने से स्पष्ट सूयं एवं व्यगु होगे यथा-- 


सूयं ५।२०।३८।३७ व्यगु ११।१३।२७;३० 
== ९11 + 8 
संस्कृत सूयं ५।२०।१७1१२ संस्कत व्यगु ११।१३। ६। ५ 


रवि-व्यगुस्पष्टीकरणम्‌- 
सस्वाहंल्लबमिनजं फर धुगघ्नं 
किप्तास्ताः कुर च तयोः स्फुटो चं तौ स्तः। 
विव्यशद्वियुतहरे कशानुभक्त- 
इ चन्द्रस्य प्रभवति विम्बमङ्गरुलाद्यम्‌ । १३ 


मल्छारि : --इनात्‌ सूर्याज्जायते तत्‌ तथा । एवम्भूतं फं स्वस्य बहुल्लवेन 
चतुधिशत्यंशेन युक्तं युगघ्नं चतुगरणित सत्‌ ता छ्प्ताः कलाः स्युः । तःस्तयोः 
मूयविपरातयोः कुरु तौ स्फुटौ स्तः। चित्यंशौ यौ द्वौ ताभ्यां युतो हरः 
कृशानुभिस्तिमिमक्तः सन्‌ फलमदुगुलायं चन्द्रश्य विम्बं प्रभवति । 


अत्रोपपत्तिः--अश्र रविफल पञ्चदशभिभग्यिं पूवं पञ्चदशगुणितल्वात्‌ ततः 
कलां षष्टिगुणः। गुणहरयोहुरेणापवक्तितयोगुःणः ४। अतो यूगघ्नमिति। 
अचर प्रथमं रविफृलं परमेतावत्‌ २।५।३१ धृतम्‌ । एतन्मित धार्यम्‌ २।१०।३१ 
अनयो रन्तरमिदम्‌ ।०।५। इदं चतुविराध्या सर्वाणितं जातं हयं फलं तुल्यमेव । अत्तः. 
सस्वार्हस्लवमिति । ताः फलकाः रविन्यग्वोर्देयास्तौ स्फुटौ भवतः । अथ 
चन्द्रविम्बस्योपपत्तिः--अच्र गतेविम्बानयनं कार्यंमित्यत्र॒ हरोऽपि गतिखण्डमतो 
हरादनुपात । यद्यरिमन्‌ मध्ये हरे ३०।२०। इदं चन्द्रविम्रबं १०।४०। तदेष्टस्य. 


ग्रहलाधव करणम्‌ १८१ 


स्पष्टहरे किमिति । जत्र गुणाद्धरो हि त्रिगुणासन्नोऽतोऽत्रविव्यंशौ दवौ क्षेप्यो । 
ततस्त्िगुणं चन्दरविस्तरं भवति । अत्र उक्तं वित्रयंशद्धियुतहरः कशानुभक्तश्चन््र- 
चविम्बर्मिति ॥ १३ 

चन्द्रिका--अपने चौनीसरवे भाग से युक्त पूवंसाधित सूयं मन्दफल को 
चारसे गुणा करने पर कलादि होता है । इस कलात्मक फल का संस्कार 
सूयं ओर व्यगु मे करना चाहिये । 

तृतीयांश से रदित २ अङ्कुर अर्थात्‌ १।४० हार मे जोड़कर देका 
भाग देने से लन्धि चन्द्रमा का अङ्ुलादि षिम्ब होता है ॥ १३ 


उदाहुरण--वंसाधित सूयं का मन्दफल २३०।५१।५१ मे २४ का भाग 
देने से रन्धि १।१७।९ को ३०।५१।५१ मे जोड़कर ३२।९्०्को ४्से 
गुणा करने से कलादि फर १२८।३६।० हुभा । अशादि बनाने से २।८।३६ 
हुभा । संस्कृत सूयं ५।२०।१७।१२ मे अशादि फर २।८।३६ घटाने से दोष 
५।१८।८।३६ स्पष्ट सूयं तथा संस्कृत ग्यगु ११।१३।६।५ में २।८।३६ घटने 
शेष ११।१०।५७।२९ स्पष्ट व्यंग हुभा । 


चन्द्रविभ्ब साधन--तुतीयांश् रहित २ अंगु अर्थात्‌ १४०मे हार 
२७।४० जोड़कर २९।२०मे का भाग देनेसे रन्धि ९।४६ चन््रमाका 
अद्घुलादि विम्ब हुमा | 


रविभूभाविम्बसाघधनम्‌- 
खान्ध्याप्ताकनितदलयुतोनाः स्वकेनद्रे कुलीर- 
नक्रा स्याद्चरिलवभवा भज्ुलाद्यकंविम्बम्‌ । 
हरो वषुः स्वतियिलबयुक्‌ स्यात्‌ कुभाऽस्यां धनर्णं 
वाक्षाप्तार्कागतदल सतो नक्रकक्यादिकेन््रे ।। १४ 


मत्छारिः--अथ सूर्य॑विम्बभूभाविम्बे साधयति । खाब्धिभिश्चत्वारिश्चता 
४० आप्तं भक्तं च तदकस्य भगतदलं भोग्यखण्डं तेन व्थारेवभवा विषड ल्वा 
एकादन्च युक्तोनाः कार्याः । कदेत्याहं । स्वकेन्द्रं सूर्यस्य मन्दकेन्द्रं कूरीरनक्राचे 
सतति । करकर्यि युता मकराद्य ऊनाः सन्तोऽअंगुखादि सूर्यविम्बं स्यात्‌ ।! विगता 
इषवः पञ्च यस्मात्‌ स तथा । एवम्भूतो हरः स्वस्य तिथिलवेन पंचदशांशेन युक्‌ 
कुभा स्यात्‌ । अस्यां कुभायां खाक्षः पञ्चाक्षताऽऽप्तं भक्तं यदर्कस्य भगतदल 


१८२ मासगणापिकारः 


भोग्यखण्ड' तत्‌ नक्रककर्यादिकेन्द्र॒घनर्ण कायम्‌ । मकरादौ धनं कवर्यादौ ऋणम्‌ ; 
तत्‌ भृचछायाविम्बं भवति । 


अत्रो पपत्तिः--मध्यगतिप्रमाणेन रवेर्मध्यविम्बमिदम्‌ १०।५०। यदि मध्यगत्या 
द्यं तदा स्पष्टगत्या करिम्‌ । अत्र मोग्यखण्डपरमत्वे गत्िफरपरमतवमित्यत्र 
भोग्यखण्डात्‌ गत्िफलठं प्रसाध्य विभ्वं साध्यम्‌ तदत्र परमं. विम्बम्‌ ११।१५। 
अनयोमंब्यस्पष्टयोरम्तरम्‌ । ०।२५। इदं परमभोग्यखण्डस्यास्य १७। चत्वा- 
रिशत्तमो भागः । अय मघ्यविम्बे देयः कवर्यादौ गतिफलं घनमतो युतो युक्तः । 
मकरादौ गत्तिकफलमृणमतो हीनः । एवं रविविम्बं भवति । अथ भूमाविम्ब्रोपपनिः । 
अत्र चन्द्रमध्यगतिवश्लात्‌ जातं भभाखण्डमेकम्‌ । २७ । इदं मध्यहुरस्य ३०।२०। 
पञ्चोनितस्य स्वतिथिखवयुक्तस्य समं भवति । अतो हि स्पष्टहुरादेवं साघ्यम्‌ । 
तदत्र सूय गतिफलोत्य विम्बं भृषठायायामस्यां देयम्‌ ¦} तत्र सूर्यं मोग्यखण्डश्य 
पचदशांदां देयमिति दृश्यते । यत्तो हि परमं भोग्यखण्डमिदम्‌ १५७) तयंगोनाष्ट- 
७।४० भक्तं रविगतिफलं भवति । २।१३। तदापि सप्तमक्तं भूभाखण्डं भवति । 
अतोऽयं हरघातो हरः ५० । भोग्यखण्डं पंचाशद्भक्तं तत्र भूभाखण्डे देयः । 
मकरादौ ऋग फलं गतेः । अतस्तद्‌ भूभायां युज्यते । करकर्यादौ घनं फल तद्भ्‌ नायां 
न्यूनं भवति ॥ १४ 

चच्दरिका--रविमन्दफल साधन के समय जोष्य खण्ड हो उसमे ४० 
से भाग देकर लब्धि को षष्ठांश रहित ११ अङ्कुल अर्थात्‌ १० अंगुल ५० 
व्यंगुल मे कर्कादि कन्दर होने पर जोडने से तथा मकरादि केन्द्रमे घटाने 
से अङ्गुलादि रविदिम्ब होता हि। 


हार मे ५धटा कर शेष मे उसीका पन्द्रहुवां भश जोडनेसे भूभा 
होती है! किन्तु मकरादिक्न्द्रहीतो उस भूभामे एेष्य खण्डका 
पचासगं भाग जोडने से तथा कर्कादि कन््रहो तो घटाने से वास्तव भूमा 
होती है । १४ 


उदाहरण--रविमन्दफल साधन के समय पठित खण्डो मे ‰ गत खण्ड 
हुए थे शेष षातवां खण्ड र एष्य खण्डहे। रमे््का भागदेने से 
रन्धि ०।३ को षष्ठांश रहित ११ भद्ध.ल अर्थात्‌, १०।५० मेँ युक्त किया 
( सूयं का कर्कादि केन्द्र होने से )- 


ग्रहुलाघवं करणम्‌ १८३ 
१ ०1५9 
०। ३ 
१०।५३ भङगुलादि रविविम्ब 
वास्तव भूमा साधन--हार २७।४० मे ५ घटाकर दोष रर।४०्मे 
इसी का पृंचदर्शांश १।३० जोडने से २४।१० भूभा हई । एेष्यखण्डरमे 
५० काभागदेनेसे लब्धि ०२ को कर्कादि केन्द्र होनेसे भूभा २८१० 
घटाने से शेष २८ वास्तव भूना हुई । 


प्रहणसम्भवज्ञानम्‌ - 

जञत्वेवं तिथिपर्गकं ग्रहणजं शेषं भवेत्‌ पवंचत्‌ 

घण्मासैरत पक्षर्बाजतयुतेः पक्षेऽथ चाऽऽरोकयेत्‌ 1 

अर्केन्दुग्रहणं व्यगोभजल्वेस्तिथ्यत्पकंरष्णगो- 

याम्यिवंस्वधरेदयीरात्रिणतिथौ चा्हनिश्षामाध्िते १५ 

मल्कारिः णवं विम्बादि प्रसाध्येदान प्रहुणसम्भूतिमाहु। एवं तिधिपूर्वक 
ज्ञात्वा शेषं ग्रहणजं शरस्थित्यादि पूववत्‌ चन्द्रग्रहणोक्तवद्‌ भवेत्‌ । अर्वेद्रोः 
सूयं चन्द्रपोग्रहणं षण्मासैग्रंहणादन्यद्ग्रहणम्‌ । अथवा पक्षवजितयुतेः 
घण्मातैः माधपञ्चमासैः साधंषण्मा्यर्वा आलाक्येत्‌ ग्रहुगसम्म्‌तिपर्येत्‌ । 
तत्सम्भवमाह । व्यगोभु जभागेस्तिथ्यल्पकंः सद्भिग्रहणम्‌ तु विहोपे उष्णगोः। 
सूयश्य य्दुणे व्यमुभुजमागैर्यम्यैदक्षिणमोलजैर्वस्वधरंः सद्मिग्रुहणम्‌ । तद्यथा । 
सूर्यग्रहणे यदा व्यगृष्चरगोले तदा तद्मुजां शे स्तिथ्यल्पकंरेव ग्रहणम्‌ । यदि याम्या 
भृजमागास्त्तदाष्टाधिकत्वे प्रहणसम्भव्रो नास्तीव्यर्थः । द्युरात्रिगतिथौ सत्याम्‌ । 
सूर्यग्रहणं तु दिवा तिथौ सत्यां भवति । चच्दरप्रहणं तु रात्रौ तिथौ सत्यां भवति । 
अथ वा अहर्निशं तिथौ आश्रिते किञ्चित्‌ दिनरात्रिष्प्णे तिथौ सति सूर्यचन्दरप्रहणें 
मवत इति न्याख्या ।¦ १५ 


चन्द्रिका--दम प्रकार तिथि विम्प्रादि का ज्ञान प्राप्तकर प्रहुणसम्बन्धी 
श र-ध्थिति-मर्दादि बा ज्ञान चन्दरग्रहणोक्तं रोतिसे करना चाहिये | ग्रहण 
साधन क्ररने क पश्चात्‌ ६ मामे, या साट पांच महीनेमें, साद्‌ छः 
मास अथवा र्पक्ष में हौ पुनः अन्य प्रहुण की सम्भावना कृरनो 
चाहूय । 


१८४ मासगणाधिकारः 


यदि व्यगु भुजां १५ अंशसे क्महोतो ग्रहण को सम्भावना होती 
है । यदि दक्षिण दिशाके व्यगुका भुजांश ८<भंश से अल्पहो तो सयं 
ग्रहण सम्भव होता है । 


संग्रहण की सम्भावना हाने पर तिथिमान दिनमान से यदि भत्प हो 
तथा चन्द्रग्रहुण मे तिथिमान राचिमानसे भल्प होतो ग्रहण की गणना 
करनी चाहिये | १५ 


ग्रासमानसाघनम्‌-- 


सत्यंशगुणोनितो हरोऽयं वेदध्नोऽङ्कहूतो व्यगोभुजाहेः । 
हीनो नवताडितोऽद्रिहुत्‌ स्याच्छन्नं शोतष्चोऽङगुलादिकं धा ॥ १९ 


मल्लारि :- भथ ग्रामं साधयंति । अयं हरः सत्यंशर्गृणारस्त्रिभिरूनितस्ततो 
वेदैश्चतुभिर्हुन्यते स॒ तथा ततोऽङ्क्रेनंवभि्हता भक्तो व्यगुभुजांशेर्हीनिः कार्यः । 
चेद्धीनो न स्यात्‌ तदा ग्रहणमेव नास्ति । ततः स भरवैरेकादशमिस्ताडितो गुणितः । 
अद्विहृत्‌ सप्तभक्तः । फल शीतरूचश्चन्दरस्याङ्गुलादि छन्नं वा प्रकारान्तरेण 
स्यात्‌ ॥ १६ 


अत्रोपपत्तिः --शरोनं मानैकेयखण्डं म्रास इति मृुख्यय्‌क्तिः । तदत्र मध्यमं 
मानेक्यखण्डमिदम्‌ १८।५२। अत एव भागाः साधिता विलोमविधिना। 
ररवद्व्यगुभुजभागा भवघ्नाः सप्तभक्ताः शरो भवति । अतो ग्यस्तविधिना 
मानक्यखण्डं सप्तगुणमेकादकशमक्तं जाता भागाः १२१ एते मघ्यहुराद्ययाऽऽगच्छन्ति 
तथा कार्यम्‌ । अतो मध्यहरे सव्यंशगुणोनिते सति सप्तविशतिर्यावत्‌ चतुम्‌ णा 
नवभिरभंज्यते तावद्‌ द्वादश भागा एव भवन्ति । अतः सत्यंशगृणोनितश्चतुग्‌ णो 
नव्रभक्तो भागः स्युस्तेभ्यो व्यगुभुजभागा ऊनाः कार्यीः। चरस्य 
स्ृनौकततव्यत्वत्‌ तता भागा भवगुणाः सप्तभक्तारढन्नमङगृलाद्यं चन्द्रस्य 
भवनौव्युपपन्नम्‌ । १६ 

चन्द्रिका :-- तुतीयांश सहित तीन अर्थात्‌ सर०्को हार मं घटाकर 
दोष को ४सेगुणाकर गुणनफशछमे ९का भागदेकर रन्धिम व्यगु के 
भुजांश घटाकर शोषको श््से गुणाकर ७का भाग देनेसे रुन्धि 
चन्द्रमा काद्ध लादि प्रास मानहोताहै। १६ 


ग्रहुराघवं करणम्‌ १८५ 


उदाहरण--(१) हार २७।४० मे ३।२० को धटाकर शेष २५२० को 
पे गुणा किथा। गुणनफक ९७२०में९का भाग देने से लब्धिं १०।४८ 
प्राप्त हुई | 

व्यम्‌. ११।१०।५२।३ को १२ राशिमेंघटा कर भुज बनाया । भुजाश् 
१९।अ।५७ को पूवं प्राप्त रन्धि १०।४८ घटाने सें ग्रास होगा । किन्तु 
प्रस्तुत उदाहुरण में रुन्धि १०।४८ अल्प है तथा भुजांश १९।७।५७ अ{घिक 
है अतः यहां चन्द्रग्रहुण का अमाव हौोषा। 

(२) यदि वृत्त १।१३।११।४९ होतो गत खण्ड ३ होगे चोधा एष्य 
खण्ड १२ सें षष्ठां २ को ३०।२० में जोड़ने से ३२।२० हार हभ । व्यगु 
११।२६।२६।३४ क भुज ०।२।३३।२६ हुआ । 


ूर्वाक्त रोतिसे हार ३२।२०्मे ३।२०को घटाकर शेष २९्०कोय 
गुगाकर गुणनफक श१द/०्मे९काभाग देकर रुन १२।५२३मे व्यगु 
भुजांश ३।३३।२९ को घटाकर शेष ९।१९।२३४को ११ से गुणा कर 
गृणनफल १०२९।३५।१४ मे ७ का भाग दिया रन्धि १४५३९।१९ अद्भुलादि 
चन्द्रमा का ग्रास हुआ | 

सूर्यग्रहणे स्थूलग्रासमानसाचनम्‌ ` - 


अम न्तनतनाडकाडःघ्रिरहिताद्युतात्‌ प्राक्‌ परे 

गृह दिकरवेनेतांश्षकरसांरसस्कारिता. । 

वप्रगोभुजलवाः स्फटा स्थुरथ सप्रश्ुद्धाश्च ते 

निजाधंस्तहिता रवेः स्थगितमङगरलाद्यं स्फटम्‌ ।! १७ 

मल्ला :~-अथ रविग्रहुणे ग्रासानयनं स्थूलमाह । दर्शान्त एएरीनं यन्नतं 
तस्य नाड्किा घटिका यास्तासामंचिर्चतुर्थाशो रादयादिस्तेन प्राक्‌ पुव॑नतें 
रहिनाद्‌ गृहादिक्ात्‌ । रवेः सूर्यात्‌ । परे पश्चिमनते युताद्ये ततांशकाः स्युः । 
तस्प्र क्रान्तिरक्नाशेः संस्कृता नताशा भवन्ति । तेषां नतमागानां यो रसाद्यकाः 
षडशस्तेन न्प्रगोभुजल्वाः सस्कारिताः। एकदिशोर्योगो भिन्नदिशोरन्तरमिति । 
ते स्फुराः स्युः । ततस्ते सप्तभ्यः शुद्धाः कार्याः । यदिन दुघ्यन्ति तदा ्रहणमेव 
नास्ति । ते निजेन अर्घेन सहिताः सन्तो रवेरंगुलादिकं स्फुटं स्थगितं ्रासः स्यात्‌ । 
इति व्याख्या । 


१८६ मासखगणाचिकारः 


अत्रोपपत्तिः- अचर रविग्रहृणे कम्बननतिसाघनं विना ्रहणसम्भवोऽपि न 
ज्ञायते । अतः स्थूले लम्बननती साध्यते । नतघटीनां चतुर्थांशो लम्बनं तदूरखन्ति 
देयम्‌ । पुनस्तत्कारौननताद्यः पञ्चमांशः स रवौ पूर्वकपाे यावत्‌ न्यूनौक्रियते 
पश्चिमकपाले युक्तः क्रियते तत्‌ त्रिभोनलग्न भवति । अत्र चतुर्था्मंस्कृतस्य तस्य 
पञ्च मां रः केवलं चतुर्थाशतुल्य एव भवति । अता नतधटीनां चतुर्थः पूर्वापरे नते 
रवौ हीनाधिर्कः कार्यः तत्‌ त्रिमोनटगनं स्यात्‌ । तस्य नतांशाः कार्याः । तेभ्यो 
नतिः माध्यां सा शरेण संस्कार्या । स स्पष्टशगे मर्नत्रयखण्डान्तिष्कामनीयो 
ग्रासः स्यादित्यत्र सघवार्थं नतभागोत्यततिभाग्ग्यगुभुजभागा ये ते विहीनाः 
कृतः । तद्ययः-नतभागानां चनुर्थाशः स्थरा; नतिर्भवति । नतिस्तु स्यष्टशर खण्डम्‌ । 
अतोऽस्या भागकरणाथं मप्तगुण एकाद हरः । पूवं चत्वारो हरः! एवं जतो 
हरघातो हरः ४५। टशणहुरयोगु णेनापकवत्तिरोरंन्वा हरस्याने पट्‌ । अन्मे 
नतां शरसांशसंस्कारिता व्यगुभुजभागः स्युरिति । अत्र रवेर्मानक्यरखण्डमिदम्‌ ।११। 
मध्यं कियद्भ्यो मुजमगेभ्परः स्यादित ज्ञानार्थं सप्तगुणमेकादश्भक्तं जाता 
भागाः पप्त ऽ | अत एतेषु भागेषु सप्तभ्यो न्यूनेस्वेव ग्रहणम्‌ । अतः सप्तशुढाः । 
शरार्थं॒स्थुलत्वात्‌ निजार्घसहिता इति तन्‌ अगुखादिकं सूयंग्रहुणे छन्नं 
भवततीव्युपपन्नम्‌ ॥ १७ 

चन्धिका - दर्शन्तकालिक पूवंनत घटो के चुर्याि राद्यादि सयंमें 
घटाकर तथा दर्हान्तकालिक परनत घटो के चतुर्थाश्ञ को रार्यादि सयंमें 
जोड़कर जो फल प्राप्त हो, उससे क्रान्त साधन कर क्रान्ति एवं अश्नांश 
संस्कारद्वारा नर्तांश साधित कर उमक्रे षष्ठंलकोग्यगुके भुजां्ञमें 
संस्कार (एकी दिशाकरेव्प्रगु मौर नतांशहो तो योग, भिन्न दिक्लाके 
हों तो अन्तर्‌ ) करने से स्पष्ट व्यगु भुजांश होता है । स्पष्ट व्यगु भुजांश 
को ऽमे घटाक्रशेषमें उसीका आधा जोड़नेसे सुयंका अद्धुलादि 
स्थूलग्रासं मान होता है । १७ 

उदाहंर्ण--अमानघटी २५।१० दिनमान ३२।५५ दिनार्धं 
१६।२७३०। स्पष्ट सूयं ०।१५।४१।३५। अमान्त घटी मे दिनाधं घटाने र 
परनत हुजा- 

२५।१० 
१६।२६ 
८३३ प्रनत 


ग्रहलाघवे करणम्‌ १८७ 


परनत ८।३३ के चतुर्था २।८।१५ को स्प. सयं ०।१५।४१।३५ मे 
जोडने से- 
०।१५।४१।२५। 
२। ८।१५ परनत होने से धन 
२।२३।५६।३५ 


इससे क्रान्ति साधन करने के लिए इसके भुजांश ८३।५६।३५ मे १० 
काभाग देने से रुन्धि ८ तथा शेष ३।५६।३५ रहा । आवां गताद्धुः २२३६ 
एेष्याङ्कु २४० मे धटाकर दोष ४से पूवं रोष ३।५६।३५ को गुणाकर 
गृणनफल १५।४६।२० मे १० काभागदेनेसे रुन्धि १।३४।३८ को गताङ्क 
२३६ मं जोड़कर योगफल २३५७।२४।३८ मे पुनः १० का भागदेनेसे लब्धि 
२३।४५।२७ क्रान्ति हुई मेषादि सूयं होने से उत्तरा क्रान्ति हुई । 

काशी का दक्षिण अक्नांल २५।२६।४२ क्रान्ति ओौर अक्षांक्ष की भिन्न 
दिक्षा होने से दोनों का अन्तर किया- 

द. अक्षाशा २५।२६।४२ 

उ. क्रान्ति २३।४५।२७ 

\।४१।९५ रोष दक्षिण नतांश 

दक्षिण नताशा ६।४१।१५ के षष्ठाज्ञ ०१६६२ को व्यगु भुजांशषमें 
जोडगे | 

उत्तर व्यगु ५।२६।१६।५८ का भुन = ०।३।४२।२ 

व्यगु उत्तर दिश) तथा नतांदा दक्षिण दिज्ञाकारहै, अतः भिन्न दिशा 
होने से व्यगु भुजांश ३।४३।२ मे नतांश के षष्ठां ०।१६।५२ को घटने से 
२।२६।१० स्पष्ट भुनांश हृ । इस ऽमे घटाकर शेष ४।३३।५० में 
इषो का आधा २।१६।५७ जोड़ने से अंद्धुलादि ६।५०।४७ सये का 
ग्रास हज । 

परवेश्ञानयनम्‌- 

व्यगरमध्यप्ययगणो द्विगुणो बगिगादिगे व्यगुगृहे कुयुतः । 

स्मृतचक्रसंज्ञकयुतो विधितो गतववपो समुनिहूतोवंरितः ॥१८ 


१८८ मापगणाधिकारः 


मल्छारिः-अथ परवेशानयनमाह । क्षेपचक्रध्नघ्ुवयुक्तस्य व्यगोर्मघ्यो यः 
पयंयगणः मध्यग्रहानयने राशयो द्वादङुभिभज्यन्ते कल पर्यया: । स पर्यययणो 
द्विगुणः कायं; । वणिगादिगे तुखादिषड्‌भस्थे ग्यगुगृहै सत्ति कुत एक युत्तोऽपौ 
स्मृतं यच्चक्रं तेन युतः । ततो मुनिहतोवंरितः सपतष्टावकिष्टः सन्‌ विषितो 
ब्रह्मणः सकाज्ञात्‌ शेष तुल्यो गतः पर्वग्रहणं पाति तथा पर्वशः स्यात्‌ । पर्वेशाः 
सप्त ७ | उक्त च वराहसंहितायाम्‌- 
षण्मासोत्तरवृद्या पवंशाः सप्त देवता क्रमशः | 
बरह्यशसीन्द्रकूबेरा वरुणाग्नियमादच विज्ञेयाः* \! 


अत्रोपपत्तिः--मासषट्‌केन एकः पर्वशः वर्षमघ्ये द्वौ । वषमध्ये तु व्यगु- 
पयंयोऽप्येकः । अतः सद्धिगुणः परवशः स्यादि्युपपन्नम्‌ । स राक्चिषट्‌कप्थ णव 
यतो राशिषट्‌कानन्तरमेकवृद्धिः । अतस्तुलादिगे न्यगौ कुयुत्त ईति। अर 
कादशवर्षात्मिकचक्रमध्ये द्वाविरातिः पर्वेशाः | ते सप्ततष्टाः | एक्श्चक्रतुल्य एव 
मवति । अतश्चक्रयुत इति परवशाः सप्त । अतः सप्ततष्ट इत्युपपन्नम्‌ । नन्वत 
चक्रको त्पन्नपरवेशस्य योजितत्वात्‌ । पूवं चक्रध्नध्रुबयोगो नोपपद्यत इति चेत्‌ । 
श्रान्तोऽपि । नह्येकचक्र निरवयवैक्रादश्च भगणा येन चक्रीत्थवषंशयोगे चक्रघ्न- 
त्ुवयोगोऽनर्थकः स्यत्‌ । किन्त्वेतावान्‌ मगणादिन्यगुः ११।७।१।१२। तत्र 
राश्यादिरयं घ्रवः ७।१।१२। चक्रघ्नः पृवयोजितत इदानों चक्रध्नकादशं योञ्याः। 
आचार्येण त्वेकादशोत्यपर्वेशं एकश्चक्र्नः परवशं ॒योजितस्तदपि युक्तमेवं । नन्वेवं 
ग्रन्थादिजन्यगुभगणानां तदुट्पन्नपरवेशस्य बा योजनं: प्रसज्येत । व।ढम्‌ तदुत्थपर्वे्च 
इति वराहोक्तेर्मासशब्दस्य चान्द्रे मुख्यत्वात्‌ । च न्द्रवषे हौ पवशाविति गम्यतेन 
पुनरेकस्मिन्‌ भगण इति । न चैंक्वषं ग्यगुभगणोऽप्येक इति वाच्यं गणितेनाधिक्य- 
दर्रनात्‌ । अत एक भगणे परवेशद्वयं न युक्तमिति चेत्‌ । अच त्रम: ब्रह्येनदुशुक्रवि- 
तेशवरुणाग्नियमाः क्रमात्‌ । फणोनम गणेक्यध्न द्रमितग्रहुणाऽधिपाः इति ब्रहय- 
सिद्धान्तोक्तिश्च वणादेकभगणे हौ परवेशावित्येव युक्तम्‌ । वराहीक्तियंथाकथंचिन्नेयेति 
विस्तरभयाद्िरराम ॥१८ 


चन्द्िक्षा--मसगणोत्पन्न व्यगुके मध्यमभगणकीो संख्याकोर से 
गुणाकर गृणनफर मे, यदि तुरादि ६ रास्मिमें व्यगो तो रशि 
जोड़कर उसीमे चक्र संख्या भी जोड़कर७का भाग देने से रोषसंश्या 
तुल्य ब्रह्मा आदि गत पवेश होते हें । यथाश शेषदहयोतोन्रह्या, २ होतो 








# वृ, सं. ५. १९। 


ग्रहलाधवं करणम्‌ ९८५. 


चन्द्र, ३ इन्द्र, ४ कुबेर, ५ वरुण, ६ अग्नि, तथा जशेषटहो तोयम गत 
परवश होते है । १८ 


विशेष--मगणद्रादश राशियों मे जब ग्रहु भ्रमण कर खेताहै तव 
उसका १ भगण पणं हो जाता है। अर्थात्‌ ०*-३६०° तक एकं भगण 
होता है । मध्यम ग्रहुसाधन करते समय राशिस्थान मे जितनोसंख्याहो 
उसे १२सेभागदेने पर रुन्धि भगण संख्या हत्ती है। 


उदाहुरण--मध्यम व्यगु ८३।१३।२७।३० राशिस्थान मे ८३ है अतः 
१२ से विभक्त करने पर रुव्धि ६ भगण संख्या तथा शेष ११ राशि 
संख्या । अतः राश्थ।दि व्यग्‌ = ११।१३।२७।३० । 


पर्वेशसाधन - भगगसंस्या ६ को द्विग्‌.णत किया ६>८२=१२। 
व्धग्‌, तुलादि रालियाोंमे है अतः गुणनफल श्रमे १ ओर जोड़ने 
१२१ १३। 

चक्र सख्या ४१ + १२ =फल ५४ ऽका भागदेनेसे रुल्ि ७ 
तथा शेष ==५ । पूर्वोक्त क्रमसे शेष तुल्य पाचवाँं देवतां वरण गत 
पवश तथ। अग्नि वतमानं पवेश हुआ । 


सूर्याच्चन्द्रादिसाधनम्‌-- 
तिथिरविहूतिर्शास्तद्युतोऽर्छो विधुः स्या- 
दथ जिनगुणहाराद्रय ङ्धयुक्‌ तद्‌ गतिः स्यात्‌ । 
खचरशरकरः स्यात्‌ सूयंभुक्तित्ततः स्थयु- 
भंयुतिजगतगम्या नाडिकास्तिथ्यपायात्‌ 1\ १२ 


मल्छारि ---मथ सूर्याच्चन्द्रं साधयति) द्वादशगणा तिथि संख्या मागाः 
स्युः । तंभगियु क्तोऽ्को विधुश्चन्द्रः स्यात्‌ । अथ जिनेश्चतुंविश्यत्या गण्यते 
स तथा । एवम्भूतो हारो द्रयगद्िषष्ट्या युक्तस्य चन्द्रस्य गतिः स्यात्‌ । 
खचरशरा एकोनषष्टिकलाः सूयंस्य भुक्ति्गतिः स्यात्‌ । सूर्यचद्द्राभ्यां 
भयुतिजा नक्षत्रयोगजा गतगम्या घटिकास्तिथेरपायादन्तात्‌ स्युनं सूर्योदयात्‌ । 
यतो रविचन्द्रौ तिथ्यन्तकारोनौ ताः स्थिति घटो संस्कृताः सूर्योदयान्नक्षत्रयोग- 
घटिकाः स्युरित्यथः । 


१९० माक्षगणाधिकारः 


भव्रोपपत्तिः--सूर्यचन्दरान्तरे द्वादशभागतुल्ये एक तिधिर्भवति। अतो 
दरदिशगुण तिथिः सूयंचन्द्रान्तरभागास्तं रवौ यावत्‌ क्षिप्यन्ते तावच्चन्द्र भवति । 
अत्र गत्यन्तर चतुविंशति भक्तं हारः कृतोऽस्ति । अतो जिनगुणो हारो गत्यन्तरम्‌ । 
तत्र सुयगतिर्योज्या चन्द्रगतिः स्यादित्यत्र द्यंगभिता सूयंगतिः प्रकलिता । अतो 
द यंगयु गित्युपपन्नम्‌ ।\१९ 
देवज्ञवयत्य दिवाकरस्य सुतेन मत्लारिसमाह्येन । 
वृत्तो कृतायां प्रहलाघवध्य मासौघतः पर्वयुगं समाप्तम्‌ ॥ 


चन्द्रिका तिथिको१२सें ग्‌णाकर अंक्षादि ग्‌णनफल को सूयंमें 
जोडनेसे चन्द्रमा होत्ताहि। पृवं साधित हारको रे४्से ग.णाकर 
गुणनफचर मे ६२ जोडनेसे चन्द्रमाको स्फष्ट गति हौतीदहै। सूयेको 
गति ५९ कला है । तिथ्यन्तकालिक सूर्यचन्द्र द्वारा नक्षत्र तथा योगकौ 
गत गम्यघदीकाज्ञनन करना चाहिये | १३ 

उदाहरण--तिधि ३०» १२३६० अंशात्मक हुभा । इसमे ३० का 
भागदकर रादइयादि १२।० को स्पष्ट सूर्यं ०९१५।४१।३५ मे जोड़ने से 
०।६५।४१।३५ तिथ्यन्त कल्कि चन्द्रमा हु । 

हार ३२।२० को २४ से गुणाकर गुणनफल ७७६।० मे ६२ जोड़ने से 
८३८।० चन्द्रमा कौ गति हई । 

सूयं की गति ५९।० परित दही है | 

नक्लत्नरसाधन रविचन्द्रस्पष्टाधिकार के नतमश्लोक के अनुसार 
(तिथ्वन्तकाकिकि चन्द्रमा १।१५४१।३५ को कछात्मक बनाकर ८०० रे 


भाग दिया--- 
८००)९४१।३५(१ 
८०9 9 
१४१।२५ 
छ्ञ्धि१ दै अतः अश्विनी गतनक्षत्र टुभा। वतमान भरणी । शेष 
१४१.३\ भरणी नक्षत्र की भुक्त कका । भुक्त कला को ८०० मे घटाने से 
दोप ६५८।२५ भोग्य कला हुई | 


पा अ" श र श 1 


प्र =. २,८.२९ 








ग्रहुलाधवं करणम्‌ १९१ 


गत कला १४१।३५ को एक जातीय कर ८४९५ को ६० से गुणाकर 
५०९७०० मे चन्द्रमा कौ गति विकला ५०२८० से भाग देने परप्राप्न 
रुन्धि १०।८ भरणी नक्षत्र कौ गत घटी हई । 

दसी प्रकार भोग्यमान ६५८}२५ की विकला ३९५०५ को सजातीय 
करने के किए पुनः ६० से गुणाकर २३७०३०० में गति विकला ५०२८० 
से भागदेनेसे प्राप्त रुन्धि ४७८ भरणी नक्षत्र का भोग्य मानदुभा 
दोनोंका योग करनेसे ४७८१० ! ८==५७।१६ भरणी नक्षत्र का 
पू्णमान हुआ। 

योगसाधन--रवि० ०।१५।४१।३५ चन्द्र॒ ०।१५।४१।३५ दोनों का 
योग १।१।२३।१० चन्द्रगति ८३८।० सूयं ग. ५९।० गतियोग ८९७;० 

रविचन््रयौग को कला १८८३।१० मँ ८००्का भाग देनेसे रुन्धि २ 
गतयोग अर्थात्‌ प्रीति योगगत हो चुका था। शेष २८३।१० वतंमान 
अपयुष्मान्‌ योग का गत मान हुभा, 

रेष को ८०० घटनेसे शेष ५१६।५०न्=भोग्यमान । गतमानं 
२८३।१० को विकला मे ६० कागुणा कर गुणनफर १०२१८०० मे गति 
योग विकला ५३८२० का भागदेनेसे छल्धि १८।५९ गत घटौ तथा 
भोग्यमान को विकला १८६०६००मे सूयं चन्द्र की गतियोग विकलः 
५३८२० का भागदेनेसे कल्धि ३४२४ अयुष्मात्‌ योग की मोग्य घटी 
हई । दोना का योग करने से (१८।५९ 1- ३४।३४} == ५३।३३ आयुष्मान्‌ 
योग का पूणं मान हुभा। 


श्रोगणेशदेवज्ञविरचित ग्रहुखाघव कै मासगमाधिक्रार की चन्द्रिका 
नामक सोद्याहुरण हिन्दी व्याख्या सम्पृणं 1 ७ 


८-ग्रहुणद्रयसाधनाधिकारः 


पञ्चाद्धाद्‌ प्रहुणद्यसाधनम्‌ -- 


अथवाऽयं तिथिपन्रतेऽवगभ्यः पर्वान्तह्च रविस्तमस्तिथेचा ) 
भस्येतेष्यघटीयुतिदयुमानं तेग्योऽथ ग्रहणदयं प्रवच्सि।\ १ 


मल्लारि :-- अथ केवलं पञ्चाहःगादेव द्वुकर्मणा ग्रहणद्रय घाधयतनि ` 
अथ वाऽयं पर्वान्तो दर्शान्तः पौणंमास्यन्तश्च । रविः सूर्यः । तमो राहुस्तिरथर्वा ! 
भध्येततभ्यघटीयुतिः । गरतष्यवटीयोगश्च ज्ञेय; । तिधिपत्रस्थ्य्युमःनमपि जेयम्‌ । 
तेम्यो ज्ञातेभ्यो श्रहणद्वय प्रवच्मीत्यथं; ।। १ 

चन्द्रिका : -भथवा ( पूर्वोक्त प्रहुणाधिकार सासगणाधिकारमे उनःये 
गये नियमों क अनन्तर ) पञ्चाङ्कं द्वारा परवन्त ( अमान्तया दएूणन्त 
कार, रवि, राहु, तिथि, नक्षत्र के गत घटी, एष्य घटौ, एवं उनके ोग 
तथा दिनमान का ह्ानं कर दोनों ग्रहुणों का साधन करना चाहिए :। ! 

उदाहरण-- संवत्‌ २०३४ रके १८९९ फाल्गुन शुक्छ १५ गुक्रवार 
को ग्रहृण साधन भभीष्ट है । शुक्रवार का पञ्चाद्ध निम्नलिवित टै-- 

दिनमान ३०।१६ ति. १५ शुक्रवार ३८।३० उ फा. ३अ७।५८ 

गत तिथिमान ३९।१५ को ६०्मे धटनेस रोष २८०।४५ वतमःन 
पूणिमा की गत घटी हुई । गत २०।४५ तथा भोग्य ३८।३० का योग 
५९।१५ तिथि का पणं भोग । 

इसी प्रकार गतनक्षत्र चटी ३७।५ को ६० मे घटानेसे केव २२५५ 
वतमान नक्षत्र की गतघटी | 

पर्वान्तकाल ३८।३० पञ्चाद्धस्थ सूर्यं ११।९।२८]४२ गति ५९।२५ 
पर्वान्तकाल्िक सयं ११।१०।६।४९ पर्वान्तकालिक राहु ५।१२।३७।२० । 


ग्रहराचवं करणम्‌ १९३ 


चन्द्रस्य ्राससाधनम्‌- 
ताराषड्ग्यगतिथियातगम्यनाडी- 
योगाप्ता व्धगुरविदोलंवोनितास्ते । 
संयुक्ता निजदलभूपभागकाभ्यां 
छन्नं वाड गुलवेदनं भवेत्‌ सुधांशोः ॥ २ 
मल्ला :--छन्नक्षाघनमाह्‌-सप्तविश्ञत्यधिकषदट्‌ शतमिता विगता अगो; सप्त 
यस्मात्‌ स तथा । एवम्भूतो ्य्ियेर्यातगम्यनाडी योगस्तेन आप्ता मक्ता 
ग्धं तरिष्ठं ब्राह्यम्‌ । ततस्ते लन्धांशा व्यगुरवेः विराह्कस्य ये दोव 
भुजभागास्तेरूनितास्ते निजेन स्वोयेन दलेन अर्धेन तथा स्वस्य भूपभागेन 
पोडांशेन च लन्धद्वयेन युक्ताः सन्तोऽङ्गुलपूवंक विधोचन्द्रस्य छस्तं ग्रासो 
भवेदित्यर्थः । २ 
अच्रोपपत्ति चन्द्रस्य मध्यममानैक्यखण्डमिदम्‌ १८५६ तिथिघटिकाः 
५९।४ च मध्यमा म्रध्यमरविचन्द्रगत्यन्तरोत्पन्नाः। त्र गते राधिक्ये मानेक्य- 
खण्डाधिक्यम्‌ । तत्र तिधिघटीनामत्पत्वम्‌ । तत्रानुपातः- यदि मध्यम- 
तिथिषटीभिमंघ्यमपं मार्नक्यखण्डं तदेष्टस्पष्टतिथिवटीभिः किम्‌ 1 अत्र 
व्यस्तत्रैरारिके स्पष्टतिधिधटिका हरः मध्यमतिथिघटीमघ्यमानेक्यखण्डघातो 
भाज्यः ११९।८। अत्रास्मिन्‌ भाज्ये भागक्रणार्थं सप्तगुणे भवभक्ते जात्ता 
भागाः ७१२।११। एते तिथिगतेष्यघटोयोगेन भाग्या इत्यत्र तेषां सावयवत्वाथं 
सञ्चारगुणनम्‌ । यद्यासु घटीषु ५९।४। अयं भाञ्यः ७१२।११। तदा सपतोनि- 
तास्वासु घटीषु ५२।४। को भाज्य इति जाताः ६२७ । अत एते व्यगुतिथि- 
गतेष्यघटीयोगेन भाज्या व्यगुभुजांशोनाः । ततः क्राथं स्वदलयुक्ता भागाः 
स्थलः शर इत्यतो भूपभायान्विता कताः । तच्छन्नं भवतीद्युपपन्नम्‌ ॥ २ 
चन्द्रिका-- तिथि के गतगस्य घटीके योग ( तिथिभोग) में ७ घटी 
घटाकर शेष से ६२७ मे भाग देकर रुष्धि अंशादि मे व्यगुभुजांह घटाकर 
देष मे उसी का अधा तथा षोडशांश जोड़ने से अंगुलछादि चन्द्रमा का 
ग्रास होता दै। २ 
उदाहरण - परवान्तकालिक सूयं ११।१०।६।४९ मे पर्वान्तिकालिक राहू 
५।१२।३७।२० घटानेसे व्यगु ५२७।६९।२९।५ से मे घटाने सेशेष 
२।२३०।३१ व्यगु भुजांश हुभा । 
१६-प्रह॒° 


१९४ ग्रहणद्रयसाधना्विकारः 


नियमानुसार तिथि भोग घटी ५९११५ मे ७ घटाकर शेष ५२१५ को 
पठात्मक ३१३५ बनाकर ६२७ के सजातीय मान ३७६२०्मेंभागदेतेसे 
प्राप्त रष्धि १२।०,० मँ व्यगुभुजांज्ञ २।३०।३१ को घटा कर शेष 
९।२९।२९ मे इसी का घः ४८४४1४४ तथां षोडशांश ०।६५।३५ जोड़ने 
से १४।४९।४८ अङगुलादि चन्द्रमा क ग्रास हुमा । २ 


चन्द्रविम्बम्‌ माविम्बसाघनम्‌-- 
अद्धयुकतिधिघटीहूतबाणाङकतंवोऽड-गुलमूखं विघुविम्बम्‌ । 
दिग्चियुकतिधिवरीहूतद्गद्कत्रौन्डवोऽडगुल सुखा क्षितिभा स्यात्‌ ५२ 


मल्लखारि ---अय चद्ध्रविम्बभूभाविम्बे कथयति । षड्युक्ततिथिगतेष्यवटी 
योगेन भक्ताः पञ्चोनसपतक्षतमिताः सन्तोऽगुखमुखं विधोश्चन्द्रस्य षिम्बं 
स्यात्‌ । दिकमिदियुजो हीना यास्तिथिषटिकास्ताभिहूता दृक्‌दृकूत्रीन्दवो 
ा;वसत्यधिकत्रयोदशशतमिता अंगुलमुखा क्षितिभा मूद्धाया स्यादिति ग्याख्या । 

अत्रोपपत्तिः--अत्र मध्यतिथ्याऽनया ५९१४ मध्यमे चन्द्रविभ्बेऽध्मिन्‌ 
१०।४१ गुणिते भाज्य: ६३१।२। अयं सावयवोऽतः सञ्चारः | यद्यासु वटः 
५९।४; अयं ६३१।२) तदा षड्युक्त धटीपु क इति जातो भाज्यः ६९५ अयं 
तिथिघटोमिः षड्युक्ताभिभग्यिश्चन्द्रविम्बं भवतीत्युपपन्नम्‌ अथ मध्यमं 
पू भाविम्बभ्दम्‌ २६।५५ अस्मिन्‌ मध्यत्तिधिभमिगु णिते जातो भाज्यः सावयव 
१५९ ९।४९। अत्र सद्चारः । यद्याभिर्घटोमिः ५९।४ अय भाज्यः १५९२।४९। 
तदः दशहीनघटीनां ४९।४ की भाज्य इति आतः १३२२। अतो दश्चहीनतिथिघरी.- 
भक्तो भाज्यो भूमा स्यादिव्युपपस्नम्‌ । २ 

श्रि तिथिभोग घटोमे ६ जोड़कर योगफरस ६९५ यें माग 
देने से रन्धि अङगुलादि चन्द्रविम्बहोताहि। उक्त तिथि मोग षटीमें 
१० घटाकर रोषसे ष्ेररमें भागदनेे अङ्गुलादि भूभा-विस्न हाता 
है 1 ३ 

~, र्म -त्तिटि गों उट ५९१५ में ६ उोडुकर योगफल ६५।१५ 
न" "ति ९.५ ~ पल) ००५ पाप देने से छन्वि १२।३८ 
अडः) + (द चमः पा तिम्बहुञआ। 


ग्रहलाचवं करणम्‌ १९५ 


तिथि भोग ५९।१५ मे १० घटाकर शोष ४९।१५ के पलात्मक भान 
२९५५ से १३२२ के पलात्मक मान ७९३२० मे भाग देने से छच्द्ि २७।१० 
अङगृखादि भूभा विम्ब हुआ । 
नक्षत्रघरटिकाम्यदचन्द्रग्रासमानानयनम्‌- 

विदशोडघटीहूताः खभूषड व्यगुभास्वदमुजभागर्बाजतास्ते । 

शितिकण्ठहस्तास्तुर द्भक्ताः स्थितं चामगुपुवंकं विधोः स्थात्‌ ॥४ 

मल्लारि --अथ नक्षत्रषटीम्यो ग्रासानयनमाहु। विगता दक याम्य एवं 
विधा उडुघट्यो नक्षत्रगतेष्यघटीयोगः । ताभिहू ता खमृषड दशाधिकंशषत- 
शतमितास्ते ग्यगोविराहोर्भास्वितः सर्यंस्य ये भुजभागास्तंरूनिताः कार्याः । 
ततः दितिकण्ठरेकादशमि्हता गुणितास्तुरगेः सप्तभिभंक्ता$। अंगुलपृ्वंकं विधोः 
स्थगितं छन्नं प्रका रान्तरेण स्यादित्यथ: । 

अत्रोपपत्ति :--मध्यमनक्षत्रवटीभिराभिः ६०।५२ भाज्यादि कृत्वा तिथि- 
वद ङ्का उत्पादनीयाः । सुगमसिदम्‌ !। ४ 

चग्द्रिका- नक्षत्र भोग घटीमें १० घटाकर शेष से ९१०्में भाग 
देकर रुन्धि अंशादि मं व्यगुके भुजांश धटाकर रोषको ११से गुणाकर 
७काभागंदेने से रुन्धि अडगुलादि चन्द्रमा का ग्रासमान होया ।४ 

उदाहरण -नक्षत्रभोग ९०।५३ॐ मे १० घटाक्रर शेष ५०।५३ के पल 
३०५३ से ६{०के पल ३६६०० मे भाग दिया। लन्बि ११।५९१७ 
अंशादिमेव्यगु भुजांश २।३०।३१ घटनेसे देष ९२८५६ को ११से 
गुणाकर गुणनफल १०४।१६]२६मे ७ का भगदेनेसे लब्धि १४,५३ 
मङ्गुकदि चन्द्रमा का ग्राप्त हुभा। 

तक्षत्रधटोम्यरवन्द्रमूमापिम्बयोः पाधनम्‌- 
भगताणतनाडिकैष्यभक्ता नववेदत्तंव इन्दुदिम्दयु पम्‌ । 
विमन्‌डवरीहूताः शराक्षद्धिभूदः स्थात्‌ जितिमाङभुक्ादिक्षा दा ५ 
ति ऽद उराण । ~ स्तक ४ उ, फा. नक्षत्र मदी हं । उस समय हस्त 
नष्टः ` ।रे२ व्यप चका है ( गद), परन्चु प्रहुणात्म्म उ. फा. मेही हमा 
इ न्म ठु. एोा का ही मभोग जयि है । पर्वा कलमे प्रदूषण मत्य 


होता ह । 


१९६ ग्रहणद्वयसाधघनाधिकारः 


मल्छारिः-अथ न तत्रषटीभ्यर्चन्दरविम्बमूभाविम्बे कथयति! भस्य 
नक्षत्रस्य यो गतागतनाडीयोगो गर्तष्यघटीयोगः। तेन भक्ता नववेदत्तव 
एकोनपजञ्चाशदधिकषटशतमिताः । यल्लब्धं तदं गुलां चनद्रविम्बमुक्तम्‌ । तर्थव 
विगता मनवरचतु्दश याभ्यस्तास्तथा एवं विधा या उडुनाड्यो नक्षत्रघटिकास्ता 
भिर्हताः शराक्नद्विभुवः पञ्चपञ्चाशदधिकद्वादकश्षशतमिताः। अंगुलमुखासितिभः 
भाया स्यादिति ।५ 


अत्रोपपत्तिस्तिथिवत्‌ सुगमा ।५ 


चन्द्रिका नक्षत्र भोगयटीसे ६श्स्मे भग देनेसे रन्धि चन्द्रमा 
का अङ्गुलादि विम्ब होता है भभोगमें १४ घटी घटाकर शेष स १२५५ 
मे भागदेनेसे अङगुलादि भूभा विम्ब होताहै। ५ 


उदाहूरण--नक्षत्रभोग घटी ६०।५३ को परलत्मिकर २६५२ अनाकर 
९४९ के पल ३८९४० मेँ भाग देने से रन्धि १०।३९ अङ्गुलादि चन्द्रविम्ब 
हुमा, 


नक्षत्र भोग ६०।५३ में ६४ घटी घटा कर शेष ४६।५३ कै पल द्मक 
२८१३ स १२५५ के पल ७५द३००्मे भागदेनेसे छन्धि २६।४६ भङगुलादि 
भूभा बिम्ब हला । 
सूर्यग्रहणे प्रास्तसाधनम्‌-- 
खात्यवष्टयस्तिथिघरीविहूताः सवेदा 
वाऽयोडनाडिहूतदेवयमाः सरामाः। 
हीना व्यगुस्फ्टलवेभवसङमगुणास्ते 
शं खोदृधुताः खररुचः स्थगिताङः गुलानि ।\६ 
मल्लारिः--अथ सूर्यग्रहणे प्रासं साधयति! सप्तव्यधिक्रशतमितास्थिति- 
धटीहूतास्ततस्ते सवेदारचतुभियु ताः । ते व्यगुस्फटलवेरमान्तनतनाडि- 
काङ्ध्रिरहिताद्‌.तादित्यादिना कृतेहीनास्ततो भवगुण एकादक्गुणाः रलैः: 
सप्तभिह ता खररुचः सूर्यस्य स्थभिताङ्गुखानि ग्रासाङ्गुलानि स्युः । भथ 
वा उडुनाडीभिनंक्षत्रघटीमिहूता देवयमास्त्रयस्त्िशदधिक्रतद्रयमितास्दे 


सरामास्त्रियुक्तास्ततो ब्यमू<पुटभूजमागहीनास्ते एकादक्षगुणाः सप्तभक्ता ग्रासः 
स्यादित्यर्थः । 


ग्रहणलाघवं करणम्‌ १९७ 


अध्रोपपत्तिः--अत्र सूर्यस्येदं मध्यमं मानैक्यखण्डं १०।४७ । सप्तगुणमे- 
कादरभक्तं जाता भागाः ६।५२ । एभ्यः सुखाथं चत्वारस्त्यक्ताः शेषम्‌ २।५२। इदं 
मध्यत्िथिघटीगुणितं जातो भाज्यः १७० । अतः ऋात्यष्टयस्तिथिघटीविहताः 
सवेदा इत्युपपन्नम्‌ । तथेवेभ्यो भागेभ्यस्त्रीन्‌ व्यक्त्वा शेषं मध्यनक्षत्रचटीभिः 
६०।४२ गणितं जातो भाज्यः २३३ अतो नक्त्रघटीमक्तादेवयमाः सरामा 
इति । एवं जातो मानैक्यखण्डोत्थभागो व्यगम॒जांशहीनः । दोषऽगृलकरणार्थं भवगुणे 
दौलभक्ते ग्रासः स्यादिति सुगमम्‌ ।\६ 


चन्द्रिका-तिथिमोग षटीसे १७०्मे भागदेनेसे जो न्धि प्राप्त 
हो उसमे ४ जोड्कर, अथवा नक्षत्र कोभोग घटीसे २२३में भागदेकर 
जो लब्धि हयो उसमें ३ ओडकर, योगफल्मे व्यगु भूजांश घटाकर रोष 
कौ ११ से गणा कर का भाग देतेसे छन्धि अङ्मलादि सूयका 
ग्रासमान होतादहै। 


उदाहरण--सं० २०३४ शक १८ वेशाख कृष्ण अमाठस्था चन्द्रवार 
१८ अप्रल १९७७ को तिथिका भोग ६४।५२ नक्षत्र रेवती काभोग 
६६।५ स्पष्ट सूयं ०।४।४३।५९ भमान्तकाल्कि स्पष्ट राहु ६।०।३९।४ व्यगु 
६।४।४।५५ व्यग्‌ भुजांश >।५५५ । 


ग्राससाघन--अमावस्या का मोग ६४।५२ इसके पल ३८९२ से 
१७० के पल १०२०० मे भागं देने से रक्धिं २३७१५ प्राप्त हूरदै । इसमे 
४ जोड़कर योगफल ६।३७।१५ मे ग्यगु भुजांरा ४।४।५५ घटाकर शेष 
२।३२।२० में ११ का गुणाकर गुणनफल २७।६५।४० में ७का भागदेने 
से रन्धि ३।५९।२३ अङ्ग्‌ लादि सूयं का ग्रासमान हुभा । 


हितीय विधि नक्षत्रद्रारा-नक्षत्रभोग ६६।५ को पलात्मक ३९६५ 
बनाकर २३३ के पक १३९८० मे भागदेनेसे प्राप्त रुन्धि ३।३१।३३ मं 
३ जोड़कर ६।३१।३३ मे व्यग भुजां ४।४।५५ घटाकर शेष २।२६।३८ मे 
९१ का गुणाकर गुणनफर २६।५२।५८ मे ७क्रा भाग देनेसे लन्धि 
३।५०।२५ अङ्ग्‌.कादि सूयं का ग्रासमान हुक्ा 1 


१९८ ग्रहुणद्रयसाघनाचिकारः 


सूर्यविम्बसाधनम्‌- 
रधिलवयुतभानोर्योलंवत्यंशतुल्यें 
विरसलवमहेशान्यङ्ुलेहीनयुक्ताः 
मजधटरसभेऽक बिम्बमध्याङ्खुलाद्यं 
स्थितिमुखमवशिणटं पूर्ववतृशेषमन्न * 1७ 


मल्लारिः--अथ सूर्यविम्बसाधनमेकवत्तेनाह । रविलवयुतभानोरिति । 
रविखवेर्ादशमगेर्युतो यो भानुस्तस्य पे दोरवा भूजमागास्तंषां यस्व्यंशस्तत्तत्यानि 
यानि ग्यगुलानि तंविरस्रवा विगतषडंशा महेशः १०।५०। होनयुक्ताः कार्याः । 
कदेव्याह । अकं सूर्ये अजघटरसमभे सति । मेषादिषड्मे हीनास्तलादिषट्मे युक्तास्त- 
दाऽस्य सू्यस्यागुलाद्यं बिम्बं भवति । अत्र स्थितिमदस्प्शकालादिकं यदवरिष्ट- 
मुक्तादुवरिषं तदत्र पूववत्‌ ग्रहणोक्तवञ्ज्यमित्यथः । 


भत्रोपपत्तिः ---रविविम्बं मघ्यममिदम्‌ ।१०।५०। -द मघ्यमगत्िवशात्‌ स्पष्ट 
गतेः साध्यम्‌ । मध्यमस्पष्टगत्योरन्तरं गतिफलम्‌ । तत्‌ सूर्यमन्दकेन्दरको टिवशात्‌ । 
अतो मन्दकेन्द्रं कायम्‌ । तद्यथा । रवेमू दच्च राश्षिद्रयमष्टादश्भागाधिकम्‌ 
२।१८।०।० ततो रविः शोध्यः केन्द्रं स्यात्‌ । अस्माद्रविः शोध्यस्तस्य भृजस्तरि- 
भाच्छोष्यः कोटिः स्यादित्यत्र द्वादशभागयुक्तसुयंस्य भुजो हि मन्द्रकेन्द्रकोटिभ- 
वतीति । सिद्धम्‌ । तस्य सत्रिभस्य भृज एव कोटिः + अतस्त्रिमस्य ३। पूर्योच्चि- 
स्यान्तरं द्वादज्ञभागास्ते रवौ योज्यास्ततो मुजः कायं ऽति सिद्धम्‌ । अत्र मघ्यमस्पष्ट- 
सू यंविम्बान्तरमिदं परमं ०।३०। अगुला्यम्‌ ! इदं षरमाणां नवल्यंञ्चानां 
व्यशतुल्यम्‌ 1 अतो द्वादशभागयुक्तू्यभूजभागव्यंशतुल्यन्यगुखहीनयुक्तं मधघ्यचिम्बं 
स्पष्टं भवतीति मेषादौ रवौ सति केन्द्र मकरादौ भवति तात्र गतिफलं ऋणमतो 
मेषादौ हीनः । तुलादो रवौ केन्द्रं कक्यादो तत्र॒ गतिफलं धनमतस्तुकादौ युक्ताः 
कार्या इत्युपपन्नम्‌ ॥1७ 
दैवज्ञवयंस्य दिवाकरस्य सूतेन मल्लारिसमाह्येन । 
वृत्तौ कृतायां ग्रहुलाचवस्य पञ्चाङ्गतः पव॑युगं समाप्तम्‌ ॥ 


इति श्रीगणेशषदेवज्ञकृतग्रखाधवस्य टीकायां मल्लारिदैवन्नञविरवित्तायां 
तिथिपत्रादेव ग्रहणद्वयसाघनाधिकासेऽष्टमः ।।८ 


चन्द्रिका- स्पष्टसूयं मं १२९ अंश जोड़कर उसके भृजांशमे३का 
भाग देकर रन्धि तुल्य व्यंगूल को षष्ठांश रहित ११ अर्थात्‌ १०।५० मे 


[ब अ यी 


क्ज्ञयमत्र इतिपाठान्तरम्‌ । 


ग्रहुङाधवं करणम्‌ १९९. 


मेषादि ६ राशियोँमे सू्य॑होतो घटानेसे तुलादि £ रारियोंमे सूर्यं 
हो तो जोडने से अद्भुलादि रविविम्ब होता है। स्थिति-मद-स्पर्श घटी 
आदि का ज्ञान पृवंवत्‌ जानना चाहिये । ७ 
उदाहश्ण-पर्वाःत कालिक सूयं ०।४।४३।५९ मे १२ अंस जोड़नेसे 
०।१६।४३]५९ हुभः इसके भुजांश १६।४३।५९्मे २का भागदनेपे 
ल्व ५।३४ क मेषादि राक्ञियो मे स॒यं होने से ६०।५० मे घटाया- 
१०।५० 
-- ५।२४ 
१०। ४४।२६ ।९६ 








सुय का अंगुलादि `वम्ब १०।४४।२६ हुआ । 


श्रीगणेश देवज्ञ विरचित ग्रहुलाचव के ग्रहणदयसाधनाधिकार कौ 
चन्द्रिका नामक सोदाहरण हिन्दी व्याख्या सम्पूणं । ८ 


--उदयास्ताधिकारः 


शुक्लग्रतिपदि चन्द्रदर्शनसम्भवासम्भवं प्रदश्यते-- 
सार्काशाविह्‌ कुरु पक्षतिक्षयेऽकंग्यर्वर्को चरमथ केवलाद्‌ व्यगो्यंत्‌ । 
षडब,णेविहूतमिदं क्रमात्लवःद्यं स्बणं स्याद्‌ व्यगुरविगोर्योः पृथक्‌ ततु ॥\१ 

मलार ---अथे दयास्ताधिकारो व्याख्यायते तत्रादौ शुक्लप्रतिपष्द चन्द्र 
दशनं भविष्यति न वप्युच्यते वृत्तत्रयेण । इह पक्षतेः प्रतिपदः क्षयेन्न्ते 
अर्कग्यग्वकौ सूरयविराह्वरौ सार्कशौ द्रदशभागयुगयुक्तौ कुरु । अथ केवलात्‌ । 
अदत्तायनांशाद्‌ व्मगोच्वर साध्यम्‌ । तत्‌ षड्वार्णः पट्पञ्चाशता विहृतं भक्तं 
सल्लवाद्यं फलं ग्राह्य तन्‌ स्वणं घनणं स्यात्‌ । केदेद्याह्‌ । व्य्‌ रवेविराह्वकंस्य 
यौ गोखौ तद्वशात्‌ । उत्तरगोले धनम्‌ । दक्षिणगे ऋ णमिति तत्फल पृथक्‌ । 
एकान्ते स्थापयेत्‌ । १ 

चन्द्रिका - [ उदयास्ताधिकारः मे सवं प्रथम शुक्लपक्ष की प्रतिपदा 
को चन्द्रददान होगा या नहीं इसका विवेचन करते हैं । ] 


प्रतिपदा कै अन्तमें सूयं ओर व्यगुका साधन कर दोनोँमे १२ 
बारह अंश जोड़कर केवल व्ययु स अर्थात्‌ अयर्नांश जोड़े बिनाही 
(व्यग्‌, से) चर साधन कर उसमे ५६काभागदेनेसे जौ रब्धि प्राष्ठ 
हो वहु व्यग. के उत्तर गोलमे हानेसेधनतथा दक्षिणगोलमें होनेसे 
ऋण) होता हि| १ 

त्रिभायनलवान्वितारुणचराहतं द्थक्षभा- 
हतेः कृ तहूतं धनणंमसमेकगोले व्यगोः । 
खखानलविश्ेषितः सरसभायना्कोदियः 
तारद्विहूतो धनाधनमनत्पकाल्पोदये ॥ २ 


दयुभितिप्रतिपदृगमान्तरं यच्छरभक्तं स्वमुणं दितेऽधिकोने 

धनमन्र चतुष्कसस्छृतित्चेत्‌ तपनास्ते विधुरीक्ष्यतेऽयथा न ॥ ३ 

मल्लारि :-त्रिभेण राशित्रपेण । अयनलवैरयनांशैः । अन्वितो युक्तो 
योऽहणः सूर्यस्तस्य यच्चरं तेन पृथक्स्थं फलमाहतं गुणितम्‌ । ततो द्यश्च भाहतेदहि- 


ग्रहृलाधवं करणम्‌ २०१ 


गुणितपलमायाः कृत्या वर्गेण हृतं तत्‌ द्वितीयं फचमेकान्ते स्याप्यम्‌। 
तद्रचगोरसमैकगोले धन्णं स्थात्‌ । रविन्यग्‌ यदि भिन्नगोले तदा धनम्‌ । 
एकगोले तदा ऋ णमिति । अथ सरसंभायनेर्कोदयः षट्‌ राश््ययनांशयुक्ताकदियः 
खखानलविशेषितः शतत्र॑यान्-रितः सन्‌ शरद्िकंः पञ्चविशत्या हूतः फलमनत्प- 
काल्पैऽरकोदये सति धनाघनं स्यात्‌ । रातत्रयात्‌ उदये अधिके घनमने ऋणम्‌ । 
इद तृतीयमप्येकान्ते स्थाप्यम्‌ । | 

अथ चतुर्थंफटं साधयति । दयुमितिदिनमानम्‌ । प्रतिपद्समः प्र तिपदन्तः । 
अनयो यदन्तरं तत्‌ शरभक्तं फलं दिनेऽधिकोने स्वमृणं स्यात्‌ । दिनमाने तिथेरधिकं 
धनमनं ऋणमिति चतुर्थं फलं भवति। सत्र चतुर्कसस्कृतिः फलचतुष्टयः 
संस्कारश्चेद्धनं तद्म तपनस्य सू्यस्यास्ते विधुश्चन्द्र ईक्ष्यते दश्यते । अन्यया 
फलसंस्कारे ऋणे सति न दृश्यत इति भावः संस्कारस्तु धनयौर्योमः । ऋणयोरपि 
योगः । धन्यो रन्तरमिति प्रसिद्धः । 

अत्रोपपत्तिः-- चन्द्रस्य कालांशा द्वादश यदा स्युस्तदा चन्द्रोदयः । 
चेदल्पस्तदा नेति । अतश्चन्द्रे दुक्कर्मादि दत्तवा कालांशा: साध्याः । तवराचार्येण 
लाघवार्थं श्िष्यव्लेशशषमयार्थं फलानि साधितानि तेषां योगो यदा धनं तदा कालांशा 
दादलाधिकाः । अन उदयो भव्रिष्यव्येव 1 यदा ऋणं तदा कालांशा द्वादक्षकात्पा 
अतो न दर्शनम्‌ । सू्यचन्द्रान्तरं प्रतिपदन्ते द्दशभागस्तेतु क्ेत्रांशा नित्यांशा 
नित्या एव । कालांशा देश्चविरोषेण कालवशेन शराद्यन्तरवशेन चान्तरिता भवन्ति । 
नत्र प्रतिपदन्ते चन्द्रःकायंः । अतो रविः सार्काशरचन्द्रो तथा शराथं व्यगुचन्द्रः 
कार्यः । अनो न्यगुरविरेव सार्काज्ञो व्यगुचन्द्रः स्यात्‌ । अतः सार्काशःवित्युपपन्नम्‌ । 
अथाक्षं दृककमं साध्यम्‌ । तध्रादौ व्यगोः शरः साध्यः । ततो द्वादशकोटौ करभा 
भुजस्तदा शरकोटौ क इति । जातं दुक्कमं । तत्र रकाघवा्थं प्रतिरारिश्रयमध्ये 
नराः साधिताः। ते यथा 1१३५। २३४।२७० एते द्वादशभक्ता जाताः 
११।१९ (२२।३०) । एषां पलभा गुणोऽस्ति । एते एकां गुलपलभोव्थचरखण्डैरे- 
भिरासन्नाः सन्ति ।१०।१८ (२१।२०) एतानि चरखण्डानि यावत्‌ पलभया 
गण्यन्ते तावत्‌ स्वदेशीयान्येव भवन्ति। तैश्चरखण्डकंर्व्यगोः साधितं यजच्चरं 
तत्लभागुणित्रं शरासन्तं स्यादेव द्वादशभिस्तु पूर्वमेव भक्तमस्ति।! भतो 
व्यगोरचरदुक्‌कमक्खाः । तासां भागकरणाथं षष््टि्हरः ६० । परमिदं सान्तरं 
तदन्तरं साध्थते यद्यनेन परमचरखण्डकेन ।२१।२०। एताः परमदुकमखण्डकला. 
२२।३०। तदेष्टेन चरण का इति एवं हरघातो हरः १२८० गुणहरौ गुणेनापवत्त्यं 
जातो हरः ५द६। भतो व्यगोक्चरं षड़बाणैह्‌ त॒ मागां मोषं दुककमं भवती्यु- 
पपन्नम्‌ । धनर्णोपपत्तिः । उत्तरगोले प्रह: क्षितिजादुन्नाम्यते । अतस्तददयः 


२०१ उदयास्ताधिकारः 


पूवमेव 1 अतस्तत्र धनम्‌ । दक्षिणे नाम्यतेऽतस्तदुदयः पश्चात्‌ । अतस्तत्र ऋणमेक 
फलम्‌ । अथायनदुक्‌कमं साधयति । त्रिज्याकर्णे अयनवलनज्या भुजस्तदा शरकर्णं क 
इति । युज्यावृत्ते इदं तदा त्रिज्यावृत्ते कि त्रिज्ययोस्तुल्यत्वान्नाशे कृते द्युज्याहरः 
शरो गुणः । तत्र सायनसत्रिमग्रहुक्रान्तिरेवायनवलनम्‌ । तत्प्रतिराशिसाधितम्‌ । 
११।२०।२४। एतदप्येकांगुलपलभोत्यचराघरसिन्तम्‌ । भगाथं षष्ट्या भाज्यम्‌ 
६० । यदाऽप्य १० इदं बनम्‌ ११।४३ तदुषयकस्पष्टमित्ति 1 हरघात्तो हरः 
६००। मध्यस्थच्युज्या ११२।३० इयमपि हरः । अतो हग्घःतो जातत हरः 
६७५०० | जीव्राथं द्वौ २ गुणः पूर्वभृणद्चं 1१६१।४३। एवं सत्रिभायन,- 
कद्यैकांगु च्पलमोव्यचरं ग्राह्यम्‌ । तर्दिष्टवलभावश्ेन गृहीतम्‌ । अहस्तस्या- 
क्षभाऽपि हरः शरो गृणोऽस्ति तदर्थं चः: सःध्यः। तदाऽश्दुक्डमने 
विलोमेन शरः । तन्‌ षष्टिद्रादक्घात ७२० गणं पलभाभक्तं शरः स्यात्‌ 
उभयोर्घातं पशमावर्गो हरः | अयं च हरः ६७५०० | सत्रिभायनाकचरः्ष- 
दुक्त संघातस्य गुणघातो गुणः १६८७२ । गृणहरौ गुणेनापवत्त्यं जातो हरः ४; 
चतुभिः परभावर्गोऽपि हरः एवं हरघातो दः क्षमाहतेः कतिहुरः । रूपग्‌णस्या- 
विकृतान्नाशः । धनर्णोपपत्तिः प्रत्यक्षं रोले दद्यते । इदं द्वितीयफलम्‌ । अथ 
शोत्नांश कारखांलान्तरं साध्यम्‌ । तत्रे राशिकखोदयाल्वन्यर्‌ कायम्‌ 1 अत्रोदयपल्मान्यतो 
राशिकलाः षड्भक्षः ३०० । एतदन्तरं॑ तत्र सूय॑स्ते चन्द्रोदयोऽतः सूर्यः 
सषड्मायनः कार्यं; । तदृदयः खखानसविशेषितः ऊच तवन्तरस्थ त्रिशद्तारदमन्नर 
तदा द्वाददामिः क्षोत्रादौः किमिति हरः ३२, गृणः १६। पष्टिमक्तं घटिकाः । 
ताः षड्घ्नो भागाः । एवं हरचातो हरः १८६; गुण्घातो गणः ७२। गणह्नी 
गुणेनापवत्य हरः २५1 मतः शर द्विकहूत इति ' वनर्णोपपत्तिः । रात्र था दधिङके 
उदथकलाम्यः असवोऽधिकाः ततस्तत्र धनधूने त्रध्णमिति । इदं तृत्तीयं फलम्‌ । 
प्रतिपदन्ते सूर्यास्त चन्द्रोदयः 1 अतो ुमानवृत्ये प्रतिपदन्ते चद््रोदयः । उनाधिकात्‌ 
फट साव्यतते । षष्टिषटिकाभिरद्दिशमागास्तदेष्टदिनमानप्रति'दन्तरधटीभिः 
किमिति गुणहुगौ गुणेनापवरत्यं हरः ५। अतः शरभक्तमिति । धनर्णोपिपत्ति. 
प्रतिपदधिके दिने चशद्रौदयः स्यादेव अतस्तत्र धनम्‌ । उने ऋणमित्यथतत एव 
सिद्धम्‌ । एवं चतुर्णां फलानां संस्कारे घनमृते कांस द्वादशाधिकाः स्युः) 
तेदा तत्र चन्द्रोदयः स्यादिव्युपपन्नम्‌ । अन्यथा नैवेतति। अथ क्षटिति सभाषः 
गुरुशुक्रोदयस्तज्ञानं यथा भवति तथोच्यत ॥ २-३ 

चच्छिका :--सायन सुयमे २ रासि जोड़कर चरपर साधन क्ररना 
चाहिये । चरपल स पूर्वसाधित फल को गुणाकर गुणनफलमे गुणित 
पलभाके वगंसे भाग देनेसे द्वितीय फर प्राप्त होगा। व्यग्‌ ओर सूयं 


ग्रहलाधवं करणम्‌ २०३ 


भिन्न गोलके हौंतो द्वितीयफल धनहोगा तथा एक गोलकेहंतो 
क्ण होगा । 


सायन सूयं मे ६ राशि जोडनेसे जिस राशिका हो उसके स्वदेशी. 
योदय मान का ३०० के साथ अन्तर कर २५काभागदेने से तृतीय फल 
होगा । यह्‌ उदयमान३०्१्से अधिक हौ तोधन न्यनदहोतो ऋण 
होता है) 


दिनमान ओर प्र्‌|तपदाके मानका अन्तर कर उसमे५का. 
देने से कन्धि चतुथंफर होता है । यहां दिनमान प्रतिपदाकेम से 
भधिकटहोतो घन, न्यूनो तो कर ऋण होता है। 


उक्त चारों फलों कं संस्कार से शेष पदि धनात्मक बचे तो प्रतिपदा 
तिथि में सूर्यास्त के भासन्त चन्द्रमा दृश्य होता है।\ अन्यथा भदुद्य 
होता है । २-३ 


उदाहरण - सं ° २०३३ राके १८९८ माघ शक्टं प्रतिपदा १ गुरुवार 
घटो २६।८ श्रवण ४५।५०। वच ३।३५ दिनमान २५।४८ | 


तिथ्यन्तकालिक सूयं ९।६।४८।१९, राहु ६।५।१८।३७] व्यगु ३।१।२९।४२्‌ 
नियमानुसार व्यगु भौर सूयं मे १२।१२ अंरः जोड़ने से व्यग्‌ ३।१३।२५।४२्‌ 
सूयं ९।१८।४८।१९ व्यगु ३।१३।२९।४२ द्वारा चरफर* साधनाथं भुज 
२।१६।२०।१८ बनाकर चरफर ११३ सिद्ध किया । चरफल ११३में 
५६ का भाग देने से न्धि २१।४ प्रथम फल हुभा । ग्यगु के उत्तर गोरु में 
होने से फर धनाद्मक होगा । 


द्वितीयफल-स्पष्ट सयं ९।६।४८।१९ में अयनांश्च २२।३२।७ जोड़ने से 
१०।०।२०।२६ सायनसूयं तथा ३ राशि जोडने से १०।०।२०।२६ सत्रिभ 
सायनसूयं हु । इस सत्रिम सायनसूयं द्वारा साधित चरफल ५७ से 
प्रथमफल २।१।४ को गुणा कर॒ गृणनफल ११६।१। में पलभा ५।४५ के 
द्विगुणितत मान ११।३० कै वगं रेरे भाग देने से रन्धि ०।५२।४३ 


२०४ उदयास्ताधिकारः 


दवितीय फल हुजा। सायन सृं भौरमग्य्रगुएकही दिशाके रै, अतः फल 
ऋणात्मक होगा । 

तुतीयफल -- स्पष्ट सूयं ९।६।४८।१९ मेँ अय्नांश २३।३२।७ अंशादि 
तथा ६ राशि जोडने से सायन षड़्भ सूयं ४०।०।२०।२६ हुआ । सिह 
सरिमें सूयं होने से वाराणमी पे सिहु के उदयमान ३४५ से ३०० घटाकर 
शेष ४५ म २५ काभाग देने से रन्ि १।४८ तृतीयफर हुआ । उदयमान 
अधिक है इसकिए फल धनात्मक हु । 


चतुथंफल-तिथ्यन्त घटी २६।८ दिनमान २५।४८ दोनों कै अन्तर 
०।२०मे५काभागदेने से रन्धि ०।४ चतुथंफल हुआ । दिनमान तिथि 
मःन से अल्प है अतः फल ऋणात्मक हुआ! 


फल संस्कार- प्रथमपल २। १। ४ 
टितीयफल -०।५२।४३ 
तृतीयफल १।४८। ° 
चतुर्थफरः -०।२०। 9 


प्रथम तथा तृतीयफल धनात्मक हैँ अतः इनके योग (२।१।४ + 
१४८ ०} == ३।४९।४ मे द्ितीय तथा चतुथं ऋगात्मक फलों का योग 
{-०।५२।४३ ¬+- ०।२०।०) =-१।१२।४३ घटाने से (३।४९।४ - १।१२।४२) == 
२।३६।२१ शेष धनात्मक बचा । 


अतः चन्द्रदशन प्रतिपदामे होगा । 


ग्‌ रोष्दयास्तसाघनम्‌-- 

चक्राढयो मधुषक्त्रमासनिचयो विकऽ्वाप्तचक्रोनितो 
ह्िध्नो युक्‌ दक्चमासधूजंटि विनेरभैः शेषितो भच्युतः । 
दचाप्तः स्याद्धुभुखः पृथक तिथिल्वेरूनोऽस्य बाहव शा- 
करप्ं्षोनयुतो घराजरसमभे मासादिकः स्यान्मधोः ५४ 
तिथिदिनरहितादयोऽसो द्विधा तेश्च मतेः 

क्रमश इह भवेतां मन्त्रिणोऽस्तोदयौ च \ 


ग्रहखाघवं करणम्‌ २८५. 
मल्लारिः--तश्रादौ गुरोश्दयास्तौ सार्धश्ोकेन कथयति । 


मधुवक्ते चैत्रादौ यो मासगणो भवति स॒ तदर्षयचक्तेण आद्यो युक्तः कार्यः 
स॒ एव विहवाप्तेन त्रयोदशाभक्तेन चेक्रण ऊनितः। ततोऽसौ द्वाभ्यां हन्यक्ष 
गण्यते स तथा । ततो दशमिर्मासिंधू जंटिभिरेकादर्शादनै्युक्‌युक्तः सन्‌ ऊध्वंस्थाने 
भैः सप्तवत्या शेषितो भक्तो विरहितः । ततो भव्युतः स्प्तविशतिः शोध्यः सन्‌ 
नक्षत्रात्मको चासः सन्‌ भमुखो राश््यादिः स्यात्‌ । राध्यादिः पृथक्‌ अन्यस्थले 
स्थाप्यः 1 तत्र॒ तिथिल्वैः पञ्चदशभागेरूनोऽस्य पञ्चद्शभागोनितस्य यो 
बाहु्भृजस्तस्य नं शका भागास्तेम्योऊकंदद्रिभिराप्तांशा छन्धा भागास्तंभगिः 
पृथकृस्थो राद्यादिक ऊनयुतः कायंः। केत्यत आह्‌ । धटाजरसभे सति 
तुलादिषडभस्थे रारथादिके सति फर तत्रैव ऋणं कायम्‌ । मेषादिषड्‌ भस्थे धनं 
कार्यं सरार्यादिरेव मधोर्चैत्रमारम्य मासादिक्रः स्यात्‌ । यावन्तो राशयस्तावन्तो 
मासाः । भागा दिनानि। कला घटिकाः विकलाः पलानीत्ति। तिथिदिन 
रहिताद्य इति । अयं मासादिको द्विधा स्थानदये स्थाप्यः ! तत एकस्थाने प्रथम 
तिथिदिमैः पञ्चदक्शदिवसं रहितः कायं: । तत्र तः सावयवर्मारश्चैत्राद्‌ गुरोरस्तः 
स्यात्‌ । तथा द्वितीयस्थाने पञ्चदशयुक्तंस्तर्मासिश्चेत्रादेव गु रोषदयः स्यात्‌ । 


अत्रोपपत्ति :-- वर्षादौ गुरुः साध्यः। स स्पष्टः कायं । तथा रविस्तत्र 


वर्षादौ शुन्यमतो गुरुरेव शीघ्रकेन्द्रम्‌ । योहि मुरुराश्यादिः स मासादिक्ः कृतः। 
स॒ यथा! चैत्रादौ मासगणस्तता गृरः। सार्धविक्वमासंगुरोर्दयास्तकालः 


शुद्धो भवति । अतो मासगणः सार्धंविकवै्माञ्यः। अत एव द्विघ्नो मास्तगणो 
मैः रोषित इति । अत्र चक्रोत्थमासगणे साध्विरवभक्ते यच्छेषं तदप्यत्र योज्यम्‌ । 
एवमेकचक्रे मारगणः १३६ अयं सार्धविद्व भक्त; दोषं रुपम्‌ । एकचक्र इदं 
तदेष्टचक्रः किमिति चक्गस्य गृणः १। गृणगुणितचक्र साधंविर्वभक्तमासगणे 
योज्यमित्यत्र मासगणे प्रथममेव योजित तत्त॒ चक्रतुल्यमेव । अतस्चक्राव्य इति इदं 
सान्तरम्‌ । यतः सार्धविक्वे संपूर्णो न भवति । अतो विह्वाप्ठ चक्रोनित इति 
ग्रन्थारम्भे गुरोर्मासादिक्षेपः १०।११। अत उक्तं दशमामधूजंटिदिनर्यगिति । भग्र 
कदोदयास्तः स्यात्‌ । अतो भोग्यं मच्युतो द्विगुणत्वादद्वयाप्त इति । 
अध्य कालांशान्तरे सूर्यान्तः पञ्चदशभागोनः कतस्तस्मात्‌ फल साध्यम्‌ । 
भतस्तद्भुजभागाकलवोनयुक्तः कायः इति । यतः परममुजांश्ञानां ९० हादशांशः 
७।३०। सूर्यमन्दफलगु रुमन्दफलयोः परमयोर्योगासन्मो भवति । स॒ मासादिको 
यावत्‌ पञ्चदशदिनरूनाधिकः क्रियते तावद्ग्‌ रुदयास्तयोरन्तरं चरि शदहिनात्मकमेव 
भवति । भतस्तर्मासंश्चैत्राद्‌ ग्‌ रोरस्तोदयौ मवत इति शोभनमुक्तम्‌ ! ४ 


२०६ उदयास्ताधिकारः 


चद्ध्रिक :-- चेत्रादिमासगणमे चक्र जोड़कर योगफलमे चक्र का 
तेरहवां भाग सावयव माप्तादि घटाने सेजो शेष बचे उसेरसे गुणाकर 
गुणनफल मे १० मास ११ दिन जोड़कर २७काभागदेनेते जो शेष रहे 
उसे ऽमे घटाकरशेषमें २काभागदेने पर राश्यादि रुन्धि प्राप्त 
होगी । इसे पृथक रखकर इसमे १५ अंश घटाकर शेष के भुजांश में १२ 
क{ माग देकर रुन्धि को प॒वं प्राप्त राष्यादि रन्धि में, पदि मेषादिहो तो 
(उसी फल मे) में जोडने तथा तुलादि मे घटने से चैत्रादि मासादि फल 
होतादहै। इसफको दोस्थानोंमे रखकर एक स्थानम १५ दिन 
घटाकर दोष तुल्य मासादि मे गु का नस्त, तथा द्वितीय स्थान मे १५ 
दिन जाडनेसे जो मासादि प्रप्त हो उतने मे गुरु का उदय लानना 
चाहिये ¦ ४॥ 


उदाहूरण -सं० २०३३ राके १८९८ वंशाख कृष्णमे गुरुके अस्त काल 
ज्ञान करने के लिए सवंत्रथम मासगण का साधन किया- 
१८९८-१४४२ = ४५६ 
११)४५६(४१ चक्र 
2.1 
१९६ 
११ 
५. शेष 
५ >‹ १२६० + ० ग. मा--६० 
चक्र ४१८ २==८२ + १०-= ९२ 
९२-+ ६० = १५२ 
३२) २५२६४ अधिमास 
१३२ 
२५ 
६०४६४  मासगण हु । 
(त ६८ त १ चट्नेये १०५ हुभा। पुनः चक्क ४१मे १३ 
~ १. द. 7 ऊटिते 4 द ९/४३६।१५्‌ को यो-, १०५ पैघटःनेसे 
दाष ० ,1९५।९३।५ को *से गुणा कर गुणनफन २०२।५०।४६।१० में 





ग्रहखाघवं करणम्‌ २०७ 


१०।११ मासादि जोड़ने से २१५१।४६।१० हुभा । इसमे २७ काभाग 
देने से ल्न्ि ७ तथा शेष २५।१।४६।१० को २७में घटा कर शेष 
१।२८।१३।५० मे २ काभाग. दने से रुन्धि राश्यादि ०।२९।६।५५. प्राप्त 
हई । रादयादि यन्धि मे १५ अं्ञ घटा कर दोष ०।१५६।५५ के भुजांश 
१४।९।५५ में १२ का भाग देकर रन्धि १।१०।३५ भंशादि को मेषादिमें 
राद्यादि पूर्वोक्त फल के होने से जोड़ा (०।२९१।६।५५.'~- १०।१०'।३५..) 
== १।०।१७।३० चेत्रादिफल हुआ । इसमे १५ अंश घटाने से शेष 
०।१५।१७।३० मासादि में गुरु अस्त तथा चेत्रादि फर १।०।१७।३० मेँ १५ 
अंगं जोड़ने से १।१५।१७३० मासादि मे गुर कं उदय का काल 
मसक्षना चाहे । 


प्रस्तुत उदाहरण मे गुर्‌ का भअस्तकाल मासादि ०।१५।१८।३० हैं 
प्रयम चैत्र मास्मेही १५ दिन बाद मुह अस्त होगा । मासगणना चैत्र 
शकंर प्रतिपदासेहोती है, 
दक्रोदयास्तसाधनम्‌ - 
अथ मधुमुखमासाः सप्तभूनिध्नचक्तेः 
स्वशरथुग लवाद्येः संयुता मागंणघ्नाः ॥५ 
उदधिरससमेताशछ््रसेगासितष्टा 
नवनवपरिश्ुदधाः पच्चभक्ताः पुथक्स्थाः । 
रसगुणदिनहीनाढचा दषा चेनरतस्तं- 
भृगु जहरिदगस्ताम्बरूदथौ स्तः क्रमेण ।॥\ ६ 
नवमास्भघसतोऽल्पयुष्टाः पुथगस्याः क्रमशस्तु तेर्यतोनाः ¦ 
दधा युगवासरोनयुक्तास्तेयास्तेन््रयुदयौ कृमादुभृगोः स्तः ७ 


^ निन 





प्रस्तुत उदाहरण मे पूर्ममा कै अनन्तर बैशाख कृष्ण प्रतिपद्य को गुरु 
का - घ्नं का नात्ता है। दग्गणित के अनुसर वेशा कृष्ण तृतीया को गुर 
ग + व्दरकन्दो पयः द । अतः प्रहुकववीय ओर्‌ दृष्णणित में कगतय र क्निका 
अन्तर भारहारह) 


२०८ उदयास्ताधिकारः 


मल्कारिः -भय शृक्रोदयास्तौ कथयति सार्घवृत्तद्येन । अथ गुरूदयास्त- 
कथनानन्तरं शुक्रास्तोदयौ कथयति । मधुमुखमासाद्चैत्रादौ यो मासगणः! नै 
मासाः । सप्तमूभिनिघ्नानि गणितानि यानि चक्राणि ततस्तानि स्वक्षरवुग- लवेन 
पञ्चचत्वारिशदंरेन आद्धानि युक्तानि । तैः मंयुताग्तो मार्गणघ्नाः पञ्च गुणाः| 
तत उदधिरसः चतुष्टदा यमेताः ततरि्द्राणि नव । खेगामिनो ग्रहा नव । एव 
नवनवतितेष्टाः दोषा नवनदम्यः परिशुद्धा । तच्छेषः पञ्चमक्ताः पृथन्स्श्रा. 
कार्याः । ये पुथक्‌स्थास्तेऽपि स्थानद्वये स्थाप्याः! एकत्र रसगुणदिनंः षटत्रिगद्‌- 
दितैरहीरा अन्यत्र युक्ताः) चत्रतस्तंर्म्यियथाक्रम मृगुजस्य शुक्रस्य ह्रिदिशि 
पूरवस्याम्तोऽम्बुनि पडिचमायामुदयो भवेत्‌ । ततो ये पृथगास्थास्ते नवमासमघसखतः 
सप्तविकशतिदिनादिक नवपःसेभ्यरचेदत्पाः पृष्टा वा स्युस्तदा करमशः तैनवमासभघस 
यु'तोनाः कार्याः । ततस्ते देधायुगवासरंश्चनुिदिनेखूनयुक्ताः क्रमाद्‌ भृगोः शुक्रध्य 
तोयास्तः पदिचमास्त रेन््रयुदयः पूर्वोदयः । एतो चैत्रा्तमासैः स्त इत्यर्थः ५-७ 

चन्द्रिका-चेत्राःद मासागणमे स॒त्रहुसे ग्‌.णतचक्रका ४५ वां 
भागजोडकरयोगको ५से गणाकर गुणन्फलमे ६४ जोड़कर ९९ स 
भाग देकर शेषको पुनः र्स्य घटाकर पोषम ५का भाग देकर 
मासादि लन्धिको पुत्र पृथक्‌ दो स्थानोंमे रखें । प्रथम स्थान में ३६ 
दिन घटाने से शुक के पूरवेदिशामं मस्तहोने के तथा दुसरे स्थानम ३६ 
दिन जोडने से पश्चिम में शुक्र के उदय होने के मास'दि होते है| 


-९1} 


यदि उक्त पृथक्‌ स्थापित रन्धि ९ माक्ष २७ दिनसे अत्पहोता उक्त 
संख्या मे ९ मास २७ दिन जोडकर, यदि अधिकहोतो ९ मास २७ दिन 
घटाकर दोस्थानोमे रखकर एक स्थानम ४दिनिघटानेस शुक्रका 
पश्चिम मे अस्त होने क्रा तथा दूमरे स्थानम ४द्विन जोडनेसे शुक्रका 
पूवं मे उदय होने का काल होता है । ५-७ 

उदाहरण शुक्रोदयास्त साधन --मासगण ६४ | चक्र ४१ 

चक्र ४१ को १७ से गुणाकर गुणनफन ६९्७मे ४५ का भाग देकर 
लब्धि १५।१४।४० को उक्त गुणनफल ६९७ मे जोडकर योगफल ५१२। 
१४।४० को मासगण ६४ मे जोडकर ७७६।१४।४० को ५ से गुणाकर 
गृणनफल ३८८१।१३।२० मे नियमानुसार ६४ जोड कर ३९४५।१३।२० मे 


ग्रहलाधवं करणम्‌ २०९ 


९९का भाग देनेसे रुन्धि ३९ तथा रोष ८४।१३।२० प्राप्त हु । 
९९ मे रोष ८४।१३।२० क घटाकर दोष १४।१६।४० मे ५ का भाषदेनेसे 
२।२७}२० लन्धि प्राप्त हूर । इसे दो स्थानो मँ रख केर एक स्थानमें 
३६ दिन अर्थात १ मास दिन घटाकर रोष १।२१।२० (चेत्रादि) 
मासादि काल मे शुक्र पूवं मे अस्त होगा| द्वितीय स्थान में स्थित छन्धि 
२।२७।२० मे १ मास ६ दिन जोडने से ४।३।२० मासादि में शुक्र पञ्चिम 
मे उदय होगा) 


यहाँ उक्त मासादि लन्धि २।२७।२० श्लोकोक्त ९ मासि २७ दिन से 
अल्प है अतः २।२७।२० मे ९।२७ जोड़कर योग॒ १२।२८२० मे ४ दिन 
घटाने से शेष १२।२०।२० मासादि मे शुक्र पश्चिम मे अस्तहोगा तथा 
१२२५४२० मे ४ दिन जोडने से १२।२८।२० मासादि शुक्र के पुनः पुवं मे 
उदय होते का समयं होगा 


पूर्वोक्त गुरुशुक्रयोरुदयाघ्तकालयोः परिवत्तंनम्‌- 


भते ९» च्य १ 


मासेनखैव्य रिदिनंरुदयास्तकालः 

शुक्रस्य शुध्यति गुरोयदि साघंवित्वेः \ 
सोऽन्यो भन्वेमधुमखाद्थ तयुतश्चेत्‌ 

स्थात्‌ तत्परोऽथ पुरतोऽपि विलोमश्चुद्धया १८ 


मल्लार :--अथ गुख्शुक्रयोरुदयास्तकार्परिव्तनमाहू । शुक्रस्योदयास्तकालः 
ूर्वास्तपूर्वोदयपश्चिमास्तपश्चिमोदयपरिवर्तो व्यरिदिनंः षड्दिनरहिरतैनंसैविंश्तिमासंः 
दुष्यति सम्पूर्णो भवति। गुरोः सार्धविदवेर्मासैः शुष्यति । मधुमुखाच्चै्रादेस्तंयुतश्चेत्‌ 
तदाऽन्यः स्यात्‌ । विरोमशुद्धया पुरतोऽपि पुर्वमेव तैः स्वभासैरुदयास्तः स्यात्‌ । 
एतदुक्तं भवति । यस्योदयास्तयोर्मासादिकर्चैत्रादितः काकः स एसिः परिवत्तंमासे- 
युक्तस्तंरेव पासंश्चैश्रादेः स एवोदयास्तः स्यात्‌ । चेन्नयूनीकृतस्तदा तंमसिश्चैत्रादेः 
पू वंमुदयास्तः स्यादित्यर्थः । 


अध्तौपपत्ति :-- -प्रत्यक्षसिद्धा सुगमा च ॥८ 
र्(¶द्रजआा--६ दिन रहति २० मास अर्थात्‌ १९ मास २४ दिन में शुक्र 


का उदयास्त ( पूवंदिशा मेँ उदयं से असन पयेन्त तथा पश्चिम मे उद्यसे 
 १४.-ग्रहुः 


२१० उदयास्ताधिकारः 


अस्त पयंन्त ) काल शुद्ध होता है। बृहस्पति का साट तेरह मास 
सर्थात्‌ १३ मास १५ दिन मे उदयास्त शुद्ध होताहै। पुनः चैत्रादि मासों 
मे उक्त संख्या जोडने से तत्तद्‌ ग्रहोंके अग्रिम उदयास्त कालका ज्ञान 
होता है । विलोम करप से उक्त संख्या घटाने से पहर के उदयास्त काट 
ज्ञात होतेह ८ 


स्थूलशरसाघनम्‌ -- 
प्रथमे व्यगुचन्द्रदोगृहऽशाः स्वदलाढयास्त्वपरे नगान्धियुक्ताः । 
चरभे दलिता नागाद्रियुक्त! व्यगुबिधुदिग्‌ विक्विखोऽङ्भुखादिकः स्यात्‌ ॥९ 


मल्क्षारि :--अथ चन्दरशरं साधयति । व्यगुचन्द्रस्य विराहुचन्द्रस्य दगु 
भुजराशौ श्रथमे सति अंशा भागाः स्वदलेन स्वाधन माद्चा युक्ताः कार्याः 
सोऽद्गुखादिकः शरः स्थात्‌ ¦ भपरे द्वितीयराशौ ये भागास्ते नगान्धिभिः 
सस चत्वारिशद्‌ युक्ताः कार्याः स शरः स्यात्‌ । चरभे तृतीयराशौ ये भागास्ते 
दलितास्ततो नगाद्रिभिः सक्तसप्तति युक्ता ग्यगुधिधुदिक्‌ विराहुचन्द्रो यस्मिन्‌ 
गोले तदक्‌ शरो भवतीत्यर्थः । अच्र शरानयने राङीनांमंश्चा न कार्याः । 
अधस्तना यथावस्थिता एव भागा ग्राह्याः ।९ 


भत्रोपपत्तिः--प्रथमराशौ भागाः स्वार्धंयुक्ता शरो भवतीति पूवमेव ग्रहण 
युक्तिः प्रतिवादितास्ति । द्ितीयराश्यन्ते शरः ७७ । अत्र प्रथमराश्यन्ते ड रः ४७ । 
घतो द्वितीयराक्यादितो ये भागास्तंयुक्ताः ४७ एते शरो मव्येव । तथव 
तृतीय रार्यदेर्भागा दलिता द्वितीयराश्यन्तशरेणानेन ७७ युक्ताः शरः स्यादेवेति 
युक्त मूर्तम्‌ । पूरवग्रहणे चन्द्रशर उक्तः स त्रि्यद्ल्य भुजं भागसघ्यस्थ एव। 
अन्यत्र बहुषु भुजभागेषु बहुन्तरितः स्थात्‌ । जतं उदयास्तधङ्खोन्नतिग्रहयोगादि- 
विधान अकारेण शरः कार्यो न पूर्वेणेत्ति ॥९ 
चन्द्रिका ` व्यग्‌ ( राहु रहित चन्द्रमा) चष्द्रका भुज यदि प्रथम 
राहि (०।-) मेदहौतो भुज क अंशांदि का आधा भुजांशादिमे ही जडने 
से, यदि द्वितीय राशि (१।-) मेदो तो अंश मे ४७ जोड़ने सं तथा यदि 
भुज तृतो राशि (२।--) मेहोतो भुजांचके भाघेमें ५७७ जीडनेसे 
अंगृलात्मकं शर होता है । राहु रहित चन्द्रमा जिस मोलमे होतार वही 
षरकी भी दिशादहोतीहै॥ ९ 


ग्रहशाचबं करणम्‌ २११ 


उदाहरण -(१) चन्द्रमा १।१३।११।४९  स्पष्टराहु ७।१६।४५।१९ 
चन्द्रमा से रा घटानेसे शेष व्थग. ५।२६।२६।३० हभ । इसे ६में 
चाकर ०।३।३३।३० भुज बनाया । भुज के राक्षि स्थान में शृन्य है । 
भुज पहृष्णी राशि मे है अतः अंशादि ३।३३।३० का आधा १।४६।४५ 
अंशादि ३३३२० ही जोड़ने से ५।२०।१५ शर हुआ । व्यगु चन्द्र 
उत्तरगो मं है अतः शर भी उत्तर दिकश्षाकाहौगा। 


(२) यदि चन्द्र ८।१६।४०।३० तथा राहु १।१३।३८२५ हो तो चन्द्र मे 
राहु घटाने से रोष ७।३।२।५ व्यगु हुआ, इसके भुज १।३।२।५ के राल्ि 
स्थानमेष्है अतः यहु द्रो राशिमें हुम । नियमानुसार भुजके 
अंशादि ३।२।५ मे ४७ जोड देने से ५०।२।५ शर हुभा । व्यगु दक्षिण 
गोल में है, अततः शर भी दल्लिण दिशा का हुआ। 

(३) यदि चन्द्रमा १०।२०।३५।४८ तथा रह २।१८।४०।५५ हो तौ 
व्यगु ८।१।५५।५३ का भुज २।१।५४।५३ होगा । बर्हा राशि स्थानम रहै 
भतः यहं तीसरी राक्षिमेहै। उक्त नियम के अनुसार भुजांहादि १।५४।५३ 
के आधे ०।५७।५६ मे ७७ जोडने से योगफल ७७।५७।२९ दक्षिण शर 
हुभा । क्यों कि य्ह भौ व्यगुचन्द्र दक्षिण गोल का दै) 

पठितखण्डद्रारासूक्ष्मश रसाघनम्‌- - 
नुपलियिमनुचिरवरद्रगोऽद्विश्रतिवसुधाः शरखण्डक्षानि तेयंत्‌ । 
व्यगुविधुभुजततोऽपमोक्तिवद् व्यगुविधुदिग्‌ विशिलोऽद्युःशरिकः स्यात्‌ 11१० 

भल्लारि :-- इदानीं खण्डकैः सूष्ममप्याह । व्यगुचन्द्रभुजांश दशांरामित 
लेण्डक्य रोषं भोग्यख्तण्डाहतिदशांशयुक्त सदंगुलादिकः शरः स्यादित्यथ: । 
उपपत्ति रत्रातिस्फुटा ।।१० 

चन्द्रिका :- नृ१ (१६), तिथि (१५) मनु (१५), विश्व (१३), सद्र 
(११), गो (९), अद्रि (७), श्रुति (४), वसुधा (१), अर्थात्‌ १६।१५।१४- 
१३।६१।९।७।४।१ ये शरखण्ड हँ । इनके द्वारा व्यगु विधु (राहुरदहित 
चन्द्र) के भुजांश दारा क्रान्तिसाचन की तरह जो फछ सिद्धहो, वह 
व्यगुचन्द्र को {दिला का भडगुक्लादिक्षर होता दहै। १० 


२१२ उदयास्ताधिकारः 


उदाहुरण--व्यग चन्द्र ५।२६।२६१३० इसका भुज (६।०।०।०-५।२६। 
२६।३०) == ०।२३।३३।३० बनाकर भुजांश ३।२३६।३०्मे १० का भाग 
दिया छ्न्धि ° गतत खण्ड } पठित एष्य खण्ड । १६ से शेष ३।३३।३० को 
गृणनफ़ल ५६।५६।० मे १० काभाग देकर लन्धि ५।४१।२६ को गत खण्ड 
° मे जोड़ने से ५।४१।३६ अङगुलादि शर उत्तर गोल का हना वयोकि 
ग्यगुचन्द्र उत्तर गलका) 

ग्रहाणामुदयास्तदिगृज्ञानम्‌ -- 

लघुगोऽल्प इनादुदेति पूवं भयान्‌ भूरिगतिग्रहः प्रतीच्याम्‌ । 
भू्यांल्लघुगः परत्र चास्तं प्राच्यां भूरिशो रघुः भ्रयाति ॥११ 

मल्ल) रि :--अथ ग्रहणां पूर्वपक््चिमदिशोरुदयास्तकारणमाह छघुगोऽल्पं 
इति । यो ग्रह इनात्‌ सूर्यात्‌ लधुगोऽल्पगतिः । अल्पश्च भागैरपि न्यूनः स 
पूर्वस्यामुदयं प्राप्नोति । यो ग्रही भूयान्‌ सूयपिक्षया मागैरघिकः । भूरिगतिः 
सूर्याधिकगतिद्च स प्रतीच्यां पदिचमायामुदेति उदयं प्राप्नोति । यो भूयन्‌ 
सूर्याधिकरभागो लघुगः सूर्यादल्पगतिः स परत्र परिचमदिशि अस्तं गच्छति ) 
यो भूरिजवः सूर्याधिकगतिः । रधुः सूर्णाद्‌ भागैरस्पः स प्राच्यां पूवंदिशि 
मस्तं याति । इदं सूर्यंकृतोदयास्तलक्षणं दैनन्दिनोदयास्तौ ग्रहाणां प्रवहानिखवशेन 
परव॑पर्दिचमयोर्वत्तते एवेति ।)११ 

अत्रोपपत्ति :- ` सूर्यादल्पोऽत्पगतिक्च ग्रहः सूर्यास्पर्वराश्यंरो स्थितोऽतः 
सूर्योदयात्‌ पुवेमेव तस्योदयः । अतः कालंशतुल्यान्तरेण तस्य पूर्वोदयः स्यात्‌ । 
यः सूर्यादधिक्रः । अशधधकगतिश्च ग्रहः । स पश्चिमायामृदेःत विलोमत्वात्‌ । य: 
सूय दिधिकः । अल्पगतिष्तं ्रहुं त्यक्तवा सूर्योऽग्रतो याति । भतः पर्चिमायामस्तः : 
यो भागैरत्पो गत्याधिकः स सूयं प्रति गच्छत्ति अतोऽल्पस्वात्‌ पृवेस्थामम्तो 
भवतीत्युपपन्तम्‌ ११ 

चन्द्रिका - सूयं से अल्प गति वाके ग्रह यदि रद्यादि मानमेभी 
सूयं से अल्प दहोंतो वे पूवं दिशामे उरिति होते दैतधालो ग्रह सूयंसे 
अधिक गति वले हैं एवं राश्यादि मानम अधिकं वे पर्चिम दिश्लामं 
उदित होते ह। इसी प्रकार सूर्य॑स्ते अल्प गति तथा राश्यदिमे अश्वक 
मान वाके ग्रहु पश्चिमम अस्त होतै ह तथा अविक गति दाके एद 
र्यादि मःन में अल्प ग्रह पूवं दिशा मेंभस्त होते दै ॥ ११ 


ग्रहलाघवं करम्‌ २१३ 


उदयास्तकालाश्ा-- 
भास्करा नगभवो गुणचन्द्राः भूभुवो दिविसदस्तिथयोऽ्जात्‌ । 
प्राकतर्नौनिगदिता समयांशा वक्रिणोभुगविद्ोः क्षितिहीनाः १२ 


मल्का{रिः-भयोदयास्तनिमित्तं काांश्ानाह । अन्जात्‌ चन््रमारम्य ग्रहा- 
गमेते कालांशाः स्युः। भास्करा ददशभागाक्चन्द्रस्य । नगभुवः सप्तद भौमस्य । 
गुणचन्द्रास्त्रयोदश बुधस्य । भूभृव एकादश गुरोः! दिविसदो नव शुक्रस्य । 
तिथयः पञ्चदश मन्दस्य । प्राक्तनः पूर्वाचार्येरेते कालांशा निगदिता; । भृगुविदोः 
दुक्रवुधयोः वक्रिणोः सतोस्ते कालांशा: स्षित्या एकेन हीनाः ॥१२ 

अत्रोपवत्तिः ` -अत्रोदयोऽत्तो वा तुल्यैरेव कालांरौः लक्षणोपायंमेवति । 
कालांशा यथा 1 यदित ग्रहुस्थोदयोऽस्तो वा आकारो जातंस्तदिने सूयंग्रहुयो रन्तरे 
कग्नसूर्यान्तरवत्‌ र्द्कोदयैः कालः सव्यः । ता घटिकाः षड्गुणा भागाः स्युः । 
सं कारस्यांशाः अतः कालांजा इत्यन्वथं नाम । अत्र बुघशुक्रयोर्वेक्रिणोः सतो 
निरेकंस्तंः कार्लाचंस्तयोरुदयास्तौ भवत इत्युपपन्नम्‌ ।*१२ 


चन्द्रिका--भास्कर (१२), नगमुवः (१७), गुणयन्द्र (१३), मू भुवः 
(११). दिविसदः (९), तिथयः (१५), ये चन्द्रारिग्रहो के कालश पूर्वाचार्य 
ने कहा है । अर्थात्‌ चन्द्र का कालश १२, मद्खल का १७, बुध का १३, 
गृरुका ९१। शुक्रका ९ तथा शनिका १५ है| यदि शुक्र भौर वृध 
वक्रीहो घो उक्त कालांशमे १ घटाने से उनके काकार होते है । अर्थात्‌ 
क्रो नुध का १२ तथा वक्री शुक्त का ८ कालश होगा । १२ 

मौमादीनां पातांशाः-- 

खाम्बुबयः खयन; खभुजङ्धगः खाङ्धः सिताः लदश कसा: स्युः । 

पातलवाः कुसुताद्ृशुवभुग्वोमध्यमचञ्चलङेन्द्र विहीनाः ।\१३ 

मल्लारिः--अथ भौमदीनां पातानाह । कु सुताद्धौममारभ्य प्रहाणामेते पातस्य 
लवा भागाः स्युः। खाम्बु्यश्चत्वारररद्धागा भौमस्य । यमा विशतिर्मागा 
बुधस्य । खभुजंगा अशीति भागा गुरोः । खांगमिताः षष्टिभागाः शुक्रस्य । 


खदश शतमिता भागाः दनैः । बुचभृष्वौः पाताला मध्यमेनादर्गणोखन्नन 
चञ्वलकेन्द्रेण श्रोघ्रकेन्द्रेण विहीनाः कार्याः । 


अनत्रोपपत्तिः--मन्दस्फृटो ग्रहः शीघ्रप्रतिमण्डले भ्रमति विमण्डलाधितः सन्निति । 
तस्मान्मन्दस्फटादेव शारः साध्यते इत्युपपत्तौ ग्रहः सपात्तः कायं; । अत्र विमण्डल- 


२१४ । उष्टयास्ताधिकारः 


क्रान्तिमण्डल्योः सम्पातस्तत्र प्रहस्य शराभावः। एवमत्र सम्पाते विक्षेषपाते 
क्रान्तिमण्डले यो रा्या्यवयवः सं एव षाततः। एवं ग्रहाणां पातख्वाः सिद्धाः 
पाठपठिता एवं पातात्‌ षडभान्तरेऽपि शराभावः । एवं बुघशुक्रयोः पातल्वाः 
शौीधघ्प्रतिमण्डलस्था एवं पठिताः सन्ति स्वशीघ्केन्द्र॒ भागैरधिकाः कृतवा पठितः । 
अतः शीश्रकेन्द्रविहीना एते पात।: । मन्दस्फूटग्रहयुक्तपः तात्‌ शरः साध्य इत्यग्रेऽपि 
वक्ष्यतीत्युपपन्म्‌ ।।१३ 

चद्िका--खाम्बुधि ( ४०), खयमा (२०), खभुजङ्ख (८०), खाद्ध 
(६०), खदश (१००) ये भौमादि ग्रहोंके क्रम से पातां ह \ अर्थात्‌ 
भोमका ४०, वुधका २०, गुरुका ८०, शुक्रका ६० तथा दानि का १०० 
पातांश दै । बध भौर शुक्रके पातांश में इनके मध्यम के घटनेसे 
धास्तविक पातांश होते है । १३ 


शीघ्रकणं साधनम्‌ - - 
कुद्वित्यञ्ियुगारिवनो दलचयः्चेत्‌ षडभपुष्टं चलं 
न्द्र चक्र विश्चुढमस्य भमिताघ॑क्यं कवध्नागतात्‌ । 


त्रिशल्लब्धयुतं कुजा्कुथमलाग्धीन्द्रद्वि भवतं क्रमात्‌ 
तद्धीमाधुतिररिष्विला गुणमृवो गोऽन्मा इनाद्राक्‌ शतिः 11१२ 


मल्लारिः-- अथ प्राहाणां शीश्चकर्णानयनमेकवृ लेनाह । अयं दलानां खण्डानां 
चयः स्यात्‌ । कूरेकः । द्वौ । त्रयः । अभ्धयदचत्वारः । युगानि चत्वारि । अरिवनौ 
दरौ 1 एतानि षट्‌ खण्डानि स्युः । चलकेन्द्रं चेत्‌ षड भषृष्टं षड़ाश्यधिकं तदा चक्रात्‌ 
हादशराशिभ्यः शुद्धम्‌ ¦ भस्य चरकेन्द्रस्य यानि भानि राशयः } तन्मिता्धनिमैक्यं 
कार्यम्‌ । लवघ्नागतात्‌ भागगुणितभोग्यखण्डात्‌ त्रिश्शता यल्छम्धं तेन तदैक्यं युतं 
कार्यम्‌ । तततः कुजात्‌ मंगलमारभ्य कुयमसान्धीन्द्रद्विभक्तम्‌ । भौमस्येकभक्तम्‌ । 
बुघस्य द्विभक्तम्‌ । गुरोदचतुभंक्तम्‌ । शुक्रस्येकभक्तम्‌ । शनेः सण्तभक्तम्‌ । 
क्रमात्‌ तत्फलेन एवेऽङ्का ऊनाः कार्या धृतिः अष्टादश भौमस्य फलेन हीना भौमस्य 
शीध्रकर्णः । इष्विराः पञ्चदश बुधस्य । गृणमुवस्त्रयोदल गृरोः। गोऽ्जा 
एकोनत्रिंशतिः शुक्रस्य । इना दादश्॒ शनेरेतेऽङ्काः फलेन हीनाः सन्तो यच्छेषं 
तद्ग्रहाणां व्राकृश्रुतिः शीघ्रकणंः स्यात्‌ ।।१४ 


अश्रोपपत्तिः--अश्र कोटिज्यान्त्यफलज्ययोमुंगककर्यादिकशीध्रकेन्दरे योगान्तरं 
कोटिः शीघ्रकेन्द्रदोर्ज्या भुजः अनयो्वंगेक्यपदं कर्णः । शीघ्रप्रतिमण्डले व्यासार्धसत्र 


ग्रहखाघवं करणम्‌ २१५ 


तु दोरज्याकोटिज्यादिविधिनास्ति । अतः प्रतिराशिक्षीघ्रकणः साधितः । 
शीघ्रफलयुतराशित्रयं प्रथमं पदम्‌ ¦ शीध्रफलोनं राशिध्रयं द्वितीयम्‌ । अतः 
षङ्ारिमध्ये पदद्रयमस्त्येव । अतः षट्‌ खण्डान्येव कर्णाथं शीध्केन््रात्‌ साधितानि । 
तानि भवमितां त्निज्यां परिकल्प्य मौमरीघ्र फलान्त्यज्यातः साधितानि । म्रहाणां 
परमदीच्रफलज्या भिन्ना भिन्ना । अतो हि भौमरीघ्रपरमफलज्या-८१ यामस्यां 
यदेतानि खण्डानि तदेष्टग्रहपरमशीच्रफलञ्यासु कान्यतो बृघादीनां यमलान्धोन्द्र- 
द्रिभक्तमुक्लं भौमस्य यथास्थितत्वात्‌ कूभक्तमिति ¦ अनेन फेन परमशीघ्रकर्णा 
यावदूनीक्रियन्ते तावदिष्टशीघ्रकर्णा भवन्ति । परमलीघ्रकर्णास्तु चत्रिज्यान्त्यफलज्या- 
योगतुल्याः । यथा मौमस्यान्त्यफल्ज्या ८१। इयं च्रिज्यायुता २०१। यदि 
त्रिज्यायामस्यां १२० परमभौम सीच्रकर्णोभयं २०१ तदेष्टायां भवतुल्यायां किमिति 
जाताः १८ । अत्र भवमितित्रिज्यां सप्तमितान्त्यफलज्या 1७ अतस्त्रिज्यान्त्यफल- 
ज्यायोगे परमरीघ्रकर्णोऽयं १८ युक्तः । एवं त्रिज्यान्त्यफलज्यान्तरेण परमात्पलीघ्- 
कर्णः । अन्न भौमस्य कुभक्तमिति यदुक्तं तेन सर्वेलण्डयोगे १६ 1 धृतिशुदधे यं 
परमात्पः शीघ्रकर्णः स चायुक्तः । तत्साधितोऽग्रे यः शरः स च तरिज्याल्प ११ 
कशीघ्कणें पुनद्धिमक्तः कार्यं इति युक्तः । अन्यत्र महदन्तरं स्यात्‌ । त्रि ज्याधिक- 
लोघ्रकणे नान्तरं तत्र॒ स्वांडघ्रयून इत्येव । अथवा तत्रापि चेत्‌ द्विभक्तस्तदा 
किंञ्चिदन्तरः श्रः स स्वत्पान्तरत्वादंगीकत्तव्यः। अतो न दोषायेति। 
एवमन्येषामपीति । अत एव तद्धीना धृतिरित्युपपन्नम्‌ ॥ १४ 

चन्दरिका--शीघ्रकणं साधन के व्यि १,२,३,४,४,२ये छः खण्ड 
पठित है । ग्रहोंके शीघ्केन््रयदि ६ राशिसे अधिक होतो उसे १२ 
राक्लि में घटाकर दोष के राशि स्थान मे जो संख्या हो उतने पठित खण्डो 
का योग कर होषांश्में अग्रिम प्रण्डरो गूणाकर गुणनणलमे णका 
भाष देकर रुन्धिको उक्तं खण्डां के योग में जोडकर योगफर को, 
भौमादि ग्रहों में क्रमसे १,२,४,१,७से भाग देकर ल्न्धिकोक्रमस 
१८, १५, १३, १९, श्रमे घटानेसे भौमादि ग्रहो के अभीष्ट शीघ्रकणं 
होते है । १४ 

उदाह्रण-मौम का शोघ्र केन्द्र ०।१५।९।४०, बुध का १०।५।२६। 
४६, गुरं का ८।१२।४४।३०, शुक्र का ०।१३।३२।१३ तथा रानि का शीघ्र 
केन्द्र ४।२५।१।२१ है । शीघ्रकणं साधन --भौम का शीघ्रङ्केन्द्र ०।१५।९।४० 
६ राशि से अल्पहै तथा राशिस्थानमेशन्यहै। खण्डोका योगण्ही 


२१६ उदयास्ताधिकारः 


हुआ । दोषांश १५।९।४० को अग्रिम खण्ड १ सो गणा किया । गुणनफल 
१५।९।४० कौ ३० से भाग देकर लच्धि ०३०।१९ को ०मे जोड दिया! 
योगफल ०।३०।१९ मे १ ( मोम का शौच्रकणं साधन करना है, अतः 
प्रथम संख्या १) से भाग देकर लब्धि ०३०१० को प्रथम संख्या १८में 
घटाने से शेष १७।२९।४१ भौम का सीघ्केणं हआ । 

बुध का शौघ्रकेन्द्र १०।५।२६।४६ यहु ६ राशि से अधिके है, अतः 
इसे १२ राशिं घटनेसं शेष १२४५।३३।१४ रहा । रादि स्थानमें 
१ संया है, अतः पठित खण्ड खारि संख्यातुल्य १ हुजा। शेषाश्च 
२४।३३।१४ को अग्रिम खण्ड २ स गुणा ङ्िा। गृणनफल ४९।६।२८ में 
३० का भाग दिया लंन्धि १३८१ को खण्डोके योग १मे जौडकर 
२।३८।१२ मं (बुध को संख्या) २ से भागं देकर रुन्धि १।१९।६ को वुधके 
अङ्कः १५ मे घटाने से शेष १३।४०।५४५ नुधं का रीघ्रकंणे हु । 


गुरु का रीघ्केन्द्र ८।१२।४४।३० ह । यहु ६ राशिसे भचिक्तहै, 
गतः इसे १२ राशिमेँ घटाङर शेष ३।१७।१५।३० कीं राशि सल्या३के 
समान पठिति तान कछण्डो १4२२३ का योग £ करिया। शेषाश्च 
१७।१५।३० को अग्रिम खण्ड से गुणा किया । गृणनफल ६९।२।१० में ३० 
का भाग देकर लन्धि २१८४ को खण्डो के योग ६ म जोड़कर ८।१८४ 
मेगरुके अंक थ्सेभागदेक९ लन्धि २।४।३१ को गुरुः अकं १३मे 
घटाने से शेष १०।५५।२९ गुरं का शीघ्रकणः आया । 

शुक्र काशघ्र केन्द्र ०।१३।२३।१३ छः रारिसे भत्पदै तथा राि- 
स्थाने शन्यदहै। अतःख्ण्डोकरा योगण्ही हभ । शेषश १६३।३२।१३ 
को अग्रिम खण्डषश्सेगुणा कैर गुणनफल १३।३२।१२मं ३०कामाग 
देकर रच्छं ०।२७।४ को ° में जोड़कर ०।२७।४ मं शुक्रके भद्धुश्से 
भाग देकयं लन्धि ०२७४को धूक्र के अद्ध १९म घटने से शेष 
१८।३२।५६ शुक्र का शोधघ्रकणं हुमा । 

शनि का शीश्रकेन्द्र ४।२५।१।२१ है । यह्‌ ६ राक्िसे अल्पदहै तथा 
राशिस्थानमे ४ संख्या है । अतः परित चार खण्डो का योग १--२-३ 


ग्रहलाषवं करणम्‌ २१७ 


1-४-१० किया । शेषाश्च २५।१।२१ को अग्रिमं संशया ४सेगुणाकर 
गुणनफल १००।५।२४ मे ३० से भाग देकर रुन्धि ३।२०।१० को संख्याभों 
के योग १० में जोड़कर योगफल १३।२०।१० मं शनिके भङ्कुऽसेभाग 
देकर न्धि १।५५।१८ को शनि के मङ्कु १२ मं धटाने से १०।५।४२ शनि 
का शोच्रकण हुभा । 

भोमादिग्रहाणां शरसाघनम्‌-- ` 

मन्वस्पष्टखगात्‌ स्वपातरहितात्‌ क्रान्त्यं्ञकाः केवलात्‌ 

कर्णापनास्तरियमाहता अथ गुरोश्चेल्लोचनाप्ताः दूनः । 

स्वाङ्घ्न यूना असुजोऽडः गुलादिकश्षरः पातोनदिक्‌ स्यादसौ 

त्रिष्नः स्यात्‌ कजिकादिक; स्फध्तरस्तत्संस्छृतश्चापमः ११५ 

मत्लारि :--एवं शीघ्कणं प्रसाष्येदानीं ग्रहाणां ररं साधयति । 
स्वपातरहितात्‌ मन्दस्पष्टग्रहात्‌ । केवलादित्यदत्तायनांशात्‌ क्रान्तिभागाः 
साध्याः । ते त्रियमेस्द्रयोविशत्या भहता: । ततः कर्णेन आप्ता भक्ताः अथ 
गुरोबु हत्पतेस्तह्नि लोचनाभ्यां द्राम्यां भक्ताः कार्याः । असुजौ भौमस्य चेत्‌ तहि 
दयाप्ताः पुनः स्वांच्रिणा ऊनाः सन्तः पातोन ग्रहो यस्मिन्‌ गोले तदि गंगुखादिकशरः 
स्यात्‌ । त्रिगृणः कनादिकः स्थात्‌ । तेन कदिना बाणेन भपमो श्रहक्रान्तिः 
संस्कृता एकान्यदिशो्युक्तोना स्फुटतरा भवतीत्यथः । 


अत्रोपपकत्तिः ---अच्र प्रहाणं प्ताः शरकला+ कशीघ्कर्णाम्रस्थानीयाः । 
रीघ्प्रतिमण्डले हि शोधक्र्णो व्यासार्धम्‌ । एवं शोघ्रप्रतिमण्डठे मन्दस्पष्ट एव ग्रहो 
श्रमति तत्रैवास्य पातः। अतो भन्दस्पष्टात्‌ पातयुनात्‌ शरः साध्य इति युक्तमुक्तम्‌ । 


उकं च सिद्धान्तरिरोमणौ 
मन्दस्फुटो द्राकप्रतिमण्डे हि ग्रहो भ्रमत्यत्र च तस्य बातः। 
पातेन युक्ताद्‌ गणितागतेन मन्दस्फुटात्‌ खेचरतः श रोऽप्मात्‌* \ 


अत्राचार्येण पाताश्चक्रदयुद्धाः कताः । मतः पातरहितादित्युक्तम्‌ । 
अत्रानुपातः--यदि चतुविदा तिमितायां क्न्ती एताः पल्ति्रकरास्तदेष्टायां 
ग्रहुक्रन्तौ का इति। भग्र लाघनबाथं स्वल्पान्तरत्वात्‌ अंगृलादिरशरस्यो- 
पयोमित्वत्‌ सर्वेषां शरः पञ्चरदगखो गृहीतः । एवमिष्टग्रहुक्रान्त्यंशञानां 





"सि शि. गो. अगो. ब. २९१ 


२१८ उद्यास्ताधभिकारः 


पञ्चाशद्गुणः चतुविंशतिहरः । यदि कणग्रि भयं तदा चतुविरातित्रिज्याप्र 
केः । एवं चतुविशरति तुल्ययोगृणहरयोनकि कृते क्रान्तेः पच्चारशद्गृणः कर्णो 
हरः 1 अचरं कर्णो हि भवमितत्रिज्यां भरकटेष्य कृतोऽस्ति । अतोऽन्योऽनुपातः । 
यदि चनुविसतिग्यासार्घेऽयं तदा भवमिते क दति! एवं मवपञ्चाशद्घातो 
गुणः ५५५० । चतुविश्च तिहर: । कर्णोऽपि हरः । अत्र सिद्धौ गुणहरौ हरेणापर्वत्तितौ 
जातो गुणस्व्र योविशतिः । अतः क्रन्त्यशकारसित्रियमाहताः कर्णाप्ता इति । अतर 
बुधशुक्रशनीनां स्वत्पान्तरत्वात्‌ सम एवे गृहीतः । गुरोः पटितक्शरः पञ्चविंशतिः 1 
पञ्चारान्मितः कृतीऽस्त्यतो खोचनाप्ता इति । एवं भौमस्य सप्तत्रिंशत्‌ । अतस्ते 
स्वाद्‌श्रयूना इति । परमात्पशीध्कर्णोऽवमतो द्रचाप्तोऽपि \ कलात्रयेणंकणगुटमत- 
स्वरिघ्नः कलाद्यः स्यां । एवमत्र नाडोमण्डलात्‌ क्रान्तिमण्डलप्थन्तं दक्षिणोत्तरमन्तरं 
क्रान्तिः । क्रान्तिमण्डलाद्‌ग्रहपयन्तं हरः । एवमुभयोः संस्कारे स्पष्टा क्रान्तर्नाडि- 
कामण्डलग्रहुयो रन्तरे भवतौच्युपपन्नम्‌ ॥ १५ 

चन्द्रिका :- मन्दस्पष्ट (भौमादि) ग्रहं में अपने अपने पात घटाकर 
रोष से अयनांश संस्कार विनाही क्रान्ति साधन (पर्वोक्त* रीतिसे) करके 
उपमे २३ का गुणाकर गुणनफल मे अपने-मपने शोघ्कणं काभागदेनेसे 
रन्धि अङ्कुखादि शद होता है । उक्तरोति स साधित बृहस्पति के शरमं 
र्का भाग देनेसे तथा मद्खलके शरम उसीका चतुर्था घटनेसे 
वास्तविक शर होता है । पातोन मन्दस्पष्ट ग्रह जिस गोल का होगा उसी 
दिक्ाकाकश्षर होगा 


रारकोरेसेगुणाकरनेसे कलादिहोतादहै। इस शर का मध्यमा 
क्रान्ति के साथ संस्कार (एक दिदामे योम भिन्न दिशामे अन्तर) 
करने से स्पष्टं ¬ {न्ति होती है । १५ 
उदाहुरण-मङ्कर का पात १।१० बुध का ०।२० मन्दस्पष्ट मङद्खुल 
६।१५।४१।२८ मन्दस्पष्ट बुघ ७।१३।१४।२९ म. स्प. मं. ६।१५।४१।२८ मे 
मदकल का पात १।१० घटाने से हेष ५।५।४१।२८ उत्तर गोल का हुभा । 
रोष ५।५।४१।२८ द्वार! क्रान्ति साधन के लिए भुज बनाया- 
६| ०9] ५। 9 
५। ५।४९।९८ 
०।२४।१८।३२ भुज 


ग्रहृलाघवं करणम्‌ २१९ 


भुजा २७८१८३२ मेँ १० का मागदेने से रुन्धि र प्राप्त हुई अतः 
दूसरे गताङ्कु ८० को एेष्याद्धु ११७ मे घटाकर चयान्तर ३७से भाग देने से 
प्राप्त शेष ४।१८।३२ को गुणाकर गुणनफल १५६।२५।४४ को १० से 
भाग देकर छल्धि १५।५६।३४ को गताङ्कु ८० मे जोड़कर ९५।५६।३४ को 
दक्षसे भाग देने से छन्धि ९।३५।३९ उत्तरा क्रान्ति हुई । इसे २३ से गुणा 
कर (९।३५।३९) > २३ = २२०।३९।५७ गुणनफर को एक जातोय 
(७९४२३९७) बनाकर भौम के शीघ्रकणं १७।२९।४१ के एक जातीय मान 
६२९८१ से भाग देने पर १२।३६।४७ छन्धि धाप्त हई इसमे ४ का भाग 
देकर छल्वि ३।९।८ को १६।३६।४७ से घटाने पर शेष ९।२७।३९ अद्भुलादि 
उत्तर दिशामेभौमका शर हुभा। 


रार ९।२७।३९ को ३ से गुणा किया । २८।२२ कलादि गुणनफल को 
उत्तर करोन्ति ९।३५।३९ मँ ( एक हो दिकश्चाके दोनों है, अतः) जोडनेसे 
१०।३।५१ स्पष्ट क्रान्ति हई । 


इसी प्रकार बुध के परित पात ०।२० में बुधकेन्द्र १०।५।२६।४६ धटाने 
से शोष २।१५।३२।१४ बुध का वास्तविक पात हुभा । पात २।१४।३३।१४ 
को मन्दस्पष्ट बुध ७।१३।१४।२९ से घटाकर पातोन बुध ५४२८।४१।१५ से 
उक्त नियमानुतार क्रान्ति साधन करने से बुध कौ १२।८।४६ उत्तरा क्रान्ति 
हुई। करन्ति १२।८।४६ को २३ से गुणा कर गुणनफल २८९।२१।३८ के एक 
जातीयं मान १०४१६६० में बुघ के शीघ्रकणं १३।४०।५४ के एक जातीय 
मान ४९२५४से भाग देने प्र रन्धि २१।८।५५ बुध्च का अङ्कुलादि 
शर हुभा। पातोन बुध उत्तरगौर का है, अतः शर भी उत्तर 
दिदाका हुआ । 


शर २१।८।५५ को ३ से गृणा करने पर गुणनफल कलादि ६३।२६४५ 
हुआ । ६० से तष्टित करनेसे अंशादि बुध रार २।३।२६।५५। हुआ । 
क्रान्ति ओरक्षरएकंही दिशाके हें, अतः दोनोंका योग करने (उ. क्रां. 
१ २।८।४६ उ. श. १।३।२६ ) = १३।१२।१२ स्पष्टक्रान्ति । 


२२० उदयास्ताधिकारः 


स्फुटग्रहजञाने मन्दस्पष्टग्रहसाधनम्‌-- 
वक्रास्ताद्यं क्िथिपटगतं तटहिनेऽस्योक्त केन्द्रं 
स्यात्‌ तच्चाल्यं त्दमिमतदिने स्वाश्ुकेन््रोक्तगत्या । 
तस्मात्‌ प्राग्वच्चलफञङमिदं चाछितस्पष्टखेटे 
व्यस्तं देयं भदुजफलभाक्‌ स्यात्‌ ततो वा शराद्यम्‌ ॥ १९ 
मल्लारिः -भय पञ्वांगीयं स्फुटग्रहज्ञाने वक्रादिदिन गाने चेष्टदिनस्यमन्द- 
स्पष्टग्रहुयाधनं करोति । तिथिपटे पञ्चांगे गतं वर्तमानं यद्रक्रास्ताद्यं तदिमे तस्य 
ग्रहस्य उक्तकैन्द्र चिनुवैरित्यादिकं स्यात्‌ । तदभिमते ष्टे दिने । स्वद्ीघ्रकेन्दोक्त- 
गत्या गतगम्यद्विनाहतययुभुक्तेरिस्यादिविधिना चालनीयं तस्मात्‌ शोघ्रकेनद्रात्‌ 
पूर्वोक्तरीत्या शीघ्रफले साष्यम्‌ । इदं चाकितस्पष्टग्रहे व्यस्तम्‌ । घनं चैत्‌ तदा 
ऋणं ऋणं चेत्‌ तद्य भ्रनदेयं स ग्रहो मरन्द्पष्टो भवत्ति। तस्माद्वासराचं 


साघ्यमिति । 

अत्रोपपर्तिः -प्रत्यक्षविछोमविधिनेव सुगमा ॥१६ 

चन्दिष्ठा -पञ्चाद्ध मे ग्रहो के वक्रास्तादि का जिस दिन नि्देशहौ 
उसदिन उस ग्रह्‌ की शीघ्नङेन्द्र पठितशीधघ्केन्द्र* के तुत्य ही होगा । उसमें 
अपनी अपनी कैन्द्रगति पे चालन देकर अभीष्ट कालिक हीघ्रकरेन्धका 
सावन कर, तथा पञ्चाद्ुस्थ ग्रहुमें ग्रहगतिका चालन देकेर अभीष्ट 
कालिकं ग्रह्‌ साधन कर पर्वोक्ति विधि से शीघ्रफल का साधने करना 
चाहिये । स्पष्ट ग्रहु मे शीघ्फट का विलोम संस्कार करनेस मन्दक्पष्ट 
ग्रह॒ होगा । पू्क्ति विधि से साधितं मन्दस्पष्ट प्रहु हारा शरदि 
का साधन करना चाहिये । १६ 


दुवकर्माथं नतांशसाघनम्‌ - 
प्राक्‌ त्रिभेण वजतात्‌ संयतात्‌ तु परिचमे । 
देटतोऽपमाक्षयोः संस्कृतिर्नता लदा: । १७ 
मल्छारिः--अथ नतांशान्‌ साधयति प्राक्‌ पूर्वोदयास्तसाधने रारित्रयेण 
हीनात्‌ । पष्षिमोदयास्तसाधने रारित्रयेण युक्तात्‌ स्पश्टात्‌ ग्रहात्‌ क्रान्तिः साष्या 
साक्षः संस्कृता नतां्षाः प्युरित्यथः । {७ 


भैत्रिनृपैः भ्र. छा, ३. १५ 


ग्रहरछाजवं करणम्‌ २२१ 


चन्द्रिका - ग्रहों के पर्वोदयास्त साधन मे ग्रहुसे ३ राणि घटाकर तथा 
पर्चिमोदयास्त साधनम ३ राश्षि जोड़कर सत्रिभ एवं वित्रिभ ग्रहोंके 
द्वारा क्रान्ति साधन कर अक्षांशके साथ संस्कार ( एक दिशामे योग 
भिन्न दिया मे अन्तर ) करने से नतां टोता हं । १७ 

उदाहरण - स्पष्ट बुध ६।२९।३२।३९ 

त 
२।२९।३३।३९ वित्रिभ बुध 

वित्रिमे बुध मे अयनांश २३।३२।३० जोडने रो सायन वित्रिभम बुध 
४।२३।६।९. हुआ । इससे करान्तिसाधन के लिए भुज १।६।५२।५१ बनाया । 
नियमानुसार क्रान्ति १४।२।४२ उत्तर दिला की हई । पृवंसाधित अक्षांश 
२५।२६।४२ दोनों भिन्न दिका के है। अतः दोनो का अन्तर करने सं 
(२५।२६।४२ ~ १४।९।४२) == ११।२४।० नतां दक्षिण दिश्चा का हुआ । 


इसी प्रकार स्पष्ट बुध ६।२९।३३।३९ मे ३ राशि जोड़कर सत्रिभ 
बुध द्वारा नतांश साधन करेगे । सत्रिभ बुध मे अयनांश जोड़कर उक्त- 
विधि से क्रान्ति साधन कर भक्षांशमें संस्कार करने से नतां होगा। 


स्पष्ट शुक्र ७।१८।४५१२ में ३ राशि घटाकर रोष ५।१८।४४८१२ 
दवारा उक्त रीति सो शुक्र का नतांश साधन किया- 


सायनशुक्र ५।१२।१६।४२ भज ०।१७।४३।१८ उत्तर क्रान्ति ७।५।१९, 
दक्षिण अन्लांश २५।२६।४२ भिन्न दिक्षा होने से दोनों का अन्तर करने से 
देष १८।२१।२३ दक्षिण नतां हा । 

द्क्‌कर्मस।धनम्‌ - 

षट शेकाष्टनवारकधुत्यदितिनाः खण्डानि कायं नतां- 

पा सांशनमरूण्डकवयमगनो च्छिष्टशघाताद्य॒तम्‌ । 
आप्त्या रिहृष्छराङः युछहुतं किप्ता प्रहे ता नता- 
किष्टयोः स्व्णसमसिन्नभिन्नदिशि स व्यस्तं परे दृग्प्रहः ॥ १८ 
मल्कारिः अथ दुनकमं प्रापयति । षट्शैका्टनवार्कधुत्यदित्ति्यः । एतानि 
खण्डानि । नतेांशानां यो द्षमांशस्तत्त्‌न्यखण्डानामेक्यं कार्यम्‌ । ततस्तत्‌ अगत- 


१२२ उदयास्ताधिकारः 


खण्डदोषभागष्नाहश्षमांरोन युतम्‌ । शरांगुलगुणितं द्रादक्षभक्त लिप्ता द्क्कर्मकला 
भविन्त । ताः काः स्पष्टे ग्रहे घनं वाणं देयाः । श्षरनतांरायोरेकदिकत्वे घनं 
भिन्नदिकूते ऋणम्‌ । पश्चिमोदयास्तसाधने व्यस्तपिदम्‌ । दुग््रहो दुक्क्मेदत्तो ग्रह 
आकारो दुग्गोचरो भवतीत्यथ: । 

अत्रोपपत्तिः - ग्रहौ यस्मिन्‌ राक्ष्या्यवयवे वतते स॒ क्रान्तिमण्डलस्थो 
राद्याद्यवयवो यदा क्षितिजे उदेति तदवे ग्रहस्य नोदयः । ग्रहस्य विमण्डले- 
ऽत्रस्थितत्वात्‌ । शरतुव्येनान्तरेण ग्रहः क्षि तिजदुन्नमितो नन्तो वा भवति। 
तदन्तरस्य दृ क्क्मसंज्ञा। यतोऽन्वथं नाम दुशःकमं दुक्‌क्मं । तावताऽन्तरेण 
ग्रहो दग्गोचरो भवति तदपि दुक्कमं द्विविधम्‌ । आयनमाक्षजं चेति। 
क्िरोमणौग 

क्रान्तिवृत्त ग्रहुस्यानचिन्हं यदा स्यात्‌ कजे नो तदा खेचरोऽयं यतः । 

स्वेषुणोक्षिप्यते नाम्यते वा कुजात्‌ तेन दुक्कमंखेटोदयास्ते कृतम्‌ ॥ 

नवे बाणः कुजेऽसौ क्दम्बोन्मुखस्तत्समुत्कषेपणं नामनं च द्विधा । 

गायनं चाक्षजं तैन कर्मं तत्प्रपञ्चः पुनः संविविच्योच्यते ॥ 

एवमत च ग्रहादग्रतास्व्रिमेऽन्तरे दुक्कमभः परमलात्‌ पुवस्या त्रिभहीनः 
पश्चिमायां भिभयुक्तः इति तद्ग्रहस्य ततांशज्यातोऽनुपातः । यदि उन्नतज्या- 
कोटी नतज्या भुजस्तदा शरकोटौ क इति दशमागोत्तरान्‌ नततांश्ान्‌ प्रकल्प्य 
तञ्जीवाः स्वस्वोन्नतांगज्या भक्ताः सावयवा भतो द्वादशभिः सत्र्णिताः । अनुपातो 
शरः ककात्मक्ः । अध्रागुरादची गृहीतोऽतः पुनस्त्रिसर्वाणिताः कृत्वा खण्डानि 
पठितानि । तत्र प्रथमे कण्डं प्रतीत्यथं साध्यते। दनतुल्यनतांशानां ज्या २१। 
इयमेव यट्धिशता पर्वाणिता ७५६ उन्नतांश्ञज्ययाऽनया ११८ भक्ता जातमाद्- 
खण्डम्‌ ६ । एवमन्यान्यपि । मध्येऽनुपातः 1 यदि दशभागेरेकं खण्डं तदेष्टमागैः 
किमिति ' फलयुक्तं गतसखण्डेक्यं कार्म॑त्स्य शरो गुणो वत्तते । खण्डानि हादश- 
गुणान्यततो हाद हरः । अतो रविहूत्‌ शरांगुलहतमिति । धनणोपिपत्तियंथा । 
उन्नमिते ऋणं न्नते घनम्‌ । यतेः स्लस्वस्तिकात्‌ क्रान्तिवृत्तस्य यभ्रीन्नमनं 
तद्दिम्परहंस्यापि क्षित्तिजान्नमनं भवतति । तस्माद्धनम्‌ । अन्यदिक्त्वे ऋणमित्यु- 
पपन्नम्‌ । १८ | 

दन्दिका -(द्क्कमं साधनाथं) ६,७ ८,९,१२,१८ ३३ ये खण्ड (पठित) 
है। नतांशमे १० का भाग देकर लन्धि संख्या तुल्य उक्त पठ्ति खण्डो का 
योग कर पृथक्‌ रखे । एष्य संख्या से रोषांश को गुणा छर गुणन फर मे 


नसि. शि. गो. अ. उद. षा. १,२ 


ग्रहलाधवं करणम्‌ २२३ 


१० का भाग देकर ल्न्धिको छ्ोकेयोगमें जोड़कर पुनः अङ्खुखादि 
हारसे गुणा कर गुणनफृरमे १२ का भागदेनेसे रुन्धि कलादि दुक्कमं 
होताहै। नतांश गौरशरकी एकदिशाहोतो ग्रह मे जोडनेसे तथा 
भिन्न दिशा होने पर प्रहु मे घटाने से पूवं दिशा में उदयास्त साधनोपयोगौ 
दग्रह॒ होता है। पश्चिम दिक्षाके उदयास्तज्ञानके लिए दुक्कमं के 
विपरीत संस्कारसे द्ग्ग्रहुहोताहै। १८ 


उदाहरण -- दक्षिण नतांश ११।२५०्मे १०कामभागदेनेसे रन्धि 
१ तथा शेष १।२५।० प्राप्त हुभा । रुन्धि तुल्य प्रथम खण्ड ६ को एक 
स्थानमेरखा। भग्रिम खण्ड७से दोष १।२४।० को गुणा कर गुणनफल 
९।४८० मे पुनः १्काभागदिया। छन्धि ०।५८।४८ को प्रथम खण्ड 
६ मे जोडने से ६।५८.४८ हुभा । इसमे बुध के भङ्गुलादि शर २१।८।५५ 
उभ्से गुणा किथा। गुणनफल १४अ।३७।२ में १२ का भागदेनेसे प्राप्त 
रन्धि १२।१८ फलादि दुक्कमं हज । नतां दक्षिण दिक्ञा का तथा शर 
उत्तर दाका है। अतः दिभेदके कारण ग्रहुमे घटानेमे दुग्ग्रह 
होता है। 

स्पण बुध ६।२९।३३।३९ 


-- १२।१८ 
६।२९।२१।२१ 


इसी प्रकार शुक्र के दक्षिण नतांश १८।२१।३२ मे १० का भाग देकर 
रन्धि तुल्य प्रथम ख्डर्मे अग्रिम खण्ड ऽसे गुणित शेषाश्च ८।२१।२३२के 
दशमांश ५।५१।४ जोड़कर योगफर ११।५१।४ मे शुक्र के उत्तर रार 
६।२*से गुणा कर गुणनफल ७५।३।२५ मै १२फा भाग देने से रुन्धि 
६।१५।२७ टक्कमं हुजा । नतांश भौर शर भिन्न दिक्षा के है, अतः दुक्कमं 
कण हुआ । स्पष्ट शुक्र ७।१८।४४।१२ मे करादि दुक्कमं ६।१५ घटाने से 
७।१८।३७।५७ दुर्ग्रह शुक्र हुआ । 

उदयास्तयौ्गतगम्यकारजानम्‌- 


कल्प्योऽस्पो रविरकदुक्‌खचरयोरन्यश्ख लग्नं तयो- 
मध्ये स्युघंटिकाहच पूर्नवदिमाः पश्चात्‌ स्क्राधंयोः । 


२२४ उदयास्ाधिकारः 


षडध्न्यः कालरवा ममीभिरधिकेगंम्योऽस्त अनेगंतः 
प्रोक्तेम्योऽम्थधिकेगंतः समुदयोऽप्य॒नस्तु गम्यो भवेत्‌ ।। ९ 


मल्लारि-- भथोदयास्तयोः कालज्ञानमाह । व्याख्या । अकः सूर्यः । 
दुकखचरो दुक्कर्मदत्तो ग्रहः) अनयोद्योमंध्ये योऽल्पः स रवि कष्प्यः। 
अधिको लग्नम्‌ । तयो्टग्नाकथोमध्ये भृक्तमोग्यादि विधिना वटिकाः 
साष्याः। पश्चिमोदयास्तसाघने सचक्राघयोः षड्‌ रादियुक्तयोखग्नाकयोघ- 
दिकास्ताः षड्गुणा इष्टकालमागाः स्युः । तंरिष्टकालांशंः पोक्तकालांशेभ्यश्च- 
नद्रशुक्रयोस्तु बक्ष्यमाणसंस्कृतेभ्योऽम्यधिकंरस्तो गम्यः । न्युनगंतः उदयस्तु अधिकं- 
गतो न्युनैगम्यः । 

अत्रोपवत्तिः--प्रत्यक्षसुगमा ॥ १९ 

मङ्घुका--स्पष्ट सूयं भौर द्म्ग्रहुमेजो अल्पहो, उसे सूर्यं तथा 
अग्रिम राशियोंमेंजोग्रहही, उसे खगन कल्पना कर्के इषट्वटी साधन 
विधि. से दोनों की अन्तरघटी साधन कर ६से गुणा करने पर गुणनफर 
अन्तरांश होता है। अन्तरांश यदि उक्त कालांशसे अधिकं हो तो भस्त 


गम्य एव अल्प हो तो भस्तगत होता है। इसी प्रकार कालाश्च से अन्तरा 
अधिको तो उदथ गत, अल्पहो तो उदय गम्यहोतादह। १९ 


उदाहुरण- स्प. सूयं ७।१२।२५।२१, दुम्ग्रह॒ बुध ६।२९।२१।२१ दुग््रहु 
बुध राइ्यादिमे सयेसे अल्पहै, अतः इसे तथा स्पष्ट सयं को लग्न 
मानकर अकभोग्यस्तनोर्भृक्तकालान्वितो इत्यादि नियमानुसार कल्पित सूयं 
६।२९।२१।२१ मे अयनांशा २३।३२।३० जोड़कर ७।२२।५३।५१ को सायनं 
सूयं मानकर ८१।४०।४२ भोग्धकार सिद्ध किया । इसी प्रकार कल्पित 
लग्न ७।१२।३५।३१ मे अयनांश जोड़कर सायनं चर्गन ८,६।८।१ द्वारा 
६९।५५।२३ भुक्तटाल साघन कर दोनों ( भुक्तकाल एवं भोग्यकाल } कं 
थोग १५।३६।६मे ध्ण्क्रा भाग देनेसे ( १५६० ) == २।३१ ्व्वि 
ईध्धटी हद । इय ६ ते गुणा करने पर गुणनफल १५।६ दृष्ट अन्तरांश 
हआ । संस्कार २१ वे रलोकं के अनुसार । 


प्रहलाघवे २२१ 


इसी प्रकार स्प. सू. ७।१२,३५।३१, स्प. शुक्र दुगग्रह॒ ७।१८।३७।५८ 
पहा दोनों ही एक ही राक्लिमें है, अतः राश्यादिमेंसाम्यहोते हुए भी 
अंशादि शुक्र अगे है, अग्रस्थ शुक्र को लग्न मानकर “यदि तनुदिननाथा- 
वेक राशौ” इत्यादि रीति से दोनों को सायन बनाकर अन्तर करने से शेष 
६।२।२७ को वृिचक के उदयमान ३४२ से गुणा कर गुणनफ २०६५ 
५७।५४ मे ३०्काभागदेने ते रुन्धि ६८ प्राप्त हुई । इसे ६० से तष्टित 
करने पर १।८ इष्टवटी तथा इसे ६्से गुणा करने पर ६।४८ अन्तरांश 
हुभा ॥१९ 


चन्द्रशुक्रयो स्दयास्तान्तरांशसाधनम्‌ -- 
स्यात्‌ खाश्रागन्युदयान्तरं भविहूतं स्वर्णं पुथूनोदये 
यत्‌ ततुसंस्छृतद्‌ ष्टिकमंलवतः प्रणांजसस्कारिताः । 
पर्वक्ता भृगुचन््रयोः क्षणलव¶ः स्पष्टा भुगोऽचोनिता 
द्रास्यां तैरुदयास्तद्ष्टिसमता स्याल्छलितेषा मथा ॥२० 


मल्लारि--अथ चन्द्रशृक्रयोरुदयास्तयोरन्तरमाह । शतत्रयस्योदयम्य च 


यदन्तरं तद्‌ भः सप्तविश्षत्या विहृतं भक्तं सत्‌ यत्‌ फलं स्यान्‌ तत्‌ 
फलं शात्रयादधिके उदये धनमूने त्णम्‌ । अनेन मागादि कलेन 
सस्कृतद्क्‌कर्मभागेम्यो यः प्राणांश्चः पञ्चमभागस्तेन पूर्वोक्ता नवद्वादशमिताः 
शुक्रचन्द्रयोः कालाक्ाः संस्कृता धनर्णत्वेन स्पष्टाः स्युः । भृगोः शुक्रस्य हाभ्यां 
च हीनाः कार्याः। तेः किः शुकचन््रयोरुदयास्तदष्टिस्रमता स्यात्‌ । एषा 
मघ्रा चलिता वतंसानवरटतापव्रङाक्प ज्ञात्ताऽत्रातो मलोपञन्धिरेव वासनेति 
सिद्धम्‌ ॥२० 

चन्द्रिका पायन शुक्र या सायन चन्द्र जित रा्िपर हौ, उष 
राल्लि के स्वदेक्षीयोदय पल तथा ३०० के अन्तरमें रेऽका भाग देनेसे 
प्राप्त रन्धि का दुक्कमं में संस्कार करे । यदि उदय पल ३०० से भधिक 
हो तो धन, भल्पहो तो छण समन्नना चाहिये | ( उक्त छन्धि से ) संस्कृत 
दुक्कमं के पञ्चमा का शुक्र तथा चन्द्रके पटित का्खाशमें संस्कार 
करनेसे स्पष्ट अन्तरांश होता है। शुक्रके अन्तर्राश (कलांश) मे 

१५-प्रहु° 


२२६ उदयास्वाधिकारः 


२ घटाने से वास्तविक कालश होता है। ( गणेश देवन्ञनेकहाहैकि) 
इन संस्कारोंसे संस्छृत कालांगसे हौ दुक्तुल्यता होती है, एमा रमन 
देखा है । २० 

उदाहरण - स्पष्ट शुक ७।१८।४४।१२ में अयनांश २३,३२।३ ' जोड़कर 
सायन शुक्र ८।१२।१६।४२ क स्वदेशोय उदयप (धनु) ३४२ मे ३०० को 
घटाकरलशेष श्रमे २ेऽका भाग दिया। छन्धि १।३३।२० प्राप्त हु । 
उदयपल ३०० से अधिक है, अतः कन्धि घनात्मक हई । पूवंसाधित 
दुक्कमं-६।१५ ऋणात्मक है । दोनों का अन्तर करने से दोष १।२७।५ 
धनात्मक रहा । इसमे ५ का भाग देकर कन्धि ०।१७ को शुक्र के पर्ति 
कालांश मे जोडने से ९।१७ कालांश हज । नियमानुसार २ घटाने से दाष 
७।१७ वास्तविक कालां सिद्ध हुभा ॥२० 


अन्तरांशेभ्यो दिवेसानयनम्‌-- 
खाश्नाग्निभिविनिहताः कयथितेष्टकाल- 
भागान्तरस्य कलिका रविभोदयाप्ताः । 
तत्सप्तमेन परतोऽथ जवान्तराप्ना 
योगेन वक्किणि दिनान्युदयास्तयोः स्थुः \\२१ 
मल्ला रिः --मथ दिवसानयनम्‌ । कथिताः पूर्वोक्ताः इष्टाः । ददानीमानीता 
ये कालांशास्तेषां यदन्तरं तध्य कला खाभ्राग्निभिः ३०० विनिहताः शत- 
त्रयगुणाः । ततो रविभोदयेन पूर्याधिष्ठितरान्ेः स्वदेशोदयेन मक्ताः। परतः 
पश्चिमोदयास्तसाधने तत्पप्तमोदयास्तप्ाघने तत्सप्तमोदयेन भक्ताः कार्याः । 
ततो जवान्तरेण रविग्रहगस्यन्तरेण भक्ताः। वक्रिणि ग्रह गतियोगेन भक्ताः सन्त 
उदयाः्तयोदिनानि स्युरिव्य्थः । 
अश्रोपपत्तिः -- यदि उदयासुभो राचि केला १८०० छम्यन्ते तदा कालां शान्त 
रकलातुट्यासुभिः किम्‌ । एवं काठांशान्तरकलानामष्टादशशतं गुणः । उदयासनो 
हरः । अत्रोदयपलानि सन्त्यतोऽन्यः षड हरः । एवं गुणे षड्‌ भक्ते जातस्त्रिशतीगुणः 
अत उक्तं खाश्राग्निमितिनिहता इति । पश्चिमायां सप्तमोदयादनुपातः । यदि 
गत्यन्तरकलाभिरेकं दिनं तदाभिः किमित्यतो जवान्तराक्ता इति । वरक्रिणी मत्तियोगं 
विनान्तरं न सिध्यत । अतो गति योगाप्ता इति 1 एवमुदयास्तदिनानि स्युरिव्यु- 
पपन्नम्‌ ॥ २१ 


ग्रहलाधवे २२७ 


चन्द्रिका -पठितका्छांश्ञ तथा दुष्टान्तरांश के भन्तरकलाको ३०१से 
गृणाक्रर गुणनफ मे सायन सूयं जिस राशि पर हो, उस राशि के उदय- 
मानसे माग देकर कृखादि लन्धिकोसूयं भौर दुम्ग्रहु को गत्यन्तर 
कासे पुनः भागदेनेसे प्राप्त लन्वि पूर्बोदयास्त के दिनादि होरे है । उक्त 
गुणनफल को सूयं से सक्षम राशि के उदयमानसे भाग देने पर पदिचम 
दिशा के उदयास्त दिनादि सिद्ध होते ह| एवमेव वक्रो ग्रहदहो तो सूयं 
ओर प्रहुके गतियोगसे भाग देनेसे उदयास्त के गत-गम्य दिनादि 
हग ॥ २१ 


उदाहरण--शुक्र का संस्कृत पटित अन्तरांश ७।१७ मे पुवं साधित 
इष्ट कार्ल ६।४८ घटाकर शेष ०।२९। इसे ३०० से गुणाकर गुणनफङ 
८७०० म सूयंको वनंमान राशि वृश्चिक के उदयमान ३४५ से भाग 
देने से रन्धि २५।१३।२ प्राप्त हुई । सूयं गति ६०।५२३ को शुक्र गति ७५॥ 
४१ मे घटानेसे शेष १४/४८ को विकला ८८८ से छन्धि को विकला 
१५१३।२ मे भागदेनेसे रुन्धि १।४२।१३ दिनादि मान प्राप्त हुआ । 

भर्थात्‌ इष्ट दिन स एक दिन ४२ घटी १२३ पल पहर ही शु पूवं 
दिश्षामेअस्तहो चुक्रा था ॥२१ 


अगस्तोदयास्तकालनानम्‌ - 

पलमाश्ववोनसंयुता गजक्ेला वधुखेचरा कवा । 

इहं तावति भास्करे क्रमाद्‌घटजोऽस्तं हयश्य च गच्छति \ २२ 

मल्लारि :--अथागस्त्योदयास्तज्ञानमाह । अक्षमा अष्टगुणा भागाः 
स्युस्त मगिगंजशेला अष्टसप्ततिः | अना रहिता । वसुखेचरा अष्टनवतिः | 
युक्त कार्या । तत्समे सूर्ये सति क्रमाद्‌ बेटजोऽस्त्यः । अस्तमुदयं च गच्छति 
त्यथ: । 

अघ्रोपपति : --अगस्त्यघ्रुवः सप्ताश्छोति भागा ञायनदृक्कमंसंस्छृताः । 
तथास्य कालांशा द्वादश १२ एतेषां क्षेत्रांशा एकादश्च सप्ताशीत्यक्तेषु 
युक्ताः ९८ । एतन्मिते सूर्ये उदयः । अस्ते व्यस्तायनद्‌क्कर्मसंस्छृता धुवभागाः 
८९ क्षेत्रशैः ११ ऊना जाताः ७८। एतन्मते सूरयेऽस्वः। इदं निरक्षे । 


२२८ उदयास्ताधिकारः 


साक्ष तु अक्षदुक॑कमकत्त्‌ युज्यते शरस्य महेत्वात्‌ । मख्यकत्पेन स्फुटास्फुट- 
क्रान्तिजयोश्चरार्धयोरित्यादिविधिना एकांगुराक्षभाया अष्टौ मागां उत्पद्यन्ते 1 
ततोऽनु पातः 1 यद्येकागुटपल्मया बगष्टौ भागास्तदेष्टपलभया किमिति 
अक्षभाया अष्टौ गुणः । रूपं हरः । अतः परभाष्टवधोनसंयुता इत्याद्युपपन्नम्‌ । 
अत्रानुषातस्याप्राप्तौ प्राप्तिः कृता तेन षट्ूपलभपयन्ं स्वल्पान्तरमग्र 
वह्वन्तरम्‌ ॥२२ 

चन्द्रिका--भठ से गुणित परूमाको ७८ अशमे घटनिमे जो दोष 
बचे, उतने अंश के सूयं होने पर तब अगस्त्य तारा अस्त हीतादहैएव 
भाठ से गुणित पल्भाको ९८ में जोडनेसेजी हो, उतने अंरा परसूय॑ही 
तो अगस्त्य उदयदहोताटहै।। २२ 

उदाहरण - परभा ५।४५ >८ <== ४६।० ७८ - ४६३२ अंश शेष । 

अर्थात्‌ १।२ राह्यादि सूयं हो तो अगस्त अस्तत्लेगा । तथा 

९८ + ४६१४४ अर 

राश्यादि ४२४ सूयं प्र अगस्त्य उदय होमा । 
ग्रहाणां निर्योदयास्तकालन्ञानम्‌ -- 
खेच रोऽकस्तफारे सषडभाकतो योऽधिक्तोऽल्पोऽकंतो निहयुदेतोह सः । 
अस्तमेत्यच्यथा यो विधेयः क्रमात्‌ पूर्दपश्चात्स्थदुद्कमभाक्‌ स ग्रहः ॥२५ 

मल्लारिः- अथ ग्रहस्य नित्योदयास्तञ्जानमाह्‌ । पूर्यास्तिकाठे यो ग्रहः 
सषड्मसूर्यादधिकः । मथ वा केवरात्‌ सूर्याद्‌नः स निष्युदेतीति । अन्यथाऽ- 
स्तमेति । अथो स ग्रहः क्रमेण पूरवपर्चातुस्थद्क्कर्मभाग्‌ विधेय इति । 

भक्रोपपत्तिः--ग्रहोदये श्रहुतुल्यं लगन सूर्या्ति सषडभाकतुल्यमुदयरग्नम्‌ । 
केवलाकतुत्यमस्तलग्नम्‌ । अतः सषड्भार्कादुग्रहेऽधिके रात्रौ म्रहस्योदयः। 
केवलार्कादुने भस्त इति प्रत्यक्षम्‌ । उ दथास्तयोः कालज्ञानार्थं दुक्कमंसस्कृतो ब्रहः 
कार्यः ॥।२३ 

चन्द्रिका सूर्यास्त के समय जो भ्रह॒ छः रारियुक्त सू्यसे अधिकहां 
भथवा केवर स्पष्ट सूयं से अल होंततोवेरत्रिमे उदय होतेह । अन्यथा 
सर विपरीत स्थिति मे अस्त होते है । अर्थात्‌ यदि कोर ग्रह्‌ ९ राशियुक्त 


ग्रहुलाघवे २२९ 


सूयसे अञहोया स्ट सूयसे अधिक्रहौतो वह रात्रिम अस्व होता 
रै । उदयास्त ज्ञान के लिए पूवं था पश्चिम दुक्कमंका संस्कार करना 
चाहिये ।। २३ 


उदाहरण -! जून, १९७६ ई० संवत्‌ २०३३ शक १८९८ ज्येष्ठ णुक्ल 
३ भोमवार को अक्षांश्च ३३।४४ देशान्तर ७६।५२ का अस्तकालिक पूयं 
१।१७।३९।५५. सूर्यास्तकाल मे स्पष्ट श्नि ३।६।५।३० छः रारियुक्त सूयं 
७।१७।३९।५५ स्पृष्ट शनि केव स्ट सूय से अधिक है, इसकिए शनि 
रात्रिम अस्तदहोगा। 


उदयास्त काल ज्ञान हतु पूर्वोक्त राति से दुक्कमं संस्कार का ज्ञान 
कृर ग्रहुमे संस्कार करगे। 
उदयास्तकाठे रात्रिगतकालनानम्‌-- 
उद्गमे वातकालः खगात्‌ त्वस्तक्रे षडमयुक्तात्‌ सषड्भाकमोग्यान्वितः । 
धुक्तमध्योदयोऽस्योद्गभास्ते भदेद्‌रात्रियातोऽथ तत्कालखेटात्‌ स्फुटः \\ २४ 

मलत्छारिः--अथोदयास्तकाले रात्रिगतधटि काज्ञानमाह । उदये सति प्रहाद्‌ 
भृक्तः कालः साध्यः । भस्ते च षड्‌ भयुक्तात्‌ ग्रहाद्‌ यात एव कालः साष्यः। 
सषड्भसूर्याप्तकाेन युक्तः। ततो मध्योदययुक्तः कार्यः! एतावान्‌ कारौ 
ग्रहस्योदये अस्ते च रानेर्गगो भवक्ति। तातस्कालिकाद्‌द्ककर्मादि विधाय स कालः 
पुनः साध्यः स्पष्टः स्यादिव्यथः। 

भत्रोपपत्तिः - पूर्वभ्रतिपादितैव ।।२४ 

चन्द्रिका -उदयकालमे प्रह का शरुक्तकाल साधित कर तथा भस्त- 
काल में ग्रहुमे ६ राशि जोड़कर उससे भृक्तकाल साधित कर £ राशियुक्त 
भूयं के भोग्यकाल मेँ जोड़कर मध्यस्थ राशियों के उदयमान जोड़ने से 
उदयास्त को रात्रिगत घटी होती है। तात्कालिक दुग्ग्रहु द्वारा साधित 
काल स्पष्ट होतादै।॥ २. 

उदाहरण-- कल्पना किया कि म्ल रात्रिम उदय हुआ है। 
सूर्यास्तकालिक द्गप्रह मङ्खल ३।६।५।३० है तथा स्पष्ट सूयं ११७१।३९।५५ 


२३० उदयास्ताधिकारः 


है । श्लोकोक्त नियमानुसार मद्धल के शरक्तांश ६।५।३० में ककं के उदय- 
मान ३४२ से गुणा कर गुणनफल २०८३।२१ मे ३० का भाग दिया। 
लन्वि ६९।२६ भोम का भूक्तकाल हुभा । इसी प्रकार सूयंमे ६ रारि 
जोड़कर ७।१७।३९।५५ द्वारा भोग्यकाल १४१।५० साधित किया । दोनों के 
योग २११।१६ मे पध्यस्थ राशियों के उदयमान ३४५।३३५ तथा ३३५ को 
जोड़ने से १२२६।१६ हुभा । इसमे ६० का भाग देने से लब्धि २०।२६ 
रात्निगत काल हुमा रात्रिगत काल से चालित ( तात्कालिक } ग्रह्‌ 
द्वारा उक्त रोति से साधित काल स्पष्ट काल होगा । 
चन्द्रं वंशिष्टयम्‌-- 

इन्दोस्तु गोपलाढद्योनः कार्योऽथ प्रतिनाडिकम्‌ । 

युतो हिद्धिपटैः स्पष्ट, कि स्यात्‌ तात्कालिकेन्दुना ॥ २५ 

मल्लारिः--चन्द्रस्यासकृत्प्रकाराथं विशेषं वदति । चन्द्रस्य स कालश्चेद्गोपरै- 

नवपलैः । उदयेऽत्ते क्रमेण भाघ्य ऊनः कायः । प्रतिघटिकं परदयेन युक्तः । 
द्िगुणघटीतुल्यैः पचयुंक्तः स्पष्टः काठः स्यात्‌ । तात्काकिकचन्द्रात्‌ पुनः कालः 
साष्य इति प्रयासेन कि प्रयोजनमिति । अ्रोपलन्धिरेव वासना ।। २५ 


देवज्ञव्यस्य दिवाकरस्य सुतेन मल्लारिसमाह्येन । 
वृत्तौ कृतायां ग्रहखाघवस्य खगोदयास्तानयनं समाप्तम्‌ ॥ 


ति श्रीगणेश्दैवज्ञविरचितस्य ग्रहकाघवस्य टीकायां 
मल्ला रिदैवनज्ञविरचितायामुदयास्ताधकारो नवमः ॥९ 

चन्द्रिका - चन्द्रमा कै उदथकाल मे ९ परु जोडना तथा अस्तकार मेँ 
९ पल घटाना चाहिये । इसके अतिरिक्त प्रत्येक नाडी मे २-२ पल 
जोडने से स्पष्ट काल होता है । तात्कालिक चन्द्रमा बनाने का कोद लाभं 
नहीं है ॥ २५ 

श्रीगणेरादेवज्ञविरचित ग्रहुखाधव कै उदयास्ताधिकारकी 
चन्द्रिका नामक सोदाहुरण हिन्दी व्याख्या सम्पण ।। ९ 


छायाधिकारः--१० 


ग्रहाणां द्श्यादुश्यत्वज्ञानम्‌ -- 
प्राग्दुष्टिकमंखचरस्तनुतोऽल्पकोऽस्तात्‌ 
पुष्टश्च दुय इह खेचरभोभ्यकारः ! 
लग्नेन युक्‌ च विवरोदययुग्युयातः 
स्यात्‌ खेचरस्य सितगोयं {दि गोपलोनः \\१ 
मल्कछारिः--अथ ग्रहच्छायाधिकारो व्याख्यायते । दत्तपूवंद्‌ क्कर्मा ग्रह॒ इष्ट- 
कालीनखग्नायदाऽत्पोऽस्तात्‌ सप्तमरगनाद्याऽधिकः स्यात्‌ तदा तत्समये ्रहो दृद्यः । 
द्टेष्टकाले ग्रहस्य भोग्यकालः । तनुमुक्तयुक्‌ मध्योदययुक्‌ च कायं । ग्रहस्योदयाद्‌ 
य॒यातकालः स्यात्‌ । चन्द्रस्य चेद्‌ ताहि नत्षलोनः कायः । १ 


अत्रोपपत्तिरतिसुगम। ॥ १ 
चन्द्रिका --पूर्वोक्त दुक्कमं से संस्कत प्रहु यदि इष्ट कालिक छ्ग्नसे 
अल्प हो तथा सप्तम रग्न से अधिकहो तो तत्काल ( इष्ट समयमे) ग्रह्‌ 
दुर्य होगा । इष्टकारु मे दृक्‌ सिद्ध प्रहु के भोग्यकारुमे छग्न के भुक्त 
काल को जौडकृर मध्यस्थ रारियों के उदयपल जोड़ने से दिनमेग्रहुका 
गतकाल होता है। यदि चन्द्रमाका भभीष्ट्होतो दिनगत कारूमें 
९ पल घटाने से वास्तविकं गतकार होता है| 
उदाहरण--रात्रिमे प्रहु के दुश्यादुश्यत्व ज्ञान एवं दिनगत घटी 
साधन-मौदयिकं स्पष्टसूयं ०।२२।४४।४९ गति ५७।५८ ओदयिक स्पष्ट 
न्मः ४१।७६२३ गति ८१९१९ दिनमान ३२।२२९ इष्टधवटदी ४२।२६ 
इष्टका लिक सूयं ०।२२।२५।४८ इष्टकालिक चन्द्र ४।१०।४६।३९। दुक्कमं 
कला, द १६।४ ऋणात्मक । दुक्कमं संस्कृत चन्द्रमा ४।१०।२९।५०। दिन- 
मान को इष्टवटो मे घटने से ४२।४६-२।२१ = १०।० रात्रिगत घटी 
र| इसे इष्ट मानकर साधित लग्न ८।१६।२०२२ अस्तकालिक खगन 


२३२ छरायाधिकारः 


२।१६।२४२२ दुक्कमं संस्कृत चन्द्रमा ४।१०।२९।५० लग्नसे अल्प है 
तथा अस्तक्गन से अधिक है, अतः इष्टका मे चन्द्रमा दुह्य होगा। 
दुक्कमं संस्कत चन्द्रमा में अयनांश जोड़कर उपसे साधित भोग्यकाल 
१५ मे सायनल्गनसे आनीत भृक्तकाल ४६ जोडनेसे ६१ हुभा। 
ग्रह॒ ओर च्गन के मभ्य में स्थित कन्या, तुला, वृश्चिक तथा 
धनं के उदयमानो का योग ३३५ + ३३५ + ३४५. + ३८२ १३५७ 
पूवं योग ६१ मे जोड़ने से १४८ हुभा । इसमे ६० का भागदेनेसे २३ 
३८ प्रहु का दिन गत काल हृभा। ईस्मे र पल घटाने स २३।२२ प्रह 
( चन्द्रमा , का स्पष्ट दिनगत कार हुआ । 


ग्रहाणां छयासाधनम्‌- 
जिनाप्रोऽक्नाभाध्नोऽङःगरमयश्ञरोऽनेन तु चरं 
स्फुटं सस्छृत्यातो दिनमथ खगस्य दय विगतात्‌ 1 
प्रभाद्यं संिष्येदथ खचरभदेनिक्गि गतं 
वरवेऽयारादीनां धृतिपरिगमं यन्त्रवशतः।; २ 


मल्लारिः--अथ ग्रहच्छायासावनमाह । अद्ुलादिक्रः शरः पलभागुणश्चतु- 
विद्तिभक्तः कायः । अनेन पलात्मकफलेन ग्रहात्‌ सूर्यवत्‌ साधितचरेः शरचरे- 
कान्यगोरे युक्तोनं स्फुटं स्यात्‌ । अश्च राहिनिमनं साध्यम्‌ । अथ ग्रहस्य युगत- 
कालात्‌ सु्यंवत्‌ छाया साध्यम्‌ । एवं तावद्‌ विज्ञाते रात्रि गते ग्रहस्य दयुगतमानीय 
छायाद्यं साधितम्‌ । इदानौं दष्टच्छायादयु ¶तद्वारेण वक्ष्यमाणरीत्या रात्रिगतं 
साघ्यमित्याह । अथेति लचरमादग्रहप्य छायादितो यन्त्रभागेभ्यो निशिगवं राति- 
गतघटिकादिक स्यात्‌ । कथं पुनः भ्रमादिज्ञानं स्यादित्यत भह । त्रुवं इति । 
सारादीनां भौमादीनां चुतिपरिगमं छायाज्ञानं यन्त्रदकश्षतो षरूवे वक्ष्यमाणरीत्या इति । 


भत्रोपवत्तिः--अत्र चरं शरणखष्छुतस्पष्टक्रान्तितः साघ्यम्‌ । तत्‌ केवलक्रान्नितः 
एव ण्डकः साधितम्‌ ¦ अतो हि मध्यस्ाष्टक्नान्त्योरन्तरं शर्‌ एव । तस्माज्चरं 
साध्यम्‌ तत्‌ पूरवचरं संरका्मी स्पष्टक्रान्तितः कृतं चरं भविष्यति । अतीऽनुपातः । 
यदि द्वादश्कोटौ पलभा भुजस्तदा शरतुल्यक्रान्तिकोटौ के इति । अव्र 
शरोऽद्रुराद्योऽतः कालां त्रयं गुणः एव जाताः कलाः । तावन्त एनासचः । ते 
षडमवताः पलानि । एवं शरस्य द्वदशपडघातो हट: ७२ । त्रयं गुणः ३। गुणहरो 


ग्रहखाघवे २३३ 


गुणेनापवतितौ जातो हरश्चतुविशतिः । पलमागुणोऽस्त्येव । भतो भिनाप्त 


इत्यादुपपन्नम्‌ ॥ २ 


चन्द्रिका-मङ्खुलात्मक शरको पलभासे गुणाकर गुणनकलमें 
२४्से भाग देकर ख्न्धिकोक्शर भौरचरकौी एक दिशा होने परचरमें 
जोड़ने तथा भिन्न दिशा मे घटाने से स्पष्ट चर होता है। इससे दिनमान 
साधित कर ग्रहो के दिनगत कारुका साधन किया जाता है । दिनगत 
कारुसे छाया आदि का सावन होता है। छया मौर दिनगतसे 
रात्रिगत काल काज्ञान होताहै। इयकरे मनन्तर यन्त्रद्वारा छायाज्ञान 
बतलाता हूं ॥२ 


उबाहूरण - पूर्वोक्त विधि से दुक्कमं संस्कृत चन्द्रमा से साधित चर 
५९ उत्तर दिशाका है। उत्तर दिशाकाहौ अङ्कुलादि शर ६५।४४ है। 
पलमा ५.४५ को शार ६५।४४ से गुणा केर गुणनफल ६७अ।५८ मे र्का 
भाग देने से लन्धि १५१४४ फल हुआ । दोनों हौ उत्तर दिशा के है, भतः 
चर फर ५९ में १५।४४ को जोडने से ७४।४४ स्पष्ट चर हु जा । इससे 
३२।२८ दिनमान प्राप्त हुभा । पूवं साधित प्रहु के दिनि गतकारसे छाया 
भादि का ज्ञान करना चाहिये । 


यन्त्र हारा छयाज्ञान वेध यन्तर द्वारा यन्त्रांश ज्ञात कर उसे 
करण, तथा कणं से छाया का ज्ञान होता है | यथा-- 


यन्त्र दारा प्राप्त गतकारु २३।२९ दिनमान मे घटाने से (३२।२८- 
२३।२९ == ८।५९ शेष उन्नत काल हुआ, इसे दिनाधं १६।१४ में घटाने से 
दोष पङ्चिम नत ५।१५ हुआ । पलकणै १३।१८ स्पष्ट चर ७४।४४ इनके 
दारा ्रहलाघवं ४।८ को रीतिसे साधित हार १२८।५६, सम ३०।१ 
अभीष्ट हर ७।२५, भज्य ११७।५५, भद्भुलादि कणं १५।५३ जभीष्ट 
छाया १०।२४। 


२३४ छायाधिकारः 


प्रकारान्तरेण छायाज्ञानम्‌ -- 

पर्येज्जरादौ प्रतिविम्बितं वा खेटं दृ्णौच्च्यं गणयेर्च रम्बम्‌ । 

तल्लम्बपातप्रतिविम्बमध्यं दगौच्च्यहूत्‌ सुहुतं भ्रभा स्यात्‌ \३ 

मल्लारिः-- प्रतिज्ञातां छायां धीयन्त्रेणाह । जलाषर्णादौ ग्रहं प्रतिविम्बतं 
पश्येत्‌ । दुगौच्च्यमित । भूतलात्‌ दुक्पयंन्तं छम्बं गणयेत्‌ । एवं लम्बपातप्रति- 
पिम्बान्तरमप्यङ्कलादि गणनीयम्‌ 1 तत्‌ सुयंहतं द्वादशगुणं दुगौच्च्येना द्लखादिकेन 
भक्तं प्रहस्य छया स्यात्‌ । प्रतिविम्बितं केति वा श्षब्देन तुरीयादियन्त्र- 
विद्धग्रहोन्नताजेभ्यो यन्त्रखवोत्यक्रान्तिखिवाप्ता इत्यनेन कणं प्रतिसाध्य तततः कर्णाकि- 
वर्गविवरात्‌ पदमिष्टमेति छायां साधयेदिति विध्यन्तरं सूचयति । 


अघ्रोपपत्तिः ` - एकानुगातेन । यदि दृगौच्च्यतुल्यायां कोटौ लम्बपातप्रति- 
विम्बान्तरमूरभृजस्तदा द्वादशकोटौ केति छाया स्यादेवेति सुगमा ।। ३ 


चन्द्िका-जर मे प्रतिविम्बित प्रहुकौ छाया देखकर दृष्टि स्थानसे 
ग्रहुकी दिक्लामे भूतल पर लम्ब डालकर लम्बमूर भौर विम्बान्तरकछी 
अद्ुलादि दूरोको रसि गुणा कर गुगनफल मं दगुश्चति मानसे भाग 
देने पर रुन्धि छाया होती है ॥ ३ 
ग्रहाणां धुगतकालन्ञानम्‌-- 
ज्ञात्वाऽनुमाना्निशि यातनाडीस्तत्काल्खेटात्‌ कथितैश्चराघ्यः । 
ृष्टप्रभादेचयुगतो ग्रहस्य साध्यरित्वहेन्दोयंदि गोपलाढच. 11 ४ 
मल्लारिः-अथ ब्रहस्य द्युगतकालसाधनं वदति । अनुमानात्‌ स्थूलत्वेन रात्रौ 


गतघटोर्जात्वा तात्कालिक्ग्रहात्‌ कथितस्पष्टचरादेदुष्टच्छायादितश्च प्रहस्य सूयंवद्‌- 
दुणतः काठः साघ्यः । चन्द्रस्य चेद्‌ तहि नवपलान्वितः कार्यः । 


अत्रोपपत्तिः --प्रतयक्षसुगता ॥ ४ 

चद्दरिका-राप्रिकी गतघटीका ज्ञान अनुमान द्वारा करके इष्ट 
कालिक ग्रह्‌ द्वारा चर, छाया आदिक सहयोग से पूर्वोक्त विधिसे सूयंकी 
तरह हो ग्रहो क दिनगत काल का साधन करना चाहिये | यदि चन्द्रका 
साधन करनाहो तो साधित दिनपतत कालम < पर जोडने से वास्तविक 
गतकाल होगा || ४ 


ग्रहुलाधवे २३५. 


उदाहरण--कल्पना किया कि रात्रि गतघटो १०।० स्पष्ट चर्‌ ७४1 
४४, दिनमान ३२,२८ तथा १०।२४ उन सभी के सहयोग से तिप्रष्नाधि- 
कारके श्टोक संख्या १० के अनुसार विलोम विधिसे द्युगत कालका 
साधन किया-- 


छाया १०।२४कैे १८।९।२६मे रका वगं १४४जोडकर वगंमूर छने से 
१५।५३ कणं हुआ । भाज्य ११७५५ मे कणं १५।५३ को एक जातीय करके 
भाग देने से रन्धि ७।२५ अभोष्ट हार हुजा । भभीष्ट हार भौर छायाकणं 
द्वारा साधित पश्चिमनत ७।१५ को दिनाधं १६।१४ मे जोडने से २३।२९ 
दिनगत काल हुभा | यदि चन्द्रमाकाहौ तो ९ परल जोड़ने से २३।२९ + 
०।९. = २३।३८ दिनगत काठ हुआ । 


ग्रहोदये दिनरोष रात्रिगतकालज्ञानम्‌-- 

प्राग्द्कं वराङ्कभाढचचभान्वोरल्योऽकस्त्वपरस्तनुस्तदन्तः। 

कालः स खगोदये द्यक्नेषोरात्रीतः कमो प्रहेऽल्पयु षे ॥ ५ 

मल्लारिः-अथ ग्रहोदय दिनक्षेषरात्रिगतकालं साघयति ! पूवंदृक्कम- 
दत्तग्रहसषडभसुयंयोमध्ये अल्पो रविः । अन्यल्लग्नम्‌ । एतदन्तरे यः कालः सं 
ग्रहोदयसमये चुरोषोऽय वा रात्रीतः स्यात्‌ क्रमशः इति । ग्रहे सषड्मसूर्यादिल्पे 
दुशेषम्‌ । अधिके रात्रीतः स्यादित्यथ: ॥५ 

चन्द्रिका पूर्वोक्त दुक्कमं संस्कृत ग्रह तथा छः राशियुक्त स्पष्ट 
सूयंमे जो भत्पहो, उसे सूयं कल्पना कर तथा जो भधिकदहो, उसे लग्न 
मानकर इष्ट घटो साधन करना चाहिये । यदि छः रारियुक्त सूयं 
दगग्रह से अल्पहो तो इष्ट घटी तुल्य दिन दोष तथा सूयं दुग्ग्रहु से अधिक 
होतो रात्रिगत घटी होतीहै।५ 

उदाहूरण--दक्कमं संस्कृत चन्द्रमा ४।१०।२९।५० छः राशियुक्त सयं 
६।२३।२५।४८ इन दोनों मे चन्द्रमा अल्प है, अतः इसे सूयं मानकर तथा 
सुयं को ग्न मानकर इष्टका साधित किया । 


२३९६ छायाधिकारः 


कल्पित सयं ५५१०।२९।५० दारा साधित भोग्यकाल १५ तथा कल्पित 
लग्न ६।२३।२५।.८ द्वारा साधित मुक्तकार १३३ दोनों का योग 
( १३३ + १५ ) = १४८ सूयं भौर लग्न के मध्यमे कन्या भौर तुलाके 
उद्यमान रह, अतः इनका भी यो किया ( १४८ + ३३५ + ३३५) ) = 
८१८ इसर्मे ६०्का भागदेने से रन्धि १३।३८ इष्टघटी हुई । यर्दा छः 
रा्जियुक्न मयंमेग्रहु अल्प र, अनः १३।३८ दिन शेष घटौ हूई ` 
सुर्यास्ताद्‌ रात्रिगतकालज्ञानम्‌ -- 
तेनोनोऽथ च सहितो ग्रहदुयातः 
स्यादकस्तिखयकतो निशि यातः, 
चे दग्लावोऽनुमितघटोष्वःगेऽल्पपुष्टं 
द्विघ्नं तत्तमपलयुग्‌ धिथुक्‌ स्ष्टुटः सः ॥६ 
मल्लारिः. ` अथास्मात्‌ कालाद्रात्रिगतमाह। तेन दुदोषेण ग्रहुदयुयात 
ऊनः रत्रिगतेन सहितः सन्‌ सूर्यास्तिद्रात्रिगतक्रालः स्यात्‌ । चन्द्रस्य चेत्‌ अनुमा- 
नज्ञातरात्निगतघटीषु आनीतरात्निगततो यावदत्पमधिकं स्यात्‌ तावदेव द्विगुण 
पलात्मक स्यात्‌ । तैः पठेः स काोऽत्पश्चेदूनः पूर्वाधिकश्चेदन्वितः कृतः स्फुटः 
कालो भवतीत्यथं: । 
अध्रोपपत्ति --प्रत्यक्सुगमा ॥ 


दैवज्ञवयस्य दिवाकरस्य सुतेन मल्कारिसमाह्वयेन । 
वृत्तौ कृतायां ग्रहुखधवस्य खेट भाद्यानयनाधिकारः !। 


इति श्रौगणेगदेवज्ञक्रतग्रहकाघवस्य टीकायां मल्लारिदैवक्षविरवितायां 
ग्रहुन्छायाधिकारौ दशमः । 

चन्द्रिका --पूरवेक्ति दिन शेष घटी को प्रहु + दिनगत घटीमे घटनेषे 
तथा रात्रि चेष घटो भे जोडने पै यर्यस्न से रात्रिका गतमान होता है। 
यदि चन्द्रमा काअमोष्टहौ तो अनुमानिक धटो से सातं मान जितना 
न्यूनाधिक हो, उतने पल को द्विगणत कर अल्प होने पर जोड़ने तथा 
धिक होने १९ घटाने सै व्रास्तर्थिक काल होता हि । ६ 

उदाहरण--कल्पना किया कि राति गतकरण्ल १०।५ दर| चन्द्रमाकौ 
दिनगत घटौ २३।४० एवं साधित दिन शेष घटी १३।३८ दोनों का अन्तर 


ग्रहुराघवे २३७ 


( २३।४० -१३।३८ ) = १०।२ सर्यास्तसे रात्रिगत कार हुआ । साधित 
काल १०।५ अधिक है। दोनौंका अन्तर १०।५ --१०।२ = ०।३ भधिक 
पल ३कोरसेगुणाकर २५८३६ को १०।५में घटनेस दोष ९।५९ 
दास्तविक कार हुमा) 


श्री गणेश देवज्ञ विरचित ग्रटुखाघव के छायाधिकार्‌ को चन्द्रिका 
नामक सोदाहूरण हिन्दो व्याख्या प्म्पुणं ॥ १० 


[0 = ह । 


नक्षत्रच्छायाधिकारः--११ 


नक्षत्राणां घरवा-- 
दासरादष् च सुना गजगुणा नस्दाज्ययो दृर्प्रखाः 
षट्तर्का युगखेचरा रसदिशोऽद्रचाशा नवार्काः क्रमात्‌ । 
भाग्यानष्टयुमेन्दवोऽक्षतिथयः वात्यष्टोऽहा ध्रुबा- 
स्त्यष्टाञ्जा गजगोभुवे रविदृश्शः सिद्धाश्विनः खन्चिद्फ्‌ ।\ १ 
मूलात्‌ स्थुद्िजिनाः श्चराश्चुगदशः क्रद्धाश्विनोऽेषुद्‌क्‌ 
बाणर्षा.न रसए्दक नखगरणाप्तत्त्वाग्नयोऽभ्वामराः । 
खं दत्तायनदुकक्रियाः स्यु{रहु च क्षेपोऽक्षभाष्नोऽकंहूत्‌ 
स्वणं प्राक्परतोऽन्यथोत्तरशरे ते स्थुः स्वदेशे ध्रूनाः॥२ 
मल्लारिः-- मरय नक्षत्रच्छायाचिकारो व्याख्यायते । तत्रादौ नक्षघघ्रुवानाह्‌ । 
अिवनीमारभ्य सर्वेषां नक्षत्राणां क्रमाद्‌ दत्तायनदुक्कर्माणो मायाया एते घ्रुवाः 
स्युरिति । ते त्रि्द्भक्ता राष्यादयो भवन्तीत्यथंः । क्षेपो नक्षत्राणां वक्ष्यमाणः 
शरः । पल्भागुणः। इादशभक्तः । भागादिफलं ग्राह्यं तत्‌ पूर्वघ्रुवे धनं 
पर्चिमघ्तुवे ऋणम्‌ । इदमपि दक्षिणशरे । उत्तरश्षरे विपरीतं ते स्वदेदो नक्षत्रद्रुवाः 
स्थुरित्ति।२ 
सघ्रापपत्तिः--तत्र भवेधार्थं गोकबन्धोक्तविधनेन विपुल गोखयन्तर 
कार्यम्‌ । तश्र खगोलस्थान्त्भगोल आधारवृत्तद्वयस्योपरि विषुवद्वृत्तम्‌ । तत्न 
च पद्याक्तं क्रान्तिवृत्तं भगणांशाद्धितं कार्यम्‌ । ततस्द्‌ गोलयन्त्र सम्यश््रुवा- 


२३८ नक्षत्रच्छायाधिकारः 


भिमुष्ववष्टिक जकर्समस्षितिजवल्यं च यथा भव्ति तथा स्थिरं हृत्वा रात्रौ 
गोलचिद्ुमध्यगतया दृष्टवा अदिन्यादेर्योगतारां विलोक्य तस्योपरि तद्रेघवलयं 
निवेश्यम्‌ । एवं कृते विषुवक्रान्तिवृत्तयोर्यः सम्पातस्तन्मीनान्तचिह्भुयोरन्तरे 
येऽशास्ते तस्य भघ्नुवांशाः । वेधवल्ये तस्य॒ सम्पातस्य योगतारायाश्चान्तरे 
येऽशास्ते तस्य भस्य दक्षिणा उत्तरा वा ध्रुवसक्तवृत्तं स्पष्टशरांशा ज्ञेयाः । 
अत्रये धुव्रास्ते दत्तायनदृकरर्माण एव 1 माक्षदुक्कमं देयम्‌ । तत्रानुपातः- 
यदि द्वादस कोटौ पलमामुजस्तदा शरकीटौ कं इति । अतएव क्षेपोऽक्नभाध्नो- 
ऽकंहूदित्युपपन्नम्‌ याम्ये शरे प्राच्यां नामनं प्रतीच्यानुन्नामनम्‌ । सौम्यशरे- 
त्वन्यथा । अतः स्वणं प्राक्परतोऽम्यथोत्तरशर इति युक्तम्‌ । यत तु नृ सिहदेवन्ञ- 
कृतरिप्पणे रेखातः प्राग्देरो धनं प्रत्यकृदेहो णमिति दृश्यते तल्लेखकदोषेणेति 
परतीमः।। १, २ 

चन्द्रिका--अश्धिनोसे प्रारम्भ कर क्रम से अश्िनौका ८, भरणीकता 
२१, कृत्तिका का ३८, रोहिणी का ४९, मुगरिरा का ६२, आर्द्र का ६६, 
पूनवंसु का ९५, पुष्य का १०६, आदरेषा का १०७, मघा का १२९ तथा 
ूर्वाफाल्गुनी से ( क्रम से }--ूर्वाफाल्गुनी का १४८, उत्तराफाल्गृनी का 
१५५, हस्त का १७०, चित्रा का १८३, स्वाती का १९८, विज्ाखा का 
२१२, अनुराधा का २२४, ज्येष्ठा का २३०, इसी प्रकार मूर का २२४, 
पूर्वाषाढा का २५५, उत्तराषाढा का २६१, अभिजित्‌ का २५८, श्रवण का 
२७५, धनिष्ठा का २८६, शतमिष का ३२०, पूर्वाभाद्रपदा का ३२५, 
उत्तराभाद्रपदा का ३३७ तथा रेवती का ° आयन संस्कृत घ्रुवांके है । 


नक्षत्रों के पठित शर ( शलो° ११।३. ) को पल्भा मे गुणा कर 
१२का भाग देकर लब्धि अंशादि फर्को दक्षिणं शर होने पर पूवंमें 
धन, पश्चिमम ऋण तथा उत्तर क्षर होने पर विपरीत अर्थात्‌ पएूवंमें 
ऋण तथा पश्चिम में घन करने से स्वदेशौय स्पष्ट घ्ु्वाक होता है । १-र 
नक्षत्राणां शरांशाः - 
दिक्‌पुयष्विषुदिक्‌ शिवाङ्खखमगाश्नाकाहिच विहवे भवा- 
स्त्वाष्टराद्‌ हरौ नगवह्ुयः .कुयमलाग्नीभाक्षबाणा द्विषट्‌ । 


ग्रहलाधवे २३९ 


कर्णात्‌ त्रिशदरित्रथः खनिनभाशरे त्वाष्टरहस्ताहिभे 
दोक्ञातु षटसु कमात्‌ त्रये शरलवा याम्या उदकृङ्ञेषभे २ 
मल्लारिः-द्र° शलो ° ४.५. । 
चन्द्रिका अश्विनी से हस्त पर्यन्त सभी नक्षत्रों के क्रमसे १०, १२, 
५, ५, १०, ११, ६, ०, ७, ०, १२, १३ तथा ११ शरांश्च) इसी प्रकार 
चित्रा से अभिजित्‌ पर्यन्त सभो नक्षत्रों के क्रम से २, ३७, १, ३, ८, ५, ५ 
तथा ६२शराशरहैँ। इमी प्रकार श्रवणसे रेवती पयंन्त क्रमसे ३०, ६ 
३, ०, २४ तथा ° प्ति दाराशहं | 
चित्रा, हस्त, आर्ठेषा तथा विशाखासे ६ ( भर्थात्‌ विशालता, 
अनुराधा, ज्येष्ठा, म्‌, पुर्वाषाह्य ) एवं रोहिणी से ३ ( अर्थात्‌ रोहिणी, 
मृगशिरा, आर्द्रा ) नक्षत्रौके शरकी दक्षिण दिक्षा तथा शेष नक्षत्रों मं 
दार की उत्तर दिल्लाहौोतोदह।३ 


अनापत्यादिनारकाणां घुवांशाः शरमागारच -- 

प्रजापतिब्रह्यहुदनग्न्यगस्त्यापांवत्सलुन्धघ्रवकांशकाः स्थु। 

कुषट्‌ षडक्षास्त्रिशरा नभोऽष्टौ उयष्टेन्दवो भूफणिनः क्रमेण \४ 

तेषां क्रमाद्गोशिखिनः खरामाः अष्टौ रसाश्वाः शिसिनः खेदः । 

वारारकाः स्थुमुनिलुञ्धयोस्तु याम्पास्तु सौम्याः परिशेषकाणाम्‌ ॥५ 

मल्लारिः--अथ नक्षघ्राणां शरभागान्‌ वदति ! भस्योपपत्तिः पूवमेव प्रति- 
पादिताऽस्ति । अथ रुन्धकादीनां ध्रुवान्‌ शरांश्च कथयति ॥ प्रजापति ब्रह्महुदरन्य- 
गस्टयार्ा वरपल्चक्रानामेते धवाशा । तेषामेते शरभागाः स्युरिति सृगमार्थम्‌ । 

भध्रोपपत्तिः -नक्षघ्रोक्तरीत्यैव सुगमा ॥४, ५ 

चन्द्रिका-- जापति (नामक तारे) का ध्रुवां ६१, ब्रह्यहूदय का ५६, 
भग्निका ५३, अगस्त्य का ८८, अ्पांवत्त का १८३ तथा लुब्धक का ८१ 
घ्ुवांश पठितिहै तथा उक्त तारोके क्रमसे शरांश भी पठित है- 
प्रजापति का ३९ ब्रहयहुदय का ३०, अग्निका ८, अगस्त्यका ७६, 
सर्पावत्स का ३ तथा टुढ्यक का ४० है । इनमे अगस्त्य भौर टुज्छक्र कै 
दक्षिण ज्ञर तथा शेषं के उत्तर शर हैँ । ४-५ 


२४० नक्षव्रच्छायाधिकारः 


ध्रुवात्‌ नक्षत्रच्छायासाधनम्‌-- 

निजदेशभवाद्ध्रुबाच्च बाणाच्छायायन्त्ररुनादि खेटवत्‌ स्यात्‌ । 

छायदिरपि चेह राचत्रियातं नक्षश्रग्रहुयोग उक्तदच्द 1६ 

मत्लारिः- अथ नक्षत्रध्रुवात्‌ तच्छायाद्यं साध्यमिति वदत्ति । स्वदेश्चौयो नाम 
दत्ताक्षपूवदक्कर्मको न नवघ्रुमो यः स्यात्‌ । तस्मात्‌ ` प्रागृदु्टिकंमखचर" इत्यादिना 
छायायन्व्रा्ादिक ग्रहवत्‌ स्यात्‌ । तथा "पर्येज्जलादौ' इत्यादिना ज्ञानात्‌ छायादे 
रात्रिगब्खं तद्रदेव स्यात्‌ । नक्षत्रग्रहयोगो हयतिवत्‌ । अत एवं केचित्‌ पठन्ति । 

दय चरभप्रुगेकान्तरलिप्िका दुगतिभुक्तिहता हि गतागतैः । 
फलदिनेदय चरेऽधकहीनके युत्तिरिहैतरथा खलु वक्रिणि ।। ईति । 
दयुगतिर्गहः स्पष्टमन्यत्‌ 
अत्रीपपत्तिः सुगमा ।६ 

चन्द्रिका -स्यदेगोद्‌मूत अर्थात्‌ साक्षद्क्केमं संस्कृत ध्रवांश ते ग्रहा- 
नयन को भाति छाया तथा यन्त्रंक्ष आदि का साधन एवं छाया भादि के 
हारा नक्षत्रका रात्रिगत काल ज्ञात करते है । नक्षत्र भौर ग्रहोंकायोग 
भो परस्पर ग्रहयोके योगकेतुत्यहीह।\६ 

उदाहरण-- रोहिणी नक्षत्रका शर ५दह। इसे क्राशो को पभा 
५.४५ से गुणा कर गणनकर २८४५ मे २ का भाग देकर लन्धि २।२३। 
४५ को आयनदुक्कमं सस्कृत रोहिणी के धुरवांश ४९मे दक्षिण शर 
होने के कारण जोडने से ५१।२३।४५ उदय घ्रुवांश तथा घटने सं शेष 
४६।३६।१५ अस्त ध्रुवां हा । 

इसी प्रकार अश्चिनी का शर १० उत्तर दिक्लाकारै। इसे ५।४५ से 
गृणा कर गुणनफल ५७द०्मे १२ का भाग देकर रन्धि ५।४७।३० को 
मदिवनी ध्रुवां ८ मे उत्तरशर होनेसे घटानेसे शेष ३।१२।३० उदय 
ध्रुवां तथा जोड़ने से १२।४७1३० अस्त ध्रुवांश हुमा । 
रोहिणीक्षकटवेधः परिणामश्च- - 


गविनगकूलवे खगोऽस्य चेद्‌ यमदिगिषुः खश्चराद्धलाधिकः 
कभेशकटमसौ भिनच्थसुक्‌ श्निरडपो यदि चेज्जनक्षयः ॥ ७ 


नक्षव्रच्छायाधिकारः २४१ 


मल्लारि -जथ ग्रहस्य रोहिणी शकटभेदं तत्फलं चाह । यो ग्रहो वृषभे 
सपतदशभागमितः स्यात्‌ तस्य शरोऽपि यदि दक्षिणः पञ्चाश्दङ्घुलाशिकः स्यात्‌ 
तदाऽसौ ग्रहो रोहिणीशकटं भिनत्तीति ज्ञेयम्‌ । यदा दवमसुक्‌ मौमः शनिश्चद्रो वा 
रोहिणीशकटं भेदयति तदा जनक्षयो खोकानां महत्ती पीडा स्यादित्यर्थः । 

भत्रोपपत्तिः- रोहिपोघ्नुवो वृषे एकोनविरतिभागः । आक्षदुक्मंसंस्काराथं 
भागद्वयं हीनमेव स्वत्पान्तरत्वात्‌ कृतम्‌ । तत्सम एव प्रहे तद्भेदः । अत उक्तम्‌-- 
गवि नगक १७ लवे इति । एवं रोहिणी श्च कट पञ्चतारात्मक पञ्चाशदद्धलश्चरं 
यदस्ति तन्मध्ये ्रहस्य प्रवेशो दक्षणशरे पञ्चदशाधिक एवे भवति । यतो 
रोर्हिणीश्चरः शताङ्घुलो याम्यः । अत्र योगतारा याम्याऽस्ति।॥ ७ 


चन्द्रिका यदि किसी ग्रहुका दक्षिण शर वृषराशिके १७ अशमे 
५० अंगृल से अध्िकिहोतो रोहिणो श्कट का मेदन करता है। 


यदि रोहिणी शकट का भेदन मद्धल, शनि अथवा चन्द्रमा करता है 
तो वहु जनहानि करने वारा होताहै। ७ 


चन्द्रकृतशकटभेदलक्षणम्‌-- 
स्वभानावदितिभतीऽऋष्षसंस्थे 


लीताद्चुः कभशकटं सदा निनत्ति । 
भोमाक्योः श्ाकटमिदा युगान्तरे स्यात्‌ 


सेदानीं न हि भवतीदु्चि स्वपाते॥८ 


मल्लारि :--अथ चन्द्रस्य श्कटभेदसमयमाह्‌ । राहौ पृनवंसुमारम्याष्टनक्षत्र- 
मध्ये वत्तमाने सति चन्द्रो रोहिणी चकटं सदा भिनत्येव । भङ्कल्शन्योः दाकटभेदो 
युगान्तरे स्यात्‌ । इदानीमस्मिन्‌ पाते “खाम्बुघयः' इत्यादिके नव स्यात्‌ । 


भत्रोपपत्तिः-- चन्द्रो वृषमे सप्तदश मागमितस्तस्य शरो दक्षिणः पञ्चाशदङ्खला- 
धिकः पुनवंस्वाद्यष्टनक्षत्रस्थे राहावेव भवतौति प्रत्यक्षम्‌ । भौमशन्योरेतादृदे पाते 
दक्षिणः शरः पञ्चादश ङ्कलकाधिको न भवत्येव ॥ ८ 


चन्द्रिका -राहु जब तक पुनवंसुसे आठ नक्षत्र ( अर्थात्‌ पुनवंयु, 
पुष्य, आश्रेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनि, उत्तराफाल्गनि, हस्त तथा चित्रा ) 
पयेन्त ( किसी मो नक्षत्र मे ) रहता है, तब तक चन्द्रमा रोहिणो चकट 


भेदन करता है। भौम तथा क्ति दवारा रोहिणो शकट भेदन युमगान्तर 
ग्र * लाऽ-{?६ 


२४२ ग्रहुखाधवे 


( बन्ययुगों) मेही सम्मवरहै। सम्प्रति भौम भोर शनिकाजोपातदहै, 
उपसे राकटमेद नही हो सकता ॥ ८ 
सेमचघ्ये [स्थतनक्षत्रेण रात्निमानज्ञानम्‌- 
खमध्यगक्षघ्रुवतः स्फुटं चरं ततो दिनार्घाल्लिजभोदयैस्तनुः । 
भवेत्‌ तदा रग्नमथो तदङ्ःभान्विताकंमध्ये घटिका निशागताः ॥ ९ 


मत्लारिः--भव्र खमष्यस्यनक्षत्रद्शनात्‌ तत्कारचग्नं राश्रिगसं च कथयति । 
समध्ये याम्योत्तरतत्ते वर्तमानं यल्नक्षवं तस्य य उक्तो ध्रुवः । जष्टं च मने" 
इत्यादि तस्मात्‌ साधितं स्फुटं सूर्यवत्‌ चरं तेन चरेण यत्‌ कृतं दिनार्धंस 
इष्टकालः । नक्षत्र घ्ुत एवे रविः । ताम्यां स्वदेशोयोदयैयत्‌ साधित्तं छग्नं तत्‌ 
तात्कालिकलग्नं स्यात्‌ ततस्तल्छग्नसषद्‌ भाक ग्रोमव्ये रात्रिगतवटिकाः स्युरित्यथंः । 

अघ्रोपपत्तिः - नक्षत्रस्य यत्कृतं दिनार्धं स एवेष्टकालो नक्षत्रस्य खमघ्य- 
स्थितत्वाद्‌ तस्मात्‌ साधितं लग्नं तात्काछिक छग्नं भवतीत्या्या तिसुगमा ।। ९ 


चन्द्रिका -खमघ्य में स्थित नक्त्रकेघ्रुवसे स्पष्ट चरका ज्ञान कर 
चर द्वारा दिनाधं करा साधन करना चाहिये । दिनाधं को इष्ट घटो तथा 
खमध्यस्थ नक्षत्रके ध्रुवको सूयं कल्पना कर स्वदेशोय उदयमानों हारा 
रग्नसाधन कर पुनः इष गन तया ६ राल्लि युक्त सृयंसे कालज्ञान 
करतेसे रत्रिकीगतघटीहोतीदहै।) ९ 

उदाहरण -खमध्य में स्थित नक्षत्र यदि अर्विनी कल्पना करे तो 
उसके ध्वा ८में अयनांश १८१० जोड़कर पूर्वोक्त रोति से सायन 
ध्वा ==( ८।० + १८।१० ) == २६।१० द्वारा साधित चर ४९ इजा । इसे 
१५ मे जोड़ने से १५।० + ०।४९ = १५।४९ दिनाधं हुआ 1 अश्विनी के 
सायन घरवा ०२६१० से साधित रग्न ३।१३।४४।४६ इते तथा ६ राशि 
युक्त सूर्यं से प्ताधित कालांश रात्रि का गतमान होगा । 
नश्चत्रश्य ध्रुववजाद्‌ रात्रिगतघटिकासाधनम्‌ ~ 


उद्यद्दुधरवकः स्वदेशजोऽस्तं वा प्राप्नुवतः सषडमृहः 1 
स्थात्‌ तत्कारविलग्नकं ततः प्राग्वत्‌ स्युघंटिका निज्लागता ॥ १० 


0 ० छ "1 , "रिषि 


* स्यात्‌ पाठन्तरम्‌ 





नक्षत्रच्छायाधिकारः २४१ 


मत्लारि : -अथ ये नक्लत्रोदयास्तरग्ने ताभ्यां निश्चागतं च वदति । उदये 
वर्तमानं यच्नक्षत्रं तस्य यः स्वदे्लीयो ध्ृवः स सषडमः सन्नस्तरग्नं भषति । 
ततस्तल्लग्नसषडमाकयोमध्ये प्राग्वद्‌ राधरिगता घटिकाः स्युरिव्यथः। ध्रुव उद्यदुडोः 
स्वदेश इति पाठः साधुः । 


अत्रोपपत्तिः - -अतिसुगमा ॥ १० 

चन्द्रिका - उदयकालिक स्वदेशोय नक्षत्र का ध्रुवा तात्कालिकं लन 
होता दै अथवा भस्तकालिक नक्षत्रके ध्रुवा मे £ राशि जोडनेसे 
तात्कालिक क्ग्न होता है। इस लग्न (भौर छः राशियुक्त सूयं) से 
पूववत्‌ रत्रिं की गतघटी का साधन करना चाहिये ॥ १० 
उपसंहारः- 

इति नंजदेशपरभावशतो हय॒दयं खमध्यमथवाऽस्तसयम्‌ 1 

व्रजरभ्विभादिषु सुव थंमिह स्विररग्नकानि विदधीत सुधीः \ ११ 


मल्छारि : - अथ स्वदेशीयाति नक्षत्राणामुदयादीनि स्थिरल्ग्नानि कार्याणी- 
त्याह । नि जदेष्षपरभावशतत उदय खमघ्यमस्तं वा गच्छतो नक्षत्रस्योक्तरोत्या 
सुधीः स्थिरलग्नकानि कुववस्तीत्य्थंः चतु्मिता परमाः प्रकत्प्य ञाचार्येण स्थिराणि 
मघ्यलग्नानि शिष्यकृपया कृतानि सन्ति । श्रारखग्नस्य छ्वाः खमध्यकमते दास 
दविदिग्मिमिताः' इत्यादिभिः ।। ११ 


दैवज्ञव्यंस्य दिवाकरस्य सुतेन भल्लारिसमाहूुयेन । 
वृत्तौ कृतायां प्रहलाघकवस्यामूदक्षदोप्त्यानयनाधिकारः ॥ 


इति श्रो ग्रहुलाघवस्य टीकायां नक्षत्रच्छायाधिकारः एकादशः ॥ ११ 
चन्द्रिका--इस प्रकार ( पर्वाक्त रोतिसे) स्वस्थानीय पलभाद्रारा 


उदयकाटिक खमध्य स्थित अथवा अस्तकाङलिक अश्विनो अदि नक्षत्रों के 
स्थिर लगन का साधन विद्वानों को करना चाहिये ॥ १९१ 


श्रोगणेरादेवज्ञ विरचित ग्रहुखाघव कै नक्षच्च्छायाधिकारको 
चन्द्रिकां नामक सोदाहूरण हिन्दी व्याख्या सम्पूणं ॥ ११ 


[दि | 


शुद्लोननत्यधिकारः--१२ 


मासस्य प्रथमेऽन्तिमेऽथ वाऽङ्घ्रौ विधुशुङ्गोन्चति रक्ष्यते यदद्धि । 
तपनास्तमयोद्येऽनगम्यास्तिथयः सावयवाः कमादुगतष्याः \\१ 


मत्लाटरिः--अथ चन्द्रश द्खोन्नव्याधिकारो व्याख्यायते । मासस्य प्रथमे 
चरमे अथवा अन्तिमे चरणे यस्मिन्नभीष्टे दिने शृद्धोन्नतिरवलोक्यते तदिवसे 
तपनास्तमयोदये क्रमादिति शुक्लपक्षे सूर्यास्तकाके गततिथयः कृष्णपक्षे सूर्योदये 
एष्यतिथयः सावयवा ज्ञेयाः । १ 

अत्रोपपत्तिः--एष चन्द्रो जखमयस्तस्य यथा यथा सू्यकिरणयोगस्तया 
तथा शृद्गौच्च्यम्‌ । एवममायां स्॑चन्द्रयोः साम्यात्‌ तत्र॒ सिताभावः। 
एवं प्रतिपदि द्वादश्मागान्तरे किञ्चित्‌ सितम्‌ । एवमष्टम्याम्धं विम्बं 
सितम्‌ । तत्‌ पितं न समौच्च्य कक्नामेदात्‌ सूयचनद्रयोदक्षिणोत्तरान्तरस्य 
विद्यमानत्वात्‌ 1 अत्र विम्बार्घादधिके सिते शयङ्गौच्चयद्शनाभावः। अत एव 
शुक्लाष्टमीपरयन्तं कृष्णाष्टमीतोऽग्रे वा दुद्गोन्नति रवलोक्येव्युपपन्नम्‌ । एवं शुक्ल 
पक्षे श्यृद््गोन्नतिः सूर्यास्तासन्ना कृष्णपक्षे सूर्योदयासषन्ना भवति । अत एव 
“तपनास्तमयोदये' इत्याद्य क्तम्‌ ॥१ 

चन्द्रिका मासके प्रथम चरण तथा अन्तिमि चरण मे जिंसदिन 
शयद्धोन्नति अभीष्ट हो उस दिन शुक्ल ओर कृष्ण पक्ष मे क्रम से सूर्यास्त 
भौर सूर्योदय कालिक सावयव तिथियों के गतगम्य का साधन करना 
चाहिय । अर्थात्‌ मास कै प्रथम चरण ( प्रतिपदा सप्तमी तथा अष्टमी के 
भे पर्यन्त ) शुक्लपक्ष में सूर्यास्त कालिक तथां कृष्णपन्न मे सूर्योदय 
कालिकं ल्िथियों का साधन करना चाहिये 1१ 
वलन-शुवलयोः साघनम्‌- 

रविहूततिथयोऽन्ञास्तटि युग्युक्‌ क्रमेण 
दयमणिरपरपूर्व मासपादे विधुः स्यात्‌ । 


नृपगुणतिथिरूना स्वध्नतिथ्याक्षभाघ्नी 
शरकुहदुदगाशा संस्कृता्कपिमशेः २ 


श्य द्खोन्नत्यधिकारः २४५ 


चन्द्रस्य च व्यस्तश्रापमांशे द्िनिध्नतिथ्या विहूताऽङ्गलादयम्‌ । 
संस्कारदिककरं वलनं स्फुटं स्यात्‌ स्वेष्नंज्ञहीनास्तिथयः सितं स्थात्‌ ॥ 


मल्छारिः--अथ गरतष्यपतावयवतिधिभ्यो रवितश्चन्द्रं साधयति ! द्ादश- 
गुणास्तिथयो भागाः। तंमगिः सूर्यो मासान्त्यपादे हीनः। मासप्रथमाद्घ्रौ 
युक्तश्चन्द्रः स्यात्‌ । षोडशगुण। तिथिस्तिथिवर्गेणोना परलमागुणा पञ्चदश- 
भक्ता फलं भागादिकमुत्तरं स्यात्‌ । चत्‌ सूर्यक्रान्त्या संस्छृतं कार्यम्‌ । अत्र 
सर्वत्र संस्कारस्तु एकदिशोर्योगोऽन्यदिशोरन्तरमिति प्रसिद्धः। चन्द्रस्य ग्यस्त- 
दिशा शरेण न्धस्तदिक्क्रन्त्ा च तत्‌ संस्कार्यंम्‌ ततस्तदद्धिगुणामिस्तिथिभि- 
भाज्यम्‌ । फक संस्कारदिगगंगुखाद्यः वर्नं स्फुटम्‌ । स्वोयो यः पञ्चमांशस्तेन 
हीनास्तिथयः 1 अङ्गुल्य सिषं स्यादिव्यर्थः । 


अत्रोपपत्तिः--रविचन््रान्तरे दादशभागतुल्ये एका तिथिर्मवति अतस्तिययो 
द्वादशगुणा रविचन्द्रान्तरभागा जाताः। तं रवौ योज्याश्चन्द्रो भवत्येव । अतं 
एवात्र शुक्ले युक्ता इत्युक्तम्‌ । छकृष्णेऽपि योज्याः परमच्र कृष्णे एष्यतिधियो 
गृहीताः सन्त्यतो हीना इट्युक्तम्‌ । अथ वलनोपपत्तिः। तत्र चन्द्रसु्यो- 
द॑क्षिणोत्तरमन्तरं भुजः । तस्य वरनसंज्ञा यतोऽन्वथं नाम । तावताऽन्तरेणं 
चन्दरष्णगं वल्ति। ऊर्ध्वाधरमन्तरं कोटिः) तयोमंघ्ये तिर्यक्कर्णः। 
तहिणोत्तरमन्तरं साघ्यते । सूर्यक्रान्तिश्चन्द्रस्य शरेण क्रान्त्या च संस्कार्या । 
तत्र॒ व्यस्तदिक्त्वेऽयं हेतुः। यत उभयो्दक्षिणोत्तरान्तरे साध्यमाने 
समदिशोरन्तरं भिन्नदिशोर्योगः कर्तन्यः। रसुस्कारलक्षणं तु समदिशोर्योगो 
भिन्नदिशोरन्तरमित्यतो व्यस्तशरापमांशेरित्युक्तम्‌ । एवमच्र दक्षिणोत्तर 
मन्तरं निरक्षदेशीयं जातम्‌ । तत्‌ स्वदेशीयकरणाथं फलं नुपगुणतिधि- 
रित्याद्यु्पादितम्‌ । तद्यथा । रवेरुदयेऽस्ते श्युगोन्नतौ चन्द्रो यदा खस्वस्तिके 
तदा तयोदक्षिणोत्तरान्तरमक्षांशा एव । अथेष्टस्थानत्ये चद्द्ेऽतुपातः । यदि 
त्रिज्यातुल्यया १२० व्यरकेन्दुदो्ज्यया अक्षांशतुल्यमन्तरं तदेष्टदो्ज्यया किमिति ! 
अत्र॒ तिधिर्दाद्गुणा व्यकन्दुदोर्भागाः । ते द्विगुणा दोर्ज्या साक्षांशगुणा 
त्रिज्याभक्ता कृता । तव्राक्षांशषस्थाने पकमा गृहीता । तेन पलभा पञ्चगुणा 
परमावर्गदशांशोनाक्तांशाः स्युरिति । प्रथमं पञ्चगुणः किञ्वि्नयूना ग्राह्या 
इत्यत्राधिक एव ब्रहीतः सव्यंश्ञाः पञ्च ५।२०। एवं तिथेगुणाः १२।२। अत्र 
गुणानां घातौ जातो गुणः १२८ । त्रिज्याहुरः १२० गुणहुरावष्टमि रपवत्तिती 
जाता गुणः १६॥ हरः १५ । पलमा गुणा शरकरहूदिति जातम्‌ । अत्र 


२४६ ग्रहलछाघवें 


स्थानद्रयेऽन्तरं जातम्‌ । यतो द्विगुणमागाः सर्वभुजभागेषु दोर्ज्या न भवति। 
सत्र्यशपञ्चगुणपलभातुत्या अर्षांशा न भषन्ति। यततः पच्चगुणपलमायाः 
पलभावर्गदशांशो न्यूनोऽस्ति तेन प्रतितिथिकियदन्तरमिति ज्ञानार्थमुपायः । 
अश्र स्थानद्वयेऽन्तरमेकमक्षांशो परलमागंद्ं शतुल्यम्‌ द्वितीय स्थात द्विगुणभाया 
दोर्ज्येति स्थानद्वयेऽन्द रमधिकमस्ति वर्गात्मकम्‌ । तदन्तरं तिथिवर्गपञ्च- 
दशांशतुल्यमधिकमस्ति तेन प्रथमं नुपगुणतियिष्वेव हीनस्तिथिव्णंः कृतः । 
यतोऽप्रे पञ्चदशहरोऽस्त्येव । अतो नुपगुणतिथिः स्वघ्नतिथ्योनाऽक्षभाष्नी 
दारु हृदढटलनं भवतीत्युपपन्नम्‌ । व्यस्तदिक्कार्थमुदगाश्चा । णवं संस्कारदिग्वलनं 
जातम्‌ । अत्र क्रान्तिश्नयक्षांश्लानां संस्काराज्जातं वलनमंशाद्यम्‌ । तस्यां- 
गृलीकरणाथमुपायः । प्रत्तिपदन्ते रविचन््रान्तरे दादशामागाः। तत्र 
षडङ्गुखतुल्यं विम्बार्थं प्रकस्प्यानुपातः यदि द्वादश भागैः षडङ्गुलानि तदेष्ट- 
घलनभागैः किमत्ति सत्र गणहरौ गुणेनापवत्त्यं जातो हरः २ । पुनरन्योऽनुपातः । 
ह्ठादश्शभागप्रमाणेन यद्ययं हुरस्तदेष्टव्यकन्दुदोभगिः किमिति ष्यकन्दुदोर्मागपडंशोः 
वलनस्य हरः । द्वादश्च तुल्ये रविन्द्रान्तरे एकतिथिः । तत्र द्यं हरः । एकतिथ्या 
दयं हर स्तदेष्टतिथ्या किमिति अतो द्रिनिघ्नत्तिथ्या विहुतेद्युपपन्नम्‌ । अथ सितो- 
पपत्तिः । भत्रे रविचन्द्रयोः पादोनषट्‌काष्टकवान्तरेऽधविम्बं सितं भवति । मतः 
साधसप्ततिध्यषु विम्बाद्च सितं षडगुलतुन्यम्‌ । तेनानुपातः-- यदि सार्ध्ततिधिभिः 
षडंगुलतुल्यं सितं रस्यते तदेष्टतिथिभिः फिमिति । तिथयो यावत्‌ षड्गुणाः सार्धं 
सप्तभक्ताः क्रियन्ते ताचन्‌ स्वपञ्चमांश हीना एव भवन्ती्युपयन्नम्‌ ॥२, ३॥ 


चन्द्रिका - पूवं साधित देष्य तिथि को १० से गुणा कर अंलादि गुणन 
फल को मासके प्रथमचरणे सयंमें जोडने तथा भेन्तिमि चरणे 
घटाने से चन्द्रमा होताहै। त्थिको १६ से गुणा कर गुणनफल मे तिथि 
का वगं घटाकर शेष की स्थानीय पल्भासे गुणा कर गुणनफल्मे १५ का 
भाग देनेसे लब्धि अंश्चादि फल उत्तर दिशाकारटोीताहि। इस फलमें 
सथं क्रान्ति का संस्कार (एक दिशा म योग, भिन्न दिशा मे अन्तर) करना 
चाहिये । 

चन्द्रमा के शर तथा चन्द्रमाको क्रान्तिका विपरीत संस्कार ( एक 
दिशा मे अन्तर, भिन्न दिला मे योग) कर उक्षमे द्विगुणितं तिथि का भाग 
देने से छन्धि संस्कृत फल की दिक्षा का अङ्गुलादि वलन होता है । 


श्युद्धोन्नत्यधिकारः २४७. 


तिथिमें उसी का पञ्चमांश घटाने से अडगुला्मक शुक्लमान होता 
है । २-३ 

उदाहरण -मास का प्रथम चरण प्रतिपदा से अष्टमी पर्यन्त, 
नवसी से पुणिमा पयंन्त द्विीय पाद, कृष्ण प्रतिपदा से मष्टमो षयंन्त 
तृतोय पाद नवमी से अमावस्या तक मासान्त ( चतुथं ) पार होता है । 

शुक्लपक्ष मे चन्द्रमा की श्यृद्धोन्नति साधनाथं सूर्यास्तकालिक सयं 
तथा चन्रमा द्वारा तिथि साधन केरना चाहिये ! इसो प्रकार कृष्णपश्च मे 
सूर्योदय कालोन सूयं तथा चन्द्रमा से तिथि का साधन करना चाहे । 


सूर्यास्त कालिक स्पष्टं सयं १।१८।१२।३२ चन्द्रमा ३।१९।४८।२ स्पष्ट 
राहु २।२२।२२।३८ सूर्यास्त कालिकं गत तिथि ५।७।२० । 

तिथि ५।७।२० को श्रसे गुणा कर गुणनफल अंशादि ६१।२८० को 
स्पष्ट सयं १।१८।१२।३२ मे मास के प्रथम पादमेंहोनेसे दोनोंका योग 
१।१८1 १२।३२ + २।१।२८1० = ३।१९।४०।३२ चन्रमा हुञजा । 


तिथि ५।७।२० को १६ सिं गुणा कर गुणनफञ ८१।५७।२० मे तिथि 
का वगं २६।१४।१३ घटा कर शेष ५५।४३।७ को परमा ५।४५ से गृणा 
केर गुणनफल २३२०।२२।५५ में १५ का भागदेनेसे न्व २१।२१।३१ 
अंशा एक उत्तर दिशाका हुआ । इमे सूयक उत्तरा क्रान्ति 
२१।४४।२९ का संस्कार (योग) किया २१।४४।२९ + २१।२१।३१४३।६1० 
सस्रत फल उत्तर दिशाकाहुभा। राहु रहित चन्द्रमा ०।२७।२५।२४ 
दारा ( पूर्वाक्त ग्र° ला०६।१० ) के अनुसार चन्द्रका शर ४५४१।२३।३५ 
भङ्गुखादि उत्तर दलाकाहुभा। शरकोरेसे गृणाकरनेसे २।४।१० 
अशादि मान हुआ । पूवंसाधित उत्तर फ ४३।६।० - २।४।१० = ४१।१।५० 
चच््मा को उत्तर क्रान्ति १८।३६।५९ इनका विपरीतं संस्कार (एक 
दिशा मे अन्तर) करने से शेष २२।२५।५१ मे द्विगुणित तिथि 


से 
१०।१४।४० का भाग देने से फल २।११।६ अङूगखादि स्पष्ट वन 


२४८ ग्रहुखाघवे 


उत्तर दि्ञाका हुमा तिथि ५।७२०मे इसीका पञ्चमांश १।१।२८ 
घटाने से रोष ४।५।५२ अङ्गुल,दि शुकलमान हं । 
श्यद्धोन्नति-दिम्ानम्‌- 

उन्नतं वलनाशा्यामन्यस्थां स्यान्नतं विधोः । 

वलनस्याङ्घुलैः श्युद्धः किमत्र परिरेखतः ॥ ४ 

मल्लारिः-भय कस्यां दिश्षि श्णुद्गौच्च्यमिति वदति । वलनस्य या दिक्‌ 

तस्यां श्ङ्गोन्नतत्वमन्यस्यां दिशि चन्द्रस्य श्यङ्खं नतं स्यात्‌ । वलनस्याङ्गुलैः 
स्युंगौचच्यपरिमाणं ज्ञेयम्‌ । भत्र परिरेखतः करि साध्यम्‌ । क्रिमथं जडकमं कर्तंग्य- 
मिति भावः। ४ 


अत्रोपपत्तिः --पूर्थान्यदिशि वलनम्‌ । अतो वलनान्यदिरयेव श्यु गोन्नमनम्‌ । 
भत्र॒ वलनं व्यस्तदिरकेकमस्त्यततो वख्नदिद्येव शयु गौच्च्यं वखनांगुखतुल्यमेव । 
वलनाभावे ग्युगे समाने भवतः । अत्र परकेखः श्युगोत्नतिदिगृज्ञानार्थं कर्तव्यः । 
तत्‌ श्णोन्नतिदिगृज्ञानं श्युगौच्च्यपरिमाणं वलनत एव जातिम्‌ । अतः किमर्थं 
परिलेखः कर्तव्य इत्थक्तम्‌ ॥ ,॥ 
दवज्ञवयंस्यं दिवाकरस्य सुतेन भल्लारिसमाह्वयेन । 
वृत्तौ कृतायां ग्रहसाघवस्याभूच्चन्द्रशयु गोन्न पनाधिकारः ॥ 
इति श्रौग्रहलाघदस्य टोक्रायां चन्द्र्युङ्को्नत्यधिक्रारो द्वादशः ॥१९ 
चन्द्रिका--जिस दिशा का वलन होता दै, उसी दिशाका चद्धश्युङ्ख 
उन्नत होता है । इससे विपरीत र्ल्ामे श्युद्ध नत दहोताहै। वलन के 
अङ्गलादि मानसे ही चन्द्रृद्ध कौ उन्नतिकाज्ञानहौ जातादहं। यहां 
परिलेखं से क्या प्रयोजन है ?४ 


श्रो गणेश देवज्ञ विरचित ्रहुलाघव के श्ुद्धोन्नव्यधिकार की 
चन्द्रिका नामक सोदाहुरण हिन्दी व्याख्या सम्पूणं ॥ १२ 


ग्रहयुत्यधिकारः--१३ 


भोमादिग्रहाणां विम्बसाघनम्‌ -- 
पञ्चत्वगा द्ुविक्िखाः पृथगीशकर्णा- 
धोगाहूताः धक्रृतिभान्वरिसिद्धरामैः । 
भक्ताः फखीनसहिताः श्रवेणेऽधिकोने 
ते त्युद्धताः स्युरजो वपुरङ्गुलानि \\१ 
मल्छारिः--अथ ग्रहुयुत्यधिकारो व्याषयायते । पञ्च प्रसिद्धाः । ऋतवः षट्‌ । 
जमा: सप्त । अद्धा नव । विशिखाः पञ्च । एतेऽङ्काः पृथक्‌ । ईशानमेकादशानां 
कर्णस्य च योऽथोगो नामान्तरं तेनाहृताः । ततः क्रमात्‌ प्रकृत्याद्यद्ुमक्ताः 
प्रकृतिरेकविशतिः । भानवो द्वादश । अरयः षट्‌ । सिद्धाश्चतुवि्यतिः । रामास््रयः। 
एमिभक्ताः । यर्दमुलाचं फलं तेन पृथक्‌ तेऽङ्काः ऊनसहिताः कार्या । कर्णे 
एकादशाधिके ऊना ऊने सहिताः । तत्तस्ते च्रिमक्ताः । असृजः सकाशात्‌ भौमादी- 
नामंगुलात्मक्रानि विम्जाति भवेन्तीत्यथः। १ 


अत्रोपपत्तिः--अत्रातीन्दरियद्भिमिराचं राचार्यस्त्िज्यातुल्ये शीघ्रक्रणेभौमा- 
दीनां विम्बागुलानि लक्षितानि । तान्धेवाचायंग पञ्चादीन्युक्तानि । तेषां स्पष्टो 
करणं यथा । अन्त्यफलज्यातुल्येन त्रिज्याश्चीघ्रकर्णान्तरेण किंमिति। भत्र 
विम्बानामन्त्यफलज्या हारः । भत्र त्रिज्या भवमिता अतो भवशोघ्रकर्णान्तरं 
गुणः । अत्र यया भो पस्यान्त्यफएल्ज्या ७७ । द्यं त्रिगुणा जातो ह्रः २३१। 
यदि खाकमिते व्यासा अयं हरस्तदेकादशतुल्ये व्यासार्घे क इत्यतोऽयं 
हरः २३१ एकादशगुणः २५४१ । खक भक्तो जातां ए्कविशतिर्भौमस्य हरः । 
एवं सवेषामेव फलेन त ॒एवोनसहिता इति । दूरस्थे प्र हे बिम्बं लचुत्रिज्याधिक्रः 
कर्णः । अतस्तत्रोनम्‌ । समीपे विम्बाधिक्यं तत्र त्रिज्यातः कर्णोनिता अतस्तत्र 
युक्तमिद्युक्तम्‌ । तद्विम्बं कलाद्यम्‌ । अंगुलादिकरणार्थं त्रिभिर्मक्तम्‌ यतः कलात्र- 
येणैकमगुलं अवति ॥ १ 


चच्िका-भोमादि ग्रहों ( मध्यम) की विम्बकला क्रम से ५, ६, ७, 
९, ५ (पठितहै) | भोमादिग्रहौंके शीघ्रकणंका ११ के साथ अन्तर 
कर दोषसे उक्त अद्भोको गुणा करक्रमसेि २९१, १२, ६, २४,२३ इन 
अङ्कोसे भागदेएरलब्धिको, ११से कणं अधिक होने पर पूवं पठित 


२५० ग्रहुखाघवं 


( ५, ६, ७, ९, ५ ) अद्धो से क्रमसे धटानेसे त्तथाश१से अत्पहोतो 
जोडनेसे जो प्राप्तहो, उसमेश्का भाग देने से लब्धि अङ्गुलादि 
भोमादि ग्रटोकेक्रमसे विम्बहोतेहै।॥ १ 

उदाहरण--स्पष्टमोम १०।६।३५।९ स्पष्टगति ४२।५० मौम जा शीघ्र 
कणं ८।५२ है तो भौम का विम्बमान क्या होगा ? 


भौम कौ पठित मध्यम विम्बकला ५। इसे भौम के ज्ीघ्रकेणं ८५२ 
तथा १९१ के अन्तर (११-८।५२) == २।८ से गुणा कर गुणनफल १०।४० में 
भौम के पठित अद्ध र्ते भाग देने पर कुन्वि ०।३० प्राप्त हुई । यहा 
कणं ११ से अल्प है, अतः मध्यम विम्बकला मे लब्धि ०।६० जोड्ने से 
( ५।० + ०।३० ) = ५।३० हुआ । इसमें ३ का भाग देने से रुत्व १।५० 
भङ्गलादि भौम का विम्बहुभा। इसी प्रकार बुधादि सभीग्रहोका 
साघन किया जायेगा | 

अल्पगतिं ग्रह्‌ शिका विम्ब साधन 

स्पष्ट शनि १०।२।५८।४४ गति ३।३ शनि का शीघ्र कणं ११।६३ उक्त 
नियमानुसार शनि को मध्यम विम्बक्ला५ को ११ तथाशीन्रकणंके 
अन्तर ( ११।१३-११।० ) == ०।१३ से गुणा कर गुणनफल ५ म ३का 
माग देने से रुल्वि ०२९१ प्रप्त हुई । यहां लोघ्रकणं ११ से अधिक हैः 
अतः लन्धि को विम्बकला ५ मे घटानेःसे ४।३९ शेष रहा । इसमे ३का 
भागदेनेसे लब्धिं १।३३ भङ्गुलादि शति का विम्ब हज । 


युतेर्यातिष्यलक्षणम्‌ ` 
अधिकजवखगेऽधिकेत्पमुक्तेरथ कुटिलेऽल्पतरेऽनुखोमतो वा । 
घनूजुगखगयोस्तु शीघ्रगेऽत्पे युतिरनयोः प्रयतान्यथा तु गस्या\\२ 
मल्लारिः--अय ग्रहयुतेगतष्यताज्ञानमाह । ययो हयो्युतिः साष्यते तयोमध्ये 
योऽधिक्रगतिग्रंहः स चेदत्पगतेग्र॑हदश्षाद्यवयवेनाधिकस्तता तयोयुंतिगंतेति वाच्यम्‌ 
थ वा कटिके वक्रिणि ग्रहे अनुलोमतो मागिग्रहादल्पतरे सति युतिर्गता वाच्या । 


ग्रहयुत्यधिकारः २५१ 


भनुजुगखगयोर्रयोवंक्रिणो ग्रहयोर्मध्ये शीघ्रगतौ प्रहे भागादिना अल्पे युतिर्गतैव 
वाच्या । अन्यथोक॑तलक्नणवेपरीत्ये ग्रहुयुति्गम्येव्यथंः । २ 


अन्रोपपत्तिः प्रत्यक्सुगमा ॥ २ 

चन्द्रिका - तीत्रगति ग्रह॒ अधिक तथा मन्दगति वाला ग्रह अतल्पदहो 
अथवा वक्री ग्रहुसं मार्गी ग्रह अधिको, यदिदोनोंहीक्क्री ग्रहहतो 
उनमें तीत्रगत्ति वाला अलम भौर मन्दगति वाला अधिको तो दोनों 
ग्रहो की युति गत ( बीती हुई ) होती है । इन लक्षणों से भिन्न स्थितिमें 
यति एष्य ( होने वाली ) होती है । २ 


उदाहरण - बुध २।२०।२६।४० तथा शनि ३।१८।२६।२० दहै । यहाँ 
बुध शीघ्रगति ग्रह्‌ शनि से लगभग २अंशभगेहै, अतः शनि से युति 
करके आगे बड गवादे । इसी प्रकार यदि शुक्र ५।१०।१५।४० तथा मंगल 
५।१५।२०।४४ यहाँ शोध्ग्ति ग्रह॒ शुक्र मन्दगति प्रहु मंगर पसे लगभग 
५ अंश पी है, यदीं युति रेष्य है अर्थात्‌ लगभग ५ अंशकाभोग करने के 
परचात्‌ शुक्र ओर मंम की युति होगी । 


युतेगंतगम्यदिवसानां ज्ञानम्‌- 

ऋ जु 7तिखगयोस्तु वक्रयोर्वा विवरकूला गतिजान्तरेण भक्ताः । 

गतिजयुतिहूता यदैकवक्रो युतिरगता प्रगताप्तवासरः स्थात्‌ ।। ३ 

मल्लारिः--अथ ग्रहयुतिदिवसज्ञानमाह मागिणोद्धयो ग्रहयोः सतोः । अथ वां 
वक्रयोरद्रयोर्रहयोः सतोः । तदन्तरकलाः कार्याः । ता गत्यन्तरेण भक्ताः । यको 
व्री परो मार्गो तदाप्यन्तरकला गगियोगं भक्ता कार्याः 1 "जानप्तदिरनग्रहुयुतिगम्या 
गता पूर्वोक्तलक्षणेन स्यात्‌ । 

अन्रोपयत्तिः ~ यदि गत्यन्तरकलाभिरेकदिनं तदा प्रहान्तरकलाभिः किमिति 
वक्रिणि गतियोग एवान्तरमिति । अतस्तत्र तेनैवाप्ता कभ्वदिनैरेष्यगतंग्रहयुतिसमयः 
स्यादित्युपपन्नम्‌ ।1 ३ 


चन्द्रिका -दोनों प्रहु वक्रोहों या दोनोंहीमार्गीहोंतो दोनोंका 
अन्तर कर { उनके कादि मानमें) दोनोंकी गतियो को अन्तर कला 


२५१ ग्रहुलाघवे 


से भागदेने पर जो रुन्धि हौ उतने दिनों मे युति के गत गम्य काल होते 
है । यदि एक प्रहु मार्गीं तथाएक ग्रहुवेक्रौहोतो दोनों की गतियो के 
योगकोकलासे भाग देने पर रुन्धि तुल्य दिनोंमें युति के गत गम्य 
कालटहोतेर्ह।३ 


उदाहरण-- स्प. श. १०।२।५८।४४ गति ३।३ स्पष्ट मद्कर १०।६। 
३५।९ गति ४२।५० दोनों ही मार्गीं अतः दोनों ग्रहों का अन्तर 
(१०।६।३५।९- १०।२।५८।४४) = ३।३६।२५ हुआ । इसके कलादि मान 
२१६।२५ मे दोनों की गत्यन्तर कला (४२।५० -३।३) = ३६।४७ से भाग 
देने से रन्धि ५।२६।२३ दिवसादि प्राप्त हूर्ई । भर्थात्‌ वैशाख शुक्ल दशमी 
से ५ दिन २६६दी २३ पल पुवंदही शनि मङ्गल को युति हुई थी। 

ग्रहयोद॑क्षिणोत्तरान्तरज्ञानम्‌- 

चाल्यौ खेटौ समौ स्तो ग्रहुयुतिदिवसेश्चन््रबाणः स्वनत्या 

संस्कार्योज्त्र ग्रहौ स्वेषुदिशि समदिशशोस्त्वल्पदाणोऽपरस्याम्‌ ॥ 
` एकान्याशौ यदेषु विरहितसहितौ खेटमध्येऽन्तरं स्याद्‌ 
भेदो मानेक्यखण्डादिह रघुनि तदात्पं हि क रम्डनाद्यम्‌ ॥४ 


मल्लाः अथ ग्रहयोर्दक्षिणोत्तरदिक्‌संस्थानं तदन्तरं च साधयति, 
श्रहयुतेयं दिवसाः समागतास्तंदिवसैः स्वगत्या ग्रहौ चाल्यौ तौ राश्याद्यवयवेन समौ 
स्तः । अश्र चन्द्रस्य शरः स्वनत्या सूर्ग्रहणोक्तरीत्या कृतया संस्काय:। ग्रहौ 
स्वशरदिशौ ज्ञेयौ । यस्य ग्रहस्य षर उत्तरः स ग्रह उत्तरस्याम्‌ । यस्य दक्षिणः 
गरः प दक्षिणस्यामिति । दयोः शरयोः समदिशो सतोर्योऽल्पबाणो ग्रहः सोऽधिक- 
ररग्रहादन्यदिशि ज्ञेयः । इष प्रहयोः श्रौ यदा द्वावपि एकदिलशौ तदा तयोरन्तरं 
कार्यम्‌ । यदाभिन्नदिशौ तदा तयोर्योगः । ग्रहयोमष्ये तदृक्षिणोत्तरमन्तरमंगुलात्मकं 
स्यात्‌ । चतुविरतिभक्तं॒चेद्धस्तात्मकमपि स्यात्‌ । इह शरान्तरेग्रहयोमनिक्य- 
खण्डात्लघुनि अल्पे सति ग्रह चिम्बर्योर्भिदः स्यात्‌ । तदा सुर्यग्रहुणवदत्पं लम्बनाच- 
मत्र कि कत्त॑व्यम्‌ । अत्पविम्बत्वात्‌ स्पर्शादिष्रु नोपलम्यत्‌ एव । अतो लम्बनादि 
जडकमं किमर्थ कार्यमिति भावः 1४ 

अश्रोपपत्तिः--ग्रहयुतिदिवसा ग्रहयोरन्तरे गतिवश्चात्‌ साधिताः ! तेदिवसै- 
श्चालितौ ग्रहौ समौ भवतत एवेति प्रत्यक्षम्‌ 1 अत्र चन्द्रेण सहान्यग्रहस्य योगे साध्ये 


प्रहयुत्यधिकारः २५३ 


चन्द्रशरः स्वनत्या संस्कार्यं एव यतो नत्िरपि दक्षिणोत्तरमन्तरम्‌ । अत्रापि 
ग्रहुकक्षयोभिन्नत्वं द्रष्टुम्‌ पुष्ठगतत्वं चेति हेतुद्रयं वर्तते एव 1 अत्श्चन्द्रश्षरो नत्या 
संस्कार्यं एव इति युक्तम्‌। ग्रहौ स्वशरदिशावेव भवतः शरयोदिक्‌साम्ये अत्प- 
बाणोऽधिकेबाणादन्यदिशि भविष्यत्येव । अथ ग्रहृयोर्दक्षिणोत्तरमन्तरं साध्यम्‌ । तत्त 
शरान्तरतुल्यं क्रान्त्यन्तराभावात्‌ । अत एक दिशोः श्रयोरन्तरं कार्यम्‌ । ध 
दिशोः शरयोर्योगो विन।ऽन्तरं न सिष्यत्यतो योगः कार्यं इति दक्षिणोत्तरमन्तरं 
स्यात्‌ । स एव प्रासस्थित्यादिसाघनार्थं स्पष्टः शरो मानैक्यखण्डान्नयुने हरे ग्राह्य - 
ग्राहकविम्बसंयोगः स्यात्‌ । तदाऽधः स्थो ग्रहुर्चन्द्रे ऊष्व॑स्थो रविरित्यादि प्रकल्प्य 
अकरल्पिताकदिदिवं छग्नादि कृत्वा लम्बनादि साध्यं तत्‌ स्पर्चादिकाके देयं ते स्पष्टाः 
स्युः इत्यादि विम्बस्वल्पत्वात्‌ स्पशदिद्ंनाभावात्‌ क्रिमर्थं जडक्मं का्यमित्या- 
चार्येणोक्तं तदपि युक्तम्‌ ॥४ 


दैवजवर्यस्य दिवाकरस्य सूतेन मल्लारिसमाह्ुयेन । 


वत्तौ कृतायां ग्रहुराचवस्य।भूदृक्नदोप्त्यानयनाधिकारः ॥। 
इति ध्रोग्रहुराववध्य टीकायां ्रहयुत्यधिकारस््रयादशः ॥१३ 


चन्द्रिका - पूर्वोक्त विधि से साधित दिवसादि मानमे ग्रही को 
चालित करने ( अर्थात्‌ युति कालमें ग्रहोंको स्पष्टुकरने) स र्यादि 
मानम ग्रह समान हो जयेगे। केवल चन्द्रमाका शर अपनी नतिसे 
संस्कृत करना होगा) शरकी दिशाके अनुसार ग्रह्‌ की दिशा होगी, 
यदि दोनों ग्रहों कै शर उत्तर द्शाकेह तो जितत ग्रहुका शर बड़ा होगा 
वहु उत्तर दिकशाकातथाछोटा शर वाला दक्षिणदिगाका होगा । इसी 
प्रकार यदि दोनोंके शर दक्षिण द्शाकेहौोतो बडे क्षर वाला दक्षिण 
तथा छोटे शर वाला उत्तर दिकश्ाकाहोतादहे। 


एक ही दिशामेंदोनों ्रहोकेशर होतो दोनोंका अन्तर करने 
तथा भिन्न दिशाकेहोतोदोनोंका योग करने स दोनों ग्रह्‌ विम्बोंका 
अन्तर ज्ञात होता है। यह्‌ अन्तर दोन ग्रहों के विम्ब व्यासके योगार्धसे 
अत्पदहोतो दोनों प्रहविम्बो में मेद होता है। य्ह म्बन आदि का कोड 
प्रयोजन न्हींहै।४ 


२५४ ग्रहुलाघवे 


उदाहरण ग्रहों के युतिक्रार मे साधित मङद्धछ १०।२।४२।४९ तथा 
कनि १८।२।४२।४९ पवंनियम सं साधित मङ्धरु का शर १६।११ 
अङ्गुलादि दक्षिण दिशाकाहुंभजा। तथा शनिका अद्भुलादि शर १४७ 
दक्षिण दिशाका हुआ । यहाँ दोनों ग्रहोका क्षर एकह दिक्षा काह 
भतः बृहत्‌ शर वाला मङ्खल दक्िणदिलाका तथा अत्पद्चर वाखा शनि 
उत्तर दिशाकाहुआ। एक ही दिशा होनेमे दोनों शोका अन्तर 
(१६।११ - १४७) = २।४ दोनों ग्रहो का विम्बान्तर हृभा। दोनो के 
विम्बोका योम (१।५० + १।३३) = ३।२४ का आधा १।४१ विम्बान्तर से 
अत्प ह । अतः दोनों काभेद नहीं देगा केवल सरागा ' 


श्री गणेश देवज्ञ विरचित ग्रहुलाघव के ग्रहुयुत्यधिकार की चन्द्रिका 
नामक सोदार्हरण हिन्दी व्याख्या सम्पूणं । १३ 


पाताधिकारः-१४ 


व्यत्िपातवैधुतिपातयोलक्नषणम्‌ -- 


नन्दध्नायनमागतुल्यघटि कोनाः साघेविरवे तथा 
तारास्तावति साग्रयोगविगसे पातो व्यतीपातकः! 
जेयो वैघुतिरत्र यातघरिक्षाः सव॑क्षेनाडोहताः 
स्पष्टाः स्थुः शरषडहूता इह तमोऽ सायनांशौ कुर ॥ १ 
मट्छारि--अथ पाताधिकारो व्याख्यायते । नवभिगु णिता येऽयनांशाः । 
तत्तस्या घटिकाः स्यु; । ता घटिक्राः षष्टिमक्ताः । ऊध्वंस्थाने योगोऽपि भविष्यति । 
तदूनाः सार्धविर्वयोगः १३।३० अथ सप्तविशतियो गाश्च २७ तदूनाः कार्या । 
तावान्‌ सावयवो योगो यस्मिन्‌ कठि प्रतिमासे भविष्यति तस्मिन्‌ कारे क्रमात्‌ 
व्यतीपातो वधु तिरिति । भत्र योगस्य या यातचटिकास्तास्तदिनिजस वनक्षत्रनाडो- 
भिर्गृण्याः शरषडमिः पञ्चषष्ट्या भक्ताः सन्त्यः स्पष्टाः स्युः । इहास्मिन्‌ काले 
तमोऽ राहुमू्यो सायनांशौ कुर । अत्र पातसाधनेऽमुनाऽऽचार्येन राहावयनांशा 
देयाः । रवौ च देयाः । ततो विराह्वरकात्‌ खण्डानि सन्धिविचारदच कृतः । इदमल्प 


बुद्धीनामयु कमिव प्रतिभातियतोऽयनांशसंस्कारः क्रान्तावेव न शरसावने। अतएव 
करणकुतुट्रे । 


“विना सपातेन्दुमिहायनांशकंयु तो रविः शीतकरक्च गृह्यात्‌" इति । तेषां 
्रान्तिनिराशार्थमुच्यते 1 अत्र पातः सायनचन्द्रसूर्ययोगो द्वादक्षषड्‌रारितुत्य एव 
तद्थ॑मत्राचयेण चन्द्रं विनैव सूयंराहुभ्यां परत साधनं कृतम्‌ । तेन सायनः सूयं: 
सायनराहृयुनः क्षराथमङ्ूगीकृतः । स॒ चादत्तयनांशचन््रस्यादतायनांशराहूनितस्य 
भुजो मुजसाधनरीत्या समान एव भवति । त्रोदाहरणं यथा । अयनांशाः १८ । 
गणितागताः सूर्य चन्द्र राहवः । सूर्यं १।९२। चन्द्रः २।१२। राः ५।७ अत्र व्यगु- 
चन्द्रः १०.५। सायनः सूर्यः २ चन्द्रः ४। राहुः ५।२५। राहुयुतः सूर्य ७।२५। 
अभ्य भुजः 1१।२५। ग्यगुचन्द्रस्य १०।५ भुजेन तुल्यो भवति १।२५; अतस्तमोऽ्कौ 
सायनां साविति युक्तमुक्तम्‌ ! पातका सिद्धे तत्काखीनसूयं चन्द्रराहवः साध्याः । ततः 
ररसाधनाथमदत्तायनां श राहूनितादत्तायनां यचन्द्रावेव शरः क्रान्तसंस्कारार्भ्‌ साध्यः 
अथवा सायनचन्द्रसायनराहुम्यामेव शरः साघ्यः स शरो निरयनांशाम्यां सातितेन 
तुल्य एव भव्ति युक्तस्तुल्ययोः कपयो सिप्तमोरन्तरे केवलथोरन्तरमेव सिद्धम्‌ । १ 


२५६ ग्रहुलाघवे 


अत्रोपपत्तिः-पातो नाम रविचन्द्रयोः क्रान्तिसाम्यम्‌ ) तक्र चन्द्रक्रान्तिः 
शरसंस्कृता सू्यक्रान्त्या यदा समा स्यात्‌ तदा पातमधघ्यकालः। तत्रादौ रवि- 
चन्द्रयो्मध्यमक्रान्तिसाम्यं साधयति । मध्यक्रान्तिसा्यं तयोभु जसाम्ये स्थात्‌ 
भुजसाम्यं तु रविचन्द्रयोः षड्राशितुल्ये योगे भवति । नन्वेवं चेत्‌ तदा रविचन्द्रयोः 
षडराश्ितुल्ये द्वादराराशितुल्यं अन्तरेऽपि भुजमाम्यम्‌ । क्रान्तिमाम्यमस्ति 1 ठत्रापि 
पात्तस्तहि मासमध्ये पात्तचतुष्टयं वक्तव्यम्‌ । सत्यम्‌ । तत्र पातकाले स्नानदानादिकं 
फलमाचायंणोक्तमस्ति । तदस्मिन्नेव पातद्वधे उक्तमस्ति अतस्तदुद्रय नोक्तम्‌ । अतो 
रविचन्द्रयोगादैव पातः साध्य इति युक्तमुक्तम्‌ । पञ्चांगोयो योगोऽपि रवीन्दुयोगा- 
देव सिद्धोऽस्ति । अतश्तस्मादेव पातः साघ्यते। चक्रार्घनुत्ये योगे सार्धत्रयोदश 
योगाः। चक्रतुल्ये योगे सप्तविद्तिर्योगाः अतस्त एवांगीकृताः 1 अत्र योगो 
निरयनांशात्‌ क्रान्तिः सायात्‌ । अतोऽत्रयोगे द्विगुणायनांचोत्यन्नयोगो न्य॒नी- 
कर्तव्यो निरयनांशयौगर्योगयोगस्य कृतत्वात्‌ । यदि चक्राः ३६० सप्तवि्यत्ि- 
२७ रभ्यन्ते तदा द्विगुणायनां शैः किमिति फक योगस्तस्य घटीकरणार्थं षष्टि; ६० 
गुणः । एवमयनांशानां द्यं षष्टिः सप्तविक्चतिरिति गुणत्रयं तद्घातो जातो गणः 
३२४० । ह्रदचक्रांशाः ३६० । एवं गुणहरी हरेगापवत्यं लब्धां गुणस्थाने नव । 
सतो तवगरुणा यनांशवुल्यवटीमिः साधत्रयोदशच सप्तविशतिश््चोनास्तत्त्‌ल्ययोगे गते 
पातः स्याद््युपपन्नम्‌ । अत्र योगाः स्थले घटिका मध्यमाः । तासां स्पष्टीकरणा- 
यानुपात्तः 1 यदि परमाभिः पञ्चषष्टिमिताभिः सव्षवरिकाभिरेता योगघटिकास्त- 
देष्टसवक्ष॑नाडीभिः क्रिमिति । अत्रे पते सायनांशस्यैव प्रयोजनमतः सायनांशावेव 
कार्याविल्युपपन्नम्‌ । १ 

चन्द्रिका-अयनांश को ९ से गुणा कर गणनफल्को घट्यादि बनाकर 
१३,३० धल्यादि मे घटाने से शेष तुल्य सावयव योग गत होने पर ग्यति- 
पात नामक पात होता है । इसी प्रकार अयनांश मे ९ का गुणाकर गुणन- 
फल को २७ घटी में घटने से शेष तुल्य सावयव योगों कै भीतने पर वैवृति 
नामक पात होता है। 


योग की गत घटी को नक्त्र कौ पूणंघटी (भमोग) से गुणाकर ६५ का 
भाग देने सै रन्धि गत स्पष्ट घटो होती है । पातसाधनाथं सूयं तथा राहु 
दोनों मे अयनांश जोड केना चार्हिये ।१ 


उदाहरण--स्पष्ट सूयं १।२।३५।६ गति ५७।३३ स्पष्ट चन्द्रमा ९।२०५८। 
३५ गति ७६२।४९, राहु, ०।२५।९।५२ धनिष्ठा नक्षत्र को गत॒ धटी ३।४९ 


 पाताधिकारः २५७ 


एष्य घटी ५९।६ पणंमान ६२।५५ अयनांशा १८।११ । भयनांशञ ॒ १०।११ 
कोर से गृणाकर गुणनष्ल १६२।२९को ६० से ततिकर्‌ २।४३।३९ 
को १६।३० मेँ घटाने से शोष १०।४९।२१ सावयव योग बीतने पर व्यति- 
पात होगा । इसी प्रकार युक्त गुणनफर २।४३।३९ को २७ मे घटानेसे 
रोष २४।१६।२१ सावयव योग बीतने पर वेधृति पात होना । 

उक्ल सावयव योग ( ब्रह्मयोग) की गत घटो १६।२१की नक्षत्र 
की पूणं घटी ६५।५५ से गुणाकर गुणनफल मेँ १०२८।८७ मे ६५ काभाग 
देने से १५/४२ स्पष्टघटी हुई । सं. १६७० शके १५३- ठीकश्षाख क्रुषग ६ 
शुक्रवार कौ शुक्लथाग घ, ३०।१ इनमे स्पष्ट घटी १५।.९ जोड़ने ये 
४५।५० मध्यम क्रान्त सास्य (पात) हुमा । 

४५।५० को इष्ट घटी मानं कर पातकालिक सूयं तथा राहु का साधन 
करना चाये । पतकालिक सूयं १।२।२१।३१ राहु ०।२५।१०।३७ इममे 
भयनांश १८।११ जोड़ने से सायन सूरं १।२०।३५।३१ तथा सायन राहु 
१।१३।२१।३७ 
स्टवातसन्विपाताभावादिज्ञानम्‌ ~ 

गोलेवेये साग्वकभान्वोः सदा स्यात्‌ पातोऽन्यत्वे चेद्रवेर्बाहुभागः । 

पञ्चेषु म्योऽल्पास्तदास्त्येव पातः पुष्टाश्चेत्‌ तत्संशपस्तं च भिदृमः ॥२ 

खाश्रन्दुद्विरसा धुतिनंगज्ञराः साग्बकंभान्वोः पदे- 
वथेऽर्यानि तयगरद्रभुपतिनखस्त्यर्भ्ाणि भेदे कमात्‌ । 
क्षेपः धडदश चाककः टिजलबेर्वश्प्रभार्घक्यक 
लेषांशेष्यवधेषुभागसहितं सन्धिभवेत्‌ क्षेपयुक्‌ ।\३ 
सागवकभरजाशका यदात्पाः सन्धेः क्रान्तिसमत्वमस्ति चेत्‌ । 

अधिका न तदा भुजा्संध्यन्तरसादृद्यसिहापमान्तरं स्यात्‌ ॥४ 

मल्लारिः-अथ पातस्य सम्भवासम्भवविकेारमाह्‌ । साग्वकमान्व); सराहु- 
रविमरुययोरेकगोलत्वे सति सदा पातः स्यादेव । अन्यत्वे सिन्नमाल्त्वे सति 
रवैभुजभागा यदा वपञ्चेपुभ्योऽल्पास्छदा पातोऽस्येव । वेत्‌ पञ्चपञ्चानुदभि- 
कास्तदा तस्य पातस्य ठंशयः | भरित नास्ति वैति । तमपि संदह्य न्द्मि नलः 
याम इति । सराहुसूययोरेकत्वे खाश्रेन्दुद्धिरमा इत खण्डानि स्युः । पदमेदे व्यग- 

ग्र° का०-~१७ 


२५८ ग्रहुलाचवे 


रूद्रभूपतिनख। इति खण्डानि स्युः । अभर क्षेपः षड्मागा प्रथमस्य द्वितीयस्य दशु । 
अकस्य ये कोटिल्वाः सूर्य्य ये कोट्यशाः। तेषां य इरष्वंशः पञ्चमांशस्तत- 
माणानां खण्डनार्मैक्यं कायम्‌ । तत्खण्डेद्यं शेवाणामेष्यखण्डस्य च ये वधस्तस्य 
य इषुमागः पञ वमांधस्तेन सहित क्षेययुक्‌ च कृतं सत्‌ सन्धिर्भवति। एवं यत्र 
साग्व्कस्य मुर्जाजुकाः तन्धिभारेम्योऽल्वास्तदा क्रान्तिसाम्यमस्ति। चेत्‌ सन्धितोऽ 
धिकास्तदान पाततः । अत्र भुजांश्ानां सन्पररव यदन्तरं तत्समानं क्रात्यन्तर 
स्यादित्यथेः । 

अत्रोपपत्तिः-अध्र व्यतीपाते रव-न्रयोर्ोलिकत्वं वैधृते गोलान्यखन्‌ 
उभयतरःपि साग्वकभ।न्वोएछक्त्वे विदु चन्द्रो खन्न रसंस्कतेन्दुक्र न्ती रविक्रःन्भ्यग्र 
पृष्ठे चासमेव भवत चयापचयहतुमूतत्वात्‌ । सग्वर्काकिंरोर्गोलन्यत्वे चन्द्रषरम- 
हरेण ४।३०। चन्द्रस्य परमक्रान्ति २४ हीना १९.२३० अप्याः क्रान्तेरूकायां 
रविक्रान्तौ क्रान्तिसाग्यं भविष्यल्येव ` एनावती रविक्रान्ति्कभ्‌ नसा भं.दष्यतीति 
ज्ञानार्थं घनुष्करणरीटय ज्ञाता मुजभागाः ५५ एस्योऽत्वेषु र.वभुजनागेषु क्रान्ति- 
साम्यमवश्यमस्त्येवे । पञ्चपञ्वाशदद्रिकमु्जमागेषु मावाभावविचारः । तत पञ्च- 
पञ्चशदधिकमु भःगाप्रयोगनात्‌ रवेः कोटि भागा एव कायाः । ते परमः: उन्च- 
सिशत्‌ ३५ । तत्र भुजभागवर्मस्वे कोट्यंसाभावात्‌ दून्यमितान्‌ रविकरोट्यशान्‌ 
परकप्य पाततथवारः कृतः तत्र सदाहुमू्मूरययोः पदैकत्वे सराहुसूर्यमुजभागेषु 
वड़नेष्गेवे पातः । अतो रविकोस्य शेषु शून्यतुत्येषु षटतुल्यः सन्धिः । णवं पञ्च- 
तुल्यरविक्रोट्यकेष्वरपि षट्तुल्य एव सन्धः । एवं पञ्चोत्तरान्‌ भागान्‌ प्रकत्प्य 
साधितसन्ध्यंशानधौ विकोध्य षडूनान्‌ त्वा खण्डानि पच्चत्रिशदंलमध्ये ससत पटठि- 
तानि । णव तयोः पदःन्यत्वे षष्टिर भुजमागेषु तरिशल्मित कोट्यं शमध्ये षट्‌सन्धि- 
खण्डानि दशोनानि कृत्वा पठितानि । मध्येऽनुपातः । पञ्चभागैरयदि भोग्यखण्डं 
तदा शेषभागैः किमिति? षटृदश चोनाः कृताः। अतः संक्षेपो योज्य एव) 
एव जातो भागाद्ः सन्धिः । सन्धित पराहुमूयभुजमागेष्व्रत्पेषु पातो नाधिकेष्वि- 
तयुपपन्नम्‌ । मुअजःलानां सन्त्यंलानां यदन्तरं तत्तृल्यमेव क्रान्तो रन्त रमित्यर्थतः एव 
सिद्धम्‌ ॥२,४ 


चन्न सूर्यं त्था रष्टुयुक्तसूयं दीनदहीएकगोलकरे हौं तो 
सदेव पात दना ३! भिन्न गोलमेसूयंके ५५अशश -भुजांश्च तकं पात 
हपताहै। ५५ अश से अविक संका भुजांश होने पर पात का सन्देह 
हा जाताहै। उत पन्देहुका भी निराकरण कर रहाह।२ 


पाताधिकारः २५९ 


राहु युक्त सूयं तथा स्पष्ट सूयं दोनों ही यदि एक पदमेदहींतोक्रमसे 
०।०।१।२।६।१८ ५७ ये खण्ड पठित है तथा यदि वे भिन्न भिन्न पदमहं 
तो क्रम से ३।७।६१।१६।२०।२२३ ये खण्ड पटिति है । इनक्रेक्षेप भोक्रमसे 
एक पदमे ६ तथा भिन्नपदमे १० बताये गये हैँ) सृथंकी अंशादि 
कोटिमें ५ क्रा भाग देकर रन्धि तुल्य खण्डोंकायोग करं। देष अंशादि 
में रेष्य खण्डका गुणाकर गुणनफल के पच्चमांशको खण्डोंके योगम 
जोडक्रर अपने अपने क्षेप (एक पद मे ६ तथा भिन्न पदमे १०) जोडनेसे 
सन्धि होती है ।३ 

राहु युक स॒यंकाचुजांश र्या सन्धिसेअत्पहोतो परत को सम्भा- 
वना होती हि। यदि भुजांश सन्धिसे अधिको तो पात कौ सम्भावना 
नहीं होतो । 

भुजांश भौर्‌ सन्धि का अन्तर सूर ओर चन्द्रके क्रान्त्यन्तर के पमान 
ही होते ह ।४ 

उदाहरण -सूयं {।२७{०।० राहु ६।१५।०।० राहु युक्त सूयं ८१२ 
०० सूयं का भुजांश ५७ है। यह्‌ ५५ से अधिक है। भतः पात 
संदिग्ध दटै। । 

सयं की कोटि १।३ अंशादि ३३ 1 इसमे ५का भाग देनेसे प्राप्त 
रन्धि ६ । अतः ६ खण्डां का योग (०० + १--२ + ६ + १८) = २७। 
रोष मे एष्य खण्ड ५७को गृणा किया गुणनफर १७१मे पाचका 
भाग देकर कज्धि ३४१२ को खण्ड योग २७मे जोड़ने से (२७० + 
३४।१२) == ९१।१२ इपमे क्षेप ६ जोडने से ९७।१२ सन्धि हूरई। सहु युक्त 
सयं का भ्रुजांश ७२ सन्धि स अधिक है अतः पात की सम्भावना नहीं हुहं ! 
याततष्यपातयोीनम्‌ तं 

पदे युरनोजऽकःसमविधनगोके ततमत- 
स्तदा पातः पातस्त्वत इतरत्वे निगदितात्‌ । 


२६० ग्रहखछाघवें 


विभिन्ने गोले चेदिह कतश्चराङघ्रेखंघुतरा 
रवे्दोर्भागाः स्यादिह रविषदान्यत्वमुद्धितम्‌ ।\५ 

मल्लारिः-- भथ पातस्य गतागतलक्षणमाह । अर्कः सूरयः । यदि युगटपदै 
वर्तते सगहुमूर्यात्‌ सुमगोलेऽपि चैत्‌ स्यात्‌ तदा यातः पातो जेयः । अथ रविरोजपदे 
सराहूसूर्याद्‌ भिन्न गोले चैत्‌ ठदापि यातः पातः स्या । नियदित्तात्‌ उक्तटक्षणाद्‌ 
दतः त्वे भस्यथात्वे अगतत एष्यः पातः स्यात्‌ ¦ सराहूसूर्यात्‌ सू यर्चेत्‌ भिन्नगोले तदा 
छतो गणित्तागनो यः शरस्तध्य योऽडिघ्द्यतुर्याशिः । तस्माद्रदेमु जभागा दघ्रुतर) 
अन्पाः स्यल्तदः रविप्रदस्यं अन्यत्वम्‌ चितम्‌ । 

यत्रोपप्तः दत्र रविदन्द्रयमु अपाम्यःत्‌ रदिरेवाद्ुषेटः । रथिरा 
युग्सपदे तदः तत्य क्रास्तल्वद. जमाना तन ददाहुयुयाति पयास्वेऽपि समर्दिदः 
शरण युश सा ऊःन्तिस्प्े रौवेक्रान्प्या न स्मास्यःत्‌ । अतस्त अर गतः 
मेयः । ओजपदे द्तमःसघ्य क्रान्ति धचीयमाना सा सगण्टुसू यभिन्नमः छत्वे संत 
भिन्न दिला चरणान्तटिदषप्यप्रे सूयक्रान्त्या न सपरा ्वन्त्‌ । अद्ल्त्रय दत्तिः प्रतः 
स्यात्‌ तदन्यथास्े मभ्य. परत इत्युदपन्नम्‌ । अन्न -न्द्रन्य गोः स्नवः सव्य; । त्प 
चन्द्रो न ती रनिरवःस्ति चन्द्रौ भुगतःम्यात्‌ ॥ सरण कत्वा गःलःन्यर्कसम्नवः 
सन्ध । तत्रं शरागुलभागा. साघ्यन्तं । परमक्रन्त्या २४ न्ज्यादुष्या दज 
तदेष्टशरतुस्यक्रान्त्या केति । एवमिष्टदो्ज्या तस्य धनुः करणा सुधां हौ दर्‌ 
शराटाना रसगुणत्वःत्‌ ददा हरः । एवमन्नं हुरघादः हरः ४८० । ञः यु५. । 
तेनैवा वत्तने जातः दारस्य हरः ४, द्वं चु्मवतद्चनदत्पभुरमापेु {मत्नयःल- 
त्वात्‌ पदाभ्यत्तरे भविष्यतीति युक्तम्‌ । तेन कत्तशरद्घ्रेलघरतरः रद्द: 
दव्य पन्नम्‌ ॥५ 

चन्दिष्ला- पूर्य पम पदमे हा तथा राट पृक्तसृय्प सममोलमेहुः 
<थ्वा सूयं विषमपदा ओर राहुं युक्त सूय भिन्न गेल्येद्धो द) 
गते (बीता हूः) पाते जानना चाष्टये । इससे भिन्त स्थित्ति म पात एष्य 
( आने काला होता ह । भिन्न गोल होने पर वक्ष्यमाण विधिसे सःत 
शर कैः चतुधदासे यदि सूयके भुजांश भत्पहौोतो रूयंद्ो अन्यं पद 
मानकर गत गम्यकाद्धान करना चाह्यि। ५ 
खण्ड रासूक्ष्मररसाघनम्‌-- 


(दयन नि गर्‌ न द 7 = न ^ 2. = 01 (तन्वन श्र नि १4 = . 
प्ल! सागराः पल्य स्हूयः ह सतुषे © ्रुस्शस द्ध इदः । 
न क 


र स ६ १ व च. द 
सारि नाद्ोलन्य्ष -ठस्दर.ट) स मोर्य्तहुतोप्द १।२. हः ४१६८; एर: । ९ 


पाताधिकारः २६१ 


मत्लारिः-अथ पातसाधने हेतुभूतशर खण्डकः सूक्ष्मं साघयति । इषोः 
शरस्य एतेऽङ्का स्थुः । सागराश्चत्वारः पञ्चधा । वह्वुयस्त्रयस्तेऽपि पञ्चधा । 
द्रौ चतुर्घा। ततः कुभृखाभ्नम्‌ । कुरेकः । खं गून्यम्‌ । अश्रं शून्यम्‌ । एतेषां 
समाहारस्तत्‌ तथा । त्तः साग्विनात्‌ सराहुसूर्णाद्‌ दोखवानां भुजमागानामिष्वंशः 
वञ्वमांशः । तत्तूल्या ये गताङ्धुस्तेषामेवयं कार्यम्‌ । ततः रोषांानां भोग्याद्कुघ्य 
च या हतिः तस्या यः पञ्चमांशस्तेन युद शरः स्यादित्यथंः । 

अत्रो पत्तिः -- लरस्वरूपं पू वमेव प्रतिपादितमस्ति । अत्र पञ्चपजञ्चभागानां 
शरमागादिकमुत्वाय्च प्रावववत्वाह्‌ शधिः सवर्णयित्या धिद्धान्‌ चवति । भूजभागा- 
नापरष्टादशशराष्टुानाचायंः प्रोक्तवान्‌ । मध्ये तत्रानुपातः यदि पञ्चमिमु जमगीरेकः 
शराङ्को रभ्यतं तदेष्टभुजभागैः कियन्त इति अत उवं भुजमाग पञ्चा शतुल्य- 
गताद्खुक्ये कार्यम्‌ । शेषाणामनुपातः । पञ्चभिर्भोग्पखण्डं छभ्यते तदा 
ओैषमा्गैः कियन्त इति) अनः लेषभोग्यखण्डवधपञ्चममांगेन युक्तं तदैक्यं शरः 
स्यादित्युपपन्नम्‌ ॥।६ 

चन्दिका --सृक्ष्म शर सावन कै लिए ५ वार ४ (भर्थात्‌ ४।४।४।४।४), 
५ बार ३( अर्थात्‌ ३।३।३।३।३ ), चार बार २ ( अर्थात्‌ २।२२।२) तथा 
१।१।०।० ये अद्ध पठिनदहं। सहु युक्त सूयक मुजांशमे ५ का साग 
देने सेप्राप्तलन्धिके संख्या तुल्य पटिति अद्कोके पोगकौ पृथक रखें । 
ठेष्यर खण्ड सं शेष को गुणाकर गुणनफखमे पाचि का भाग देकर छन्धको 
अङ्कोकं योगमें जीड़नेसे शर होता है ।६ 

स्पष्टार्थं परित अङ्कं काक्रम से न्या्ष-- 

४1४।४।४,४। ३।३।३।३1 ३।२।२।२।२।१।१।०।० । 

उदाहुरभ-- राहु युक्त सयं ३।३।५४५८ इका श्रुजाश ८६।५।५२ ईक्षे 
{क्रामय देने से लब्धि १७ तथा शेष १।५।५२ प्राप्त हुआ । रन्धि तुल्य 
१७ अङक का योम - 

४1४4४४4४ ३1२4३1३ +३4+२+२+२+ २1१ 
१ + ० = ४५। 

देष १।५।५२ को एेष्य मंक ° से गुणाकर गुणनफल °।०ण्मे५का 
भागदेनेसे ल्न्धि ° को अङ्कोंके योग ४५ मे जोड़ने से ४५० = ४५ 


२६२ ग्रहुटाघवे 


शर हुमा । राहु युक्त सयं उत्तस्मोल काट, अतः शर उत्तरदिशाका 
हुमा । शर के चतुर्थांश ११।१५ से भरजांश मधिक है, अतः अन्य पद 


नहीं होगा । 
स्पष्टक्चरसाधनम्‌ -- 

खेफादिके रविभुजांशदशांशफे स्याद्‌. 

हारोऽकंसुयंमनुधत्युडनोऽङ्धःरामाः । 
खाश्वा द्िज्ञभ्त्यु इगुणास्तु शराद्धसप्त्या 
हीनोऽत्र स ह्यपम शंस्कृतये स्फुटः स्यात्‌ ।\७ 
मल्छारि -- अथास्य शरस्य क्रान्तिसंस्कारयोग्यत्वाथं स्पष्टत्वमाह। रवे 

भृजांशा ये स्युः । तेषां यो दशमांशः । तस्मिन्‌ खंकादिके बून्यैकादि समे सति 
क्रमादयं हरः स्यात्‌ 1 अर्का दादश । पुनः सूयं द्वदश । मनवश्चतुदशं । ुतिरष्टा- 
दश । उड्नि सप्तविंशतिः । अङ्खरामाः षटत्रिंशत्‌ । वखाश्वाः सस्ति: । द्विशती 
प्रसिद्धा । उङ्गुणाः सप्तविशत्यधिकशतश्रयम्‌ । एवमत्र शरात्‌ क्रमप्राप्त हरेण या 
ङन्बिस्तया स एव शरो हीनः सन्‌ क्रान्तिसंस्कारयोग्यः स्पष्टः शरः स्यादित्यर्थः 1७ 


अध्रोपपत्तिः--अत्र क्रान्तिघृवाभिमुली अतः सा कोटिरूपा शरः कदम्बाभि- 
मुखः स॒ कणंरूपः 1 अतः क्रान्तिसंस्काराथं शरस्य करणरूपस्य कोटिरूपत्व 
कायम्‌ । तद्यथा यदि त्रिज्याकणें चुज्याकोरिस्तदा शरकर्णे का कोटिरित्ति जातः 
कोरि छूपः शरः । एवमत्र चुज्या कीर्या । चुज्यानाम चुरातरवृत्त व्यासार्ध॑म्‌ । तत्र 
क्रान्तिज्या भुजो चुज्या कोटिस्तिज्या करणः । एव क्रान्तिज्यावरगोनस्तिज्या वर्गो 
चुज्यावगंस्तन्मूलं च॒ज्येति कत्तग्यम्‌ । अत्रेदं जडकम दुष्ट्वा भावार्येण दक्चभागानां 
दयुज्याः साधिताः । ततर प्रथमं दह्भागानां क्रान्तिज्यायां क्रियमाणायां सत्रिरारिग्रहः 
कार्यः एवमत्र सत्निराशीनां दशभागानां दूज्या ११० । शरोऽनया गण्यः खार्क- 
मितित्रिज्या भाज्यः। भत्र गुणहरो दशामिरपवततितौ जातो गुण एकादश १६१। 
हरो दादश १२1 यो राशिरेकादशभिर्गुण्यते द्वादश्चभिभंज्यन्ते स सवद्वादचांशहीनएव 
भवति । एवं सर्वेऽपि हरा उत्पादिताः अतः श्रः स्वरलनश्ध्या हीनः क्रान्तिसंस्कार- 
योग्यः स्पष्टो भवतोत्युपपन्नम्‌ ॥ ६ 


चन्दरिका--स॒यके भुजांश १० काभागदेनेसे ०१ आदि जो 
लब्धि प्राप्त होती है) उप के भनुसारक्रम से १२।१२।१४।१८।२७।३३) 
*दविदिङ्‌ इति पाठान्तरम्‌ | 


षाताधिकारः २६३ 


७०।२००।२३२७ हार भो पटिति है! रुन्धिके अनृसार्‌ जी हूर प्राप्त 
हो, उससे शरमें भाग देकर लन्धिको शर्म घटानेसे क्रान्ति संस्कार 
हेतु स्पष्ट शर होतार । ७ 

उदाहरण -सयं भुजांल ५०।३२।३१मे १०काभागदेनेसे रुन्धि 
५ प्राप्त हृदं शून्यादिक्रम से छठां अङक ३६ ेष्याङ्धु ७० दोनों के अन्तर 
३४से दोष ०।३२,३१ गुणाकरं गुणनफल १८।२५।३४ मे १० का भाग 
देकर ठकन्धि १।५० का गनाङ्क ३६ मे जोडनेसे ३७।५० स्पष्ट हूर 
हना । इससे शर ४५।०्मे भागदेनेसे र्न्वि १।११को शर ४५।०बे 
घटाने से ४३।४२ स्पष्ट उत्तर शर हुआ । 

विज्ञेषः- यहां स्पष्ट शर साधनमे गणेश दैवज्ञके नियममें कु 
स्थूलता रह गड्‌ है जिततकरा निराक्ररण विर्वनाथ ने अपने उदाहरण में 
कियादटै। 

गताद्धुः ओर रेष्याङ्धु के अन्तरसे शेषको गुणा कर गणनफल में 
१० काभाग देकर छन्धिको गताङ्कु मे जोडने से स्पष्ट हार होता है । 
क्रान्तिसाघनार्थमङ्‌्काः- 

चतुर्धा नखा गोमुबो द्विगंजाज्जा नृप्टोग्द्रविह्वाकंदिग्वस्वगाक्षाः । 
त्रयः कष्मापमाङ्काः क्रमादकबाहौरुवेष्वश तुल्यो गतो न्यस्य जेषम्‌ ॥८ 

मल्छारिः- अथ क्रान्तेः कत्तंव्यताप्रकारं खंण्डरेवाह्‌ । एवमपमस्य क्रान्ते 
रङ्खाः स्युरित्यन्वयः । नखा विश्तिडचतुधा ततो गौभुव एकोनविशतिः द्विवारम्‌ । 
गजाग्जा भष्टादक्ष । नृगा षोढश अष्टिः षोड । इन्द्राश्चतुर्दश । विश्वे त्रयो 
दश । अर्का द्वादश । दिशो दर । वसवोऽष्टौ । अगाः सप्त। अक्षाः पञ्च। 


त्रयः प्रसिद्धाः। क्ष्मा एकः । अकस्य यो बाहुभु जस्तस्य ये लवास्तेषामिष्वंशः 
पञ्चमांस्तततुल्यो गतो दधुः स्यात्‌ शेषं न्यस्येति शेषमेकान्ते स्थापनीयमेव ) 
बत्रोपपत्तिः--क्रन्तिलक्षणं पूव॑मेव प्रतिपादितम्‌ । पञ्चपश्चभागजान्‌ क्रान्ति- 
भागान्‌ प्रसाध्य सावयवः शद्‌ दशभिः संगुण्याद्धाः पठिता । तत्रानुपातः । यदि 
पञ्चभिर्भृजमागेरेकः क्रन्तेरडको कम्यते तदेष्टमुजभागैः कितिति । कम्घतुल्यो 
गताङ्कः स्यात्‌ शेषस्याग्रे प्रयोजनमस्त्यतस्तत्‌ स्थाप्यम्‌ ॥८ 


२६४ ग्रहलाघवें 


चन्द्रिका--चारबार २०, दो बार १९ तदनन्तर १८, १६, १६, 
१४, १३, १२, १०, ८, ७, ५, ३, १ ये क्रान्ति साधनाथं अङ्कदँ। सूयक 
भृजांशमे५काभागदेनेसि प्राप्त ल्प संख्या तुल्य पठित गताङ्कु हूते 
है । दोष को पृथक्‌ रखे ।८ | 
स्पष्टाथं पठिन क्रस्त्यङको का क्रम से न्यास- 
२०।२०।२०।१०।९९।६९।१८।१९६।१६।१४।१२।१२।१०।८1७1५1३।१। 

उदाहरण -सायनसुयं के पजं ५०।३२।३१ मे ५ का भागदने 
से लबन्धि १० प्राप्त हह ¦ दसवीं अङक १४ गताडःक हुभा । रोष ०।३२।३६१ 
रहा । 
पूवप!उतानाप्द्‌कानां पस्कारः-- 

क्र तनोतक्नलादुकश्तपा दान्‌ सद्या हि भोग्यात्‌ सतः षडड्ुः । 

स्थाप्या पतस्या गते गप्यपाते धुग्मेऽन्यथौजे स्युरिमेऽयनां शराः ५९ 
अन्त्ाद्धिलेमा यदि तेऽन्यटिर्का अथापसाङ्कःः क्रमशः श्राद्धः 
सुसंस्छृतास्वीन्दुहुतापरष्याद्धुनापि ते स्पष्टतरा भवेयुः ॥१० 


१, 


१ 


मल्लाः -अतः क्ान्तिखिण्डानां शरखण्डनां संस्यानक्रमं तत्संस्कारं च 
कथयति । उक्ता ये शरस्य तथऽयरतस्थं छान्तर्येऽङ्‌ कस्तान्‌ यथागतान्‌ आदौ 
क्रमात्‌ पश्चादुन्क्रमात्‌ पङक्याःह ग~यभग्यान्‌ अङ, कात्‌ क्रमतः यथाक्रम षडदूका 
गते पाते गता रेष्ये पातै ञ्यः: स्वपनोयःः । अयं प्रकारन्तु युग्मपदे । ओजपदे 
च यदा रविः सराहुसुप षा कदि तदा इदमन्यथः विपरीतम्‌ । तद्यथा । गते 
पाते एेष्ये पाते गता इमाटूका अयनदिशः स्युः । रविर्यस्मिन्नयने तदिशः 
क्रन्त्यङ्का उन्त्याद्विलोमास्तदा तेऽन्या देशौ ज्ञ याः । मोग्यादन्त्यपर्यन्तं येऽङ्कास्ते- 
ऽयनदिशः । अन्त्यादन्त्ये ये उकत्क्रमथास्ते विपरीतः । उल्तयायणे दक्षिण।यतें 
उत्तराः स्युरित्यथः । भथं शब्दोऽनन्तरवाची । क्रात्यड्‌कल राङ्कस्थपनानन्तरं 
क्रात्यङ्काः शराट्कंः सुसस्कृताः कार्याः अत्र संस्कारस्तु एकदिशौ योगो भिन- 
दिशोरन्तरमभिति प्रसिद्धः । ततस्तेऽङ्‌ कास्य न्दुहुतापमेष्याडः केन॒ त्रयोदराभक्त- 
क्रान्तिमोग्याङ्केनापि संस्कृताः स्पष्टतरा भवेयुरित्यथः 

 भत्रोपपत्तिः--युग्मपद खण्डनामग्रे उपचयः । तत्र चैद्गतः पातः । तञ्ज्ा- 
नार्थमभपचयमूताडः कग्रहुणम्‌ । अतो गताडः कंस्थापनमुक्तम्‌ । ष्ये पातं एेष्याड्क- 


पाताधिकारः २६५ 


स्थापनमर्यत एव सिद्धम्‌ । ओजवद इह्‌ विवरोत भवतति । अङ्कानानुपचयापचयस्य 
न्यस्तभूतत्वात्‌ । तेऽद्कुः स्वायनदिशि स्युरिति प्रव्यक्तम्‌ । अत्र यरपस्कृतायदचन््- 
क्रान्तेः सू्यक्रन्त्या पह यदन्तरं तज्ज्ञानं क्रन्त्यङ्काः शराद्धुःः संह्करार्या एव । 
शरस्य प्रथप्राङ्कुः क्रान्तेः प्रथमाङ्के षंस्करर्पः। एवं द्वितीयो द्वितीये इत्यादिषण्णा- 
पप्यङ्कानां संस्कारः कायं एव । अन्यच्च संस्कारान्तरम्‌ यदि चन््रगरिप्रमाणे- 
नेदं क्रान्तिमोग्यण्डं तदा रविगतिप्रमाणेन किमिति मोग्यखण्डं रविगत्या गण्यम्‌ । 
चन्द्रत्या भाज्छम्‌ । अत्र रविगतिस््रथोदश्गुणा चन्द्रगति भवत्यतः स्थूलत्त्रात्‌ 
भोग्याद्‌रस्वरधद्शमिमःज्पाः फं सर्वाड़केषु संस्कारार्थं चन्द्रमतिनम्बन्धित्वात्‌ । 
अतस्त्रीन्दुह्‌ ताधर्मष्याङ्‌ केनापि मस्र स्ते षडदुकाः सष्टतराणि क्ान्त्यन्तरषण्डानि 
चन्द्राकयो भवेयुरित्युपपन्चम्‌ ॥९. १० 

बन्दिक्रा -वूधा ठति शर्क भोर्‌ क्रान्त्यङ्को करो क्रम एवं उक्रमसे 
रख क, पात गत होने पर तथा सूयं एवं राहु युक्त सूर्ये समपदमें 
होने पर भोग्या्भुसे पिचछछकते ६ भद्कुः को स्थापित करना चार्दिपे यदि 
मयं एवं पतयुर सूयं वित प्द मेहोत्तो अग्रम ९ अद्रो क स्वन 
करना चरह्परे। इतो प्रकार गप्यरपात होते परपरम तदमे पुय कं हुनर 
भोग्याद्ुःसे अग्रि ६ अद्धो का {थापन करना चाहिये । 

मुय [विम अव्रत (उत्तरायग-दक्निणाधत) मेहो उ दिशा काक्रान्स्यङ्क 
तथा परतयुक्न वयं की दिशाकराशराद्भुः ग्रहण करना चाहिये मोग्यखण्ड 
कैक्रमसे यदि गणनाहो तथा अन्तिमाङ्कुसे आगे {पिरत अङ्को की 
स्थापताहोतोवे अदधुः भिन्न दिशाके होतेह । क्रान्व्यङ्घुमे क्रम्राप्त 
शराद्धं क! संस्कार (एक दिरामे योग. भिन्न-भिन्न दिला में अन्तर्‌) 
कर पुनः उत्मे भोग्याद्धुके तेरहवें भाग (१।१३) का स्स्कार करनेषते 
स्पष्ट होता है । ९,१० 

उदाहुरण--पव प्रथम क्रमसेक्रन्तिके अङ्कु को स्थापित करक 
उसके नीच उकक्रम स रखेगे । यथा- 

२०।२०।२०।२०।१९।.......-१ | क्रम, उत्क्रम १।२।५।........ २० इसी 
प्रकार लराङ्कोकोभो- 

४1४1६... ० क्रम, उटत्म ०।०।१।.....-- ४. 


२६६ , ग्रहलाधवे 


सायन सूयं १।२०।३२।३१। विषम पदमे हैँ तथा पात गम्थदहै। अतः 
भोग्यखण्ड (पूव श्लोक मे दसवां अङ्कु १४ गत तथा ग्यारहवां एेष्याङ्कु १३ 
है) १३ से पिले ६ अद्धो १३।१४।१६।१६।१८।१९ का प्रहण करगे । 
इनको दिशा र्‌यंके उत्तरायण होने से उत्तर हई । सपात सूयं ३।३।५४८ 
सम पदमेहैँ । गम्यपातहोनेकै कारण अन्तिम भोग्य खण्डसे अग्रिम 
६ अद्धो ००।०।१।१।२ को ग्रहण क्रिया । सपःत सयं दक्षिणायन में ह अतः 
शराद्कोमे प्रथम अङ्कु ०्कौ दक्षिण दिशा, दोष ०।०।१।१।२ करो उत्तर 
दिला होगी भिन्न दिया होने से प्रथम क्रान्त्यद्धु तथा शर! का अन्तर 
( १३ -०== १३ ) किथा तथा शेषाङ्कों की एके दशा होनेसे योग 
किया -- 
१४]।१६।१६।१८।१९ 
०] ०।१।१। २ 


१४।१६।१७।१९।२१ 
प्रयम अद्धुके अन्तरमें भी शेष उत्तरदिशाका ही है अतः १३।१५. 
१६।१७।१९।२१ सभी उत्तर दिश्ाके हुये] भोग्यं खण्ड १३मे १३का 
भाग देनेसे प्रा छ्न्धिष्को सभी अङ्को में जोड़ने से स्पष्ट भङ्कु 
१४।१५।१७।१८।२०।२२ हुये । 


पातस्य मध्यकालज्ञानम्‌-- 
प्राक्‌ स्थापिताः गेदलवाः शराप्ताः रूपाद्धिश्ुडा लघुक्तजलञकः स्यात्‌ । 
माद्य स्फ़टाङ्धमो लघुनाहतो यस्तेनाद्यबाणात्‌ कमरोऽथ जह्यात्‌ ॥११ 
तानङ्खकान्‌ शेषमशुद्धभक्त  विद्युद्धसंख्यासहितं लघनम्‌ । 
निन्नं भनाडीष्नमिभाप्रमाप्तयातेष्यनाडीष्विहु पातमध्यम्‌ ।॥११ 


मल्लारिः-- जथ पातका वृत्तद्रयेन साधयति । प्राक्‌ पूरवक्रान्तौ ये शेष- 
भगा एकान्ते - स्यापितास्ते शरः पञ्चभिराप्ता भक्ताः सन्तो यत्‌ फं तस्यं ॒श्प- 
दस्य ज्घुसंज्ञा । बडड्कमध्ये य आद्यः प्रथमः स्पष्टाङ्कुः स लघुना हतो गुणितः 
कार्यः । तेन वाद्यो युक्तो योऽत्र स्पष्टबाणः । तस्मात्‌ तनद्धान्‌ जह्यात्‌ शोधयेत्‌ ५ 


पाताधिकारः २६७ 


ततः शुद्धेष्व ङ्कुषु यच्छेषं तदशुदेनाङ्कंन भक्तं कार्यं तत्फल विशुद्धखण्डानां संख्या 
यावती स्यात्‌ तया सहितं युक्त च कायं ततस्तत्‌ लघुना उनं त्रिगुणम्‌ । 
पुनभनाडीमिः नक्षत्रस्वेवटीनिरगृण्यम्‌ । ततस्तदिभैरष्टमिराप्तं भवतं सत्‌ 
आसा लन्धा या यातष्यनाडयस्तासु पातमध्यः स्या । यातेष्यलक्षणं पूर्वमेव 
प्रतिपादितमस्ति। मध्यमपातकालात्‌ ताभिधघंटीभिर्गतो गम्यो वा पातमचघ्यः 
स्यादित्यथ: । 


अत्रोपपत्िः - भधर खण्डानि पञ्चपच्चभागानां तेनानुषातः । यदि पञ्चमिभगि- 
भोग्याद्को छम्यते तदा शेषांराः किमिति । अतः शेषल्वाः श्राताः कार्या पूव 
रूपादूना एव सदा स्युरिति तेषां भोग्यत्वकरणाथं ते रूपाद्विशुद्धा इत्युक्तम्‌ । तष्य 
लघुसंज्ञा कृता । तस्य भोग्याङ्कोगुणोऽस्त्यतो रुना हत आद्यः स्फुटाद्धः कायं 
इति सिद्धम्‌ । एवं जातं गं पाते शेषांशोत्थमोग्यखण्डमेष्ये रोषांशोनपञ्चांशोत्थं 
भोग्यखण्डम्‌ । इदमाद्यापरपर्थायान्मध्यक्रान्तिसाम्यकरालिकलरतुल्यक्रान्त्यन्तराच्छो- 
ध्यम्‌ । द्वितीयादिशवण्डान्यपि कशोघ्यानि । अत्राचार्येण प्रथमल्ण्डं सम्पूर्णं शोधितम्‌ । 
अतो भोग्योत्यमोग्यखण्डं गतं पाते मुक्तंसोटधमोग्यं खण्डं गम्ये पाते शरे योज्यम्‌ । 
घतः शेषल्वाः शराप्ता सूपाद्िशुद्धाः गते पाते टुः । गम्ये शोषांशाः शरापता एव 
लघुः स्यादिति युक्तम्‌ । अत एवाचार्यलिखिततज्जीणपुस्तके शप्राक्स्यापिताः सेष- 
लवा शराप्ता लघुभवेदमूच्युत एष्यपाते' इति पाठो दृश्यते । अस्यार्थः । एष्यापते 
शेषांशश राशो भृच्युतो लचुर्गते कि कत्तंग्यमिति मन्दधियां संशयो भवेदतः श्राक्‌- 
स्थापिताः शेषलवाः शराप्ता गम्ये लुभ पतितो गतोऽपौ' इति पाठो नितान्त- 
रमणीय इति प्रतिभाति । सूपाद्िशयुद्धो छषुसंज्ञकः स्यात्‌ इति पाठस्तु बासन- 
विरोघादुपेक्ष्यः । एवं यावन्तोङ्काः शुध्यन्ति तावन्तः शोध्या: शेषेण सहानुपातः । 
यदि अशुद्धाडः केन पञ्चमागा लभ्यन्ते तदाऽनेन शेषेण किमिति । अतः शेषम- 
शुद्धाडकभक्तं कार्यमिति । तस्मिन्‌ फले विदुद्धाड.क संख्या योज्या । तत्र पूर्व 
लघुः संयोजितो वत्तते स निष्काशनीय एव । तत्कालादेव पातज्ञानाथंम्‌ । अतो 
लघुनमिति । यदि चन्द्रगतिभागेरेभिः १३।१०। सवंनक्षत्रघटिका लभ्यन्ते तदेभिः 
शेषभाग: किमिति । अत्र शेषस्य सर्वक्षंनाड्यो गणः । अतो भनाडीघ्नमिति । भत्र 
हरस्त्रयोद्श सावयवाः १३।१०। पूर्वानुपाते गुणः प१ञ्चतुल्यः स्थितः । अत्र सञ्चारो 
यदि प्श्चतुल्ये गुणे सावयवास्त्रयोदश १३।१०। हरस्तदाऽऽचार्येण कल्पिते चरिमिते 
शणेकोवा हरः। न्धा अष्टौ । अतस्विघ्नमिनाप्तमिति । रम्धघटीभि्गतष्यं 
पातमध्य स्यादित्युपपन्नम्‌ ॥११।१२ 


२६८ ग्रहुलाधवं 


चन्द्रिका--पहरे (आवें इलोक के उदाहरन्‌ मेँ) स्थापित शेषको 
५सेभागदेने पररेष्यपातमे रषुसंजञाहोतीदहै। गतमेप५ सभाग 
देने परजो शेष बचे उस १मेषटानेसे च्घुहौतादहै। पूवं स्थापित 
अकोंमे प्रथम अंक को ल्घु से गुणाकर गुणनफकरु मे शर जोडक्रर योगफल 
मे जितने अंक घट सके उतने को घटाना चाहिये । जोन घटे वहु अणरदध 
जक होताहै। शेषक्रो अणुद्धसे माग देकर ल्न्धिमें शुद्ध संख्या जोड 
कर पुनः उपसे छ्चुकोषघटाकररेपरो३ सेतथाभभागङऊो घटो 
गृणा करर का भाग देने से न्व गत-गम्य पाते का मभ्त्रकाल 
ही-महै। ११ १२ 

उडाहुरण - पूव प्र्ठ दोय ०।३२।३१ में ५ मागदेने सै ०।६।३० 
लघु द| प्रथन मंल्यासे गुण-करशरमे जोडनेसे ४५२०० हुभा 
इममे क्रान्ति २ अङ्कु घटाने से त्ष १६।२० अशुद्ध तृत्ःय १५ अडइकसे 
गेष मे भाग देने से लल्वि ०।५७.३८ तरं णुद संख्य; २ जोड़कर २।५अ;३८ 
योन मे लघु ०।६।३० घटाकर शेष में ३तथः भभोगध. ६\\\सं 
गुणाकर गृणनकल ५३८२४ ८क्रा भाग देने पे लब्ध ६७;१७ परत 
प्ध्य क्राल हुतरा। 
यातिस्थितिकालसाधनम्‌- 

अविचयुद्धहूतः यप्राकना जयः पराक्‌ पश्चात्‌ :स्थतिरत्र पातमध्याद्‌ । 
शुद्धाः क्वचिदत्र षडउद्धुः संस्कार्यार्चि तदग्रतस्त्रयोऽङ्धाः॥ ३ 

मल्ल({<:- -अथ पातस्थिति कालमाह । अविशुद्धेनाङ्केन हता भक्ता यमाकं- 
नाञ्यो द्वाविश्त्यधिक्ल्चतमितघटिकाः । यत्‌ फं ताभिधंटिकामिः पातमध्यात्‌ 
पूर्व मग्रतश्च स्थितिः ध्यात्‌ । तावत्पमयं पात्त्य करारोऽस्स्येव । अघ्र क्वचिद्यदा 
षड्डःकाः अपि नाणात्‌ चुद्धास्तदाञ्न्येऽपि त्रयोऽडका पूर्वोक्तरीत्या 
सस्कायः 

अत्रोपपत्तिः -स्थितिर्नाम मानैष्यखण्डतुल्यं यावक्क्रान्त्यन्तरं भवति ताव- 
तप्यन्तं पतोऽस्त्येव । अयं भाज्य साध्यते । तश्र पञ्चदशभागानां कला ९०० 


पाताधिकारः २६९ 


यदि चन्द्रमति प्रमाणेन ७९० एतास्तदा रपिगतिप्रमाणेन ५९ का इति जाताः 
कलाः ६७।१३। तथा मा्नक्यखण्डस्य मध्यमस्य कलाः ३२।१५। तत्र॒ मानेक्य- 
छण्डमेतत्कलागुण्यं जातो भाञ्योऽपरपर्यायः । यदि यमांगराम ३६२ मितक्रान्त्या 
पञ्चदशमभागक्रला ९०० लभ्यन्ते तदा मानेक्यदण्डतुल्यक्रान्त्या २२।१५ का। 
चन्द्रगतिक्रलाभिः ७९०।३५। षष्टिघिटिकाः ६० । तदाऽऽभिः कलाभि कि यदि 
यमांगराम ३६२। तुल्यमोगखण्डनेनंतास्तदा अशुद्धन खण्डेन का । अयमनुपातो 
व्यस्तः । इच्छादासे फले वृद्धं रपि, तत्वात्‌ तेनाशुद्धखण्डं हरः । यमांगरामा 
गुण. । पूवं हरश्च तयीर्न्ञः , एव जातो गुणच्रयघातौ गुणः १७४१५०० । 
हरश्च'द्रगतिः । अशुदेखण्डं च । चन्द्रगत्याऽयवत्ते कृते जातो भाज्यः २२०३ 1 
घ्य यमागरामर्खण्डेने पच्वदशममोत्पन्तेन । ततोऽन्येजनुपात्तः । यदि य्मांगरामा- 
नामय भाज्यः २.०३: तद,ऽऽचार्योक्तविशत्तिमितानां किमिति जातो भाज्यः 
१२२८ । अस्प्ाशुद्धाङ्कौ हरोऽस्त्यतोऽविशुदधहता यमार्कनाङ्य इत्युपपन्नम्‌ । इयं 
स्थितिङमयतः समा । मानंद्यदण्डवुल्यन्तिरस्य क्िदमानत्वात्‌ । अत्र मानस्थिति- 
मध्ये कृतं स्नान जपहमादि अनन्तफलद भवति । यत्र वर्वचत्‌ सरवाहुल्यात्‌ 
उड्‌ अपि शुद्धास्तक्रान्ये त्रयः संस्कार्या इति 9व्यक्षछिद्धम्‌ ॥१३ 

चन्द्रिका -अणुद्धाङ्कसे श्ररेमे भागदेनेसे प्राप्त रुन्धि तुल्य घटी 
पात परध्यकालसे पहटे भथतरानलादमे पातकी स्थितहोतोदहै। यदि 
क्भो कान्तिके सभा ६ भङ्दः दरमेवट जायतो अरन्रिम ३ अङ्कोके 
संस्कार पूर्वोक्त विघसे करना चाहिए । १३ 

 उदाहूरण-भशुद्धाडक १७ का भास र्र्रमेंदेनेसे लब्धि ७।१० 

प्राप्त हुई । पात मध्यकाल से ५।१० घटी पूवं तथा ७।१० घटी पक्वात्‌ तक 
पात की स्थिति रहेगी ) 
सूयज्दिन्द्रसाधनम्‌ - 
षडमाकंमच्युतरविर्त्यह सायनान्जोऽथाके घटीसमकलददलनं त्वेन्दोः 
भवत्यंशक्षा भघ!टक्ाप्रदखाहयः रयुरतच्चालितापमसमत्यमिह तीरे । १४ 

मत्लारिः- धयात्र मूर्यात्‌ चन्द्र्ञानं वदति । व्यतीपाते पाते जाते रविः 
पड़ाशिम्पः शुद्धः रन्‌ हायनचन्द्रो भदति। वैधृते पाते जात रवेररादशराद्विभ्यः 
शुद्धः सायनचन्द्रो मवति । अथ सूर्यं घटीसमच्ालद्चालनं देयम्‌ । अथ भवटीभिन- 
क्षस्व वटोभराप्ता भक्ताः खस्ाहयोऽष्ट शतानि इन्द्रोइचन्द्रस्य भुवत्यंद्चका गत्ति- 


२७० ग्रहुखाधवं 
भागाः स्युः । तथा गत्या चलितो यदचन््ः । तस्यापमः शरसंस्कृतः सूर्यापिमः 
केवल एवं । अनयोः समत्वं प्रतीव्यै स्यात्‌ ॥ १४ 
अत्रोपपत्तिः--भत्र ग्यतिपातपाते सायनरविराक्लियोगः षड्ा्लितुल्यः । 
वैधृते द्वादशरसि तुल्यः । अतः षड्दरादशराशिम्यः शोधितः सायनो रविः साय- 
नर्चन्द्रः स्यादित्ति प्रत्यक्तम्‌ । पातकालीनमूर्यक्रणार्थं पातघटीतुल्या एव॒ गतिः 
स्यादत प्रव्यक्षोरपत्तिः । यदि स्व॑क्षवटीभिरष्टश्चतकलाः ८०० तदा षष्टिचटीभिः 
का इति फं चन्दगतिकलाः। ताः ष्टिमक्ता भागाः स्युस्तेन षष्टितुल्यो- 
ग णदरयोर्नशे भव्टिकापरवसाहयस्चन्द्रगत्यंशा इति । एवं त्र रविचन्द्रयोः 
क्रान्तिसाम्यं घ्यादेवेति ॥१८ 
दैवसवयस्थ द्िवाक्ररध्य सृतेन मस्लारिसमराह्वयेन । 
वृत्तो कृतां ग्रहखाववस्य पातारः परिपूत्निमागात्‌ ॥१४ 
दि श्री श्रहलाघवस्य टीकायां पाताधिकारस्चतुर्दशः ॥ १४ 
चन्द्रिका -व्यःवयत्-वात्तमें सायन नूरमको द राभिमे घटने तथा 
वधुत्तिपात मे सायन रू्यको १२ राशिमें षटनेसे सायनचन्द्र होतादहै। 
पूवं साधित पात घटो का सयं मे चालन देकर (गतिसे घटी मे गुणाकर) 
पात घटी कालिक सृयं साधन करना चाहिये तथा भभोग घटीसे ८०० 
मे भाग देकर चन्द्रमा की गनि सिद्ध कर चन्द्रमा मे उक्त घटी का चालन 
देकर षात मध्यकालिक चन्द साधन कर खेना चाहियि। इनदोनोंसे 
साधित शरसंस्करत क्रान्ति को समता देखनी चाहिये । १४ 
उदाहरण - वेधृति पातदहोनेसे १२ राशिमे क्रान्तिक्षाम्यकािक 
सायन सूयं १।२०।३२।३१ को घटाने से शेष १०।९।२७।२९ सायन चन्द्रमा 
हमा । ६७.१७ पात मध्यकालिक चालित सूयं १।२१।३९।४८ हआ । ८०० 
मे भन्नोग ६२।५५ का भाग देने से रन्धि १२।४२।५५ अंशादि चन्रमा की 
गति हई इससे चालित चन्द्रमा १०।२३।४३।०! पूर्वक्त नियम से साधित 
सूयं क्रान्ति १८।३ ५७ गर संस्कृत चन्द्रमा को स्पष्ट क्रान्ति १८।१३।१२ 
दोनों ॐ अगाोंमे समताहे 
ध्रगणेददैदक्न 'वरव्ित ग्रहृष्ाघव कै पाताधिकार की चद्धिका 
नामक सोदाहुरण हिन्दी व्याख्या सम्पुणं 1१४ 


पञ्चागचन्द्रग्रहणानयनाधिक)रः-१५ 


तिथिसाघनम्‌ -- 

मासाः स्वाधंयु तास्तिर्थेदिनाचं ताबत्यो घटिकाश्च साससंघात्‌ । 

व्यं शद्याः सहितं द्रयलयाम्यां चक्रध्नाक्षनवा द्गुवर्गयुक्तस्‌ ॥\१ 

मल्लाः - अय पञ्चाङ्खायखमाश्चक्षारो व्याख्यायते । इष्टमासीयो भासमभो 
यस्त॒ एव मासाः। त स्वार्घयुताः तिथादेदिनायं वाराद्य स्यात्‌ ! तावत्य एव 
घटिकाः मासगणात्‌ व्यशाह्याः । ततस्तत्‌ द्वयत्रय।भ्यां सहितं कायम्‌ ) चक्रेण गणा 
भक्षाः पञ्च । नवे प्र्िद्धा:। अद्धुवगंः षट्त्रिंशत्‌ ' चक्रमुणनानेन धुत्रेण युक्तं 
तत्कार्यमिवयर्थः । 

अत्रापपत्तिः अत्र तिथ्य(नयतार्थं मध्यमतिथिवाराद्यं साध्यम्‌ । तत्र 
चान्द्रमासप्रमाणम्‌ २९।३१।५० इदं सप्वतष्टं जातं काराचयम्‌ १।३१।५० । 
अत्रानुपातः । यद्यक्रमासेनेदं तदेष्टमासगणेन क्रिमित्ति। अतो मास^मेनानेन 
गण्यः । त्र खण्डगुणेन मास्तगमतुल्या एव वारा एक खण्डम्‌ । द्ितीयखण्डम्‌ 
०।३०। अतः साघंयुक्ता इति घटिका अपि तावत्यः । अन्यत्‌ खण्डम्‌ ०।२०। 
भतस्व्यं शाढया इति । अत्र प्रन्थारम्मे तिथिवारद्वपं धटित्रयं च । अतस्तद्युक्तमिति । 
एकचक्रं तियिवा राद्यम्‌ ५।९।३६ यद्येकचक्रेने दं तदेष्टचक्रण किमति । अतश्चक्रघ्नाक्ष- 
नवां गवगंयुक्त मित्युपपन्नम्‌ ।।१। 

चद्धिश्ा-- अपने धे भाग से युक्त माप्तगणमें उप्ती के तुल्य दिव- 
सादि मान जोड़कर योग में पुनः माप्तगण का तृतीयांश जोडने से योगकछ 
पयन्तं तिथि का दिवसादि मान होता है। इसमे २ेदिनि३ घटी तथा चक्र 
गुणित ५।२.३६ को जोडने घ इष्ट तिथि का दिवसादि मान होतार ।१ 
नक्षत्राणां घ्रुगनयनम्‌- 

सरं सप्ताष्टयमारच चक्र{ध्ना नागान्मोचिदटीयुता सशुद्धाः । 

हाम्थां धूजंटिभिदिनिघ्नमातेुक्तां भधनुव्ो भृः स्यात्‌ ॥२ 

मट्खारिः---अथय दकत्रघ्रुवकं साधयति ख शून्यम्‌) सप्त घटिकाः । 
अष्टविश्तिः पलानि एसे चकनध्नाः कार्याः। तत्तो नागःप्मोभि -४८ चटा. 


२७२ ग्रहुलाघवे 

भियुक्ताः कार्याः । ठतस्ते सप्तवियतेः शोध्याः । द्वाभ्यां धूर्जटिभिधिनिष्ना गुणिता 

ये मासाः । तयुक्ता मपूर्वो नक्षत्राद्यः । नक्षत्रघ्रुवः स्यादित्यर्थः । 
अत्रोपपत्तिः--- अ्ैकप्रामचे नक्षत्रघ्रुवकः सप्तद्रिशतितष्टः २।११। अतो मासा 

अनेन गुण्याः इति! तथेकस्मिन्‌ चक्रे नक्षत्रध्रुवकश्चक्रशुद्धः ०।७।२ । अतोऽयं 

चक्रगुण न्ति । क्ेपश्च चक्रेशुद्रोऽयम्‌ । ०।४८। अनो तागाम्पभोधिषटीयुता इति 

स्वचक्रयद्धत्वःन्‌ भद इत्युपपन्नम्‌ | २ 

दरश ` चक्कगु'णत ०३।२८ म ४८ धटो जोडइश्र २७ मे घटाकर 

गेषुभे २।११ स युजत माःगणक्ौ जीडने से नक्षत्रादिं ( नजच, घ 

प ) नकतकाद्रबाहानाद्‌ र 


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~~ 


स्वगा; शसा नयं च रहता हिनिघ्न- 
सासान्व्ति हिहूतमासयुता घटीषु । 
पिण्डो भवेध्गद्भिः चरैः समेहा- 
स्तष्टो भजार्िदिभिरिदं भददीह चक्रम्‌ \\३ 
एल्लारिः अथ पिण्डं साधयति । स्वर्गा "कविश्षतति ; यराः पञ्च । चव 
प्रसिद्धः ' एने चक्रेण गणनीयाः । ततो द्विगुणमासग्णेन युच्छ- कार्याः । -{नघंटःपु 
द्विमक्तमासगणेन युक्ताः कार्याः स पिण्डो भवेत्‌ । युमकूमिः चतुदश भषध्वश्यातं 
लचरनवभि्दटरीष समेत्तो युन. कार्यः । तती गल्धाद्विभिरषटणववशत्या तष्टः कःय: 
तच्चक्रं भवस्न । जय पिण्डे अष्टविशतिः५तं चक्रम्‌ । 
सचय, सः--पिषण्डः नाम चन्द्रमन्दकेन्दम्‌ ¦ तथ्य दक्रमय्ये प्रवय २१ 


अलःऽ चक्रगुण इ } मामद्रद्रोऽप्रं २०६० , अने द्विष्णेमागन्विताः ६ 
॥ 


| 
1 
~ 


द्विद्रेनमासणता इशत युगकर" रत्यादिन्नपीऽनः तुत्त: कयः । अषटाविक्ठनि चक्गल्दन्‌ 
तष्ट: कार्यः इत्युपपन्नम्‌ ।॥ ३ 1; 

रन्छरिका २१.५९ को चक्र से गणा.केर गृण्नफेल म दिषुणिद 
माद्गण छोड़ने तधा घटी स्थन मागणे भये की जः 
उत्मे पुनः १४९ जोडदाः रे८र्का भाग देनेसे नेप दुृल्प चद्द्रःन 
कन्दं नमक पिण्डठदोना ह! ¦ यहु मन्दकेद्ध दो पिष्ड ङष्द से व्यवह 


क्म्या गयादहुं] ।३ 


पञ्चा द्धुचनदरग्रहणानयनाधिकारः २७३ 
सूयंनक्षत्रानप्रन्दफलसाघनम्‌ - 


शिवदश्नवसुषटकान्घ्यहिवनाडचयोऽशिवभात्‌ स्वं 
खगरुणशरनगाङ्ाल्ञेशदिम्‌दिडःनवाष्टौ । 

रसगुणखसिनर्षादादितेयाददणे स्यु- 
द्वियुगरसगजाद्ुशेहवरा वैशवतः स्वम्‌ ४ 


मट्छारिः--अथ सूर्यनक्षश्रात्‌ फर्घटिका माह । अण्व ११।१०।८।६।४।२ 
प० ऋ ०।३।५।७।९।१०।१ १११ ०।१०।९।८।६।३1० उण्षा० ४० २।४६ 
८।९।१०।११ । भअश्विनोघटिका एताः सूयघटिका घनं स्युः क्रमात्‌ शिवादयः । 
तथा आदितेयात्‌ पुनर्वसुत एताः खमुख्या घटिकाः ऋणम्‌ । तथा विश्वत 
उत्तराषाढातो द्विप्रुगादयो घटिका घनं स्युरिति । 


भत्रोपपत्तिः- सूर्यस्य प्रतिनक्षत्रं सुखा्भं॑मन्दफलकलानां गत्यन्तरवश्चतो 
घटिकाः कृत्वा सिद्धाः पठिताः । तासां घनर्णोधिपत्तिः । अश्चिनीमारम्य पुनवंसु- 
पर्यन्तं रविमन्दक्न्द्रम्‌ मेषादावतस्तत्र घनम्‌ । एवं पुनर्वधुत उत्तरापाढपयंन्तम्‌ केन्द्र 
तुखादौ भवत्यतोऽत्र ऋणम्‌ । उत्तराषाटादारभ्याश्चिनीपर्यन्तं केन्द्रं मेषादावतस्तत्रापि 
घनमिदयुपपन्नम्‌ । यत्‌ सूरये धनं तच्चन्द्र ऋणं पुनर्भोग्यकरणे तदधिकमेव भवति 
इति सूरये यादं फलं तादृ ्षमेव तिथावित्युपपन्नम्‌ ।॥ ४ ॥ 

चन्द्िका--अप्िनी सेक्रमसे\ नक्षत्रों का धनात्मक मन्दफल 
११। ०।८।६।४।२ { भरात्‌ अश्विनी का ११, भरणो का १०, कुलिक 
क्ता ८, रोहिणो काः ६, मृगशिराका४ तथाभर्द्र का २ धनाद्मक 

मन्दफल ) है । इसी प्रकार पनवसु से १४ नक्षत्रों मे क्रम से ०।३।५।७- 

९।१०।११।१०।१०।९।८।६।६।० घटो ऋणात्मक तथा उत्तराषाढा से 
(अन्तिम रेवती पय॑न्त) क्रम से २।५।६।८।९।१०।११ घटी धनात्मक सूर्य॑ का 
मन्दफल होता है ।४ 
सूर्यनक्षत्र साधनम्‌ - 

वेदध्नेष्टतिथियु ताकंभागा योज्या भघ्र्‌ बनाडिकासु तव्‌ स्यात्‌ । 

सु्य्॑नं निगतं ततोऽकजाख्यनाडीहीनयतं स्फटं भवेत्‌ तत्‌ ॥५ 

ग्र ० ला०-१८ 


२७४ ग्रहुलाघवे 


मल्लारिः-- भय सूर्यनक्ष्रज्ञानमाह । चतुर्गुणा इष्टवत्तमानतिधिः स्वाकं- 
भागयुत्ता तिचेर्द्ंरोच युता । ततः सा नक्षत्रघ्ुकचटीषु योज्या तद्गतं सूर्य 
सावयवं च मध्यमं स्यात्‌ । ततस्तत्‌ अकजाख्या इदानीमुदिता याः सूर्यनक्षन्न- 
घटिकास्तामिर्धंनर्णत्वेन युतोनं सत्‌ स्फुटं स्यात्‌ । 
अत्रोपपत्तिः-ग्रतित्तिथिनक्षत्रघ्रुवसूर्यनक्षत्रयोघटिकाचतुष्टय पञ्चपलापिक- 
न्तरम्‌ । अतोऽनुपातः । यद्येकया तिथ्येदं तदेष्ट्तिथिभिः किमिलि । अत्र खण्डम्‌ ४। 
मन्यत्‌ ०।५ । अतो वेदण्नेष्टतिधिरदादशांरायुकेटयुपयन्नम्‌ । इदं भ्रुवे योज्यं 
सूर्यनक्षत्र स्यादेव तन्मध्यमतः सूर्यधटीभिमन्दफलोतपन्नाभिः सस्कृतं स्पष्टं 
स्यादित्युपपन्नम्‌ ।। ५ ॥ 
चन्द्रिका -दष्टतिथिको चारसे गुणाकर गृणनफलमे उप्तौ का 
दरादशांश जोड़कर उसे नक्षत्र को घ्र्‌वधटो में जोड़ने से सूयं के गतनक्षत्र 
का मध्यम मान हेताहि। इसमे परित मन्दफल (म्र. खा. १५.४) को 
ऋण-घछन के अनुसार घटाने तथा जोडने से स्पष्ट सूयंनक्ञत्र होता है ॥ ५ 


पिण्डफलसाघनम्‌ -- 


पिण्डे युक्ततिथो तदाद्यमनुषु स्वं श्ेषपिण्डेष्वुणं 
विह्वेन्द्रौणश्व श्चरा दशराकंयमयोः पञ्चेन्दवस्त्रीशयोः। 


गोचन्द्रा दशनेदयोर्यमयमाः पच्नाङ्योः स्युजिंनाः 
घडवस्वोख्व नगे तु तत्वघटिकाः शक्रो च खं पिण्डजाः ।६ 


महलारिः --अथ पिण्डफलमाह वर्तमानकिथियुक्ते पिण्डोर्घ्वा ङ्के कृते सति एता 
घटिका स्युः । विश्वेनो शराः त्रयोदशतुल्ये एकतुस्ये वा पिण्डेशराः पञ्चचघटिकाः 
तथैव आर्कयमयोः पिण्डयोर्दश । त्रीशयोः पञ्चेन्दवः। दशवेदयोर्गोचन्द्राः } 
पञ्चाङ्कयो्यंमयमा। } षड्वस्वोजिनाः । नगे तत्त्वघटिकाः । शक्र खम्‌ । एताः 
पिण्डवटिकाः प्रथम चतुर्दशमघ्ये घनम्‌ 1 भग्र ऋणमित्यथंः । परं पिण्डयुक्ततिथि- 
मष्टाविरतेः प्रोह्य दोषात्‌ फल ग्राह्यम्‌ 1 

अन्नोपपत्तिः--भच्र पिण्डो नाम चच्द्रमन्दकेन्द्रम्‌ । तत्र प्रतिपिण्डं चन्द्रस्य 
मन्दफलान प्रसाघ्य गल्यन्तरकलाप्रमाणेन तेषां घटिकाः कृत्वा सिद्धाः पाठगठिताः। 
पिण्डापरपर्याय चन्दरकेन्रमृच्चोनो ग्रहः केन्द्रमिति प्रकारेण भवतति । अतस्त्रुखादी 


पञ्चाद्धंचन्द्रग्रहुणानयनाधिकारः २७५ 


स्वमजादौ ऋणमिति यद्यपि तथापि भोग्यक्रणे चन्द्र मन्दफलम्‌ व्यस्तं भवतीति 
मेषादि षडमे केन्द्रे फलं घनम्‌ अतस्चतुरद शपिण्डमध्ये घनम्‌ । तुलादावृणमतोऽग्र 
ऋणमिद्युपपन्नम्‌ ॥ ६ ॥ 

चद्धिका- पूर्वोक्त पिण्डके आद्य अंक मै (वतमान) तिथि लोडनेसे 
फर १४ से जलदो तो धन अन्यथा ऋण होता दै। १ तथा १३योग- 
फल मे५ घटी, २, श्रमे १० घटी, ३, श१मे १५ घटी, ४, १०्में १९ 
घटी, ५, र्मे २२ घटी ६, धमे र४ुघटी, ऽमे २५ घटीतथाश्ण्मे9 
चटो फल होता है ।६ 


स्पष्ट-तिथि-वारादिसाघनम्‌ - 
वारेषु तिधिर्देया हेया नाडीषु जायते मध्या । 
रविजापिण्डकलाम्थां सुकषस्कृता स्पष्टतां याति ॥\७ 
मल्खारिः- अथ स्पष्टत्तिथिवारादिकमाह । यदानीतं मासगणात्‌ तियिवारादं 
तस्य वारे वद्धमानतिविर्देा । नाडीषु सव्र तिथि्हुया न्यूनीकर्तव्या सा मध्या 
स्यात्‌ । सा रविजाभिघटीभिस्तथा पिण्डघटीभिः संस्कृता सतो स्पष्टतां याति 
स्पष्टा स्यादित्यथ: । 
अत्रापप,त्तः-अत्र तिथेमंष्यमं वाराद्यम्‌ १०।५९।४) इदं तिथि गुणितं 
वारे योज्यम्‌ । अतोऽत्र वारे तिथियुंक्ता घटोषु न्परुनीकृता पलचतुष्टयं स्वल्यान्तरस्वात्‌ 
व्यक्तं तन्मध्यमं तिधिवाराद्यं सूंचन्द्रमन्दफल्वटिकामौ रवि जापिण्डजासञ्जाभिः 
संस्कृत स्पष्टं स्यादित्युपपन्नम्‌ 1\ ७ 1) 
चन्द्रिका पूर्वोक्त वारादिमें तिथि संख्या जोड़ने तथा षटीमें 
तिथि संख्याचटनेसे मध्यमतिथिदहोत्ताहै। मध्यम तिथि में रविफक 
चटी तथा पिण्ड फर घटी का संस्कार करने से स्पष्ट तिथि हतो है ७ 


नक्षत्रसाधनम्‌- 


स्थादुभं केवलपोस्तिथिघ्रुवमयो्ोमि तिथेर्नाडिका 

युक्ताव्य द्धःखवद्धिनिघ्नतिथिना व्यस्ताऽकजाः संस्कृताः । 
नाडोभिध्रुवभस्य चेन्न वियुतास्तद्धौनष्टचन्विताः 

संक भं घटिका विधत्‌ षडविकः: षष्टधूनिता व्येकभम्‌ 1८ 


२७६ ग्रहलाघवे 


मल्लारिः-अथ नक्षत्रानयनं करोति। केवस्योस्तिथिघ्रृबभयोयेभि 
सप्तविश्चतितष्टे भं नक्षत्रं स्यात्‌ । तिेर्नाडिका ग्यद्खख्वः केवल्तियिषडंशहीनो 
यो हिनिध्नतियिस्तेन युत्ता: कार्याः । ग्यंगलवद्चासौ एटिनिघ्नतिधिष्चेति विग्रहः 1 
व्यंगल्वो द्वाम्यां निघ्नः स चासौ तियिह्वेति तत्पुरषगभंकमघारयो वा । ततो 
व्यस्तामिधंनणंविपरीताभिरकजा्भिघंटीभिः संस्कृताश्च ताः कार्याः । ततो 
घ्रुवभस्य नक्षत्रघ्रुवस्य नाडीमिषियुताः कार्याः। चेन्न भविष्यन्ति तदा तद्धीन 
घटया ता अन्विताः कार्यः । एवं कृते सति भं नक्षत्रं सेक कत्तन्यम्‌ । घटिक्राश्चै- 
द्वियत्‌षड्भ्यः ष्ट्या अधिकाः स्युस्तदा ताः षष्टचूनितः: कार्याः न्येकभमेकहीनं 
नक्षत्र कत्तव्यमित्यथंः । 

अत्रोपपत्तिः--नक्षत्रघरवो मासान्तीयः कृतोऽस्ति । दरष्टतिथिकालोनत्वकाणायं 
तिथितस्त्र योज्या। तथातिधथिघटिकानां नक्षत्रधटिकानां प्रतितिथि इदमन्तरम्‌ 
१।५०। अतो व्यंगलवद्धिनिघ्नतिथिना युक्ता इति । ततःस्पष्टत्वाथं सूयघटीभिः 
संस्कार्या: । तत्र ग्रहापे्षया तिथिनक्लत्रयोन्यस्तमतो व्यस्ताकजाः संस्कृता इति । 
एता रक्ष्तधटिका नक्षत्रध्रुवचटीभ्य उपरि समागताः । भतस्तद्धो्ता इति चेन्नोना 
भविष्यान्ति तदा तद्धीनषष्ट्या युक्ता इतति । तदा नक्षत्रं सक कार्यमेव । यदा नक्षत्र 
घटिकाः पष्ट्यधिकास्तदा षष्ट्यूनाः । नक्षत्रमेकहीनं कायं भोग्यत्वात्‌ ॥ ८ ॥ 


चन्दरिका-- साधित ध्रूवाकी केवल नक्षत्रसंख्यामे तिथि संल्या 
जोडने से गतनक्षत्र संख्या होती है । यदि २७ से अधिकहौतो उसे रसे 
तष्टित कर लेना चाहिये) । ईइष्टत्तियिको २ से गुणा कर गुणनफलके 
षष्ठां को साधित तिथि चटी, में जोड़कर तथा सूयं फर धटी का विपरोतं 
संस्वार करके नक्षत्रको ध्रव घटी घटाना चाहिये। यदि घ्रुवं घटो 
न घटमङ्रेतो उप्ते ६० घटो पे घटाकर दषको जोड देना चाद्ये, 
एषी स्थिति म नक्षत्र संल्यामे १ ओर जोढनेमे तथा यदि ६० से अधिक 
ध्रव घटीहो तो ६० घटाकर नक्षत्र संख्यासे १ घटने से नक्षत्रघटी 
होती है 1८ 
योगसाघनम्‌-- 

सयंमेन्दुभयुतिभवेदयुतिस्तदृघटोविवरमन्न नाडिकाः । 

वेदुदयुभेऽल्पघटिकास्तदा सकु्योमक्रोऽस्य घटिक्राः खषट्‌ च्य ताः ॥९ 


पञ्च द्गःचन्द्रग्रहणानयनाधिकारः २७७ 


मत्लारिः- अथ योगपाधनमाह । सूयंनक्षत्रचन्द्रनक्षत्रयोर्योगो योगः स्यात्‌ ! 
चया तयोघंटीनां यदन्तरं ता योगणघटिकाः स्युःद्यमभे दिवक्तनक्षत्रे यदि घटिका 
अल्पाः स्वुसतदायोगः सफुरेकयुक्तः कार्यः । मस्य योगस्य घटिक्रास्तदा खषट्च्युताः 
कार्या इत्यर्थः । 

अत्रोपपत्तिरतिसुगपा ।। ९ ॥ 


चन्द्रिका -सुयं तन्त्र तथा चन्द्रवक्षत्रके योग करने प्ते योण' होता 
दै । दोनों के नक्षत्र घटी का अन्तरकरनेसे योगको घटी होती है । यदि 
सूथं नक्षत्र घटी ते चन्द्रनक्षत्र घटो अल्पहो लो पूवं निषमानुमार साधित 
योगमें १ जोड़ने तथायोगकीघटीको ६न्मे षटनेसे अभीष्ट योग 
तथा उक घटी होती है ।९ 
पर्वन्ति राहु साधनम्‌ - 

चक्राहताः सप्त यमौ खबाणा मासाहताः खं ्ितिरम्धिरामाः 1 

भाद्यानयोः संयुतिरकंशुद्धा भशियुता श्युक्लगमे तमः स्यात्‌ ॥१० 

मत्लारिः--अथ पूर्णान्तकाके राहुं साधयति । सप्त 1 यमौ । खबाणाः । 
चक्रण गुणिताः कार्याः । खम्‌ । क्षितः) अन्धिरामाः। माणेन गणनीयाः । 
अनयोर्भाद्या शसरिपूर्वा या संयुतिः सा गकशुद्धा हदशशुद्धा भांशे: सप्तविशति- 
भागैुक्ता सती शुक्लगमे पौणंमास्यन्ते तमो राहुः स्यात्‌ । 

अत्रोपपत्तिः--एकचक्रे राहुध्रवः ७।२।५०। अतश्चक्रहतोऽपमिति । 
तथेकमासे राहुधरुतरः ०।१।३८६। अनेन मासगणो गुण्य इति अनयोः संयोगः चक्रशुद्धः 
कार्यः । धुतणां चक्रशुद्धत्वात्‌ तत्र क्षेपः सप्तविक्षतिमागाः । अतस्तदुक्तः कायं 
इत्युपपन्नम्‌ ।॥ १० ॥ 

चन्द्रा :--चक्रगुणित ७।२।५० में मासगण से गुणित ०।१।३ब्को 
जोड़ कर योगफल को १२मे घटाकर शेष में २७ अश जोडने से पूर्णान्त 
कालिक राहहोताहै।१० 


सूर्यप्रसाष्य पवंसम्भवज्ञानम्‌ - 
वेदघ्नगोहूद्रविभुकतविष्ण्यं तिण्न्तजोऽर्छो गृहपर्वकः सः । 
राहुनितः पर्वण त दूजांशा मन्वटयक्षाऽचेव्‌ ग्रहुसस्मवः स्यात्‌ 11११ 


२७८ ग्रहुखाधवें 


मल्लारिः- भथ सूयं साधयति । रवेः सूयंस्य भुक्तं नन्ल्रं यत्‌ सावयवमती- 
तमस्ति तद्वेदघ्नगोहत्‌ चतुर्भिः संगुण्य नवभिर्माज्यं फलं गृहपूर्वकोराश्यादि- 
कस्तिथ्यन्तजोऽकः स्यात्‌ पर्वणि स रवि राहुणा ऊनितः कायः! तस्य भुजभागाश्चैत्‌ 
मनुभ्यद्चतुहुश्षभ्योऽल्पास्तदा ग्रहण सम्भवः स्यात्‌ । 

अत्रोपपत्तिः--प्रव्यक्षसुगमा । ११॥। 

चन्द्िका-रवि से भुक्त नक्षत्रकोण्सेगुणाकर ९से भागदेने पर 
तिथ्यन्तकालिक सूयं होता ह । पर्वान्त कालिक सूयं में पर्वान्तं कालिकं 
राहु घटाकर दोष का भुज बनाना चाहिये । भुजांश यदि १४३ अत्पहो 
तो चन्द्रग्रहण को सम्भावनां होगी ।११ 


ग्रास-भूभा-चन्द्रविम्बानां साघनम्‌- 
पिष्डनाङ्यन्त राडघ्रचूनयुक्ता इना: सवरगेपिण्डाद्िपिष्डात्‌ क्रमादिंताः । 
व्यग्विनादोलवेः स्वाद्धंयुक्ता भवेच्छन्नमिन्दो रविच्छन्नकादयुक्तवत्‌ ॥१२ 
वित्रय॑शेशाः पिण्डनाङ्यन्तरस्य षष्ठोनादेयाः स्वगंपिण्डाद्रिपिण्डात्‌ । 
ग्छौविभ्बं स्थात्तद्दुर्वाश्रिभा स्यात्‌ च्रिघ्नस्याक्षांोनयुक्तानि भानि ॥१३ 

मत्लारिः-अथ ग्रसमानं साधयति । गतेष्यपिण्डोदखनच्रा या धटिकास्तासां 
यदन्तरं तस्य योऽचिर्चतुर्थाशस्तेन इना ददशा ऊना युक्ताः कार्याः स्वगपिण्डादिति 
एकविदातिपिण्डमारभ्य षष्ठपिण्डपयंन्तमूना अतोऽग्रे युक्ता इति 1 ततस्ते व्यग्विनात्‌ 
विराहुसू यहिलवः भुजभागर्वजिताः कार्यास्तितः स्वार्धेन युक्ताः सन्तश्चन्द्रस्य 
ग्रासोऽगृलायो भवेत्‌ सूर्यग्रासादि पूर्ववत्‌ साव्यम्‌ । 

अत्रोपपत्तिः--प्रतिपादितप्रमेया । अथ चन्द्रबिम्बभृच्छाये च साधयतिव्यंशोना 
एकादश ११ पिण्डनाडचन्तरषडशेन स्वर्गद्विपिण्डात्‌ क्रमात्‌ उनाल्याः 
कायस्तिच्चन्द्रदिम्वं रयात्‌ तद्रत्तथव चरिगुणस्य पिण्डनाडयन्तरस्य अक्लांशेन 
पञ्चमांशेन सण्तविशत्िमितानि स्वर्गाद्विपिण्डादेव क्रमादूनयुक्तनि कार्याणि सा 
भूच्छाया स्यात्‌ मस्योपपत्तिः । मासगणाधिकारे कितव । १२-१३ ॥ 


चन्द्रिका--पूवंपठित २१ पिण्डों कै पश्चात्‌ ७ पिण्ड तक गतेष्य 
पिण्डान्तर घटी का चतुर्था १२ मे घटां कर तथा ७ पिण्डोंके अमे २९१ 
पिण्ड तकं गतेष्य पिण्डान्तर के चतुर्था को १२ मे जोड़कर योगफल में 
राहु र्ति स्यके भजार घटाकर द्षमें उसीका माधा जोडनेसे 


पञ्चाङ्धचन्द्रप्रहणानयनाधिकार्‌ः २७९ 


चन्द्रमा का ग्रास मान होता है। सूयं के ग्रसमान आदि का साधन पूर्वोक्त 
विधिसेही करना चाहि्यि। 

२१ पिण्डों के बाद गतेष्य पिण्डों के घल्यन्तरमे ६के भाग देकर 
लब्धि को १९।४० मे जोड़ने तथा ७ पिण्डों के परचात्‌ पिण्डों के घल्यन्तर 
के षष्ठांश को १०।४० मे जोड़ने से चन्द्र विम्ब होता है । इसी प्रकार गतेष्य 
पिण्डों के घल्यन्तर के पञ्च्माक्ञ को ३ से गुणाकर गुणनफल को २१ विडो 
के पश्चात्‌, २७ में जोडने तथा तत्पदचात्‌ ७ पिण्डो के बाद २७ मे घटाने 
से भूभा विम्न होता है। १२,१३ 
वारादौ चालनम्‌- 

वारादिके भुः कुगुणाः खबाणाः पिण्ड दयं मे द्रयमीशनाञ्यः । 

्ेप्याः क्रमेण प्रतिमासमत्र राहौ युगांकाः कलिका वियोज्याः ५६४ 

मत्छारिः- अथ प्रतिमासवारादीनां चालनमाह्‌ स्पष्याथमेतत्‌ । 
अत्रोएपत्तिः- सुगमा ॥ १४॥ 


देवज्ञवर्य्य दिवाकरस्य सुतेन मल्लारिषमाह्वपेन । 
वत्तौ कृतायां ग्रहुलाघवस्य पच्चाद्धपर्वानयनं समाप्तम्‌ ॥ 


ति श्रीग्रहखाघवस्य टीकायां पञ्चाद्धचन्द्रग्रहणानयनाधिकारः पञ्चदकलः । १५ ॥ 
चन्व्रिका-वारादिमे १।३१।५०, पिण्डमे २ तथा नक्तत्रमें २।११ 
धस्यादि प्रतिमास जोड़ने से, तथा राहु मे प्रतिमास ९४ का घटने से 
तत्तत्‌ मासो के वारादिहो जाएगे।१४ 
श्री गणेश देवेन्न विरचित ग्रहुलाधव के पञ्चाद्धचन्द्रग्रहुणानयनाधिकार की 
चन्द्रिका नामक सोदाहुरण हिन्दी व्याख्या सम्पूणं ॥१५ 


उदाहरण 
प्रस्तुत ग्रन्थ प्रहराघव के “पञ्चाद्खुचन्द्रब्रहुभानयनाधिकार-१५'' के 
लिए भाचायं विश्वनाथ कृत उदाहरण प्रस्तुत्त क्रिये जां रह द । सरख्ताके 
लिए रखोक संख्या प्रत्येक उदाहरण के पूवंदी गर्दै, ताक्रि सम्बन्धित 
ए्लोक की व्याख्या का भी अवलोकनं अध्याय १५ से कियाजा सके। 


इछ्ोक १. तिथिसाधन - 
अभीष्ट शक १५३२४ कातिक शुक्छ १५ गर्वार । 
( १५३४- १४४२ ) ९२ 


अहगंणानयन विधि से मासगण 
हगणानयन विधिसे मास च र 


लन्पि ८= चक्र, दोष = ४ 
४ १९ १२ = ४८ + ७ गतमास = ५५ 


८ >< ९ १६ + १० == २६ + ५५ = ८ १९३ = रन्ध २--अधिमास 
५५ + २-= ५७ मपि गण । 


५७ 
-- == २८.२३० | 
र . 
५.७० ० -{- २८।२३ ० = ८५।३० 
८५।३० 
८५३० 
८५।१ १५।३० 
१९०० 
मा ण१गण -- = १९ -----~ 
+ ॥ ८५ १३.४३० 
२।२३ 
८७।१२३७।३० 


८ ( ५।९।३६ ) == ८४९१।६६।४८ 

(४१।१६।४८ ) + ( ८७. १३७।३० )} 

= १२८ १५४।१८ वारादि । 

वारकोऽ्सघटीको ६० सं तंष्ठित करने पर वारादि ४३५१८) 
देशान्तर पर ४८ का संस्कार करने पर ४।३५।६ 1 
होक २. नक्षत्र ध्रुव साधन 

चक्र ८ से ०।७।२८ को गुणां कर गुणनफल ८(०।७।२८) == ०।५९।४४ 
को ४८ घटी मे जोड़कर २७ से घटाया 1 ( ०।५९।४४ ) -{-( ०।४८० ) 


पञ्चाङ्ध ग्रहणानयनाचिकारः २८१ 


== १।४७।४४ | ( २७।०० ) - ( १।४७।५४ › == २५।१२।१६ शेषं । 
म{सपमपण ५७ < २। ११ == ११४२७ 


२१२५।१२।१६ 
१२४1२७.०० 


२४९।२३९।१६ नक्षत्रादिमान 
२७ से तष्टित करने पर १४।३९।१६ नक्षत्र घ्व 
श्टोक ३ पिण्ड साधन 


चक्र ८ ‰ ( २१।५।९ ) = १९६८।४९।१२ 
मासगण ५७ >< २ ११४ 








१६८।४१।१२ 
४ 
२८२।४१।१२ 
घटी में मासगण के आधे को जोड़ने से- 
"० == २८३० २८३६।४१।१२ 
२ २८।३० 
२८२३।०९।४२ 
प्रथम स्थान मे ५४ तथाषटीमे९ जोडनेसे 
२८३।०९।४२ 
१.४०९.1०० 
२९७।१८।४२ प्रथम संख्याको २८से तष्टित करते पर 
दोष १७।१८।४२ पिण्ड 
लोक ५. सुयंनक्षत्र साधन 
इष्ट तिथि १५ 


१५ >€ ४== ६० अपना इादर्शांश ( ६९ = ५) जोडने से 

६० + ५ == ६५ । 

भ्रव १४५५।३९।१६ मे ६५ घटी जोड़ने से- 

१,४।३९।१६ 

०।६५।०० 

१५।४२। १६ सौ रनक्षत्रादि 

भर्थात्‌ गत नक्षत्र स्वाती वतंमान विश्ाखा ४४।१६ धटयादि विशाखा 
की फल घटी ९, अनुराधाकी ८, दोनों का अन्तर ९ ~ ८== १, भन्तरदबे 
विक्ञाख। के घटयादिको गुणाकर ९०्से भाम देने पर 


२८२ ग्रहलाचबे 
१०८८ ४५।१६ ) _ लन्ि ०।४४ | फरवरी ऋण होने से- 


६० 
९०9 
~ ०। ४४ 
८।१६ स्पष्ट धटी इस नक्षत्रमान मे घटाने मे- 
१५।४४ १६ 
~ | ८।१६ 
१५।३६।०० स्पष्ट नक्षद्रादि सान । 
इलटोक ६. पिण्डफल साधन 
पूवनीत पिण्ड १७।१८।४२ मे इष्ट तिथि १५ जोडने से- 
१७।१८{४२ 


१५ 
३ २।१८।४२ चक्र २८ से तत्ठित करने पर शेष ४।१८।४२ । इसमें 


प्रथमे संख्या ४ से सम्बन्धित फल्षटी १९ धनात्मक । गत गम्य घटयन्तर 
= ३ शेष ( १८।४२ ) ३ = ५६।६ इसे ६० से विभक्त करने पर लन्धि 
०।५६ धनात्मक । 

पिण्ड धटी { १९०० ) + { ०।५९ ) = १९।५९ स्पष्ट पिण्ड घटी 
शोक ७. स्पष्ट तिथ्यादि साधन 

पूवंस्ाधित वारादि ४।३५।६ । 





४।२५।६ 

वारम इष्टतिथि १५ जोडनेसे १५ 

१९।२३५।६. 
१५ घटी घटने से ~ ०।१५।०० 

१९।२०।६ 
वारको ७से तष्टित करने पर ५।२०।६ 
सूयं का घट फल ऋण ~ ८।१९ . 

५।११।५० 
पिण्ड घटी धन १९।५६ 
स्पष्ट तिथ्यादि  ५।३१।४६ 

हल्छेक <. नक्षन्न साधन 


नक्षत्र्रुवा १४।६९।१६। इष्टतिधि १५, तिथिवटी ३६१।४६ अवयव 
रहित नक्षत्र घ्र व में इष्ट तिथि जोड़ने से- 


पञ्चाङ्खं चन्दरम्रहणानयनाधिकारः २८३ 


गत नक्षत्र संख्या = १४ + १५२९ 

२७ से तष्टित करते पर शेष == २ अतः भरणी नक्षत्र । तिथिवटी 
३१।४९ मे द्विगुणित तिथि में उसी का षष्ठांश घटाकर शेष जोडने से- 

तिथि १५६२ = ३० = ५ । द्विगुणित तिथि ३० - ५ = २५ 

तिथि घटी ३१।४६ + २५।०० = ५६।४६ 

सूर्यं घटी फल ८।१६ ऋणात्मक है । भतः व्यस्त संस्कार करनेसे 
( ५६।४६ ) + { ८।१६ ) = ६५।०२ 

नक्षत्र ध्रुव २९।१६ घटाने से- 

( ६५।०२ } - { ३९।१६ ) == २५।४६ = नक्षत्र घटी 
इलोक ९. योग साधन 

शयं नक्षत्र १५ । चन्द्र नक्षत्र २। 

दोनों कां योग १५२१७ = योग-संस्या = व्यतिपात योग 

सयं नक्षत्र घटी ३६।०० ¡ चन्द्र॒ नक्षत्र घटी = २५।४६, दोनो का 

न्तर = ३६।०० - २५।४६ १०११४ यहाँ दिन नक्षत्र घटी सूय नक्षत्र 

घटो से अल्प है अतः एकाधिक योग संख्या होगौ। १७--१ = १८ वां 
वरीयान योग । तथां ६०।०० - १०।१४ = ४९।४्द योग घटी हुई । 
लोक १०. पृणन्तिकाल मे राहु साधन 

'सप्तयमौ ख बाणा' इत्यादि से ७।२।५० को चक्रस्ख्या <से गुणा 
करने पर ( ७।२।५० )८ = ५६।२२।४० 

मास्षगण ५६ से गुणित ०।१।३४=५६ ( ०।१।२३४ } = २।२९।१८ 
दोनों का योग = ( ५६।२२।४० ) + ( २।२९।१८ ) = ५९।२१।५८ राशि को 
१२ से तष्टित्त करने से राइ्यादिमान ११।२१।५८। 

१२ राशि मे घटा कर अंश मे २७ जोड़ने से- 





१२।००।०९ ०।०८।०२ 
 ११।२१।५८ २७ । 
०।०८।०२ १।०५।०२ राश्यादि पूर्णान्ति कालिकं राहु । 
इलोक ११. सुयं साधन 


रवि भुक्त नक्षत्र १५।३६।०० को ४ से गुणा करने पर ४(१५।३६।००) 
= ६२।२४।०० । इसे रसे भाग देनेपर कुन्धिर दोष ८र४ाण्न्को 


4 २9 
३० से गुणा करर पूनः ९्से भाग देने पर ३० ८।२४।० ) = ---~“ न= 


२८४ ग्रहलाचषे 


=. 


लन्धि २८ शेष ०।०।० । दोषको ६० गुणाकर स९्से भाग देने पर 
६० ०।०।० } = ०। ई = ° रन्धि तिथ्यन्तकाल मे स्पष्ट रवि ६।२८।०० 
स्प रा० १।५।२।० | राहुरहित सूयं =; २८।००-१।५।२1०= 
५।२२।५८।०० इसका धजांश ७।२।०। राहु रहित सूयं का भुजांश श्४से 
मत्प है, अतः ग्रहण सम्भव है। 
होक १२. ग्रासानयन 
गत~--गम्य पिण्ड घटचन्तर == ३ ( द्र० श्छो० ६) 
३ का >= ०।४५ इसे १२।०० मे जोड़ने पै १२५५ । इससे राह 
रहित स्यं (व्यगु )कामुजांश ७।२को घटाने से- 
(: २।४५) - (७।२) = ५।४२ इसमे इसी का माधा ~ 3 = ५।४२२।५१ 
जोडने से ५।४३ ) + ( २।५१ ) = ८।३४ चन्द्रमा का ग्रासमान । 
होक १३. चन्द्रविम्ब भुभाविस्ब साधन 
गत-गम्य पिण्डवटयन्तर ३ के षष्टठीश=३=०।३०्को १०।४०्े 
जोड़ने से ( १०।४० ) ¬+ ( ०।३० ) = ११।१० चन्द्रमा का बिम्ब हभ । 
भूभा साधन --अन्तर घटी ३ को त्रिगृणित करने प्र ३८ ३-==९। 
९ का पञ्चमा = ९-=१।४८ को २७।०० में जोडने से ( २७०० ) + 
( १।४८ ) = २८।४८ = भूमा | 
इलो १४. मासिक चालनं 
कातिक शुक्छ प्रतिपदाको वारादि ४।३५।६ में क्रमसे १।६१।५० 
जोडने स~ 
४।३५। ६ 
१।३१।५० 
६।०६।५६ मागंलीषं शुक्ल प्रतिपदा का वारादि दोसे भुक्त 
१७।१८।४२ अर्थात्‌ १९।१८।४२ अग्रिम मासादि के पिण्ड हँ । 
मासादि नक्षत्र ध्रुवा १४।३९।१६ 
+ २।११ 
अग्निम मासादिमें नक्षत्तघ्र्‌व १६।५०।१६ 
राहु ९।५।२।०० मेँ ९४ कला (== १।३४ ) घटाने से-- 
१।५। २।०० 
~ १।३४।०० 
अग्रिम मासादिमे राहु १।३।२८।०० 


[कि क यी 





उपसंहाराधिकारः-१६ 


१४४२ कात्‌ पूर्वमहुगं णसाघनम्‌ - 
ढचब्धोन्द्राः शक्षरहितास्ततो भवाप्तं चक्रास्यं रविहतक्नेषकं तु हीनम्‌ 
चेत्राद्येः पृथगमुतः सदर्नचक्रात्‌ सिद्धादचादम रफलाधिमासभुक्तम्‌ 1१ 
खत्रिध्नं तिथिरहितं निर ग्रचक्रा ्धांशाढचं पथगमुतोऽन्धिषट्कलञ्धैः ¦ 
ऊनाहैवियुतमहगंणो भवेद्रैवारः प्राक्‌ शरहत चक्रयुग्गणोऽब्जात्‌ ।\२ 
चक्रनिध्नघ्रवोपेताः स्वक्षेपा दयुगणोटूवेः। 
सेटेर्नाःस्युरिष्टाहि हेयन्धीन्द्राल्पः शको यद्या ॥\३ 

मत्खारिः- गय दयन्धीन्दरात्पेऽद्धु मग्रहज्ञानाथंमहमणसाधनं वदति । 
स्पष्टा्थमिदम्‌ । 

अत्रोपपत्तिः--विलोमविधिना पूर्वाहर्गणव!सनातः सिद्ध ॥\ १-३॥। 

चन्द्रिका- यदि अभीष्टक्षक्र १४४२ से मल्पहोतो उसे १४४२ मे घटाकर 
रोषमें ११ काभागदेनेसे लन्धिषक्रहौतीह। शेषको १२से गुणां कर 
चैत्रादिमाट को घटाकर पृथक रखकर उसमें द्विगुणितं चक्र तथा २४ जोड़कर 
योगम ३३का भाग देकर लढ्वि तुल्य अधिमास फो पुयक्‌ स्थापित संख्यामें 
जोड़कर ३० से गुणाकर गुणनफल मेँ गततिथि घटाकर शेषमें चक्रके पर्श 
को जोड़कर पुयक्‌ स्थापित करं एकस्थाने €४का भाग देकर छड्ि तुल्य 
क्षय दिन द्तीयस्यानवाङी संख्या में घटाने से अहर्गण होतादह। चक्रमे^+का 
गुणाकर गुणनफ़ल को अहूर्गण में जोड़कर { ७ से तष्टिति करने पर ) सोमवार 
से विपरीत ( सोमवार, रविवार, शनिवार इत्यादि } क्रपमसे गणना करने से 
वार होगा । पूर्वोक्त (ग्रा. १) की त्रिधि से अहूर्गण द्वारा ग्रहसाधित कर, 
चक्रगुणित ब्रवा इग अपने-जपने क्षेप मे युक्त कर योगफल कौ अहूर्गणोत्पन्नप्रह से 
घटाने पर इष्ट कालिक मध्यमग्रहु होते ह । 


२८६ ग्रहुखाघवे 


उदाहरण -~ 
शकं १३४० श्रावणणुकछ ८ रविवार को भहर्मण साधन अभोष्ट है) 
अतः नियमानुसार शक १३४० को १४४२ से घटाकर ३२से भग 
दिया-- 
१४४२--१३३० = १०२ 
२३३)१०२८३ ल्धि चक्र 
९९, 
३ शेष 
रोष ३>८१२= ३६ 
चेव्रणुक्लादि गतमापसत-४ 
३६ - ४--३२ राष मास 
चक्र ३५८२६ + २४३० 





३२ + ३० = ६२ 

२३३) ९२ (१ अधिमास 
9 
२९ 


रोषमास ==२२ + १ = ३३ गतमाप् 
३३ > ३० = ९९० गुणनफर 
९९० - ७ गततिथि = ९८३ 


चक्र २५६० == ° षष्ठा 


९८३ + ० = ९.८३ 
६४) ९८३ (१५ क्षयदिन 
६४ 
३४२ 
शि 
२३ 
९८३ - १५ = ९९८ अहर्भण 
वार ज्ञान टैतु-- 
तक्र २९५ = १५ 


उपसंहाराधिक्रारः २८७ 


अहूर्गण १६८ + १५ = १८३ 
७) १८३ (२६ 
१४ 
+ २ 
४२ 
१ शेष गत सोमवार 
वतमान रविवार । 


ग्रन्थालङ्‌करणम्‌ - 


पूवे प्रीढतराः क्वचित्‌ किमपि यच्चक्रधंनुज्यं विना 
ते तेनव महातिगवंकुभृदुच्छङ्खेऽधिरोहम्ति हि। 
सिदडान्तोदतमिहाखिकर कघुङृतं हित्वा घनुज्ये मया 
तद्गर्बा मयि मास्तु {कि न तदहं तच्छास्त्रतो बृद्धघोः 11४ 
अथ ग्रन्थालङ्कारमाह । पृं भास्कराद्याचार्याः प्रौढतराः किञ्चिच्छया- 
साधनं धनुज्यं विना चक्र: ते तेनैव कर्मणा महान्‌ अत्िगववंलक्षणो यः कुभृत्‌ 
पर्वतस्तस्य उच्च्ुङ्खं उच्चशिखरे अधिरोहन्ति । यतो भास्करेण ब्रह्य तुल्ये 
छायाधिक्रारे उक्तम्‌ । इति कृतं रधुकरामुकंशिञ्जिनीग्रहणकमं विना दुतिसाधनः 
भित्ति मया इहास्मिन्‌ ग्रन्थे अखिलं गणितजातकमं सिद्धान्तोक्तं धनूज्याविधिं 
हित्वा कृतं तद्गवस्तेषामपेक्षया गर्वो मयि कि मास्तु भपि तु न यतो मम बुद्धि 
वुद्धितच्छास्त्रतो जातेत्यथंः ॥ ४ ॥ 
चन्द्रिका - श्त्यन्त प्रौढ पूर्वाचार्यो ते यदि किसी प्रकार जीवा चापके 
विनादही मणितं कर लिया तो उतने खघवसेही गर्वं ॐ उप्त शिखर पर चद्‌ 
गये । परन्तु यहाँ ( प्रहलाघव में ) मेते सिद्धान्त में कहै गये समस्त क्रियाओं का 
साधन जौवा चापकर विना ही अत्यन्त सरलतासे किया) फिर भी मुक्षे इसका 
गर्वं नहीं होना चाहिये! क्योकि मने उन्हीं (पूर्वाचार्यो) कै कश्षास्वो से अपनी 
बुद्धि का विक्रास क्रियादह ४ 
ग्रन्थकन्तु : परिचयः-- 
नन्दिग्राम इहापरान्तविषये शिष्यादिगीतस्तुति- 
योऽभूत्कौशिकवंश्जः सकलसच्छास्त्राथं वित्केश्वः। 
सूनुस्तस्य  तदडध्रिपश्चभजनाल्लब्ध्वानोघां शकत 
स्पष्टं वृत्तविचित्रमल्पकरणं चेतद्गणेशोऽकरोत्‌ ॥५ 


२८८ ग्रहलाघषे 


मत्लारिः- अथ स्वस्थितिपुरस्वनामादि कथयति । केशवो नन्दिग्राम 
अपरास्त विषये समुद्रतटनिकटपर््विमदेशे हिष्य!दिभिर्मीता स्तुत्तियस्येत्ति स तथा 
कौशिकगोत्रं जातः । सकलानि यानि सन्ति समोचीनानि शास्त्राणि तेषां येऽर्थास्तान्‌ 
वेत्ति जानाति स तथा एवं मूतो यस्तस्य सूनुर्गणेशः । तदङ्घ्िपद्मभ जनात्तच्चरण- 
कमलसेवनात्‌ रिच्चिदवबोघांशकं ज्ञानखवं छन्ध्वा प्राप्य इदं करणं स्पष्टं स्पष्टां 
व्तरनानिाछन्दोमिविचित्रम्‌ । अर्थेन बहुल च एतदकरोत्‌ तवानित्यर्थः इति 
पू वंशकाद्प्रहानयनग्रकारो ग्रन्थालद्भारकश्च कृतः । 


इति श्रोमद्गणक्रनूडामणिदिवाकरदेवज्ञसुतमत्लारिदैवन्ञविर चितायां ्रहराधवस्य 
टीकायां ग्रन्थसमाप्त्यलद्घुरख्याख्यानं समाप्तम्‌ ।! १६ ॥ 


देशे पाथंसमाह्व येऽतिर्दचिरे नीरे च गोदोत्तरे 
गोलग्रामधुरे पुर रिचरणार्चासक्तं विद्र्य॒ते। 
आसीत्तत्र दिवाकरेति चतुरो ईवज्ञसघाप्रणी- 
विदवेदे सततं यदोयहूदयं यस्तस्य पु्रोऽकरोत्‌ ।॥ १ ॥ 
मल्छारिर्गणकाग्रणीगु रपदद्वन्राभ्जमक्ती रतो 
लङ्ष्वा बोधलवं ततो हि विवृत्ति सार्थोपपति स्फुटाम्‌ 1 
वर्यस्य प्रहाघवस्य गणकश्रीमद्गणेक्षाभिवप्रोक्तस्याथ 
कृपालवो हि घुधयः पदयन्तु तुष्यन्त्विमाम्‌ ॥ २॥ 


रामचन्द्रपाण्डेयेन विरचितया चच्छिका सोदःहरणदिन्दीन्याख्यया सहितं 
गणेरदेवेज्ञ विरचिक्ं ग्रहाघवं सम्पूर्णम्‌ । 


चन्द्रिका -परदिचम सीमांत प्रदेश में स्थित तन्दिग्राम में शिष्यों ते प्रशंसित्त 
यदावाले केव दवज्ञ के पुत्र गणेश ने उन्हीं ( केष ) के चरणकमलों की भारा- 
घनासेप्राप्तज्ञानसे विचित्र { भिन्न-मिन्न) छन्दोम ईसं लघु करण म्रन्थ 
( ग्रहलाघव } की रचना की ।५ 


श्री गणेश्च दंवज्ञ विरचित प्रहुलाघव कं उपसंहाराध्यायकी चद्धिकां 
नामक हिन्दी व्याख्या सम्पूणं । १६ 


  आमुख मन्त्रेश्वर कृत फलदीपिका जातक ग्रन्थों की शृङ्खला की एक अनुपम कड़ी है। यह ग्रन्थ अपने मूल रूप में प्राचीन भारतीय लिपि ' ग्रन्थ ...