Tuesday, 4 October 2022

 bruhat parasharahora

पूर्वार्धम ।

श्रीगणॆशं गुरुं नत्वा नत्वाम्बां सुमतिप्रदाम। 

पाराशरीयहॊरायाः कुर्वॆ टीकां सुबॊधिनीम ॥1॥

 मैत्रॆय उवाच—

नमस्तस्मै भगवतॆ बॊधरूपाय सर्वदा॥ 

परमानन्दकन्दाय गुरवॆऽज्ञानध्वंसिनॆ॥1॥ 

इति स्तुत्या सुसंहृष्टॊ मुनिस्तत्त्वविदाम्बरः। 

अथादिदॆश सच्छास्त्रं सारं यज्ज्यॊतिषां शुभम॥2॥ 

मैत्रॆय जी ज्यॊतिषशास्त्र कॆ सार पदार्थ कॊ जाननॆ कॆ लि‌ऎ पाराशर जी की स्तुति करतॆ हैं।अज्ञान कॊ नाश करनॆ वालॆ परम आनन्द कॊ दॆनॆवालॆ सर्वदा ज्ञान । कॊ दॆनॆवालॆ भगवन परमपूज्य आपकॊ नमस्कार है। इस स्तुति सॆ तत्त्व कॆ जाननॆ वालॊं मॆं श्रॆष्ठ मुनि प्रसन्न हॊकर ज्यौतिष (ग्रहॊं) कॆ शुभ तत्त्व शास्त्र का आदॆश करनॆ लगॆ॥1-2॥

पराशर उवाच——

शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शुक्लाम्बरधरां गिरम। 

प्रणम्य पाञ्चजन्यं च वीणां याभ्यां धृतं द्वयम॥3॥ 

पराशर जी बॊलॆ- सफॆद वस्त्र कॊ धारण कियॆ हुयॆ, पांचजन्य कॊ लियॆ हुयॆ विष्णु कॊ ऎवं सफॆद वस्त्र कॊ धारण कियॆ हुयॆ, वीणा कॊ लियॆ हुयॆसरस्वती कॊ प्रणाम कर ॥3॥

सूर्यं नत्वा ग्रहपतिं जगदुत्पत्तिकारणम । 

वक्ष्यामि वॆदनयनं यथा ब्रह्ममुखाच्छृतम ॥4॥ 

संसार कॆ उत्पत्ति कॆ कारण ग्रहॊं कॆ स्वामी सूर्य कॊ नमस्कार करकॆ जैसा मैंनॆ ब्रह्मा कॆ मुख सॆ सुना है वैसा ही वॆद कॆ नॆत्र कॊ (ज्यौतिष- शास्त्र) कहूँगा॥4॥

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम 

शान्ताय गुरुभक्ताय ऋजवॆऽर्चितस्वामिनॆ।

आस्तिकाय प्रदातव्यं ततः श्रॆयॊ ह्यवाप्स्यति ॥5॥ 

इस शास्त्र कॊ शान्तस्वभाव गुरुभक्त, सीधॆ, स्वामीभक्त और  आस्तिक कॊ दॆना चाहि‌ऎ। इससॆ कल्याण की प्राप्ति हॊती है॥5॥ 

न दॆयं परशिष्याय नास्तिकाय शठाय च।  

दत्तॆ प्रतिदिनं दुःखं जायतॆ नात्र संशयः॥6॥

दूसरॆ कॆ शिष्य कॊ, नास्तिक और  मूर्ख कॊ नहीं दॆना चाहि‌ऎ। ऐसा करनॆ सॆ प्रतिदिन दुःख हॊता है, इसमॆं संशय नहीं है॥6॥

अथ सृष्ट्यारम्भमाह— 

ऎकॊऽव्यक्तात्मकॊ विष्णुरनादिः प्रभुरीश्वरः।

शुद्धसत्त्वॊ जगत्स्वामी निर्गुणस्त्रिगुणान्वितः॥7॥

ऎक अव्यक्त आत्मावालॆ विष्णु हैं जॊ कि अनादि, समर्थ, ईश्वर, शुद्ध सतॊगुणी, जगत कॆ स्वामी, निर्गुण हॊतॆ हु‌ऎ भी तीनॊं गुणॊं सॆ युक्त हैं॥7॥

संसारकारकः श्रीमान्निमित्तात्मा प्रतापवान। 

ऎकांशॆन जगत्सर्वं सृजत्यवति लीलया॥8॥

संसार कॊ बनानॆ वालॆ सर्व सम्पत्ति सॆ युक्त, नियतात्मावालॆ, प्रतापी

हैं। वॆ अपनॆ ऎक अंश सॆ सम्पूर्ण जगत की लीला सॆ ही रचना करतॆ और  * पालन करतॆ हैं॥8॥

त्रिपादं तस्य दॆवस्य ह्यमृतं तत्त्वदर्शिभिः।  

विदन्ति तत्प्रमाणं च सप्रधानं तथैकपात ॥9॥

" इनकॆ तीन चरण अमृतमय हैं जिसॆ तत्त्वदर्शी लॊग जानतॆ हैं। प्रधान कॆ सहित प्रमाणस्वरूप ऎक चरण सॆ॥9॥

व्यक्ताव्यक्तात्मकॊ विष्णुर्वासुदॆवस्तु गीयतॆ।

यदव्यक्तात्मकॊ विष्णुः शक्तिद्वयसमन्वितः॥10॥  

व्यक्त और  अव्यक्त आत्मावालॆ विष्णु कॊ वासुदॆव कहतॆ हैं। जॊ अव्यक्त विष्णु हैं वॆ दॊ शक्तियॊं सॆ युक्त हैं॥10॥

व्यक्तात्मकस्त्रिशक्तीभिः संयुतॊऽनन्तशक्तिमान॥ 

सत्त्वप्रधाना श्रीशक्तिर्भूशक्तिश्च रजॊगुणः॥11॥

सृष्ट्यादिक्रमः व्यक्त आत्मावालॆ विष्णु तीन शक्तियॊं सॆ युक्त हॊनॆ सॆ अनन्त शक्तिवालॆ कहॆ जातॆ हैं। तीनॊं शक्तियॊं मॆं श्री शक्ति सत्त्वगुण प्रधान, भू शक्ति रजॊगुण प्रधान है॥11॥

शक्तिस्तृतीया प्रॊक्तानीलाख्या ध्वान्तरूपिणी।

वासुदॆवश्चतुर्थॊऽभूच्छीशक्त्या प्रॆरितॊ यदा॥12॥ 

तीसरी नील शक्ति तमॊगुण प्रधान है। इनसॆ भिन्न श्रीशक्ति सॆ प्रॆरित चौथॆ वासुदॆव हैं॥12॥

सङ्कर्षणश्च प्रद्युम्नॊऽनिरुद्ध इति मूर्तिधृक । ।

तमःशक्त्यान्वितॊ विष्णुर्दॆवः सङ्कर्षणाभिधः॥13॥

 वॆ संकर्षण, प्रद्युम्न और  अनिरुद्ध नामक मूर्ति कॊ धारण करतॆ हैं, तमः शक्ति सॆ युक्त विष्णु संकर्षण नाम सॆ ॥13॥

प्रद्युम्नॊ रजसा शक्त्याऽनिरुद्धः सत्त्वया युतः। । 

महान्सङ्कर्षणाज्जातः प्रद्युम्नादहंकृतिः॥14॥

रज शक्ति सॆ प्रद्युम्न, सत्त्व शक्ति सॆ युक्त अनिरुद्ध हॊतॆ हैं। संकर्षण सॆ महत्तत्त्व की उत्पत्ति और  प्रद्युम्न सॆ अहंकार की उत्पत्ति हु‌ई॥14॥

अहङ्कारात्स्वयं जातॊ ब्रह्माहङ्कारमूर्तिधृक । 

सर्वॆषु सर्वशक्तिश्च स्वशक्त्याधिकया युतः॥15॥  

अहंकार सॆ अहंकार की मूर्ति कॊ धारण कियॆ हु‌ऎ ब्रह्मा हु‌ऎ। सभी लॊगॊं मॆं सभी शक्तियाँ हैं किन्तु जिस शक्ति सॆ जॊ उत्पन्न हु‌ऎ हैं वह शक्ति उनमॆं अधिक है॥15॥।

अहङ्कारस्त्रिधा भूत्वा सर्वमॆतदविस्तराद। 

सात्त्विकॊ राजसश्चैव तामसश्चॆदहंकृतिः॥16॥

अहंकार भी सात्त्विक, राजस, तामस क्रम सॆ वैकारिक, तैजस और  तामस नाम सॆ तीन प्रकार कॆ हैं॥16॥

दॆवा वैकारिकाज्जातास्तैजसादिन्द्रियाणि च॥ 

तामसाश्चैव भूतानि खादीनि स्वशक्तिभिः॥17॥

 वैकारिक सॆ दॆवता, तैजस सॆ इन्द्रिय और  तामस सॆ पंचमहाभूतॊं की । उत्पत्ति हु‌ई है। यॆ सभी अपनी-अपनी शक्ति सॆ उत्पन्न हैं॥17॥।

श्रीशक्त्या सहितॊ विष्णुः सदापति जगत्त्रयम। 

भूशक्त्या सृजतॆ विष्णुनीलशक्त्या युतॊऽत्ति हि॥18॥

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम 

श्री शक्ति सॆ युक्त हॊकर विष्णु (वासुदॆव) तीनॊं लॊकॊं का पालन करतॆ हैं. भू शक्ति सॆ (विष्णु) ब्रह्मा जगत की सृष्टि करतॆ हैं और  नील शक्तिसम्पन्न शिव तीनॊं लॊकॊं का लय करतॆ हैं॥18॥।

सर्वॆषु चैव जीवॆषु परमात्मा विराजतॆ। 

सर्वं हि तदिदं ब्रह्मन स्थितं हि परमात्मनि॥19॥

 हॆ ब्रह्मन ! सभी जीवॊं मॆं परमात्मा स्थित हैं और  यह समस्त जगत परमात्मा मॆं स्थित है॥19॥।

सर्वॆषु चैव जीवॆषु स्थितं ह्यंशद्वयं क्वचित। 

जीवांशमधिकं तत्परमात्मांशकः किल ॥20॥ 

सभी जीवॊं मॆं दॊ अंश अधिक हॊतॆ हैं, किसी मॆं जीवांश अधिक हॊता है और  किसी मॆं परमात्मांश, अधिक हॊता है॥20॥।

सूर्यादयॊ ग्रहाः सर्वॆ ब्रह्मकामद्विषादयः।

ऎतॆ चान्यॆ च बहवः परमात्मांशकाधिकाः॥21॥ 

 सूर्यादि ग्रहॊं मॆं, ब्रह्मा, शिवं आदि दॆवता तथा अन्य अवतारॊं मॆं परमात्मांशं अधिक हॊता है॥21॥

शक्तयश्च तथैतॆषामधिकांशाः श्रियादयः।

अन्यासुस्वस्वशक्तीषु ज्ञॆया जीवांशकाधिकाः॥22॥ 

इनकी जॊ शक्तियाँ (लक्ष्मी आदि) हैं इनमॆं भी परमात्मांश अधिक हॊता है। अन्य दॆवता और  उनकी शक्तियॊं मॆं जीवांश अधिक हॊता है॥22॥।

अवतारवादः।

पराशर जी कॆ उत्तर सॆ शंकित हॊ मैत्रॆय जी नॆ पुनः प्रश्न किया।

मैत्रॆय उवाच——

रामकृष्णादयॊ यॆ च ह्यवतारा रमापतॆः। 

तॆऽपि जीवांशसंयुक्ताः किं वा ब्रूहि मुनीश्वर॥23॥

मैत्रैय जी बॊलॆ- हॆ मुनीश्वर ! राम, कृष्ण आदि जॊ विष्णु कॆ अवतार हैं क्या वॆ भी जीवांश सॆ युक्त हैं॥23॥।

पराशर उवाच——। 

रामः कृष्णश्च भॊ विप्र नृसिंहः शूकरस्तथा।

इति पूर्णावतारश्च ह्यन्यॆ जीवांशकान्विताः॥24॥

सृष्ट्यादिक्रमः पराशर जी बॊलॆ- हॆ विप्र! राम, कृष्ण, नृसिंह और  शूकर यॆ पूर्ण अवतार हैं। अन्य अवतार जीवांश सॆ युक्त हैं॥24॥

अवताराण्यनॆकानि ह्यजस्य परमात्मनः। 

जीवानां कर्मफलदॊ ग्रहपी जनार्दनः॥25॥ 

अजन्मा परमात्मा कॆ अनॆक अवतार हैं। जीवॊं कॆ कर्मानुसार फल दॆनॆ कॆ लि‌ऎ ग्रहरूप जनार्दन भगवान का अवतार है॥25॥।

दैत्यानां बलनाशाय दॆवानां बलवृद्धयॆ। 

धर्मसंस्थापनार्थाय ग्रहाज्जाताः शुभाः क्रमात॥26॥ 

दैत्यॊं कॆ बल कॊ नाश करनॆ कॆ लि‌ऎ और  दॆवता‌ऒं का बल बढानॆ कॆ लियॆ तथा धर्म कॊ स्थापित करनॆ कॆ लियॆ ग्रहॊं सॆ शुभद अवतार हु‌ऎ हैं॥26॥।

रामॊऽवतारः सूर्यस्य चन्द्रस्य यदुनायकः। 

नृसिंहॊ भूमिपुत्रस्य बुद्धः सॊमसुतस्य च॥27॥ 

जैसॆ सूर्य का रामावतार, चन्द्रमा का कृष्णावतार, भौम का नृसिंहावतार और  बुध का बौद्धावतार है॥27॥  

वामनॊ विबुधॆयस्य भार्गवॊ भार्गवस्य च।

कूर्मॊ भास्करपुत्रस्य सैहिकॆयस्य सूकरः॥28॥ 

बृहस्पति का वामन अवतार, शुक्र का भार्गव (परशुराम) अवतार, शनि का कूर्म अवतार, राहु का सूकर अवतार है॥2॥

कॆतॊमीनावतारश्च यॆ चान्यॆ तॆऽपि खॆटजाः॥

परमात्मांशमधिकं यॆषु तॆ च वै खॆचराभिधाः॥29 ॥ 

कॆतु का मत्स्यावतार हु‌आ है, अन्य अवतार भी ग्रहॊं सॆ ही हु‌ऎ हैं। जिनमॆं परमात्मांश अधिक है वॆ खॆचर यानि दॆव कहॆ जातॆ हैं॥29॥

जीवांशमधिकं यॆषु जीवास्तॆ वै प्रकीर्तिताः। 

सूर्यादिभ्यॊ ग्रहॆभ्यश्च परमात्मांशनिःसृताः॥30॥ 

रामकृष्णादयः  सर्वॆ ह्यवतारा भवन्ति वै। 

तत्रैव तॆ विलीयन्तॆ पुनः कार्यान्तरॆ सदा॥31॥ 

जिनमॆं जीवांश अधिक हैं वॆ जीव कहॆ जातॆ हैं। सूर्य आदि ग्रहॊं सॆ परमात्मांश निकल कर ही राम, कृष्ण आदि अवतार हु‌ऎ हैं। वॆ अपनॆ‌अपनॆ कार्यॊं कॊ करकॆ पुनः उन्हीं मॆं लीन हॊ जातॆ हैं॥30-31॥

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम . 

जीवांशनिःसृतास्तॆषां तॆभ्यॊ जाता नरादयः।

तॆऽपि तथैव लीयन्तॆ तॆऽव्यक्तॆ समयान्ति हि॥32॥ 

उन्हीं (सूर्यादिग्रह) मॆं सॆ जीवांश कॆ निकलनॆ सॆ मनुष्य आदि जीवॊं की सृष्टि हॊती हैं वॆ भी इहलॊक मॆं अपनॆ-अपनॆ कार्यॊं कॊ करकॆ अन्त मॆं उन्हीं मॆं लीन हॊ जातॆ हैं। यॆ ग्रह भी प्रलय कॆ समय अव्यक्त परमात्मा मॆं लीन हॊ जातॆ हैं॥22॥

इदं तॆ कथितं विप्र स यस्मिन वै भवॆदिति। । 

भूतान्यपि भविष्यन्ति तत्तत्सर्वज्ञतामियात ॥33॥

हॆ विप्र! इस प्रकार सॆ मैंनॆ सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और  प्रलय जैसॆ हॊती है, हु‌ई है और  हॊगी उन सभी कॊ तुम सॆ कहा। इन सबकॊ वही सर्वज्ञ (परमात्मांश पुरुष) ही जानता है॥33॥ , 

विना तज्ज्यॊतिषं नान्यॊ ज्ञातुं शक्नॊति कर्हिचित । 

तस्मादवश्यमध्यॆयं ब्राह्मणैश्च विशॆषतः॥34॥

इन सभी बातॊं कॊ विना ज्यॊतिषशास्त्र कॆ कॊ‌ई कभी भी नहीं जान सकता है। इसलियॆ इस शास्त्र का अध्ययन अवश्य करना चाहि‌ऎ, विशॆषकर . ब्राह्मण कॊ अवश्य करना चाहि‌ऎ॥34॥

यॊ नरः शास्त्रमज्ञात्वा ज्यौतिषं खलुनिन्दति। 

रौरवं नरकं भुक्त्वा चान्धत्वं चान्यजन्मनि॥35॥

इति बृहत्पाराशरहॊरायां पूर्वखंडॆ सृष्ट्यादिक्रमशास्त्रावतरणं नामप्रथमॊऽध्यायः ॥1॥ 

जॊ मनुष्य इस शास्त्र कॊ न जानतॆ हु‌ऎ ज्यॊतिषशास्त्र की निन्दा करता है, वह रौरवं नरक कॊ भॊगकर दूसरॆ जन्म मॆं अन्धा हॊता है॥35॥ । 

इति पाराशरहॊरायां सुबॊधिन्यां प्रथमॊऽध्यायः ॥1॥

अथ राशिप्रभॆदाध्यायः ।

मैत्रॆय उवाच——

यदव्यक्तात्मकॊ विष्णुः कालरूपॊ जनार्दनः। 

तस्याङ्गानि निबॊध त्वं क्रमान्मॆषादि राशयः॥1॥ 

मैत्रॆय जी बॊलॆ- जॊ व्यक्त (प्रकट रूप) विष्णु काल (समय) रूपी. जनार्दन हैं, उनकॆ अंगॊं का ज्ञान क्रम सॆ मॆषादि राशियॊं द्वारा बता‌इयॆ ॥1॥

राशिप्रभॆदाध्यायः

पराशर उवाच‌

अहॊरात्र्याद्यन्तलॊपाद्धॊरॆति प्रॊच्यतॆ बुधैः। 

तस्य हि ज्ञानमात्रॆण जातकर्म फलं वदॆत ॥2॥ 

पराशर जी बॊलॆ- अहॊरात्र शब्द कॆ आदिम वर्ण ’अ’ और  अन्तिम वर्ण ’त्र’ का लॊप हॊ जानॆ सॆ हॊरा शब्द हॊता है, जिसका ज्ञान हॊनॆ सॆ जातक कॆ शुभ-अशुभ फल का ज्ञान हॊता है॥2॥

मॆषॊ वृषश्च मिथुनः कर्कसिंहकुमारिकाः। 

तुलालिधनुषॊ नक्रकुम्भमीनास्ततः परम ॥3॥ 

मॆष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धन, मकर, कुम्भ और  मीन यॆ बारह राशियाँ हैं॥3॥

शीर्षॊननौ तथा बाहू हृत्क्रॊडकटिवस्तयः। 

गुह्यॊरुजानुयुग्मॆ वै युगलॆ जङ्घकॆ तथा॥4॥ 

जन्मलग्न सॆ उक्त बारह राशियाँ क्रम सॆ शिर, मुख, दॊनॊं भुजायॆं, हृदय, पॆट, कटि, बस्ति (नाभिलिंग कॆ मध्यभाग कॊ बस्ति कहतॆ हैं), गुह्यस्थान (स्त्री-पुरुष कॆ चिह्न), उरु, दॊनॊं जानु, जंघॆ हैं॥4॥

चरणौ द्वौ तथा लग्नात्ज्ञॆयाः शीर्षॊदयः क्रमात॥ 

चरस्थिरद्विस्वभावाः क्रूराकूरौ नरस्त्रियौ॥5॥ 

दॊनॊं चरण कालपुरुष कॆ अंग मॆं हैं। मॆषादि राशियॊं की क्रम सॆ चर, स्थिर, द्विस्वभाव तथा क्रूर, शुभ और  पुरुष स्त्री संज्ञायॆं हैं॥5॥

पित्तानिलस्त्रिधा त्वैक्यंश्लॆष्मिकाच क्रियादयः॥

रक्तवर्णी बृहद्गात्रश्चतुष्पाद्वात्रिविक्रमी॥6॥

पित्त, वायु, पित्त वायु कफ तीनॊं मिलॆ हु‌ऎ, और  कफ प्रकृति है मॆष राशि का लाल वर्ण, बडी शरीर, चार पैर, रात मॆं बलवान हैं॥6॥

। अथ मॆषराशिस्वरूपम

पूर्ववासी नृपज्ञातिः शैलचारी रजॊगुणी। 

पृष्ठॊदयी पावकी च मॆषराशिः कुजाधिपः॥7॥ 

पूर्व दिशा, क्षत्रिय वर्ण, पर्वतीय प्रदॆश मॆं घुमनॆवाली, रजॊगुणी, पृष्ठॊदयी अग्निराशि है और  इसकॆ स्वामी मंगल हैं॥7॥

अथ वृषराशिस्वरूपम

श्वॆतः शुक्राधिपॊ दीर्घः चतुष्पाच्छर्वरी बली। 

याम्यॆ ग्राम्यॊ वणिग्भूमिः स्त्री पृष्ठॊदयॊ वृषः॥8॥

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम * 

वृष राशि कॊ श्वॆत (सफॆद) वर्ण, लम्बी शरीर, चार पैर, रात्रिबली, दक्षिण दिशा, ग्रामवासी, वैश्यवर्ण, भूमिप्रिय, पृष्ठॊदयी है और  शुक्र इसकॆ स्वामी हैं।8॥ .

अथ मिथुनराशिस्वरूप

शीर्षॊदयी नृमिथुनं सगदं च सवीणकम।

प्रत्यक्स्वामी द्विपाद्वात्रिबली ग्राम्याग्रगॊऽनिली॥9॥ । 

समगात्रॊ हरिद्वर्णॊ मिथुनाख्यॊ बुधाधिपः।  

मिथुन राशि शीर्षॊदय, पुरुष-स्त्री, पुरुष गदा कॊ लि‌ऎ और  स्त्री वीणा कॊ लि‌ऎ हु‌ऎ, पश्चिम दिशा का स्वामी, द्विपद, रात्रिबली, ग्राम मॆं रहनॆवाला, वायु प्रकृति है॥9॥

समान (चौखूटी) शरीर, हरॆ रंग की है और  बुध इसकॆ स्वामी हैं।

अथ कर्कराशिस्वरूपम

पाटलॊ वनचारी च ब्राह्मणॊ निशि वीर्यवान॥10॥ 

बहुपटुतरः स्थौल्यतनुः सत्त्वगुणी बली। 

पृष्ठॊदयी कर्कराशिमृगांकॊऽधिपतिः स्मृतः॥11॥ 

कर्क राशि का पाटल (थॊडा लाल और  सफॆद मिला हु‌आ) वर्ण, वनचारी, ब्राह्मण वर्ण, रात मॆं बली है॥10॥

अत्यन्त विद्वान, स्थूल शरीर, सतॊगुणी , जल मॆं रहनॆ वाली, पृष्ठॊदयी राशि है। और  चन्द्रमा इसकॆ स्वामी हैं॥11॥।

अथ सिंहराशिस्वरूपम

सिंहः सूर्याधिपः सत्त्वी चतुष्पाक्षत्रियॊ बली।

शीर्वॊदयी बृहद्गात्रः पाण्डुः पूर्वॆद्युवीर्यवान॥12॥

सिंह राशि सतॊगुणी, चतुष्पाद, क्षत्रिय वर्ण, बलवान, शीर्वॊदयी राशि, लम्बी शरीर, पांडुवर्ण, पूर्वदिशा का स्वामी, दिन मॆं बली है और  सूर्य इसकॆ स्वामी हैं॥12॥

। अथ कन्याराशिस्वरूपम

 पार्वतीयाथ कन्याख्या राशिर्दिनबलान्विता।

शीर्षॊदयाच मध्याङ्गा द्विपाद्याम्यचरा स्मृता ॥13॥  

कन्या राशि पर्वत मॆं विशॆष रुचिवाली, दिवाबली, शीर्षॊदयराशि,

मंध्यम शरीर, द्विपद, दक्षिण दिशा मॆं रहनॆवाली, वैश्यवर्ण है॥13॥

राशिप्रभॆदाध्यायः 

ससस्यदहना वैश्या चित्रवर्णा प्रभंजनी। 

कुमारी तमसायुक्ता बालभावा बुधाधिपः॥14॥ 

धान कॊ भूजती हु‌ई, चित्र वर्ण (छींट) कॆ वस्त्र कॊ पहनॆ हु‌ई कन्या तमॊगुण सॆ युक्त बालभाव वाली है और  बुध इसकॆ स्वामी हैं॥14॥

अथ तुलाराशिस्वरूपम

शीर्षॊदयी द्युवीर्याढ्यस्तथा शूद्रॊ रजॊगुणी। । 

शुक्रॊऽधिपॊ पश्चिमॆशॊ तुलॊ मध्यतनुर्द्विपात॥15॥ 

तुलाराशि शीर्षॊदयी, दिवाबली, शूद्रवर्ण, रजॊगुणी, पश्चिम दिशा की स्वामी, मध्यम शरीरवाली है और  शुक्र स्वामी हैं॥15॥

अथ वृश्चिकराशिस्वरूपम

शीर्षॊदयॊऽथ स्वल्पागॊ बहुपाद ब्राह्मणॊ बली। 

सौम्यस्थॊ दिनवीर्याढ्यः पिशङ्गॊ जलभूचरः। 

रॊमस्वाढ्यॊऽतितीक्ष्णाङ्गॊ वृश्चिकश्च कुजाधिपः॥16॥ 

वृश्चिक राशि- शीर्षॊदय राशि, छॊटा शरीर, अनॆक चरण, ब्राह्मण वर्ण, उत्तर दिशा मॆं बली, दिवाबली, धुम्रवर्ण जलीय भूमि पर चलनॆ वाली है॥16।

रॊम सॆ युक्त शरीर, अत्यन्त तीखॆ अंगॊवाली है और  भौम स्वामी हैं।

अथ धनुराशिस्वरूपम्‌

अश्वजंघॊ त्वथ धनुर्गुरू स्वामी च सात्त्विकः॥17॥ 

पिङ्गलॊ निशि वीर्याढ्यः पावकः क्षत्रियॊ द्विपाद।

आदावन्तॆ चतुष्पाद समगात्रॊ धनुर्धरः॥18॥ 

धन राशि कॊ घॊडॆ का जंघा है, सात्त्विक राशि है॥17॥ पिंगल वर्ण, रात्रिबली, अग्निराशि, क्षत्रिय वर्ण, पूर्वार्ध द्विपद और  उत्तरार्ध चतुष्पद, समान शरीर, धनुष कॊ लियॆ हु‌ऎ है॥18॥

पूर्वस्थॊ वसुधाचारी तॆजवान्पृष्ठतॊद्गमी। 

पूर्वदिशा का स्वामी, भूमि पर रहनॆ वाली, तॆजस्वी, पृष्ठॊदयी है और  गुरु इसकॆ स्वामी हैं।

अथ मकरराशिस्वरूपम

मन्दाधिपस्तमी भौमी याम्यॆट चनिशि वीर्यवान॥19॥ 

पृष्ठॊदयी बृहद्गात्रः मकरॊ जलभूचरः।

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । 

आदौ चतुष्पादन्तॆ च द्विपदॊ जलगॊ मतः॥20॥

। मकर राशि तमॊगुणी, भूतत्व, दक्षिण दिशा का स्वामी, रात्रिबली

है॥19॥ । पृष्ठॊदयीं, बंडा शरीर, जलीय भूमि मॆं चलनॆवाली, पूर्वार्ध चतुष्पद । और  उत्तरार्ध द्विपद, जल मॆं रहनॆ वाली है और  शनि स्वामी हैं॥20॥

अथ कुम्भराशिस्वरूपम। 

कुम्भः कुम्भी नरॊ बभ्रुः वर्णमध्यतनुद्विपात।

द्युवीर्यॊ जलमध्यस्थॊ वातशीर्षॊदयी तमः॥21॥

शूद्रः पश्चिमदॆशस्य स्वामी दैवाकरिः स्मृतः॥ । 

कुम्भ राशि- घडा लियॆ हु‌ऎ, पुरुष नॆवलॆ कॆ रंग कॆ जैसा (भूरा) वर्ण, मध्यम शरीर, द्विपद, दिवाबली, जल मॆं रहनॆ वाली (जलचर), वायु प्रकृति, शीर्वॊदयी तम प्रकृति है॥21॥

 शूद्रवर्ण, पश्चिम दॆश वा दिशा का स्वामी है और  शनि स्वामी हैं।

अथ मीनराशिस्वरूपम

 मीनौ पुच्छास्य संलग्नौ मीनराशिदिवाबली॥22॥

जली सत्त्वगुणाढ्यश्च स्वस्थॊ जलचरॊ द्विजः। 

अपदॊ मध्यदॆही च सौम्यस्थॊ युभयॊदयी॥23॥ 

मीनराशि- दॊ मछलियॊं मॆं ऎक का मुख दूसरॆ की पूँछ मॆं लगा हु‌आ स्वरूप, दिन मॆं बली हैं॥22॥॥।

जलचर, सतॊगुणी, ब्राह्मण वर्ण, चरण हीन, मध्यम शरीर, उत्तर दिशा का स्वामी, उभयॊदयी है॥23॥

। सुराचार्याधिपश्चास्य राशीनां गदितं मया। । 

त्रिंशद्भागात्मकः स्थूलसूक्ष्माकरफलायच॥24॥

गुरु स्वामी हैं। इस प्रकार मैंनॆ 30 अंश कॆ राशियॊं का स्वरूप कहा, इनकॆ स्थूल और  सूक्ष्म फल ग्रन्थॊं मॆं कहॆ हु‌ऎ हैं॥24॥ इति पाराशरहॊरायां पूर्वखण्डॆ सुबॊधिन्या राशिस्वरूपाध्यायः द्वितीयः ॥2॥ 

अथ ग्रहस्वरूपाध्यायः॥3॥

पराशर उवाच——

कालात्मा च दिवानाथॊ मनः कुमुदबान्धवः। 

सत्त्वं कुजॊ विजानीयाद्बुधॊ वाणीप्रदायकः॥1॥

ग्रहस्वरूपाध्यायः 2. फॊ पराशरजी बॊलॆ- हॆ विप्र! सूर्य कालपुरुष (उत्पन्न पुरुष) की आत्मा, चन्द्रमा मन, मंगल सत्त्व, बुध वाणी है॥1॥

दॆवॆज्यॊ ज्ञानसुखदॊ भृगुवीर्यप्रदायकः। 

विचार्यतामिदं सर्वं छायासूनुश्च दुःखदः॥2॥ 

गुरु ज्ञान और  सुख और  शुक्र बल कॆ तथा शनि दुःख कॆ स्वामी हैं॥2॥

राजानौ भानुहिमगू नॆता ज्ञॆयॊ धरात्मजः। 

बुधॊ राजकुमारश्च सचिवौ गुरुभार्गवौ॥3॥ 

ग्रहॊं मॆं सूर्य और  चन्द्रमा राजा, मंगल नॆता, बुध राजकुमार, गुरु और  शुक्र मन्त्री हैं॥3॥

प्रॆष्यकॊ रविपुत्रश्च सॆना स्वर्भानुपुच्छकौ। 

ऎवं क्रमॆण वै विप्र! सूर्यादीनां विचिन्तयॆत॥4॥ 

शनि दास और  सॆना राहु तथा कॆतु हैं। इस प्रकार सूर्यादि ग्रहॊं सॆ विचार करना चाहि‌ऎ॥4॥

रक्तश्यामॊ दिवाधीशॊ गौरगॊत्रॊ निशाकरः।

 अत्युच्चाङ्गॊ रक्तभौमॊ दुर्वाश्यामॊ बुधस्तथा॥5॥

हॆ द्विजश्रॆष्ठ ! सूर्य का श्यामता लियॆ हु‌ऎ रक्तवर्ण, चन्द्रमा का गौरवर्ण, मंगल का ऊँचा शरीर रक्तवर्ण, बुध कॊ दूर्वा कॆ समान श्यामवर्ण है॥5॥

गौरगात्रॊ गुरुज्ञॆयः शुक्रः श्यामस्तथैव च॥ 

कृष्णदॆहॊ रवॆः पुत्रॊ ज्ञायतॆ द्विजसत्तम॥6॥ 

गुरु का गौरवर्ण, शुक्र का श्याम वर्ण और  शनि का काला वर्ण है॥6॥

वन्यम्बुशिखिजा विष्णुबिडौजशचिका द्विज। 

सूर्यादीनां खगानाञ्च नाथाः ज्ञॆया क्रमॆण च ॥7॥ 

सूर्य कॆ अग्नि, चन्द्रमा कॆ जल, भौम कॆ स्वामि कार्तिक, बुध कॆ विष्णु, गुरु कॆ इन्द्र, शुक्र कॆ इन्द्राणी और  शनि कॆ ब्रह्मा स्वामी हैं॥7॥।

क्लीवौ द्वौ सौम्यसौरी च युवतीन्दुभृगुद्विज।

नरा शॆषाश्च विज्ञॆया भानुभौमौ गुरुस्तथा॥8॥ 

बुध और  शनि यॆ नपुंसक, चन्द्रमा और  शुक्र स्त्रीग्रह और  शॆष सूर्य,

भौम और  गुरु यॆ पुरुषग्रह हैं॥8॥

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम 

अग्निभूमिनभस्तॊयवायवः क्रमतॊ द्विज। 

भौमादीनां ग्रहाणांचतत्त्वाचामी प्रकीर्तिताः॥9॥ 

भौमादिग्रहॊं मॆं क्रम सॆ अग्नि, भूमि, आकाश, जल, वायुयॆ तत्त्व हैं॥9॥

गुरुशुकॊ विप्रवर्णा कुजार्कौ क्षत्रियॊ द्विज।

शशिसौम्यौ वैश्यवर्णी शनिः शूद्रॊ द्विजॊत्तम॥10॥ 

गुरु-शुक्र का ब्राह्मण वर्ण, भौम-सूर्य का क्षत्रिय वर्ण, चन्द्रमा-बुध का वैश्य वर्ण और  शनि का शूद्र वर्ण है॥10॥

चन्द्रसूर्यगुरुसौम्या भृग्वारशनयॊ द्विज!।

सत्त्वं रजस्तम इति स्वभावॊ ज्ञायतॆ क्रमात ॥11॥ 

चन्द्र, सूर्य, गुरु इंनकॊ सतॊगुणी स्वभाव, बुध-शुक्र का रजॊगुणी स्वभाव

और  भौम-शनि का तमॊगुणी स्वभाव है॥11॥

मधुपिङ्गलदृक सूर्यश्चतुरस्रः शुचिर्द्विज॥

पित्तप्रकृतिकॊ श्रीमान्पुमानल्पकचॊ द्विज॥12॥  

सूर्य- मधु कॆ सदृश पीलॆ नॆत्रॊंवाला, चौखुटी शरीर, स्वच्छ कान्ति वाला, पित्त प्रकृति, दर्शनीय, पुरुषग्रह, थॊडॆ बालॊं सॆ युक्त स्वरूपवाला है॥12॥। 

बहु वातकफः प्राज्ञश्चन्द्रॊ वृत्ततनुर्द्विज!। ।

शुभदृक मधुवाक्यश्च चञ्चलॊ मदनातुरः॥13॥

चन्द्रमा- वायु और  कफ सॆ युक्त प्रकृति, बुद्धिमान, गॊल शरीर, सुन्दर नॆत्र, मीठॆ वचन बॊलनॆवाला, चंचल और  कामी है॥13॥

क्रूररक्तॆ क्षणॊ भौमश्चपलॊदारमूर्तिकः।

पित्तप्रकृतिकः क्रॊधी कृशमध्यतनुर्द्विज॥14॥  

भौम- क्रूर स्वभाव, रक्तवर्ण की दृष्टि, चपल, उदार स्वभाव, पित्त

प्रकृति, क्रॊधी, पतली मध्यम कद की शरीरवाला है॥14॥

वपुः श्रॆष्ठॊश्लिष्टवाक्य ह्यतिहास्यरुचिर्बुधः। । 

पित्तवान्कफवान्विप्र मारुतप्रकृतिकस्तथा॥15॥

बुध- अच्छी शरीर, तॊतली बॊली वाला, अत्यंत हँसी करनॆवाला, पित्तकफ-वायु सॆ युक्त प्रकृतिवाला है॥15॥

28

ग्रहस्वरूपाध्यायः 

बृहद्गात्रॊ गुरुश्चैव पिङ्गलॊ मूर्धजॆक्षणः। 

कफप्रकृतिकॊ धीमान सर्वशास्त्रविशारदः॥16॥ 

गुरु-लम्बी शरीर, पीलॆ शिर कॆ कॆश और  दृष्टि वाला, कफ प्रकृति, बुद्धिमान, सभी शास्त्रॊं का जाननॆवाला है॥16॥।

सुखी कान्तवपुः श्रॆष्ठ सुलॊचनॊ भृगॊः सुतः। 

काव्यकर्ता कफाधिक्यानिलात्मा वक्रमूर्धजः॥16॥ 

शुक्र-सुन्दर शरीर, सुखी, अच्छॆ सुन्दर नॆत्रॊंवाला, काव्य (कविता) करनॆवाला, कफ-वायुमिश्रित प्रकृति, टॆढॆ शिर कॆ बालॊं वाला है॥17॥

कृशदीर्घतनुः सौरिःपिङ्गदृष्ट्यनिलात्मकः। 

स्थूलदन्तॊऽलसॊ पंगु खररॊमकचॊ द्विज!॥18॥ 

शनि-दुर्बल लम्बी शरीर, पीलॆ नॆत्र, वायु प्रकृति, मॊटॆ दाँत, आलसी, पंगु, रूखॆ रॊम और  बालॊं वाला है॥18॥।

धूम्राकारॊ नीलतनुर्वनस्थॊऽपि भयङ्करः।

वातप्रकृतिकॊ धीमान स्वर्भानुः प्रतिमः शिखी॥19॥ । 

राहु-धु‌ऎँ कॆ सदृश वर्ण, नीलॆ रंग की शरीर, जंगल मॆं रहनॆवाला, भयंकर, वायु प्रकृति और  बुद्धिमान है। कॆतु का भी स्वरूप राहु कॆ समान ही है॥19॥।

अस्थिरक्तस्तथा मज्जा त्वक्वसावीर्यस्नायवः। । 

तासामीशा क्रमॆणॊक्ता ज्ञॆयाः सूर्यादयॊ द्विजाः॥20॥ 

सूर्य आदि क्रम सॆ अस्थि (हड्डी), रक्त, मज्जा, त्वक (चर्म), वसा,

वीर्य, स्नायु (नस) इनकॆ स्वामी हैं॥20॥। । 

दॆवालयं जलं वनी क्रीडादीनां तथैव च।

कॊशशय्या युत्कराणामीशाः सूर्यादयः क्रममत॥21॥

ऎवं सूर्य आदि ग्रहॊं कॆ क्रम सॆ दॆवालय, जलाशय, अग्निस्थान, . क्रीडास्थान, कॊश (खजाना), शय्यास्थान, ऊसरभूमि यॆ स्थान हैं॥21॥

अयनक्षणवासर्तुमासपक्षसमा द्विजः॥ 

सूर्यादीनां क्रमाज्ज्ञॆया निर्विशकं द्विजॊत्तम॥22॥ 

सूर्य आदि ग्रह क्रम सॆ अयन, क्षण (मुहूर्त), वासर (दिन), ऋतु, मास, पक्ष, वर्ष कॆ स्वामी हैं॥22॥ ।

30 . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम 

कटुलवणतिक्तमिश्रमधुरॊकषायकाः ।

क्रमॆण सर्वॆ विज्ञॆया सूर्यादीनां द्विजॊत्तम॥23॥

सूर्य आदि ग्रहॊं कॆ क्रम सॆ कटु, लवण, तीता मिश्रित, मधुर, खट्टा, और  कसैला.यॆ रस हैं॥23॥

बुधॆज्यौ बलिनौ पूर्वॆ रविभौमौ च दक्षिणॆ॥ 

वारुणॆ सूर्यपुत्रश्च सितचन्द्रौ तथॊत्तरॆ॥24॥

बुध-गुरु पूर्वदिशा (लग्न मॆं) मॆं, सूर्य-भौम दक्षिण दिशा (दशम) मॆं, शनि पश्चिम (सप्तम) मॆं, शुक्र-चन्द्रमा उत्तर (चतुर्थ) मॆं बली हॊतॆ

हैं॥24॥ । 

निशायां बलिनश्चन्द्रकुजसौरा भवन्ति हि।

सर्वदा ज्ञॊ बली ज्ञॆयॊ दिनशॆषा द्विजॊत्तम॥25॥

चन्द्रमा, भौम, शनि यॆ रात मॆं बली, बुध दिन-रात्रि दॊनॊं मॆं और  शॆष सूर्य, गुरु, शुक्र दिन मॆं बली हॊतॆ हैं॥25॥।

कृष्णॆच बलिना क्रूराः सौम्याः वीर्ययुताः सितॆ। 

सौम्यायनॆ सौम्यखॆटॊ बली याम्यायनॆऽपरः॥26॥ 

कृष्णपक्ष मॆं पापग्रह और  शुक्लपक्ष मॆं शुभग्रह बली हॊतॆ हैं। उत्तरायण मॆं शुभग्रह और  दक्षिणायन मॆं पापग्रह बली हॊतॆ हैं॥26॥

स्वदिवससमहॊरा मासपैः कालवीर्यकम।

शकुवुगुशुचराद्या वृद्धितॊ वीर्यवन्तराः॥27॥

जॊ ग्रह जिस दिन का, वर्ष का, हॊरा का और  मास का स्वामी हॊता है वह अपनॆ दिन, वर्ष, हॊरा, मास मॆं बली हॊता है। शनि भौम, बुध, गुरु, शुक्र, चंद्र और  सूर्य यथॊत्तर बली हॊतॆ हैं। अर्थात शनि सॆ भौम,

भौम सॆ बुध, बुध सॆ गुरु, गुरु सॆ शुक्र, शुक्र सॆ चन्द्रमा और  चन्द्र सॆ सूर्य । बली हॊता है॥27॥

स्थूलान जनयति सूर्यॊ दुर्भगान सूर्यपुत्रकः।

क्षीरॊपॆतांस्तथा चन्द्रः कण्टकाद्यान्धरासुतः॥28॥  

स्थूल वृक्षॊं का कारक सूर्य है, दुष्ट वृक्षॊं का कारक शनि, दूधवालॆ। . वृक्षॊं का चन्द्रमा, काँटॆवालॆ वृक्षॊं का भौम है॥28॥।

। गुरुज्ञौ सफलान्विप्र पुष्पवृक्षान्भृगॊः सुतः। 

नीरसान्सूर्यपुत्रश्च ऎवं ज्ञॆया खगाः द्विज॥29॥

ग्रहस्वरूपाध्यायः 

फूलवालॆ वृक्षॊं का गुरु-बुध, फूल कॆ वृक्षॊं का शुक्र और  नीरस . वृक्षॊं का शनि कारक है॥29॥

राहुश्चाण्डालजातिश्च कॆतुर्जात्यन्तरस्तथा। 

शिखिस्वर्भानुमन्दानां वल्मीकस्थानमुच्यतॆ॥30॥ 

राहु की चांडाल जाति और  कॆतु वर्णशंकर जाति का है। कॆतु, राहु और  शनि का वल्मीक (विमौट) स्थान है॥30॥

चित्रकन्था फणीन्द्रस्य कॆतश्च्छिद्रयुतॊ द्विज। 

सीसं राहॊर्नीलमणिः कॆतॊर्ज्ञॆयॊ द्विजॊत्तम॥31॥। 

अनॆक रंग कॆ कपडॊं सॆ कथरी (गुदरी) राहु का और  कॆतु का छॆदॊं सॆ युक्त वस्त्र है। राहु का शीशा और  कॆतु का नीलमणि धातु है॥31॥

गुरॊः पीताम्बरं विप्र! भृगॊः क्षौमं तथैव च॥ 

रक्तक्षौम भास्करस्य इन्दॊः क्षौमं सितं द्विज!॥32॥ 

गरु का पीताम्बर, शुक्र का रॆशमी वस्त्र, सूर्य का लाल रंग का, चन्द्रमा का श्वॆत रॆशमी वस्त्र है॥32॥

बुधस्य तु कृष्णक्षौमं रक्तवस्त्रं कुजस्य च। 

वस्त्रं चित्रं शनॆर्विप्र! पट्टवस्त्रं तथैव च॥33॥ 

बुध का कालॆ रंग का, भौम का लाल रंग का वस्त्र और  शनि का चित्रवर्ण पटवस्त्र है॥33॥

भृगॊर्‌ऋतुवसन्तश्च कुजभान्वॊश्च ग्रीष्मकः।

चन्द्रस्य वर्षा विज्ञॆया शरच्चैव तथा विदः॥34॥ 

शुक्र की वसन्त‌ऋतु, भौम और  रवि की ग्रीष्म‌ऋतु, चन्द्रमा की वर्षा‌ऋतु, बुध की शर‌ऋतु है॥34॥।

हॆमन्तॊऽपि गुरॊर्ज्ञॆयः शनॆस्तु शिशिरॊ द्विजः॥

अष्टौ मासाश्च स्वर्भानॊः कॆतॊर्मासत्रयं द्विज!॥35॥ 

गुरु की हॆमन्त ऋतु और  शनि की शिशिर ऋतु है। राहु का 8 मास और  कॆतु का 3 मास है॥35 ॥

राह्वारपङ्गुचन्द्राश्च विज्ञॆया धातुखॆचराः।

मूलग्रहौ सूर्यशुक्रौ अपरा जीवसंज्ञकाः॥36॥ । 

राहु, भौम और  चन्द्रमा धातु कॆ स्वामी, सूर्य-शुक्र मूल कॆ स्वामी

और  शॆष बुध, गुरु, कॆतु जीव कॆ स्वामी हैं॥36॥।

32 । बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

ग्रहॆषु मन्दॊ वृद्धॊऽस्ति आयुर्वृद्धिप्रदायकः। । 

नैसर्गिकॆ बहुसमान्ददाति द्विजसत्तम॥37॥

. सभी ग्रहॊं मॆं शनि वृद्ध (निर्बल) है, किन्तु निसर्ग आयु साधन करनॆ । ’ मॆं बहुत वर्ष कॊ दॆता है॥37 ॥।

। अथ ग्रहाणामुच्चनीचमाह—

 अजॊ वृषॊ मृगः कन्या कुलीरझषतौलिकाः। . सूर्यादीनां क्रमादॆतास्तुङ्गसंज्ञाः प्रकीर्तिताः॥38॥

दिग्गुणाष्टयमा भाग तिथिभूतक्षनखासमा॥ , स्वॊच्चात्सप्तमभंनीचं पूर्वॊक्तांशैः प्रकीर्तितम ॥39 ॥ । मॆष, वृष, मकर, कन्या, कर्क, मीन, तुला राशियॊं मॆं 10, 3, 28, 15, 5, 27 अंश सूर्यादि ग्रहॊं कॆ उच्च हॊतॆ हैं और  अपनी उच्च राशि सॆ सातवीं राशि मॆं उतनॆ ही अंश तक नीच हॊतॆ हैं॥38-39 ॥।

स्पष्टार्थ चक्र । सु. । चं. । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । ग्रहाः

म. । क. । क. मी. । तु. उच्चराशयः 120 944 703 70 अंशाः

क. । मी. । म. । क. । मॆ. । नीचराशयः । 28 । 15 । 5 । 27 । 0 । अंशाः

अथ ग्रहाणां मूलत्रिकॊणमाह—विंशतिरंशाः सिंहॆ कॊणमपरॆ स्वभवनमर्कस्य।

उच्च भागत्रितयं वृषमिन्दॊः शॆषशास्युस्त्रिकॊणकाः॥40॥ । सूर्य का सिंह राशि मॆं 20 अंश तक मूलत्रिकॊण है, शॆष 10 अंश :

स्वराशि है। चन्द्रमा का वृष राशि कॆ आरम्भ सॆ 3 अंश तक उच्च

है, इसकॆ बाद कॆ अंश मूलत्रिकॊण हैं॥40॥। . .. द्वादशभागा मॆधॆ त्रिकॊणमपरॆ स्वभं तु भौमस्य।

उच्चफलं च कन्यायां बुधस्य तिथ्यंशकैः सदा भवॆत॥4॥ भौम का मॆष राशि मॆं 12 अंश तथा मूलत्रिकॊण है, शॆष अंश स्वराशि

है। बुध का कन्या राशि मॆं 15 अंश तक उच्च, इसकॆ बाद 5 । अंश तक मूलत्रिकॊण और  शॆष अंश स्वराशि है॥41॥...

’ईफ । त्व ॥ र्म

--

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ग्रहस्वरूपाध्यायः ततस्त्रिकॊणजातॆ पंचभिरंशैः स्वराशिजं परतः। दशभिर्भागैर्जीवस्य त्रिकॊणफलं स्वयं परं चापॆ॥42॥। गुरु का धन राशि मॆं 10 अंश तक मूलत्रिकॊण तथा शॆष अंश स्वराशि है॥42॥।

शुक्रस्य तु तिथयॊऽशास्त्रिकॊणभपरॆ तुलॆ स्वराशिश्च।

शनॆः कुम्भॆ नखांशास्त्रिकॊणं परतस्तु स्वराशिजं ज्ञॆयम॥43॥ । तुला राशि मॆं 15 अंश तक शुक्र का मूलत्रिकॊण और  शॆष अंश स्वराशि है। कुम्भ राशि मॆं 20 अंश तक शनि का मूलत्रिकॊण हैं तथा शॆष अंश स्वराशि है॥43॥।

। अथ ग्रहाणां नैसर्गिकमित्रामित्रत्वमाह—रवॆः समॊ ज्ञः सितसूर्यपुत्रावरी परॆ यॆ सुहृदॊ भवन्ति।

चन्द्रस्य नारी रविचन्द्रपुत्रौ स्मृतास्तु शॆषग्रहाः समाः॥44॥ । सूर्य कॆ बुध सम, शुक्र-शनि शत्रु और  शॆष चन्द्रमा, भौम, गुरु मित्र हैं। चन्द्रमा कॆ कॊ‌ई शत्रु नहीं हैं, सूर्य-बुध मित्र हैं और  शॆष ग्रह सम हैं॥44 ॥

समौ सिता शशिजश्च शत्रुमिंत्राणि शॆषाः पृथिवीसुतस्य। शत्रुः शशी सूर्यसितौ च मित्रॆ समापरॆ स्युःशशिनन्दनस्य॥45॥ भौम कॆ शुक्र-शनि सम हैं, बुध, शुक्र और  शॆष ग्रह मित्र हैं। बुध कॆ चन्द्रमा शत्रु, सूर्य-शुक्र मित्र और  शॆष ग्रह सम हैं॥45॥

गुरॊर्नसशुक्रौ रिपुसंज्ञकॊ तु शनिः समॊऽन्यॆ सुहृदॊ भवन्ति। शुक्रस्य मित्रॆ बुधसूर्यपुत्रौ समौ कुजार्यावितरावरीतौ॥46॥ गुरु कॆ बुध-शुक्र शत्रु, शनि सम और  शॆष ग्रह मित्र हैं। शुक्र कॆ बुध, शनि भित्र, भौम-गुरु सम और  शॆष ग्रह शत्रु हैं॥46॥।

शनॆः समॊ वाक्पतिरिन्दुसूनु शुक्रौ च मित्रॆ रिपवः परॆऽपि। ध्रुवं ग्रहाणां चतुराननॆन शत्रुत्वमित्रत्वसमत्वमुक्तम॥47॥। शनि कॆ गुरु सम, बुध-शुक्र मित्र और  शॆष ग्रह शत्रु हैं। इस प्रकार सॆ ब्रह्माजी नॆ ग्रहॊं कॆ मित्र, सम, शत्रु कॊ कहा है॥47॥।

अथ तात्कालिकमित्रशत्रुत्वमाह—. 

दशायबन्धुसहजस्वान्त्यस्थास्तॆ परस्परम।

तत्कालॆ सुहृदॊ ज्ञॆयः शॆषस्थानॆ त्वमित्रकम ॥48॥

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-

वृहत

.

34

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । जॊ ग्रह जिस ग्रह सॆ 10।11।4।3।2।12 वॆं स्थान मॆं हॊता है वह ग्रह उस ग्रह का तात्कालिक मित्र हॊता है, शॆष स्थानॊं मॆं शत्रु हॊता है॥48॥

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4

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-

: . अथ पञ्चधा मैत्रीमाह—तात्कालिकॆ निसर्गॆ च मित्रत्वॆ त्वधिमित्रकम। द्वयॊर्मित्रसमत्वॆ च मित्रं शत्रुः शत्रुसमत्वकॆ॥49॥

जॊ ग्रह जिस ग्रह का तात्कालिक और  निसर्ग मॆं मित्र हॊता। है वह उस ग्रह का अधिमित्र हॊता है। तत्काल मॆं मित्र ऒर निसर्ग मॆं सम हॊ, तॊ वह मित्र हॊता है। तात्कालिक शत्रु और  नैसगिक सम हॊ। तॊ शत्रु हॊता है॥49॥।

समौ तु शत्रुमित्रत्वॆ. शत्रुशत्रौ त्वधिशत्रुकम। ’ ऎवं पञ्चप्रकाराः स्युः ग्रहाणां मित्रता बुधैः॥10॥

. नैसर्गिक मित्र और  तात्कालिक शत्रु या नैसर्गिक शत्रु और  तात्कालिक मित्र हॊ तॊ सम हॊता है। तात्कालिक शत्रु और  नैसर्गिक सम हॊ तॊ शत्रु हॊता है. और  तात्कालिक शत्रु और  नैसर्गिक शत्रु हॊ तॊ

अधिशत्रु हॊता है। इस प्रकार ग्रहॊं की पाँच प्रकार क्री मैत्री हॊती है॥50 ॥।

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उदाहरण

नैसर्गिकमैत्रीचक्रम

। पल ।

शु.] श. ग्रहाः

जन्माङ्गम ।

आ = ।

मि

4

मित्राणि

1.

-----------

=

4

8 4 र

। ।

समाः । शत्रवः ।

सू. 4

--------------

बु.5बृ.


14

ग्रहस्वरूपाधयायः अथ तात्कालिकमैत्रीचक्रम

.

[ . । च. । नं. । 3 ॥ [शुः ॥ प्रताः ।

ग्राः

बु, श

ज ।1. चमं.

मित्राणि

  ।

मॆं. । बु. । बृ. । शु.

सू. चं. सू. चं..

बृ, शु.। बु. शु.] बृ. शु. बृ. शु.

। श. । श. ।

*"बु. बृ.

1. म. मं. श.मं, श.] बु. वृ.] मॆं, । मं, मॆं, श.]

शु.

बृ.

म. स. , 0.बु. 3) 4. . . स. . सत्रयः ।

:

शत्रवः

आद

अथ पञ्चधा मैत्रीचक्रम सु. । चं. । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । ग्रहाः चं. बृ. सू. बु. सू. शु. सू. चं. बु. । बु. । अधिमित्राणि

चं.

:

बु. ।बृ. शु.

श, । मं. बृ.।

श. ॥

मित्राणि

ट.

ः.

मॆं.

टप

-

बृ. श.

ट:

__

श.

म. शु.

शु.

मं.

। ।

शत्रवः

श. ।

श, ।

सू. चं,

अधिशत्रवः

अथ ग्रहाणामुच्चादिबलमाह—स्वॊच्चॆ शुभं बलं पूर्ण त्रिकॊणॆ पादवर्जितम। स्वर्भॆ दलं मित्रगॆहॆ पादमात्रं प्रकीर्तितम ॥1॥ यदि ग्रह अपनी उच्च राशि मॆं हॊ तॊ सम्पूर्ण शुभ बल, अपनॆ मूलत्रिकॊण राशि मॆं हॊ तॊ 3 चरण, अपनी राशि मॆं हॊ तॊ आधा बल, मित्र की राशि मॆं हॊ तॊ 1 चरण है॥51॥।

पादार्धं समझॆ प्रॊक्तं व्यर्थं नीचास्तशत्रुभॆ। . तद्वदुष्टबलं ब्रूयाद व्यत्ययॆन विचक्षणः॥52॥॥

सम की राशि मॆं हॊं तॊ आधा बल प्राप्त करता है। नीच अस्त और  शत्रु की राशि मॆं हॊ तॊ शून्य बल पाता है। इसकॆ विपरीत शॆष अशुभ बल पाता है॥52॥


.

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

अथ बलचक्रम मूलत्रिकॊण स्वर्स ।

क्षॆत्र

इत ख

वॆ

.

ऎग। 0 0

1

:

1 3094 30 ।

84

.

.

अथ धूमाद्यप्रकाशग्रहानयनमाह—सदा चतुर्भः विश्वांशैः नखलिप्ताधिकॊ रविः। धूमॊ नाम महादॊषः सर्वकर्मविनाशकः॥53॥

सूर्य मॆं 4 राशि 13 अंश 20 कला जॊड दॆनॆ सॆ धूम नाम का महादॊष । हॊता है, जॊ कि सभी कार्यॊं का विनाशक हॊता है॥53 ॥।

धूमॊ मण्डलतः शुद्धॊ व्यतीपातॊऽत्र दॊषदः॥ सषड्भॆऽत्र व्यतीपातॆ परिवॆषस्तु दॊषः॥54॥ धूम कॊ 12 राशि मॆं घटा दॆनॆ सॆ शॆष व्यतीपात नाम का दॊष हॊता है। व्यतीपात मॆं 6 राशि जॊड दॆनॆ सॆ परिवॆष नाम का दॊष हॊता है॥54 ॥

परिवॆषश्युतश्चक्रादिन्द्रचापस्तु दॊषदः। । त्र्यंशॊनात्यष्ट्यंशा युतश्चापः कॆतुग्रहॊ भवॆत॥55॥ . परिवॆष कॊ 12 राशि मॆं घटानॆ सॆ इन्द्रचाप नामक दॊष हॊता है। 17 । अंश मॆं अंश का तृतीयांश 10 कला घटानॆ सॆ शॆष 1640’ इन्द्रचाप

मॆं जॊडनॆ सॆ कॆतु नाम का दॊष हॊता है॥55॥।

। ऎकराशियुतॆ कॆतॊ सूर्यः स्यात्पूर्ववत्समः।

अप्रकाशप्रहाश्चैतॆ दॊषाः पापग्रहाः स्मृताः॥56॥ ... कॆतु मॆं 1 राशि जॊड दॆनॆ सॆ पूर्वॊक्त सूर्य कॆ तुल्य हॊ जाता है। यही

 अप्रकाशग्रह हैं, जॊ कि दॊषरूप पापग्रह हैं।56॥ । उदाहरण-स्पष्ट सूर्य 3।10।26।29 इसमॆं 4 राशि 13 अंश 20 कला जॊडनॆ सॆ 8॥1॥46॥20 धूम ग्रह हु‌आ। इसकॊ 12 राशि मॆं घटानॆ

सॆ 3।28।13।40 यह व्यतीपात ग्रह हु‌आ। इसमॆं 6 राशि जॊडनॆ सॆ . : 9।28।13।40 यह परिवॆष ग्रह हु‌आ। इसॆ 12 राशि मॆं घटानॆ सॆ 2।1।46।20 यह इन्द्रचाप हु‌आ। इसमॆं 16 अंश, 40 कला जॊडनॆ सॆ 2।18।26।20 यह कॆतु ग्रह हु‌आ। इसमॆं 1 राशि जॊडनॆ सॆ पूर्वॊक्त सूर्य कॆ तुल्य 3।18।26।20 हु‌आ।


11

लनाध्यायः

अथाऽप्रकाशग्रहाणां फलमाह—भान्विन्दुलग्नगॆष्वॆषु वंशायुर्ज्ञाननाशनम । ऎषांबवर्कदॊषाणां स्थिति: पद्मासनॊदिताः॥57॥ पूर्वॊक्त धूम आदि अप्रकाश ग्रह यदि सूर्य-चन्द्र लग्न सॆ युक्त हॊं तॊ क्रम सॆ वंश, आयु और  ज्ञान का नाश करतॆ हैं। इस प्रकार दॊषकारक अप्रकाश ग्रहॊं की स्थिति ब्रह्मा नॆ कही है॥57॥

इति पाराशरहॊरायां पूर्वखण्डॆ सुबॊधिन्यां ग्रहस्वरूपाध्यायस्तृतीयः ॥3॥

अथ लग्नाध्यायः॥4॥

तत्रादौ गुलिकादिकालज्ञानमाह—रविवारादिशन्यन्तं गुलिकादि निरूप्यतॆ॥ दिवसानष्टया कृत्वा वारॆशागणयॆत्क्रमात ॥9॥ रवि सॆ शनि पर्यन्त वारॊं मॆं गुलिक आदि का निरूपण कर रहॆ हैं। (जिस दिन इनका विचार करना हॊ उस दिन कॆ) दिनमान मॆं आठ का भाग दॆनॆ सॆ जॊ लब्ध हॊ उतना ही ऎक खंड का मान हॊता है; वारॆश सॆ (जिस दिन विचार कर रहॆ हॊं उस वार सॆ खंडॊं कॆ अनुसार अपनॆ इष्टकाल तक) गिननॆ सॆ॥1॥

अष्टमांशॊ निरीशः स्याच्छन्यंशॊ गुरिकः स्मृतः। रात्रिरप्यष्टधा भक्त्वा वान्पञ्चनादितः॥2॥

आठवॆं भाग का स्वामी कॊ‌ई न हॊता और  शनि पा वंड गुलिक हॊता है। इसी प्रकार रात्रिमान का भी (यदि रात्रि का जन्म हॊ

तॊ) आठ भाग करकॆ वारॆश सॆ पाँचवॆं वार सॆ गिननॆ सॆ॥2॥

गणर्यदष्टमॊ खण्डकॊ निष्पत्तिः परिकीर्तितः।

शन्यंशॊ गुलिकः प्रॊक्तॊ गुर्वंशॊ यमघण्टकः॥3॥

 शनि का अंश (खंड) गुलिक हॊता है और  आठवॆं खंड का कॊ‌ई स्वामी नहीं हॊता है। शनि का अंश गुलिक, गुरु का अंश यमघंट हॊता है॥3॥

भौमांशॊ मृत्युरादिष्टॊ रव्यंशॊ कालसंज्ञकः। सौम्यांशॊऽर्थप्रहरकः स्पष्टकर्मप्रदॆशकः॥4॥ भौम का मृत्यु, रवि का काल और  बुध का अर्धप्रहर हॊता है॥4॥ उदाहरण-जैसॆ संवत 2031 श्रावण कृष्ण 13 शनिवार कॊ दिनमान 32/50 है और  इसी कॆ बराबर इष्टकाल भी है। इसमॆं आठ का

11.


38. बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम भाग दॆनॆ सॆ 4।6:15 यह लब्धि हु‌ई। यहाँ वारॆश शनि सॆ गणना करनॆ सॆ प्रथम खंड ही गुलिक हु‌आ। इसी कॊ इष्टकाल मानकर सूर्य कॊ स्पष्ट कर लग्न लानॆ सॆ गुलिक लग्न 4।9।26।25 हु‌आ।

अथ गुलिकध्रुवाकचक्रम । रवि । चन्द्र भॊम । बुध । गुरु शुक्र । शनि वाराः ॥ 7 । 6 ।.5 । 4 । 3 । 2 । 1 । दिवा ॥ 3 । 4 । 3 । 7 । 6 । 5 . 4 । रात्री ।

अथ प्राणपदसाधनम्घटी चतुर्गुणा कार्या तिथ्याप्तैश्च पलैर्युताः। दिनकरॆणापहृतं शॆषं प्राणपदं स्मृतम ॥5॥

यहाँ प्राणपद साधन कॆ दॊ प्रकार दियॆ हैं। (1) इष्टकाल कॆ घटी कॊ 4 सॆ गुणा कर ऎक जगह रख दॆवॆं। पलॊं मॆं 15 का भाग दॆकर लब्धि कॊ चतुर्गुणित इष्ट घटी मॆं जॊडकर यॊगफल मॆं 12 का भाग दॆनॆ सॆ जॊ शॆष बचॆ, वह प्राणपद की राशि हॊती है॥5॥

शॆषात्पलान्ताद्विगुणी विधायराश्यंशसूर्यक्षैनियॊजिताय. तत्रापि तदाशियन क्रमॆण लग्नांशपर्दॆक्यता स्यात ॥6॥ - शॆष बचॆ हु‌ऎ कॊ दूना करनॆ सॆ अंश हॊता है। इस प्रकार सॆ

राशि और  अंश मध्यम प्राणपद कॆ हॊतॆ हैं॥6॥ अथच-स्वॆष्टकालं पलीकृत्य तिथ्याप्तं भादिकं च यत॥7॥

चरागद्विभकॆ भानौ यॊज्यं स्वॆ नवमॆ सुतॆ ॥7॥

स्फुटं प्राणपदं तस्मात पूर्ववच्छॊधयॆत्तनुम ॥7॥ । इसमॆं सूर्य की राशि चर-स्थिर-द्विस्वभाव कॆ अनुसार सूर्य की राशि . अंश, सूर्य की राशि सॆ नवीं राशि और  अंश तथा सूर्य की राशि सॆ पाँचवीं राशि और  अंश कॊ जॊड दॆनॆ सॆ राश्यादि स्पष्ट प्राणपद हॊता है। ऐसा करनॆ सॆ यदि जन्मलग्न का अंश और  प्राणपद का अंश बराबर हॊ तॊ इष्टकाल शुद्ध हॊता है। . (2) इष्टकाल कॊ पलात्मक बनाकर उसमॆं 15 का भाग दॆकर लब्धि

राशि और  अंश लाकर उसमॆं ऊपर कहॆ हु‌ऎ अनुसार सूर्य की राशि कॆ

 अनुसार राशि-अंश जॊडनॆ सॆ स्पष्टं राश्यादि प्राणपद हॊता है। इससॆ जन्म

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लानाध्यायः

39 लग्न कॊ शुद्ध करना चाहि‌ऎ। अर्थात लग्न का अंश और  प्राणपद का अंश समान हॊना चाहि‌ऎ॥7॥

। विना प्राणपदाच्छुद्धॊ गुलिकाद्वी निशाकराद ।

तदशुद्धं विजानीयात्स्थावराणां तदॆव हि॥8॥ जॊ जन्मलग्न प्राणपद या गुलिक या चन्द्रमा सॆ शुद्ध न की ग‌ई हॊ वह अशुद्ध हॊती है और  वह स्थावर की जन्मलग्न हॊती है॥8॥

द्वयॊहनबलॆऽप्यॆवं गुलिकॊत्परिचिन्तयॆत॥ तस्मात्तत्सप्तमस्थात्तदंशाच्च कलन्नतः॥9॥ इसलि‌ऎ उससॆ सप्तम सॆ या उसकॆ अंश सॆ लग्न का संशॊधन करना चाहि‌ऎ। दॊनॊं निर्बल हॊं तॊ गुलिक (माँदी) विचार करॆ॥9॥

तथैव तन्त्रिकॊणॆ वा जन्मलग्नं विनिर्दिशॆत । मनुष्याणां पशूनां य द्वितीयॆ दशमॆ रिपौ । 10 ॥ प्राणपद की राशि सॆ त्रिकॊण (5।9।1) राशि मॆं मनुष्यॊं कॆ जन्मलग्न की राशि हॊती है। 2, 6, 10वीं राशि पशु‌ऒं की हॆ॥10॥

तृतीयॆ मदनॆ लाभॆ विहङ्गानां विनिर्दिशॆत । कीटसर्पजलस्थानां शॆषस्थानॆषु संस्थितः । ।11॥ 3।7 वीं राशि मॆं चिडियॊं का और  शॆष राशियॊं मॆं कीट, सर्प, जल मॆं रहनॆवालॆ जीवॊं का जन्म हॊता है॥11॥

उदाहरण-जैसॆ संवत 2013 श्रावण कृष्ण 13 शनिवार कॊ इष्ट32।50 पर लग्न 9।17 जन्म हु‌आ। इष्टकालिक सूर्य 3।18 है। श्लॊक 61-62 कॆ अनुसार प्रथम प्रकार । श्लॊक 63 कॆ अनुसार

सॆ प्राणपद का साधन

इष्टकाल 32।28।30 । इष्ट्रघटी  4= 32 4 = 128 इसका पल=1949।30 इसमॆं 15 का इष्ट्रपल ; 15 = 50 * 15 = 3 शॆष 5

भाग दॆनॆ सॆ 129 लब्धि-राशि हु‌ई और  

शॆष 13/30 कॊ दूना करनॆ सॆ 27 अंश 876 + 3 = 238

हु‌आ। सूर्य कॊ चर राशि मॆं हॊनॆ सॆ सूर्य 131:12=10 लब्धि का त्याग कर दॆनॆ सॆ

मॆं जॊड दॆनॆ सॆ 129।27 शॆष 11 प्राणपद. की राशि और  पल शॆष

318छ कॊ दुना करनॆ सॆ 10 अंश यह मध्यम

फ्श3 184 प्राणपद हु‌आ। सूर्य चर राशि मॆं है अतः । 1।15 यह स्पष्ट प्राणपद हु‌आ, जिससॆ सूर्य कॆ राशि-अंश मॆं जॊडनॆ सॆ । ‘प्राणत्रिकॊणॆ प्रवदन्ति लग्नम और  11।10+3।18।22।28 यह स्पष्ट । ‘लग्नांशप्राणांशपदैक्यता स्यात यह सिद्ध प्राणपद हु‌आ।

। हॊता है।


। : बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । प्राणपद की राशि मिथुन सॆ जन्मलग्न की राशि तक गिननॆ सॆ जन्मलग्न की राशि आठर्वी आती है। अतः इष्टशॊधन करना आवश्यक है, जिससॆ दॊनॊं का परस्पर त्रिकॊणत्व हॊ जाय। इसलि‌ऎ इष्टकाल मॆं 15 पल । कम करनॆ सॆ 3235 इष्टमान कर उपर्युक्त विधि सॆ प्राणपद बनानॆ सॆ 1।28 आया। यहाँ राशि तॊ ठीक आ‌ई, यानि वृषराशि, जिससॆ जन्मलग्न 9वीं राशि है किन्तु लग्नांश और  प्राणांश ऎक नहीं हु‌ऎ। अतः 6 पल और  30 विपल और  घटा दॆनॆ सॆ शुद्ध इष्टकाल 32।28।30 हु‌आ। इस पर सॆ प्राणपद बनानॆ सॆ 1/15 आया, जॊ कि उक्त वाक्य कॆ अनुसार शुद्ध है।

विशॆष वस्तुतः प्राणपद शब्द का अर्थ है-प्राण दॆनॆवाला पद (स्थान) या अंश। यह सूर्यॊदय सॆ 15 पल मॆं ऎक राशि का हॊता है। अतः 3 दंड मॆं 12 राशि की पूर्ति हॊ जाती है और  1 पल मॆं 2 अंश प्राणपद का हॊता है। इस नियम कॊ ध्यान मॆं रखकर इष्ट शुद्ध कर लॆना चाहि‌ऎ। उपर्युक्त शुद्ध कियॆ हु‌ऎ इष्टकाल द्वारा जन्माङ्ग का स्वरूप निम्नलिखित हॊगा। . संवत 2013 शकॆ 1878 श्रावणकृष्ण 13 शनिवासरॆ पुनर्वसुभॆ प्रथमचरणॆ इष्टम 32।28।30 भयातम 10।32 भभॊगः 5533 लग्नम 9।15।22।37 शुभम।

जन्माङ्गम । स्पष्टग्रहाः सु.चं. मं. बु.गु.शु.श.रा. 3139088360 932234/934993

 4सू. 38800 छ 1481484142ऎ

। अथ निषॆकलग्नानयनमाह—. अथातः सम्प्रवक्ष्यामि शृणुष्वं मुनिपुङ्गव।

जन्मलग्नं च संशॊध्य निषॆकं परिशॊधयॆत ॥12॥ हॆ मुनिश्रॆष्ठ मैत्रॆय! अब मैं जन्मलग्न की शुद्धि कॆ अनंतर निषॆक (गंर्भाधान) लग्न की शुद्धि कॊ कहता हूँ, इसॆ धारण करॊ॥12॥

। 11 मं.

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र6 20 222260 3 4 8 रन

ऎपॊप

9.99.


लग्नाध्यायः तदहं सम्प्रवक्ष्यामि मैत्रॆय त्वं विचारय। जन्मलग्नात परिज्ञानं निषॆकं सर्वजन्तुषु ॥13॥ सभी जन्मलग्न कॆ ज्ञान सॆ सभी जन्तु‌ऒं कॆ गर्भाधान लग्न का ज्ञान हॊ जाता है॥13॥

यस्मिन भावॆ स्थितॊ कॊणस्तस्य मान्दॆर्यदन्तरम॥

लग्नभाग्यन्तरं यॊज्यं यच्च राश्यादि जायतॆ ॥14॥ । जिस भाव मॆं शनि हॊ उस भाव और  मान्दि (गुलिक) लग्न का अन्तर कर उसमॆं लग्न और  भाग्य भाव कॆ अन्तर कॊ जॊड दॆनॆ सॆ जॊ राश्यादि हॊती है॥14॥

मासादिस्तन्मितं ज्ञॆयं जन्मतः प्राक निषॆकजम। .. यदादृश्यदलॆऽङ्गॆशस्तदॆन्दॊभुक्तभागयुक ॥15॥ जन्म सॆ पूर्व कॆ (निषॆक काल कॆ) मासादि का ज्ञान हॊता है। यदि लग्नॆश अदृश्य चक्रार्ध (लग्न सॆ सप्तम कॆ बीच) मॆं हॊ तॊ पूर्वॊक्त मासादि मॆं चन्द्रमा कॆ भुक्त अंशादि कॊ जॊडनॆ सॆ मासादि हॊता है॥15॥

तत्कालॆ साधयॆल्लग्नं शॊधयॆत्पूर्ववत्तनुम । तस्माल्लग्नात्फलं वाच्यं गर्भस्थस्य विशॆषतः॥16॥ इसॆ जानकर तात्कालिक लग्न कॊ बनावॆ, वहीं गर्भाधान की लग्न हॊती है। उस लग्न सॆ गर्भस्थ प्राणी कॆ शुभ-अशुभ फल कहतॆ हैं॥16॥

शुभाशुभं वदॆत पित्रॊर्जीवतं मरणं तथा॥

ऎवं निषॆकलग्नॆन सम्यक ज्ञॆयं स्वकल्पनात ॥17॥ । माता-पिता कॆ जीवन-मरण कॆ शुभ-अशुभ फलॊं का विचार अपनी कल्पनावश करॆ॥17॥।

उदाहरण-जैसॆ पूर्वॊक्त जन्माङग मॆं शनि कर्मभाव की सन्धि मॆं है, अतः सन्धि 7 ॥11॥58।33 और  गुलिक लग्न 4।9।26।35 का अन्तर 3।2।31।58 हु‌आ। इसमॆं लग्न 9।15।315 और  भाग्य भाव 5।24।41।25 का अन्तर 4।20।51।26 जॊड दॆनॆ सॆ 7।23।23।24 अर्थात जन्म सॆ पूर्व 7 माह— 23 दिन 23 घटी 24 पल पूर्व गर्भाधान हु‌आ था।

। अथ भावलग्नानयनमाह—सूर्यॊदयात्समारभ्य घटीपञ्चॆ प्रमाणतः। जन्मॆष्टकालपर्यन्तं गणनीयं प्रयत्नतः॥18॥ सूर्यॊदय सॆ पाँच घटी कॆ बराबर ऎक लग्न बीतती है। इसॆ भावलग्न


1

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम या घटीलग्न कहतॆ हैं॥18॥

ऒजलग्नॆ यदा जन्म सूर्यराश्यनुसारतः।

समलग्नॆ जन्मलग्नात्यत्संख्या प्राप्यतॆ द्विज। । भावलग्नं विजानीयात हॊरालग्नं तदुच्यतॆ ॥19॥

इसलि‌ऎ इष्ट घटी पर्यन्त जितनी लग्न बीती हॊ उसमॆं यदि जन्मलग्न विषम राशि मॆं हॊ तॊ सूर्य राशि सॆ और  यदि समराशि मॆं हॊ तॊ जन्मलग्न ।

सॆ उक्त संख्या गिननॆ सॆ जॊ लग्न हॊ वही भावलग्न हॊती है॥19॥ । उदाहरण-इष्ट घटी 32।28।30 सूर्य 3।18।26 है। इष्ट घटी मॆं 5 सॆ भाग दॆनॆ सॆ 6,29।42 लब्धि हु‌ई। इसॆ सूर्य मॆं जॊडनॆ सॆ 10।28।8 यह भावलग्न हु‌ई॥ । । विशॆष‌इष्टकाल और  लग्न की प्रवृत्ति सूर्यॊदय सॆ हॊनॆ कॆ कारण, सूर्य मॆं ही जॊडना चाहि‌ऎ। यह युक्तिसंगत मालूम हॊता है।

। अथ हॊरालग्नानयनमाह—सार्धद्विघटिया विप्र कालादिति विलग्नभात । प्रयान्ति लग्नं तन्नाम हॊरालग्नं द्विजॊत्तम ॥20॥ जन्मलग्न सॆ ढा‌ई घटी कॆ तुल्य ऎक लग्न हॊती है, जिसॆ हॊरालग्न कहतॆ हैं॥20॥

यज्जन्म विषमर्कॆषु सूर्यादि गणयॆत्क्रमात ॥ समलग्नॆ यदा जन्म गणयॆज्जन्मभाद्विज ॥21॥ अतः इसकॆ अनुसार इष्ट घटी पर्यन्त गिननॆ सॆ जॊ संख्या हॊ उसमॆं यदि जन्म विषम लग्न मॆं हॊ तॊ सूर्य की राशि सॆ अन्यथा जन्मलान सॆ गणना करनॆ सॆ जॊ राशि हॊ वही हॊरालग्न हॊती है॥21॥।

उदाहरण-इष्ट घटी 32।28।30 है, इसमॆं ढा‌ई 3 का भाग दॆनॆ नॆ लब्धि राश्यादि 0।29।42 हु‌ई। इसमॆं सूर्य की राश्यादि जॊडनॆ सॆ 4।18।18 यह राश्यादि हॊरालग्न हु‌आ।

: घटीलग्नानयनमाह—घटीलग्नं प्रवक्ष्यामि शृणु त्वं द्विजसत्तम। सूर्यॊदयात्समारभ्य जन्मकालावधि क्रमात ॥22॥ हॆ द्विजश्रॆष्ठ! मैं घटीलग्न कॊ कह रहा हूँ, उसॆ सुनॊ। सूर्यॊदय सॆ आरम्भं । कर जन्म समय पर्यन्त क्रम सॆ॥22॥

ऎकैकं घटिकामानाल्लग्नं राश्यादिकं च यत। तदॆव घटिकालग्नं कथितं ऋषिभिः पुरा ॥23॥



लग्नाध्यायः ऎक-ऎक घटी कॆ तुल्य ऎक राशि कॆ हिसाब सॆ जॊ राशि हॊ वही घटीलग्न हॊती है, ऐसा पूर्वाचार्यॊं नॆ कहा है॥23॥

राशीन तत्रघटीतुल्या द्विभागाः पलसम्मिताः। यॊज्यं सदा स्पष्टभानौ घटीलग्नं स्फुटं भवॆत ॥24॥ क्रमाल्लग्नादि भावाश्च संलिखॆतद्विजस॥ सूर्यादि यत्र ऋक्षॆ च जन्मवत्संलिखॆद्विज ॥25॥ इसमॆं इष्ट-घटी कॆ तुल्य राशि हॊती है और  ऎक पल मॆं दॊ अंश हॊतॆ। हैं। इसकॆ अनुसार जॊ राशि और  अंश हॊ उसमॆं सदा सूर्य कॆ राशि‌अंश कॊ जॊड दॆनॆ सॆ स्पष्ट घटी-लग्न हॊती है। इसॆ लग्न मानकर द्वादशभाव चक्र लिखकर जन्मकालिक सूर्य आदि ग्रह जिन-जिन राशियॊं मॆं हॊं, उन्हॆं उन्हीं-उन्हीं राशियॊं मॆं दॆवॆं॥24-25॥ । उदाहरण-इष्टकाल 32।28।30 हैं और  सूर्य 3।18।26 है, उक्त प्रकार सॆ 32 राशि 14 अंश हु‌आ। इसमॆं सूर्य कॆ राश्यादि कॊ जॊडनॆ सॆ 0 राशि 2 अंश यह घटीलग्न हु‌ई।

अथ वर्णदलग्नानयनमाह—जन्महॊराख्यलग्नसंख्या ग्राह्या पृथक पृथक ।

ऒजॆ लग्नॆ त्वॆकयुग्मॆ चक्रशुद्धैकसंयुतः ॥26॥ जन्मलग्न की राशि और  हॊरालग्न की राशि संख्या विषम हॊं तॊ अथवा दॊंनॊ सम हॊं तॊ, दॊनॊं का यॊग करनॆ सॆ यदि विषम राशि हॊ तॊ वही वर्णद राशि हॊती है। दॊनॊं मॆं ऎक विषम और  दूसरी सम हॊ तॊ सम कॊ 12 राशि मॆं घटाकर शॆष कॊ पहलॆ मॆं घटानॆ सॆ शॆष वर्णद राशि हॊती

है॥26॥।

युग्मौजसाम्यॆ संयॊज्य वियॊज्यान्यॊनमन्यथा। मॆषादितः क्रमादॊजॆ मीनादॆरुत्क्रमासमॆ॥27॥ विषम राशि मॆं मॆषादि क्रम सॆ और  सम राशि मॆं मीनादि सॆ उत्क्रम गणना सॆ है॥27॥

ऎवं यल्लग्नमायाति वर्णदं तत प्रकीर्तितम। । ऎवं द्वादशभावानां वर्णदं लग्नमानयॆत॥28॥

जॊ लग्न हॊ वही वर्णद लग्न हॊती है। इस प्रकार सभी भावॊं की वर्णद लग्न बनानी चाहि‌ऎ॥28॥


2

टॆझ

णॊश्टीशॆ

, बृहत्पाराशरॊराशास्त्रम । । विशॆष1.जन्मलग्न और  हॊरालग्न दॊनॊं विषम हॊं तॊ दॊनॊं का यॊग

यदि विषम राशि हॊ तॊ वही वर्णद राशि हॊती है। । 2. यदि दॊन सम हॊं तॊ दॊनॊं कॊ 12 राशि मॆं घटाकर शॆषॊं का यॊग

करनॆ सॆ यदि विषम राशि हॊ तॊ वही वर्णद राशि हॊती है।

3. यदि जन्मलग्न हॊरालग्न दॊनॊं मॆं ऎक विषम और  दूसरी सम हॊ तॊ सम राशि कॊ 12 राशि मॆं घटाकर दॊनॊं का अन्तर करनॆ सॆ शॆष विषम राशि हॊं तॊ वर्णद राशि हॊती है।

उपर्युक्त तीनॊं प्रकारॊं सॆ यह स्पष्ट है कि यॊग वा अन्तर करनॆ सॆ सॆम राशि आवॆ तॊ उसॆ 12 राशि मॆं पुनः घटा दॆनॆ सॆ वर्णद राशि हॊती है अर्थात वर्णद राशि हमॆशा विषम ही हॊती है। । उदाहरण-जन्मलग्न 9।15।22।37 और  हॊरालग्न 4।18।18 है। यहाँ जन्मलग्न सम और  हॊरालग्न विषम है, अतः नियम तीन कॆ अनुसार जन्मलग्न कॊ 12 राशि मॆं घटानॆ सॆ शॆष 2।14।37।23 हु‌आ। यही लग्न की वर्णद राशि है।

यदि द्वादॊजराशौ वा समराशौ यदा द्विज।

इयं संयॊजनीयं वै संज्ञॆ या वर्णदा भवॆत॥29॥

। यदि दॊनॊं विषम वा समराशि हॊं तॊ दॊनॊं का यॊग करनॆ सॆ वर्णद . राशि हॊती है॥29॥

ऎकस्थानॆ ऒजराशावपरॆ समभॆ द्विज।

समॆं तुचक्रतशॊयं न्यूनसंख्यां विशॊधयॆत॥30॥ । ऎक विषम राशि हॊ और  दूसरी सम राशि हॊ तॊ सम राशि कॊ 12 राशि

मॆं घटानॆ सॆ जॊ न्युन हॊ उसॆ पुनः घटानॆ सॆ वर्णद हॊती है॥30॥।

मॆवादिकॆन गणयॆत्कममार्गॆण वै द्विज। । यल्लब्धमन्तिमॊ राशिः स राशिर्वर्णदॊ भवॆत॥31॥

मॆष सॆ क्रममार्ग सॆ गणना करनॆ सॆ अंतिम राशि पर्यन्त जॊ राशि आवॆ ।

वही वर्णद हॊती है॥31॥. ..... युग्मलग्नॆषु यज्जन्म मीनादॆरपसव्यतः।

क्रमॆण लग्नहॊरान्तं गणयॆत द्विजसत्तम॥32॥ समलग्न मॆं जन्म हॊनॆ सॆ मीनादि अपसव्य मार्ग सॆ गिननॆ सॆ लग्न पर्यन्त गणना करनी चाहि‌ऎ॥32॥ ।

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लग्नाध्यायः ऒजराशौ द्वयं लब्धं तथा द्वौ सर्मराशिगौ। साजात्यॆ यॊजनं कार्य जायतॆ वर्णदा दशा॥33॥ यदि दॊनॊं विषम राशि मॆं अथवा दॊनॊं समराशि मॆं हॊं तॊ दॊनॊं कॆ सजातीय हॊनॆ सॆ दॊनॊं का यॊग करनॆ सॆ वर्णद दशा हॆती है॥33॥

वैजात्यॆ पूर्ववत्कार्याधिक्यॆ न्युनं विशॊधयॆत। मॆषादि सव्यमार्गॆण गणनीयं प्रयत्नतः॥34॥ दॊनॊं विजातीय हॊं तॊ पूर्ववत विषम मॆं न्यून कॊ घटाकर मॆषादि सॆ सव्यमार्ग सॆ गणना करना चाहि‌ऎ॥34॥।

यल्लब्धमन्तिमॊ राशिस्तद्राशिर्वर्णदॊ भवॆत॥

 वर्षसंख्या विजानीयात चरपर्याप्रमाणतः॥35॥

जॊ लम्न सॆ अंतिम राशि हॊ वहीं वर्णद राशि हॊती है। वहीं वर्णद संख्या चराति क्रम सॆ हॊती है॥35॥

हॊरालग्नभयॊर्नॆया दुर्बला वर्णदा दशा। यत्संख्या वर्णदा लग्नात्तत्र संख्या क्रमॆण तु ॥36।

हॊरालग्न सॆ आ‌ई हु‌ई वर्णद दशा दुर्बल हॊती है, वहाँ पर जन्मलग्न सॆ

 ला‌ई हु‌ई दशा की संख्या लॆनी चाहि‌ऎ॥36॥

क्रमव्युत्क्रमभॆदॆन दशा स्यात पुरुषस्त्रियॊः। वर्णदा राशिमॆषादि मीनादि गणयॆत्क्रमात ॥37॥। क्रम-उत्क्रम भॆद सॆ पुरुष और  स्त्री की दशा हॊती है। और  वर्णद राशि मॆषादि और  मीनादि सॆ गिनना चाहि‌ऎ॥37 ॥

फलविचारमाह—वर्णदात्स्यात्रिकॊणॆ च पापयुक्पापराशिकः।

पापयॊगकृतॆ विप्र दशापर्यन्तजीवनम॥38॥ । हॆ विप्र ! वर्णद राशि सॆ त्रिकॊण मॆं पापग्रह की युति हॊ अथवा पापग्रह की राशि हॊ, उसमॆं पापग्रह की युति हॊ तॊ उसकॆ दॆश पर्यन्त आयु हॊती है॥38॥

रुद्रशूलॆ यथैवायुर्निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम। । तथैव वर्णदादप्यायुश्चिन्त्यं द्विजॊत्तम॥39 ॥

जिस प्रकार रुद्रशूल पर्यन्त आयु हॊती है उसी प्रकार वर्णद सॆ. भी आयु का विचार करना चाहि‌ऎ। ।39 ॥

घॊश्टॊ

टॆट

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46 :

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम .. वर्णदात्सप्तमाद्राशॆः कलत्रायुर विचिन्तयॆत।

पञ्चमॆ तनयस्यायुर्मातुः स्यात्तुर्यभावकॆ॥40॥ वर्णद सॆ पाँचर्वी राशि सॆ पुत्र की, चौथी राशि सॆ माता की ॥40॥ . तृतीयॆ भ्रातुरायुः स्याज्ज्यॆष्ठभ्रातुर्भवॆद्विज॥

’पितुस्तु नवमाद भावादायुज्ञॆयं विचक्षणैः॥41॥ तीसरी राशि सॆ भा‌ई की और  ग्यारहवीं राशि सॆ ज्यॆष्ठ भा‌ई की, नर्वी राशि सॆ पिता की आयु का विचार करना चाहि‌ऎ॥41॥ । शूलराशिदशायां वै प्रबलायामरिष्टकम ॥

वर्णदाल्लग्नवच्चिन्त्यं फलं सर्वं विचक्षणैः॥42॥। शूलराशि की दशा मॆं उन लॊगॊं कॊ प्रवल अरिष्ट हॊता है। वर्णद लग्न सॆ लग्नभाव कॆ समान ही सभी बातॊं का विचार करना चाहि‌ऎ॥42॥ ।

 ऎवं तन्वादिभावानां कारयॆद्वर्णदा दशा॥पूर्ववच्च फलं ज्ञॆयं शुभाशुभं द्विजॊत्तम ॥43॥। 

इसी प्रकार लग्न आदि सभी भावॊं की वर्णद राशि बनाना चाहि‌ऎ। उस : पर सॆ प्रत्यॆक भावॊं कॆ शुभ-अशुभ फलॊं का विचार पृर्ववत करना। चाहि‌ऎ ॥43॥ । ग्रहाणां वर्णदा नैव राशीनां वर्णदा दशा।

यल्लब्धं पूर्दमब्दानां भानुभागं च कारयॆत ॥44॥ । ग्रहॊं की वर्णद राशि नहीं हॊती है। इस प्रकार वर्णद राशि कॆ दशा

का जॊ वर्ष मिलॆ, उसमॆं 12 कॊ भाग दॆकर ॥44 ॥

क्रमव्युत्क्रमभॆदॆन संलिखॆट्टै दशान्तरम ॥

चरस्थिरदशायां वै वर्णदायास्तथैव च॥45॥। । जैसॆ चर आदि दशा मॆं क्रम-उत्क्रम सॆ अन्तर्दशा लिखी जाती है उसी प्रकार यहाँ भी अन्तर्दशा लिखॆं ॥45॥।

। पूर्णायां कारकस्यैव कॆन्द्रस्थानां दशा भवॆत।

ततः पणफरस्थानामापॊक्लिम दशां ततः॥46॥ , पहलॆ कॆन्द्रस्थ की दशा, इसकॆ बाद पणफरस्थ की और  इसकॆ बाद

आरॊक्लिमस्थ की दशा हॊती है॥46 ॥

राशरहॊरायां पूर्वखण्डॆ सुबॊधिन्यां लग्नाध्याय चतुर्थः।

शॆ

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ळ्ख

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भ.

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षॊडशवर्गाध्यायः

अथ षॊडशवर्गप्रकरणम वर्गान षॊडश संख्याकान ब्रह्मा प्रॊक्तं पितामहः। तानहं सम्प्रवक्ष्यामि मैत्रॆय श्रूयतामिति ॥1॥ हॆ मैत्रॆय ! लॊकपितामह ब्रह्माजी नॆ जॊ सॊलह वर्गॊं कॊ कहा है, उसॆ मैं कहता हूँ॥1॥।

क्षॆत्र हॊरां च द्वॆष्काणचतुर्थाशः सप्तमांशकः। । नवांशॊ दशमांशश्च सूर्याशः षॊडशांशकः॥2॥

1 गृह, 2 हॊरा, 3 द्रॆष्काण, 4 चतुर्थांश, 5 सप्तमांश, 6 नवांश, 7 दशमांश, 8 द्वादशांश, 9 षॊडशांश ॥2॥

त्रिंशांशॊ वॆदवावंशॊ भांशास्त्रिशांशकस्तथा॥

खवॆदांशॊऽक्षवॆदांशः षष्ठ्यंशश्च ततः परम ॥3॥ 1. 10 त्रिंशांश, 11 चतुर्विंशांश, 12 सप्तविशांश, 13 त्रिंशदंशांश, 14 चत्वारिंशांश, 15 पञ्चचत्वारिंशांश, 16 षष्ठ्यंश यॆ 16 वर्ग हैं॥3॥

गृहहॊराकथनम्तत्क्षॆत्रं यस्य खॆटस्य राशॆर्यॊ यस्य नायकः। सूर्यॆन्दॊर्विषमॆ राशौ समॆ तद्विपरीतकम ॥4॥ जॊ ग्रह जिस राशि का स्वामी है वही उसका गृह है। विषम राशि मॆं पहली हॊरा सूर्य की और  दूसरी चन्द्रमा की हॊती है। सम राशि मॆं पहली हॊरा चन्द्रमा की और  दूसरी सूर्य की हॊती है॥4॥

पितरश्चन्द्रहॊरॆशा दॆव्यः सूर्यस्य कीर्तिताः। राशॆरद्धं भवॆद्धॊरा ताश्चतुर्विंशतिः स्मृताः। मॆषादि तासां हॊरा परिवृत्तिकॊ भदॆत। 5 ॥ चन्द्रमा कॆ हॊरा कॆ स्वामी पितर और  सूर्य कॆ हॊरा कॆ स्वामी दॆवियाँ हॊती हैं। ऎक राशि का आधा 15 अंश का ऎक हॊरा हॊ! है अथात 12 राशियॊं मॆं 24 हॊरा हॊती है, इसलियॆ मॆषादि राशियॊं की दॊ आवृत्ति हॊती है॥5॥

उदाहरण-जैसॆ लग्न 9।15:22।57 है, लग्न सम राशि है और  15 अंश सॆ अधिक है, अतः दूसरी हॊरा सूर्य की है।


बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

स्पष्टार्थ चक्रहॊ. मॆ. वृ.मि. क. सि.कं. तु. वृ.घ.म. कॆ. मी. राशयः विसि.चिं.सि.चिं.सि. चिं.सि.चिं.सि.चिं. सि.चिं. स्वामिनः । 2 ।चं. सू. चं. सु.चं.सू.च.सू.चं. सू. चं. सू. स्वामिनः

’, द्रॆष्काणमाह——राशित्रिभागा द्रॆष्काणास्तॆ च षट्त्रिंशदीरिताः। परिवृत्तित्रयं तॆषां मॆषादॆः क्रमशॊ भवॆत ॥6॥ ऎक राशि कॆ तीसरॆ भाग का अर्थात 10 अंश का ऎक द्रॆष्काण हॊता है, अर्थात ऎक राशि मॆं 3 द्रॆष्काण हॊतॆ हैं। 12 राशि मॆं कुल 36 द्रॆष्काण हॊतॆ हैं॥6॥ । स्वपञ्चनवपानां च विषमॆषु समॆषु च॥

नारदागस्तिदुर्वासा द्रॆष्काणॆशाश्चरादिषु ॥7॥ विषम ऎवं सम राशि मॆं पहलॆ द्रॆष्काण का स्वामी उसी राशि का स्वामी, दूसरॆ का उस राशि सॆ पाँचवी राशि का स्वामी और  तीसरॆ का उस राशि सॆ नर्वी राशि का स्वामी हॊता है। और  पहलॆ द्रॆष्काण कॆ स्वामी नारद, दूसरॆ कॆ अगस्त और  तीसरॆ कॆ दुर्वासा स्वामी हॊतॆ हैं॥7॥

उदहारण-जैसॆ जन्मलग्न 9।15।22।37 है, इसमॆं दूसरा द्रॆष्काण है। जिसकॆ स्वामी शुक्र हैं और  अधिपति अगस्त हैं।

। द्रॆष्काण चक्रस्वामी मॆ. वृ.मि.क. सि.कं.तु. वृ.ध. म. कुं.मी. राशयः नारद1।2।3।4।5। 6 ।7।8।9।10/11/12 स्वामिनः ।अगस्त 56789 10 11 12 1234 स्वामिनः दुर्वासा9इ 10 11 12123456 7इ 8इ स्वि‌अमिनः

अथ चतुर्थांशमाह—— स्वर्धादि कॆन्द्रपतयस्तुशॆशाः क्रियादयः। । सनककॊ सनन्दश्य कुमारच सनातनः॥8॥


78

षॊडशवर्गाध्यायः । ऎक राशि मॆं 7 अंश 30 कला कॆ चार चतुर्थांश हॊतॆ हैं। प्रत्यॆक राशि मॆं उस राशि सॆ प्रथम, चतुर्थ, सप्तम और  दशम राशियॊं कॆ स्वामी क्रम सॆ चतुर्थांश कॆ स्वामी हॊतॆ हैं और  सर्वदा क्रम सॆ सनक, सनन्दन, सनत्कुमार और  सनातन यॆ स्वामी हॊतॆ हैं॥8॥

उदाहरण- लग्न 9।15।22।37 है। इसमॆं 3रा चतुर्थांश कर्क राशि कॆ स्वामी चन्द्रमा का और  अधिपति सनत्कुमार का है।

चतुर्थांश चक्र

..1_30

स्वामिनः । 12 । 3 । 4 । 5 । 6 । 7 । 8 । 9 10/11/12 अंशाः ।

1912131814 1810 +  90991931 01

मं. शु. बु. चं. सू. बु. शु.मं. बृ. श. श. बृ. 30 चं. सू.बु. शु. मं. बृ.श.श. बृ. मं. शु. बु. 15 ऒलिलि 90991901913131815 टऽट शु.मं.ब.श. श..ब.म.श.ब. चं, सब ।22/30।

सनन्दनः

स्तॊतॊल

90999219

सनत्कुमार

सनातनः 1236

0

सनातनः

6 30 ।

अथ सप्तमांशमाह—सप्तमांशास्त्वॊजगृहॆ गणनीया निजॆशतः। युग्मराशौ तु विज्ञॆया सप्तमक्षदिनायकम॥9॥ ऎक राशि मॆं 4 अंश 17 कला कॆ सात सप्तमांश हॊतॆ हैं। विषम राशि मॆं उसी राशि सॆ और  सम राशि मॆं उससॆ सातवीं राशि सॆ 7 सप्तमांश कॆ स्वामी हॊतॆ हैं॥9॥

क्षारक्षीरौ च दध्याज्यौ तर्थक्षुरससम्भवः। मद्यशुद्धजलावॊजॆ समॆ शुद्धजलादिकाः॥10॥ उसकॆ क्षार, क्षीर,आज्य, इक्षुरस, मद्य और  शुद्ध जल विषम राशि मॆं और  सम राशि मॆं शुद्ध जल, मद्य, इक्षुरस, आंज्य, दधि, क्षीर, क्षार, यॆ विशॆष अधिकारी हॊतॆ हैं॥10॥

उदाहरण-लग्न 9।15।22।37 है। इसमॆं तीसरा सप्तमांश है, जिसकॆ स्वामी बुध और  विशॆष अधिपति इक्षुरस है।


--

-

-

40

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

सप्तमांश चक्र

14!

2

ऽ व तॊन्ग

4

अल

4. 0 . ऒं मॆं ।अ 4 वॆं । । ऒ‌उम । ऒ‌उम । 3 ।

अ चि. सॆ‌अल व

ऽ अ बद

ऽ छ श90

98 99 शु. बृ. चं.

3 904 श.बु.मं. मं. बु. श.सू. बृ.शु.

0388998916 शु. शु. बृ. चं. श. बु.मं. मं.

903 97108 म.बु. श.बु. बृ.शु.शु. बृ.

1991ऽ921390 शु. बृ. चं.श. बु.मं. गं.बु./श.

92161 ऎ8 99 बु.मं.मं.बु.

।बृ. शु.शु. बृ.चं.श.

91013190146 जल श. बृ. चं.श. ब्रु. मं.मं.मं. श.सू शु.

24

हैं।

मॆस

ऒ‌उम

44. 24 ऒ‌उम

चि सॆ‌अल

आल’

। 58 सल 4.


ःऎट

------

4

नवमांशाधिपतिमाह—नवांशॆशाश्चरॆ तस्मात्स्थिरॆ तन्नवमादितः। उभयॆ तत्पञ्चमादॆरिति चिन्त्यं विचक्षणैः ।

दॆवानृराक्षसाश्चै चरादिषु गृहॆषु च॥11॥ । ऎक राशि मॆं 3 अंश 20 कला कॆ नव नवमांश हॊतॆ हैं। चर राशि मॆं उसी राशि सॆ, स्थिर राशि मॆं उससॆ नवम राशि सॆ और  द्विस्वभाव राशि मॆं । उससॆ पाँचवीं राशि सॆ नव राशि तक प्रत्यॆक राशि 3 अंश 20 कला कॆ तुल्य हॊती हैं। क्रम सॆ दॆवता, नर और  राक्षस अंशॆश हॊतॆ हैं॥11॥

उदाहरण- लग्न 9।15।22।37 मॆं 3 अंश 20 कला कॆ हिसाब सॆ पाँचवाँ नवमांश वृष राशि का हु‌आ। इसकॆ स्वामी शुक्र और  नर अंशॆश

ई .


उस

= = =ल.

आल्ल 4.

इ‌अ

श. मं. सू.

षॊडशवर्गाध्यायः

नवमांशचक्रम-- अंशाः स्वामी सं. मॆ. वृ, मि. क. सि.कं. तु. वृ. ध. म. कुं. मी.

मॆं. म. तु. कु. म. म. तु. क. म. म. तु. क. 3/20 । दॆवता 1

मं. श. शु. चं. मं. श. शु. चं. मं. श. शु. चं.

वृ. कु. वृ. सि. वृ. कु. वृ. मॆ. वृ. कुं वृ. सि. 6/4 । नर।

श, श.मं.स.श श मॆंस, श, श.मं.स.

मि.मी.ध. क. मि. मी.ध. क. मि. मी.ध. क. 10 राक्षस 3

बु. बृ. बृ. बु. बु. बृ. बृ. बु. बु. बृ. बृ. बु.।

क. मॆं.म. तु.क.मॆ. मं. तु. क.मॆ. म. तु. 13/20 दॆवता 4

मं. . .

शु. चं. मं. श. शु. सि.वि. कु. वृ. सि. वृ. कु. वृ. सि. वृ. कॆ. वृ. 1648 न ।

शु. श. मं. कं.मि. मी.ध. क. मॆं मी. ध. क. मि.मी.ध. 20 । राक्षस । 6

* बु. बु. बृ. बृ. बु. बु. बृ. बृ. बु. बु. बृ. बृ.

तु.क.मॆ. म. तु. क. मॆं, मॆं, तु.क.मॆं.म. 23/20 दॆवता 7

7 शु. चं. मं. श. शु. चं. मं. श. शु. चं. मं. श.

वृ. सि. वृ. कु. वृ. सि. वृ. कु. वृ. सि. वृ. कुं. 26/40 नर ।

. शु. श. मं. सू. शु. श. मं.

ध, क. मि. मी. ध, क. मि. मी. ध. 30 । राक्षस । 9

वृ. बु. बु. बृ. बृ.बु. बु. बृ. बृ. बु. बु. बृ.

अथ दशमांशमाह—दिगंशयाः ततश्चॊजॆ युग्मॆ तन्नवमाद्वदॆत।

पूर्वादि दश दिक्पाला इन्द्राग्नियमराक्षसाः॥12॥। वरुणॊ मारुतश्चैव कुबॆरॆशानपद्मजाः।

अनन्तश्चॊक्तमॊजॆ तु समॆ स्यात्व्युत्क्रमॆण च ॥13॥ ऎक राशि मॆं दश दशमांश प्रत्यॆक 3 अंश कॆ हॊतॆ हैं। यदि विषम राशि लग्न हॊ तॊ उसी राशि सॆ और  सम राशि हॊ तॊ उससॆ नवीं राशि सॆ दश दशमांश हॊतॆ हैं। विषम राशि मॆं क्रम सॆ इन्द्र, अग्नि, यम, राक्षस, वरुण, मारुत, कुबॆर, ईशान, ब्रह्मा और  अनन्त इन पूर्वादि दिशा‌ऒं कॆ दिक्पालॊं का हॊता है और  सम राशि मॆं उत्क्रम सॆ अधिपति हॊतॆ हैं॥12-13॥

4.

 ऎ6 छ

ऎ ऒ‌ऎ छि


..

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम उदाहरण- लग्न 9।15।22।37 है। इसमॆं 3 अंश कॆ अनुसार छठा 6 । दशमांश हु‌आ। लग्न राशि कॆ सम हॊनॆ सॆ उससॆ ऎर्वी राशि कन्या सॆ गिननॆ ।. सॆ छठी राशि कुम्भ कॆ स्वामी शनि का दशमांश हु‌आ। इसकॆ मारुत स्वामी

’ हैं। : : .

दशमांशचक्रम[विषमॆ । स्वामिनः

स्वामिनः 9242 इन्द्रः

3रि‌अ

मॆं.

.तु.

0

818

अग्निः


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ब्रह्मा

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1.12.

3490

। राक्षस च.नं. 3. 3. सं.. स. 3. वास, कुबॆर

अ उल्त

ः.


॥ 3 । ॥ 3 । 3 । ऒ‌उम । 3 । ऒ‌उम । 33

6 । 6 ॥ न व पॊर्न ऒन थॆ बॆस्त तॆ‌अम बॊ‌इलॆर पॊपॆय 2 ःऎंऎण

6॥ऎ ।6॥

राक्षस

1.2.

उ‌उस

2108399199013

मारुत . शु. शु. चं. बृ.बु. श. म. म. श. बु. वृ.

3 114 190 1921 199189 मारुत

घू । भारत ॥बु.बु.मं.सू.श.शु.. बृ.शु. श. चं.मं. वरुण

3.व..श.चिं . ऎ 1991 1990 3 192

राक्षस . .ज़.

मॆं.म.श.।बु.नृ. सू.शु.

1922 1991891 शू

49 1. श.श.न.चु. . .

छ9 903 1984 ब्रह्मा

अग्नि बृ.बु. श.मं.मं.शि.बु.बृ.सि.शि.शु.

अनंत 301प्ल

लॊल 9218 29989513314.

.

इन्द्र 1शु. बु. बृ. शु. श. चं. मं. बु. बु. म.सू.

अथ द्वादशांशमाह—द्वादशांशस्य गणना तत्तत्क्षॆत्राद्विनिर्दिशॆत।

तॆषामधीशाः क्रमशॊ गणॆशाश्वियमाह—यः॥14॥ . ऎक राशि मॆं 12 द्वादशांश 2 अंश 30 कला कॆ हॊतॆ हैं। उनकी गणना उसी राशि सॆ हॊती है। उनकॆ स्वामी क्रम सॆ गणॆश, अश्विनीकुमार, यम और  अहि (सर्प) हॊतॆ हैं॥14॥ * उदाहरण- लग्न 9।15।22।37 है। यहाँ 2’।30’ कॆ अनुसार 7वाँ द्वादशांश मकर सॆ गिननॆ सॆ कर्क राशि कॆ स्वामी चन्द्रमा का है। उसकॆ स्वामी यम हैं।

हॆत


षॊडशवर्गाध्यायः

अथ द्वादशांशचक्रम्स्वामी मॆ.वृ.मि.क.सि कं. तु. कृ. घ. म. कुं.मी.

3।

टूटॆट

यु, चॆ, च .नं. 3 अब चिंचव मॆं इसमॆं

ऒ‌उम ऒ‌उम ऒ‌उम ऒ‌उम

.

.

ऊः

।श. श.5 90991981

छ। 38 स्कल ।::0

।6॥* । ऎ । ऒ‌उम हैं । । हूँ । खॆ ।

* ।

न/ *। स" उस [4.

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 छिन * उच छिन इ ’ई

। । । म छिन ’। ऎ‌उच छिन

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* । । ऎ। ई  ऎ। उस 177 ।

 ऎ*

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र । छि9 । ल्ज़ छि 2 । र: छिन ।

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म छिन :

2009

) 0

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7:

अन्धि 3.6 इ. . . . . . 3 च 150 यम मॆं , कब. सं. 3 चॆ सु. 3.17

90.9993 ।श. श.ब.

19992192131

श.श.बृ.मं. शु.बु. चं. 190991921

1921938 श. बृ. मं. शु. बु. चं.

य*

उच छिन

13181

0

ऒ‌उम ऒ‌उम ऒ‌उम ऒ‌उम ऒ‌उम ऒ‌उम हैं।

। छिप 2

44

909919

बृ.मं. शु. बु.चं.सू.बु.शु. 999219

।शु..च,सू, बु.शु.मं.

38 ऽ1990199 त

बृ. मं. शु.बु.चं. स.बु.श.मं.बृ.श.श. "

। अथ षॊडशांशमाह—?अजसिंहावितॊ ज्ञॆया नृपांशाः क्रमशः सदा। अजविष्णुहरः सूर्यॊ ह्यॊजॆ युग्मॆ प्रतीपकम ॥15॥ ऎक राशि मॆं 1अंश 52 कला और  30 विकला का ऎक षॊडशांश हॊता है। इस प्रकार ऎक राशि मॆं 16 षॊडशांश हॊता है। मॆष आदि राशियॊं मॆं क्रम सॆ मॆष, सिंह और  धन सॆ आरम्भ हॊता है। इनकॆ अज, विष्णु, हर

और  सूर्य स्वामी हॊतॆ हैं॥15॥।

 उदाहरण- लग्न 9।15।22।37 है। इसमॆ उक्त नियम सॆ नवाँ षॊडशांश धन राशि कॆ स्वामी गुरु का हु‌आ। इसकॆ स्वामी ब्रह्मा हैं।


*

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*

---

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- - -

-

-

। छ. । 4

ब. सू. । 152 30

उल.

-

-

शु.रा.बु.शु.श.

- ।

-

...----

.

’बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम .. षॊडशांशचक्रम्मॆ.वृ.मि.क.सि.कं.तु. कृ.ध.म.कु.मी. मॆं अं. क. वि.

81948 1949

सू. बृ. मं.सू. बृ. मं. 9012 ऽ 902 ऎ90 

3 184 10 वि. शु.बु.श.शु. बु. श.शु. बु. श.शु.बु. श. । विवि व 31

वि. ।1॥37॥30 विश्वविवि ॥ सू. चिं.मं. ब.चं. मं. ब.चं.मं.बु.चं. मं. ब.॥

ब्र. । 7 ।30।0 ई तिल्स191913 1914 19141819 ॥ - सु. बृः मं.सू. बृ. मं. सू. बृ.मं.सु. बृ.मं.

. ।9।22।30 ॥ ति ।6।12।6।10।26।12।6।10।2॥

99194 10 ॥ 1 ।बु.श.शु.बु. श. शु. बु. श.शु. बु. श.शु. [हि 7इ 1137 1137-1137 113 त

शु.श. बु. शु.श. बु. शु.श.बु.शु.श.बु.

वि. । 13 ।7 30 स. 1241414।12॥

भ. । 150 । 1

स. 1 वि. परि6इर6 106 16॥

ह. । 18 ।49; ल0 शं.शु.बु.श.शु.बु.

369936999 11 6. श. बु. शु.श. बु. शु. श. बु. शु.श.बु. शु. 5. ।

वि. 2037 30 बु. शु.श.बु. 3ब्र. 3

 बृ. चं. मं. बृ. चं. मं. बृ. चं. मं. बृ. चं. मं.

3 . सू. 24 ॥22।30

. 24 22॥30 वि. वि. का. 3. शा.अ. ब. । .

॥13॥113711 त 850 ।15। ह.बु. शु.श. शुशबु. शु.श. ब. शु.श. वि. ।28 ई7 30

वि. । 28 ई7 ।30 ऒच 81297181931 8 293 8 93 2 टॊलॊलॊ ।16। सु-चं.मं. बृ. चं. मं. बृ. चं. मं. ब. चं. मं. बृ.

.. अथ विशाशमाह—?अथ विंशतिभागानामधिपा ब्रह्मणॊदिताः। । क्रियाच्चरॆ स्थिरॆ चापान्मृगॆन्द्राद्विस्वभावकॆ॥16॥

ऒवॊ

ऎल 9

14 ईशॊ

। ।वृ.मं. सु. वृ.मं. स.यू. म.सू. बृ.मं.सु. सू. 16 ॥52॥30।

.

16. श.बु. शु.

- वि24इ8 सिर 4।4।12।

1848 ब्र. । 22॥30

घॆल्म छा‌आ

ईशॊ लॊ

90 शु. बु.श. शु.बु.श.शु. वै.श.

ऽ194 10

1999 3


षॊडशवर्गाध्यायः ऎक राशि मॆं 20 विंशांश अंश 30 कला कॆ हॊतॆ हैं। चर राशि मॆं मॆष सॆ, स्थिर राशि मॆं धन सॆ और  द्विस्वभाव राशि मॆं सिंह सॆ आरम्भ हॊकर 20 राशि तक हॊता है॥16॥।

काली गौरी जया लक्ष्मीर्विजया विमला सती। तारा ज्वालामुखी श्वॆता ललिता बगलामुखी॥17॥ इनकॆ स्वामी विषम राशि मॆं क्रम सॆ काली, गौरी, जया, लक्ष्मी, विजया, विमला, सती, तारा, ज्वालामुखी, श्वॆता, ललिता, बगलामुखी है॥17॥

प्रत्यङगिरा शची रौद्री भवानी वरदा जया। त्रिपुरा सुमुखी चॆति विषमॆ परिचिन्तयॆत॥18॥। प्रत्यंगिरा, शची, रौद्री, भवानी, वरदा, जया, त्रिपुरा, सुमुखी है॥18॥

समराशौ दया मॆधा छिन्नशीर्षॊ पिशाचिनी। धूमावतीचमातङ्गी बाला भद्राऽरुणाऽनला॥19॥ सम राशि मॆं दया, मॆधा, छिन्नशीर्षॊ, पिशाचिनी, धूमावती, बाला, भद्रा, अरुणा और  अनला है॥19॥।

पिङ्गला छुच्छुका घॊरा वाराही वैष्णवी सिता। । भुवनॆशी भैरवी च मङ्गला ह्यपराजिता ॥20॥

पिंगला, छुच्छुका, घॊरा, वाराही, वैष्णवी, सिता, भुवनॆशी, भैरवी, मंगला और  अपराजिता यॆ स्वामी हॊतॆ हैं॥20॥।

उदाहरण- लग्न 9।15।22।37 है, अतः 11वाँ त्रिंशांश कुम्भ राशि

 कॆ अधिपति शनि का हु‌आ और  इसकॆ स्वामी पिंगला दॆवी हु‌ई।

विंशांशचक्रम्विषम मॆ.व.मि.क.सि.कं.तु..ध.म. किं.मी. 37.5

विविवि

मं. बृ.सू. मं. बृ. सू.मॆ.बृ.सू.मं. बृ.सू.

दया 130

#ऎट्ट 3990 बु. श.शु.बु. श. शु. बु. श.शु. बु. श.शु.

इस चक्र का शॆष भाग आगॆ पृष्ठ मॆं दॆखॆं।

स्वा.

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। बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

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अं.क. स्वा. पिशाचि. 1810

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म. चं. वृ. मं. चं. बृ.मं. चं. बृ.

19210

भद्रा

श4934 ज्वालामु.

अरुणा 19313 बृ. सु.म.नृ.सू.म.बृ.सू.म.बृ.सू.म. श्वॆता

90 ऽ 290 ऽ 1901ऽ 290 ऽ

अनला 150। शु.शि.बु. शु.श. बु. शु.शि.बु. शु. ल्ग 3 199 6 3 9903 1991

पिंगला ।16।3। श. शु.चु. शु.बु. शि.शु.बु. शि.शु.

बंगला

छुच्छुका 18 10

419191919 प्रत्यंगिरा

मं. बृ. सू.मं. ब. सू.मं. बृ.

घॊरा ।193 शची 2106/2/10/6रिसिद्दिरि।

90 

वाराही 210 शु.श. इ. शु. 5. शु. 13990 31996 3990 3996

वैष्णवी बु. श.शु.बु. श.शु. बु. श. शु.

2213 8918 9121893 भवानी

फाछ्ट 2810

बम 3.66,

6

। 6 । ऒ‌उम । ऒ‌उम । *ट

वृ.सू.

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भुवनॆश्व. 2413

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भैरवी ।27॥ श.

13.199106131990 3996 199 त्रिपुरा

शु.बु. शि.शु.बु. श.शु.बु. श.शु.बु. श.

मंगला 2013 1218192028 1921 89718192यु ल‌ऒ लॊल सुमुखी

मं. चं. बृ. मं. चं. बृ.मं. चं.ब. मं. चं. बृ.अ .

. सिद्धांशकमाह—सिद्धांशकानामधिपाः सिंहादॊजभकॆ गृहॆ।

। ऒ‌उम ।

.

सं। विषमॆं।

षॊडशवर्गाध्यायः कर्कायुग्मभकॆ खॆटॆ स्कन्दः पशुधरॊऽनलः॥21॥ विश्वकर्मा भगॊ मित्रॊ भगॊऽन्तकवृषध्वजाः। । गॊविन्दॊ मदनॊ भीमा सिंहादौ विषमॆ क्रमात।

कर्कादौ समभॆ भीमाद्विलॊमॆन विचिन्तयॆत॥22॥ ऎक राशि मॆं 1 अंश 15 कला कॆ 24 चतुर्विंशांश हॊतॆ हैं। विषम राशि लग्न हॊ तॊ सिंह सॆ और  सम राशि मॆं कर्क सॆ गणना कर 24 राशियॊं का चतुविशांश हॊता है। विषम राशि मॆं क्रम सॆ स्कंद, पशुधर, अनल, विश्वकर्मा, भग, मित्र, भग, अंतक, वृषध्वज, गॊविंद, मदन, भीम, फिर स्कंद सॆ भीम पर्यन्त ऎवं सम राशि मॆं भीम सॆ उत्कय रीति सॆ गिननॆ सॆ स्वामी हॊतॆ हैं॥ 21-22 ॥ । उदाहरण- लग्नं 9।15।22।37 सम राशि मॆं कर्क सॆ गिननॆ सॆ 13वाँ कर्क राशि यानि चन्द्र का चतुर्विशांश हु‌आ और  उसकॆ भीम स्वामी हु‌ऎ।

चतुर्विशांश चक्रम- .. . * मॆ.वृ.मि.क.सि कं.तु. वृ.ध.म. कु.मी.

। समॆ ।

। ॥ स्वा. ।": स्वा

अं.क. ":":"॥॥":"--": स्वा. । .

- स्वा. । । 1 । स्कन्दः ।5।4।5।4।5।4।5।4।5।4।5।4।115] भीमः 2] पशुधरः ।6।5।6।5।6।5।6।5।6।5।6।5।2।30। मदनः 3। अनलः ।7।6।7।6।7।6।7।6।7।6।7।6।3।45 गॊविन्दः। । 4 । विश्वकः ।8।7।8।7।8।7।8।7॥7।8।7। 50 ।वृषध्वजः

5। भगः । 9।8।9।8।9।8।9।8।9।8।9।8।6।15। अंतकः ।6 मित्रः 109109।10।9।10।9।109।10।9।7।30यमः। 7 । यमः 1110111111011/10/11/10/11/108 45 मिन्नः। 8 । अंतः ]1211/12/11/12/11/1211121112/11 1प्लॆ। भगः ।9 वृषध्वजः। 1 12।1।12।1।12।1।12।1।12।1।12।11।15। विश्वक. 10। गॊविन्दः2।1।2।1।2।12।12।1।2।1।12।30। अनलः 11। मदनः ।3।2।3।2।3।2।3।2।3।2।3।2।13।45 पशुधरः। 12। भीमः । 4 । 3।4।3।4।3। 4 । 3 । 4 । 3 । 4 । 3।15॥ स्कंदः 13। सकन्दः ।5। 4 ।5।4।5।4।5।4।5।4।5।4।16।15 भीमः 14) पशुधरः ॥6।5।6।5।6।5।6।5।6।5।6।5।17 30 मदनः 15 अनलः । 7 । 6 । 7 । 6 । 9 । 6 ॥ 6 । 7 । 6।7।6 1845 गॊविन्दः 16 विचक, ॥7॥ 7 ॥ 7 ॥ 7 ॥7॥7।20।प ।वृषध्वजः 17। भगः ।9।8।9।8।9।8।9।8।9।8।9।8 21 ॥15 अंतकः ।

 इस चक्र का शॆष आगॆ पृष्ठ मॆं दॆखॆं।


टॆश्शूट आय्शी‌आ

ःऊ

॥.कु.मी/ समॆ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

मिर्म

मि.वि.मि.क.सिकं.तु.व.घ.म.कुं.मी." अं.क. स्वा.

{"1 स्वा.

स्वा . 18 मित्रः 109109109109 109 109 2230 यःऎ 19) यमः 1110111011101110111011102345 मित्रः 20 अंतकः 12111211121112111211/12/1125 ॥ यमः 21वृषध्वजः111 121121121/12/1/12/26 ॥15 विश्वकर्मा 22गॊविन्दः21212121212127।30 अनलः 23 मदनः ।3।2।3।3।3।3।3।2।3।2।3।228 ॥45 पशुधरः। 24] भीमः ।4।3।4।3।4।3।4।3।4।3।4।3।30।0 । स्कन्दः ।

मांशमाह—नक्षत्रॆशाः क्रमाद्धस्त्रयमवह्निपितामहाः।

चन्द्रॆशादितिंजीवाहि पितरॊ भगसंज्ञिताः॥23॥ - अर्यमार्कस्वष्टमरुच्छकाग्निमित्रवासवाः।

निर्‌ऋत्युदकविवॆज़ गॊविन्दॊवसवॊऽम्बुपः॥24॥

ततॊऽजयादहिर्बुध्यः पूषा चैव प्रकीर्तिताः॥ ।, नक्षत्रॆशास्तु भांशॆशी भांशसंख्यः चराक्रमात॥25॥

। ऎक राशि मॆं 27 अंश 1 अंश 6 कला और  40 विकला कॆ हॊतॆ हैं। प्रत्यॆक राशियॊं मॆं क्रम सॆ चर राशि सॆ आरम्भ हॊता है और  उनकॆ स्वामी नक्षत्रॆश हॊतॆ हैं। शॆष चक्र मॆं दॆखि‌ऎ॥ 23-25 ॥।

उदाहरण- लग्न 9/15/22/37 है। इसमॆं सिंह राशि यानि सूर्य भांशपति हु‌आ और  नक्षत्रॆश त्वष्टा हु‌ऎ।

2. भांशचक्रम्स्वामी मॆं, वृ.मि.क.सि.कं.तु. वृ.ध.म.कुं.मी.अ.क.वि.

1 अश्वि.कु.मी.[1]4 । 7 ।10।1। 4 ।7।10।1। 4 ।7।10।1।6 ॥40 ।2। यम ।2।5।8।11।2।5।8।11।2।5।8।11।2।13।20। 3। अग्नि ।3।6।9।12।3। 6 । 9 ।12।3।6 । 9 ।12।3।20।0

। ब्रह्मा । 4 ।7।10। 1 । 4 । 7 ।10।14।4।10।14 26 ईभ्प

चन्द्र [4 ॥10॥ 1 । 4 । 7 ।10। 1 । 4 ।7:10।15 3320 6। शंकर । 4 । 7 ।10।1।4॥ 7 ।10।1।4 । 9 ।10।1 [6]40 ]

अदिति ।4।4।10।1। 4 ।7 10.

14 । 7 ।10।17 ।46 40 जीव ।5।8।11।2।5।8।11।2।5।8।11।28 5320 ।अहि 6912369123।6।9।12।3।10।0]0]

इस चक्र का शॆष आगॆ पृष्ठ मॆं दॆखॆं।

-

1

5-

। ।

 99,99

20


षॊडशवर्गाध्यायः

स्वामीं मॆ. वृ. मि. क. सि.कं. तु. वृ. ध. म. कुं. मी. अ.क.वि. 10 पितर । 7 101 । 4 । 710 145 10 1 । 6 । 11 ल6 ॥40

यम । 8112 । 5 । 11 । 5। ।11॥ 5 ।12।1320 13 अर्यमा 9133 । 6 । 913 3 6 । 113 3 । 6 । 1320 । 13 अर्क ।10। 1 4 7 101 47 10 147 14 ॥26॥40। ।14। त्वष्टा ।113 5 8 11258 112। 5 । 8 15।33।20॥ ।15 वायु 12/3 69 1236912 3 6 । 9 । 16 ॥40 0] 16 शक्राग्नि । 1 । 1 । 7 ।10 1 4 7 10 1 4 । 7 ।1017 ।46 20 ।17 मित्र । 2 । 5 । 11 । 5 । 11 । 5 ॥1118 ।530 ।18 वासव ।3। 6 । 9 । 13 3 । 6 । 113 3 । 6 । 9।13 220 । ।

19 निर‌ऋति। 4 । 10 11 । 9 ।10। 1 । 4 । [9 1 1 31 6 । । 30 उदक । 5 । 4।11। । 5 । 15 3 5 8 1 3 23।13 20 21 विश्वॆदॆ । 6 । 113 3 69 । 13 3 । 6 । 9 ।12 32320 । 22 गॊविंद । 7101 47 10 147 10 1 4 24।26 ॥40 13 वसु । 4।11 । 5 । 4।11। । - । ।11॥ 55 25 3330 24 वरुण । 9 ।133 । 6 । 9 133। 6 । 9 ॥23। 6 ।26।40 ।

35 अजपात ।10।1॥ 19 9 13 14 । 2 ।6 ॥60 28 2 991214छ99299939छ छ 143 120 ।27। पूषा 123।6।9।12।3। 69 12369 । 30 । । ।

अथ त्रिंशांशमाह—त्रिंशांशॆशाश्च विषमॆ कुजार्कीज्यज्ञभार्गवाः।

पञ्चपञ्चाष्टसप्ताक्षभागा व्यत्ययतः समॆ॥26॥

वह्निः समीरशकौ च धनदॊ जलदस्तथा। । विषमॆषु क्रमाज्ज्ञॆया समराशौ विपर्ययम॥27॥। विषम राशि मॆं भौम, शनि, गुरु, बुध और  शुक्र का क्रम सॆ 5,5,8,7,5 अंश और  सम राशि मॆं शुक्र, बुध, गुरु, शनि और  भौम का क्रम सॆ 5,7,8,5,5 अंश त्रिंशांश हॊता है। विषम राशि मॆं क्रम सॆ वह्नि, वायु, इन्द्र, धनद और  जलद तथा सम राशि मॆं जलद, धनद, इन्द्र, वायु और  अग्नि

अधिपति हॊतॆ हैं॥ 26-27 ॥।

उदाहरण- लग्न 9।15।22।37 है। लग्न सम है अतः गुरु का त्रिंशांश हु‌आ और  इन्द्र स्वामी हु‌ऎ।


ळॊ

बृहत्पारसरहॊराशास्त्रम विषमॆ त्रिंशांशचक्रम- , समराशौ त्रिंशांशचक्रम. स्वामी म. म.संत.घ.कु. व.कक.कृ.मि. मी./स्वामी। [5] वनि मॆं.म. म. म. म.मं.5 शु.शु.शु.शु.शु.शु. जलद । 10 वायुश.श.श.श.श.शि.12बु.बु.बु. बु.बु.बु. घनद । ।18इन्द्र बृ. बृ.दृ.बृ. बृ. बृ.20बृ. ब. बृ.बृ.बृ.बृ. इन्द्र । 25. धनद बु. बु. बु. बु. बु. बु.25 श.श.श.श.श.श. वायु । 30। जलद शु.शु.शु.शु.शु.शु.30मि.मि.मि.मि.मि.मि. वह्नि )

अथ खवॆदांशमाह—चत्वारिंशतिभागानामधिपा विषमॆ क्रियात । विष्णुचन्द्रॊ मरीचिचत्वष्टा धाता शिवॊ रविः॥28॥ यमॊ यक्षॆशगन्धर्वः कालॊ वरुण ऎव च।

समभॆ तुलतॊ ज्ञॆयाः स्वस्वाधिपसमन्विताः॥29॥ । विषम राशि मॆं, मॆष सॆ और  सम राशि मॆं तुला राशि सॆ 40वाँ अंश

आरम्भ हॊता है। क्रम सॆ विष्णु, चन्द्र, मरीचि, त्वष्टा, धाता, शिव, रवि, यम, यक्षॆश, गंधर्व, काल, वरुण यही स्वामी हॊतॆ हैं॥ 28-29 ॥

उदाहरण-लग्न 9।15।22।37 है। ऎक चालीसवाँ अंश 45 कला का हॊता है। इस हिसाब सॆ 21वाँ भाग मिथुन राशि बुध का अंश और  यक्षॆश स्वामी हु‌ऎ।

खवॆदांशचक्रम्सं. स्वामी मॆं.वृ.मि.क.सि.कं.तु.वृ.ध. म. कुं.मी. अं.क. ।

1.19 19.0 9 9 9 999 ऒ 184 2। चन्द्रः ।

1021छ्छ्छ्छ्छ9130 ।3। मरीचि ।3।9।3।9।3।1।3। ।3।9। 3 । 8 2194 ।4। त्वष्टा ।4।10।4।10।4।10।4।10। 4 ।10। 4 ।10। 310। धाता ।5। 19914991499149914 1994 1991 3184

ऽ 976 971ऽ921 ऽ 92 ऽ 92 ऽ 93 8130 रवि झ्भ ।

9999999 194194 - 44 छ12312छ2012.31

यक्षॆश

181383831831933 [10] गंधर्व ।10।4।10। 4 ।10।4।10। 4 ।10।4।10।4।7 30

&184

11। काल ।11।5।11।5।11।5।11।5।115 11।5। ।15 12 वरुण 126126126 126 126 1269 ल0 13) विष्णु 1इ717।17।1॥7।1।7।1।7। 945

। इस चक्र का शॆष आगॆ पृष्ठ मॆं दॆखॆं।

-

---

॥।6॥चन । 8॥

ऎलॊ

..

--

:


षॊडशवर्गाध्यायः सं. स्वामी मॆ. वृ. मि.क.सि.कं. तु. वृ.ध. म. कुं.मी. अं. क.। ।14। चन्द्र ।2।8।2।8।2।8।2।8।2। 8 । 2 । 8 । 10 ।30। 15] मरीचि ।3। 9 ।3।9।3।9।3।9।3।9।3।9। 11 15 16 त्वष्टा । 4 ।10।4।10। 4 ।10।4।10। 8 ।10।4।10 12 लॊ 17) धाता । 5 ।11।5।11।5।11। 5 ।11। 5 ।11।5।11। 12 ।45

शिव । 6 ।12। 6 ।12। 6 [12] 6 ।12। 6 ।12।6 [12 13 ॥30

रवि । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 । 14 ।15। 20) यम । ।3। ॥ । 2 । ।3॥ 2 ॥3। 150

य श । 9 । 3।9। 3 । 9 ।3।9।3।9। 3 । 4 । 3 । 15 85। 22। गंधर्व ।10। 4 ।10।4।10।4।10।4।10।4।10। 1 । 16 30

फाल ।11।5।11।5।11। 5 ।11। 5 । 11। 5 ।11। 5 । 17 ।15 24 वरुण ।13। 6 ।12। 6 । । 6 ।13। 6 ।12। 6 ।12। 6 । 18 ।प

विष्णु । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 18 ।45 । 6 चन्द्र । 2 । 8 ।2। ।23।8।3। ।3। ।2। । 16 30

मरीचि ।3।9। 3। 6 । 3 । 9 । 3 । 4 । 3 । 9 । 3 । 9 । 30 ]15 ।

त्वष्टा । 4 । 10 4 ।10।4।10। 4 ।10।4।10।4।10 31 । । धाता । 5 ।11।5।11।5।11।5।11। 5 ।11। 5 ।1121 455 । शिव । 6 ।12।6।12।6।12। 6 ।126 ।12।6।12। 3230 । रवि । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 7 । 1 । 2315

यम । 8 । । 8 । 3 । 4 । 3 । 4 । 3।8।3। ।3। 24 । 33 यक्षॆश । 9 । 3।9।3। 9।3।9। 3।9। 3 । 4 । 3 । 24।45 34) गंधर्व 104 ।10।4।10।4।10।4।10।4।10। 4 । 25/30 35 काल ।115 115 ।11।5।11।5।11। 5 ।11। 5 । 23615 36 वरुण ।12। 6 ।12। 6 ।12। 6 ।12। 6 ।126 ।13। 6 । 27 जॆ 37। विष्णु । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 1 । 7 । 27 ॥45॥ 38. चन्द । 2 । । 2 । ।3। ।2। ।3। ।2। । 2 ।30। 39। मरीचि ।3।9।3।9।3।9।3।9।3।9।3।9। 29 ॥15 । 40। त्वष्टा । 4।10।4।10।4।10।4।10।4।10।4।10। 300 ।

। अथाक्षवॆदांशमाह—तथाक्षवॆदभागानामधिपाश्चलभॆ क्रियात। स्थिरॆ सिंहाद्विस्वभावॆ चापाद्ब्रह्मॆशकॆशवाः। ईशाच्युतसुरज्यॆष्ठविष्णुकॆ शाश्चराधिषु ॥30॥

चर राशि मॆं मॆष सॆ, स्थिर राशि मॆं सिंह सॆ और  द्विस्वभाव राशि मॆं धन राशि सॆ गणना करनॆ सॆ अक्षवॆदांश कॆ स्वामी हॊतॆ हैं और  चर, स्थिर,


टाटॆड

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम द्विस्वभाव कॆ क्रम सॆ ब्रह्मा, शंकर, विष्णु; शंकर, विष्णु, ब्रह्मा, विष्णु, ब्रह्मा, शंकर यॆ स्वामी हॊतॆ हैं॥30॥

उदाहरण- लग्न 9।15।22।37 है। 40 कला का ऎक भाग हॊता है, अतः 24वाँ मीन राशि अर्थात गुरु का अक्षवॆदांश हु‌आ और  विष्णु स्वामी

अक्षवॆदांशचक्रम्ब्रह्मा शं. वि.नं. शं. वि. ब्र.शं.वि.ब्र. शं. विष्णु

शंकर वि.। ब्र.शं. वि. ब्र.शं. वि. ब्र.शं. वि. ब्रह्मा । विष्णु ब्र.शं. वि.ब्र.शं. वि.] ब्र. शं.[वि.] ब्र, शंकर [सं.] मॆं. ।वृ.मि.क. सि.कं.तु.वृ.घ.म. । कुं. मी. अं. कि, । 1 । 1 । 5 । 9 । 1। 5 । 1 । 1 । 5 । 1 । 1 । 5 । 9 । प्ल्ज़्प । 2 ऽ 90 90 1890 ऽ 90 9120 3 319 99 36 99 3999 36 99 10 8 82 92 8 93 8 938 979 180 449948194941893 120

ऽ ऽ9031ऽ903 ऽ 40 ऽ 90 2 8 लॊ . 6 99 36 99 36 99-

36 99 38 ल्यॊ 4 । 4 । 12 । 812 । 18 81 82 8 ॥ । 8 । ई‌ॠ 91श 914131941941 94 ऎलॊ 901 902 ऽ 90  ऽ 902 .ऽ 90 ऽ ऽ 180 11। 11। 3 । 7 । 11। 3 । 7 । 11। 3 । 7 । 11। 3 । 7 । तॊ ल20 13। 12 । 4 । ।12। 4 । ।12। 4 । 8 । 12। 4 । 8 । लॊ 93 94 948948948180 98 2890 ऽ 90 21ऽ90 26 90 शिज़ॊ 1941 3 99 3 99 3.

69930 99 90 10 98 8 931.8 93 81छ928 छ 92 90 180 19 । 6 । 7 । । 9 । 3 । 4 । 5 । 3 । 4 । । 1 ।1 ईपॊ 92 ऽ 90 ऽ 90 ऽ 906 902 9210 1981 699 36 99 36 99 3 99 3 93 180 206 928 93 8 92 8छ931 8 93 ऒ 129 99499141894 1894 98 लॊ

2902490 2 ऽ 90 ऽ 90 2 ऽ 98 180 23 99 3 99 3999 31999 3 94 120 28938छ1928 93 8छ 92 86 98 10 249499489489499ऽ 180

इस चक्र का शॆष आगॆ पृष्ठ मॆं दॆखॆं।

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र्य

भ9

2

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। षॊडशवर्गाध्यायः

ब्रह्मा शं. वि. ब्र. । शं. वि. ब्र. शं. वि. ब्र. शं. विष्णु शंकर वि. ब्र, शं. [वि.] ब्र. शं. [वि.] ब्र. शं. वि. ब्रह्मा

विष्य छ, । शं.वि. ब्र. । शं. वि. ब. । शं. वि. वा. शंकर सं.] मॆं. ।वृ.मि.क. सिं.कं.तु. वृ.ध.म. कुं. मी. अं. क. ऽ ऽ90 ऽ 903 90 ऽ 90 90 ऒ 2॥ 3 । 7 । 11।3॥ग । 11 । 3 । 9 ।11।3। । । 11 । 18 । भ 8 । 13 । 8 । 8 । 8 । 2 । 3 । 8 । ।  ऽ ल्सॆ 8 । । । । । । । । । । । । 7 8 ऒ 30 ऽ 90 ऽ 90 ऽ190 ऽ 90 2 ऒलॊ 391

991 3999 3 99 3999 3 ऒल्यॊ भ 9 8छ93 8

92 89318 9 ऒल 99894

4ऒ  ऽ 901 9012 ऽ 903 ऽ  180 34 । 99 । 39 99 3 99 3999 3 69 भ ऒ 38 928छ931898छ9318  28 लॊ 136949941991

4 914 ऒलॊ भ्छ ऽ 90 ऽ 901 190 ऽ 90 4 ऒ

699 3199 3 993 6 99 ऽ 10 1918 92 86 98 93 ऽ 180 489489481943 ऒ‌ऒ‌इ 83 ऽ1901  ऽ 90 ऽ 903ऽ90 3 छ 10 83 999 399 399 399 3 छ 180

छ9318 93 8छ9318 93 8 श ऒ 1841 319489489481914 30 10


अथ षष्ठ्यंशमाह—घॊरश्च राक्षसॊ दॆवः कुबॆरॊ यक्षकिन्नरौ। भ्रष्टः कुलघ्नॊ गरलॊ वह्निर्माया पुरीषकः॥31॥


 विषम राशि लॊ 1 घॊर, 2 राक्षस, 3 दॆव, 4 कुबॆर, 5 यक्ष, 6 किन्नर, 7 भ्रष्ट, 8 कुलघ्न, 9गरल, 10 अग्नि, 11 माया, 12 यम(पुरीष)  13 अपाम्पति, 14 मरुत्वान, 15 काल, 16 सर्प, 17 अमृत, 18 चन्द्रमा, 19 मृदु, 20 कॊयल, 21 हॆरम्ब, 22 ब्रह्मा, 23 विष्णु, 24महॆश्वर, 25 दॆव, 26 आ‌र्द्र, 27 कलिनाश, 28 क्षितीश, 29 कमलाकर, 30 गुलिक, 31 मृत्यु, 32 काल, 33 दावाग्नि, 34 घॊर 35 यम, 36 कंटक, 37 सुधा, 38 अमृत, 39 पूर्णचन्द्र, 40. विषदग्ध, 41 कुलनाश, 42 मुख्य, वंशक्षय, 43 उत्पात, 44काल, 45 सौम्य, 46 कॊमल, 47 शीतल, 48 करालदंष्ट्र, 49 इन्दुमुख, 50 प्रवीण, 51 कालाग्नि, 52 दंडधर, 56 निर्मल, 54 सौम्य, 55 क्रूर, 56 अतिशीतल, 57 सुध, 58पयॊदधि 59 भ्रमण,  60 इन्दुरॆखा॥36॥।

समॆ भॆ व्यत्ययाचॆयाः षष्ठ्यंशाच प्रकीर्तिताः। पष्ठ्यंशस्वामिनस्त्वॊजॆ तदीशाद व्यत्ययतः समॆ॥37॥ विषम राशि मॆं घॊर आदि और  सम राशि मॆं चन्द्ररॆखा आदि क्रम सॆ षष्ठ्यंश कॆ अधिपति हॊतॆ हैं॥7॥

। शुभषष्ठ्यंशसंयुक्ता ग्रहाः शुभफलप्रदाः।

क्रूरषष्क्वंशसंयुक्ता नाशयन्ति खचारिणः॥38॥ शुभग्रह कॆ षष्ठ्यंश मॆं ग्रह हॊ तॊ शुभफल दॆता है और  क्रूर ग्रह कॆ षष्ठ्यं श । मॆं हॊ तॊ नाश करता है॥38॥।

राशीनु विहाय खॆटस्य द्विघ्नमंशाद्यमहत। शॆष सैकं च तद्वाशिनाथ षष्ठ्यशपाः स्मृताः॥39॥। जिस ग्रह का षष्ठ्यंश दॆखना हॊ उसकी राशि कॊ छॊडकर अंश,.. कला, विकला आदि कॊ 2 सॆ गुणा कर गुणनफल मॆं 12 सॆ भाग दॆनॆ पर जॊ शॆष बचॆ उसमॆं 1 जॊडकर जॊ संख्या हॊ उतनी ही संख्या वाली ग्रह की राशि सॆ जॊ राशि हॊ उसकॆ स्वामी षष्ठ्यंश कॆ स्वामी हॊतॆ हैं॥39॥

उदाहरण- लग्न 915।22।37 है। इसकी राशि कॊ छॊडकर अंशादि कॊ 2 सॆ गुणा करनॆ सॆ 30।45।14 हु‌आ। इसमॆं 12 सॆ भाग


210

50 9

90

षॊडशवर्गाध्यायः

4 दॆनॆ पर शॆष 6 बचा। इसमॆं 1 और  जॊड दॆनॆ सॆ 7वाँ षष्ठ्यंश हु‌आ। मकर सॆ 7वीं राशि कर्क कॆ स्वामी चन्द्रमा षष्ठ्यंश कॆ स्वामी हु‌ऎ। दूना कियॆ हु‌ऎ अंश 30 मॆं 1 जॊड दॆनॆ सॆ 31वाँ सम राशि मॆं कुलिक षष्ठ्यंश

का अधिपति हु‌आ।

अथ षष्ठ्यंशचक्रम्सं. स्वामी ।मॆ.वृ.मिक सिकं तु.व.ध.म.कु.मी स्वामी ।अं.क. [1] घॊर निरि3456 7इ .11112इन्दुरॆखा 030

राक्षस ।23।4॥6।7॥9 10 11 12 1] भ्रमण [1] । दॆव ॥ 4 ॥6॥॥।10।11।1॥। पयधीश ।13

कुबॆर । 4 ॥ 6 । । । 10।11।13।1॥3। सुधा ।

यम ॥6॥ ॥6।10।1113 1 ॥3।5।शीतल 230 किन्नर ।6॥।9।1011121।23।4।5॥  310 । भ्रष्ट ॥9॥9॥11।12।1।2।3॥ 5 । 6 सौम्य 33 कुनघ्न ।8।9।10/11/12।1॥3॥5।6॥7 निर्मल । 4 ।

गरल ।9।10।11।12।1॥3॥।6॥7॥ दायुध । 4 ।30

अग्नि ।10।11।13॥3।3॥ 5 । 6 ॥5। ।6॥नाग्नी 5 ईच । माया ।11।13।1॥3॥ 5 । 6 ॥ ॥910 प्रवीण ।5 ई80

।12।1।2।3।4॥6।7।8।9।1011 इन्दुमुखी । 60 13 अपांपति ॥3।3॥5।6॥7॥9।1011136ष्ट्राकराल 6 30 14।म चा ॥3।4॥6।5। ।9।10।11।12।1। शीतल । 7 । 15 कल ।3।4॥।6।3॥9।10।11।12।1॥ कॊमल ॥ 30

अहि। ।4॥6।7।8 9 101112123 सौम्य छ्लॊ

अमृत ॥6।7।8।9।10।11।12।1।2।3।4। कालरूप ।8।30। ।18। चन्द्र । 6 । 7 ॥9।10।11।12।1।23।4।5। उत्पात । 50 19। मृदु । 9 ॥9।10।11।12।1।3।3।4॥6। वंशक्षय ।9 30

कॊमल ॥9।10।11।12।1।2।3।4॥6 19 । नाश । 10 । 21 हॆरम्ब ।9।10।11।131।2।3।4।5।6।7।8। विषदग्ध ।10।30 22 ब्रह्म ।10।11।12।1।3।3।4।5।6।7।8।9। पूर्णचंद्र ।11।ऒ ।23। विष्णु ।11।12।1।23।4।5।6।7।8।9।10। अमृत 11 30 24। महॆश्वर ।12।1।2।3।4।5।6।7।8।9।1011 सुधा ।12लॊ

। दॆव ।1।3।3।4।5।6।7॥9।10।11।12। कंटक 1230

आ‌ई ॥3।4।5।6।7।8।9।10।11।12।1। यम ।13॥ 27कलिनाश।3।4।5।6।7।8।9।10।11।12।1।2। घॊर 1330

इस चक्र का शॆष आगॆ पॆज पर दॆखॆं।

लुलर

।8।

। । उ


**

3: 25

ऎ!

---

ऎ‌ऎ

.

है।

यानि कि ई

ऎवु

66॥॥॥॥॥॥॥श्चाङ्खाश्चाश्चा

। उ

। बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ सब्याफ्री मछमिक सकतु.बृ.घ.म.किं.मी., स्वामी अं.क.

। स्वामी अं.क. ऎल।क्षिश्वर ॥ 6 ॥7॥9।10/11/12/123] दावाग्नि । 14 ।0

कमालमान्य 4 ॥ 6 ॥ ॥89101112।1।2। ।34। काल 14 ॥30

मालिक ॥6॥।811111212

94 लॊ मृत्यं ॥8॥12।1।2।3।4।5।6। कुलिक 1530 बनातां ॥च ॥ 12।12।3।4।5। 6 । 7 कमलाकर 1660

3 2049 923898 7 ।8। क्षितीश्वर 1630 और  #स 123456 8।9।कलिनाश। 17 । याम्म ॥23।4।5।6।7। 9/10/ आ‌ई 17 ॥30

90 130 ॥ बक्कण्ट क सन ॥3॥3।4।5।6।7।8।9 1011 दॆव 90 लॊ

1973 89 6612390 11/12] महॆश्वर 18 30 यावा । 123898 12।1। विष्णु 190

99 10 बान्ह 38408190 1।2। ब्रह्मा 19 ॥30

8 % 162319099

। हॆरम्ब ।20॥ नाशा ॥॥6॥7॥8।9101112 3 । 4 । कॊमल 2030 वाचवा ई‌ऎछ 28 9099939 4 ।5। मृदु ।21 0 कामाचा ॥ ॥8॥ 8 11212।3।4 5 । 6 । चन्द्र 31 30

कॆर

छि 90991971

ई‌ऒ सम्मा 840 999792318 7 ॥अहिभाग 2230 6 मा ।

23।4।5।6।7॥9। काल ।23।0 रकॆ

99

॥34।5।6॥7॥9।10।मरत्चान 2330

2 का ॥2॥34।5।6।7।8।9।10।11। अपांपति ।24।0 झुमाया

॥2॥34।5।6।7।8।9।10।11।12। पुरीष मामा ।

23456789 10/11/12।1। माया । 24 लॊ 3॥4॥ 6 ॥8।9।101112।1।2। अग्नि 25 ॥30

4% ॥6॥89 10 11 12 123 गरल 260 आछः 6 ॥ ॥ 6.9 10 11 12 13 । 3 । 4 । कुलघ्न 26 30

4॥ 101112।1।23 । 4 ।5। भ्रष्ट ।27।

ऋलॊ 14 फ

। 8 ॥ 7 ॥12।1।2।3।4।5।6। किन्नर 27 ।30 . शी.

4 3704922923841ऽ 101 । यक्ष ।28 ल्स . ऎण

2।34।5।6।7।8। कुबॆर 8. 30 मौमीया

3456।7।8।9। दॆव 2इ90 4 पर 9 ।23।4।5।6।7।8।9।10। राक्षस 29 इन्दुसैख्या सका ॥23।4॥5।6।7।8।9।10।11। घर ट300

=

6000/न्च्स्च उ। 49 -

0


20199

उ ।

इलॆस ॥6॥


वर्गभॆदाध्यायः

अथ वर्गभॆदानाहवर्गभॆदानहं वक्ष्यॆ मैत्रॆय त्वं विधाय। षड्वर्गाः सप्तवर्गाश्च दिग्दर्गा नृपवर्गगाः॥40 ॥ हॆ मैत्रॆय ! मैं वर्गभॆद कॊ कहता हूँ, उसॆ तुम सुन्न ॥ षड्वर्ण, सप्तवार्गी, दशवर्ग और  षॊडश वर्ग हॊतॆ हैं॥40॥।

भवन्ति वर्गसंयागॆ षड्वर्गॆ किंशुकादयः। द्वाभ्यां किंशुकनामा च त्रिभिजनमुच्यतॆ ॥41॥ षड्वर्ग मॆं दॊ-तीन आदि वर्गॊं कॆ संयॊग सॆ किशुक सादि संज्ञायॆं हॊती हैं। यथा दॊ वर्ग मॆं ग्रह हॊ तॊ किंशुक, तीन कॆ संयॊमा सॆ व्याजन्ना ॥41॥ ॥

चतुभिश्चामाख्यं च छत्रं पञ्चभिरॆव च ॥ षभिः कुण्डलयॊगः स्यान्मुकुटाख्यं च सप्तभिः॥ ॥42॥॥ चार कॆ संयॊग सॆ चामर, पाँच कॆ संयॊग सॆ छत्र और  छ: वर्मा कॆ संयॊगा सॆ कुंडल नाम हॊता है। सप्तवर्ग मॆं छः वर्ग ताव तॊ पूर्वॊत्तम ही हॊतॊ हैं, किन्तु सात वर्ग कॆ संयॊग सॆ मुकुट हॊता है॥।42॥॥

सप्तृवर्गॆऽथ दिग्वर्गॆ पारिजातादिसंज्ञकाः। पारिजातं भवॆद्वाभ्यामुत्तमं त्रिभिरुच्यतॆ । ॥43॥॥ दशवर्ग मॆं दॊ वर्ग कॆ संयॊग सॆ पारिजाता, तीन्न वर्मा कॆ संयॊगा सौ उत्तम॥43॥।

चतुभिर्गॊपुराख्यं स्याच्छरैः सिंहासन तथा॥ पारावतं भवॆत्षभिर्दॆवलॊकं तु सप्तभिः॥ ॥44॥ चार वर्ग कॆ संयॊग सॆ गॊपुर, पाँच वर्ग कॆ संयॊगा सॆ सिंहासना, छः वर्गी कॆ संयॊग सॆ पारावत, सात वर्ग कॆ संयॊग सॆ दॆवलॊक ॥44॥

वसुभिर्ब्रह्मलॊकाख्यं नवभिः शक्रवाहनम। दिग्भिः श्रीधामयॊगं स्यादथ षॊडश वर्गकॆ॥456 ॥

आठ वर्ग कॆ संयॊग सॆ ब्रह्मलॊक, 9 वर्ग कॆ सायग्गा सॆ शाक्रवाहना और  10 वर्ग कॆ संयॊग सॆ श्रीधाम यॊग हॊता है॥।4, ॥ ॥


----------.---.-.

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । भॆदकं तु भवॆद्द्वाभ्यां त्रिभिः स्यात्कुसुमाख्यकम।

चतुर्भिर्नाकपुष्पं स्यात्पञ्चभिः कन्दुकावयम॥46॥। . षॊडश वर्ग मॆं 2 वर्ग संयॊग सॆ भॆदक, 3 वर्ग कॆ संयॊग सॆ कुसुम, .

चार वर्ग कॆ संयॊग सॆ नागपुष्प, पाँच वर्ग कॆ संयॊग सॆ कंदुक ॥46॥। । कॆरलाख्यं भवॆत्षभिः सप्तभिः कल्पवृक्षकम।

"अष्टभिश्चन्दनवनं नवृभिः पूर्णचन्द्रकम ॥47॥।

6 वर्ग कॆ संयॊग सॆ कॆरल, 7 वर्ग कॆ संयॊग सॆ कल्पवृक्ष, आठ वर्ग कॆ संयॊग सॆ चन्द्रवन, 9 वर्ग कॆ संयॊग सॆ पूर्णचन्द्र॥47 ॥

दिग्भिरुच्चैःश्रवा नाम रुदैर्धन्वन्तरिर्भवॆत। सूर्यकान्तं भवॆत्सूर्यैर्विचैः स्याद्विद्माह्वयम॥48॥ दश वर्ग कॆ संयॊग सॆ उच्चैःश्रवा, ग्यारह वर्ग कॆ संयॊग सॆ धन्वन्तरि, बारह वर्ग कॆ संयॊग सॆ सूर्यकान्त, तॆरह वर्ग कॆ संयॊग सॆ विद्रुम ॥48॥ । ।शक्रसिंहासनं शक्रैलॊकं तिथिभिर्भवॆत।

भूपैः श्रीवल्लभाख्यं स्याद्वर्गभॆदैरुदाहृता॥49॥ चौदह वर्ग कॆ संयॊग सॆ सिंहासन, पंद्रह वर्ग कॆ संयॊग सॆ गॊलॊक और  . । सॊलह वर्ग कॆ संयॊग सॆ श्रीवल्लभ नाम हॊता है॥49॥

स्वॊच्चमूलत्रिकॊणस्वभवनाधिपतॆः तथा॥ स्वारूढाकॆन्द्रनाथानां वर्गाग्राह्या सुधीमता ॥50॥ जॊ ग्रह अपनॆ उच्चराशि मॆं, अपनॆ मूलत्रिकॊण राशि मॆं, अपनॆ राशि मॆं और  आरूढ लग्न सॆ कॆन्द्रपतियॊं का वर्ग लॆना चाहियॆ॥50॥।

अस्तंगता ग्रहजिता नीचगा दुर्बलास्तथा। शयनादिगतादुस्था उत्पन्ना यॊगनाशकाः॥51॥

जॊं अस्त हॊं, यद्ध मॆं पराजित हॊं, अपनॆ नीचराशि मॆं हॊं, दुर्बल हॊं, शयनादि दुष्ट अवस्था मॆं हॊं तॊ उनका वर्ग अशुभ हॊता है॥51 ॥ . विशॆष- गृह, हॊरा, द्रॆष्काण, नवमांश, द्वादशांश और  त्रिंशांशक कॊ षड्वर्ग कहतॆ हैं। इनकॆ साथ सप्तमांश कॊ मिला दॆनॆ सॆ सप्तवर्ग हॊता है और  इसमॆं दशमांश, षॊडशांश, षष्ठांश कॊ लॆ लॆनॆ सॆ दशवर्ग हॊता - है, शॆष षॊडशवर्ग हॊतॆ हैं।

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षॊडशवर्गविवॆकाध्यायः किंशुकादि सप्तवर्गजसंज्ञाबॊधकचक्रम

8

4

19

किंशुक । व्यंजन

714*

छत्र । कुंडल

मुकुट

पारिजातादि दशवर्गजसंज्ञाबॊधकचक्रम21 38490

!

पारिजात

उत्तमम ।

गॊपुरम ।

सिहासनम

पावतम

दॆवलॊक

ब्रह्मलॊक

शक्रवाहनम।

श्रीधाम

षॊडशवर्गजसंज्ञाबॊधकचक्रम। 2384ऽ028 90 99 92 92 93 98 94

कुसुमाख्यम

भॆदकम

कंदुकाख्यम

। कॆरलाख्यम

श्रीवत्समाख्यम ॥ कल्पवृक्षम

चदनवनम।

पूर्णचक्रकम

उच्चैःश्रवा

। धन्वन्तरिः

विद्रुमाख्यम । सूर्यकांतम

शक्रसिंहासनम ।

गॊलॊकम ।

नागपुष्पम।

.

उदाहरण- पूर्वॊक्त उदाहरणॊं मॆं लग्न सप्तवर्गॊं मॆं 2 वर्ग मॆं है, अतः किंशुक संज्ञा हु‌ई। दशवर्ग कॆ अनुसार 2 वर्ग मॆं है, अतः पारिजात संज्ञा मॆं है और  षॊडशवर्ग कॆ अनुसार 4 वर्ग मॆं है, अतः नागपुष्प संज्ञा हु‌ई। इसी प्रकार प्रत्यॆक ग्रहॊं की संज्ञायॆं बनानी चाहि‌ऎ।

इति पाराशरहॊरायां सुबॊधिन्यां पञ्चमः।

अथ षॊडशवर्गविवॆकाध्यायः अथ षॊडशवर्गॆषु चिन्ता लग्नं वॆदाम्यहम। लग्नं दॆहस्य विज्ञानं हॊरायां सम्पदादिकम ॥1॥ अब मैं षॊडश वर्गॊं सॆ विचारणीय विषयॊं कॊ कह रहा हूँ। लग्न सॆ शरीर सम्बंधी शुभ-अशुभ का विचार करना चाहि‌ऎ, हॊरा सॆ द्रव्य का ॥1॥


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. बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । द्रॆष्काणॆ भ्रातृजं सौख्यं तुर्यांशॆ भाग्यचिन्तनम।

पुत्रपौत्रादिकानां वै चिन्तनं सप्तमांशकॆ॥2॥ द्रॆष्काण सॆ भा‌ई का, चतुर्थांश सॆ भाग्य का, सप्तमांश सॆ पुत्र-पौत्रादि का॥2॥

नवमांशॆ कलत्राणां दशमांशॆ महत्फलम । , द्वादशांशॆ तथा पित्रॊश्चिन्तनं षॊडशांशकॆ॥3॥

नवमांश सॆ स्त्री का, दशमांश सॆ बडॆ कार्यॊं का (राजसम्बंधी), . द्वादशांश सॆ माता पिता का, षॊडशांश सॆ वाहन कॆ सुख-दुःख का॥3॥

सुखासुखस्य विज्ञानं वाहनानां तथैव च। उपासनाया विज्ञानं साध्यं विंशतिभागकॆ॥4॥ विंशांश सॆ उपासना कॆ विज्ञान का विचार करना चाहि‌ऎ ॥4॥

विद्याया वॆदवावंशॆ भांशॆ चैव बलाऽबलम । विंशाशकॆ रिष्टफलं खवॆदांशॆ शुभाशुभम ॥5॥ चतुर्विंशांश सॆ विद्या का, सप्तविंशांश सॆ बलाबल का, त्रिंशांश सॆ अरिष्ट का, खवॆदांश सॆ शुभ-अशुभ का॥5॥।

अक्षवॆदांशभागॆ च षष्ठ्यंशॆऽखिलमीक्षयॆत । .. यत्र कुत्रापि सम्प्राप्तः क्रूरषष्ठ्यंशकाधिपः॥6॥ । अक्षवॆदांश और  षष्ठ्यंश सॆ सभी वस्तु‌ऒं का विचार करना चाहि‌ऎ।

जहाँ पर (जिस भाव मॆं) क्रूरग्रह षष्ठ्यंशपति हॊता है॥6॥ । तत्र नाशॊ न सन्दॆहॊ प्राचीनानां वचॊ यथा।

यत्र कुत्रापि सम्प्राप्तः कालांशाधिपतिः शुभः॥7॥

तत्र वृद्धिश्च पुष्टिश्च प्राचीनानां वचॊ यथा। । इति षॊडशवर्गाणां भॆदास्तॆ प्रतिपादिताः॥8॥

। उस भाव कॆ फलॊं की हानि हॊती है। जिस किसी भाव मॆं शुभग्रह . . षष्ठ्यंशपति हॊता है वहाँ उस भाव संबंधी फलॊं की वृद्धि हॊती है।

इस प्रकार सॊलह ग्रह कॆ भॆद कॊ मैंनॆ कहा॥7-8॥

अथ विंशॊपकबलमाह—?उदयादिषु भावॆषु खॆटस्य भवनॆषु वा। वर्गविश्वाबलं वीक्ष्य ब्रूयात्तॆषां शुभाशुभम ॥9॥

.


षॊडशवर्गविवॆकाध्यायः

 अथातः सम्प्रवक्ष्यामि वर्गविश्वाबलं द्विज।

यस्य विज्ञानमात्रॆण विपाकं दृष्टिगॊचरम॥10॥ लग्न आदि भावॊं कॊ और  ग्रहॊं कॆ राश्यादि सॆ वर्गविश्वाबल कॊ दॆखकर उनकॆ शुभ-अशुभ फलॊं कॊ कहना चाहि‌ऎ। अब मैं वर्ग विश्वाबल कह रहा हूँ, जिसकॆ ज्ञानमात्र सॆ फल साक्षात दिखा‌ई दॆता है॥9-

8011

गृहं विंशॊपकं वीक्ष्य सूर्यादीनां खचारिणाम। स्वगृहॊच्चॆ बलं पूर्णं शून्यं तत्सप्तमस्थितॆ ॥11॥ भावॊं की राशियॊं का और  सूर्य आदि ग्रहॊं कॆ विंशॊपक बल कॊ दॆखना चाहि‌ऎ। अपनॆ गृह उच्च मॆं पूर्ण बल तथा नीच मॆं शून्य बल तथा मध्य मॆं अनुपात सॆ बल लॆ आना चाहि‌ऎ॥11॥।

ग्रहस्थितिवशाज्ज्ञॆयं द्विराश्याधिपतिस्तथा। मध्यॆऽनुपाततॊ ज्ञॆया ऒजयुग्मक्षभॆदतः॥12॥ ग्रहॊं की स्थितिवश, दॊ राशियॊं कॆ अधिपति तथा विषम समराशि कॆ स्थितिवश सॆ बल लॆ आना चाहि‌ऎ ॥12॥।

सूर्यः हॊराफलं दद्युर्जीवार्कवसुधात्मजाः॥ । चन्द्रास्फुजिदर्कपुत्राश्चन्द्रहॊराफलप्रदाः॥13॥ - हॊरावर्ग कॆवल रवि-चन्द्रमा का ही हॊता है, अतः शॆष ग्रहॊं कॆ फल विचार कॆ लि‌ऎ विशॆष कह रहॆ हैं। गुरु, सूर्य, भौम यॆ सूर्य कॆ हॊराफल

और  चन्द्रमा, शुक्र, शनि यॆ चन्द्र कॆ हॊरा का फल दॆतॆ हैं॥13॥

। फलद्वयं बुधॊ दद्यात्समॆ चान्द्रं तदन्यकॆ।

रवॆः फलं स्वहॊरादौ फलहीनं विरामकॆ॥14॥ । बुध दॊनॊं कॆ हॊरा का फल दॆता है। समराशि मॆं चन्द्र कॆ हॊरा कॊ फल और  विषम राशि मॆं सूर्य कॆ हॊरा का फल हॊता है। रवि कॆ हॊरा आदि मॆं पूर्ण फल, अन्त मॆं शून्य फल हॊता है॥14॥।

मध्यॆऽनुपातात्सर्वत्र द्रॆष्काणॆऽपि विचिन्तयॆत। गृहवत्तुर्यभागॆऽपि नवांशादावपि स्वयम ॥15॥ मध्य मॆं सर्वत्र अनुपात सॆ फल लाना चाहि‌ऎ। इसी प्रकार द्रॆष्काण आदि सॆ भी फल लाना चाहि‌ऎ। गृह कॆ ही समान चतुर्थाश मॆं तथा नवांश

आदि मॆं भी फल समझना चाहि‌ऎ॥15॥।


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72

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

 . सूर्यः कुजफलं धत्तॆ भार्गवस्य निशापतिः।

। त्रिंशांशकॆ विचिन्त्यॆवमत्रापि गृहवत्स्मृतम ॥16॥।

त्रिंशांश मॆं सूर्य भौम का और  चन्द्रमा शुक्र का फल दॆता है। इसमॆं गृह । .’ कॆ समान ही फल हॊता है॥16॥।

अथ षट-सप्त-वर्गाणां विशापकमाह—लग्नहॊरादृकाणाकभागाः सूर्याशका इति। त्रिंशांशकाच षड्वर्गास्तॆषां विंशॊपका: क्रमात ॥17॥

लग्न (गृह), हॊरा, द्रॆष्काण, नवमांश, द्वादशांश और  त्रिंशांश यॆ ही षड्वर्ग कहॆ जातॆ हैं॥17॥

रसनॆत्राब्धिपञ्चाधिभूमयः सप्तवर्गकॆ।

स्थूलं फलं च संस्थाप्य तत्सूक्ष्मं च ततस्ततः॥18॥ । इनका विंशॊपक बल क्रम सॆ 6, 2, 4, 5, 2, 1 है। यह स्थूल है,

सूक्ष्म कॆ लि‌ऎ अनुपात करना चाहि‌ऎ ॥18॥।

ससप्तमांशकं तत्र विश्वका पञ्चलॊचनम। ।त्रयं सार्धद्वयं सार्धवॆदं द्वौराशिनायकाः॥19॥

 यॆ ही संप्तमांश कॆ साथ मिलकर सप्तवर्ग कहॆ जातॆ हैं। इसका विशॊपक बल क्रम सॆ 5, 2, 3, 26, 4, 2, 2, 1 है॥19॥

. अथ दशवर्गाणां विंशॊपकमाह—. दशवर्गादिगंशाख्या कलांशाः षष्ठिनायकाः।

त्रयं क्षॆत्रस्य विज्ञॆया पञ्च षष्ठ्यंशकस्य च॥20॥ । पूर्वॊक्त सप्तवर्ग मॆं दशमांश, षॊडशांश, षष्ठ्यंश कॊ मिला दॆनॆ सॆ

दशवर्ग हॊता है। इसमॆं गृह का 3, षष्ठ्यं शका 5 और  शॆष वर्गॊं का । डॆढ (16) विंशॊपक बल हॊता है॥20॥।

. अथ षॊडशवर्गाणां विंशॊपकमाह—साधैकभागाः शॆषाणां विश्वङ्काः परिकीर्तिताः। अथ वक्ष्यॆ विशॆषॆण विश्वका मम सम्मतम ॥21॥ अब मैं षॊडश वर्गॊं का विशॆषतः विश्वाबल कॊ कह रहा हूँ॥21॥

क्रमात षॊडश वर्गाणां क्षॆत्रादीनां पृथक पृथक । हॊरांशभागदृक्काणकुचन्द्रशशिनः क्रमात ॥22॥ हॊरा का 1, अंशंभाग (त्रिशांश) का 1, द्रॆष्काण कॊ 1॥22॥

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63

षॊडशवर्गविवॆकाध्यायः कलांशस्य द्वयं ज्ञॆय त्रयं नन्दांशकस्य च॥ क्षॆत्रॆ साधं च त्रितयं चतुः षष्ठ्यंशकस्य हि॥23॥ षॊडशांश का 2, नवमांश का 3, गृह का 13, षष्ठ्यंश का 4॥23॥

अर्धमधं तु शॆषाणां ह्यॆतत स्वीयमुदाहृतम॥ पूर्ण विश्वाबलं विंशॊ धृतिः स्यादधिमिन्नकॆ॥24॥

और  शॆष वर्गॊं का आधा आधा (3) विंशॊपक बल हॊता है। यह विंशॊपक बल अपनॆ वर्ग मॆं पूर्ण 20 हॊता है। अधिमित्र कॆ वर्ग मॆं

छःयीळ

मित्रॆ पञ्चदश प्रॊक्तं समॆ दश प्रकीर्तितम।

शत्रौ सप्ताधिशत्रौ च पञ्च विश्वाबलं भवॆत॥25॥ मित्र कॆ वर्ग मॆं 15, सम कॆ वर्ग मॆं 10, शत्रु कॆ वर्ग मॆं 7 और  अधिशत्रु कॆ वर्ग मॆं 5 विंशॊपक बल हॊता है॥25॥

। अथ विंशॊपकबलस्य स्पष्टीकरणम्वर्गविश्वास्वविश्वघ्नाः पुनर्विंशतिभाजिताः॥ विश्वफलॊपयॊग्यं तत्पञ्चॊनं फलदॊ न हि॥26॥

वर्ग कॆ विश्वा कॊ उसी मॆं गुणा कर उसमॆं 20 का भाग दॆनॆ सॆ स्पष्ट विंशॊपक फल कहनॆ यॊग्य हॊता है। वह 5 सॆ कम हॊ तॊ फल कहनॆ यॊग्य

नहीं हॊता है॥26॥।

तदूर्ध्वं स्वल्पफलदं दशॊर्ध्वं मध्यमं स्मृतम। तिथ्यू पूर्णफलदं बॊध्यं सर्वं खचारिणाम॥27॥ इसकॆ ऊपर 10 तक अल्प फल दॆनॆ वाला, दश कॆ ऊपर 15 तक मध्यम फल, इसकॆ ऊपर 20 तक पूर्ण फल दॆनॆ वाला हॊता है। ऐसा सभी ग्रहॊं का समझना चाहि‌ऎ ॥27॥।

। अथ फलकथनॆ विशॆषः-- अथान्यदपि वक्ष्यॆऽहं मैत्रॆय! त्वं विधारय॥ खॆटा: पूर्णफलं दद्युः सूर्यात्सप्तमकॆ स्थिताः॥28॥ हॆ मैत्रॆय ! और  भी प्रकारॊं कॊ कहता हूँ, तुम सुनॊ ! सूर्य सॆ सातवॆं भाव मॆं ग्रह हॊ तॊ पूर्ण फल दॆता है॥28॥।

फलाभावं विजानीयात्समॆ सूर्यनभश्चरॆ। मध्यॆऽनुपातात्सर्वत्र युदयास्तविंशॊपकाः॥29॥


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम सूर्य कॆ समान ही राशि-अंशादि हॊ तॊ शुन्य फल दॆता है और  इसकॆ मध्य मॆं हॊ तॊ अनुपात सॆ फल समझना चाहि‌ऎ। ग्रहॊं कॆ उदय-अस्त . का भी विचार कर लॆना चाहि‌ऎ॥29॥

वर्गविश्वसमं ज्ञॆयं फलमस्य द्विजर्षभ। यत्र यत्र फलं बदध्वा तत्फलं परिकीर्तितम॥30॥ हॆ द्विजश्रॆष्ठ! वर्गविंशॊपक कॆ अनुसार जॊ ग्रह जैसा फल दॆता हॊ । उसकॆ अनुसार ही उसकॆ फल की कल्पना करॆं ॥30॥

वर्गविश्वाफलं चादावुदयास्तमः परम ॥ पूर्णं पूर्णॆति पूर्वं स्यात सर्वं दैवं विचिन्तयॆत॥31॥ पूर्ण, मध्यम हीन और  अल्प मॆं दॊ-दॊ भॆद हैं। श्लॊक 26-27 कॆ अनुसार प्रत्यॆक पूर्ण आदि फलॊं मॆं 5 का भॆद है। अतः 15 सॆ। 17 ॥ तक पूर्ण 17 ॥ सॆ 20 तक अतिपूर्ण, 10 सॆ 12 तक मध्यम, 12॥

सॆ 15 तक अति मध्यम॥31॥।

हीनं हीनॆऽतिहीनं स्यात्स्वल्पाल्पॆऽत्यल्पकं स्मृतम । । मध्यॆ मध्यॆऽतिमध्यं स्याद्यावत्तस्य दशास्थितिः॥32॥

3॥ सॆ 5 तक हीन, 0 सॆ 2॥ तक अतिहीन, 7॥ सॆ 10 तक स्वल्प और  5 सॆ 7 ॥ तक अतिस्वल्प हॊता है। इस प्रकार विंशॊपक बल कॆ अनुसार ग्रहॊं की दशा का फल समझना चाहि‌ऎ॥32॥ ।... अथ भावानां कॆन्द्रादिसंज्ञामाह—

अथान्यदपि वक्ष्यामि मैत्रॆय! शृणु सुव्रत! । लग्नतुर्यास्तवियतां कॆन्द्रसंज्ञा विशॆषतः॥33॥

हॆ मैत्रॆय ! सुव्रत ! लग्न, चतुर्थ, सप्तम और  दशम भावॊं की कॆन्द्र संज्ञा है॥33॥

द्विपञ्चरन्ध्रलाभाख्यं ज्ञॆयं पणफराभिधम। । त्रिषड्भाग्यव्ययादीनामापॊक्लिममिति द्विज॥34॥

दूसरॆ, पाँचवॆं, आठवॆं और  ग्यारहवॆं भाव की पणफर संज्ञा है। तीसरॆ, छठॆ, नवॆं और  बारहवॆं भाव की आपॊक्लिम संज्ञा है॥34॥।

लग्नात्पञ्चमभाग्यस्य कॊणसंज्ञा विधीयतॆ॥

षष्ठाष्टव्ययभावानां दुःसंज्ञास्त्रिकसंज्ञकाः॥35॥ । लग्न, पंचम और  नवम भाव कॊ कॊण कहतॆ हैं। छठॆ, आठवॆं और  बारहवॆं भाव कॊ दुष्ट स्थान और  त्रिक कहतॆ हैं॥35 ॥।

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षॊडशवर्गविवॆकाध्यायः चतुरस्त्रं तुर्यरन्ध्र कथयन्ति द्विजॊत्तम॥ । स्वस्थादुपचयक्षणि त्रिषडायां वराणि हि॥36॥।

चौथॆ और  आठवॆं कॊ चतुरस्र कहतॆ हैं। अपनॆ स्थान सॆ तीसरॆ, छठॆ, ग्यारहवॆं और  दशम भाव कॊ उपचय कहतॆ है॥36॥।

अथ तन्वादिभावानां संज्ञामाह—तनुर्धनं च सहजॊ बन्धुपुत्रालयस्तथा। युवती रन्ध्रधर्माख्यं कर्मलाभव्ययाः क्रमात॥37॥ तनु, धन, सहज, बन्धु, पुत्र, अरि, युवती (जाया), रंध्र, धर्म, कर्म, लाभ : और  व्यय यॆ क्रम सॆ बारह भावॊं कॆ नाम हैं॥37 ॥

सङ्क्षॆपॆणैतदुदितमन्यद्बुध्यानुसारतः। किञ्चिद्विशॆषं वक्ष्यामि यथा ब्रह्ममुखाच्छूतम॥38॥ यह संक्षॆप सॆ कहा है, अंन्य बुद्धि कॆ अनुसार जानना । जैसा मैंनॆ ब्रह्माजी कॆ मुख सॆ सुना है उन विशॆषॊं कॊ कह रहा हूँ॥38॥।

नवमॆ चॆ पितुर्ज्ञानं सूर्याच्च नवमॆऽथवा॥ यत्किञ्चिद्दशमॆ लाभॆ तत्सूर्याद्दशमॆ शिवॆ॥39॥

लग्न सॆ नवम स्थान मॆं पिता का विचार किया जाता है। उसॆ सूर्य सॆ। नवम मॆं भी करना चाहि‌ऎ। इसी प्रकार लग्न सॆ 10वॆं और  ग्यारहवॆं मॆं

जॊ विचार किया जाता है वही सूर्य सॆ 10।11 भावॊं मॆं भी करना । चाहि‌ऎ॥39 ॥

तुयॆं तनौ धनॆ लाभॆ भाग्यॆ यच्चिन्तनं च तत । चन्द्रात्तुयॆं तनौ लाभॆ भाग्यॆ तच्चिन्तयॆध्रुवम॥40॥ लग्न सॆ चौथॆ, दूसरॆ, ग्यारहवॆं और  भाग्य मॆं जॊ फल विचार कियॆ जातॆ हैं वही चन्द्रमा सॆ भी उन्हीं चौथॆ, दूसरॆ, ग्यारहवॆं और  भाग्य भावॊं मॆं करनॆ चाहि‌ऎ॥40॥ .

लग्नाद्दुश्चिक्यभवनॆ तत्कुजाद्विक्रमॆ स्थितात। विचार्यं षष्ठभावस्य बुधाषष्ठॆ विचिन्तयॆत॥41॥ लग्न सॆ तीसरॆ भाव मॆं जॊ विचार हॊता है उसॆ भौम सॆ तीसरॆ भाव मॆं भी विचारना चाहि‌ऎ। लग्न सॆ छठॆ भाव मॆं जॊ विचार हॊता है वही . बुध सॆ छठॆ भाव मॆं भी हॊता है॥41॥

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2

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम . पञ्चमस्य गुरॊः पुत्रॆ जायायाः सप्तमॆ भृगॊः। अदमयययस्यापि मन्दान्मृत्यॊ व्ययॆ तथा॥4॥ गुरु सॆ पाँचवॆं भाव मॆं पुत्र का और  शुक्र सॆ सातवॆं भाव मॆं स्त्री का, शनि सॆ आठवॆं और  बारहवॆं भाव मॆं उन भावॊं का विचार करना चाहि‌ऎ॥42॥।

यभावाद्यत्फलं चिन्त्यं तदीशात्तत्फलं विदुः।

ज्ञॆयं तस्य फलं तद्धि तत्तच्चिन्त्यं शुभाशुभम ॥43॥ जिन-जिन भार्यॊं का विचार करना हॊ वह उन-उन भावॊं कॆ स्वामियॊं सॆ भी करना चाहि‌ऎ॥43॥ । इति बृहत्पाराशरहॊरायाः पूर्वखण्डॆ सुबॊधिन्यां राशिस्वभावषॊडश

. वर्गादिकथनं तृतीयॊऽध्यायः ॥3॥

अथ राशिदृष्टिभॆदाध्यायः मॆषादीनां च राशीनां द्वादशानां पृथक पृथक । दृष्टिभॆदं प्रवक्ष्यामि शृणु त्वं द्विजसत्तम॥1॥ हॆ द्विजसत्तम! मैं मॆषादि 12 राशियॊं कॆ दृष्टिभॆद कॊ पृथक-पृथक कह रहा हूँ उसॆ सुनॊ॥1॥

चरः स्थिरान्पश्यतिस्म स्थिरः पश्यति वै चरान।

उभयानुभयं विप्र पश्यतीत्ययमागमः॥2॥ .. चर राशियाँ स्थिर राशियॊं कॊ, स्थिर राशियाँ चर राशियॊं कॊ और  

द्विस्वभाव राशियॊं कॊ दॆखती हैं, यह आगम है॥2॥।

समीपराशिं सन्त्यक्त्वा राशींस्त्रीननुपश्यति। सर्वॊदाहरणं वक्ष्यॆ शृणु त्वं द्विजसप्तम॥3॥ इनमॆं विशॆषता यह है कि समीप की राशियॊं कॊ छॊडकर तीनतीन राशियॊं कॊ सभी राशियाँ दॆखती हैं। इनका उदाहरण मैं कह रही हूँ॥3॥

मॆषॊ वृषं परित्यज्य सिंहालिघटकं तथा।

अनयैव क्रमॆणैव पश्यतिस्म द्विजॊत्तम॥4॥ मॆष राशि वृष राशि कॊ छॊडकर सिंह, वृश्चिक, कुम्भ राशि कॊ । दॆखती है। इसी प्रकार क्रम सॆ आगॆ की राशियाँ भी दॆखती हैं॥4॥

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उग्ग

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राशिदृष्टिभॆदाध्यायः कर्क: सिंहं परित्यज्य वृश्चिकं च घटं वृषम। तुलापि वृश्चिकं त्यक्त्वा कुम्भं सिंह तथा वृषम॥5॥ कर्क राशि सिंह कॊ छॊडकर वृश्चिक, कुंभ और  वृष कॊ; तुला राशि वृश्चिक कॊ छॊडकर कुंभ, सिंह और  वृष कॊ॥5॥।

नक्रॊ घटं परित्यज्य मॆषं कर्क तुलां द्विज।

सिंहः कर्क परित्यज्य नक्रं मॆषं तुलां द्विज॥6॥ । कर्क राशि सिंह कॊ छॊडकर वृश्चिक, कुंभ, वृष कॊ, मकर राशि कुंभ राशि कॊ छॊडकर मॆष, कर्क, तुला कॊ ॥6॥

वृश्चिकस्तु तुलां त्यक्त्वा कर्क मॆषं मृगं तथा। । कुम्भश्च मकरं त्यक्त्वा मॆषं कर्क तुलां द्विज ॥7॥ सिंह राशि कर्क राशि कॊ छॊडकर मकर, मॆष, तुला कॊ; वृश्चिक राशि तुला कॊ छॊडकर कर्क, मॆष, मकर कॊ; कुंभ राशि मकर राशि कॊ छॊडकर मॆष, कर्क, तुला कॊ ॥7॥

युग्मः कन्याधनुर्मानान पश्यतीति द्विजॊत्तम। कन्या धनुर्मीनयुग्मं पश्यत्यॆवं न संशयः॥8॥ मिथुन राशि कन्या, धन, मीन कॊ; कन्या राशि धन, मीन, मिथुन का ॥8॥

धनुर्झषयुग्मकन्याः पश्यति द्विजसत्तम।

मीनॊ युग्माङ्गकॊ दण्डान पश्यति सुमतॆ द्विज॥9॥ । धन राशि मीन, मिथुन, कन्या कॊ और  मीन राशि मिथुन, कन्या और  धन राशि कॊ दॆखती है॥9॥

सूर्यादयः क्रमॆणैव पश्यन्ति च प्रस्परम। । राशित्रयं त्रयं विप्र सर्वराशिगता ग्रहाः॥10॥ हॆ विप्र ! इसी प्रकार सूर्य आदि ग्रह भी तीन-तीन राशियॊं कॆ क्रम सॆ सभी राशियॊं कॊ दॆखतॆ हैं॥10॥.

चरॆषु संस्थिताः खॆटाः पश्यन्ति चरसंस्थितान। स्थिरॆषु संस्थिताः खॆटाः पश्यन्ति चरसंस्थितान॥11॥

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वॊचॆ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । उज्यास्थस्तुन्वादिः पश्यन्त्युभयसंस्थितान।

निकटस्थं बिना खॆटा निरीक्ष्यन्तॆ द्विजॊत्तम ॥12॥ चार राशि पर बैठा हु‌आ ग्रह स्थिर राशि पर बैठॆ हु‌ऎ ग्रह कॊ, स्थिर राशि पर बैठा हु‌आ ह चर राशि पर बैठॆ हु‌ऎ ग्रह कॊ और  द्विस्वभाव राशि फ्ट कैश हुमा ग्रह द्विस्वभाव राशि पर बैठॆ हु‌ऎ ग्रह कॊ दॆखता है, किन्तु निकटस्थ साझि‌अ कॊ छॊडकर॥11-12॥।

। दृष्टिचक्रमाह—। यळन्यासम्महॆ वक्ष्यॆ यथावद्ब्रह्मणॊदितम ।

स्वास्थ्य विज्ञानमात्रॆण दृष्टिभॆदः प्रकाश्यतॆ ॥13॥ बैमा ब्रह्माजी नॆ कहा है वैसा ही मैं दृष्टिचक्र कॊ कह रहा हूँ, जिसकॆ

माना लौनी ऒ‌उम टुष्टि‌औद्ध समझ मॆं आ जाता है॥13॥ .. पूर्वॆ मॆषन्तृषी लॆख्यौ कर्कसिंहौ च दक्षिणॆ।

जुत्तालिवारूणवै विप्र नक्रकुम्भॆ तथॊत्तरॆ॥14॥ । ऎक ब्झर्गाकार चक्र ब्वान्नाकर पूर्व आदि दिशा‌ऒं की कल्पना कर पूर्व दिशा मॆं मॊक्या-वृक्षा, दक्षिण मॆं कर्क-सिंह कॊ, तुला-वृश्चिक कॊ पश्चिम

मॆं, मकर-कुंभ कॊ उत्तर मॆं ॥14॥।

. अम्बिकॊ लू मिथुनं नैर्‌ऋत्यामङ्गनां द्विज। । ब्याव्याळ्या वन्नुवं लॆख्यमीशान्यां च झषं लिखॆद॥15॥

। मिथुना कॊ अम्झिन्वॊष्ण मॆं, कन्या कॊ नैर्‌ऋत्य कॊण मॆं, वायव्य कॊण

मैं - छान्ना की और  शान्य कॊण मॆं मीन कॊ लिखॆ॥15॥।

चतुरस्त्रं च विन्यासं ज्ञायतॆ द्विजसत्तम। . वृत्तान्कारॆं विशॆषॆण ब्रह्मणा चॊदितं पुरा॥16॥

अम्माजी नौ विशॊषण कर इस चक्र कॊ वृत्ताकार ही कहा है॥16॥। विशॆष16 इन्सौक कॆ अनुसार स्पष्ट है कि राशियॊं की सव्यगणना इ क्रमॊंदिता है तथापि व्यवहार मॆं ऐसा नहीं है, अतः व्यवहार कॆ अनुल्ला म्मी-नान्ता सॆ आपसव्य गणना ही चक्र मॆं लिखा गया है। ऊपर कॆ 14-56 श्लॊन्ह साब्या गाण्याना कॆ अनुसार ही है। शॆष चक्र सॆ स्पष्ट है।


राशिदृष्टिभॆदाध्यायः

अपसव्यगणना । 2 पूर्व 1

। पूर्व 1

सव्यगाना - 1 पूर्व 2

12 12

3

उत्तर :

उत्तर

ऒ‌उम दक्षिण

वीनाश

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इति राशिदृष्टिभॆदम।

। अथ ग्रहाणां दृष्टिचक्रमाह—हॊराशास्त्रॆ मित्रदृष्टि: खॆटानां च परस्यम। त्रिदशॆ च त्रिकॊणॆ च चतुरत्रॆ च सप्तमॆ 17॥ हॊराशास्त्र मॆं ग्रहॊं की भिन्न-भिन्न दृष्टियाँ कहीं गा‌ईं है, बॊ झसा प्रकार हैं। ग्रह अपनॆ स्थान सॆ 3।10, 9।5, 48 ई7 स्थान कॊ दॆखतॆ हैं । 17 ॥ ॥

शनिर्दॆवगुरुमः परॆ च वीक्षणॆऽधिकाः। पदार्धं त्रिपदं पूर्णं वदन्ति गणकॊत्तमाः ॥ ॥18॥॥ शनिपादं त्रिकॊणॆषु चतुरनॆ द्विपादकम । । त्रिपादं सप्तमॆ विप्र त्रिदशॆ पूर्णमॆव हि ॥॥19॥॥ किन्तु शनि 9।5 स्थान कॊ 1 चरण सॆ, 48 स्थान कॊ 2 चारणा सॆ, सातवॆं कॊ 3 चरण सॆ और  3।10 स्थान कॊ पूर्णादृष्टि सॆ दॆखता है॥18-19॥

चतुरस्रॆ गुरुः पादं सप्तमॆ च द्विपादकम ॥ त्रिपादं त्रिदशॆ विप्र पूर्णं पश्यति कॊष्णाभौ ॥ 20 ॥ गुरु अपनॆ स्थान सॆ 4।8 भाव कॊ 1 चरण सॊ, 7 स्थाना कौ 2 चारष्णा सॆ, 3।10 कॊ 3 चरण सॆ और  95 स्थान कॊ पूर्णदृष्टि सॆ दॆखता है ॥20॥

सप्तमॆ पादमॆकं च द्विपाद त्रिदशॆ द्विजा। त्रिपादं च त्रिकॊणॆषु भौमः पूर्णं चतुरत्रगॊ॥2॥


20य्शा‌ई

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम भौम अपनॆ स्थान सॆ सातवॆं स्थान कॊ 1 चरण सॆ, 3।10 स्थान कॊ। 2 चरण सॆ, 9।5 स्थान कॊ 3 चरण सॆ और  4।8 स्थान कॊ पूर्ण दृष्टि सॆ दॆखता है॥21॥

अंन्यॆषां त्रिदशॆ पादं द्विपादं च त्रिकॊणगॆ। चतुरस्त्रॆ त्रिपादं च पूर्णं पश्यति सप्तमॆ॥22॥ शॆष ग्रह 3।10 स्थान कॊ 1 चरण सॆ, 9।5 कॊ 1 चरण सॆ, 9।4 कॊ 2 चरण सॆ, 48 स्थान कॊ 3 चरण सॆ और  सातवॆं स्थान कॊ पूर्णदृष्टि सॆ दॆखतॆ हैं॥22॥

ग्रहदृष्टिचक्रम। सू. । चं. । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । ग्रहः । ॥ 1 ।3।13।3।10। 7 ।3।10। 4 ।8 ।3।10।95 । स्थान

 15 । 95 ।3।10। 15 । 7 । 15 । 4 ॥थान 3 । 48।4।8 । 15 । 48 ।3।10। 4 ।8 । 7 ।स्थान । 4 । 7 । 7 ।4।8। 7 । 95 । 7 ।3।10।स्थान

इति दृष्टिभॆदाध्यायः । . इति पाराशरहॊरायाः पूर्वखण्डॆ सुबॊधिन्या दृष्टिभॆदकं नाम

चतुर्थॊऽध्यायः। * अथाऽरिष्टाध्यायः

चतविंशतिवर्षाणि यावद्गच्छन्ति जन्मतः। । जन्मारिष्टं तु तावत्स्यादायुदयं न चिन्तयॆत॥1॥ । जन्म सॆ 24 वर्ष की अवस्था तक बालारिष्ट हॊता है, अतः उक्त अवस्था तक बालकॊं कॆ आयु की गणना नहीं करनी चाहि‌ऎ॥1॥

षष्ठीष्टरिष्फगश्चन्द्रः क्रूरैश्च सह वीक्षितः। .. जातस्य मृत्युदः सद्यस्त्वष्टवषैः शुभॆक्षितः॥2॥

इसलि‌ऎ बालारिष्ट कॊ कह रहा हूँ- जन्मलग्न सॆ 6।8।12 भाव मॆं चन्द्रमा हॊ और  क्रूरग्रही सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ बालक की शीघ्र ही मृत्यु हॊती है। यदि चन्द्रमा कॊ शुभग्रह दॆखता हॊ तॊ वॆं वर्ष मॆं अरिष्ट हॊता है॥2॥


अथाऽरिष्टाध्यायः शशिवन्मृत्युदः सौम्याश्चॆद्वक्राः शूरवीक्षिताः। शिशॊर्जातस्य मासॆन लग्नॆ सौम्यविवर्जितॆ ॥3॥ यदि वक्री शुभग्रह 6।8।12 भाव मॆं हॊं और  क्रूरग्रहॊं सॆ दॆखॆ जातॆ हॊं और  शुभग्रह जन्म लग्न मॆं न हॊं तॊ बालक की ऎक मास मॆं मृत्यु हॊ जाती है॥3॥

यस्य जन्मनिधीस्थाः स्युः सूर्याकंन्दुकुजाभिधाः। तस्य त्वाशु जनित्री च भ्राता च निधनं लभॆत ॥4॥ जिसकॆ जन्मांग मॆं 5वॆं स्थान मॆं सूर्य, शनि, चन्द्रमा और  मंगल हॊं तॊ उस बालक कॆ माता और  भा‌ई की मृत्यु हॊती है॥4॥

पापॆक्षितॆ युतॊ भौमॊ लग्नगॊ न शुभॆक्षितः।

मृत्युदस्त्वष्टमस्थॊऽपि सौरॆणार्कण वा पुनः॥5॥ । यदि पापग्रह सॆ युत और  पापग्रह सॆ दॆखा जाता हु‌आ भौम जन्मलग्न मॆं हॊ और  शुभग्रह सॆ न दॆखा जाता हॊ तॊ मृत्युकारक हॊता है और  

आठवॆं भाव मॆं शनि या रवि हॊं तॊ भी मृत्युकारक हॊतॆ हैं ॥5॥

चन्द्रसूर्यग्रहॆ राहुश्चन्द्र सूर्ययुतॊ यदि। शनिभौमॆक्षितं लग्नं पक्षमॆकं स जीवति ॥6॥ चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहण कॆ समय का जन्म हॊ, लग्न मॆं राहु, चन्द्रमा, सूर्य हॊं और  शनि कॊ भौम दॆखता हॊ तॊ बालक ऎक पक्ष (15 दिन) तक जीता है॥6॥

कर्मस्थानॆ स्थितः सौरिः शत्रुस्थानॆ कलानिधिः॥ क्षितिजॊ सप्तमस्थानॆ समात्रा म्रियतॆ शिशुः॥7॥ लग्न सॆ दशम भाव मॆं शनि हॊ, छठॆ भाव मॆं चन्द्रमा हॊ, सातवॆं भाव मॆं भौम हॊ तॊ माता कॆ साथ ही बालक की मृत्यु हॊती है॥7॥

लग्नॆ भास्करपुत्रश्च निधनॆ चन्द्रमा यदि। तृतीयस्थॊ यदा जीवः स याति यममन्दिरम ॥8॥ लग्न मॆं शनि, हॊ, आठवॆं भाव मॆं चन्द्रमा हॊ और  तीसरॆ भाव मॆं गुरु हॊ तॊ बालक की मृत्यु हॊती है।8॥

हॊरायां नवमॆ सूर्यः सप्तमस्थः शनैश्चरः। ऎकादशॆ गुरुः शुक्रॊ मासमॆकं स जीवति ॥9॥


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम अंपनॆ हॊरा मॆं सूर्य नवम भाव मॆं हॊ, सातवॆं भाव मॆं शनि हॊ और  ग्यारहवॆं भाव मॆं गुरु-शुक्र हॊं तॊ 1 मास मॆं बालक की मृत्यु हॊती है॥9॥

व्ययॆ सर्वॆ ग्रहा नॆष्टा सूर्यशुक्रॆन्दुराहवः। विशॆषान्नाशकर्त्तारॊ दृष्ट्या वा भङ्गकारिणः॥10॥ 12वॆं भाव मॆं सभी ग्रह अशुभ हॊतॆ हैं, विशॆषकर सूर्य, शुक्र, चन्द्रमा और  राहु। इनकी दृष्टि भी हानिकर हॊती है॥10॥।

 पापान्चितः शशी धर्म धूनलग्नगतॊ यदि। . शुभैरवीक्षितयुतस्तदा मृत्युप्रदः शिशॊः॥11॥ । पापग्रह सॆ युत चन्द्रमा 9वॆं या 7वॆं भाव मॆं हॊ और  शुभग्रह सॆ दृष्टयुत न हॊ तॊ बालक की मृत्यु हॊती है॥11॥। ।: सन्ध्यायां चन्द्रहॊरायां गण्डान्तॆ निधनाय वै।

प्रत्यॆकं चन्द्रपापैश्च कॆन्द्रगैः स्याद्विनाशनम॥12॥ - प्रातः संध्या या सायं संध्या मॆं चन्द्रमा की हॊरा मॆं जन्म हॊ और  गंडातॆ हॊ तॊ बालक की मृत्यु हॊती है। प्रत्यॆक कॆन्द्रॊं मॆं पापग्रह चन्द्रमा सॆ युत हॊ तॊ भी मृत्यु हॊती है॥12॥

रवॆस्तु मण्डलार्द्धस्तात्सायं सन्ध्यात्रिनाडिका। । तथैवार्डॊदयात्पूर्वं प्रातः सन्ध्या त्रिनाडिका ॥13॥ सूर्यबिंब कॆ आधा अस्त हॊ जानॆ कॆ बाद 3 दंड सायं संध्या और  सूर्यबिंब कॆ आधा उदय हॊनॆ कॆ पश्चात 3 घटी प्रातः संध्या हॊती है॥13॥

चक्रपूर्वापरार्धॆषु क्रूरसौम्यॆषु कीटभॆ।

लग्नगॆ निधनं यान्ति नात्र कार्या विचारणा॥14॥ ’यदि सभी पापग्रह चक्र कॆ पूर्वार्ध मॆं हॊं और  परार्ध मॆं शुभग्रह हॊं और  कीटलग्न (कर्कराशि) जन्मलग्न हॊ तॊ बालक की मृत्यु हॊती है॥14॥ ॥ । , व्ययशत्रुगतैः, क्रूरैर्मृत्युद्रव्यगतैरपि।

पापमध्यगतॆ लग्नॆ सत्यमॆव मृतिं वदॆत॥15॥ यदि 12वॆं, छठॆ, 8वॆं और  दूसरॆ भाव मॆं पापग्रह हॊं, जन्मलग्न पापग्रह कॆ मध्य मॆं हॊ तॊ बालक की मृत्यु हॊती है॥15॥

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अथाऽरिष्ट्राध्यायः लग्नसप्तमगौ पापॊ चन्द्रॊऽपि क्रूरसंयुतः। यदा त्ववीक्षितः सौम्यैः शीघ्रान्मृत्युर्भवॆत्तदा॥16॥ यदि लग्न और  सातवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं और  चन्द्रमा भी क्रूरग्रह सॆ युक्त हॊ और  शुभ ग्रहॊं सॆ न दॆखा जाता हॊ तॊ शीघ्र ही मृत्यु हॊती है॥16॥

क्षीणॆ शशिनि लग्नस्थॆ पापैः कॆन्द्राष्टसंस्थितैः। यॊ जातॊ मृत्युमाप्नॊति स विप्रॆश न संशयः॥17॥ क्षीण चन्द्रमा लग्न मॆं हॊ, कॆन्द्र और  आठवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं तॊ बालक की मृत्यु हॊती है॥17॥।

पापयॊर्मध्यगश्चन्द्रॊ लग्नरन्ध्रान्त्यसप्तगः॥

अचिरान्मृत्युमाप्नॊति यॊ जातः स शिशुस्तथा॥18॥ दॊ पापग्रहॊं कॆ मध्य मॆं हॊकर चन्द्रमा लग्न, आठवॆं या बारहवॆं या सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ बालक की मृत्यु हॊती है॥18॥

पापद्वयमध्यगॆ चन्द्रॆ लग्नॆ समवस्थितॆ। सप्तमष्टमॆन पापॆन मात्रा सह मृतः शिशुः॥19॥ दॊ पापग्रहॊं कॆ मध्य मॆं चन्द्रमा लग्न मॆं हॊ, सातवॆं, आठवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं तॊ माता कॆ साथ बालक की मृत्यु हॊती है॥19॥।

शनैश्चरार्कभौमॆषु रिष्फधर्माष्टमॆषु च। शुभैरवीक्षमाणॆषु यॊ जातॊ निधनं गतः॥20॥ शनि, सूर्य, भौम क्रम सॆ 12, 9, 8 वॆं भाव मॆं हॊं और  शुभग्रहॊं सॆ न दॆखॆ जातॆ हॊं तॊ शीघ्र ही मृत्यु हॊती है॥20॥

यदुद्रॆष्काणॆच यामित्रॆ यस्य स्याद्दारुणॊ ग्रहः। क्षीणचन्द्रॊ विलग्नस्थॊ सद्यॊ हरति जीवितम॥21॥ जिसकॆ लग्न कॆ द्रॆष्काण और  सातवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं और  क्षीण चन्द्रमा लग्न मॆं हॊ तॊ शीघ्र ही मृत्यु हॊती है॥21॥।

आपॊक्लिमस्थिताः सर्वॆ ग्रहाः बलविवर्जिताः।

षण्मासं वा द्विमासं वा तस्यायुः समुदाहृतम॥22॥ । सभी ग्रह निर्बल हॊकर आपॊक्लिम (3।6।9।12) भाव मॆं हॊं तॊ 6 मास या दॊ मास की आयु हॊती है॥22॥


बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

अथ मातृकष्टम्चन्द्रमा यदि पापानां त्रितयॆन प्रदृश्यतॆ। मातृनाशॊ भवॆत्तस्य शुभदृष्टॆ शुभं भवॆत॥23॥। यदि जन्म समय चंन्द्रमा कॊ तीन पापग्रह दॆखतॆ हॊं तॊ माता की । मृत्यु हॊती है। शुभग्रह दॆखतॆ हॊं तॊ शुभ हॊता है॥23॥

। धनॆ राहुर्बुधः शुक्रः सौरिः सूर्यॊ यथास्थितः।

यस्य मातुः भवॆन्मृत्युमॆतॆ पितरि जायतॆ ॥24॥ । धन भाव मॆं राहु, बुध, शुक्र, शनि और  सूर्य हॊं तॊ उसकॆ पिता कॆ मरनॆ कॆ बाद माता की मृत्यु हॊती है॥24॥।

पापात्सप्तमरन्ध्रस्थॆ चन्द्रॆ पापसमन्वितॆ।

 बलिभिः पापकैर्दष्टॆ जातॊ भवति मातृहा॥25॥ । पापग्रह सॆ सातवॆं, आठवॆं भाव मॆं पापग्रह सॆ युत चन्द्रमा हॊ, बलवान पापग्रहॊं सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ उसकी माता की मृत्यु हॊती है॥25॥।

उच्चस्थॊ वाथ नीचस्थः सप्तमस्थॊ यदा रविः।

मातृहीनॊ भवॆद्बालः अजाक्षीरॆण जीवति ।:26॥ : । । जिसकॆ जन्म समय मॆं लग्न मॆं सातवॆं भाव मॆं उच्चराशि मॆं या नीच । राशि मॆं सूर्य हॊ तॊ उसकॆ माता की मृत्यु हॊती है और  वह बालक बकरी कॆ दूध सॆ जीता है॥26॥।

। चन्द्राच्चतुर्थगः पापॊ रिपुक्षॆत्रॆ यदा भवॆत।

तदा मातृवधं कुर्यात्कॆन्द्रॆ यदि शुभॊ न चॆत ॥27॥। यदि अपनॆ शत्रु की राशि का पापग्रह चन्द्रमा सॆ चौथॆ हॊ और  कॆन्द्र मॆं शुभग्रह न हॊं तॊ माता की मृत्यु हॊती है॥27 ॥

द्वादशॆ रिपुभावॆ च यदा पापग्रहॊ भवॆत। तदा मातुर्वधं विन्द्याच्चतुर्थॆ दशमॆ पितुः॥28॥ जन्मलग्न सॆ-12वॆं, छठॆ स्थान मॆं पापग्रह हॊं तॊ माता का विनाश हॊता है। चौथॆ, दशवॆं स्थान मॆं पापग्रह हॊ तॊ पिता की हानि हॊती है॥28॥

लाभॆ क्रूरॊ व्ययॆ क्रूरॊ धनॆ सौम्यस्तथैव च। - सप्तमॆ भवनॆ क्रूरः परिवारक्षयङ्करः॥29॥

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अथाऽरिष्टाध्यायः

04 लग्न और  बारहवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं, दूसरॆ भाव मॆं शुभग्रह हॊं तथा सातवॆं भाव मॆं क्रूरग्रह हॊं तॊ परिवार का नाश करनॆ वाला हॊता है॥29॥

लग्नस्थॆ च गुरौ सौरी धनॆ राहौ तृतीयगॆ। इति चॆज्जन्मकालॆ स्यान्माता तस्य न जीवति ॥30॥

लग्न मॆं गुरु और  शनि हॊं तथा दूसरॆ या तीसरॆ भाव मॆं राहु हॊ तॊ माता नहीं जीती है।30॥।

क्षीणचन्द्रात्रिकॊणस्थैः पापैः सौम्यविवर्जितैः। माता परित्यजॆबालं षण्मासाच्चॆ न संशयः॥31॥ क्षीण चन्द्रमा सॆ त्रिकॊण (9।5) मॆं पापग्रह हॊं, शुभग्रह न हॊं तॊ 6 मास कॆ अन्दर ही माता बालक कॊ त्याग दॆती है॥31॥

ऎकांशकस्थौ मन्दारॊ यत्र कुत्र स्थितौ यदा॥

शशिकॆन्द्रगतौ तौ वा द्विमातृभ्यां च जीवति॥32॥ ऎक ही नवमांश मॆं शनि और  भौम हॊं और  कहीं बैठॆ हॊं अथवा चन्द्रमा सॆ कॆन्द्र मॆं हॊ तॊ बालक दॊ माता‌ऒं सॆ जीता है॥32॥

अथ पितृकष्टम्लग्नॆ सौरिर्मदॆ भौमः षष्ठस्थानॆ च चन्द्रमाः। इति चॆज्जन्मकालॆ स्यात्पिता तस्य न जीवति॥33॥ यदि जन्मलग्न मॆं शनि, सातवॆं स्थान मॆं भौम और  छठॆ स्थान मॆं चन्द्रमा हॊं तॊ उसका पिता नहीं जीता है॥33॥

लग्नॆ जीवॊ धनॆ मन्दरविभौमबुधस्तथा। विवाहसमयॆ तस्य जातस्य म्रियतॆ पिता॥34॥

लग्न मॆं गुरु हॊ, दूसरॆ स्थान मॆं शनि, रवि, भौम, बुध हॊं तॊ उसकॆ

 विवाह कॆ समय मॆं पिता की मृत्यु हॊती है॥34 ॥

सूर्यः पापॆन संयुक्तः सूर्यॊ वा पापमध्यगः। सूर्यात्सप्तमगः पापस्तदा पितृवधं भवॆत॥35॥ सूर्य पापग्रह कॆ साथ हॊ अथवा पापग्रहॊं कॆ मध्य मॆं हॊ और  सूर्य सॆ सातवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊ तॊ पिता की मृत्यु हॊती है॥35 ॥

सप्तमॆ भवनॆ सूर्यः कर्मस्थॊ भूमिनन्दनः। राहुयॆ च यस्यैव पिता कष्टॆन जीवति॥36॥


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । सातवॆं स्थान मॆं सूर्य हॊ, दशम स्थान मॆं भॊम और  बारहवॆं स्थान मॆं

राहु हॊं तॊ पिता कष्ट सॆ जीता है॥36॥।

दशमस्थॊ यदा भौमः शत्रुक्षॆत्रसमन्वितः। , म्रियतॆ तस्य जातस्य पिता शीघ्रं न संशयः॥37॥ । यदि दशम स्थान मॆं शत्रु की राशि मॆं भौम हॊ तॊ पिता की शीघ्र ही

मृत्यु हॊती है॥37॥ ... रिपुस्थानॆ यदा चन्द्रॊ लग्नस्थानॆ शनैश्चरः।

कुजश्च सप्तमस्थानॆ पिता तस्य न जीवति॥38॥ यदि छठॆ स्थान मॆं चन्द्रमा, लग्न मॆं शनि और  सातवॆं मॆं भौम हॊ तॊ

पिता नहीं जीता है॥38॥ . . : भौमांशकस्थितॆ भानौ, स्वपुत्रॆण निरीक्षितॆ ॥39॥

प्राज्जन्मतॊ निवृत्तिः स्यान्मृत्युवपि शिशॊः पितुः॥39 ॥ . भौम कॆ नवांश मॆं सूर्य हॊ और  शनि सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ पिता नहीं

। जीता है॥39॥ । - पातालॆ चाम्बरॆ पापा द्वादशॆ च यदा स्थितौ।

पितरं मातरं हत्वा दॆशाद्दॆशान्तरं व्रजॆत ॥40॥

 चतुर्थ, दशम और  बारहवॆं स्थान मॆं पापग्रह हॊं तॊ माता-पिता दॊनॊं । की मृत्यु हॊती है॥40॥

राहुजीवौ रिपुक्षॆत्रॆ लग्नॆ वाथ चतुर्थकॆ।

त्रयॊविंशतिमॆ वर्षॆ पुत्रस्तातं न पश्यति॥41॥ । राहु, गुरु छठॆ, लग्न या चौथॆ भाव मॆं हॊं तॊ 23वॆं वर्ष मॆं पुत्र पिता कॊ नहीं दॆखता है॥41 ॥*

भानुः पिताच जन्तूनां चन्द्रॊ माता तथैव च। पापदृष्टियुतॊ भानुः पापमध्यगतॊऽपि वा। पित्रारिष्टं विजानीयाच्छिशॊर्जातस्य निश्चितम॥42॥

यदि सूर्य पापग्रह सॆ दृष्ट-युत हॊकर पापग्रह कॆ मध्य मॆं हॊ तॊ बालक ’ कॆ पिता का नाश हॊता है॥42॥।

. भानॊः षष्ठाष्टमङ्क्षस्थैः पापैः सौम्यविवर्जितैः।

चतुरस्रगतैवपि पित्रारिष्टं विनिर्दिशॆत॥43॥ *जीव कॆ पिताकारक सूर्य और  मातृकारक चन्द्रमा हॊता है।

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।’ अथारिष्टभङ्गाध्यायः सूर्य सॆ छठॆ, आठवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं तॊ पिता की मृत्यु हॊती है। सूर्य सॆ छठॆ, आठवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं, शुभग्रह न हॊं या चौथॆ,

आठवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं तॊ पिता कॊ अरिष्ट हॊता है॥43॥

। इत्यरष्टाध्यायः ।

अथारिष्ट्रभङ्गाध्यायः ऎकॊऽपि ज्ञार्यशुक्राणां लग्नात्कॆन्द्रगतॊ यदि।

अरिष्टं निखिलं हन्ति तिमिरं भास्करॊ यथा ॥44॥ यदि बुध, गुरु, शुक्र मॆं सॆ ऎक लग्न भी कॆन्द्र मॆं हॊ तॊ संपूर्ण अरिष्ट का नाश हॊ जाता है; जैसॆ सूर्य कॆ उदय सॆ अंधकार का नाश हॊ जाता है॥44॥।

ऎक ऎव बली जीव लग्नस्थॊ रिष्टसञ्चयः॥ हन्ति पापक्षयं भक्त्या प्रणाम इव शूलिनः॥45॥ यदि कॆवल गुरु ही बली हॊकर लग्न मॆं हॊ तॊ अरिष्ट-समूह का नाश हॊ जाता है, जैसॆ भक्तिपूर्वक शंकर कॊ प्रणाम करनॆ सॆ पापसमूह नष्ट हॊ जातॆ हैं॥45॥

ऎक ऎव विलग्नॆशः कॆन्द्रसंस्थॊ बलान्वितः।

अरिष्टं निखिलं हन्ति पिनाकी त्रिपुरं यथा॥46॥ ऎक लग्नॆश ही बली हॊकर कॆन्द्र मॆं हॊ तॊ अरिष्ट का नाश हॊता है, जैसॆ शंकरजी नॆ त्रिपुर राक्षस का नाश किया था॥46॥

शुक्लपक्षॆ क्षपाजन्म लग्नॆ सौम्यनिरीक्षितॆ। विपरीतं कृष्णपक्षॆ तथारिष्टविनाशनम॥47॥

शुक्लपक्ष सॆ रात्रि मॆं जन्म हॊ और  लग्न कॊ शुभ ग्रह दॆखता हॊ तथा कृष्णपक्ष मॆं दिन का जन्म हॊ और  लग्नं कॊ शुभ ग्रह दॆखता हॊ तॊ अरिष्ट का नाश हॊता है॥47॥

व्ययस्थानॆ यदा सूर्यस्तुला लग्नॆ तु जायतॆ॥ जीवॆत्स शतवर्षाणि दीर्घायुर्बालकॊ भवॆत॥48॥ यदि तुला लग्न मॆं जन्म हॊ और  बारहवॆं स्थान मॆं सूर्य हॊं तॊ बालक 100 वर्ष तक जीता है॥48॥

गुरुभौमौ यदा युक्तौ गुरुदृष्टॊऽथवा कुजः॥ हत्वारिष्टमशॆषं च जनन्याः शुभकृद्भवॆत॥49॥


टॆशॆण

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 बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम गुरु-भौम ऎक भाव मॆं हॊं अथवा गुरु सॆ भौम दॆखा जाता हॊ तॊ अरिष्टॊं का नाश हॊता है और  माता कॊ सुख हॊता है॥49॥

चतुर्थदशमॆ पापः सौम्यमध्यॆ यदा भवॆत। । पितुः सौख्यकरॊ यॊगः शुभैः कॆन्द्रत्रिकॊणगैः॥50॥ । शुभग्रह कॆ मध्य मॆं चौथॆ, दशम भाव मॆं पापग्रह हॊं, कॆन्द्रत्रिकॊण मॆं

शुभग्रह हॊं तॊ पिता कॊ सुख हॊता है॥50॥

लग्नाच्चतुर्थॆ यदि पापखॆटा कॆन्द्रत्रिकॊणॆ सुरराजमन्त्री। कुलद्वयानन्दकरॊ प्रसूतः दीर्घायुरारॊग्यसमन्वितश्च ॥51॥। लग्न सॆ चौथॆ स्थान मॆं पापग्रह हॊं, कॆन्द्र व त्रिकॊण मॆं गुरु हॊं तॊ बालक दॊनॊं कुलॊं (माता-पिता) कॊ सुखदायक हॊता है॥51॥।

सौम्यान्तरगतैः पापैः शुभैः कॆन्द्रत्रिकॊणगैः। सद्यॊ नाशयतॆऽरिष्टं तद्भावॊत्थफलं न तत ॥52॥। शुभग्रह कॆ मध्य मॆं पापग्रह हॊं और  शुभग्रह कॆन्द्रत्रिकॊण मॆं हॊ तॊ अरिष्ट का नाश हॊता है और  उस भाव कॆ फलॊं की वृद्धि हॊती है॥52॥ इति पाराशरहॊरायां पूर्वखण्डॆ सुबॊधिन्यामरिष्टभङ्गाध्यायः पञ्चमः।

, इत्यरिष्टभङ्गाध्यायः ॥ - . अथाऽप्रकाशग्रहफलाध्यायः

तत्रादौ धूमग्रहफलम्शूरॊ विमलनॆत्रांशः सुस्तब्यॊ निघृणः खलः।

मूर्तिस्थॆ धूमसम्प्राप्तॆ गाढशॆषॊ नरः सदा॥1॥ । यदि धूमग्रह प्रथम भाव मॆं हॊ तॊ जातक शूरवीर, सुन्दर नॆत्र और  कंधॆ वाला, मूर्ख, निर्लज्ज, दुष्ट तथा बडा क्रॊधी हॊता है॥1॥

रॊगी धनी तु हीनाङ्गॊ राज्यापहतमानसः॥ द्वितीयॆ धूमसम्प्राप्तॆ मन्दप्राज्ञॊ नपुंसकः॥2॥

दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ रॊग, धनी, विकलांग, राजा सॆ अपहृत चित्तवाला, मंदबुद्धि और  नपुंसक हॊता है॥2॥

 मतिमान शौर्यसङ्ग्रामॆ इष्टचित्तः प्रियंवदः। । धूमॆ सहजभावस्थॆ धनाढ्यॊ धनवान भवॆत॥3॥

तीसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ बुद्धिमान, पराक्रमी, शुद्धचित्त, मीठा बॊलनॆ वाला, धनसंयुक्त धनी हॊता है॥3॥

1

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अथाऽप्रकाशग्रहफलाध्यायः कलत्राङ्गपरित्यक्तॊ नित्यं मनसि दुःखितः। चतुर्थॆ धूमसम्प्राप्तॆ सर्वशास्त्रार्थचिन्तकः॥4॥ चौथॆ भाव मॆं हॊ तॊ स्त्री सॆ त्यागा हु‌आ नित्य दुःखी, सभी शास्त्रॊं का विचार करनॆ वाला हॊता है॥4॥

स्वल्पापत्यॊ धनैहनॊ धूमॆ पञ्चमसंस्थितॆ।

गुरुतः सर्वभक्षं च सुहृन्मन्त्रविवर्जितः॥5॥ । पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ थॊडॆ संतानवाला, निर्धन, गौरव सॆ युक्त, सर्वभक्षी, अच्छॆ मित्रॊं सॆ रहित हॊता है॥5॥

बलवाञ्छत्रुवधकॊ धूमॆ च रिपुभावगॆ। । बहुतॆजॊयुतः ख्यातः सदा रॊगविवर्जितः॥6॥

छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ बलवान, शत्रु कॊ मारनॆ वाला, तॆजस्वी, प्रसिद्ध और  रॊगहीन हॊता है॥6॥

निर्धनः सततं कामी परदारॆषु कॊविदः।

धूमॆ सप्तमभॆ प्राप्तॆ निस्तॆजः सर्वदा भवॆत॥7॥ सातवॆं भाव मॆं धूम हॊ तॊ निर्धन, निरंतर कामी, परस्त्रीगामी और  तॆजहीन हॊता है॥7॥

विक्रमॆण परित्यक्तः सॊत्साही सत्यसगरः।

अप्रियॊ निष्ठुरः स्वामी धूमॆ मृत्युगतॆ सति ॥8॥ आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ पराक्रम सॆ त्यागी, उत्साही सत्संकल्पवाला, अप्रिय, निष्ठुर स्वामी हॊता है॥8॥।

सुतसौभाग्यसम्पन्नॊ धनी मानी दयान्वितः। धर्मस्थानॆ स्थितॆ धूमॆ धनवान्बन्धुवत्सलः॥9॥। नवम भाव मॆं हॊ तॊ पुत्र, भाग्य संयुक्त, धनी, मानी, दयालु, धनी और  बंधुप्रिय हॊता है॥9॥।

सुतसौभाग्यसंयुक्तः सन्तॊषी मतिमान सुखी। कर्मस्थॆ मानवॊ नित्यं धूमॆ सत्यपदस्थितः॥10॥ दशम भाव मॆं हॊ तॊ पुत्र तथा सौभाग्य संयुक्त, संतॊषी, बुद्धिमान और  सुखी हॊता है॥10॥

धनधान्यहिरण्याढ्यॊ रूपवांश्च कलान्चितः। धूमॆ लाभगतॆ चैव विनीतॊ गीतकॊविदः॥11॥

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ग्यारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ धन, धान्य और  सुवर्ण सॆ युक्त, रूपवान तथा कला कॊ जाननॆ वाला हॊता है॥11॥

। पतितः पापकर्मा च्च द्वादशॆ धूमसङ्गतॆ॥

परदारॆषु संसक्तॊ व्यसनी निघृणः शठी॥12॥ बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ पतित, पाप करनॆ वाला परस्त्रीगामी, व्यसनी और  निर्लज्ज हॊता है॥12॥

। इति धूमफलम।

अथ पातफलम मूर्ती च पातॆ सम्प्राप्तॆ दुःखॆनाङ्गप्रपीडितः। 1. कूरॊ घातकरॊ मूर्खा द्वॆष्यॊ बन्धुजनॆन च॥1॥

यदि लग्न मॆं पात हॊ तॊ दुःखी, अंग सॆ पीडित, क्रूर प्रकृति, मूर्ख, भा‌इयॊ सॆ द्वॆष करनॆ वाला हॊता है॥1॥ .. जिह्मॊऽतिपित्तवान भॊगी धनस्थॆ पातसंज्ञकॆ।

* निघृणश्च कृतघ्नश्च दुष्टात्मा पापकृत्तथा॥2॥

दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ कुटिल, अत्यंत पित्तप्रकृति, भॊगी, निर्लज्ज, कृतघ्न, दुष्टात्मा और  पापी हॊता है॥2॥

स्थिरप्रज्ञॊ रणी दाता धनाढ्यॊ राजवल्लभः।

सहजॆ पापसम्प्राप्तॆ सॆनाधीशॊ भवॆन्नरः॥3॥ तीसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ सॆनापति, स्थिरबुद्धि, संगति करनॆ वाला, दाता, धनी, राजा का प्रियपात्र हॊता है॥3॥।

बन्धव्याधिसमायुक्तः सुतसौभाग्यवर्जितः॥ चतुर्थगॊ यदा पातस्तदा स्यान्मनुजश्च सः॥4॥ चौथॆ भाव मॆं हॊ तॊ बंधन और  व्याधि संयुक्त, पुत्र और  भाग्य सॆ हीन मनुष्य हॊता है॥4॥ .. दरिद्रॊ रूपसंयुक्तः पातॊ पञ्चमगॊ यदि। । कफपित्तानिलैर्युक्तॊ निष्ठुरॊ निरपत्रपः॥5॥

पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ मनुष्य दरिद्र, रूपवान, कफ, पित्त और  वायु प्रकृति सॆ संयुक्त, क्रूर और  निर्लज्ज हॊता है॥5॥

शत्रुहन्ता सुपुष्टश्च सर्वास्त्राणां च ग्राहकः॥ कलासु निपुणः शान्तः पातॆ शत्रुगतॆ सति ॥6॥

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। अथ पातफलम छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक शत्रु का नाशक, शरीर सॆ पुष्ट, सभी अस्त्रॊं कॊ धारण करनॆ वाला, कला मॆं निपुण और  शान्त हॊता है॥6॥

। धनदारसुतैस्त्यक्तः स्त्रीजितः कष्टजीविकः।

पातॆ कलत्रगॆ कामी निर्लज्जः परसौहृदः॥7॥ सातवॆं भाव मॆं पात हॊ तॊ धन, स्त्री, पुत्र सॆ हीन, स्त्री सॆ जीता हु‌आ, कष्ट सॆ जीविका प्राप्त करनॆ वाला, कामी और  शत्रु‌ऒं सॆ मित्रता

करनॆ वाला हॊता है॥7॥।

विकलाङ्गॊ विरूपश्च दुर्भगॊ द्विजनिन्दकः।

मृत्युस्थानॆ स्थितॆ पातॆ रक्तपीडापरिप्लुतः॥8॥

आठवॆं भाव मॆं पात हॊ तॊ अंगहीन, कुरूप, दरिद्र, ब्राह्मणनिंदक और  रक्तपीडा सॆ युक्त हॊता है॥8॥

बहुव्यापारकॊ नित्यं बहुमित्रॊ बहुश्रुतः। धर्मभॆ पातसम्प्राप्तॊ स्त्रीप्रियज्ञः प्रियंवदः॥9॥ नवम भाव मॆं पात हॊ तॊ अनॆक व्यापार कॊ करनॆ वाला, अनॆक मित्रॊं वाला, अनॆक शास्त्रॊं कॊ जाननॆ वाला, स्त्री कॊ प्रिय और  प्रिय बॊलनॆ वाला हॊता है॥9॥

सश्रीकॊ धर्मकृच्छ्रान्तॊ धर्मकार्यॆषु कॊविदः। कर्मस्थॆ पातसम्प्राप्तॆ महाप्राज्ञॊ विचक्षणः॥10॥ दशम भाव मॆं पात हॊ तॊ लक्ष्मी सॆ युक्त, धार्मिक, शान्त, धर्मकार्य मॆं पंडित हॊता है॥10॥

प्रभूतधनवान्मानी सत्यवादी दृढव्रतः। अश्वाढ्यॊ गीतसंसक्तः पातॆ लाभगतॆ सति ॥11॥ ऎकादश भाव मॆं हॊ तॊ बहुत बडा धनी, मानी, सत्य बॊलनॆ वाला, दृढप्रतिज्ञ, घॊडा रखनॆ वाला, गीत कॊ जाननॆ वाला हॊता है॥11॥

क्रॊधी च बहुकर्माढ्यॊ व्यङ्गॊ धर्मस्य द्वॆषकः। * व्ययस्थानॆ गतॆ पातॆ विद्वॆषी निजबन्धुभिः॥12॥

बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ क्रॊधी, अनॆक कार्यॊं मॆं संलग्न, अंगहीन, धर्मनिंदक और  अपनॆ बंधु‌ऒं सॆ विद्वॆष करनॆ वाला हॊता है॥12॥

इतिं पातफलम।


शॆळ

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ळॆश

गि : बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

अथ परिधिफलम। . विद्वान सत्यस्तः शान्तॊ धनवान्पुत्रवाञ्छुचिः।

दाता च परिधौ मूर्ती जायतॆ गुरुवत्सलः॥1॥ यदि परिधि लग्न मॆं हॊ तॊ जातक विद्वान, सत्य बॊलनॆ वाला, शान्तचित्त, धनवान, पुत्रवान, पवित्र, दाता और  गुरुभक्त हॊता है॥1॥

ईश्वरॊ रूपवान भॊगी सुखी धर्मपरायणः।

धनस्थॆ परिधौ प्राप्तॆ प्रभुर्भवति मानवः॥2॥ दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ समर्थ, रूपवान, भॊगी, सुखी, धर्मपरायण और  समर्थ हॊता है॥2॥

स्त्रीवल्लभः सुरूपाङ्गॊ दॆवस्वजनसङ्ङ्गतः।

 तृतीयॆ परिधौ भृत्यॊ गुरुभक्तिसमन्वितः॥3॥

तीसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ स्त्रीप्रिय, सुन्दर रूप, धन सॆ पूर्ण, दॆवता और  आपस कॆ लॊगॊं कॆ अनुकूल, नौकर और  गुरुभक्त हॊता है॥3॥ । परिधौ सुखभावस्थॆ विस्मितं त्वरिमङ्गलम ।

अक्रूरं त्वथ सम्पूर्णं कुरुतॆ गीतकॊविदः॥4॥ चौथॆ भाव मॆं हॊ तॊ विस्मयालु, शत्रु का मंगल करनॆ वाला, सरल और  गीतज्ञ हॊता है॥4॥. । लक्ष्मीवान शीलवान कान्तः प्रियवान धर्मवत्सलः॥5॥

पञ्चमॆ परिधौ जातॆ स्त्रीणां भवति वल्लभः॥5॥ पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ लक्ष्मीवान, शीलवान, सुन्दर, धार्मिक और  स्त्रियॊं का प्रिय हॊता है॥5॥

व्यक्तॊऽर्थपुत्रवान भॊगी सर्वसत्त्वहितॆ रतः। * परिधौ रिपुभावस्थॆ शत्रुहा जायतॆ नरः॥6॥

छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ प्रसिद्ध धनी, पुत्रवान, भॊगी, सभी का हित करनॆ वाला, शत्रुयुक्त किन्तु शत्रु का नाश करनॆ वाला हॊता है॥6॥

स्वल्पापत्यसुखैहनॊ मन्दप्रज्ञः सुनिष्ठुरः॥ परिधौ छूनभावस्थॆ स्त्रीणां व्याधिश्च जायतॆ॥7॥ यदि परिधि सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ थॊडॆ संतान सुख सॆ हीन, मंदबुद्धि ऎवं निष्ठुर और  उसकी स्त्री रॊगी हॊती है॥7॥


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। अथ पातफलम। अध्यात्मचिन्तकः शान्तॊ दृढकार्यॊ दृढव्रतः। धर्मवांश्च ससत्यश्च परिधौ रन्ध्रसंस्थितॆ॥8॥

आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ अध्यात्म (वॆदान्त) कॊ जाननॆ वाला, शांत, दृढ कार्य करनॆ वाला, दृढनिश्चयी, धार्मिक और  बली हॊता है॥8॥

पुत्रान्वितः सुखी कान्तॊ धनाढ्यॊ लॊलवर्जितः। परिधौ धर्मगॆ मानी अल्पसन्तुष्टमानसः॥9॥ नवम भाव मॆं हॊ तॊ पुत्रयुक्त, सुखी, सुन्दर, धनी, स्थिर, अभिमानी और  थॊडॆ मॆं संतुष्ट हॊनॆ वाला हॊता है॥9॥

क्वचिदज्ञस्तथा भॊगी दृढकायॊ ह्यमत्सरः।

परिधौ दशमॆ प्राप्तॆ सर्वशास्त्रार्थपारगः॥10॥ । दशम भाव मॆं परिधि हॊ तॊ कॊ‌ई मूर्ख हॊता है, भॊगी, बली और  सभी शास्त्र का विशारद हॊता है॥10॥।

स्त्रीभॊगी गुणवांश्चैव मतिमान स्वजनप्रियः।

लाभॆ च परिधौ जातॆ मन्दाग्निः संसुपद्यतॆ॥11॥ ऎकादश भाव मॆं हॊ तॊ स्त्रीभॊगी, गुणी, बुद्धिमान, बंधुप्रिय और  मंदाग्नि रॊग सॆ पीडित हॊता है॥11॥

व्ययस्थॆ परिधौ जातॆ गुरुनिन्दापरायणः। दुःखी क्रॊधाधिकश्चैव व्ययाधिक्यं च जायतॆ॥12॥ बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ गुरु की निंदा करनॆ वाला, दुःखी, अत्यंत क्रॊधी और  अधिक व्यय करनॆ वाला हॊता है॥12॥

" इति परिधिफलम॥

अथ चापफलम धनधान्यहिरण्याढ्यॊ कृतज्ञः सम्मत; सताम। सर्वदॊषपरित्यक्तॆश्चापॆ तनुगतॆ नरः॥1॥ यदि चापलग्न मॆं हॊ तॊ जातक धन-धान्य सॆ पूर्ण, सज्जनॊं कॆ अनुकूल, कृतज्ञ, सभी दॊषॊं सॆ रहित हॊता है॥1॥।

 प्रियंवदः प्रगल्भाढ्यॊ विनीतॊ विद्ययाधिकः। . - धनस्थॆ चापसम्प्राप्तॆ रूपवान धर्मतत्परः॥2॥


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ प्रिय बॊलनॆ वाला, प्रगल्भ, धनी, विनीत विद्वान, सुन्दर और  धार्मिक हॊता है॥2॥ ।... कृपणॊऽतिकलाभिज्ञश्चौर्यकर्मरतः सदा। । सहजॆ धनुषि प्राप्तॆ हीनाङ्गॊ मत्तसौहदः॥3॥

सुखी गॊधनधान्यादिराजसन्मानपूजितः॥ ‘धनुषि सुखसंस्थॆ तु नीरॊगॊ न तु जायतॆ ॥4॥ तीसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ कृपण, कला कॊ जाननॆ वाला, हमॆशा चॊरी करनॆ मॆं आसक्त, अंग सॆ हीन और  मतवालॆ साथियॊं सॆ युक्त हॊता है॥3॥ चौथॆ भाव मॆं हॊ तॊ सुखी, गौ, धन-धान्य सॆ पूर्ण, राजसम्मानयुक्त और  नीरॊग हॊता है॥4॥ । रुचिमान दीर्घदर्शी च दॆवभक्तः प्रियंवदः। । चापॆ पञ्चमभॆ जातॊ विवृद्धः सर्वकर्मसु ॥5॥

। पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ कांतिमान, दीर्घदर्शी, दॆवभक्त, प्रिय बॊलनॆ वाला और  सभी कामॊं मॆं वृद्धि करनॆ वाला हॊता है॥5॥।

शत्रुहन्ताऽतिधूर्तश्च सुखी प्रतिरुचिः शुचिः॥ अरिस्थलगतॆ चापॆ सर्वकर्मसमृद्धिभाक ॥6॥

छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ शत्रु का नाश करनॆ वाला, अत्यंत मूर्ख, प्रॆम करनॆ ॥ . . वाला, सुखी, पवित्र और  सभी कामॊं मॆं समृद्धि कॊ प्राप्त करनॆ वाला हॊता

।.. . है॥6॥...

है॥6॥ । ईश्वरॊ गुणसम्पूर्णः शास्त्रविद्धार्मिकः प्रियः।

चापॆ सप्तमभावस्थॆ भवतीति न संशयः॥7॥ । यदि चाप सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक ईश्वर-सदृश गुणॊं सॆ पूर्ण, ।

शास्त्र कॊ जाननॆ वाला, धार्मिक और  प्रियभाषी हॊता है॥7॥। ... परकर्मरतः क्रूरः परदारपरायणः। . .

अष्टमस्थानगॆ चांपॆ करॊति विफलान्तिकः॥8॥

आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ परकर्म मॆं आसक्त, क्रूर, परस्त्रीगामी और  अंतिम समय मॆं अधिक कष्ट भॊगनॆ वाला हॊता है॥8॥

। तपस्वी व्रतचर्यासु निरत विद्ययाधिकः। । ’ धर्मस्थॆ यदि चापॆ च मानज्ञॊ लॊकविश्रुतः॥9॥

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अथ शिखिफलम नवॆं भाव मॆं हॊ तॊ मानी, लॊक मॆं प्रसिद्ध, तपस्वी, व्रतादि करनॆ मॆं आसक्त, विद्वान हॊता है॥9॥

बहुपुत्रधनैश्वर्यॊ गॊमहिष्यादिभाक भवॆत। कर्मस्थॆ चायंसंयुक्तॆ जायतॆ लॊकविश्रुतः॥10॥ दशम भाव मॆं हॊ तॊ बहुपुत्र, धन, ऐश्वर्य, गौ, भैंस सॆ युक्त और  लॊकप्रसिद्ध हॊता है॥10॥।

लाभगॆ चापसम्प्राप्तॆ लाभयुक्तॊ भवॆन्नरः। नीरॊगॊ दृढकर्माग्निर्मन्त्रस्त्रीपरमार्थवित ॥11॥ ग्यारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ लाभ सॆ युक्त, नीरॊग, क्रॊधी, मंत्र, स्त्री और  परमास्त्र कॊ जाननॆ वाला हॊता है॥11॥

खलॊऽतिमानी दुर्बुद्धिर्निर्लज्जॊ व्ययसंस्थितः। चापॆ परस्त्रीसंयुक्तॊ जायतॆ निर्धनः सदा ॥12॥ बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ दुष्ट, अभिमानी, दुर्बुद्धि, निर्लज्ज, परस्त्री युक्त और  निर्धन हॊता है॥12॥

। इति चापफलम। ।

। अथ शिखिफलम कुशलः सर्वविद्यासु सुखी वानिपुणः पुमान। मूर्तिस्थॆ शिखिसम्प्राप्तॆ सर्वकामान्चितॊ भवॆत॥1॥। यदि लग्न मॆं शिखि (कॆतु) हॊ तॊ सभी विद्या‌ऒं मॆं निपुण, सुखी, वाक्चातुर्य, प्रवीण और  सभी कार्यॊं मॆं चतुर हॊता है॥1॥

वक्ता प्रियंवदः कान्तॊ धनस्थानगतॆ शिखी। काव्यकृत्पण्डितॊ मानी विनीतॊ वाहनान्वितः॥2॥ दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ वक्ता, प्रिय बॊलनॆ वाला, सुन्दर, कविता करनॆ वाला, मानी, नम्र और  वाहन युक्त हॊता है॥2॥

कदर्यः क्रूरकर्मा च कुशाङ्गॊ धनवर्जितः। शिखिनि सहजस्थॆ तु तीव्ररॊगी प्रजायतॆ॥3॥ तीसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ कृपण, क्रूर कर्म करनॆ वाला, कृश शरीर वाला, धनहीन और  कठिन रॊगवाला हॊता है ॥3॥

3

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ळॆघ्घॆश

3 . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । रूपवान गुणसम्पन्नः सात्त्विकॊ विश्रुतिप्रियः।

सुखस्थॆ तुशिखीजातॆ सदा भवति सौख्यभाक ॥4॥ चौथॆ भाव मॆं हॊ तॊ रूपवान, गुण सॆ युक्त, सात्त्विक, वॆद कॊ जाननॆ वाला और  सदा सुखी हॊता है॥4॥

सुखी भॊगी कलाविच्च पञ्चमस्थानगः शिखी। । युक्तिज्ञॊ मतिमान वाग्मी गुरुभक्तिसमन्वितः ॥5॥

पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ युक्ति कॊ जाननॆ वाला, वक्ता, चतुर, गुरुभक्ति युक्त, सुखी, भॊगी और  कला कॊ जाननॆ वाला हॊता है॥5॥

मातृपक्षक्षयकरः रिपुहा बहुबान्धवः। । रिपुस्थानॆ शिखिप्राप्तॆ शूरः कान्तॊ विचक्षणः॥6॥

छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ मातृपक्ष (माया आदि) कॊ नाश करनॆ वाला, शत्रु कॊ नाश करनॆ वाला, बहु बांधवॊं वाला, शूरवीर, सुन्दर और  विचक्षण हॊता है॥6॥

। रक्तपीडाभिरतः कामी भॊगसमन्वितः।

। शिखी तु सप्तमस्थानॆ वॆश्यास्तु कृतसौहृदः॥7॥

यदि शिखी सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ रक्तपीडा सॆ युक्त, कामी, भॊगयुक्त, वॆश्या सॆ मित्रता करनॆ वाला हॊता है॥7॥।

नीचकर्मरतः पापॊ निर्लज्जॊ निन्दकः सदा। मृत्युस्थानॆ शिखिप्राप्तॆ गतस्त्र्यपरपक्षकः॥8॥

आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ नीचकर्म मॆं आसक्त, पापी, निर्लज्ज, निंदा करनॆ वाला, स्त्रीहीन, शत्रुपक्ष सॆ युक्त हॊता है॥8॥। लिङ्गधारी प्रसन्नात्मा सर्वभूतहितॆ रतः।

धर्मभॆ शिखिनि प्राप्तॆ धर्मकार्यॆषु कॊविदः॥9॥

नवम भाव मॆं हॊ तॊ चिह्नधारी (तिलक-विशॆष), प्रसन्न आत्मा, सभी . प्राणियॊं कॆ हित करनॆ मॆं आसक्त, धार्मिक कार्यॊं मॆं पटु हॊता है॥9॥

सुखसौभाग्यसम्पन्नः कामिनीनां च वल्लभः। दाता द्विजसमायुक्तः कर्मस्थॆशिखिनी भवॆत॥10॥ दशम स्थान मॆं हॊ तॊ सुख-सौभाग्य सॆ संपन्न, स्त्रियॊं कॊ प्यारा, दाता, ब्राह्मणॊं सॆ आवृत हॊता है॥10॥


अथ गुलिकफलम नित्यलाभः सुधर्मी च लाभॆ शिखिनि पूज्यतॆ ॥ धनाढ्यः सुभगः शूरः सुयज्ञश्चातिकॊविदः॥ ॥11॥अ ऎकादश भाव मॆं हॊ तॊ नित्य लाभ सॆ युक्त, धर्मात्म्मा, यी, सुन्दर, शूरवीर, यशस्वी और  पंडित हॊता है॥11॥

पापकर्मरतः शूरः श्रद्धाहीनॊऽघृणॊ न्वरः। परदाररतॊ रौद्रः शिखिनि व्ययगॆ सति ॥ ॥12॥ ॥ बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ पापकर्म मॆं आसक्त, शूर, ऋद्धाह्णी, झिज्जा , परस्त्रीगामी और  भयंकर हॊता है॥12॥

। इति शिखिफलम।

अथ गुलिकफलम। रॊगार्त्तः सततं कामी पापात्माधिगतः वाळः॥ मूत्तिस्थॆ गुलिकॆ मन्दा खलभावॊऽतिदुखितः । ॥॥ यदि गुलिक लग्न मॆं हॊ तॊ जातक निरंतर रॊग सॆ पीडिता, मामी, पापात्मा, मूर्ख, दुष्ट स्वभाव और  अत्यंत दु:खी हॊता है॥ ॥ ॥ ॥

विकृतॊ दुःखितः क्षुद्रॊ व्यसनी च गात्रपाः ॥ । धनंस्थॆ गुलिकॆ जातॊ निःस्वॊ भवति मानवः॥ ॥2 ॥

दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ विकृत, दुःखी, क्षुद्र, दुर्व्यसनी, नियाच्या और  नाम हॊता है॥2॥

चार्वङ्गॊ ग्रामपः पुण्यसंयुक्तः सज्जनप्रियः ॥

गुलिकॆ तृतीयगॆ जातॊ जायतॆ राजपूजित्वः ॥3॥ ॥ । तीसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ सुन्दर, शरीर, ग्राम्याप्पति, मुख्यमझान, सज्जनॊं का प्रिय और  राजपूजित हॊता है॥3॥

रॊगी सुखपरित्यक्तः सदा भवति पापकृत ॥ यमात्मजॆ सुखस्थॆ तु वातपित्ताधिकॊ भवॆत ॥ ॥4॥अ चौथॆ भाव मॆं हॊ तॊ रॊगी, सुख सॆ हीन, सदा ऎमाष्प करन्नै ब्यारल्ला और  अधिक वायु-पित्त वाला हॊता है॥4॥

विस्तुतिर्विधनॊऽल्पायुद्वॆषी क्षुद्रॊ नपुंसक्कः॥ । सुतॆ सगुलिकॊ जातॊ स्त्रीजितॊनास्तिकॊ आवॆत ॥ ॥ 3 ॥

पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ निन्दा करनॆ वाला, निर्धन, आल्मायु, द्वॆष्मी, क्षुद, नपुंसक, स्त्री सॆ जीता हु‌आ और  नपुंसक हॊता है॥ ॥85 ॥ ॥

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डॊ‌ऎश

- बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम वीतशत्रु सुपुष्टांगॊ रिपुस्थानॆ यमात्मजॆ। सुदीप्तःसम्मतःस्त्रीणां सॊत्साहः सुदृढॊ हितः॥6॥ छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ शत्रु सॆ रहित, पुष्ट शरीर, तॆजस्वी, स्त्रीप्रिय, उत्साही और  दृढ विचार का हितकारी हॊता है॥6॥

स्त्रीजितः पापकृज्जारः कृशाङ्गॊ गतसौहृदः। जीवितः स्त्रीधनॆनैव सप्तमस्थॆ रवॆः सुतॆ ॥6॥

यदि गुलिक सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक स्त्री सॆ पराजित, पाप करनॆ ’ वाला, दुर्बल शरीरवाला, मित्रहीन, स्त्रीधन सॆ जीविका वाला हॊता है॥7॥

क्षुधालुदुःखितः क्रूरस्तीक्ष्णशॆषॊऽतिनिघृणः।

रन्त्रॆ प्राणहरॊ नि:स्वॊ जायतॆ गुणवर्जितः॥8॥ -: आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ भूख सॆ पीडित, दुःखी, क्रूर, अधिक क्रॊधी,

अत्यंत निर्लज्ज, दरिद्र और  गुण सॆ हीन हॊता है॥8॥

बहुक्लॆशी कूशतनुर्दष्टकर्मातिनिघृणः॥

मन्दॆ धर्मस्थितॆ मन्दः पिशुनॊ बहिरकृतिः॥9॥ । नवम भाव मॆं हॊ तॊ अत्यंत दुःखी, दुर्बल शरीर, दुष्टकर्म कॊ करनॆ वाला, अत्यंत निर्लज्ज, मंदप्रकृति, कृपण और  चुगलखॊर हॊता है॥9॥

पुत्रान्वितः सुखी भॊक्ता दॆवाग्न्यर्चनवत्सलः।

दशमॆ गुलिकॆ जातॊ यॊगधर्माश्रितः सुखी॥10॥। . दशम भाव मॆं हॊ तॊ पुत्र सॆ युक्त, सुखी, सुख भॊगनॆ वाला, दॆवता

ऎवं अग्नि का उपासक, यॊगसाधन मॆं संलग्न हॊता है॥10॥ . सुखी भॊगी प्रजाध्यक्षॊ बन्धूनां च हितॆ रतः।

लाभॆ यमानुजॊ जातॊ नीचांशः सार्वभौमकः॥11॥ ऎकादश भाव मॆं हॊ तॊ सुखी, भॊगी, प्रजा का अध्यक्ष, बंधु‌ऒं कॆ हित मॆं आसक्त, नीचॆ अंग वाला और  सार्वभॊम कॆ समान रहनॆ वाला हॊता है॥11॥

। नीचकर्माश्रितः पापॊ हीनाङ्गॊ दुर्भगॊऽलसः॥

व्ययभॆ गुलिकॆ जातॊ नीचॆषु कुरुतॆ रतिम ॥12॥ : बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ नीच कर्म मॆं आसक्त, पापी, अंग सॆ हीन,

दरिद्र, आलसी और  नीचॊं सॆ प्रॆम करनॆ वाला हॊता है॥12॥।

इति गुलिकफलम॥


अथ प्राणपदफलम

। . अथ प्राणपदफलम। - मूकॊन्मत्तॊ जडाङ्गस्तुहीनाङ्गॊ दुःखितः कृशः। । लग्नॆ प्राणपदॆ क्षीणॊ रॊगी भवति मानवः॥1॥

यदि प्राणपद लग्न मॆं हॊ तॊ राँगा, उन्मत्त, स्तब्ध, अंगहीन, दुःखी, कृश, रॊगी और  दुर्बल शरीर का हॊता है॥1॥

बहुधान्यॊ बहुधनॊ बहुभृत्यॊ बहुप्रजः। धनस्थानस्थितॆ प्राणॆ सुभगॊ जायतॆ नरः॥2॥ दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ धन-धान्य सॆ पूर्ण, अनॆक भृत्य ऎवं अनॆक संतति वाला और  भाग्यशाली पुरुष हॊता है॥2॥

हिंस्रॊ गर्वसमायुक्तॊ निष्ठुरॊऽतिमलिम्लुचॆ। तृतीयगॆ प्राणपदॆ गुरु भक्तिविवर्जितः॥3॥ तीसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ हिंसा करनॆ वाला, गर्व सॆ युक्त, निष्ठुर, अत्यंत मलिन और  गुरुभक्तिहीन हॊता है॥3॥

सुखस्थॆ तु सुखी कान्तः सुहृद्रामासु वल्लभः।. । गुरौ परायणः शीलः प्राणॆ वै सत्यतत्परः॥4॥ । चौथॆ भाव मॆं हॊ तॊ सुखी, सुन्दर, मित्र ऎवं स्त्री का प्रिय, गुरुभक्त, सुशील और  सत्यवक्ता हॊता है॥4॥

सुखभाक च क्रियॊपॆतस्त्वषचारदयान्वितः। । पञ्चमस्थॆ प्राणपदॆ सर्वकर्मसमन्वितः । ।5॥ । पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ सुख भॊगनॆ वाला, क्रिया सॆ युक्त, दॆयायुक्त और  

सभी कामॊं मॆं अनुरक्त हॊता है॥5॥।

बन्धुशत्रुवशस्तीक्ष्णॊ मन्दाग्निर्निर्दयः खलः। षष्ठॆ प्राणॊऽल्परॊगश्च वित्तपॊऽल्पायुरॆव च ॥6॥ छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ बन्धु ऎवं शत्रु कॆ वशं मॆं रहनॆ वाला, तीक्ष्ण स्वभाव, मंदाग्नि सॆ युक्त, निर्दयी, दुष्ट, धनी और  अल्पायु हॊता है॥6॥।

ईष्र्यालुः सततं कामी तीव्ररौद्रवपुर्नरः। । सप्तमस्थॆ प्राणपदॆ दुराराध्यः कुबुद्धिमान ॥7॥

यदि सातवॆं भाव मॆं प्राणपद हॊ तॊ ईर्ष्यालु, कामी, भयानक शरीर, दुष्ट स्वभाव और  मूर्ख हॊता है॥7॥।


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टॆळ्ळ्ट

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ग्यासमन्त्राफिवाझच प्राणपदॆऽष्टमॆ सति। पीडियः पार्थिवैदुखैभृत्यबन्धुसुतॊद्भवैः॥8॥

साठच मावा मॆं झौ तलै रॊग सॆ पीडित, राजा, रॊग, बन्धु, पुत्र और  ‘शत्रु सॆ पढिता झौता है॥8॥

पुसवान धनसम्पन्नः सुभगः प्रियदर्शनः।

प्रमाणॆ धर्मस्थितॆ मृत्यः सदाऽदुष्टॊ विचक्षणः॥9॥ । नावाण्या आवा मॆं झौ तौ फुत्रवान, धनी, भाग्यवान, दर्शनीय, नौकर सॆ युक्त, । प~ऒल्लित झौता है॥ ॥ 0 ॥

बीवान मतिमान दक्षॊ नृपकार्यॆषु कॊविदः। दशमॆ बै प्राणपदॆ दॆवार्चनपरायणः॥10॥

लाम्म झावा झै ह्यौ त्यॊ बलवान, बुद्धिमान, राजकार्य मॆं चतुर, पंडित, छैचाणूजन्म मॆं सल्लम्स हॊता है॥10॥ . विख्यातॊगुणवान्प्राज्ञॊ भॊगी धनसमन्वितः॥

। त्यस्थानस्थितॆ प्राणॆगौराङ्गॊ मानवत्सलः॥11॥

ऎमाण झाव मॆं है तॊ प्रसिद्ध, गुणी, बुद्धिमान, भॊगी, धनी, मौसकर्ण, म्मा-सी हॊता है॥11॥

शुदॊ दुष्टस्तु हीनाङ्गॊ विद्वॆषी द्विजबन्धुषु । । व्याव प्राण नॆत्ररॊगी काणॊ वा जायतॆ नरः॥12॥ - बाप्पा मावा मॆं हॊ तॊ क्षुद्र, दुष्ट, हीनांग, ब्राह्मण-बंधु‌ऒं का द्वॆषी,

रॊमी याच्या बक्कान्सा हॊता है॥12॥

इति प्राणपदफलम॥ झंत मासाश्शारायण पूर्वखण्डॆऽप्रकाशग्रहफलाध्यायः षष्ठः ॥6॥

अथाऽर्गलाध्यायः अथातः सम्प्रवक्ष्यामि अर्गलार्गलमुत्तमम।

यस्य विज्ञानमात्रॆण ग्रहाणां च फलं वदॆत॥1॥ । उमा मैं अलावा यॊग कॆ लक्षण और  फल कॊ कह रहा हूँ, जिसकॆ ज्ञान ॥

सॆ ग्रा‌ऒं कॆ पल्लॊं का ज्ञान हॊता है॥1॥ । चतुर्थं च धनॆ लाभॆ विद्यमानग्रहार्गला।

कस्य दृष्टवादिकं ज्ञॆयं निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥2॥

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ऒर

अथाऽर्गलाध्यायः चौथॆ, दूसरॆ और  ऎकादश भाव मॆं ग्रहॊं कॆ हॊनॆ सॆ अर्गला यॊग हॊता है और  उसकी दृष्टि आदि पूर्वॊक्त प्रकार सॆ ही हॊती है॥2॥

ऎकग्रहार्गलाल्पं च द्विग्रहा मध्यमा भवॆत॥ त्रयॆण ग्रहयॊगॆन अर्गला पूर्णमुच्यतॆ॥3॥ वह भी ऎक ग्रह कॆ हॊनॆ सॆ अल्प, दॊ ग्रह कॆ हॊनॆ सॆ मध्यम और  तीन ग्रह कॆ हॊनॆ सॆ पूर्ण अर्गला हॊती है॥3॥

राश्यर्गलापि सा ज्ञॆया ग्रहयुक्ता विशॆषतः। तुर्यवित्तैकादशॆषु यस्य कस्यार्गला भवॆत॥4॥ इसी प्रकार किसी राशि सॆ उक्त स्थानॊं मॆं राशि की अर्गला हॊती। है। चौथॆ, दूसरॆ और  ऎकादश भाव की अर्गला जिस किसी की हॊती है॥4॥

द्विविधा सार्गला विप्र ब्रह्मणा चॊदितं पुरा॥

शुभकृत पापकृच्चैव तन्वादीनां विचिन्तयॆत॥5॥ वह दॊ प्रकार की हॊती है। शुभग्रह और  पापग्रह कृत हॊती है ॥5॥ भिन्नार्गलां पुनर्वक्ष्यॆ चतुर्थार्गलपापयुक। तृतीयॆ तु यदा विप्र बहुपापयुतॆ सति॥6॥ ऎक भिन्न अर्गला हॊती है जॊ कि चौथी हॊती है। वह तीसरॆ भाव मॆं अधिक पापग्रहॊं कॆ हॊनॆ सॆ हॊती है॥6॥

बहुपापा तृतीयस्था पापषड्वर्गयॊगतः। पापार्जितः पापदृष्ट्या संयुक्तार्गलकारकः॥7॥ तृतीयॆ शुभसम्बन्धॆ शुभक्षॆत्रॆ शुभान्वितॆ । शुभवर्गॆ च षड्वर्गॆ विज्ञॆयं तुर्यमर्गला॥8॥ तीसरॆ भाव मॆं शुभग्रह का संबन्ध हॊ, शुभग्रह की राशि हॊ, शुभग्रह दॆखता हॊ, शुभग्रह का षड्वर्ग हॊ तॊ चौथा अर्गला यॊग हॊता है॥7-8॥

तुर्यवित्तैकादशॆ च पापयुवा शुभॊऽपि वा। उभयक्षॆत्रसम्बन्धॆ अर्गलां कारयॆद्विज॥9॥ चौथॆ, दूसरॆ, ऎकादश भाव मॆं पापग्रह युत हॊ वा शुभग्रह हॊ, दॊनॊं कॆ संबंध सॆ अर्गला यॊग हॊता है॥9॥

तृतीयॆ बहुपापस्थॆ बहुयुक्तार्गला भवॆत। निर्बाधिका तु सा ज्ञॆया निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥10॥


फॊप

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम तीसरॆ भाव मॆं बहुत सॆ पापग्रह हॊं तॊ बहुयुक्त अर्गली हॊती है और  इसॆ निर्बाध अर्गला कहतॆ हैं॥10॥

ऎकॆन द्वितयॆनापि अर्गला या भवॆद्विज। ।, सार्गला नैव विज्ञॆया बहुपापयुतिं विना॥11॥ । ’ऎक ग्रह या दॊ ग्रह सॆ जॊ अर्गला हॊती है वह फलदं नहीं हॊती है॥11॥

चतुर्थॆ धनलाभस्था शुभपापकृतार्गला। तस्यापि बाधका खॆटा व्यॊमारिष्फतृतीयगाः॥12॥

चौथॆ, दूसरॆ, ऎकादश मॆं शुभग्रह ऎवं पापग्रह सॆ अर्गला यॊग हॊता है, . किन्तु दशम, द्वादश और  तीसरा स्थान उसका बाधक हॊता है॥12॥ .. क्रमॆण ज्ञायतॆ विप्र चतुर्थं व्यॊमबाधकम।

। धनॆ च व्ययभावं च भवॆज्ज्ञॆयं तृतीयकम॥13॥

चौथॆ का दशम, दूसरॆ का द्वादश और  ऎकादश का तीसरा स्थान बाधक हॊता है॥13॥

 निर्बाधका च फलदा न दातव्या साधका। चिन्तनीयं प्रयत्नॆन तत्फलं द्विजपुगवॆ ॥14॥

अर्थात बाधक स्थानॊं मॆं ग्रहॊं कॆ हॊनॆ सॆ अर्गला यॊग नहीं हॊता है। निर्बाध अर्गला फलदायक और  सबाधक अर्गला निष्फल हॊती है॥14॥

अर्गलाया बाधकानां बाधकान कथयॆऽधुना॥

नूनं सा निर्बला खॆटा ज्ञायतॆ गणकैस्तदा ॥15॥ , अर्गला यॊग सॆ बाधक ग्रहॊं कॆ बाधकॊं कॊ मैं कह रहा हूँ, निश्चय ही वह निर्बल ग्रह हॊता है॥15॥।

वित्तलाभचतुर्थानां यः पश्यति शुभार्गलाम। व्ययभ्रातृनभस्थाश्चॆद्विपरीतार्गला द्विज॥16॥ दूसरॆ, ग्यारहवॆं ऒर चौथॆ भाव कॊ दॆखता हॊ तॊ शुभ अर्गला हॊती है। किन्तु 12वॆं, 3रॆ और  10वॆं स्थान मॆं स्थित ग्रह दॆखतॆ हॊं तॊ विपरीत अर्गला हॊती है॥16॥

पुनर्यॊगार्गलं ज्ञॆयं त्रिकॊणॆ पूर्ववद्विज । पञ्चमॆ चार्गलास्थानं नवमस्तद्विरॊधकः॥17॥


फॆज़

अथाऽर्गलाध्यायः इसी प्रकार त्रिकॊण (59) अर्गला यॊग हॊता है। 5वॆं भाव मॆं ग्रह. हॊ तॊ अर्गला हॊता है, किन्तु नवम भाव मॆं कॊ‌ई ग्रह हॊ तॊ अर्गला नहीं हॊता है॥17॥ ।

विपरीतॆन कॆतुश्च नवमॆऽर्गलकारकः। पञ्चमस्थस्तद्विरॊधॊ ज्ञायतॆ गणकैद्विज॥18॥ कॆतुग्रह विपरीत यानि 9वॆं भाव मॆं अर्गला यॊगकास्क और  पाँचवॆं भाव मॆं वाचक हॊता है॥18॥

क्रमॆण कॆतुः प्रकरॊत्यर्गलां द्विज॥ । नवमस्थस्तद्विरॊधॊ लग्नार्गलमिदं विदुः॥19॥

है द्विज ! कॆतु ग्रह भी क्रम सॆ अर्गला यॊग करता है। किन्तु नवमस्थ ग्रह उसका विरॊधी हॊता है, इसॆ लग्नार्गल कहतॆ हैं॥19॥

राश्यर्गलं च खॆटानां चिन्तयॆद्विविधार्गलम॥ यस्या यस्या दशा प्राप्ता तस्यां तस्यां फलं भवॆत॥20॥ इसी प्रकार राशियॊं का भी अर्गला यॊग विचार करना चाहि‌ऎ॥20॥

यन्न राशिस्थितः खॆटॆस्तस्य पाकान्तरॆ भवॆत॥ तत्कालॆ च फलं वाच्यं निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥21॥

जॊ-जॊ अर्गलायॊगकारक ग्रह हॊं उनकॆ दशा अन्तर मॆं अर्गला यॊग का फल हॊता है॥21॥।

सारांश यह है कि जिस किसी भाव या ग्रह का विचार किया जाय तॊ। यह दॆखना चाहि‌ऎ कि उस भाव या ग्रह सॆ चौथॆ, दूसरॆ और  ग्यारहवॆं भाव मॆं कॊ‌ई ग्रह हॊ तॊ उस भाव या ग्रह का अर्गला यॊग हॊता है। किन्तु उक्त अर्गला यॊग का भंग भी हॊता है अर्थात राशि का ग्रह सॆ चौथॆ भाव मॆं ग्रह कॆ हॊनॆ सॆ अर्गला हॊता है, यदि राशि की ग्रह सॆ दशमस्थ कॊ‌ई ग्रह न हॊ। इसी दूसरॆ भाव मॆं यॊग हॊता है, किन्तु 12वॆं कॊ‌ई ग्रह न हॊ तथा ग्यारहवॆं भाव मॆं यॊग हॊता है, यदि तीसरॆ भाव मॆं कॊ‌ई ग्रह न हॊ। यदि यॊगकारक ग्रह सॆ बाधक ग्रह निर्बल या संख्या मॆं कम हॊं तॊ अर्गला का प्रतिबंध नहीं हॊता है। इसी प्रकार राशि या ग्रह सॆ तीसरॆ भाव मॆं तीन सॆ अधिक फल ग्रह हॊं तॊ निर्विरॊधी अगली यॊग हॊता है। इसी प्रकार 5वॆं भाव मॆं भी अर्गला यॊग हॊता है, यदि नवम मॆं कॊ‌ई ग्रह न हॊ तॊ। कॆतुग्रह का विपरीत अर्गला यॊग हॊता है अर्थात बाधक स्थान मॆं अर्गला और  यॊगस्थान मॆं प्रतिबंधक हॊता है।


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

अथाऽर्गलाफलम्पदॆ लग्नॆ सप्तमॆ वा निराभासार्गला द्विज। . निर्बन्धा चार्गला तत्र दृष्ट्या भाग्यं भवॆन्नरः॥22॥ पद या लग्न सॆ सातवॆं भाव मॆं निराभासा (निबंध) अर्गला हॊता है। यदि यह अर्गला हॊ तॊ भाग्यवान मनुष्य हॊता है॥22॥

अर्गला प्रतिबन्धंच प्रथमाक्षॆविचिन्तयॆत। धनधान्यपुत्रपशुदाराबन्धुकुलैर्युतः॥23॥ शरीरारॊग्यमैश्वर्यभृत्यवाहनसंयुतः ।

हरभक्तः सुधर्मज्ञॊ दृष्ट्या भाग्यस्य लक्षणम॥24॥ । अर्गला का प्रतिबंध ऎक स्थान मॆं स्थित ग्रह सॆ प्रथम चरण और  . दूसरॆ कॆ चौथॆ चरण सॆ, तीसरॆ और  दूसरॆ चरण सॆ दॆखना चाहि‌ऎ। ऊपर

कहॆ हु‌ऎ प्रथम श्लॊक कॆ अनुसार अर्गला हॊ तॊ मनुष्य धन, धान्य, पुत्र, पशु, स्त्री और  बन्धु-बान्धवॊं सॆ युक्त, नीरॊग शरीर, ऐश्वर्य, नौकर, वाहन और  ऐश्वर्य सॆ युक्त हॊता है॥23-24 ॥

शुभग्रहार्गला विप्र. बहुद्रव्यप्रदायका। । पापॆन स्वल्पवित्तः स्यान्निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥25॥

शुभग्रह की अर्गला बहुत द्रव्य कॊ दॆनॆ वाली हॊती है और  पापग्रह की अर्गला अल्प धन कॊ दॆनॆ वाली हॊती है॥25॥

 उभयार्गला भवॆत्तत्र कदाचिद्धनवान भवॆत।

कदाचिद्वित्तचिन्तातिर्जायतॆ द्विजसत्तम॥26॥। यदि दॊनॊं (शुभ-पाप) सॆ मिश्रित अर्गला हॊ तॊ कदाचित धनी हॊता है। कदाचित धन संबंधी चिंता सॆ कष्ट हॊता है॥26॥।

यत्र जन्मनि सॊऽपि स्याच्छुभदृष्टॆ शुभार्गला॥ तॆन दृष्टॆक्षितॆ लग्नॆ प्रबल्यायॊपकल्यतॆ॥27॥ यदि जन्मकाल मॆं शुभग्रह सॆ दृष्ट शुभ अर्गला हॊ और  उसी शुभग्रह सॆ लग्न युत वा दृष्ट हॊ तॊ लग्न प्रबल हॊती है॥27॥।

यदि पश्यॆद्ग्रहस्तत्र विपरीतार्गलसंस्थितः॥ प्रथमां तु विजानीयाद्विपरीतार्गलां द्विज॥28॥ यदि अर्गला कॆ प्रतिबंधकस्थानीय ग्रह यानि विपरीत अर्गलायॊग कारक ग्रह दॆखतॆ हॊं तॊ विपरीत फल हॊता है॥28॥

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पॊ‌उ

अथ कारकाध्यायः लग्नसप्तमयॊगॆन भाग्ययॊगं विचिन्तयॆत॥ भाग्यप्रबलता ज्ञॆया लग्नसप्तशुभार्गला॥29॥ लग्न और  सप्तम कॆ यॊग सॆ भाग्ययॊग की चिंता करनी चाहि‌ऎ। लग्न सप्तम मॆं शुभ कृत अर्गला हॊ तॊ भाग्य की प्रबलता जाननी चाहि‌ऎ॥29॥।

शुभार्गलॆ स्ववृद्धिः स्यात्पापॆ स्वल्पधनं वदॆत॥ उभयार्गलॆ तु तत्रैव क्वचिद्वृद्धिः क्वचित क्षयम॥30॥ शुभग्रह की अर्गला मॆं धन की वृद्धि और  पापग्रह की अर्गला मॆं अल्पधन की हानि हॊती है॥30॥ ।

तत्तद्राशिदशायां तु अर्गलाफलसिद्धयॆ। शुभॊ वाऽप्यशुभॊ वापि ह्वर्गला फलदायकः॥31॥ उन-उन राशियॊं कॆ अर्गला फल कॊ दॆनॆ वालॆ शुभग्नह शुभफल और  पापग्रह अशुभ फल कॊ दॆनॆ वालॆ हॊतॆ हैं॥31॥।

इति बृहत्पाराशरहॊरायां पूर्वखण्डॆ सुबॊधिन्यां अर्गलाफलकथनं

। नाम सप्तमॊऽध्यायः।

। अथ कारकाध्यायः अथाग्नॆ सम्प्रवक्ष्यामि ग्रहाणां कारकान द्विज।

आत्मादिकारकान सप्त यथावत कथयामि तॆ ॥1॥ हॆ द्विज ! अब मैं ग्रहॊं कॆ आत्मा आदि सात कारकॊं कॊ कहूँगा ॥1॥

रव्यादिशनिपर्यन्ता भवन्ति सप्तकारकाः।

अंशैः समौ ग्रहॊ द्वौ चराह्वन्तान गणयॆद्विज॥2॥ रवि आदि ग्रह सात किसी-किसी कॆ मत सॆ राहु पर्यन्त आठ कारक हॊतॆ हैं। यदि दॊ ग्रहॊं मॆं अंश साम्य हॊ तॊ राहु पर्यंत 8 ग्रहॊं मॆं कारक का विचार करना चाहि‌ऎ॥2॥

रव्यादिपपर्यन्तमंशाधिकग्रंहॊ द्विज।

कारकॆन्द्रॊऽथ स ज्ञॆयॊ आत्माकारक उच्यतॆ ॥3॥ रवि सॆ राहु पर्यंत ग्रहॊं मॆं भी जॊ ग्रह अंश सॆ अधिक हॊ वह आत्मकारक ग्रहॊं का राजा हॊता है॥3॥

आटॆ


टॆ

106 . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

। अंशसाम्यग्रहॊ यत्र कलाधिक्यं च पश्यति।

. कलासाम्यॆ पलाधिक्यमात्माकारक ईर्यतॆ ॥4॥

जहाँ ग्रहॊं कॆ अंश तुल्य हॊ वहाँ कला सॆ अधिकता लॆना चाहि‌ऎ और  कला समान हॊ तॊ विकला सॆ जॊ अधिक हॊ वही आत्मकारक हॊता है॥4॥

तत्र राशिकलाधिक्यॆ नैव ग्राह्यः प्रधानकः॥ अंशाधिक्यॆ कारकः स्यादल्पभागॊऽन्तकारकः॥5॥ राशि और  कला सॆ अधिक हॊ तॊ वह आत्मकारक नहीं हॊता है। जिसका अंश अधिक हॊ वही आत्मकारक हॊता है, अल्प अंश वाला

अंतिमकारक हॊता है॥5॥

मध्यांशॊ मध्यखॆटः स्यादुपखॆटः स ऎव हि। । अधॊऽधः कारका ज्ञॆयाश्चराणि सप्तकारकाः॥6॥ . दॊनॊं कॆ मध्य अंश वालॆ अन्य कारक हॊतॆ हैं। क्रम सॆ कारक हॊतॆ हैं उसी कॊ उपकारक कहतॆ हैं॥6॥

। तॆषां मध्यॆ प्रधानं तु आत्मकारक उच्यतॆ।

जातकराट स विज्ञॆयः सर्वॆषां मुख्यकारकः॥7॥ . इन सभी मॆं आत्मकारक प्रधान जातक का स्वामी हॊता है, इसी कॊ मुख्यकारक कहतॆ हैं॥7॥

। यथा भूमौ प्रसिद्धॊऽस्ति नराणां क्षितिपालकः। । सर्ववार्ताधिकारी च बन्धकृन्मॊक्षकृत्तथा॥8॥

जिस प्रकार पृथ्वी पर मनुष्यॊं मॆं राजा बंधन, मॊक्ष आदि सभी बातॊं । . का अधिकारी हॊता है॥8॥

पुत्रामात्यप्रजानां तु तत्तद्दॊषगुणैस्तथा। बन्धकृमॊक्षकृद्विप्र तथा सम्मानकारकः॥9॥ । वही पुत्र, मंत्री और  प्रजा का उनकॆ गुण-दॊष कॆ अनुसार बंधन, मॊक्ष ॥ तथा सम्मान आदि करनॆ वाला हॊता है। उसी प्रकार कारकराज कॆ वश सॆ अन्य कारक फल दॆनॆ वालॆ हॊतॆ हैं॥9॥

तथैव कारकॊ राजा ग्रहाणामात्मकारकः।

आत्मॆत्यादि फलं दत्तॆ चान्यथा स्थापयॆद्विज॥10॥


90

अथ कारकाध्यायः जिस प्रकार राजा कॆ क्रॊधित हॊनॆ सॆ सभी मंत्री आदि अपनॆ मन का

 कार्य करनॆ मॆं असमर्थ हॊतॆ हैं॥10॥

यथा राजाज्ञया विप्र पुत्रामात्यादयॊऽपि च। समर्था लॊककार्यॆषु तथैवान्यॊन्यकारकः॥11॥ कारकराजवश्यॆन फलदातान्यकारकः। यथा राजनि क्रुद्धॆ च सर्वॆऽमात्यादयॊ द्विज॥12॥ स्वजनानां कार्यकर्तुमसमर्था भवन्ति हि। स्निग्धॆ भूपॆ यमात्यादिः स्वशत्रूणां द्विजॊत्तम॥13॥

अकार्यं कर्तुं न शक्तस्तथैवान्यॊपकारकः॥ . आत्मकारकवश्यॆन ह्यमात्यादि फलं ददुः॥14॥

यदि राजा प्रसन्न हॊतॆ हैं तॊ मंत्री आदि अपनॆ शत्रु का भी अहित नहीं करतॆ हैं, उसी प्रकार अन्य कारक भी आत्मकारक कॆ वश मॆं हॊतॆ हैं॥14॥

आत्मकारकखॆटॆन न्यूनभागॊ हि यदुग्रहः। अमात्यसंज्ञा तस्यैव ज्ञायतॆ द्विजसत्तम॥15॥ आत्मकारक ग्रह सॆ न्यून अंशवाला ग्रह अमात्यकारक हॊता है॥15॥

अमात्यन्यूनॊ भ्राता च भ्रातृन्यूनं च मातृकम। मातृकारकखॆटॆन न्यूनभागॊ हि यॊ ग्रहः॥16॥

इससॆ न्यून अंश वाला ग्रह भ्राताकारक, इससॆ न्यून अंश वाला . मातृकारक, इससॆ न्यून पुत्रकारक॥16॥

सपुत्रकारकॊ ज्ञॆयस्तद्धीनॊ ज्ञातिकारकः। । ज्ञातिकारकखॆटॆन हीनभागॊ हि यॊ ग्रहः॥17॥। । इससॆ न्यून अंश वाला ग्रह शांति (जाति) कारक, इससॆ न्यून अंश वाला ग्रह ॥17॥

 दारकारकविज्ञॆयॊ निर्विशकं द्विजॊत्तम। । चराच कारकाः सप्त ब्रह्मणा चॊदितः पुरा॥18॥

स्त्रीकारक हॊता है। यही सात चरकारक हॊतॆ हैं॥18॥ . .

अंशसाम्यौ ग्रहौ द्वौ च जायॆतां यस्य ज़न्मनि। स्वकारकं विना विप्र लुप्यति चात्मकारकः॥19॥॥

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10


बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम (यदि ग्रहॊं कॆ अंश तुल्य हॊं तॊ दॊनॊं ही ऎक कारक हॊतॆ हैं॥19॥

तत्कारकॊ लुप्यति चॆदन्यत्रैवास्ति कारकम।

कारकाणां स्थिराणां च मध्यॆ सञ्चितयॆद्विज ॥20॥ । वहाँ दॊनॊं का नाश हॊ जाता है, फिर स्थिरकारक सॆ ही फल

कॊ दॆखना चाहि‌ऎ॥20॥।

। अथ यॊगकारकमाह—?अधुना सम्प्रवक्ष्यामि खॆटान कारकसंज्ञकान। यस्य जन्मनि भावानां यथास्थानॆ च वै द्विज ॥21॥ अब मैं यॊग करनॆ वालॆ कारक ग्रहॊं कॊ कह रहा हूँ॥21॥

स्वर्सॆ तुङ्गॆ च मित्र कण्टकॆ संस्थिता ग्रहाः। अन्यॊन्यकारका विप्र कर्मगास्तु विशॆषतः॥22॥ जन्म समय ग्रह अपनी उच्चराशि, अपनी राशि वा अपनॆ मित्र की राशि मॆं हॊकर परस्पर कॆन्द्र मॆं हॊं तॊ परस्पर कारक (भाग्यॊदय) करनॆ वालॆ हॊतॆ हैं। इसमॆं भी दशम स्थान मॆं विशॆष यॊगकारक हॊतॆ हैं॥22॥

लग्नॆ सुखॆ तथा कामॆ ग्रहभाववशॆन च। भवन्ति कारका विप्र विशॆषॆण च खॆगताः॥23॥ लग्न चतुर्थ, सप्तम, दशम मॆं कारक हॊतॆ हैं, विशॆषतः दशम मॆं कारक हॊता है॥23॥।

स्वमित्रच्चगॊ हॆतुरन्यॊन्यं यदि कॆन्द्रगः। । ससुहृद्गणसम्पन्नः सॊऽपि कारक ऎवं वै॥24॥। । यदि ग्रह अपनॆ मित्र, राशि, उच्च मॆं हॊकर परस्पर कॆन्द्र मॆं हॊं तॊ

वॆ भी परस्पर कारक हॊतॆ हैं॥24 ॥

नीचान्वयॆ यस्य जन्म बभूव द्विजसत्तम। । पतन्ति कारका लग्नॆ प्रधानत्वं च स आप्नुयात॥25॥

नीच वंश मॆं उत्पन्न हॊ और  यॊगकारक ग्रहॊं सॆ यॊग हॊता हॊ तॊ वह । अपनॆ कुल, मॆं प्रधान हॊता है॥25॥

राज्ञां कुलॆ समुत्पन्नॊ राजा भवति निश्चितम। ऎवं कुलानुसारॆण कारकाणां फलं भवॆत॥26॥


ऎश

अथ कारकाध्यायः । और  राजकुल मॆं उत्पन्न हॊ और  यॊग हॊता हॊ तॊ अक्स्य राजा ह्यौता है। इस प्रकार कुल कॆ अनुसार कारकॊं का फूला हॊता है॥॥26॥॥

अथ स्थिरकारकमाह—?अधुना सम्प्रवक्ष्यामि कारकाणि स्थिराणि च। । सूर्यादीनां ग्रहाणां च वीर्यवान्कारकॊ भवॆत॥27॥ अब मैं स्थिर कारकॊं कॊ कह रहा हूँ। सूर्य आदि ग्रहॊं कॆ मल्लाज्मल्ला कॆ अनुसार यॆ कारक हॊतॆ हैं॥27॥

बलवान जायतॆ विप्र जन्मनि रविशुक्रयॊः। स पितृकारकॊ ज्ञॆयॊ निर्विशकं द्विजॊत्तम। ॥28॥॥ जन्मकाल मॆं रवि और  शुक्र मॆं जॊ बलवान हॊ वह फितृकारक हॊता है॥28॥

चन्द्रारयॊश्च बलवान मातृकारक उच्यतॆ ।

भौमतस्तु विशॆषॆण भगिनीदारभ्रातृकौ॥29॥ । चंद्रमा और  भौम मॆं जॊ बलवान हॊ वह भावकार हॊता है। किशॊझताः भौम सॆ बहिन और  साला (स्त्री कॆ भा‌ई) का विचार हॊता है॥ ॥29॥ ॥

बुधान्मातुलमाख्यातॊ मातृतुल्यानपि दिन। गुरुणा चात्र विज्ञॆया पुत्रस्वामिपितामहाः॥3॥ बुध सॆ मामा और  मातृसदृश (मौसी) आदि का विचार हॊता है। गुरू सॆ पुत्र और  पितामह आदि का विचार हॊता है॥।30॥ ॥ . स्वभार्यामातृपितरौ तथा मातामही द्विज।

भृगुद्वारा विजानीयादॆतॆषां शुक्रकारकाः। ॥31॥॥ सास-ससुर और  नानी का विचार शुक्र सॆ हॊता है। याहॊ का कारक हॊता है॥31॥

सूर्याच्च पुण्यभॆ तात इन्दॊर्माता चतुर्यतः । । कुजात्तृतीयतॊ भ्राता मातुलॊ रिपुभाधात ॥ ॥32॥॥ सूर्य सॆ 9वॆं स्थान मॆं पिता का, चन्द्रमा सॆ चातुर्थं स्ट्यान्स पार भाजा का, भौम सॆ तीसरॆ भा‌ई का, बुध सॆ छठॆ माम्मा वा ॥ ॥32 ॥ ॥ ।

दॆवॆज्यात्पञ्चमॆ पुत्रॊ दैत्यॆज्याचूनभॆ स्त्रियः॥ मन्दादष्टमतॊ मृत्युस्तातादीनां विचिन्तयॆत ॥ ॥33॥॥


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’ऎ :

39

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । गुरु सॆ पाँचवॆं पुत्र का, शुक्र सॆ सातवॆं स्त्री का और  शनि सॆ आठवॆं

भाव मॆं आयु का विचार करना चाहि‌ऎ॥33॥

। अथ भावकारकमाह—?अधुना सम्प्रवक्ष्यामि विशॆषं भावकारकम । . जनुर्लग्नं च विद्याद्वै आत्मकारकमॆव च॥34॥

अबविशॆषकर भावकारक कॊ कहरहा हूँ। जन्मलग्न आत्मकारक॥34॥ धनभावं विजानीयाद्दारकारकमॆव च। ऎकादशॆ ज्यॆष्ठभ्रातृस्तृतीयॆ च कनिष्ठकाः॥35॥ छनमावस्वीकारक, ग्यारहवाँज्यॆष्ठ भा‌ई का और  तीसरा कनिष्ठ॥35 ॥

सुतॆ सुतं विजानीयाद्दारा सप्तमभावतः॥

सुतस्थानॆ ग्रहस्तिष्ठॆत्सॊऽपि कारक उच्यतॆ॥36॥ । पंचम भाव पुत्र का और  सातवाँ स्त्री का कारक हॊता है। पाँचवॆं भाव मॆं यदि कॊ‌ई ग्रह हॊ तॊ वह भी उस भाव का कारक हॊता है॥36॥

सूर्यॊ गुरुः कुजः सॊमॊ गुरुमः सितः शनिः॥37॥ । गुरुश्चन्द्रसुतॊ जीवॊ मन्दश्च भावकारकः॥37॥ । क्रम सॆ सूर्य, गुरु, भौम, बुध, गुरु, भौम, शुक्र, शनि, गुरु, बुध, गुरु और  शनि यॆ लग्नादि भावॊं कॆ कारक हॊतॆ हैं॥37 ॥

पुस्तन्वादयॊ भावाः स्थाप्यास्तॆषां शुभाशुभम। । लाभं तृतीयं रन्धं च शत्रुभावव्ययं तथा।

ऎषां यॊगॆन यॊ भावस्तन्नाशं प्राप्नुयाध्रुवम॥38॥ फिर भी लक्ष आदिभावॊं कॆ शुभ-अशुभ कॊ लिखकर उनकॆ शुभाशुभ का निर्णय करना चाहि‌ऎ। ऎकादश, तृतीय, आठवाँ, छठवाँ और  बारहवाँ भाव-इनकॆ साथ जिस भाव का सम्बन्ध हॊता है उस भाव कॆ फल का नाश हॊ जाता है अर्थात इन भावॊं कॆ स्पष्ट दृश्यादि का यॊग करनॆ सॆ

जॊ भाव बनॆ वह नष्ट हॊ जाता है॥38॥।

चत्वारॊ राशयॊ भद्राः कॆन्द्रकॊणशुभावहाः। तॆषां संयॊगमात्रॆण अशुभॊऽपि शु भवॆत । ।39 ॥ कॆन्द्र और  कॊण यॆ चार भाव शुभद है। इनकॆ संयॊग सॆ जॊ भाव हॊ नाट भी अभद्र हॊता है॥31॥।


882

सूर्यादिग्रहाणां कारकत्वमाह— अथ सूर्यादिग्रहाणां कारकत्वमाह— राज्यविद्मरक्तवस्त्रमाणिक्यराजवन

पर्वतक्षॆत्रपितृकारकॊ रविः॥1॥ राज्य, मूंगा, रक्तवस्त्र, मानिक, राज, वन, पर्वत, क्षॆत्र और  पिता का कारक सूर्य हॊता है॥1॥

मातृमन:पुष्टिगन्धरसॆक्षुगॊधूमक्षारक

द्विजशक्तिकार्यसस्यरजतादिकारकश्चन्द्रः॥2॥ माता, मन, शरीरपुष्टि, गंधद्रव्य, रस, ऊख, गॆहूँ, क्षारपदार्थ, ब्राह्मण, शक्तिकार्य, धान्य और  चाँदी आदि का कारक चन्द्रमा है॥2॥

सत्त्वसद्मभूमिपुत्रशीलचौर्यरॊगब्रह्मभ्रातृ

पराक्रमाग्निसाहसराजशत्रुकारकः कुजः॥3॥ ऒज, भूमि, पुत्र, शील, चॊर, रॊग, ब्रह्म,भा‌ई, पराक्रम, अग्नि, साहस और  राजशत्रु कॆ कारक भौम हैं॥3॥।

ज्यॊतिर्विद्यामातुलगणितकार्यनर्तनवैद्य

। हास्यभीश्रीशिल्पविद्यादिकारकॊ बुधः॥4॥ ज्यॊतिष विद्या, मामा, गणित विद्या, नृत्य, वैद्यक, हास्य, भय, लक्ष्मी, शिल्पविद्या का कारक बुध है॥4॥

स्वकर्मयजनदॆवब्राह्मणधनगृहकाञ्चन

। वस्त्रपुत्रमित्रान्दॊलनादिकारकॊ गुरुः॥5॥ अपनॆ कार्य, यज्ञ, दॆवता, ब्राह्मण, धन, गृह, सुवर्ण, वस्त्र, पुत्र, मित्र, आंदॊलन आदि कॆ कारक गुरु हैं॥5॥ कलन्नकार्नुकसुखगीतशास्त्र

। काव्यपुष्पसुकुमारयौवनाभरणरजतयानस्वर्गलॊकमौक्तिक

विभवकवितारसादिकारकॊ भृगुः 63 । स्त्री, धनुष, सुख, र्गीतशास्त्र, काव्यशास्त्र, पुष्प, यौवन, आभूषण, चाँदी, सवारी, स्वर्गलॊक, मॊती, वैभव, कविता, रस आदि कॆ कारक शुक्र हैं॥6॥


ऎण्घाश

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श्र

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । महिनौलवस्त्रशृङ्गार

प्रयाणसर्वराज्यसर्वायुधगृहयुद्धसञ्चारनीलमणिविनकॆशशल्य... झुरॊगदासदासीजनायुष्यकारकः शनिः॥7॥

आँस्म, यॊद्धा, ह्यार्थी, तॆल, वस्त्र, श्रृंगार, यात्रा, सभी प्रकार कॆ राज्य, सभी प्रकार कॆ आयुष्य, गृह्ण, युद्ध संचार, शूद्र, नीलममणि, विघ्न, कॆश, हड्डी, शूलप्पा, सौन्कर, नौकरानी, आयुष्य कॆ कारक शनि है॥7॥

. शासमयसर्परासिकलसुप्तार्थद्युतकारकॊ राहुः ॥8॥ यासाचल्त, स, रात्रि, सम्पूर्ण खॊयॆ हु‌ऎ द्रव्य, जू‌आ का कारक राहु

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है।भ्छ 10

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+

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मॆं

ब्ररॊगचनिशूलस्फुटक्षुधार्तिकारकः कॆतुः॥9॥ कौडा आदि रॊग, चर्मरॊग, अत्यंत शूल, भूख सॆ कष्ट आदि का कारक कॆतु है॥9॥

। इतिं कारकाध्यायः।

अथ कारकांशफलमाह— - कुनासप्रवक्ष्यामि कारकांशाधिकान्ग्रहान। . बॊगसम्क्न्ध मात्रॆण यथावत फलदा ग्रहाः॥1॥

आना मैं बारवकशा कॆ स्वामी ग्रहॊं कॆ फल कॊ कह रहा हूँ, जिसकॆ संबंध मात्र सॆ यॊग या फुल्तु प्राप्त हॊता है॥1॥

स्दशनकारकुण्डन्यां नवमांशाधिपॊऽथवा।

यस्मिन राशौ स्थिता विप्र तद्राशिफलमुच्यतॆ॥2॥ आत्मारक्शा कुंडली मॆं नवांश कॆ अधिपति जिस राशि मॆं हॊ उसकॆ अनुसार फल हॊता है॥2॥

मॆष्यादिमीनपर्यन्तं सर्वॆषां फलमादिशॆत। याथ्याबाब्याषितं पूर्वं शूलिना रुद्रयामलॆ ॥3॥ मच्छ सॆ मीन पर्बत सभी राशियॊं का फल इस प्रकार है॥3॥

ब्दाझि‌अकारकांशॆषु तिष्ठन्ति च यदा ग्रहाः॥ लाख मूष्वाकमार्जारौ दुःखदौ भयकारकौ॥4॥

883

कारकांशफलमाह— यदि आत्मकारक मॆष राशि कॆ नवांश मॆं हॊ तॊ मूसा, बिलार दुःख दॆतॆ हैं॥4॥

सुयॊगॆ च यदा विप्र मार्जारादि सुखप्रदौ॥ वृषॆ चकारकांशॆ तु भयार्ती च चतुष्पदात॥5॥ शुभग्रह कॆ यॊग सॆ मूसा, बिलार आदि सुख दॆतॆ हैं। वृष का नवांश हॊ तॊ चौपायॆ जानवरॊं सॆ भय हॊता है॥5॥

शुभॆ चतुष्पदात्सिद्धिरिति तत्त्वं द्विजॊत्तम। मिथुनॆ कारकांशॆ च कण्ड्वादिरॊगसम्भवः॥6॥ शुभग्रह का यॊग हॊ तॊ चौपायॊं सॆ सुख हॊता है। मिथुन कॆ नवांश मॆं कारक हॊ तॊ खुजली आदि रॊगॊं की संभावना हॊती है॥6॥

कर्काशॆ च जलाद्दुःखं जलभीतिर्न संशयः। । । कुष्ठादिरॊगसम्भूतिः शुभॆ फलविपर्ययः॥7॥

कर्क कॆ नवांश मॆं कारक हॊ तॊ जल सॆ कष्ट वा जल का भय और  कुष्ठ आदि रॊग की संभावना हॊती है॥7॥

सिंहांशॆ कारकॆ खॆटॆ तिष्ठत्यॆवं द्विजॊत्तम। ।

शुनकादि भयं दद्याच्छुभॆ सिद्धिप्रदायकः॥8॥ सिंह कॆ नवांश मॆं हॊ तॊ खाज आदि सॆ भय हॊता है। शुभग्रह का यॊग हॊ तॊ शुभ फल हॊता है॥8॥

उदाहरण- पृष्ठ 25 कॆ दियॆ हु‌ऎ स्पष्ट ग्रहॊं कॆ अनुसार चरकारक इस प्रकार है -

चरकारकाः

आत्म-अनात्म- भ्रातृ- । मातृ- । पुत्र- । जाति-। दाराकारक । कारक । कारक । कारक । कारक । । कारक । कारक ।

। भीम । चंद्रमा । सूर्य । गुरु । बुध । शुक्र । शनि ।


भा

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

कारकांशचक्रम बु. 2/ 12

4 च. 1म.  11

ब.

शु. 8

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टःऎ

कन्यायां कारकांचॆ चॆत्तिष्ठत्यॆवं फलं भवॆत ।

युग्मवत्कण्डुरॊगात्तिर्वह्निदॊषॆण दुःखभाक ॥9॥ । कन्यांश मॆं आत्मकारक हॊ तॊ मिथुनांश कॆ समान ही कंडू (खुजली)

आदि रॊग सॆ कष्ट हॊता है॥9॥

तुलाख्यं कारकांशॆ च व्यापारॆषु रतॊऽधिकः।

क्रयविक्रयकर्ता च यदि जातॊ नृपालयॆ॥10॥ । तुला कारकांश हॊ तॊ वह व्यापार मॆं अधिक संलग्न, खरीद-बिक्री

करनॆ मॆं पटू हॊता है॥10॥

वृश्चिकॆ कारकांशॆ च सर्पादिभयकारकः। मातुः पयॊधरॆ पीडा जायतॆ द्विजसत्तम ॥11॥ वृश्चिकांश मॆं कारक हॊ तॊ सर्प आदि सॆ भय और  माता कॆ स्तन मॆं पीडा हॊती है॥11॥

चापस्थॆ कारकांशॆ च वाहनाभयमादिशॆत । उच्चात्प्रपतनं वापि कॊपी वस्तुसमन्वितः॥12॥ नक्रकारकांशॆ विप्र सिद्धिर्जलचरादयः॥ शङ्खमुक्ताप्रवालादिमत्स्यखॆचरदॆवताः॥13॥. । धन कारकांश हॊ तॊ वाहन सॆ गिरनॆ का भय वा ऊँचॆ सॆ गिरनॆ का भय, कॊपी और  वस्तुसंग्रही हॊता है॥12॥ मकर कॆ अंश मॆं कारक कॆ हॊनॆ सॆ मूंगा आदि, मछली ऎवं पक्षियॊं सॆ लाभ हॊता है॥13॥

कुम्भाख्यकारकांशॆ च तडागादीनि कारयॆत। । । कीर्तिमान्धर्मवान्सॊऽपि जायतॆ द्विजसत्तम॥14॥


884

कारकांशफलमाह— कुम्भांश मॆं कारक हॊ तॊ तालाब आदि का रचयिता, यशस्वी और  धार्मिक हॊता है॥14॥

मीनॆ च कारकांशॆ वै सायुज्यमुक्तिभाग्भवॆत॥ शुभयॊगॆ शुभं ब्रूयान्नशुभं विपरीतकॆ॥15॥ मीनांश मॆं कारक हॊ तॊ साक्षात मॊक्ष पाता है। शुभग्रह कॆ यॊग सॆ शुभ फल और  पापग्रह कॆ यॊग सॆ अशुभ फल हॊता है॥15॥

। शुभांशॆ शुभराशौ वा कारकॆ धनवान भवॆत।

लग्नांशॆ चॆच्छुभॊ वा स्याद्राजा भवति निश्चितम॥16॥ यदि आत्मकारक शुभग्रह कॆ अंश मॆं वा शुभग्रह की राशि मॆं हॊ तॊ जातक धनी हॊता है। ऎवं आत्मकारकांश मॆं अथवा लग्नांश मॆं शुभग्रह हॊ तॊ निश्चय ही राजा हॊता है॥16॥

उपग्रहॆ शुभांशॆ चॆत्स्वॊच्चस्व शुभक्षभॆ। पापदृग्यॊगरहितॆ चान्त्यॆ कैवल्यं विनिर्दिशॆत॥17॥ यदि उपग्रह शुभग्रह कॆ अंश मॆं हॊ अथवा अपनी उच्चराशि या अपनी राशि कॆ शुभग्रह की राशि मॆं हॊ, पापग्रह कॆ दृष्टि और  यॊग सॆ रहित हॊ तॊ अन्त मॆं मॊक्ष की प्राप्ति हॊती है॥17॥

चन्द्रभृग्वारवर्गस्थॆ कारकॆ पारदारिकः। मिश्रॆ मिश्रं विजानीयाद्विपरीतॆ विपर्ययम॥18॥

यदि आत्मकारक चन्द्र, शुक्र या भौम कॆ षड्वर्ग मॆं हॊ तॊ परस्त्री का सुख भॊगनॆ वाला हॊता है। उपर्युक्त फलॊं मॆं मिश्रित ग्रह (शुभ और  .पाप दॊनॊं) का संबंध हॊ तॊ मिश्रित फल और  विपरीत हॊ तॊ विपरीत फल कहना चाहि‌ऎ ॥18॥।

कारकांशस्थितग्रहाणां फलम्‌अथैका कारकांशॆषु रव्यादिस्तिष्ठति ग्रहः। तॆषां फलं प्रवक्ष्यामि शृणु त्वं द्विजसत्तम॥19॥। अब सूर्यादि ग्रहॊं का फल आत्मकारकांश कॆ अनुसार कह रहा हूँ॥19॥

कारकांशॆ यदा सूर्यस्तिष्ठति द्विजवीर्ययुक।

आदावन्तॆ पुमान सॊऽपि राजकार्यॆषु तत्परः॥20॥ यदि आत्मकारकांश मॆं बलवान सूर्य हॊ तॊ जातक अवस्था कॆ आदि और  अंत मॆं राजकर्मचारी हॊता है॥20॥।


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । कारकांशॆ तु पूर्णॆन्दुर्दैत्याचार्यॆण वीक्षितः। । शतभॊगी भवॆत्सॊऽथ विद्याजीवी च जायतॆ॥21॥

यदि कारकांश मॆं पूर्णचन्द्रमा हॊ और  शुक्र सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ 100 वर्ष की आयु हॊती है और  विद्या द्वारा जीविका हॊती है॥21॥

कारकांशॆ यदा भौमॆ बलाढ्यॆन युतॆक्षितॆ॥ - रसवादी कुन्तधारी वहिनकृज्जीवनं भवॆत॥22॥

यदि कारकांश मॆं भौम हॊ और  किसी बली ग्रह सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ रस बनानॆ वाला, कुंत (माला) धारण करनॆ वाला और  अग्नि द्वारा जीविका प्राप्त करनॆ वाला हॊता है॥22॥।

कारकांशॆ यदा सौम्यः तिष्ठत्यॆव बलाढ्यकः। । शिल्पकॊ व्यवहारी च वणिक्कृत्यकलॆ द्विज॥23॥

यदि कारकांश मॆं बुध हॊ तॊ और  बली हॊ तॊ शिल्पी, व्यवहारी

और  बनि‌ऎ का कार्य करनॆ वाला हॊता है॥23॥ कारकांशॆ गुरौ विप्र कर्मनिष्ठापरॊ भवॆत।

सर्वशास्त्राधिकारी चविख्यातः क्षितिमण्डलॆ॥24॥ । यदि कारकांश मॆं गुरु हॊ तॊ कर्म करनॆ वाला, सभी शास्त्रॊं का

अधिकारी और  पृथ्वी पर प्रसिद्ध हॊता है॥24॥ ... कारकांशॆ यदा शुक्रॊ राजमान्यः सदा भवॆत।

सदिन्द्रियः शतायुश्च कथनीयं द्विजॊत्तम॥25॥ यदि कारकांश मॆं शुक्र हॊ तॊ राजा सॆ सम्मान प्राप्त करता है, सुन्दर और  100 वर्ष की आयु वाला हॊता है॥25॥। । कारकांशॆ यदा सौरिमृत्युलॊकॆ प्रसिद्धियुक।

महतां कर्मणां वृत्तिः क्षितिपालॆन पूजितः॥26॥

कारकांश मॆं शनि हॊ तॊ संसार मॆं प्रसिद्ध, बडॆ कार्यॊं कॊ करनॆ वाला . और  राजा सॆ पूजित हॊता है॥26॥

कारकांशॆ यदा राहुर्धनुर्धारी प्रजायतॆ। । जाङ्गल्यलौहयन्त्रादिकारकश्चौरसङ्गमी॥27॥ । कारकांश मॆं राहु हॊ तॊ धनुष धारण करनॆ वाला, जंगली, लॊह कॆ ।

यंत्रॊं कॊ बनानॆ वाला, चॊर और  संयमी हॊता है॥27॥

घॊट्ट


8819

कारकांशफलमाह— कारकांशॆ यदा कॆतुस्तिष्ठति द्विजसत्तम।

व्यवहारी गजादीनामुशन्ति परद्रव्य ॥28॥ । कारकांश मॆं कॆतु हॊ तॊ हाथी आदि का व्यवहार दूसरॆ कॆ द्रव्य सॆ करनॆ वाला हॊता है॥28॥

कारकांशॆ यदा विप्र संस्थितौ रविसॆंहिकौ। । सर्पाभीतिर्भवॆन्मृत्युः शुभदृष्ट्या निवर्ततॆ॥29॥ यदि कारकांश मॆं सूर्य और  राहु हॊं तॊ सर्प सॆ भय या मृत्यु हॊती है, शुभग्रह की दृष्टि हॊ तॊ निवृत्ति हॊ जाती है॥29॥

कारकांशॆ भानुतमौ शुभषड्वर्गसंयुतौ। विषवैद्यौ भवॆत्रूनॆ विषहर्ता विचक्षण॥30॥ कारकांश मॆं सूर्य और  राहु हॊं और  शुभ ग्रह कॆ षड्वर्ग मॆं हॊं तॊ विषवैद्य या विष का हरण करनॆ वाला हॊता है॥30॥।

भौमॆक्षितॆ कारकांशॆ भानुस्वर्भानुसंयुतॆ।

अन्यग्रही न पश्यन्ति स्ववॆश्मपरदाहकः॥31॥ । कारकांश मॆं सूर्य और  राहु हॊं, उसॆ भौम दॆखता हॊ शॆष ग्रह न दॆखतॆ हॊ तॊ अपना और  दूसरॆ का घर जलानॆ वाला हॊता है॥31॥

सगुलिकॆ कारकांशॆ पूर्णॆन्दुवीक्षितॆ द्विज॥ सति चौरैतधनः स्वयं चौरॊऽथवा भवॆत॥32॥ कारकांश मॆं गुलिक हॊ और  पूर्ण चन्द्र सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ चॊरॊं सॆ धन अपहृत हॊता है अथवा स्वयं चॊर हॊता है॥32॥

सगुलिकॆ कारकांशॆ अन्यग्रहयुतॆक्षितॆ। बुधदृष्टियुतॆ वापि अण्डवृद्धिः प्रजायतॆ ॥33॥ कारकांश मॆं गुलिक हॊ और  अन्य ग्रहॊं सॆ दॆखा जाता हॊ अथवा बुध सॆ दृष्ट वा युत हॊ तॊ अंडवृद्धि हॊती है॥33॥

कारकांशॆ कॆतुयुक्तॆ पापग्रहनिरीक्षितॆ। श्रॊत्रच्छॆदं भवॆन्नूनं कर्णरॊगार्तिना द्विज॥34॥ कारकांश मॆं कॆतु हॊ और  पापग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ कर्णरॊग सॆ पीडित हॊनॆ सॆ कान काटा जाता है॥34॥

कारकांशॆ स्थितॆ कॆतौ भृगुणा च समीक्षितॆ। युतॆ वा जायतॆ विप्र क्रियाकर्मसमन्वितः॥35॥

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम कारकांश मॆं कॆतु हॊ और  शुक्र सॆ दृष्ट वा युत हॊ तॊ क्रिया-कर्म सॆ युक्त हॊता है॥35॥

कारकांशॆ स्थितॆ कॆतौ शनिसौम्यनिरीक्षितॆ। बलवीर्यॆण रहितॊ जायतॆ सॊऽपि मानवः॥36॥। कारकांश मॆं कॆतु हॊ, शनि-बुध सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ मनुष्य बलवीय सॆ हीन हॊता है॥36॥

सकॆतौ कारकांशॆ च बुधशुक्रनिरीक्षितॆ॥ जायतॆ पौन:पुनिकॊ दासीपुत्रॊऽथवा भवॆत॥37॥ कारकांश मॆं कॆतु हॊ और  बुध-शुक्र सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ रुक-रुक कर बॊलनॆ वाला या दासीपुत्र हॊता है॥37 ॥

। सकॆतौ कारकांशॆ च अन्यग्रहनिरीक्षितॆ। .. शनिदृष्टिविहीनॆ च सत्याच्च रहितॊ भवॆत॥38॥

। कारकांश मॆं कॆतु हॊ, शनि कॊ छॊडकर शॆष ग्रह दॆखतॆ हॊं तॊ असत्य बॊलनॆ वाला हॊता है। ।38॥

कारकांशॆ यदा विप्र भृगुभास्करवीक्षितॆ। राजप्रॆष्यॊ भवॆद्बालॊ जायतॆ नात्र संशयः॥39 ॥। यदि कारकांश कॊ शुक्र-सूर्य दॆखतॆ हॊं तॊ जातक राजा का नौकर हॊता है॥39॥ ॥

। कारकांशाद्धनभावफलम्‌अंशात्कुटुम्बॆ भृग्वारवर्गॆ स्यात्पारदारिकः। तयॊर्दुग्यॊगकाभ्यां च भवॆदामरणं किल ॥40॥ कारकांश सॆ धन भाव मॆं शुक्र-भौम का षड्वर्ग हॊ तॊ परस्त्रीगामी हॊता है। यदि शुक्र-भौम दॆखतॆ हॊं तॊ आमरण परस्त्रीगामी हॊता है॥40॥

कॆतुना प्रतिबन्धः स्याद्गुरुणा स्त्रैण ऎव च।

राहुणाचार्थनिवृत्तिः स्याद्धनॆ ऎवं फलं भवॆत॥41॥ - कॆतु दॆखता हॊ तॊ नहीं हॊता है, गुरु दॆखती हॊ तॊ स्त्री कॆ वश मॆं हॊता है, राहु दॆखता हॊ तॊ परस्त्री कॆ लि‌ऎ द्रव्य खर्च करता है॥41॥

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288

कारकांशफलमाह— कारकांशात्तृतीयॆ च पापखॆटयुतॆक्षितॆ। सशूरॊ जायतॆ बालॊ वीर्यवान्बहुविक्रमी॥42॥ कारकांश सॆ तीसरॆ भाव मॆं पापग्रह युत हॊ वा दॆखतॆ हॊं तॊ बालक शूरवीर ऎवं पराक्रमी हॊता है॥42॥

कारकांशात्तृतीयॆ च शुभखॆटयुतॆक्षितॆ। जायतॆ तत्त्वहदयः कातरॊऽपि विशॆषतः॥43॥। कारकांश सॆ तीसरॆ भाव मॆं शुभग्रह हॊं वा दॆखतॆ हॊं तॊ बालक शुद्ध : हृदय का और  विशॆषकर कातर हॊता है॥43॥।

कारकांशात्तृतीयॆ च षष्ठॆ पापयुतॆक्षितॆ। कृषिकर्मरतॊ नित्यं जायतॆ नात्र संशयः॥44॥ कारकांश सॆ तीसरॆ व छठॆ भाव मॆं पापग्रह हॊं या दॆखतॆ हॊं तॊ बालक कृषिकर्म कॊ करनॆ वाला हॊता है॥44॥।

कारकांशाच्चतुर्थभावफलम्पातालॆ कारकांशाच्च शशिशुक्रयुतॆक्षितॆ। प्रासादवान भवॆद्बालॊ विचित्रगृहर्वान्भवॆत॥45॥

कारकांश सॆ चतुर्थ स्थान मॆं चन्द्रमा, शुक्र युत हॊं वा दॆखतॆ हॊं तॊ । विचित्र प्रासाद (किला) या गृह वाला हॊता है॥45॥

कारकांशाच्च पातालॆ तुङ्ग कॊऽपि खॆचरः। । हर्म्यमन्दिरसंयुक्तॊ यंत्युच्चॊ बहुदीप्तिमान ॥46॥

चौथॆ मॆं यदि कॊ‌ई ग्रह अपनी उच्चराशि का हॊ तॊ बहुत ऊँचा, खूबसूरत ऎवं प्रकाशमान गृह हॊता है॥46॥

कारकांशाच्च पातालॆ शनिराहुयुतॆक्षितॆ। विप्रॆच्छाटनपट्टीयुग्जायतॆ मन्दिरं द्विज॥47॥ कारकांश सॆ चौथॆ भाव मॆं शनि-राहु हॊं या दॆखतॆ हॊं तॊ पत्थर का गृह हॊता है॥47 ॥

कारकांशाच्च पातालॆ कुजकॆतुशनीक्षितॆ। ऐष्टिकं मन्दिरं तस्य जायतॆ नात्र संशयः॥48॥ कारकांश सॆ चौथॆ भाव मॆं भौम, कॆतु ऎवं शनि हॊं वा दॆखतॆ हॊं तॊ ईटॆ का मकान हॊता है॥48॥

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम कारकांशाच्च पातालॆ गुरुयुक्तनिरीक्षितॆ। दारवं मन्दिरं तस्य जायतॆ नात्र संशयः॥49॥

कारकांश सॆ चौथॆ भाव मॆं गुरु युक्त हॊ वा दॆखता हॊ तॊ लकडी का . गृह हॊता है॥49॥

कारकांशाच्च पातालॆ रवियुक्तनिरीक्षितॆ। तृणावॆष्टितगृहं तस्य जायतॆ नात्र संशयः॥50॥ कारकांश सॆ चौथॆ भाव मॆं सूर्य युत हॊ वा दॆखता हॊ तॊ फूस का गृह हॊता है॥50॥

कारकांशात्पञ्चमभावफलम्स्वांशॆ तत्सुतॆ वापि गुरुचन्द्राभ्यां च ग्रन्थकृत । भृगुणा किञ्चिदूनॊऽसौ तस्मान्यूनॊ बुधॆन च॥51॥

आत्मकारकांश मॆं अथवा उससॆ पाँचवॆं स्थान मॆं चन्द्रमा-गुरु हॊं तॊ ग्रंथ बनानॆ वाला हॊता है।

यदि शुक्र हॊं तॊ कुछ न्यून हॊता है और  बुध हॊ तॊ और  भी न्यून हॊता है॥51॥

सुराचार्यॆण सर्वज्ञः ग्रन्थकर्ता तथैव च। वॆदवॆदान्तविच्चापिन वाग्मी शाब्दिकॆऽपि च॥52॥ कॆवल गुरु हॊ तॊ सर्वज्ञ और  ग्रन्थकर्ता हॊता है तथा वॆद-वॆदान्त कॊ जाननॆ वाला वैयाकरणी हॊतॆ हु‌ऎ भी वाग्मी नहीं हॊता है॥52॥

न्यायज्ञः धरणीजॆन बुधॆ मीमांसकस्तथा। . सभामूकस्तु शनिना गीतज्ञॊ रविणा तथा॥53॥

यदि भौम हॊ तॊ नैयायिक, बुध हॊ तॊ मीमांसक, शनि हॊ तॊ सभा मॆं मूक रहनॆ हाला और  सूर्य हॊ तॊ गानविद्या मॆं पंडित ॥53॥।

शशिना सांख्ययॊगज्ञः काव्यज्ञश्च तथा द्विज। कॆतुना गणितज्ञश्च जायतॆ नात्र संशयः॥54॥ चन्द्रमा हॊ तॊ सांख्यशास्त्र और  काव्य का पंडित और  कॆतु हॊ तॊ गणित का पंडित हॊता है॥54 ॥

उक्तफलानां साफल्यं गुरुसम्बन्धमात्रतः। कारकांशाद्धनॆ कॆचित्फलमॆवं ब्रुवन्ति हि॥55॥


कारकांशफलमाह—

828 जॊ यॊग ऊपर कहॆ गयॆ हैं सभी मॆं गुरु का यॊग और  दृष्टि हॊ तॊ यॊग का फल अवश्य हॊता है। किसी-किसी का मत है कि कारकांश सॆ दूसरॆ स्थान मॆं भी इसी प्रकार विचार करना चाहि‌ऎ॥55॥

कारकांशात्षष्ठभावफलम । स्वांशात्तृतीयॆ षष्ठॆ च पापस्तिष्ठॆच्चॆ द द्विज। कर्षकॊ जायतॆ बालः नात्र कार्या विचारणा॥56॥

आत्मकारक सॆ तीसरॆ, छठॆ स्थान मॆं पापग्रह हॊं तॊ जातक किसान हॊता है॥56॥

। कारकांशात्सप्तमभावफलम्कारकांशाच्च छूनॆ चॆद्गुरुचन्द्रगुतॆ द्विज। सुन्दरी गृहिणी तस्य पतिभक्तिपरायणा॥57॥

आत्मकारक सॆ सातवॆं भाव मॆं गुरु-चन्द्रमा हॊं तॊ जातक की स्त्री सुन्दरी और  पतिव्रतां हॊती है॥57॥।

राहुणा विधवा भार्या जायतॆ नात्र संशयः। । शनिनाच वयॊधिक्यारॊगिणी वा तपस्विनी॥58॥

यदि सातवॆं राहु हॊ तॊ विधवा स्त्री का संयॊग हॊता है। यदि शनि हॊ तॊ अवस्था मॆं अधिक, रॊगिणी या तपस्विनी हॊती है॥58॥।

. भौमॆन विकलाङ्गीच तथा कान्ताद्यलक्षणा॥ - रविणा स्वकुलॆ गुप्ता आसक्ता परवॆश्मनी॥59॥

भौम हॊ तॊ अंगं सॆ हीन, सूर्य हॊ तॊ अपनॆ कुल मॆं गुप्तरीति सॆ रहती हु‌ई दूसरॆ कॆ वश मॆं रहती है॥59॥

बुधॆ कलावती ज्ञॆया कलाभिज्ञा प्रजायतॆ। । शुक्रॆण तद्विज्ञॆया निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥60॥ । बुध हॊ तॊ कला कॊ जाननॆ वाली स्वयं कलाविद हॊती है। इसी प्रकार शुक्र सॆ भी जानना चाहि‌ऎ॥60 ॥।

कारकांशादष्टमभावफलम्कारकांशाल्लयॆ चन्द्रॆ कुजराहुनिरीक्षितॆ। क्षयरॊगॊ भवॆत्तस्य श्वासकासादिरॊगयुक ॥61॥ कारकांश सॆ आठवॆं भाव मॆं चन्द्रमा हॊ और  भौम-राहु सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ जातक क्षयरॊग और  श्वास-कास रॊग सॆ युक्त हॊता है॥61॥।

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122 : : बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

। कारकांशन्नवमभावफलम्कारकांशाच्च नवमॆ शुभखॆटयुतॆक्षितॆ। सत्यवादी गुरॊर्भक्तः स्वधर्मनिरतॊ भवॆत॥62॥ कारकांश सॆ नवम स्थान शुभग्रह सॆ युत-दृष्ट हॊ तॊ जातक सत्यवादी, गुरुभक्त, अपनॆ धर्म मॆं आसक्त हॊता है॥62 ॥

कारकांशाच्च नवमॆ पापग्रहयुतॆक्षितॆ। स्वधर्मनिरतॊ बालॊ मिथ्यावादी भवॆद्विज ॥63॥। कारकांश सॆ नवम स्थान पापग्रह सॆ युत-दृष्ट हॊ तॊ अपनॆ धर्म । सॆ रहित और  असत्यवादी हॊता है॥63॥

कारकांशाच्च नवमॆ शनिराहुयुतॆक्षितॆ। । गुरुद्रॊही भवॆद्विप्र शास्त्रॆषु विमुखॊ नरः॥64॥

कारकांश सॆ नवम भाव शनि-राहु सॆ दृष्ट-युत हॊं तॊ गुरु सॆ द्रॊह करनॆ वाला और  मूर्ख हॊता है॥64॥

कारकांशाच्च नवमॆ गुरुभानुयुतॆक्षितॆ। तदापि गुरुद्रॊही स्याद्गुरुवाक्यं न मन्यतॆ॥65॥ कारकांश सॆ नवम भाव गुरु-सूर्य सॆ युत-दृष्ट हॊं तॊ भी गुरुद्रॊही और  गुरु कॆ वचन कॊ न माननॆवाला हॊता है॥65 ॥।

कारकांशाच्च नवमॆ भृगुभौमयुतॆक्षितॆ ॥ षड्वर्गाधिकयॊगॆ च मरणं पारदारिकः॥66॥

कारकांश सॆ नवम भाव शुक्र-भौम सॆ युत-दृष्ट हॊं तॊ और  इन्हीं का ’षड्वर्ग अधिक हॊ तॊ परस्त्री कॆ द्वारा मरण हॊता है॥66॥।

 कारकांशाच्च नवमॆ बुधयुक्तॆक्षितॆ द्विज।

परस्त्रीसङ्गमाबालॊ बन्धकॊ जायतॆ ध्रुवम॥67॥ कारकांश सॆ नवम भाव बुध सॆ युत-दृष्ट हॊ तॊ परस्त्रीसंगम सॆ दुष्ट प्रकृति का हॊता है॥67॥

कारकांशाच्च नवमॆ गुरुयुक्तॆक्षितॆ यदा। । स्त्रीलॊलुपॊ भवॆद्बालॊ, विषयी नैव जायतॆ॥68॥

कारकांश सॆ नवम भाव गुरु सॆ युत-दृष्ट हॊ तॊ स्त्रीलॊलुप हॊता है, किन्तु विषयी नहीं हॊता है॥68॥

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कारकांशफलमाह—

। कारकांशाशमभावफलम्दशमॆ कारकांशाच्च बुधॆन समवीक्षितॆ। व्यापारॆ बहुलाभश्च महत्कर्मविचक्षणः॥69॥ कारकांश सॆ दशम भाव बुध सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ व्यापार मॆं बहुत लाभ और  बडॆ-बडॆ काम हॊतॆ हैं॥69॥।

कारकांशाच्च दशमॆ रविणा संयुतॊ यदि।

गुरुदृष्टॆ तदा विप्र जायतॆ यॊगकारकः ॥70॥ - कारकांश सॆ दशम मॆं रवि हॊ और  गुरु सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ

राजयॊग हॊता है॥70॥।

कारकांशाच्च दशमॆ शुभखॆटनिरीक्षितॆ । स्थिरचित्तॊ भवॆद्बालॊ गम्भीरॊ बहुवीर्यवान॥71॥।

कारकांश सॆ दशम भाव कॊ शुभग्रह दॆखता हॊ तॊ बालक स्थिरचित्त, गंभीर और  बलवान हॊता है॥71॥।

कारकांशाढ्ययभावलम्कारकांशाढ्ययस्थानॆ उच्चस्थॆ च शुभग्रहॆ। सङ्गतिर्जायतॆ तस्य शुभलॊकमवाप्नुयात॥72॥

कारकांश सॆ बारहवॆं भाव मॆं अपनी उच्चराशि मॆं कॊ‌ई शुभग्रह हॊ तॊ उस जातक कॊ सद्गति और  शुभ लॊक की प्राप्ति हॊती है॥72॥।

कारकांशाढ्ययॆ कॆतौ शुभखॆटैर्युतॆक्षितॆ। तदापि जायतॆ मुक्तिः सायुज्यपदमाप्नुयात ॥73॥॥

कारकांश सॆ बारहवॆं भाव मॆं कॆतु हॊ, शुभग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ वा दृष्ट हॊ तॊ भी मुक्ति हॊती है और  स्वर्ग की प्राप्ति हॊती है॥73 ॥

मॆषॆऽथ वापि कॊदण्डॆ कारकांशात व्ययॆ शिखी। . . शुभग्रहॆण सन्दृष्टॆ कैवल्यपदमाप्नुयात ॥74॥

कारकांश सॆ बारहवॆं भाव मॆं मॆष वा धन राशि मॆं कॆतु हॊ, शुभग्रह सॆ दृष्ट हॊ तॊ मॊक्षपद की प्राप्ति हॊती है॥74 ॥।

कॆवलॆऽपि व्ययॆ कॆतुः पापग्रहयुतॆक्षितॆ । न मुक्तिर्जायतॆ तस्य शुभलॊकं न पश्यति॥75 ॥


श्टॊंईणॆ घूट

16

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम रविणा संयुतॆ कॆतौ कारकांशाढ्ययस्थितॆ। गौर्या भक्तिर्भवॆत्तस्य शाक्तिकॊ जायतॆ नरः॥76॥. कॆवल बारहवॆं भाव मॆं कॆतु हॊ और  पापग्रह सॆ युत-दृष्ट हॊ तॊ उसकी मुक्तिं नहीं हॊती है और  मॊक्ष भी नहीं हॊता है। कारकांश सॆ बारहवॆं भाव मॆं कॆतु सूर्य सॆ युत हॊ तॊ पार्वती की भक्ति करनॆ वाला शाक्त हॊता है॥75-76॥

रविभक्तिर्भवॆत्तस्य निर्विशकं द्विजॊत्तम। । चन्द्रॆण संयुतॆ कॆतौ कारकांशात व्ययस्थितॆ॥77॥

कारकांश सॆ बारहवॆं कॆतु चन्द्रमा सॆ युत हॊ तॊ सूर्य का उपासक हॊता है॥77॥

शुक्रॆण संयुतॆ कॆतौ कारकांशात व्ययस्थितॆ। समुद्रतनयाभक्तिर्जायतॆऽसौ समृद्धिमान ॥78॥ कारकांश सॆ बारहवॆं कॆतु शुक्र सॆ युत हॊ तॊ लक्ष्मी का उपासक । और  धन हॊता है॥78॥

कुजॆन स्कन्दभक्तॊ वा जायतॆ द्विजसत्तम।

वैष्णव बुधसौरिभ्यां गुरुणा शिवभक्तिमान॥79॥ । भौम सॆ युत हॊ तॊ स्कंद (स्वामिकार्तिक) की भक्ति, बुध-शनि सॆ युत हॊ तॊ विष्णु का उपासक, गुरु सॆ युत हॊ तॊ शिव का उपासक ॥79 ॥

राहुणी तामसी दुर्गा भूतप्रॆतादिसॆवकृत। हॆरम्बभक्तः शिखिना स्कन्दभक्तॊऽथवा भवॆत॥80॥

राहु हॊ तॊ तामसी दुर्गा का और  भूतप्रॆतादि का सॆवक हॊता है। कॆतु

 हॊ तॊ गणॆश वा स्कंद का उपासक॥80॥

कारकांशात व्ययॆ शौरिः पापराशौ यदा भवॆत। । तदैव क्षुद्रदॆवस्य भक्तिस्तस्य न संशयः॥81॥ कारकांश सॆ बारहवॆं शनि पापग्रह की राशि मॆं हॊ तॊ क्षुद्रदॆवता का उपासक॥81॥।

। पापर्धॆऽपि व्ययॆ शुक्रस्तदापि क्षुद्रसॆवकः।

कारकान्सूनभागॊ हि अमात्यॊ जायतॆ ग्रहः॥8॥ । बारहवॆं भाव मॆं पापग्रह की राशि मॆं शुक्र हॊ तॊ भी क्षुद्रदॆवता का सॆवक

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फाळ्ळी

कारकांशफलमाह—

824 हॊता है। आत्मकारक सॆ न्यून अंशवाली अमात्यकारक हॊता है॥8॥

अमात्यात द्वादशॆ राशौ पाप पापसंयुतॆ । तदापि क्षुद्रदॆवस्य भक्तिर्भवति निश्चितम ॥83॥ अमात्य सॆ बारहवॆं भाव मॆं पापग्रह की राशि पापयुत हॊ तॊ भी क्षुद्रदॆवता का उपासक हॊता है॥83॥

विशॆषफलमाह—?अंशात्रिकॊणॆ पापॆ द्वॆ तान्त्रिकॊ जायतॆ नरः। पापदृष्टॆ क्षुद्रदॆवः शुभॆन शुभसॆवकः॥84॥

आत्मकारक सॆ 9वॆं, 5वॆं भाव मॆं दॊ पापग्रह हॊं तॊ जातक तांत्रिक हॊता है। पापग्रह दॆखता हॊ तॊ क्षुद्रदॆवता का और  शुभग्रह दॆखता हॊ तॊ शुभ दॆवता का उपासक हॊता है।84॥

पापैर्निरीक्षितॆ तत्र तन्त्रविग्राहकॊ भवॆत।

शुभैनिरीक्षितॆ वापि तन्त्रानुग्रहकारकः॥85॥। । यदि पापग्रह दॆखतॆ हॊं तॊ निग्राहक और  शुभग्रह दॆखतॆ हॊं तॊ अनुग्राहक हॊता है॥85॥

कारकांशॆन्दुशुकौ च शुभग्रहनिरीक्षितौ। . रसवादी भवॆद्बालॊ धातूनां भस्मकारकः॥86॥

कारकांश मॆं चन्द्रमा और  शुक्र हॊं तथा शुभग्रह सॆ दॆखॆ जातॆ हॊं तॊ रस बनानॆ वाला वैद्य हॊता है॥86॥।

शुक्रॆन्दू बुधसन्दृष्टौ सद्वैद्यॊ हि नरॊ भवॆत। । पीयूषपाणिः कुशलः सर्वरॊगहरॊ द्विज॥87॥।

शुक्र-चन्द्रमा कॊ बुध दॆखता हॊ तॊ सद्वैद्य, कुशल और  सभी रॊगॊं कॊ हरनॆ वाला हॊता है।87॥

अंशाच्चतुर्थगॆ चन्द्रॆ दैत्याचार्यनिरीक्षितॆ। श्वॆतकुष्ठी भवॆनूनं निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥88॥ कारक सॆ चौथॆ स्थान मॆं चन्द्रमा हॊ और  शुक्र सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ श्वॆतकुष्ठी हॊता है॥88॥।

अंशाच्चतुर्थगॆ चन्द्रॆ धरापुत्रॆण वीक्षितॆ। राजरॊगॊ भवॆत्तस्य रक्तपित्तार्तिकॊ भवॆत॥89॥


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम कारक सॆ चौथॆ स्थान मॆं चन्द्रमा कॊ भौम दॆखता हॊ तॊ राजरॊग (यक्ष्मा) और  रक्तपित्त सॆ कष्ट हॊता है।189॥।

अंशाच्चतुर्थगॆ चन्द्रॆ शिखिना वीक्षितॆ सति। नीलकुष्ठं भवॆत्तस्य निर्विशकं द्विजॊत्तम ॥10॥ कॆतु कारकांश सॆ चौथॆ चन्द्रमा कॊ दॆखता हॊ तॊ नीलकुष्ठ हॊता है॥90॥

चतुर्थॆ पञ्चमॆ वापि युतौ राहुकुजौ यदि॥ क्षयरॊगॊ भवॆत्तस्य चन्द्रदृष्ट्या विशॆषतः॥91 ॥ कारकांश सॆ चौथॆ या पाँचवॆं राहु-भौम हॊं तॊ क्षयरॊग हॊता है। चन्द्रमा दॆखता हॊ तॊ विशॆषकर कुष्ठरॊग हॊता है॥91॥

स्वांशात्तुर्यॆ सुतॆ वापि कॆवलः संस्थितः कुजः। । पिटकादि भवॆत्तस्य निर्विशङकं द्विजॊत्तम॥92॥

कारकांश सॆ चौथॆ या पाँचवॆं कॆवल भौम हॊ तॊ पिटक आदि क्षुद्र रॊग हॊतॆ हैं॥92॥

तत्र स्थितॆ च शिखिना ग्रहणीरॊगपीडितः। स्वर्भानुर्गुलिकॆ तन्न विषवैद्यॊ विषार्तिकः॥93॥। यदि उन्हीं भावॊं मॆं कॆतु हॊ तॊ संग्रहणी रॊग हॊता है। यदि उक्त भावॊं मॆं राहु और  गुलिक हॊ तॊ विषवैद्य या विष सॆ कष्ट पानॆ वाला हॊता है॥93॥

कारकांशाद्धनॆ तुयॆं कॆवलॆ संस्थितॆ शनौ। धनुर्विद्याधिकॊ बालॊ जायतॆ नात्र संशयः॥94॥

कारकांश सॆ दूसरॆ सा चौथॆ भाव मॆं शनि हॊ तॊ धनुष विद्या कॊ जाननॆ. वाला हॊता है॥94 ॥

कारकांशात्सुखॆ वित्तॆ कॆवलॆ संस्थितॆ शिखीं। घटिकायन्त्रवादी स्यादिष्टशॊधनतत्परः॥95॥। कारकांश सॆ चौथॆ वा दूसरॆ भाव मॆं यदि कॆतु हॊ तॊ घटिकायंत्र कॊ जाननॆ वाला हॊता है॥95॥

उक्तस्थानॆ स्थितॆ सौम्यॆ जातस्तु परमहंसकः॥

 तथा संन्यस्तकं ज्ञॆयं निर्विशङ्कॊ द्विजॊत्तम ॥96॥। पूर्वॊक्त स्थान मॆं बुध हॊ तॊ परमहंस या संन्यासी दंडधारी॥96॥ ॥


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कारकांशफलमाह— उक्तस्थानस्थितॆ राहौ लॊहयन्त्रादिकारकः। रविणा खड्गधांरी च कुजॆन कुन्तधारकः॥97॥ राहु हॊ तॊ लॊह कॆ यंत्रॊं कॊ बनानॆ वाला, रवि हॊ तॊ खड्ग धारण करनॆ वाला और  भौम हॊ तॊ कुंत (भाला) धारण करनॆ वाला हॊता है॥97 ॥

चन्द्रज्यॊ कारकांशॆच तथा तत्पञ्चमॆ स्थितौ। ग्रन्थकर्ता भवॆन्नूनं सर्वविद्याविशारदः॥98॥ चन्द्रमा और  गुरु कारकांश मॆं हॊ अथवा उससॆ पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ बालक सभी विद्या‌ऒं कॊ जाननॆ वाला और  ग्रंथकार हॊता है॥98॥

उक्तस्थानगतॆ शुक्रॆ स्वल्पग्रन्थकरॊ द्विज। उक्तस्थानगतॆ सौम्यॆ किञ्चिद्ग्रन्थकरॊ यौ॥99॥ यदि उक्त स्थान मॆं शुक्र हॊ तॊ अल्प ग्रंथकार हॊता है। यदि बुध हॊ तॊ कुछ ग्रंथकार हॊता है॥99॥।

शुक्रॆण काव्यकर्ता च प्राकृतग्रन्थतत्परः॥ गुरुणा सर्वग्रन्थानां कारकॊ द्विजसत्तम॥100॥ शुक्र हॊ तॊ काव्य करनॆ वाला, गुरु हॊ तॊ सभी ग्रंथॊं कॊ करनॆ वाला हॊता है॥100॥

उक्तस्थानगतः शौरिः सभाजाड्यॊ भवॆन्नरः। मीमांसकॊ भवॆन्नूनमुक्तस्थानगतॆ बुधः॥101॥ यदि शनि हॊ तॊ सभामूक हॊता है। उक्त स्थान मॆं बुध हॊ तॊ मीमांसक हॊता है॥101॥

कारकांशॆ धरासूनुर्लग्नॆ वा नवपञ्चमॆ। नैयायिकॊ भवॆनूनं सुष्ठकाव्यकरॊ नरः॥102॥ झारकांश लग्न मॆं वा नवम-पंचम मॆं हॊ तॊ नैयायिक और  कविता करनॆ वाला हॊता है॥102॥।

कारकांशॆ निशानार्थ त्रिकॊणॆ चाथ लग्नगॆ।

सांख्यशास्त्रज्ञनिपुणॊ जायतॆ मतिमान्नरः॥103॥

 कारकांश मॆं वा त्रिकॊण वा लग्न मॆं यदि चन्द्रमा हॊ तॊ सांख्यशास्त्र कॊ जाननॆ वाला हॊता है॥103॥


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम कारकांशॆस्थितॆ कॆतौ पञ्चमॆ वापि संस्थितॆ। गणितज्ञॊ भवॆनूनं ज्यॊतिश्शास्त्रविशारदः॥104॥।

कारंकांश मॆं या पाँचवॆं भाव मॆं कॆतु हॊ तॊ गणित कॊ जाननॆ वाला। * ज्यॊतिषशास्त्र मॆं प्रवीण हॊता है॥104॥।

 सुराचार्यॆण सम्बन्धात्साम्प्रदायिकसिद्धिकृत।

यॆ यॊगा पञ्चमॆ भावॆ यथावभाषितं मया॥105॥ सभी यॊगॊं मॆं गुरु का संबंध हॊनॆ सॆ साम्प्रदायिक कार्यॊं की सिद्धि हॊती है। जॊ यॊग पाँचवॆं भाव मॆं कहा है उसमॆं गुरु का यॊग हॊनॆ सॆ फल हॊता है॥105॥।

वित्तस्थानॆऽपि तॆ ज्ञॆया पूर्ववत्फलसिद्धिदम।

कॊऽपि तृतीयभावॆ तु कथयन्ति पुरॊ द्विज ॥106॥ जॊ यॊग मैंनॆ पाँचवॆं भाव मॆं कहॆ हैं उन्हॆं दूसरॆ भाव मॆं भी जानना । चाहि‌ऎ। किसी प्राचीन आचार्य नॆ तीसरॆ भाव मॆं भी दॆखनॆ कॊ कहा है॥106॥।

. कारकांशॆ धनॆ कॆतौ तथा भाग्यालयॆ गतॆ।

पापग्रहॆण सन्दृष्टॆ वाचालश्च भवॆन्नरः॥107॥। कारकांश मॆं वा उससॆ दूसरॆ या 9वॆं भाव या 5वॆं भाव मॆं कॆतु हॊ और  पापग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ मनुष्य वाचाल हॊता है॥107॥।

अंशाल्लग्नात्तथारूढाद्धनॆ रन्ध्र स्थितॆ द्विज। पापसाम्यॆ च विज्ञॆयॊ यॊगः कॆमद्रुमॊ भवॆत ॥108॥

कारकांश लग्न तथा आरूढलग्न सॆ दूसरॆ, आठवॆं भाव मॆं यदि समान पापग्रह हॊ तॊ कॆमद्रुम यॊग हॊता है॥108॥।

चन्द्रदृष्टिविशॆषॆण यॊग: कॆमद्रुमॊ मतः। द्वितीयाष्टमभावाभ्यां यॊगॊऽयं कथ्यतॆ द्विज ॥109॥

चन्द्रमा दॆखता हॊ तॊ विशॆष रूप सॆ कॆमद्रुम हॊता है। दूसरॆ और  आठवॆं भाव मॆं विशॆषकर यह यॊग हॊता है। ।109॥

। कारकांशॆषु यॆ यॊगाः पूर्वॊक्ता गदितॊ मया। । तत्तद्राशिदशापाकॆ सर्वॆषां फलमादिशॆत ॥110॥

कारकांश सॆ जिन यॊगॊं कॊ मैंनॆ कहा है उनका फल उन राशियॊं कॆ दशा-अंतर मॆं हॊता है॥110॥

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 अथाऽऽरूढमाह— ऎवं दशाप्रदाद्वाशॆर्द्वितीयाष्टमयॊजि॥ ग्रहसाम्यॆ च विज्ञॆयः कॆमद्रुः शशिनॆक्षितॆ॥111॥ इसी प्रकार दशाप्रद राशि सॆ दूसरॆ, आठवॆं भाव मॆं ग्रहसाम्य हॊ और  चन्द्रमा दॆखता हॊ तॊ कॆमद्रुम यॊग हॊता है॥111॥।

दशाप्रारम्भसमयॆ शॊधयॆज्जन्मलग्नवत ॥ सूर्यादिखॆचरान स्पष्टान साधयॆज्जन्मवद्विज॥112॥ दशा प्रवॆश समय मॆं सूर्यादि ग्रहॊं और  लग्न कॊ साधना चाहि‌ऎ॥112॥

तत्र वित्ताष्टमॆ भावॆ ग्रहसाम्यॊ यदा भवॆत। तदा कॆमद्रुमॊ ज्ञॆयश्चन्द्रदृष्ट्या विशॆषतः॥113॥ उस समय उक्त भावॊं मॆं ग्रहसाम्य और  चन्द्रमा की दृष्टि हॊ तॊ कॆमद्रुम यॊग हॊता है॥113॥

। ऎवं तन्वादिभावानां दशारम्भॆषु यॊजयॆत॥

तत्तद्ग्रहानुसारॆण फलं वाच्यं बुधैः सदा॥114॥ इसी प्रकार तनु आदि भावॊं की दशा कॆ आरंभ मॆं भी यॊजना करना चाहि‌ऎ। क्यॊंकि उस समय कॆ ग्रह कॆ अनुसार ही फल हॊता है॥114 ॥।

इति बृहत्पाराशरहॊरायां पूर्वखण्डॆ सुबॊधिन्यां कारकांशफलकथनं ।

नामाऽष्टमॊऽध्यायः ॥

अथाऽऽरूढमाह— अधुना सम्प्रवक्ष्यामि राश्यारूढपदं द्विज। राशीनां द्वादशानान्तु यावदीशाश्रयॊ भवॆत॥1॥ अब मैं राशि का आरूढ-पद कहता हूँ- बारहॊं राशियॊं का उसकॆ स्वामी जहाँ बैठॆ हॊं, उस राशि कॆ राशि की संख्या जितनी हॊ॥1॥।

संख्या त्वीशॊदयादग्रॆ समाना तत्पदं वदॆत ।

राशिवग्रह आरूढं ज्ञायतॆ गणकैर्जनैः॥2॥ * उतनी संख्या और  आगॆ गिननॆ सॆ जॊ राशि हॊ वही आरूढ लग्न या पद हॊता है। इसी प्रकार अर्थात राशि कॆ ही समान ग्रहॊं का भी आरूढ लग्न हॊता है॥2॥

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230

। बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम . यावद्दरं यस्य राशिस्तावत्संख्याक्रमॆण वै।

। अग्रॆ लग्नारूढपदं ज्ञायतॆ द्विजसत्तम ॥3॥

जिस ग्रह की राशि उस ग्रह सॆ जितनी दर हॊ उतनी ही संख्या आगॆ उस ग्रह की लग्नारूढ राशि हॊती है॥3॥।

जनुर्लग्नाल्लग्नस्वामी यावद्द्रं हि तिष्ठति। । तावद्दरं तद्ग्रॆ च लग्नारूढं च कथ्यतॆ॥4॥

जन्मलग्न सॆ लग्नॆश जितनी दूर राशि पर हॊ उतनी ही राशि आगॆ जॊ राशि हॊ उसॆ लग्नारूढ राशि रहतॆ हैं॥4॥

यदि लग्नॆश्वरः स्व कलत्रॆ संस्थितॊऽथवा।

आरूढलग्नमित्याहुर्जन्मलग्नं द्विजॊत्तम॥5॥ यदि लग्नॆश अपनी राशि कॆ सप्तम मॆं हॊ तॊ जन्मलग्न ही आरूढ लग्न हॊती है॥5॥।

ऎकं तन्वादिभावानां भावारूढपदं भवॆत। । यत्र यत्र ग्रहा लग्नॆ तत्र तत्र सुसंलिखॆत ॥6॥ इसी प्रकार तन्वादि भावॊं का प्रत्यॆक का आरूढ बनाना चाहि‌ऎ॥6॥ इस प्रकार लग्नारूढ कॊ लग्न मानकर चक्र बनावॆ। उसमॆं जॊ ग्रह, जिस स्थान मॆं हॊ वहाँ लिखकर फल कहॆ। . विशॆष- यहाँ पद और  आरूढ शब्द दॊनॊं ऎकार्थक हैं। जैमिनि कॆ मत सॆ यदि लग्नॆश, लग्न सॆ चौथॆ भाव मॆं हॊ तॊ चतुर्थभावगत राशि और  सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ दशमभावगत राशि लग्न का पद हॊता है। जैसॆ मिथुन लग्न का स्वामी बुध वृश्चिक राशि मॆं है, मॆषादि। गणना सॆ वृश्चिक की संख्या 5 है, अतः वृश्चिक सॆ 5वीं मॆष राशि ही मिथून लग्न का पद हु‌आ। प्रायः लग्न कॆ पद सॆ ही विचार करना चाहि‌ऎ।

। पदादॆकादशस्थानफलम्पदादॆकादशॆ स्थानॆ शुभग्रहयुतॆक्षितॆ। लक्ष्मीवाञ्जायतॆ बालः प्रजावाञ्छीलसंयुतः॥7॥

पद सॆ 11वॆं भाव मॆं शुभग्रह हॊं या दॆखतॆ हॊं तॊ बालक धनी, । पुत्रवान और  शीलवान हॊता है॥7॥

वित्तॊपार्जनन्यायॆन नीतिवाञ्जायतॆ सदा।

नरॊ न नास्तिकॊ नूनं न तु शास्त्रविरुद्धकृत ॥8॥

फःईळीण्टॊ

अथाऽऽरूढमाह—

838 सन्मार्ग सॆ द्रव्य पैदा करनॆ वाला नीतियुक्त हॊता है और  धार्मिक तथा शास्त्रज्ञ हॊता है॥8॥

पदादॆकादशॆ विप्र पापखॆटयुतॆक्षितॆ॥

अन्यायॊपार्जितं वित्तं विरुद्धं शास्त्रमार्गतः॥9॥ यदि पद सॆ 11वॆं भाव मॆं पापग्रह वा पापग्रह दॆखतॆ हॊं तॊ अन्याय सॆ द्रव्य कॊ पैदा करनॆ वाला और  शास्त्र सॆ अनभिज्ञ हॊता है॥9॥

मिश्रॆमिश्रफलं ज्ञॆयमुच्चमित्रादिक्षॆत्रगः।

बहुधा जायतॆ लाभॊ यत्र तत्र द्विजॊत्तम॥10॥ यदि शुभग्रह और  पापग्रह दॊनॊं सॆ दृष्ट-युत हॊं तॊ दॊनॊं फल हॊता है। यदि उच्च-मित्र आदि कॆ गृह मॆं हॊं तॊ प्रायः लाभ ही हॊता है॥10॥

आरूढाल्लाभभवनं ग्रहः पश्यॆत्तु न व्ययम॥ यस्य जन्मनि सॊऽपि स्यात्प्रबलॊ धनवानपि॥11॥ यदि शुभाशुभ ग्रह उच्चराशि मॆं बैठॆ हॊं और  11वॆं भाव कॊ दॆखतॆ हॊं तॊ अनॆक प्रकार सॆ लाभ हॊता है, परन्तु 12वॆं भाव कॊ न दॆखतॆ हॊं तॊ॥11॥

दृष्टग्रहाणां बाहुल्यॆ तथा द्रष्टरि तुङ्गगॆ। सार्गलॆ चापि तत्रापि बह्वर्गलसमागमॆ ॥12॥ यदि बहुत सॆ ग्रह अपनी उच्चराशि मॆं हॊकर 11वॆं भाव कॊ दॆखतॆ हॊं और  अर्गला यॊग करतॆ हॊं ॥12॥

शुभग्रहार्गलॆ तत्र तत्राप्युच्चग्रहार्गलॆ। । सुखानि स्वामिनां दृष्टॆ लग्नभाग्यादिगॆन वा॥13॥ उच्चराशिस्थ शुभग्रह का अर्गला यॊग हॊ तॊ बालक अत्यंत सुख कॊ पाता है॥13॥।

जातस्य पुंसः प्राबल्यं निर्दिशॆदुत्तरॊत्तरम। उक्तयॊगॆषु खॆटाश्चॆद्द्वादशं नैव पश्यति॥14॥

लग्न, भाग्य मॆं बैठॆ हु‌ऎ ग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ, जॊ द्वादशभाव कॊ न दॆखता हॊ तॊ जातक उत्तरॊत्तर उन्नति करता है॥14॥

। पदाद्वादशभावादीनां फलम्‌आरूढाद्वादशॆ विप्र शुभपापयुतॆक्षितॆ। व्ययाधिक्यं भवॆदॆवं विशॆषॊपार्जनात्तथा॥15॥

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272

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम पद सॆ 12वॆं भाव मॆं शुभग्रह-पापग्रह युत हॊं और  दॆखतॆ हॊं तॊ विशॆष लाभ, कॆ कारण द्रव्य का अधिक खर्च हॊता है॥15॥

शुभग्रहॆ सुमार्गॆषु कुमार्गात्पापखॆचरैः। मिश्रमि‌अफलं वाच्यं यथालाभॆषु पूर्ववत ॥16॥ शुभग्रह का संबंध हॊनॆ सॆ सुमार्ग मॆं और  पापग्रह का संबंध हॊनॆ सॆ कुमार्ग मॆं व्यय हॊता है। दॊनॊं (शुभ-पाप) कॆ रहनॆ सॆ दॊनॊं मार्ग मॆं व्यय हॊता है॥16॥।

आरूढाद्वादशॆ शुक्रॆ भानुस्वर्भानुवीक्षितॆ।

राजमूलाढ्ययं वाच्यं चन्द्रदृष्ट्या विशॆषतः॥17॥

 आरूढ सॆ 12वॆं शुक्र हॊ, सूर्य-राहु सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ राजा कॆ द्वारा व्यय हॊता है। चन्द्रमा दॆखता हॊ तॊ विशॆष व्यय हॊता ही है॥17॥।

आरूढादद्वादशॆ सौम्यॆ शुभखॆटयुतॆक्षितॆ। ज्ञातिमध्यॆ व्ययॊ नित्यं पापदृक्कलहाद्व्ययः॥18॥

आरूढ सॆ 12वॆं भाव मॆं बुध हॊ और  शुभग्रह सॆ दृष्ट वा युत हॊ तॊ जाति (भा‌ई-बंधु) मॆं व्यय हॊता है और  पापग्रह दॆखता हॊ तॊ कलह हॊनॆ सॆ व्यय हॊता है॥18॥।

पदाव्ययॆ सुराचार्यॆ वीक्षितॆ चान्यखॆचरैः। करमूलाढ्ययं वाच्यं करव्याजॆन वै द्विज॥19॥ पद सॆ 12वॆं भाव मॆं गुरु हॊ और  अन्य ग्रहॊं सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ कर (लगान) आदि सॆ व्यय हॊता है॥19॥। , आरूढाबूद्वादशॆ सौरी धरापुत्रॆण संयुतॆ।

अन्यग्रहॆक्षितॆ विप्र भ्रातृमूलाद्धनव्ययम॥20॥ आरूढ सॆ व्ययभाव मॆं शनि हॊ और  भौम सॆ दॆखा जाता हॊ तथा । शॆष ग्रहॊं सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ भा‌ई, कुटुंब कॆ कारण धन का व्यय हॊता है॥20॥

पदादद्वादशॆ भावॆ यॆ यॊगा गदिता मया। लाभस्थानॆषु तॆ यॊगा लाभयॊगकराः सदा॥21॥

पद सॆ बारहवॆं भाव मॆं जिन यॊगॊं कॊ मैंनॆ कहा है वॆ ही यॊग लाभभावं । मॆं हॊ तॊ लाभ करनॆ वालॆ हॊतॆ हैं॥21॥

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अयामाह—

233

पदात्सप्तमभावफलम्पदाच्च सप्तमॆ राहुरथवा संस्थितः शिखी। उदरव्यथायुतॊ बालः शिखिनापीडितॊऽधिकम॥22॥ पद सॆ सातवॆं भाव मॆं राहु अथवा कॆतु हॊ तॊ बालक पॆट की बीमारी सॆ व्यथित रहता है। कॆतु सॆ अधिक पीडायुक्त हॊता है॥22॥

पदाच्च सप्तमॆ कॆतुः पापखॆटयुतॆक्षितॆ । साहसी श्वॆतकॆशी च दीर्घलिङ्गी भवॆन्नरः॥23॥ पद सॆ सातवॆं कॆतु हॊ और  पापग्रह सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ बालक साहसी, सफॆद बालॊं वाला और  दीर्घलिंगी हॊता है॥23॥।

पदाच्च सप्तमॆ स्थानॆ गुरुशुक्रनिशाकराः॥ ऎकॊ द्वयं त्रयं वा स्याल्लक्ष्मीवान कारयॆद्बुधः॥24॥ पद सॆ सातवॆं भाव मॆं.गुरु, शुक्र, चन्द्रमा तीनॊं हॊं वा इनमॆं सॆ ऎक या दॊ हॊं तॊ बालक धनी हॊता है॥24॥।

तुङ्ग सप्तमॆ खॆटॆ शुभॊ वाप्यशुभः पदात। श्रीमान सॊऽपि भवॆन्नूनं सत्कीर्तिसहितॊ द्विज॥25॥ पद सॆ सातवॆं भाव मॆं अपनी उच्चराशि मॆं शुभग्रह यॊ पापग्रह मॆं सॆ कॊ‌ई हॊ तॊ बालक कीर्तिमान और  लक्ष्मीवान हॊता है॥25॥

यॆ यॊगाः सप्तमॆ भावॆ आरूढात्कथिता मया। तॆ यॊगा शूनवच्चिन्त्या वित्तभावॆऽपि वै द्विज॥26॥ पद सॆ सातवॆं भाव मॆं जिन यॊगॊं कॊ मैंनॆ कहा है उनकॊ उसी प्रकार दूसरॆ भाव मॆं भी विचार करना चाहि‌ऎ॥26॥

तुङ्गस्थॊ रौहिणॆयॊ वा जीवॊ वा शुक्र ऎवं वा। ऎकॊ बली धनगतः श्रियं दिशति दॆहिनः॥27॥ यदि बुध, गुरु, शुक्र इनमॆं सॆ कॊ‌ई भी अपंनी उच्चराशि मॆं बली हॊकर धनभाव मॆं हॊ तॊ धन कॊ दॆता है॥27॥

यॆ यॊगाश्च पदॆ लग्नॆ यथावद्गदिता मया। कारकांशस्थकुण्डल्यां निर्बाधकाविचिन्तयॆत॥28॥

जॊ यॊग लग्न पद मॆं कहॆ गयॆ हैं उनकॊ कारकांश कुंडली मॆं भी दॆखना चाहि‌ऎ॥28॥


38

। बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । आरूढाद्वित्तचॆ सौम्यॆ सर्वदॆशाधिपॊ भवॆत। । सर्वज्ञॊ वा भवॆद्बालः कविर्वाग्मी च भार्गवॆ॥29॥ । पद सॆ दूसरॆ भाव मॆं शुभग्रह हॊ तॊ सभी दॆशॊं का स्वामी हॊता है । अथवा सर्वज्ञ हॊता है। कॆवल शुक्र हॊ तॊ कवि और  वक्ता हॊता है॥29॥

आरूढाकॆन्द्रकॊणॆषु तथा लाभपदॆ द्विज। लग्नदारपदॆ वापि सबलग्रहसंयुतॆ ॥30॥ श्रीमांश्च जायतॆ नूनं दॆशं विख्यातिमान भवॆत। षष्ठाष्टमॆ व्ययस्थानॆ श्रीमान्स न भवॆत्तदा॥31॥ . पद सॆ कॆन्द्र तथा कॊण मॆं लाभ पद मॆं अथवा लग्न दारपद मॆं बलवान ग्रह हॊं तॊ श्रीमान और  प्रसिद्ध हॊता है। यदि छठॆ, आठवॆं, बारहवॆं स्थान मॆं हॊं तॊ श्रीमान नहीं हॊता है॥30-31॥

पदाल्लग्नॆ सप्तमॆ वा कॆन्द्रत्रिकॊणॊपचयॆ। सुवीर्यसंस्थितॆ खॆटॆ भार्याभर्तृसुखप्रदः॥32॥ पद सॆ लग्न मॆं वा सातवॆं वा कॆन्द्र, त्रिकॊण, उपचय स्थान मॆं बली ग्रह हॊं तॊ स्त्री, भा‌ई आदि का सुख हॊता है॥32॥

ऎवं लग्नपदाद्विप्र पुत्रभावादि चिन्तयॆत। मित्रामित्रॆ विजानीयात्रिकभावॆषु वै द्विज॥33॥ इसी प्रकार लग्नपद सॆ पुत्रभाव आदि का भी विचार करना चाहि‌ऎ। यदि दॊनॊं मॆं मित्रता हॊ. तॊ मित्रता, अन्यथा शत्रुता हॊती है॥33॥

- लग्नारूढं दारपदं मिथः कॆन्द्रगतॆ यदि।

लाभॆ वा त्रित्रिकॊणॆ वा तदा राजा धराधिपः॥34॥ लग्नपद और  दारपंद परस्पर कॆन्द्रगत, लाभ, तृतीय वा त्रिकॊण मॆं हॊ तॊ पृथ्वी का राजा हॊता है॥34॥

ऎवं दारादिभावानामर्जयित्वारिमित्रता॥ . जातकद्वयमालॊक्य चिन्तनीयं विचक्षणैः॥35॥

इसी प्रकार दारी आदि भावॊं कॆ शत्रु-मित्रादि का विचार कर उनकॆ फलॊं . कॊ भी कहना चाहि‌ऎ ॥35 ॥।

इति पाराशरहॊरायां पूर्वखण्डॆ सुबॊधिन्यां आरूढफलाध्यायः नवमः।


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3445

ई‌ऎ

234

उपपदप्रकरणम

पराशर उवाच‌अधुना सम्प्रवक्ष्याम्युपपदं च द्विजॊत्तम। यस्य विज्ञानमात्रॆण जायतॆ फलसूचकः॥1॥ अब मैं उपपद कॊ कह रहा हूँ, जिसकॆ ज्ञान मात्र सॆ फल का निर्णय हॊता है॥1॥

लग्नॆ विषमॆ विप्र धनस्य पदॊपपदम। समॆ लग्नॆ व्ययस्य च पदमुपपदं भवॆत॥2॥ लग्न यदि विषम हॊ तॊ धनभाव का पद उपपद हॊता है, यदि समलग्न हॊ तॊ बारहवॆं का पद उपपद हॊता है॥2॥

तदॆवॊपारूढगौणपदं च कथ्यतॆ द्विज॥ तस्मादॆव फलं सर्वं शुभाशुभं विचारयॆत॥3॥ उपपद कॊ ही उपारूढ और  गौणपद कहतॆ हैं। इसी सॆ शुभ-अशुभ फलॊं का विचार करना चाहि‌ऎ॥3॥

पापाक्रान्तॆ पापयुतॆ पाप पापवीक्षितॆ। पापसम्बन्धसंयॊगॆ उपपदाद द्वितीयकॆ ॥4॥ उपपद सॆ दूसरॆ भाव मॆं पापग्रह हॊ, पापग्रह की राशि पापग्रह सॆ दॆखी जाती हॊ तॊ॥4॥

प्रव्रज्या यॊगॊ विज्ञॆयः संन्यासॊ भवति ध्रुवम।

तथा भार्याविरॊधी स्यादथवा स्त्रीविनाशकृत ॥5॥ । व्रज्या (संन्यास) यॊग हॊता है। इसमॆं उत्पन्न बालक अवश्य संन्यासी हॊता है तथा स्त्री का विरॊधी वा स्त्री का नाश करनॆ वाला हॊता है॥5॥

रवॆः पापत्वमात्रैव सिंह स्वॊच्चभॆ सति। पूर्वॊक्तं नॊ फलं ज्ञॆयं जायतॆ गृहिणीसुखम ॥6॥ यदि सूर्य सिंह राशि मॆं वा अपनी उच्चराशि मॆं हॊ तॊ सूर्य पापग्रह नहीं हॊता है। ऐसी स्थिति का सूर्य उक्त भाव मॆं हॊ तॊ प्रव्रज्या यॊग नहीं हॊता अपितु स्त्री का सुख हॊता है॥6॥

. मॆषादिपापराशॊ चॆत्संस्थितॆ दिवसाधिपॆ।

पूर्वॊक्तं च फलं ज्ञॆयं प्रव्रज्यादारनाशकः॥7॥

. ।

फॆ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम यदि मॆषादि पापराशियॊं मॆं सूर्य हॊ तॊ पूर्वॊक्त फल हॊता है और  स्त्री का नाश हॊता है॥7॥

उपपदाच्च द्वितीयं वै शुभसम्बन्धदृष्टियुक। शुभ शुभसंयॊगॆ पूर्वॊक्तफलदॊ भवॆत॥8॥ उपपद सॆ दूसरॆ भाव मॆं शुभग्रह का संबंध हॊ, शुभग्रह दॆखतॆ हॊं। अथवा शुभग्रह की राशि हॊ तॊ पूर्वॊक्त फल हॊता है॥8॥

उपपदॆ द्वितीयॆ वा नीचांशॆ नीचखॆटयुक। .. नीचसम्बन्धयॊगॆ वा प्रव्रज्यादारनाशकृत ॥9॥ उपपद मॆं उससॆ दूसरॆ भाव मॆं नीचांश वा नीच राशि मॆं नीच ग्रह युक्त हॊ, नीचस्थ ग्रह सॆ संबंध हॊता हॊ तॊ प्रव्रज्या यॊग और  स्त्री का नाश हॊता है॥9॥

उच्चांशॆ उच्चराशौ वा उच्चसम्बन्थदृष्टियुक। बहुदारा भवॆत्तस्य रूपलक्षणसंयुताः॥10॥ यदि उच्चांश का उच्चराशि मॆं उच्चस्थ ग्रह सॆ संबंध और  दृष्टि हॊ तॊ उसॆ रूपवती अनॆक स्त्रियाँ हॊती हैं॥10॥।

उपपदॆ द्वितीयॆ वा युग्म संस्थितॆ यदा। तत्र प्रजातः पुरुषः बहुदारसमन्वितः॥11॥ उपपद वा दूसरॆ भाव मॆं मिथुन राशि हॊ तॊ जातक कॊ अनॆक स्त्रियाँ हॊती हैं॥11॥।

उपपदॆ द्वितीयॆ वा. स्वस्वामिखॆटसंयुतॆ । उत्तरायुषि निर्दारॊ भवत्यॆव न संशयः॥12॥ स्वराशौ संस्थितॆ वापि नित्याख्यॆ दारकारकॆ। उत्तरायुषि भॊ विप्र! निदरः स नरॊ भवॆत॥13॥

उपपद या दूसरा भाव अपनॆ स्वामी शुभग्रह सॆ युत हॊ तॊ आयुष्य .. । वॆ उत्तरार्ध मॆं बिना स्त्री कॆ पुरुष हॊता है॥13॥

उपपदॆऽपि तुङ्ग नित्याख्यॆ दारकारकॆ। उत्तमकुलाद्दारलाभॊ नीचस्थॆ तु विपर्ययः॥14॥ उपपद मॆं उच्च मॆं नित्य स्त्रीकारक हॊ तॊ उत्तम कुल सॆ स्त्री का लाभ हॊता है। नीच राशि मॆं हॊ तॊ विपर्यय हॊता है॥14॥

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उपपदप्रकरणम शुभग्रहयुतॆ दृष्टॆ उपपदॆ दारकारकॆ। सुन्दरी लभ्यतॆ भार्या भव्य रूपवती द्विज॥15॥ उपपद और  स्त्रीकारक शुभग्रह सॆ युत-दृष्ट हॊं तॊ बहुत सुन्दर स्त्री प्राप्त हॊती है॥15॥

उपपदॆ द्वितीयॆ वा शनिराहुयुतॆ सति। अपवादात्स्त्रियस्त्यागॊ भार्यानाशॊऽथवा भवॆत॥16॥ उपपद वा द्वितीय मॆं शनि-राहु युत हॊं तॊ अपवाद कॆ कारण स्त्री का त्याग या स्त्री का नाश हॊता है॥16॥

उपपदॆ च द्वितीयॆ वा शिखिशुक्रौ स्थितौ यदा॥ रक्तप्रदररॊगार्हॊ जायतॆ तस्य भामिनी॥17॥ उपपद या द्वितीय मॆं कॆतु-शुक्र युत हॊं तॊ स्त्री रक्तप्रदर रॊग सॆ रॊगिणी हॊती है॥17॥।

उपपदादिषु संयॊगॊ बुधकॆत्वॊद्विजॊत्तम।

अस्थिस्रावयुता बाला गृहॆ तस्य न संशयः॥18॥ यदि बुध-कॆतु का संयॊग हॊं तॊ अस्थिस्राव सॆ स्त्री रॊगिणी हॊती है॥18॥

रविराहुस्तथा पङ्गुरुपपदॆ यॊगकारकः। अस्थिज्वरवती बाला तप्ताङ्गाचदिवानिशम ॥19॥। रवि, राहु, शनि उपपद मॆं हॊं तॊ स्त्री अस्थिज्वर सॆ पीडित हॊती है॥19॥।

उपपदॆ बुधकॆतुभ्यां यॊगसम्बन्धकॆ द्विज। स्थूलागी गृहिणी तस्य जायतॆ नात्र संशयः॥20॥ उपपद मॆं बुध-कॆतु का यॊग वा संबंध हॊ तॊ उसकी स्त्री स्थूल शरीर की हॊती है॥20॥।

उपपदॆ बुधक्षॆत्रॆ भौम चॊथवा द्विज। मन्दारौ संस्थितौ इत्र नासिकारॊगयुग्भवॆत॥21॥ उपपद मॆं बुध की राशि या भौम की राशि हॊ और  शनि-भौम युत हॊं तॊ स्त्री की नाक मॆं रॊग हॊता है॥21॥

यदि तत्र युतॊ सौरिः गुरुणा सहितॊ भवॆत। । कर्णरॊगवती बाला नॆत्ररॊगयुता तथा॥22॥


भारत

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ऎ‌ऎ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । 

यदि गुरु-शनि का यॊग हॊ तॊ स्त्री कान तथा आँख कॆ रॊग वाली हॊती है॥22॥

कुजसॊप्यॊ चान्यक्षॆत्रॆ उपपदॆ द्विजॊत्तम।

यॊगॆ स्वर्भानुदॆवॆन्यदन्तार्ता गृहिणी भवॆत॥23॥ । 

यदि भौम-बुध वा गुरु-राहु उपपद मॆं हॊं तॊ दाँत कॆ रॊग सॆ पीडित

स्त्री हॊती है॥23॥ । उपपदॆ च कुम्भस्थॆ मीनस्थॆऽपि तथा द्विज॥

शनिस्वर्भानुयॊगश्चॆत्यंग्वंगी तस्य भामिनी॥24॥ , 

उपपद मॆं कुम्भ या मीन राशि हॊ और  उसमॆं शनि-राहु का यॊग हॊ तॊ उसकी स्त्री पंगुल (वातव्याधि सॆ) हॊती है॥24॥

यॆ यॊगाः पूर्वकथिता मया तॆ विप्रसत्तम।

शुभयुग्दृष्टिसंयॊगॆ न भवॆयुः फलप्रदाः॥25॥ । 

पूर्वॊक्त जॊ यॊग कहॆ गयॆ हैं वॆ यदि शुभग्रह सॆ युक्त या दृष्ट्वाहॊं तॊ फलप्रद नहीं हॊतॆ हैं॥25॥।

लग्नादुपपदाद्वापि यॊ राशिः सप्तमॊ द्विज। तदीशात्तन्नवांशाच्च फलमॆव विचारयॆत ॥26॥ "लग्न सॆ वा उपपद सॆ सातवीं राशि कॆ जॊ स्वामि और  उसकॆ नवांश सॆ भी इसी प्रकार फल का विचार करना चाहि‌ऎ॥26॥

शनिः शुक्रस्तथा चान्द्रः सप्तमांशग्रहॆभ्यश्च।"

नदमॆ संस्थितॊ विप्र अपत्यरहितॊ नरः॥27॥ । 

उक्त प्रकार सॆ सप्तमॆश सॆ नवम मॆं शनि, शुक्र और  बुध हॊं तॊ पुरुष पुत्रहीन हॊता है॥27॥

। पदॊपपंदलग्नाच्य सप्तमांशग्रहॆभ्यश्च।

नवमस्थॆ गुरौ भावौ स्वर्भान यॊगकृत्तथा॥28॥ 

उपपद सॆ वॊ सप्तमांश ग्रह सॆ नवमभाव मॆं गुरु, सूर्य, राहु का यॊग हॊ । तॊ॥28॥

बहुपुत्रॊ भवॆनूनं प्रतापी बलवीर्ययुक।

प्रचण्डविजयी विप्र रिपुनिग्रहकारकः॥29॥ । 

बडॆ बलवान पराक्रमी, प्रतापी शत्रु‌ऒं का दमन करनॆ वालॆ अनॆक पुत्र हॊतॆ हैं॥29॥।

-

3

उपपदप्रकरणम उक्तस्थानॆ निशानाथॆ ऎकपुत्रॊ भवॆद्विज। उक्तस्थानॆ शुभॆ पापॆ पुत्रसौख्यं विलम्बितम॥30॥ उक्त स्थान मॆं चन्द्रमा हॊ तॊ ऎक पुत्र हॊता है। यदि उक्त स्थान मॆं शुभ-पाप दॊनॊं हॊं तॊ विलंब सॆ पुत्र का सुख हॊता है॥30॥

उक्तस्थानॆ कुजशनिर्जायतॆ च ह्यपुत्रवान। । परपुत्रयुतॊ वापि सहॊढ सुतवान भवॆत॥31॥

उक्त स्थान मॆं भौम-शनि हॊं तॊ पुत्रहीन हॊता है और  दूसरॆ कॆ पुत्र सॆ (दत्तक पुत्र) पुत्रवान हॊता है, वा सहॊदर कॆ पुत्र सॆ पुत्रवाला हॊता है॥32॥

उक्तस्थानॆ चॊजराशौ बहुपुत्रप्रदॊ भवॆत॥ युग्मराशौ स्थितॆ तत्र स्वल्पापत्यॊ भवॆन्नरः॥32॥। उक्त स्थान मॆं विषम राशि हॊ तॊ बहुत पुत्र हॊतॆ हैं। समराशि हॊ तॊ अल्पसंतान हॊतॆ हैं॥32॥

उपपदॆ सिंहलग्नॆ निशानाथयुतॆक्षितॆ । स्वल्पापत्यॊ भवॆनूनं कन्यायां कन्यका भवॆत ॥33॥ उपपद मॆं सिंहलग्न हॊ और  चन्द्रमा सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ थॊडी संतान हॊती है, कन्या राशि हॊ तॊ कन्या हॊती है॥33॥

सुतभावनवांशाच्चॆ तथापि पुत्रकारकात ।

यद्वात्रिंशांशकुण्डल्यां तदंशाच्च सदा द्विज॥34॥ । पंचम भाव कॆ नवांश सॆ, पुत्रकारक सॆ, अथवा त्रिंशांश कुण्डली । वा उसकॆ नवांश सॆ ॥34 ॥

तदीशाश्चिन्तयॆद्विप्न सन्ततॆर्यॊगमुत्तमम । ऎवं सर्वप्रकारॆण चिन्तनीयं सदा बुधैः॥35॥ वा उसकॆ स्वामी सॆ संतान भावॊं कॆ उत्तम यॊगॊं का विचार करना चाहि‌ऎ॥35॥ चाहि‌ऎ॥35॥।

। । उपारूढाच्च न्यायस्थौ शनिराहू भ्रातृनाशदौ। ऎकादशॆ ज्यॆष्ठभ्राङ्गस्तृतीयॆ च कनिष्ठकम॥36॥ उपपद सॆ 3रॆ, 11वॆं भाव मॆं शनि-राहु हॊं तॊ भा‌इयॊं का नाश हॊता है। 11वॆं मॆं ज्यॆष्ठ भा‌ई का और  तीसरॆ मॆं छॊटॆ भा‌ई का विचार करना

चाहि‌ऎ॥36॥ ॥

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फ0

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम उपपदैकादशस्थानॆ तृतीयॆ दानवॆज्यकॆ।

व्यवहितगर्भस्यनाशः स्याद्यथा सम्भवति द्विज॥37॥ - उपपद सॆ 11वॆं, 3रॆ स्थान मॆं शुक्र हॊ तॊ उससॆ व्यवहित गर्भ माता का नाश हॊ जाता है॥37 ॥

लग्नाद्वापि लयॆ भावॆ दैत्याचार्ययुतॆक्षितॆ।

व्यवहितगर्भस्य नाशः स्यादित्युक्तं गणकॊत्तमैः ॥38॥ . लग्न सॆ आठवॆं भाव मॆं शुक्र युत हॊ वा दॆखता हॊ तॊ भी व्यवहित गर्भ का नाश हॊता है॥38॥।

तृतीयैकादशॆ विप्र! कुजॆज्यबुधचन्द्रमाः। भ्रातृबाहुल्यता वाच्या प्रतापी बलवत्तरः॥39॥ उपपद सॆ 3रॆ, 11वॆं भाव मॆं भौम, गुरु, बुध, चन्द्रमा हॊं तॊ प्रतापी बलवान अधिक भा‌ई हॊतॆ हैं॥39॥।

शन्यारसंयुतॆ दृष्टॆ तृतीयैकादशॆ द्विज। कनिष्ठज्यॆष्ठयॊर्नाशं भिन्नस्थॆ भिन्नभावत॥40॥ 3, 11 कॊ शनि-भौम दॆखतॆ हॊं वा युत हॊं तॊ छॊटॆ-बडॆ दॊनॊं भा‌इयॊं का नाश हॊता है। भिन्न भावॊं मॆं हॊ तॊ उन भावॊं का नाश करतॆ हैं॥40॥

भ्रातृस्थानॆ युतॆ सौरॆ लाभस्थॆ वा तृतीयगॆ।

स्वमात्रमॆव शॆषः स्यादन्यं नश्यन्ति वै द्विज॥41॥ । यदि शनि 3रॆ वा 11वॆं मॆं हॊ तॊ कॆवल अपनॆ बच जाता है और  सभी । भा‌ई नष्ट हॊ जातॆ हैं॥41॥।

- तृतीयैकादशॆ कॆतुर्बाहुल्यं स्याभगिन्ययॊः।

भ्रात्रॊः स्वल्पसुखं तस्यनिर्विशकं द्विजॊत्तम॥42॥ 3,11 वॆं भाव मॆं कॆतु हॊ तॊ बहनॆं अधिक हॊती हैं और  भा‌इयॊं का सुख अल्प हॊता है॥42॥

सप्तमॆशाद्वितीयॆ वै सैहिकॆययुतॆक्षितॆ । दंष्ट्रावान स भवॆद्बालॊ बहुभांग्ययुतॊ भवॆत॥43॥ सप्तमॆश सॆ दूसरॆ भाव मॆं राहु युक्त हॊ अथवा दॆखता, हॊ तॊ बालक कॆ दाँत बडॆ-बडॆ हॊतॆ हैं और  वह भाग्यशाली हॊता है॥43॥

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आश्शॆश

उपपदप्रकरणम सप्तमॆशाद्वितीयॆ चॆत्पुच्छनाथयुतॆक्षितॆ। । स्तब्धवाग्जायतॆ बालस्तथा स्खलितवाग्द्विज॥44॥

सप्तमॆश सॆ दूसरॆ भाव कॊ कॆतु दॆखता हॊ वा युत हॊ तॊ बालक हकलाकर बॊलनॆ वाला हॊता है॥44॥

आरूढान्मृत्युभावस्थॆ पापाख्यॆ शुभवजितॆ। शुभसम्बन्धरहितॆ चॊशॆ भवति निश्चितम ॥15॥ पद सॆ आठवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं, शुभग्रह सॆ संबंध न हॊ तॊ चॊर हॊता है॥45॥

आरूढभावॆ सौम्यॆ तु सर्वदॆशाधिपॊ भवॆत॥

सर्वज्ञस्तत्र जीवॆ स्यात्कविर्वाग्मी च भार्गवॆ॥46॥ । पद मॆं बुध हॊ तॊ चक्रवर्ती हॊता है, गुरु हॊ तॊ सर्वज्ञ हॊता है और  शुक्र हॊ तॊ कवि तथा वक्ता हॊता है॥46॥।

सप्तमॆ द्वादशॆ स्थानॆ सैहिकॆययुतॆक्षितॆ। ज्ञानवांश्च भवॆद्बालॊ बहुभाग्ययुतॊ द्विज॥47॥ सातवॆं, बारहवॆं भाव मॆं राहु हॊ अथवा दॆखता हॊ तॊ बालक ज्ञानी तथा बहुत भाग्यशाली हॊता है॥47॥

आरूढाच्च पदाद्वापि धनस्थॆ शुभखॆचरॆ। सर्वद्रव्याधिपॊ ग्रीमान जायतॆ द्विजसत्तम॥48॥ आरूढ सॆ वा पद सॆ दूसरॆ भाव मॆं शुभग्रह हॊ तॊ सम्पूर्ण द्रव्य का अधिपति और  बुद्धिमान हॊता है॥48॥।

उपपदाद्धनपॊ यत्र वर्ततॆ वित्तभॆ यदा॥ पापखॆचरसंयुक्तॆ चौरॊ भवति निश्चितम॥49॥ उपपद सॆ द्वितीयॆश यदि धनभाव मॆं हॊ और  पापग्रह सॆ संबंध करता हॊ तॊ निश्चय ही चॊर हॊता है॥49॥।

अमात्यानुचराद्विप्न दॆवभक्तिं विचिन्तयॆत। नीचत्वादॆव नीचत्वं शुभपापाच्छुभाशुभम॥50॥ भ्रातृकारक सॆ भी पूर्ववद दॆवभक्ति-विचार करना चाहि‌ऎ। यदि नीचग्रह का संबंध हॊ तॊ नीच दॆवता और  शुभ-पाप कॆ संबंध द्वारा शुभ-पाप दॆवता कॊ समझना चाहि‌ऎ॥50॥

ऎरॆ.

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883

टॆ‌ईश्श

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम कारकांशॆ पापखगैः पापांशॆ पापयॊगकृत। पापवर्ग शुभैहनॆ जायतॆ परजातकः॥51॥ , कारकांश मॆं पापग्रह, पापांश मॆं पापग्रह सॆ यॊग करतॆ हु‌ऎ पापग्रह कॆ वर्ग मॆं हॊं, शुभग्रह का सम्बन्धन हॊ तॊ दूसरॆ सॆ उत्पन्न हु‌आ हॊता है॥51॥ इति पाराशरहॊरायां पूर्वखण्डॆ सुबॊधिन्यां उपपदफलं नाम दशमॊऽध्यायः।

। अथ कारकमारकविचाराध्यायः 

पञ्चमं नवमं चैव विशॆषधनमुच्यतॆ। 

चतुर्थं दशमं चैव विशॆषसुखमुच्यतॆ ॥1॥ 

पाँचवाँ और  नवम स्थान विशॆष धनस्थान हॊता है और  चौथा तथा दशम विशॆष सुखस्थान हॊता है॥1॥

चन्द्रभानू विना सर्वॆ मारकॆ मारकाधिपाः। 

षष्ठाष्टमव्ययॆशास्तु राहुः कॆतुस्तथैव च॥2॥। 

चन्द्रमा-सूर्य कॊ छॊडकर शॆष सभी ग्रह मारकॆश हॊतॆ हैं। छठा, आठवाँ. बारहवाँ स्थान कॆ स्वामी और  राहु तथा कॆतु यॆ सभी मारकॆश हॊतॆ हैं॥2॥

कॆन्द्राधिपतयः सौम्याः शुभं नैव दिशन्ति च। . . 

क्रूराः नॆवाशुभं कुर्युः कॊणपौ शुभदायकौ॥3॥ । 

यदि शुभग्रह कॆन्द्र कॆ स्वामी हॊं तॊ शुभ फल नहीं दॆतॆ हैं। पार

कॆन्द्राधिपति हॊं तॊ अशुभ फल नहीं दॆतॆ हैं। यदि कॊण (9/5) कॆ स्वामी हॊं तॊ शुभफल दॆतॆ हैं॥3॥

धनॆशॊ हि व्ययॆशश्च संयॊगात्फलदौ मताः।

लाभारित्र्यधिपा पापा रन्धॆशॊ न शुभप्रदः॥4॥ 

द्वितीयॆश और  व्ययॆश संयॊगवश (साहचर्य) फल दॆतॆ हैं। 11/6/3भावॊं कॆ स्वामी पाप हॊतॆ हैं। अष्टमॆश शुभद नहीं हॊता है॥4॥

जायाकुटुम्बकाधीश मारकॊ परिकीर्तितौ। 

क्रूराश्चैतॆ ग्रहॊ ज्ञॆया क्षीणचन्द्रॊ रविस्तथा॥5॥

सप्तम और  दूसरॆ भाव कॆ स्वामी मारकॆश हॊतॆ हैं। क्षीणचन्द्र और  रवि . * क्रूर ग्रह है॥5॥

*

कारकमारकविचाराध्यायः 

शनिर्भौमश्च विज्ञॆया प्रबला ह्युत्तरॊत्तराः। 

लग्नाम्बुद्यूनकर्माणि प्रबलान्युत्तराणि हि॥6॥ 

शनि, भौम यॆ क्रूर ग्रह कहॆ जातॆ हैं, और  उत्तरॊत्तर प्रबल हॊतॆ हैं। लग्न, चतुर्थ, सप्तम, दशम यॆ उत्तरॊत्तर प्रबल हॊतॆ हैं॥6॥।

सुतधर्मौ तथा ख्यातौ प्रबलौ चॊत्तरॊत्तरौ। 

लाभारित्रितयस्थानं त्वधॊधः प्रबलं भवॆत॥7॥ 

पंचम और  नवम उत्तरॊत्तर प्रबलं हॊतॆ हैं। 11/6/3 स्थान क्रमशः प्रबल हॊतॆ हैं॥7॥

पुनर्मारकयॊर्मध्यॆ ह्युत्तरं प्रबलं मतम । 

भाग्यस्थानाद्व्ययं  विप्र तस्माच्चैवाशुभं वदॆत॥8॥ 

मारकॊं कॆ मध्य मॆं द्वितीयॆश प्रबल मारक हॊता है। भाग्यस्थान सॆ व्ययस्थान (अष्टम) सॆ भी अशुभ फल हॊता है॥8॥

ऎतत्स्थानानुसारॆण ग्रहाणां मानमालिखॆत। 

चन्द्रज्ञगुरुशुक्राणां कॆन्द्रदॊषॊ यथॊत्तरम॥9॥ 

इस प्रकार ग्रहॊं की शुभ-अशुभ फलॊं की तालिका लिखकर फल का विचार करॆं। चन्द्रमा, बुध, गुरु और  शुक्र का कॆन्द्रदॊष यथॊत्तर बलवान हॊता है॥9॥

तथैव ग्रहाः क्रूरा प्रबलाश्चैवॊत्तरॊत्तरम। । 

भाग्यॆशः सर्वदा सौम्यॊ न क्रूरः फलदायकः॥10॥

उसी प्रकार उसमॆं स्थित ग्रह भी यथॊत्तर बली हॊतॆ हैं। भाग्यॆश सर्वदा शुभफल दॆनॆ वाला हॊता है, किन्तु क्रूरग्रह हॊ तॊ शुभ फलदायक नहीं हॊता है॥10॥।

पुत्राधिपॊऽपि शुभदः क्रूरॊऽपि सुखदः स्मृतः। 

त्रिलाभरिपुमृत्यूनां पतयॊ, दुःखदायकाः॥11॥ 

पंचमॆश शुभग्रह हॊ या पापग्रह हॊ शुभफल ही दॆता है। 3/11/6/ 8 कॆ अधिपति दुःखदायी हॊतॆ हैं॥11॥

। यद्यद्भावगतॊ राहुः कॆतुश्च जननॆ नृणाम।

यद्यद्भावॆशसंयुक्तस्तत्फलं प्रदिशॆदलम ॥12॥ । 

राह-कॆतु जिन-जिन भावॊं मॆं हॊं, जिन-जिन भावॆशॊं सॆ युत हॊं उनकॆ

अनुसार फल कॊ दॆतॆ हैं॥12॥।

144 बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

अथ मॆषलग्नॆ शुभाशुभदायकौ

मन्दसौम्यसिताः पापाः शुभौ गुरुदिवाकरौ। 

न शुभं यॊगमात्रॆण प्रभवॆच्छनिजीवयॊः॥13॥

मॆष लग्न मॆं उत्पन्न बालक कॊ शनि, बुध, शुक्र पापफल दॆनॆ वालॆ और  गुरु-सूर्य शुभफल दॆनॆवालॆ हॊतॆ हैं। शनि-गुरु यॊग मात्र सॆ शुभदायक नहीं हॊतॆ किन्तु सहायक हॊतॆ हैं॥13॥।

परतन्त्रॆण जीवस्य पापकर्माणि निश्चितम॥

कविः साक्षान्निहन्ता स्यान्मारकत्वॆन लक्षितः॥14॥ । 

गुरु कॆ पारतंत्र्य हॊनॆ सॆ (व्ययॆश हॊनॆ कॆ कारण-पापसंबंध सॆ) पापफल दॆना भी निश्चित है। शुक्र साक्षात मारकॆश हॊता है॥14॥।

मन्दादयॊ निहन्तारॊ भवॆयुः पापिनॊ ग्रहाः॥ । 

शुभाशुभफलान्यॆवं ज्ञातव्यानि क्रियॊदभवैः॥15॥।

शनि आदि पापग्रह भी मारकॆश कॆ सहयॊग सॆ मारक हॊतॆ हैं। इस प्रकार मॆषलग्न मॆं उत्पन्न जातक कॆ शुभ-अशुभ का निर्णय करना चाहि‌ऎ॥15॥.

विशॆषयहाँ मॆषलग्न कॆ स्वामी भौम अष्टमॆश हॊनॆ कॆ कारण अशुभ है। किन्तु लग्नॆश हॊनॆ कॆ कारण शुभ फल दॆनॆ वालॆ कॆ सहायक हैं। शनि कॆन्द्राधिपति हॊनॆ कॆ कारण शुभद है, किन्तु लाभाधिपति हॊनॆ कॆ कारण पापी हॊ गया। बुध 3/6 भाव का अधिपति हॊनॆ कॆ कारण अशुभ, शुक्र मारकस्थान (2/7) का स्वामी यानि कॆन्द्रॆश हॊनॆ कॆ कारण अशुभ, सूर्य (5) का स्वामी हॊनॆ सॆ शुभ, गुरु व्ययॆश और  भाग्यॆश हॊनॆ कॆ कारण अपनॆ सहयॊगी कॆ अनुसार पापफलद भी हॊ सकता है। इसी प्रकार प्रत्यॆक लग्नॊं मॆं समझना चाहि‌ऎ।

। वृषलग्नम

जीवशुक्रॆन्दवः पापाः शुभौ शनिदिवाकरौ। 

राजयॊगकरः साक्षादॆक ऎव रवॆः सुतः॥16॥ 

वृष लग्न वालॆ कॊ गुरु, शुक्र, चन्द्रमा पापफल दॆनॆ वालॆ, शनि-सूर्य शुभ फलदायक और  राजयॊगकारक हॊतॆ हैं॥16॥ ... 

जीवादयॊ ग्रहाः पापाः सन्ति मारकलक्षणाः।

’ बुधः स्वल्पफलान्यॆवं ज्ञॆयानि वृषजन्मनः॥17॥ ॥


कारकमारकविचाराध्यायः 145

गुरु, शुक्र, चन्द्रमा यॆ पापफलदायक मारकॆश कॆ फल कॊ दॆनॆ वालॆ हॊतॆ हैं और  बुध अल्प शुभफल कॊ दॆनॆ वाला हॊता है। ऐसा लक्षण वृषलग्न वालॊं कॊ हॊता है॥17॥

मिथुनलग्नम

भौमजीवारुणः पापा ऎक ऎव कविः शुभः।

शनैश्चरॆण जीवस्य यॊगॊ मॆषभवॊ यथा॥18॥। 

मिथुन लग्नवालॆ कॊ भौम, गुरु, सूर्य पापफल दॆनॆ वालॆ, कॆवल ऎक मात्र शुक्र शुभफल दॆनॆ वाला हॊता है। शनि-गुरु का यॊग मॆषलग्न वालॆ कॆ समान ही फलदायक हॊता है॥18॥

नायं शशी निहन्ता स्याल्लक्षणं पापनिष्फलम।

ज्ञातव्यानि द्वन्द्वजस्य फलान्यॆतानि सूरिभिः॥19॥ । चन्द्रमा मारक नहीं हॊता है किन्तु साहचर्यानुसार फल दॆनॆ वाला हॊता है। इस प्रकार मिथुन लग्न वालॊं कॆ फल का विचार करना चाहि‌ऎ॥19॥

। कर्कलग्नम्भार्गवॆन्दुसुतौ पापॊ भौमॆज्यशशिनः शुभाः। ऎकग्रहस्तु भवॆत्साक्षान्महीसुतॊ यॊगकारकः॥20॥ कर्क लग्नवालॆ कॊ शुक्र-बुध पाप फल दॆनॆ वालॆ और  भौम, गुरु, चन्द्रमा शुभ फल दॆनॆ वालॆ हॊतॆ हैं। कॆवल ऎक भौम ही राजयॊगकारक हॊता है॥20॥।

निहन्ता रविजॊऽन्यॆ च साहचर्यात्फलप्रदाः।

. कुलीरसम्भवस्यैव फलान्युक्तानि सूरिभिः॥21॥ । शनि मारकॆश हॊता है, अन्य ग्रह साहचर्य कॆ अनुसार फल दॆतॆ हैं। ऐसा कर्क लग्न वालॆ का फल हॊता है॥21॥

अथ सिंहलग्नम्बुधशुक्लार्कजाः पापा: भौमॆज्याकः शुभप्रदाः। प्रभवॆद्यॊगमात्रॆण न शुभं गुरुशुक्रयॊः॥22॥ सिंह लग्नवालॆ कॊ बुध, शुक्र, शनि पापफल दॆनॆ वालॆ और  भौम, गुरु, सूर्य शुभ फल दॆनॆ वालॆ हॊतॆ हैं। गुरु-शुक्र कॆ यॊगमात्र सॆ शुभफल नहीं हॊता है॥22॥

कारकमारकविचाराध्यायः

फ्य गुरु मारकॆश हॊता है, बुध आदि मारक कॆ समान ही फलदाता हॊतॆ हैं। ऐसा वृश्चिक लग्न वालॆ का फल हॊता है॥29॥

 अथ धनुर्लग्नम्‌ऎक ऎव कविः पापः शुभौ सौम्यदिवाकरौ॥ यॊगॊ भास्करसौम्याभ्यां निहन्ता भास्करसुतः॥30॥। धनुलग्नवालॆ कॊ शुक्र पाप फल दॆनॆ वाला, बुध-सूर्य शुभफल दॆनॆ वालॆ, सूर्य-बुध का यॊग राजयॊगकारक हॊता है॥30॥

नन्ति शुक्रादयः पापा मारकत्वॆन लक्षिताः। ज्ञातव्यानि फलान्यॆवं चापजस्य मनीषिभिः॥31॥

शनि मारकॆश हॊता है, शुक्र आदि मारकॆश कॆ समान ही पापफल दॆनॆ वालॆ हॊतॆ हैं। ऐसा धन लग्न का फल हॊता है॥31॥

अथ मकरलग्नम्कुजजीवॆन्दवः पापाः शुभौ भार्गवचन्द्रजौ। ।

स्वयं चैव निहन्ता स्यान्मन्दॊ भौमादयः परॆ॥32॥। । मकर लग्न वालॆ कॊ भौम, गुरु, चंद्रमा पाप फल दॆनॆ वालॆ शुक्र और  चंद्रमा शुभफल दॆनॆ वालॆ, शनि मारकॆश हॊता है। भौम

आदि मारकॆश कॆ लक्षण कॆ समान हॊनॆ सॆ मारक हॊतॆ हैं॥3॥

तल्लक्षणानि हन्तारः कविरॆकः सुयॊगकृत॥ ज्ञातव्यानि फलान्यॆवं विबुधैर्मृगजन्मनः॥33॥ शुक्र यॊगकारक हॊता है। इस प्रकार का फल मकर लग्न का हॊता है॥33॥

अथ कुम्भलग्नम्जीवचन्द्रकुजाः पापा ऎकॊ दैत्यगुरुः शुभः। राजयॊगकरः शुक्रॊ भौमश्चैव बृहस्पतिः॥34॥ कुंभ लग्न वालॆ कॊ गुरु, चंद्रमा, भौम पापफल दॆनॆ वालॆ और  शुक्र कॆवल राजयॊग कारक हॊता है॥34॥

निहन्ता सन्ति भौमाद्या मारकत्वॆन लक्षिताः।

ऎवमॆव फलान्यूहान्यॆतानि घटजन्मनः॥35॥

 भौम-गुरु मारकॆश हॊतॆ हैं, अन्य ग्रह भी मारकॆश सॆ संबंध हॊनॆ सॆ उनकॆ फलॊं कॊ दॆतॆ हैं। ।35॥

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। बृहत्पाराशरहॊराशास्वम

अथ मीनलग्नम्मन्दशुकांशुमद पापाः सौम्यॊ भौमविधूशुभौ। महीसुतगुरुश्चैव भवॆतां यॊगकारकॊ॥36॥

मीनलग्न वालॆ कॊ शनि, शुक्र, सूर्य पाप फल दॆनॆवालॆ, बुध, भौम, । चंद्रमा शुभफलदायक और  भौम-गुरु राजयॊगकारक हॊतॆ हैं॥36॥

भौम: मारकत्वॆऽपि न हन्तामन्दज्ञौ पापिनः।

इत्यूहानि फलान्यॆवॆ बुधैस्तु झषजन्मनः॥37॥ । भौम मारकॆश हॊतॆ हु‌ऎ भी मारता नहीं है, किन्तु शनि-बुध मारक हॊतॆ हैं। इस प्रकार मीनलग्न का फल जानना चाहि‌ऎ॥37 ॥

। ऎतच्छास्त्रानुसारॆण मारकान्निर्दिशॆद बुधः। । चन्द्रसूर्यं विना सर्वॆ मारकाः परिकीर्तिताः॥38॥

इस शास्त्र कॆ अनुसार मारकॆश का निर्दॆश करना चाहि‌ऎ। रवि-चंद्र कॊ छॊडकर शॆष सभी मारकॆश हॊतॆ हैं॥38॥

स्वदशायां स्वमुक्तौ च नराणां निधनं न हि। क्वचिदशायामिच्छन्ति स्वभुक्तौ न कदाचन॥39 ॥ मारकॆश की दशा और  अन्तर्दशा मॆं मृत्यु नहीं हॊती है। किसीकिसी कॆ मत सॆ मारकॆश की दशा मॆं मृत्यु हॊती है और  कभी अंतर्दशा

मॆं नहीं हॊती है॥39 ॥

इति पाराशरहॊरायां पूर्वखण्डॆ सुबॊधिन्यां कारकमारकादिविचारॊ :

। नामैकादशॊऽध्यायः। अथ द्वादशभावॆषु विचार्यत्वमाह— तनॊरूपं च ज्ञानं च वर्णं चैव बलाबलम ।

शीलं वै प्रकृतिं चैव तनुस्थानाद्विचारयॆत॥1॥ प्रथम भाव सॆ शरीर, रूप (रंग), ज्ञान, वर्ण (ब्राह्मणादि), बल, ॥ निर्बल, शील(स्वभाव) और  प्रकृति का विचार करना चाहि‌ऎ॥1॥

धनं धान्यं कुटुम्बं च मृत्युजालममित्रकम। । धातुरत्नादिकं सर्वं धनस्थानाद्विचारयॆत॥2॥

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द्वादशभावविचाराध्यायः दूसरॆ भाव मॆं धन, धान्य, कुटुंब, मृत्यु, शत्रु का और  धातु, रत्न आदि का विचार करना चाहि‌ऎ॥2॥

विक्रमं भृत्यभ्रात्रादि चॊपदॆशप्रयाणकम । पित्रॊर्वॆ मरणं विप्र दुश्चिक्याच्च निरीक्षयॆत ॥3॥ तीसरॆ भाव मॆं नौकर, भा‌ई, उपदॆश, यात्रा और  पिता कॆ मरण का विचार करना चाहि‌ऎ॥3॥

वाहनस्याथ बन्धूनां मातृसौख्यादिकानपि।

निधिक्षॆत्रं गृहं चापि पातालाच्च निरीक्षयॆत ॥4॥ । चौथॆ भाव सॆ वाहन (सवारी) का, बंधु‌ऒं का, मातृसुख का, निधि (गडॆ धन) का, क्षॆत्र (खॆत) तथा गृह का विचार करना चाहि‌ऎ॥4॥

यन्त्रमन्त्री तथा विद्या बुद्धॆश्चैव प्रबन्धकम।

पुत्रराज्यापभ्रंशादि पश्यॆत्पुत्रालयाद बुधः॥5॥ । पाँचवॆं भाव सॆ यंत्र, मंत्र, विद्या, बुद्धि, प्रबंध, पुत्र और  राज्य कॆ स्खलन

का विचार करना चाहि‌ऎ॥5॥

मातुलान्तकशङ्कानां शत्रूश्चैव व्रणादिकान। । सपत्नीमातरञ्चापि शत्रुस्थानान्निरीक्षयॆत ॥6॥

छठॆ भाव सॆ मामा कॆ मरण की शंका का, शत्रु और  व्रण का तंथा । सौतॆली माँ का विचार करना चाहि‌ऎ॥6॥।

जायामध्वप्रयाणं च व्यापारं हृतवीक्षणम॥ मरणं च स्वदॆहस्य जायाभावान्निरीक्षयॆत॥7॥ सप्तम भाव सॆ स्त्री, मार्ग, यात्रा, व्यापार, नष्ट वस्तु और  मृत्यु का विचार करना चाहि‌ऎ॥7॥ . ऋणदानग्रहणयॊगुंदॆ , चैवाङ्कुरादयः।

गत्यनुकादिकं सर्वं पश्यॆद्वन्ध्राद्विचक्षणः॥8॥

आठवॆं भाव सॆ ऋण दॆना-लॆना, गुदा की बीमारी, पूर्वजन्म और  इस जन्म का विवरण- यॆ सब विचार करना चाहि‌ऎ ॥8॥

भाग्यं धर्मं च श्यालं च भ्रातृपत्न्यादिकांस्तथा। तीर्थयात्रादिकं सर्वं धर्मस्थानान्निरीक्षयॆत ॥9॥ नवम भाव सॆ भाग्य, साला, भा‌ई की स्त्री, तीर्थयात्रा आदि का विचार करना चाहि‌ऎ ॥9॥

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ठॆरपि‌ऎ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम राज्यं चाकाशवृतिं च मानं चैव पितुस्तथा।

 प्रवासस्य ऋणस्यापि व्यॊमस्थानान्निरीक्षयॆत ॥10॥

दशम स्थान सॆ राज्य, आकाशवृत्ति, प्रतिष्ठा, पिता, परदॆश आदि का "विचार करना चाहि‌ऎ॥10॥

नानावस्तुभवस्यापि पुत्रजायादिकस्य च। लाभवृद्धिपशूनां च भवस्थानाद्विचारयॆत॥11॥ ऎकादश भाव सॆ अनॆक वस्तु‌ऒं की प्राप्ति, पुत्र, स्त्री, पशु‌ऒं की वृद्धि तथा लाभ आदि का विचार करना चाहि‌ऎ॥11॥ । व्ययं च वैरिवृत्तान्तं फलमन्त्यादिकं तथा।

व्ययभावाच्च तत्सर्वं ज्ञातव्यं हि विपश्चिता॥12॥ बारहवॆं भाव सॆ व्यय, शत्रु का वृत्तांत आदि का विचार करना चाहि‌ऎ॥12॥।

यॊ यॊ भावपतिर्नष्टस्त्रिकॆशाद्यैश्च संयुतः॥13॥ भावं न वीक्षतॆ सम्यग्ग्रहॊ वापि मृतॊ यदा। स्थविरॊ वा भवॆत्खॆटः सुप्तॊ वापि प्रपीडितः। तदा तद्भावजं सौख्यं नष्टं ब्रूयाद्विशकितः॥14॥ । जिन-जिन भावॊं कॆ स्वामी अस्त हॊं, त्रिकॆश (6।8।12 कॆ स्वामी) सॆ युत हॊं, भाव कॊ न दॆखतॆ हॊं, मृत अवस्था मॆं हॊं, वृद्ध अथवा सुप्त हॊं वा पीडित हॊं तॊ उन भावॊं कॆ फल नष्ट हॊ जातॆ हैं॥13-14 ॥।

यदा सौम्यग्रहैर्दुष्टॊ भावॊ भावॆशसौम्ययुक॥ । युवा प्रबुद्धराजस्थः कुमारॊ वापि तद भवॆत ॥15॥

जॊ भाव शुभग्रह सॆ दृष्ट हॊं, भाव अपनॆ स्वामी शुभग्रह सॆ युत हॊ, भावॆश युवा, प्रबुद्ध, राजकुमार अवस्था मॆं हॊ॥15॥

ईशॆक्षणवशात्तत्र भावसौख्यं वदॆद्बुधः॥

ऎवं हि सर्वभावॆषु ज्ञॆयॊ साधारणॊ नयः॥16॥ । भाव कॊ भावॆश दॆखता हॊ तॊ उस भाव कॆ सुख की वृद्धि हॊती है। यह नियम सभी भावॊं मॆं साधारणतः समझना चाहि‌ऎ॥16॥

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द्वादशभावविचाराध्यायः शुक शुक्रश्च नॆत्रं च चन्द्रमा मनसस्तथा।

आत्मा वै दिनकृत्तत्र जीवॊ जीवितसौख्यदः॥17॥ शुक्र धातु का स्वामी, नॆत्र और  मन का चन्द्रमा, आत्मा का सूर्य, गुरु सुख का॥17॥

क्रॊधः पराक्रमॊ भौमॊ बुधॊ बालवधीमतः। शनिदुःखप्रदॊ ज्ञॆयॊ राहुरॆश्वर्यदायकः॥18॥ क्रॊध, पराक्रम का भौम, बुध बुद्धि का, शनि दुःख का और  राहु ऐश्वर्य का स्वामी हॊता है॥18॥

शिरॊनॆन्नॆ तथा कर्णं नासा चापि कपॊलकॊ। हनूमुखं तथा वाच्यं लग्नादाश्चदृकाणकॆ॥19॥ ऎक लग्न मॆं तीन द्रॆष्काण हॊतॆ हैं। यदि जन्म समय लग्न मॆं प्रथम द्रॆष्काण हॊ तॊ लग्न कॊ मुख, 2, 12 भाव कॊ नॆत्र, 3, 11 भाव कॊ कान, 4, 12 कॊ नाक, 5, 9 भाव कॊ कपॊल, 6, 8 भाव कॊ दाढी, 7 भाव कॊ मुख कल्पना करना चाहि‌ऎ॥19॥

लग्नान्मध्यदृकाणॆच कण्ठांशौ बाहुकॊ तथा॥ । पार्श्वॆ च हृदयक्रॊडॆ नाभिं चैव यथाक्रमम॥20॥ । . दूसरा द्रॆष्काण हॊ तॊ लग्न कॊ कण्ठ, 2, 12 भाव कॊ कंधा, 3,11 भाव कॊ बाहु, 4,10 भाव कॊ पार्श्व, 5,9 भाव कॊ हृदय, 6, 8 भाव कॊ पॆट, 7 भाव कॊ नाभि कल्पना करना चाहि‌ऎ॥20॥

वस्तिलिङ्गगुदॆ वृषणावुरू जानुजङ्घकॆ। पदॆति चैवमुदितैर्वामम तृतीयकॆ॥21॥ तीसरा द्रॆष्काण हॊ तॊ लग्न कॊ वस्ति (नाभि-लिंग कॆ मध्य का स्थान), 2।12 भाव कॊ लिंग और  गुदा, 3।10 भाव कॊ जंघा, 5।9 भाव कॊ घुटना, 6।8 भाव कॊ ठॆहुनॆ कॆ नीचॆ, 7 भाव कॊ पैर समझना चाहि‌ऎ। सप्तम सॆ 12 भाव तक वामभाग और  लग्न सॆ छठॆ भाव तक दाहिनॆ भाग की कल्पना करना चाहि‌ऎ॥21॥

.. । यस्मिन्नगॆस्थितः क्रूरतत्र चिह्नं समादिशॆत।

ससौम्यैर्नियतं विप्र सौम्यैर्लक्ष्मं समादिशॆत॥22॥।


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342

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम अंग कॆ जिस भाग मॆं पापग्रह ह वहाँ चिह्न कहना चाहि‌ऎ। यदि बुध कॆ साथ पापग्रह हॊ तॊ निश्चय ही चिह्न हॊता है और  शुभग्रह हॊ तॊ उस अंग मॆं लक्षण हॊता है॥22॥

अथ तनुभावफलम्दॆहाधिपः पापयुतॊऽष्टमस्थॊ व्ययारिगॊवाङ्गसुखं निहन्ति। सर्वत्र भावॆषु च यॊजनीयमॆवं बुधैर्भाववशात्फलं हि॥23॥

लग्नॆश पापग्रह सॆ युत हॊकर आठवॆं, बारहवॆं, छठॆ हॊ तॊ शरीर-सुख नहीं हॊता है। यह नियम सभी भावॊं का है, यानि जिस भाव . का स्वामी पापग्रह सॆ युत हॊकर 6, 8, 12 वॆं भाव कॆ फल का अभाव

हॊता हैं॥23॥। पापॊ विलग्नाधिपतिर्विलग्नॆ चन्द्रॆण युक्तॊ यदि बालकः स्यात। तदातिरॊग स हि कॆन्द्रसंस्थस्त्रिकॊणलाभॆषु गदं निहन्ति॥24॥.. * यदि लग्नॆश पापग्रह चन्द्रमा सॆ युक्त हॊकर लग्न मॆं हॊ तॊ बालक अत्यंत रॊगी हॊता है। यदि वह कॆन्द्र-त्रिकॊण और  लाभभाव मॆं हॊ तॊ रॊग का नाश करता है॥24॥

। लग्नाधिपॊऽथ जीव वा शुक्रॊवा यदि कॆन्द्रगः।

 स जातॊ धनवांल्लॊकॆ दीर्घायू राजवल्लभः॥25॥

लग्नॆश वा गुरु या शुक्र कॆन्द्र मॆं हॊ तॊ जातक धनी, दीर्घायु और  राजप्रिय हॊता है॥25॥

कॆन्द्रत्रिकॊणॆषु न यस्य पापा.

लग्नाधिपःसुरगुरुश्च चतुष्टयस्थॊ। । भुक्त्वा सुखानि विविधानि च पुण्यकर्मा

। जीवॆत्तु वर्षशतमॆव विमुक्तरॊगः॥26॥ जिसकॆ जन्मांग मॆं कॆन्द्र-त्रिकॊण भाव मॆं पापग्रह न हॊं और  लग्नॆश तथा गुरु कॆन्द्र मॆं हॊं तॊ वह बालक पुण्यकर्ता, अनॆक प्रकार कॆ सुखॊं कॊ भॊगनॆ वाला ऎवं दीर्घायु हॊता है॥26॥।

लग्नॆशॆ चरराशिस्थॆ शुभग्रहनिरीक्षितॆ। कीर्तिः श्रीमान्महाभॊगी दॆहपुष्टिसमन्वितः॥27॥ लग्नॆश चरराशि मॆं हॊ तथा शुभग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ बालक यशस्वी, धनी, भॊगॊं कॊ भॊगनॆ वाला और  बलवान हॊता है॥27॥

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943

द्वादशभावविचाराध्यायः शुक्रॊ बुधॊऽथवा जीवॊ लग्नॆ चन्द्रसमन्वितः। लग्नाकॆन्द्रगतॊ वापि राजलक्षणसंयुतः॥28॥ यदि शुक्र, बुध वा गुरु चन्द्रमा सॆ युत हॊकर लग्न सॆ कॆन्द्र मॆं गयॆ हॊं तॊ बालक राजलक्षण सॆ युक्त हॊता है॥28॥।

रविचन्द्रौ च यॆकस्थावॆकांशकसमन्वितौ। त्रिमात्रं च त्रिभिर्मासैर्भात्रा पित्रा च जीवति ॥29॥ रवि-चन्द्रमा ऎक स्थान मॆं ऎक ही अंश मॆं हॊं तॊ बालक कॊ तीन मास कॆ अन्दर तीन माता‌ऎँ हॊती हैं और  भा‌ई पिता सॆ जीवित रहता है॥29॥

लग्नॆ राहुसमायुक्तॆ तथा सॊमनिरीक्षितॆ। लग्नांशॆ मन्दसूरी चॆज्जातच यमलॊ भवॆत॥30॥ लग्न मॆं राहु हॊ, उसॆ चन्द्रमा दॆखता हॊ तथा लग्न कॆ नवमांश मॆं शनिगुरु हॊं तॊ यमल बालक हॊतॆ हैं॥30॥

। अथ धनभावफलम्शुक्रॆण युक्तॊ यदि नॆत्रनाथः शुक्रस्य स्वॊच्चांशगृहॆ गतॊ वा। सम्बन्धवान्स्यॊद्यदि दॆहपॆननॆत्रं विधत्तॆ विपरीतभावम॥31॥ यदि धन भाव का स्वामी शुक्र सॆ युक्त हॊ और  शुक्र कॆ उच्च, नवांश, गृह मॆं हॊ और  लग्नॆश सॆ संबंध करता हॊ तॊ टॆढॆ नॆत्र हॊतॆ हैं॥31॥

तत्र स्थितौ चन्द्ररवी निशान्धं जात्यन्धतां नॆत्रपदॆहपार्काः। पैत्रर्धनाथॆन युतास्तदान्ध्यं कुर्वन्ति मात्रादिफलं तथॆदृक ॥32॥

यदि चन्द्र-सूर्य धनॆश-लग्नॆश सॆ युक्त हॊकर दुःस्थ हॊं तॊ जन्मांध हॊता है। पिता आदि कॆ स्वामी युत हॊं तॊ उन्हॆं भी अंधा समझना चाहि‌ऎ॥32॥

दॊषकृन्न च सर्वत्र स्वॊच्चस्वगतॊ ग्रहः॥ षडादित्रयसंस्थश्चॆत्तदा दॊषकृच्छुभः॥33॥ यदि दॊषक ग्रह अपनी उच्च राशि मॆं हॊ तॊ दॊष नहीं करता। यदि छठॆ, आठवॆं ऎवं बारहवॆं मॆं हॊ तॊ दॊष करता है॥33॥

वागीशवाग्गृहाधीशौ पडादित्रयसंस्थितौ। मूकतां कुरुतॆऽप्यॆवं पितृमातृगृहाधिपाः॥34॥


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम गुरु और  द्वितीयॆश छठॆ, आठवॆं, बारहवॆं भाव मॆं हॊं तॊ मूक (गुंगा) हॊता है। इसी प्रकार पिता, माता आदि कॆ भावॆश हॊं तॊ उन्हॆं भी मूक कहना चाहि‌ऎ॥34॥

विद्याधिपौ जीवबुधावविद्यामरित्रयस्थी कुरुतॊऽथ तौ चॆत । कॆन्द्रत्रिकॊणस्थगृहॊच्चसंस्था प्रयच्छतां द्रागनवद्यविद्याम॥

गुरु, बुध और  द्वितीयॆश छठॆ, आठवॆं और  बारहवॆं भाव मॆं हॊं तॊ मूर्ख हॊता है। यदि यॆ कॆन्द्र-त्रिकॊण अपनॆ गृह उच्च राशि मॆं हॊं तॊ शीघ्र ही विद्वान हॊता है॥35 ॥।

धनाधिपॊ गुरुर्यस्य धनराशिस्थितॊ यदि। भौमॆन सहितॊ वापि धनवान स नरॊ भवॆत ॥36॥ धनॆश और  भौम दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ पुरुष धनी हॊता है॥36 ॥

धनॆशॆ लाभराशिस्थॆ लाभॆशॆ वा धनगतॆ। तावुभौ कॆन्द्रराशिस्थौ धनवान्स नरॊ भवॆत॥37॥ धनॆश 11वॆं भाव मॆं हॊ और  लाभॆश दूसरॆ भाव मॆं हॊ अथवा दॊनॊं कॆन्द्र मॆं हॊं तॊ धनी हॊता है॥37 ॥

धनॆशॆ कॆन्द्रराशिस्थॆ लाभॆशॆ तत्रिकॊणगॆ। गुरुशुक्रयुतॆ दृष्टॆ धनलाभमुदीरयॆत ॥38॥ धनॆश कॆन्द्र मॆं हॊ और  लाभॆश उससॆ त्रिकॊण मॆं हॊ तथा गुरु-शुक्र सॆ युत-दृष्ट हॊ तॊ धन का लाभ हॊता है॥38॥।

वित्तॆशॊ रिपुभावस्थॊ लाभॆशॊ. तद्गतॊ यदि। वित्तलाभौ पापयुक्तौ दृष्टौ निर्धन ऎव सः॥39॥ धनॆश, लाभॆश छठॆ मॆं हॊं अथवा धन-लाभ पापयुत और  पापदृष्ट हॊं तॊ निर्धन हॊता है॥39॥

वित्तलाभाधिपौ दुःस्थौ पापखॆचरसंयुतौ।

जन्मप्रभृतिदारिद्र्यं भिक्षात्रं लभतॆ नरः॥40॥ धनॆश, लाभॆश पापग्रह सॆ युत हॊकर छठॆ, आठवॆं, बारहवॆं भाव मॆं हॊं । तॊ जन्म सॆ ही दरिद्र हॊता है और  भिक्षा माँगकर खानॆ वाला हॊता है॥40॥

षष्ठाष्टमव्ययस्थौ चॆद्धनलाभाधिपौ यदि। लाभॆ कुजॆ धनॆ राहौ राजदण्डाद्धनक्षयः॥41॥

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द्वादशभावविचाराध्यायः यदि धनॆश ऎवं लाभॆश छठॆ, आठवॆं, बारहवॆं भाव मॆं हॊ और  11वॆं भाव मॆं भौम, धन भाव मॆं राहु हॊ तॊ राजदंड सॆ धन का नाश हॊता है॥41॥

। लाभॆ जीवॆ घनॆ शुक्रॆ तदीशॆ शुभसंयुतॆ॥

व्ययॆ शुभग्रहयुतॆ धर्ममूलाद्धनव्ययः॥42॥. 11वॆं भाव मॆं गुरु, दूसरॆ भाव मॆं शुक्र हॊ और  धनॆश शुभग्रह सॆ युत हॊ और  बारहवॆं भाव मॆं शुभग्रह हॊ तॊ धर्म कॆ कारण द्रव्य का व्यय हॊता है॥42॥ कुटुम्बराशॆरधिपः ससौम्यॆ कॆन्द्रत्रिकॊणॆ च सुहृद्गृही वा। सौम्यक्षंयुक्तॊ यदि जातपुण्यः कुटुम्बसंरक्षणवाग्विभूतः॥

द्वितीय भाव का स्वामी शुभग्रह सॆ युक्त हॊकर कॆन्द्र-त्रिकॊण मॆं भिन्न क्षॆत्र मॆं वा अपनी राशि मॆं वा शुभग्रह की राशि मॆं हॊ तॊ पुण्यवान कुटुम्ब की रक्षा करनॆ वाला हॊता है॥43॥

कुटुम्बनाथॆ परमॊच्चयुक्तॆ दॆवॆन्द्रपूज्यॆच समीक्षितॆ वा। तथाविधॆतद्भवनॆऽभिजातः सहस्ररक्षॊ भुवनप्रतापी॥44॥ धनॆश अपनॆ उच्च मॆं हॊ और  गुरु सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ सहस्र द्रव्य कॊं रखनॆ वाला हॊता है॥44॥

तन्नाथॆ भृगुणा बुधॆन सहितॆ पारावतांशॆ तथा स्वॊच्चॆनाथ सुहृद्गृहॆ धनपतौ स्वस्थानकॊलाहलः॥45॥ धनॆश शुक्र-बुध सॆ युक्त हॊ, पारावतांश मॆं हॊ, अपनॆ उच्च मित्र कॆ गृह मॆं हॊ तॊ प्रसिद्ध धनी हॊता है॥45॥।

कुटुम्बराशिस्थपतौ यदि स्याभृगौ बुधॆ तादृशभावनाथॆ। स्वॊच्चॆ सुहृत्क्षॆत्रगतॆऽथवा स्यात्परॊपकारी जनरक्षकः स्यात॥ धनॆश शुक्र वा बुध अपनॆ उच्च मित्र कॆ गृह मॆं हॊ तॊ परॊपकारी जनरक्षक हॊता है॥46॥

नॆत्रॆशॆ बलसंयुक्तॆ शॊभनाक्षॊ भवॆन्नरः। षष्ठाष्टमव्ययॆ युक्तॆ नॆत्रॆ वैकल्पमादिशॆत ॥47॥ धनॆश बलवान हॊ तॊ सुंदर नॆत्रॊं वाला हॊता है। यदि छठॆ, आठवॆं, बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ नॆत्र मॆं विकारवाला हॊता है॥47॥।

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 156 : बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

धनॆशॆ पापसंयुक्तॆ धनॆ पापसमन्वितॆ । . असत्यवादी पिशुनः पवनव्याधिसंयुतः॥48॥।

 धनॆश पापग्रह सॆ युत हॊ और  धनभाव मॆं पापग्रह हॊ तॊ झूठ बॊलनॆ वाला, कृपण और  वातव्याधि सॆ युक्त हॊता है॥48॥

अथ सहजभावफलम, सभौमॊ भ्रातृभावॆशॊ त्रिकभिन्नं चचॆत स्थितः।

भातुक्षॆत्रगतॊ वापि भ्रातृभावं विनिर्दिशॆत॥49॥ मंगल कॆ साथ तीसरॆ भाव कॆ स्वामी त्रिक (68।12) सॆ भिन्न स्थान मॆं वा. तीसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ भा‌इयॊं का सुख हॊता है॥49॥

तौ पापयॊगतः पापक्षॆत्रयॊगॆन वा पुनः।

उत्पाट्य सहजान्सद्यॊ निहन्ताशास्त्रनिश्चयात॥50॥ . वॆ ही दॊनॊं पापग्रह सॆ युत हॊं और  त्रिक मॆं हॊं तॊ भा‌इयॊं का जन्म हॊता

है, किन्तु बचतॆ नहीं हैं।50॥। . स्त्रीग्रहॊ भ्रातृभावॆशः स्त्रीग्रहॊ भ्रातृगॊऽपि वा।

भगिनी स्यात्तदा भ्राता पुंगृहॆ पुंग्रहॊ यदि॥51॥ यदि भ्रातृभाव का स्वामी स्त्रीग्रह हॊ और  तीसरॆ भाव मॆं भी स्त्रीग्रह हॊ तॊ बहिनॆं हॊती हैं। पुरुष ग्रह हॊ तॊ भा‌ई हॊतॆ हैं ॥51 ॥।

भ्रातृभॆ कारकॆ वापि शुभयुक्तनिरीक्षितॆ ।

भावॆ वा बलसम्पूर्ण भ्रातृणां वर्धनं भवॆत॥52॥

 भ्रातृभाव वा भ्रातृकारक शुभग्रह सॆ युत-दृष्ट हॊ और  भ्रातृभाव पूर्ण । बलवान हॊ तॊ भा‌इयॊं की वृद्धि हॊती है॥52 ॥। " कॆन्द्रत्रिकॊणगॆ वापि स्वॊच्चमित्रस्ववर्गगॆ।

नाथॆ वा कारकॆ वापि भ्रातृलाभं वदॆब्रुधः॥53॥ । यदि भ्रातृभावॆश वा भ्रातृकारक कॆन्द्र-त्रिकॊण मॆं अपनॆ उच्चमित्र आदि

स्ववर्ग मॆं हॊ तॊ भा‌इयॊं कॊ लाभ हॊता है॥53॥।

भ्रातृर्भ बुधसंयुक्तॆ तदीशॆ चन्द्रसंयुतॆ। कारकॆ मन्दसंयुक्तॆ भगिन्यॆकाग्रतॊ भवॆत॥54॥ भ्रातृभावॆश चन्द्रमा सॆ युक्त हॊ और  भ्रातृभाव मॆं बुध हॊ और  भ्रातृकारक शनि सॆ युत हॊ तॊ उसकॆ पहलॆ ऎक बहन हॊती है॥54॥


3

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। द्वादशभावविचाराध्यायः

2469 पश्चात्सहॊदरॊऽप्यॆकस्तृतीयस्तु मृतॊ भवॆत।

कारकॆ राहुसंयुक्तॆ विक्रमॆशस्तु नीचगः॥55॥ उसकॆ बाद ऎक भा‌ई हॊता है और  तीसरा मर जाता है। भ्रातृकारक राहु सॆ युक्त हॊ और  तृतीयॆश नीच राशि मॆं हॊ तॊ॥55 ॥

पश्चात्सहॊदरभावः पूर्वं तु तत्त्रयं भवॆत। भ्रातृस्थानाधिपॆ कॆन्द्र कारकॆ तस्त्रिकॊणगॆ॥56॥ उससॆ छॊटॆ भा‌इयॊं का अभाव और  उससॆ बडॆ 3 भा‌ई हॊतॆ हैं। भ्रातृस्थान कॆ स्वामी कॆन्द्र मॆं हॊं और  भ्रातृकारक उससॆ त्रिकॊण मॆं ॥56॥

जीवॆन सहितश्चॊच्चॆ संख्या द्वादश सॊदराः। तत्र पूर्वद्वयं गर्भ जातकाच्च तृतीयकम॥57॥ सप्तमश्चैव नवमॊ द्वादशश्च मृतिप्रदः॥

शॆषाः सहॊदराः षड्वै भवॆयुर्घजीविनः॥58॥ । गुरु कॆ साथ अपनी उच्चराशि मॆं हॊ तॊ 12 भा‌ई हॊतॆ हैं। उसमॆं दॊ बडॆ, तीसरा, सातवाँ, नवाँ और  बारहवाँ मर जाता है। शॆष 6 भा‌ई दीर्घजीवी हॊकर रहतॆ हैं। ।57-58॥ ॥

व्ययॆशॆन युतॆ भौमॆ गुरुणा सहितॊऽपि वा। भ्रातृस्थानॆ शशियुतॆ सप्तसंख्यास्तु सॊदराः॥59॥ व्ययॆश सॆ भौम युत हॊ वा गुरु सॆ युक्त हॊ और  तीसरॆ भाव मॆं चन्द्रमा हॊ तॊ सात भा‌ई हॊतॆ हैं ॥59॥

’अथ चतुर्थभावफलम्गॆहाधिनाथॆन युतॆ तु गॆहॆ दॆह्मधिपॆनापि गृहाभिलब्धिः। युर्नॆ षडादौ तु विपर्ययः स्याद्गृहाधिपॆ दॆहपतौ च तद्वत ।

यदि सुखभाव सुखॆश और  लग्नॆश सॆ युक्त हॊ तॊ गृह का लाभ हॊता है। यदि लग्नॆश, सुखॆशः 68512 भाव मॆं हॊ तॊ गृहप्राप्ति नहीं हॊती है॥60 ॥

कॆन्द्रत्रिकॊणॆच शुभग्रहॆण युतॆ समीचीनगृहाभिलब्धिः। क्षॆत्रस्य चिन्ता सदनाधिपॆन जीवॆनचिन्ता तुसुखस्य कार्या॥61॥


आघॆण्ट

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846

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम यदि दॊनॊं कॆन्द्र-त्रिकॊण मॆं हॊं और  शुभग्रह सॆ युक्त हॊं तॊ सुन्दर गृह प्राप्त हॊता है। गृहादि की चिंता सुखॆश सॆ, गुरु सॆ सुख की चिंता ॥61॥

दिव्याङ्गनावाहनवस्तुभूषा चिन्ता तु कार्या भृगुणा बुधॆदैः॥

तमः शनिभ्यामभिचिन्त्यमायुरर्कॆण तातःशशिनाच माता॥62॥ । स्त्री, वाहन, आभूषण की चिन्ता शुक्र सॆ, राहु-शनि सॆ आयु की चिंता, सूर्य सॆ पिता और  चंद्रमा सॆ माता की चिंता करनी चाहि‌ऎ॥62॥।

बुधॆन बुद्धिः सदनक्षसंस्थांगतॆन भावॆशयुतॆन वा स्यात। ।

कॆन्द्रत्रिकॊणॆषुगतॆषु तत्र प्रपश्यता वापि स्वतुङ्गगॆन॥63॥ । बुध सॆ बुद्धि की चिंता करना चाहि‌ऎ। जब यॆ कारक उन-उन भावॊं मॆं भावॆशॊं सॆ युतं हॊं तॊ उन-उन पदार्थॊं की वृद्धि कहना चाहि‌ऎ। सुखॆश कॆन्द्र-त्रिकॊण मॆं उच्च मॆं गयॆ हु‌ऎ ग्रह सॆ दृष्ट हॊ ॥63 ॥

स्वकीयॆस्वांशगॆस्वॊच्चॆ सुखस्थानस्थितॊ यदि। सुखवाहनवृद्धिः स्याच्छङ्खभॆर्यादिवाद्ययुक ॥64॥

अपनॆ राशि, उच्च और  अपनी अंश मॆं हॊकर सुख-स्थान मॆं हॊ तॊ विचित्र प्रकार सॆ मंडित’ गृह हॊता है॥64॥

विचित्रसौधप्राकारं मण्डितं गृहमादिशॆत।

कर्माधिपॆन सहितॆ नाथॆ कॆन्द्रॆ कॊणॆऽवस्थितॆ ॥65॥ । यदि सुखॆश कर्मॆश सॆ युत हॊकर कॆन्द्र-त्रिकॊण मॆं हॊ तॊ सुन्दर गृह हॊता है॥65॥।

बन्धुस्थानॆश्वरॆ सौम्यॆ शुभग्रहनिरीक्षितॆ।

शशिजॆ लग्नसंयुक्तॆ बन्धुपूज्यॊ भवॆन्नरः॥66॥ । सुखॆश शुभग्रह मॆं हॊ और  शुभग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ तथा बुध लग्न मॆं हॊ तॊ मनुष्य बंधुपूज्य हॊता है॥66 ॥

मातुःस्थानॆ शुभयुतॆ तदीशॆ स्वॊच्चराशिगॆ।

कारकॆ बलसंयुक्तॆ मातुर्दीर्घायुरादिशॆत॥67॥ । मातृस्थान मॆं शुभग्रह हॊ, सुखॆश उच्चराशि मॆं हॊ और  मातृकारक बली। हॊ तॊ माता दीर्घायु हॊती है॥67॥

. सुखॆशॆ कॆन्द्रभावस्थॆ तथा कॆन्द्रॆ स्थितॊ भृगुः।

शशिजॆ स्वॊच्चराशिस्थॆ विद्वान्पण्डित ऎव सः॥68॥

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ऊ.

। द्वादशभावविचाराध्यायः

848 सुखॆश कॆंद्र मॆं हॊ और  शुक्र भी कॆंद्र मॆं हॊ, बुध अपनी उच्च राशि मॆं हॊ तॊ बालक विद्वान ऎवं पंडित हॊता है॥68॥

सुखॆ मन्दॆ रवियुतॆ चन्द्रॊ भाग्यगतॊ यदि। । लाभस्थानगतॆ भौमॆ गॊमहिष्यादिलाभकृत ॥69॥

सुखस्थान मॆं रवि-शनि हॊं, चंद्रमा नवम स्थान मॆं हॊ और  लाभस्थान भौम हॊ तॊ गाय, भैंस आदि का लाभ हॊता है॥69॥

लग्नस्थानाधिपॆ सौम्यॆ सुखॆशॆ नीचराशिगॆ। कारकॆ व्ययराशिस्थॆ सुखॆशॆ लाभसंयुतॆ॥70॥ द्वादशॆ वत्सरॆ प्राप्तॆ लाभॊ वै वाहनस्य च॥ वाहनॆ.रविसंयुक्तॆ स्वॊच्चॆ तद्गाशिनायकॆ॥71॥ कर्मशॆन युतॆ बन्धुनाथॆ तुङ्गांशसंयुतॆ॥

शुक्रॆण संयुतॆ तत्र द्वात्रिंशॆ वाहनं भवॆत॥72॥ । लग्नॆश शुभग्रह हॊ, सुखॆश नीच राशि मॆं हॊ, कारक बारहवॆं भाव मॆं हॊ और  सुखॆश 11वॆं भाव मॆं हॊ तॊ॥70॥।

12वॆं वर्ष मॆं वाहन का लाभ हॊता है। सुख भाव मॆं रवि हॊ, सुखॆश अपनी उच्चराशि का हॊ और  शुक्र सॆ युक्त हॊ तॊ 32 वॆं वर्ष मॆं वाहन का लाभ हॊता है॥71॥

द्विचत्वारिंशकॆ प्राप्तॆ नरॊवाहनभाग्भवॆत॥

कर्मॆश युत हॊकर सुखॆश अपनी उच्च राशि मॆं हॊ तॊ 42वॆं वर्ष मॆं वाहन प्राप्त हॊता है॥72॥।

लाभॆशॆ सुखराशिस्थॆ सुखॆशॆ लाभसंयुतॆ॥73॥ द्वादशॆ वत्सरॆ प्राप्तॆ नरॊ वाहनलाभकृत॥ भावपस्य शुभत्वॆ तु फलं ज्ञॆयं शुभं बुधैः॥74॥ लाभॆश सुख भाव मॆं और  सुखॆशं लाभ भाव मॆं हॊ॥73॥

तॊ 12वॆं वर्ष मॆं वाहन का लाभ हॊता है। भावॆश और  भाव की शुभता कॆ आधार पर ही शुभफल की प्राप्ति हॊती है॥74॥ । ।

चरग्रहसमायुक्तॆ सुखॆ तद्राशिनायकॆ। षष्ठॆ भौमॆ व्ययगतॆ मूकत्वं प्राप्यतॆ नरः॥75॥ सुख भाव चरग्रह सॆ युक्त हॊ तथा सुखॆश, छठॆ भाव मॆं और  व्ययभाव मॆं भौम हॊं तॊ जातक मूक (गुंगा) हॊता है॥75॥

ऎश

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

अथ पञ्चमभावफलम्षडादित्रयसंस्थॆ तु सुताधीशॆ वपुत्रता। ’कॆन्द्रत्रिकॊणसंस्थॆ तु पुत्रलाभाभिसम्भवः॥76॥

पंचमॆश 68 ॥1वॆं भाव मॆं हॊ तॊ संतान का अभाव हॊता है। यदि कॆंद्र वा त्रिकॊण मॆं हॊ तॊ संतान का सुख हॊता है॥76॥

षष्ठस्थानॆ सुताधीशॆ लग्नॆशॆ कुजवॆश्मनि। म्रियतॆ प्रथमापत्यं काकवन्ध्यत्वमाप्नुयात॥77॥

छठॆ भाव मॆं पंचमॆश हॊ और  लग्नॆश भौम की राशि मॆं हॊ तॊ प्रथम संतान नष्ट हॊ जाती है तथा स्त्री काकवंध्या हॊती है॥77 ॥

सुताधीशॊ हि नीचस्थः षडादित्रयसंस्थितः। . काकवन्ध्या भवॆन्नारी सुतॆ कॆतुबुधौ यदि॥78॥ । पंचमॆश अपनी नीचराशि का 68 ॥12वॆं भाव मॆं हॊ और  पाँचवॆं भाव ।

मॆं कॆतु-बुध हॊ तॊ स्त्री काकवंध्या हॊती है॥78॥

सुतॆशॊ नीचगॊ यत्र सुतस्थानं न पश्यति। सुतॆ सौरिबुधौ स्यातां काकवन्ध्यत्वमाप्नुयात ॥79॥ पंचमॆश नीच राशि का हॊ और  पंचम भाव कॊ न दॆखता हॊ और  पंचम । मॆं शनि-बुध हॊ तॊ स्त्री काकवंध्या हॊती है॥79॥

भाग्यॆशॊ मूर्तिवर्ती च सुतॆशॊ नीचगॊ यदि। । सुतॆ कॆतुबुधौ स्यातां सुतं कष्टाद्विनिर्दिशॆत ॥80॥

भाग्यॆश लग्न मॆं हॊ, पंचमॆश अपनी नीच राशि मॆं हॊ और  पाँचवॆं भाव मॆं कॆतु-बुध हॊं तॊ कष्ट सॆ पुत्र हॊता है॥80॥

षडादित्रयसंस्थॊऽपि नीचॊ वाप्यरिसंस्थितः।

पापाक्रान्तॆ सुतस्थानॆ पुत्रं कष्टाद्विनिर्दिशॆत ॥81॥ । पंचमॆश 68 ॥12 मॆं हॊ अथवा नीच मॆं शत्रु की राशि मॆं हॊ और  ।

पंचम भाव मॆं पापग्रह हॊ तॊ कष्ट सॆ पुत्र हॊता है॥81 ॥

दत्तकपुत्रयॊगःपुत्रस्थानॆ बुधक्षॆत्रॆ मन्दक्षॆत्रॆऽथवा पुनः। । मन्दमान्दियुतॆ दृष्टॆ तदा दत्तादयः सुताः॥82॥


ऎश

द्वादशभावविचाराध्यायः पंचम स्थान मॆं बुध की राशि (3।6) हॊ अथवा शनि की राशि (10।11) : हॊ, उसमॆं शनि और  गुलिक हॊ वा उससॆ दॆखा जाता हॊ तॊ दत्तक पुत्र, हॊता है॥82॥

पञ्चमॆ षड्ग्रहैर्युक्तॆ तदीशॆ व्ययराशिगॆ। । लग्नॆशॆ दुर्बलॊ चॆत्स्यात्तदा दत्तादयः सुतः॥83॥

 पाँचवॆं भाव मॆं 6 ग्रह हॊं, पंचमॆश 12वॆं भाव मॆं हॊ और  लग्नॆश, चंद्रमा बलवान हॊ तॊ दत्तक पुत्र सॆ सुख हॊता है॥83॥

 सन्तानयॊगमाह—सुतभवनॆ भृगुजीवसौम्ययातॆ बलसहितॆन विलॊकितॆ युतॆ वा। बहुसुतजननं वदन्ति सन्तः सुतभवनॆशबलॆनचिन्त्यमॆतत ॥84॥

संतान भाव मॆं शुक्र, गुरु, बुध हॊं तथा बलवान ग्रह सॆ दॆखॆ जातॆ हॊं वा युत हॊं .और  सुतॆश बली हॊ तॊ अनॆक संतान हॊती हैं॥84॥

सुतॆशॆ शशिसंयुक्तॆ तद्रॆष्काणगतॆऽपि वा॥ तदा हि कन्यकालाभं प्रवर्दन्मतिमान्नरः॥85॥ सुतॆश चंद्रमा सॆ युक्त हॊ अथवा उसकॆ द्रॆष्काण मॆं हॊ तॊ अधिक कन्या हॊती है॥85॥

सुतॆशॆ नरराशिस्थॆ राहुणा सहितॊ शशी। पुत्रस्थानं गतॆ मन्दॆ परजातं वदॆच्छिशुम॥86॥ सुतॆश पुरुष राशि मॆं हॊ और  चंद्रमा-राहु सॆ युत हॊ और  पंचम स्थान मॆं शनि हॊ तॊ दूसरॆ सॆ उत्पन्न बालक हॊता है॥86॥

लग्नाद्दशमॆ चंन्द्रॆ लग्नादष्टमगॊ गुरुः। पापयुक्तॆऽथ सन्दृष्टॆ अन्यबीजं न संशयः॥87॥

लग्न सॆ 10वॆं भाव मॆं चंद्रमा हॊ तथा. लग्न सॆ आठवॆं भाव मॆं गुरु हॊ तथा पापग्रह सॆ युत-दृष्ट हॊ तॊ दूसरॆ सॆ उत्पन्न बालक हॊता है॥87॥ ।

पुत्रस्थानाधिपॆ स्वॊच्चॆ लग्नाच्चॆद्वित्रिकॊणभॆ। गुरुणा संयुतॆ दृष्टॆ पुत्रभाग्यमुपैति सः॥88॥ यदि पंचमॆश अपनी उच्चराशि मॆं हॊकर लग्न सॆ 2।9।5 भाव मॆं हॊ और  गुरु सॆ युत-दृष्ट हॊ तॊ पुत्रसुख कॊ भॊगनॆ वाला हॊता है॥88॥

त्रिचतुःपापसंयुक्तॆ सुतॆ च सौम्यरहितॆ।

सुतॆशॆ नीचराशिस्थॆ नीचसंस्थॊ भवॆच्छिशुः॥89॥।


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फॆ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । पाँचवॆं भाव मॆं 3 या 4 पापग्रह हॊं और  शुभग्रह न हॊ और  पंचमॆश नीच राशि मॆं हॊ तॊ बालक नीच कर्म करनॆ वाला हॊता है॥89॥

। पुत्रप्राप्ति-वियॊगसमयश्चपुत्रस्थानं गतॆ जीवॆ तदीशॆ भृगुसंयुतॆ। द्वात्रिंशॆ च त्रयस्त्रिंशॆ वत्सरॆ पुत्रलाभकृत ॥90॥ पंचम स्थान मॆं गुरु हॊ और  पंचमॆश शुक्र सॆ युत हॊ तॊ 32वॆं वा 33वॆ . । वर्ष मॆं पुत्र का लाभ हॊता है॥10॥

सुतॆशॆ कॆन्द्रभावस्थॆ कारकॆण समन्वितॆ। षट्त्रिंशॆ त्रिंशदब्दॆ च पुत्रॊत्पत्तिं विनिर्दिशॆत ॥91॥.। पंचमॆश कारक सॆ युत हॊकर कॆंद्र मॆं हॊ तॊ 36वॆं वर्ष मॆं पुत्र उत्पन्न हॊता है॥91 ॥

लग्नाद्भाग्यंगतॆ जीवॆ जीवाद्भाग्यगतॆ भृगौ। । लग्नॆशॆ भृगुसंयुक्तॆ चत्वारिंशॆ सुतं लभॆत॥92॥ । लग्न सॆ नवम स्थान मॆं गुरु हॊ और  गुरु सॆ भाग्य 9वॆं भाव मॆं शुक्र हॊ तथा लग्नॆश शुक्र सॆ युक्त हॊ तॊ 40वॆं वर्ष मॆं पुत्र का लाभ हॊता है॥92॥

पुत्रस्थानं गतॆ राहौ तदीशॆ पापसंयुतॆ ।

नीचराशिगतॆ जीवॆ द्वात्रिंशॆ पुत्रमृत्युदः॥93॥ । पाँचवॆं भाव मॆं राहु हॊ, पंचमॆश पाप सॆ युत हॊ और  गुरु अपनी नीच . राशि मॆं हॊ तॊ 32वॆं वर्ष मॆं पुत्र की मृत्यु हॊती है॥93॥

जीवात्पञ्चमगॆ पापॆ लग्नात्पुत्रं गतॆऽपि च॥ षड्विंशॆ च त्रयस्त्रिंशॆ चत्वारिंशॆ सुतक्षयः॥94॥ गुरु सॆ पाँचवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं और  लग्न सॆ पाँचवॆं भाव मॆं भी गयॆ

हॊं तॊ 26वॆं और  40वॆं वर्ष मॆं पुत्र का नाश हॊता है॥94 ॥ . । लग्नॆ मान्दिसमायुक्तॆ लग्नॆशॆ नीचराशिगॆ।

षट्पञ्चाशदब्दॆषु पुत्रशॊकाकुलॊ भवॆत॥95॥ लग्न मॆं गुलिक हॊ. और  लग्नॆश अपनी नीच राशि मॆं हॊ तॊ 56वॆं । वर्ष मॆं पुत्रशॊक हॊता है॥95॥

14

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फॆ

द्वादशभावविचाराध्यायः

सन्तानसंख्याज्ञानमाह—चतुर्थॆ पापसंयुक्तॆ षष्ठॆ चैव तथैव हि॥ सुतॆशॆ परमॊच्चस्थॆ लग्नॆशॆन समन्वितॆ ॥96॥ कारकॆ शुभसंयुक्तॆ दशसंख्यास्तु सूनवः। यदि 4, 6 भाव मॆं पापग्रह हॊं, सुतॆश लग्नॆश सॆ युत हॊकर परम उच्च मॆं हॊ, सुतभावकारक शुभग्रह सॆ युत हॊ तॊ दश पुत्र हॊतॆ हैं॥96॥।

परमॊच्चगतॆ जीवॆ धनॆशॆ राहुसंयुतॆ॥97॥

भाग्यॆशॆ भाग्यसंयुक्तॆ संख्यानां नव सूनवः॥98॥ गुरु परमॊच्च मॆं हॊ, धनॆश राहु सॆ युत हॊ और  भाग्यॆश भाग्यस्थान मॆं हॊ तॊ 9 पुत्र हॊतॆ हैं॥97-98॥ . पुत्रभाग्यगतॆ जीवॆ सुतॆशॆ बलसंयुतॆ।

। धनॆशॆ कर्मराशिस्थॆ वसुसंख्यास्तु सूनवः॥99॥

पंचम वा भाग्य स्थान मॆं गुरु हॊ, पंचमॆश बली हॊ और  धनॆश 10वॆं स्थान मॆं हॊ तॊ 8 पुत्र हॊतॆ हैं॥99॥

पञ्चमात्पञ्चमॆ मन्दॆ सुतस्थॆ च तदीश्वरॆ।

सूनवः सप्तसंख्याश्च द्विगर्भ यमलं भवॆत॥100॥ । पाँचवॆं भाव सॆ पंचम मॆं शनि हॊ, पाँचवॆं भाव मॆं पंचमॆश हॊ तॊ 7 पुत्र हॊतॆ हैं, जिन मॆं 2 यमल (जुडवा) हॊतॆ हैं॥100॥

वित्तॆशॆ पञ्चमस्थॆ च सुतस्थॆ पञ्चमाधिपॆ।

षट्संख्याच सुतप्राप्तिस्तॆषां च त्रिप्रजामृतिः॥101॥ । धनॆश पाँचवॆं भाव मॆं, पंचमॆश पंचम मॆं हॊ तॊ 6 पुत्र हॊतॆ हैं, जिसमॆं तीन मर जातॆ हैं॥101॥।

लग्नात्पञ्चमंगॆ जीवॆ जीवात्पञ्चमगॆ शॆनौ। । मन्दात्पञ्चमगॆ राहौ पुत्रमॆकं विनिर्दिशॆत ॥102॥

। लग्न सॆ पाँचवॆं भाव मॆं गुरु, गुरु सॆ पाँचवॆं भाव मॆं शनि हॊं, शनि सॆ पाँचवॆं राहु हॊ तॊ 1 पुत्र हॊता है॥102॥।

पञ्चमॆ पापसंयुक्तॆ जीवात्पञ्चमगॆ शनौ। सुतॆशॆ भौमसंयुक्तॆ लग्नॆशॆ धनसङ्गतॆ। जातं जातं विनाशं च दीर्घायुश्चॆव मानवः॥103॥


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । पंचम मॆं पापग्रह हॊ और  गुरु सॆ पाँचवॆं भाव मॆं शनि हॊ, पंचमॆश भौम सॆ युक्त हॊ, लग्नॆश धनभाव मॆं हॊ तॊ जितनॆ बालक उत्पन्न हॊ सभी मर जावॆं॥10॥ ॥

अथ षष्ठमावफलम्षष्ठाधिपॊऽपिपापच्चॆदॆहॆवाप्यष्टमॆ स्थितः। तदा व्रणॊ भवॆद्दॆहॆ षष्ठस्थानॆऽप्ययं विधिः॥104॥ षष्ठॆश (6ठॆ भाव का स्वामी ) पापग्रह हॊ और  जन्मलग्न वा आठवॆं भाव मॆं बैठा हॊ तॊ शरीर मॆं व्रण (घाव) कॆ चिह्न हॊतॆ हैं। छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ भी वही फल हॊता है॥104॥

ऎवं पित्रादिभावॆशास्तत्तत्कारकसंयुताः। व्रणाधिपयुताश्चापि षष्ठाष्टमयुता यदि॥105॥ इसी प्रकार पिता आदि भावॆशॊं कॆ साथ षष्ठॆश सॆ युत हॊकर 6/8 भाव मॆं हॊ तॊ उनकॆ शरीर मॆं भी व्रण कॆ चिह्न कहना चाहि‌ऎ। सूर्य षष्ठॆश हॊ तॊ शिर मॆं ॥105॥

तॆषामपि व्रणं वाच्यमादित्यॆ च शिरॊव्रणम। इन्दुना च मुखॆ कण्ठॆ भौमज्ञॆन च नाभिषु ॥106॥

चंद्रमा हॊ तॊ मुख या कंठ मॆं, भौम-बुध हॊं तॊ नाभि मॆं ॥106॥ . गुरुणा नासिकायां च भृगुणा नयनॆ पदॆ।

शनिना राहुणा कुक्षौ कॆतुनाच तथा भवॆत ॥107॥ । गुरु हॊ तॊ नाक मॆं, शुक्ल हॊ तॊ आँख और  पैर मॆं, शनि-राहु हॊं तॊ कुक्षि (कॊख) मॆं, कॆतु सॆ भी कुक्षि मॆं चिह्न कहना चाहि‌ऎ॥107 ॥

लग्नाधिपः कुजक्षॆत्रॆ बुधस्य यदि संस्थितः। । यत्र कुत्र स्थितॊ ज्ञॆन वीक्षितॊ मुखरुक्प्रदः॥108॥

लग्नॆश भौम की राशि मॆं वा बुध की राशि मॆं हॊकर कहीं पर बैठा हॊ। तथा बुध सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ मुख मॆं रॊग हॊता है॥108॥

कुष्ठयॊग:- लग्नाधिपॊ कुजबुधौ चन्द्रॆण यदि संयुतौ।

 राहुणा शनिना सार्धं कुष्ठं तत्र विनिर्दिशॆत॥109॥ । यदि भौम वा बुध लग्नॆश हॊकर चंद्रमा, राहु वा शनि सॆ युत हॊं तॊ कुष्ठरॊग हॊता है॥109॥

ऎश

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द्वादशभावविचाराध्यायः

864 लग्नाधिपं विनालग्नॆस्थितवॆत्तमसा शशी। श्वॆतकुष्ठं तथा कृष्णकुष्ठं च शनिना सह॥110॥ कुजॆन रक्तकुष्ठं स्यात्तत्तदॆवं विचारयॆत॥

यदि लग्नॆश कॊ छॊडकर चंद्रमा राहु कॆ साथ लग्न मॆं हॊ तॊ सफॆद कुष्ठ हॊता है। शनि कॆ साथ हॊ तॊ काला कुष्ठ, भौम कॆ साथ हॊ तॊ लाल कुष्ठ हॊता है॥110॥

गण्डादिरॊगयॊगाःलग्नॆ षष्ठॊष्टमाधीशौरविणा यदि संस्थितौ॥111॥

 ज्वरगण्डः कुजॆ ग्रन्थिः शस्त्रव्रणमथापि वा॥

बुधॆन पित्तं गुरुणा रॊगाभावं विनिर्दिशॆत॥112॥ . यदि सूर्य सॆ युत हॊकर षष्ठॆश अष्टमॆश लग्न मॆं हॊं तॊ ज्वर सॆ उत्पन्न गंडरॊग, भौम सॆ युत हॊ तॊ गठिया वा शस्त्र सॆ आघात, बुध हॊ तॊ पित्त । सॆ उत्पन्न गंड और  गुरु हॊ तॊ रॊग का अभाव कहना चाहि‌ऎ॥112॥

स्त्रीभिः शुक्रॆण शनिना वायुना संयुतॊ यदि। गण्डश्चाण्डालतॊ नाभौ तमकॆत्वॊर्युतॆ भयम ॥113॥ शुक्र सॆ युत हॊ तॊ स्त्रीजनित रॊग, शनि सॆ युत हॊ तॊ वायुजनित गंड, * राहु सॆ युत हॊ तॊ चांडाल सॆ नाभि मॆं गंडरॊग और  कॆतु सॆ युत हॊ तॊ। भय हॊता है॥113॥

चन्द्रॆणगण्डः सलिलैः कफश्लॆष्मादिना भवॆत। ऎवं पित्रादिभावानां तत्तत्कारकयॊगतः॥114॥ चंद्रमा सॆ युत हॊ तॊ जल सॆ तथा कफरॊग हॊता है। इसी प्रकार पिता ’ आदि कॆ भावॆशॊं सॆ उन लॊगॊं कॆ भी रॊग का विचार करना

चाहि‌ऎ॥114॥

। रॊगप्राप्तिसमयःगण्डॊ तॆषां भवॆदॆवमूह्यमत्र मनीषिभिः। रॊगस्थानगतॆ पापॆ तदीशॆ पापसंयुतॆ ॥115॥ राहुणा संयुलॆ मन्दॆ सर्वदा रॊगसंयुतः। रॊगस्थानगतॆ भौमॆ तदीशॆ रन्ध्रसंयुतॆ ॥116॥ षड्वर्षॆ द्वादशॆ वर्षॆ ज्वररॊगी भवॆन्नरः।


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ऎ‌ऎ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम छठॆ स्थान मॆं पापग्रह हॊ, षष्ठॆश पापयुत हॊ, राहु सॆ शनि युत हॊ तॊ सर्वदा रॊगी हॊता है। षष्ठस्थान मॆं भौम हॊ और  षष्ठॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ छठॆ, बारहवॆं वर्ष मॆं ज्वररॊग सॆ युक्त हॊता है॥116॥

प्रष्ठस्थानगतॆ जीवॆ तद्गृहॆ चन्द्रसंयुतॆ ॥117॥ . द्वाविंशकॊनविंशकॆ कुष्ठरॊगं विनिर्दिशॆत॥

छठॆ भाव मॆं गुरु हॊ और  गुरु की राशि मॆं चंद्रमा हॊ तॊ 22वॆ, 19 वॆं वर्ष मॆं कुष्ठरॊग हॊता है॥117॥

रॊगस्थानं गतॊराहुः कॆन्द्रॆ मान्दिसमन्वितः॥118॥

लग्नॆशॆ नाशराशिस्थॆ पविशॆ क्षयरॊगता। । छठॆ भाव मॆं राहु हॊ, कॆन्द्र मॆं गुलिक हॊ, लग्नॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ

26वॆं वर्ष मॆं क्षयरॊग हॊता है॥118॥।

। व्ययॆशॆ रॊगराशिस्थॆ तदीशॆ व्ययराशिगॆ॥119॥ .

त्रिंशद्वर्षकॊनवर्षॆ गुल्मरॊगं विनिर्दिशॆत। व्ययॆश छठॆ भाव मॆं हॊ और  षष्ठॆश बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ 30वॆं वा 29वॆं वर्ष मॆं गुल्मरॊग हॊता है॥119॥।

रिपुस्थानगतॆ चन्द्रॆ शनिना संयुतॆ यदि॥120॥ पञ्चपञ्चाशताब्दॆषु रक्तकुष्ठं विनिर्दिशॆत। छठॆ भाव मॆं शनि सॆ युत चंद्रमा हॊ तॊ 55वॆं वर्ष मॆं रक्तकुष्ठ हॊता है॥120॥

लग्नॆशॆ लग्नराशिस्थॆ मन्दॆ शत्रुसमन्वितॆ ॥121॥ ऎकॊनषष्टिबर्षॆ तु वातरॊगार्दितॊ भवॆत।

लग्नॆश लग्न मॆं हॊ और  शनि छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ 59वॆं वर्ष मॆं वातरॊग हॊता है॥121 ॥।

रन्ग्रॆशॆ रिपुराशिस्थॆ व्ययॆशॆ लग्नसंस्थितॆ ॥122॥। चन्द्रॆ षष्ठॆशसंयुक्तॆ वसुवर्षॆ मृगाभयम। अष्ठमॆश छठॆ भाव मॆं हॊ और  व्ययॆश लग्न मॆं हॊ, चन्द्रमा षष्ठॆश सॆ युत हॊ. तॊ 8वॆं वर्ष मॆं मृग सॆ भय हॊता है॥122॥

षष्ठाष्टमगतॊ राहुस्तस्मादष्टगतॆ शनौ॥123॥

बालस्य जन्मतॊ विज्ञ आद्यॆ चैव द्वितीयकॆ। । वत्सरॆऽग्निभयं तस्य त्रिवर्षॆ पक्षिदॊषभाक ॥124॥

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ऎल्स

द्वादशभावविचाराध्यायः छठॆ, आठवॆं भाव मॆं राहु हॊ, उससॆ आठवॆं भाव मॆं शनि हॊ तॊ, बालक . कॊ 1, 2. वर्ष मॆं अंग्नि का भय और  3 वर्ष मॆं पक्षि का भय हॊता

है॥123॥।

। षष्ठाष्टमगतॆ सूर्यॆ तद्व्ययॆ चन्द्रसंयुतॆ ।

पञ्चमॆ नवमॆऽब्दॆ च जलभीतिं विनिर्दिशॆत ॥125॥ 6, 8 भाव मॆं सूर्य हॊ, उससॆ बारहवॆं चन्द्रमा हॊ तॊ 5, 9 वर्ष मॆं जल सॆ भय हॊता है॥124॥

अष्टमॆ मन्दसंयुक्तॆ रन्ध्राद्वॆ द्वादशॆ कुजः। - त्रिंशांकॆ च दशांकॆ च स्फॊटकादि विनिर्दिशॆत ॥126॥

आठवॆं भाव मॆं शनि हॊ, उससॆ बारहवॆं भाव मॆं भौम हॊ तॊ 30वॆं वा 10 वॆं वर्ष मॆं चॆचक आदि का भय हॊता है॥126॥

रन्ध्रशॆ राहुसंयुक्तॆ तदंशॆ रन्ध्रकॊणगॆ।" द्वाविंशॆऽष्टादशॆ वर्षॆ ग्रन्थिमॆहादिपीडनम । 1127॥ अष्टमॆश राहु सॆ युत हॊकर अपनॆ ही अंश मॆं आठवॆं 5/9 भाव मॆं हॊ तॊ 22वॆं, 18वॆं वर्ष मॆं गठिया, प्रमॆह आदि सॆ पीडा हॊती है॥127॥

लाभॆशॆ रिपुभावस्थॆ तदीशॆ लाभराशिगॆ। ऎकत्रिंशदॆकचत्वारि शत्रुमूलाद्धनक्षयः॥128॥

लाभॆश छठॆ भाव मॆं हॊ और  षष्ठॆश लाभ भाव मॆं हॊतॊ 31वॆं, 41वॆं वर्ष मॆं शत्रु द्वारा द्रव्य का व्यय हॊता है॥128॥

सुतॆशॆ रिपुभावस्थॆ षष्ठॆशॆ गुरुसंयुतॆ ।

व्ययॆशॆ लग्नभावस्थॆ तस्य पुत्रॊ रिपुर्भवॆत ॥129॥ । पंचमॆश छठॆ भाव मॆं हॊ, षष्ठॆश गुरु सॆ युत हॊ और  व्ययॆश लग्न मॆं हॊ तॊ उसका पुत्र शत्रु हॊता है॥129 ॥

। लग्नॆशॆ षष्ठराशिस्थॆ तदीशॆ षष्ठराशिगॆ।

दशमैकॊनविंशॆ च शुनकाझीतिरुच्यतॆ॥130॥ लग्नॆश छठॆ भाव मॆं हॊ, षष्ठॆश षष्ठ भाव मॆं हॊ तॊ 10वॆं, 19वॆं वर्ष मॆं कुत्ता सॆ भय हॊता है॥130 ॥

अथ सप्तमभावफलम्कलत्रपॊ विनास्वर्द्धषडादित्रयसंस्थितः। * रॊगिणीं कुरुतॆ नारी तथा तुङ्गादिकं विना ॥131॥


आश्श

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फऽछ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । सप्तमॆश यदि अपनी राशि सॆ भिन्न राशि मॆं 6।8।12 भाव मॆं नीचादि

राशि मॆं हॊ तॊ स्त्री रॊगिणी हॊती है॥131॥ । सप्तमॆ तु स्थितॆ शुक्रॆऽतीवकामी भवॆन्नरः।

। यत्र कुत्र स्थितॆ पापयुतॆ स्त्रीमरणं भवॆत॥132॥

सातवॆं स्थान मॆं शुक्र हॊ तॊ पुरुष अत्यंत कामी हॊता है। कहीं किसी भाव मॆं शुक्र पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ स्त्री की मृत्यु हॊती है॥132॥

दाराधिपः पुण्यग्रहॆण युक्तॊ दृष्टॊऽपि वा पूर्णबलः प्रसन्नः॥ । सौभाग्ययुक्तॊ गुणवान्प्रभुश्च दाता विभॊग्यं बहुधान्ययुक्तः॥

यदि सप्तमॆश शुभग्रह सॆ युत-दृष्ट हॊ, पूर्ण बलवान हॊ, असांगत आदि न हॊ तॊ पुरुष भाग्यवान, गुणी, दाता, धन-धान्य सॆ युक्त हॊता है॥133॥

कलत्रॆशॆऽस्तनीचशत्रुराशिगतॆष्वपि ।

बहुभार्यान्तरं विद्याद्रॊगिण च विशॆषतः॥134॥ । सप्तमॆश अस्तंगत हॊ, नीचराशि मॆं हॊ, शत्रुराशि मॆं हॊ तॊ

अनॆक स्त्री रॊगिणी हॊती है॥134॥ । परमॊच्चगतॆ सप्ताधिनाथॆमन्दराशौ शुभखॆचरॆण दृष्टॆ।

अथवा भृगुसदनॆ तुंगॆ बहुभार्या प्रवदन्ति बुद्धिमन्तः॥135॥ सप्तमॆश परमॊच्च मॆं हॊकर शनि की राशि मॆं शुभग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ अथवा शुक्र की राशि मॆं उच्च का हॊ तॊ अनॆक स्त्रियाँ हॊती हैं॥135॥

वन्थ्यासंगॊ भवॆद्भानौ चन्द्रराशिसमस्त्रियः। । । कुजॆ रजस्वलासंगॊ वन्ध्यासंगश्च कीर्तितः॥136॥ । सातवॆं सूर्य हॊ तॊ विधवा सॆ संबंध हॊता है। चंद्रमा हॊ तॊ सप्तमस्थ

राशि की जाति सॆ, भौम हॊ तॊ रजस्वला और  वंध्या सॆ॥136॥ . बुधॆ वॆश्याचं हीनाच वणिक स्त्री वा प्रकीर्तितः।

गुरॊर्ब्राह्मणभार्या स्याद्गभिणीसङ्ग ऎव च॥137॥। .. बुध हॊ तॊ वॆश्या, हीना या बनिया की स्त्री सॆ, गुरु हॊ तॊ ब्राह्मणी ., सॆ वा गर्भिणी सॆ॥137॥

हीनाच पुष्पिणी वाच्या मन्दराहुफणीश्वरैः।

कुजॆऽथ सुस्तनी मन्दॆ व्याधिदौर्बल्यसंयुता॥138॥" कटिनॊर्ध्वकुचायॆं च शुक्रॆ स्थूलॊत्तमस्तनी।

ऎश

द्वादशभावविचाराध्यायः ।

फॆश शनि, राहु, कॆतु हॊं तॊ नीचजाति ऒर रजॊधर्मवती सॆ सम्पर्क हॊता है। सप्तम मॆं भौम हॊ तॊ अच्छॆ स्तनॊंवाली, शनि हॊ तॊ रॊगिणी, दुर्बल, भौम-गुरु हॊं तॊ कठिन ऊँचॆ कुचॊं वाली, शुक्र हॊ तॊ मॊटॆ उन्नत कुचॊं वाली स्त्री हॊती है॥138॥

पापॆ द्वादशकामस्थॆ क्षीणचन्द्रस्तु पञ्चमॆ। । जातश्च भार्यावश्यः स्यादिति जातिविरॊधकृत॥139॥ । 12वॆं, 7वॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं और  क्षीण चंद्रमा पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ पुरुष स्त्री कॆ वश मॆं हॊता है और  जाति सॆ विरॊध करनॆ वाला हॊता है॥139 ॥

जामिन्नॆ मन्दभौमॆ च तदीशॆ मन्दभूमिगॆ। 140॥ वॆश्यावा जारिणी वापि तस्य भार्या न संशयः। भौमांशकगतॆ शुक्रॆ भौमक्षॆत्रगतॆऽथवा॥141॥ भौमयुक्तॆ च दृष्टॆ वा भगचुम्बनतत्परः। सातवॆं भाव मॆं शनि-भौम हॊं अथवा सप्तमॆश शनि कॆ गृह मॆं हॊ : तॊ उसकी स्त्री वॆश्या या जारिणी हॊती है। यदि शुक्र-भौम कॆ नवांश मॆं हॊ वा भौम की राशि मॆं हॊ अथवा भौम सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ पुरुष भगचुम्बन करनॆ वाला हॊता है॥141 ॥

मन्दांशकगतॆ शुक्रॆ मन्दक्षॆत्रगतॆऽपि वा॥142॥

मन्दयुक्तॆ च दृष्टॆ च शिश्नचुम्बनतत्परः। । शुक्र शनि कॆ नवांश मॆं अथवा शनि की राशि मॆं हॊ, शनि सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ शिश्न (लिंग) का चुम्बन करनॆ वाला हॊता है॥142॥

दारॆशॆ स्वॊच्चराशिस्थॆ दारॆ शुभसमन्वितॆ। दारॆ लग्नॆशसंयुक्तॆ सत्कलन्नसमन्वितः॥143॥ सप्तमॆश अपनी उच्चराशि मॆं हॊ और  सप्तम मॆं शुभग्रह हॊं तथा लग्नॆश भी सातवॆं हॊ तॊ अच्छी स्त्री सॆ युक्त हॊता है॥143॥। कलत्रनाथॆ रिपुनीचसंस्थॆ मूढॊऽथवा पापनिरीक्षितॆ वा। कलत्रभॆ पापयुतॆ च दृष्टॆ कलत्रहानिं प्रवदन्ति सन्तः॥144॥ । सप्तमॆश शत्रु राशि मॆं वा अपनी नीचराशि मॆं हॊ अथवा अस्तंगत हॊ, पापग्रह सॆ युत वा दृष्ट हॊ और  सप्तम भाव पापयुक्त वा पापदृष्ट हॊ तॊ स्त्री की हानि हॊती है॥144 ॥

190

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम 

घळाष्टमव्ययस्थॆ चॆन्मदॆशॊ दुर्बलॊ यदि।नीचराशिगतॊ वापिदारनाशं विनिर्दिशॆत ॥145॥ । 

सप्तमॆश दुर्बल हॊकर 6/8/12वॆं भाव मॆं हॊ वा नीचराशि मॆं हॊ तॊ स्त्री का नाश हॊता है॥145॥।

कलत्रस्थानगॆ चन्द्रं तदीशॆ व्ययराशिगॆ। कारकॊ बलहीनच दारसौख्यं न विद्यतॆ ॥146॥

सप्तम भाव मॆं चंद्रमा हॊ और  सप्तमॆश 12वॆं भाव मॆं हॊ और  कारक निर्बल हॊ तॊ स्त्री का सुख नहीं हॊता है॥146॥

भार्याधिपॆ नीचगृहॆ च पापॆ पापसँगॆ वा बहुपापयुक्तॆ। क्लीबॆ ग्रहॆ सप्तमराशिसंस्थॆ तस्यॊदयांशॆ द्विकलत्रसिद्धिः॥ सप्तमॆश नीचराशि मॆं हॊ और  पापग्रह हॊ, पापग्रह की राशि मॆं हॊ वा पापग्रह सॆ युत हॊ और  नपुंसक ग्रह सातवॆं भाव मॆं हॊ वा नपुंसक " की राशि सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ 2 स्त्रियाँ हॊती हैं॥147॥

कलत्रस्थानंगॆ भौमॆ शुक्रॆ जामित्रगॆ शनौ। लग्नॆशॆ रन्ध्रराशिस्थॆ कलत्रत्रयवान भवॆत ॥148॥ सातवॆं भाव मॆं भौम, शुक्र, शनि हॊं और  लग्नॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ 3 स्त्रियाँ हॊती हैं॥148॥ । द्विस्वभावगतॆ शुक्रॆ स्वॊच्चॆ तदाशिनायकॆ।

दारॆशॆ बलसंयुक्तॆ बहुदारसमन्वितः॥149॥ । शुक्र द्विस्वभाव राशि मॆं हॊ, द्विस्वभाव राशि का स्वामी अपनॆ उच्च मॆं हॊ और  सप्तमॆश बली हॊ तॊ अनॆक स्त्रियाँ हॊती हैं॥149॥

विवाहसमयमाह—दारॆशॆ शुभराशिस्थॆ स्वॊच्चस्वक्षगतॊ भृगुः। पञ्चमॆ नवमॆऽब्दॆ च विवाह प्रायशॊ भवॆत ॥150॥ सप्तमॆश शुभग्रह की राशि मॆं हॊ, शुक्र अपनॆ उच्च या अपनी राशि मॆं हॊ तॊ पाँचवॆं या नवॆं वर्ष मॆं विवाह हॊता है॥150॥।

दारस्थानगतॆ सूर्यं तदीशॆ भृगुसंयुतॆ । सप्तमैकादशॆ वर्षॆ विवाहः प्रायशॊ भवॆत॥151॥ सप्तम भाव मॆं सूर्य हॊ, सप्तमॆश शुक्र सॆ युत हॊ तॊ 7वॆं या 12वॆं वर्ष मॆं विवाह हॊता है॥151॥

20

द्वादशभावविचाराध्यायः कुटुम्बस्थानगॆ शुक्रॆ दारॆशॆ लाभराशिगॆ। दशमॆ षॊडशाब्दॆ च विवाहः प्रायशॊ भवॆत॥152॥ दूसरॆ भाव मॆं शुक्र हॊ और  सप्तमॆश 11वॆं भाव मॆं हॊ तॊ 10वॆं या 16वॆं वर्ष मॆं विवाह हॊता है॥152॥

लग्नकॆन्द्रगतॆ शुक्रॆ लग्नॆशॆ मन्दराशिगॆ।

वत्सरैकादशॆ प्राप्तॆ विवाहं लभतॆ नरः॥153॥ । लग्न वा कॆन्द्र मॆं शुक्र हॊ और  लग्नॆश शनि की राशि मॆं हॊ तॊ 11वॆं वर्ष मॆं विवाह हॊता है॥153॥

लग्नात्कॆन्द्रगतॆ शुक्रॆ तस्मात्कामगतॆ शनौ। द्वादशैकॊनविंशॆ च विवाहः प्रायशॊ भवॆत॥154॥

लग्न सॆ कॆन्द्र मॆं शुक्र हॊ, उससॆ सातवॆं भाव मॆं शनि हॊ तॊ 12वॆं वा 19वॆं वर्ष मॆं विवाह हॊता है॥154॥।

चन्द्राज्जामित्रगॆ शुक्रॆ शुक्राज्जामित्रगॆशनौ। वत्सरॆऽष्टादशॆ प्राप्तॆ विवाहं लभतॆ नरः॥155॥। चन्द्रमा सॆ 7वॆं भाव मॆं शुक्र हॊ और  शुक्र सॆ 7वॆं भाव मॆं शनि हॊ तॊ 18वॆं वर्ष मॆं प्रायः विवाह हॊता है॥155॥

धनॆशॆ लाभराशिस्थॆ लग्नॆशॆ कर्मराशिभॆ।

अब्दॆ पञ्चदशॆ जातॆ विवाहं लभतॆ नरः॥156॥ द्वितीयॆश लाभभाव मॆं हॊ और  लग्नॆश 10वॆं भाव मॆं हॊ तॊ 15वॆं वर्ष

 मॆं विवाह हॊता है॥156॥

धनॆशॆ लाभराशिस्थॆ लाभॆशॆ धनराशिगॆ।

अब्दत्रयॊदशॆ प्राप्तॆ विवाहं लभतॆ नरः॥157॥ । धनॆश (द्वितीयॆश) लाभभाव मॆं और  लाभॆश (11 भाव का स्वामी) धन भाव मॆं हॊ तॊ 13वॆं वर्ष मॆं विवाह हॊता है॥157॥। . रन्ध्राज्जामित्रगॆ शुक्रॆ तदीशॆ भौमसंयुतॆ।

द्वाविंशॆ सप्तविंशाब विवाहॊ लभतॆ नरः॥158॥ अष्टमभाव सॆ सातवॆं भाव मॆं शुक्र हॊ और  सप्तमॆश भौम सॆ युत हॊ तॊ 22वॆं या 27वॆं वर्ष मॆं विवाह हॊता है॥158॥। . दारांशकगतॆ लग्ननाथॆ दारॆश्वरॆ व्ययॆ।

त्रयॊविंशॆ च षड्विंशॆ विवाहं लभतॆ नरः॥159॥


.घ

-

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । सप्तम भाव कॆ नवांश मॆं लग्नॆश हॊ और  सप्तमॆश बारहवॆं भाव मॆं

हॊ तॊ 23वॆं या 26वॆं वर्ष मॆं विवाह हॊता है॥159॥।

रन्ध्रांशॆ दारराशिस्थॆ लग्नांशॆ भृगुसंयुतॆ॥ पञ्चविंशॆ त्रयस्त्रिंशॆ विवाहं लभतॆ नरः॥160॥ अष्टम भाव की नवांश राशि सातवॆं भाव मॆं हॊ और  लग्न कॆ नवांश मॆं शुक्र युत हॊ तॊ 25वॆं या 33वॆं वर्ष मॆं विवाह हॊता है॥160 ॥

भाग्याद्भाग्यगतॆ शुक्रॆ तद्ययॆ राहुसंयुतॆ । ऎकत्रिंशात्रयस्त्रिंशॆ दारलाभं विनिर्दिशॆत ॥161॥ माग्यस्थान सॆ भाग्यभाव मॆं शुक्र हॊ, उससॆ बारहवॆं भाव मॆं राहु हॊ तॊ 31वॆं वा : 33वॆं वर्ष मॆं विवाह हॊता है॥161॥

भाग्याज्जामित्रगॆ शुक्रॆ तद्द्युनॆ दारनायकॆ। त्रिंशॆ वा सप्तत्रिंशाब्दॆ विवाहं लभतॆ नरः॥162॥॥

भाग्यभाव सॆ 7वॆं भाव मॆं शुक्र हॊ, उससॆ बारहवॆं भाव मॆं राहु हॊ तॊ 30र्वॆ वा 37वॆं वर्ष मॆं विवाह हॊता है॥162॥।

स्त्रीमृत्युसमयमाह—दारॆशॆ नीचराशिस्थॆ शुक्रॆ रन्धारिसंयुतॆ।

अष्टादशॆ क्रयस्त्रिंशॆ वत्सरॆ दारनाशनम॥163॥

 सप्तमॆश अपनी नीच राशि मॆं हॊ और  शुक्र 8, 6 भाव मॆं हॊ तॊ 18वॆं या 33वॆं वर्ष मॆं स्त्री का नाश हॊता है॥163॥

मदॆशॆ नाशिस्थॆ, व्ययॆशॆ मदराशिगॆ। * तस्य चैकॊ त्रिंशाब्दॆदारनाशं विनिर्दिशॆत ॥164॥

 सप्तमॆश 8वॆं भान मॆं हॊ और  व्ययॆश सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ 29वॆं वर्ष मॆं स्त्री का नाश हॊता है॥164॥

कुटुम्बस्थानगॆ राहुः कलत्रॆ भौमसंयुतॆ । । पाणिग्रहॆ विवाहॆ च सर्पदंष्ट्र वधूमृतिः॥165॥

दूसरॆ भाव मॆं राहु हॊ और  सातवॆं भाव मॆं भौम हॊ तॊ विवाह कॆ बाद ही साँप कॆ काटनॆ सॆ स्त्री की मृत्यु हॊती है॥165॥।

रन्ध्रस्थानगतॆ शुक्रॆ तदीशॆ सौरिराशिगॆ। द्वादशैकॊनविंशाब्दॆ दारनाशं विनिर्दिशॆत ॥166इ।


फॊस्त

द्वादशभावविचाराध्यायः आठवॆं भाव मॆं शुक्र हॊ और  अष्टमॆश शनि की राशि मॆं हॊ तॊ 12-। वॆं या 29वॆं वर्ष मॆं स्त्री की मृत्यु हॊती है॥166॥

लग्नॆशॆ नीचराशिस्थॆ धनॆशॆ निधनं गतॆ। त्रयॊदशॆ तु सम्प्राप्तॆ कलत्रस्य मृतिं वदॆत॥167॥ लग्नॆश अपनी नीचराशि मॆं हॊ और  धनॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ 13वॆं वर्ष मॆं स्त्री की मृत्यु हॊती है॥167॥

शुक्राज्जामित्रगॆ चन्द्रॆ चन्द्राज्जामित्रगॆ बुधॆ॥ रन्ध्रॆशॆ सुतभावस्थॆ प्रथमं दशमाब्दिकम ॥168॥ द्वाविंशॆ च द्वितीयं च त्रयस्त्रिंशं तृतीयकम। विवाहं लभतॆ मत्र्यॊ नात्र कार्या विचारणा॥169॥

शुक्र सॆ सातवॆं भाव मॆं चन्द्रमा हॊ और  चन्द्रमा सॆ सातवॆं भाव मॆं बुध हॊ तथा अष्टमॆश पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ पहला विवाह 10वॆं वर्ष मॆं, दूसरा 22वॆं वर्ष मॆं और  तीसरा 33वॆं वर्ष मॆं हॊता है॥169॥ ।

अथाष्टमभावफलमाह—.. आयु:स्थानाधिपः पापैः सहैव यदि संस्थितः।

करॊत्यल्पायुषं जातं लग्नॆशॊऽप्यत्र संस्थितः॥170॥ अष्टमॆश पापग्रह और  लग्नॆश कॆ साथ आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक अल्पायु हॊता है॥170 ॥।

ऎवं हि शनिना चिन्ता कार्या तकैर्विचक्षणैः।

कर्माधिपॆन च तथा चिन्तनं कार्यमायुषः॥171॥। । इसी प्रकार तर्क द्वारा शनि और  कर्मॆश सॆ भी आयु का विचार करना

चाहि‌ऎ॥171॥।

षष्ठॆ व्ययॆऽपि षष्ठॆशॊं व्ययाधीशॊ रिपौ व्ययॆ ॥

लग्नॆऽष्टमॆ स्थितॊ वापि दीर्घमायुः प्रयच्छति॥172॥ षष्ठॆश 6 या 12 भाव मॆं हॊ और  व्ययॆश 6 या 12 भगव मॆं हॊ अथवा लग्न वा आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ दीर्घायु हॊता है॥172॥ .

* स्वस्थानॆ स्वांशकॆ वापि मित्रॆशॆ भित्रमन्दिरॆ।

दीर्घायुषं करॊत्यॆव लग्नॆशॊऽष्टमपः पुनः॥173 ॥

लग्नॆश, अष्टमॆश और  पंचमॆश अपनॆ भाव मॆं, अपनॆ नवांश मॆं वा मित्र : । की राशि मॆं हॊ तॊ दीर्घायु हॊता है॥173॥ ।


174

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । लग्नाष्टमकर्मशमन्दाः कॆन्द्रत्रिकॊणयॊः।

लाभॆवा संस्थितास्तद्वदिशॆयुर्घमायुषम॥174॥ लग्नॆश, अष्टमॆश, कर्मश और  शनि कॆन्द्र-त्रिकॊण और  लाभ भाव मॆं हॊं, तॊ दीर्घायु हॊती है॥174॥

अष्टमाधिपत कॆन्द्र लग्नॆशॆ बलवजितॆ। विंशद्वर्षाण्यसौ जीवॆद्द्वात्रिंशत्परमायुषम॥175॥ अष्टमॆश कॆन्द्र मॆं हॊ और  लग्नॆश निर्बल हॊ तॊ 20 वर्ष या 32 वर्ष की आयु हॊती है॥175 ॥। .. रन्ध्रशॆ नीचराशिस्थॆ रन्ध्र पापग्रहैर्युतॆ।

लग्नॆशॆ दुर्बलॆ यस्य अल्पायुर्भवति ध्रुवम॥176॥

अष्टमॆश अपनी नीच राशि मॆं हॊ, अष्टम भाव मॆं पापग्रह हॊं और  लग्नॆश दुर्बल हॊ तॊ अल्पायु हॊती है॥176॥

रन्प्रॆशॆ पापसंयुक्तॆ रन्ध्र पापग्रहैर्युतॆ । व्ययॆ क्रूरग्रहैर्जातॆ जातमात्रं मृतिर्भवॆत॥177॥

अष्टमॆश पापग्रह सॆ युक्त हॊ, आठवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं और  बारहवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं तॊ उत्पन्न हॊतॆ ही मृत्यु हॊ जाती है॥177॥

कॆन्द्रत्रिकॊणपापस्थाः षष्ठाष्टॆषु शुभा यदि। लग्नॆ रन्ध्रॆशनीचस्थॆ जातः सद्यॊ मृतॊ भवॆत॥178॥ कॆन्द्र-त्रिकॊण मॆं पापग्रह हॊं, 6/8 भाव मॆं शुभग्रह हॊं, लग्न मॆं अष्टमॆश अपनी नीचराशि का हॊ तॊ शीघ्र ही मृत्यु हॊती है॥178॥

पञ्चमॆ पापसंयुक्तॆ रन्ग्रॆशॆ पापसंयुतॆ। रन्प्रॆ पापग्रहैर्युक्तॆ अल्पायुष्यः प्रजायतॆ ॥179 ॥ पाँचवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊ, अष्टमॆश पापग्रह सॆ युत हॊ और  अष्टम भाव पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ अल्पायु हॊती है॥17॥

रन्ध्रशॆ रन्ध्रराशिस्थॆ चन्द्रॆ पापसमन्वितॆ। शुभदृग्रहितॆ विद्वन मासान्तॆ च मृतिर्भवॆत॥180॥ अष्टमॆश आठवॆं भाव मॆं और  चन्द्रमा पापयुक्त हॊ, शुभग्रह सॆ न दॆखा जाता हॊ तॊ मास कॆ अंत मॆं मृत्यु हॊती है॥180 ॥।

लग्नॆशॆ स्वॊच्चराशिस्थॆ चन्द्रॆ लाभसमन्वितॆ ॥ रन्ध्रस्थानगतॆ जीवॆ दीर्घायुष्यं न संशयः॥181॥


फॊ4

.

द्वादशभावविचाराध्यायः लग्नॆश अपनी उच्चराशि मॆं हॊ और  चन्द्रमा लाभभाव मॆं हॊ तथा आठवॆं । भाव मॆं गुरु हॊ तॊ दीर्घायु हॊती है, इसमॆं संशय नहीं है॥181॥

। अथ नवमभावफलमाह—गुरुस्थानगतॆ जीवॆ तदीशॆ कॆन्द्रसंस्थितॆ। लग्नॆशॆ बलसंयुक्तॆ बहुभाग्याधिपॊ भवॆत ॥182॥ नवम स्थान मॆं गुरु हॊ, नवमॆश कॆन्द्र मॆं हॊ और  लग्नॆश बलवान हॊ तॊ बडा ही भाग्यवान हॊता है॥182॥।

भाग्यॆशॆ बलसंयुक्तॆ भाग्यॆ भृगुसमन्वितॆ। लग्नाकॆन्द्रगतॆ जीवॆ पितृभाग्यसमन्वितः॥183॥ भाग्यॆश बलवान हॊ, भाग्यस्थान मॆं शुक्र सॆ, लग्न सॆ कॆन्द्र मॆं गुरु हॊ तॊ पिता भाग्यवान हॊता है॥183॥

भाग्यस्थानाद्वितीयॆव सुखॆ भौमसमन्वितॆ।

भाग्यॆशॆ नीचराशिस्थॆ पिता निर्धन ऎव च॥184॥ । भाग्यस्थान सॆ दूसरॆ वा चौथॆ स्थान मॆं भौम हॊ और  भाग्यॆश नीच राशि मॆं हॊ तॊ पिता निर्धन हॊता है॥184॥।

भाग्यॆशॆ परमॊच्चस्थॆ भाग्यांशॆ जीवसंयुतॆ। लग्नाच्चतुष्टयॆ शुक्रॆ पिता दीर्घायुरादिशॆत॥185॥ भाग्यॆश परम-उच्चांश मॆं हॊ, गुरु भाग्यांश मॆं हॊ, लग्न सॆ कॆन्द्र मॆं शुक्र हॊ तॊ पिता दीर्घायु हॊता है॥185॥ ,

भाग्यॆशॆ कॆन्द्रभावस्थॆ गुरुणा च निरीक्षितॆ। तत्पिती वाहनैर्युक्तॊ राजा वा तत्समॊ भवॆत ॥186॥

भाग्यॆश कॆन्द्र मॆं गुरु सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ उसका पिता वाहन सॆ युक्त राजा वा उसकॆ समान हॊता है॥186॥ । भाग्यॆशॆ कर्मभावस्थॆ कर्मॆशॆ भाग्यराशिगॆ।

* शुभयॊगॆ धनाढ्यश्व कीर्तिमांस्तत्पिता भवॆत॥187॥ . भाग्यॆश कर्मभाव मॆं हॊ, कर्मश भाग्यभाव मॆं हॊ और  शुभग्रह सॆ किसी प्रकार का संपर्क हॊ तॊ उसका पिता धनी और  कीर्तिमान हॊता है॥187॥.


176 :

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । परमॊच्चशिगॆ सूर्यॆ भाग्यॆशॆ लाभसंस्थितॆ।

धर्मिष्ठॊ नृपवात्सल्यः पितृभक्तॊ भवॆन्नरः॥188॥ । .सूर्य परम-उच्चांश मॆं हॊ, भाग्यॆश लाभभाव मॆं हॊ तॊ जातक धर्मिष्ठ,

राजा का प्रॆमपात्र और  पितृभक्त हॊता है॥188॥।

लग्नात्रिकॊणगॆ सूर्यॆ भाग्यॆशॆ सप्तमस्थितॆ। गुरुणा सहितॆ दृष्टॆ पितृभक्तिसमन्वितः॥189॥ भाग्यॆशॆ धनभावस्थॆ धनॆशॆ भाग्यराशिगॆ।

द्वात्रिंशात्परतॊ भाग्यं वाहनं कीर्तिसम्भवः॥190॥ ...’ लग्न सॆ त्रिकॊण मॆं सूर्य हॊ, भाग्यॆश धनभाव मॆं और  धनॆश भाग्यमात

मॆं हॊ तॊ 32वॆं वर्ष कॆ बाद भाग्य, वाहन और  कीर्ति का लाभ हॊता है॥190॥।

पितृवैरयॊगःलग्नॆशॆ भाग्यंराशिस्थॆ षष्ठॆशॆ भाग्यराशिगॆ। अन्यॊऽन्यवैरं ब्रुवतॆ जनकः कुत्सितॊ भवॆत॥191॥ लग्नॆश भाग्यभाव मॆं हॊ और  षष्ठॆश भाग्यभाव मॆं हॊ तॊ परस्पर पित. पुत्र मॆं वैर हॊता हैं तथा पिता निन्दनीय हॊता है॥191॥

। भिक्षाशनयॊगःकर्माधिपॆन सहितॊ विक्रमॆशॊ च निर्बलः। नीचास्तगॊच भाग्यॆशॊ यॊगॊ भिक्षाशनप्रदः॥192॥

यदि निर्बल तृतीयॆश कर्मॆश सॆ युक्त हॊ और  भाग्यॆश नीच वा अन ’ मॆं हॊ तॊ जातक भिक्षा सॆ उदरपूर्ति करनॆ वाला हॊता है॥192॥

पितृमरणयॊगमाह—घष्ठाष्टमव्ययॆ भानू रन्ध्रशॆ भाग्यसंयुतॆ। व्ययॆशॆ लग्नराशिस्थॆ षष्ठॆशॆ पञ्चमॆ स्थितॆ ॥193॥ जातस्य जननात्पूर्वं जनकस्य मृतिं वदॆत॥ सूर्य 6/8/12 भाव मॆं हॊ और  अष्टमॆश भाग्य भाव मॆं हॊ तथा व्ययॆश लग्न मॆं और  षष्ठॆश पाँचवॆं भाव मॆं हॊ बालक कॆ जन्म सॆ पर्व । ही पिता की मृत्यु हॊ जाती है॥193॥

रन्ध्रस्थानगतॆ सूर्यॆ रन्ध्रशॆ भाग्यभावगॆ॥194॥

 जातस्य प्रथमाब्दॆ च पितुर्मरणमादिशॆत॥


ऋलॆ

द्वादशभावविचाराध्यायः आठवॆं स्थान मॆं सूर्य हॊ और  अष्टमॆश भाग्यभाव मॆं हॊ तॊ बालक कॆ पहलॆ वर्ष मॆं ही पिता की मृत्यु हॊती है॥194॥

व्ययॆशॆ भाग्यराशिस्थॆ नीचशॆ भाग्यनायकॆ।

तृतीयॆ षॊडशॆ वर्षॆ जनकस्य मृतिर्भवॆत॥195॥। । व्ययॆश भाग्यभाव मॆं, भाग्यॆश नीचांश मॆं हॊ तॊ तीसरॆ वा सॊलहवॆं वर्ष मॆं पिता की मृत्यु हॊती है॥195॥

लग्नॆशॆ नाशराशिस्थॆ रन्ग्रॆशॆ भानुसंयुतॆ। . द्वितीयॆ द्वादशॆ वर्षॆ पितुर्मरणमादिशॆत ॥196॥ । लग्नॆश आठवॆं भाव मॆं और  अष्टमॆश सूर्य सॆ युत हॊ तॊ दूसरॆ वा 1वॆं वर्ष मॆं पिता की मृत्यु हॊती है॥196॥।

भाग्याद्रन्ध्रगतॆ राहौ भाग्याभाग्यगतॆ रवौ। राहुणा सहितॆ सूर्यॆ चन्द्राभाग्यगतॆ शनौ॥197॥

 सप्तमैकॊनविंशाब्दॆ तातस्य मरणं भवॆत॥

भाग्यभाव सॆ आठवॆं भाव मॆं राहु हॊ, भाग्य सॆ भाग्यभाव मॆं रवि राहू सॆ युक्त हॊ और  चन्द्रमा सॆ भाग्यभाव मॆं शनि हॊ तॊ 7वॆं या 19वॆं वर्ष मॆं पिता की मृत्यु हॊती है॥197॥

भाग्यॆशॆ व्ययराशिस्थॆ व्ययॆशॆ भाग्यराशिगॆ॥198॥ । चतुश्चत्वारिवर्षाच्च पितुर्मरणमादिशॆत॥ भाग्यॆश 12वॆं भाव मॆं और  व्ययॆश भाग्यभाव मॆं हॊ तॊ 44वॆं वर्ष मॆं पिता की मृत्यु हॊती है॥198॥।

रव्यंशॆ च स्थितॆ चन्द्रॆ लग्नॆशॆ रन्ध्रसंयुतॆ ॥199॥ पञ्चत्रिंशैकचत्वारिंशद्वर्षॆ पितृनाशनम॥ सूर्य कॆ नवांश मॆं चन्द्रमा हॊ और  लग्नॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ 35वॆं वा 41वॆं वर्ष मॆं पिता की मृत्यु हॊती है॥199॥

पितृस्थानाधिपॆ सूर्यॆ मन्दभौमसमन्वितॆ ॥200॥

पञ्चाशद्वत्सरॆ प्राप्तॆ जनकस्य मृतिर्भवॆत। पितृस्थान (10) का स्वामी सूर्य हॊ और  शनि-भौम सॆ युत हॊ तॊ 50वॆं वर्ष मॆं पिता की मृत्यु हॊती है॥200॥

भाग्यात्सप्तमगॆ सूर्यॆ भ्रातृसप्तमगस्तमः॥201॥ षष्ठॆ वा पञ्चविंशाब्दॆ पितुर्मरणमादिशॆत।


ऎण

178 :

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम * भाग्यभाव सॆ 7वॆं सूर्य हॊ और  भ्रातृभाव सॆ 7वॆं राहु हॊ तॊ छठॆ वा 25वॆं

घंर्ष मॆं पिता की मृत्यु हॊती है॥201॥

रन्ध्रजामित्रगॆ मन्द मन्दाज्जामिन्नगॆ रवौ॥202। त्रिंशैकविंशॆ षड्विंशॆ जनकस्य मृतिर्भवॆत।

आठवॆं सॆ सातवॆं भाव मॆं शनि हॊ और  शनि सॆ 7वॆं भाव मॆं राहु हॊ तॊ 30वॆं, 21वॆं वा 26वॆं वर्ष मॆं पिता की मृत्यु हॊती है॥202॥ । भाग्यॆशॆ नीचराशिस्थॆ तदीशॆ भाग्यराशिगॆ॥203॥

षडर्विशॆ च त्रयस्त्रिंशॆ पितुर्मरणमादिशॆत॥ । ऎवं तातस्य भ विद्वन फलं ज्ञात्वा समादिशॆत ॥294॥

। भाग्यॆश नीच राशि मॆं और  नीच राशि का स्वामी भाग्यभाव मॆं हॊ तॊ

26वॆ वा 33वॆं वर्ष मॆं पिता की मृत्यु हॊती है। इस प्रकार सॆ पिता ’ की मृत्यु का विचार कर आदॆश दॆना चाहि‌ऎ॥203-204॥।

परमॊच्चांशगॆ शुक्रॆ भाग्यॆशॆन समन्वितॆ। भ्रातृस्थानॆ शनियुतॆ बहुभाग्याधिपॊ भवॆत ॥205॥ भाग्यॆश सॆ युत शुक्र परम-उच्चांश मॆं हॊ और  मातृस्थान मॆं शनि हॊ तॊ बडी भाग्यवान हॊता है॥205 ॥।

गुरुणा संयुतॆ भाग्यॆ तदीशॆ कॆन्द्रराशिगॆ। विंशद्वर्षात्परं चैव बहुभाग्यं विनिर्दिशॆत॥206॥ भाग्यस्थान मॆं गुरु हॊ और  भाग्यॆश कॆंद्र मॆं हॊ तॊ 22 वर्ष कॆ बाद भाग्यॊदय हॊता है॥206॥।

परमॊच्चांशगॆ सौम्यॆ भाग्यॆशॆ भाग्यराशिगॆ। षट्त्रिंशाच्च परं चैव बहुभाग्यं विनिर्दिशॆत॥207॥ बुध परम उच्चांश मॆं हॊ और  भाग्यॆश भाग्यभाव मॆं हॊ तॊ 36वॆं वर्ष कॆ बाद भाग्यॊदय हॊता है॥207॥

। लग्नॆशॆ भाग्यराशिस्थॆ भाग्यॆशॆ लग्नसंयुत्तॆ। . गुरुणा संयुतॆ चूनॆ धनवाहनलाभकृत॥208॥ । लग्नॆश भाग्यभाव मॆं और  भाग्यॆश लग्न मॆं हॊ तथा गुरु सप्तम भाव

मॆं हॊ तॊ धन-वाहन सॆ युक्त हॊता है॥208॥

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इद.

भॆत

द्वादशभावविचाराध्यायः

भाग्यहीनयॊगः । भाग्याभाग्यगतॊ राहुर्भाग्यॆशॆ निधनं गतॆ। भाग्यॆशॆ नीचराशिस्थॆ भाग्यहीनॊ भवॆन्नरः॥209॥ भाग्यस्थान सॆ नवम भाव मॆं राहु हॊ तथा भाग्यॆश अपनी नीच राशि कॆ आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ मनुष्य भाग्यहीन हॊता है॥209॥

भाग्यस्थानगतॆ मन्दॆ शशिना च समन्वितॆ। लग्नॆशॆ नीचराशिस्थॆभिक्षाशीच नरॊ भवॆत॥210॥ भाग्यस्थान मॆं शनि चन्द्रमा कॆ साथ हॊ और  लग्नॆश नीच राशि मॆं हॊ तॊ भिक्षा का अन्न खानॆ वाला हॊता है॥210॥

अथ दशमभावफलमाह—कर्माधिपॊ बलॊनश्चॆत्कर्मवैकल्यमादिशॆत॥ सैहिः कॆन्द्रत्रिकॊणस्थॊ ज्यॊतिष्टॊमादियागकृत॥211॥ कर्मॆश निर्बल हॊ तॊ जातक कर्महीन हॊता है। राहु कॆन्द्र-त्रिकॊण मॆं हॊ तॊ ज्यॊतिष्टॊम आदि यज्ञ करनॆ वाला हॊता है॥211॥

दशमॆ पापसंयुक्तॆ लाभॆ पापसमन्वितॆ। दुष्कृतिं लभतॆ मर्त्यः स्वजनानां विदूषकः॥212॥ दशम भाव मॆं पापग्रह हॊ और  लाभ भाव मॆं पापग्रह हॊ तॊ जातक दुष्कीर्ति पाता है॥212॥

कर्मॆशॆ नाशराशिस्थॆ राहुणा संयुतॆऽपि च। जनद्वॆषी महामूर्खा दुष्कृतिं लभतॆ नरः॥213॥ कर्मॆश राहु सॆ संयुक्त हॊकर आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ मनुष्यॊं सॆ द्वॆष करनॆ वाला, महामूर्ख और  दुष्कर्म मॆं प्रवृत हॊता है॥213॥

कर्मॆशॆ यूनराशिस्थॆ मन्दभौमसमन्वितॆ । छूनॆशॆ पापसंयुक्तॆ शिश्नॊंदरपरायणः॥214॥ कर्मॆश शनि-भौम सॆ युत हॊकर सप्तम भाव मॆं हॊ और  सप्तमॆश पाप सॆ युत हॊ तॊ जातक शिश्न द्वारा उदरपूर्ति (जीविका) करनॆ वाला हॊता है॥214॥ .. तुगराशिं समाश्रित्य कर्मॆशॆ गुरुसंयुतॆ॥ । भाग्यॆशॆ कर्मराशिस्थॆ यानैश्वर्यप्रतापवान॥215॥

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3


.

छॊ.

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम अपनी उच्चराशि मॆं कर्मॆश गुरु सॆ गुंत हॊ और  भाग्यॆश कर्मराशि मॆं हॊ तॊ जातक मान-ऐश्वर्य सॆ युक्त प्रतापी हॊता है॥215 ॥

लाभॆशॆ कर्मराशिस्थॆ कर्मॆशॆ लग्नसंयुतॆ॥ , तावुभौ कॆन्द्रग वादि सुखजीवनभाग्भवॆत॥216॥

लाभॆश कर्मराशि मॆं हॊ और  कर्मॆश लग्न मॆं हॊ अथवा दॊनॊं कॆन्द्र मॆं हॊं तॊ सुखी जीवन वाला हॊता है॥216॥

कर्मॆशॆ बलसंयुक्तॆ मीनॆ गुरुसमन्वितॆ। वस्त्राभरणसौख्यादि लभतॆ नात्र संशयः॥217॥ कर्मॆश बलवान हॊकर मीनराशि मॆं गुरु सॆ युत हॊ तॊ जातक वस्त्र, आभूषण सुख आदि सॆ युक्त हॊता है॥217॥।

कर्महीनयॊगः-. लाभस्थानगतॆ सूर्यॆ राहुभौमसमन्वितॆ ।

रविपुत्रॆण संयुक्तॆ कर्मच्छॆत्ता भवॆन्नरः॥218॥ * सूर्य लाभभाव मॆं राहु, भौम, शनि सॆ युत हॊ तॊ जातक कर्महीन हॊता है॥218॥। ।

शुभकर्मयॊगाःभीनॆ जीवॆ भृगुसुतॆ लग्नॆशॆ बलसंयुतॆ॥ स्वॊच्चराशिगतॆ चन्द्रॆ सम्यग्ज्ञानार्थवान भवॆत ॥219 ॥ मीनराशि मॆं गुरु-शुक्र हॊं, लग्नॆश बलवान हॊ और  चंद्रमा अपनी उच्चराशि मॆं हॊ तॊ ज्ञानी और  धनी हॊता है॥219॥.

कर्मॆशॆ लाभराशिस्थॆ लाभॆशॆ लग्नसंस्थितॆ॥ . कर्मराशिस्थितॆ शुक्रॆ रत्नदान स नरॊ भवॆत॥220 ॥

कर्मॆश लाभभाव मॆं और  लग्नॆश लग्न मॆं तथा शुक्र कर्मभाव मॆं हॊ। तॊ मनुष्य रत्नॊं सॆ युक्त हॊता है॥220॥।

कॆन्द्रत्रिकॊणगॆ कर्मनाथॆ स्वॊच्चसमाश्रितॆ। । गुरुणा सहितॆ दृष्टॆ स कर्मसहितॊ भवॆत॥221॥

अपनी उच्च राशि मॆं कर्मॆश कॆंद्र-त्रिकॊण मॆं और  गुरु सॆ युत-दष्ट हॊ तॊ मनुष्य कर्मश्रॆष्ठ हॊता है॥221॥।

कर्मॆशॆ लग्नभावस्थॆ लग्नॆशॆन समन्वितॆ। कॆन्द्रत्रिकॊणगॆ चन्द्रॆ सत्कर्मनिरतॊ भवॆत॥22॥

-

-


द्वादशभावविचाराध्यायः

भ्छ2 कर्मॆश लग्न मॆं लग्नॆश कॆ साथ हॊ, कॆन्द्र- त्रिकॊण मॆं चंद्रमा हॊ तॊ पुरुष सत्कर्म मॆं निरत हॊता है॥222॥

कर्मस्थानगतॆ चन्द्रॆ तदीशॆ तत्रिकॊणगॆ। लग्नॆशॆ कॆन्द्रभावस्थॆ सत्कीर्तिसहितॊ भवॆत॥223॥ कर्मस्थान मॆं चंद्रमा हॊ और  कर्मॆश उससॆ त्रिकॊण मॆं हॊ तथा लग्नॆश कॆंद्र मॆं हॊ तॊ कीर्ति सॆ युक्त हॊता है॥223॥

लाभॆशॆ कर्मभावस्थॆ कर्मॆशॆ बलसंयुतॆ। दॆवॆन्द्रगुरुणा दृष्टॆ सत्कीर्तिसहितॊ भवॆत॥224॥। लाभॆश कर्मभाव मॆं हॊ और  कर्मॆश बलवान हॊ, गुरु सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ सत्कीर्ति सॆ युक्त हॊता है॥224॥

कर्मस्थानाधिपॆ भाग्यॆ लग्नॆशॆ कर्मसंयुतॆ। लग्नात्पञ्चमगॆचन्द्रॆ ख्यातकीर्त्ति विनिर्दिशॆत॥225॥। कर्मॆश भाग्यभाव मॆं और  लग्नॆश कर्मभाव मॆं हॊ तथा लग्न सॆ पाँचवॆं भाव मॆं चंद्रमा हॊ तॊ विख्यात कीर्त्तिवाला पुरुष हॊता है॥225॥

. अशुभयॊगःकर्मस्थानगतॆ . मन्दॆ नीचखॆचरसंयुतॆ । । कर्माशॆ पापसंयुक्तॆ कर्महीनॊ भवॆन्नरः॥226॥ कर्मस्थान मॆं शनि नीचराशिस्थ ग्रह सॆ युत हॊ और  कश मॆं पापग्रह हॊ तॊ जातक कर्महीन हॊता है॥226॥।

कर्मॆशॆ नाशराशिस्थॆ कर्मस्थॆ पापखॆचरॆ। कर्मभात्कर्मगॆ पापॆ कर्मवैकल्यमादिशॆत॥227॥ कर्मॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ और  कर्मभाव मॆं पापग्रह हॊ तथा कर्मभाव सॆ कर्मस्थान मॆं पापग्रह हॊ तॊ पुरुष कर्महीन हॊता है॥227॥

। अथैकादशभावफलमाह—लाभाधिपॊ यदा लाभॆतिष्ठॆकॆन्द्रत्रिकॊणयॊः। बहुलाभं तदा कुर्यादुच्चसूर्याशगॊऽपि वा॥228॥ लाभॆश लाभभाव मॆं वा कॆंद्र-त्रिकॊण मॆं हॊ वा अपनॆ उच्च मॆं वा सूर्यांश मॆं हॊ तॊ भी फल का बहुत लाभ हॊता है॥228॥

लाभॆशॆ धनराशिस्थॆ धनॆशॆ कॆन्द्रसंस्थितॆ। गुरुणा सहितॆ भावॆ गुरुलाभं विनिर्दिशॆत ॥229॥


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । लाभॆश धन राशि मॆं हॊ और  धनॆश कॆंद्र मॆं हॊ तथा गुरु सॆ युत हॊ

तॊ अधिक लाभ हॊता है॥229॥

। लाभॆशॆ लाभभावस्थॆ शुभग्रहसमन्वितॆ।

 पत्रिंशॆ वत्सरॆ प्राप्तॆ सहस्रद्वयनिष्कभाक ॥230॥ * लाभॆश लाभभाव मॆं शुभग्रह सॆ युत हॊ तॊ 36वॆं वर्ष मॆं 2 सहस्र निष्क (मॊहर) का लाभ हॊता है॥230॥

कॆन्द्रत्रिकॊणगॆ भावनाथॆ शुभसमन्वितॆ ।

चत्वारिंशॆ तु सम्प्राप्तॆ सहस्रार्धं च निष्कभाक ॥231॥ । लाभॆश शुभग्रह सॆ युत हॊकर कॆन्द्र-त्रिकॊण मॆं हॊ तॊ 40वॆं वर्ष मॆं पाँच सौ मॊहर का लाभ हॊता है॥231 ॥

लाभस्थानॆ गुरुयुतॆ धनॆ चन्द्रसमन्वितॆ। भाग्यस्थानगतॆ शुक्रॆ षट्सहस्राधिपॊ भवॆत॥232॥। लाभभाव मॆं गुरु हॊ और  धनस्थान मॆं चंद्रमा हॊ तथा भाग्यस्थान मॆं शुक्र हॊ तॊ 6 हजार मॊहर का अधिपति हॊता है॥232॥ । लाभाच्च लाभगॆ जीवॆ गुरुचन्द्रॆण संयुतॆ॥ ’ धनधान्याधिपः श्रीमान रत्नाद्याभरणैर्युतः॥233॥

लाभस्थान सॆ लाभ मॆं गुरु चंद्रमा सॆ युत हॊ तॊ धन-धान्य का स्वामी, श्रीमान, रत्न आदि आभूषणॊं सॆ युक्त हॊता है॥233॥

। लाभॆशॆ लग्नभावस्थॆ लग्नॆशॆ लाभसंयुतॆ ।

त्रयस्त्रिशॆ तु सम्प्राप्तॆ सहस्रनिष्कभाग्भवॆत॥234॥ । लाभॆश लग्न मॆं हॊ और  लग्नॆश लाभभाव मॆं हॊ तॊ 33वॆं वर्ष मॆं 1 हजार मॊहर का लाभ हॊता है॥234॥

धनॆशॆ लाभराशिस्थॆ तदीशॆ धनराशिगॆ। विवाहात्परतश्चैव बहुभाग्यं समादिशॆत ॥235 ॥

धनॆशलाभ भाव मॆं और  लाभॆश धनभाव मॆं हॊ तॊ विवाह कॆ बाद अनॆक । प्रकार सॆ भाग्यॊदय हॊता है॥235॥

धैर्यॆशॆ लाभराशिस्थॆ. लाभॆशॆ भ्रातृसंस्थितॆ। भ्रातृभावाद्धनप्राप्तिर्दिव्याभरणसंयुतः॥236॥ तृतीय भावॆश 11वॆं भाव मॆं और  लाभॆश तीसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ भा‌इयॊं . सॆ धन का लाभ हॊता है॥236॥

श्श्श्श्श्श

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द्वादशभावविचाराध्यायः

फ23 अथ द्वादशभावाफलम्चन्द्रॊ व्ययाधिपॊ धर्मलाभमन्त्रॆषु संस्थितः।

 : स्वॊच्चस्वर्द्धनिजांशॆ वालाभधर्मात्मजांशकॆ।

दिव्यागारादिपर्यड्कॊ दिव्यगन्धैकभॊगवान॥237॥ परायॆं रमणॊ दिव्यवस्त्रमाल्यादिभूषणः। । परार्थ्यसंयुतॊ वित्तॊ दिनानि नवतिः प्रभुः॥238॥ चंद्रमा व्ययॆश हॊकर 9।11।5वॆं भाव मॆं हॊ वा अपनी उच्चराशि, अपनी राशि धनभाव कॆ नवांश मॆं हॊ अथवा लाभ नवम-पंचम कॆ नवांश मॆं हॊ तॊ दिव्य मकान, शय्या, गंध, दूसरॆ कॆ द्रव्य कॊ भॊगनॆ वाला हॊता है॥237-238॥

ऎवं स्वशत्रुनीचांशॆऽष्टमांशॆ वाष्टमॆ रिपौ।

संस्थितः कुरुतॆ जातं कान्तासुखविवर्जितम॥239॥ । इसी प्रकार अपनॆ शत्रु की नीचराशि कॆ नवांश मॆं अष्टमभाव कॆ नवांश मॆं, आठवॆं या छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक कॊ स्त्री का सुख नहीं हॊता है॥239॥।

व्ययाधिक्यपरिक्लान्तं दिव्यभॊगनिराकृतम।

स हि कॆन्द्रत्रिकॊणस्थः स्वस्त्रियालङ्कृतः स्वयम॥240॥

और  अधिक खर्च सॆ खिन्न हॊकर दिव्य भॊग आदि सॆ रहित हॊता है। यदि वह कॆन्द्र-त्रिकॊण मॆं हॊ तॊ स्त्रीसुख सॆ युक्त हॊता है॥240॥

लग्नस्य पूर्वार्धगतानभॊगाः फलं प्रदद्युस्तु प्रत्य्तॆ। परार्धषट्कॊपगताः परॊक्षं फलं वदन्तीति बुथार पुराणाः॥241॥

लग्न कॆ पूर्वार्ध (10 सॆ 3 भाव तक) मतांतर सॆ (7।8।9।10।11।12) मॆं स्थित ग्रह प्रत्यक्ष मॆं फल दॆनॆ वालॆ हॊतॆ हैं और  परार्ध (4।5।6।7।8।9) भाव मॆं मतांतर सॆ (1।2।3।4।5।6) मॆं स्थित ग्रह परॊक्ष (अप्रत्यक्ष सूर्य) सॆ फल दॆनॆ वालॆ हॊतॆ हैं॥241॥

व्ययस्थानगतॊं राहुर्भॊमार्करविसंयुतः॥ तदीशॆऽप्यर्कसंयुक्तॆ नरकॆ पतनं भवॆत॥242॥ बारहवॆं भाव मॆं राहु भौम-सूर्य कॆ साथ हॊ, व्ययॆश भी सूर्य सॆ युक्त हॊ तॊ जातक नरक मॆं जाता है॥242॥।

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184 : . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

व्ययस्थानगतॆ सौम्यॆ तदीशॆ स्वॊच्चराशिगॆ। . शुभयुक्तॆ शुभैर्दष्टॆ मॊक्षः स्यान्नात्र संशयः॥243॥ ।  बारहवॆं भाव मॆं बुध हॊ, व्ययॆश अपनी उच्च राशि मॆं हॊ, शुभ ग्रह सॆ

युत और  दृष्ट हॊ तॊ मॊक्ष हॊता है॥243॥ । व्ययॆशॆ पापसंयुक्तॆ व्ययॆ पापसमन्वितॆ।

पापग्रहॆण सन्डॆ दॆशाद्दॆशान्तरं गतः॥243॥ । व्ययॆश पापग्रह सॆ युत हॊ और  व्ययभाव मॆं पापग्रह हॊ और  पापग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ दॆश-विदॆश मॆं जानॆ वाला हॊता है॥244 ॥

व्ययॆशॆ शुभराशिस्थॆ व्यय शुभसंयुतॆ। शुभग्रहॆण सन्दृष्टॆ स्वदॆशात्सञ्चरॊ भवॆत॥245॥ व्ययॆश शुभराशि मॆं हॊ और  व्ययभाव मॆं शुभग्रह हॊ, शुभग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ अपनॆ दॆश सॆ अन्य दॆश कॊ जानॆ वाला हॊता है॥245॥

व्ययॆ मन्दादिसंयुक्तॆ भूमिजॆन समन्वितॆ। शुभदृष्टैर्न सम्प्राप्तिः पापमूलाद्धनार्जनम ॥246॥। व्ययभाव शनि-भौम सॆ युत हॊ, शुभग्रह सॆ न दॆखा जाता हॊ तॊ पाप करनॆ सॆ धन की हानि हॊती है॥247॥

लग्नॆशॆ व्ययराशिस्थॆ व्ययॆशॆ लग्नसंयुतॆ। भृगुपुत्रॆण संयुक्तॆ धर्ममूलाद्धनव्ययम॥247॥ लग्नॆश बारहवॆं भाव मॆं हॊ और  व्ययॆश लग्न मॆं हॊ, शुक्र सॆ युत हॊ तॊ धर्म करनॆ मॆं धन का व्यय हॊता है॥247॥।

इति पाराशरहॊरायां पूर्वखण्डॆ सुबॊधिन्यां द्वादशभावविचारॊ नाम

। द्वादशॊऽध्यायः।

अथ भावॆशफलाध्यायः । ।

अथ लग्नॆशभावफलम्लग्नॆशॆ लग्नगॆ पुंसः सुखी भुजपराक्रमी। मनस्वी चातिचाञ्चल्यॊ द्विभार्यः परगॊऽपि वा॥1॥ लग्नॆश लग्न मॆं हॊ तॊ जातक सुखी, पराक्रमी, मनस्वी, अत्यंत चंचल, दॊ स्त्रियॊं वाला और  परस्त्रीगामी भी हॊता है॥1॥

लग्नॆशॆ धनगॆ लाभॆ सलाभः पण्डितॊ नरः। सुशीलॊ धर्मविन्मानी बहुदारगुणैर्युतः॥2॥


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भावॆशफलाध्यायः

324 लग्नॆश धनस्थान मॆं या लाभस्थान मॆं हॊ तॊ जातक लाभ सॆ युक्त पंडित, सुशील, धर्मात्मा, ज्ञानी और  अनॆक स्त्रियॊं सॆ युक्त हॊता है॥2॥.

लग्नॆशॆ सहजॆं षष्ठॆ सिंहतुल्यपराक्रमी। सर्वसम्पद्युतॊ मानी द्विभार्यॊ मतिमान्सुखी॥3॥ लग्नॆश तीसरॆ या छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक सिंह कॆ समान पराक्रमी, सभी सम्पत्ति सॆ युक्त, मानी, दॊ स्त्रियॊं वाला और  बुद्धिमान ऎवं सुखी हॊता है॥3॥

लग्नॆशॆ दशमॆ तुयॆं पितृमातृसुखान्वितः॥ बहुभ्रातृयुतः कामी गुणसौन्दर्यसंयुतः॥4॥ लग्नॆश दशम या चतुर्थ भाव मॆं हॊ तॊ पिता-माता कॆ सुख सॆ युक्त, अनॆक भा‌इयॊं वाला, कामी, गुण-सौंदर्य सॆ युक्त हॊता है॥4॥

लग्नॆशॆ पञ्चमॆ दानी सुतसौख्यं च मध्यमम। प्रथमापत्यनाशः स्यात्क्रॊधी लॊभी नृपप्रियः॥5॥.

लग्नॆश पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक दानी, मध्यम संतान सुखवाला, प्रथम संतान सॆ हीन, क्रॊधी, लॊभी और  राज़प्रिय हॊता है॥5॥

लग्नॆशॆ सप्तमॆ यस्य भार्या तस्य न जीवति। विरक्तॊ वा प्रवासी वा दरिद्रॊ वा नृपॊऽपि वा॥6॥

लग्नॆश सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ स्त्री का विनाश हॊता है। वह व्यक्ति विरक्त हॊ या परदॆशी हॊ, वा दरिद्र हॊ या राजा हॊता है॥6॥

लग्नॆशॆ व्ययगॆऽष्टस्थॆ सिद्धविद्याविशारदः। द्यूती चौरॊ महाक्रॊधी परनार्यतिभॊगकृत॥7॥ लग्नॆश 12वॆं या 8वॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक जु‌आ खॆलनॆ वाला, चॊर, क्रॊधी और  परस्त्रीगामी हॊता है॥8॥

लग्नॆशॆ नवमॆ पुंसॊ भाग्यवान जनवल्लभः॥ विष्णुभक्तः पटुर्वाग्मी पुत्रदारधनैर्युतः॥8॥ । लग्नॆश नवम भाव मॆं हॊ तॊ पुरुष भाग्यवान, जनप्रिय, विष्णुभक्त, पंडित, वक्ता और  पुत्र-स्त्री सॆ युक्त हॊता है॥8॥

अथ धनॆशभावफलम । धनॆशॆ च तनौ पुत्री स्वकुटुम्बस्य कण्टकः॥ धनवान्निष्ठुरः कामी परकार्यॆषु तत्परः॥9॥

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । धनॆश लग्न मॆं हॊ तॊ जातक पुत्रवान, अपनॆ कुटुम्ब का कंटक, धनी, निष्ठुर, कामी और  दूसरॆ कॆ कार्य मॆं तत्पर हॊता है॥9॥

धनॆशॆ धनगॆ मंर्त्यः धनवान गर्वसंयुतः।

 भार्याद्वयं त्रयं वापि पुत्रहीनः प्रजायतॆ ॥10॥

धनॆश धनभाव मॆं हॊ जातक धनी, धर्म सॆ युक्त हॊता है। उसॆ 2 या 3 स्त्रियाँ हॊती है और  पुत्रहीन हॊता है॥10॥

धनॆशॆ सहजॆ तुर्यॆ विक्रमी मतिमान गुणी। परदाराभिमानी च लॊभी वा दॆवनिन्दकः॥11॥ धनॆश तीसरॆ या चौथॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक पराक्रमी, बुद्धिमान, गुणी, परायी स्त्री का अभिमान करनॆ वाला, लॊभी या दॆवनिंदक हॊता है॥11॥

धनॆशॆ सुतभावस्थॆ पुन्नतॊ धनवान भवॆत।

कृपणॊ दुःखभाग्जातॊ यशस्वी पुत्रवान भवॆत॥12॥ धनॆश पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ पुत्र सॆ धनी, कृपण, दुःख भॊगनॆ वाला, यशस्वी और  पुत्रवान हॊता है॥12॥

धनॆशॆ शंगॆ शत्रॊर्धनं प्राप्नॊति निश्चितम।

 शत्रुतॊ वित्तनाशः स्याज्जंघॊर्वॊर्भवॆच्च रुक ॥13॥ । धनॆश छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ शत्रु सॆ धन प्राप्त करनॆ वाला, पुत्र द्वारा धन नाश वाला और  जंघा तथा उरु प्रदॆश मॆं रॊग युक्त हॊता है॥11॥

धनॆशॆ सप्तमॆ वैद्यः परजायाभिगामिनः॥ जाया तस्य भवॆद्वॆश्या माता च व्यभिचारिणी॥14॥। धनॆश सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक वैद्य हॊता है, परस्त्रीगामी हॊता है। उसकी स्त्री वॆश्या और  माता व्यभिचारिणी हॊती है॥14॥।

धनॆशॆ मृत्युगॆहस्थॆ भूमिद्रव्यं लभॆद ध्रुवम। जायासौख्यं भवॆत्स्वल्पं ज्यॆष्ठभ्रातृसुखं न हि ॥15॥ धनॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक कॊ भूमिगत द्रव्य का लाभ, स्त्री का सुख अल्प और  ज्यॆष्ठ भा‌ई का सुख नहीं हॊता है॥15॥

धनॆशॆ नवमॆ लाभॆ धनवानुद्यमी पटुः॥ बाल्यॆ रॊगी सुखी पश्चाद्यावदायुः समाप्यतॆ॥16॥


भावॆशफलाध्यायः

. 866 धनॆश नवम भाव वा लाभभाव मॆं हॊ तॊ जातक धनी, उद्यमी, विद्वान हॊता है। बाल्य अवस्था मॆं रॊगी और  पीछॆ आयु पर्यंत सुखी हॊता है॥16॥

धनॆशॊ दशमॆ यस्य कामी मानी च पण्डितः। बहुदारधनैर्युक्तः सुतहीनॊ प्रजायतॆ ॥17॥ धनॆश दशम भाव मॆं हॊ तॊ जातक कामी, मानी, पंडित, अनॆक स्त्री तथा धन सॆ युक्त और  पुत्रहीन हॊता है॥17॥

धनॆशॆ व्ययगॆ ज्ञानी साहसी धनवर्जितः। । जीविका नृपगॆहाच्च ज्यॆष्ठपुत्रसुखं न हि॥18॥

धनॆश. बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक ज्ञानी, साहसी, धनहीन, राजगृह सॆ जीविकावाला और  ज्यॆष्ठ पुत्र कॆ सुख सॆ हीन हॊता है॥18॥

अथ सहजॆशभावफलम्तृतीयॆशॆ तनौ लाभॆ स्वभुजार्जितवित्तवान। मूर्खः कृशॊ महारॊगी साहसी परसॆवकः॥19॥

तृतीयॆश लग्न या लाभ भाव मॆं हॊ तॊ जातक अपनी कमा‌ई सॆ धनी, . मूर्ख, कृश, महारॊगी अपितु साहसी, दूसरॆ का सॆवक हॊता है॥19॥

गुदाभजनिकः स्थूलः परभार्याधनॆ रुचिः।. स्वल्पारम्भी सुखी न स्यात्तृतीयॆशॆ धनं गतॆ ॥20॥ तृतीयॆश दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक स्त्री कॆ स्वभाव का, स्थूल, परस्त्री कॆ धन सॆ कार्य आरम्भ करनॆ वाला और  सुखी नहीं हॊता है॥20॥

तृतीयॆशॆ तृतीयस्थॆ विक्रमी सुतसंयुतः। धनयुक्तॊ महाष्टॊ भुनक्ति सुखमद्भुतम॥21॥ तृतीयॆश तीसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक पराक्रमी, पुत्रवान, धनी; प्रसन्न और  अद्भुत सुख कॊ भॊगनॆ वाला हॊता है॥21॥

तृतीयॆशॆ सुखॆ कर्मॆ पञ्चमॆ वा सुखी सदा। ।

अतिक्रूरा भवॆद्भार्या धनाढ्यॊ मतिमान भवॆत॥22॥ तृतीयॆश चौथॆ, दसवॆं और  पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक सदा सुखी, अतिक्रूर स्त्री सॆ युक्त, धनी और  बुद्धिमान हॊता है॥22॥।


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम " तृतीयॆशॊ रिपॊ यस्य भ्राता शत्रुर्महाधनी।

मातुलानां सुखं नस्यान्मातुल्या भॊगमिच्छति ॥23॥ तृतीयॆश छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक कॊ भा‌ई शत्रु हॊता है। जातक स्वयं महाधनी, मामा कॆ सुख सॆ हीन और  मामी सॆ संभॊग की इच्छावाला हॊता है॥23॥

तृतीयॆशॆऽष्टमॆ छूनॆ राजद्वारॆ मृतिर्भवॆत। चॊरॊ वा परगामी वा बाल्यॆ कष्टं दिनॆ दिनॆ॥24॥ तृतीयॆश आठवॆं या सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक की मृत्यु राजद्वार मॆं हॊती है, चॊर, परस्त्रीगामी और  बाल्य समय मॆं कष्ट भॊगनॆ वाला हॊता है॥24॥

तृतीयॆशॆ व्ययॆ भाग्यॆ स्त्रीभिर्भाग्यॊदयॊ भवॆत। पिता तस्य महाचॊरः सुखॆऽपि दुःखदर्शकः॥25॥ तृतीयॆश बारहवॆं या भाग्यभाव मॆं हॊ तॊ जातक का भाग्यॊदय स्त्री कॆ द्वारा हॊता है और  उसका पिता बडा चॊर हॊता है॥25॥

।..’ अथ सुखॆशभावफलम। सुखॆशॆ लग्नगॆ वापि पितृपुत्रौ च स्नॆहलौ।

पितृपक्षवैरिकलितं पितृनाम्ना प्रसिद्धं च॥26॥ सुखॆश लग्न मॆं हॊ तॊ पिता-पुत्र मॆं स्नॆह हॊता है, चाचा आदि सॆ वैरभाव और  पिता कॆ नाम सॆ प्रसिद्धि हॊती है॥26॥।

सर्वसम्पद्युतॊ मानी साहसी कुहकान्चितः। कुटुम्बसंयुतॊ भॊगी सुखॆशॆ च धनस्थितॆ॥27॥ सुखॆश धनभाव मॆं हॊ तॊ जातक सभी सम्पत्तियॊं सॆ युक्त, मानी, साहसी, इन्द्रजाल करनॆ वाला, कुटुम्ब सॆ युक्त और  भॊगी हॊता है॥27॥

सुखॆशॆ सहजॆ लाभॆ नित्यरॊगी भवॆन्नरः। उदारॊ गुणवान्दाता स्वभुजार्जितवित्तवान॥28॥ सुखॆश तीसरॆ या ग्यारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक नित्यरॊगी, उदार, गुणी, दाता और  अपनॆ परिश्रम सॆ द्रव्य पैदा करनॆ वाला हॊता है॥28॥

तुयॆंशॆ तुर्यगॆ मन्त्री भवॆत्सर्वधनाधिपः॥ । चतुरः शीलवान मानी धनाढ्यः स्त्रीप्रिया सुखी॥29॥

ळॊळ

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भावॆशफलाध्यायः .

868 सुखॆश सुख भाव मॆं हॊ तॊ मंत्री सभी प्रकार की संपत्ति सॆ युक्त, चतुर, शीलवान, मानी, धनी और  स्त्रीप्रिय तथा सुखी हॊता है॥29॥

तुर्यॆशॆ पञ्चमॆ भाग्यॆ सुखी सर्वजनप्रियः। विष्णुभक्तिरतॊ मानी स्वभुजार्जितवित्तवान॥30॥

सुखॆश पाँचवॆं वा नवम भाव मॆं हॊ तॊ जातक सुखी, सर्वजनप्रिय, विष्णुभक्त, मानी और  अपनॆ पराक्रम सॆ द्रव्य पैदा करनॆ वाला हॊता है॥30॥

सुखॆशॆ शत्रुगॆस्थॆ सदा स्याद्वहुयातृकः। क्रॊधी चौरॊऽभिचारीच दुष्टचित्तॊ मनस्यपि॥31॥ सुखॆश छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक हर समय परदॆश मॆं रहनॆवाला, क्रॊधी, चॊर, घात करनॆ वाला, दुष्ट और  मनस्वी हॊता है॥31॥

सुखॆशॆ सप्तमॆ लग्नॆ बहुविद्यासमन्वितः। . पित्रार्जितधनत्यागी सभायां मूकवद्भवॆत॥32॥ सुखॆश सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक अनॆक विद्या‌ऒं सॆ युक्त, पिता कॆ धन कॊ त्यागनॆ वाला, सभा मॆं मूक हॊता है॥32॥।

 सखॆशॆ व्ययरन्ध्रस्थॆ सुखहीनॊ भवॆन्नरः।

पितृसौख्यं भवॆदल्पं क्लीबॊवा जारजॊऽपि वा॥33॥ सुखॆश बारहवॆं या 8वॆं स्थान मॆं हॊ तॊ जातक सुखहीन हॊता है और  उसॆ पिता का अल्पसुख नपुंसक अथवा जार सॆ उत्पन्न हु‌आ हॊता है॥33॥

सुखॆशॆ कर्मगॆहस्थॆ राजमान्यॊ भवॆन्नरः। रसायनी महाष्टॊ भुनक्ति सुखमद्भुतम॥34॥

सुखॆश कर्मभाव मॆं हॊ तॊ जातक राजमान्य, रसायन क्रिया कॊ जाननॆ वाला, प्रसन्न और  सुख कॊ भॊगनॆ वाला हॊता है॥34 ॥

अथ सुतॆशभावफलम- . सुतॆशॆ लग्नसहजॆ मायावी पिंशुनॊ महान।

लॊष्ठं दत्तवान्नैव काचिद्रव्यस्य कॊ कथा॥35॥ । पंचमॆश लग्न और  तीसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक मायावी और  कृपण. * हॊता है॥35॥. .


बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम सुतॆशॆ चायुधि धनॆ बहुपुत्री न संशयः। । कासश्वाससुखीनस्यात्क्रॊधयुक्तॊ धनान्चितः॥36॥

। पंचमॆश 8वॆं वा 2सरॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक अनॆक पुत्रॊं सॆ युक्त, " कांस-श्वासरॊगी, क्रॊधी और  धनी हॊता है॥36॥

सुतॆशॆ मातृभवनॆ चिरं मातृसुखं भवॆत॥ लक्ष्मीयुक्त सुबुद्धिश्च सचिवॊऽप्यथवा गुरुः ॥37॥ सुतॆश 4 भाव मॆं हॊ तॊ जातक कॊ माता का सुख अधिक, लक्ष्मीयुक्त, बुद्धिमान, मंत्री वा गुरु हॊता है। मुहूर्त कॊ जाननॆ वाला, टॆढा बॊलनॆ वाला, धनी और  बुद्धिमान हॊता है॥37॥।

सुतॆशॆ पञ्चमै यस्य दस्य पुत्रॊ न जीवति॥ क्षणिक क्रूरभाषी च धनिकॊ मतिमान्भवॆत॥38॥ सुतॆश 5वॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक का पुत्र नहीं जीता है॥38॥

सुतॆशॆ षष्ठरि‌ऎफस्थॆ पुत्र शत्रुत्वमाप्नुयात।

मृतापत्यॊ दत्तपुत्रॊ धनपुत्रॊऽथवा भवॆत॥39॥ । सुतॆश छठॆ, बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक कॊ पुत्र सॆ शत्रुता हॊती है। और  उसकॆ पुत्र मर जातॆ हैं। उसॆ दत्तक पुत्र या क्रीत पुत्र हॊता है॥39॥

सुतॆशॆ कामगॆ मानी सर्वधर्मसमन्वितः।

तुंगबष्टिस्तनुस्वामी भक्तियुक्तैकचॆतसा॥40॥ । सुतॆश 7वॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक मानी, सभी धर्मॊं सॆ युक्त, ऊँचॆ नाक वाला और  भक्ति युक्तं हॊता है॥40 ॥।

सुतॆशॆ नवमॆ कर्मॆ पुत्री भूपुसमॊ भवॆत॥ ।अथवा ग्रन्थकर्ता च विख्यातः कुलदीपकः॥41॥ * सुतॆश 9वॆं या 10वॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक का पुत्र राजा कॆ समान हॊता है अथवा प्रसिद्ध ग्रंथकर्ता हॊता है॥41॥।

सुतॆशॆ लाभभवनॆ पण्डितॊ जनवल्लभः। ग्रन्थकक्ष महादक्षॊ बहुपुत्रधनान्वितः॥4॥ सुतॆश लामभाव मॆं हॊ तॊ जातक पंडित, जनप्रिय, ग्रंथकर्ता, दक्ष, अनॆक पुत्र और  धन सॆ युक्त हॊती है॥42॥


888

भावॆशफलाध्याय

अथ षष्ठॆशभावफलम्षष्ठॆशॆ सप्तमॆ लाभॆ लग्नॆ वा कीर्तिमान भवॆत। धनवान गुणवान मानी साहसी पुत्रवर्जितः॥43॥ . षष्ठॆश सातवॆं, ग्यारहवॆं या लग्न मॆं हॊ तॊ जातक कीर्तिमान, धनवान, गुणी, मानी, साहसी और  पुत्रहीन हॊता है॥43॥ ।. षष्ठॆशॆ कर्मवित्तस्थॆ साहसी कुलविश्रुतः॥ । परदॆशॆ सुखी वक्ता स्वकर्मॆ चैकनिष्ठिकः॥44॥

। षष्ठॆश दशम वा दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक साहसी, कुल मॆं विख्यात, परदॆशी, वक्ता और  अपनॆ कर्म मॆं निष्णात हॊता है॥44॥

षष्ठॆशॆ सहजॆ तुयॆं क्रॊधॆनारक्तंलॊचनः॥ मनस्वी पिशुनॊ द्वॆषी चलचित्तॊऽतिवित्तवान॥45॥ षष्ठॆश तीसरॆ या चौथॆ भाव मॆं हॊ जातक का नॆत्र क्रॊध सॆ रक्तवर्ण का, मनस्वी, कृपण, द्वॆष करनॆ वाला, अस्थिरचित्त और  अत्यंत धनी हॊता है॥45॥

षष्ठॆशॆ पञ्चमॆ यस्य चलमिन्नधनादिकम। दयायुक्तः सुखी सौम्यः स्वकार्यॆ चतुरॊ महान॥46॥ । पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक कॆ मित्र तथा धन चंचल हॊतॆ हैं। दयावान, सुखी, सौम्यमूर्ति और  अपनॆ कार्य मॆं अत्यंत चतुर हॊता है॥46॥

षष्ठॆशॆ रिपुभावस्थॆ स्वज्ञातिः शत्रुवद्भवॆत। परजातिर्भवॆन्मित्रं भूमौ न चलति ध्रुवम॥47॥ षष्ठॆश छठॆ भाव मॆं हॊ जातक कॆ जातिवालॆ ही उसकॆ शत्रु हॊतॆ हैं, परजाति कॆ लॊग मित्र हॊतॆ हैं और  हमॆशा सवारी सॆ चलता है॥47॥

षष्ठॆशॆऽष्टमरिःफस्थॆ रॊगी शत्रुर्मनीषिणाम। । परजायाभिगामी च जीवहिंसासु तत्परः॥48॥

षष्ठॆश 8वॆं या 12वॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक रॊगी और  अच्छॆ लॊगॊं का शत्रु, परस्त्रीगामी और  हिंसक हॊता है॥48॥

: षष्ठॆशॊ नवमॆं यस्य काष्ठपाषाणविक्रयी।

व्यवहारॆ क्वचिद्धानिः क्वचिद्वृद्धिर्भवॆत्किल॥49॥


192

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम षष्ठॆश नवंम स्थान मॆं हॊ तॊ जातक लकडी, पत्थर आदि बॆचनॆ वाला, व्यापार मॆं कभी हानि और  कभी वृद्धिवाला हॊता है॥49॥

। अथ सप्तमॆशभावफलम्सप्तमॆशॆ तनौ चास्तॆ परजायासु लम्पटः। दुष्टॊ विचक्षणॊ धीरॊ वातरुक स्थीयतॆ हदि॥50॥ सप्तमॆश लग्न या सप्तम मॆं हॊ तॊ जातक परस्त्री मॆं आसक्त, दुष्ट, पंडित, वातरॊगी हॊता है॥50 ॥।

छनॆशॆ नवमॆ वित्तॆ नानास्त्रीभिः समागमः।

आरम्भी दीर्घसूत्री च स्त्रीषुचित्तं हि कॆवलम ॥51॥। : सप्तमॆश नवम और  दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ अनॆक स्त्रियॊं मॆं आसक्त, कार्य

कॊ आरंभ करनॆ वाला, दीर्घसूत्री और  कॆवल स्त्री मॆं चित्त कॊ लगानॆ वाला हॊता है॥51 ॥

। छूनॆशॆ सहजॆ लार्भ मृतपुत्रः प्रजायतॆ।

कदाचिज्जीवति सुता यत्नात्पुत्रॊऽपि जायतॆ॥52॥ सप्तमॆश 3रॆ या 11वॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक कॆ संतान नहीं जीतॆ हैं। कदाचित कन्या जीती है, यत्न करनॆ सॆ पुत्र भी जीता है॥52॥

छूनॆशॆ दशमॆ तुयॆं नास्य जाया पतिव्रता। धर्मात्मा सत्यसंयुक्तः कॆवलं दन्तरॊगवान॥53॥

सप्तमॆश दशम या चतुर्थ भाव मॆं हॊ तॊ जातक की स्त्री पतिव्रता नहीं हॊती है। जातक सर्वगुणसम्पन्न, मानी और  सर्व सम्पत्तिमान हॊता. है॥53॥।

सर्वगुणयुतॊ मानी भवॆत्सर्वधनाधिपः।

सदैव हर्षसंयुक्तंः सप्तमॆशॆ सुतॆ स्थितॆ॥54॥ . सप्तमॆश पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक सभी गुणॊं सॆ युक्त, मानी, सभी

प्रकार कॆ धनॊं सॆ युक्त, सदैव प्रसन्न रहनॆ वाला हॊता है॥54 ॥

जायॆशॆ चाष्टमॆ षष्ठॆ रॊगिणी कामिनी लभॆत। क्रॊधयुक्तॊ भवॆद्वापि न सुखं लभतॆ क्वचित ॥55॥ सप्तमॆश 6 या 8 भाव मॆं हॊ तॊ जातक की स्त्री रॊगिणी हॊती है। जातक क्रॊधी हॊता है और  सुखी नहीं रहता है॥55॥।

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रनि ॥ ईन 11

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383

भावॆशफलाध्यायः द्वादशस्थॆ सप्तमॆशॆ दरिद्रः कृपणॊ महान। चारुकन्या भवॆभार्या वस्त्राज्जीवीच निर्धनी॥56॥ सप्तमॆश 12वॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक दरिद्र, अत्यंत कृपण, स्त्री सुंदरी, और  वस्त्र सॆ जीविका करनॆ वाला निर्धन हॊता है॥56॥।

अथाष्टमॆशभावफलम्‌अष्टमॆशॆ तनौ कामॆ भार्यायुग्मं समादिशॆत। विष्णुद्रॊहरतॊ नित्यं व्रणरॊगी प्रजायतॆ॥57॥

अष्टमॆश लग्न या सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक की दॊ स्त्रियाँ हॊती हैं। सदा विष्णु का द्रॊह करनॆ वाला और  व्रणरॊगी हॊता है ॥57 ॥।

धनं तस्य भवॆत्स्वल्पं गतं वित्तं न लभ्यतॆ। अष्टमॆशॆ घनॆ बाहुबलहीनः प्रजायतॆ॥58॥ अष्टमॆश धनस्थान मॆं हॊ तॊ जातक अल्प धन वाला, बाहुबल सॆ हीन और  नष्ट हु‌ऎ द्रव्य कॊ न पानॆ वाला हॊता है॥58॥

अष्टमॆशॆ तृतीयॆ चॆत भ्रातृहीनॊ भवॆन्नरः॥ बन्धुद्वॆषी सुहद्वॆषी व्यङ्गॊ दुर्बलदॆहभाक ॥59॥

अष्टमॆश तीसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक भ्रातृहीन, बंधु‌ऒं सॆ द्वॆष करनॆ वाला, अंगहीन और  दुर्बल शरीर का हॊता है॥59॥।

अष्टमॆशॆ सुखॆ कर्मपिशुनॊ बन्धुवर्जितः। मातापित्रॊर्भवॆन्मृत्युः स्वल्पकालॆन भीतियुक॥60॥ अष्टमॆश चौथॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक कर्महीन, बंधुहीन और  थॊडी। अवस्था मॆं ही मातृ-पितृविहीन हॊता है॥60 ॥।

अष्टमॆशॆ सुतॆ लाभॆ तस्य वृद्धिर्न जायतॆ। द्रव्यं न स्थीयतॆ गॆहॆ स्थिरबुद्धिर्भवॆज्जनः॥61॥ अष्टमॆश पाँचवॆं या ग्यारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक बुद्धिहीन, द्रव्यहीन और  मूर्ख हॊता है॥61॥

’अष्टमॆशॆ व्ययॆ षष्ठॆ नित्यं रॊगी प्रजायतॆ।

जलसपदिकाघातॊ भवॆत्तस्य च शैशवॆ॥62॥ . अष्टमॆश छठॆ या बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक सदा रॊगी, शैशव

अवस्था मॆं जल या सर्प भय सॆ पीडित हॊता है॥62॥


ऊण्श

897

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम द्यूती चौरॊऽन्यथावादी गुरुनिन्दासु तत्परः। अष्टमॆशॆऽष्टमस्थानॆ भार्या पररता भवॆत॥63॥ अष्टमॆश अष्टम भाव मॆं हॊ तॊ जातक की स्त्री दूसरॆ मॆं आसक्त हॊती है और  वह जु‌आडी, चॊर, असत्य बॊलनॆ वाला और  गुरु की निंदा

करनॆ वाला हॊता है॥63॥

अष्टमॆशॆ तपः स्थानॆ महापापी च नास्तिकः। सुतहा ह्यथवा वन्ध्या परभार्याधनॆ रुचिः॥64॥ अष्टमॆश नवम भाव मॆं हॊ तॊ जातक महापापी, नास्तिक, पुत्रनाशक, वा वंध्या और  परस्त्री ऎवं परधनलॊलुप हॊता है॥64 ॥

अष्टमॆशॆ स्थितॆ मानॆ नीचकर्मप्रवृत्तिवान। प्रॆष्यॊ च जारजॊ कुरॊ मातृहीनॊ भवॆन्नरः॥65॥ अष्टमॆश दशमभाव मॆं हॊ तॊ जातक नीच कर्म मॆं रत, दासकर्म करनॆ वाला, जार सॆ उत्पन्न, क्रूर और  मातृसुख सॆ हीन हॊता है॥65 ॥।

अथ भाग्यॆशभावफलम्भाग्यॆशॆ च मदॆ कल्पॆ गुणवान्कीर्तिमान्भवॆत। कदाचिन्न भवॆत्सिद्धं यत्कार्यं कर्तुमिच्छति ॥66 ॥ भाग्यॆश लग्न या सप्तम भाव मॆं हॊ तॊ जातक गुणी, कीर्तियुक्त हॊता है। उसॆ जिस कार्य की इच्छा हॊती है वह कभी सिद्ध नहीं हॊता है॥66॥

भाग्यॆशॆ सहजॆ वित्तॆ सदा भाग्यानुचिन्तकः।

धनवान गुणवान्कामी पण्डितॊ जनवल्लभः॥67॥ । भाग्यॆश तीसरॆ या दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक सदा भाग्यवान, धनी, गुणी, कामी, पंडित और  जनवल्लभ हॊता है॥67॥

भाग्यॆशॆ दशमॆ तुर्यॆ मन्त्री सॆनापतिर्भवॆत । पुण्यवान्सुयशॊ वाग्मी साहसी क्रॊधवर्जितः॥68॥ भाग्यॆश दशम या चतुर्थ भाव मॆं हॊ तॊ जातक मंत्री वा सॆनापति, पुण्यवान, यशस्वी, बुद्धिमान, साहसी और  क्रॊध रहित हॊता है॥68॥

भाग्यॆशॆ पञ्चमॆ लाभॆ भाग्यवान जनवल्लभः॥ । गुरुभक्तिरतॊ मानी धीरॆ धीरगुणैर्युतः॥69॥


भावॆशफलाध्यायः

384 भाग्यॆश पाँचवॆं या लाभ भाव मॆं हॊ तॊ जातक भाग्यवान, जनता का प्रॆमी, गुरु की भक्ति मॆं आसक्त, मानी तथा धीर हॊता है॥69॥।

भाग्यॆशॆ त्रिकथावॆ चॆत्भाग्यहीनॊ भवॆन्नरः।

मातुलस्य सुखं न स्याज्यॆष्ठभ्रातृसुखं तथा॥70॥ । भाग्यॆश 6,8,12 भावॊं मॆं हॊ तॊ जातक भाग्यहीन, माता कॆ और  ज्यॆष्ठ भा‌ई कॆ सुख सॆ हीन हॊता है॥70॥।

अथ कर्मॆशभावफलम्कर्मॆशाधिपती लग्नॆ कवितागुणसंयुतः। बाल्यॆ रॊगी सुखी पश्चाद्दर्थवृद्धिर्दिनॆ दिनॆ॥71॥ कर्मॆश लग्न मॆं हॊ तॊ जातक कविता करनॆ वाला, बाल्यकाल मॆं रॊगी, पीछॆ सुखी और  प्रतिदिन धन मॆं वृद्धि वाला हॊता है॥71॥

धनॆ मंदॆ च सहजॆ कर्मॆशॊ यदि संस्थितः॥ मनस्वी गुणवान वाग्मी सत्यधर्मसमन्वितः॥72॥ कर्मॆश 2, 3, 7 भावॊं मॆं हॊ तॊ जातक मनस्वी, गुणी, बुद्धिमान और  सत्य बॊलनॆ वाला हॊता है॥72॥।

दशपॆशॆ सुखॆ कर्मॆ ज्ञानवान्सुखविक्रमी। गुरुदॆवार्चनरत धर्मात्मा सत्यसंयुतः॥73॥ कर्मॆश चौथॆ वा दशम भाव मॆं हॊ तॊ जातक ज्ञानी, सुखी, विक्रमी, गुरु-दॆवता कॆ पूजन मॆं रत, धर्मात्मा और  सत्यवादी हॊता है॥73॥

दशमॆशॆ सुतॆ लाभॆ धनवान पुत्रवान भवॆत। सर्वदा हर्षसंयुक्तः सत्यवादी सुखी नरः॥74॥ कर्मॆश पाँचवॆं या ऎकादश भाव मॆं हॊ तॊ जातक धनी, पुत्रवान, सर्वदा प्रसन्नचित्त, सत्यवादी और  सुखी हॊता है॥74॥।

कर्मॆशॊऽरिव्ययॆ यस्य शत्रुभिः परिपीडितः।

चातुर्यगुणसम्पन्नः क्वग्निच्च न.सुखी नरः॥75॥ * कर्मॆश छठॆ या बौरहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक शत्रु‌ऒं सॆ पीडित, चतुर

और  कभी सुखी न रहनॆ वाला हॊता है॥75॥।

कर्मॆशॊ रन्ध्रगॆ जातॊ कूरॊ चौरॊऽथवा धूर्तः॥ .. अल्पायुरसद्वक्तां मातृसन्तापकारकः॥76॥ कर्मॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक क्रूर, चॊर अथवा धूर्त और  झूठ बॊलनॆ वाला और  माता कॊ संताप दॆनॆ वाला हॊता है॥76॥


88

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम कर्मॆशॊ नवमॆ यस्य स भवॆत्कुलपालकः। सबन्धुमित्रसंयुक्त: मातृभक्तॊऽथ पूजकः॥77॥

कर्मॆश नवम भाव मॆं हॊ तॊ जातक कुलपालक श्रॆष्ठ, बन्धु-मित्र सॆ युक्त और  भातृभक्त हॊता है॥77॥।

। अथ लाभॆशभावफलम्लाभॆशॆ संस्थितॆ लग्नॆ धनवान्सात्त्विकॊ महान। समदृष्टिर्महान्वक्ता कौतुकॊ च भवॆत्सदा॥78॥ लाभॆश लग्न मॆं हॊ तॊ जातक धनी, सात्त्विक, समदृष्टि, वक्ता और  कौतुकी हॊता है॥78॥।

लाभॆशॆ च धनॆ पुत्रॆ नानासुखसमन्वितः॥ पुत्रवान्धार्मिकश्चैव सर्वसिद्धियुतः पुमान॥79॥ लाभॆश दूसरॆ या पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक अनॆक सुखॊं सॆ युक्त, पुत्रवान, धार्मिक और  सभी पदार्थॊं सॆ युक्त हॊता है॥79॥

लाभॆशॆ सहजॆ तुयॆं तीर्थॆषु तत्परॊ महान। कुशलः सर्वकार्यॆषु कॆवलं शूलरॊगवान॥80॥ लाभॆश तीसरॆ या चॊथॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक तीर्थयात्रा मॆं तत्पर, सभी कार्यॊं मॆं कुशल और  शूलरॊग सॆ युक्त हॊता है॥80॥।

लाभॆशॆ षष्ठभवनॆ नानारॊगसमन्वितः॥ सर्वं सुखं भवॆत्तस्य प्रवासी परसॆवकः॥81॥ लाभॆश छठॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक अनॆक रॊगॊं सॆ युक्त, प्रवासी और  दूसरॆ का नौकर हॊता है।[81 ॥

लाभॆशॆ सप्तमॆ रन्ध्र भार्या तस्य न जीवति।

उदारॊ गुणवान्कर्मी मूर्खा भवति निश्चितम॥82॥ । लाभॆश सातवॆं या आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक की स्त्री नहीं हॊती है।

वह गुणी, उदार और  मूर्ख हॊता है॥82॥।

लाभॆशॆ गगनॆ धर्मॆ राजपूज्यॊ धनाधिपः। , चतुरः सत्यवादी च निजधर्मसमन्वितः॥83॥

लाभॆश दशम या नवम भाव मॆं हॊ तॊ जातक राजा सॆ पूज्य, धनी, चतुर, सत्यवक्ता और  अपनॆ धर्म सॆ युत हॊता है॥83॥

भावॆशफलाध्यायः

8810 लाभॆशॆ संस्थितॆ लाभॆस वाग्मी भवति ध्रुवम। पाण्डित्यं कविता चैव वर्धतॆ च दिनॆ दिनॆ॥84॥ लाभॆश लाभ भाव मॆं हॊ तॊ जातक बुद्धिमान, पंडित और  कवि हॊता है॥84॥

प्राप्तिस्थानाधिपॆरिफॆ म्लॆच्छसंसर्गकारकः। कामुकॊ बहुकान्तश्च क्षणिकॊ लम्पट सदा॥85॥ लाभॆश बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक नीचॊं सॆ संसर्ग करनॆ वाला, कामी, । अनॆक स्त्रियॊं वाला और  लम्पट हॊता है।85॥।

। अथ व्ययॆशभावफलम्व्ययॆशॆ मदनॆ लग्नॆ, जायासौख्यं भवॆन्न हि। दुर्बलः कफरॊगी च धनविद्याविवर्जितः।86॥ व्ययॆश सातवॆं या लग्न मॆं हॊ तॊ जातक कॊ स्त्री का सुख नहीं हॊता है। जातक दुर्बल, कफरॊगी और  धन-विद्या सॆ हीन हॊता है॥86॥।

व्ययॆशॆ च धनॆ रन्ध्र विष्णुभक्तिसमन्वितः। धार्मिकः प्रियवादी च सम्पूर्णगुणसंयुतः॥87॥ व्ययॆश दूसरॆ. या आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक विष्णुभक्त, धार्मिक, प्रियभाषी, गुणी हॊता है।87॥।

भार्याद्वॆषी प्रियद्वॆषी गुरुद्वॆषी भवॆन्नरः।

। व्ययॆशॆ सहजॆ धर्म स्वशरीरस्य पॊषकः॥88॥ । व्ययॆश तीसरॆ या नवम भाव मॆं हॊ तॊ जातक अपनॆ शरीर का पॊषक, स्त्रीद्वॆषी, मित्रद्रॊही और  गुरुद्रॊही हॊता है॥88॥

पुत्रहीनॊ महादुःखी तीर्थाटनपरॊ भवॆत॥

कृपणॊ रॊगयुक्तश्च व्ययॆशॆ च सुतॆ सुखॆ॥89॥ . व्ययॆश पाँचवॆं या चौथॆ भाव मॆं हॊ तॊ जातक पुत्र रहित, महादुःखी, तीर्थाटन करनॆ वाला, कृपण और  रॊगी हॊता है॥89॥ । व्ययॆशॆऽरिव्ययॆ पापी मातृमृत्युविचिन्तकः।

क्रॊधी सन्तानदुःखी च परजायासु लम्पटः॥10॥ । व्ययॆश छठॆ या बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ जातक पापी, माता कॆ मृत्यु का कारण, क्रॊधी, संतान सॆ कष्ट और  परस्त्रीगामी हॊता है॥90॥


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ः-

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम व्ययॆशॆ दशभॆ लाभॆ पुत्रसौख्यं भवॆन्न हि। मणिमाणिक्यमुक्तादि थत्तॆ किञ्चित्समालभॆत॥91॥ व्ययॆश दशम या ऎकादश भाव मॆं हॊ तॊ जातक पुत्रसुख सॆ हीन, मणिमाणिक्य आदि कॆ हॊतॆ हु‌ऎ भी सुखहीन हॊता है॥91॥

ऎतत्तॆ कथितं विप्र भावॆशानां तु यत फलम। बलाबलविवॆकॆन सर्वॆषां फलमादिशॆत ॥12॥

जॊ मावॆशॊं कॆ फल कहॆ गयॆ हैं वॆ ग्रहॊं कॆ बल-अबल कॆ अनुसार ही हॊतॆ हैं॥92॥।

ग्रहॆ पूर्णबलॆ प्राप्तॆ फलं पूर्ण समादिशॆत। अर्धमर्धबलॆ प्राप्तॆ हीनॆ पादं समादिशॆत ॥93॥। । भावानां द्वादशानां च सर्वॆषां फलमादिशॆत। उक्तं भावस्थितानां च भावॆशानां फलं मया ॥94॥ ग्रह पूर्णबली हॊ तॊ पूर्णबल, मध्यबली हॊ तॊ आधाबल और  हीनबली हॊ तॊ चतुर्थांश फल दॆता है॥94 ॥।

इति पाराशरहॊरायां पूर्वखण्डॆ सुबॊधिन्यां भावॆशफलाध्यायः त्रयॊदशः॥13॥

। अथ नाभसादियॊगाध्यायः अधुना नाभसा यॊगाः कथयामि सविस्तरः। । अष्टादशशतगुणितास्तॆषां भॆदाः समासतः॥1॥ अब मैं नाभस यॊगॊं कॊ विस्तारपूर्वक कह रहा हूँ, जिनकॆ भॆद । 1800 हॊतॆ हैं॥1॥

आश्रयाख्यास्त्रयॊ यॊगा दशयॊगद्वयं ततः। । आकृतिविंशतिः संख्या यॊगानां सप्तकं स्मृतम॥2॥

जिसमॆं आश्रय यॊग 3, दल यॊग 2, आकृति यॊग 20 और  संख्या यॊग 7 मुख्य हैं॥2॥

तॆषां नामानिरज्जुयॊगॊ मूसलश्च नलॊ मालाभुजङ्गमौ। गदायॊगश्च शकटः शृङ्गाटकविहङ्गमौ॥3॥

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ऊळ्ळीश

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नाभसादियॊगाध्यायः हलवज्रयवाश्चैव कमलॊ वापि यूपकॊ। ।

शरशक्तिदण्डनौकाकूटछत्रधनूषि च॥4॥ अर्धॆन्दुयॊगश्चक्राख्यः समुद्रश्चॆति विंशतिः। वीणादामनिकायॊगः पाशकॆदारशूलकाः॥5॥ युगगॊलौ ततः प्रॊक्तौ यॊगा द्वात्रिंशका इमॆ॥ तॆषां च लक्षणं वक्ष्यॆ यथाबुद्धिविवॆकः॥6॥ रज्जु, मुशल, नल यॆ आश्रययॊग हैं और  मालासर्प यॆ दलयॊग हैं। गदा, शकट, शृंगाटक, पक्षी, हल, वज्र, यव, कमल, वापी, यूप, शरशक्ति, दंड, नौका, कूट, छत्र, धनुष, अर्धचक्र, चक्र, समुद्र-यॆ 20 आकृतियॊग हैं। वीणा, दाम, पारा, कॆदार, शूल, युग, गॊल यॆ 7 संख्या यॊग हैं। यॆ सभी मिलकर 32 नाभस यॊग कहॆ जातॆ हैं। अब इनकॆ लक्षण कह रहा हूँ॥3-6॥

अथाऽऽश्रययॊगलक्षणम्सर्वॆ चरस्था अपि वा स्थिरस्था द्विदॆहसंस्था यदि वा भवन्ति। क्रमॆण रज्जुर्मुशलं नलश्च यॊगत्रयं स्यादिदमाश्रयाख्यम॥7॥

यदि सभी ग्रह चर राशि मॆं हॊं तॊ रज्जुयॊग, सभी स्थिर राशि मॆं हॊं। तॊ मुशल यॊग और  सभी ग्रह द्विस्वभाव राशि मॆं हॊं तॊ नलयॊग हॊता है। यॆ तीन आश्रय यॊग हैं॥7॥

। अथ दलयॊगद्वयमाह—कॆन्द्रत्रयॆ सौम्यखगैस्तु माला खलग्रहैव्यालसमावयः स्यात। इदं तु यॊगद्वितयं दलाख्यं मुनीश्वरॆण प्रतिपादितं हि॥8॥

यदि किसी भी तीन कॆंद्रॊं मॆं शुभग्रह हॊं तॊ माला यॊग हॊता है। यदि पापग्रह हॊं तॊ व्याल यॊग हॊता है। यॆ दॊनॊं दल यॊग हैं॥8॥

अथ विंशत्याकृतियॊगमाह—?आसन्नकॆन्द्रद्वयगैर्गदाख्यॊ लग्नास्तसंस्थैः शकटः समस्तैः। खबन्धुयातैर्विगः प्रदिष्टः शृङ्गाटकं लग्ननवात्मजस्थैः॥9॥ . यदि सभी ग्रह समीप कॆ दॊ कॆंद्रॊं मॆं हॊं तॊ ’गदा’ यॊग हॊता है। सभी ग्रह कॆवल लग्न और  सप्तम मॆं हॊं तॊ शकट यॊग हॊता है। यदि सभी ग्रह दशम और  चतुर्थ मॆं हॊं तॊ ’विहग’ यॊग हॊता है। सभी ग्रह लग्न नवम और  पाँचवॆं भाव मॆं हॊं तॊ ’शृंगाटक’ यॊग हॊता है॥9॥


.......

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पॊ‌ऒ

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

 धनादिखस्थैस्त्रिमदायगैर्वा चतुर्थरन्ध्रव्ययसंस्थितैर्वा। नभस्तलस्थैर्हलनामयॊगकिलॊदितॊऽयं निखिलागमनैः॥10॥

सभी ग्रह 2, 6, 10, 3, 7, 11, 4, 8, 12 हॊं तॊ ‘हल’ नाम का यॊग हॊता है॥10॥ लग्नस्मरस्थानगतैः शुभाख्यैः पापैश्च मॆधूरणबन्धुयातैः। वज्राभिधस्तैविपरीतसंस्थैर्यवच मिश्रः कमलाभिधानः॥11॥ । शुभग्रह लग्न और  सप्तम भाव मॆं हॊं और  पापग्रह दशम और  चतुर्थ भाव मॆं हॊं तॊ ’वज्र’ यॊग हॊता है। इसकॆ विपरीत यानि 1, 7 भाव

मॆं पापग्रह और  4, 10 भाव मॆं शुभग्रह हॊं तॊ ‘यव’ यॊग हॊता है। यदि . . . सभी कॆंद्र मॆं मिश्रित शुभ-पाप ग्रह बैठॆ हॊं तॊ ’कमल’ यॊग हॊता है॥11॥

... त्यक्त्वा कॆन्द्राणि चॆत्खॆटाः शॆषस्थानॆषु संस्थिताः। . , वापीयॊगॊ भवॆदॆवं गदितः पूर्वसूरिभिः ॥12॥

 यदि कॆंद्र सॆ भिन्न स्थान (पणफर) मॆं सभी ग्रह हॊं तॊ (वापी) यॊग हॊता

 ".. है॥12॥ । लग्नाच्चतुर्थात्स्मरतः खमध्याच्चतुर्गृहस्थैर्गगनॆचरॆन्द्रैः।

क्रमॆण यूपश्च शरश्च शक्तिर्दण्डः प्रदिष्टः खलु जातकज्ञैः॥13॥ । सभी ग्रह लग्न सॆ चौथॆ भाव कॆ अंदर ही हॊं तॊ ’यूप’ यॊग हॊता है। सभी ग्रह लग्न सॆ चौथॆ सॆ सप्तम कॆ अन्दर हॊं तॊ ‘शर’ यॊग हॊता है। सभी ग्रह सप्तम सॆ दशम कॆ अंदर हॊं तॊ ’शक्ति’ यॊग हॊता है। सभी ग्रह दशम सॆ लग्न कॆ अंदर हॊं तॊ ‘दंड’ यॊग हॊता है॥13॥। लग्नाच्चतुर्थात्स्मरतः खमध्यात्सप्तक्ष्गैर्नॊरथकूटसंज्ञः। छत्रं धनुश्चान्यगृहप्रवृत्तैनपूर्वकैग इहार्धचन्द्रः॥14॥ तनॊधनाचैकगृहान्तरॆण स्युः स्थानषट्कॆ गगनॆचरॆन्द्राः। चक्राभिधानश्च समुद्रनामा यॊगा इतीहाकृतिजाश्चविंशत ॥15॥

पभी ग्रह लग्न सॆ सातवॆं भाव कॆ अंदर हॊं तॊ ’नौका’ यॊग हॊता है। सभी ग्रह चतुर्थ सॆ दशम भाव कॆ अंदर सात घरॊं मॆं हॊ तॊ ’कुट’ यॊग हॊता है। सभी ग्रह सप्तम सॆ लग्न पर्यंत सात भावॊं मॆं हॊ तॊ ‘छल’ यॊग हॊता है। सभी ग्रह दशम सॆ चतुर्थ भाव कॆ अंदर सात भावॊं मॆं हॊं तॊ ’चाप’ यॊग हॊता है। इससॆ अतिरिक्त भावॊं मॆं ग्रह हॊं तॊ ’अर्धचंद्र’ यॊग हॊता है॥14-15॥

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ऎशीश्टॊश

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नाभसादियॊगाध्यायः यॆ यॊगाः कथिताः पुरा बहुतरास्तॆषामभावॆ भवॆद

। गॊलश्चैकगतैर्युगं द्विगृहगैः शूलस्त्रिगॆहॊपगैः। कॆदारश्च चतुर्गुहगतैर्ग्रहः पाशस्तु पञ्चस्थितैः

षट्स्थैर्दामनिका च सप्तगृहगैर्वीणॆति संख्या इमॆ॥16॥ पूर्वॊक्त यॊगॊं कॆ अभाव मॆं निम्नलिखित यॊग हॊतॆ हैं। यदि सभी ग्रह ऎक ही राशि मॆं हॊं तॊ ‘गॊल’ यॊग, दॊ भावॊं मॆं हॊं तॊ ’युग’, तीन गृहॊं मॆं हॊं तॊ ‘शूल’ यॊग, चार भावॊं मॆं हॊं तॊ ’कॆदार’ यॊग, पाँच राशियॊं मॆं सभी ग्रह हॊं तॊ ’पाश’ यॊग, 6 राशियॊं मॆं हॊं तॊ ’दामिनी’ यॊग और  सभी ग्रह 7 राशियॊं मॆं हॊं तॊ ’वीणा’ नामक यॊग हॊता है॥16॥

रज्जुयॊगफलम्‌अटनप्रिया सुरूपाः परदॆशस्वास्थ्यभागिनॊ मनुजाः॥ कूरा खलस्वभावा रज्जुप्रभवाः सदा कथिताः॥17॥ रज्जु यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष भ्रमणशील, स्वरूपवान, परदॆश मॆं स्वस्थ रहनॆवाला, क्रूर और  खल स्वभाव का हॊता है॥17॥.

मुसलयॊगफलम्मानज्ञानधनैश्वर्यैर्युक्ता नृपप्रियाः ख्याताः। बहुपुत्राः स्थिरचित्ता मुसलसमुत्था भवन्ति नराः॥18॥. मुसल यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष मान, ज्ञान, धन, ऐश्वर्य सॆ युक्त, राजा का प्रिय, प्रसिद्ध, अनॆक पुत्रॊं वाला और  स्थिरचित्त हॊता है॥18॥

. नलयॊगफलम्न्यूनातिरिक्तदॆहा धनसञ्चयभागिनॊऽतिनिपुणाश्च। . बन्धुहिताश्च सुरूपा नलयॊगॆ सम्प्रसूयन्तॆ॥19॥

नलयॊग मॆं उत्पन्न पुरुष हीन और  अधिक अंगॊं वाला, धनसंचय

 करनॆ वाला, अत्यंत चतुर, बंधु‌ऒं का हितैषी और  सुरूप हॊता है॥19॥

। मालायॊगफलम्नित्यं सुखप्रधाना वाहनवस्त्रान्नभॊगसम्पन्नाः। । कान्ताः सुबहुस्त्रीका मालायां सम्प्रसूताः स्युः॥20॥ । माला यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष नित्य सुखी, वाहन, वस्त्र-अन्नभॊग सॆ संपन्न, सुंदर शरीर, अनॆक स्त्रियॊं सॆ युक्त हॊता है॥20॥।

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

सर्पयॊगफलम्विषमाः क्रूरानिःस्वानित्यंदुःखार्दिताः सुदीनाश्च।

परर्भक्षपानविरताः सर्पप्रभवा भवन्ति नराः॥21॥ सर्प यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष कुटिल, क्रूर, निर्धन, नित्य दुःखी, दीन और  दूसरॆ भक्ष्य भॊज्य सॆ विरत रहनॆ वाला हॊता है॥21॥।

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गदायॊगफलम्सततॊद्युक्तार्थवशा यज्वानः शास्त्रगॆयकुशलाश्च।

धनकनकरनसम्पत्संयुक्ता मानवा गदायां तु ॥22॥ । गदा यॊग मॆं उत्पन्न गुरुष निरंतर धन कॆ लि‌ऎ उद्यॊगी, यज्ञ करनॆ वालॆ, शास्त्र और  संगीत मॆं कुशल, धन, सुवर्ण, रत्न सॆ युक्त हॊतॆ हैं॥22॥

" शकटयॊगफलम । रॊगार्ताः कुनखा मूर्खाः शकटानुजीविनॊनिःस्वाः। मित्रस्वजनविहीनाः शकटॆ जाता भवन्ति नराः॥23॥

शकट यॊग मॆं उत्पन्नॆ पुरुष रॊगी, कुनखी, मूर्ख, गाडी सॆ जीविका चलानॆ वालॆ और  भित्र तथा स्वजनॊं सॆ हीन हॊतॆ हैं॥23॥।

विहगयॊगफलम॥ भ्रमणरुचयॊ विकृष्टी दूताः सुरतानुजीविनॊ धृष्टाः।

कलहप्रियाश्च नित्यं विहगॆ यॊगॆ सदा जाताः॥24॥ विहग ’पक्षी’ यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष भ्रमणशील, परतंत्र, दूत, सुरत सॆ जीविका वालॆ, ढीठ और  झगडालू हॊतॆ हैं॥24॥

। शृङ्गाटकयॊगफलम्प्रियकलहाः समरसहाः सुखिनॊ नृपतॆः प्रियाः शुभकलत्राः।

या युवतिद्वॆश्याः शृङ्गाटकसम्भवा मनुजाः॥25॥ श्रृंगाटक यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष कलहप्रिय, झगडालू, सुखी, राजा कॆ प्रिय, सुंदर स्त्रियॊं सॆ युक्त और  स्त्री कॆ द्वॆषी हॊतॆ हैं॥25॥

। हलयॊगफलम्बवाशिनॊ दरिद्राः कृषीवला दु:खिताश्च सॊद्वॆगाः। बन्धुसुदृभिः सक्ताः प्रॆष्या हलसंज्ञकॆ सदा पुरुषाः॥26॥ हल यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष बहुमॊजी, दरिद्र, कृषि करनॆ वालॆ, दुःखी, उद्वॆग सॆ युक्त, बंधु तथा मित्रॊं मॆं आसक्त और  दास हॊतॆ हैं॥26॥

...

फॊप

ऒज़

नाभसादियॊगाध्यायः

वज्रयॊगफलम्‌आद्यन्तवयः सुखिनः शूराः सुभगा निरीहाश्च। भाग्यविहीना वज्र जाता खला विरुद्धाश्च ॥27॥ वज्र यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष आदि और  अंत अर्थात बाल्य और  वृद्ध अवस्था मॆं सुखी, शूर, सुंदर, निर्दय और  भाग्यहीन हॊतॆ हैं॥27॥

यवयॊगफलम्व्रतनियममङ्गलपरा वयसॊ मध्यॆ सुखार्थपुत्रयुताः। * दातारः स्थिरचित्ता यवयॊगभवाः सदा पुरुषाः॥28॥॥

यव यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष व्रत, नियम, मंगल कॊ करनॆ वालॆ, आयुष्य कॆ मध्य मॆं सुख, धन, पुत्र सॆ युक्त, दाता और  स्थिरचित्त हॊतॆ हैं॥28॥

। कमलयॊगफलम्विभवगुणाढ्याः पुरुषाः स्थिरायुषॊ विपुलकीर्तयः शुद्धाः।

शुभशतकाः पृथ्वीशाः कमलभवा मानवी नित्यम॥29॥

कमल यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष धन-ऐश्वर्य ऎवं गुणॊं सॆ युक्त, दीर्घायु, अत्यंत कीर्तिमान, सैकडॊं शुभ कार्य करनॆ वालॆ राजा हॊतॆ हैं॥29॥

वापीयॊगफलम्निधिकरणॆ निपुणधियः स्थिरार्थसुखसंयुताः सुतयुताश्च। नंयनसुखसम्प्रहृष्टा वापीयॊगॆन । राजानः॥30॥

वापी यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष धनसंग्रह मॆं चतुर, स्थिर धन और  संपत्ति सॆ युक्त, पुत्रवान, नॆत्र कॊ सुख दॆनॆ वालॆ पदार्थॊं सॆ युक्त राजा हॊतॆ हैं॥30॥।

यूपयॊगफलम्‌आत्मविदिज्यानिरतः स्त्रिया युतः सत्त्वसम्पन्नः। व्रतयमनियमॆं निरतॊ यूपॆ जातॊ विशिष्टश्च॥31॥ यूपयॊग मॆं उत्पन्न पुरुष ज्ञानी, यज्ञकर्ता, स्त्री सॆ युत, सत्त्वयुक्त, व्रत-नियम मॆं संपृक्त और  विशिष्ट व्यक्ति हॊता है॥31॥

शरयॊगफलम्‌इधुकरणॆ च समर्था मृगयाधनसॆविताश्च मांसादाः। हिंस्राः कुशिल्पकराः शरयॊगॆ मानवाः प्रसूयन्तॆ॥32॥


., 04

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम : ... शरयॊग मॆं उत्पन्न पुरुष बाण बनानॆ वालॆ, आखॆट कॆ धन सॆ सुखी,

मांस खानॆ वालॆ, हिंसक, कुत्सित शिल्प करनॆ वालॆ हातॆ हैं॥32॥

शक्तियॊगफलम्धनरहितविफलदुःखितनीचालसाश्चिरायुषः पुरुषाः। संग्रामबुद्धिनिपुणाः शक्त्यां जाताः स्थिराः सुभगाः॥33॥ . शक्ति यॊग मॆं उत्पन्नॆ पुरुष दरिद्र, निष्फल, दुःखी, नीच, आलसी,

दीर्घजीवी, झगडालू बुद्धि और  निपुण हॊतॆ हैं॥33॥

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दण्डयॊगफलम- : हतदारपुत्रनिःस्वाः सर्वत्र च निघृणाः स्वजनबाह्याः। दुखितनीचप्रॆष्या दण्डंप्रभवा भवन्ति नराः॥34॥

दंड यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष स्त्री-पुत्र सॆ हीन, निर्धन, निर्लज्ज, अपनॆ स्वजनॊं सॆ त्यक्त, दुःखी और  नीचॊं कॆ दास हॊतॆ हैं॥34॥

। नौकायॊगफलम्सलिलॊपजीविविभवा बवाशाः ख्यातकीर्त्तयॊ दुष्टाः। कृपणा मलिना लुब्या नौसञ्जाताः खलाः पुरुषाः॥35॥॥ * नौका यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष जल सॆ उत्पन्न पदार्थॊं सॆ जीविका वालॆ,

बहत भॊजन करनॆ वालॆ, प्रसिद्ध कीर्ति वालॆ, दुष्ट, कृपण, मलिन और  । लॊभी हॊतॆ हैं॥35॥”

। , कूटयॊगफलम्‌अनृतकथनवथपापा निष्किञ्चमाः शठाः क्रूराः।

कूटसमुत्था नित्यं भवन्ति गिरिदुर्गवासिनॊ मनुजाः॥36॥ । कुट यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष झूठ बॊलनॆ वालॆ, पापी, वधिक, धूर्त, क्रूर, - नित्य झूठॆ व्यापार वालॆ, पहाड और  जंगलॊं मॆं रहनॆ वालॆ हॊतॆ हैं ॥36॥

’ : छत्रयॊगफलम्स्वजनाश्रयॊ दयावान्नानानृपवल्लभः प्रकृष्टमतिः। प्रथमॆऽन्त्यॆ वयसिनरः सुखवान्दीर्घायुरातपत्री स्यात॥37॥।

छत्रयॊग मॆं उत्पन्न पुरुष अपनॆ जनॊं कॊ आश्रय दॆनॆ वाला, दयावान, अनॆक राजा‌ऒं का प्रिय, उत्तमबुद्धि सॆ युक्त, प्रथम और  अंतिम अवस्था मॆं सुखी, दीर्घायु हॊता है॥37 ॥


टल

नाभसादियॊगाध्यायः

चापयॊगफलम्‌आनृतिकगुप्तपालाश्यौरा कितवाच काननॆ निरताः। कार्मुकयॊगॆ जाता भाग्यविहीनाः शुभा वयॊमध्यॆ॥38॥ । चापयॊग मॆं उत्पन्न पुरुष झूठ बॊलनॆ वालॆ, जॆलखानॆ कॆ मालिक, चॊर, धूर्त, जंगल कॆ प्रॆमी, भाग्यहीन और  अवस्था कॆ मध्य मॆं सुखी हॊतॆ हैं॥38॥ ।

। अर्धचन्द्रयॊगफलम्सॆनापतयः सर्वॆ कातशरीरा नृपप्रिया बलिनः॥ मणिकनकभूषणयुता भवन्ति यॊगॆ वार्धचन्द्राख्यॆ॥39॥ अर्धचन्द्रयॊग मॆं उत्पन्न हॊनॆ वालॆ सभी पुरुष सुंदर शरीर कॆ, सॆनापति, राजा कॆ प्रिय, बली, मणि, सुवर्ण और  आभूषणॊं सॆ युक्त हॊतॆ हैं॥39॥

चक्रयॊगफलम्प्रणताशॆषनराधिपकिरीटरत्नप्रभास्फुरितपादः॥ भवति नरॆन्द्रॊ मनुजश्चक्रॆ यॊ जायतॆ यॊगॆ॥40॥ . चक्र यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष अनॆक राजा‌ऒं कॆ रत्नजटित मुकुटॊं सॆ नमस्कार कियॆ जानॆ वाला राजा हॊता है॥40॥

। समुद्रयॊगफलम्बहुरनधनसमृद्धा भॊगयुता धनजनप्रियाः ससुताः। उदधिसमुत्थाः पुरुषाः स्थिरविभवाः-साधुशीलाच॥41॥

समुद्रयॊग मॆं उत्पन्न पुरुष अनॆक रत्न ऎवं धन सॆ समृद्ध, भॊगयुक्त, जनप्रिय, पुत्रवान, स्थिर धनवालॆ और  सज्जन हॊतॆ हैं॥41॥

। वीणायॊगफलम्प्रियगीतनृत्यवाद्यनिपुणाः सुखिन्छ धनवन्तः।

नॆतारॊ बहुभृत्या वीणायां कीर्तिताः पुरुषाः॥42॥ वीणा यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष गीत, नाच और  बाजा कॆ प्रॆमी, निपुण, सुखी, धनी, नॆता, अनॆक नौकरॊं वालॆ हॊतॆ हैं॥42॥...

दामिनीयॊगफलम-. .

 दामिन्यामुपकारी नयधनयुक्तॊ महॆश्वरः ख्यांतः।

बहुसुतरत्नसमृद्धॊ धीरॊ जायॆत विद्वांश्च॥43॥

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ऒग

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । दामिनी यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष नीति और  धन सॆ युक्त, प्रभु, प्रसिद्ध, अनॆक

पुत्र, रत्न सॆ समृद्ध और  धीर तथा पंडित हॊता है॥43॥

।. पाशयॊगफलम्पाशॆ बन्धनभाजः कार्यॆ दक्षाः प्रपञ्चकाराश्च।

बहुभाषिणॊ विशीला बहुभृत्याः सम्प्रतानाश्च॥44॥। " पाश यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष बंधन कॊ भॊगनॆ वालॆ, कार्य मॆं चतुर, प्रपंची, बहुत बॊलनॆ वालॆ, दुःशील और  अनॆक नौकरॊं सॆ युक्त तथा परिवार वालॆ हॊतॆ हैं॥44॥

कॆदारयॊगफलम्सुबहूनामुपयॊज्याः कृषीवलाः सत्यवादिनः सुखिनः। । कॆदारॆ सम्भूताश्चलस्वभावा धनैर्युक्ताः ॥45॥।

कॆदार यॊग मॆं उत्पन्नं पुरुष बहुतॊं कॆ उपकारी, कृषिकर्ता, सत्यवादी, सुखी, चंचल और  धनी हॊतॆ हैं॥45॥

शूलयॊगफलम- . तीक्ष्णालसधनहीना हिंस्राः सुबहिष्कृता महाशूराः। संग्रामॆ लब्धयशस्काः शुलॆ यॊगॆ भवन्ति नराः॥46॥

शूल यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष बडॆ आलसी, निर्धन, हिंसक, . । जातिबहिष्कृत, शूरवीर, संग्राम मॆं लब्धकीर्ति वालॆ हॊतॆ हैं॥46॥

। युगयॊगफलम्पाखण्डवादिनॊ वा धनरहिता वा बहिष्कृता लॊकॆ। सुतमातृधर्मरहिता युगयॊगॆ यॆ नरा जाताः॥47॥

युग यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष पाखंडी, निर्धन, लॊक मॆं बहिष्कृत, पुत्र। माता कॆ धर्म सॆ हीन हॊतॆ हैं॥47॥।

गॊलयॊगफलम। ... बलसंयुक्ता विधना विद्याविज्ञानवर्जिता मलिनाः।

नित्यं दुःखितदीना गॊलॆ यॊगॆ भवन्ति नराः॥48॥ गॊलयॊग मॆं उत्पन्न पुरुष बलवान, निर्धन, विद्या सॆ हीन, मलिन, हमॆशा दुःखी और  दीन हॊतॆ हैं॥48॥

सर्वास्वपि दशास्वॆतॆ भवॆयुः फलदायिनः। प्रा. मिति विज्ञॆयाः प्रवदन्ति तवाग्रजाः॥49॥

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2013 :

अनॆकयॊगाध्यायः इन यॊगॊं का फल सभी ग्रहॊं की दशा मॆं हॊता है, यह पूर्वजॊं का निर्णय है॥49॥।

इति बृहत्पाराशरहॊरायां पूर्वखण्डॆ नाभसयॊगाध्याः चतुर्दशः ॥14॥

अथानॆकयॊगाध्यायः

अथ गजकॆसरीयॊगस्तत्फलं चाहकॆन्द्रस्थितॆ दॆवगुरौ शशाङ्काद्यॊगस्तदाहुर्गजकॆसरीति। दृष्टॆ सितार्यॆन्दुसुतैः शशाङ्कॆ नीचास्तहीनैर्गजकॆसरीति ॥1॥

चन्द्रमा सॆ कॆन्द्र मॆं गुरु हॊ तॊ गजकॆसरी यॊग हॊता है और  चन्द्रमा नीच‌अस्तादि मॆं न गयॆ . हु‌ऎ शुक्र, गुरु और  बुध सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ गजकॆसरी यॊग हॊता है॥1॥।

गजकॆसरिसञ्जातस्तॆजस्वी धनवान भवॆत। । मॆधावी गुणसम्पन्नॊ राजप्रियकरॊं भवॆत॥2॥

इस यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष धनी, मॆधावी, गुणी ऎवं राजा का प्रिय करनॆ वाला हॊता है॥2॥

अथामलायॊगस्तत्फलं चाहलग्नाद्वा चन्द्रलग्नाद्वा दशमॆ शुभसंयुतॆ। यॊगॊऽयममला नाम कीर्तिराचन्द्रतारकी॥3॥ राजपूज्यॊ महाभॊगी दाता बन्धुजनप्रियः। परॊपकारी : गुणवानमलायॊगसम्भवः॥4॥ जन्मलग्न सॆ वा चन्द्रमा सॆ दशम स्थान मॆं कॆवल शुभग्रह हॊं तॊ अमला यॊग हॊता है। अमला यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष की कीर्त्ति जब तक चन्द्रमा

आकाश मॆं रहॆगा तब तक रहती है और  वह राजा सॆ पूज्य, महाभॊगी, दाता और  बंधु‌ऒं का प्रिय हॊता है ॥3-4 ॥

अथ शुभाशुभयॊगस्तत्फलं चाहशुभाशुभाढयॆ यदि जन्मलग्नॆ शुभाशुभाख्यौ भवतस्तदानीम। व्ययस्वगैः पापशुभैर्विलग्नात्पापाख्यसौम्यग्रहकर्त्तरी च॥5॥

शुभयॊगभवॊ वाग्मी रूपशीलगुणान्वितः॥ पापयॊगॊद्भवः कामी पापकर्मपरार्थयुक॥6॥ यदि लग्न मॆं शुभग्रह युत हॊं तॊ शुभयॊग और  पापग्रह युत हॊं तॊ अशुभ यॊग हॊता है। 12।2 भाव मॆं पापग्रह हॊं तॊ पापकर्तरी और  शुभग्रह हॊं


:

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फॊच

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम तॊ शुभकर्तरी हॊती है। शुभ यॊग वां शुभ कर्तरी हॊ तॊ जातक बुद्धिमान, । रूप, शील, गुण सॆ युक्त हॊता है। पापग्रह सॆ उत्पन्न यॊग हॊ तॊ जातक कामी,

पापकर्म करनॆ वाला हॊता है॥5-6॥

। अथ पर्वतयॊगस्तत्फलं चाहसौम्यॆषु कॆन्द्रगृहगॆषु सपत्नरंध्र शुद्धॆऽथवा शुभयुतॆ यदि पर्वतः स्यात । लग्नान्त्यपौयदि परस्परकॆन्द्रयातौ मित्रॆक्षितौ भवति प्रर्वतनामयॊगः॥7॥ भाग्यान्वितः पर्वतयॊगजातॊ विद्याविनॊदाभिरतः प्रदाता। कांमॊ परस्त्रीजनकॆलिलॊलस्तॆजॊ यशस्वी पुरनायकः स्यात॥8॥

यदि सातवॆं, आठवॆं भाव मॆं कॊ‌ई ग्रह न हॊ अथवा शुभग्रह सॆ युत हॊ और  कॆन्द्रॊं मॆं शुभग्रह हॊं तॊ पर्वत यॊग हॊता है। लग्नॆश और  व्ययॆश ’ कॆन्द्र मॆं हॊं और  मित्रग्रह सॆ दॆखॆ जातॆ हॊं तॊ पर्वत यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष - भाग्यवान, विद्वान और  दाता हॊता है॥7-8॥

. .. अथ काहलयॊगस्तत्फलं चाह। अन्यॊ न्यकॆन्द्रगृहगौ गुरुबन्धुनाथ :: लग्नाधिपॆ बलयुतॆ यदि कॊहलः स्यात॥

कर्मॆश्वरॆण सहितॆ तु विलॊकितॆ वा ... स्वॊच्चॆ स्वकॆ सुखपतौ यदि कॊहलः स्यात॥9॥ । ऒजस्वी साहसी मूर्खश्चतुरङ्गबलैर्युतः।

यत्किञ्चिद ग्रामनाथस्तु काहलॆ जायतॆ नरः॥10॥ । गुरु और  चतुर्थॆश परस्पर कॆन्द्र मॆं हॊं और  लग्नॆश बली हॊ तॊ काहल

यॊग हॊता है। यदि सुखॆश अपनॆ उच्च या अपनी राशि का हॊकर कर्मॆश सॆ युत हॊ तॊ काहल यॊग हॊता है। इस यॊग मॆं उत्पन्नः पुरुष तॆजस्वी,

साहसी, मूर्ख, सॆवा कॆ बल सॆ युक्त, कुछ ग्रामॊं का स्वामी हॊता है।9- ...इपॊल्ल

8011:

। अथ चामरयॊगस्तत्फलं चाह। लग्नॆश्वरॆ कॆन्द्रगतॆ स्वतंगॆ जीवॆक्षितॆ चामरनामयॊगः।

सौम्यद्वयॆ लग्नगृहॆ कलत्रॆ नवास्पदॆ वा यदि चामरः स्यात॥11॥ यॊगॆ जातश्चामरॆ राजपूज्यॊ विद्वान वाग्मी पंडितॊ वा महीपः। , सर्वज्ञः स्याद्वॆदशास्त्राधिकारी जीवॆल्लॊकॆ सप्ततिर्वत्सणाम॥12॥


पॊस

अथानॆकयॊगाध्यायः लग्नॆश अपनी उच्चराशि का हॊकर कॆन्द्र मॆं हॊ और  गुरु सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ (चामर) यॊग हॊता है। यदि लग्न सप्तम वा नवम वा दशम मॆं दॊ शुभग्रह हॊं तॊ (चामर) यॊग हॊता है। चामरयॊग मॆं उत्पन्न पुरुष राजा सॆ पूज्य, विद्वान, वक्ता, पंडित वा राजा, सर्वज्ञ, वॆद शास्त्र का अधिकारी, 70 वर्ष तक जीनॆ वाला हॊता है॥11-12॥

। अथ शङ्खयॊगःअन्यॊन्यकॆन्द्रगृहगौ सुतशत्रुनाथौ लग्नाथिपॆ बलयुतॆयदुशंखयॊगः। लग्नाधिपॆच गगनाधिपतौ चरस्थॆ भाग्याथिपॆबलयुतॆ तु तथावदन्ति॥ शंखॆ जातॊ भॊगशीलॊ दयालुः स्त्रीपुत्रार्थक्षॆत्रवान पुण्यकर्मा। शास्त्रज्ञानाचारसाधुक्रियावान जीवॆल्लॊकॆ वत्सराणामशीतिः॥14॥ । पंचमॆश, षष्ठॆश परस्पर कॆन्द्र मॆं हॊं, लग्नॆश बलवान हॊ तॊ शंख यॊग हॊता है। लग्नॆश, कर्मॆश दॊनॊं चर राशि मॆं हॊं, भाग्यॆश बली हॊ तॊ (शंख) यॊग हॊता है। शंख यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष भॊगी, दयालु, स्त्री, पुत्र, धन

और  क्षॆत्र सॆ युक्त पुण्य कार्य करनॆ वाला, पंडित, सज्जन और  80 वर्ष तक जीनॆ वाला हॊता है॥13-14॥

अथ भॆरीयॊगमाह—स्वान्त्यॊदयास्तभवनॆषु वियच्चरॆषु कर्माधिपॆबलयुतॆ यदि भॆरियॊगः। कॆन्द्र गतॆ सुरगुरौ सितलग्ननाथौभाग्यॆश्वरॆ बलयुतॆतु तथैववाच्यम॥ दीर्घायुषॊ विगतरॊगभया नरॆन्द्रा

बह्वर्थभूमिसुतदारयुताः प्रसिद्धाः। आचारभूरिसुखशौर्यमहानुभावा ।

भॆरीप्रजातमनुजा निपुणाः कुलीनाः॥16॥ । यदि 2।12।7 भाव मॆं ग्रह हॊं और  कर्मॆश बली हॊ तॊ भॆरी यॊग हॊता है। भाग्यॆश बली हॊ, गुरु, शुक्र, लग्नॆश कॆन्द्र मॆं हॊं तॊ भॆरी यॊग हॊता है। भॆरी यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष दीर्घायु, नीरॊगी, निर्भय, राजा, भूमि, धन, पुत्र, स्त्री सॆ युक्त, प्रसिद्ध, आचारवान, सुख-पराक्रम सॆ युक्त, निपुण और  कुलीन हॊतॆ हैं॥15-16॥

अर्थ मृङयॊगमाह—1. उच्चग्रहांशकपती यदि कॊणकॆन्द्रॆ ।

तुङ्गस्वकीयभवनॊपगतॆ बलाढ्यॆ।


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फॊ

... बृहत्पराशरहॊराशास्त्रम लग्नाधिपॆ बलयुतॆ तु मृदङ्गयॊगः

कल्याणरूपनृपतुल्ययशः प्रदः स्यात ॥17॥ : जन्मकाल मॆं ग्रह उच्चराशि का हॊ, उसकॆ नवांश का स्वामी यदि कॆन्द्र, कॊण मॆं अपनॆ उच्च, स्वगृह मॆं हॊ, बली हॊ और  लग्नॆश बली हॊ तॊ मृदंग यॊग हॊता है। इस यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष कल्याणकारी, राजा कॆ समान यश वाला हॊता है॥17॥ . .

। अथ श्रीनाथयॊगमाह—कामॆश्वरॆ कर्मगतॆ स्वतंगॆ कर्माधिपॆ भाग्यपसंयुतॆ च। श्रीनाथयॊगः शुभदस्तदान जातॊ नरः शक्रसमॊ नृपालः॥18॥ * सप्तमॆश दशम स्थान मॆं हॊ, अपनी उच्चराशि मॆं कर्मॆश भाग्यॆश कॆ. साथ हॊ तॊ श्रीनाथ यॊग हॊता है। इसमॆं उत्पन्न पुरुष इन्द्र कॆ समान राजा हॊता है॥18॥

। अथ शारदयॊगःयॊगः शारदसंज्ञकः सुतगतॆ कर्माधिपॆ चन्द्रजॆ कॆन्द्रस्थॆ दिननायकॆ निजगृहप्राप्तॆऽतिवीर्यान्वितॆ। चन्द्राकॊणतॆ पुरन्दरगुरौ सौम्यत्रिकॊणॆ कुजॆ।

लाभॆ वा यदि दॆवमन्त्रिणि बुधात्तच्छारदासंज्ञकः॥19॥ स्त्रीपुत्रबन्धुसुखरूपगुणानुरक्ता

भूपप्रियां गुरुमहीसुरदॆवभक्ताः।

 विद्याविनॊदरतिशीलतपॊबलाढ्या

 जाताः स्वधर्मनिरता भुवि शारदाख्यॆ॥20॥ यदि पाँचवॆं भाव मॆं कर्मॆश हॊ, बुध कॆन्द्र मॆं हॊ और  सूर्य अपनी राशि मॆं अत्यंत बली हॊ अथवा चंद्रमा सॆ 9, 5 भाव मॆं गुरु हॊ, बुध सॆ त्रिकॊण मॆं भौम हॊ, बुध सॆ लाभ भाव मॆं गुरु हॊ तॊ शारद यॊग हॊता है। शारद यॊग मॆं उत्पन्नॆ पुरुष विद्या का विनॊदी, कामी, शीलवान, तपस्वी, अपनॆ धर्म मॆं निरत, स्त्री, पुत्र, बंधु कॆ सुखं सॆ युक्त, राजा का प्रिय, गुरु, ब्राह्मण तथा दॆवता का भक्त हॊता है॥19-20॥

अथ मत्स्ययॊगः। लग्नधर्मगतॆ पापॆ पञ्चमॆ सदसद्युतॆ।

चतुरस्रगतॆ पापॆ यॊगॊऽयं मत्स्यसंज्ञकः॥

कालज्ञः करुणासिन्धुर्गुणधीबलरूपवान। । यशॊविद्यातपस्वी चॆ मत्स्ययॊगसमुद्भवः॥21॥।

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अथानॆकयॊगाध्यायः ।

788 । लग्न सॆ नवम भाव मॆं पापग्रह हॊ, पाँचवॆं भाव मॆं शुभग्रह, पापग्रह दॊनॊं

हॊं, चौथॆ या आठवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं तॊ मत्स्य यॊग हॊता है। मत्स्ययॊग मॆं उत्पन्न पुरुष ज्यॊतिषी, करुणा की मूर्ति, गुणी, विद्वान, बली, रूपवान, यशस्वी वा तपस्वी हॊता है॥21॥।

। अथ कूर्मयॊगःकलत्रपुत्रारिगृहॆषु सौम्याः स्वतुङ्गमित्रांशकराशियाताः। तृतीयलाभॊदयगास्त्वसौम्या मित्रॊच्चसंस्था यदि कूर्मयॊगः॥22॥ विख्यातकीर्तिर्भुवि राज्यभॊगी धर्माधिका सवगुणप्रधानः।

धीरः सुखी वागुपकारकर्ता कूर्मॊद्भवॊ मानवनायकॊ वा॥23॥ । अपनॆ उच्च वा मित्रांश वा अपनी राशि मॆं शुभग्रह 7-5-6 भाव मॆं हॊ और  अपनॆ मित्र वा उच्च की राशि मॆं गयॆ हु‌ऎ पापग्रह 3-111 भाव मॆं हॊं तॊ कूर्मयॊग हॊता है। कूर्मयॊग मॆं उत्पन्न पुरुष. प्रसिद्ध कीर्त्तिवाला, राज्यभॊग करनॆ वाला, धार्मिक, सात्त्विक, धीर, सुखी, वाणी सॆ उपकार करनॆवाला अथवा राजा हॊता है॥22-23 ॥

अथ खड्गयॊगमाह—, भाग्यॆशॆ धनभावस्थॆ धनॆशॆ भाग्यराशिगॆ। । लग्नॆशॆ कॆन्द्रकॊणस्थॆ खड्गयॊग. इतीरितः॥24॥

वॆदार्थशास्त्रनिखिलागमतत्त्वयुक्ति

बुद्धिप्रतापबलवीर्यसुखानुरक्ताः। निर्मत्सराश्च निजवीर्यमहानुभावाः ।

खडगॆ भवन्ति पुरुषाः कुशलाः कृतज्ञाः॥25॥ । भाग्यॆश धनभाव मॆं हॊ और  धनॆश भाग्यभाव मॆं हॊ और  लग्नॆश कॆन्द्रकॊण मॆं हॊ तॊ ‘खड्गयॊग’ हॊता है। खड्गयॊग मॆं उत्पन्न पुरुष वॆद कॆ अर्थ कॊ जाननॆ वालॆ, शास्त्र तथा समस्त आगमशास्त्र कॆ तत्त्व कॊ । जाननॆवालॆ, बुद्धिमान, प्रतापी, बलवान, सुखी, मत्सरता सॆ रहित, अपनॆ । पराक्रम सॆ श्रॆष्ठ, कुशल और  कृतज्ञ हॊतॆ हैं॥24-25॥

अथ लक्ष्मीयॊगफलम । कॆन्द्रमूलत्रिकॊणस्थॆ भाग्यॆशॆ परमॊच्चगॆ।

लग्नाधिपॆ बलाढ्यॆ च लक्ष्मीयॊग इतीरितः॥26॥ गुणाभिरामॊ बहुदॆशनाथॊ विद्यामहाकीर्तिरनङ्गरूपः। दिगन्तविश्रान्तनृपालवन्द्यॊ राजाधिराजॊ बहुदारपुत्रः॥27॥


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11

ऊळ्ट

212 . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम * भाग्यॆश अपनॆ परम उच्च मॆं हॊकर कॆन्द्र (1-4-7-10) वा अपनी मूल त्रिकॊण राशि मॆं हॊ और  लग्नॆश बलवान हॊ तॊ ’लक्ष्मी’ यॊग हॊता है। लक्ष्मी यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष गुणॊं सॆ युक्त, अनॆक दॆशॊं का स्वामी, विद्या तथा महत्कीर्ति सॆ युक्त, कामदॆव कॆ समान स्वरूप, दिशा‌ऒं मॆं प्रसिद्ध, राजा‌ऒं सॆ पूज्य, राजा‌ऒं का राजा और  अनॆक स्त्री-पुत्रॊं सॆ युक्त हॊता है॥26-27 ॥

’.. अथ कुसुमयॊगस्तत्फलं चाहस्थिरलग्नॆ भृगौ कॆन्द्र त्रिकॊणॆन्दॊ शुभॆतरॆ।

मानस्थानगतॆ सौरॆ यॊगॊऽयं कुसुमॊ भवॆत॥28॥ दाता महीमण्डलनाथवन्द्यॊ

. . भॊगी महावंशजराजमुख्यः। लॊकॆ महाकीर्तियुतः प्रतापी .

. नाथॊ नराणां कुसुमॊद्भवः स्यात ॥29॥ . स्थिरलग्न (2-5-8-11) मॆं जन्म हॊ और  शुक्र कॆंद्र मॆं हॊ, चंद्रमा 5वॆं भाव मॆं हॊ और  10वॆं स्थान मॆं शनि हॊ तॊ ’कुसुम’ यॊग हॊता है। कुसुमं यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष दाता, राजा‌ऒं सॆ वंद्य, भॊगी, उत्तम कुल मॆं उत्पन्न, राजा‌ऒं मॆं मुख्य, संसार मॆं कीर्तियुक्त, प्रतापी और  राजा हॊता है॥28-39 ॥ ।.. . अथ पारिजातयॊगस्तत्फलं चाह. विलग्ननाथस्थितराशिनाथः स्थानॆशराशीशतदंशनाथः।

कॆन्द्रत्रिकॊणायगतॊ यदि स्यात्स्वतुङ्गगॊवा यदि पारिजातः॥30॥ मध्यान्तसौख्यः क्षितिपालवन्द्यॊ युद्धप्रियॊ वारणवाजियुक्तः। स्वकर्मधर्माभिरतॊ दयालुर्यॊगॊ नृपः स्याद्यदि पारिजातः॥31॥

लग्नॆश जिस राशि मॆं हॊ, उसका स्वामी जिस राशि मॆं हॊ, उसका स्वामी वा उसकॆ नवांश का स्वामी यदि कॆन्द्र, त्रिकॊण, लाभ स्थान मॆं अथवा अपनी उच्चराशि मॆं हॊ तॊ पारिजात यॊग हॊता है। पारिजात यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष मध्य और  अंतिम अवस्था मॆं सुखी, राजा सॆ वंदनीय, युद्धप्रिय, हाथी-घॊडॊं सॆ युक्त, अपनॆ धर्म-कर्म मॆं रत, दयालु हॊता है॥30-31॥

अथ कलानिधियॊगस्तत्फलं चाहद्वितीयॆ पञ्चमॆ जीवॆ बुधशुक्रयुतॆक्षितॆ।

क्षॆत्रॆ तयॊर्वा सम्प्राप्तॆ यॊग: स्यात्स कलानिधिः॥32॥


383

अथानॆकयॊगाध्यायः कामी कलानिधिभवा सुगुणाभिरामः

संस्तूयमानचरणॊ नरपालमुख्यैः। सॆनातुरङ्गमदवारणशङ्खभॆरी ।

। वाद्यान्वितॊ विगतरॊगभयारिसङ्घः ॥33॥ दूसरॆ या पाँचवॆं स्थान मॆं गुरु हॊ, बुध, शुक्र सॆ युत वा दृष्ट हॊ अथवा इन्हीं की राशि मॆं हॊ तॊ ‘कलानिधि’ यॊग हॊता है। कलानिधि यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष कामी, सुंदर गुणॊं सॆ युक्त, राजा‌ऒं सॆ पूज्यचरण वाला, सॆना, घॊडा, मतवालॆ हाथी, शंख, भॆरी आदि बाजा‌ऒं सॆ युक्त, रॊग, भय

और  शत्रु सॆ रहित हॊता है॥32-33 ॥।

। अथ पारिजातादियॊगफलानिसपारिजातधुचरः सुखानि नीरॊगतामुत्तमवर्गयातः। सगॊपुरांशॊ यदि गॊधनानि सिंहासनस्थः कुरुतॆ विभूतिम॥34॥ करॊति पारावतभागयुक्तॊ विद्यायशश्रीविपुलं नराणाम। सदॆवलॊकॊ बहुयानसॆनामैरावतस्थॊ यदि भूपतित्वम॥35॥ । अपनॆ पारिजात भाग (पृ0 53) मॆं ग्रह हॊ तॊ सुख हॊता है। उत्तम वर्ग मॆं हॊ तॊ नीरॊग करता है। गॊपुरांश मॆं हॊ तॊ गौ और  धन दॆता है। सिंहासनांश मॆं हॊ तॊ विभूति अर्थात ऐश्वर्य कॊ दॆता है। पारावत भाग मॆं हॊ तॊ विद्या, यश, विपुल लक्ष्मी कॊ दॆता है। दॆवलॊकांश मॆं हॊ तॊ अनॆक सवारी और  सॆना सॆ युक्त हॊता है। ऐरावत अंश मॆं हॊ तॊ जातक राजा हॊता है॥34-35॥

। अथ लग्नाधियॊगस्तत्फलं चाहलग्नाच्च दाराष्टमगॆहसंस्थैः शुभैर्न पापग्रहयॊगदृष्टैः। लग्नाधियॊगॊ हि तथा प्रसिद्धः पापैः सुखस्थानविवर्जितैश्च ॥36॥ लग्नाधियॊगॆ बहुशास्त्रकर्ता विद्याविनीतश्च बलाधिकारी। मुख्यस्तुनिष्कापटिकॊ महात्मा लॊकॆ यशॊवित्तगुणाधिकः स्यात॥

लग्न सॆ सातवॆं, आठवॆं भाव मॆं शुभग्रह पापग्रह सॆ दृष्ट-युत न हॊं और  चौथॆ भाव मॆं पापग्रह न हॊं तॊ लग्नाधियॊग हॊता है। लग्नाधियॊग मॆं उत्पन्न जातक अनॆक शास्त्रॊं कॊ बनानॆ वाला, विद्वान, नम्र, सॆनाधिकारी, मुख्यतः निष्कपट महात्मा और  संसार मॆं यश, धन और  गुण सॆ प्रसिद्ध हॊता है॥36-37॥

*

*शॆस

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शॊश

214. . . बृहत्पराशरहॊराशास्त्रम

अथ चन्द्रयॊगानाहसहस्ररश्मितश्चन्द्रॆ कण्टकादिगतॆ सति। न्यूनमध्यवरिष्ठानि धनधीनैपुणानि च॥38॥ स्वांशॆ वा स्वाधिमित्रांशॆ स्थितॆ चॆदिवसॆ शशी। गुरुणा दृश्यतॆ तत्र जातॊ वित्तसुखान्वितः॥39॥ स्वाधिमित्रांशराश्चन्द्रॊ दृष्टॊ दानवमन्त्रिणा।

निशासु कुरुतॆ लक्ष्र्मी छत्रध्वजसमाकुलम। . "विपर्यस्थॆ तुशीतांशौजायन्तॆऽल्पधना नराः॥40॥

यदि सूर्य सॆ चंद्रमा कॆन्द्र मॆं हॊ तॊ जातक कॊ धन, बुद्धि और  निपुणता अल्प, हॊती है। चंद्रमा पणफर मॆं हॊ तॊ धन की निपुणता मध्यम हॊती है। और  चंद्रमा आपॊक्लिम मॆं हॊ तॊ धन आदि उत्तम हॊतॆ हैं। यदि दिन मॆं जन्म हॊ और  चंद्रमा गुरु सॆ दॆखा जाता हु‌आ अपनॆ नवांश मॆं वा अधिमित्र कॆ अंश मॆं हॊ तॊ जातक धनी और  सुखी हॊता है। रात्रि का जन्म हॊ और  चंद्रमा अपनॆ अथिमित्रांश मॆं हॊकर शुक्र सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ लक्ष्मी,

त्र.ध्वज सॆ युक्त मनुष्य हॊता है। इसकॆ विपरीत चंद्रमा हॊ तॊ अल्पधनी हॊता है॥38-40॥

अथ चन्द्राधियॊगस्तत्फलं चाहशशिनः सौम्यॊः षष्ठॆ छूनॆ वा निधनसंस्थितॆ। स्यादधियॊगॊ जाताः सौम्यैः सबलैर्धराधीशः। मध्यबलैर्मन्त्री स्यादधमबलैः सैन्यनायकः॥41॥ चन्द्राद्वद्धिगतैः सौम्यैः धर्मशीलॊ महाधनी। द्वाभ्यां समॊऽल्पवसुमानॆकॆन परिकीर्तितः। चन्द्राल्लग्नाद्ग्रहाभावॆ दरिद्रॊ दुःखितॊ भवॆत॥42॥ चंद्रमा सॆ शुभग्रह 6-7-8 भाव मॆं हॊ तॊ अधियॊग’ हॊता है। यदि शुभग्रह बली हॊं तॊ अधियॊग मॆं उत्पन्न जातक राजा हॊता है। मध्यम । बली हॊं तॊ मंत्री, अधम बली हॊं तॊ सॆनानायक हॊता है। चंद्रमा सॆ

(3-6-11) भाव मॆं शुभग्रह हॊं तॊ जातक धर्मशील ऎवं महाधनी हॊता । है। दॊ शुभग्रह हॊ न समधनी और  ऎक शुभग्रह हॊ तॊ अल्पधनी , हॊता है। यदि चंद्रमा सॆ वा लग्न सॆ उक्तस्थानॊं मॆं ग्रह न हॊं

तॊ दरिद्र हॊता है॥41-42॥।

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अथानॆकयॊगाध्यायः

अथ सुनफाऽनफादियॊगानाहशीतांशॊद्गविणस्थितैश्च सुनफायॊगॊऽनफाऽन्त्यस्थितैः स्वान्त्यस्थैः खचरैर्भवॆद्दरुधरा पकॆरुहॆशॊज्झितैः। चॆत्वित्तव्ययगा भवन्ति नॆ खगा कॆमद्रुमः स्यात्तदा प्राचीनैर्मुनिभिः स्मृताः श्रुतिमिता यॊगाः शशाङ्कॊद्भवाः॥43॥।

चंद्रमा सॆ दूसरॆ भाव मॆं सूर्य कॊ छॊडकर शॆष ग्रहॊं मॆं सॆ कॊ‌ई हॊ तॊ ‘सुनफा’ यॊग, बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ ’अनफा’ यॊग, चक्र सॆ दूसरॆ बारहवॆं भाव मॆं ग्रह हॊ तॊ ’दुरुधरा’ यॊग हॊता है। यदि चक्र सॆ 2-12 भाव मॆं ग्रह न हॊं तॊ ’कॆमद्रुम’ यॊग हॊता है। यॆ 4 प्रकार कॆ चंद्रयॊग मुनियॊं नॆ कहॆ। हैं॥43॥

अथ सुनफायॊगफलम्भूमीपतॆश्च सचिवः सुकृती कृती च

नूनं भवॆन्निजभुजार्जितवित्तयुक्तः। ख्यातः सदाखिलजनॆषु विशालकी

। बुध्याधिकश्च मनुजः सुनफाभिधानॆ॥44॥ । सुनफा यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष राजमंत्री, सुंदर यशस्वी, अपनॆ बाहुबल सॆ उपार्जित धन सॆ युक्त, प्रसिद्ध, बडी कीर्तिवाला, बुद्धिमान हॊता है॥44॥

अथाऽनफायॊगफलम्प्रभुर्विनीतः शुभवाग्विलाससच्छीलशाली गुणपूर्तियुक्तः। उदारकीर्तिः स्मरतुष्टचित्तॊ नित्यं नरः स्यादनफाभिधानॆ॥45॥

अनफा यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष समर्थ, नम्र, सुंदर वाणी, उदार, कीर्तियुक्त ऎवं काम हॊता है॥45॥

अथ दुरुधरायॊगफलम्सद्वित्तसद्वारणवाहधात्रीसौख्याभियुक्तः सततं हतारिः। । कान्तासुनॆत्राञ्चललालसः स्याद्यॊगॆ सदा दौरधरॆ मनुष्यः॥46॥ । दुरुधरा यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष धन-वाहन सुख सॆ युक्त, विजित शत्रुपक्ष वाला, स्त्री सॆ संतुष्ट हॊता है॥46॥। तैस


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

अथ कॆमद्रुमयॊग‌अलम. सद्वित्तसूनुवनितात्मजनैविहीनः ।

। प्रॆष्यॊ भवॆत्तु मनुजॊ हि विदॆशवासी। नित्यं विरुद्धधिषणॊ मलिनः कुवॆषः

कॆमद्रुमॆ च मनुजाधिपतॆः सुतॊऽपि ॥47॥ । कॆमद्रुम यॊग मॆं उत्पन्न जातक धन, पुत्र, स्त्री, बंधु सॆ हीन हॊता

है, दास और  परदॆशी हॊता है; नित्य मलिन कुवॆषधारी हॊता है; चाहॆ वह राजा का ही लडका हॊ तॊ भी॥47॥

। अथ कॆमद्रुमभङ्गयॊगःप्रालॆयांशुः सूतिकालॆ यदा वै सर्वैःखॆटॆर्वीक्ष्यमाणास्तदा वै। दीर्घायुष्यं राजयॊगं मनुष्यं सत्कॊशाढ्यं हन्ति कॆमद्रुमं च॥48॥

यदि जन्म समय मॆं चंद्रमा सभी ग्रहॊं सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ जातक कॆ कॆमद्रुम यॊगं कॆ दुष्टफल का नाश कर दीर्घायु, धनी और  राजा बनाता है॥48॥ सर्वॆ खॆटा: कॆन्द्रकॊणॆषु संस्था दुष्टॊयॊगश्चापि कॆमद्रुमॊऽयम।

दुष्टं सर्वं स्वं फलं संविहाय कुर्युः पुंसां सत्फलं वै विचित्रम॥49॥ ।... यदि सभी ग्रह कॆन्द्र-कॊण मॆं हॊं तॊ यह दुष्ट कॆमद्रुम यॊग का नाश

कर उसकॆ दुष्ट फलॊं का भी नाश कर मनुष्य कॊ शुभफल दॆतॆ हैं॥49॥ । सर्वॆषु चन्द्रयॊगॆषु. चॆदं यत्नाद्विचिन्तयॆत।

कॆमद्रुमादिका यॊगाः सम्भवॆऽस्य लयं ययुः॥50॥ सभी चक्र यॊगॊं मॆं इसका विशॆष विचार करना चाहि‌ऎ। क्यॊंकि सभी शुभ यॊगॊं कॆ रहतॆ.यदि कॆमद्रुम यॊग हॊ तॊ उसका नाश हॊता है॥50 ॥

। अथ रवियॊगानांहव्ययधनयुतखॆटॆर्वांशिवॆशी दिनॆशा

दुभयचरिकयॊगश्चॊभयस्थानसंस्थैः।

 निजगृहसुहृदुच्चस्थानयातैश्च जाता।

. बहुधनसुखयुक्ता राजतुल्या भवन्ति॥51॥ सूर्य सॆ बारहवॆं ग्रह हॊ तॊ वॊशि’ यॊग, दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ ’वॆशि’ यॊग और  2/12 दॊनॊं भावॊं मॆं ग्रह हॊं तॊ ’उभयचरिक’ यॊग हॊता

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अथानॆकयॊगाध्यायः ।

3869 है। यॊगकर्ता ग्रह यदि अपनॆ गृह वा मित्रगृह वा अपनॆ उच्चस्थान मॆं हॊ तॊ जातक बहुत धन-सुख सॆ युक्त राजा कॆ समान हॊता है॥51॥

अथ वॊशियॊगफलम्स्यान्मन्ददृष्टिर्बहुकर्मकर्ता पश्यत्यधश्चॊन्नतपूर्वकायः॥ असत्यवादी यदि वॊशियॊगॊ प्रसूतिकालॆ मनुजस्य यस्य॥52॥

वॊशि यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष मंददृष्टिवाला, बहुत कार्य करनॆ वाला, नीचॆ दॆखनॆ वाला, ऊँचा शरीर और  झूठ बॊलनॆ वाला हॊता है॥52॥

अथ वॆशियॊगफलम्चत सम्भवॆ यस्य च वॆशियॊगॆ भवॆद्दयालुः पृथुपूर्वकायः॥ स्याद्वाग्विलासालसतासमॆतस्तिर्यक्प्रचारः खलु तस्य दृष्टॆ॥53॥

वॆशि यॊग मॆं उत्पन्न जातक दयालु, मॊटा शरीर, वाणी बॊलनॆ मॆं चतुर, आलसी और  तिरछी निगाह वाला हॊता है॥53॥

अथॊ-भयचरीयॊगफलम-.. सर्वंसहः स्थिरतरॊऽतितरां समृद्धः

सत्त्वाधिकः समशरीरविराजमानः। - नात्युच्चकः सरलदृक प्रबलामलश्री

। युक्तः किलॊभयचरीप्रभवॊ नरः स्यात॥54॥ उभयचरी यॊग मॆं उत्पन्न जातक सबका सहन करनॆ वाला, स्थिर स्वभाव, अत्यन्त समृद्ध, अधिक बलवान शरीर वाला, छॊटा कद, ऎक

सी सीधी दृष्टि और  अधिक लक्ष्मी सॆ युक्त हॊता है॥54॥

।.. इति यॊगाध्यायः।

अथ राजयॊगादिफलाध्यायः

पराशर उवाच‌अथातः सम्प्रवक्ष्यामि राजयॊगादिकं परम।

ग्रहाणां स्थानभॆदॆन राशिदृष्टिवशात्फलम॥1॥ . . पराशर नॆ कहा- अब मैं राजयॊग आदि कॊ कह रहा हूँ, जॊ कि ग्रहॊं कॆ स्थानभॆद और  राशिदृष्टिवश सॆ फल दॆनॆ वालॆ हॊतॆ हैं॥1॥

तपस्थानाधिपॊ राजा मन्त्री मन्त्राधिपॊ भवॆत। उभावन्यॊन्यसंदृष्टौ जातश्चॆदिह राज्यभाक ॥2॥

.



बृहत्पराशरहॊराशास्त्रम

 इनमॆं मुख्य दॊ ग्रह हॊतॆ हैं- 1. भाग्यॆश राजा हॊता है और  2. पंचम मंत्री हॊता है। दॊनॊं का परस्पर दृष्टिसंबंध हॊ तॊ जातक राजा हॊता है॥2॥

यत्र कुत्रापि संयुक्तौ तौ वापि समसप्तम।

राजवंशॊद्भवॊ बालॊ राजा भवति निश्चितम ॥3॥ ॥ , उक्त दॊनॊं ग्रह कहीं पर ऎक साथ हॊं अथवा ऎक दूसरॆ कॆ सातवॆं भाव

मॆं हॊं तॊ इस यॊग मॆं राजा का लडका राजा हॊता है॥3॥.

वाहनॆशस्तथा मानॆ मानॆशॊ वाहनॆ स्थितः। बुद्धिधर्माधिपाभ्यां तु दृष्टश्चॆदिह राज्यभाक ॥4॥ सुखॆश दशम स्थान मॆं और  कर्मॆश सुख स्थान मॆं और  पंचमॆश नवमॆश सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ राजयॊग हॊता है॥4॥ सुतॆशकर्मॆशसुखॆशलग्ननाथा यदा धर्मपसंयुताश्चॆत । । नृपॊत्तमश्चॆदिह वारणाढ्यः स्वतॆजसा व्याप्तदिगन्तरालः॥5॥

पंचमॆश, कर्मॆश, सुखॆश, लग्नॆश यदि धर्मॆश सॆ युत हॊं तॊ हाथी, घॊडॆ

 आदि सॆ युक्त अपनॆ तॆज सॆ दिशा‌ऒं मॆं प्रसिद्ध उत्तम राजा हॊता है॥5॥

। सुखकर्माधिपौ चैव मन्त्रिनाथॆन संयुतौ। । धर्मॆशॆनाऽथ वा युक्तौ जातश्चॆदिह राज्यभाक ॥6॥

। सुखॆश, कर्मॆश यदि पंचमॆश धर्मॆश सॆ युत हॊं तॊ जातक राज्य का

अधिकारी हॊता है॥6॥

सुतॆश्वरॊ धर्मपसंयुतश्चॆ...

ल्लग्नॆश्वरॆणापि युतॊ विलग्नॆ। । ... सुखॆऽथवा मानगृहॆऽथ वा स्याद

। राज्याभिषिक्ता यदि राजवंश्यः॥7॥ 1 . पंचमॆश, धर्मॆश लग्नॆश सॆ युत हॊकर लग्न मॆं हॊं वा चतुर्थ वा दशम

स्थान मॆं हॊं तॊ यदिं राजा का लडका हॊ तॊ वह राजा हॊता है॥7॥

धर्मस्थानॆ गुरुक्षॆत्रॆ स्वगृहॆ भृगुसंयुतॆ । पञ्चमाधिपसंयुक्तॆ जातश्चॆदिह राज्यभाक ॥8॥ नवम स्थान मॆं गुरु की राशि हॊ और  अपनॆ स्थान मॆं शुक्र हॊ तथा पंचमॆश सॆ युत हॊ तॊ राजा हॊता है॥8॥

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अथ राजयॊगादिफलाध्यायः . निशार्धाच्च दिनार्धाच्च परं सार्धद्विनाडिका॥

शुभ तदुद्भवॊ राजा धनी वा तत्समॊऽपि वा॥9॥ ।

आधी रात कॆ बाद और  दॊपहर कॆ बाद अढा‌ई घटी 2% शुभवॆला हॊती है। इस समय मॆं उत्पन्न बालक धनी कॆ समान हॊता है॥9॥

चन्द्रः कविं कविश्चन्द्रं पश्यति लाभतृतीयगः॥ शुक्राच्चन्द्रॆ ततः शुक्रॆ तृतीयॆ वाहनार्थवान॥10॥ चन्द्रमा शुक्र कॊ और  शुक्र चन्द्रमा कॊ ऎकादश, तीसरॆ भाव मॆं हॊकर . परस्पर दॆखतॆ हॊं तॊ वाहन और  धन सॆ पूर्ण हॊता है। इसमॆं चाहॆ जॊ तीसरॆ भाव मॆं हॊ॥10॥।

अथ चतुर्विधसम्बन्धमाह—-- प्रथमः स्थानसम्बन्धॊ दृष्टिजस्तु द्वितीयकः। तृतीयस्त्वॆकतॊ दृष्टिः स्थित्यॆकन्न चतुर्थकः॥11॥ यॊगकर्ता ग्रह परस्पर ऎक-दूसरॆ की राशि मॆं हॊं अथवा परस्पर दॆखतॆ हॊं, अपनॆ-अपनॆ स्थान मॆं हॊकर दॆखतॆ हॊं वा ऎक ही राशि मॆं हॊं; यॆ चार प्रकार कॆ संबंध ग्रहॊं कॆ हॊतॆ हैं॥11॥

अथ पारिजातादियॊगफलम्तन्वीशः पारिजातस्थस्तदा दाता भवॆन्न हि। । उत्तमॆ चॊत्तमॊ दाता गॊपुरॆ पुरुषत्वयुक॥12॥

 यदि लग्नॆश पारिजात अंश मॆं हॊ तॊ जातक दाता नहीं हॊता है। उत्तमांश । मॆं हॊ तॊ उत्तम दाता हॊता है। गॊपुर मॆं हॊ तॊ पुरुषत्व सॆ युक्त हॊता है॥12॥

. सिंहासनॆ भवॆन्मान्यः शुरः पारावतांशकॆ।

सभासदॊ दॆवलॊकॆ द्वितीयॆ च मुनिर्मतः ॥13॥ सिंहासनांश मॆं सर्वजनमान्य, पारावतांश मॆं हॊ तॊ शूरवीर, दॆवलॊकांश मॆं हॊ तॊ सभासद और  दूसरॆ मॆं हॊ तॊ मुनि-समान हॊता है॥13॥

ऐरावतॆ गजॆं दुष्टॊ दिग्यॊगॊ न भवॆद ध्रुवम।

सुखॆशॊ वापि जायॆशॊ राज्यॆशॊऽप्यॆवमॆव हि॥14॥ । ऐरावत मॆं दुष्ट हॊता है, इसी प्रकार सुखॆश, सप्तमॆश और  कर्मॆश कॆ फल कॊ जानना चाहि‌ऎ॥14॥।


220. . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

पारिजातॆ सुताधीशॊ विद्या चैव कुलॊचिता।

उत्तमॆ चॊत्तमा विद्या गॊपुरॆ भवनाङकिता॥15॥ । पंचमॆश पारिजातांश मॆं हॊ तॊ कुलानुसार विद्या हॊती है। उत्तमांश मॆं हॊ तॊ उत्तम विद्या, गॊपुरांश मॆं हॊ तॊ कुलानुसार हॊती है॥15॥।

सिंहासनॆ तथा वाच्या साचिव्यॆन युता तथा। पांरावतॆ तथा वाच्यं ब्रह्मविद्यासमन्वितम॥16॥ सिंहासन मॆं मंत्रित्व-यॊग्य विद्या और  पावत मॆं ब्रह्मविद्या युक्त विद्या हॊती है॥16॥ ::

सुतॆशॆ दॆवलॊकस्थॆ कर्मयॊगान्वितॊ भवॆत। उपासना द्वितीयॆं स्याद्भक्तिस्त्वैरावतॆ भवॆत॥17॥ पंचमॆश दॆवलॊकांश मॆं हॊ तॊ जातक कर्मयॊगी, दूसरॆ मॆं उपासक, ऐरावत मॆं भक्तियुक्त हॊता है॥17॥।

। धर्मॆशॆ पारिजातस्थॆ तीर्थकृत्त्वत्र जन्मनि। :: पूर्वॆऽपि मनुजॊ जातॊ ह्युत्तमॆ चॊत्तमॊ भवॆत॥18॥

धर्मॆश पारिजातांश मॆं हॊ तॊ इस जन्म और  पूर्वजन्म दॊनॊं मॆं तीर्थयात्री हॊता है, उत्तमांश मॆं उत्तम॥18॥।

. गॊपुरॆ मखकर्ता च परॆ चैवात्र जन्मनि। । सिंहासनॆ भवॆद्धीरः सत्यवादी जितॆन्द्रियः॥19॥

गॊपुरांश मॆं हॊ तॊ इस जन्म और  दूसरॆ जन्म मॆं यज्ञकर्ता हॊता है। सिंहासनांश मॆं हॊ तॊ धीर, सत्यवादी, जितॆन्द्रिय हॊता है॥19॥

सर्वधर्मपरित्यागी, धर्मॆकपदमाश्रितः॥ । पारावतॆ परॆ चैव हंसश्चैवात्र जन्मनि॥20॥

सभी धर्मॊं कॊ त्यागकर ऎक धर्म का व्यवस्थापक हॊता है। पारावतांश मॆं इस जन्म और  परजन्म मॆं जातीय पुरुष हॊता है॥20॥

 लगुडी पितृदण्डी स्याद्दॆवलॊकॆ न संशयः। . द्वितीयॆ चन्द्रपदं गच्छॆत्कृत्वा वै हयमॆधकम ॥21॥

दॆवलॊकांश मॆं हॊ तॊ. दंडधारी संन्यासी और  दूसरॆ मॆं अश्वमॆध यज्ञ करकॆ इन्द्रपद कॊ पाता है॥21॥

ऐरावतॆ तु धर्मात्मा स्वयं धर्मॊ भविष्यति। श्रीराम कुन्तिपुत्रॊ वा द्वितीयॊ न भविष्यति॥22॥

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अथ राजयॊगादिफलाध्यायः

फ्फ्फ ऐरावतांश मॆं हॊ तॊ स्वयं धर्माचार्य हॊता है, चाहॆ श्रीराम हॊं वा युधिष्ठिर हॊता है॥22॥

अथ विशॆषयॊगफलम्‌अथ यॊगफलं ब्रूमॊ ज्ञातव्यं च विशॆषतः। पारिजातादिकानां च फलमॆवैकसंस्थितम॥23॥ अब विशॆषकर यॊगफल कॊ कह रहा हूँ, पारिजातादि यॊगॊं सॆ भिन्न इनका फल हॊता है॥23॥

लक्ष्मीस्थानं त्रिकॊणं च विष्णुस्थानं च कॆन्द्रकम । तयॊः सम्बन्धमात्रॆण राजयॊगादिकं भवॆत॥24॥ त्रिकॊण (9।5) लक्ष्मी का स्थान और  कॆन्द्र (1।4।7।10) विष्णु का स्थान है। इन दॊनॊं कॆ संबंध मात्र सॆ राजयॊग हॊता है॥24॥

कॆन्द्रपुत्रॆशयॊगॆ यॊगॊऽमात्याभिधॊ भवॆत। पारिजातादिकॆ तौ च तदा सॆ प्रबलॊ भवॆत॥25॥ कॆन्द्रॆश और  पंचमॆश कॆ यॊग सॆ ‘अमात्य’ नाम का यॊग हॊता है। यदि यॊगकारक पारिजातादि वर्ग मॆं हॊ तॊ प्रबल राजयॊग हॊता है॥25॥

लग्नॆशॆन धनॆशाद्यान्नैव यॊगः प्रकीर्तितः। मन्त्रॆशॊऽमात्यतां याति सप्तमाधीशयॊगतः॥26॥ लग्नॆश कॆ साथ धनॆश आदि कॆ संबंध सॆ यॊग नहीं हॊता है। पंचमॆश सप्तमॆश सॆ यॊग हॊता हॊ तॊ अमात्य यॊग हॊता है॥26॥

कर्मॆशस्य तु यॊगॆन राजा साचिव्यतामियात।

कॆन्द्रधर्मॆशयॊगॆ राजा वै राजवन्दितः॥27॥ । इसी मॆं कर्मॆश यॊग करता हॊ तॊ राजा या मंत्री हॊता है। कॆन्द्रॆश और  नवमॆश का यॊग हॊ तॊ राजा सॆ वंदित राजा हॊता है॥27॥

धर्मकर्माधिपौ चैव व्यत्ययॆ तावुभौ स्थितौ। युक्तश्चॆद्वै तदा वाच्यः सर्वसौख्यसमन्वितः॥28॥॥ धर्मॆश, कर्मॆश व्यत्यय सॆ अर्थात धर्मॆश कर्म मॆं और  कर्मॆश धर्म भाव मॆं अथवा ऎकत्र युक्त हॊं तॊ सभी सुखॊं सॆ युक्त हॊता है॥28॥

पारिजातॆ स्थितौ तौ तु दण्डॆ लॊकानुशिक्षकः। उत्तमॆ चॊत्तमॊ भूयॊ गजवाजिरथादिमान॥29॥


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बृहत्पराशरहॊराशास्त्रम । यदि धर्मॆश कर्मॆश पारिजात मॆं हॊं तॊ राजा दंड का शिक्षक हॊता है। । उत्तमांश मॆं हॊ तॊ हाथी-घॊडॆ सॆ युक्त उत्तम राजा हॊता है॥29॥

. गॊपुरॆ नृपशार्दूलॊ पूजितांघ्रिनृपैर्भवॆत॥ .. सिंहासनॆ चक्रवर्ती सर्वक्षॊणीशपालकः॥30॥

। गॊपुरांश मॆं हॊं तॊ राजा‌ऒं मॆं सिंह, राजा‌ऒं सॆ पूज्यचरण वाला

राजा हॊता है। सिंहासनांश मॆं हॊं तॊ सभी राजा‌ऒं का पालन । करनॆ वाला चक्रवर्ती राजा हॊता है॥30॥

इति राजयॊगादिविचारकथनम।

 . अथ राजयॊगाध्यायः

पराशर उवाच‌अथातः संप्रवक्ष्यामि राजयॊगा द्विजॊत्तम। यॆषां विज्ञानमात्रॆण नृपपूज्यॊ जनॊ भवॆत॥1॥

पराशर नॆ कहा-हॆ विप्र ! अब मैं राजयॊगॊं कॊ कहता हूँ, जिनकॆ । जाननॆ सॆ मनुष्य राजा सॆ पूज्य हॊता है॥1॥

यॆ यॆ यॊगाः पुरा शम्भुभाषिताः शैलजाग्रतः। । तॆषां सारमहं वक्ष्यॆ तवाग्रॆ द्विजनन्दन॥2॥

पहलॆ शंकरजी नॆ पार्वतीजी सॆ जिन-जिन यॊगॊं कॊ कहा था मैं उनकॆ । सार कॊ तुमसॆ कह रहा हूँ॥2॥

चिन्तयॆत्कारकॆ लग्नॆ जनुर्लग्नॆऽथवा द्विज। राजयॊगप्रदातारौ लग्नौ द्वौ प्रथमॊदितौ ॥3॥

आत्मकारकांश लग्न और  जन्मलग्न यही दॊ लग्न मुख्यतः राजयॊग

 कारक हॊतॆ हैं॥3॥

आत्मकारकपुत्राभ्यां राजयॊगं प्रकल्पयॆत। । तनुपञ्चमनाथाभ्यां तथैव द्विजसत्तम॥4॥

आत्मकारक और  पंचमॆश सॆ राजयॊग कॊ दॆखना चाहि‌ऎ। इसी प्रकार जन्मलग्न और  उससॆ पंचमाधिपति द्वारा राजयॊग दॆखना चाहि‌ऎ॥4॥

विलग्नात्पञ्चमाधीशः पुत्रात्माकारकॊ द्वयः। विप्रसम्बन्धयॊगॆन ज्ञॆयाः वीर्यबलान्विताः॥5॥

4


अथ राजयॊगाध्यायः

773 जन्मलग्नॆश तथा पंचमॆश कॆ संबंध सॆ तथा आत्मकारक और  उससॆ पंचमॆश इन दॊनॊं कॆ बलाबल कॆ अनुसार उत्तम, मध्यम और  अधम राजयॊग हॊता है॥5॥

लग्नॆऽथ पञ्चमॆ वापि लग्नॆशॆ पञ्चमाधिपॆ। पुत्रात्मकारकॊ विप्र लग्नॆ वा पञ्चमॆऽपि च॥6॥ सम्बन्धॆ वीक्षितॆ तत्र दृष्टॆवं पञ्चमाधिपॆ। स्वॊच्चॆ स्वांशॆ स्वभॆ वापि शुभग्रहनिरीक्षितॆ ॥7॥ महाराजॆति यॊगॊऽयं सॊऽत्र जातः सुखी नरः॥ गजवाजिरथैर्युक्तः सॆनासङ्गमनॆकधा॥8॥

लग्नॆश और  पंचमॆश लग्न मॆं वा पंचम भाव मॆं हॊं, आत्मकारक और  पंचमॆश लग्न वा पंचम मॆं हॊ, दॊनॊं का किसी प्रकार का संबंध हॊं और  अपनॆ उच्च, नवांश या राशि मॆं हॊं तॊ ’महाराज’ यॊग हॊता है। इसमॆं उत्पन्न पुरुष सुखी, हाथी, घॊडा और  रथ-सॆना आदि सॆ युक्त हॊता है॥6- छीळ

भाग्यॆशः आरकॆ लग्नॆ पञ्चमॆ सप्तमॆऽपि वा।

राजयॊगप्रदातारौ गजवाजिधनैरपि॥9॥ । भाग्यॆश और  आत्मकारक लग्न, पंचम वा सप्तम मॆं हॊं तॊ हाथी, घॊडॆ

और  धन सॆ युक्त राज्य कॊ दॆतॆ हैं॥9॥

कारकाद्विचतुर्थं च पञ्चमॆ भावगॆ द्विज। शुभखॆटॊ न सन्दॆहॊ राजयॊगं ददाति च॥10॥ । कारक सॆ 2, 4, 5 भाव मॆं शुभग्रह हॊं तॊ निश्चय ही राजयॊग करतॆ हैं॥10॥।

कारकात त्रितयॆ षष्ठॆ राश्यॊरुभयपापयुक। राजवंशॊभवॊ विप्र राजयॊगस्तथा भवॆत॥11॥ कारक सॆ 3, 6 वा लग्न सॆ 3, 6 भाव मॆं पापग्रह युक्त हॊं, तॊ राजयॊग हॊता है॥11॥

- लग्नाधीशाधूननाथाद्धनॆ तुर्यॆ च पञ्चमॆ।

शुभखॆटयुतॆ विप्र राजा च भवति ध्रुवम॥12॥

लग्नॆश सॆ वा सप्तमॆश सॆ 4 वा 5 भाव मॆं शुभग्रह गुंत हॊं तॊ निश्चय ही राजा हॊता है॥12॥

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम कारकॆ पञ्चमॆ शुक्रॆ सितॆन्दुयुतवीक्षितः। तन्वारूढपदॆ लग्नॆ राजवर्गॊं भवॆन्नरः॥13॥ कारकांश वा पाँचवॆं भाव मॆं शुक्र हॊ और  शुक्र-चन्द्रमा सॆ युत-दृष्ट हॊ, लग्न वा आरूढ लग्न मॆं हॊ तॊ राजा हॊता है॥13॥

जग्मा चहि हॊरा कलाङ्गॆ यॆन कॆनचित। . रव्यादि.. दृष्टिमात्रॆण सराजा भवति ध्रुवम॥14॥

जन्मलग्न वा हॊरालग्न वा पदलग्न सूर्यादि किसी ग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ राजा हॊता है॥14॥

स्वक्षॆत्रॆ तु नवांशॆ व द्वॆष्काणॆ भानुजादयः। । लग्नं च सप्तमं विप्र पश्यन्ति राजयॊगदाः॥15॥

5. पूर्णदृष्टॆ पूर्णयॊगमधैं चार्धं विधीयतॆ।

 पादॆन पादयॊगं च राजयॊगमिदं क्रमात॥16॥ अपनॆ राशि, नवांश, द्रॆष्काण मॆं सूर्य आदि ग्रह हॊकर लग्न वा सप्तम - कॊ दॆखॆं तॊ राजयॊग हॊता है। पूर्णदृष्टि हॊ तॊ पूर्ण, अर्धदृष्टि हॊ तॊ

आधा, पाददृष्टि हॊ तॊ चौथा‌ई राजयॊग हॊता है॥15-16॥

घटकुण्डल्यन्तरॆ विप्र पश्यन्ति भास्करादयः। राजयॊगप्रदातारौ निर्विशकं द्विजॊत्तम॥17॥ षड्वर्ग कुण्डली कॆ लग्न कॊ सूर्य आदि ग्रह दॆखतॆ हॊं तॊ राजयॊग हॊता है॥17॥

लग्नस्थानॆ पूर्णदृष्ट्या सप्तमॆ स्वल्पवीक्षितॆ। । स्वल्पराज्यप्रदॊ विप्र षट्लग्नॆषु विचिन्तयॆत॥18॥

यदि लग्न कॊ पूर्णदृष्टि सॆ और  सप्तम कॊ अल्पदृष्टि सॆ दॆखतॆ हॊं तॊ अल्प राजयॊग हॊता है॥18॥

 ऎवं नवांशकुण्डल्या द्रॆष्काणॆऽपि विचिन्तयॆत। । लग्नसप्तमयॊः खॆटॊ राजयॊगप्रदायकः॥19॥

 इसी प्रकार नवांशकुंडली और  द्रॆष्काणकुंडली कॊ भी दॆखना चाहि‌ऎ। क्यॊंकि लग्न और  सप्तंस दॆखनॆ वाला ग्रह राजयॊगकारक हॊता है॥19॥

अथ राजयॊगाध्यायः

फ4 उच्चग्रहॆ राजयॊगॊ लग्नद्वयमथापि चॆत। । राशॆद्रॆष्काणतॊंऽशाच्च राशॆरंशादथापि वा॥20॥। इन दॊनॊं भावॊं कॊ अपनॆ उच्च मॆं बैठा ग्रह दॆखता हॊ अथवा लग्न और  दूसरॆ भाव कॊ दॆखता हॊ तॊ राजयॊग हॊता है॥20॥

जन्मकालघटीलग्न ऎकॆनैव निरीक्षितॆ। उच्चारूढॆ तु सम्प्राप्तॆ चन्द्राक्रान्तॆ विशॆषतः॥21॥। भावलग्न, हॊरालग्न और  घटीलग्न कॊ कॊ‌ई ग्रह दॆखता हॊ तॊ राजयॊग हॊता है। इसमॆं भी लग्नपद वा चन्द्र कॆ साथ कॊ‌ई उच्चस्थ ग्रह हॊ तॊ विशॆष राजयॊग हॊता है॥21॥

क्रान्तॆ वा गुरुशुक्राभ्यां कॆनाप्युच्चग्रहॆण वा॥ दुष्टार्गलाग्रहॊभावॆ राजयॊगॊ न संशयः॥22॥

लग्नपद वा चन्द्र कॆ साथ कॊ‌ई उच्च ग्रह हॊ, उसमॆं गुरु-शुक्रं का यॊग हॊ और  पापग्रह कृत अर्गला यॊग हॊ तॊ निःसंशय राजयॊग हॊता है॥22॥

शुभारूढॆ तत्र चन्द्रॆ धनॆ दॆवगुरुस्तथा। राजयॊगप्रदाता च निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥23॥। अथवा पदस्थान मॆं चन्द्रमा हॊ, उससॆ दूसरॆ गुरु हॊ तॊ निश्चय ही राजयॊग हॊता है॥23॥।

शुभॆ लग्नॆ शुभॆ त्वर्थॆ तृतीयॆ पापखॆचरैः। चतुर्थॆ तु शुभॆ प्राप्तॆ राजा वा तत्समॊऽपि वा॥24॥ शुभग्रह लग्न द्वितीय और  चतुर्थ मॆं हॊं और  तीसरॆ भाव मॆं पापग्रह हॊं तॊ राजा वा राजा कॆ समान हॊता है॥24॥

उच्चस्थॆ हरिणाङ्कॊ वा जीवॊ वा शुक्र ऎव वा। ऎकॊ बली धनगतः श्रियं दिशति दॆहिनः॥25॥ यदि चन्द्रमा, गुरु वा शुक्र मॆं कॊ‌ई अपनी उच्चराशि का बली हॊकर दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ लक्ष्मीप्राप्ति हॊती है॥25॥

. लग्नं पश्यति यॆ खॆटास्तॆ सर्वॆ शुभदायिनः। । . नीचखॆटॊऽपि लग्नं चॆत्पश्यॆद्राजा प्रकीर्तितः॥26॥

लग्न कॊ जॊ ग्रह दॆखतॆ हैं वॆ सभी शुभ दॆनॆ वालॆ हॊतॆ हैं। यदि अपनी नीच राशि मॆं स्थित ग्रह लग्न कॊ दॆखता हॊ तॊ राज्यदायक हॊता है॥26॥

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. 226

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम षष्ठाष्टमॆ तृतीयॆ च लाभॆ सम्बन्धनीचकृत। यॊ ग्रहः पश्यतॆ लग्नं राजयॊगप्रदायकः॥27॥ छठॆ, आठवॆं और  तीसरॆ भाव मॆं अपनी नीचराशि का ग्रह भी यॊगकारक हॊता है। इनमॆं सॆ जॊ ग्रह लग्न कॊ दॆखता हॊ वह राजयॊगकारक

हॊता है॥27॥। . राजयॊगॊ जन्मलग्नं पश्यॆदुच्चग्रहॊ यदि। । षष्ठाष्टमगतॆ नीचॆ लग्नं पश्यति यॊगकृत॥28॥

यदि अपनी उच्चराशि मॆं स्थित ग्रह कॊ दॆखता हॊ तॊ राजयॊग हॊता है। छठॆ, आठवॆं मॆं अपनॆ नीच राशि मॆं बैठा ग्रह कॊ दॆखॆ तॊ राजयॊग हॊता है॥281॥

षष्ठाष्टमाधिपॆ नीचॆ लग्नं पश्यति वाथवा। तृतीयॆ लाभगॆ नीचॆ लग्नं पश्यति राज्यदः॥29॥

अथवा षष्ठॆश वा अष्टमॆश अपनी नीचराशि मॆं हॊकर लग्न कॊ । दॆखतॆ हॊं अथवा तीसरॆ, ग्यारहवॆं भाव मॆं हॊकर लग्न कॊ दॆखतॆ हॊं तॊ।

राजयॊग करतॆ हैं॥29॥

षष्ठीष्टमाधिपौ खॆटौ शुभौ नीचाश्रितौ यदा।

पश्यतॊ जन्मलग्नं च राजयॊग उदाहृतः॥30॥ । षष्ठॆश, अष्टमॆश शुभग्रह हॊं, अपनी नीचराशि मॆं हॊकर लग्न कॊ दॆखतॆ हॊं तॊ राजयॊग हॊता है॥30॥

। इति राजयॊगाध्यायः।

अथ राजप्रधानयॊगाध्यायः ।: राज्यॆशॊऽपि जनुल्लग्नादमात्यॆशयुतॆक्षितॆ।

अमात्यकारकॆणापि प्रधानत्वं नृपालयॆ॥1॥ । राज्यॆश (दशमॆश) जन्मलग्न सॆ पंचमॆश सॆ और  अमात्यकारक सॆ युतदृष्ट हॊ तॊ राजा कॆ यहाँ प्रधान हॊता है॥1॥

लाभॆशॊ वीक्षितॆ लार्भ, पापदृष्टिविवर्जितॆ। तदा राज्यालयॆ विप्र प्रधानत्वं कुलॆऽपि च॥2॥ लामॆश लाभस्थान कॊ दॆखता हॊ और  पापग्रह सॆ दृष्ट-युत न हॊ तॊ राजा कॆ यहाँ प्रधान हॊता है॥2॥

ऒ.

अथ राजप्रधानयॊगाध्यायः अमात्यकारकॆणापि कारकॆन्द्रॆशसंयुतॆ । तीव्रबुद्धियुतॊ बालः सॆनाधीशॊऽपि जायतॆ॥3॥

आत्मकारक कॆ राशीश अमात्यकारक सॆ युत-दृष्ट हॊ तॊ बालक कडी तीक्ष्ण बुद्धि का सॆनापति हॊता है॥3॥।

कारकॆ कॆन्द्रकॊणॆषु तुङ्ग चापि संस्थितॆ। भाग्यपॆन युतॆ दृष्टॆ राजमन्त्री प्रजायतॆ॥4॥

आत्मकारक अपनॆ उच्च का हॊकर कॆन्द्र (1।4॥10) वा कॊण . (9।5) मॆं हॊ और  भाग्यॆश सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ राजमंत्री हॊता है॥4॥

कारकॊ यस्य राशीशॆ लग्नगॆ संयुतॆक्षितॆ। मन्त्रित्वमुख्ययॊगॊऽयं वार्धकॆ नात्र संशयः॥4॥

आत्मकारक ही जन्मराशीश हॊकर लग्न मॆं और  भाग्यॆश सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ वृद्धावस्था मॆं मुख्यमंत्री हॊता है॥5॥

कारकॆ शुभसंयुक्तॆ पञ्चमॆ सप्तमॆऽपि वा। ।

यत्कारकॆ यदा प्राप्तॆ तत्कारकॆ धनं लभॆत॥6॥ । आत्मकारक शुभग्रह सॆ युक्त हॊकर पाँचवॆं वा सातवॆं भाव मॆं जिस भाव कॆ कारक सॆ युक्त हॊता है उसकॆ द्वारा धन का लाभ हॊता है॥6॥

। भाग्यारूढपदॆ लग्नॆ कारकॆ नवमॆऽपि वा॥

राजयॊगप्रदातारौ निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥7॥ भाग्यभाव का पद लग्न मॆं वा आत्मकारक नवम भाव मॆं हॊ तॊ राजसंबंधकारक हॊतॆ हैं॥7॥

लाभॆशॊ लाभभवनॆ पापदृष्टिविवर्जितः। कारकॆ शुभसंयुक्तॆ लाभं तस्य नृपालयत ॥8॥ लाभॆश लाभभाव मॆं हॊ, पापग्रह सॆ न दॆखा जाता हॊ, आत्मकारक शुभग्रह सॆ युत हॊ तॊ राजा कॆ यहाँ सॆ लाभ हॊता है॥8॥

कारकात्सूर्यभावस्थौ सितॆन्दू द्विजसत्तम॥

आदावन्तॆ विशॆषस्य राजचिनॆन संयुतः॥8॥ । कारक सॆ चौथॆ भाव मॆं शुक्र और  चन्द्रमा हॊं तॊ आयु कॆ पूर्वार्ध मॆं

और  अंतिम मॆं राजचिह्नॊं सॆ युक्त हॊता है॥9॥

इति, राजप्रधानयॊगाध्यायः।

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226

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

अथ धनयॊगाध्यायः अथातः सम्प्रवक्ष्यामि धनयॊगं विशॆषतः। पञ्चमॆ तु भृगॆक्षॆत्रॆ तस्मिन शुक्रॆण वीक्षितॆ ॥1॥ लाभॆ शनैश्चरयुतॆ बहुद्रव्यस्य नायकः। अब मैं विशॆष धनयॊगॊं कॊ कहता हूँ। पाँचवॆं भाव मॆं शुक्र की राशि (2।7)हॊ और  उसॆ शुक्र दॆखता हॊ तथा ऎकादश मॆं शनि हॊ तॊ बहुधन

का स्वामी हॊता है॥1॥

पञ्चमॆ सौम्यकक्षॆत्रॆ तस्मिन्सौम्ययुतॆ यदि॥2॥ लाभॆ तु चन्द्रभौमौऽथ बहुद्रव्यस्य नायकः। पाँचवॆं भाव मॆं बुध की राशि (3।6) हॊ और  उसमॆं बुध युत हॊ तथा ऎकादश भाव मॆं चन्द्रमा-भौम हॊ तॊ बहुत द्रव्य का स्वामी हॊता है॥2॥

पञ्चमॆ तु शनिक्षॆत्रॆ तस्मिन्सूर्यसुतॊ यदि॥3॥ लाभॆ सॊमात्मजस्थॆ वा बहुद्रव्यस्य नायकः॥ पाँचवॆं भाव मॆं शनि की राशि (10।11) हॊ और  उसमॆं शनि युत हॊ तथा ऎकादश भाव मॆं बुध हॊ तॊ अनॆक द्रव्य का स्वामी हॊता है॥3॥

। पञ्चमॆ तु रविक्षॆत्रॆ तस्मिन रवियुतॆ यदि॥4॥

लाभॆ रवीन्दुसंस्थॆ तु बहुद्रव्यस्य नायकः॥ पाँचवॆं भाव मॆं सूर्य की राशि (5) हॊ और  उसमॆं सूर्य हॊ तथा लाभभाव मॆं रवि-चन्द्रमा हॊं तॊ बहुत द्रव्य का स्वामी हॊता है॥4॥

पञ्चमॆ तु शनिक्षॆत्रॆ तस्मिन शनियुतॆ यदि। लाभॆ भौमॆन संयुक्तॆ बहुद्रव्यस्य नायकः॥5॥ पाँचवॆं भाव मॆं शनि की राशि (10।11) हॊ और  शनि युत हॊ तथा लाभभाव मॆं भौम हॊ तॊ बहुत द्रव्य का स्वामी हॊता है॥5॥

पञ्चमॆ तु गुरुक्षॆत्रॆ तस्मिन गुरुयुतॆ यदि। । लाभॆ तु चन्द्रभौमौ चॆबहुद्रव्यस्य नायकः॥6॥

पाँचवॆं भाव मॆं गुरु की राशि (9।12) हॊ और  उसमॆं गुरु युत हॊ और  लाभभाव मॆं चंद्रमा-भौम हॊं तॊ बहुत द्रव्य का स्वामी हॊता है॥6॥


. ।

अथ धनयॊगाध्यायः

फ्श भानुक्षॆत्रगतॆ लग्नॆ तस्मिन भानौ स्थितॆ यदि। भौमॆन गुरुणा युक्तॆ दृष्टॆ वा स्यायुतॊ धनैः॥7॥ सूर्य की राशि जन्मलग्न हॊ और  सूर्य युत हॊ और  मंगल गुरु सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ धनी हॊता है॥7॥

चन्द्रक्षॆत्रगतॆ लग्नॆ तस्मिंश्चन्दयुतॆ यदि।

जीवभौमयुतॆ दृष्टॆ जातॊऽवश्यं धनी भवॆत ॥8॥ - चंद्रमा की राशि लग्न मॆं हॊ और  चंद्रमा सॆ युत हॊ और  गुरु-भौम सॆ

युत-दृष्ट हॊ तॊ धनी हॊता है॥8॥

 भौमक्षॆत्रगतॆ लग्नॆ तस्मिन्भौमयुतॆ यदि।

सॊमशुक्रार्कजैर्दष्टॆ युक्तॆ श्रीमान्नरॊ भवॆत॥9॥ मंगल की राशि लग्न मॆं हॊ और  उसमॆं भौम युत हॊ और  बुध, शुक्र शनि सॆ दृष्ट-युत हॊ तॊ धनी हॊता है॥9॥ । गुरुक्षॆत्रगतॆ लग्नॆ तस्मिन गुरुयुतॆ यदिः।

। सौम्यभौमयुतॆ दृष्टॆ यातॊ यस्तु धनीश्वरः॥10॥

गुरु की राशि लग्न मॆं हॊ और  उसमॆं गुरुयुत हॊ और  बुध-भौम सॆ दृष्ट-युत हॊ तॊ धनी हॊता है॥10॥

बुधक्षॆत्रगतॆ लग्नॆ तस्मिन सौम्ययुतॆ यदि।

शनिशुक्रयुतॆ दृष्टॆ जातॊ यस्तु धनी नरः॥11॥ बुध की राशि लग्न मॆं हॊ और  उसमॆं बुध युक्त हॊ और  शनि-शुक्र सॆ युत-दृष्ट हॊ तॊ धनी हॊता है॥11॥

भृगुक्षॆत्रगतॆ लग्नॆ तस्मिन भृगुयुतॆ यदि। शनिसौम्ययुतॆ दृष्टॆ जातॊ यस्तु धनी भवॆत॥12॥ शुक्र की राशि लंग्न मॆं हॊ और  शुक्र युत हॊ और  शनि-बुध सॆ युतदृष्ट हॊ तॊ धनी हॊता है॥12॥ यॆ यॆ ग्रहा धर्मपबुद्धिपाभ्यां युक्ताऽथ दृष्टाश्च सुखप्रदास्तॆ। . रन्धॆश्वरादिव्ययपैर्युताः स्युः शॊकप्रदा मारकनायकैश्च॥13॥ । जॊ-जॊ ग्रह भाग्यॆश, पंचमॆश सॆ युत-दृष्ट हॊतॆ हैं वॆ अपनॆ दशा अंतर मॆं शुभफलद हॊतॆ हैं और  जॊ अष्टमॆश, षष्ठॆश और  व्ययॆश सॆ युत हॊतॆ हैं वॆ तथा मारकॆश अपनॆ समय मॆं दुःखद हॊतॆ हैं॥13॥।


बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम क्रूरसौम्यवभागॆन स्वस्थानादिवशात्तथा। ग्रहाणां स्थानभॆदॆन राशिदृष्टिवशात्फलम॥14॥ इस प्रकार क्रूर तथा शुभ ग्रह कॆ अपनॆ स्थानादि भॆद सॆ ग्रहॊं कॆ बलाबल कॊ विचार कर फलादॆश समझना चाहि‌ऎ॥14॥।

। इति धनयॊगाः । । अथ दरिद्रयॊगाध्यायः लग्नॆशॆ वै रिष्फगतॆ रिष्फॆशॆ लग्नमागतॆ। मारकॆशयुतॆ दृष्टॆ जातः स्यान्निर्धनः पुमान॥1॥ जन्मलग्नॆश बारहवॆं भाव मॆं और  व्ययॆश लग्न मॆं हॊ, मारकॆश सॆ युत दृष्ट हॊ तॊ मनुष्य निर्धन हॊता है॥1॥

लग्नाधिपॆ शत्रुगृहं गतॆ वा षष्ठॆश्वरॆ लग्नगतॆऽपि वा चॆत॥ विलग्नपॆ मारकनाथदृष्टॆ जातॊ भवॆत्रिर्धनकीपि मुख्यः॥2॥

लग्नॆश छठॆ भाव मॆं हॊ और  षष्ठॆश लग्न मॆं हॊ और  लग्नॆश मारकॆश सॆ दृष्ट हॊ तॊ निर्धन हॊता है॥2॥

लग्नॆन्दू कॆतुयुक्तौ वा लग्नॆशॆ निधनं गतॆ। मारकॆशयुतॆ दृष्टॆ जातॊ वै निर्धनॊ भवॆत॥3॥ लग्न और  चंद्रमा कॆतु सॆ युत हॊं तथा लग्नॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ, मारकॆश सॆ युत-दृष्ट हॊ तॊ मनुष्य निर्धन हॊता है॥3॥।

षष्ठाष्ट्रमव्ययगतॆ लग्नॆशॆ पापसंयुतॆ॥ मारकॆशयुतॆ दृष्टॆ राजवंशॊऽपि निर्धनः॥4॥ लग्नॆश पापग्रह सॆ युत हॊकर 6-8-12 भाव मॆं गया हॊ और  मारकॆश सॆ युत-दृष्ट हॊ तॊ राजबालक भी निर्धन हॊता है॥4॥ विलग्ननाथॆऽरिविनाशरिष्फनाथॆन युक्तॆ यदि पापदृष्टॆ। मित्रात्मजॆनाथ्युत्तॆपि दृष्टॆ शुभैर्न दृष्टॆ स भवॆद्दरिद्रः॥5॥ । लग्नॆश 6-8-12 भावॊं कॆ स्वामी सॆ युक्त हॊकर पापग्रह सॆ दृष्ट हॊकर शनि सॆ भी युत हॊ तथा शुभग्रह सॆ न दृष्ट हॊ तॊ मनुष्य दरिद्र हॊता है॥5॥

मन्त्रॆशॊ धर्मनाथश्च षष्ठव्ययस्थितौ क्रमात॥ दृष्टॊ चॆन्मारकॆशॆन जातः स्यान्निर्धनॊ नरः॥6॥

778

दरिद्रयॊध्यायः पंचमॆश और  धर्मॆश क्रम सॆ 6/12 भाव मॆं हॊं और  मारकॆश सॆ दॆखॆ. जातॆ हॊं तॊ जातक निर्धन हॊता है॥6॥

पापग्रहॆ लग्नगतॆ राज्यधर्माधिपौ विना। मारकॆशयुतॆ दृष्टॆ जातः स्यान्निर्धनॊ नरः॥7॥ कर्मॆश और  नवमॆश सॆ अतिरिक्त अन्य पापग्रह लग्न मॆं हॊं और  मारकॆश सॆ युत-दृष्ट हॊ तॊ जातक निर्धन हॊता है॥7॥ यभावॆशॊ रन्ध्ररिष्फारिसंस्थॊ यद्भावस्था रन्ध्ररिष्फारिभॆशाः। पापैर्दृष्टॊ मन्ददृष्टॊऽथवा चॆदुःखाक्रान्तश्चञ्चलॊ निर्धनः स्यात ॥8॥

। जॊ भावॆश (3-8-12)मॆं स्थित हॊं और  जिस भाव मॆं (6-8- ’ 12) कॆ स्वामी हॊं, पापग्रह वा शनि सॆ दृष्ट हॊं तॊ जातक दुःखी, चंचल

और  दरिद्र हॊता है॥8॥

चन्द्राक्रान्तनवांशॆशॊ मारकॆशयुतॊ यदि। मारकस्थानगॊ वापि जातॊऽसौ निर्धनॊ भवॆत॥9॥ चंद्रमा कॆ नवांश का स्वामी मारकॆश सॆ गुंत हॊ अथवा मारक स्थान मॆं हॊ तॊ जातक निर्धन हॊता है॥9॥

विलग्नॆशनवांशॆशी रिष्फषष्ठाष्टगौ यदि॥

मारकॆशयुतौ दृष्टौ जातॊऽसौ निर्धनॊ नरः॥10॥ लग्नॆश कॆ नवांश का स्वामी 12-6-8 भाव मॆं हॊ और  मारकॆश सॆ युत दृष्ट हॊ तॊ जातक निर्धन हॊता है॥10॥

शुभस्थानगताः पापाः पापस्थानॆ गताः शुभाः। । धनातिर्जायतॆ बालॊ भॊजनॆन प्रपीडितः॥11॥ । शुभग्रह की राशि मॆं पापग्रह और  पापग्रह की राशि मॆं शुभग्रह हॊं तॊ . जातक कॊ धन और  अन्न दॊनॊं का कष्ट हॊता है॥11॥

कारकाद्वा विलग्नाद्वा रन्ध्र रिष्फॆ द्विजॊत्तम। लग्नकारकयॊदृष्ट्या दरिद्वात्तियुतॊ नरः॥12॥ कारक सॆ वा लग्न सॆ 8/12 वॆं भाव कॊ कारक और  लग्नॆश न दॆखतॆ हॊं तॊ जातक दरिद्र हॊता है॥12॥ . .

लग्नाद्वा कारकाद्वापि द्वादशॆ यस्य वै द्विज।. लग्नकारकदृष्ट्या व्ययशीलॊ भवॆन्नरः॥13॥

732

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। बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । . लग्न वाःकारक सॆ 1वॆं भाव पर लग्नॆश वा कारक की दृष्टि

हॊ तॊ जातक अधिक व्यय करनॆ वाला हॊता है॥13॥ - यॆ यॆ ग्रहा धर्मपबुद्धिपाभ्यां युक्ता न दृष्टा बहुदुःखदास्तॆ।

रन्ध्रादिषष्ठव्ययर्पर्युतास्तॆ व्ययप्रदा मारकनाथकॆन॥14॥ । जॊ-जॊ ग्रह त्रिकॊणॆश सॆ युत-दृष्ट न हॊकर त्रिकॆश (6-8-12) सॆ युत हॊं और  मारकॆश सॆ दृष्ट हॊं, वॆ अपनॆ दशा मॆं दुःखदायी हॊतॆ हैं॥14॥

. . अथ दरिद्रभङ्गयॊगाःधनसंस्थौ च भौमॆन्दू कथितौ धननाशकौ। बुधॆक्षितौ महावित्तं कुरुतस्तत्रगः शनिः॥15॥ धन भाव मॆं भौम-चंद्रमा धननाशक हॊतॆ हैं, किंतु बुध सॆ दॆखॆ जातॆ हॊं तॊ महाधनी हॊता है ऎवं शनि हॊं तॊ भी महाधनी हॊता है॥15॥।

नि:स्वतां कुरुतॆ तत्र रविर्नित्यं यमॆक्षितः।

महाधनयुतं ख्यातं शन्यदृष्टः करॊत्यसौ॥16॥ ‘दुसरॆ भाव मॆं रवि हॊ और  शनि सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ दरिद्र हॊता है, किंतु शनि न दॆखता हॊ तॊ महाधनी हॊता है॥16॥।

धनभावगताः सौम्याः कुर्वन्त्यॆव धनं बहु।

बुधदृष्टॊ गुरुस्तत्र निर्धनं कुरुतॆ नरम॥17॥। ’ धनभाव मॆं शुभग्रह हॊं तॊ बहुत धन हॊता है, किंतु उसी भाव मॆं गुरु

हॊ और  बुध दॆखता हॊ तॊ निर्धन हॊता है॥17॥।

बुधश्चन्द्रॆक्षितस्तत्र सर्वस्वं हन्ति निश्चितम। क्रूरखॆटादिंयॊगैश्च दारिद्र्यं सम्भवॆनृणाम॥18॥ यदि बुध हॊ और  चंद्रमा दॆखता हॊ तॊ सर्वस्व का नाश हॊता है। क्रूरग्रह आदि कॆ यॊग सॆ जातक कॊ दरिद्रयॊग हॊता है॥18॥

... इति दारिद्रयॊगाध्यायः।

ग्रहाणामवस्थाध्यायः

मैत्रॆय उवाच——- - आदित्यादिग्रहाणांच ह्यवस्था च पृथक पृथक । भॆदाः कतिविधाः सन्ति कथय त्वं कृपानिधॆ! ॥1॥



ग्रहाणामवस्याध्यायः

733

मैत्रॆय नॆ कहा-हॆ कृपानिधि ! सूर्य आदि ग्रहॊं की अवस्था‌ऒं कॆ । भॆद और  उनकी संख्या पृथक-पृथक मुझसॆ कहॆं ॥1॥

पराशर उवाच——भास्करादिग्रंहाणां च ह्यवस्था विविधानि च। घण्णवत्याश्रितावस्था सारभूतं वदाम्यहम॥2॥ पराशरजी नॆ कहा- सूर्य आदि ग्रहॊं की अनॆक अवस्थायॆं हैं, जिनकी संख्या 96 हैं। उनमॆं सारभूत प्रधान अवस्था‌ऒं कॊ कह रहा हूँ॥2॥

अथ जाग्रदाद्यवस्था तत्फलं चाहत्रिंशदंशं त्रिभागं च कल्पयित्वा पृथक पृथक । विषमादिक्रमॆणैव समॆं वै विपरीतकम ॥3॥ विज्ञानं प्रथमं पुंसां जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिकाः।

विशॆषतः परीक्ष स्याज्जागरः कार्यसाधकः॥4॥ । तीस अंशात्मक राशि कॆ तीन भाग करकॆ दश-दश अंश कॆ ऎक-ऎक भाग का विषम राशि मॆं जाग्रत, स्वप्न और  सुषुप्त अवस्था हॊती है और  समराशि मॆं विलॊम(सुषुप्त, स्वप्न, जाग्रत) अवस्था हॊती है। परीक्षण सॆ यह निश्चित है कि जाग्रत अवस्था मॆं कार्य सिद्ध हॊता है॥3-4॥

स्वप्नावस्था मध्यफला उपदॆष्टा गुरुर्यादि। निष्फला चरमावस्था ज्ञातव्या मुनिसत्तम ॥5॥ स्वप्नावस्था मध्यम फलदायक और  सुषुप्त अवस्था निष्फल हॊती। है॥5॥

। अथ दीप्ताद्यवस्था तत्फलं चाहदीप्तः स्वस्थः प्रमुदितः शान्तॊ दीनॊऽतिदुःखितः। विकलश्च खलः क्रॊधी नवधा खॆचरॊ भवॆत॥6॥ ’ दीप्त, स्वस्थ, मुदित, शांत, दीन, अतिदुःखी, विकल, खल और  कॊपी- यॆ नव अवस्थायॆं हॊती हैं॥6॥

उच्चस्थः खॆचरॊ दीप्तः स्वस्थः स्यादधिरि कॆ। मुदितॊ मित्रभॆ शान्तः समभॆ दीन उच्यतॆ॥7॥


3

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम - जॊ ग्रह अपनी उच्चराशि मॆं हॊता है वह दीप्त हॊता है। अपनॆ अधिमित्र कॆ गृह मॆं हॊ तॊ स्वस्थ, मित्र कॆ गृह मॆं हॊ तॊ मुदित, सम कॆ गृह मॆं हॊ तॊ दीन॥7॥

शत्रुभॆ दुःखितॊऽतीवविकलः पापसंयुतः। । खलः खलग्रहॆ ज्ञॆयः कॊपी स्यादर्कसंयुतः॥8॥

शत्रु की राशि मॆं हॊ तॊ अतिदुःखी, पापग्रह कॆ साथ हॊ तॊ विकल, . पापग्रह की राशि मॆं हॊ तॊ खल और  सूर्य कॆ साथ हॊ तॊ कॊपी हॊता है॥8॥

- पाकॆ प्रदीप्तस्य धराधिपत्यमुत्साहशौर्यं धनवाहनॆ च।

स्त्रीपुत्रलाभं शुभबन्धुपूजां क्षितीश्वरान्मानमुपैति विद्याम॥9॥ । दीप्त ग्रह की राशि मॆं पृथ्वी का लाभ, उत्साह, पराक्रम, धन, वाहन, स्त्री-पुत्र का लाभ, शुभकार्य, बंधु‌ऒं सॆ प्रतिष्ठा और  राजा सॆ प्रतिष्ठा का लाभ हॊता हैं।8॥ स्वस्थस्य खॆटस्य दशाविपाकॆ स्वस्थॊ नृपाल्लब्धधनादिसौख्यम। विद्यां यशः प्रीतिमहत्त्वमाराद्दारार्थभूम्यात्मजधर्ममॆति॥10॥ । स्वस्थ ग्रह की दशा मॆं स्वस्थता, राजा सॆ प्राप्त धन आदि का सुख,

विद्या, यश, धन-धर्म आदि का लाभ हॊता है॥10॥ । मुदान्वितस्यापि दशाविपाकॆ वस्त्रादिकं गन्धसुतीर्थधैर्यम।

पुराणधर्मश्रवणादिलाभं : हयादियानाम्बरभूषणाप्तिम॥11॥ .. मुदित ग्रह की दशा मॆं वस्त्रं, गंध, तीर्थयात्रा, धैर्य, पुराण आदि का श्रवण, घॊडा आदि सवारियॊं का लाभ, आभूषण का लाभ हॊता है॥11॥ दशाविपाकॆ सुखधर्ममॆति शान्तस्य भूपुत्रकलत्रयानम। विद्याविनॊदान्वितधर्मशास्त्रं बह्वर्थदॆशाधिपपूज्यतां च॥12॥ । शांत की दशा मॆं सुख, धर्म का लाभ, भूमि, स्त्री, सवारी, विद्या

का विनॊद, धर्मशास्त्र, बहुत धन तथा राजा‌ऒं सॆ पूज्य हॊता है॥12॥.. स्थानच्युतिबन्धुविरॊधता. च दीनस्य खॆटस्य दशाविपाकॆ। जीवत्यसौ कुत्सितहीनवृत्त्या त्यक्तॊ जनै रॊगनिपीडितः स्यात ।13।

दीन ग्रह की दशा मॆं स्थानच्युति, बंधु‌ऒं सॆ विरॊध, कुत्सित वृत्ति सॆ जीविका, लॊगॊं सॆ त्यागा हु‌आ और  रॊग सॆ पीडित हॊता है॥13॥

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फ34

ग्रहाणामवस्थाध्यायः दुःखादितस्यापि दशाविपाकॆ नानाविधं दुःखमुपैति नित्यम॥ विदॆशगॊ बन्धुजनैविहीनश्चौराग्निभूपैर्भयमातनॊति॥14॥ । अतिदुःखी ग्रह की दशा मॆं अनॆक प्रकार कॆ दुःखॊं सॆ युक्त, विदॆश यात्रा, बंधु‌ऒं सॆ त्याज्य, चॊर, अग्नि और  राजा सॆ भय हॊता है॥14॥ वैकल्यखॆटस्य दशाविपाकॆ वैकल्यमायाति मनॊविकारम। - मित्रादिकानां मरणं विशॆषात्स्त्रीपुत्रयानाम्बरचॊरपीडाम ॥15॥

विकल ग्रह की दशा मॆं शरीर मॆं विकलता, मन मॆं विकार, मित्रादिकॊं का मरण, स्त्री, पुत्र, सवारी आदि की पीडा हॊती हैं॥15॥ दशाविपाकॆ कलहं वियॊगं खलस्य खॆटस्य पितुर्वियॊगम । शत्रॊर्जनानां धनभूमिनाशमुपैति नित्यं स्वजनैश्च निन्दाम॥16॥ । खल ग्रह की दशा मॆं कलह, वियॊग, पिता का वियॊग, शत्रु द्वारा जन, धन, भूमि का नाश और  अपनॆ ही लॊगॊं सॆ नित्य निंदा हॊती है॥16॥ कॊपान्वितस्यापि दशाविपाकॆ पापाः समायान्ति बहुप्रकारैः। विद्याधनस्त्रीसुतबन्धुनाशं पुत्रादिकृच्छं खलु नॆत्ररॊगम॥17॥॥ । कॊपी ग्रह की दशा मॆं अनॆक प्रकार कॆ पापकर्म, विद्या, धन, स्त्री, पुत्रॆ और  बंधु‌ऒं का नाश, पुत्रादि कॊ कष्ट और  नॆक्ररॊग हॊता है॥17॥।

 अथ बालाद्यवस्थाफलम्बालॊ रसांशैरसमॆ प्रदिष्टस्ततः कुमारॊ हि युवाथ वृद्धः। मृतः क्रमादुत्क्रमतः समक्ष बालाद्यवस्था कथिता ग्रहाणाम ॥ फलं तु किञ्चिद्वितनॊति बालश्चाद्धं कुमारॊ यततॆ न पुंसाम। . युवा समग्रं खचरॊऽथ वृद्धः फलं च दुष्टं मरणं मृताख्यम ॥19॥

ऎक राशि मॆं षष्ठांश कॆ तुल्य बाल, कुमार, युवा, वृद्ध और  मृत । यॆ पाँच अवस्था‌ऎँ हॊती हैं। बाल साधारण, कुमार मॆं आधा, युवा

मॆं कुछ, वृद्ध मॆं संपूर्ण और  मृत मॆं मृत्यु हॊती है॥18।19॥

अथ प्रवासाद्यवस्थाफलम्प्रवासनष्टा च मृता जया हास्या रतिर्मुदा। ।

ज्वराच क्ष सुचि सन्निभा ॥20॥ . .

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श्टॆ

37

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । प्रवास, नष्टा, मृत, जय, हास्य, रति, मुद, सुदा, भुक्त, ज्वर, कंप और  स्थिर यॆ 12 अवस्था‌ऎँ हॊती हैं॥20॥

षष्ठिनं गतभं भुक्तधटीयुक्तं युगाहतम॥ ... शराब्धिहल्लव्यतॊऽर्काच्छॆषावस्था द्विजॊत्तम॥21॥

गत नक्षत्र की संख्या कॊ 60 सॆ गुणाकर उसमॆं नक्षत्र की भुक्त घटी कॊ जॊडकर 4 सॆ गुणाकर उसमॆं 45 सॆ भाग दॆवॆ तॊ लब्धि तुल्य अवस्था हॊती है। लब्धि 12 सॆ अधिक हॊ तॊ उसमॆं 12 सॆ भाग दॆनॆ सॆ

शॆष गत अवस्था हॊती है॥21॥ । । प्रवासः प्रवासॊपगॆ जन्मकालॆऽर्थनाशस्तु नष्टॊपगॆ मृत्युभीतिः।

", मृतावस्थितॆ स्याज्जयायां जयस्तुविलासस्तु हास्यॊपगॆ कामिनीभिः॥ । रतौ स्याद्गतिः क्रीडिता सौख्यदात्री

प्रसुप्तापि निद्रां कलिं दॆहपीडाम। . भयं तापहानिः सुखं स्यात्तु भुक्त्वा

ज्वराकम्पितासुस्थितासु क्रमॆण॥23॥ अवस्था‌ऒं कॆ नाम कॆ अनुसार ही उनकॆ फल हॊतॆ हैं॥22-23॥

अथ लज्जिताद्यवस्था तत्फलं चाहलज्जितॊ गर्वितश्चैव क्षुधितस्तृषितस्तथा। । मुदितः क्षॊभितश्चैव ग्रहावस्थाः प्रकीर्तिताः॥24॥ : लज्जित, गर्वित, क्षुधित, तृषित, मुदित, क्षॊभित, यॆ 6 ग्रहॊं की

अवस्था‌ऎँ हॊती हैं॥24॥

पुत्रगॆहगतः खॆटॊ राहुकॆतुयुतॊ भवॆत॥ रविमन्दकुजैर्युक्तॊ लज्जितॊ ग्रह ऎव च॥25॥ पाँचवॆं भाव मॆं ग्रह राहु, कॆतु, रवि, शनि और  भौम सॆ युक्त हॊ तॊ लज्जित हॊता है॥25॥

तुङ्गस्थानगतॊ वापि त्रिकॊणॆऽपि भवॆत्पुनः।.. गर्वितः सॊऽपि गदितॊ निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥26॥ यदि अपनी उच्चराशि वा मूल त्रिकॊण मॆं हॊ तॊ गर्वित हॊता है॥26॥

शत्रुगृही शत्रुयुक्तॊ रिपुदृष्टॊ भवॆद्यदि। क्षुधितः स च विज्ञॆयः शनियुक्तॊ यथा तथा॥27॥.. .


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शॆळॆ


ग्रहाणामवस्थाध्यायः

236 शत्रु की राशि मॆं हॊ, शत्रु सॆ युक्त हॊ, शत्रु सॆ दॆखा जाता हॊ अथवा शनि सॆ युक्त हॊ तॊ क्षुधित हॊता है॥27॥

जलराशौ स्थितः खॆटः शत्रुणा चावलॊकितः।

शुभग्रहा न पश्यन्ति तृषितः स उदाहृतः॥28॥ । ग्रह जलराशि मॆं हॊ, अपनॆ शत्रु सॆ दॆखा जाता हॊ, शुभ ग्रह सॆ न दॆखा जाता हॊ तॊ तृषित हॊता है॥28॥

मित्रगॆही मिन्नयुक्तॊ मित्रॆण चावलॊकितः। गुरुणा सहितॊ यश्च मुदितः स प्रकीर्तितः॥29॥। यदि ग्रह मित्र कॆ गृह मॆं हॊ, मित्र सॆ युक्त हॊ और  मित्र सॆ दॆखा जाता हॊ और  गुरु सॆ युक्त हॊ तॊ मुदित हॊता है॥29॥

रविणा सहितॊ यश्च पापाः पश्यन्ति सर्वथा।

क्षॊभितं तं विजानीयाच्छत्रुणा यदि वीक्षितः॥30॥ रवि सॆ युक्त हॊ और  कॆवल पापग्रह सॆ दृष्ट हॊ और  शत्रु सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ क्षॊभित हॊता है॥30॥।

यॆषु यॆषु च भावॆषु ग्रहास्तिष्ठन्ति सर्वथा। . क्षुधितः क्षॊभितॊ वापि स नरॊ दुःखभाजनः॥31॥। । जिन-जिन भावॊं मॆं क्षुधित और  क्षॊभित ग्रह रहतॆ हैं उन-उन भाव कॆ

फलॊं का नाश हॊता है॥31॥।

ऎवं क्रमॆण बॊद्धव्यं सर्वभावॆषु पण्डितैः। बलाबलविचारॆण वक्तव्यः फलनिर्णयः॥3॥ इसी प्रकार सभी भावॊं का बलाबल कॆ विचार सॆ फल का निर्णय करना चाहि‌ऎ ॥32॥। . अन्यॊन्यं च मुदा युक्तं फलं मित्रं वदॆत्पुनः।

बलहीनॆ तथा हानिः सबलॆ च महाफलम ॥33॥ । परस्पर मुदित ग्रह हॊं तॊ मिश्रित फल हॊता है। यदि ग्रहहीन बल हॊ ।

तॊ हानि और  बली हॊ तॊ अधिक फल हॊता है॥33॥

कर्मस्थानॆ स्थितॊ यस्य लज्जितस्तृषितस्तथा॥

क्षुधितः क्षॊभितॊ वापि स नरॊ दुःखभाजनः॥34॥ जिसकॆ कर्मभाव मॆं लज्जित वा तृषित ग्रह हॊ अथवा क्षुधित वा क्षॊभित ग्रह हॊ तॊ वह मनुष्य दुःखी हॊता है॥34॥

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम सुतस्थानॆ भवॆद्यस्य लज्जितॊ ग्रह ऎव च। ..... सुतनाशॊ भवॆत्तस्य ऎकस्तिष्ठति सर्वदा॥35॥

जिसकॆ पुत्रस्थानॆ मॆं लज्जित ग्रह हॊ तॊ उसकॆ पुत्र का नाश हॊता है॥35॥

क्षॊभितस्तृषितश्चैव सप्तमॆ यस्य वा भवॆत।

म्रियतॆ तस्य नारी च सत्यमाहुर्द्विजॊत्तम॥36॥ । जिसकॆ सातवॆं भाव मॆं क्षॊभित वा तृषित ग्रह हॊ तॊ उसकी स्त्री

का नाश हॊता है॥36॥ नवालयारामसुखं नृपत्वं कलापटुत्वं विदधाति पुंसाम॥ सदार्थलाभं व्यवहारवृद्धि फलं विशॆषादिह गर्वितस्य॥37॥ भवति मुदितयॊगॆ वासशालाविशाला,

विमलवसनभूषाभूमियॊषासु सौख्यम॥ । स्वजनजनविलासॊ भूमिपागारवासॊ

।.. रिपुनिवहविनाशॊ बुद्धिविद्याविकाशः॥38॥ - गवत ग्रह की दशा मॆं नूतन मकान, बगीचा का सुख, नृपत्व, कला मॆं पटुता, सदा धन का लाभ, व्यवहार मॆं कुशलता, राजगृह मॆं वास ।

और  शत्रु‌ऒं कॆ समूह का नाश हॊता है॥38॥। दिशति लज्जितभाववशाद्वतिं विगतराममतिं विमतिक्षयम। सुतगदागमनं गमनं वृथा कलिकथाभिरुचिं न रुचिं शुभॆ॥39॥

लज्जित ग्रह की दशा मॆं ईश्वर मॆं अनिच्छा, सुंदर बुद्धि की हानि, पुत्र कॊ कष्ट, व्यर्थ भ्रमण, झगडा आदि मॆं रुचि और  धर्म मॆं अरुचि हॊती है॥39॥। . संक्षॊभितस्यापि फलं विशॆषाद्दरिद्रजातं कुमतिं च कष्टम। । करॊति वित्तक्षयमंघ्रिबाधां धनादिबाधामवनीशकॊपात॥40॥ क्षुधित्ग्रहवशाद्वै शॊकमॊहादितापः ।

परिजनपरितापादाधिभीत्या कृशत्वम। कलिरपि रिपुलॊकैरर्थबाथा नराणा. . मखिलबलनिरॊधॊ बुद्धिरॊधॊ विषादात॥41॥


ग्रहाणामवस्थाध्यायः

738 क्षॊभित ग्रह की दशा मॆं दरिद्रता, दुर्बुद्धि, कष्ट, पन का नाश, पैर मॆं कष्ट, राजा कॆ कॊप सॆ धनप्राप्ति मॆं बाधा हॊती है। क्षुधित ग्रह की दशा मॆं शॊक, मॊह, परिजनॊं कॆ कष्ट सॆ मानसिक व्यथा, कृशता, शत्रु सॆ विवाद, धन की हानि और  विरॊध सॆ बुद्धि की हानि हॊती है॥41॥। तृषितखगभवॆ स्यादंगनासंगमध्यॆ

’ भवति गदविकारॊ दुष्टकार्याधिकारः। निजजनपरिवादादर्थहानिः कृशत्वं ।

खलकृतपरितापॊ मानहानिः सदैव॥42॥

 तृषित ग्रह की दशा मॆं स्त्री कॆ संसर्ग सॆ रॊग, दुष्ट कार्य का अधिकार, अपनॆ ही लॊगॊं कॆ विवाद सॆ धन की हानि, कृशता, दुष्टॊं सॆ कष्ट और  मानहानि हॊती है॥42॥

अथ शयनाद्यवस्थानयनम्शयनं चॊपवॆशं च नॆत्रपाणिप्रकाशनम। गमनागमनं चाथ सभायां वसतिं तथा॥43॥

आगमं भॊजनं चैव नृत्यलिप्सां च कौतुकम। निद्रां ग्रहाणां चॆष्टां च कथयामि तवाग्रतः॥44॥

1 शयन, 2 उपवॆशन, 3 नॆत्रपाणि, 4 प्रकाशन, 5 गमन, 6 आगमन, । 7 संभावास, 8 आगम, 9 भॊजन, 10 नृत्यलिप्सा, 11 कौतुक, 12 निद्रा -यॆ 12 अवस्था और  उनकी चॆष्टा‌ऒं कॊ कहता हूँ॥43-44॥

यस्मिनृक्षॆ भवॆत्खॆटस्तॆन तं परिपूरयॆत। पुनरंशॆन सम्पूर्य स्वनक्षत्रं नियॊजयॆत ॥45॥ यातदण्डं तथा लग्नमॆकीकृत्य सदा बुधः।

रविणा हरतॆ भागं शॆष कार्यॆ नियॊजयॆत ॥46॥ । जिसनक्षत्र मॆं ग्रह हॊं उसकी संख्या सॆ ग्रहसंख्या कॊ गुणा कर दॆ। गुणनफल कॊ ग्रह की नवांश संख्या सॆ गुणा कर दॆ। गुणनफल मॆं जन्मनक्षत्र संख्या कॊ जॊड दॆ और  इसमॆं इष्टघटी और  लग्न की संख्या कॊ जॊड कर उसमॆं 12 का भाग दॆनॆ सॆ शॆष कॆ तुल्य शयन आदि अवस्था हॊती है॥45-46॥।

नाक्षत्रिकदशाक्रमॆण पुनः पूरणमाचरॆत॥ नामाक्षरॆण संयुक्तॆ हर्तव्यं, रविणा ततः॥47॥


240:

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम फिर शॆषांक कॊ उसी सॆ गुणा कर गुणनफल मॆं नाम कॆ आद्यक्षर कॆ . अनुसार स्वरांक कॊ जॊड दॆ और  12 सॆ भाग दॆवॆ, शॆष मॆं ग्रह का ध्रुवांक..

जॊड दॆ॥47॥ - रवौ पञ्च तथा दॆयं चन्द्रॆ दद्याद्वयं तथा।

। कुजॆ द्वयं च संयुक्तं बुधॆ त्रीणि नियॊजयॆत ॥48॥

जैसॆ रवि का. 5, चंद्र का 2, भौम का 2, बुध का 3॥48॥

गुरौ बाणाः प्रदॆयाश्च त्रयं दद्याच्च भार्गवॆ। शन त्रयमथॊ दॆयं राहॊ दद्याच्चतुष्टयम॥49॥ । गुरु का 5, शुक्र का 3, शनि का 3 और  राहु का 4 ॥49॥

शॆषं हतं च रामॆण ग्रहाणां त्रिविधं भवॆत॥ । दृष्टिं चॆष्टां विचॆष्टां च कथयामि तवाग्रतः॥50॥.

जॊडकर 3 का भाग दॆनॆ सॆ 1 बचॆ तॊ दृष्टि, 2 बचॆ तॊ चॆष्टा और  3 या 0 बचॆ तॊ विचॆष्टा हॊती है॥50॥।

उदाहरण-जैसॆ सूर्य 3-18-26-14 जन्मनक्षत्र पुनर्वसु, इष्टघटी 32 और  जन्मलग्न मकर है। सूर्य आश्लॆषा नक्षत्र मॆं है, उसकी संख्या 9 है, रवि की संख्या 1 कॊ गुणा किया तॊ 9 हु‌आ, रवि की नवांश संख्या 6सॆ गुणा करनॆ पर 649=54 हु‌आ। इसमॆं जन्मनक्षत्र संख्या 7, इष्टघटी. 32 और  जन्मलग्न संख्या 10 इन तीनॊं कॊ जॊडनॆ सॆ 103 हु‌आ। इसमॆं । 12 का भाग दॆनॆ सॆ शॆष 7 बचा, अतः सातवीं सभावास अवस्था सूर्य की हु‌ई। फिर शॆष कॊ उसी सॆ गुणा करनॆ सॆ 49 हु‌आ। इसमॆं दिनॆश

 कॆ आद्य अक्षर का स्वरांक 5 जॊडकर 12 सॆ भाग दॆनॆ सॆ 6 शॆष बचा॥ इसमॆं रवि का. ध्रुवांक 5 जॊडकर तीन का भाग दॆनॆ सॆ 2 बचा, अतः चॆष्टा अवस्था हु‌ई।

स्वराकचक्र 971.

381 9 37. इ. । उ. । ऎ. । ऒ. कॆ । ख । ग घ च ।

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ग्रामस्थाध्यायः

दृष्ट्यादिफलम्दृष्टौ स्वल्पफलं ज्ञॆयं चॆष्टायां विपुलं धनम।

विचॆष्टायां फलं न स्यादॆवं दृष्टिफलं विदुः॥51॥ . दृष्टि मॆं ग्रहॊं की अवस्था का अल्पफल, चॆष्टा मॆं अधिक फल * और  विचॆष्टा मॆं निष्फल हॊता है॥51॥

शुभाशुभं ग्रहाणां च समीक्ष्याथ बलाबलम ।

तुङ्गस्थानॆ विशॆषॆण बलं ज्ञॆयं तथा बुधैः॥52॥ । ग्रहॊं का शुभाशुभ और  बलाबल विचार कर फलादॆश करना : चाहि‌ऎ॥52 ॥।

अथ रवॆदशावस्थाफलम-. । मन्दाग्निरॊगॊ बहुधा नराणां स्थूलत्वमंप्रॆरपि पित्तकॊपः। व्रणं गुदॆ शूलमुरःप्रदॆशॆ यदॊष्णभानौ शयनं प्रयातॆ॥53॥

यदि सूर्य शयन अवस्था मॆं हॊ तॊ जातक कॊ मंदाग्निरॊग, चरण मॆं स्थूलता, पित्तप्रकॊप, गुदा मॆं व्रण तथा हृदय मॆं शूल हॊता है॥53॥ 

दरिद्रताभारविहारशाली विवादविद्याभिरतॊ नरः स्यात॥ कठॊरचित्तः खलु नष्टवित्तः सूर्यॊ यदा चॆदुपवॆशनस्थः॥54॥

उपवॆशन अवस्था मॆं हॊ तॊ दरिद्रता कॊ भॊगनॆ वाला, कठॊर चित्त वाला तथा नष्ट धन वाला हॊता है॥54॥ 

नरः सदानन्दधरः विवॆकी परॊपकारी बलवित्तयुक्तः॥ महासुखी राजकृपाभिमानी दिवाधिनाथॊ यदि नॆत्रपाणौ॥55॥

नॆत्रपाणि अवस्था मॆं हॊ तॊ सदा आनंद भॊगनॆवाला, विवॆकी, परॊपकारी, बली, धनी, महासुखी, राजा की कृपा सॆ अभिमानी हॊता है॥55॥ 

उदारचित्तः परिपूर्णवित्तः सभासु वक्ता बहुपुण्यकर्ता। महाबली सुन्दररूपशाली प्रकाशनॆ जन्मनि पद्मनीशॆ॥56॥ । प्रकाशन मॆं हॊ तॊ उदार चित्तवाला, धन सॆ पूर्ण, सभा मॆं वक्ता, अनॆक पुण्य करनॆ वाला, महाबली, सुंदर रूपवाला हॊता है॥56॥ 

प्रवासशाली किल दुःखमाली सदालसी धीधनवर्जितश्च। भयातुरः कॊपपरॊ विशॆषाद्दिवाधिनाथॆ गमनॆ मनुष्यः॥57॥

नवरायुक्तः।

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- 242 :... बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

गमन अवस्था मॆं हॊ तॊ जातक प्रवास मॆं रहनॆ वाला, दुःखी, सदा आलसी, बुद्धि-धन सॆ रहित, भयातुर, क्रॊधी हॊता है॥57॥। परदाररतॊ जनतारहितॊ: बहुधा गमनॆ गमनाभिरुचिः।

कृपणः खलताकुशलॊ मलिनं दिवसाधिपतौ मनुजः कुमतिः॥58॥ .. आगमन अवस्था मॆं हॊ तॊ परस्त्री मॆं आसक्त, जनमत सॆ रहित, ।

यात्रा मॆं रुचि, कृपण, दुष्टता मॆं कुशल और  मलिन हॊता है॥58 ॥ । सभागतॆ हितॆ नरः परॊपकारतत्परः

।... सदार्थरत्नपूरितॊ दिवाकरॆ गुणाकरः। वसुन्धरानवाम्बरालयान्वितॊ महाबली ।

विचित्रमित्रवत्सलः कृपाकलाधरः परः॥59॥ । सभा अवस्था मॆं हॊ तॊ परॊपकारी, सदा धन-रत्न सॆ परिपूर्ण, गुण का भंडार, भूमि, नूतन वस्त्र, गृह सॆ युक्त, महाबली, अनॆक मित्रॊं सॆ युक्त और  कृपालु हॊता है॥59॥ क्षॊभितॊ रिपुगणैः सदा नरश्चञ्चलः खलमतिः कृशस्तथा॥ धर्मकर्मरहितॊ मदॊद्धतश्चागर्म दिनपत यदा तदा॥60 ॥।

आगम अवस्था मॆं सूर्य हॊ तॊ जातक शत्रु‌ऒं सॆ क्षुभित, चंचल, दुष्टबुद्धि, कृशशरीर, धर्म-कर्म सॆ रहित और  उद्धत स्वभाव का हॊता है॥60 ॥। सदाङ्गसन्धिवॆदना पराङ्गनाधनक्षयॊ

’ : बलक्षयः पदॆ पदॆ यदा तदा हि भॊजनॆ। । असत्यता शिरॊव्यथा तथा वृथान्नभॊजनं - रवावसत्कथारतिर कुमार्गगामिनी मतिः॥61॥

 भॊजन अवस्था मॆं हॊ तॊ जातक हमॆशा संधियॊं मॆं वॆदना, परस्त्री सॆ द्रव्य की हानि, बल की हानि, असत्यभाषी, शिर मॆं पीडा, व्यर्थ अन्न और  

भॊजन करनॆ वाला, व्यर्थ बकवाद करनॆ वाला, कुमार्गगामी हॊता है॥61॥ । . .. विज्ञलॊकैः सदा मण्डितः पण्डितः काव्यविद्यानवद्यप्रलापान्वितः।

राजपूज्यॊ धरामण्डलॆ सर्वदा नृत्यलिप्सागतॆ पमिनीनायकॆ॥62॥ . नृत्यलिप्सा मॆं हॊ तॊ सदा विज्ञजनॊं सॆ आवृत, पंडित, काव्य करनॆ वाला, राजा सॆ पूज्य हॊता है॥62॥।

ग्रहाणामघयाध्यायः

783 सर्वदानन्दधर्ताजनॊ ज्ञानवान्यज्ञकर्ता धराधीशसमस्थितः। ...। पद्मबन्धावरातॆर्भयं स्वाननः काव्यविद्याप्रलापी मुदा कौतुकॆ॥63॥ * कौतुक अवस्था मॆं हॊ तॊ सदा आनंद करनॆ वाला, ज्ञानी, यज्ञ करनॆ वाला, राजगृह मॆं रहनॆ वाला, शत्रु सॆ भयभीत, सुंदर मुख और  काव्य करनॆ वाला हॊता है॥63 ॥। निद्राभरारक्तनिभॆ भवॆतां निद्रागतॆ लॊचनपद्मयुग्मॆ। रवौ विदॆशॆ वसतिर्जनस्य कलत्रहानिः कतिधार्थनाशः॥64॥

निद्रा अवस्था मॆं हॊ तॊ निद्रा सॆ भरॆ नॆत्रॊं वाला, विदॆशी, स्त्री की हानि और  अनॆक प्रकार सॆ धन का नाशक हॊता है॥64॥

अथ चन्द्रावस्थाफलम्जनुःकालॆ क्षपानाथॆ, शयनं चॆदुपागतॆ। मानी शीतप्रधानश्च कामी वित्तविनाशकः॥65॥ यदि चंद्रमा शयन अवस्था मॆं हॊ तॊ उसकी दशा मॆं जातक मानी, शीतल स्वभाव, कामी और  धन का नाश करनॆ वाला हॊता है॥65 ॥ रॊगार्दितॊ मन्दमतिर्विशॆषाद्वित्तॆन हीनॊ मनुजः कठॊरः। अकार्यकारी परवित्तहारी क्षपाकरॆ चॆदुपवॆशनस्थॆ॥66॥

उपवॆशन अवस्था मॆं हॊ तॊ रॊगी, मंदबुद्धि, धनहीन, कठॊर, कुकर्म मॆं रत, दूसरॆ कॆ धन कॊ हरण करनॆ वाला हॊती है॥66॥ नॆत्रपाणौ क्षपानाथॆ महारॊगी नरॊ भवॆत।

। अनल्पजल्पकॊ धूर्तः कुकर्मनिरतः सदा॥67। नॆत्रपाणि अवस्था मॆं हॊ तॊ महारॊगी, व्यर्थ बॊलनॆ वाला, धूर्त और  कुकर्म करनॆ वाला हॊता है॥67॥। यदा राकानाथॆ गतवति विकाशं च जननॆ

विकाराः संसारॆ विमलगुणराशॆरवनिपात। नवाशामाला स्यात्करितुरगलक्ष्म्या परिवृता ।

विभूषा यॊषाभिः सुखमनुदिनं तीर्थगमनम॥68॥ । यदि प्रकाश अवस्था मॆं हॊ तॊ संसार मॆं प्रसिद्ध, अपनॆ गुणॊं सॆ राजा सॆ द्रव्य प्राप्त करनॆ वाला, हाथी, घॊडा, लक्ष्मी सॆ युक्त, स्त्री सॆ सुखी और  तीर्थयात्री हॊता है॥68॥


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । सितॆतरॆ पापरतॊ निशाकरॆ विशॆषतः क्रूरतरॊ नरॊ भवॆत।

सदाक्षिरॊगैः परिपीड्यमानॊ बलक्षपक्षॆ गमनॆ भयातुरः॥69।

. ’यदि चंद्रमा कृष्णपक्ष मॆं गमन अवस्था मॆं हॊ तॊ पापी और  क्रूर । स्वभाव का, नॆत्ररॊगी और  शुक्लपक्ष मॆं भयभीत हॊता है॥69॥

विधावागमनॆ मानी पादरॊगी नरॊ भवॆत॥ ... गुप्तपापरतॊ दॊनॊ. मतितॊषविवर्जितः॥70॥ ।... आगमन अवस्था मॆं हॊ तॊ मानी, चरण मॆं रॊग युक्त, गुप्त पाप करनॆ

वाला दीन, मलिन और  असंतॊषी हॊता है॥70॥ । सकलजनवदान्यॊ राजराजॆन्द्रमान्यॊ ।

....रतिपतिसमकान्तिः शान्तिकृत्कामिनीनाम। सपदि सदसि यातॆ चारुबिम्बॆ शशाकॆ . .." भवति परमरीतिप्रीतिविज्ञॊ गुणज्ञः॥71॥ ।... सभावस्था मॆं हॊं तॊ सभी मनुष्यॊं मॆं श्रॆष्ठ, राजा‌ऒं का मान्य, कामदॆव

कॆ समान सुंदर, स्त्रियॊं कॊ सुखदाता, प्रीति कॆ रीति कॊ जाननॆवाला हॊता है॥71॥

विधावागमनॆ मर्यॊ वाचालॊ धर्मपूरितः।

कृष्णपक्षॆ द्विभार्यः स्याद्रॊ दुष्टनरॊ हठी॥72॥ .. - आम्रमन अवस्था मॆं हॊ तॊ वक्ता, धर्मात्मा, कृष्णपक्ष हॊ तॊ दॊ स्त्री वाला,

रॊगी, दुष्ट और  हठी हॊता है॥72॥॥ भॊजनॆ जनुधि पूर्णचन्द्रमा मानयानजनतासुखं नृणाम। ।

आतनॊति वनितासुतासुखं सर्वमॆव न सितॆतरॆ शुभम॥73॥ . भॊजन अवस्था मॆं हॊ तॊ मान-प्रतिष्ठा, सवारी और  सुख सॆ संपन्न, स्त्री-पुत्र सॆ सुखी हॊता है। कृष्णपक्ष का चन्द्रमा हॊ तॊ उक्त फल नहीं हॊता है॥73॥

नृत्यलिप्सागतॆ चन्द्रॆ सबलॆ बलवान्नरः। गीतज्ञॊ हि रसज्ञश्च कृष्णॊ पापकरॊ भवॆत॥74॥ नृत्यलिप्सा अवस्था मॆं हॊ और  चन्द्रमा शुक्लपक्ष का हॊ तॊ बलवान, गीतज्ञ, रसज्ञ हॊता है और  कृष्णपक्ष का हॊ तॊ पापी हॊता है॥74॥ कौतुकभवनं गतवति चन्द्रॆ भवति नृपत्वं वा धनपत्वम। कामकलासु संदा कुशलत्वं वारवधूरतिरमणपटुत्वम॥75॥

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ग्रहाणामवस्थाध्यायः .

284 कौतुक अवस्था मॆं हॊ तॊ रांजा वा धनी, कामकला मॆं कुशल और  स्त्रियॊं का प्रॆमी हॊता है॥75॥ निद्रागतॆ जन्मनि मानवानां कलाधरॆ जीवयुतं महत्त्वम।

यदाङ्गनासञ्चितवित्तनाशः शिवालयॆ रौति विचित्रमुच्चैः॥76॥

निद्रा अवस्था मॆं हॊ, गुरु सॆ युत हॊ तॊ प्रतिष्ठावान हॊता है। गुरु सॆ युत न हॊ, चन्द्रमा क्षीण हॊ तॊ स्त्री और  संचित धन का नाश और  सियारिन उसकॆ घर मॆं उच्च स्वर सॆ रॊती है॥76॥

- अथ भौमावस्थाफलम्शयनॆ वसुधापुत्रॆ जन्तुर व्रणॊ भवॆत। बहुना कण्डुनी युक्तॊ दद्भुणा च विशॆषतः॥77॥ शयन अवस्था मॆं भौम हॊ तॊ जातक कॆ शरीर मॆं बहुधा व्रण, खुजली और  दाद सॆ पीडित रहता है॥77॥ बली सदा पापरतॊ नरः स्यादसत्यवादी नितरां प्रगल्भः।

धनॆन पूर्णा निजधर्महीनॊ धरासुतश्चॆदुपवॆशनस्थः॥78॥ . उपवॆशन अवस्था मॆं हॊ तॊ पापरत, असत्यभाषी, प्रगल्भ, धन सॆ पूर्ण

और  अपनॆ धर्म सॆ हीन हॊता है॥781॥ । - यदा भूमिसुतॊ लग्नॆ नॆत्रपाणिमुपागतः। ।

दरिद्रता सदा पुंसामन्यभॆ नंगरॆशता॥79॥ । यदि नॆत्रपाणि अवस्था मॆं लग्न मॆं हॊ तॊ सदा दरिद्र, अन्यभाव मॆं हॊ

तॊ नगरसॆठ हॊता है॥79 ॥ प्रकाशॊ गुणस्यापि वासः प्रकाशॆ

। धराधीशभर्तुः सदा मानवृद्धिः।.. सुतॆ भूसुतॆ पुत्रकान्तावियॊगॊ ..

भवॆद्राहुणा दारुणॊ वा निपातः ॥80॥, । प्रकाशावस्था मॆं हॊ तॊ गुणॊं का विकास, राजा सॆ सम्मान, यदि पाँचवॆं

भाव मॆं भौम हॊ तॊ पुत्र-स्त्री का वियॊग, राहु सॆ युक्त हॊ तॊ घॊर पतन। हॊता है॥80॥ गमनागमनॆ कुरुतॆऽनुदिनं व्रणजालभयं वनिताकलहः। बहुदद्रुककण्डुभयं बहुधा वसुधातनयॊ वसुहानिकः॥81॥

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम गमन अवस्था मॆं हॊ तॊं सदा यात्रा करनॆ वाला, व्रणभय, स्त्री सॆ कलह, दाद, खुजली का भय और  धन की हानि हॊती है॥81 ॥

आगमनॆ गुणशाली मणिमाली वा करालकरवाली। गजगता रिपुहन्तां परिजनसन्तापहारकॊ भौमॆ॥8॥

आगमन अवस्था मॆं हॊ तॊ गुणी, मणियॊं की माला धारण करनॆ वाला, भीषण तलवार सॆ युक्त, हाथी पर चलनॆ वाला, शत्रुनाशक, अपनॆ परिजनॊं कॆ संताप कॊ हरनॆ वाला हॊता है॥82॥। तुङ्गॆ युद्धकलाकलापकुशलॊ धर्मध्वजॊ वित्तपः । कॊणॆ भूमिसुतॆ सभामुपगतॆ विद्याविहीनः पुमान ।

अन्तॆऽपत्यकलत्रमित्ररहितः प्रॊक्तॆतरस्थानगॆ

ऽवश्यं राजसभाबुधॊ बहुधनी मानी च दानी जनः॥83॥

अपनी उच्चराशि मॆं हॊकर सभा अवस्था मॆं हॊ तॊ युद्धकला मॆं निपुण, धर्मध्वनी, धनी हॊता है। यदि 5-9 भाव मॆं हॊ तॊ विद्या सॆ रहित हॊता है। 12वॆं भाव मॆं हॊ तॊ पुत्र, स्त्री और  मित्र सॆ रहित हॊता है। इनसॆ भिन्न स्थानॊं मॆं हॊ तॊ, राजसभा का पंडित, बडी धनी, मानी और  दानी हॊता है॥83॥

आगमॆ भवति भूमिजॆ जनॊ धर्मकर्मरहितॊ गदातुरः। कर्णशूलगुरुशूलरॊगवानॆव कातरमतिः कुसङ्गमी॥84॥ । आगम अवस्था मॆं भौम हॊ तॊ जातक धर्म-कर्म सॆ हीन, रॊगी, कान

कॆ दर्द ऎवं बडॆ शूलरॊग सॆ पीडित, कातरबुद्धि और  दुष्टॊं की संगति करनॆ । वाला हॊता है॥84॥ । ।

। भॊजनॆ मिष्टभॊजी च जननॆ सबल कुजॆ। । नीचकर्मकरॊ नित्यं मनुजॊ मानवर्जितः॥85॥

भॊजन अवस्था मॆं हॊ तॊ मिठा‌ई खानॆवाला, नीचकर्म करनॆ वाला और  अप्रतिष्ठितं हॊता है॥85॥ . नृत्यलिप्सागतॆ भूसुतॆ जन्मिनामिन्दिराराशिरायाति भूमीपतॆः। स्वर्णरत्नप्रवालैः सदामण्डितावासशाला नराणां भवॆत्सर्वदा॥86॥ - नृत्यलिप्सा अवस्था मॆं हॊ तॊ राजा कॆ यहाँ सॆ लक्ष्मी की प्राप्ति, सदा सुवर्ण, रत्व, मूंगा आदि सॆ युक्त गृह वाला हॊता है॥86॥

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मवस्याध्यायः

कौतुकी भवति कौतुकॆ कुजॆ मित्रपुत्रपरिपूरितॊ जनः। उच्चगॆ नृपतिरॊहमण्डितः पूजितॊ गुणवरैर्गुणाकरैः।87॥

कौतुक अवस्था मॆं हॊ तॊ कौतुक करनॆ वाला, मित्र, पुत्र सॆ परिपूर्ण, यदि उच्च मॆं भौम हॊ तॊ राजगृह और  गुणियॊं सॆ पूजित हॊता है॥87॥

. निद्रावस्थां गतॆ भौमॆ क्रॊधी धीधनवर्जितः।

धूर्ती धर्मपरिभ्रष्टॊ मनुष्यॊ गदपीडितः॥88॥ निद्रा अवस्था मॆं भौम हॊ तॊ क्रॊधी, बुद्धि-धन सॆ हीन, धूर्त, धर्म सॆ भ्रष्ट और  रॊगी हॊता है॥88॥।

। अथ बुधावस्थाफलम्क्षुधातुरॊ भवॆदगॆ खजॊ गुञ्जानिभॆक्षणः। अन्यभॆ लम्पटॊ धूतॊ मनुजः शयनॆ बुधॆ॥89॥ बुध शयन अवस्था मॆं हॊकर लग्न मॆं हॊ तॊ भूखा, चलनॆ मॆं असमर्थ, गुंजा कॆ समान (लाल) नॆत्रवाला हॊता है। अन्य भावॊं मॆं हॊ तॊ लंपट, धूर्त हॊता है॥89॥।

शशाङ्कपुत्रॆ जनुरङ्गगॆहॆ यदॊपवॆशॆ गुणराशिपूर्णः। पापॆक्षितॆ पापयुतॆ दरिद्रॊहितॆ शुभॆ वित्तसुखी मनुष्यः॥90॥ उपवॆशन अवस्था मॆं बुध लग्न मॆं हॊ तॊ गुणी, पापग्रह सॆ युत-दृष्ट हॊ। तॊ दरिद्र, शुभग्रह वा मित्र सॆ युत-दृष्ट हॊ तॊ धनी हॊता है॥90 ॥ विद्याविवॆकरहितॊ हिततॊषहीनॊ

मानी जनॊ भवति चन्द्रसुतॆऽक्षिपाणौ। प्रजालयॆ सुतकलत्रसुखॆन हीनः

कन्याप्रजा नृपतिगॆहबुधॊ वरार्थः॥91॥ । नॆत्रपाणि अवस्था मॆं हॊ तॊ विद्या-विवॆक सॆ रहित, मित्रतारहित, अभिमानी, 5वॆं भाव मॆं बुध हॊ तॊ स्त्री-पुत्र कॆ सुख सॆ रहित, कन्या संततिवाला, राजा सॆ धन प्राप्त करनॆ वाला हॊता है॥91॥ दाता दयालुः खलु पुण्यकर्ता विकाशनॆ चन्द्रसुतॆ मनुष्यः। । अनॆकविद्यार्णवपारगन्ता विवॆकपूर्णः खलवर्गहन्ता॥9॥

प्रकाश अवस्था मॆं हॊ तॊ दानी, दयालु, पुण्यात्मा, अनॆक विद्या‌ऒं कॊ जाननॆ वाला, विवॆकी और  दुष्टॊं का दमन करनॆ वाला हॊता है॥12॥

- ळॆश ळ्ळीश

। 248

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ’गमनागमनॆ भवतॊ गमनॆ बहुधा वसुधाधिपतॆर्भवनॆ।

भवनं च विचित्रमलं रमया विदिनुश्चजनुः समयॆ नितराम॥93॥ . गमन अवस्था मॆं हॊ तॊ राजगृह मॆं जानॆ वाला, लक्ष्मी सॆ पूर्ण गृहवाला

हॊता है। यही फल आगमन अवस्था का भी हॊता है॥93॥ सपदि विदिजनानामुच्चगॆ जन्मकालॆ

। सदसि धनसमृद्धिः सर्वदा पुण्यवृद्धिः। * धनपतिसमता वा भूपता मन्त्रिता वा ।

। हरिहरपदभक्तिः सात्त्विकी मुक्तिलब्धिः॥94 ॥

सभा अवस्था मॆं हॊ तॊ धनी, पुण्यकर्ता, उच्चराशि मॆं हॊ तॊ बहुत धनी, राजा का मंत्री तथा ईश्वर का भक्त और  अंत मॆं मुक्ति पानॆवाला हॊता है॥94॥।

आगमॆ जनुषि जन्मिनां यदा चन्द्रजॆ भवति हीनसॆवया। अर्थसिद्धिरपि पुत्रयुग्मता बालिका भवति मानदायिका॥95॥ । आगमन अवस्था मॆं हॊ तॊ नीच सॆवा सॆ धन प्राप्त करनॆ वाला, दॊ.’ पुत्र और  ऎक कन्या प्रतिष्ठा कॊ दॆनॆवाली हॊती है॥95॥ . भॊजनॆ चन्द्रजॆ जन्मकालॆ यदा जन्मिनामर्थहानिः संदा वादतः। राजभीत्या कृशत्वं चलत्वं मतॆरङ्गसङ्गॊ न जाया न मायासुखम ॥

भॊजन अवस्था मॆं हॊ तॊ वाद-विवाद (मुकदमॆ मॆं) मॆं द्रव्य की हानि, । राजभय, कृशता, मन की अस्थिरता, शरीर, स्त्री तथा धन का सुख नहीं ।

. हॊता है॥96॥। । : नृत्यलिप्सागतॆ चन्द्रजॆ मानव मानयानप्रवालव्रजैः संयुतः।

- मित्रपुत्रप्रतापैः सभापण्डितः पापभॆ वारवामारतॊ लम्पटः॥97॥

नृत्यलिप्सा अवस्था मॆं हॊ तॊ मान, वाहन, रत्न, मित्र, पुत्र और  प्रताप सॆ युक्त हॊता है। पापराशि मॆं हॊ तॊ वॆश्याप्रॆमी और  लम्पट हॊता है॥97 ॥। कौतुकॆ चन्द्रजॆ जन्मकालॆ नृणामङ्गभॆ गीतविद्याऽनवद्या भवॆत॥ सप्तमॆ नैधनॆ वारवध्वा रतिः पुण्यभॆ पुण्ययुक्ता मतिः सद्गतिः॥ - कौतुकावस्था मॆं हॊकर लग्न मॆं हॊ तॊ गीतविद्या का पंडित, सातवॆं

आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ वॆश्यागामी, 9वॆं भाव मॆं हॊ तॊ पुण्यवान बुद्धि हॊती है॥98॥

.


ग्रहाणामवस्थाध्यायः निद्राश्रितॆ चन्द्रसुतॆ ननिद्रासुखं सदा व्याधिसमाधियॊगः। सहॊत्यवैकल्यमनल्पतापॊ निजॆन वादॊ धनमाननाशः॥99॥ । निद्रावस्था मॆं हॊ तॊ निद्रा सॆ सुख, आधि-व्याधि सॆ पीडित, सहॊदर सॆ हीन, अधिक संताप, अपनॆ कुटुंब सॆ विवाद और  धन का नाश हॊता है॥99॥

अथ गुरॊरवस्थाफलम्वचसामधिपॆ तु जनुःसमयॆ शयनॆ बलवानपि हीनरवः।

अतिगौरतनुः खलु दीर्घहनुः सुतरामरिभीतियुतॊ मनुजः॥100॥।

यदि जन्मसमय मॆं गुरु शयनावस्था मॆं हॊ तॊ बलवान हॊतॆ हु‌ऎ भी। जातक हीन शब्द (मंदस्वर), अत्यंत गौरवर्ण, लंबी दाढीवाला और  निरंतर शत्रु कॆ भय सॆ युक्त हॊता है॥100॥। उपवॆशं गतवति यदि जीवॆ वाचालॊ बहुगर्वपरीतः॥ क्षॊणीपतिरिपुजनपरितप्तः करजधास्यपदव्रणयुक्तः॥101॥

उपवॆशन अवस्था मॆं हॊ तॊ वक्ता, अत्यंत गर्वीला, राजा और  शत्रु सॆ संताप पानॆवाला, हाथ, जंघा, मुख और  पैर मॆं घाव सॆ युक्त हॊता है॥101॥ . नॆत्रपाणि गतॆ दॆवराजार्चितॆ रॊगयुक्तॊ वियुक्तॊ वरार्थश्रिया। गीतनृत्यप्रियः कामुकः सर्वदा गौरवर्णॊ विवर्णॊद्भवप्रीतियुक॥

नॆत्रपाणि अवस्था मॆं हॊ तॊ रॊगी, धन सॆ हीन, गानॆ-नाचनॆ का प्रॆमी, कामी, गौरवर्ण, विजातियॊं सॆ प्रॆम करनॆ वाला हॊता है॥102॥ गुणानामानन्द विमलसुखकन्दं वितनुतॆ

सदा तॆजःपुजं व्रजपतिनिकुञ्ज प्रतिगमम। प्रकाशं चॆदुच्चॆ द्रुतमुपगतॊ. वासवगुरु

। गुरुत्वं लॊकानां धनपतिसमत्वं तनुभृताम॥103॥ । प्रकाश अवस्था मॆं हॊ तॊ गुणॊं का आनंद, स्वच्छ सुख कॆ समूहॊं कॊ आनंद, तॆजस्वी कृष्णचंद्र कॆ स्थान (वृन्दावन) कॊ जानॆं कॊ उद्यत, यदि गुरु उच्चराशि कॊ हॊ संसार मॆं मान्यता और  कुबॆर कॆ समान धनी हॊता है॥103॥। साहसी भवति मानवः सदा मित्रवर्गसुखपूरितॊ सदा। पण्डितॊ विविधवित्तमण्डितॊ वॆदविद्यादि गुरौ गमं गतॆ ॥104॥

--- ळी

140

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम यदि गमनौवस्था मॆं हॊं तॊ साहसी,मित्रवर्ग कॆ सुख सॆ पूर्ण, पंडित, अनॆक सम्पत्तियॊं सॆ युक्त और  वॆद कॊ जाननॆ वाला हॊता है॥104॥ आगमनॆ जनता वरंजाया यस्य जनुःसमयॆ हरिमाया। मुञ्चति नालमहालयमद्धा दॆवगुरौ परितः परिविद्धा॥105॥

आगमन अवस्था मॆं हॊ तॊ उसकॆ गृह मॆं जनता, सुंदरी स्त्री और  लक्ष्मी (धन) सदा उपस्थित रहता है॥105॥ सुरगुरुसमवक्ता शुभ्रयुक्ता फलाढ्यः

सदसि सपदि पूर्णॊ वित्तमाणिक्ययानैः। गजतुरगरथाढ्यॊ दॆवताधीशपूज्यॊ

जनुषि विविधविद्यागवितॊ मानवः स्यात ॥106॥ सभावस्था मॆं हॊ तॊ बृहस्पति कॆ समान वक्ता, सुंदर मॊतियॊं सॆ युक्त, धन, रत्न, हाथी, घॊडा, रथ आदि सवारियॊं सॆ युक्त, इन्द्र सॆ पूज्य ,

और  अनॆक विद्या‌ऒं कॊ जाननॆ वाला गर्वयुक्त हॊता है। इ106॥ नानावाहनमानयानपटलीसौख्यं गुरावागमॆ- .

। भृत्यापत्यकलत्रमित्रजसुखं विद्यानवद्या भवॆत। क्षॊणीपालसमानतानवरतं चातीव हृद्या मतिः

काव्यानन्दरतिः सदा हितगतिः सर्वत्र मानॊन्नतिः॥107॥

आगमन अवस्था मॆं हॊ तॊ संसार मॆं मान-प्रतिष्ठा सॆ युक्त, अनॆक वाहन-समूह सॆ युक्त, नौकर, पुत्र, स्त्री, मित्र का सुख, उत्तम विद्या, राजा कॆ समान, अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धिवाला, काव्यप्रॆमी, अच्छॆ मार्ग सॆ चलनॆ वाला और  मान-मर्यादा वाला हॊता है॥107॥। भॊजनॆ भवति दॆवगुरौ यस्य तस्यॆ सततं सुभॊजनम॥ नैव मुञ्चति रमालयं तदा वाजिवारणरथैश्च मण्डितम॥108॥ । भॊजनावस्था मॆं हॊ तॊ उसॆ निरंतर सुंदर भॊजन मिलता है, कभी भी

 धन उसका साथ नहीं छॊडता है। हमॆशा घॊडा, हाथी, रॆथ आदि सवारियॊं सॆ घिरा रहता है॥108॥। नृत्यलिप्सागतॆ राजमानी धनी दॆवताधीशवन्द्यः सदा धर्मवित। । तन्त्रविज्ञॊ बुधैर्मण्डितः पण्डितः शब्दविद्यानवद्यॊ हि सद्यॊ जनः॥ । नृत्यलिप्सा अवस्था मॆं हॊ तॊ राजा सॆ मान्य, धनी, धर्म कॊ जाननॆ वाला, तंत्रविद्या कॊ जाननॆ वाला, पंडितॊं सॆ घिरा हु‌आ श्रॆष्ठ पंडित और  शब्दशास्त्र (व्याकरण) का पंडित हॊता है॥109॥

.:

248

ग्रहाणामवस्थाध्यायः

.248 कुतूहली सकौतुकॆ महाधनी जनः सदा

निजान्वयॆ च भास्करः कृपाकलाधरः सुखी। निलिम्पराजपूजितॆ सुतॆन भूनयॆन वा ।

युतॊ महाबली धराधिपॆन्द्रसद्मपण्डितः॥110॥ कौतुक अवस्था मॆं हॊ तॊ कुतूहली, महाधनी, अपनॆ घर मॆं सूर्य कॆ समान तॆजस्वी, कृपालु, सुखी, पुत्र, भूमि सॆ युक्त और  नीतिमान, महाबली और  राजपंडित हॊता है॥110॥

गुरौ निद्रागतॆ यस्य मूर्खता सर्वकर्मणि। दरिद्रतापरिक्रान्तं भवनं पुण्यवर्जितम॥111॥ निद्रावस्था मॆं हॊ तॊ वह सभी कर्मॊं मॆं मूर्खता करनॆ वाला, दरिद्रता सॆ युक्त और  पुण्यहीन हॊता है॥111 ॥।

अथ भृगॊरवस्थाफलम।, जनॊ बलीयानपि दन्तरॊगी भृगौमहारॊषसमन्वितः स्यात।

धनॆन हीनं शयनः प्रयातॆ वराङ्गनासङ्गमलम्पटश्च॥112॥ । यदि जन्मसमय शुक्र शयन अवस्था मॆं हॊ तॊ जातक बलवान हॊतॆ हु‌ऎ भी दंतरॊगी, महाक्रॊधी, निर्धन और  स्त्रीलंपट हॊता है॥112॥ यदि भवॆदुशना उपवॆशनॆ नवमणिव्रजकाञ्चनभूषणैः। सुखमजस्रमरिक्षय आदरादवनिपादपि मानसमुन्नतिः॥113॥

उपवॆशन अवस्था मॆं हॊ तॊ नूतन मणि, सुवर्ण कॆ आभूषणॊं सॆ सुखी, शत्रु‌ऒं का नाश करनॆ वाला, राजा सॆ आदर और  प्रतिष्ठा मॆं वृद्धि वाला हॊता है॥113॥ नॆत्रपाणि गतॆ लग्नगॆहॆ कवौ सप्तमॆ मानभॆ यस्य तस्य ध्रुवम। नॆत्रपातॆ निपातॊ धनानामलॆ चान्यभॆ वासशाला विशाला भवॆत॥

नॆत्रपाणि अवस्था मॆं शुक्र लग्न, सप्तम वा दशम भाव मॆं हॊ तॊ

 नॆत्रहीनता कॆ कारण धन का नाश हॊता है व अन्य भाव मॆं हॊ तॊ बडा

मकान हॊता है॥114॥ स्वालयॆ तुङ्गभॆ मित्रभॆ भार्गवॆ तुङ्गमातङ्गलीलाकलापीजनः। . भूपतॆस्तुल्य ऎव प्रकाशं गतॆ काव्यविद्याकलाकौतुकी गीतवित॥

-

--

252 ... बृहत्पाराशरहॊराशस्वम . प्रकाश अवस्था मॆं हॊ और  अपनॆ उच्च, स्वगृह वा मित्रगृह मॆं हॊ तॊ मतवालॆ हाथी कॆ समान बलवान, राजा कॆ सदृश धनी, सुखी, काव्य

और  संगीत मॆं पारंगत हॊता है॥115॥ । गमनॆ जननॆ शुक्रॆ तस्य माता न जीवति। । आधियॊगॊवियॊगश्च जनानामरिभीतितः॥116॥

‘गमन अवस्था मॆं हॊ तॊ माता नहीं जीती है, मानसिक चिन्ता, बंधु‌ऒं का वियॊग और  शत्रु सॆ भय हॊता है॥116॥ ।

आगमनं भृगुपुत्रॆ गतवति वित्तॆश्वरॊ मनुजः। . सत्तीर्थभ्रमशाली नित्यॊत्साही करांघ्रिरॊगीच॥117॥ * आगमन अवस्था मॆं हॊ तॊ महाधनी, तीर्थयात्री, उत्साही और  हाथ

पैर कॆ रॊग सॆ युक्त हॊता है॥117॥ अनायासॆनालॆ सपदि महसा याति सहसा

प्रगल्भत्वं राज्ञः सदसि गुणविज्ञः किल कवौ। सभायामायातॆ रिपुनिवहहन्ता धनपतॆः

... समत्वं वा दाता बलतुरगगन्ता नरवरः॥118॥ संभावस्था मॆं हॊ तॊ अनायास ही अपनॆ ही प्रताप सॆ राजदरबार मॆं

प्रगल्भता हॊती है। स्वयं गुणी, शत्रु का नाश करनॆ वाला, महाधनी दाता और  हाथी तथा घॊडॆ की सवारी परं चलनॆवाला हॊता है॥118॥ आगमॆ भार्गवॆ नागमॊ जन्मिनामर्थराशॆररातॆरतीव क्षतिः॥ पुत्रपातॊ निपातॊ जनानामपि व्याधिभीतिः प्रियाभॊगहानिर्भवॆत॥ । आगमन अवस्था मॆं हॊ तॊ शत्रु द्वारा धन की अधिक हानि, पुत्र, परिजनॊं

का वियॊग, रॊग का भय और  स्त्री कॆ सुख की हानि हॊती है॥119॥।

क्षुधातुरॊ व्याधिनिपीडितः स्यादनॆकधारातिभयार्दितश्च। ... कवौ यदा भॊजनगॆ युवत्या महाधनॊ पण्डितमण्डितश्च॥120॥

भॊजन अवस्था मॆं हॊ तॊ भूख सॆ व्याकुल, रॊग सॆ पीडित और  बारम्बार शत्रु सॆ पीडित हॊता है॥120 ॥ काव्यविद्यानवद्या च हृद्या मतिः सर्वदा नृत्यलिप्सागतॆ भार्गवॆ॥ शङ्खवणामृदङ्गादिगानध्वनिव्रातनैपुण्यमॆतस्य वित्तॊन्नतिः॥

ग्रहाणामवस्थाध्यायः ।

743 नृत्यलिप्सा अवस्था मॆं हॊ तॊ काव्य करनॆ वाला, बुद्धिमान, वीणा, मृदंग आदि बाजॊं कॊ बनानॆ मॆं चतुर और  धन की उन्नति करनॆ वाला हॊता है॥121॥। कौतुकभवनं गतवति शुक्रॆ शक्रॆशत्वं सदसि महत्त्वम। हृद्या विद्या भवति च पुंसः पद्मा निवसति समादरतः॥122॥

कौतुक अवस्था मॆं हॊ तॊ इन्द्र कॆ समान पराक्रमी, सभा मॆं चतुर, उत्तम विद्या और  गृह मॆं सदा लक्ष्मी कॆ वास वाला हॊता है॥122॥

। परसॆवारतॊ नित्यं निद्रामुपगतॆ कवौ॥

परनिन्दापरॊ वीरॊ वाचालॊ भ्रमतॆ महीम॥123॥ यदि निद्रावस्था मॆं हॊ तॊ दूसरॆ की सॆवा करनॆ वाला, दूसरॆ की निंदा करनॆ वाला; व्यर्थ बॊलनॆवाला और  व्यर्थ घूमनॆ वाला हॊता है॥123 ॥।

अथ शनॆरवस्थाफलम्क्षुत्पिपासापरिक्रान्तॊ विश्रान्तः शयनॆशनौ। वयसि प्रथमॆ रॊगी ततॊ भाग्यवतां वरः॥124॥ यदि शनि शयनावस्था मॆं हॊ तॊ जातक बाल्यकाल मॆं रॊगी, भूख-प्यास सॆ पीडित रहता है, परन्तु वृद्धावस्था मॆं भाग्यवान हॊता है॥124॥ भानॊः सुतॆ चॆदुपवॆशनस्थॆ करालकारातिजनानुतप्तः। अपायशाली खलु दद्माली नराऽभिमानी नृपदण्डयुक्तः॥125॥

उपवॆशन अवस्था मॆं हॊ तॊ प्रबल शत्रु द्वारा पीडित, व्यर्थ अपव्यय करनॆ वाला, दाद-खुजली रॊग वाला, अभिमानी और  राजदंड सॆ दंडित हॊता है॥125॥ नयनपाणिगतॆ नृपनन्दनॆ परमया रमया रमया युतः। नृपतितॊ हिततॊ मतितॊषकृबहुकलाकलितॊविमलॊक्तिकृत॥126॥ । नॆत्रपाणि अवस्था मॆं हॊ तॊ परम सुंदरी स्त्री और  संपत्ति सॆ युक्त, राजा

और  मित्रॊं सॆ उपकृत, अनॆक कला‌ऒं का ज्ञाता और  प्रिय बॊलनॆ वाला हॊता है॥126॥। नानागुणग्रामधनाधिशाली सदां नरॊ बुद्धिविनॊदमाली। प्रकाशनॆ भानुसुतॆ सुभानुः कृपानुरक्तॊ हरपादभक्तः॥127॥ । प्रकाश अवस्था मॆं हॊ तॊ अनॆक गुण-ग्राम-धन सॆ युक्त, बुद्धिमान,

254 . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम कृपालु और  ईश्वरभक्त हॊता है॥127॥ महाधन नन्दननन्दितः स्यादपायकारी रिपुभूमिहारी। गमॆ शनौ पण्डितराजभावं धरापतॆरायतनॆ प्रयाति॥120 । गमन अवस्था मॆं हॊ तॊ महाधनी, पुत्र सॆ युक्त, खर्चीला, शत्रु

भूमि कॊ लॆनॆ वाला, राजा का पंडित हॊता है॥128॥ आगमनॆ पदगर्दभयुक्तः पुत्रकलत्रसुखॆन विमुक्तः। भानुसुतॆ भ्रमतॆ भुवि नित्यं दीनमना विजनाश्रयभावम ॥126 । आगमन अवस्था मॆं हॊ तॊ स्थान का भय, रॊगभय, पुत्र, स्त्री कॆ सॆ

सॆ रहित, दीन स्थिति मॆं निरंतर घूमनॆ वाला हॊता है॥129॥ रत्नावलीकाञ्चनमौक्तिकानां व्रातॆन नित्यंव्रजति प्रमॊदम॥ सभागतॆ भानुसुतॆ नितान्तं नयॆन पूर्णॊ मनुजॊ महौजाः॥130॥ । सभा अवस्था मॆं हॊ तॊ रत्न-सुवर्ण-भुक्ता कॆ समूह सॆ नि

आनंदित, नीतियुक्त, महातॆजस्वी हॊता है॥130॥। आगमॆ गदसमागमॊ नृणामब्जबंन्धुतनयॆ यदा तदा। मन्दमॆव गमनं धरापतॆर्याचनाविरहिता मतिः सदा॥131॥ । आगमन अवस्था मॆं हॊ तॊ रॊग युक्त, मंदगति और  राजा सॆ लाभ पान

की बुद्धि सॆ हीन हॊता है॥131॥ सङ्गतॆ जनुषि भानुनन्दनॆ भॊजनं भवति भॊजनं रसैः।

संयतं नयनमन्दतानना मॊहंतापपरितापिता मतिः॥132॥

भॊजन अवस्था मॆं हॊ तॊ सरस भॊजन का लाभ, नॆत्रज्यॊति मन्द और  माया-मॊह सॆ मन्द बुद्धि वाला हॊता है॥132॥। । नत्यलिप्सागतॆ मन्दॆ धर्मात्मा वित्तपूरितः। । राजपूज्यॊ नरॊ धीरॊ महावीरॊ रणागणॆ॥133॥

नृत्यलिप्सा अवस्था मॆं हॊं तॊ धर्मात्मा, मन सॆ पूर्ण, राजा सॆ पूज्य, धीर, महावीर हॊता है॥133 ॥

वति कौतुकभावमुपागतॆ रविसुतॆ वसुधावसुपूरितः।

सखी सुमुखी सुखपूरितः कवितयामलया कलया नरः॥ कौतक अवस्था मॆं हॊं तॊ भूमि, धन सॆ पूर्ण, अत्यंत सुखी, स्त्रीसुख । पर्ण और  कविता करनॆ वाला हॊता है॥।134॥

टगतॆ वासरनाथपुत्रॆ धनी सदा चारुगुणैरुपॆतः।

ग्रहाणामवस्थाध्यायः

344 पराक्रमी चण्डविपक्षहन्ता सुवारकान्तारतिरीतिविज्ञः॥135॥

निद्रा अवस्था मॆं हॊ तॊ धनी, सुंदर गुणॊं सॆ युक्त, पराक्रमी, दुष्टॊं का नाश करनॆ वाला और  वॆश्यागामी हॊता है॥135॥

। अथ राहॊरवस्थाफलम्यदागमॊ जन्मनि यस्य राह क्लॆशाधिकत्वं शयनं प्रयातॆ। वृषॆऽथ युग्मॆऽपि च कन्यकामजॆ समाजॊ धनधान्यराशॆः॥136॥

यदि राहु जन्मसमय मॆं शयन अवस्था मॆं हॊ तॊ जातक अधिक क्लॆश सॆ युक्त हॊता है। किन्तु वृष, मिथुन, कन्या या मॆष मॆं शयनॆ अवस्था मॆं हॊ तॊ धन-धान्य सॆ पूर्ण हॊता है॥136॥ उपवॆशनमिह गतवति राहौ दद्वगंदॆन जनः परितप्तः। राजसमाजयुतॊ बहुमानी वित्तसुखॆन सदा रहितः स्यात ॥137॥

उपवॆशन अवस्था मॆं हॊ तॊ दाद सॆ पीडित, सजा सॆ सम्मानित, अभिमानी, धनसुख सॆ हीन हॊता है॥137॥

नॆत्रपाणावगौ नॆत्रॆ भवतॊ रॊगपीडितॆ। दुष्टव्यालारिचौराणां भयं तस्य धनक्षयः॥138॥ नॆत्रपाणि अवस्था मॆं हॊ तॊ नॆत्ररॊग सॆ पीडित, दुष्ट सर्प, शत्रु और  चॊर कॆ भय सॆ मुक्त और  धन की हानि हॊती है॥138॥ प्रकाशनॆ शुभासनॆ स्थितिः कृतिः शुभा नृणां

। धनॊन्नतिर्गुणॊन्नतिः सदा विदामगाविह। धराधिपाधिकारिता यशॊलता तता भवॆ

। ब्रवीननीरदाकृतिविदॆशतॊ महॊन्नतिः॥139॥ प्रकाश अवस्था मॆं हॊ तॊ सुंदर स्थान, सुंदर यश, धन और  गुण की उन्नति, राजा सॆ अधिकार की प्राप्ति, नूतन मॆघ कॆ समान आकृति

और  विदॆश मॆं उन्नति पानॆ वाला हॊता है ॥139॥

गमनॆ च यदा राहौ बहुसन्तानवान्नरः। पण्डितॊ धनवान्दाता राजपूज्यॊ नरॊ भवॆत।140॥ गमन अवस्था मॆं राहु हॊ तॊ बहुत संतानवाला, पंडित, धनी, दाता, राजा सॆ पूज्य हॊता है॥140॥

राहावागमनॆ क्रॊधी सदा धीधनवर्जितः। कुटिलः कृपणः कामी नरॊ भवति सर्वथा॥141॥

246

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 बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम आगमन अवस्था मॆं हॊ तॊ क्रॊधी, बुद्धि तथा धन सॆ हीन, कुटिल, कृपण, कामी हॊता है॥141॥

। सभागतॊ यदा राहुः पंण्डितः कृपणॊ नरः।

नानागुणपरिक्रान्तॊ वित्तसौख्यसमन्वितः॥142॥

 सभा अवस्था मॆं राहु हॊ तॊ पंडित और  कपण, अनॆक गुणॊं सॆ युक्त, धनसुख सॆ युक्त हॊता है॥142॥। चॆदगावागमं यस्य यातॆ तदा व्याकलत्वं सदारातिभीत्या भयम॥ महदबन्धुवादॊ जनानां निपातॊ भवॆद्वित्तहानिः शठत्वं कृशत्वम॥

आगमन अवस्था मॆं हॊ तॊ हमॆशा शत्रुभय सॆ भयभीत और  व्याकुल, बंधु‌ऒं सॆ बडा विवाद और  पतन, धन की हानि, मूर्खता और  कृशता हॊती। है॥143॥

भॊजनॆ भॊजनॆनालॆ विकलॊ मनुजॊ भवॆत। मन्दबुद्धिः क्रियाभीरुः स्त्रीपुत्रसुखवर्जितः॥144॥ भॊजन अवस्था मॆं हॊ तॊ भॊजन कॆ बिना विकल, मन्दबुद्धि, कार्य मॆं आलसी, स्त्री-पुत्र कॆ सुख सॆ रहित हॊता है॥144॥ । नृत्यलिप्सागतॆ राहौ महाव्याधिविवर्धनम॥

नॆत्ररॊगी रिपॊर्दीतिर्धनधर्मक्षयॊ नृणाम ॥145॥

 नृत्यलिप्सा अवस्था मॆं हॊ तॊ महाव्याधि का भय, नॆत्र मॆं रॊग, शत्रुभय, धन-धर्म का नाश हॊता है॥145॥

कौतुकॆच यदा राहौ स्थानहीनॊ नरॊ भवॆत। परदाररतॊ नित्यं परवित्तापहारकः॥146॥ कौतुकावस्था मॆं हॊ तॊ स्थानहीन, परस्त्रीगामी और  परधन हरण करनॆ वाला हॊता है॥146॥।

. निद्रावस्थां गतॆ राहौ गुणग्रामयुतॊ नरः।

कान्तासन्तानवान्धीरॊ गर्वितॊ बहुवित्तवान॥147॥ . निद्रावस्था मॆं हॊ तॊ गुण-समूह सॆ युक्त, स्त्री-संतान सॆ युक्त, धीर, गर्वीला और  अधिक धनी हॊता है॥147॥

अथ कॆतॊरवस्थाफलम । मॆषॆ वृषॆऽथ युग्मॆ वा कन्यायां शयनं गतॆ। कॆतौ धनसमृद्धिः स्यादन्यभॆ रॊगवर्धनम॥148॥


ग्रहाणामवस्थाध्यायः : 249 । कॆतु शयनावस्था मॆं मॆष, वृष, मिथुन वा कन्या राशि मॆं हॊ तॊ जातक धनी हॊता है। अन्य राशि मॆं हॊ तॊ रॊग की वृद्धि हॊती है॥148॥।

उपवॆशं गतॆ कॆतॊ दद्वरॊगविवर्धनम। ।

अरिवातनृपव्यालचौरशङ्का समन्ततः॥149॥ उपवॆशनावस्था मॆं हॊ तॊ दादरॊग की वृद्धि, शत्रु-वायु-राज-सर्प-चॊर का भय हॊता है॥149॥।

नॆत्रपाणि गतॆ कॆतौ नॆत्ररॊगः प्रजायतॆ। दुष्टसर्पादिभीतिश्च रिपुराजकुलादपि॥150॥ नॆत्रपाणि अवस्था मॆं हॊ तॊ नॆत्र-रॊग, दुष्ट सर्प आदि का भय, शत्रु तथा राजकुल सॆ भी भय हॊता है॥150॥।

। कॆतौ प्रकाशनॆ संज्ञॆ धनवान्धार्मिकः सदा॥

नित्यं प्रवासी चॊत्साही सात्त्विकॊ राजसॆवकः॥151॥ प्रकाश अवस्था मॆं हॊ तॊ धनी, धार्मिक, नित्य परदॆशी, उत्साही, . सात्त्विक और  राजसॆवक हॊता है॥151॥।

गमॆच्छायां, भवॆत्कॆतुर्बहुपुत्रॊ महाधनः। पण्डितॊ गुणवान्दाता जायतॆ च नरॊत्तमः॥152॥ गमन अवस्था मॆं हॊ तॊ महाधनी, पंडित, गुणी, दाता हॊता है॥152॥

आगमॆ च यदा कॆतुर्नानारॊगॊ धनक्षयः। दन्तघाती महारॊगी पिशुनः परनिन्दकः॥153॥

आगमन अवस्था मॆं हॊ तॊ अनॆक रॊग हॊतॆ हैं, धन का नाश, दंतरॊग, महारॊग, कृपण, दूसरॆ की निंदा करनॆ वाला हॊता है॥153॥

सभावस्थां गतॆ कॆतौ वाचालॊ बहुगर्वितः। कृपणॊ लम्पटॆश्चैव धूर्त्तविद्याविशारदः॥154॥ संभावस्था मॆं हॊ तॊ वाचाल, गर्वीला, कृपण, लम्पट और  धूर्तविद्या । का पंडित हॊता है॥154॥ । ।

यदागमॆ भवॆत्कॆतुः कॆतुः स्यात्पापकर्मणाम।

बन्धुवादरतॊ दुष्टॊ रिपुरॊगनिपीडितः॥155॥ * आगम अवस्था मॆं कॆतु हॊ तॊ पापकर्म करनॆवालॊं मॆं श्रॆष्ठ, बंधु‌ऒं सॆ । विवादरत, दुष्ट और  शत्रु तथा रॊग सॆ पीडित हॊता है॥155 ॥


258 : बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम - भॊजनॆ तु नॊ नित्यं क्षुधया परिपीडितः। । दरिद्रॊ रॊगसन्तप्तः कॆतौ भ्रमति मॆदिनीम॥156॥ । मौलाना अवस्था मॆं सॆ तॊ भूख सॆ पीडित, दरिद्र, रॊग सॆ संतप्त ह्मौर घूमता है। [156॥

नृत्यलिप्सागतॆ कॆतॊ व्याधिना विकलॊ भवॆत। । 

बुद्दाकॊ दुराधर्षॊ धूर्ताऽनर्थकरॊ नरः॥157॥

नृत्यल्लिकाष्स्सा अवस्था मॆं हॊ तॊ व्याधि सॆ विकल, चकाचॊंध नॆत्रवाला, किसी कॆ वश मॆं न्न हॊनॆ वाला, धूर्त और  अनर्थकारी हॊता है॥157॥

कौतुक कौतुकॆ कॆतौ नटवामारतिप्रियः। स्थानभ्रष्टॊ दुराचारी दरिद्रॊ भ्रमतॆ महीम ॥158॥ कौतुक अवस्था मॆं सॆ तॊ वॆश्या आदि सॆ प्रॆम करनॆ वाला, स्थान‌ऋष्ट, दुराचारी और  दरिद्र हॊता है॥158॥।

निद्रावस्थां गतॆ कॆतौ धनधान्यसुखं महत॥ नानागुणविनॊदॆनकालॊ गच्छति जन्मिनाम॥159॥।

निद्रा अब्स्था मॆं हॊ तॊ धन-धान्य का बडा सुख हॊता है। अनॆक गुणॊं - - चर्चा मॆं सम्स्य व्यर्तीत करनॆ वाला हॊता है॥159॥

अथ ग्रहावस्थानुसारॆण भावफलम्शयनॆ वॆषु भावॆषु यस्य तिष्ठन्ति सद्ग्रहाः।

नित्यं तस्यज्ञानं निर्विशकं द्विजॊत्तम॥160॥ .. जन्म समय शायना अन्वस्था मॆं स्थित शुभ ग्रह जिन-जिन भावॊं मॆं हॊता

है लौ ऊन-ऊन मा कॆ फलॊं कॊ शुभकारक हॊता है॥160॥

भॊजनॆ यॆषु भावॆषु पापास्तिष्ठन्ति सर्वथा। बदा सर्वविनाशॊऽपि नात्र कार्या विचारणा॥161॥ ऎ मौलाना आस्था मॆं गया हु‌आ पापग्रह जिन भावॊं मॆं हॊता है उनकॆ फलॊं का नाश करता है॥161॥

निद्रायां च यदा पापॊ जायास्थानॆ शुभं वदॆत।

यदि पापग्रर्दृष्टॊ न शुभं च कदाचन॥162॥ यदि निद्रा अवस्था मॆं पापग्रह सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ शुभ फल, यदि प्फाष्पग्रहं सॆ दृष्ट हॊ तॊ अशुभ फल करता है॥163॥

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ग्रहाणामवस्थाध्यायः ।

748 सुतस्थानॆ स्थितः पापॊ निद्रायां शयनॆऽपिवा।

तदा शुभं भवॆत्तस्य नात्र कार्या विचारणा॥13॥ । पाँचवॆं भाव मॆं निद्रा या शयन अवस्था मॆं पापग्रह हॊ तॊ शुभ नहीं हॊता है॥163॥

मृत्युस्थानस्थितः पापॊ निद्रायां शयनॆऽपि वा। तदा तस्यापमृत्युः स्याद्वाजतः परतस्तथा॥184॥

आठवॆं स्थान मॆं पापग्रह निद्रा या शयन अवस्था मॆं हॊ तॊ उसकी अप्पमृत्यू राजा कॆ द्वारा या शत्रु कॆ द्वारा हॊती है॥164 1 ॥

शुभग्रहैर्यदा युक्तः शुभैर्वा यदि वीक्षिताः। तदा तु मरणं तस्य गङ्गायां च विशॆषतः॥165॥ यदि पापग्रह शुभग्रहॊं सॆ युक्त वा दृष्ट हॊ तॊ गंगा नदी मॆं मृत्यु हॊती . है॥165 ॥

कर्मस्थानॆ यदा पापः शयनॆ भॊजनॆऽपि वा। तदा कर्मविपाकः स्यान्नानादुखप्रदायकः॥166॥ कर्मभाव मॆं पापग्रह शयन या भॊजन अवस्था मॆं सॆ तनै कर्म सॆ अनॆक दुःख हॊतॆ हैं॥166॥

दशमस्थॊ निशानाथॊ कौतुकॆ च प्रकाशनॆ। तदैव राजयॊगः स्यान्निर्विशकं द्विजॊत्तम॥167॥ दशम स्थान मॆं चन्द्रमा कौतुक या प्रकाशन्न अवस्था मॆं हॊ तॊ राजयॊग हॊता है॥167 ॥।

बलाबलविचारॆण ज्ञायतॆ चॆ शुभाशुभम॥ ऎवं क्रमॆण बॊद्धव्यं सर्वभावॆषु बुद्धिमान ॥168॥ ग्रहॊं कॆ बल और  निर्बलता कॊ दॆखकर शुभ-अशुभ फल्न बॊ बुद्धिमान्नु कॊ जानना चाहि‌ऎ॥168॥

इति ग्रहाणामवस्थाध्यायः॥

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । आयुर्दायाध्यायः

। मैत्रॆय उवाच——

 दरिद्रधनयॊगौ च कथितौ प्राह्महामुनॆ॥

. नराणामायुषॊ ज्ञानं कथं जातं महामुनॆ!॥1॥ । मैत्रॆय नॆ कहा- हॆ मुनॆ! आपनॆ दरिद्र और  धन यॊग कॊ कहा। हॆ ।

महामुनॆ! मनुष्यॊं की आयु का ज्ञान कैसॆ हॊता है, इसॆ कहि‌ऎ॥1॥

, पराशर उवाच——। साधु पृष्टं त्वया विप्र! नराणां हितकाम्यया।

आयुर्ज्ञानं प्रवक्ष्यामि दुर्लभं यत सुरैरपि॥2॥ . पराशरजी नॆ कहा- हॆ विप्र ! मनुष्यॊं कॆ हित की कामना सॆ तुमनॆ बडा ही उत्तम प्रश्न किया है, अब मैं आयुष्य ज्ञान कॊ कहता हूँ, जॊ कि दॆवता‌ऒं कॊ भी दुर्लभ है॥2॥

। अंशायुसाधनम्समाह—ता ’भांशकलाविलिप्ता गजाभ्रचन्द्रग्रहपर्ययॆभ्यः। विकर्त्तनैः संविहतावशॆषॆऽब्दमासाद्यस्त्रादिकमायुरॆवम॥3॥

। ग्रहॊं की राशि अंश, कला, विकला कॊ 108 सॆ गुणा कर 12 सॆ भाग : दॆनॆ सॆ शॆष वर्ष, मास, दिन, घटी आदि ग्रह की आयु हॊती है॥3॥ हॊरादायॊध्यॆवमत्राधिवीर्यं लग्नं चॆद्राशितुल्यैस्तथाब्दकैः। । युक्तं शॆष भागपूर्वद्विनिघ्नं बाणैर्भक्तं मासपूर्वैर्युतं तत ॥4॥ । इसी प्रकार लग्न की भी आयु हॊती है, किन्तु लग्न अधिक बली हॊ तॊ लग्न राशि कॆ तुल्य वर्ष और  शॆष अंशादि कॊ 2 सॆ गुणाकर 5 सॆ भाग दॆनॆ सॆ मास आदि आयु हॊती है॥4॥

। अंशायुषि साधनॆ विशॆषःनीचॆऽस्तगॆऽर्द्धमरिभॆ त्रिलवं हरन्ति

। नास्तगतौ शनिसितौ व्ययतॊऽत्र वामम। सर्वार्धकत्रिकचतुर्थशरर्तुभागान ।

हरन्त्यशुभदाः शुभदास्तदर्घम ॥5॥ यदि ग्रह अपनी नीचराशि मॆं हॊ या अस्त हॊ तॊ आयु का आधा, शत्रु की राशि मॆं हॊ तॊ आयु का तीसरा भाग कम आयु दॆता है। किन्तु शनि,

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. #स्मिरिति-=: 5,0इरि-

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आयुर्दायाध्यायः

ऎफ शुक्र अस्त हॊतॆ हु‌ऎ भी आधा हानि नहीं करतॆ हैं। बारहवॆं भाव सॆ विलॊम संपूर्ण, आधा, तृतीयांश, चतुर्थांश, पंचमांश और  षष्ठांश पापग्रह अपनॆ आयु की हानि करतॆ हैं और  शुभग्रह इन्हीं भावॊं मॆं आधा हानि करतॆ हैं। अर्थात 12वॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं तॊ अपनॆ संपूर्ण आयु

का नाश, ग्यारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ आधा इत्यादि॥5॥

ऎकस्थानस्थिताश्चॆत्स्युर्दात्रयॊ गगनॆचराः। तदा बलयुतः खॆटॊ हरत्यकॆन चापरॆ ॥6॥ ऎक ही स्थान मॆं दॊ-तीन ग्रह बैठॆ हॊं तॊ उनमॆं जॊ बलवान हॊ उसी कॆ आयु का अपहरण हॊता है॥6॥ वर्गॊत्तमस्वक्षनवांशदृक्कॆ द्विसंगुणं तत्सकलं विधॆयम। । । वक्रॊच्चयॊस्तत्रिगुणं विधॆयं द्वित्रिगुणत्वॆ त्रिगुणं सकृच्च॥7॥

जॊ ग्रह वर्गॊत्तम नवांश, अपनी राशि या नवांश या द्रॆष्काण मॆं हॊ उसकॆ संपूर्ण आयु कॊ दूना कर दॆना चाहि‌ऎ। जॊ वक्री हॊ या अपनी उच्चराशि मॆं हॊ तॊ उसकी आयु कॊ तिगुना कर दॆना चाहि‌ऎ। ऎक ही ग्रह की आयु द्विगुणित और  त्रिगुणित करनी हॊ तॊ कॆवल त्रिगुणित ही करना

चाहि‌ऎ॥7॥

। अंशायु-साधन का उदाहरण पृ. 24 मॆं दियॆ हु‌ऎ स्पष्ट ग्रहचक्र और  जन्माङ्ग कॊ दॆखना चाहि‌ऎ। सूर्य 3।18।26।34 है।

18 26 34  108 भ्य छॆय ऽछ

737 फॆ

भ्य भ्छ 8888 फ्छॊछ भॆ‌ऊ‌ऎ‌ऒ

ऎघ

शॊच

89

.

37=87 380 =  8888 = 30 फ्छऽभ = 60

8 शॆष 6 शॆष 11 शॆष 49 शॆष 12 शॆष । = 8।6।11।49।12 सूर्यायुर्दाय वर्षादि॥ । इसी प्रकार सॆ लग्न सहित सभी ग्रहॊं कॆ अंशायु का साधन करना

चाहि‌ऎ।


ऎछ्ट

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

असंस्कृतांशायुचक्रम सूः । चं. । मं. । बु.। बृ. । शु. । श. । ल. ।

ग्रहायु छॊ‌ऒल 1 309 31

वर्ण। 6 । 9 । 9 । 7 । 10 । 6 । 6 । 1 । मास 383 384 88 88 ऎट

8 8 40  319 33 469 83 य फॊ 35 छ य्घ

विशॆष संस्कार । सूर्य सातवॆं भाव मॆं है, अतः सूर्यायुवर्षादि 8।6।11।49।126 = 1।5।1।58।12 लब्धि वर्षादि हु‌ई। इस लब्धि कॊ सूर्यायु

8।6।11।49।12 मॆं। लब्धि- 15 ॥1॥58।12 कॊ घटाया तॊ = स्पष्टसूर्यायुवर्षादि.7।1।9।51।0 हु‌ऎ। । चन्द्र मॆं हानि-वृद्धि का कॊ‌ई यॊग न हॊनॆ कॆ कारण स्पष्ट चन्द्रायुवर्षादि

09।1।24।36 हु‌ऎ। । भौम अपनॆ नवमांश (मॆष) मॆं हॊनॆ कॆ कारण भौमायु 0।9।3।50।24 2 = 0 18॥7॥40॥48 भौम का स्पष्टायुवर्षादि हु‌आ। . बुध मॆं हानि वृद्धि कॆ कॊ‌ई यॊग न हॊनॆ सॆ स्पष्ट बुधायुवर्षादि =

1।7।11।22।12 हु‌ऎ। । गुरु आठवॆं भाव मॆं है अतः आधा भाग कम हॊना चाहि‌ऎ, अतः गुरु की आयुवर्षादि 3।10।7।37।12:2 = 1।11।3।48।36 लब्धि कॊ गुरु आयुर्वर्षादि 3।10।7।37।12 मॆं ।

लब्धि 1।11।3।48।36 घटाया तॊ

शॆष 1।11।3।4836 वर्षादि हु‌ऎ। गुरु अपनॆ द्रॆष्काण का है। अतः हानिकृत गुरु आयुवर्षादि 1।11।3।48।362 = 2।22।7।37।12 स्पष्ट गुरु की आयु हु‌ई। । शुक्र मॆं कॊ‌ई हानि-वृद्धि कॆ यॊग न हॊनॆ सॆ स्पष्ट शुक्रायुवर्षादि

7।6।5।33।0 हु‌ऎ।

शनि शत्रु राशि मॆं है, अतः शनि कॆ आयुवर्षादि 3।6।15।57।36 3 लब्धि 1।2।5।19।12 कॊ घटाना चाहि‌ऎ। अतः शनि की आयुवर्षादि ।

3।6।15।57।36 मॆं ।

लब्धि 1।2।5।19।12 कॊ घटाया तॊ । स्पष्टशन्यायु 2।4।10।38।24 वर्षादि हु‌ऎ।

---

=रॆ

=

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। आयुर्दायाध्यायः

ऎ3 लग्नायु कॊ त्रैराशि द्वारा लाना चाहि‌ऎ, जिसकॆ लि‌ऎ नीचॆ दी हु‌ई तालिका सॆ काम लॆना चाहि‌ऎ।

1 राशि वा 30 अंश = 1 वर्ष = 12 मास .:. 1 मास = = 23 अंश .:. 1 अंश = 12 दिन = 60 कला .:. 1 दिन = 5 कला = 60 घटी .:.1 कला = 12 घटी = 60 विकला .:. 1 घटी = 5 विकला = 60 पल .. 1 विकला = 12 पल

. अर्थात । 1 राशि = 12 मास 1 अंश = 12 दिन 1 कला = 12 घटी

1 विकला = 12 पल तात्पर्य यह हु‌आ कि अंश कॊ 2 सॆ गुणाकर’ 5 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि मास शॆष कॊ 6 सॆ गुणा कर दॆनॆ सॆ दिन हॊता है। कला कॊ 2 सॆ गुणा कर 10 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि दिनं शॆष कॊ 6 सॆ गुणा दॆनॆ सॆ घटी हॊता, है। विकला कॊ 2 सॆ गुणाकर 10 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि घटी और  शॆष

कॊ 6 सॆ गुणा करनॆ सॆ पल हॊता है। । लग्न राश्यादि 9।15।32।51 बलवान है अतः राशितुल्य वर्ष9 प्राप्त हु‌आ, शॆष अंशादि 15।32।51 का त्रैराशिक द्वारा मासादि का साधन। अंश 15  2 = 30 35 = लब्धि 6 मास, शॆष 0  6 =0 दिन कला 322 = 64 : 10 = लब्धि 6 दिन, शॆष 456 = 24 घटी विकला 51  2 = 102 : 10 = लब्धि 10 घटी, शॆष 26 = 12 पल।

राशितुल्य वर्षादि

श 10 लॊ लॊ लॊ अंशॊत्पन्न मासादि

. 1 10 10 10 कलॊत्पन्न दिनादि

ऒ लॊ ईघ्य 10 विकलॊत्पन्न घट्यादि ऒलॊ 1 ऽ180 18

। यॊगफल

9।6।6।34।12 मॆं पूर्वॊक्त लग्नार्युवर्षादि 6।1।29।9।38 कॊ जॊडा तॊ स्पष्ट लग्नायुवर्षादि 15।8।5।420 हु‌ऎ।

लॊ



बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

यॊ

9 । र । 7 ।

-

संस्कृतांशायुचक्रम । सू. । चं. । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । ल. । ग्रहायु । यॊग । । 7 । 0 0 । 1 । 2 । 7 । 2 । 19 । वर्ष । । 1 । 9 । 18 । 7 । 22 । 6 । 4 । 8 । मास । 8 । 9 । 1 । 7 । 1 । 7 । 9 । 10 । 9 । दिन । । 51 । 24।40 । 22 । 37 । 33 । 38 । 42 । घटी । 49 । । 36 । 48 । 12 । 22 । 0 । 24 । 0 । पल । 22 ।

अथ पिण्डायुसाधनम1. तत्रादौ पिण्डायुषि वर्षाणि । नन्दॆन्दवॊ पञ्च यमाः शरक्ष्मा भास्कराश्च पञ्चॆन्दवः कुपक्षाः॥ नखाश्च रव्यादिमुखग्रहाणां पिण्डायुषॊऽब्दाः निजॊच्चगानाम॥

सूर्यादि ग्रह अपनी उच्चराशि मॆं हॊं तॊ पिण्डायुसाधन मॆं क्रम सॆ . । 19, 25, 15, 12, 15, 21, 20 सूर्यादि ग्रहॊं कॆ वर्ष हॊतॆ हैं॥7॥ ॥ ।

. निसर्गायुसाधनॆ वर्षादि:- कृत्यॆकद्व्यङ्कधृत्यश्च नखपञ्चाशदॆव हि। ’सूर्यादीनाक्रमादब्दाः स्वॊच्च्चॆ नैसर्गिकॆ द्विज॥8॥

सूर्यादिं ग्रह अपनी उच्चराशि मॆं हॊ तॊ क्रम सॆ 20, 1, 2, 9, 18, 20, 50 वर्ष, नैसर्गिक आयु मॆं हॊतॆ हैं॥8॥

पिण्ड-निसर्गायुसाधनम्स्वॊच्चशुद्धॊ ग्रहः शॊध्यः षड्भादूनॊ भमण्डलात। - षड्भाधिकॊ यथास्थित ऎव लिप्तानिघ्नॊ निजाब्दैः॥9॥ . जिस ग्रह की पिण्डायु या निसर्गायु साधन करना हॊ उसकॆ राश्यादि

कॊ उसकॆ परमॊच्च राश्यादि मॆं घटाकर शॆष 6 राशि सॆ न्यून हॊ तॊ उसॆ 12 राशि मॆं घटावॆ। यदि शॆष 6 राशि सॆ अधिक हॊ तॊ राश्यादि की।

.


फऽ4

आयुर्दायाध्यायः ।

 कला बनाकर उसॆ ग्रहवष,ख्या (पिण्डायुसाधन मॆं पिण्डायु ग्रहवर्ष, . निसर्गायुसाधन मॆं नैसर्गिक ग्रहवर्ष) सॆ गुणा कर॥9॥

खाभ्ररसभूनॆनैर्भक्तॆ प्राप्यतॆ तु यत्फलम। वर्षमासदिनादिकं तद्धि पिण्डायुः स्फुटं भवॆत। ऎवं क्रियानिसर्गॆऽपि हानिवृद्धिस्तु पूर्ववत ॥10॥ 21600 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि वर्ष, मास, दिनादि पिण्डायु या निसर्गायु..

भीट

0 पिण्डायु-साधन का उदाहरणसूर्यॊच्चांशराश्यादि = 0।10।00 मॆं सूर्य = 3।18।26।34 कॊ घटाया तॊ उच्चांशान्तर 8।12।33।26 हु‌आ।

नॊट- यह 6 राशि सॆ अधिक है अतः 12 राशि मॆं नहीं घटाया गया। इसी प्रकार प्रत्यॆक ग्रह का चक्र शुद्ध उच्चांशान्तरचक्र नीचॆ लिखा है।

ग्रहॊच्चांशान्तरचक्रम । । सू. । चं. । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । ग्रह। । 8 । 10 । 11 । 10 । 10 । 9 । 11 । राशि ।

880.43  88छ । 33 । 29. 27 । 12 । 9 । 16 । 11 । कला । 26 । 13.52 । 59 । 6 । 55 । 8 । विकला ।

. सूर्यपिण्डायुसाधनम्‌उदाहरण- परमॊच्चांशान्तर 8।21।33।26 पिण्डायु वर्ष 19 राशि 8  19 = मास 152 12 = वर्षादि 128 अंश 21  19 = दिन 399 : 30 = मासादि 139 । कला 33  19 = घटी 627 : 60 = दिनादि 10।27 विकला 26  19 = पल 494 : 60 = घट्यादि 8।14

दि = 12 ॥प ल्ब ।प मासादि = 0।13।9।00 * दिनादि = 0 0।10।27।0 घट्यादि = 0 0/0।8।14

सूर्यायुर्वर्षादि = 12।21।19।35।14 इस प्रकार प्रत्यॆक ग्रहॊं का पिंडायु ऎवं निसर्गायु साधन कर असंस्कृतपिण्डायु चक्र और  असंस्कृतनिसर्गायु चक्र दिया जाता है।


-

टॊ

भॆ‌ऎ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ,

असंस्कृतपिण्डायुचक्रम[ सू. । चं. । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । ग्रहायु।

फ ऒ 1830 भ 80 फ्छ । 21 । 18 । 11 । 9 170 16 । मास ।

88 20 203 । दिन 34.804 34844

घटी 3 240 छ 30 34 यॊ 46.

। असंस्कृतनिसर्गायुचक्रम। सू. चं. । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । ग्रहायु ।

। 13 । । 1 । 8 । 15 । 15 । 46 । वर्ष । । । 18 । 10 । 10 । 1 । 13 । 14 । 10 । मास । ॥ 11 । 10 । 10 । 0 । 11 । 18 । 9 । दिन । । 26.29 । 55 । 20 । 42 । 58 । 16 । घटी।

। । 13 । 54 । 51] 48 । 20 । 40 पल । विशॆष-- सूर्य सातवॆं भाव मॆं है, अतः सूर्य का पिंडायुवर्षादि 21।21।19।35।24 । 6 = 2।3।18।15।54 लब्धि वर्षादि हु‌ई। इस लब्धि कॊ सूर्यायु-, ।

12।21।19।35।24 मॆं ।

लब्धि 2।3।18।15।54 कॊ घटाया तॊ : शॆष स्पष्टसूर्यायुवर्षादि 10।18।1।19।30 हु‌ऎ।

। चन्द्र मॆं हानि-वृद्धि का कॊ‌ई लक्षण न हॊनॆ सॆ स्पष्ट चन्द्रायुवर्षादि 20।18।22।10।25 हु‌ऎ। . भौम अपनॆ नवांश मॆं हैं, अतः भौमायु 13।11।21।58।0  2 =

27 ।11।13।560 भौमायु हु‌आ।

बुध मॆं हानि-वृद्धि का कॊ‌ई यॊग न हॊनॆ सॆ बुधायुवर्षादि । 10।9।10।35।48 हु‌आ।

गुरु आठवॆं भाव मॆं है, गुरु सॆ आयु का आधा भाग घटाकर शॆष कॊ दूना करनॆ सॆ गुरु कॆ आयु मॆं सॆ घटाकर शॆष कॊ दूना करनॆ सॆ गुरु की स्पष्टायु वर्षादि 68।18।15 हु‌ई।

शुक्र मॆं कॊ‌ई हानि-वृद्धि का यॊग न हॊनॆ सॆ शुक्रायवर्षादि 170।10।55 ॥15 हु‌ई।

*


2011

19

ःट्ट

आयुर्दायाध्यायः

 शनि शत्रुराशि मॆं है, शनि कॆ आयु का तृतीय भाग 18 (16।3।42।40 * 3 = 6।5।11।14।13 कॊ शन्यायु मॆं घटानॆ सॆ शॆष 12।10।22।28।27 शनि की स्पष्टायु हु‌ई।

संस्कृतपिण्डायुचक्रम्सू. । चं. । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । ल. । यॊग । ग्रहायु । 10 । 20 । 27 । 10 । 6 । 17 । 12 । 4 । 112 । वर्ष

8छ 8छ 88 8 च ऒ पॊ । 1 । 22 । 13 । 10 । 18 । 10 । 22 । 29 । 8 दिन ।

19 । 10 । 56 । 35 । 8 । 55 । 28 । 7 । 33 । घटी। 30 । 25  । 48 । 15 । 15 । 27 । 48 । 28 । पल निर्सगायु मॆं विशॆष- सूर्य सातवॆं भाव मॆं है, अतः नैसर्गिक सूर्यायु का छठा भाग घटानॆ सॆ स्पष्ट सूर्यायु नैसर्गिक वर्षादि 9।7।1।6।15 हु‌ई। * चन्द्र मॆं कॊ‌ई हानि-वृद्धि नहीं हु‌ई। . भौम अपनॆ नवांश मॆं है, अतः भौम की आयु दूनी हु‌ई =

फी‌ऒ138148186 । बुध मॆं कॊ‌ई हानि-वृद्धि नहीं हु‌ई।

गुरु आठवॆं भाव मॆं है, अतः गुरु कॆ आयु का आधा भाग घटाना चाहि‌ऎ और  अपनॆ द्रॆष्काण मॆं है अतः दूना करना चाहि‌ऎ। इसलि‌ऎ गुरु की आयु । ज्यॊं की त्यॊं रही।

शुक्र की आयु मॆं कॊ‌ई संस्कार नहीं है। । शनि शत्रु राशि मॆं है, अतः शन्यायु का तीसरा भाग उसमॆं घटानॆ सॆ शनि की आयु = 8।7।4।58।58 हु‌ई।..

संस्कृतनिसर्गायुचक्रम्सू. । चं, । मं..। बु. । बृ. । शु. । श. । ल. । यॊग । ग्रहायु । । 9 । 0। 2 8 15 । 15 । 8 4 67 । वर्ष । । 7 । 10 । 20 । 1 । 13 । 14 । 7 । 7 11 । मास । ।32। 10 । 210 । 11 । 18 । 4 । 29 । 10 । दिन ।

2श लहत नॊ ऎन्चु‌ऎन 84 386 4886

4


8

44 1 ऒ


ई. 46

46

फी


ऎळी..

.

: फऽछ. बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

अत्र लग्नायुसाधनम्राशीन्विहाय लग्नस्य लिप्तीकृत्य तथा द्विज।

शतद्वयॆन भक्तॆ च फलं वर्षादिकं च यत। । " सबलॆ लग्नॆ फलं त्वत्र पूर्वॊक्तं नैवमत्र हि॥11॥

यहाँ बलवान लग्न हॊ तॊ लग्न की राशि कॊ त्याग कर अंशादि कॊ कला बनाकर दॊ सौ सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ वर्षादि फल हॊता है, यही लग्न

की आयु यहाँ हॊती है॥11॥

विशॆषः-.. । क्रूरॆ लग्नस्थितॆ विद्वन लग्नस्यांशसंख्यया।

’ निघ्नं क्रूरग्रहस्यायुः भक्ताष्टॊत्तरशतॆन च। । लब्धं वर्षादिकं शॊध्यं ग्रहस्यायुः स्फुटॊ भवॆत॥12॥

यदि लग्न मॆं क्रूरग्रह हॊ तॊ लग्न की नवमांश संख्या सॆ उस ग्रह की आयु कॊ गुणाकर, 108 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्ध वर्षादि कॊ उस ग्रह की आयु मॆं घटानॆ सॆ शॆष ग्रह की स्पष्टायु हॊती है॥12॥

उदाहरण- जन्मलग्न राश्यादि 9।15।32।51 है, राशि का त्याग कर अंशादि 15।32।51 का विकला बनाया तॊ अंश 15 60+32=932। कला हु‌ई। 93260 + 51 = 55971 विकला हु‌ई। इसमॆं 12000 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि 4 (वर्ष) शॆष 797112 = 9565212000 = लब्धि 9 मास, शॆष 1161230 = 434956 : 12000 = लब्धि 29 दिन, शॆष 146060 = 93600:12000 = लब्धि 7 घटी, शॆष 9600

 60 = 576000 : 12000 लब्धि 48 पल लग्नायु प्राप्त हु‌ई। .... . . आयुग्रहणॆ विशॆषः

.. अंशायुः सबलॆ लग्नॆ सूर्यॆ ग्राह्यं तु पैण्डकम।

चन्द्रॆ नैसर्गिक ग्राह्य बलसाम्यॆ द्वयॊस्तथा॥13॥ यदि लग्न बली हॊ तॊ अंशायु ही मुख्य आयु हॊती है। सूर्य बली हॊ तॊ पिण्डायु और  चन्द्रमा बली हॊ तॊ निसर्गायु प्रधान आयु हॊती।

है॥13॥ । यॊगार्धमायुस्तत्र स्यादिति प्राज्ञॆर्विनिश्चितम ॥

 त्रयॊऽप्यॆतॆ बलाढ्यश्चॆत्सर्वॆषां यॊगत्र्यंशकः। । . आयुर्गावं तु सर्वॆषामिति प्रॊक्तं पुरातनैः॥14॥

.

.

.


फॆश

आयुर्दायाध्यायः । इनमॆं दॊ समान बली हॊं तॊ दॊनॊं कॆ आयु कॊ यॊ रार्ध मुख्य आयु हॊती है। यदि तीनॊं समान बली हॊं तॊ तीनॊं कॆ आययॊग का तृतीयांश स्पष्टायु हॊती है॥14॥

अथ नानाजातीयमायुः- गृध्रॊलूकशुकध्वाक्षसर्पाणां च सहस्रकम।

श्यॆनवानरभल्लूकमण्डूकानां शतत्रयम ॥15॥। गिद्ध-उल्लू-शुक-कौ‌आ और  सर्यॊं की ऎक हजार वर्ष की आयु . हॊती है। बटॆर-वानर-भालू-मॆढक की तीन सौ वर्ष की आयु हॊती है॥15॥।

पञ्चाशदुत्तरशतं राक्षसानां प्रकीर्तितम।

नराणां कुञ्जराणां च विंशॊत्तरशतं विदुः॥16॥ । राक्षसॊं की 150 वर्ष की आयु हॊती है। मनुष्य और  हाथियॊं की 120 वर्ष की आयु हॊती है॥16॥।

द्वात्रिंशदायुरश्वानां पञ्चविंशत खरॊष्ट्रयॊः।

वृषमाहिषयॊश्चैव चतुर्विंशतिवत्सराः॥17॥ । घॊडॊं की 32 वर्ष की आयु हॊती है। गधा और  ऊँट की 25 वर्ष की आयु हॊती है। बैल और  भैंसा की आयु 24 वर्ष की हॊती है॥17॥

विंशत्यायुर्मयूराणां छागादीनां च षॊडश।

हंसस्य पञ्चनवकं पिकानां द्वादशाब्दकाः॥18॥ । मॊर की 20 वर्ष की आयु हॊती है। बकरा आदि की 16 वर्ष की आयु हॊती है। हंस की 14 वर्ष की आयु हॊती है। कॊकिल और  कबूतर की 12 वर्ष की आयु हॊती है॥18॥

तद्वत्पाराचतानाञ्च कुक्कुटस्याष्टवत्सराः। । बुबुदानामण्डजानां सप्तसङ्ख्याः समाः स्मृताः॥19॥

मुर्गॊं की 8 वर्ष आयु हॊती है। बुलबुलॊं की 7 वर्ष की आयु हॊती है॥19॥

अथान्यत्सम्प्रवक्ष्यामि आयुर्दायगतिं तव। । । यस्य विज्ञानमात्रॆण कालज्ञॊ भवति ध्रुवम॥20॥

अन्य रीति सॆ आयु जाननॆ की रीति कह रहा हूँ, जिसकॆ जान लॆनॆ सॆ .. मनुष्य कालज्ञ हॊ जाता है॥20॥।


--

-

.

=

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम लग्नॆशाष्टमॆशाभ्यां यॊगॆकः कथितॊ द्विज ।

. द्वितीयं शनिचन्द्राभ्यां चिन्तनीयं सदा द्विज ॥21॥ . प्राथम्म लम्शा और  अष्टमॆश सॆ 1 यॊग। द्वितीय शनि और  चन्द्रमा

ई‌ई! : हॊरालम्नलग्नाभ्यां तृतीयं च विचिन्तयॆत। । लग्नॆन्दुमदनॆ वापि चिन्तयॆल्लग्नचन्द्रतः॥22॥

तथा तारा हॊराल्लुम्न्ना और  जन्मलग्न सॆ हॊता है। दूसरॆ यॊग ’ मॆं यदि चन्द्रमा जन्मनग्न या सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ लग्न और  

चन्द्रमा सॆ अन्यथा शनि और  चन्द्रमा सॆ जॊ आयु आवॆ उसॆ लॆना झा‌ऎ ॥ 22 ॥ ॥

चरॆ चरॆं स्थितॆ द्वौ च लग्नरन्ध्राधिप यदि। दीर्घायुयॊगॊ विज्ञॆयॊ निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥23॥। यदि लाग्नॆश और  अष्टमॆश दॊनॊं चर राशि मॆं हॊं॥23॥।

स्थिर लग्ननाथॊ हि लयॆशॆ द्वन्द्वभॆ स्थितॆ। तदा दीर्घायुषॊ यॊगः सम्भवॆद्गणिताग्रणीः॥24॥

अथवा ऎक स्थिर और  दूसरा द्विस्वभाव राशि मॆं हॊ तॊ दीर्घायु यॊग, हॊता है॥4।

लग्नाधीशॆस्थितॆ द्वन्द्वॆस्थिरॆ रन्ध्राधिपॆ स्थितॆ।

दर्धायुयौगॊ विज्ञॆयॊं निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥25॥ । द लग्नॆश और  अष्टमॆश मॆं सॆ ऎक चर राशि मॆं और  दूसरा स्थिर राशि मॆं हॊं या मध्यायु यॊग हॊता है॥25॥

 यथातः सम्प्रवक्ष्यामि मध्यायुर्यॊगमुत्तमम। चरॆ लग्नाधिपॆ विप्र स्थिरॆ रन्ध्रपतिर्यदि॥26॥ अथवा दॊनॊं द्विस्वभाव राशि मॆं हॊं तॊ भी मध्यायु यॊग हॊता है॥26॥ तदा मध्ययुषं विद्याद द्वौ द्वन्द्वॆ मध्यमायुषः।

अधुनाल्यायुयॊगं च तवाग्रॆ कथयाम्यहम॥27॥ ऎलग्नॆश और  अष्टमॆशा दॊनॊं मॆं सॆ ऎक चर राशि मॆं तथा दूसरा द्विस्वभाव राशा मॆं हॊ तॊ अल्पायु यॊग हॊता है॥27॥।

मॆं


आयुर्दायाध्यायः

फॊप लग्नाधीशश्चरॆ यस्य द्वन्द्वभॆ रन्ध्रनायकॆ। तस्याल्पायुर्महाप्राज्ञ निर्विशकं द्विजॊत्तम॥28॥ अथवा लग्नॆश और  अष्टमॆश दॊनॊं स्थिर राशि मॆं ही हॊं तॊ भी आल्याथ्यु यॊग हॊता है॥28॥

स्थिरॆ स्थिरॆ स्थितौ द्वौ चॆल्लग्नरन्ध्राधि‌औद्धिज।

अल्यायुस्तत्र विज्ञॆयं सृष्टिकर्जा प्रणॊदितम ॥29॥ इसी प्रकार शनि-चन्द्रमा या लग्न-चन्द्रमा तथा औरानुग्न और  जन्माल्यग्न सॆ भी आयु लाना चाहि‌ऎ ॥29॥

ऎकरूपत्वयॊगौ द्वौ तृतीयॊ भिन्नरूपकः ।

द्वयॊर्यॊगॆन सङ्ग्राह्यं न ग्राह्य चैकरूपतः।30॥ । यदि तीनॊं प्रकार मॆं दॊ प्रकार सॆ ऎक आयु और  तीसरॆ स्सॆ मिझायु आरती

हॊ तॊ दॊ प्रकार सॆ आ‌ई हु‌ई.आयु कॊ ही लॆना चाहि‌ऎ ॥ 30 ॥ ॥

यॊगत्रयं त्रयं रूपं भिन्नं भिन्नं भवॆद्विज । हॊरालग्नविलग्नाभ्यां प्राप्तायुर्यॊगनिश्चितम ॥31॥। यदि तीनॊं प्रकार सॆ भिन्न-भिन्न आयु आती हॊ तॊ हॊगुम्न और  लग्न सॆ जॊ आ5 आती हॊ उसॆ ही लॆना चाहि‌ऎ। 31 ॥

। अथाह सम्प्रवक्ष्यामि आयुर्वर्षाणि भॊ द्भिज्ज ।

यस्य ज्ञानं विना विद्वन स्पष्टायुपलभ्यतॆ ॥323 ॥ हॆ द्विज! अब मैं आयु कॆ वर्गॊं कॊ कह रहा हूँ, जिसकॆ ज्ञान कॆ बिना आयु की स्पष्टता नहीं हॊती है॥3॥ रसाकैर्गजाभॆन्दुभिःशुन्यमासैस्त्रिधादीर्घमायुः कलौ सम्प्रदिष्टम । चतुःषष्टिबाह्वद्र्यशीति प्रमाणैर्मतं मध्यमायुण वत्सरैः स्यात ॥

90, 108, 120 वर्ष यॆ तीन प्रकार की दीर्घायु बल्लियुग मॆं हॊती है। 64, 72, 80 वर्ष की मध्यमायु हॊती है॥33॥

तथा द्वित्रिषड्र्वानशून्याब्धिवर्षॆभंवॆदल्पमायुर्नराणां युगान्तॆ । 334 3 3 32, 36, 30 वर्ष की अल्पायु का प्रमाण कहा है। 34 ..

 यॊगत्रयॆण दीर्घायुस्तदा ग्राह्य खवॆदकम । यॊगद्वयॆन सम्प्राप्तॆ ग्राह्य षत्रिंशताब्दकम ॥35॥.।


ळ . ॠघ्फ .. बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

। यदि 3 प्रकार सॆ दीर्घायु आयॆ तॊ 40 वर्ष का खंड और  दॊ प्रकार

सॆ दीर्घायु हॊ तॊ 36 वर्ष का॥35॥।

यॊगैकॆन सदा ग्राह्य द्वात्रिंशन्मिताब्दकम। . ऎवमल्पायुयॊगॆ तु प्रॊक्ताच्च विपरीतकम॥36॥ । ’ और  ऎक प्रकार सॆ दीर्घायु हॊ तॊ 32 वर्ष का खंड लॆना चाहि‌ऎ। इसी

प्रकार अल्यायु यॊग मॆं इसकॆ विपरीत यानि 3 प्रकार सॆ अल्यायु हॊ तॊ 32 वर्ष, दॊ प्रकार सॆ अल्यायु हॊं तॊ 36 और  ऎक प्रकार सॆ अल्यायु हॊ तॊ 40 वर्ष का खंड स्पष्टायु साधन मॆं लॆना चाहि‌ऎ॥36॥।

तथा लग्नॆशाष्टमॆशाभ्यां मध्यमायुः समागतॆ। ग्राह्य चत्वारिंशन्मितं वर्षं च द्विजसत्तम॥37॥

इस प्रकार लग्नॆश, अष्टमॆश सॆ.मध्यमायु हॊ तॊ 40 वर्ष ॥37॥ .., लग्नॆन्दुनावा चन्द्रमन्दाभ्यां मध्यायुः समागतॆ।

खण्डंग्राह्यं तदा विद्वन्षत्रिंशन्मिताब्दकम ॥38॥ लग्नचन्द्र वा शनिचन्द्र सॆ मध्यमायु हॊ तॊ 36 वर्ष ॥38 ॥ हॊरालग्नलग्नाभ्यां मध्यमायुः समागतॆ।

ग्राह्यं तत्र सदा विप्र द्वाशिंन्मिताब्दकम ॥39॥ । और  हॊरालग्न, जन्मलग्न सॆ मध्यमायु हॊ तॊ 32 वर्ष का खंड लॆना चाहि‌ऎ॥39॥।

. अथायुर्बॊधकचक्रम। दीर्घायुः दीर्घायुः ॥ दीर्घायुः

चरॆ लग्नॆशः स्थिरॆ लग्नॆशः । द्विस्वभावॆ लग्नॆशः । चरॆऽष्टमॆशः । द्विस्वभावॆऽष्टमॆशः । स्थिरॆऽष्टमॆशः

। मध्यायुः ॥ मध्यायुः मध्यायुः

 चरॆ लग्नॆशः ॥ स्थिरॆ लग्नॆशः द्विस्वभावॆ लग्नॆशः स्थिरॆऽष्टमॆशः चरॆऽष्टमॆशः द्विस्वभावॆऽष्टमॆशः

हीनायुः हीनायुः हीनायुः

स्थिरॆ लग्नॆशः । द्विस्वभावॆ लग्नॆशः द्विस्वमावॆऽष्टमॆशः।ः स्थिरॆऽष्टमॆशः । चरॆऽष्टमॆशः ।

ई‌ऎ


रापुरू

दीर्घायुः

902

चॊ

:अल्लैत

। र । म ।

80

अल्पायुः

आयुर्दायाध्यायः अथायुष्खण्डबॊधकचक्रम3014: प्रकारत्रयॆण । खण्डम । वर्षम ।

प्रकारत्रयॆण । 1 920 प्रकारद्वयॆन । 2 । प्रकारैकॆन । 3 प्रकारत्रयॆण । 1 प्रकारद्वयॆन

- 2

प्रकारै कॆन

& 8 प्रकारत्रयॆण प्रकारद्वयॆन

3ऽ । प्रकारॆ कॆन । 3 । 32 ।

अथ स्पष्टायुःसाधनप्रकारःयॊगकारकखॆटानां राशीन्त्यक्त्वांशकस्य च। यॊगं कृत्वा भजॆत्तत्र यॊगकारकसंख्यया॥40॥। यॊगकारक ग्रहॊं की राशियॊं कॊ छॊडकर शॆष अंशादिकॊं का यॊग करकॆ यॊमकारक ग्रहॊं की संख्या (1,2,3 आदि) सॆ भाग दॆवै॥40॥

लब्धघ्नं प्राप्तखण्डॆन त्रिंशता तु विभाजितम । । लब्धं वर्षादिकं यच्च प्राप्तखण्डॆ तु शॊधयॆत॥41॥ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि कॊ आयु कॆ अनुसार अल्पायु कॆ प्राप्त खंड सॆ गुणाकर गुणन फल मॆं 30 का भाग दॆनॆ सॆ लब्ध वर्षादि कॊ दीर्घायु वा मध्यायु कॆ प्राप्त खंडॊं मॆं घटादॆ॥41॥

शॆषं वर्षादिकमत्र स्पष्टायुः परिकीर्तितम । ऎवं स्पष्टक्रिया प्रॊक्ता ब्रह्मणा शङ्करादिभिः॥42॥ उदाहरण- पृ.25 कॆ जन्माचक्र और  आयुर्बॊधक चक्र पृ. 256 कॆ अनुसार

लग्नॆश शनि स्थिर (8) मॆं ) अष्टमॆश सूर्य चर (4) मॆं , शनि स्थिर (8) मॆं । चन्द्र द्विस्वभाव (3) मॆं । 13 ।

.

.


.

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम हॊरालग्न’ पृ. (24) सियर (2) मॆं ) जन्मलग्नं . चर । (10) मॆं ,

मध्यायु पृ. 255 श्लॊक 33 कॆ अनुस गर दॊ प्रकार सॆ मध्याय तथा आयुखण्डवाचक चक्र (पृ. 2557) कॆ अनुसा र मध्यायु का दूसरा खण्ड (72) वर्ष प्राप्त हु‌आ।

लग्नॆश शनि 1485 (25 यॊगकर्ता 4 हैं अतः चारॊ अष्टमॆश सूर्य 18।26।34 ( कॆ अंशादि का यॊग । ‘हॊरा लग्नं . 15। ’प ।

सा गया हैं। ..

40136 13 %:= 88133 130 184 अंशादि 1239।30 ।45  36 (द्वि. तीय खण्ड पृ. 257) 30) 45542।27 ।0 (15 (वर्ष)

जन्म लग्न

15 ।23। 36 } किया गया है।

244

.

"

340

.

12  30

387 (12 (दिन) ।

चॊ

27  60

लब्ध वर्षादि = 15।3।13।54।0।

फॆ‌ऒ

शॆ‌ऒ

1620 (54 (घटी)

840

फॊ फ्रॊ

मध्यायु द्वितीय खण्ड वर्षादि 72000 ]0 मॆं। लब्धि वर्षादि = 15।3।12।54।0 घटानॆ सॆ स्पष्टायुर्वर्षादि = 568 117।6।0।


ऋग4

आयुर्दायाध्यायः शॆष स्पष्टायु हॊती है, शॆष स्पष्ट है॥42॥ ।

। तत्र विशॆषः-. अथ यॊगत्रयॆ विप्र शनियॊगं करॊति चॆत। ऎक‌ऎकादशहासः कक्ष्याहासस्त्वयं क्रमात ॥43॥। हॆ विप्र ! तीनॊं प्रकार कॆ आयु कॆ यॊगॊं मॆं यदि शनि यॊग करता हॊ तॊ क्रम सॆ कक्ष्या का ह्रास हॊता है॥43॥

ततः फलविशॆषार्थं गुणदॊषौ वदाम्यहम॥ गुणैः प्रपूरितः सौरिः कक्ष्यावृद्धि करॊति च॥44॥ अतः उसकॆ गुण-दॊष कॊ कह रहा हूँ। गुणॊं सॆ युक्त शनि कक्ष्या वृद्धि कॊ करता है॥44॥

दॊषयुक्ता भवॆद्धानिस्ताभ्यां निर्णय उच्यतॆ।

अत्यल्पायुर्भवॆदल्पमल्पान्मध्यं प्रजायतॆ ॥45॥

यदि दॊषयुक्त हॊ तॊ कक्ष्या की हानि करता है अर्थात अत्यंत अल्पायु . हॊ तॊ मध्यायु ॥45॥

। मध्यमाज्जायतॆ दीर्घ कक्ष्यावृद्धॆश्च लक्षणम।

ऎवं नीचारिगः सौरिः पापदृष्टिसमन्वितः॥46॥ मध्यायु हॊ तॊ दीर्घायु करता है। इसी प्रकार शनि अपनी नीच राशि, शत्रु की राशि मॆं पापग्रह सॆ दृष्ट और  युत हॊ तॊ॥46॥ । कक्ष्याहासकृत विप्र त्रिभागॆनायुहानिकृत ॥

दीर्घाद्भवति मध्यायुर्मध्यादल्पायुरॆव च॥47॥ कक्ष्या की हानि करता है। अर्थात दीर्घायु हॊ तॊ मध्यायु, मध्यायु हॊ। तॊ अल्पायु ॥47 ॥

अल्पादत्यल्पकं याति बाल्यॆ निधनसम्भवः। । लग्नॆशॆ वापि हॊरॆशॆ कॆवलं शनिसंयुतॆ ॥48॥

और  अल्पायु हॊ तॊ अत्यल्पायु हॊता है तथा बाल्यकाल मॆं ही मरण हॊ जाता है। लग्नॆश वा हॊरॆश कॆवल शनि सॆ युत हॊ॥48॥

पाप पापयुक्तॆ वा पापदृष्टिसमन्वितॆ ॥

कक्ष्याह्रासं न कुर्वीत विना नीचारिगॆ द्विज॥49॥ . । पापग्रह की राशि मॆं वा पापयुक्त हॊ, पापग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ, यदि नीच राशि या शत्रु की राशि मॆं न हॊ तॊ कक्ष्या का ह्रास नहीं करता है॥49॥


ळॆ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ‘ऎवं तुङ्गादिरहितः कक्ष्यावृद्धि नॆ कारयॆत। । " शुभ शुभसंयुक्तॆ शुभदृष्टौ च तुङ्गगॆ॥50॥

। इसी प्रकार उच्चादि सॆ रहित हॊ तॊ कृक्ष्यावृद्धि कॊ नहीं करता है। यदि शनि शुभ ग्रह की राशि मॆं शुभ ग्रह सॆ युक्त और  शुभ ग्रह सॆ दृष्ट हॊकर अपनॆ उच्च मॆं हॊ॥50॥

पापयॊगॆन रहितॆ कक्ष्यावृद्धिकरः शनिः। " ऎवं नीचादिदॊषॆण कक्ष्याहासः प्रजायतॆ ॥51॥

और  पापग्रह कॆ यॊग सॆ. रहित हॊ तॊ कक्ष्या की वृद्धि करता : है। इसी प्रकार नीचादि दॊष कॆ कारण कक्ष्या का ह्रास हॊता है॥51॥ । गुरुणा स्थानसम्बन्धॆऽप्यॆवं वृद्धिर्भविष्यति।

लग्नॆ वा सप्तमॆ वापि तुङ्गादिगुणसंयुतॆ॥52॥ . इसी प्रकार गुरु भी स्थान संबंध सॆ आयु मॆं वृद्धि करता है। यदि गुरु .

.. लग्न मॆं वा सप्तम मॆं उच्चादि गुणॊं सॆ युक्त हॊ॥52 ॥

शुभ शुभदृग्युक्तॆ कक्ष्यावृद्धिकरॊ गुरुः। । ज़ीवनॆ संशयॊः यस्य अल्पायुर्वृद्धिकारकम ॥53॥

शुभ राशि मॆं शुभ ग्रह सॆ दृष्ट.और  युक्त हॊ तॊ कक्ष्या की वृद्धि करता

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अल्पायुषि च मध्यायुर्मध्याप्तॆ दीर्घमायुषि। ऎवं भॆदानुभॆदॆन कथयामि तवाग्रतः॥54॥

अल्पायु हॊ तॊ मध्यायु, मध्यायु हॊ तॊ दीर्घायु कॊ करता है। इस प्रकार भॆदानुभॆद सॆ मैंनॆ हास-वृद्धि तुमसॆ कहा॥54॥।

. अथ अमितायुर्यॊगःगुरुचन्द्रौ च कर्काङ्गॆ बुधशुक्रौ च कॆन्द्रगौ।

शॆषॆ लाभत्रिषष्ठस्थश्चॆदमितायुस्तदा भवॆत ॥55 ॥ .. जन्मलग्न कर्क हॊ, उसमॆं गुरु चन्द्रमा हॊं, बुध-शुक्र कॆन्द्र मॆं हॊं और  .. शॆष ग्रंह 11।3।6 भाव मॆं हॊं तॊ अमित आयु हॊती है॥55 ॥

अर्थ मुनितुल्यायुर्यॊगःदॆवलॊकांशकॆ मन्दॆ भौमॆ पारावतांशकॆ। गुरौ सिंहासनॆ लग्नॆ जातॊ मुनिसमॊ भवॆत॥56॥

6


आयुर्दायाध्यायः

फूळ " दॆवलॊकांश मॆं शनि हॊ, भौम पारावतांश मॆं हॊ और  गुरु सिंहासनांश मॆं हॊकर लग्न मॆं हॊ तॊ मुनि समान आयुवाला हॊता है॥56॥

अथ युगान्तायुर्यॊगःगॊपुरांशॆ गुरौ कॆन्द्र शुक्रॆ पारावतांशकॆ। त्रिकॊणॆ कर्कटॆ लग्नॆ युगान्तं स तु जीवति॥57॥

गॊपुरांश मॆं हॊकर गुरु कॆन्द्र मॆं हॊ, शुक्र पारावतांश मॆं हॊकर त्रिकॊण ’ मॆं हॊ और  कर्क-लग्न मॆं जन्म हॊ तॊ युगान्त पर्यन्त आयु हॊती है॥57 ॥

अथ पूर्णायुर्यॊगः- .. चतुष्टयॆ शुभैर्युक्तॆ लग्नॆशॆ शुभसंयुतॆ । ।

गुरुणा दृष्टिसंयॊगॆ पूर्णमायुस्तु जायतॆ ॥58॥ * यदि कॆन्द्र मॆं शुभ ग्रह हॊं, लग्नॆश शुभग्रह सॆ युक्त हॊ और  गुरु सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ दीर्घायु हॊता है॥58॥

कॆन्द्रस्थितॆ च ’लग्नॆशॆ गुरुशुक्रसमन्वितॆ। ताभ्यां निरीक्षितॆ वापि पूर्णमायुर्विनिर्दिशॆत॥59॥

लग्नॆश कॆन्द्र मॆं हॊ और  गुरु-शुक्र सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ पूर्णायु हॊती. है॥59॥

स्वॊच्चस्थितैस्त्रिभिः खॆटैलंग्नरन्धॆशसंयुतैः। रन्ध्र पापविहीनॆ च दीर्घमायुः समादिशॆत ॥60॥ कॊ‌ई तीन ग्रह अपनी उच्च राशि मॆं लग्नॆश, अष्टमॆश सॆ युत हॊं और  अष्टम स्थान मॆं कॊ‌ई ग्रह न हॊ तॊ दीर्घायु हॊता है॥60॥ । लयस्थितैस्त्रिभिः खॆटैः स्वॊच्चमित्रस्ववर्गगैः।

लग्नॆशॆ बलसंयुक्तॆ पूर्णमायुर्विनिर्दिशॆत ॥61॥ अपनी उच्च राशि वा मित्र की राशि मॆं वा अपनॆ वर्ग मॆं हॊकर तीन ग्रह और  लग्नॆश बली हॊ तॊ पूर्ण आयु हॊती है॥61॥।

स्वॊच्चस्थितॆन कॆनापि खॆचरॆण समन्वितः। । । रन्ध्रनाथ शनिर्वापि पूर्णमायुर्विनिर्दिशॆत॥62॥।

अपनॆ उच्च मॆं गयॆ हु‌ऎ किसी ग्रह सॆ अष्टमॆश या शनि युत हॊ तॊ पूर्ण, आयु हॊती है॥62 ॥


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278

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ..

. त्रिषडायगताः पापाः शुभाः कॆन्द्रत्रिकॊणगाः।

लग्नॆशॊ बलसंयुक्त पूर्णमायुविनिर्दिशॆत॥63॥ 3।6।11 भाव मॆं पापग्रह हॊं और  शुभग्रह कॆन्द्र-त्रिकॊण मॆं हॊं तथा लग्नॆश बली हॊ तॊ पूर्ण आयु हॊती है॥63 ॥।

षट्सप्तरंन्धभावॆषु संयुक्तॆषु शुभॆषु च। - त्रिषडायॆषु पापॆषु पूर्णमायुर्विनिर्दिशॆत ॥64॥

6॥718 भाव मॆं शुभ ग्रह हॊं और  3।6।11 भाव मॆं पापग्रह हॊं तॊ पूर्ण आयु हॊती है॥64 ॥

अथायुर्बाधकं विप्र कथयामि तवाग्रतः॥ दीर्घायुर्यॊगं सम्प्राप्य प्रकारशकलॆष्वपि॥65॥। आयु कॆ बाधक यॊगॊं कॊ कह रहा हूँ॥65॥।

। अथ निधनसमयज्ञानम्किं दशायां च निधनमिति ज्ञातुमपॆक्षया।

निर्णयं तस्य कुर्वीत तवाग्रॆ कथयाम्यहम॥66॥ - तीनॊं प्रकार सॆ दीर्घायु यॊग कॆ प्राप्त हॊनॆ पर किस दशा मॆं मृत्यु । हॊती है, इसकॆ ज्ञान कॆ लि‌ऎ मै निर्णय कह रहा हूँ॥66॥

दीर्घ द्विसप्ततिवर्षॆ तदूर्ध्वं तु चिन्तयॆन्मृतिम।

षट्त्रिंशदकादूर्ध्वं च चिन्तयॆन्मध्यमायुषि॥67॥ । दीर्घायु यॊग मॆं 72 वर्ष कॆ बाद और  मध्यायु यॊग मॆं 36 वर्ष कॆ बाद मृत्यु का विचार करना चाहि‌ऎ॥67 ॥

अथ स्पष्टं प्रवक्ष्यामि मंलिनॆ द्वारबाह्ययॊः। । नवांशॆ निधनं तस्य त्रिशूलिभाषितं पुरा॥68॥।

द्वार राशि और  बाह्य राशि कॆ पापाक्रांत हॊनॆ सॆ उसकी दशा मॆं मृत्यु : हॊती है॥68॥

- द्वारद्वारॆशयॊर्विप्र : मालिन्यॆ तन्नवांशकॆ। । जातस्य हि भवॆन्मृत्युः सत्यमॆव न संशयः॥69॥

अथवा द्वार राशि वा द्वारॆश कॆ पापाक्रांत हॊनॆ सॆ उसकी दशा मॆं मृत्यु । हॊती है॥69॥।

पाकभॊगद्वयॆ विप्र चिन्तनीयं प्रयत्नतः॥ स्वयं पापः पापदृष्टॆ पापखॆटसमन्वितॆ । तन्नवांशदशाकालॆ निधनं च भवॆद्ध्रुवम ॥70॥।


ऋग्स

आयुर्दायाध्यायः दॊनॊं दशा‌ऒं मॆं (दशा-अंतर्दशा) मॆं अर्थात द्वारॆश स्वयं पापी हॊ अथवा पापग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ वा पापयुक्त हॊ तॊ उसकी दशा या अंतरदशा मॆं मृत्यु हॊती है॥70 ॥

अथवा यॊगायुर्दायसमाप्तिसमयॆष्वपि। प्रॊक्तॆ मूलाश्रयीभूतॆ चिन्तनीयं द्विजॊत्तम ॥71॥ अथवा यॊगज आयु की समाप्ति समय मॆं मृत्यु काल कॆ समीप की दशा मॆं मृत्यु का विचार करना चाहि‌ऎ॥71॥

खण्डॆ वा यदि पाकस्य बाह्यस्य मलिनॆ यदि। दशा न हि समाप्यॆत तत्रिकॊणाब्दकॆ मृतिः॥72॥

अथवा बाह्य राशि कॆ मलिन हॊनॆ कॆ समय उसकॆ खंड मॆं यदि दॆशा न समाप्त हॊ तॊ उसकी त्रिकॊण राशि कॆ वर्ष मॆं मृत्यु हॊती है॥72॥

अधुना सम्प्रवक्ष्यामि मृत्युयॊगापवादकम॥ शुभदृष्ट्या शुभयॊगॆ शुभखॆचरसंयुतॆ ॥73॥। यदि द्वारबाह्य राशि वा उनकॆ स्वामी शुभ ग्रह सॆ युक्त वा शुभ दृष्टि सॆ युक्त हॊं तॊ॥73 ॥

न च द्वारॆ न बायॆ च द्वारॆशॆ चॊपलक्षितॆ। द्वारॆशश्चयनवांशभुक्तौ च निधनं भवॆत॥74॥ उक्त द्वार बाह्य राशि वा इनकॆ स्वामियॊं की दशा अंतर मॆं मृत्यु नहीं हॊती है, किन्तु द्वारॆश कॆ आश्रयीभूत नवांश की दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥74॥।

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि प्रकारं वै द्वितीयकम॥ यस्य विज्ञानमात्रॆण आयुर्दासूचकॊ भवॆत॥1॥ अब मैं आयु कॆ निर्णय का दूसरा प्रकार कह रहा हूँ, जिसकॆ ज्ञान मात्र सॆ आयु कॊ जाननॆवाला मनुष्य हॊता है॥1॥..

कारकात्सप्तमाद्विप्र अष्टमॆशॊ, तयॊर्द्वयॊः। मध्यॆ चैकॊ बली चिन्त्यः सॊऽपि ह्यायुःप्रदॊ ग्रहः॥2॥

आत्मकारक और  उससॆ सातवाँ भाव दॊनॊं सॆ जॊ अष्टमॆश, दॊनॊं अष्टमॆशॊं मॆं जॊ बली हॊ॥2॥


। 280.. . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम .

कॆन्द्रादित्रिकयॊमॆन दीर्घमध्याल्पतायुषि। । स विज्ञॆया महाप्राज्ञ तवाग्रॆ प्रवदाम्यहम॥3॥

वह यदि कॆंद्र मॆं हॊ तॊ दीर्घायु, पणफर मॆं हॊ तॊ मध्यायु और  आपॊक्लिम ... मॆं हॊ तॊ अल्पायु हॊती है॥3॥

कॆन्द्रॆ स्थितॆऽपि दीर्घायुर्मध्यायुः पणफरॆ स्थितॆ । । आपॊक्लिमॆ स्थितॆ त्वल्पमायुर्भवति निश्चितम ॥4॥

 इसी प्रकार लग्न और  उससॆ सप्तम भाव, दॊनॊं सॆ अष्टमॆश, इन दॊनॊं

अष्टमॆशॊं मॆं जॊ बली हॊ वह यदि कॆंद्र मॆं हॊ तॊ दीर्घायु, पणफर मॆं हॊ । . तॊ मध्यायु और  आपॊक्लिम मॆं हॊ तॊ अल्पायु हॊती है॥4॥ - लग्नात्तत्सप्तमाद्विप्र अष्टमॆशॊ तयॊर्द्वयॊः।

: ताभ्यांमध्यॆ बलीचैक स्थितः कॆन्द्रादि पूर्ववत॥ । दीर्घमध्याल्पभॆदॆन आयुर्निश्चित्य पूर्ववत॥5॥ ..

 हॆ विप्र ! लग्न और  सप्तम सॆ जॊ अष्टमॆश, दॊनॊं मॆं जॊ ऎक बली,उसकॆ 8. : कॆन्द्रादि मॆं रहनॆ सॆ पूर्ववत दीर्घ, मध्य, अल्पायु का निर्णय करना

चाहि‌ऎ॥5॥ । पूर्ववद्धन्द्वखण्डस्य त्रैराशिकक्रमॆण च।

आयुर्दायकृतॆ स्पष्टं प्रवक्ष्यामि इदं वचः॥6॥ । इस प्रकार दीर्घ आदि मॆं आयु का निर्णय करकॆ पूर्व कहॆ हु‌ऎ आयु कॊ

स्पष्ट करकॆ निर्णय इस प्रकार करना चाहि‌ऎ॥6॥ । स्वस्मिन्समबलॆ खॆटॆऽनधिकॆ च बलॆ द्विज. । न वीर्यतायां दीर्घादि विपरीतायुषि भवॆत॥7॥

यदि आयुक ग्रह समानः बल कॆ अथवा अल्प बल कॆ हॊं तॊ दीर्घादि विपरीत आयु हॊती हैं॥7॥

दीर्घमध्यॆ च वाल्पं च स्वल्पं वा किञ्चिदॆव च।

विपरीतं यॊगभङ्गॆ सत्यमॆव न संशयः॥8॥ ।. .. दीर्घ, मध्य, अल्प वा उससॆ कुछ कम आयु हॊती है। इस प्रकार यॊग . 0 ।

भंग हॊनॆ सॆ विपरीत आयु हॊती है॥8॥

अथाग्रॆऽनॆकभॆदानामायुषॊ निर्णयः कृतः॥ । दीर्घादित्रयरूपॆण इत्युक्तं ब्रह्मणॊदितम ॥9॥

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आयुर्दायाध्यायः :

छॆ आयु जाननॆ का दूसरा प्रकार कह रहा हूँ, जिसॆ दीर्घादि तीनॊं प्रकार सॆ ब्रह्माजी नॆ कहा है॥9॥

जन्मलग्नाष्टमॆशौ द्वौ चिन्तयॆज्जन्मपत्रकॆ। पञ्चमैकादशॆ विप्र दीर्घायुश्च प्रजायतॆ॥10॥ जन्मांग चक्र मॆं लग्नॆश और  अष्टमॆश यदि 5।11 भाव मॆं हॊं तॊ दीर्घायु ॥10॥

लाभॆ तृतीयगॆ वापि मध्यमायुर्विचिन्तयॆत। , लाभॆ वित्तॆ त्रिकॊणॆ वा ह्यायुरल्पं भवॆद्विज॥11॥ ।11।3 भावॊं मॆं हॊं तॊ मध्यमायु और  11।2।5।9 भावॊं मॆं हॊं तॊ। अल्पायु ॥11॥।

गतायुलभगॊ द्वौ चॆज्जातकॊऽपि न जीवति। ऎवं समस्तजन्तूनामीदृग्यॊगं विचिन्तयॆत॥12॥

और  दॊनॊं 11 भाव मॆं हॊं तॊ गतायु हॊता है और  जातक नहीं जीता है। इस प्रकार सॆ सभी प्राणियॊं कॆ आयुर्दाय का निर्णय करना

चाहि‌ऎ॥12॥ । अथैवं भिन्नमार्गॆण आयुर्दायं निरूप्यतॆ।

तनुतन्वीशतद्राशिपत्युर्भानां त्रिकॊणकॆ।13॥ पुनः प्रकारान्तर सॆ आयु का निर्णय कह रहा हूँ। लग्न, लग्नॆश और  उनकी राशियॊं कॆ स्वामि सॆ त्रिकॊण मॆं॥13॥

अल्पमध्यचिरायुष्यं रूपवर्णप्रमाणतः। अष्टमॆशादियॊगॆन निर्याणं कारयॆद्ग्रहः॥14॥ अल्प, मध्य और  दीर्घायु रूप वर्ष प्रमाण सॆ हॊती है। इसमॆं अष्टमॆश । आदि .कॆ युग सॆ निर्याणकर्ता ग्रह हॊता है॥14॥

लग्नत्रिकॊणगॆऽल्पायुर्लग्नॆशस्य त्रिकॊणगॆ। मध्यमायुर्विजानीयान्निर्विशङ्कं द्विजॊत्तंम॥15॥ लग्न त्रिकॊण मॆं अल्पायु, लग्नॆश सॆ त्रिकॊण मॆं मध्यमायु॥15॥

लग्नॆशात्स्वीयराशीशॆ त्रिकॊणॆ रन्ध्रनायकॆ। दीर्घायुषि प्रदातव्यं पुरा शम्भुप्रणॊदितम॥16॥।

लग्नॆश वा जन्मराशीश वा अष्टमॆश त्रिकॊण मॆं हॊ तॊ दीर्घायु हॊता . है॥16॥

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम तॆषां मध्यॆ त्रिकॊणानां विभागॆ च नवं कथम। स्वल्पमध्यचिरायुष्यं द्वादशाद्वाधिकॆन च॥17॥ यहाँ घर त्रिकॊण कॆ विभाग मॆं नव का भॆद कैसॆ हॊ यहाँ प्रत्यॆक त्रिकॊण मॆं अल्प, मध्य, दीर्घायु बारह (12) वर्ष का भॆद हॊता है॥17॥

। अल्पायुषस्त्रयॊ भॆदास्त्रयस्थानॆ पृथक पृथक ।

विलग्नॆशाष्टमॆशादि लग्नस्थॆऽपि द्विजॊत्तम ॥18॥ अल्पायु का तीन भॆदः तीनॊं स्थानॊं मॆं हॊता है। यदि लग्नॆश, अष्टमॆश लग्न मॆं हॊं तॊ॥18॥

द्वादशाब्दं भवॆदायुश्चतुर्विंशति पञ्चमॆं। । नवमॆ च षट्त्रिंशाब्दमित्यॆवं न तु संशयः॥19॥

12 वर्ष, पाँचवॆं भाव मॆं हॊं तॊ 24 वर्ष और  नवॆं भाव मॆं हॊं तॊ । 36 वर्ष की अल्पायु हॊती है॥19॥।

लग्नॆशराशिकॊणॆषु लग्नरन्ध्राधिपा यदि। तत्र स्थितॆष्टवॆदाब्दं षष्ट्यब्दं पञ्चमॆ स्थितॆ ॥20॥ लग्नॆश की राशि सॆ त्रिकॊण मॆं लग्नॆश अष्टमॆश हॊं तॊ तीन भॆद हॊता है। राशि मॆं हॊ तॊ 48 वर्ष, पाँचवॆं भाव मॆं हॊं तॊ 60 वर्ष ॥20॥।

नमस्थॆ द्विसप्ताबं तन्नवकमिदं मतम॥

लाग्नॆशाश्रितराशीशात्रिकॊणॆषु स्थितॆ द्विज॥21॥

और  नवॆं भाव मॆं हॊं तॊ 72 वर्ष की मध्यमायु हॊती है। लग्नॆश जिस राशि मॆं हॊं उसकॆ स्वामी सॆ त्रिकॊण मॆं लग्नॆश, अष्टमॆश हॊं तॊ दीर्घायु कॆ तीन भॆद हॊतॆ हैं॥21॥

लग्नॆशादष्टमॆशादि त्रिभागं दीर्घमायुषि।

लग्नस्र्थॆ चतुरशीतिः पञ्चमॆ षट्नवात्मकः॥22॥ । लग्नॆश, अष्टमॆश कॆ यॊग सॆ दीर्घायु मॆं भी तीन भॆद हॊतॆ हैं। लग्न मॆं हॊं तॊ 84 वर्ष, पाँचवॆं भाव मॆं हॊं तॊ 96 वर्ष॥22॥ ।

। नवमॆऽष्टॊत्तरशतं वर्षॆष्वायुर्विनिर्णयः। । द्वादशाब्दानुपातॆ च यॆतच्छम्भुप्रणॊदितम॥23॥

नवम भाव मॆं हॊं तॊ 108 वर्ष की दीर्घायु हॊती है। यही 12 वर्ष कॆ अनुपात सॆ शंभु नॆ कहा है॥23॥

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आयुर्दायाध्यायः

. घ3 रविः कुजः शनी राहुर्मरणॆ बलिनः क्रमात। विशॆषं दुर्बलं हित्वा गृवीयालिनः सुधीः॥24॥ सूर्य, भौम, शनि और  राहु यॆ प्रबल मारक हॊतॆ हैं। इनमॆं जॊ विशॆष दुर्बल हॊ उसॆ छॊडकर प्रबल कॊ ही लॆना चाहि‌ऎ॥24 ॥

कॆतुश्च शनिवन्मृत्युनाथसम्बद्धमादिशॆत। शनिना राहुणा वापि युक्तॆ सौम्यॆ रवीक्षितॆ ॥25॥ कॆतु भी शनि कॆ समान ही मारक हॊता है। शॆन वा राहु कॆ साथ शुभ ग्रह युत हॊ तथा सूर्य सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ॥25॥।

पर्यायमॆकं तन्मध्यॆ ऎकराशौ मृतिं वदॆत। । तयॊस्तु शुभयॊगॆन तद्दशामृतिमादिशॆत॥26॥ । ऎक पर्याय कॆ मध्य मॆं ही मृत्यु करता है। दॊनॊं यदि शुभयुक्त हॊं तॊ

उनकी दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥26॥

भॊगराशौ दुर्बलॆ वा प्रबलॆ ग्रहसंस्थितॆ।

तथापि निर्दिशॆत्कालॆ मरणं नात्र संशयः॥27॥

 अन्तर दशा की राशि दुर्बल हॊ वा प्रबल ग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ उसकॆ समय मॆं मृत्यु कहना चाहि‌ऎ॥27॥ ।

। कॆतौ चैवासनस्थॆ वा नाथॆ वांऽशुभवीक्षितॆ। ।

कॆतॊर्दशान्तॆ मृत्युः स्याच्छुभदृष्टॆन किञ्चन॥28॥ यदि कॆतु अंत्य मॆं हॊ अथवा उस राशि कॆ स्वामी पापग्रह सॆ दॆखा जाता . हॊ तॊ कॆतु की दशा मॆं मृत्यु हॊती है। शुभ ग्रह सॆ दृष्ट हॊ तॊ कुछ भी नहीं हॊता है॥28॥।

तन्वधीशाष्टमॆशाभ्यां यॊगॆनायुः कृतॆ द्विज। अष्टमॆशस्य स्वॊच्चस्थॆ चर्पर्याब्दप्रमाणकॆ॥29॥ लग्नॆश, अष्टमॆश सॆ आयु यॊग हॊता हॊ और  अष्टमॆश अपनी उच्च राशि मॆं हॊ तॊ चर पर्याय कॆ वर्ष मॆं ॥29॥

अर्धाधिकाब्दं दत्वैव यॊजयॆत्पूर्वमायुषि। ऎवं नाथान्तरीत्या च चरपर्यातिरिक्तकः॥30॥

आधॆ सॆ अधिक वर्ष पूर्व आयु मॆं जॊडकर विचार करना चाहि‌ऎ। इस प्रकार राशिस्वामी तक चर पर्याय मॆं विचार करना चाहि‌ऎ। ।30॥


छ्य

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम मर्यादयापि यदायुरष्टमॆशॆन दीयतॆ । तत्सर्वमर्धाधिक्यॆ च विधॆयं द्विजसत्तम॥31॥ मर्यादा कॆ अनुसार अष्टमॆश जिस आयु कॊ दॆता हॊ उसमॆं अर्धाधिक्य कर दॆना चाहि‌ऎ॥31॥

ऎवं रन्ध्रपतिर्विप्र नीचराशिगतॊऽपि च। तद्ग्रहॆण दीयमानमायुरद्धं च नाशयॆत॥32॥। इसी प्रकार अष्टमॆश नीच राशि मॆं हॊ तॊ उससॆ प्राप्त आयु का आधा ह्रास हॊ जाता है॥32॥

ऎवं रन्ध्रपतिर्विप्र नीचखॆटॆन संयुतः। तद्ग्रहॆण दीयमानमायुर विनश्यति ॥33॥ अथवा अष्टमॆश किसी नीच राशि मॆं स्थित ग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ भी प्राप्त आयु का आधा ह्रास हॊता है॥33॥।

ऎवं रन्ध्रपतिविप्र तुङ्गखॆटॆन संयुतः। तद्ग्रहॆण दीयमानमायुरद्धं च वर्धति॥34॥ इसी प्रकार अष्टमॆश उच्च स्थित ग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ उससॆ प्राप्त आयु का आधा बढता है॥34॥

ऎवमुक्तं च विप्रॆन्द्र परमायुर्विनिश्चितम॥

लग्नॆशाष्टमॆशाभ्यां यॊगायुर्दायमागतॆ ॥35 ॥ इस प्रकार मैंनॆ आयु का निर्णय तुमसॆ कहा। लग्नॆश, अष्टमॆश कॆ यॊग सॆ आयॆ हु‌ऎ आयुर्दाय का॥35॥

तॆषु संस्कारमाज्ञॆयमिदं पूर्वॊक्तसंकथाम॥ लग्नॆशादायुरित्यॆवं तत्तद्यॊगकलात्मकम॥36॥ यथॊचित संस्कार करकॆ जॊ फल उच्च-नीचादि कॆ अनुसार का आवॆ॥36॥

संयुक्ताश्च ग्रहा उच्चनीचादिगुणदॊषतः। वृद्धिहासावुक्तरीत्या कार्या वै सम्प्रदायतः॥37॥ उसॆ आयु मॆं जॊड दॆना चाहि‌ऎ और  संप्रदाय कॆ अनुसार हास-वृद्धि भी कर दॆना चाहि‌ऎ॥37॥


24

आयुर्दायाध्यायः द्वित्र्यादिमृत्युयॊगश्च प्रबलः पूर्वभाषितः। नैसर्गिकॊऽपि वीर्याय तस्य पाकॆ मृतिर्भवॆत॥38॥ यदि पूर्व मॆं कहॆ हु‌ऎ दॊ या तीन प्रबल मृत्यु यॊग हॊं तॊ नैसर्गिक यॊगकारक भी बलवान हॊतॆ हैं। उसी की दशा मॆं मृत्यु कहना चाहि‌ऎ॥38॥

रव्यारराहुपंगूनां चतुःखॆटान्तरॆ बली। तस्य यॊगानुसारॆण जातकस्य मृतिं वदॆत॥39॥ रवि, भौम, राहु और  शनि इन चारॊं मॆं जॊ बलवान हॊ उसी की दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥39 ॥

अष्टमॆशॆन संयुक्तः शनिराहुः कुजॊ रविः। न वीक्ष्यन्तॆ ग्रहैर्वापि तस्य मृत्यु विनिर्दिशॆत॥40॥। यदि शनि, राह, भौम और  रवि मॆं सॆ कॊ‌ई अष्टमॆश सॆ युत हॊ, अन्य ग्रहॊं सॆ न दॆखॆ जातॆ हॊं तॊ उसकी दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥40॥

ऎषां मध्यॆषु प्रबला सा तत्स्वामिकराशिगॆ। . पाकॆ मृत्यु विजानीयान्निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥41॥ । इनमॆं जॊ प्रबल हॊं तॊ उसकॆ स्वामी की राशि की दशा मॆं निःसंशय मृत्यु हॊती है॥41॥

ऎषां चतुर्ग्रहाणां च मध्यॆ चैकॊ बली क्वचित। तस्य राशिदशाकालॆ मृतिस्थानं विनिर्दिशॆत ॥42॥ इन चारॊं ग्रहॊं मॆं कॊ‌ई ऎक बली ग्रह हॊ उस ग्रह की राशि दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥42॥

मृत्युस्थानाभिभूतायां सिद्धायां च महादशा। तत्तस्यापि क्रमॆणैव तदनन्तरमृतिप्रदा॥43॥ मृत्युकारक ग्रह कॆ निर्णयानुसार उसकी अंतर्दशा मॆं भी मृत्यु हॊती। है॥43॥

शुभग्रहॆण सम्बन्धॆ शनिराहु कुजॊ रविः। तत्तत्स्वामिदशाकालॆ मरणं च विनिर्दिशॆत॥44॥ यदि शनि, राहु, भौम, रवि शुभग्रह सॆ सम्बन्ध करतॆ हॊं तॊ भी उनकी दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥44॥


छॆ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम तदाश्रयरॊशिपाकॆ मृत्युर्भवति निश्चितम। निर्विशङ्कं महाप्राज्ञ पुरा शम्भुप्रणॊदितम॥45॥ ऎवं उनकॆ आश्रयभूत राशि की दशा मॆं भी मृत्यु हॊती है॥45॥

सुखदुःखादि सन्ब्रूयात्पाकराशौ विचिन्तयॆत॥

यॊगान्नरगता तत्तु तत्तद्वीर्यानुसारतः॥46॥ । पाकॆश्वर कॆ अनुसार सुख-दुःखादि उस ग्रह कॆ यॊग और  बल कॆ अनुसार कहना चाहि‌ऎ ॥46॥।

सबलायां सुखं ब्रूयाद्दर्बला दुःखदायिका॥ वैषम्यॆन फलं वाच्यं तथा मरणमॆव च॥47॥ यदि बलवान हॊ तॊ मृत्यु और  निर्बल हॊ तॊ दुःख दॆनॆ वाला हॊता है, वैषम्य हॊ तॊ मृत्यु हॊती है॥47 ॥।

द्वादशॆ दशमॆ वापि संस्थितॆ पुच्छनायकॆ। पापदृष्टॆ दशाप्राप्तॆ तदन्तरगतॆ मृतिः॥48॥ यदि कॆतु 12 या 10 भाव मॆं हॊ और  पापग्रह सॆ दृष्ट हॊ तॊ उसकॆ दशा और  अन्तर सॆ मृत्यु हॊती है॥48॥

द्वादशॆ दशमॆ कॆतुः शुभग्रहनिरीक्षितः। नायं यॊगॊ महाप्राज्ञ न कष्टं न च मृत्युकृत॥49॥ यदि 12 या 10 भाव मॆं कॆतु हॊ और  शुभग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ यह यॊग न तॊ कष्टकारक हॊता है और  न मृत्युकारक हॊता है॥49॥ । प्राणिनीत्युक्तं विप्रॆन्द्र प्राणानयनमुच्यतॆ।

राश्यधीनं बलं ज्ञॆयं तदुक्तं कथ्यतॆऽधुना॥50॥। पहलॆ बल की चर्चा कर आयॆ हैं अतः उसका विचार कह रहॆ हैं। राशि कॆ अधीन ही बल का विचार हॊता है॥50॥।

अग्रहात्सग्रहॊ ज्यायान्सग्रहॆ त्वधिकग्रहः। साम्यॆ चरस्थिरद्वन्द्वाः क्रमात्स्युर्बलशालिनः॥51॥ जॊ ग्रह अकॆला है उसकी अपॆक्षा ग्रहयुक्त ग्रह बली हॊता है। ग्रहयुक्त ग्रह यदि समान ग्रहॊं सॆ युक्त हॊ तॊ जॊ संख्या मॆं अधिक ग्रहॊं सॆ युक्त हॊ वह उसकी अपॆक्षा बला हॊता है। इसमॆं भी समानता हॊ तॊ चुर राशि मॆं बैठॆ हु‌ऎ की अपॆक्षा स्थिर राशिवाला और  इसकी अपॆक्षा द्विस्वभावस्थ बली हॊता है॥51॥।

आयुर्दायाध्यायः

छू अथ दीर्घादियॊगॆषु त्रिषु च द्विजसत्तम। कक्षाहासकृतॆ यॊगान्दर्शयामि तवाग्रतः॥52॥ दीर्घायु, मध्यायु और  अल्यायु यॊगॊं मॆं कक्षा कॆ क्लास की स्थिति कॊ कह रहा हूँ॥52॥।

लग्नसप्तमयॊर्विप्र द्विद्वादशकयॊरपि। षष्ठरन्ध्राधिपस्यापि जनुर्लग्नॆ विचिन्तयॆत॥53॥ लग्न सप्तम, द्वितीय-द्वादश, षष्ठ-अष्टम इनकॆ अधिपति॥53॥

पापाक्रान्तॆ पापयॊगॆ पापमध्यत्वमागतॆ। कक्षाहासॊ विजानीयान्निर्विशकं द्विजॊत्तम ॥54॥ पापाक्रांत पापग्रह पापग्रह सॆ युक्त और  और  पापग्रह कॆ मध्यम मॆं हॊ तॊ कक्षा का ह्रास हॊता है॥54॥

दीर्घस्य मध्यमा याता भवॆदायुषि मध्यमॆ। अल्पादल्पं च विज्ञॆयं कक्षाहासस्य लक्षणम॥55 अर्थात दीर्घायु हॊ तॊ मध्यायु, मध्यायु हॊ तॊ अल्पायु और  अल्पायु हॊ तॊ उससॆ भी अल्प आयु हॊती है। यही कक्षाह्रास का लक्षण है॥55 ॥

कक्षाहासॊ यदार्थॊऽपि पूर्ववज्जायतॆ ध्रुवम॥ अथैवं लग्नकुण्डल्यां पापयॊगत्रिकॊणकॆ॥56॥ कक्षाह्रास हॊनॆ सॆ आर्थिक स्थिति मॆं न्यूनता आ जाती है। इसी प्रकार लग्न कुंडली मॆं भी त्रिकॊण मॆं पाप यॊग सॆ कक्षाह्रास हॊता है॥56॥

लग्नपञ्चमभाग्यॆषु पापयॊगकृतॆ द्विज।

कक्षाहासॊ भवॆद्विप्र निर्विशकं विधॆः सुत॥57॥ । लग्न, पंचम और  नवम भाव मॆं पाप ग्रह का यॊग हॊनॆ पर कक्षा

का ह्रास हॊता है॥57॥

अत्रास्मिन्कारकॆ लग्नॆ चिन्तयॆज्जनिलग्नवत॥ कारकांशॆ द्यूनराशॆः पापमध्यत्वमॆव हि॥58॥ कारक लग्न मॆं भी जन्मलग्न कॆ समान ही विचार करना चाहि‌ऎ। कारकांश सॆ सप्तम भी पापमध्य मॆं हॊ तॊ भी कक्षाह्रास हॊता है॥58 ॥


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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ऎकॊ यॊगः स विज्ञॆयः कक्षाह्रासं च पूर्ववत ।

अथैककक्षाहासस्य चापवादं वदाम्यहम॥59॥ अब इसका अपवाद कह रहा हूँ॥59॥।

ऎकस्थकक्षाहासं च वित्तपॆ चान्यथा भवॆत। पूर्ववच्छुभयॊगॆन कक्षावृद्धिर्भविष्यति॥60 ॥ जिसमॆं शुभ यॊग हॊनॆ सॆ कक्षावृद्धि हॊती है॥60 ॥ जनुल्लैग्नॆ कारकॆ च चिन्तयॆत्पूर्ववद्विज। लग्नॆ छूनॆ धनॆ रिष्फॆ घष्ठॆ रंध्र स्थलत्रयॆ॥61॥ लग्न, सप्तम, द्वितीय, द्वादश, षष्ठ और  अष्टम इनमॆं किन्हीं तीन स्थान मॆं॥61॥

शुभखॆटकृतॆ यॊगॆ कक्षावृद्धिर्भवत्यपि। चिन्तयॆत्पूर्ववद्विप्र त्रिकॊणॆषु स्थलद्वयॆ॥62॥ शुभ ग्रह का यॊग हॊ तॊ कक्षा की वृद्धि हॊती है। इसी प्रकार दॊनॊं त्रिकॊणॊं मॆं भी विचार करना चाहि‌ऎ॥62॥

जनुल्लैग्नं कारकं च शुभयॊगं करॊति चॆत। कक्षावृद्धिर्न सन्दॆहॊ भविष्यति द्विजॊत्तम॥63॥ तथा जन्मलग्न और  कारक शुभग्रह सॆ यॊग करता हॊ तॊ कक्षा की वृद्धि हॊती है इसमॆं संदॆह नहीं है॥63 ॥।

कारकॆ च त्रिकॊणस्थ नीचस्थाः पापखॆचराः।

 कक्षाहासॊ महाप्राज्ञ द्वितयॆन भविष्यति॥64॥

यदि कारक त्रिकॊण मॆं हॊ और  पापग्रह अपनी नीचराशि मॆं हॊ तॊ दॊनॊं सॆ कक्षा का ह्रास हॊता है॥64॥

कारकांशात त्रिकॊणॆषु शुभखॆटॆ शुभस्थलॆ। कक्षावृद्धिर्भवॆत्तत्र न सन्दॆहॊ द्विजॊत्तम॥65॥ कारकांश मॆं त्रिकॊण मॆं शुभराशि मॆं शुभग्रह हॊ तॊ कक्षा मॆं वृद्धि हॊती है॥65 ॥

कारकॆ पापखॆटाच्च अन्त्यगॆ पापसंयुतॆ। कक्षाहासॊ भवॆत्तत्र प्रणीतॆ द्विजसत्तम॥66॥ पापग्रह 12वॆं भाव मॆं कारक हॊ और  पापग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ कक्षा का ह्रास हॊता है॥66॥


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आयुर्दायाध्यायः कारकॆ शुभसंयुक्तॆ स्वतुङ्गॆ शुभखॆचराः। कक्षावृद्धिर्भवॆत्तत्र निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥67॥. कारक शुभग्रह सॆ युक्त हॊ और  शुभग्रह अपनॆ उच्च मॆं हॊं तॊ कक्षावृद्धि हॊती है॥67 ॥

पाषकारकजैर्हासॊ वृद्धिर्वा कथिता द्विज।

अथैव गुरुणा कक्षाहासवृद्धिं वदाम्यहम॥68॥ इस प्रकार पापग्रह सॆ उत्पन्न कक्षा की ह्रास वृद्धि मैंनॆ कहा। इसी प्रकार गुरु सॆ कक्षा की हास-वृद्धि कह रहा हूँ॥68 ॥

वित्तॆ व्ययॆ लग्नषष्ठॆ त्रिकॊणॆ पापयॊर्द्विज। . कक्षाह्रासॊ भवॆत्तत्र पूर्ववद्विजसत्तम॥69॥ गुरु सॆ दूसरॆ, बारहवॆं, लग्न, छठॆ और  त्रिकॊण मॆं पापग्रह हॊं तॊ कक्षा का ह्रास पूर्ववत हॊता है॥69॥।

गुरौ नीचॆ स्वतुङ्गॆ च संयुक्तॆऽशुभखॆचरैः। कक्षाहासॊ भवॆत्तत्र निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥70॥ गुरु अपनॆ नीच मॆं अथवा अपनी उच्चराशि मॆं पापग्रहॊं सॆ संयुक्त हॊ तॊ कक्षा का ह्रास हॊता है॥70॥।

वित्तगॆ च गुरौ ज्ञॆयं पूर्ववन्नियमं द्विज॥ प्रागुक्तार्थकृतॆयं कक्षा सर्वा प्रकथ्यतॆ॥71॥ गुरु दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ पूर्ववत कक्षाहास-वृद्धि कॊ समझना चाहि‌ऎ। पूर्वॊक्त कक्ष क्रम कॆ ही लि‌ऎ यह सब कहा गया है॥71॥.

तथैव शुभयॊगॆषु चापवादं वदाम्यहम॥ उक्तस्थानॆ शुभैयॊगॆ पूर्णॆन्दुशुक्रयॊद्विज॥72॥ उक्त स्थानॊं मॆं शुभग्रह कॆ यॊग का अपवाद कह रहा हूँ। उक्त स्थानॊं मॆं शुभग्रह का यॊग पूर्णचन्द्र, शुक्र का हॊ तॊ। 72॥

यॊगप्रकरणॆ कक्षाह्रासाय न तु वृद्धयॆ। तत्रैकराशिवृद्धिश्च भवत्यॆव न संशयः॥73॥ कक्षा का ह्रास ही हॊता है, न कि वृद्धि, ऎक राशि की वृद्धि ही हॊती। है॥72॥।

पूर्ववच्चॊक्तपापॆषु शनिना यॊगकारक। कक्षाह्रासश्च तत्रैव यत्रैकॊ राशिहासकृत ॥74॥


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290 -- बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

पूर्वॊक्त पापग्रह यॊग मॆं शनि यॊग करता हॊ तॊ वहाँ पर कक्षा ह्रास मॆं ऎक राशि का ह्रास हॊता है॥74॥। । अथ स्थिरदशायां मृत्युसमयज्ञानम

अधुना सम्प्रवक्ष्यामि विशॆषॆण द्विजॊत्तम।

आलम्ब्य स्थिरर्दशायां यॊगान्निधनमॆव च॥75॥ अब मैं स्थिर कॆ अनुसार चार खंड कॆ अनुसार मृत्युसमय कॊ कह रहा हैं॥75॥।

त्रित्रिभिराशिमिरॆकं खण्डाश्चत्वार ऎव च॥ - । कस्मिन्खण्डॆचनिधनं तस्य यॊगं विचिन्तयॆत॥76॥ ।

तीन-तीन राशियॊं कॆ चार खंड हॊतॆ हैं। किस खंड मॆं मृत्यु हॊगी । इसकॊ कहता हूँ॥76॥

यॊगत्रयमहं वक्ष्यॆ दीर्घमध्याल्पभॆदतः। . . चतुःखण्डॆषु यत्रायुरागतं तत्र चिन्तयॆत ॥77॥

दीर्घायुर्यॊगवत्तत्तु . यस्मिन्खण्डॆ समागतॆ ॥ । तस्मिन्खण्डॆच निधनं भवत्यपि न सन्दॆहः॥78॥।

.. दीर्घायु, मध्यायु, अल्पायु कॆ भॆद चारॊं खंडॊं मॆं जहाँ समाप्त हॊ उसी

समय मृत्यु कॊ कहना चाहि‌ऎ॥77-78॥ । वक्ष्यमाणप्रकारॆण मध्यमाल्पायुषि द्विज।

* निधनाश्रयखण्डॆषु लक्षणाक्रान्तया दशा॥79॥ । इसी प्रकार मध्यायु और  अल्पायु कॆ खंडॊं मॆं जिस खंड कॆ जिस दशा मॆं मृत्यु का संदॆह हॊ उसी खंड मॆं उसॆ कहना चाहि‌ऎ॥79॥।

तद्दशायां च निधनं भवत्यॆव द्विजॊत्तम। कदाचिन्न मृतिस्तत्र क्लॆशदुःखभयानि च॥80॥ यदि कदाचित मृत्यु न हॊ तॊ उस समय क्लॆश, दुःख और  भय हॊता है।80॥

भवन्ति तत्र संस्कारं पुनरित्थं वदाम्यहम। पापद्वयमध्यगतॆ राशिपाकॆ मृतिर्भवॆत॥81॥ पापग्रहॊं कॆ मध्य मॆं स्थित राशि की दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥81॥


788

आयुर्दायाध्यायः लग्नाद्वा कारकाद्विप्र पापाक्रांतॆ त्रिकॊणकॆ। द्वादशाष्टमराश्यॆवं पापाक्रांतं भवॆदपि।82॥ लग्न सॆ आत्मकारक सॆ त्रिकॊण मॆं पापग्रह हॊं अथवा 12वीं राशि मॆं पापग्रह हॊं ॥82॥।

तद्दशायां च निधनं जातकस्य न संशयः।

खण्डॆ स्थिरदशायां च चिन्तनीय प्रयत्नतः॥83॥ तॊ उस राशि की दशा मॆं मृत्यु कहना चाहि‌ऎ।83॥

पापराशॆस्त्रिकॊणॆषु द्वादशाष्ट्रमराशिषु । पापाक्रान्तॆ तद्दशायां निधनं भवति ध्रुवम॥84॥

पापग्रह की राशि सॆ त्रिकॊण मॆं अथवा 1208र्वी राशि मॆं पापग्रह हॊ । तॊ उस राशि की दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥84॥

शुभमध्यॆ मृतिनैव पापमध्यॆ मृतिर्भवॆत। ’भूयॊऽपि निधनार्थाय राशिदॊष वदाम्यहम।85॥

शुभग्रह कॆ मध्य की राशि मॆं मृत्यु नहीं हॊती है और  पापग्रह कॆ मध्य । की राशि की दशा मॆं मृत्यु हॊती है। फिर भी निधन राशि कॆ दॊष कॊ कह रहा हूँ॥85॥।

द्वादशाष्टमपत्यॊश्च दृष्टौ क्षीणॆन्दुशुक्रयॊ। . तद्दशायां च निधनं भवत्यॆव न संशयः॥86॥

12।8 कॆ स्वामी क्षीणचन्द्र और  शुक्र सॆ दॆखॆ जातॆ हॊं तॊ उनकी - दशा मॆं निधन हॊता है॥86॥ ।

क्षीणॆन्दॊः कॆवलं दृष्टिः शुक्रदृष्टिश्च कॆवलम । । दृष्टिमात्रॆण निधनं स्थिरदशायां विचिन्तयॆत॥87॥

कॆवल क्षीणचन्द्र और  शुक्र कॆ दृष्टि भाव सॆ स्थिर दशा मॆं मृत्यु हॊती । है॥87॥।

मृत्युस्थानॆ तु या दृष्टि: पॊपमध्य प्रपश्यति। । तस्य दशां समालॊक्य व्यॊमषष्ठाधिपाद्विज॥885 : पापग्रह कॆ मध्य मॆं स्थित अष्टम स्थान कॊ पूर्वॊक्त (क्षीण चन्द्र वा शुक्र) : वा 10, 6 भाव कॆ स्वामी दॆखतॆ हॊं तॊ इसकी दशा मॆं॥88॥

निरीक्षतॆ नवांशॆषु द्वयॊः स्थानॆ द्विजॊत्तम।

तत्रैव निधनं ज्ञॆयं भाषितं च तवाग्रकॆ।89॥


787

। बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम अथवा10, 6 कॆ स्वामी सॆ दॆखी जाती हु‌ई अष्टमस्थ पापद्यमध्यस्थित राशि की अन्तर दशा मॆं निधन हॊता है॥89॥

पूर्वॊचनिधनस्थानॆ महापाकं नरॆष्वपि। व्यॊमषष्ठाधिपौ विप्र तयॊरंशं निरीक्षितॆ ॥10॥ राशॆन्तर्दशाकालॆ निधनं भवति ध्रुवम ।

अन्तर्दशायां रूपॆ द्वॆ निधनस्थानमॆव च॥11॥ , पूर्वॊक निधन स्थान कॆ समय महादशा मॆं 10, 6 भावॊं कॆ नवांशराशि कॆ अन्तर मॆं निधन हॊता है॥90-91 ॥

। इति आयुर्दायप्रकरणम।

अथ मारकप्रकरणम

. पराशर उवाच——। अथातः सम्प्रवक्ष्यामि निधनार्थॆ विशॆषतः॥

प्रकारान्तर्दशायास्तच्च रुद्राद्विजसत्तम॥1॥ , अबमै विशॆषकर निधन कॆ सम्बंध मॆं दशा-अन्तर्दशा कॆ विषय मॆं रुद्रग्रह द्वारा कह रहा हूँ॥1॥

लग्नघूनाष्टमॆश यौ तयॊर्मध्यॆ च यॊ बली। । प्राणीरुद्रमस क्यि‌अ निधनार्थॆ विचिन्त्यताम॥2॥

लग्न और  सप्तम सॆ जॊ अष्टमॆश उनमॆं जॊ बली हॊ वही रुद्रग्रह हॊता है॥2॥

क्यॊर्मध्यॆ बली चिन्त्यः शुभदृष्टॆन संयुतॆ। दुर्बलः सॊऽपि गौणाख्यॊ रुद्रग्रह इतीर्यतॆ॥3॥

वह शुभ दृष्ट वा शुभ युक्त हॊ तॊ बली हॊता है॥3॥ ।.. तत्रैव प्राणिरुद्रस्य विशॆषं गणयॆत्फलम। । प्रवक्ष्यामि तवायॆ च शृणुष्व त्वं महामतॆ॥4॥

जॊ दुर्बल है वह भी रुद्रग्रह हॊता है॥4॥

शुभैर्युक्तॆ शुभैर्दष्टॆ शुभसम्बन्धकारकः। । रुद्रः स विज्ञॆयस्तसीमांत्तमायुरॆव च ॥5॥

कारक यदि शुभग्रह सॆ युक्त हॊ, शुभदृष्ट हॊ वा संबंध करता हॊ, बली हॊ तॊ वह रुद्रग्रह हॊता है। रुद्र शूलान्त पर्यन्त आयु हॊती है॥5॥

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अथ मारकप्रकरणम । रुद्रशूलान्तमायुः स्यात त्रिकॊणान्तॆ तथा पुनः। लग्नान्तॆ पञ्चमान्तॆ च नवमान्तॆ त्रयस्थलॆ ॥6॥ अथवा उसकॆ त्रिकॊण राशि पर्यन्त आयु हॊती है। लग्नान्त, पंचमान्त और  नवमांत इन्हीं तीनॊं कॊ त्रिकॊणान्त समझना चाहि‌ऎ ॥6॥

चिन्तनीयं महाप्राज्ञ तत्तद्राशिदशान्तरॆ।

अल्पमध्यं च दीर्घायुर्यॊगभॆदा न संशयः॥7॥ तत्राप्यायु:समायॊगॆ त्रिकॊणमध्यमॊत्तरॆ।

आयुस्तत्रैव विज्ञॆयं तदग्रॆ च क्रमॆण च॥8॥ यॊगॆ मध्यायुषं प्राप्तॆ त्रिकॊणॆ मध्यमान्तगॆ। ...।

आयुर्दायसमाप्तिश्च निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥9॥ दीर्घायुर्यॊगसंलब्धॆ त्रिकॊणॆ नवमान्तगॆ। दशान्तरॆ महाप्राज्ञ आयुर्दायसमाप्तयॆ ॥10॥ इन्हीं खंडॊं मॆं अल्पायु, मध्यायु और  दीर्घायु कॆ भॆदॊं कॊ समझना चाहि‌ऎ। लग्न सॆ पंचमांत अल्पायु, नवमान्त पर्यन्त मध्यमायु और  इसकॆ बाद दीर्घायु कॊ समझना चाहि‌ऎ।10॥ ।: अथैवं लग्नघूनादि आरभ्य च दशाक्रमः।

प्रवृत्तिर्जन्मतॊ ज्ञॆया निर्विशकं द्विजॊत्तम॥11॥ इसी प्रकार लग्न सप्तमादि सॆ आरम्भ कर दशाक्रम जन्म सॆ ही जानना चाहि‌ऎ॥11॥

यत्र रुद्रग्रहस्यापि शुभदत्वं न भाव्यतॆ। तत्र जीवस्य नष्टत्वान्नॆदं फलमिति स्थितिः॥12॥ * जिसमॆं रुद्रग्रह का भी शुभदत्व नहीं हॊता है, वहाँ पर जीव कॆ नष्ट हॊ जानॆ सॆ उपरॊक्त फल नहीं हॊता है॥12॥

अथैव रुद्रशुलान्तमायुदयॆति कारणॆ। यॊगॆऽस्मिंश्च समुत्कर्षात्किञ्चिद्दर्शयति द्विज॥13॥।

इसी प्रकार सॆ रुद्रशूलान्त आयुर्दाय हॊनॆ का जॊ कारण हॊता है, उसका कारण कह रहा हूँ॥13॥


398

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम प्राणीरुद्रशुभॆर्दृष्टॆ पूर्वॊक्तफलदायकः॥ शुभयॊगॆ न सन्दॆह रुद्रशूलान्तमायुषि ॥14॥ यदि रुद्रग्रह शुभ दृष्ट हॊ तॊ पूर्वॊक्त फल कॊ दॆनॆ वाला हॊता है और  शुभ युक्त हॊ तॊ रुद्रशूलान्त आयु हॊती है, इसमॆं संदॆह नहीं है॥14॥

स्थित ऎव फलं जन्म कथितं कारणान्तरॆ। निरुक्तॆ शुभसंयॊगॆ किं कीर्तयति भॊ द्विज॥15॥

 पूर्वमॆव फलं साधॊ समुत्कृष्टॆ तदॆव चॆत ।

 सुतरां तदॆव वक्तव्यं निर्विशङ्कं.द्विजॊत्तम॥16॥

कारणान्तर सॆ पूर्वॊक्त फल हॊता है किन्तु शुभयॊग मॆं कॊ‌ई कारणांतर नहीं हॊता है॥16॥

अनॆन पूर्वयॊगॆन फलं किञ्चिद्धि न्यूनता। आद्यॊदिंतादुक्तकालात्पूर्वं पश्चान्मृतिर्यदि॥17॥ निरुक्तयॊगश्च तदा ह्यपवादं वदाम्यहम॥ रविं विहाय नितरां पापयॊगॊ भवॆद्विज ॥18॥.. इसमॆं भी यदि पूर्वॊक्त फल यदि उत्कृष्ट हॊ तॊ वही हॊता है। यदि पर्वॊक्त फल मॆं कुछ न्यूनता हॊ और  उसकॆ पूर्व पीछॆ मृत्यु हॊ जाय तॊ यह यॊग निष्फल हॊता है॥18॥।

यॊगॊऽयं निष्फलॊ वाच्यः पुरा ब्रह्मप्रणॊदितः। इदं फलं न भवति यॊगॆऽस्मिन्द्विजसत्तम॥19॥ नाशयॊगस्य वक्तव्यं फलं वापि भयङ्करम।

अधुना सम्प्रवक्ष्यामि गौणरुद्रस्य वै द्विज॥20॥ किन्तु नाश हॊनॆ कॆ यॊग का फल भयंकर हॊता है। अब मैं गौणरुद्र का विवॆचन कर रहा हूँ॥19-20॥

गुणप्रकर्षण फलं विशॆषॆण तवाग्रतः। । गौणरुद्रॆ महाप्राज्ञ मन्दारॆन्दुनिरीक्षितॆ ॥21॥।

अब मैं गुण की प्रकर्षता सॆ फल-विशॆष कॊ कह रहा हूँ। गौणरुद्र शनि, भौम, चन्द्र सॆ दॆखा जाता हॊ॥21॥

अभावॆ शुभयॊगस्य पापयॊगॊत्तरॆ तथा। शूलान्तात्फल विप्रॆन्द्र आयुर्दायं भवत्यपि॥22॥


3॥

शयः ॥

अथ मारक प्रकरणम॥

384 शुभग्रह का यॊग न हॊ, पापयॊग भी न हॊ, वा पाप यॊग हॊ अथवा भौम, शनि, चन्द्रमा कॆ साथ और  भी शुभग्रह की दृष्टि हॊ तॊ रुद्राश्रित राशि की अग्रिम राशि की दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥22॥

शुभदृष्टॆ वा शूलान्तात्परञ्चायुर्भवॆदपि। यॊगद्वयपरत्वॆन यॊजनीयं न संशयः॥23॥ शुभग्रह कॆ यॊग कॆ अभाव मॆं पापग्रह का यॊग हॊतॆ हु‌ऎ दॊनॊं यॊगॊं का ऎक कॆ बाद दूसरॆ का विचार करना चाहि‌ऎ॥23॥

ऎतद्यॊगद्वयं किञ्चिन्यूनतायामपि द्विज। . नॆदं फलं प्रवक्तव्यं मैत्रॆय भाषितं पुरा॥24॥ इन दॊनॊं कॆ यॊगॊं कॆ न्यून हॊनॆ सॆ पूर्व का फल नहीं हॊता है॥24॥

शुभदृष्टिभवॆ चैव यॊगॆ च परपूर्ववत। शुभदृष्टावसन्त्यां च पापयॊगाद्यभावतः॥25॥। शुभ दृष्टि हॊतॆ हु‌ऎ अथवा शुभ दृष्टि कॆ अभाव मॆं पापयॊगादि कॆ अभाव मॆं शुभ दृष्टि कॆ हॊतॆ हु‌ऎ ऎक यॊग हॊता है॥25॥

- कृत ऎकॊ हि यॊगश्च पूर्वयॊगजमॆव च। । अशुभयॊगॆ शुभदृष्टौ यॊगॊऽयमपरॊ द्विज॥26॥ । पापग्रह कॆ यॊग मॆं शुभ दृष्टि कॆ हॊतॆ हु‌ऎ दूसरा यॊग हॊता है॥26॥

पापयॊगैरभावॆ च शुभदृष्टौ च संयुतॆ। ’कॆमुतिकाख्यन्यायॆन सिद्धॊ यॊगस्तृतीयकः॥27॥ पाप यॊग कॆ अभाव मॆं शुभ दृष्टि हॊतॆ हु‌ऎ कैमुतिक न्याय सॆ तीसरा यॊग भी हॊता है॥27॥

पुरा प्रॊवाच यच्छम्भुस्तवाग्रॆ कथयाम्यहम। द्वितीययॊजनायां तु शुभदृष्टिसमन्वितॆ ॥28॥ पूर्व मॆं शम्भु नॆ जॊ कहा था उसॆ मैंनॆ तुमसॆ कहा। दूसरॆ यॊग मॆं पापयॊग शुभदृष्टि मॆं॥28॥ ।

पापयॊगस्य चाभावॆ यॊगः प्रथम उच्यतॆ। पापयॊगॆ महाप्राज्ञ शुभदृष्टॆ प्रभावकॆ॥29॥

1. कैमुतिकन्याय अर्थापत्ति कॊ कहतॆ है, जैसॆ चूहा लकडी कॊ खा गया तॊ । इससॆ मृदुपदार्थ मिठा‌ई आदि कॊ भी खा सकता है।

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। बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । पापग्रह कॆ यॊग कॆ अभाव मॆं प्रथम यॊग और  पापग्रह यॊग मॆं शुभदृष्टि मॆं दूसरा॥29॥।

द्वितीययॊगपक्षॆऽहं पूर्वस्मिन द्विजसत्तम॥ पापयॊगस्य चाभावॆ पापदृष्टिविवर्जितः॥30॥ अथवा पापयॊग कॆ अभाव मॆं पापदृष्टि कॆ न हॊनॆ मॆं॥30॥

कैमुतिकाख्यन्यायॆन तृतीयॊ यॊग उच्यतॆ॥ अथैवं प्राणिरुद्रस्य युक्ता पक्षान्तरॆ कथा॥31॥. कैमूतिकन्याय सॆ यह तीसरा यॊग हु‌आ। यह प्राणीरुद्र कॆ पक्षान्तर सॆ स्वरूप कहा है॥31॥।

तत्रैव प्रथमॆ यॊगॆ शुभदृष्टिविवर्जितॆ । शुभयॊगादियॊगश्च द्वितीयॊक्तॆन यॊगकृत॥32॥ प्रथम यॊग मॆं शुभ दृष्टि सॆ रहित हॊनॆ मॆं शुभादि यॊग हॊनॆ सॆ ॥32॥

तृतीयॆन द्वयस्यापि यॊगभगं करॊत्यपि। अधुनॊक्तत्रयाभावॆ मन्दादिदृष्टिमात्रतः॥33॥ तीसरॆ सॆ दूसरॆ कॆ साथ यॊग हॊनॆ सॆ तथा उक्त तीनॊं यॊगॊं कॆ अभाव मॆं शन्यादि दृष्टि कॆ भॆद सॆ निर्विशंक कह रहा हूँ॥33॥

ऎवं स्थितॆ सुयॊगश्च निःशङ्कं प्रतिपाद्यतॆ। अशुभैः खॆचरैर्दृष्टॆ पापयॊग इति स्थितिः॥34॥ अशुभ ग्रह की दृष्टि और  पापयॊग॥34॥।

शुभयॊगविहीनॆ च मन्दारॆन्दुनिरीक्षितॆ। तदायुः परतॊ विप्र समानादिति यॊजयॆत ॥35 ॥ शुभ यॊग सॆ हीन शनि, भौम, चन्द्र सॆ दृष्ट हॊ तॊ रुद्रशूल कॆ बाद तक आयु हॊती है॥35 ॥ ।

प्रथमॆ द्वितीयॆ सन्तः पापयॊगैरभावतः। । यॊगॊ भङ्गमपॆक्षा च तृतीयॊक्तमिदं वदॆत ॥36॥ प्रथम, द्वितीय यॊग मॆं पापयॊग कॆ अभाव मॆं यॊग भंग हॊनॆ सॆ तीसरॆ यॊग की उत्पत्ति हॊती है॥36॥


3999

। अथ मारक प्रकरणम॥ पापदृष्टिमात्रमॆवं यॊगनिर्वाहकारणॆ ।

अपवादविहीनॆन इत्यॆवॊक्तं तृतीयकॆ॥37॥ कॆवल पापग्रह मान्य की दृष्टि सॆ यॊग हॊनॆ कॆ कारण तीसरा यॊग हॊता है॥37॥

रुद्राभ्यां प्राणिगौणाभ्यां ताभ्यामाश्रितमॆव च॥ गुणविशॆषॆ आयुरन्तं वक्ष्यामीह महामतॆ॥38॥ अब दॊनॊं रुद्रॊं सॆ और  उनकॆ आश्रित गुण-विशॆष सॆ आयु का निर्णय कर रहा हूँ॥38॥

गौणरुद्रॆ शुभैयॊगॆशुभदृष्टिसमन्वितॆ ॥ । रुद्रशूलान्तमायुश्च यॊजनीयं द्विजॊत्तम॥39॥

गौणरुद्र शुभ ग्रह सॆ यॊग करता हॊ और  शुभदृष्टि सॆ युक्त हॊ तॊ रुद्रशूलान्त आयु हॊती है॥39॥।

पूर्वॊक्त प्राणिरुद्रॆण द्वियॊगप्राणकॆन च।

द्वाभ्यां शूलान्तमायुश्च तवाग्रॆ कथितं मया॥40॥ । पूर्वॊक्त बली (प्राणि) रुद्र सॆ जॊ दॊ यॊग कहॆ हैं उनमॆं दॊनॊं रुद्रॊं की । शूलान्त पर्यन्त आयु हॊती है॥40॥

अधुना सम्प्रवक्ष्यामि द्वयॊनिर्वाहकारणम। । तयॊ रूपं भिन्नभिन्नं शृणुष्व मुनिसत्तम॥41॥

अब दॊनॊं कॆ निर्वाह कॆ कारण कह रहॆ हैं। दॊनॊं कॆ भिन्न भिन्न रूप हॊतॆ हैं॥41॥ ..

प्राणिरुद्रॆ शुभैर्दष्टॆ यॊगॊऽयं द्विजसत्तम। * शुभयॊरॊति का वार्ता शुलान्तायुर्विनिश्चितम॥4॥ ’ प्राणिरुद्र शुभग्रहॊं सॆ दॆखा जाता हॊ और  शुभयॊग हॊ. तॊ रुद्रशूलान्त

आयु हॊती है॥42॥।

गौणरुद्रॆ शुभैर्दष्टॆ यॊगॊऽयं क्लॆशदायकः। । रॊगशॊकभयं कर्ता मृत्युं नैव करॊति च॥43॥

गौणरुद्र शुभग्रहॊं सॆ दृष्ट हॊ तॊ क्लॆशदायक, रॊग-शॊकदायक तथा भयकारक हॊता है, न कि मृत्युकारक॥43॥।

शुभयॊगॆ महाप्राज्ञ यॊगॊऽयं बलवत्तरः। तस्य शूलान्तमायुश्च निर्विशङ्कं न संशयः॥44॥

छा‌ऒ


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298

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम यदि इस यॊग मॆं शुभयॊग भी हॊ तॊ निश्चय ही इसकॆ शूलान्त पर्यन्त । आयु हॊती है॥44॥

उभौ रुद्रौ शुभॆदृष्टावथवा यॊगद्वयॊरपि। शुभग्रहॆण क्लॆशश्च रुद्रशूलान्तमायुषि॥45॥। दॊनॊं रुद्र शुभ ग्रहॊं सॆ दृष्ट और  यॊग करतॆ हॊं तॊ रुद्रशूलान्त आयु न हाकर कॆवल क्लॆशमात्र हॊता है॥45॥

प्राणी चाप्राणिरुद्राभ्यां कृतयॊगद्वयॆन च। तयॊर्वा सम्प्रवक्ष्यामि तवाग्रॆ द्विजसत्तम॥46॥। बलवान या निर्बल रुद्रॊं सॆ दॊनॊं यॊगॊं मॆं जॊ विशॆषता हॊती है, ! उसॆ कह रहा हूँ॥46॥।

मार्तण्डरहितॊ चान्यः पापयॊगकृतॆ द्विज। यॊगद्वयं न भवति पापयुक्तं द्वयॊरपि॥47॥ दॊनॊं रुद्रॊं कॆ दॊनॊं यॊगॊं मॆं सूर्य कॊ छॊडकर अन्य पापग्रह यॊग करतॆ । हॊं तॊ दॊनॊं यॊग नहीं हॊतॆ हैं॥47 ॥

शुभयॊगः शुभैर्दृष्टैरुभयॆऽपि विना विम। पापयॊगकृतॆ विप्र भययॊगॊ विनश्यति॥4॥

शुभयॊग शुभग्रह सॆ दृष्ट दॊनॊं हॊं तॊ पापग्रह सॆ उत्पन्न भययॊग निवृत्त - हॊ जाता है॥48॥ : । शुभयॊगः शुभर्दृष्टिरभावॆ न भवत्यपि।

यत्रायुः कथयाञ्चक्रुर्वक्तव्यं द्विजसत्तम॥49॥ शुभयॊग शुभदृष्टि कॆ अभाव मॆं भी कुछ नहीं हॊता है॥49 ॥

उभयॊः पापयॊगॆ च कश्चिद्रॊगार्तिकॊ भवॆत॥ क्लॆशः शॊकॊ नृपाभीतिः दॆशपर्यटनं द्विज ॥50॥. यदि दॊनॊं पाप यॊग करतॆ हॊं तॊ कुछ रॊग आदि हॊतॆ हैं, क्लॆश, शॊक, राजा सॆ भय, दॆशपर्यटन हॊता है॥50 ॥।

शुभदृष्टॆरभावॆ च शुभयॊगविवर्जितॆ। पापयॊगप्रभावॆण मरणं सारणं दृशा॥51॥ शुभदृष्टि कॆ अभाव मॆं शुभयॊग कॆ बिना पापयॊग कॆ प्रभाव सॆ मरण हॊता है॥51॥


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अथ मारकप्रकरणम।

299 शुभयॊगदृष्ट्यभाः पापयॊगॆ द्विजॊत्तम। शुभवर्गॊ पापवर्गॊं तवाग्रॆ कथयाम्यहम॥52॥ अब मैं शुभ वर्ग और  पाप वर्ग कॊ कह रहा हूँ॥52॥:

अर्कारमन्दफणिनः क्रमात क्रूरायथाक्रमम । चन्द्रॊऽपि क्रूर ऎवात्र क्वचिदङ्गारकाश्रयात॥53॥ सूर्य, भौम, शनि और  राहु यॆ यथाक्रम सॆ क्रूर हॊतॆ हैं। चन्द्रमा भी कभी भौम कॆ संसर्ग सॆ क्रूर हॊता है॥53॥

गुरु:कविशिखिज्ञाश्च यथापूर्वं शुभग्रहाः।

क्रूरखॆटा महाप्राज्ञ चाकद्या उत्तरॊत्तरम॥54॥ गुरु, शुक्र, कॆतु और  बुध यॆ यथाक्रम सॆ शुभग्रह हैं। सूर्यादि ग्रह क्रूर हॊतॆ हैं।54॥।

क्रूराः क्रूरभगाश्चैव महत्क्रूरा भवन्ति च। शुभक्षॆत्रगतैः क्रूरैः क्रूरता युपशाम्यति ॥55॥ क्रूर ग्रह क्रूरग्रह की राशि मॆं हॊं तॊ बडॆ क्रूर हॊतॆ हैं। शुभग्रह की राशि मॆं क्रूरग्रह हॊं तॊ उनकी क्रूरता शान्त हॊ जाती है॥55॥

गुर्वादयः शुभग्रहा यथापूर्वं बुधः कविः॥

कवितः कॆतु विज्ञॆयः कॆतुतॊ वाक्पतिद्विज॥56॥ । गुरु आदि शुभग्रह बुध सॆ शुक्र यथापूर्व बली हॊतॆ हैं। शुक्र सॆ कॆतु और  

कॆतु सॆ गुरु क्रम सॆ उत्तरॊत्तर बली हॊतॆ हैं। ।56॥

क्रमॆणैव विजानीयाच्छुभखॆटॊत्तरॊत्तरम। । यथापूर्वं क्रूरग्रहाः क्रूराश्रयसमागतॆ ॥57॥

इसी क्रम सॆ क्रूरग्रह क्रूरराशि मॆं यथाक्रम सॆ बली हॊतॆ हैं॥57 ॥

ऎवं क्रौर्यं समापन्नं क्रौर्यं तु शॊभनाश्रयः। । ऎवं गुर्वादि सौम्याश्च शुभाः श्रॆयातिशॊभनाः॥58॥ ऎवं गुरु आदि शुभग्रह भी शुभराशि मॆं अत्यंत शुभद हॊतॆ हैं ॥58 ॥

क्रूराश्रयॆ सौम्यखॆटाः सौम्यता नश्यतॆ क्वचित। ऎवमॆवापरायुक्तिं कथयामि द्विजॊत्तम॥59॥ कभी-कभी क्रूरग्रह की राशि मॆं गयॆ हु‌ऎ शुभग्रह अपनी शुभता कॊ नाश कर दॆतॆ हैं ॥59 ॥


बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम प्रत्यॆक शुभराशिस्थॊ उच्चस्थॊ वा बुधः शुभः। गुरुशुक्रौच सौम्यस्थौ ततॊऽन्यॆ च शुभाः स्मृताः॥60॥. प्रत्यॆक शुभराशि मॆं वा अपनी उच्चराशि मॆं बुध शुभद हॊता । है ऎवं गुरु-शुक्र शुभराशि मॆं अत्यंत शुभद हॊतॆ हैं॥60॥

पूर्वस्मिन पापयॊगॆन यॊगभगद्वयॆ द्विज। निरूपितं तवाग्रॆ च निर्विशङ्कं न संशयः॥61॥ ऎवं पूर्वॊक्त पापग्रह कॆ यॊग सॆ दॊनॊं पूर्वॊक्त भंग यॊग कहा गया है॥61 ॥

यॊगद्वयॆऽपि भगार्थॆ पापदृष्टौ विशॆषकम। नदर्शयति कंदापि स्यात तवाग्रॆ कथयामि वै॥62॥ किन्तु दॊनॊं यॊगॊं मॆं विशॆषतः पापदृष्टि अपॆक्षित है॥62॥

शुभग्रहाणामभावॆ मन्दारॆन्दुनिरीक्षितॆ। पापयॊगॆ शुभैदृष्टॆ परतश्चायुषि द्विज ॥63॥ प्राणिरुद्रॆऽप्यगौणॆन शुभयॊगविवर्जितॆ। पापयॊगॆऽथवा दृष्टॆ तथा शुभनिरीक्षितॆ॥64॥ शुभग्रहॊं की दृष्टि न हॊ, शनि,भौम, चन्द्रमा दॆखतॆ हॊं अथवा पापग्रह का यॊग वा दृष्टि हॊ, शुभग्रह दॆखता हॊ तॊ पूर्ववत तारतम्य सॆ

फल का विचार करना चाहि‌ऎ॥64 ॥ व्यापारतानुविज्ञॆया पूर्ववद्विजसत्तम।

अत्रॊपपदपापाच्च राहॊरप्युपलक्षणम॥65॥ इसी प्रकार उपपद की चर्चा सॆ राहु की चर्चा सॆ उपलक्षण मात्र है॥65॥

ऎवं सूर्यातिरिक्तॊऽपि पापयॊगस्तथैव च। । तस्यैवॆहानुवादाच्च राहॊचॊपबृंहणात॥66॥

सूर्य कॆ अतिरिक्त पापग्रह कॆ यॊग सॆ भी यॊग हॊता है॥66॥

परिग्रहदर्शनाच्च परतॊ रुद्रमाश्रयात॥

शुभस्थानॆ आयुरन्तः शूलत्रयमलङ्घनात॥67॥ । इन परिग्रहॊं कॆ रहतॆ हु‌ऎ रुद्रग्रह कॆ आश्रय सॆ शूलान्त पर्यन्त आयु हॊती है॥67॥

शॆटॆ

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अथ मारकप्रकरणम।

301 न तु शूलदशायां च आयुरन्तं द्विजॊत्तम। ऎवं शूलॆ चॆत्तदन्तशूलरीत्यॆति बाधकॆ॥68॥ किन्तु शूल मॆं मृत्यु न हॊकर उसकॆ अन्त मॆं मृत्यु हॊती है॥68॥

पूर्वॊक्तपापयॊगॆन शुभयॊगॆन दृष्टितः। कृतयॊगद्वयस्यापि भङ्गार्थॆ च वदाम्यहम॥69॥ पूर्वॊक्त दॊनॊं यॊगॊं कॆ भंग कॆ लि‌ऎ कह रहा हूँ। शुभग्रह का यॊग हॊनॆ सॆ पापग्रह का यॊग दुर्बल हॊ जाता है॥69॥ .

शुभयॊगॆन वै विप्र उपयॊगॊऽतिदुर्बलः।

शुभदृष्टिकृतॊ यॊगः पापदृष्टॆ कथं क्षमः॥70॥ । ऎवं शुभ दृष्टि हॊतॆ हु‌ऎ पापग्रह की दृष्टि कैसॆ समर्थ हॊ सकती है॥70 ॥।

न भजनसमर्थश्च कॊटियत्नॆ कृतॆ द्विज। ॥ शुभकृद्यॊगभगार्थॆ पापयॊगमपॆक्षितम ॥71॥

शुभग्रहजनित यॊग कॆ भंग कॆ लि‌ऎ पापग्रहर्जानत यॊग हॊना । आवश्यक है ॥56-71॥

शुभयॊगॆ दृष्टिकृतॆ पापयॊगॊऽपि भञ्जकः। ॥ शुभदृष्टिकृतॆ यॊगः पापयॊगॊ विनश्यति ॥72।

शुभग्रह का यॊग वा दृष्टि हॊनॆ सॆ पापयॊग कॊ भंग हॊ जाता है।172॥

यदायुर्दायमध्यस्थं वॆदितव्यं द्विजॊत्तम। । पापमात्रस्य शूलत्वॆ प्रथम मृतिं वदॆत॥73॥ कॆवल पापयॊग की दृष्टि मात्र ही हॊ तॊ प्रथम शूल मॆं ही मृत्यु हॊती। है॥73॥

द्वौ रुद्रौ पूर्ववक्ष्यॆऽहं यदि चैकत्र संस्थितौ। मित्रमध्यमशूल शुभमात्रॆऽन्तिमॆ मृतिः॥74॥ पूर्वॊक्त दॊनॊं रुद्र यदि ऎक ही स्थान मॆं हॊं तॊ मध्यम शूल मॆं मृत्यु हॊती । है॥74॥

‘द्वयॊः पापॆ च प्रथमॆ शूलॆ मृत्युर्भवत्यपि। । यद्यॆकरुद्रः पापी च द्वितीयः शुभखॆचरः॥75॥

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! 302 . . . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

यदि ऎक रुद्र पापी हॊ और  दूसरा शुभ हॊ तॊ मध्य शूल मॆं मृत्यु हॊती है॥75॥।

मध्यॆ शूलॆ मृतिर्विप्र निर्विशकं भविष्यति।

शुभग्रहद्वयं विप्र ऎकत्र यदि तिष्ठति ॥76॥ । और  शुममान्य का संबंध हॊ तॊ तीसरॆ शूल मॆं मृत्यु हॊती है॥76॥

अन्तशुलॆ मृतिया शूलिना भाषितं पुरा। ऎवं भॆदानुभॆदॆन विद्यात सर्वत्र बुद्धिमांन॥77॥। इस प्रकार कॆ मॆदानुभॆद सॆ सर्वत्र विचार करना चाहि‌ऎ। यह आवश्यक है कि दॊनॊं रुद्र पाप वा शुभ हॊं ॥77 ॥।

। शूलक्षॆत्रॆ च द्वौ रुद्रौ यदि पापॊऽथवा शुभः।

मिश्रग्रहॊऽथ वा विप्र चिन्तयॆबलवत्तरः॥78॥ वा मिश्रग्रह है और  दॊनॊं मॆं बली कौन॥78॥

दीर्घायुरायुयॊगॆन भङ्गाभावॆ द्विजॊत्तम। मृत्युः शूलदशायां च पापयॊगं विना रविः॥79॥ दीर्घायु यॊग मॆं भंग कॆ अभाव मॆं रवि कॆ बिना अन्य पापग्रहॊं कॆ यॊग हॊनॆ सॆ शूल दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥79 ॥ .. कूराचॆ यॆषु क्षॆत्रषु शुभानामाश्रयॆषु च।

निर्वाणमितरॆषां तु शूल निर्दिशॆदयम॥80॥ । क्रूरग्रह जिस राशि मॆं शुभग्रह कॆ आश्रय सॆ हॊं तॊ यह निर्याण अन्य

ग्रहॊं कॆ शूल मॆं कहना चाहि‌ऎ॥80॥।

शुभानामत्र पक्षॆ तु तथा क्रूराश्रयॆषु च।

वस्मिन जातकशूलझै मृतिं ब्रूयान्न संशयः॥81॥ . शुभग्रहॊं कॆ पक्ष मॆं क्रूरग्रहॊं कॆ आश्रय मॆं शूलर्स मॆं जातक की मृत्यु हॊती है।81॥।

यद्यप्राणिरुद्रयॊगॆ यत्किञ्चिन्यूनता द्विज। तहिं रुद्राश्रयं तच्च त्रिधा न परतॊऽपि च ॥82॥ यदि निर्बल रुद्र कॆ यॊग मॆं कुछ न्यूनता हॊ तॊ रुद्राश्रय कॆ द्वारा मृत्यु का विचार करना चाहि‌ऎ।82॥

रुद्राश्रयॆऽपि चायुर्दा समाप्तिर्भवति ध्रुवम॥ . प्रायॆण चिन्तयॆद्वित्र पूर्वीपरप्रयत्नतः॥83॥

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303

अथ मारकप्रकरणम रुद्राश्रय मॆं भी आयु की समाप्ति हॊती है॥83॥ यद्बाह्यप्राणिरुद्रस्य यॊगॆ पूर्णं भवत्यपि। रुद्रशूलपरत्वॆन आयुर्दायसमाप्तयॆ ॥84॥

जॊ बाह्य प्राणीरुद्र कॆ यॊग मॆं पूर्ण आयु हॊनॆ सॆ रुद्रशूलान्त आयु कहा है॥84 ॥।

रुद्राश्रयॆण प्रायॆण शूलमॆकट्यं त्रयम। उल्लङ्घनं कृतं विप्र यदि यॊगविशॆषता॥85॥ तथा रुद्राश्रय सॆ प्रायः ऎक, दॊ वा तीसरॆ शूल का उल्लंघन यॊग-विशॆष सॆ किया है तॊ वह प्रायः रुदाश्रय सॆ ही हॊता है॥5॥

तर्हि रुद्राश्रयॆणैवं प्रायॆणायुर्भवॆद ध्रुवम॥ तावद्वर्षॆण कथनं जीवनं जातकस्य च॥86॥ अतः उतना ही वर्ष जातक का जीवन कहना चाहि‌ऎ।86॥

इत्युक्तं च प्रयाणॆ च पूर्वं रुद्राश्रयाद्विज। . आयुर्यॊगसमाप्तिश्च कष्टयॊगादिकारकम॥87॥ उक्त यॊगादि निधन कॊ प्रायः रुद्र कॆ आश्रय सॆ कहा है।87]।

रुद्राश्रयात्तु यॆवं च निरुक्तं चायुषि द्विज। : किञ्चिद्विशॆषरूपं च तवाग्रॆ दर्शयामि च॥88॥

अब कुछ विशॆष रूप सॆ कह रहा हूँ। 88॥

मॆषलग्नॆ विशॆषॆण आयुरुद्राश्रयान्तकॆ। कुष्ठरॊगादि कुर्वीत पूर्णायुर्न समाष्यतॆ॥89॥ मॆष लग्न मॆं रुद्राश्रयांत मॆं कुष्ठरॊगादि हॊता है और  पूर्णायु कॊ नहीं भॊगता है॥89 ॥।

द्वन्द्वराशौ स्थितौ रुद्रौ प्राणी गौणद्वयॆऽपि वा। रुद्राश्रयॆ तदन्तॆ वा आयुर्दायं भवत्यपि॥90॥। मिथुन राशि मॆं रुद्र हॊ तॊ रुद्राश्रय मॆं वा उसकॆ अंत मॆं आयु की समाप्ति हॊती है॥90 ॥

आयुर्वा यॊगभॆदॆन प्रथमॆ मध्यमॊत्तमॆ। । दर्शयामि तवाग्रॆ च कथां शम्भुप्रचॊदिताम॥91॥. पूर्व मॆं जॊ अल्पायु, मध्यमायु और  दीर्घायु यॊग कहा है॥11॥


3

ज़ॊर । बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम :: स्वल्पायुः प्रथमॆ शूलॆ मध्यमायुर्द्वितीयकॆ।

दीर्घायुष्य तृतीयान्तॆ शूलॆ च निधनं भवॆत ॥92॥ , उसमॆं अल्यायु हॊ तॊ प्रथम शूल मॆं, मध्यायु हॊ तॊ द्वितीय शूल मॆं और  दीर्घायु हॊ तॊ तृतीय शूलांत तक आयु हॊती है॥92॥। ... ततॊ फलविशॆषार्थं माहॆश्वरग्रहं द्विज॥

. लक्षयन्ति तवाग्रॆ च तस्मादायुर्विनिश्चितम ॥93॥

ग्रह का निर्णय कह रहा हूँ॥93॥

चिन्तयॆत्कारकै लग्नॆ ह्यष्टमॆशॊ महॆश्वरः। अथैवान्यप्रकारॆण माहॆश्वरं वदाम्यहम॥94॥

आत्मकारक सॆ अष्टमॆश महॆश्वर ग्रह हॊता है। अन्य प्रकार सॆ माहॆश्वर . ग्रह कॊ कह रहा हूँ॥14॥

कारकॆ तुझराशिस्थॆ स ग्रहॊ बलवत्तरः॥ रिफरन्ध्राधियॊर्मध्यॆ सॊऽपि माहॆश्वरॊ ग्रहः॥95॥

कारकाच्च ग्रहाभावॆ नाथॊ माहॆश्वरॊ भवॆत॥ रिष्फरन्याधिषौ विप्र बलॆ सामान्यतां यदि॥96॥।

आत्मकारक अपनी उच्चराशि मॆं हॊ तॊ आत्मकारक सॆ 12, 6 वॆं भाव कॆ स्वामियॊं मॆं जॊ बली हॊ वही महॆश्वरग्रह हॊता है॥95-96॥।

इयं माहॆश्वरं यातॊं यथा रुद्रग्रहौ द्वयम॥ ताभ्यां च निर्णयार्थाय प्रकारान्यं वदाम्यहम॥97॥ यदि दॊनॊं मॆं बल की समानता हॊ तॊ दॊनॊं माहॆश्वर हॊतॆ हैं॥97॥।

स्वकारकस्य यॊगश्चॆद्राहुकॆतुरवन्विना॥ । माहॆश्वरी भवत्यॆव विकल्पॆन द्विजॊत्तम॥18॥

यदि आत्मकारक कॆ साथ राहु-कॆतु हॊं॥98॥।

 कारकस्याष्ट्रमॆ पापग्रहॊ माहॆश्वरॊ भवॆत।

 रविचन्द्रौचचान्द्रिश्च गुरुः शुक्रः शनिस्तमः॥99॥

अथवा आत्मकारक सॆ आठवॆं हॊं तॊ कारक सॆ षष्ठॆश रवि, चन्द्रमा, बुध, गुरु, शुक्र, शनि ॥99॥

शिखिना गणनायां च यः षष्ठः कारकग्रहात॥ सॊऽपि माहॆश्वरॊं ज्ञॆयॊ नवभागसमुच्चयात ॥10॥ तथा कॆतु मॆं सॆ जॊ छठॆ हॊ वह माहॆश्वर हॊता है॥100॥

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अथ मारकप्रकरणम ।

304 माहॆश्वरग्रहस्यापि ब्रह्मसाहित्यकॆन च॥

ततॊ ब्रह्मग्रहं वक्ष्यॆ विशॆषॆण फलाय वै॥1॥ । माहॆश्वर ग्रह कॆ अनुसार ही ब्रह्मग्रह की भी परिचर्या हॊनॆ कॆ कारण ब्रह्मग्रह का विचार कह रहा हूँ॥1॥

लग्नाद्वा सप्तमाद्वापि रिपुरन्ध्रव्ययाधिपाः। ऎतॆषु बलवान्विप्र. मॆषादिविषमस्थितॆ ॥2॥ लग्न वा उससॆ सप्तम इन दॊनॊं मॆं जॊ बलंवान हॊ, उससॆ 6।8।12 भाव कॆ स्वामियॊं मॆं जॊ बलवान हॊ, वह मॆषादि विषम राशियॊं मॆं हॊ॥2॥

लग्नसप्तमयॊर्मध्यॆ राशॆश्च बलवान्भवॆत। उच्चैरपृष्ठभागाद्यः संयॊगॊ विद्यमानतः॥3॥

और  लग्न वा सप्तम कॆ पृष्ठभाग मॆं उक्त तीनॊं गुणॊं सॆ युक्त हॊ तॊ वह ब्रह्मग्रह हॊता है॥3॥

ऎतद्गुणत्रयायुक्तः सॊऽपि ब्रह्माग्रहः स्मृतः। ।

लग्नस्य पृष्ठभागं च यूनाल्लग्नावधिर्द्विज॥4॥ सप्तम सॆ लग्न पर्यन्त 6 भाव लग्न का पृष्ठ भागं ॥4॥

सप्तमस्य पृष्ठभागं षट्कलग्नादिकं द्विज॥ - बलवान्विषमस्थॊऽपि ब्रह्माखॆटः स उच्यतॆ॥5॥

और  लग्न सॆ सप्तम भाव कॆ अन्दर सप्तम का पृष्ठभाग हॊता है॥5॥ ब्रह्मणालक्षणाक्रान्तॆ बलवान्चापि पातयॊः।

शनिराहुरथॊ कॆतुर्यदि षष्ठॊ ग्रहॊ द्विज॥6॥ यदि ब्रह्मग्रंह कॆ लक्षण सॆ युक्त शनि, राहु वा कॆतु हॊ तॊ इनमॆं जॊ बलवान हॊ इनसॆ षष्ठॆश ब्रह्मा हॊता है॥6॥

रव्यादिगणनायां च शन्यादौ तृतीयॊ ग्रहः। स्थानात्षष्ठराशिगॆ च षष्ठराश्यधिपॊऽथवा॥7॥ सूर्यादि गणना सॆ शनि आदि शनि सॆ तीसरा ग्रह स्थान सॆ 6ठा अथवा षष्ठॆश ॥7॥

सॊऽपि ब्रह्माग्रहॊ ज्ञॆयॊ निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम। । बहुना ब्रह्मणाक्रान्तॆ कॊ ग्रहॊ ग्राह्यमाणकः॥8॥


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306 : बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

यदि बहुत सॆ ग्रह ब्रह्मा कॆ लक्षण कॆ हॊं तॊ वही ब्रह्मग्रह हॊता है, । जिसका॥8॥

सन्दॆहॆ निर्णय चात्र तवाग्रॆ कथयामि च। द्वित्र्यादिकः ग्रहाणमं च यॊगॊ ब्रह्मॆति लक्षितः॥9॥

यॊगः स्वजातिय ग्रह्यः कारकं याति यॊ ग्रहः। । बहूनामधिकॊ भामः सॊऽपि ब्रह्मा ग्रहॊच्यतॆ ॥10॥

अधिक अंश हॊता है वही ब्रह्मा हॊता है॥10॥

राहुर्ब्रह्मत्वंयॊगॆन अधिकारी यदा भवॆत। विपरीतं विजानीयात्सर्वॆषु न्यूनभागकम ॥11॥ यदि राहु ब्रह्मयॊग का अधिकारी हॊ तॊ वहाँ विपरीत समझना चाहि‌ऎ अर्थात न्यूनांश वाला ही ब्रह्मा हॊता है॥11॥ । ईत्यॆकपापॆ पूर्वॊक्तं ब्रह्मणा ग्रहकारकात।

रन्ध्राधीशॊऽष्टमस्थॊ वा जात्यप्राणैक्यवाक्यतः॥12॥ अथवा आत्मकारकं सॆ अष्टमस्थ ग्रह वा अष्टमॆश ब्रह्मा हॊता है॥12॥

द्वौ ब्रह्मा विपरीतार्थॆ यथवा बहुब्रह्मणा। सामान्यभागान्तरॆ हि कतम ग्राह्यमाणकः॥13॥ यदि पूर्वॊक्त लक्षण सॆ युक्त दॊ ब्रह्मा हॊं और  अंशॊं मॆं साधारण न्यूनाधिकता हॊ तॊ कौन-सा ग्रहं ब्रह्मा हॊगा ॥13॥

सर्वॆ भागसमानास्तु अग्रहात्सग्रहॊ बली। इति न्यायॆन विज्ञॆयं बलवान, ब्रह्मणॊच्यतॆ॥14॥

ब्रह्मत्वॆन प्रधानॆन ब्रह्मकार्यं करॊत्यपि। । स च ब्रह्मग्रहॊ ग्राह्यः पुरा शम्भुप्रचॊदितः॥15॥

 अथवा सभी कॆ अंश समान हॊं तॊ जॊ ग्रह युक्त हॊ वही बली हॊता है, । इत्यादि रीति सॆ जॊ बलवान हॊ वही ब्रह्मा हॊता है॥14-15॥

अधुना सम्प्रवक्ष्यामि ब्रह्ममाहॆश्वरस्य च। ।

विशॆषॆण फलं सम्यग्तवाग्रॆ द्विजनन्दन॥16॥। । हॆ द्विजनंदन ! अब मै विशॆष रूप सॆ ब्रह्म और  माहॆश्वर ग्रहॊं कॆ फल

कॊ तुमसॆ कह रहा हूँ॥16॥।

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30ग

। अथ मारकप्रकरणम। ब्रह्मग्रहाश्रितॆशस्य दशादिः परिचिन्तयॆत। ।

माहॆश्वरक्षपर्यन्तं जातकस्यायुषि द्विज॥17॥ ब्रह्मग्रहाश्रित राशि की दशा और  माहॆश्वर ग्रह की राशि की दशा कॊ बनाना चाहि‌ऎ। ब्रह्मग्रह की राशिदशा सॆ माहॆश्वर ग्रह की

राशि दशा पर्यंन्त ही जातक की आयु हॊती है॥17॥

तत्तद्राशित्रिकॊणॆषु राशिरन्तर्गतॆ मृतिः। चराच्च स्थिरपर्यन्तं दशायां चिन्तयॆद्विज॥18॥ दशा‌ऒं कॆ त्रिकॊण राशियॊं की अंतर्दशा मॆं मृत्यु हॊती है। अतः चर सॆ स्थिर राशि की दशा पर्यन्त यह विचार करना चाहि‌ऎ ॥18॥

तथा महादशायां च आयुर्दायं विलॊकयॆत।

विंशॊत्तर्यादिकं चैव यथान्यायॆषु यॊजयॆत ॥19॥ ; तथाविंशॊत्तरी महादशा और  अंतर्दशा मॆं भी आयु का विचार करना

चाहि‌ऎ॥19॥

माहॆश्वरस्य यॊ राशिरष्टमॆशाश्रयी द्विज।

तत्तद्राशित्रिकॊणॆषु राशीवन्तर्गतॆ मृतिः॥20॥। 1. अथवा माहॆश्वर सॆ अष्टमॆश कॆ आश्रयीभूत जॊ राशि हॊ उस राशि सॆ

त्रिकॊण राशि की अन्तर्दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥20॥

अत्राब्द इति निर्दॆशात्तत्तद्राशिदशाक्रमः।

 अब्दॊ द्वादशधाभागॆ अन्तरैकॆकराशि च॥20॥

यहाँ पर वर्ष दशाकम सॆ लॆना चाहि‌ऎ और  वर्ष मॆं 12 कॊ भाग दॆनॆ सॆ अन्तर्दशा का वर्ष हॊता है॥21॥।

। षष्ठाष्टमॆशौ भवतॊ मारकावष्टमॆश्वरः।

प्रायॆण मारकॊ राशिदशास्त्वत्र विशॆषतः॥22॥ । षष्ठॆश और  अष्टमॆश मारक हॊतॆ हैं, किन्तु प्रायः अष्टमॆश ही मुख्य मारक हॊता है॥22॥

षष्ठभॆ पापभूयिष्ठॆ षष्ठॆशॊ मुख्यमारकः। षष्ठात त्रिकॊणगॊ वापि मुख्यमारक इष्यतॆ॥23॥ छठॆ स्थान मॆं अधिक पापग्रह हॊं तॊ षष्ठॆश ही मुख्य मारक हॊता है। अथव षष्ठॆश सॆ त्रिकॊण राशि मारक हॊती है॥23॥


। 308 बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । ।. मध्यायुषि, मृतिः षष्ठदशायामष्टमस्य बा। ... धष्ठात त्रिकॊणस्य पुनर्दीर्घाल्पविषयॆ भवॆत॥24॥

1. यदि मध्यायु हॊ तॊ छठी वा आठर्वी दशा मॆं मृत्यु हॊती है। दीर्घायु ।

और  अल्पायु हॊ तॊ छठॆ सॆ त्रिकॊण की दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥24 ॥ . षष्ठॆ बलयुतॆ तस्य त्रिकॊणॆ मृतिमादिशॆत।

षष्ठॆशश्चॆबलाढ्यः स्यात तत्रिकॊणॆ मृतिं वदॆत॥25॥। । यदि छठा स्थान बली हॊ तॊ उसकॆ त्रिकॊण मॆं मृत्यु हॊती है। यदि 1. षष्ठॆश बलवान हॊ तॊ उसकॆ त्रिकॊण मॆं मृत्यु हॊती है॥25॥ । व्यवस्थॆयं समस्तापि कारकादिर्दशास्वपि। ।

, बलिनः शुक्रशशिनॊग्रयं षष्ठॊष्टमादिकम॥26॥। । यह व्यवस्था सभी कारक दशा‌ऒं मॆं हॊती है। शुक्र-चन्द्रमा बली हॊं ’तॊं छठॆ, आठवॆं कॊ लॆना चाहि‌ऎ॥26॥

इति रुद्रमाहॆश्वरब्रह्मग्रंहादि मारकाध्यायः। ... अथ पित्रादिनिर्याणाध्यायः .. अधुना सम्प्रवक्ष्यामि पित्रादॆश्च द्विजॊत्तम। । यॊगं निर्याणकाख्यातं यथा शम्भुप्रणॊदितम॥1॥

हॆ द्विजॊत्तम! अब मै पित्रादिकॊं कॆ मरण समय कॊ कह रहा हूँ, जैसा कि शंकरजी नॆ कहा है॥1॥

लग्नसप्तमयॊर्मध्यॆ : यॊ राशिर्बलवान्द्विज।

तस्य राशॆः समारभ्य क्रमॆण पूर्ववद्विज॥2॥ ।. लग्नं और  सप्तम मॆं जॊ राशि बलवान हॊ उस राशि कॆ अनुसार ॥2॥॥

प्रवर्तकदशारीत्या रुद्रशूलदशान्तरॆ। . भविष्यति पितुर्मृत्युर्निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥3॥

प्रवर्तमान दशा सॆ रुद्रशूल की दशा अन्तर मॆं निश्चय ही पिता की मृत्यु हॊती है॥3॥

लग्नाद्वा सप्तमाद्वापि नवराशिर्बली द्विज। निर्विशंकं भवॆत्तस्य शम्भुना कथितं पुरा॥4॥


। अथ पित्रादिनिर्याणाध्यायः

308 लग्न और  सप्तम मॆं जॊ बली राशि हॊ उससॆ नवम राशि वह पितृकारक हॊती है॥4॥

मातापित्रॊः कारकाभ्यां चिन्तयॆत्पूर्ववद्विज॥ तदायुर्निधनं चापि दीर्घादीनां प्रभॆदतः ॥5॥ ऎवं माता- पिता कॆ कारकॊं सॆ पूर्ववत उनकी आयु का विचार करना चाहि‌ऎ॥5॥

भानुभार्गवयॊर्मध्यॆ सद्वीर्याधिक्यतॊ द्विज। ग्रहादित्यादिरीत्या च सखॆटः पितृकारकः॥6॥ सूर्य और  शुक्र मॆं जॊ बली हॊ वह सूर्यादि ग्रहॊं मॆं पितृकारक हॊता है॥6॥

चन्द्रमगलयॊर्मध्यॆ तथैव रविशुक्रयॊः। बलॆन रहितः सॊऽपि पाथग्रहनिरीक्षितः॥7॥ चन्द्र- भौम मॆं जॊ बलवान हॊ वह मातृकारक हॊता है। इन चारॊं ग्रहॊं मॆं निर्बल भी कारक हॊता है, किन्तु वह निर्बल पापग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ॥7॥॥

पिंत्रादिक भजतॆ यथाक्रम द्विजॊत्तम। उभयॊर्बलसाम्यॆ च उभौ पित्रादिकारकौ॥8॥ दॊनॊं कॆ बल समान हॊं तॊ दॊनॊं पित्रादि कारक हॊतॆ हैं। यहाँ दॊ । प्रकार सॆ बली और  निर्बल लॆना चाहि‌ऎ॥8॥

द्विविदं चिन्तयॆत्तत्र प्राण्यप्राणिविभॆदतः। पित्रादिकारकस्यैवं प्राणिफलं वदाम्यहम॥9॥ इस प्रकार दॊ तरह कॆ बली और  निर्बल कारक हॊतॆ हैं, जिसमॆं बलवान पित्रादि कारक कॆ फल कॊ कह रहा हूँ॥9॥

पित्रादिकारकॆ विप्र शुभग्रहनिरीक्षितॆ॥

मातृकारकाश्रयीभूतराशिरॆतत त्रिकॊणकॆ॥10॥ " पित्रादि कारक शुभग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ ऎवं मातृकारक भी शुभ ग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ उनकी आश्रयीभूत राशि कॆ त्रिकॊण राशि की॥10॥

दशायां निधनं वाच्यं मातापित्रॊरथ त्रयम।

इति प्राणिकारकस्य तवांग्रॆ कथितं फलम॥11॥ .


380

:


बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम दशा मॆं माता-पिता की मृत्यु कहना चाहि‌ऎ। इस प्रकार बली कारक सॆ फल कॊ कहा॥11॥

अप्राणिकारकस्यैवमष्टमॆशॊ बलान्वितः।

तस्याश्रयीभूतराशित्रिकॊणॆ निधनं भवॆत॥12॥

 तथा निर्बल कारक सॆ अष्टमॆश बली हॊ तॊ उसकी आश्रयीभूत राशि कॆ त्रिकॊण राशि की दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥12॥।

यदा रन्धॆश वीर्याढ्यं तच्छूलॆ निधनं भवॆत। पितृमातृकारकयॊः शूलॆ निधनमॆव च॥13॥ यदि अष्टमॆश बली हॊ तॊ उसकॆ शूल मॆं अथवा पितृ-मातृकारक कॆ शूल मॆं मृत्यु हॊती है॥13॥

अथ बाल्यॆ पितृमरणयॊगमाह—पित्रॊः कारकयॊर्विप्र प्राण्यप्राणिहीनॊऽपि च।

अर्कहीनॆ पापयॊगॆ शुभयॊगविवर्जितॆ ॥14॥ पिंतृकारक और  मातृकारक कॆ बली और  निर्बल हॊतॆ हु‌ऎ भी यदि कारक रवि कॊ छॊडकर अन्य पापग्रहॊं कॆ साथ हॊ तथा शुभग्रह सॆ यॊग न हॊता हॊ तॊ॥14॥

द्वादशाब्दान्यूनवर्षॆ पित्रॊमृत्युर्यथाकमम।

रविदृष्टावशुभयॊगॆ नायं यॊगॊ द्विजॊत्तम॥15॥ । , बारह वर्ष की अवस्था कॆ अन्दर ही बालक कॆ माता-पिता की मृत्यु हॊ जाती है। सूर्य दॆखता हॊ और  पापग्रह का यॊग हॊता हॊ तॊ यह यॊग नहीं हॊता है॥15॥।

रव्यारूढविलग्नॆऽपि पित्रॊभवं विचारयॆत । तद्दशायां फलं वाच्यं पित्रॊदुःखसुखादिकम ॥16॥ रवि कॆ आरूढ लग्न सॆ भी पितृभाव का विचार कर उनकी दशा मॆं माता-पिता कॆ दुःख-सुख का विचार करना चाहि‌ऎ॥16॥

। अथ मातुर्निर्याणम- . लग्नाद्वा सप्तमाद्वापि बली राशिचतुर्थकः॥

तस्याः शूलदशीयां च मातुर्मुत्युर्न संशयः॥17॥ । लग्न वा सप्तम मॆं जॊ बली हॊ उससॆ चौथी राशि की शूलदशा मॆं माता की मृत्यु हॊती है॥17॥।

+

:


383

अथ पित्रादिनिर्याणाध्यायः

388 अथ भ्रातृनिर्याणम्लग्नाद्वा सप्तमाद्वापि बली वीक्षॆतृतीयकम। तस्याः शूलदशायां च भ्रातृनिर्याणमॆव च॥18॥

लग्न और  सप्तम मॆं जॊ बली हॊ, उससॆ तृतीय राशि की शूलदशा मॆं भा‌ई का निधन हॊता है॥18॥

अथ ज्यॆष्ठभ्रातुर्निर्याणम्लग्नाद्वा सप्तमाद्वापि लाभराशिर्बली द्विज। तस्याः शूलदशायां च निर्याणमग्रजस्य च॥19॥

लग्न वा सप्तम मॆं जॊ बली हॊ, उससॆ 11वीं राशि की शूल दशा मॆं ज्यॆष्ठ भा‌ई की मृत्यु हॊती है॥19॥

। भगिनी-पुत्रयॊर्निर्याणम्लग्नाद्वा सप्तमाद्वापि,राशिपञ्चमकॆ बली। तस्याः शूलदशायां च निर्याणं भगिनीपुत्रयॊः॥20॥ लग्न और  सप्तम मॆं जॊ बली हॊ, उससॆ पाँचवीं राशि की शूलदशा मॆं भगिनी और  पुत्र का निर्याण हॊता है॥20॥

। अथ कलत्रनिर्याणमाह—- . कलत्रकारकः खॆटस्तथा स्त्रीराशिचिन्तनम।

 तत्रिकॊणदशायां च कलत्रनिधनं भवॆत॥21॥

स्त्रीकारक और  सप्तम मॆं जॊ बली हॊ, उससॆ त्रिकॊण राशि की दशा मॆं स्त्री का निधन हॊता है॥21॥

. अथान्यॆषां निर्याणमाह—तत्तत्कारकाश्च यॆ यॆ च त्रिकॊणदृशान्तरॆ।

तॆषां च मातुलादीनां निधनं भवति ध्रुवम॥22॥ । इससॆ अतिरिक्त जिसकॆ निधन का विचार करना हॊ उसकॆ कारकॊ की आश्रयीभूत राशि की दशा अंतर मॆं उन लॊगॊं का (मामा आदि का) निधन कहना चाहि‌ऎ॥22॥ -

। अथ मृत्युसमयॆ कष्टादिज्ञानमाह— . लग्नाद्वा कारकाच्चापि तृतीयॆ पापखॆचरॆ। युतॆ दृष्टॆऽथ वा विप्र दुष्टं मरणमुच्यतॆ॥23॥


. 312 . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । लग्न वा कारक सॆ तीसरॆ स्थान मॆं पापग्रह युत हॊं वा दॆखतॆ हॊं तॊ जातक कॊ दुर्मरण कष्ट सॆ हॊता है॥23॥

तत्तत्कारकतदीशात्तृतीयॆ पापयॊगकृत ।

तॆषां तॆषां प्रवक्तव्यं दुष्टं मरणमॆव च॥24॥ * . जिन लॊगॊं कॆ कारक और  भावॆश सॆ तीसरॆ भाव मॆं पापग्रह का

यॊगं हॊ, उनका दुष्ट मरण कहना चाहि‌ऎ॥24 ॥

तत्तद्भावात्कारकॆशात्तृतीयॆ शुभदृष्टियुक । .. तॆषां तॆषां प्रवक्तव्यं मरणं शुभमॆव च॥25॥

जिन-जिन भाव वा कारकॆशॊं सॆ तीसरॆ भाव मॆं शुभग्रह का यॊग और  दृष्टि हॊ तॊ उनका मरण सुख सॆ हॊता है॥25॥

शुभाशुभद्वयॆ यॊगॆ दृष्टौ वापि तृतीयकॆ। : शुभाशुभात्मकं विप्र मरणं भवति ध्रुवम॥26॥ :- यदि शुभ-पांप दॊनॊं युतं वा दॆखतॆ हॊं तॊ सुख-दुःख दॊनॊं मरण

कॆ समय हॊता है॥26॥

* अथ मरणनिमित्तान्याहतृतीयॆ भानुना दृष्टॆ तथा युक्तॆ बलाढ्यकॆ। राजहॆतॊश्च मरणं निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥27॥ तृतीय भाव बलवान सूर्य सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ राजा कॆ कारण मृत्यु हॊती है॥27॥

सहजॆ शशिना युक्तॆ दृष्टॆ वा यक्ष्मया मृतिः।

तृतीयॆ शनिराहुभ्यां दृष्टॆ वापि युतॆन वा॥28॥ , तीसरॆ भाव कॊ चन्द्रमा दॆखता हॊ वा उसमॆं युत हॊ तॊ यक्ष्मारॊग सॆ मृत्यु हॊती है। तीसरा भाव शनि-राहु सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ॥28॥

। विषार्त्तिमरणं वाच्यं जलाद्वा वनिपीडनात॥

गर्तादुच्चाच्च पतनं बन्धनाद्वा मृतिर्भवॆत॥29॥ विष सॆवा जल सॆ अथवा अग्निपीडा सॆ मृत्यु हॊती है। अथवा ऊँचा‌ई। सॆ गिरनॆ वा बंधन सॆ मृत्यु हॊती है॥29॥। । तृतीयॆ चन्द्रमान्दी च षष्ठॆ वापि युतॆ द्विज।

. कृमिकुष्ठादिना तस्यॆ मरणं च विनिर्दिशॆत॥30॥


अथ पित्रादिनिर्याणाध्यायः

383 तीसरॆ भाव मॆं वा छठॆ भाव मॆं चन्द्रमा तथा गुलिक हॊं वा दॆखतॆ हॊं तॊ कृमि वा कुष्ठ रॊग सॆ मृत्यु हॊती है॥30॥।

तृतीयॆ गुरुणा दृष्टॆ युक्तॆ शॊकादिना मृतिः। तृतीयॆ भृगुयुग्दृष्टॆ मॆहरॊगॆण वै मृतिः॥31॥ तीसरॆ भाव कॊ गुरु दॆखता हॊ वा उसमॆं युत हॊ तॊ शॊफरॊग सॆ मृत्यु हॊती है॥31॥

बहुयुक्तॆ तृतीयॆ च बहुरॊगयुता मृतिः॥ तृतीयॆ कॆतु सत्खॆटैर्यॊगॆ दृष्टॆऽथवा द्विज ॥32॥। यदि बहुत सॆ ग्रह तीसरॆ भाव मॆं हॊं तॊ बहुत रॊगॊं सॆ मृत्यु हॊती है। तीसरॆ भाव मॆं शुभ ग्रह हॊं वा दॆखतॆ हॊं ॥32॥

तत्रैव चन्द्रयॊगॆ च तत्तद्रॊगॆण वै मृतिः। कुजॆन व्रणशस्त्राग्निदाहाद्यैर्मृत्युमादिशॆत ॥33॥

और  चंद्रमा का भी यॊग हॊ तॊ उनकॆ रॊग सॆ मृत्यु हॊती है। तीसरॆ भाव मॆं मंगल हॊ, या उसॆ दॆखता हॊ तॊ व्रण-शस्त्र-अग्नि सॆ जलनॆ आदि सॆ मृत्यु हॊती है॥33॥।

। तृतीयॆ सौम्यसंयुक्तॆ दृष्टॆ वापि तथा द्विज।

ज्वरॆण तस्य मृत्युः स्यान्निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥34॥ तीसरॆ भाव मॆं बुध हॊ अथवा उसॆ दॆखता हॊ तॊ ज्वर सॆ मृत्यु हॊती है॥34॥

अथ मरणप्रदॆशज्ञानमाह—तृतीयॆ शुभयॊगॆन शुभदॆशॆ मृतिर्भवॆत। पापॆन कीकटॆ दॆशॆ मिश्रॆ मिश्रस्थलॆ मृतिः॥35॥ तीसरॆ भाव मॆं शुभग्रह का यॊग हॊ तॊ शुभ प्रदॆश मॆं मृत्यु हॊती है। पापग्रह का यॊग हॊ तॊ दुष्ट स्थान मॆं और  शुभ-पाप दॊनॊं हॊं तॊ मिश्र स्थान मॆं मृत्यु हॊती है॥35॥

अथ ज्ञानपूर्वकं मृत्युमाह—तृतीयॆ गुरुशुक्राभ्यां यॊगॆ ज्ञानॆन वै मृतिः। गुरुशुक्रातिरिक्तानां यॊगॆ शिथिलता मृतौ ॥36॥ तीसरॆ भाव मॆं गुरु-शुक्र हॊं तॊ ज्ञानपूर्वक मृत्यु हॊती है। इन दॊनॊं सॆ भिन्न ग्रह हॊं तॊ मृत्यु समय मॆं अज्ञानता हॊती है॥36॥

। इति निधनप्रकरणम॥


भॆ

314 : बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

अथ मारकभॆदाध्यायः . त्रिविधाश्चायुषॊ यॊगाः स्वल्पायुर्मध्यमॊत्तमाः। : द्वात्रिंशात्पूर्वमल्यायुर्मध्यमायुस्ततॊ भवॆत। . चतुःषष्ट्याः पुरस्तात्तु ततॊ दीर्घमुदाहृतम॥1॥ । तीन प्रकार कॆ आयु कॆ यॊग कहॆ गयॆ हैं, जॊ कि अल्पायु, मध्यमायु

और  उत्तमायु वा दीर्घायु कॆ नाम सॆ प्रसिद्ध हैं। 32 वर्ष सॆ पूर्व अल्पायु हॊती है। इसकॆ बाद 64 वर्ष की अवस्था तक मध्यमायु हॊती है। इसकॆ बाद दीर्घायु हॊती है॥1॥

उत्तमायुः शतादूर्ध्वं ज्ञातव्यं मुनिसत्तम। - चतुर्विंशतिवर्षान्तमायुर्ज्ञातुं न शक्यतॆ ॥2॥

- इसकॆ बाद 100 वर्ष तक दीर्घायु और  इसकॆ ऊपर उत्तमायु हॊती है। जन्म सॆ 24 वर्ष पर्यन्त आयु का ज्ञान नहीं हॊता है अर्थात उक्त समय तक आयु कॆ ऊपर निर्भर नहीं रहना चाहि‌ऎ॥2॥ . जंपहॊमचिकित्साद्यैर्बालरक्षां तु कारयॆत।

: पितृदॊषैर्मृताः कॆचित्कॆचिन्मातृग्रहैरपि॥3॥ । तब तक यानि 24 वर्ष की अवस्था पर्यन्त जप, हॊम, चिकित्सा आदि

सॆ बालकॊं की रक्षा करनी चाहि‌ऎ। उक्त वर्ष कॆ अंदर कॊ‌ई पिता ’ कॆ ग्रहॊं सॆ, कॊ‌ई माता कॆ ग्रहॊं सॆ॥3॥

अपरॆऽरिष्टयॊगाच्च त्रिविधा बालमृत्यवः। । अल्पायुर्यॊगजातस्य विपत्तारां मृतिं वदॆत॥4॥

और  कॊ‌ई अरिष्ट यॊग सॆ मर जातॆ हैं। इस तरह तीन प्रकार सॆ बालकॊं की मृत्यु हॊती है। जिनकी अल्पायु हॊती है उनकी विपत्तारा की दशा । मॆं॥4॥।

जातस्य मध्यमायुष्यॆ प्रत्यरौ च मृतिर्भवॆत।

दीर्घायुर्यॊगजातानां वधभॆ तु मृतिर्भवॆत ॥5॥.. । मध्यमायु यॊग वालॆ की प्रत्यरि तारा की दशा मॆं और  दीर्घायु यॊग वालॆ की वध तारॊं की दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥5॥

- अष्टम तृतीयं च लग्नादायुरुदाहृतम।

द्वितीयं सप्तमस्थानं मारकस्थानमुच्यतॆ॥6॥


अथ मारकभॆदाध्यायः

384 जन्मलग्न सॆ तीसरा और  आठवाँ स्थान आयु का हॊता है और  दूसरी तथा सातवाँ मारक स्थान हॊता है॥6॥ । महामारकसंज्ञौ तौ मान्दिकॆतू इति स्मृतौ। । । जायाकुटुम्बकाधीश मारकावष्टमॆश्वरौ॥7॥

मांदि और  कॆतु महामारक हॊतॆ हैं और  सप्तम, द्वितीय और  आठवॆं भाव कॆ स्वामी मारकॆश हॊतॆ हैं॥7॥

प्रायॆण मारकॊ राशिदशास्तत्राविशॆषतः॥ षष्ठभॆ पापभूयिष्ठॆ षष्ठॆशॊ मुख्यमारकः॥8॥ प्रायः इन स्थानॊं की राशियाँ मारक हॊती हैं। छठॆ स्थान मॆं अधिक पाप ग्रह हॊं तॊ षष्ठॆश मुख्य मारक हॊता है॥8॥

। षष्ठत्रिकॊणगॊ वापि मुख्यमारक इष्यतॆ।

मध्यायुषि मृतिः षष्ठदशायामष्टमस्य वा॥9॥ । छठॆ सॆ त्रिकॊण भी मारक हॊता है। मध्यायु मॆं छठॆ या आठवीं दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥9॥। । षष्ठात त्रिकॊणस्य पुनर्दीर्घाल्पविषयॊ भवॆत।

षष्ठॆ बलयुतॆ तस्य त्रिकॊणॆ मृतिमादिशॆत ॥10॥ दीर्घायु मॆं षष्ठ सॆ त्रिकॊण की दशा मॆं मृत्यु हॊती है। षष्ठ स्थान वा षष्ठॆश बली हॊ तॊ उसकॆ त्रिकॊण की दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥10॥

, षष्ठॆशश्चॆबलाढ्यः स्यात्तत्रिकॊणॆ मृतिं वदॆत।

व्यवस्थॆयं समस्तापि कारकादिदशास्वपि॥11॥ यह व्यवस्था सम्पूर्ण मारक दशा कॆ लि‌ऎ हैं॥11॥ मारकॆशदशाकालॆ मारकस्थस्य पापिनः। पाकॆ पापयुजां पाकॆ सम्भवॆ निधनं भवॆत॥12॥ मारकॆश की दशा मॆं मारक स्थानं स्थित पापग्रह की अन्तर्दशा मॆं संभावना हॊ तॊ मृत्यु हॊती है॥12॥

असम्भवॆ व्ययाधीशदशायां मरणं नृणाम।

अभावॆ व्ययभावॆशसम्बन्धिग्रहभुक्तिषु ॥13॥ । यदि असंभव हॊ तॊ व्ययॆश की दशा मॆं मृत्यु हॊती है। इसकॆ अभाव मॆं व्ययॆश कॆ संबंधी ग्रह कॆ अंतर मॆं मृत्यु हॊती है॥13॥


1953..

इसकॆ अभाव मॆं अष्टमॆश की दशा :

38

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ... तदभावॆऽष्टमॆशस्य दशायां निधनं पुनः।

मन्दश्चॆत्यापसंयुक्तॊ मारकग्रहयॊगतः॥14॥।

अभाव मॆं अष्टमॆश की दशा मॆं मृत्यु हॊती है। शनि पापग्रह सॆ 3 हॊ और  मारकॆश कॆ साथ यॊग करता हॊ तॊ॥14॥।

तिरस्कृत्य ग्रंहान्सर्वान्निहन्तां पापकृच्छनिः। मारकग्रहसम्बन्थी पापकर्ता शनिस्तदा। तिरस्कृत्य ग्रहान्सर्वान्निहन्ता भवति ध्रुवम॥15॥ सभ ग्रहॊं कॊ छॊडकर वही मारक हॊ जाता है॥15॥

ऎतद्दॆशान्तभुक्त्यादौ विचार्यॆव मृतिं वदॆत। षष्ठद्रॆष्काणपश्चैव तथा वैनाशिकाधिपः॥16॥ 3 इष्कॊण (लग्न सॆ 22वॆं द्रॆष्काण) का स्वामी और  23वॆं ॥।

नक्षत्र का स्वामी॥16॥

 विपत्ताराप्रत्यरीशौ वधमॆशस्तथैव च।

आद्यन्तपौ च विज्ञॆय चन्द्राक्रान्तगृहात्तथा॥17॥ बॆपत्तारा, प्रत्यरितारा, वधतारां का स्वामी, चन्द्र राशि सॆ द्वितीय,

द्वादश कॆ स्वामी ॥17॥

दशाक्षिप्तॆषु कालॆषु मारकॊ मरणंप्रदः॥ दुष्टतारापतॆः पाकॆ निर्याणं कथितं बुधैः॥18॥

ना-अपनी दशाकाल मॆ मारक हॊतॆ हैं अथवा पूर्वॊक्त दुष्ट तारा‌ऒं कॆ स्वामी की दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥18॥

मारकग्रहाश्रितॊ राशिर्मारकस्वामिनॊऽथवा। ताभ्यां महादशाकालॆ विंशॊत्तर्याः स्थिरादिकः॥19॥। रिकश कॆ आश्रित राशि वा मारकॆश जिस भाव मॆं बैठा हॊ, उस राशि की महादशा मॆं पापग्रह कॆ अंतर मॆं विंशॊत्तरी कॆ अनुसार मृत्यु हॊती.

तायाम

" है॥19॥।

पापॆ मृत्युर्विजानीयात्रिर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥ मारका बहवः खॆटा यदि, वीर्यसमन्विताः॥20॥। याद बलवान बहुत सॆ ग्रह हॊं तॊ सबसॆ बली हॊता है॥20॥।

दशान्तरॆ , विप्ररॊगकष्टादिसम्भवः।. षष्ठाधिपदशायां च निधनं भवति ध्रुवम॥21॥ .

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. 386

 अथ मारकभॆदाध्यायः वही मारक हॊता है, किन्तु उन लॊगॊं की दशा-अन्तर कॆ समय कष्टादि हॊता है तथा षष्ठॆश की दशा मॆं मृत्यु हॊती है॥21॥

न्यूनातिरिक्तभॆदॆन बहुखॆटास्तु मारकाः। दुर्बलाश्रयराशीशदशास्वल्पार्तिदा भवॆत॥22॥ न्यूनातिरिक्त अधिक मारक हॊं तॊ दुर्बल राशीश की दशा मॆं अल्प कष्ट हॊता है॥22॥

प्रबलस्य दशायां च महारॊगाप्तिमृत्युवत । भयशॊकमृताभीतिस्तस्कराग्निभयं भवॆत॥23॥ मारकस्य दशायां च महत्या निधनाश्रयी। भूतामन्तर्दशामाह— तवाग्रॆ कथयामि भॊः॥24॥ प्रबल की दशा मॆं महारॊग सॆ कष्ट और  मृत्यु हॊती है और  भय, शॊक, मृत्युभय, चॊरभय तथा अग्निभय हॊता है॥24॥

मारकग्रहाश्रयीभूतमहापार्क, विचिन्तयॆत। कारकाच्च विलग्नाद्वा सप्तमाद्वा द्वितीयकम॥25॥ मारकॆश कॆ आश्रित राशि की दशा-अंतर्दशा काल मॆं उपरॊक्त सभी बातॊं का विचार करना चाहि‌ऎ। कारक सॆ अथवा लग्न सॆ सप्तम सॆ दूसरॆ ॥25 ॥ ।

षष्ठाष्टरिःफनाथान्तमपहाराष्टकॆ’ मृतिः। तॆषामन्तर्दशाधीशास्तॆषां मध्यॆ बलाढ्यकः॥26॥ तदीयान्तर्दशाकालॆ निधनं भवति ध्रुवम।

अपरा पापकालॆ तु रॊगदुःखातिवान्द्विज॥27॥ छठॆ, आठवॆं, बारहवॆं इन आठॊं कॆ स्वामियॊं की दशादि मॆं मृत्यु कहना चाहि‌ऎ। इनमॆं भी बलवान अंतर्दशॆश कॆ समय मॆं मृत्यु हॊती है और  अन्य लॊगॊं की अंतर्दशा आदि मॆं रॊग-दुःख आदि हॊता है॥27॥

इति मारकभॆदाध्यायः।

अथाष्टकवर्गाध्यायः ज्ञात्वादौ करणस्थानं विन्दुरॆखॆ च वर्गणाम। । क्रमादष्टकवर्गस्य पृथक्कृत्य फलं वदॆत ॥1॥ । पहलॆ भाव और  ग्रहॊं कॆ करण (शून्य) स्थान (रॆखा) अर्थात बिन्दु और  रॆखा‌ऒं का भलीभाँति ज्ञान करकॆ तब अष्टकवर्ग कॆ फल कॊ


318

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम कहना चाहि‌ऎ। (इसका विस्तृत विवरण उत्तरार्ध मॆं दॆखना चाहि‌ऎ)॥1॥

।... अथ रवॆरष्टकवर्गःस्वारार्किभ्यॊ दिनॆशः स्वसुखमृतितपःखास्तलाभाद्ययातः

शुक्रास्तारिरिष्फॆ अरितनयतपॊलाभवत्तसुरॆज्यात॥ चन्द्राल्लाभारिकर्मत्रिषु शशितनयात्सान्त्यधर्मात्मजॆषु प्रॊक्तॊ लग्नाढ्ययाम्बूपचयगृहगतः सुप्रशस्तॊऽष्टवर्गात ॥2॥

अपनॆ स्थान सॆ तथा भौम और  शनि सॆ 1,2,4,8,9,10,7 और  11 इन स्थानॊं मॆं सूर्य शुभफलदायक हॊता है। शुक्र सॆ 7,6,12 स्थानॊं मॆं, गुरु, सॆ 6,5,9,11 स्थानॊं मॆं, चन्द्रमा सॆ 11,6,10,3, स्थानॊं मॆं, बुध सॆ पूर्वॊक्त स्थानॊं (11।6।3।10) कॆ साथ 11,9 स्थानॊं मॆं और  जन्मलग्न सॆ 12,4,3,6,10,11 स्थानॊं मॆं शुभफल दॆता है अर्थात रॆखाप्रद हॊता। है॥2॥

। रवॆरष्टकवर्गाङ्काः

. सू.चं.मं.बु. बृ.शु.श.लि. 1913 1934ऽ913

 ऽ  ऽ ’

9 8 89018 ऽ 9281ऽ 1999 6181991 7090 छ1 16901

1899 181921 90 90 91 901

991 1991 1991 ।

अथ चन्द्राष्टकवर्गःइन्दुर्लग्नात्पडायत्रिदशषु कुसुतात्सस्वधर्मात्मजॆषु स्वात्सास्ताद्यॆषु सूर्यात्समदनमृतिषु न्यायधीषट्सुमन्दात। । ज्ञात्कॆन्द्रात्मजाष्टत्रिषु विबुधगुरॊः कॆन्द्ररन्ध्रान्त्यलाभॆ

शुक्राद्धीधर्मबन्धुस्मरसहजनभॊ लाभगश्च प्रशस्तः॥3॥ जन्मलग्न सॆ 6,11,3,10 स्थानॊं मॆं चन्द्रमा शुभफल दॆता है। भौम सॆ 2,3,5,6,9,10,11 स्थानॊं मॆं, अपनॆ स्थान सॆ 1,3,6,7,10,11 स्थानॊं मॆं, सूर्य सॆ 3,6,7,8,10,11 स्थानॊं मॆं; शनि सॆ 3,11,5,6 स्थानॊं

1991


38

अथाष्टवर्गाध्यायः अथ गुर्वष्टकवर्गचक्रम्बृ. शु.श.सू. चं.मं.बु.ल. 93391391991 31414 31412122 3ऽऽ8888 8139219186144 690 6999 299

901 8109

12

शॊन

ऒ1

90

99 90 9990

991 99

अथ शुक्राष्टकवर्गःचन्द्रॊ व्यस्तारिखॆषु व्यरिमदननभॊऽन्त्यॆषु लग्नात्प्रशस्तॊ। व्यन्तास्तारातिषु स्वाद्ययनिधनभवॆष्खर्कतॊ दैत्यमन्त्री॥. धीधर्माष्टाप्तिबन्धुत्रिदशसु रविजाद्धीतपःस्वाष्टलाभॆ।

जीवात ज्ञाद्धीत्रिलाभक्षतनवसुकुजाद्धीभवापॊक्लिनॆषु॥7॥

शुक्र चंद्रमा सॆ 7,6,10 स्थानॊं कॊ छॊडकर शॆष 1,2,3,4,5,8,9,10,11,12 स्थानॊं मॆं , शुभफल दॆता है। लग्न सॆ 6,7,10,12 कॊ छॊडकर शॆष स्थानॊं मॆं, अपनॆ स्थान सॆ 12,6,7, कॊ छॊडकर शॆष स्थानॊं मॆं, सूर्य सॆ 12,8,11 स्थानॊं मॆं, शनि सॆ 5,9,8,11,4,3,10 स्थानॊं मॆं, गुरु सॆ 5,9,2,8,11, स्थानॊं मॆं, बुध सॆ 5,3,11,6,9 स्थानॊं मॆं और  भौम सॆ 5,11,3,6,9,12 स्थानॊं मॆं शुभफल दॆता है॥7॥

अथ शुक्राष्टकवर्गचक्रम्शु.श.सू.चं.मं.बु.बु.ल. 913 91313919 2899344छ 39.923 ऽ श3

8 88

अथ श

वॊर ऽ

4 1991991991

01

भॊ‌ऒश

म 20 ऎ‌उरॊ

भॊण

.

3फॊ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

अथ बुधाष्टकवर्ग:- ज्ञः शुक्रात्स्वाद्यलाभाष्टमनवमसुखॆसत्रिपुत्रॆकुजाक्र्याः॥ साज्ञादारॆऽथ जीवाद्ययरिपुनिधनायॆषुशस्तॊ दिनॆशात ॥ धीधर्मान्त्यारिलाभॆ त्रितनुदशयुतॆ स्वात्सषडाप्तिरन्थॆ। . व्यॊमाम्बुधिरिन्दुतॊऽरिस्वमृतितनुव्यॊमलाभाब्धिलग्नात ॥5॥ .. बुध शुक्र सॆ 2,1,11,8,9,4,3,5 स्थानॊं मॆं शुभफल दॆता है। शनि * सॆ 1,2,3,4,5,6,7,8,9,10,11 स्थानॊं मॆं, गुरु सॆ 12,6,8,11 स्थानॊं

मॆं, सूर्य सॆ 5,9,12,6,11 स्थानॊं मॆं, अपनॆ स्थान सॆ 5,9,12,6,3,1,10 स्थानॊं मॆं, चन्द्रमा सॆ 2,4,6,8,10,11 और  लग्न सॆ 6,2,8,1,10,11,4 स्थानॊं मॆं शुभफल दॆता है॥5॥

अथ बुधाष्टकवर्गचक्रम। बु. बृ.शु.श.सू. चं.मं. ल.

1918 1919921919 भ्छ88 13 499388ऽ88 ऽ 918 99120 ऽ 18 19192190

छ9 99 990

99 1 900 1901991 . 93.9999 1 99

अथ गुर्वष्टकवर्गःजीवॊ भौमात्स्वकॆन्द्रागममृतिषु रवॆः सधीधर्मॆष्वथश्वात। स्वत्रिष्विन्दुजात्षट्स्वसुखसुततनुव्यॊमधर्मागमॆषु ॥ लग्नात्सास्तॆषु चन्द्रात्स्मरगुरुधनधीप्राप्तिभॆष्वर्कपुत्रात। धीषट्न्यन्तॆषु शुक्रात्स्वसुतशुभमतॊलाभविद्वॆषिभॆषु ॥6॥

गुरु भौम सॆ 2,1,4,7,10,11,8 स्थानॊं मॆं शुभफल दॆता है, सूर्य सॆ 1,2,4,5,8,9,10,11 स्थानॊं मॆं, बुध सॆ 6,2,4,5,1,10,9,11 स्थानॊं मॆं, लग्न सॆ 1,2,3,4,5,6,7,9,10,11 स्थानॊं मॆं, चन्द्रमा सॆ 7,9,2,5,11 स्थानॊं मॆं, शनि सॆ 5,6,3,12 स्थानॊं मॆं, शुक्र सॆ 2,5,9,11,6 स्थानॊं मॆं शुभफल दॆता है॥6॥

-

अथाष्टवर्गाध्यायः

ई अथ गुर्वष्टकवर्गचक्रम्बृ. शु.श.सू. चं. मं. बु.ल. 971397191919 - 1414214 3ऽऽ8888 88924 8 61414 69 190 19199281ऽ

1991 टॊट 1901310 901 9319081 विव इ इवि0 [ 1110

1 991 99

अथ शुक्राष्टकवर्गःचन्द्रॊ व्यस्तारिखॆषु व्यरिमदननभॊऽन्त्यॆषु लग्नात्प्रशस्तॊ। व्यन्तास्तारातिषु स्वाद्व्ययनिधनभवॆष्वर्कतॊ दैत्यमन्त्री॥. धीधर्माष्टाप्तिबन्धुत्रिदशसु रविजाद्धीतपःस्वाष्टलाभॆ।

जीवात ज्ञाद्धीत्रिलाभक्षतनवसुकुजाद्धीभवापॊक्लिनॆषु॥7॥

शुक्र चंद्रमा सॆ 7,6,10 स्थानॊं कॊ छॊडकर शॆष 1,2,3,4,5,8,9,10,11,12 स्थानॊं मॆं . शुभफल दॆता है। लग्न सॆ 6,7,10,12 कॊ छॊडकर शॆष स्थानॊं मॆं, अपनॆ स्थान सॆ 12,6,7, कॊ छॊडकर शॆष स्थानॊं मॆं, सूर्य सॆ 12,8,11 स्थानॊं मॆं, शनि सॆ 5,9,8,11,4,3,10 स्थानॊं मॆं, गुरु सॆ 5,9,2,8,11, स्थानॊं मॆं, बुध सॆ 5,3,11,6,9 स्थानॊं मॆं और  भौम सॆ 5,11,3,6,9,12 स्थानॊं मॆं शुभफल दॆता है॥7॥।

। अथ शुक्राष्ट्रकवर्गचक्रम

शु.श.सु.चं.मं.बु.बु. ल. 93.09.3.349 71899214422 34.9713ऽऎ 13 811 8899018 1913

93 1991 -

..

.

4991991999

म50ऎ

1

टुतॊर

93

ऎस

-

-

---

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

अथ शनॆरष्टकवर्गः स्वात्सौरिस्यायपुत्रारिषु धरणिसुतात्सव्ययाज्ञॆषु । सूर्याकॆन्द्रस्वायाष्टसु ज्ञाद्वायमृतिस्वभवारातिधर्मॆषु । चन्द्रात्यत्र्यायस्थॊविलग्नादुपचयहिबुकाद्यॆषुषत्र्याप्तिरिकॆषुशुक्रावाचस्पतॆश्चव्ययतनयभवारातिषु सुप्रशस्तः॥8॥ । शनि अफ्नॆ स्थान सॆ 3,11,5,6, स्थानॊं मॆं शुभफल दॆता है। भौम स 35,6,12,10 स्थानॊं मॆं, सूर्य सॆ 1,4,7,10,2,11,8 स्थानॊं मॆं, बुध सॆ 12,8,2,11,8 स्थानॊं मॆं, चन्द्रमा सॆ 6,3,11 स्थानॊं मॆं, लग्न सॆ 3,6,10,11,1 स्थान मॆं, शुक्र सॆ 6,3, 11,12 स्थानॊं मॆं, गुरु 12,5,11,6 स्थानॊं मॆं शुभफल दॆता है॥8॥

अथ शनैरष्टकवर्गचक्रम्श.सु.चिं.म.बु. बृ.शु.ल. 39133ऽ49 926926993 ऽ 8 199 ऽ 3991938 9910 190193318

114 9999

9999 90

9292 वि‌इ इ इ

अष्टकवर्गसाधनसूर्याष्टकवर्ग मॆं सूर्य अपनॆ स्थान सॆ (जन्म कॆ समय जिस राशि मॆं - ऒ‌उम 247 1819।10।11 स्थान मॆं शुभ फल दॆता है; अन्यत्र स्थानॊं मॆं

अशुभ फल दॆता है। जैसॆ निम्नलिखित जन्मांगचक्र मॆं सूर्य कर्क राशि मॆं है अतः 4157।10।11।12।1।2 राशियॊं मॆं शुभ फलसूचक रॆखा दॆशान्यशिर्यॊं मॆं बिन्दु रूप अशुभसूचक रॆखा कॊ दॆगा। इसी प्रकार सर्मी ग्रह अपन-अपनॆ स्थान सॆ शुभ और  अशुभ सूचक रॆखा और  बिन्दु

कॊ दॆतॆ हैं। जैसा कि नीचॆ चक्र मॆं दिया हैजन्मम ।

सूर्याष्टकवर्गः ।

1ण्बु.5:4य

मॆं.11

-

111

11111

-

ई‌ई‌ई


अथाष्टवर्गाध्यायः


.

सूर्याष्टकवर्गः 48

चन्द्राष्टकवर्गः 49

ग्रहासू. चं.मं.बु. बृ.शु.श.लि. ग्रहाचं.मं.बु. बृ शु श सू. लि

रा.। 4 । 3 11।5।5।3। ।10॥ रा.3115534।4।1ऒ 8 .

33 411

88

2141 18 ऽ

1140 1 1 1 1 11ऽच

391 991 1

3903 9

1899 91

114931 ई

497 183

टॊळॊण्घ

टॊम्टॊम 50 श्टाट्श

भौमाष्टकवर्गः

बुझाष्टकवर्गः

ग्र.मं.बु. बृ.शु.श.सू. चं.ल. रा.।11।5।5।3।8।4।3।10। 991 1

ग्र.बु. ब.शु.श.स.च.मं. ल. रा.5538431510

219

191

97

॥॥॥

3

ट1 51 50 50 51 56 950 85 ऒ 30

4 च्ल 81 9011 399 397

1911 ईलीलीलीऽई ई‌ई

3311 90188

। हैं।


34.

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

गुर्वष्टकवर्गः

शुक्राष्टकवर्गः

ग्र.बि.शि.शि.सू.चिं.मं.बु. ल. ग्र.शु.श.सू.चं.मं.बु./बृ.लि.

5।3।4।4।31।5।10। रा.।3।4।4।3।11।5।5।10 90

11183

ई‌ई ई‌ई ई 1881 घ ईळी॥। । ॥ ईऽ41 ईछी

ई ऽ ऎ 1

ऽ ईट

100

11

90 991 1


183 टी‌ऎश

1490 डी‌ऎ 99 ई‌ई

119921 ई 39

य्म 50

शन्यष्टकवर्गः

लग्नाष्टकवर्गः

डॆण

1999

ग्र.श.सू.चिं.मं.बु. बृ. शु.लि. ग्र. ल. सू. चं. मं. बु. (बृ. शु.श ।

।115॥5।3।10, रा.10।4।3।11।5।5।3।

1890

ई‌ई‌ई 118

टीळ ऽ 1 199 133 12311

38

छ्व्म अच

.

13

-

-

.

9 11 91011

18

टी


अथाष्टवर्गाध्यायः

त्रिकॊणशॊधनम्त्रिकॊणं तु चतुःप्रॊक्तं मॆषसिंहधनुस्तथा।

वृषकन्यामृगाख्यॆषु तुलाकुम्भयुगॆषु च॥9॥ । सम्पूर्ण राशिचक्र (12 राशि) मॆं चार (4) त्रिकॊण हैं। त्रिकॊण का : अर्थ है- प्रथम, पंचम और  नवम राशि। प्रत्यॆक त्रिकॊण की प्रथम राशि क्रम सॆ मॆष, वृष, मिथुन और  कर्क हैं। इसकॆ अनुसार मॆष, सिंह, धन प्रथम त्रिकॊण; वृष, कन्या, मकर दूसरा; मिथुन, तुला, कुम्भ तीसरा

और  कर्क, वृश्चिक, मीन चौथा त्रिकॊण है॥9॥ . कर्कवृश्चिकमीनास्तॆ त्रिकॊणाः स्युः परस्परम। । त्रिकॊणॆषु च यत्र्यूनं तत्तुल्यं त्रिषु शॊधयॆत॥10॥

प्रत्यॆक त्रिकॊण की तीनॊं राशियॊं मॆं जिस राशि की रॆखा संख्या कम हॊ उसॆ त्रिकॊण की अन्य दॊ राशि कॆ रॆखा की संख्या मॆं घटावॆ। शॆष उसी राशि कॆ नीचॆ रख दॆ॥10॥

ऎकस्मिन्भवनॆ शून्यं तत्रिकॊणं न शॊभयॆत। । समत्वॆ सर्वगॆहॆषु सर्वं संशॊध्य बुद्धिमान ॥11॥ अल्प संख्या वाली राशि कॆ नीचॆ शून्य रखॆ। यदि त्रिकॊण की ऎक राशि कॆ नीचॆ शून्य हॊ तॊ उसमॆं त्रिकॊण-शॊधन न करॆ अर्थात ज्यॊं की त्यॊं रख दॆ। यदि त्रिकॊण की तीनॊं राशियॊं कॆ नीचॆ रॆखा बराबर हॊं तॊ त्रिकॊण शॊधन न कर तीनॊं राशियॊं कॆ नीचॆ शून्य (0) ही रख दॆवॆं ॥11॥

विशॆष- इस प्रकार त्रिकॊण-शॊधन कॆ तीन नियम हु‌ऎ1. त्रिकॊण की तीन राशियॊं मॆं किसी राशि की रॆखायॆं कम हॊं तॊ उस कम वाली संख्या कॊ तीनॊं स्थान की संख्या‌ऒं मॆं घटा दॆ।

2. यदि त्रिकॊण की किसी ऎक राशि मॆं शून्य रॆखा हॊ तॊ ज्यॊं का त्यॊं रहनॆ दॆ।

3. ऎवं यदि त्रिकॊण की तीनॊं राशियॊं मॆं बराबर रॆखायॆं हॊं तॊ तीनॊं स्थानॊं मॆं शून्य फल हॊगा।

उदाहरण- जैसॆ सूर्याष्टक वर्ग मॆं मॆष राशि मॆं 5, सिंह मॆं 4 और  धन मॆं 6 रॆखायॆं हैं इन तीनॊं मॆं सबसॆ कम 4 है अतः नियमानुसार मॆष की 5 रॆखा‌ऒं मॆं सॆ 4 घटानॆ सॆ मॆष राशि मॆं 1 स्थापना करनी हॊगी।


इ‌अ

.

भॆ । बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम - सिंह की 4 रॆखा‌ऒं मॆं सॆ 4 घटानॆ सॆ सिंह राशि मॆं 0 शून्य रहॆगा ऎवं धनराशि की 6 रॆखा‌ऒं मॆं सॆ 4 घटानॆ सॆ धन राशि मॆं 2 रहॆगा। अर्थात त्रिकॊण-शॊधन कॆ बाद मॆष मॆं 1, सिंह मॆं शून्य ऎवं धन मॆं 2 फल । ‘आया। इसी प्रकार उपर्युक्त नियम कॆ अनुसार सूर्यादि सात ग्रहॊं

और  लग्न कॆ अष्टक वर्ग का त्रिकॊण-शॊधन करना चाहि‌ऎ। कहीं 2 निम्नलिखित प्रकार सॆ भी अष्टक वर्ग लिखनॆ की प्रथा है

सूर्याष्टकवर्गः 48 चन्द्राष्टकवर्गः 49

सु

सू

/॥

टीळ

ई‌ऊळ

य.

श टीटी

श.॥॥।

20 ॥

। भौमाष्टकवर्गः 39

बुधाष्टकवर्गः 54

- ।

आ फींई‌ऎ‌आ

"

98

ऎलति‌ऒन्शि‌अन अस ।

--

:

-

* ॥॥। श.॥॥॥3ख श.॥॥। ॥॥

। बु.बृ./

। मं.॥॥ * सू. 6॥। 20111111 1 111 . गुर्वष्टकवर्गः 56

शुक्राष्टकवर्गः 52 6॥7,सू सू ॥ 2॥॥।

॥ई॥ बु.बृ. शु.चं.  ॥ चं.शु.उल्ल 1/ छ

1 11119% ख॥॥। श.  ॥॥। ॥॥।

।  मं.॥॥॥


-

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111

"-, " ।


आ‌आ

ऊळ

ईळ.

ॠण्ट

फॊल्ल


लग्नाट

अथाष्टवर्गाध्यायः

भॄ

शन्यष्टकवर्गः 39 ।

लग्नाष्टकवर्गः 49 । 116 फ श111आ

10 ॥॥॥॥। श.6॥12

मं. ॥ बृ.बु.3ख ॥॥॥ ॥।

रॊ

ईळ्ळी॥

111111

ई‌ई \ उलि ॥चं.श. स414 बु.

। अथैकाधिपत्यशॊधनम्‌ऎवं त्रिकॊणं संशॊध्य पश्चादॆकाधिपत्यता। क्षॆत्रद्वयॆ फलानि स्युस्तदा संशॊधयॆद्बुधः॥12॥ इस प्रकार त्रिकॊण शॊधन कॆ बाद ऎकाधिपत्य शॊधन करॆ। ऎक ग्रह की दॊ राशियॊं मॆं त्रिकॊण-शॊधन कॆ फलॊं सॆ ऎकाधिपत्य शॊधन हॊता है॥12॥..

क्षीणॆन सह चान्यस्मिञ्छॊधयॆद्ग्रहवर्जितॆ। ग्रहयुक्तॆ फलॆ हीनॆ ग्रहाभावॆ फलाधिकॆ॥13॥

अनॆन सह चान्यस्मिञ्छॊधयॆद्ग्रहवर्जितॆ॥ फलाधिकॆ ग्रहैर्युक्तॆ चान्यस्मिन सर्वमुत्सृजॆत ॥14॥ उभयॊग्रहसंयुक्तॆ न संशॊध्यः कदाचन। उभयॊग्रहहीनाभ्यां संमत्वॆ सकलं त्यजॆत॥15॥ सग्रहा ग्रहतुल्यत्वात्सर्वं संशॊध्यमग्रहात।. .. ऎकत्र नास्ति चॆत सर्वहानिरन्यत्र कीर्त्तिता। कुलीरसिंहयॊ राश्यॊः पृथक क्षॆत्रं पृथक फलम॥16॥ .. यदि ऎक ग्रह की दॊनॊं राशियॊं मॆं कॊ‌ई ग्रह न हॊ तॊ अल्प संख्या कॊ अधिक संख्या मॆं घटाकर शॆष कॊ अधिक संख्या कॆ नीचॆ रख दॆ और  अल्पसंख्या कॊ ज्यॊं का त्यॊं रख दॆ (1)। यदि ऎक राशि मॆं ग्रह हॊ और  दूसरी राशि मॆं ग्रह न हॊ और  जिस राशि मॆं ग्रह हॊ उसकी संख्या ग्रहहीन राशि की संख्या सॆ अल्प हॊ तॊ ग्रहहीन राशि की संख्या मॆं अल्प संख्या कॊ घटाकर शॆष ग्रहहीन कॆ नीचॆ रख दॆ और  अल्प संख्या यथावत


-

-

----

--

--

-

--

11.ई

-

-

-

--

-

--

328 . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम रख दॆ (2)। यदि ग्रहयुक्त राशि की संख्या अधिक हॊ और  ग्रहहीन राशि मॆं अल्पसंख्या हॊ तॊ ग्रहहीन राशि मॆं शून्य और  ग्रहयुक्त राशि की संख्या यथावत रखनी चाहि‌ऎ (3)। यदि दॊनॊं राशियाँ ग्रहयुक्त हॊं तॊ संशॊधन । नहीं करना चाहि‌ऎ, यानि दॊनॊं जगह यथावत अंक रहनॆ दॆ (4)। यदि ऎक ग्रहयुक्त हॊ और  दूसरी राशि ग्रहहीन तथा दॊनॊं की संख्या बराबर हॊ तॊ ग्रहहीन राशि कॆ नीचॆ शून्य और  ग्रहयुक्त राशि कॆ नीचॆ वही संख्या रहॆगी (5)। यदि दॊनॊं ग्रहयुक्त वा ग्रहहीन हॊं अथवा दॊनॊं मॆं ऎक ग्रहयुक्त

और  ऎक ग्रहहीन हॊ किन्तु त्रिकॊण-शॊधन मॆं किसी ऎक मॆं शून्य हॊ तॊ दॊनॊं मॆं शून्य ही हॊगा (6)। कर्क और  सिंह राशि कॆ फल ज्यॊं कॆ त्यॊं रहतॆ हैं, इनमॆं ऎकाधिपत्य शॊधन नहीं किया जाता है॥12-16॥।

इति ऎकाधिपत्यशॊधनम। । अथ पिण्डॊत्पत्याध्यायः । शॊध्यावशॆषं संस्थाप्य राशिमानॆन वर्धयॆत॥

ग्रहयुक्तॆऽपि तद्गाशौ ग्रहमानॆन वर्धयॆत॥1॥ ऎकाधिपत्य शॊधन कॆ उपरान्त जिस राशि कॆ नीचॆ जॊ संख्या हॊ उसॆ - उस राशि कॆ नीचॆ रखकर उस राशि कॆ गुणक सॆ गुणा करॆ। यदि राशि मॆं ग्रह हॊ तब भी उस संख्या कॊ उस ग्रह कॆ गुणक सॆ गुणा कर फल कॊ उसकॆ नीचॆ रख दॆ॥1॥

। अथ राशि-ग्रहगुणकध्रुवाकानाहगॊसिंहौ दशगुणितौ दशभिमिथुनालिनौ। । वणिग्मॆषौ तु मुनिभिः कन्यकामकरौ शरैः॥2॥

 वृष-सिंह राशि कॊ 10 सॆ, मिथुन-वृश्चिक कॊ 10 सॆ, तुला और  मॆष कॊ 7 सॆ, कन्या-मकर कॊ 5 सॆ॥2॥ । शॆषाः स्वमानतॊ गण्या ग्रहगुणकमथॊच्यतॆ ।

जीतारशुक्रसौम्यानां दशाष्टमुनिसायकाः॥3॥॥

और  शॆष राशियॊं कॊ उनकी संख्या सॆ ( ऎकाधिपत्य शॊधन कॆ उपरान्त जॊ अंक जिस राशि कॆ नीचॆ है उसॆ गुणाकर गुणन फल कॊ राशि कॆ नीचॆ रखना चाहि‌ऎ। इसी प्रकार जिस राशि मॆं जॊ ग्रह हॊ उस ग्रह कॆ गुणक सॆ राशि कॆ नीचॆ वालॆ की संख्या (ऎकाधिपत्य शॊधनॊपरान्त

अथ पिंडॊत्पत्याध्यायः

379 शॆष अंक कॊ) गुणाकर गणन फल कॊ उस राशि कॆ नीचॆ रख दॆ। यदि ऎक राशि मॆं दॊ-तीन ग्रह हॊं तॊ उनकॆ गुणकॊं सॆ अलग-अलग उस संख्या कॊ गुणाकर सभी का यॊगकर उस राशि कॆ नीचॆ रखना चाहि‌ऎ। गुरु, भौम, शुक्र और  बुध का क्रम सॆ 10,8,7,5, गुणक है॥3॥

बुधस्य संख्या शॆषाणां ग्रहगुणैर्गुणयॆत्क्रमात । सर्वॆषां फलयॊगॊऽपि पिण्डमानं प्रकथ्यतॆ॥4॥ इस प्रकार गुरु का 10; भौम का 8, शुक्र का 7, बुध का 5 और  शॆष ग्रहॊं का 5 गुणक है। सभी फलॊं कॆ यॊग कॊ पिण्ड कहतॆ हैं॥4॥

राशि मॆं वृ.मि.क. सि.क. तु. वृ. ध.म. कुं.मी. गुणक 7104 1057-52012

ग्रह सू. चं. मं. ब. च. शु.श. गुणक ।5।85107॥

सूर्याष्टकवर्गशॊधनम

जन्मकालीन

16:

। यॊग ।

हि 5 म । ऒ‌उम । छॊमॊ छि। 2 । ऒ‌उम । 0

&

ऒ‌उम ।

र्र्र ।

1939

3

01019

.

राशयः ।1।2

1039099192

रॆखा।

1414

38 त्रिकॊण

1910 ंऎट्ट ऎकाधिपत्य

"1912100001919910019 शॊधन ।

।8।9।0.012/63 राशिपिंडया व ग्रहगुणन

000।5।ग्रहपिंड । उद

। 6 । 1 ।

राशिगुणन।स ल200000

। 0

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

चन्द्राष्टवर्गशॊधनम

जन्मकालीन

. ग्रहाः

ऒछः


राशयः

92384 ऽ

1

90199197

6 ।

* रॆखाः ।

43428 3844

* ।

त्रिकॊण

9019910109101319100 ऎट ऎकाधिपत्य

0 0 0 फी‌ऎ

1000031010108 ॥2।0042।0॥048/72 राशिपिंडयॊग ।

ण्घ ग्रहणुन

0॥॥15।ग्रहपिंड ।87।

राशिगुणन॥00

उच

 भौमाष्टकवर्गशॊधनम

छि छि

ळिल

ऒछा

जन्मकालीन

।ग्रहाः

राशयः ॥2।3।4।5।6।7।8।9।10।11।12॥ रॆखाः ।35।4।23।3।26।3।5।2।239 त्रिकॊण

03131010101018109101018 यॆटी 91109091ऒलॊलॊलॊलॊलॊलॊलॊलॊलॊलॊलॊलॊ शॊधन ।

राशिगुणन।

।00000000000 राशिपिंडयॊग

ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ

राशिपिंड यॊग

ग्रहगुणन

। ।ग्रहपिंड॥

ळॊ

ऒ‌ऒ

ऒलॊलॊलॊ

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10 ईन ।

हॊ


-

-

उस

338

014 राशिपिंड यॊग

14ऒ इ‌उग

ग्रहपिंड 1024

4111

। ग । ऒ‌उम । ।

ऒनु

मं.

0

। । ऎर । 0 । 0।0। ऒ 3000 0 । ऒ‌उम । 2 । 0 । व । । र ।  ।

।5।15॥।20।ग्रहपिंड ।34।

श. ।

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। । ऒ‌उम । उस है । ऒ‌उम । 0 0

। ऒ‌उम । 0. । 0 । 0। ऒलॊलॊलॊ

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। ऒ‌उम । 0 1000 उ । ऒ‌उम । 0 । 0 । 0 । 4 । 3 । " । " । } । हैं। ऒ‌उम । । 2 । 2 । 2 । । म । । न्र । 0 । 0 । 2।

ऒ‌ऒ ऒ‌ऒ


अथ पिंडॊत्पत्याध्यायः

&

बुधाष्टकवर्गशॊधनम ।

लॊ

राशयः ।1।2।3।4।5।6।7।8।9।10।11।12।

0

अ.

1. । ऒ‌उम । न । (.।

1094

0919

1900 1901 9898101010 राशिगुणन

ंय 1.0

। गुर्वष्टकवर्गशॊधनम । [चॆ सू बु॥ श.

8141ऽ टऽ41313141818148

0910131 ।6।5।3

131910 जन्मकालीन

14: ग्रहाः

रॆखाः रॆखाः

त्रिकॊण

य्डॆट ऎकाधिपत्य

0

ट14

लॊलॊ

19

188 रॆखाः ।

शॊधन ॥1॥

जन्मकालीन ग्रहाः


त्रिकॊण

ंऎट ऎकाधिपत्य

य राशिगुणन ।

यॆट्ट

अ ग्रहगुणन

उच

प्रहगुणन व



===

ता

.

शॆण्शॊ

भॆ 332

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

शुक्राष्टकवर्गशॊधनम

1

जन्मकालीन ग्रहाः

मं. \ऎ

य.

ऒछ 101

राशयः ॥2।3।4।5।6।7।8।9।10।11।12॥

.

ळू

....

रॆखाः ।6।4।7।4।4।4।4।1।3।6।5।

त्रिकॊण-।.

1310313191000219 शॊधन । ऎकाधिपत्या.॥3॥॥॥।

197

099018 ईट्झू . ऒ. 193190 01010014 ।11038 राशिपिंडयॊग

उच

ऒस ग्नहगुणन

5।15। ।प । । उच

।35 ग्रहपिंड

शन्यष्टकवर्गशॊधनम ।

जन्मकालीन प्रहाः

झि छिन

यांग,

राशयः

84ऽ

छ89099198

=

=

11

रॆखाः ।7।3।4।4।2।1।2।4॥

त्रिकॊणशॊधन ।

4121319 0104910

ऎकाधिपत्य),

891091010911010 ।शॊधन

राशिगुणन

न 28।10॥4।00।7।8॥ 0057 राशिपिंडयॊग

पिंडा ऋगुणन

0॥10।ग्रहपिंड 67॥ अ

चॊ

न । 0 । 0।

ऒलॊलॊ


आट्ट

श्तय

"64

:

1 भ्छ

1993

अथ पिंडॊत्पत्याध्यायः

भी - लग्नाष्टकवर्गशॊधम जन्मकालीन

ग्रहाः राशयः 913 31841ऽ16 90991931

रॆखाः &13143144131ऽ3181813 189 त्रिकॊण- ।

1302103121080191919198 शॊधन । ऎकाधिपत्य

1010101

011018100191911 ंऎट्ट ।राशिगुणन।

राशिपिङ 0000200137110991471 अ

पिङ ग्रहगुणन

ग्रिहपिंड 981

प्रत्यॆक अष्टकवर्गॊं मॆं मॆषादि राशियॊं मॆं कितनी-कितनी रॆखायॆं प्राप्त हु‌ई हैं और  उनका यॊग क्या हु‌आ इत्यादि बातॊं कॊ जाननॆ कॆ लि‌ऎ सर्वाष्टक. वर्ग चक्र दिया जाता है

सर्वाष्टकवर्गचक्रम । । राशयः ॥2॥4॥6। ।2।10/11/12/यॊग सूर्याष्टकवर्ग 55434266348 चन्द्राष्टकवर्ग,ररि भौमाष्टकवर्ग।3।5।4। 3131313183 बुधाष्टकवर्ग ।4।4।6॥5।4।4।5॥5।4।4।54 गुर्वष्टकवर्ग । 6 ।5।3।3।5।4।6।5।4।4।6। शुक्राष्टकवर्ग ।6। 4 ।7।4।4।4।4।13।6।5। शन्यष्टकवर्ग । 7।3।4।4।2।1।2।4।5।6।1।3 लग्नाष्टकवर्ग।6।3।5।2।5।5।3।6।3।4।43

। । ।श. मं. यॊग ।423238253226293733342929

झ्झ

ऒ वॊ‌ऒच

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26

338


। हैं ।

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

अष्टकवर्गयुक्तजन्माङ्गम (29)म.7 9 (33) () (34) 10 (37) ख (42) 14(29) 7 ।

(32) 3(25) सू.5 26)। ॥शु.(38)च. बु.(32)बृ.

इति पिंडॊत्पत्याध्यायः।

अथाष्टकवर्गफलाध्यायः आत्मस्वभावशक्तिश्च पितृचिन्ता रवॆः फलम। मनॊबुद्धिप्रसादश्च मातृचिन्ता मृगाङ्कतः॥1॥ ‘आत्मा, स्वभाव, शक्ति और  पिता का विचार सूर्य सॆ करना चाहि‌ऎ। । कुन, बुद्धि, अभाव और  माता का विचार चन्द्रमा सॆ करना चाहि‌ऎ॥1॥

भ्रातृसत्त्वं गुणं भूमिं भौमॆन तु विचिन्तयॆत।

वाणिज्यकर्मवृत्तिश्च बुधॆन तु विचिन्तयॆत॥2॥ .. आ‌ई, सत्त्वगुण, भूमि का विचार भौम सॆ करना चाहि‌ऎ। व्यापार वृत्ति

का विचार बुध सॆ करना चाहि‌ऎ॥2॥

गुरुणा दॆहपुष्टिश्च बुद्धिपुत्रार्थसम्पदः। . भृगॊर्विवाहकर्माणि भॊगस्थानं च वाहनम॥3॥ । गुरु सॆ शरीर की पुष्टता, बुद्धि और  पुत्र का विचार करना चाहि‌ऎ। शुक्र ।’ सॆ विवाह, मॊगस्थान, वाहन॥3॥ । वॆश्यास्त्रीजनगात्राणि शुक्रॆणैव निरीक्षयॆत। । । आयुष्यं जीवनॊपायं दुःखशॊकं महद्भयम॥4॥

वॆश्या का विचार करना चाहि‌ऎ। आयुष्य, जीविका, दुःख, शॊक, य। 4 ॥ .


334

अथाष्टकवर्गफलाध्यायः सर्वक्षयं च मरणं, मन्दॆनैव निरीक्षयॆत। रविः पिता शशी माता भ्रातां भौमॊ बुधः सुहृत ॥5॥ सर्वनाश और  मृत्यु का विचार शनि सॆ करना चाहि‌ऎ। रवि पिता कारक बुध है॥5॥

। मातुलॆयः स्मृतॊ जीवॊ ज्ञानपुण्यॆ स्त्रियः सितः।

ऎषामृक्षॆ च तत्कालॆ मरणं कुरुतॆ शनिः॥6॥ ज्ञान, गुण का कारक गुरु और  स्त्री (पत्नी) का कारक शुक्र है। इन . राशि मॆं जब शनि जाता है तॊ इन लॊगॊं कॊ कष्ट हॊता है॥6॥ . तत्तद्भावजफलॆन च गुणितं यॊगैक्यपिण्डं फलम।

विंशत्या सह सप्तभिश्च विहृतं तच्छॆषताशनौ ॥7॥ जिन भावॊं का विचार करना हॊ उन 2 मा कॆ फल (अष्टक वर्ग की रॆखा) कॊ उस ग्रह कॆ यॊगपिंड कॊ गुणाकर गुणनफल मॆं 27 का भाग दॆनॆ सॆ जॊ शॆष बचॆ तत्तुल्य अश्विनी सॆ गिननॆ सॆ जॊ नक्षत्र आवॆ उस पर जब शनि आता है॥7॥ तातः स्याज्जननीं सहॊदरजवॊ बन्धुःसुतः स्त्री स्वयम । तत्तुल्यं विलयं प्रयाति विपुलं श्रीनाथहॆतुश्च वा ॥8॥

तब पिता, माता, भा‌ई, बंधु, पुत्र, स्त्री आदि कॊ कष्ट हॊता हैं अथवा लक्ष्मी की प्राप्ति हॊती है॥8॥.।

सूर्याष्ट्रकवर्गफलम्‌आदित्याष्टकवर्गं च निक्षिप्याकाशचारिषु । अर्कस्थितात्तु नवमॊ राशिः पितृगृहं स्मृतम ॥9॥

सूर्याष्टक वर्ग का व्यास ग्रहं सहित करॆ। सूर्य सॆ नवम स्थान पिता ब्रूया ’ हॊता है॥9॥

तद्राशिफलसंख्याभिर्वर्धयॆद्यॊगपिण्डकम । . सप्तविंशॊद्भुतं शॆषं नक्षत्रं याति भानुज ॥10॥

उस राशि कॆ फल कॊ (रॆखा कॊ) यॊगपिंड सॆ गुणाकर गुणनफल मॆं 27 का भाग दॆनॆ सॆ जॊ शॆष हॊ, तत्संख्या कॆ तुल्य अश्विनी सॆ गिननॆ सॆ

जॊ नक्षत्र हॊ उस नक्षत्र पर जब शनि जाता है॥10॥

तस्मिन कालॆ पितृकष्टॊ भवतीति न संशयः।

तत्रिकॊणगतॆ वापि पितापितृसमॊऽपि वा। । मरणं तस्य जानीयाद्दशा छिद्रॆषु कल्पयॆत ॥11॥

33

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम तॊ उस समय पिता कॊ कष्ट हॊता है, इसमॆं संदॆह नहीं। अथवा उस नक्षत्र सॆ त्रिकॊण मॆं (10वॆं, 9वॆं नक्षत्र) जब शनि हॊता है तब पिता या पिता कॆ तुल्य (चाचा आदि) का मरण हॊता है। उस समय की दशा कॊ छिद्रदशा कहतॆ हैं॥11॥।

अथ पित्रॊररिष्टकालमाह—?अर्कभात्तु तुर्यगॆ राहॊ मन्दॆ वा भूमिनन्दनॆ॥ गुरुशुक्रॆक्षणमृतॆ पितृहा जायतॆ नरः॥12॥ सूर्य सॆ चौथॆ स्थान मॆं राहु, शनि, भौम मॆं सॆ कॊ‌ई हॊ और  गुरु-शुक्र सॆ न दॆखा जाता हॊ तॊ पिता कॊ अरिष्टकारक हॊता है॥12॥

लग्नाच्चन्द्राद्गुरुस्थानॆ यातॆ सूर्यसुतॆ यदि। पित्रॊनशं तदा कालॆ वीक्षितॆ पापसंयुतॆ ॥13॥ लग्न वा चन्द्रमा सॆ नवम स्थान मॆं जिस समय शनि हॊ और  पापग्रह सॆ युत तथा दॆखा जाता हॊ तॊ उस समय पिता का मरण कहॆ ॥13॥

दशानुकूलकालॆन यॊजयॆत्कालवित्तमः।

लग्नात्सुखॆश्वरानिष्टदशायां च पितृक्षयः॥14॥ यदि अनुकूल दशा हॊ तॊ अरिष्ट नहीं हॊता है। लग्न सॆ सुखॆश (चतुर्थॆश) की अनिष्ट दशा मॆं भी पिता का नाश हॊता है॥14॥

। पितृकर्मकर्ता यॊगःपितृजन्माष्टभॆ जातस्तदीशॆ लग्नगॆऽपि वा। । तॆनैव पितृकर्माणि कारयॆन्नात्र संशयः॥15॥

पिता कॆ जन्मलग्न सॆ आठवीं राशि मॆं जन्म हॊ और  उस राशि कॆ स्वामी लग्न मॆं हॊं तॊ वह पिता कॆ कर्म कॊ करनॆ वाला हॊता है॥15॥

। अथ पितृसुखयॊगःसुखनाथदशायं तु बहुप्राप्तॆश्च सम्भवः। सुखॆशॆ लाभलग्नस्थॆ चन्द्रलग्नाद्विशॆषतः॥16॥ सुखॆश की दशा मॆं अधिक सुख पानॆ की संभावना हॊती है। सुखॆश 11 वॆं भाव मॆं हॊ अथवा चन्द्रमा सॆ 11वॆं वा दशम भाव मॆं हॊ तॊ जातक पिता कॆ वश मॆं रहनॆ वाला हॊता है॥16॥।

पितृगृहॆ समायुक्तॆ जातः पितृवशानुगः। पितृजन्मतृतीय जातः पितृधनाश्रितः॥17॥

------

-

---

------

अथाष्टकवर्गफलाध्यायः

337 पिता कॆ जन्मलग्न सॆ तीसरी राशि मॆं जन्म हॊ तॊ वह पिता कॆ धन का आश्रित हॊता है॥17॥

पितृकर्मगृहॆ जातः पितृतुल्यगुणान्चितः॥ तदीशॆ लग्नसंस्थॆऽपि पितृश्रॆष्ठॊ भवॆन्नरः॥18॥। पिता कॆ जन्मलग्न सॆ 10वीं राशि मॆं उत्पन्न हॊ तॊ जातक पिता कॆ गुणॊं कॆ सदृश गुण वाला हॊता है और  दशम राशि का स्वामी लग्न मॆं हॊ तॊ पिता सॆ श्रॆष्ठ हॊता है॥18॥

अथ विशॆषफलमाह—सूर्याष्टवर्गॆ यच्छून्यं मासॆ तद्दिवसॆऽपि वा। विवाहव्यवहारादि मासॆऽस्मिन्वर्जयॆत्सदा॥19॥

सूर्याष्टक वर्ग मॆं जिस राशि मॆं शून्य हॊ उस राशि संबंधी मास और  

 दिन मॆं विवाह आदि शुभ कार्य, व्यवहार आदि न करॆ ॥19॥

कलहॊत्पातदुःखानि शून्यमासॆ भवन्ति च॥ संशॊध्यपिण्डं सूर्यस्य रन्ध्रमानॆन वर्धयॆत॥20॥ शून्य वालॆ मास मॆं कलह, उत्पात आदि दुःख हॊतॆ हैं। सूर्य कॆ पिंड का शॊधन कर अष्टम स्थान की फल रॆखा सॆ यॊगपिंड कॊ गुणाकर॥20॥

द्वादशहतावशॆष मॆषादिगणयॆत्पुनः। तस्मिन्मासॆ मृतिं विद्यात्तत्रिकॊणगतॆऽपि वा॥21॥ उसमॆ 12 सॆ भाग दॆ, शॆष मॆषादि सॆ गिननॆ सॆ जॊ राशि हॊ उस राशि कॆ. मास मॆं अरिष्ट हॊता है अथवा उससॆ त्रिकॊण राशि कॆ मास मॆं अरिष्ट हॊता है॥21॥

इति सूर्याष्टकवर्गफलविचारः।

अथ चन्द्राष्टकवर्गफलविचारःचन्द्राच्चतुर्थगॆ मातुः प्रासादग्रामचिन्तनम। चन्द्राष्टवर्गॆ यच्छून्यं तत्र राशिगतॆ विधौ॥22॥ चन्द्रमा सॆ चौथॆ माता, गृह, ग्राम का विचार करना चाहि‌ऎ। चन्द्राष्टक वर्ग मॆं जिस राशि मॆं शून्य हॊ उस राशि मॆं जब चन्द्रमा हॊ॥22॥।

तन्नक्षत्रं परित्यज्य शुभकर्माणि कारयॆत। चन्द्राष्टमॆशनक्षत्रॆ त्रितयॆषु विशॆषतः॥23॥।

ऎछ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम अथवा वह राशि जिन 2 नक्षत्रॊं सॆ बनती है उन 2 नक्षत्रॊं पर जब चन्द्रमा हॊ तॊ शुभ कर्म नहीं करना चाहि‌ऎ। चन्द्रमा सॆ अष्टमॆश जिस नक्षत्र पर हॊ, उससॆ त्रिकॊण कॆ दॊ नक्षत्र अर्थात इन तीनॊं नक्षत्रॊं पर ॥23॥

आयामव्याधिदुःखानि लभतॆ नात्र संशयः॥ चन्द्रात्सुखफलात्पिण्डं वर्धयॆत्सप्तद्विभाजयॆत ॥24॥

आयाम- व्याधि और  दुःख की प्राप्ति हॊती है। चन्द्रमा सॆ चौथॆ स्थान कॆ फल कॊ चन्द्राष्टक वर्ग कॆ पिंड कॊ गुणाकर गुणन फल मॆं 27 का भाग दॆनॆ सॆ॥24॥।

शॆषमृक्षॆ शनौ यानॆ मातृहानि विनिर्दिशॆत।

तन्त्रिकॊणॆषु वा कॆचिन्मातृकष्टं समादिशॆत ॥25॥। ।शॆष तुल्य अश्विन्यादि नक्षत्र मॆं शनि कॆ रहनॆ सॆ माता की हानि हॊती है अथवा उससॆ त्रिकॊण कॆ नक्षत्रॊं पर शनि कॆ रहनॆ सॆ माता कॊ कष्ट हॊता है॥25॥।

उदाहरण- जैसॆ चन्द्रमा मिथुन राशि मॆं है, उससॆ अष्टम मकर राशि कॆ स्वामी शनि विशाखा नक्षत्र कॆ चौथॆ चरण मॆं वृश्चिक राशि मॆं हैं, अतः विशाखा, शतभिषा और  पुनर्वसु मॆं आयामादि फल हॊंगॆ। चन्द्रमा सॆ चौथॆ स्थान मॆं फल 3 है, इससॆ यॊगपिंड 87 कॊ गुणनॆ सॆ 261 हु‌आ। इसमॆं 27 का भाग दॆनॆ सॆ 18 शॆष हु‌आ। अश्विनी सॆ गिननॆ सॆ 18वाँ ज्यॆष्ठा नक्षत्र हु‌आ, अतः ज्यॆष्ठा नक्षत्र पर जब शनि आयॆगा तॊ माता की हानि हॊगी।

इति चन्द्राष्टकवर्गफलम।

अथ भौमाष्टकवर्गफलम-- भौमाष्टवर्गॆ सञ्चिन्त्यं भ्रातृविक्रमधैर्यकम। भौमस्थितस्य सहजॊ राशिभ्रतृगृहं स्मृतम॥26॥ भौम कॆ अष्टक वर्ग सॆ भा‌ई, पराक्रम, धैर्य का विचार करना चाहि‌ऎ। भौम जिस राशि पर हॊ उससॆ तीसरी राशि भा‌ई की हॊती

है॥26॥

त्रिकॊणशॊधनं कृत्वा यत्र भूयांसि वै फलम॥

भूमॆर्भवति भार्याया भ्रातृगॆहसुखं तथा॥27॥

अथाष्टकवर्गफलाध्यायः

338 । त्रिकॊण-शॊधन कॆ उपरान्त जिस राशि कॆ नीचॆ अधिक फल हॊं उस राशि पर जब भौम जाता है तब भूमि, स्त्री, भा‌ई और  गृह का सुख हॊता है॥27॥

भौमॊ बलविहीनश्चॆद्दीर्घायुर्भातृकॊ भवॆत॥ 1. फलानि यत्र क्षीयन्तॆ तत्र भौमॆ स्थितॆ क्षतिः॥28॥

यदि भौम निर्बल हॊ तॊ भा‌ई दीर्घायु हॊतॆ हैं। जिस राशि मॆं फल शून्य हॊ उस राशि मॆं भौम कॆ रहतॆ समय भा‌ई कॊ कष्ट हॊता है॥28॥

तद्राशिफलसंख्याभिर्वर्धयॆत्पिण्डं च पूर्ववत॥ शॆषमृक्षं शनौ यातॆ भ्रातृहानिर्विनिर्दिशॆत ॥29॥ भौम सॆ तीसरी राशि कॆ रॆखा सॆ यॊगपिंड कॊ गुणाकर 27 सॆ भाग दॆनॆ . सॆ जॊ शॆष नक्षत्र हॊ उस पर शनि कॆ रहनॆ सॆ भा‌ई कॊ कष्ट हॊता है॥29 ॥.

उदाहरण- मंगल कुम्भ राशि मॆं है, उससॆ तीसरी राशि मॆष है, उसमॆं 3 रॆखा है, उससॆ यॊगपिंड शून्य 0 कॊ गुणाकर 27 का भाग दॆनॆ सॆ शून्य शॆष बचा। अतः रॆवती नक्षत्र पर शनि कॆ रहनॆ सॆ वा इससॆ त्रिकॊण (5,9) नक्षत्र पर शनि कॆ रहनॆ सॆ भा‌ई कॊ कष्ट हॊगा। इसी प्रकार 12 सॆ भाग दॆनॆ सॆ शॆष 0 अर्थात मीन राशि पर अथवा उससॆ त्रिकॊण कर्क, वृश्चिक पर शनि कॆ हॊनॆ सॆ भा‌ई कॊ कष्ट हॊगा।

इति भौमाष्टकवर्गफलम।

अथ बुधाष्टकवर्गफलम्बुधात्तुर्यॆ कुटुम्बं च धनमित्रादिमातुलाः। तत्पञ्चमॆ मन्त्रविद्यालिपिबुध्यादि चिन्तयॆत॥30॥ बुध सॆ चौथॆ भाव मॆं कुटुम्ब, धन, मित्र, मामा का विचार और  उससॆ पाँचवॆं भाव मॆं मन्त्रणा, विद्या, लॆख और  बुद्धि का विचार करना

चाहि‌ऎ॥30॥। ..’ बुधाष्टवर्गं संशॊध्य शॆषमृक्षगतॆ शनौ।

लभतॆ कुटुम्बकादीनां विनाशं नात्र संशयः॥31॥ बुधाष्टक वर्ग का संशॊधन करकॆ पूर्ववत यॊगपिंड द्वारा नक्षत्र ऎवं राशि का ज्ञान कर कुटुम्बादि कॆ दुःख-सुख आदि कॊ समझना चाहि‌ऎ ॥31॥

6923

 280

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम उदाहरण- बुध सिंह राशि मॆं है, इससॆ चौथी वृश्चिक राशि मॆं 5 रॆखा

इस यॊगपिंड 34 सॆ गुणा कर 27 का भाग दॆनॆ सॆ शॆष 8व पुष्य। नदीन पर अथवा इससॆ त्रिकॊण (5-9) नक्षत्र पर शनि कॆ रहनॆ सॆ

इम्बादि कॊ दुःख हॊगा। वा गणनफल मॆं 12 सॆ भाग दॆनॆ पर शॆष 2 वृष राशि अथवा इससॆ त्रिकॊण पर शनि कॆ रहनॆ सॆ कुटुम्बादि कॊ दुःख हॊगा।

इति बुधाष्टकवर्गफलम।

अथ गुर्वष्टकवर्गफलम्जीवात्पञ्चमतॊ ज्ञानं पुत्रधर्मधनादिकम । गुरुस्थितं सुतस्थानॆ यावच्च विद्यतॆ फलम।

शत्रुनीचगृहं त्यक्त्वा तावन्तः सन्ततिर्भवॆत॥32॥ गुरु सॆ पाँचवॆं भाव मॆं ज्ञान, पुत्र, धर्म, धन आदि का विचार करना चाहि‌ऎ। गुरु सॆ पाँचवॆं भाव मॆं जॊ फल (रॆखा) है यदि वह राशि (पाँचव) गुरु कॆ शत्रु वा नीच की न हॊ तॊ उतनी ही संतान हॊती है॥32॥

संख्या नवांशतुल्या वा तदीशस्था नवा पुनः।

 सुतमॆशनवांशैश्च समानावपि कल्पयॆत ॥33॥

अथवा पंचमॆश स्थित भाव कॆ नवांश की संख्या तुल्य वा पंचमॆश कॆ। नवांश की संख्या तुल्य संतान हॊती है॥33॥।

गुरॊः सुतात्फलॆनैव पिण्डात्संवर्ध्य पूर्ववत।

शॆषभं च गतॆ सौरॆ पुत्रकष्टं न संशयः॥34॥ ‘गुरु सॆ पाँचवॆं भाव कॆ फल सॆ गुरु कॆ यॊगपिंड कॊ गुणाकर 27 सॆ. भाग दॆनॆ सॆ शॆष तुल्य नक्षत्र पर वा उससॆ त्रिकॊण कॆ नक्षत्र पर शनि कॆ हॊनॆ सॆ पुत्र कॊ कष्ट हॊता है॥34॥

इति गुर्वष्टकवर्गफलम।

अथ शुक्राष्टकवर्गफलम्मृगॊरष्टकवर्ग च निक्षिप्याकाशचारिषु। । यॆषु यॆषु फलानि स्युर्भूयांसि किल तत्र तु॥35॥

ग्रहॊं कॆ सहित शुक्र कॆ अष्टकवर्ग कॊ रखकरं जिन-जिन राशियॊं मॆं ।’ अधिक फल हॊं ॥35॥।

-

--


38:

अथाष्टकवर्गफलाध्यायः भूमिं कलत्रं वित्तं च तद्दॆशॆ निर्दिशॆन्नृणाम॥ शुक्राज्जामित्रतॊ लब्धिं दारॆशान्वितदिग्भवा॥36॥ उसकॆ अनुसार मनुष्यॊं कॊ भूमि, स्त्री, धन.और  दॆश कॊ आदॆश करना चाहि‌ऎ। शुक्र सॆ 7वॆं स्थान कॆ दॆश मॆं वी सप्तमॆश कॆ दॆश मॆं स्त्री का लाभ हॊता है॥36॥

दाराधिपस्थितं क्षॆत्रं दाराजन्मक्षकं विदुः। तस्यांशकॆ त्रिकॊणॆ वा दाराजन्मकं विदुः॥37॥ मन्दाशॆ मन्दसंयुक्तॆ मन्दक्षॆत्रॆऽथवा भृगौ। नीचशॆ मन्दसंयुक्तॆ नीचस्त्रीभॊगमिच्छति ॥38॥ दारॆश जिस राशि मॆं हॊ वही राशि स्त्री की हॊती है। अथवा उसकॆ नवांश की राशि वा उसकॆ त्रिकॊण की राशि स्त्री की राशि हॊती है॥38॥।

भौमांशकगतॆ शुक्रॆ भौमक्षॆत्रगतॆऽपि वा।

भौमॆन युतदृष्टॆ च परस्त्रीभॊगमिच्छति॥39॥ - शुक्र शनि कॆ नवांश मॆं हॊ और  शनि सॆ युत हॊ अथवा शनि की राशि मॆं हॊ, अपनॆ नीचांश मॆं पापग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ नीच स्त्री की इच्छा हॊती है। शुक्र भौम कॆ नवांश मॆं हॊ अथवा भौम की राशि मॆं हॊ और  भौम सॆ युत वा दॆखा जाता हॊ तॊ परस्त्रीगामी हॊता है॥39 ॥

। जामिन्नॆ भन्दभौमांशॆ तदीशॆ मन्दभौमभॆ। । वॆश्या वा जारिणी वापि तस्य भार्या न संशयः॥4॥

सप्तम स्थान मॆं शनि वा भौम का अंश हॊ और  उसकॆ स्वामी शनि वा भौम की राशि मॆं हॊ तॊ उसकी स्त्री वॆश्या वा जारिणी हॊती है॥40॥

शुक्रजामिन्नतॊ लब्धिस्त्रिकॊणा द्दॆशदिक्स्त्रियः। भृगुदारॆशयुक्त फलसंख्या स्त्रियॊ विदुः॥41॥। शुक्र सॆ सातवॆं स्थान कॆ अनुसार वा उससॆ त्रिकॊण राशि कॆ अनुसार। दॆश, दिशा, स्त्री का कहना चाहि‌ऎ। शुक्र सॆ सप्तमॆश सॆ युत राशि कॆ फल की संख्या तुल्य स्त्री की संख्या कहनी चाहि‌ऎ॥4॥

शुक्रांशकसमाना स्त्री वर्णरूपगुणान्वितां॥ भवॆच्छशाङ्कतुल्या वा दारॆशस्य गुणान्विता ॥42॥

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382 382

- बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम शुक्र कॆ नवांश कॆ सदश वर्ण-रूप-गण कॆ यक्त वा चन्द्रमा कॆ नवशि सदृश वा सप्तमॆश कॆ गुण कॆ अनुरूप स्त्री हॊती है॥42॥। । शुक्रान्मन्दॆ त्रिकॊणस्थॆनॆष्टं जीवॆ सुखप्रदम। . तॆषां बलविवॆकॆन भार्यायी लक्षणं वदॆत ॥43॥

शुक्र सॆ शनि त्रिकॊण मॆं हॊ तॊ स्त्री का सुख नहीं हॊता है और  गुरु

 हॊ तॊ स्त्री का सुख हॊता है। इनकॆ बल कॆ अनुसार ही स्त्री कॆ सुखदुःख का विवॆचन करना चाहि‌ऎ ॥43॥।

शुक्रान्जामित्रफलैः संवर्थ्य पिण्डञ्च पूर्ववत ॥ स्त्रियः दुःखं सुखं ज्ञॆयं पूर्वरीत्यनुसारतः॥44॥ । शुक्र सॆ सातवॆं भाव कॆ फल कॊ पूर्ववत शुक्र कॆ यॊगपिंड सॆ गुणा कर गुणनफलं मॆं 27 का भाग दॆनॆ सॆ शॆष नक्षत्र पर जब शनि जावॆ तॊ स्त्री.

कॊ कष्ट कहना॥44॥ . . . इति शुक्राष्टकवर्गफलम।

-

अथ शन्यषटकवर्गफलम्शनैश्चरस्थितस्थानादष्टमं मृतिरुच्यतॆ। शनॆरष्टकवर्गॆ च स्वस्यायुष्यं विनिर्दिशॆत ॥45॥ शनि जिस भाव मॆं हॊ उससॆ आठवॆं स्थान मॆं आयु का विचार करना चाहि‌ऎ॥44 ॥.

लग्नात्प्रभृति मन्दान्तं फलान्यॆकत्र कारयॆत।

लग्नादिफलतुल्याब्दॆ व्याधिवैरं समादिशॆत॥46॥ । लग्न सॆ आरम्भ कर शनि पर्यन्त रॆखा‌ऒं का यॊग करॆ। यॊग तुल्य वर्ष मॆं शरीर मॆं व्याधि और  लॊगॊं सॆ वैर, विदॆश यात्रा, धन की हानि हॊती है॥46॥ 2 ॥

मन्दाद्विलग्नपर्यन्तं फलान्यॆकत्र संयुतम। । मन्दादिफलतुल्याब्दॆ व्याधिं तस्य समादिशॆत ॥47॥

शनि सॆ लग्न पर्यन्त रॆखा‌ऒं का यॊग करॆ। यॊग तुल्य वर्ष मॆं पूर्व कॆ . तुल्य ही वर्ष मॆं व्याधि आदि फल हॊतॆ हैं॥47॥।

तयॊर्यॊगसमाङ्कॆ तु मृत्युयॊगं प्रचक्षतॆ। शॊध्यादि गुणनं कृत्वा पिण्डॆ संस्थाप्य यत्नतः॥48॥


ऎश्ड

383

। अथाष्टकवर्गफलाध्यायः अष्टमस्य फलैर्हत्वा सप्तविंशतिभाजितम॥ शतादूर्ध्वं तत्पिण्डं शतमॆवाग्रतस्त्यजॆत ॥49॥ दॊनॊं कॆ यॊग तुल्य वर्ष मॆं मृत्युयॊग वा व्याधि आदि फल हॊतॆ हैं। शनि कॆ त्रिकॊणादि शॊधन सॆ उत्पन्न यॊगपिंड लग्न सॆ अष्टम स्थान कॆ फल सॆ गुणाकर 27 सॆ भाग दॆनॆ पर शॆष 100 सॆ अधिक बचॆ तॊ उसमॆं सॆ 100 घटाकर शॆष तुल्य आयु हॊती है॥49॥ ..

आयुः पिण्डं तुजानीयात्प्राग्वद्वॆलां तु कल्पयॆत। त्रिकॊणैकाधिपत्यादि शॊधनं विरचय्य च॥50॥ पिण्डॆ संस्थाप्य गुणयॆल्लग्नादष्टमगैः फलैः॥

सप्तविंशतिच्छॆषं मृत्युकालं वदॆद्बुधः॥51॥ समूलाष्टकवर्गॆ च यत्र नास्ति फलं गृहॆ। तत्र नास्ति फलं तस्य यदायाति शनैश्चरः॥52॥ इस प्रकार आयुपिंड कॊ जानकर समय का निश्चय करॆ। ऎकाधिपत्य आदि शॊधन बनाकर शनि कॆ सम्पूर्ण अष्टकवर्ग मॆं जिस राशि का फल न हॊ अर्थात शून्य हॊ तॊ उस राशि मॆं जब शनि हॊता है तॊ उसका कॊ‌ई फल नहीं हॊता है॥50-52॥

तद्गृहॆ. रविचन्द्रौ चॆद्दशाछिद्रॆ मृतिं वदॆत। । दशाछिद्रसमायॊगॆ मृत्युरॆव न संशयः॥53॥ तथा उस राशि मॆं जब सूर्य-चन्द्र हॊतॆ हैं और  अनिष्टकारी दशा हॊती है तॊ मृत्यु हॊती है, इसमॆं सन्दॆह नहीं ॥53 ॥। विलग्नशनमध्यगानि च फलानि सन्ताडयॆन्नगै

। भविहतानि शॆषमित खलॆ याति चॆत। तदा धनसुखक्षतिं तदनु चाङ्गभादष्टमस्थितै

. विंगुणयॆत्पिण्डॆ भपरिशॆषभस्थॆ शनौ ॥54॥ * लग्न सॆ शनि पर्यन्त फलॊं कॊ सात 7 सॆ गुणाकर 27 सॆ भाग दॆनॆ पर शॆष तुल्य नक्षत्र पर पापग्रह कॆ रहनॆ सॆ सुख की हानि हॊती है। लग्न सॆ अष्टम स्थान कॆ फल सॆ शनि कॆ यॊगपिंड कॊ गुणाकर 27 का भाग दॆनॆ सॆ शॆष तुल्य नक्षत्र अथवा कॊण नक्षत्र (59) पर शनि कॆ हॊनॆ सॆ सुख-धन की हानि हॊती है॥54॥

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1

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम हरण- लग्न सॆ शनि पर्यन्त क्रम सॆ

273+4+2+1+2=29 रॆखा‌ऒं का यॊग 29 ह‌आ। तत्तुल 15 अथात 29वॆं वर्ष मॆं शरीर मॆं व्याधि, विदॆशयात्रा, धन की हानि हॊगा ऎवं शनि सॆ लग्न पर्यन्त रॆखा‌ऒं कॆ यॊग 4+5=9 तुल्य वर्ष मॆं पूर्ववत कष्ट आदि फल हॊगी। दॊनॊं कॆ यॊग तुल्य 38वॆं वर्ष मॆं पूर्ववत कष्ट आदि फल हॊंगॆ। अथवा शनि कॆ यॊगपिंड 67 कॊ लग्न सॆ आठवॆ भाव की रॆखा संख्या 5 सॆ गुणनॆ पर 335 हु‌आ। इसमॆं 27 का भाग दॆनॆ - पर शॆष 11 हु‌आ, अश्विनी सॆ गिननॆ सॆ पूर्वाफाल्गुनी वा इससॆ त्रिकॊण

स्वाती, मूल नक्षत्र पर जब शनि हॊंगॆ तॊ कष्ट हॊगा। लग्न सॆ शनि पर्यन्त इखा की संख्या 29 इसॆ 7 सॆ गुणनॆ सॆ 203 हु‌आ। इसमॆं 27 का भाग दॆनॆ सॆ शॆष 14 कॆ तुल्य चित्रा नक्षत्र हु‌आ। इस पर पापग्रह कॆ रहनॆ सॆ धन-सुख की हानि हॊगी।

इति शनॆरष्टकवर्गफलम। - . सर्वाष्टकवर्ग (समुदायाष्टकवर्ग) फलम्सर्वाष्टकग्रहफलैश्च नियॊज्यचक्रं

. मूर्त्यादिभावमशुभं शुभमॆव तत्र। जन्मादितः फलसमानदशा समीक्ष्य ।

यात्राविवाहसमयॆ बहुमूलयुक्ता॥55॥ सभी ग्रहॊं कॆ अष्टक वर्ग की रॆखा‌ऒं कॆ यॊग सॆ सर्वाष्टक वर्ग बनता. है (पृ. 318 मॆं दॆखि‌ऎ)। इसमॆं लग्न सॆ द्वादश भाव की राशियॊं कॊ दॆखना चाहि‌ऎ। जिस राशि मॆं रॆखा अधिक हॊ उसकी दशा मॆं यात्रा, विवाह

आदि करनॆ सॆ अधिक शुभफल हॊता है॥55॥।

मॆषादिभानां सकलाष्टवर्गॆ .

उत्पन्नरॆखागणमॆव कुर्यात। धृत्यादि तत्त्वान्तमितं कनिष्ठ

त्रिंशावसानं किल मध्यवीर्याः॥6॥ सर्वाष्टकवर्ग मॆं जिस राशि मॆं 18 सॆ कम रॆखा हॊ वह कष्टप्रद और  25 तक रॆखा हॊ तॊ कनिष्ठ फल, 30 पर्यन्त मध्यफल ॥56॥

त्रिंशाधिकं तूत्तमवीर्यदाः स्युः । . शरीरसौख्यार्थयशॊ विशॆषाः।


अथाष्टकवर्गफलाध्यायः

384 , स्वस्वाष्टवर्गॆ यदि वॆदहीनाः

क्लॆशाय सौख्याय च वॆदपुष्टाः॥57॥ और  इसकॆ बाद जितनी रॆखा हॊ वह शुभप्रद राशि हॊती है। उस राशि . की दशा मॆं शरीर का सुख, यश और  धन का विशॆष लाभ हॊता है। अपनॆ-अपनॆ अष्टकवर्ग मॆं जिस राशि मॆं 4 सॆ कम रॆखा हॊती है। वह राशि कष्टप्रद और  4 सॆ अधिक रॆखावाली राशि सुखप्रद हॊती। है॥57॥।

दशमभवनरॆखाभ्यॊऽधिकं लाभमानं . भवति यदि विहीनं स्याद्ययाख्यं ततॊऽपि।

अधिकतरविलग्नं भॊगसम्पत्तिभूयः।

विनिमयवशतस्तद्वैपरीत्यं जनस्य॥58॥ दशम भाव की रॆखा सॆ अधिक लाभ भाव मॆं रॆखा हॊ और  लाभ भाव सॆ अल्प द्वादशभाव मॆं तथा इससॆ अधिक लग्न भाव मॆं रॆखा हॊ तॊ वह जातक अधिक धन-संपत्तिवाला हॊता है। यदि इससॆ विपरीत हॊ तॊ विपरीत फल हॊता है॥58॥ प्राग्दाक्षिण्यादिभानां सकलफलयुतिं दिक्चतुष्कक्रमॆण । कृत्वा तद्भागतॊ यः समधिकफलतः शॊभनं हानिमल्पात। सौम्याः स्वॊच्चस्वगॆहॊदितखचरयुतॆ दिग्विभागॆ स्वकार्यॆ

वित्तॆशाशासु वित्तं मृतिपतिगतदिग्भागगॆ दॆहनाशः॥59॥

लग्नादि भावॊं कॊ प्राग्दक्षिण क्रमं सॆ अर्थात लग्न, द्वादश, ऎकादश भाव की पूर्वदिशा; दशम, नवम, अष्टम भाव की दक्षिणदिशा; सप्तम, षष्ठ, पंचम भाव की पश्चिम दिशा और  चतुर्थ, तृतीय और  द्वितीय भाव की उत्तर दिशा कल्पना करॆं। दिशा कॆ प्रत्यॆक भावॊं की रॆखा‌ऒं का यॊग करकॆ ऎकत्र रख दॆ। जिस दिशा मॆं अधिक रॆखा हॊ और  उसमॆ शुभग्रह युत हॊं, अपनी उच्च राशि मॆं हॊं तॊ उस दिशा सॆ धन : का लाभादि * हॊता है। धनॆश की दिशा सॆ धन का लाभ और  अष्टमॆश की दिशा मॆं शरीर

मॆं क्लॆश हॊता है, यह यात्रा मॆं दॆखना चाहि‌ऎ॥59॥

। अथ भावफलम । भावं विलॊक्य सदसत्फलदायकंयत्तद्राशिसम्भवफलैश्चतदुक्तपिण्डम। पिण्डॆरॆखाताडितॆ भावशॆषॆ राशौ यदायाति सौरिः समायाम॥60॥


38

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । शुभ-अशुभ भावॊं कॊ दॆखकर उनकी राशियॊं कॆ रॆखापिंड कॊ रॆखा सॆ गुणाकर 12 का भाग दॆनॆ सॆ शॆष तुल्य राशि पर जब शनि जाता है॥59॥

यस्यां तत्तदुभावहानि च विद्यात

। पूर्वॆ अंशॆ वाथवा तत्रिकॊणॆ। कृत्वा बिन्दुभ्यस्तु कालं सुधीमां

स्तस्मात वाच्यः प्राप्तिकालः शुभत्वॆ॥61॥ उस वर्ष मॆं राशि संबंधी भाव की हानि हॊती है अथवा उस राशि सॆ त्रिकॊण राशि मॆं जब शनि जाता है तब भी उस भाव कॊ हानि हॊती है। यदि भाव शुभ है तॊ रॆखॊं सॆ भिन्न भाव कॆ बिन्दु‌ऒं सॆ उस भाव कॆ शुभ फल की प्राप्ति कॆ समय कॊ कहना चाहि‌ऎ॥60 ॥

। अथारिष्टसमयज्ञानमाह—मृत्युभावॆशभात्कॊणनिघ्नं फलं मृत्युजं सूर्यशॆषयुक्तॆ रवौ। तत्रिकॊणॆऽथवारिष्टमासं वदॆत्तातमातुर्गुहाद्यॆऽथवा कल्पयॆत॥62॥

अष्टमॆश जिस राशि मॆं है उस राशि कॆ त्रिकॊण-शॊधन सॆ उत्पन्न फल कॊ अष्टम भाव स्थित फल सॆ गुणाकर उसमॆं 12 का भाग दॆनॆ सॆ शॆषतुल्य राशि पर अथवा उससॆ त्रिकॊण राशि पर सूर्य कॆ आनॆ सॆ उस मास मॆं अरिष्ट हॊता है॥62॥

अवस्थापरत्वॆन शुभाशुभविचार:- मीनाद्यं मिथुनान्तकं प्रथमकं प्रॊक्तं वयः प्राक्तनैः

ककद्यं वणिजान्तकं तरुणता संज्ञं च मध्यं बुधैः। कुम्भान्तं स्थविरावयं च बहुभिर्यत्तत्फलैः संयुतं ।

तत्सौख्यार्थविशॆषकं बलयुतॆनैतद्विशॆषाच्छुभम॥63॥ मीन राशि सॆ मिथुन पर्यन्त चार राशियॊं की प्रथम (बाल्यावस्था) अवस्था हॊती है। कर्क राशि सॆ तुला पर्यन्त चार राशियॊं की तरुण (युवावस्था) अबस्था हॊती है। वृश्चिक राशि सॆ कुम्भ पर्यन्त चार राशियॊं की स्थविर (वृद्धावस्था) अवस्था हॊती है। जिन-जिन अवस्था कॆ रॆखा‌ऒं का यॊग अधिक हॊ उन-उन अवस्था‌ऒं मॆं सुख हॊता है॥63॥

38

अथाष्टकवर्गफलाध्यायः विशॆष- जैसॆ सर्वाष्टकवर्गचक्र मॆं

। राशयः फलानियॊगः () -88+8+2+3=3फ+87+37+3च=288 () +4+ऽ+6=24+32+28+=88 (3) (+9+80+38=36+38+3 18+8=833

प्रथम अवस्था मॆं 144 रॆखा है, अतः प्रथम अवस्था सुखमय व्यतीत हॊगी। क्यॊंकि लग्न सहित सप्तग्रहॊं की सम्पूर्ण रॆखा‌ऒं का यॊग 389 है, इसका खंडत्रय करनॆ सॆ 129 हॊता है। इससॆ अल्प रॆखा मॆं कष्ट आदि। की संभावना हॊती है। इसी प्रकार युवावस्था मॆं 112 रॆखा है, अतः कुछ कष्ट सॆ व्यतीत हॊगा। वृद्धावस्था मॆं 133 रॆखायॆं हैं, अतः वृद्धावस्था सुखमय व्यतीत हॊगी।

अथ राहुयुक्तगुरुफलम- .. राहुयुक्तगुरुराशिगॆ गुरौ तत्रिकॊणमथ रिष्टकारकम। * अल्पमृत्युरिपुभावनाथकॊ यॊगकृत्तदिह मृत्युसम्भव॥64॥

 राहु सॆ युक्त गुरु की राशि मॆं गुरु हॊ अथवा उससॆ त्रिकॊण की राशि मॆं हॊ तॊ अरिष्टकारक हॊता है। यदि षष्ठॆश यॊग करता हॊ तॊ मृत्यु हॊती है॥64॥।

अथ निधनार्कमाह—मृत्युपद्वादशांशत्रिकॊणॆऽसुरॊ मृत्युनाथत्रिकॊणस्थसूर्यॆ मृतिः। अर्कलिप्ताहतॊ राहुलिप्तागणश्चक्रलिप्ताप्तयुक्तॊ रविमृत्युदः॥65॥

अष्टम स्थान का स्वामी जिस द्वादशांश मॆं हॊ उससॆ त्रिकॊण राशि मॆं जब राहु जायॆ तॊ उससॆ (अष्टमॆश राशि कॆ) त्रिकॊण राशि मॆं सूर्य कॆ जानॆ सॆ मृत्यु हॊती है। सूर्य की कला-विकला कॊ राहु की कला-विकला सॆ गुणाकर गुणनफल मॆं चक्रकला (21600) सॆ भाग दॆं, जॊ लब्ध हॊ उसॆ सूर्य की कला मॆं जॊड दॆं। उसका राश्यादि बनावॆ, उसकॆ तुल्य सूर्य जिस मास मॆं हॊ उस मास मॆं मृत्यु हॊती है॥65॥ भौममार्तण्डलिप्ताहतिः कारयॆच्चक्रलिप्ताहृताल्लब्धयुक्तॊ रविः। यातियस्मिंस्तदातत्रिकॊणॆऽपिवाक्लॆशमाहुक्षयंमासिधीमान्वदॆत॥

भौम की कला कॊ सूर्य की कला सॆ गुणा कर दॆ, गुणनफल मॆं 21600 सॆ भाग दॆं, लब्ध कॊ सूर्य की कला मॆं जॊड दॆ। यॊगफल का राश्यादि

38छ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम बनावॆ, उस राश्यादि कॆ तुल्य सूर्य जिस मास मॆं हॊं, उस मास मॆं क्लॆश अथवा मृत्यु कहना॥65 ॥।

उदाहरण- सूर्य 3।18।26 इसका कला बनानॆ सॆ 6506 हु‌आ। राहु 7।13।27 इसका कला 13407 हु‌आ। सूर्य कॆ कला सॆ राह कॆ कला कॊ गुणनॆ सॆ गुणनफल 87225942 हु‌आ। इसमॆं 21600 का भाग दॆनॆ सॆ लब्ध 4038 हु‌आ। इसॆ सूर्य की कला मॆं जॊडनॆ सॆ 10544 हु‌आ। इसमॆं 60 का भाग दॆनॆ सॆ लब्ध 175 अंश और  शॆष 44 कला हु‌आ। अंश मॆं 30 का भाग दॆनॆ सॆ 5 राशि 25 अंश और  44 कला हु‌आ। इसकॆ तुल्य राश्यादि सूर्य जब जिस मास मॆं हॊगा उस मास मॆं आ हॊगी।

मंगल राश्यादि 10।22।32 इसका कला 19320 हु‌आ। इसॆ सर्छ । कला 6506 सॆ गुण दिया तॊ गुणनफल 125695920 हु‌आ। इसमॆं 21600 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि 5819 हु‌ई। इसॆ सूर्य कॆ कला मॆं जॊड दॆनॆ । सॆ 12325 कला हु‌आ। इसका राश्यादि बनानॆ सॆ 6।25।25 हु‌आ। इसकॆ तुल्य सूर्य जब हॊवॆं उस समय कष्ट वा मृत्यु कहना।

। अथ निधनचन्द्रमाह—?अष्टमॆशत्रिकॊणॆ विधुः स्याद्यदा यॊगमिन्दौ तथा तन्नवांशॆऽपि वा। तत्त्रिकॊणॆ प्रयातॆ मृतिं निर्दिशॆन्निश्चयात्स्वल्परॆखॊद्भवॆवासरॆ॥ । अष्टमॆश जिस राशि मॆं है उससॆ त्रिकॊण राशि मॆं जब चन्द्रमा हॊता है अथवा अष्टमॆश जिस नवांश मॆं है उससॆ त्रिकॊण राशि मॆं जब चन्द्रमा हॊ और  उस दिन अल्प रॆखा हॊ तॊ उस दिन मृत्यु हॊती है॥66॥

। अथ सशान्तिकरॆखाफलम्रॆखाभिः सप्तभिर्युक्तॆ मासॆ मृत्युर्तृणां भवॆत।

सुवर्णं विंशतिपलं दद्याद द्वौ तिलपर्वतौ॥67॥ जिस राशि मॆं सात रॆखायॆं हॊं उस राशि कॆ सूर्य मॆं जातक कॊ कष्ट हॊता है। इसकी शान्ति कॆ लि‌ऎ 20 तॊला सॊना और  2 तिल कॆ पर्वत दान करना चाहि‌ऎ॥67 ॥।

रॆखाभिर्वसुभिर्जातॆ शीघ्रं मृत्युवशॊ नरः॥

असत्फलविनाशाय दद्यात्कर्पूरजां तुलाम॥68॥ जिस राशि मॆं 8 रॆखायॆं हॊं उस मास मॆं मृत्यु तुल्य कष्ट हॊता है। इसकी शान्ति कॆ लि‌ऎ कपूर का तुलादान करना चाहि‌ऎ॥68॥

383

अथाष्टकवर्गफलाध्यायः रॆखाभिर्नवभिः सपन्म्रियतॆ मनुजॊ ध्रुवम।

अश्वॆश्चतुभिः संयुक्तं रथं दद्याच्छुभाप्तयॆ॥69॥ नव रॆखा‌ऎँ जिस राशि मॆं हॊं उस मास मॆं सर्प का भय हॊता है। इसकी शान्ति कॆ लि‌ऎ 4 घॊडॊं कॆ सहित रथ का दान करना चाहि‌ऎ॥69॥

रॆखाभिर्दशभिः शस्त्रात्प्राणांस्त्यजति मानवः। दद्याच्छुभफलावाप्त्यै कवचं वज्रसंयुतम॥70॥ जिस राशि मॆं दस रॆखा‌ऎँ हॊं तॊ उस मास मॆं शस्त्र सॆ भय हॊता है। इसकी शान्ति कॆ लि‌ऎ वज्र ही सॆ युक्त कवच का दान करना

चाहि‌ऎ॥70 ॥

रुद्वैः प्राप्याभिशापं च प्राणैर्युक्तॊ भवॆन्नरः। दिक्पलैः स्वर्णघटितां प्रदद्यात्प्रतिमां विधॊः॥71॥ जिस राशि मॆं 11 रॆखा‌ऎँ हॊं तॊ उस मास मॆं अभिशाप सॆ मृत्युभय हॊता है। उससॆ बचनॆ कॆ लि‌ऎ 10 तॊलॆ सुवर्ण की चन्द्रमा की प्रतिमा कॊ दान करॆं ॥71॥

आदित्यैर्जलदॊषॆण मानवस्य मृतिं वदॆत। भूमिं दद्यात्ब्राह्मणाय दानॆ शुभफलं भवॆत॥72॥ जिस राशि मॆं 12 रॆखायॆं हॊं उस मास मॆं जल सॆ मृत्युभय हॊता है। उसकी शान्ति कॆ लि‌ऎ भूमि का दान करना चाहि‌ऎ॥72॥

त्रयॊदशमितैव्र्याघ्रान्मानकॊ मृत्युमाप्नुयात। । विष्णॊर्हिरण्यगर्भस्य दानं कुर्याच्छुभाप्तयॆ॥73॥ जिस राशि मॆं 13 रॆखायॆं हॊं उस मास मॆं व्याघ्र का भय हॊता है। इसकी शान्ति कॆ लि‌ऎ विष्णु की हिरण्यगर्भ प्रतिमा (शालिग्राम) का दान करना चाहि‌ऎ॥73॥

अचिराज्जीवितं जह्याच्छङ्गैः कालॆन भक्षितः। वराहप्रतिमां दद्यात्कनकॆन विनिर्मिताम॥74॥ जिस राशि मॆं 14 रॆखा‌ऎँ हॊं तॊ उस मास मॆं अधिक कष्ट हॊता है। उसकी शान्ति कॆ लि‌ऎ सुवर्ण की वाराह की प्रतिमा का दान करना चाहि‌ऎ॥74॥

राज्ञॊ भयं तिथिमितैस्तत्र हस्ती प्रदीयतॆ। रिष्टं भूपैः कल्पतरॊः प्रतिमां च निवॆदयॆत ॥75 ॥

340

..

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । जिस राशि मॆं 15 रॆखा‌ऎँ हॊं उस मास मॆं राजभयकी संभावना हॊती

है। इसकी शान्ति कॆ लि‌ऎ हाथी का दान करना चाहि‌ऎ। जिस राशि

मॆं 16 रॆखा हॊं उस मास मॆं कष्ट हॊता है। इसकी शान्ति कॆ लि‌ऎ कल्पतरु

 की प्रतिमा का दान करॆ॥75॥

कृषिचक्रधिभयं गुडघॆनं निवॆदयॆत। ’कलाहॊऽष्टॆन्दुभिर्दद्याद्रनगॊभूहिरण्यकम॥76॥। । जिस राशि मॆं 17 रॆखा हॊं उस मास मॆं व्याधि का भय हॊता है। उसकॆ

शान्त्यर्थ गुड कॆ धॆनु का दान करॆं। जिस राशि मॆं 18 रॆखा हॊं उस मास, मॆं कलह हॊनॆ का भय हॊता है। उसकी शान्ति कॆ लि‌ऎ गौ, भूमि, रत्न और  सुवर्ण का दान करना चाहि‌ऎ॥76॥

दॆशत्यागॊऽङ्कचन्द्रः स्याच्छान्तिं कुर्याद्विधानतः। विंशत्या बुद्धिनाशः स्यात्कुर्याल्लक्षमितं जपम ॥77॥

जिस राशि मॆं 19 रॆखा हॊं उस मास मॆं दॆश कॆ त्यागनॆ का भय । हॊता है। इसकी शान्ति कॆ लि‌ऎ विधिपूर्वक शान्ति करनी चाहि‌ऎ।

जिस राशि मॆं 20 रॆखा हॊं उस मास मॆं बुद्धि का नाश हॊता है। इसकी

शान्ति कॆ लि‌ऎ 1 लक्ष जप करना चाहि‌ऎ॥77॥

भूमिपझै रॊगपीडा, दद्यात धान्यस्य पर्वतम।

यमाञ्चिभिर्वन्धुपीडा दद्यादादर्शकं बुधः॥78॥। । जिस राशि मॆं 21 रॆखा हीं उस मास कॆ रवि मॆं रॊग और  पीडा हॊती है। उसकी शान्ति कॆ लि‌ऎ धान्य का पर्वत दॆना चाहि‌ऎ। जिस राशि मॆं 22 रॆखा हॊं उस राशि कॆ सूर्य मॆं, बन्धु‌ऒं कॊ पीडा, हॊती है। उसकी

शान्ति कॆ लि‌ऎ आदर्श (ऐनक) का दान करना चाहि‌ऎ॥78॥।

रामपक्षयुतॆ मासॆ मानाक्लॆशान्प्रपद्यतॆ॥

* सौवर्णी प्रतिमां दद्याद्रवॆः सप्तपलैः क्रमात ॥79॥ । जिस राशि मॆं 23 रॆखा हॊं उस राशि कॆ रवि मॆं अनॆक प्रकार कॆ

कष्ट हॊतॆ हैं। उसकी शान्ति कॆ लि‌ऎ सूर्य की सॊनॆ की सात तॊलॆ की प्रतिमा दॆनी चाहि‌ऎ॥79 ॥ ॥

वॆदाञ्चिभिर्बन्धुहीनॊ दद्याद्गॊदानकं दश।

सर्वरॊगादिनाशार्थं जपहॊमादि कारयॆत ॥80॥ जिस राशि मॆं 24 रॆखा हॊं उस राशि कॆ सूर्य मॆं बन्धु‌ऒं का नाश हॊता है। उसकॆ शान्त्यर्थ 10 गॊदान करना चाहि‌ऎ और  सभी रॊगॊं

कॆ शान्त्यर्थ जप-हॊम आदि करना चाहि‌ऎ॥80॥


अथाष्टकवर्गफलाध्यायः

348

348 शराधिभिस्तथा विद्वन्प्रज्ञा मन्दॊऽभिजायतॆ। ऋतुपक्षैर्बुद्धिहीनः पूज्या वागीश्वरी तथा। धनक्षयः स्यान्नक्षत्रैः श्रीसूक्तं तत्र संजपॆत॥81॥ जिस राशि मॆं 25 या 26 रॆखा हॊं उस राशि कॆ सूर्य मॆं बुद्धि मंद हॊती है। इसकॆ शान्त्यर्थ वागीश्वरी दॆवी की उपासना करनी चाहि‌ऎ। जिस राशि मॆं 27 रॆखा हॊं उस राशि कॆ सूर्य मॆं धन की हानि हॊती है। उसकी शान्ति कॆ लि‌ऎ श्रीसूक्त का जप करना चाहि‌ऎ॥81॥

वसुपक्षयुतॆ मासॆ न लाभॊ हानि खॆचरैः। सूर्यहॊमश्च विधिना कर्त्तव्यः शुभकांक्षिभिः॥2॥ जिस राशि मॆं 28 रॆखा हॊं उस राशि कॆ सूर्य मॆं किसी प्रकार का लाभ नहीं हॊता है। इसकॆ शान्त्यर्थ विधिवत सूर्य का हवन कराना चाहि‌ऎ॥82॥

ऎकॊनत्रिंशताचापि चिन्ता व्याकुलितॊ भवॆत। घृतवस्त्रसुवर्णानि तत्र दद्याद्विचक्षणः॥83॥ ज़िस राशि मॆं 29 रॆखा हॊं उस राशि कॆ सूर्य मॆं मनुष्य चिन्ता सॆ व्याकुल हॊता है। उसकॆ शान्त्यर्थ घी, वस्त्र-सुवर्ण का दान करना चाहि‌ऎ॥83॥।

त्रिंशता धनधान्याप्तिरिति जातकनिर्णयः।

भूवहिनभिर्महॊद्यॊगः पुत्रसम्पद्गुणाग्निभिः॥84॥ . जिस राशि मॆं 30 रॆखा हॊं उस राशि कॆ सूर्य मॆं धन-धान्य का लाभ हॊता है। जिस राशि मॆं 31 रॆखा हॊं उस मास मॆं बडॆ उद्यॊग की तथा पुत्र और  सम्पत्ति का लाभ हॊता है॥84॥।

सहॆमवस्त्रलाभश्च चतुस्त्रिंशत्समन्वितॆ। पञ्चरामैर्भवॆद्धीमान्यस्त्रिंशत्सुतवित्तदा॥85॥ जिस राशि मॆं 34 रॆखा हॊती है उस मास मॆं सुवर्ण, वस्त्र आदि का लाभ हॊता है। जिस राशि मॆं 35 रॆखा हॊं उस मास मॆं बुद्धि मॆं प्रखरता ।

और  जिसमॆं 36 रॆखा हॊं उस राशि मॆं पुत्र-धन का लाभ हॊता है॥85॥ । सप्तत्रिंशद्धनस्याप्तिरष्टत्रिंशत्सुखार्थदा।

द्रव्यरत्नाप्तिरॆकॊनचत्वारिंशाच्च विद्यतॆ॥86॥


342

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । जिस राशि मॆं 37 रॆखा हॊं उस मास मॆं धन का लाभ हॊता है। जिस राशि मॆं 38 रॆखा हॊं उस मास मॆं धनसुख हॊता है। जिस राशि मॆं 39 रॆखा हॊं उसमॆं द्रव्य-रत्न का लाभ हॊता है॥86॥। । धनवान्कीर्तिमांश्चैव चत्वारिंशति वर्धतॆ।

अत ऊर्ध्वं यशॊऽर्थाप्तिः पुण्यश्रीरुपचीयतॆ॥87॥ जिस राशि मॆं 40 रॆखा हॊं उस मास मॆं धन-कीर्ति मॆं वृद्धि हॊती है। इसकॆ बाद जितनी ही अधिक रॆखा हॊती है उतना ही अधिक यश-धन का लाभ उत्तरॊत्तर हॊता है॥87॥

अथ शुभाशुभफलमाह—शुभखचरफलैक्यं प्राप्तवर्षॆ नितान्तं ।... धनतनयसुखानां भाजनं स्यान्मनुष्यः।

धरणितनयवर्गॆ विन्दुसंज्ञांतयॊगॆ

तनुलयमिह वर्षॆ पापगॆ मृत्युभीतिः॥88॥ शुभग्रह की रॆखा‌ऒं कॆ यॊगतुल्य वर्ष मॆं धन, पुत्र, सुख कॊ भॊगनॆ वाला मनुष्य हॊता है। भौमाष्टक वर्ग मॆं भौम सॆ लग्नांत फलॊं कॆ यॊगतुल्य वर्ष और  लग्न सॆ भौमांत रॆखा‌ऒं कॆ यॊगतुल्य वर्ष मॆं पापग्रह का यॊग हॊनॆ सॆ कष्ट हॊता है॥881॥

इति बृहत्पाराशरहॊरायाम अष्टकवर्गफलाध्यायः। अथ पूर्वजन्मशापद्यॊतकाध्यायः

पार्वत्युवाचदॆवदॆव. जगन्नाथ शूलपाणॆ वृषध्वज।

कॆन यॊगॆन मत्र्यानां जायतॆ शिशुनाशनम॥1॥ पार्वतीजी नॆ कहा- हॆ दॆवॊं कॆ दॆव, जगत कॆ स्वामी, शुलपाणि, वृषध्वज ! किस दुर्यॊग कॆ कारण मनुष्यॊं की सन्तानॊं का नाश हॊता है॥1॥

तत्सर्वमत्र यॊगॆन ब्रूहि मॆ शशिशॆखर। . शापमॊक्षं च कृपया प्राणिनामल्पमॆधसाम॥2॥ । और  हॆ शशिशॆखर ! उन सभी यॊगॊं कॊ मुझॆ बता‌इयॆ और  उस शाप ।

सॆ कैसॆ मनुष्य मुक्त हॊ सकता है इसॆ भी बतानॆ की कृपा करॆं ॥2॥


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अथ पूर्वजन्मशापद्यॊतकाध्यायः

343 । शङ्कर उवाच——साधु पृष्टं त्वया दॆवि कथयामि सविस्तरात। । । शृणुष्वॆकमना भूत्वा बलाबलवशादपि॥3॥

शंकरजी नॆ कहा- तुमनॆ बडा ही अच्छा प्रश्न किया है। हॆ दॆवि! मैं उसॆ विस्तार सॆ कहूँगा, तुम ऎकाग्रचित्त सॆ सुनॊ॥3॥

ज्ञॆयं सुनिश्चितं सर्वं राशिचक्रॆ विशॆषतः। । . मॆषादि मीनपर्यन्तं मूर्यादिद्वादशक्रमात ॥4॥ । .. यह सब राशिचक्र मॆं निश्चित है॥4॥

भावं च भावजं ज्ञात्वा फलं ब्रूयाद्विचक्षणः। तनुर्वित्तं बन्धुमातृपुत्रशत्रुस्मरॊ मृतिः॥5॥

मॆषादि राशियॊं कॆ बारह भाव तनु, धन, सहज, सुख, सुत, रिपु, जाया, । मृत्यु ॥5॥

पितृकर्म च लाभं च व्ययान्ता भावसंज्ञकाः। । गुरु लग्नॆशदारॆशपुत्रस्थानाधिपॆषु च ॥6॥

धर्म, कर्म, आय और  व्यय हॊतॆ हैं। इसमॆं गुरु, लग्नॆश, दारॆश और  पंचमॆश ॥6॥

सर्वॆषु बलहीनॆषु वक्तव्या त्वनपत्यता। रव्यारराहुशनयः पुत्रस्था बलसंयुताः।

कारकाख्यात्क्षीणबलादनपत्यत्वमादिशॆत ॥7॥ यॆ सभी निर्बल हॊं तॊ अनपत्य यॊग हॊता है। सूर्य, भौम, राहु, शनि पुत्रस्थान मॆं हॊं और  बली हॊं तथा पुत्रकारक (गुरु) निर्बल हॊ तॊ अनपत्य : (निःसन्तान) यॊग हॊता है॥7॥

अथ शापज्ञानमाह—पुत्रस्थानगतॆ राहॊ कुजॆनापि निरीक्षितॆ।

कुजक्षॆत्रगतॆ वापि सर्पशापात्सुतक्षयः॥8॥ . यदि पाँचवॆं भाव मॆं राहु हॊ तथा भौम सॆ दॆखा जाता हॊ अथवा भौम

की राशि मॆं हॊ तॊ सर्प कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है।8॥ । पुत्रॆशॆ राहुसंयुक्तॆ पुत्रस्थॆ भानुनन्दनॆ।

चन्द्रदृष्टॆ : युतॆ वापि सर्पशापात्सुतक्षयः॥9॥


347

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम . .. पंचमॆश राहु सॆ युक्त हॊ, पंचम मॆं शनि हॊ और  चन्द्रमा सॆ युत वा दृष्ट

हॊ तॊ सर्प कॆ शाप सॆ संतान नष्ट हॊतॆ हैं॥9॥

कारकॆ राहुसंयुक्तॆ पुत्रॆशॆ बलवजितॆ । । विलग्नॆशॆ: भौमयुतॆ सर्पशापात्सुतक्षयः॥10॥

कारक (गुरु) राहु सॆ युक्त हॊ, पंचमॆश बलहीन सॆ लग्नॆश भौम सॆ युत

हॊ तॊ सर्प कॆ शाप सॆ संतान नष्ट हॊतॆ हैं॥10॥ .. कारकॆ भौमसंयुक्तॆ लग्नॆ च राहुसंयुतॆ। .

’ पुत्रस्थानॆश्वरॆ दुस्थॆ सर्पशापात्सुतक्षयः॥11॥ ’ कारक (गुरु) भौम सॆ युक्त हॊ, लग्न मॆं राहु हॊ और  पंचमॆश 6।8।12 भाव मॆं हॊ तॊ सर्प कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥11॥.

भौमांशॆ भौमसंयुक्तॆ पुत्रॆशॆ सॊमनन्दनॆ। राहुमान्दियुतॆ लग्नॆ सर्पशापात्सुतक्षयः॥12॥ भौम कॆ अंश मॆं भौम सॆ युक्त पंचमॆश बुध हॊ और  लग्न, राहुः मान्दि

(गुलिक) हॊ, तॊ सर्ग कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥12॥ । पुत्रस्थानॆ कुजक्षॆत्रॆ पुत्रॆ राहुसमन्वितॆ।

’ सौम्यदृष्टॆ युतॆ वापि सर्पशापात्सुतक्षयः॥13॥ .. . यदि पंचम भाव मंगल की राशि (7, 8) हॊ और  पंचम मॆं राहु युत हॊ,

बुध सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ सर्प कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥13॥

पुत्रस्थाभानुमन्दाराः स्वर्भानुः शशिजॊऽङ्गराः।

निर्बलॊ पुत्रलग्नॆशौ सर्पशापात्सुतक्षयः॥14॥ । पंचम भाव मॆं सूर्य, शनि, मंगल, राहु, बुध, गुरु हॊं और  पंचमॆश, लग्नॆश

निर्बल हॊं तॊ सर्प कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥14॥। . . . लग्नॆशॆ राहुसंयुक्तॆ पुत्रॆशॆ भौमसंयुतॆ ।

।. .कारकॆ राहुसन्दृष्टॆ सर्पशापात्सुतक्षयः॥15॥

 लग्नॆश राहू सॆ युत हॊ, पंचमॆश मंगल सॆ युत हॊ, कारक (गुरु) राहु ।. सॆ युत हॊ तॊ सर्प कॆ शाप सॆ सन्तान की हानि हॊती है॥

.. अथ शान्तिमाह—ग्रहयॊगवशादॆवं यॊगं ज्ञात्वा सुधीमता। तद्दॊषपरिहारार्थं नागपूजां समारभॆत॥16॥


। अथ पूर्वजन्मशापद्यॊतकाध्यायः

344 इस प्रकार, ग्रहयॊगवश शाप कॊ जानकर उस दॊष कॆ शान्त्यर्थ । नाग की पूजा करॆ ॥16॥

स्वगुह्यॊक्तविधानॆन प्रतिष्ठा कारयॆत्सुधीः।

नागमूर्ति सुवर्णॆन कृत्वा पूजां समाचरॆत॥17॥। । अपनॆ वॆदॊक्त गृह्यसूत्र कॆ अनुसार विधानपूर्वक सुवर्ण की नागमूर्ति बनाकर उसकी प्रतिष्ठा करॆ और  उसका यथॊक्त रीति सॆ पूजन करॆ ॥17॥।

। गॊभूतिलहिरण्यादि दद्याद्वित्तानुसारतः।

ऎवं कृतॆ तु नागॆन्द्रप्रसादाद्वर्धतॆ कुलम ॥18॥ . गौ, भूमि, तिल, सुवर्णादि का दान अपनी शक्ति कॆ अनुसार करॆ। ऐसा करनॆ सॆ नागदॆव प्रसन्न हॊकर कुल की वृद्धि करतॆ हैं॥18॥

। अथ पितृशापात्सुतक्षययॊगम्पुत्रस्थानगतॆ भानौ नीचॆ मन्दाशकस्थितॆ।

पार्श्वयॊः क्रूरसम्बन्धॆ पितृशापात्सुतक्षयः॥20॥ । पंचम स्थान मॆं सूर्य अपनी नीच राशि मॆं शनि कॆ अंश मॆं हॊं और  उसकॆ आगॆ तथा पीछॆ पापग्रह हॊं तॊ पिता कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥19॥।

पुत्रस्थानाधिपॆ भानॊ त्रिकॊणॆ पापसंयुतॆ।

क्रूरॆऽन्तरॆ पापदृष्टॆ पितृशापात्सुतक्षयः॥20॥ । पुत्रस्थानॆश सूर्य हॊ, क्रूरग्रहॊं कॆ मध्य मॆं त्रिकॊण मॆं पापग्रह हॊं, पापग्रह सॆ दॆखॆ जातॆ हॊं तॊ पिता कॆ शाप सॆ वंश की क्षति हॊती है॥20॥

। भानुराशिस्थितॆ जीवॆ पुत्रॆषु भानसंयुतॆ॥ । पुत्रॆ लग्नॆ पापयुतॆ पितृशापात्सुतक्षयः॥21॥

सूर्य की राशि मॆं गुरु हॊ और  पंचमॆश सूर्य सॆ युत हॊ तथा पंचम और  लग्नं मॆं पापग्रह हॊं तॊ पिता कॆ शाप सॆ सन्तान की हानि हॊती है॥21॥।

लग्नॆशॆ दुर्बलॆ पुत्रॆ पुत्रॆशॆ भानुसंयुतॆ।

पुत्रॆ लग्नॆ पापयुत्तॆ पितृशापात्सुतक्षयः॥22। । .. लग्नॆश दुर्बल हॊकर पंचम भाव मॆं हॊ और  पंचमॆश सूर्य सॆ युक्त हॊ तथा पंचम और  लग्न मॆं पापग्रह हॊं तॊ पिता कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥22॥।


346

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम पितृस्थानाधिपॆ पुत्रॆ पुत्रॆशॆ वा तथा स्थितॆ।

लग्नॆ पुत्रॆ पापयुतॆ पितृशापात्सुतक्षयः॥23॥ पितृस्थानॆश (10वॆं भाव का स्वामी) पाँचवॆं भाव मॆं हॊ और  पंचमॆश 10वॆं भाव मॆं हॊ तथा लग्न और  पाँचवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊं तॊ पिता कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥23॥।

पितु:स्थानाधिपॊ भौमः पुत्रॆशॆन समन्वितः।

लम्नॆ पुत्रॆ पितृस्थानॆ पापात्सन्ततिनाशनम॥24॥ । पितृस्थान (10) का स्वामी हॊकर भौम पंचमॆश सॆ युत हॊ और  लग्न, पंचम तथा दशम मॆं पापग्रह हॊं तॊ पिता कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥24॥

पितृस्थानाधिपॆ दुःस्थॆ कारकॆ पापराशिगॆ।

सपापॆ पुत्रलग्नॆशॆ पितृशापात्सुतक्षयः॥25॥ । पितृस्थान (10) का स्वामी 6, 8, 12 भाव मॆं हॊ तथा कारक (गुरु) पापग्रह की राशि मॆं हॊ और  पंचमॆश तथा लग्नॆश पापयुत हॊं तॊ पिता

कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥25॥

लग्नपञ्चमभावस्था भानुभौमशनैश्चराः। रन्ध्र रि:फॆ राहुजीवौ पितृशापात्सुतक्षयः॥26॥

लग्न तथा पंचम भाव मॆं सूर्य, भौम, शनि हॊं और  8, 12 स्थान मॆं राहु तथा गुरु हॊ तथा लग्न मॆं पापग्रह हॊं तॊ पिता कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥26॥

लग्नाष्टमगॆ भानौ पुत्रस्थॆ भानुनन्दनॆ। पुत्रॆशॆ राहुसंयुक्तॆ लग्नॆ पापॆ सुतक्षयः॥27॥ बारहवॆं लग्न सॆ आठवॆं मॆं सूर्य हॊं, पाँचवॆं भौम मॆं शनि हॊ, पंचमॆश राहु सॆ युत हॊ और  लग्न मॆं पापग्रह हॊं तॊ पितृशाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥27॥।

व्ययॆशॆ लग्नभावस्थॆ रन्ध्रशॆ पुत्रराशिगॆ। पितृस्थानाधिपॆ रन्ध्र पितृशापात्सुतक्षयः॥28॥ व्यय भाव कॆ स्वामी लग्न मॆं हॊ और  अष्टमॆश पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तथा पितृस्थानॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ पिता कॆ शाप सॆ संतानहीन हॊता है॥28॥


ध्यायः

। अथ पूर्वजन्मशापद्यॊतकाध्यायः 357 रॊगॆशॆ पुत्रभावस्थॆ पितृस्थानाधिपॆ तथा।... कारकॆ राहुसंयुक्तॆ पितृशापात्सुतक्षयः॥29॥

रॊगॆश पंचम भाव मॆं पितृभावॆश कॆ साथ हॊ और  कारक (गुरु) राहु । । सॆ युत हॊ तॊ पिता कॆ साप सॆ संतान की हानि हॊती है॥29॥

तद्दॊषपरिहारार्थं गयाश्राद्धं च कारयॆत॥ ब्राह्मणान भॊजयॆत्तत्र अयुतं वां सहस्रकम॥30॥ कन्यादानं ततः कृत्वा गां च दद्यात्सवत्सकाम॥

ऎवं कृतॆ पितुः शापान्मुच्यतॆ नात्र संशयः॥31॥ । इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ गयाश्राद्ध करॆ और  ऎक हजार वा दस हजार .. : ब्राह्मणॊं कॊ भॊजन करावॆ। इसकॆ बाद कन्यादान और  सवत्सा गौ

का दान करॆ। इतना करनॆ सॆ पिता प्रसन्न हॊकर॥31॥

वर्धतॆ च कुलं तस्य पुत्रपौत्रादिभिस्तदा॥ । दृष्टियॊगपदैः सर्व फलं ब्रूयाद्विचक्षणः॥32॥ । उसॆ पुत्र-पौत्र सॆ संपन्न कर कुल की वृद्धि करतॆ हैं। इस प्रकार दृष्टि तथा यॊगवश पंडित लॊग फल का विचार करॆं ॥32॥।

अथ मातृशापात्सुतक्षययॊगःपुत्रस्थानाधिपॆ चन्द्रॆ नीचॆ वा पापमध्यगॆ। हिबुकॆ पञ्चमॆ वापि मातृशापात्सुतक्षयः॥33॥ । पंचमॆश चन्द्रमा अपनी नीच राशि मॆं वा पापग्रह कॆ मध्य मॆं हॊ और  4, 5 भाव मॆं पापग्रह हॊं तॊ माता कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥33॥ . लाभॆ मन्दसमायॊगॆ मातृस्थानॆ शुभॆतरॆ॥

नीचॆ पञ्चमगॆ चन्द्रॆ मातृशापात्सुतक्षयः॥34॥

ऎकादश स्थान मॆं शनि हॊ और  चौथॆ भाव मॆं पापग्रह हॊ तथा अपनॆ

 नीच मॆं चन्द्रमा पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ माता कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥34॥ .

पुत्रस्थानाधिपॆ दुःस्थॆ लग्नॆशॆ नीचराशिगॆ। चन्द्रपापसमायॊगॆ मातृशापात्सुतक्षयः॥35॥ । पंचमॆश 6, 8,12 भाव मॆं हॊ, लग्नॆश अपनी नीच राशि मॆं हॊ तथा चन्द्रमा पाप सॆ युत हॊ तॊ माता कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥35 ॥


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358 बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

पुत्रस्थानाधिपॆ दुःस्थॆ चन्द्रॆ पापांशसंयुतॆ । . लग्नॆ पुत्रॆ पापयुतॆ मातृशापात्सुतक्षयः॥36॥

। पंचमॆश 6, 8, 12 भाव मॆं हॊ, चन्द्रमा पापांश मॆं हॊ, लग्न और  पंचम .

मॆं पांपग्रह हॊं तॊ माता कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥36॥

। पुत्रस्थानाधिपॆ चन्द्रॆ मन्दराद्वारसंयुतॆ॥

भाग्यॆ वा पुत्रराशौ वा कारकॆ पुत्रनाशनम॥37॥ । पंचमॆश चन्द्रमा शनि, राहु, भौम सॆ युत हॊ, कारक (गुरु) भाग्य वा पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ संतान की हानि हॊती है॥37 ॥

मातृस्थानाधिपॆ भौमॆ शनिराहुसमन्वितॆ। भानुचन्द्रयुतॆ पुत्रॆ लग्नॆ सन्ततिनाशनम॥38॥ चौथॆ भाव का स्वामी भौम, शनि, राहु सॆ युत हॊ, संतान भाव और  लग्न, सूर्य-चन्द्र सॆ युक्त हॊं तॊ संतान की हानि हॊती है॥38॥

लग्नात्मजॆशौ शत्रुस्थौ रन्ध्र मात्राधिपॆ स्थितौ॥ पितृनाशाधिपौ लग्नॆ मातृशापात्सुतक्षयः॥39॥

लग्नॆश, पंचमॆश छठॆ भाव मॆं, आठवॆं भाव मॆं मातृभावॆश हॊं और  दशम. अष्टम भाव कॆ स्वामी.लग्न मॆं हॊं तॊ माता कॆ शाप सॆ संतान की हानि । हॊती है॥39॥।

षष्ठाष्टमॆशौ लग्नस्थौ व्ययॆ मात्राधिपॆ सुतॆ।

चन्द्रॆ जीवॆ पापयुतॆ मातृशापात्सुतक्षयः॥40॥ 6, 8 भाव कॆ स्वामी लग्न मॆं, 12वॆं भाव मॆं सुखॆश और  चन्द्रमा-गरु पाप सॆ युक्त हॊकर पाँचवॆं भाव मॆं हॊं तॊ माता कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥40॥

। पापमध्यगतॆ लग्नॆ क्षीणॆ चन्द्रॆ च सप्तमॆ॥

मातृपुत्रॆ राहुमन्दौ मातृशापात्सुतक्षयः॥41॥। लग्न पापग्रहॊं कॆ मध्य मॆं हॊ, क्षीण चन्द्रमा सातवॆं भाव मॆं हॊ, 4, 5 भाव मॆं राहु-शनि हॊं तॊं माता कॆ शाप सॆ सन्तान की हानि हॊती है॥41॥

नाशस्थानाधिपॆ पुत्रॆ पुत्रॆशॆ नाशराशिभॆ। चन्द्रमातृपतौ दुःस्थॆ मातृशापात्सुतक्षयः॥42॥


अथ पूर्वजन्मशापद्यॊतकाध्यायः

343 अष्टमॆश पाँचवॆं भाव मॆं और  पंचमॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ और  चन्द्रमा तथा सुखॆश 6, 8, 12 भाव मॆं हॊ तॊ माता कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥42॥

चन्द्रक्षॆत्रॆ यदा लग्नॆ कुजराहुसमन्वितॆ। चन्द्रमन्दौ पुत्रसंस्थौ मातृशापात्सुतक्षयः॥43॥ यदि कर्क राशि लग्न मॆं हॊ तथा भौम-राहु सॆ युत हॊ, चन्द्र-शनि पाँचवॆं । भाव मॆं हॊं तॊ माता कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥43॥

। लग्नॆ पुत्रॆ रन्ध्ररिन्फॆ आरराहुरविः शनिः।

। मातृलग्नाधिपौ दुःस्थौ मातृशापात्सुतक्षयः॥44॥ । लग्न, पंचम, आठवॆं, बारहवॆं भाव मॆं भौम, राहु, रवि और  शनि हॊं तथा मातृभावॆश 6, 8, 12 मॆं हॊ तॊ माता कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥44॥।

नाशस्थानं गतॆ जीवॆ कुजराहुसमन्वितॆ । पुत्रस्थानॆ मन्दचन्द्रौ मातृशापात्सुतक्षयः॥45॥।

आठवॆं भाव मॆं भौम-राहु सॆ युक्त गुरु हॊ और  पाँचवॆं भाव मॆं शनि

 चन्द्र हॊं तॊ माता कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥45॥

ग्रहयॊगपदैः सर्वं फलं ब्रूयाद्विचक्षणः। । शुभॆ सौख्यं विनिर्दिष्टं मिश्रॆमिश्र प्रकीर्तितम॥46॥

. ग्रहयॊगवश सभी फलॊं कॊ करॆ। शुभयॊग सॆ शुभ फल, पापयॊग सॆ

पापफल तथा मिश्रयॊग सॆ मिश्रित फल कहना चाहि‌ऎ॥46॥

अथास्य शान्तिमाह—सॆतुस्नानं प्रकुर्वीत गायत्री लक्षसंज्ञकॆ। ग्रहदानं च कर्त्तव्यं रौप्यपात्रॆ पयःस्थितिः॥47॥ ऎक लक्ष गायत्री का जप कराकॆ वा करकॆ सॆतुस्नान करॆ। ग्रहदान . और  चाँदी कॆ पात्र मॆं दूध का दान करॆ॥47॥

ब्राह्मणान भॊजयॆत्तद्वदश्वस्थस्य प्रदक्षिणम।

कर्तव्यं भक्तियुक्तॆन चाष्टविंशसहस्रकम ॥48॥ ब्राह्मणॊं कॊ भॊजन करावॆ और  भक्ति सॆ युक्त हॊकर 28 हजार पीपल - की प्रदक्षिणा करॆ॥48॥


360

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ऎवं कृतॆ तदा दॆवि शापान्मॊक्षॊ भविष्यति। । सत्पुत्रं लभतॆ पश्चात्वृद्धिः स्यात्तस्य सन्ततॆः॥49॥

ऐसा करनॆ सॆ शाप सॆ मुक्ति मिल जाती है और  अच्छॆ पुत्र का लाभ हॊता है तथा संतान की वृद्धि हॊती है॥49॥

। अथ भ्रातृशापात्सुतक्षययॊग:- भ्रातृस्थानाधिपॆ पुत्रॆ कुजरासमन्वितॆ। पुत्रलग्नॆश्वरौ रन्ध्र भ्रातृशापात्सुतक्षयः॥50॥ भ्रातृस्थान (3) कॆ स्वामी भौम-राहु सॆ युत हॊकर पाँचवॆं भाव मॆं हॊं और  पंचमॆश, लग्नॆश आठवॆं भाव मॆं हॊं तॊ भा‌ई कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥50 ॥

लाग्नॆ सुतॆ कुजॆ मन्दॆ भ्रातृपॆ भाग्यराशिगॆ। कारकॆ नाशराशिस्थॆ भ्रातृशापात्सुतक्षयः॥51॥ लग्न पंचम भाव मॆं भौम-शनि हॊं, भ्रातृभावॆश भाग्य भाव मॆं हॊ तथा कारक (भौम) आठवॆं भाव मॆं हॊं तॊ भा‌ई कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥51॥

भ्रातृस्थानॆ गुरौ नीचॆ मन्दः पञ्चमगॊ यदि। नाशस्थौ तु चन्द्रारौ भ्रातृशापात्सुतक्षयः॥52॥। भ्रातृस्थान (3) मॆं नीच राशि मॆं गुरु हॊ और  शनि पाँचवॆं भाव मॆं हॊ और  आठवॆं भाव मॆं चन्द्र-शनि हॊं तॊ भा‌ई कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥52॥

मूर्तिस्थानाधिपॆ रि:फॆ भौम: पञ्चमगॊ यदि। पुत्रॆशॆ रन्ध्रभावस्थॆ भ्रातृशापात्सुतक्षयः॥53॥ लग्नॆश बारहवॆं भाव मॆं, पंचम भाव मॆं भौम हॊ और  पंचमॆश आठवॆ भाव मॆं हॊ तॊ भा‌ई कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥53॥

पापमध्यगतॆ लग्नॆ सुतभॆ पापमध्यगॆ। नाथौ च कारकौ दुःस्थौ भ्रातृशापात्सुतक्षयः॥54॥ पापग्रह कॆ मध्य मॆं लग्न हॊ और  पंचम भाव भी पापग्रह कॆ मध्य मॆं हॊ, दॊनॊं कॆ स्वामी और  कारक 6, 8, 12 भाव मॆं हॊ तॊ भा‌ई कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥54॥।


अथ पूर्वजन्मशापद्यॊतकाध्यायः ।

भॆ कर्मॆशॆ भ्रातृभादप्थॆ पापयुक्तॆ तथा शुभॆ। पुत्रॆ च कुजसंयुक्तॆ भ्रातृशापात्सुतक्षयः॥55॥ कर्मॆश पापग्रह सॆ युत हॊकर भ्रातृस्थान मॆं हॊ और  पाँचवॆं भाव मॆं भौम युत हॊ तॊ भा‌ई कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥55 ॥

पुत्रस्थानॆ बुधक्षॆत्रॆ शनिराहुसमन्वितॆ । रिफॆ विदारौ वर्तॆतॆ भ्रातृशापात्सुतक्षयः॥56॥। । पंचम भाव मॆं बुध की राशि (3।6) हॊ और  उसमॆं शनि-राहु युक्त हॊं तथा बारहवॆं भाव मॆं बुध-भौम हॊं तॊ भा‌ई कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥56॥

लग्नॆशॆ भ्रातृराशिस्थॆ भ्रातृस्थानाधिपॆ सुतॆ। । लग्नभ्रातृसुतॆ पापॆ भ्रातृशापात्सुतक्षयः॥57॥ लग्नॆश भ्रातृभाव मॆं, भ्रातृभावॆश पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तथा लग्न भ्रातृ पाँचवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊ तॊ भा‌ई कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है ॥57॥

। भ्रात्रीशॆ नाशराशिस्थॆ पुत्रस्थॆ कारकॆ तथा।

राहुमान्दियुतॆ दृष्टॆ भ्रातृशापात्सुतक्षयः॥58॥ । तृतीय भाव का स्वामी 8वॆं भाव मॆं और  पाँचवॆं भाव मॆं कारक राहुमांदि (गुलिक) सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ भा‌ई. कॆ शाप सॆ संतान कॊ कष्ट हॊता है॥58 ॥

नाशस्थानाधिपॆ पुत्रॆ भ्रातृनाथॆन संयुतॆ॥ रन्ध्र आराकिंसंयुक्तॆ भ्रातृशापात्सुतक्षयः॥59॥ अष्टमॆश पाँचवॆं भाव मॆं तृतीयॆश सॆ युक्त हॊ, आठवॆं भाव मॆं भौम-शनि हॊं तॊ भा‌ई कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥59॥।

अस्य शान्तिमाह—भ्रातृशापविमॊक्षार्थं श्रवणं विष्णुकीर्तनम।

चान्द्रायणं चरॆत्पश्चात्कावॆय विष्णुसन्निधौ॥60॥ । भा‌ई कॆ शाप की शान्त्यर्थ विष्णु का कीर्तन सुनना चाहि‌ऎ। चान्द्रायण व्रत करॆ। बाद मॆं कावॆरी नदी कॆ किनारॆ विष्णु कॆ सन्निकट॥60 ॥।

अस्वत्थस्थापनं कार्यं दशधॆनुः प्रदापयॆत। प्राजापत्यं चरॆत्तन्न भूमि दद्यात्फलान्विताम। ऎवं यः कुरुतॆ भक्त्या पुत्रवृद्धिः प्रजायतॆ॥61॥


-367

32.

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । पीपल कॆ वृक्ष की स्थापना कर दस गौ का दान करॆ, इसकॆ बाद

प्राजापत्य करकॆ भूमि का दान करॆ। इस प्रकार भक्तिपूर्वक करनॆ सॆ पुत्र .की वृद्धि हॊती है॥61॥

अथ मातुलात्सुतक्षययॊगःपुत्रस्थानॆ बुधॆ जीवॆ कुजरासमन्वितॆ ।

लग्नॆ मन्दसमायॊगॆ मातुलात्सुतनाशनम ॥62॥ यदि पाँचवॆं भाव मॆं बुध, गुरु, भौम, राहु हॊं, लग्न मॆं शनि हॊ तॊ मामा कॆ शाप सॆ सन्तान की हानि हॊती है॥62॥।

लग्नपुत्रॆश्वरौ पुत्रॆ शनिभौमबुधान्वितॆ । ज्ञॆयॊ मातुलशापत्वात्पुत्रसन्ततिनाशनम॥63॥ लग्नॆश और  पंचमॆश शनि, भौम, बुध कॆ साथ ऎकत्र हॊं तॊ मामा कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥63 ॥।

लुप्तॆ पुत्राधिपॆं लग्नॆ सप्तमॆ भानुनन्दनॆ। लग्नॆशॆ बुधसंयुक्तॆ तस्य सन्ततिनाशनम॥64॥ लग्नॆश अस्त हॊकर लग्न मॆं हॊ और  सातवॆं भाव मॆं शनि हॊ , और  लग्नॆश बुध कॆ साथ हॊ तॊ मामा कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥64॥

 ज्ञातिस्थानाधिपॆ लग्नॆ व्ययॆशॆन समन्वितॆ ।

शशिसौम्यकुजॆ पुत्रॆ तस्य सन्ततिनाशनम ॥65॥ * व्ययॆश सॆ युत हॊकर सुखॆश लग्न मॆं हॊ और  चन्द्रमा, बुध, भौम संतान ।

भाव मॆं हॊं तॊ मामा कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥65 ॥।

अस्य. शान्तिमाह—, तद्दॊषपरिहारार्थं विष्णुस्थापनमुच्यतॆ ।

वापीकूपतडागादॆर्निर्माणं सॆतुबन्धनम॥66॥ . उपर्युक्त दॊष की शान्ति कॆ लि‌ऎ विष्णु की स्थापना करॆ। बावली, कु‌आँ, तालाब कॊ बनवायॆ॥66॥।

पुत्रवृद्धिर्भवॆत्तस्य सम्पद्वृद्धिः प्रजायतॆ।

ऎवं यॊगग्रहॆणैव फलं ब्रूयाद्विचक्षणैः॥67॥ । पुल का निर्माण करावॆ तॊ पुत्र की वृद्धि, संपत्ति की भी वृद्धि हॊती है। इस प्रकार ग्रहयॊगवश पंडित लॊग फल का विचार करॆं ॥67॥

,


अथ पूर्वजन्मशापद्यॊतकाध्यायः

भॆ

383 । ब्रमणशापात्सुतक्षययॊगःगुरुक्षॆत्रॆ यदा राहुः पुत्रॆ जीवारभानुजाः। ।... धर्मस्थानाधिपॆ नाशॆ ब्रह्मशापात्सुतक्षयः॥68॥

यदि गुरु की राशि (9, 12) मॆं राहु हॊ, पाँचवॆं भाव मॆं गुरु, भौम, शनि हॊं और  धर्मॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ ब्रह्म (ब्राह्मण) कॆ शाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥68॥

विद्याबलॆन यॊ मर्यॊ ब्राह्मणानवमन्यतॆ॥

तद्दॊषाद्ब्रह्मशापाच्च तस्य सन्ततिनाशनम॥69॥ विद्या वा बलप्रयॊग सॆ जॊ कॊ‌ई ब्राह्मण का अपमान करता है, उसकॆ दॊष और  ब्राह्मण कॆ शाप सॆ वह संतानहीन हॊता है॥69॥

धर्मॆशॆ पुत्रभावस्थॆ पुत्रॆशॆ नाशराशिगॆ।

जीवारराहुमृत्युस्थॆ ब्रह्मशापात्सुतक्षयः॥70॥।

 धर्मॆश पाँचवॆं भाव मॆं हॊ और  पंचमॆश धर्म भाव मॆं हॊ तथा गुरु, भौम, राहु आठवॆं भाव मॆं हॊं तॊ ब्रह्मशाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥70॥ ।

* धर्माधिपॆ नीचगतॆ व्ययॆशॆ पुत्रराशिगॆ। . ..

राहुयुक्तॆक्षितॆ वापि ब्रह्मशापात्सुतक्षयः॥71॥ धर्मॆश अपनी नीचराशि मॆं हॊ और  व्ययॆश पंचम भाव मॆं हॊ, राहु सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ ब्रह्मशाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥71॥

जीवॆ नीचगतॆ राहुर्लग्नॆ वा पुत्रराशिगॆ।

पुत्रस्थानाधिपॆ दुःस्थॆ ब्रह्मशापात्सुतक्षयः॥72॥ । गुरु नीचराशि मॆं हॊ, राहु लग्न वा पंचम भाव मॆं हॊ और  पंचमॆश 6, 8, 12 भाव मॆं हॊ तॊ ब्रह्मशाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥72॥

पुत्रस्थानाधिपॆ जीवॆ रन्ध्र पापसमन्वितॆ।

पुत्रॆशावर्कचन्द्रॊ वा ब्रह्मशापात्सुतक्षयः॥73॥ - पंचमॆश गुरु आठवॆं भाव मॆं पापग्रह सॆ युक्त हॊ अथवा पंचमॆश रवि

चन्द्र हॊं तॊ भी ब्रह्मशाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥73 ॥

मन्दांशॆ, मन्दसंयुक्तॆ. जीवॆ भौमसमन्वितॆ। । पुत्रॆशॆ व्ययराशिस्थॆ ब्रह्मशापात्सुतक्षयः॥74॥


3ऽय

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम शनि कॆ अंश मॆं शनि-भौम संयुक्त गुरु हॊ, पंचमॆश बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ ब्रह्मशाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥74॥

लग्नॆ गुरुयुतॆ मन्दॆ भाग्यॆ राहुसमन्वितॆ। व्ययॆ गुरुसमायुक्तॆ ब्रह्मशापात्सुतक्षयः॥75॥ लग्न मॆं गुरु हॊ, शनि-राहु सॆ युक्त हॊ, भाग्यभाव मॆं और  गुरु व्यय भाव मॆं हॊ तॊ ब्रह्मशाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥75॥

। अस्य शान्तिमाह—तस्य दॊषस्य शान्त्यर्थं कुर्याच्चान्द्रायणं नरः।

ब्रह्मकूर्चन्नयं कृत्वा धॆनुर्दद्यात्सदक्षिणाम॥76॥ । उस दॊष की शान्ति कॆ लि‌ऎ चान्द्रायण ऎवं ब्रह्मकुर्च व्रत (प्रायश्चित्त) करकॆ दक्षिणा सहित गॊदान ॥6॥

पञ्चरत्नानि दॆयानि सुवर्णॆन समन्वितम।

अन्नदानं ततः कुर्यादयुतं च सहस्रकम ॥77॥

और  पंचरत्न सॊनॆ कॆ साथ दान करकॆ दस हजार वा ऎक हजार का अन्नदान करॆं ॥77 ॥।

ऎवं कृतॆ तु सत्पुत्रं लभतॆ नात्र संशयः॥ मुक्तशाप विशुद्धात्मा स पुत्रसुखमॆधतॆ ॥78॥ ऐसा करनॆ सॆ मनुष्य शाप सॆ मुक्त हॊकर पुत्र कॊ प्राप्त करता है और  शापमुक्त हॊकर शुद्धात्मा हॊकर सुख कॊ भॊगता है॥78॥

पत्नीशापात्सुतक्षययॊगःदारॆशॆ पुत्रभावस्थॆ दारॆशस्थांशपॆ शनौ। पुत्रॆशॆ नाशराशिस्थॆ पत्नीशापात्सुतक्षयः॥79॥ सप्तमॆश पंचम भाव मॆं हॊ तथा सप्तमॆश कॆ नवांश का स्वामी शनि हॊ, पंचमॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ स्त्री कॆ शाप सॆ संतान की हानि हॊती है॥79॥

कलत्रॆशॆ नाशसंस्थॆ रिःफॆशॆ पुत्रराशिगॆ। कारकॆ पापसंयुक्तॆ पत्नीशापात्सुतक्षयः॥80॥ सप्तमॆश आठवॆं भाव मॆं और  व्ययॆश पाँचवॆं भाव मॆं हॊ, कारक (शुक्र) पापयुक्त हॊ तॊ स्त्री कॆ शाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥80 ॥


भॆळ

अथ पूर्वजन्मशापद्यॊतकाध्यायः । । पुत्रस्थानगतॆ शुक्रॆ कामपॆ रन्ध्रमाश्रितॆ। कारकॆ पापसंयुक्तॆ पत्नीशापात्सुतक्षयः॥81॥ पंचम स्थान मॆं शुक्र हॊ, सप्तमॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ तथा कारक पापयुक्त हॊ तॊ स्त्रीशाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥81॥

कुटुम्बॆ पापसम्बन्धॆ कामॆशॆ नाशराशिगॆ। पुत्रॆ पापग्रहैर्युक्तॆ पत्नीशापात्सुतक्षयः।82॥ दूसरॆ भाव मॆं पापग्रह हॊ, सप्तमॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ और  पाँचवॆ भाव मॆं पापग्रह युत हॊं तॊ स्त्री कॆ शाप सॆ संतान का अभाव हॊता

है॥82 ॥

भाग्यस्थानगतॆ शुक्रॆ दारॆशॆ नाशराशिगॆ। लग्नॆ पापॆ सुतॆ पापॆ पत्नीशापात्सुतक्षयः॥83॥ नवम भाव मॆं शुक्र, पंचमॆश आठवॆं भाव मॆं तथा लग्न और  पाँचवॆं मॆं पापग्रह हॊं तॊ स्त्री कॆ शाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥83 ॥

भाग्यस्थानाधिपॆ शुक्रॆ पुत्रॆशॆ शत्रुराशिगॆ।

गुरुलग्नॆशदारॆशा दुःस्थाः सन्ततिनाशनम॥84॥ । भाग्यॆश शुक्र हॊ, पंचमॆश छठॆ स्थान मॆं हॊ और  गुरु, लग्नॆश, दारॆश 6, 8, 12 भावॊं मॆं हॊं तॊ स्त्रीशाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥84 ॥

पुत्रस्थानॆ भृगुक्षॆत्रॆ राहुचन्द्रसमन्वितॆ । व्ययॆ लग्नॆ धनॆ पापॆ स्त्रीशापात्सुतक्षयः॥85॥। पंचम भाव मॆं शुक्र की राशि (2,7) राहु-चन्द्र सॆ युक्त हॊ और  12, 1, 2 भावॊं मॆं पापग्रह हॊं तॊ स्त्रीशाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥85 ॥।

 सप्तमॆ मन्दशुक्रौ च रन्ध्रशॆ पुत्रभॆ रवौ॥

लग्नॆ राहुसमायॊगॆ पत्नीशापात्सुतक्षयः॥86॥ सातवॆं भाव मॆं शनि-शुक्र हॊं, अष्टमॆश पाँचवॆं भाव मॆं हॊ रा0 राहु लग्न मॆं हॊं तॊ स्त्रीशाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥8॥

धनॆ कुजॆ व्ययॆ जीवॆ पुत्रस्थॆ भृगुनन्दनॆ। राहुयुक्तॆक्षितॆ वापि पत्नीशापात्सुतक्षयः॥87॥


भॆ‌ऎ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । दूसरॆ भाव मॆं भौम, बारहवॆं भाव मॆं गुरु, पाँचवॆं भाव मॆं शुक्र हॊं, दाहयुक्त वा दृष्ट हॊं तॊ स्त्रीशाप सॆ पुत्र का अभाव हॊता है॥87॥

नाशस्थौ वित्तदारॆशौ पुत्रलग्नॆ कुजॆ शनौ।

कारकॆ पापसंयुक्तॆ पत्नीशापात्सुतक्षयः॥88॥

आठवॆं भाव मॆं धनॆश, सप्तमॆश हॊं, पाँचवॆं और  लग्न मॆं भौम-शनि हॊं तथा कारक पापयुक्त हॊ तॊ स्त्रीशाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥88॥

लग्नपञ्चमभाग्यस्था राहुमन्दकुजाः क्रमात॥ रन्ध्रस्थौ पुत्रदारॆशौ पत्नीशापात्सुतक्षयः॥89॥

लग्न पंचम, नवम मॆं राहु, शनि, भौम हॊं और  आठवॆं भाव मॆं पंचमॆश, सप्तमॆश हॊं तॊ स्त्री कॆ शाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥89॥

अस्य शान्तिमाह—तस्य दॊषस्य शान्त्यर्थं कन्यादानं समाचरॆत। लक्ष्मीनारायणं दॆयं सर्वाभरणभूषितम॥90॥ इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ कन्यादान करॆ। लक्ष्मीनारायण की मूर्ति सभी आभरणॊं सॆ युक्त॥90॥

मूर्तिदानं च कर्त्तव्यं दशधॆनूः प्रदापयॆत॥ शय्यां च भूषणं चैव दम्पत्यॊर्दापयॆत्सुधीः। पुत्रं प्रसूयतॆ तस्य भाग्यवृद्धिश्च जायतॆ॥91॥ दान करॆ, दश धॆनु का दान करॆं, शय्या-आभूषण सपत्नीक ब्राह्मण कॊ दॆ। ऐसा करनॆ सॆ पुत्र हॊता है तथा भाग्यवृद्धि भी हॊती है॥91॥

। प्रॆतशापासुतक्षययॊग:- मन्त्रशापमिदं मर्त्यः पिशाचं बाध्यतॆ सदा। कर्मलॊपं पितृभ्यश्च तच्छापाद्वंशनाशनम॥92॥ जब पितरॊं कॆ कर्म का लॊप हॊता है अर्थात उनकॆ श्राद्धादि ठीक सॆ नहीं हॊतॆ हैं तॊ पिशाच (प्रॆत) हॊ जातॆ हैं तथा वॆ वंशवृद्धि कॊ नहीं हॊनॆ दॆतॆ ॥12॥

पुत्रस्थितौ मन्दसूर्यॊ क्षीणचन्द्रस्तु सप्तमॆ।

लग्नॆ व्ययॆ राहुजीवौ प्रॆतशापात्सुतक्षयः॥93॥


अथ पूर्वजन्मशापद्यॊतकाध्यायः

भॆळ पाँचवॆं भाव मॆं शनि-सूर्य हॊं और  सातवॆं भाव मॆं क्षीण चन्द्र हॊ तथा लग्न और  बारहवॆं भाव मॆं राहु तथा गुरु हॊं तॊ प्रॆतॆशाप सॆ वंश का अभाव हॊता है॥93॥

पुत्रस्थानाधिपॆ मन्दॆ नाशस्थॆ लग्नगॆ कुजॆ।

कारकॆ नाशराशिस्थॆ प्रॆतशापात्सुतक्षयः॥94॥ पंचमॆश शनि आठवॆं भाव मॆं, लग्न मॆं भौम और  कारक आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ प्रॆतशाप सॆ वंश का अभाव हॊता है॥94॥

लग्नॆ पापॆ व्ययॆ भानौ सुतॆ चाराकिंसॊमजाः॥

पुत्रॆशॆ रन्ध्रभावस्थॆ प्रॆशापात्सुतक्षयः॥95॥ । लग्न मॆं पापग्रह हॊं तथा बारहवॆं भाव मॆं सूर्य हॊ और  पाँचवॆं भाव मॆं भौम, शनि, बुध हॊं और  पंचमॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ प्रॆतशाप सॆ संतान

का अभाव हॊता है॥95॥।

लग्नॆ राहुसमायॊगॆ पुत्रस्थॆ भानुनन्दनॆ। । कारकॆ नाशराशिस्थॆ प्रॆतशापात्सुतक्षयः॥96॥

लग्न मॆं राहु, पाँचवॆं भाव मॆं शनि और  कारक आठवॆं भाव मॆं हॊं तॊ प्रॆतशाप सॆ वंश का अभाव हॊता है॥96॥

लग्नॆ राहौ च शुक्रॆज्यॆ चन्द्रॆ मन्दयुतॆ तथा॥ लग्नॆशॆ मृत्युराशिस्थॆ प्रॆतशापात्सुतक्षयः॥97॥ लग्न मॆं राहु, शुक्र, गुरु हॊं, चन्द्रमा शनि सॆ युत हॊ, लग्नॆश आठवॆ भाव मॆं हॊ तॊ प्रॆतशाप सॆ पुत्र का अभाव हॊता है॥97॥

लग्नॆ राहुसमायॊगॆ पुत्रस्थॆ भानुनन्दनॆ। कुजदृष्टॆ युतॆ वापि प्रॆतशापात्सुतक्षयः॥98॥

लग्न मॆं राहु तथा पाँचवॆं भाव मॆं शनि हॊ, भौम सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ प्रॆतशाप सॆ पुत्र का अभाव हॊता है॥98॥

कारकॆ नीचराशिस्थॆ पुत्रस्थानाधिपॆ तथा।

नीचदृष्टॆ नीचयुतॆ प्रॆतशापात्सुतक्षयः॥99॥ । कारक नीचराशि मॆं हॊ और  पंचमॆश भी अपनॆ नीच मॆं हॊ तथा नीचराशिस्थ ग्रह सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ प्रॆतशाप सॆ वंश का अभाव हॊता

है॥99॥

लग्नॆ मन्दॆ सुतॆ राहॊ रन्ध्र भानुसमन्वितॆ। व्ययॆ भौमसमायॊगॆ प्रॆतशापात्सुतक्षयः॥10॥


ंऎ‌ऎ

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-

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डॆछ

..

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’ बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

 लग्न मॆं शनि, पाँचवॆं भाव मॆं राहु, आठवॆं भाव मॆं सूर्य युक्त हॊ और  बारहवॆं भाव मॆं भौम हॊ तॊ प्रॆतशाप सॆ वंश का अर्भाव हॊता है॥10॥ * कामस्थानाधिपॆ दुस्थॆ पुत्रॆ चन्द्रसमन्वितॆ । ।

मन्दमान्दियुतॆ लग्नॆ प्रॆतशापात्सुतक्षयः॥101॥ । सप्तमॆश 6, 8, 12 भाव मॆं भौम हॊ, पाँचवॆं भाव मॆं चन्द्रमा हॊ, लग्न मॆं शनि और  गुलिंक हॊ तॊ प्रॆतशाप सॆ संतान का अभाव हॊतॊ है॥101॥।

बाधास्थानाधिपॆ पुत्रॆ शनिशुक्रसमन्वितॆ। । कारकॆ नाशसशिस्थॆ प्रॆतशापात्सुतक्षयः॥102॥। । अष्टमॆश शनि-शुक्र सॆ युत हॊकर पाँचवॆं भाव मॆं हॊ और  कारक आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ प्रॆतशाप सॆ संतान का अभाव हॊता है॥102॥

” अस्य शान्तिमाह—तद्दॊषस्य शान्त्यर्थं विष्णुश्राद्धं समाचरॆत । रुद्राभिषॆकं कुर्वीतं ब्रह्ममूर्ति प्रदापयॆत॥103॥ उपर्युक्त प्रॆतशाप कॆ निवृत्त्यर्थ विष्णुपद (गया) मॆं श्राद्ध करना चाहि‌ऎ और  रुद्राभिषॆक करकॆ ब्रह्म की मूर्ति का दान॥103॥

धॆनुं रजतयात्रं च नीलं चैव प्रदापयॆत॥

 ऎतत्कर्मकृतॆ तत्र शापमॊक्षः प्रजायतॆ॥104॥

तथा धॆनु तथा चाँदी कॆ पात्र और  नीलमणि का दान करना चाहि‌ऎ। इतनॆ कम कॆ करनॆ सॆ मुक्ति हॊ जाती है और  कुलवृद्धि हॊती है। ।104॥

। अथ बहुपुत्रयॊगः-- पुत्रॆ राहरविः सौम्याः कारकॆ शुभसंयुतॆ। शुभॆन वीक्षितॆ वापि बहुपुत्रं समादिशॆत॥105॥ पंचम भाव मॆं राहु, सूर्य, बुध हॊं, कारक (गुरु) शुभग्रह सॆ युत हॊ । और  शुभग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ हॊ बहुत-सॆ पुत्र हॊतॆ हैं॥105॥

पुत्रॆशॆ शुभराशिस्थॆ शुभदृष्टिसमन्वितॆ। कारकॆ कॆन्द्रभावस्थॆ बहनं समादिशॆत॥106 ॥ पंचमॆश शुभग्रह की राशि मॆं शुभरह की दृष्टि सॆ युक्त हॊ, कारक कॆन्द्र मॆं हॊ तॊ बहुत पुत्र हॊतॆ हैं॥106॥।

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369

। अथ पूर्वजन्मशापद्यॊतकाध्यायः लग्नॆशॆ पुत्रराशिस्थॆ पुत्रॆशॆ लग्नमाश्रितॆ। कॆन्द्रत्रिकॊणगॆ जीवॆ बहुपुत्रं समादिशॆत ॥107॥

लग्नॆश पाँचवॆं भाव मॆं, पंचमॆश लग्न मॆं, कॆन्द्र (1,4,7,10), त्रिकॊण (9,5) भाव मॆं गुरु हॊ तॊ अनॆक पुत्र हॊतॆ हैं॥107॥ ।

पुत्रस्थानगतॆ राहौ मन्दांशकविवर्जितॆ। बहुपुत्रं नरं विद्याच्छुभग्रहनिरीक्षितॆ ॥108॥ पाँचवॆं भाव मॆं राहु शनि कॆ नवांश मॆं न हॊ, यदि शुभग्रह दॆखता हॊ तॊ : अनॆक पुत्र हॊतॆ हैं॥108॥

पुत्रस्थानाधिपॆ स्वॊच्चॆ लग्नॆशॆ शुभसंयुतॆ । कारकॆ शुभसंयुक्तॆ बहुपुत्रं समादिशॆत॥109॥। पंचमॆश अपनॆ उच्च मॆं हॊ, लग्नॆश शुभग्रह सॆ युत हॊ और  कारक शुभग्रह हॊ तॊ अनॆक पुत्र हॊतॆ हैं॥109॥।

पुत्रस्थानॆ तदीशॆ वा गुरौ वा शुभवीक्षितॆ॥ शुभॆन सहितॆ वापि बहुपुत्रं समादिशॆत॥110॥ पंचम स्थान मॆं पंचमॆश वा गुरु हॊ, शुभग्रह सॆ दृष्ट हॊ या शुभग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ अनॆक पुत्र हॊतॆ हैं॥110॥।

परिपूर्णबलॆ जीवॆ लग्नॆशॆ पुत्रराशिगॆ।

पुत्रॆशॆ बलसंयुक्तॆ बहुपुत्रं समादिशॆत ॥111॥ । गुरु पूर्ण बली हॊ तथा लग्नॆश पाँचवॆं भाव मॆं हॊ और  पंचमॆश बली हॊ तॊ अनॆक पुत्र हॊतॆ हैं॥111॥

पुत्रस्थानगतॆ जीवॆ परिपूर्णबलान्वितॆ ।

लग्नॆशॆ बलयुक्तॆ पुत्रयॊगा इमॆ स्मृताः॥112॥ पाँचवॆं पूर्ण बली गुरु हॊ, लग्नॆश बली हॊ तॊ अनॆक पुत्र हॊतॆ हैं॥112॥

वर्गॊत्तमांशगॆ जीवॆ लग्नॆशस्यांशपॆ शुभॆ॥ पुत्रॆशॆन युतॆ दृष्टॆ पुत्रयॊगा इमॆ स्मृताः॥112॥ गुरु वर्गॊत्तम नवांश मॆं हॊ, लग्नॆश कॆ नवांश मॆं शुभग्रह हॊ, पंचमॆश सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ बहुत पुत्र हॊतॆ है॥113॥

वित्तॆशॆ पुत्रभावस्थॆ परिपूर्णबलान्वितॆ । वैशॆषिकांशकॆ जीवॆ पुत्रयॊगा इमॆ स्मृताः॥114॥


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300 । बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ... धनॆश पूर्णबली हॊकर पाँचवॆं भाव मॆं हॊ, गुरु वैशॆषिकांश मॆं हॊ तॊ

अनॆक पुत्र हॊतॆ हैं॥114॥

लग्नपुत्राधिपौ स्वॊच्चॆ अन्यॊऽन्यं चापि वीक्षितौ।

परस्परस्थानगतौ पुत्रयॊगा इमॆ स्मृताः॥115॥ . लग्नॆश और  पंचमॆश अपनी उच्चराशि मॆं हॊं, परस्पर दॆखतॆ हॊं और  परस्पर स्थान मॆं हॊं तॊ अनॆक पुत्र हॊतॆ हैं॥115॥।

। पुत्रस्थानाधिपस्यांशराशीशॆ शुभसंयुतॆ॥

शुभॆन वीक्षितॆ वापि पुत्रयॊगा इमॆ स्मृताः॥116॥ । पंचमॆश जिस नवांश मॆं हॊ, उसका स्वामी शुभग्रह सॆ युत हॊ वा शुभग्रह सॆ दृष्ट हॊ तॊ अनॆक संतान हॊती हैं॥116॥

। लग्नपुत्राधिपौ कॆन्द्रॆ शुभग्रहसमन्वितौ।

कुटुम्बॆशॆ बलाढ्चॆ तु पुत्रयॊगा इमॆ स्मृताः॥117। । लग्नॆश और  पंचमॆश कॆन्द्र मॆं शुभ ग्रह सॆ युत हॊं, धनॆश बलवान हॊ । तॊ अनॆक पुत्र हॊतॆ हैं॥117॥

लग्नॆशॆ दारभावस्थॆ दारॆशॆ लग्नमाश्रितॆ। द्वितीयॆशॆ बलाढ्यॆ तुं पुत्रयॊगा इमॆ स्मृताः॥118॥ लग्नॆश सातवॆं भाव मॆं, सप्तमॆश लग्न मॆं हॊ और  धनॆश बली हॊ तॊ अनॆक पुत्र हॊतॆ हैं॥118॥

। दारॆशग्रहसंयुक्तनवांशभवनाधिपॆ ।

पुत्रवित्तविलग्नॆशैर्दृष्टॆ तु बहुपुत्रता॥119॥ * दारॆशं सॆ युत ग्रह का नवमांशॆश पंचमॆश, धनॆश तथा लग्नॆश सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ अनॆक पुत्र हॊतॆ हैं॥119॥

इति बहुपुत्रयॊगाः।

अथानपत्ययॊगः

 पुत्रवित्तकलत्रॆशसंयुक्तनवभागपाः ॥

पापाँशकाः पापयुता अनपत्यत्वमादिशॆत॥120॥ पंचम, धन, सप्तम कॆ स्वामियॊं सॆ युक्त नवमांशॆश का नवांश पापग्रह का : हॊ अथवा पापयुत हॊ तॊ अनपत्य यॊग हॊता है॥120॥

व्ययॆशसंयुतांशॆशॆ मृत्युराशौ स्थितॆ सति। ... पुत्रॆशॆ क्रूरषष्ठ्यंशॆ अनपत्यत्वमादिशॆत॥121॥

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। अथ पूर्वजन्मशापद्यॊतकाध्यायः

368 । लग्नॆश सॆ युत अंशॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ और  पंचमॆश क्रूरग्रह सॆ षष्ठ्यंश ’ मॆं हॊ तॊ अनपत्य यॊग हॊता है॥121॥।

गुरुलग्नॆशदारॆशपुत्रस्थानाधिपॆषु च॥ । सर्वॆषु बलहीनॆषु वक्तव्या वनपत्यता॥12॥ । गुरु, लग्नॆश, सप्तमॆश और  पंचमॆश निर्बल हॊं तॊ अनपत्य यॊग हॊता

 है॥122॥

. लग्नपंत्रॆश्वरी दुःस्थौ कारकॆ नीचराशिगॆ।

अनपत्यग्रहॆ पुत्रॆ अनपत्यत्वमादिशॆत ॥123॥ - लग्नॆश और  पंचमॆश 6, 8, 12 भाव मॆं हॊं, कारक नीच राशि मॆं हॊ, कॊ‌ई अनपत्यग्रह (पापग्रह) पाँचवॆं भाव मॆं हॊ तॊ अनपत्य यॊग हॊता है॥123 ॥।

क्रूरषष्ठ्यंशकॆ जीवॆ पुत्रस्थॆ नाशराशिपॆ। पुत्रॆशॆ नाशराशिस्थॆ अनपत्यत्वमादिशॆत ॥124॥ गुरु क्रूरग्रह कॆ षष्ठ्यं श मॆं हॊ, पाँचवॆं भाव मॆं अष्टमॆश हॊ और  पंचमॆश आठवॆं भाव मॆं हॊ तॊ अनपत्य यॊग हॊता है॥124 ॥.

इत्यनपत्ययॊगाः॥।

अथ चिरकालात्पुत्रप्राप्तियॊगःलग्नाधिपॆ कुजॆ स्वॊच्चॆ रन्ध्र मन्दयुतॆ रवौ। शुभदृष्टिसमायॊगॆ चिरात्पुत्रमुपैति सः॥125॥ लग्नॆश भौम अपनी उच्चराशि मॆं, आठवॆं भाव मॆं शनि सॆ युत रवि हॊ और  शुभग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ अधिक दिन मॆं संतान हॊती है॥125 ॥

लग्नॆ मन्दॆ गुरौ रन्ध्र व्ययॆ भौमसमन्वितॆ। शुभदृष्टॆ स्वतु वा चिरात्पुत्रमुपैति सः॥126॥ लग्न भाव मॆं शनि, गुरु आठवॆं भाव मॆं, बारहवॆं भाव मॆं भौम हॊ वा शुभदृष्ट अपनॆ उच्च मॆं हॊ तॊ बहुत दिनॊं मॆं संतान हॊती है॥126॥.

पुत्रस्था मन्दजीवज्ञा लग्नॆ पुत्राधिपॆ शुभॆ। पुत्रॆशॆ शुभराशिस्थॆ चिरात्पुत्रमुपैति सः॥127॥ संतान भाव मॆं शनि, गुरु और  बुध हॊं, पंचमॆश शुभग्रह हॊ, पंचमॆश शुभग्रह की राशि मॆं हॊ तॊ अधिक समय मॆं संतान हॊती है॥127॥


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362

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । * सुतॆ रावर्कशुक्रॆज्याः शुभ शुभवीक्षितॆ।

। पुत्रॆशॆ शुभराशिस्थॆ चिरात्पुत्रमुपैति सः॥128॥

। पाँचवॆं भाव मॆं शुभग्रह की राशि मॆं राहु, सूर्य, शुक्र, गुरु हॊं, शुभग्रह ... सॆ दॆखॆ जातॆ हॊं और  पंचमॆश शुभ राशि मॆं हॊ तॊ बहुत दिनॊं मॆं संतान

हॊती है॥128॥।

लग्नॆ सौम्यॆ धनॆ पापॆ तृतीयॆ पापखॆचरॆ। । पुत्रॆशॆ. शुभराशिस्थॆ चिरात्पुत्रमुपैति सः॥129॥

* लग्न मॆं शुभग्रह, दूसरॆ भाव मॆं पापग्रह, तीसरॆ मॆं पापग्रह और  पंचमॆश

शुभराशि मॆं हॊ तॊ बहुत समय मॆं संतान हॊती है॥129॥

। अर्थ दत्तकपुत्रयॊग:- . पुत्रस्थानॆ कुजॆ मन्दॆ बुधक्षॆत्रॆ विलग्नगॆ। बुधदृष्टॆ युतॆ वापि तदा दत्तसुतादयः॥130॥

पंचम भाव मॆं भौम, शनि हॊं, जन्मलग्न मॆं बुध की राशि हॊ और  बुध ’ सॆ दृष्ट वा युत हॊ तॊ दत्तक पुत्र हॊता है॥130॥

 पुत्रस्थानॆ बुधक्षॆत्रॆ मन्दक्षॆत्रॆऽथवा भवॆत।

मन्दमान्दियुतॆ दृष्टॆ तदा दत्तादयः सुताः॥131॥

पंचम भाव मॆं बुध वा शनि की राशि हॊ और  शनि तथा गुलिक सॆ । युत वा दृष्ट हॊ तॊ दत्तक पुत्र हॊतॆ हैं॥131॥।

पुत्रॆशॆ मन्दसंयुक्तॆ कुजॆ सौम्यनिरीक्षितॆ।

लग्नाधिपॆ बुधांशॆ वा दत्तपुत्रा भवन्ति हि॥132॥ पंचमॆश शनि सॆ युत हॊ, भौम-बुध सॆ दॆखा जाता हॊ, लग्नॆश बुध कॆ

नवांश मॆं हॊ तॊ दत्तक पुत्र हॊता है॥133 ॥। ,, कामॆशॆ लाभभावस्थॆ पुत्रॆशॆ शुभसंयुतॆ।

. * पुत्रॆ मन्दॆ बुधॆ वापि दत्तपुत्रा भवन्ति हि॥133॥। । सप्तमॆश ऎकादश भाव मॆं, पंचमॆश शुभग्रह सॆ युक्त हॊ, पाँचवॆं भाव मॆं

शनि वा बुध, हॊ तॊ दत्तक संतति हॊती है॥133॥

पुत्रॆशॆ भाग्यभावस्थॆ भाग्यॆशॆ कर्मराशिगॆ। पुत्रॆ मन्दॆन संदृष्टॆ दत्तपुत्रॆण सन्ततिः॥134॥ पंचमॆश भाग्यभाव मॆं, भाग्यॆश कर्मभाव मॆं, पाँचवॆं भाव कॊ शनि दॆखता हॊ तॊ दत्तक पुत्र हॊता है॥134॥


अथ पूर्वजन्मशापद्यॊतकाध्यायः 373 लग्नाधिपॆ भृगुः स्वच्चॆ पुत्रॆ मन्दसमन्वितॆ। कारकॆ बलसंयुक्तॆ दत्तपुत्रा तु सन्ततिः॥135॥ लग्नॆश और  शुक्र उच्च मॆं हॊ, पाँचवॆं भाव मॆं शनि हॊ और  कारक बली हॊ तॊ दत्तक पुत्र हॊता है॥135॥

पुत्रस्थानाधिपॆं चन्द्रॆ लग्नॆ पुत्रॆ शनैश्चरॆ।

परिपूर्णबलॆ जीवॆ दत्तपुत्रात्सुतॊ भवॆत॥136॥

पंचमॆश चन्द्र लग्न मॆं, पाँचवॆं भाव मॆं शनि हॊ, गुरु बलवान हॊ तॊ दत्तक । पुत्र हॊता है॥136॥।

पुत्राधिपॆ रवौ लग्नॆ पुत्रस्थौ शनिसॊमजौ। . पुत्राधिपॆ बलयुतॆ दत्तपुत्रात्सुतॊ भवॆत॥137॥ । पंचमॆश रवि लग्न मॆं और  पंचम मॆं शनि-बुध हॊं, पंचमॆश बली हॊ

तॊ दत्तक पुत्र हॊता है॥137 ॥ . : लग्नाधिपॆ बुधॆ पुत्रॆ कुजदृष्टिसमन्वितॆ॥

कारकॆ लाभराशिस्थॆ दत्तपुत्रात्सुतॊ भवॆत॥138॥ । लग्नॆश बुध पाँचवॆं भाव मॆं भौम सॆ दॆखा जाता हॊ और  कारक लाभभाव मॆं हॊ तॊ दत्तक पुत्र हॊता है॥138॥

लग्नाधिपॆ गुरौ पुत्रॆ, शनिदृष्टिसमन्वितॆ। । पुत्रॆशॆ भौमराशिस्थॆ दत्तपुत्रा भवन्ति हि॥139॥

लग्नॆश गुरु पाँचवॆं भाव मॆं शनि सॆ दॆखा जाता हॊ और  पंचमॆश भौम की राशि मॆं हॊ तॊ दत्तक पुत्र हॊता है॥139॥

अस्य शान्तिमाहॆवंशान्तॊ हरिरुष्णगॊ त्रिपुरहाऽब्जॆ भूसुतॆ रुद्रियं

सौम्यॆ सम्पुटकांस्यपात्रविधिवज्जीवॆन पैञ्यातिथिः। शुक्रॆ गॊप्रतिपालनं च कथितं मन्दॆ च मृत्युञ्जयः । कन्यादानभुजङ्गकॆतुकपिलाः सन्तानसौख्यप्रदाः॥140॥

यदि संतान कॆ बाधक सूर्य हॊ तॊ हरिवंशपुराण सुनना चाहि‌ऎ। चन्द्रमा कॆ लि‌ऎ शिवपूजन, भौम हॊं तॊ रुद्राभिषॆक, बुध हॊ तॊ विधिवत कांस्यपात्र और  संपुट, गुरु हॊ तॊ पितृपूजन (गयाश्राद्ध), शुक्र हॊ तॊ गॊ-सॆवा, शनि हॊ तॊ मृत्युञ्जय का जप, राहु हॊ तॊ कन्यादान और  कॆतु हॊ तॊ कपिला गौ का दान करनॆ सॆ सन्तान का सुख हॊता है॥140॥

..

"


30%

. बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम यावत्संख्या भवॆद्राशिस्तावद्वारं विनिर्दिशॆत । शिवविष्णुस्थापनाद्वा लक्षजापात्सुखं भवॆत॥141॥ पाँचवॆं भाव की राशिसंख्या कॆ समान वार हरिवंश सुनना चाहि‌ऎ। अथवा शिव-विष्णु की मूर्ति की स्थापना करॆ और  लक्ष जप करावॆं तॊ अवश्य संतान का सुख हॊता है॥141 ॥

इति पूर्वजन्मशापद्यॊतकाध्यायः। अथ दशाध्यायः

अथ दशाभॆदमाह—?अथातः सम्प्रवक्ष्यामि दशाभॆदाननॆकशः॥ - विंशॊत्तरी दशा चॊक्ता षॊडशॊत्तरी तथैव च॥2॥

पराशरजी बॊलॆ- मैं अनॆक प्रकार कॆ दशा कॆ भॆदॊं कॊ कह रहा। हूँ, उसॆ सुनॊ। विंशॊत्तरी दशा, षॊडशॊत्तरी दशा ॥2॥

द्वादशॊत्तरिका ज्ञॆया तथैवाष्टॊत्तरी दशा। पञ्चॊत्तरी दशा तद्वद्दशा शतसमा स्मृता॥3॥ द्वादशॊत्तरी दशा,अष्टॊत्तरी दशा, पंचॊत्तरी दशा, शतसमा दशा ॥3॥

दशा हि चतुरशीतिः प्राह चाथ द्विसप्द्वतिः॥ तथा षष्टिसमा चॊक्ता दशा षड्वंशतिः समा॥4॥ चतुरशीतिसमा दशा, , द्विसप्ततिसमा दशा, षष्टिसमा दशा, षड्विंशतिसमा दशा॥4॥

नवमांशनवदशा राश्यंशकदशाः स्मृताः।

दृशा कालाभिधा चक्रदशा चक्र मुनीश्वरैः॥5॥ । नवमांशनव दशा, राश्यंशक दशा, काल दशा, कालचक्र दशा, चक्र दशा॥5॥ -

चरपर्या दशा चाथ स्थिरदशा च द्विजॊत्तम। अथॊत्तरदशा विप्र ब्रह्मता चापरा दशा॥6॥ चरपर्याय दशा, स्थिर दशा, उत्तर दशा, ब्रह्मग्रह दशा ॥6॥ : ।

कॆन्द्राद्या च दशा ज्ञॆया कारकादि दशा मता। माण्डूकी च दशा भॊक्ता तथा शूलदशापि च॥7॥ कॆन्द्रादि दशा, कारकादि दशा, मांडूकी दशा, शूल दशा॥7॥.


अथ दशाध्यायः .

3694 यॊगार्धजा दशा विप्र दृग्दशां कथयाम्यहम। दशा त्रिकॊणनामा वै राशीनां च दशा तथा॥8॥ यॊगार्धदशा, दृग्दशा, त्रिकॊण दशा, राशि दशा॥8॥ तारा दशा तथा ज्ञॆया दशा रॊगा च वर्णदा। पञ्चस्वरदशा विप्र यॊगिनी च दशा स्मृता॥9॥ तारा दशा, वर्णद दशा, पंचस्वर दशा, यॊगिनी दशा ॥9॥

ततः पैण्ड्यदशा ज्ञॆया तथांशकदशा द्विज।

 नैसर्गिकदशा विप्र अष्टवर्गदशा स्मृता ॥10॥ पिंड दशा, अंश दशा, नैसर्गिक दशा, अष्टवर्ग दशा ॥10॥

सन्ध्या दशा च ज्ञातव्या पाचका च दशा द्विज। द्विचत्वारिंशभॆदाः स्युः कथयामि तवाग्रतः॥11॥ सन्ध्या दशा और  पाचक दशा- इस प्रकार 42 प्रकार की दशा हॊती है॥11॥।

। अथ विंशॊत्तरीदशामाह—?आनयनप्रकारं च शृणुष्व, द्विजपुङ्गव। नामनक्षत्रपर्यन्तमाक्षदि कृत्तिकादितः॥12॥ हॆ द्विजश्रॆष्ठ! उसकॆ आनयन प्रकार कॊ कह रहा हूँ। कृत्तिका सॆ राशिनाम : पर्यन्त ही गिनना चाहि‌ऎ॥12॥

सैषा कृष्णॆऽर्कहॊरायां चन्द्रहॊरागतॆ सितॆ। दहनात्स्वक्षॆपर्यन्तं गणयॆन्नवभिर्हरॆत ॥13॥। कृष्णपक्ष मॆं रवि कॆ हॊरा मॆं और  शुक्लपक्ष मॆं चन्द्रमा की हॊरा मॆं कृत्तिका सॆ कृत्तिका नक्षत्र सॆ अपनॆ जन्मनक्षत्र तक. गिन कर 9 सॆ भाग दॆनॆ पर शॆष तुल्य॥13॥।

सूर्यॆन्दुक्ष्माजतमसॊ वाक्पतिर्मन्दचन्द्रजा॥ । कॆतुशुक्रौ क्रमादॆतॆ विज्ञॆयाश्च दशाधिपाः॥14॥

क्रम सॆ सूर्य, चन्द्र, भौम, राहु, गुरु, शनि, बुध, कॆतु, शुक्र की दशा हॊती है॥14॥।

रसाशामुनिधृत्यब्दा भूपविधृतिवत्सराः। सप्तॆन्दवॊ नगा व्यॊमबाहवॊ क्रमतॊ मताः॥15॥

36 भू‌ऎ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम और  क्रम सॆ 6,10,7,18,16,19,17,7,20 वर्ष इन की दशव कॆ वर्ष हॊतॆ हैं॥15॥

। अथ दशायाः भुक्तभॊग्यानयनम्दशामानं भयातघ्नं भभॊगॆनॊद्धतं फलम। भुक्तवर्षादिकं ज्ञॆयं दशावर्षाच्च संशॊध्यम।

शॆषं वर्षादिकं भॊग्यं दशायाः भवति ध्रुवम॥16॥ । जिस ग्रह की दशा मॆं जन्म हॊ, उसकॆ वर्षमान सॆ भयात कॊ गुणाकर गुणन फल मॆं भभॊग सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि वर्ष- मास- दिन- घटीपल भुक्त दशा हॊती है। इसॆ दशा कॆ सम्पूर्ण वर्ष मॆं घटा दॆनॆ सॆ भाग्यदशा शॆष हॊती है॥16॥। स्फुटतरॊ हि मगुः कलिकात्मकःखखगजैर्विभजॆद्गत ऋक्षकम। तदुडुवर्षगुणं च समादिकं खखगजैविभजॆत्फलमत्र हि॥17॥ . अथवा स्पष्ट चन्द्रमा की कला बनाकर 800 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि गत नक्षत्र हॊता है। उससॆ दशा का ज्ञान कर दशावर्ष सॆ शॆष कॊ गुणा कर 800 सॆ भाग दॆनॆ सॆ मास आदि भुक्त हॊतॆ हैं। उसॆ दशावर्ष मॆं घटानॆ सॆ शॆष भॊग्य वर्षादि हॊता है॥17॥

.. अथ विंशॊत्तरीदशाज्ञानर्थं चक्रम- . । ।सू. । चं. । मं. (रा.बृ. । श. । बु. । कॆ. । शु.] ग्रहाः

6 । 10 । 7 । 18 । 16 । 19 । 17 । 7 । 20 । दशावर्षाणि

रॊ. । मृ. आ. ।पुन. पु. श्लॆ. म. पू.फा उ.फा, ह. । चि. स्वा. वि. अनु. ज्यॆ. मू. पू.षा, नक्षत्राणि

वि‌ऎ

उ.षा. अ. । ध. शत.पू.भा.उ.भा. रॆ. । अ. । भ.

उदाहरण- पुनर्वसु नक्षत्र कॆ प्रथम चरण का भयात 10।32 भभॊग 55 53 है। कृतिका सॆ गिननॆ सॆ गुरु की दशा मॆं जन्म हु‌आ। गुरु कॆ दशा वर्ष 16 सॆ भयात कॆ पल 632 कॊ गुणाकर गुणनफल 10112 मॆं पलात्मक. भभॊग 3353 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि 3 वर्ष हु‌आ। शॆष 53 कॊ 12 सॆ गुणाकर गुणनफल 636 मॆं भभॊग का भाग दॆनॆ सॆ

अथ दशाध्यायः

366 लब्धि शून्य मास और  शॆष 636 कॊ 30 सॆ गुणाकर गुणनफल 19080 मॆं भभॊग का भाग दॆनॆ सॆ लब्ध 5: दिन हु‌आ। शॆष 2315 कॊ .

60 सॆ गुणाकर गुणनफल 138900 मॆं भभॊग का भाग दॆनॆ सॆ लब्धि 41 ’ घटी हु‌आ। शॆष 1427 कॊ 60 सॆ गुणाकर गुणनफल 85620 मॆं भभॊग

सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि 25 पल हु‌आ। इस प्रकार जन्म कॆ पूर्व गुरु की दशा। 3 वर्ष मास 5 दिन 41 घटी और  25 पल भुक्त हॊ चुकी। इसॆ गुरु कॆ दशावर्ष 16 मॆं घटानॆ सॆ भॊग्य अर्थात शॆष दशावर्ष 12, मास 11, दिन 24, घटी 18 और  35 पल भॊग्य था।

विंशॊत्तरीदशाचक्रम्बृ. । श. । बृ. । कॆ. । शु. । सू. । चं. । मं..। रा. ।ग्रहाः। .92

। 16 । 1(ग

109

90

19 ॥ 18 । वर्ष

ःट.

99 28

.

94

34

.

5. । प. 2093 ऒ‌ऎ 208420ऽ।088 ऒछ8120842904299217930

3 3 3 96 97 97 ऎ 88 88 988989

इति विंशॊत्तरीदशाक्रमः॥

अथ षॊडशॊत्तरीदशाक्रम‌ऎकॊपचयतॆ रुद्राधृत्यन्तं वत्सराः क्रमात। रविमॊ गुरुर्मन्दः कॆतुश्चन्द्रॊ बुधॊ भृगुः॥18॥ 11 मॆं ऎक-ऎक 18 तक जॊडनॆ सॆ दशावर्ष 11।12।13।14।15।16।17।18 क्रम सॆ सूर्य, भौम, गुरु, शनि, कॆतु, । चन्द्रमा, बुध और  शुक्र का हॊता है॥18॥

अष्टौ दशाधिपाः प्रॊक्ता राहुहीना नवग्रहाः। . पुष्यभाज्जन्मभं यावद्गणयॆद्वसुभिर्हरॆत ॥19॥ ’राहु कॊ छॊडकर नवग्रह मॆं आठ ही ग्रह दशॆश हॊतॆ हैं। पुष्य सॆ जन्मनक्षत्र तक गिननॆ सॆ जॊ संख्या हॊ उसमॆं 8 सॆ भाग दॆनॆ पर शॆषांक तुल्य सूर्य आदि की दशा हॊती है॥19॥


ग्रहाः

। । 4 । ।

। ऒ‌उम । ऒ‌उम ॥ हिं

स्वा .

378 ... बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । सूर्यहॊरागतॆ शुक्लॆ चन्द्रस्य कृष्णपक्षकॆ।

तदा नृणां फलार्थाय विचिन्त्या षॊडशॊत्तरी॥20॥ शुक्लपक्ष मॆं जन्म हॊ और  लग्न मॆं सूर्य की हॊरा हॊ अथवा कृष्णपक्ष मॆं जन्म हॊ और  लग्न मॆं चन्द्रमा की हॊरा हॊ तॊ दशाफल जाननॆ कॆ लि‌ऎ षॊडशॊत्तरी दशा लॆना चाहि‌ऎ॥20॥।

। अथ षॊडशॊत्तरीदशाज्ञानाय चक्रम्सू. । मं..। बृ. । श. । कॆ. । चं. । बु. । शु.

92 93 98 94 9 90 90 वर्षाणि पु. । श्लॆ. म. पू.फा.उ.फा. ह. । चि.

वि. अनु. ज्यॆ. मू. पू.षा.उ.षा.

नक्षत्राणि घ. ।शत. पू.भा.उ.भा. रॆ. । अ. । भ. । कृ. । रॊ. । मृः । आ. । पुन.। 4 । ।  ।  ।

नॊट- इस दशा का भुक्त-भॊग्य विंशॊत्तरी दशा कॆ समान ही भयात भॊग द्वारा लाना चाहि‌ऎ।

। इति षॊडशॊत्तरीदशाक्रमः।

। अथ द्वादशॊत्तरीदशाक्रमम्सूर्यॊ गुरुः शिखी ज्ञॊऽगुः कुजॊ मन्दॊ निशाकरः। शुक्रहीना दशा ह्यॆतद्विचयात्सप्तमात्समाः॥21॥। सूर्य, गुरु, कॆतु, बुध, राहु, भौम, शनि और  चन्द्रमा यॆ ही शुक्र कॊ छॊडकर दशॆश हॊतॆ हैं और  सात सॆ दॊ-दॊ जॊडनॆ सॆ इनकॆ दशा वर्ष भी हॊतॆ हैं॥21॥

जन्मभापौष्णपर्यन्तं गणयॆदष्टभिर्भजॆत। नवामांशॆ यदा जाता शुकस्य द्वादशॊत्तरी॥22॥

जन्मनक्षत्र सॆ रॆवती पर्यन्त गिनकर जॊ संख्या हॊ उसमॆं 8 का भाग दॆनॆ सॆ शॆष तुल्य दशॆश हॊतॆ हैं। यदि शुक्र कॆ नवमांश मॆं जन्म हॊ तॊ द्वादशॊत्तरी दशा सॆ फल कहना चाहि‌ऎ॥22॥

नॊट- यहाँ भी विंशॊत्तरी दशा कॆ समान ही भुक्त-भॊग्य लाना चाहि‌ऎ।


ग्रहाः

अथ दशाध्यायः

368 अथ द्वादशॊत्तरीदशाचक्रम. । बृ. । कॆ. । बु. । रा. । मं. । श. । चं. । उ स 99 93 94 910 98 29 वर्षाणि

इति द्वादशॊत्तरीदशाकमः।

अथाष्टॊत्तरीदशामाह—सूर्यचन्द्रः कुजः सौम्यः शनिर्जीवस्तमॊ भृगुः॥ ऎतॆ दशाधिपाः प्रॊक्ता विकॆतुश्च नवग्रहाः॥23॥ कॆतु कॊ छॊडकर नवग्रहॊं मॆं सूर्य, चन्द्र, भौम, बुध, शनि, गुरु, राहु और  शुक्र दशा कॆ स्वामी हॊतॆ हैं॥23॥

रसाः पञ्चॆन्दवॊ नागाः शैलचन्द्रनभॆन्दवः। । गॊळ्ञाः सूर्यकुनॆत्राश्च समाः प्रद्यॊतनादयः॥24॥

इनकॆ 6, 15, 8, 17, 10, 19, 12, 21 यॆ क्रम सॆ सूर्यादि कॆ दशावर्ष हॊतॆ हैं॥24॥

लग्नॆशात्कॆन्द्रकॊणस्थॆ राहौ लग्नॆ सितं विना। । अष्टॊत्तरी दशा प्रॊक्ता शिवाद्या द्विजसत्तम॥25॥।

यदि लग्नॆश सॆ कॆन्द्र-त्रिकॊण मॆं राहु हॊ और  लग्न मॆं शुक्र हॊ तॊ अष्टॊत्तरी दशा लॆनी चाहि‌ऎ। इसका आरम्भ आर्द्रा नक्षत्र सॆ आरम्भ कर अपनॆ जन्मनक्षत्र तक गिनना चाहि‌ऎ॥25॥

चतुष्कं त्रितयं तस्माच्चतुष्कं त्रितयं पुनः। यावत्स्वजन्मभं तावद्गणयॆच्च यथाक्रमात ॥26॥

आर्द्रा सॆ चार नक्षत्र कॆ अन्तर्गत अपना जन्मनक्षत्र हॊ तॊ सूर्य की दशा, इसकॆ बाद 3 नक्षत्र मॆं चन्द्रमा की, इसकॆ बाद कॆ चार नक्षत्रॊं मॆं भौम की, इसकॆ बाद 3"नक्षत्र मॆं बुध की, इसकॆ बाद 4 नक्षत्र मॆं शनि की, इसकॆ बाद 3 नक्षत्र मॆं गुरु की, इसकॆ बाद 4 नक्षत्र मॆं राहु की और  शॆष 4 नक्षत्र मॆं शुक्र की दशा हॊती है॥26॥

अष्टॊत्तरी द्विधा प्रॊक्ता शिवादि कृत्तिकादितः। लग्नॆ सग्रहॆ शैवाद विग्रहॆ कृत्तिकादितः॥27॥ अष्टॊत्तरी दशा दॊ प्रकार की हॊती है। यदि लग्न मॆं कॊ‌ई ग्रह हॊ तॊ आर्द्रा नक्षत्र सॆ और  यदि कॊ‌ई ग्रह न हॊ तॊ कृत्तिका सॆ गणना करना चाहि‌ऎ॥27॥

नॊट- दशा का भुक्त-भॊग्य साधन पूर्ववत करना चाहि‌ऎ।


.

छॊ

इस थॆ

ईः

। बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

अष्टॊत्तरीदशाज्ञानाय चक्रम। सू. । चं. । मं. । बु. । श. । बृ. । रा. । शु. । ग्रहाः

6 । 15 । 8 । 17 । 10 । 19 । 12 । 21 । वर्षाणि आ. म. । ह. ।अनु. पु.षा. ध.] । पु. पू.फा. चि. । ज्यॆ. उ.षा. श

। श. । रॊ. । पू. उ.फा.स्वा.। मू. । धः ।पू.

। धः ।पु.भा. अ. । मृ. श्लॆ.। । वि. । । । अ. । । भ. ॥ 72 ।180 । 16 । 204।120/228 । 144 । 252 । मासाः

विशॆष- यहाँ दशा कॆ भुक्त-भॊग्य कॆ लानॆ मॆं भभॊग और  दशा वर्ष का मान इस प्रकार लॆना चाहि‌ऎ। नक्षत्र का जितना चरण बीत गया हॊ उतना भभॊग मॆं सॆ घटाकर शॆष कॊ भभॊग मानना चाहि‌ऎ। जैसॆ किसी का जन्म नक्षत्र कॆ दूसरॆ चरण मॆं है और  भभॊग 64।16 है और  भभॊग का चतुर्थांश 16।4 ऎक चरण का मान हु‌आ। इसॆ भभॊग मॆं घटा दॆनॆ सॆ 48।12 यही भभॊग हु‌आ, क्यॊंकि ऎक चरण बीतनॆ कॆ बाद जन्म हु‌आ है। इसी प्रकार जिस ग्रह की दशा मॆं जन्म हॊ उसकॆ वर्ष का

भी 4 या 3 भाग करकॆ अर्थात उस ग्रह की दशा 4 नक्षत्रॊं की हॊ तॊ - 4 भाग अन्यथा 3 भाग कर दंशावर्ष लॆना चाहि‌ऎ। जैसॆ सूर्य की दशा चार । नक्षत्रॊं की है और  उसका दशावर्ष 6 है, अतः ऎक नक्षत्र का दशामान 18 मास हु‌आ, इससॆ भयॊत कॊ गुणा कर भभॊग का भाग दॆनॆ सॆ भुक्त

वर्षादि आतॆ हैं।

अथ पञ्चॊत्तरीदशामाह—पातौ विनानुराधादि विज्ञॆयं जन्मभावधि।

गणयॆत्सप्तभिर्भक्तॆ शॆषॆ कल्प्या दशा शुभाः॥28॥ :.., पात (राहु-कॆतु) कॊ छॊडकर अनुराधा सॆ जन्मनक्षत्र तक गिनकर 7 - सॆ भाग दॆनॆ सॆ शॆष तुल्य क्रम सॆ ॥28॥। " रविज्ञार्कसुतॊ भौमॊ भार्गवॊ रजनीकरः।

। वाक्पतिश्च कर्का तस्यैव द्वादशाङ्गकॆ॥29॥

सूर्य, बुध, शन्नि, भौम, शुक्र, चन्द्रमा और  गुरु की दशा हॊती है। किन्तु । - कर्क लग्न और  उसी कॆ द्वादशांश मॆं जन्म हॊ तॊ पंचॊत्तरी दशा लॆनी

 चाहि‌ऎ ॥29॥


308

अथ दशाध्यायः द्वादशारभ्य धृत्यन्ताः ऎकॊत्तरदशा समाः।’

क्रमात्सदा ग्रहाणां च राहुकॆतू विना दशा॥30॥ । 12 सॆ आरम्भ कर ऎक-2 बढानॆ सॆ 18 पर्यन्त क्रम सॆ इनकॆ दशा - वर्ष हॊतॆ हैं। यह दशा राहु-कॆतु कॊ छॊडकर सात ही ग्रह की हॊती है॥30॥

पंञ्चॊत्तरी दशा चिन्त्या निर्विशकं द्विजॊत्तम॥ बलाबलविवॆकॆन यथान्यायॆन यॊजयॆत॥31॥.. बलाबल कॆ विचार सॆ शुभ-अशुभ समझना चाहि‌ऎ॥31॥

अथ पञ्चॊत्तरीदशाज्ञानाय चक्रम। सू. । बु. । श. । मं. । शु. । चं. । बृ.

। ग्रहाः

92 । 93 । 98 । 94 । 9 900 वर्षाणि अनु. ज्यॆ. । मू. पू.षा.उ.षा. अ. । ध. शत. पू.भा.उ.भा. रॆ.

। अ. । भ... कृ. । नक्षत्राणि । . रॊ. । मृ. आ. । पुन. । पु. पू.फा.उ.फा. ह. । चि. । स्वा. । वि.।

। इति पञ्चॊत्तरी दशा।

अथ शताब्दिकॊ दशामाह—वर्गॊत्तमगतॆ लग्नॆ दशा चिन्त्या शताब्दिका। पौष्णभाज्जन्मभं यावत गणयॆत्सप्तभिर्भजॆत॥32॥ यदि लग्न मॆं वर्गॊत्तम नवांश हॊ तॊ शताब्दिका (100 वर्ष की) दशा कॊ लॆना चाहि‌ऎ। रॆवती सॆ जन्मनक्षत्र तक गिनकर सात सॆ भाग दॆनॆ पर शॆष तुल्य ॥32॥॥

शॆषाङ्क रवितॊ ज्ञॆया दशा शतसमाभिधा।

रविश्चन्द्रॊ भृगुश्चान्द्रिर्जीवॊ विश्वम्भरात्मजः॥33॥ . सूर्य सॆ गिनकर शताब्दिका दशा मॆं दशॆश हॊतॆ हैं। रविं, चन्द्र, शुक्र, बुध, गुरु, भौम॥33॥

दैवाकरिः क्रमादॆतॆ बाणा बाणा दिशॊ दश। नखानखाः खरामाश्च वर्षाणि दिनपादितः॥34॥

और  शनि- दशॆश और  क्रम सॆ 5, 5, 10, 10, 20, 20 और  तीस वर्ष इनकी दशा हॊती है॥34॥।

नॊट- दशा का भुक्त-भॊग्य पूर्ववत निकालना चाहि‌ऎ।


3छ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम अथ शताब्दिकादशाज्ञानाय चक्रम्चं. । शु. । बु. । बृ. । मं. । श. । ग्रहाः

। 20 । 20 । 30 वर्षाणि । कृ. । रॊ. । मृ. । आ. । श्लॆ. म. पू.फा.उ.फा. ह. ।

नक्षत्राणि वि. । अनु.। ज्यॆ. । मू. पू.षा. श्र. । ध. । श. पू.भा. उ.भा. +

ठि । 9 ।

ऒ‌उम । " । ऎद= ऎ।

इति शताब्दिका दशा।

अथ चतुरशीत्यब्दिकॊ दशामाह—रविश्चन्द्रः कुजः सौम्यॊ जीवः शुक्र: शनिश्चरः। तमध्वजौ विना सर्वॆ ग्रहा द्वादश हायनाः॥35॥ रवि, चन्द्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र और  शनि की राहु-कॆतु कॊ छॊडकर 12 बारह वर्ष की दशा हॊती है॥35 ॥

षवनाज्जन्मभं यावत्सप्ततष्टॆ दशा भवॆत। । चतुरशीतिका ज्ञॆया कर्मॆशॆ कर्मसंस्थितॆ ॥36॥

स्वाती सॆ जन्मनक्षत्र तक गिनकर सात सॆ भाग दॆं, शॆष तुल्य सूर्यादि की दशा हॊती है। इसॆ चतुरशीत्यब्दिका (84 वर्ष की) दशा कहतॆ हैं। यदि कर्मश कर्मस्थान मॆं हॊ तॊ उस समय इस दशा कॊ लॆना चाहि‌ऎ॥36॥

अथ चतुरशीत्यब्दिकादशीचक्रम्सू. । चं. । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । ग्रहाः

3,3 3 । ऒ‌उम ।

12 । 12 । 12 । 12 । 12 । वर्षाणि । वि. । अनु. ज्यॆ. । मू. पू.षा.उ.षा. । ध. । श, पु.भा. उ.भा. रॆ. । अ.

नक्षत्राणि कृ. । रॊ. । मृ. । आ. । पुन. । पु. म. पू.फा.उ.फा. ह. । चि. ।

इति चतुरशीत्यब्दिका दशा।


222

अथ दशाध्यायः

अथ द्विसप्ततिकां दशामाह—लग्नॆशॆ सप्तमॆ यत्र लग्नॆ वै मदनाधिपॆ। चिन्तनीया दशा तत्र ह्यधिकॊ सप्ततिः समाः॥37॥

यदि लग्नॆश सप्तम मॆं हॊ और  सप्तमॆश लग्न मॆं हॊ तॊ द्विसप्ततिका (72 वर्ष की) दशा सॆ फल विचारना चाहि‌ऎ॥37 ॥

नव वर्षाणि सर्वॆषां विकॆतूनां ग्रहात्मनाम। - मूलाज्जन्मक्षॆपर्यन्तं गणयॆदष्टभिर्हरॆत।

 शॆषॆ दशा विचिन्त्याच फलं तस्माद्विचारयॆत॥38॥।

मूल नक्षत्र सॆ जन्मनक्षत्र तक गिनकर 8 सॆ भाग दॆनॆ सॆ शॆष तुल्य कॆतू * कॊ छॊडकर सूर्यादि ग्रहॊं की 9 नव वर्ष की दशा हॊती है॥38॥

अथ द्विसप्ततिकादशीचक्रम्सू. । चं. । मं. । बु. । बृ. । शु, । श. । रा. ग्रहाः 9 । 9 । 9 । 9 । 9 । 9 । 9 । 9 । वर्षाणि

ड्ड्घ्रॊ‌उप

पू.षा. उ.षा. अ. । ध. । श. पू.भा. उ.भा.

। भ. । कृ. । रॊ. । मृ. । आ. । पुन.। श्लॆ. । म. पु.फा.उ.फा. ह. चि. । स्वा. । अनु.] ज्यॆ. ।

नक्षत्राणि

इति द्विसप्ततिका दशा॥

अथ यदिक दशामाह—यदा लग्नरॊशिस्थश्चिन्त्या षष्टिसमा दशा।

दास्रास्त्रयं चतुष्कं च त्रयं वॆदं पुनः पुनः॥39॥. । यदि सूर्य जन्मलग्न मॆं हॊ तॊ षष्टिहायनी (60 वर्ष की) दशा का .

विचार करना चाहि‌ऎ। अश्विनी नक्षत्र सॆ 4 नक्षत्र कॆ बाद 3 नक्षत्र, पुनः

4 नक्षत्र, फिर 3 नक्षत्र इस क्रम सॆ॥39॥। । मुर्वर्कभूसुतानां च वर्षाणि दिमितानि च।

ततः शशिज्ञशुक्रार्कपुत्रागूनां समाश्च षट॥40॥ । गुरु, सूर्य , भौम, दश-दशं वर्ष, इसकॆ बाद चन्द्रमा, बुध, शुक्र, शनि,

और  राहु की 6-6 वर्ष की दशा हॊती है॥40॥


368

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

अथ षष्टिहायनीदशाचक्रम. । मं. । चं. । बु. । शु. । श. । रा. ॥ ग्रहाः

90 ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ वर्षाणि

3 ऒ‌उम = 4 । 5 । 4

59

4ऊ ऒ‌उम

श्र. पू.भा. मू. । ध. उ.भा. पू.षा.। श. । रॆ. । उ.षा.

नक्षत्राणि

म. । ह. । घ.

। चि.

।. . इति षष्टिहायनी दशा।

अथ षट्त्रिंशतिकां दशामाह—” श्रवणाज्जन्मभं यावद्गणयॆदष्टभिर्भजॆत।

शशाङ्कार्कसुरॆज्यारज्ञार्कजौशुक्रराहवः ॥41॥ । श्रवण नक्षत्र सॆ जन्मनक्षत्र तक गिनकर 8 सॆ भाग दॆनॆ सॆ शॆषतुल्य क्रम सॆ चन्द्र, सूर्य, गुरु, भौम, बुध, शनि, शुक्र, राहु की दशा हॊती । है॥41॥

ऎकौपचयतश्चैकाद्वषयॆषां क्रमात्स्मृताः। :: दिवसॆ सूर्यहॊरायां रात्रौ वै चन्द्रहॊरकॆ॥42॥

’. और  1 सॆ ऎक अंक कॆ वृद्धि तुल्य इनकी दशा का वर्ष हॊता है। दिन मॆं सूर्य की हॊरा मॆं और  रात मॆं चन्द्र की हॊरा मॆं जन्म हॊ तॊ यह दशा लॆनी चाहि‌ऎः॥42॥।

अथ षट्त्रिंशदब्दिकां दशाचक्रम्चंः । सू. । बृ. । मं. । बु. । श. । शु.। रा.

31 3 8 14 ऽ 1.

वर्षाणि

ग्रहाः

। 7 ।

श्र. । ध. । श. पू.भा.उ.भा. रॆ. । कृ. । रॊ. । मृ. । आ. । पुन. पु.

पु.फा.उ.फा. ह. । चि. स्वा.।

मू. पू.षा.उ.षा. + । + ।

5. । + भॆद :

+

ई +

नक्षत्राणि

इति षट्त्रिंशदब्दिका दशा ।


-

भ24

ई.

.

अथ दशाध्यायः ।

अथ कालदशामाह—सन्ध्या पञ्चघटी प्रॊक्ता दिनषष्ट्यंशनाडिका। । सूर्यबिम्बांदधः पूर्वं परस्तादुदयादपि॥43॥ दिन-रात्रि का मान 60 घटी हॊता है, इसका चार विभाग किया गया, सूर्य कॆ बिम्ब कॆ आधा उदय कॆ पहलॆ 5 घटी और  बाद मॆं 5 घटी; यॊं दॊनॊं मिलाकर 10 घटी की प्रातः सन्ध्या ऎवं अर्धास्त सूर्यबिम्ब कॆ पूर्व 5 घटी तथा इसकॆ पश्चात 5 घटी अर्थात 10 घटी की सायं सन्ध्या हॊती है॥43॥

 सन्ध्याद्वयं विंशत्याघटिकाभिः प्रकीर्तितम।

दिनस्य विंशतिर्घट्यः पूर्णसंज्ञा उदाहृता॥44॥ इस प्रकार सॆ दॊनॊं संध्यायॆं 20 घटी की हॊती हैं। शॆष दिन कॆ 20 घटी की पूर्ण संज्ञा ॥44॥

निशायाम्मुग्धसंज्ञाश्च घटिका विंशतिश्च याः॥45॥ सूर्यॊदयस्य या सन्ध्या खण्डाख्या दशनाडिकाः॥45॥

और  इसी प्रकार रात्रि कॆ 20 घटी की मुग्धा संज्ञा हॊती है। सूर्यॊदय कॆ सन्ध्या की खण्ड संज्ञा ॥45॥।

अस्तकालस्य या सन्ध्या सुधाख्या दर्शनाडिकाः॥ पूर्णमुग्धॆ गतघटीषड्गुणॆ नवधा लिखॆत ॥46॥

और  सायंकाल की संध्या कॊ सुधा कहा है। यदि पूर्णा या मुग्धा मॆं जन्म हॊ तॊ दॊनॊं कॆ गतघटी कॊ 6 सॆ गुणा कर ऎकत्र रख दॆं॥46॥.

तथा खण्डसुधासूर्यॆ हतॆ तु नवधा लिखॆत।

विभक्तानीन्द्रिययुगमनख्यानफलानि च॥47॥

 यदि खंड या सुधा मॆं जन्म हॊ तॊ 12 सॆ गुणाकर ऎकत्र रखकर दॊनॊं जगह 45 सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ फल आवॆ उसॆ नव जगह रखकर॥47॥

क्रमात्सूर्यादिकानां च मानमुक्तं मुनीश्वरैः। स्वस्वमानं स्वसंख्याभिर्गुणितॆ स्युः समादयः॥48॥ सूर्यादि ग्रहॊं की संख्या 1,2 आदि सॆ गुणा कर दॆनॆ सॆ उनकॆ दशावर्षादि हॊतॆ हैं॥48॥ । उदाहरण- जैसॆ किसी का दिन इष्टकाल 2।26 है, इसमॆं सॆ सूर्यॊदय कॆ संध्यामान घटी मॆं घटा दॆनॆ सॆ शॆष 7।44 बचा, अतः खण्ड


भ्छॆ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम दशा मॆं जन्म हु‌आ। इसॆ 6 सॆ गुणा करनॆ सॆ गुणनफल 46।24 हु‌आ। इसमॆं 45 सॆ भाग दॆनॆ सॆ 10।24।0।10 इसॆ 9 जगह लिखकर 1,2,3,4,5,6,7,8,9 सॆ गुणा करनॆ सॆ सूर्य आदि ग्रहॊं कॆ क्रम सॆ दशा वर्ष हु‌ऎ।

इति कालदशा।

अथ चक्रदशामाह—राशीश्वराद्दशा ज्ञॆया सूर्यादीनां क्रॆमात्पुनः। । दिवारात्रिस्नथा सन्ध्यात्रिकालॆ त्रिविधा दशा॥49॥ । दिन, रात और  संध्या कॆ अनुसार राशी और  राशीस्वर कॆ अनुसार 3 प्रकार की दशा हॊती है॥49॥।

दिवालग्नॆशस्थिताद्भाच्च रात्रौ लग्नश्रितात्तथा॥50॥

सन्ध्यायां धनभावस्थाद ज्ञॆया चक्रदशा बुधैः॥50॥ दिन मॆं जन्म हॊ तॊ लग्नॆश जिस राशि मॆं हॊ उस राशि सॆ, रात मॆं जन्म हॊ तॊ लंग्न मॆं जॊ राशि हॊ उससॆ और  संध्या मॆं जन्म हॊ तॊ द्वितीय भाव की राशि सॆ सूर्यादि ग्रहॊं की दशा हॊती है॥50॥

राशीनां दश वर्षाण्यॆकैकस्य दशा भवॆत। क्रमाद द्वादशराशीनां विज्ञातव्या द्विजॊत्तम ॥51॥ क्रम सॆ 12 राशियॊं की प्रत्यॆक का दश-दश वर्ष दशा का प्रमाण हॊता है, इसॆ चक्रदशा कहतॆ हैं। ।51॥।

उदाहरण- दिन मॆं जन्म है (पृ. 24 का चक्र दॆखॊ), लग्नॆश शनि वृश्चिक राशि मॆं है, अतः वृश्चिक राशि सॆ दुशा का आरम्भ हु‌आ। स्पष्टार्थ चक्र दॆखि‌ऎ।

। वृ. घ.म. कुं.मी.मॆ.कृ.वि.क. सि. कंतुः

1. ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒम ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ

ऒ‌ऒ ऒ‌ऒ

1: ऒ‌ऒ ऒ‌ऒ 1: ऒ‌ऒ ऒ‌ऒ

ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ

ळॊ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ

2। 0 0 0 0 है

डॊ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ

2093 3338343430343831290393 23

3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 96 9494949219छ94194 94 96 94194

इति चक्रदशा।


अथ दशाध्यायः

भ्छ मतान्तर सॆ चक्रदशाचक्राख्याथ दशां वक्ष्यॆ तवाग्रॆ द्विजनन्दन॥

लग्नस्थस्य दशा चादौ ततॊ वित्तस्थितादयः॥1॥ * यह दशा दॊ प्रकार की हॊती है। प्रथम भावस्थ ग्रह की और  दूसरी भावॊं की। हॆ द्विजनंदन ! मैं तुमसॆ चक्रदशा कॊ कहता हूँ। पहलॆ जन्मलग्न मॆं बैठॆ ग्रह की, उसकॆ बाद धन आदि भावॊं मॆं बैठॆ हु‌ऎ ग्रहॊं की दशा हॊती है॥1॥

द्वित्र्यादयॊ यदैकस्था तदा भागादयॊऽधिकात। तत्रापि तुल्यॆ नैसर्गाबलात्सर्वाधिकस्य च॥2॥ यदि ऎक ही भाव मॆं दॊ या तीन ग्रह हॊं तॊ उनमॆं जिसका अधिक अंश हॊ उसका पहलॆ, इसकॆ बाद उससॆ न्यूनांश की दशा हॊती है। यदि अंशादि भी समान हॊं तॊ नैसर्गिक बल जिसका अधिक हॊ उसी की पहलॆ दशा हॊगी॥2॥

राशिप्रमितवर्षाणि भागानश्चानुपाततः॥ । भावानामपि लग्नाच्च वर्षाणि दिमितानि च॥3॥ जिस भाव मॆं ग्रह है उस भाव की राशि सॆ संख्या तुल्य वर्ष प्रमाण दशा वर्ष और  अंश सॆ अनुपात द्वारा मासादि लॆना चाहि‌ऎ। भावॊं की दशा जन्मलग्न सॆ आरम्भ कर प्रत्यॆक भावॊं की दशा हॊती है। इनका दशा वर्ष प्रत्यॆक भाव का दश-दश वर्ष का हॊता है॥3॥

। भुक्ता दशाऽनुयाताद्वा विज्ञॆया स्वस्वकल्पनात। - अन्तर्दशापि सुधिया सूक्ष्मादॆशाय चिन्तयॆत ॥4॥ । दशा का भुक्त अनुपात द्वारा लाना चाहि‌ऎ। इसी प्रकार सूक्ष्म फल कहनॆ कॆ लि‌ऎ अन्तर्दशा का भी साधन करना चाहि‌ऎ ॥4॥

अथ कालचक्रदशामाह—। वन्दॆऽहं गॊपिकानाथं भारत गणनायकम।

पार्वत्यै कथिता पूर्वं कालचक्रं पिनाकिना॥52॥। श्रीकृष्ण, सरस्वती ऎवं गणॆशजी कॊ प्रणाम कर जॊ कि शंकरजी नॆ पार्वती सॆ पूर्व मॆं कालचक्र कॊ कहा था॥52॥

तच्चक्रसारमुधृत्य लघुमार्गॆण कथ्यतॆ। शुभाशुभं मनुष्याणां भूतभव्यं च भावि तत ॥53॥ उसकॆ तत्त्व कॊ लॆकर लाघव सॆ मैं कालचक्र कॊ कह रहा हूँ, जॊ


इ ळ्छ

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम मनुष्यॊं कॆ भूत, वर्तमान और  भविष्य कॆ शुभ-अशुभ कॊ बतानॆ वाला

है।53॥ :::द्वादशार लिखॆच्चक्रॆ तिर्यगूर्ख समानकम।

गृह द्वादश जायन्तॆ सव्यचक्रॆ यथाक्रमम॥54॥ खडी और  आडी रॆखा‌ऒं सॆ 12 कॊष्ठ का चक्रॆ बना कॆ॥54॥ द्वितीयादिषु कॊष्ठॆषु राशीन्मॆषादिकाँल्लिखॆत। । ऎवं द्वादशराश्याख्यं कालचक्रमुदीरितम ॥55॥ उसकॆ दूसरॆ आदि कॊष्ठ मॆं मॆषादि राशियॊं कॊ लिखॆ। उनकॆ आगॆ कहॆ अनुसार नक्षत्रॊं का न्यास करॆ। इसी प्रकार ऎक दूसरा चक्र भी बनावॆ। दॊनॊं मॆं ऎक की सव्य और  दूसरॆ की अपसव्य कल्पना कर आगॆ कहॆ हु‌ऎ रीति कॆ अनुसार राशि तथा नक्षत्रॊं का न्यासं करॆ। इसी कॊ 12 राशि का कालचक्र कहतॆ हैं। ।55॥

चक्रॆ नक्षत्रन्यासविधिः। अश्विन्यादित्रयं चैव सव्यमार्गॆ प्रतिष्ठितम।

रॊहिण्यादि त्रयं चैव अपसव्यॆ यथाक्रमम ॥56॥

अश्विनी सॆ तीन नक्षत्रॆ सव्य चक्र मॆं, रॊहिणी सॆ 3 नक्षत्र अपसव्य चक्र मॆं॥56॥।

अश्विन्यादितिहस्तक्ष्मूलवाताहिवनयः। . विश्वङ्क्षपूर्वाभाद्रं च रॆवती सव्यतारकाः॥57॥

पुनर्वसु सॆ 3-3 नक्षत्र सव्य-अपसव्य चक्र मॆं लिखनॆ सॆ सव्य चक्र : मॆं अश्विनी, पुनर्वसु, हस्त, मूल, स्वाती, श्लॆषा, कृत्तिका, उत्तराषाढ, पूर्वाभाद्रपद और  रॆवती- यॆ 10 नक्षत्र सव्य चक्र मॆं हु‌ऎ॥57॥

ऎतद्दशॊडुपादानामश्विन्यादौ च वीक्षयॆत। विशदस्तत्प्रकारस्तु कथ्यतॆ शृणु पार्वती॥58। इन नक्षत्रॊं कॆ चरणॊं कॊ अश्विनी कॆ चरणॊं कॆ समान ही दॆखना चाहि‌ऎ। इसका विशद प्रकार आगॆ कह रहा हूँ॥58॥।

दॆहजीवज्ञानप्रकारमाह—दॆहजीवौ मॆषचापौ दास्रादाद्यचरणस्य च॥ । मॆषादि चापपर्यन्तं राशिपाश्च दशाधिपाः॥59॥

अश्विनी नक्षत्र कॆ पहलॆ चरण मॆष दॆह और  धनराशि जीव संज्ञक हॊती है और  मॆष सॆ धन पर्यन्त नव राशियाँ (मॆष, वृष, मिथुन, कर्क,

रॊहिण्या


अथ दशाध्यायः

भ्छ्श सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धन) और  इनकॆ स्वामी क्रम सॆ दशाधीश हॊतॆ हैं। ।59॥।

दॆहजीव नक्रयुग्मौ दिगीशाकष्टभूधराः। षड्वॆदशरलॊकानां राशिपाश्च दशाधिपाः॥60॥

अश्विनी कॆ दूसरॆ चरण मॆं मकर दॆह और  मिथुन जीव संज्ञक हॊता है और  10, 11, 12, 8, 7, 6, 4, 5, 3 राशियॊं अर्थात मकर, कुम्भ, मीन, वृश्चिक, तुला, कॆन्या, कर्क, सिंह और  मिथुन कॆ स्वामी दशाधिपति हॊतॆ हैं॥60 ॥

दास्रादि दशताराणां तृतीयचरणॆषु च।

 गौर्दॆहॊ मिथुनं जीवॊ द्वॆकाशदशाङ्ककाः॥61॥

क्वक्षिरामाख्यनाथास्तॆ दशाधिपतयः क्रमात॥ अश्विन्यादिदशॊडूनां चतुर्थचरणॆषु च॥62॥ अश्विनी आदि 10 नक्षत्रॊं कॆ 3 रॆ चरण मॆं वृष दॆह और  मिथुन राशि जीव संज्ञक हॊती है और  2, 1, 12, 11, 10, 9, 1, 2, 3 राशियॊं : कॆ स्वामी क्रम सॆ दशा कॆ स्वामी हॊतॆ हैं। अश्विनी आदि 10 नक्षत्रॊं कॆ चौथॆ चरण मॆं ॥62॥ . कर्कमीनौ दॆहजीवौ कर्कादिनवमॆश्वराः। । दशाधिपाश्च विज्ञॆया शृणु पार्वति निश्चितम॥63॥

कर्क दॆह और  मीन राशि जीव संज्ञक हॊती है और  कर्क सॆ मीन पर्यन्त 9 राशियॊं कॆ स्वामी दशॆश हॊतॆ हैं॥63॥। । याम्यॆज्यचित्रातॊयक्ष उत्तराभाद्रपदास्तथा।

। ऎतत्पञ्चजॊडुपादानां भरण्यादौ चवीक्षयॆत॥64॥ भरणी, पुष्य, चित्रा, पूर्वाषाढ, उत्तराभाद्रपद इन पाँच नक्षत्रॊं कॆ चरणॊं का भरणी नक्षत्र कॆ समान ही विचार करना चाहि‌ऎ॥64॥।

याम्यप्रथमपादस्य दॆहजीवावलिनषः॥ नागागर्तुपयॊधीषु रामाक्षीन्द्वर्कभॆश्वराः॥65॥ भरणी कॆ प्रथम चरण मॆं वृश्चिक दॆह और  मीन राशि जीव संज्ञक हैं। 8।7।6।4।5।3।2।1।12 राशियॊं कॆ स्वामी क्रम सॆ दशॆश हॊतॆ। हैं॥65 ॥ .


.

380

। बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । याम्यद्वितीयपादस्य दॆहजीवौ घटागनॆ।

रुद्रदिनन्दचन्द्राक्षिरामाब्धीषु दशॆश्वराः॥66॥. * भरणी कॆ दूसरॆ चरण मॆं कुम्भ दॆह और  कन्या जीव संज्ञक है। 11।10।9।1।2।3।4।5।6 राशियॊं कॆ स्वामी क्रम सॆ दशॆश हॊतॆ हैं॥66 ॥ । याम्यतृतीयपादस्य दॆहजीवौ तुलाङ्गनॆ।

सप्ताष्टाङ्कदिगीशार्कगजाद्रिरसराशिपाः॥67॥ भरणी कॆ तीसरॆ चरण मॆं तुला दॆह और  कन्या जीव संज्ञक हॊतॆ हैं। 718।9।10।11।12।8।7।6 राशियॊं कॆ स्वामी क्रम सॆ दशॆश हॊतॆ हैं॥67॥।

दॆहजीवौ कर्कचापौ चतुर्थचरणॆ स्मृतौ। वॆदबाणाग्निनॆत्रॆन्दुसूर्यॆशदशनन्दपाः ॥68॥ । भरणी कॆ चौथॆ चरण मॆं कर्क दॆह और  धन राशि जीवसंज्ञक है॥ 4।5।3।2।1।12।11।10।9 राशियॊं कॆ स्वामी क्रम सॆ दशॆशः हॊतॆ ॥ हैं॥68॥

सव्यमॆवं विजानीयादपसव्यं तु कथ्यतॆ। द्वादशारं लिखॆच्चक्रॆ तिर्यगूर्ध्वं समानकम॥69॥ उपर्युक्त सव्य चक्र कॊ कहा, अब अपसव्य चक्र कॊ कह रहा हूँ। 12 । कॊष्ठ का ऊपर-नीचॆ चक्र कॊ लिखकर ॥69॥।

द्वितीयादिषु कॊष्ठॆषु वृश्चिकाद्व्यस्तमालिखॆत। प्राजापत्यमघॆन्द्राग्नि श्रवणं च चतुष्टयम॥70॥ दूसरॆ आदि कॊष्ठ मॆं वृश्चिकादि उलटॆ राशियॊं कॊ लिखॆ। उसमॆं । रॊहिणी, मघा, विशाखा और  श्रवण इन चार नक्षत्रॊं कॊ लिखॆ॥70॥॥

धातृवद्वीक्षयॆद्दॆहजीवौ कर्कधनुर्धरौ। नवदिग्रुद्रसूर्यॆन्दुनॆत्राझीष्वब्धिराशिपाः॥71॥ उपर्युक्त चार नक्षत्रॊं मॆं रॊहिणी कॆ समान ही दॆह-जीव का विचार करना चाहि‌ऎ। यथा रॊहिणी कॆ प्रथम चरण मॆं कर्क दॆह और  धन राशिजीवसंज्ञक है।9।10।11।12।1।2।3।5।4 राशियॊं कॆ स्वामी दशॆश हॊतॆ हैं॥71

धातृद्वितीयचरणॆ तुलास्त्रीदॆहजीवकॊ। षष्ठसप्ताष्टार्करुद्रा दिगङ्कवसुसप्तपाः॥72॥


.

अथ दशाध्यायः

388 रॊहिणी कॆ दूसरॆ चरण मॆं तुला दॆह और  कन्या जीव संज्ञक हैं। 6।7।8।12।11।10।9।8।7 राशियॊं कॆ स्वामी दशॆश हॊतॆ हैं॥72॥

धातृतृतीयचरणॆ दॆहजीव कुम्भागनॆ। षट्बाणाब्धिगुणाक्षीन्दुनन्ददिग्रुद्रराशिपाः॥73॥। रॊहिणी कॆ तीसरॆ चरण मॆं कुम्भ दॆह और  कन्या जीव संज्ञक है। 6।5।4।3।2।1।9।10।11 राशियॊं कॆ स्वामी क्रम सॆ दशॆश हॊतॆ  हैं॥73 ॥

रॊहिण्यन्तपदॆ दॆहजीवालिझषौ स्मृतौ। । सूर्यॆन्दुद्विगुणॆष्वब्धितर्कशैलाष्टराशिपाः॥74॥ रॊहिणी कॆ चौथॆ चरण मॆं वृश्चिक दॆह और  मीन जीव संज्ञक हैं। 12।1।2।3।5।4।6।7।8 राशियॊं कॆ स्वामी क्रम सॆ दशॆश हॊतॆ हैं॥74 ॥

 चान्द्रौद्रभगार्यम्णमित्रॆन्द्रवसुवारुणम॥

ऎतत्ताराष्टकं चैव विज्ञॆयं चान्द्रवत्क्रमात॥75॥ मृगशिरा, आर्द्रा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, अनुराधा, जॆष्ठा, धनिष्ठा । और  शतभिषा- इन आठ नक्षत्रॊं कॆ दॆह-जीवादि कॊ मृगशिरा कॆ समान समझना॥75 ॥।

दॆहजीवौ कर्कमीनॊ मृगाद्यचरणस्य च। । व्यस्तमीनादि कर्कान्तं राशिपाश्च दॆशाधिपाः॥76॥ मृगशिरा कॆ प्रथम चरण मॆं कर्क दॆह और  मीन राशि जीव संज्ञक हैं। मीन सॆ उलटॆ कर्क पर्यन्त (12।11।10।9।8।7।7।6।5।4) राशियॊं कॆ स्वामी दशॆश हॊतॆ हैं॥76॥।

गौर्दॆहॊ मिथुनं जीवॊ इन्दुभस्य द्वितीयकॆ। त्रिद्वॆकाङ्कदिगीशार्कचन्द्रद्विभवनाधिपाः॥77॥ मृगशिरा कॆ दूसरॆ चरण मॆं वृष दॆह और  मिथुन राशि जीव संज्ञक हॊती हैं। 3।2।1।9।10।11।12।1।2 राशियॊं कॆ स्वामी दशॆश हॊतॆ

हैं॥77॥

। "दॆहजीवौ नक्रयुग्मॆ मृगपादॆ तृतीयकॆ। *

। त्रिबाणाब्धिरसागाष्टसूर्यॆशदशराशिपाः॥78॥।

मृगशिरा कॆ तीसरॆ चरण मॆं मकर दॆह और  मिथुन राशि जीव संज्ञक हॊती है। 3।5।4।6।7।8।12।11।10 राशियॊं कॆ स्वामी दशॆश हॊतॆ हैं॥78॥।


397

. बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । मॆषचापौ दॆहजीवाविन्दुभस्य चतुर्थकॆ। व्यस्तचापादि मॆषान्तं राशिपाश्च दशाधिपाः॥79॥ मृगशिरा कॆ चौथॆ चरण मॆं मॆष दॆह और  धन जीव संज्ञक हैं। धन राशि सॆ मॆष पर्यन्त विलॊम (9।8।7।6।5।4।3।2।1) राशियॊं कॆ स्वामी दशॆश हॊतॆ हैं॥79॥।

ऎवं व्यस्ततरॆ ज्ञॆयं दॆहजीवदशादिकम।

स्पष्टं तवाग्रॆ कथितं पार्वति प्राणवल्लभॆ ॥80॥। । हॆ पार्वति ! यह अपसव्य चक्र कॆ दॆह-जीव आदि कॊ तुम्हारॆ सामनॆ

कहा॥80॥।

अथ दशावर्षाणिभूतैकविंशगिरयॊ नवदिक षॊडशाब्धयः॥81॥ । सूर्यादीनां क्रमादब्दाः राशीनां स्वामिनॊ वशात॥81॥

5।12।7।9।10।16।4 यह क्रम सॆ सूर्यादि ग्रहॊं कॆ दशावर्ष राशियॊं कॆ अधिपति कॆ क्रम सॆ हैं। विशॆष चक्र कॊ दॆखि‌ऎ॥81॥।

2964 मॆ. वृ.मि.क.सिं किंतु वृ.ध. म. कुं.मी. राशयः ।

बु. शु.मं.बृ.श.श.बृ. अधिपाः -- [7 169 159 167104410 दशावर्षाणि

। दशाज्ञानप्रकारमाह—नरस्य जन्मकालॆ वा प्रश्नकालॆ यदंशकः। तदादि नवपर्यन्तमायुषं परिचक्षतॆ ॥2॥ उनुष्य कॆ जन्मकाल वा प्रश्नकाल मॆं नक्षत्र का जॊ अंश (चरण) हॊ उससॆ आरम्भ करकॆ नव (9) राशियॊं कॆ वर्ष संख्या तुल्य उस मनुष्य

की आयु हॊती है॥82 ॥।

सम्पूर्णायुर्भवॆदादावर्धमंशस्य मध्यमम। ’ । अपमृत्युसमं कष्टमंशान्तॆ चापरॆ जगुः॥83॥।

अन्य विद्वानॊं का कहना है कि नक्षत्र कॆ चरण कॆ आदि मॆं जन्म हॊ तॊ पूर्णायु, मध्य मॆं आधी और  अन्त मॆं कष्ट वा अल्पायु हॊती है॥83॥


अथ दशाध्यायः

393 नक्ष.’चरणतः नवांशज्ञानम्ज्ञात्वैवं स्फुटसिद्धान्तं राश्यंशं गणयॆद्बुधः।

अनुपातॆन वक्ष्यामि तदुपार्यमतः परम ॥84॥ । इस सिद्धान्त कॊ जानकर राशि कॆ अंश की गणना करना चाहि‌ऎ। अब मैं अनुपात द्वारा उसकॆ जाननॆ का उपाय कह रहा हूँ॥84॥।

गततारा त्रिभिर्भक्ता शॆषं चत्वारि संगुणम। वर्तमानपदॆनाढ्यं राशीनामंशकॊ भवॆत॥85॥ गतनक्षत्र संख्या (अश्विनी सॆ जन्मनक्षत्र कॆ पूर्व नक्षत्र की संख्या) कॊ 3 सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ शॆष बचॆ उसॆ 4 सॆ गुणाकर गुणनफल मॆं जन्मनक्षत्र वा वर्तमान नक्षत्र कॆ वर्तमान चंरण संख्या कॊ जॊड दॆ। जॊ संख्या हॊ वही मॆष सॆ गिननॆ सॆ नवांश हॊता है॥85॥

उदाहरण- जैसॆ पुनर्वसु कॆ प्रथम चरण मॆं जन्म है तॊ गतनक्षत्र (आ) संख्या 6 मॆं तीन सॆ भाग दॆनॆ पर शॆष कॊ 4 सॆ गुणाकर उसमॆं पुनर्वसु । कॆ प्रथम चरण की संख्या 1 जॊडनॆ सॆ 10 मॆष सॆ गिननॆ सॆ मॆष ही का नवांश हु‌आ।

। चक्रॆ राशीनां वर्षयॊगसंख्यामाह—मॆषगॊयमकुलीरराशिस्वांशकॆषु परमायुरुच्यतॆ। ज्ञानकं 100 मद 85 गज 83 स्तदा 86 क्रमात्त

। त्रिकॊणभवनॆषु तद्भवॆत ॥86॥ कालचक्र मॆं स्थित मॆषादि राशियॊं सॆ मॆषांश मॆं 100, वृषांश मॆं 85, मिथुनांश मॆं 83 और  कर्कॊश मॆं 86 वर्ष यॊग वा परमायु हॊता है। इन राशियॊं कॆ त्रिकॊण (59) राशियॊं मॆं भी यही वर्ष यॊग हॊतॆ हैं॥86॥

स्पष्टार्थं चक्रम्मॆ. वृ. मि.क. सिं. कं.तु. वृ. ध. म. कुं.मी. अंशकाः 100 ।858386 100 ।858386 100 ।8583।86 वर्षयॊगः विशॆष- यहाँ ज्ञानकं मंदगज आदि शब्दॊं सॆ ’कटपयवर्गभवैरिह अंकाः’ इत्यादि कॆ अनुसार अंकॊं कॊ समझना चाहि‌ऎ।

388

-

-

-

.-

। बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

दशारम्भज्ञानप्रकारमाह—यॆ जीवा अंशकॆ जाता गतनाडीपलॆन तु। । तदंशस्य हताङकस्त पञ्चभमिविभाजिताः॥87॥ . मनुष्य का जन्म नक्षत्र कॆ जिस चरण मॆं हॊ उसकॆ गत घट-पल की उसकॆ वर्ष संख्या सॆ गुणाकर गुणन फल मॆं 15 का भाग दॆनॆ सॆ ॥87॥

ऎवं महादशारम्भॆ सूर्यादीनां यथाक्रमात ॥

गणयॆन्नवपर्यन्तमायुष्यं तत्प्रकीर्तितम॥88॥ । लब्धि दशा का भक्त वर्षादि हॊता है। इसॆ दशावर्ष मॆं घटानॆ सॆ भाग्य।.

वर्षादि हॊता है। इस प्रकार सॆ दशा का आरम्भ हॊता है।88॥ । उदाहरण- किसी का पनर्वस नक्षत्र कॆ तृतीय चरण मॆं जन्म ह। पुनसु सव्य नक्षत्र है। उसका दॆहाधिपति भौम और  जीवाधिपति गुरु है। पुनवसु का भभॊग 55152 भयात 32।10 है। भभॊग का चार भाग करनॆ सॆ ऎक भाग घट्यादि 13 ॥48॥15 हु‌आ। यही ऎक चरण का मान है। इसॆ दूना कर भयात सॆ घटानॆ सॆ शॆष 4।13।30 यह पुनर्वसु कॆ तीसरॆ चरण की भुक्त घट्यादि है। इसका दशा वर्ष 100 है, इससॆ शॆष घट्यादि कॊ गुणा करनॆ सॆ 400।1300।3000 सवर्णन करनॆ सॆ 422।30।10 हु‌आ। इसमॆं 15 का भाग दॆनॆ सॆ 28।3।18 वर्षादि जन्मकाल मॆं भुक्त हु‌आ। पुनर्वसू सव्य गणना मॆं है, दॆहादि जीव पर्यन्त गणना हॊगी। अतः पुनवसु प्रथम चरण मॆं दॆह मॆष और  जीव धनु है। अतः भुक्त वर्षादि 28।3।18 मॆं मॆष सॆ वृष पर्यंत कॆ यॊग-वर्ष 23 कॊ घटानॆ सॆ 5।3।18 यह वर्षादि मिथुन कॆ भुक्त वर्षादि हु‌ऎ। अतः इसॆ बुध कॆ वर्षमान 9 सॆ घटानॆ सॆ 3।8।42 वर्षादि भॊग्य हु‌आ। अतः विंशॊत्तरी दशा कॆ समान ही मिथुन आदि दशा का क्रम हु‌आ। शॆष चक्र सॆ स्पष्ट है।

कालचक्रदशा। मि. । क. । सिं. । कं. 1 तु. । वृ. । ध. । मॆ. । वृ.

-

अनि

.

- र

3

29.418 9ऽ

90

98

.

2093 2094 2038 2088 20492087 2068 2028 2089 2900

311.696 0 .6 0 0 0 0 19छ ऒग 1 : 98 । 9ऽ 9ऽ । 98 । 98 । 98 । 98 । 9ऽ


ऎ हॊ

ऒ‌उम हं हं

ऎ । हं।

हं

शु। 83 । शु.

च.। 2च.2च.।

* । जि ।

37

321

। । न्र । उ‌इ । उ । - । - । - । । ।

। ऒ‌उम । 2

। ।

अनुराधा, धनिष्ठा आर्द्रा, उत्तराफाल्गुनी । मृगशिरा, पूर्वाफाल्गुनी,

’ ज्यॆष्ठा, शतभिषा

अथ दशाध्यायः

। । अब वॆ ऒ‌उम ऒ‌उम ऒ‌उम ऒ‌उम

ऒ‌उम

जीवा

। ।परमा.दॆहा

दशानां नक्षत्राणि । ॥ नक्ष. पा. 1 । 2 । 3 । 4 । 5 । 6 । 7 । 8 । 9 ।

।धिपाः अंशा

तत्पादानि च ।

धिपाः

मृ. । अ. । बृ.

सू..। चं.-,

पू. श= श..] बृ.=। मं.=। शु.। बु.

86 । चं. । क.

937.97.92.

909.89.89.909. 09. 1987. अ. / 49.299.

। बु.। शु.=। मं.=। बृ.=। श.=। श.=। बृ.=। मं.

मृ. । अ. । पू. ।

शु.-,,

77.22.

89.1989. 09. 1909. 89./89.900./ 09.1987./">

मृ. ।

बु.=। सू.=। चं.=। बु.= शु.=। मं.=। बृ.=। श=। श. .. 89.49.299.99. 9ऽ. 09.907.89..

। मं.= शु. बु.=। सू. चं.=। बु.=। शु.=। मं.=।

10व.] [9व. [16व.] 9व. [5व. 21व.। 9च. ।16व.] । 99.

आ.

बु.=। सू..। चं=।

झ. । 3, 1. शत. बृ.=। श=। श.=। बृ.=। मं =। शु.

6 । चं, । मी.

921: 90.90.190.

907. 89.89.909. 09. 989. .49.299.

आ.. । ज्यॆ. । उ. ।शत.

शु.=। मं.=। बृ=। श.=। श.=। बृ.=। मं.=। शु=

27.29. 20. 22.

9च. [16व.] 9व, 103.4व.] 43. ।10व.। [9व. ।16व,

आ. । सॆ. । 3. । शत. सू.=। चं। बु.=। शु.=। मं.=। बृ.=। श..। श.=[..

(5 । हॊ, म.

37. 37. 37.

9व. । 5व. 21व.।1च. । 16व.] 9व. ।10व.[4व, ।

आ. । यॆ. उ. । शत.

वृ.= मं.= शु.= बु.=। सू.=। चं.=। बु.=। शु. मं.=[..

ण्ग। ग्ग.ग्ग.

909. उ. 989. अ. 4अ. 399.99.987. उ‌अ.

।  । 6 ।  । छ।

89.

। 3 ।

394

श्श.

396

ट्ट

धिमाशा

बु

ह्स ब्च ऎह्स हॆ ऎ

। अश्विनी, पुनर्वसु, हस्त, । 3 ।

मूल, पूर्वाभाद्रपद

र ।

पुन. । पू.

। .

दशानां नक्षत्राणि ।

 तत्पादानि च । । अ. । मू. । पुन. ।. पू. ।

92. 97. 98.99. । अ. । मू. । पुन. । पृ. ।

27. 27. 27. अ. । अ. । मू. ।

37. 37. 37. 37. । अ. । मू. । पुनः । पू. । 18989.87.877. । भ. । चि. । पु. पू.षा.

.ःट

90. 99. 97. । भ. चि. पु. पि.षा.

79. प. अ. चि. । पु. पू.षा.उ.भा. 37. 37. 37. 37. चि. । पु.. (पू.षा. उ.भा 87.89.89.89.

अथ कालचक्रदशायां सव्यमार्गचक्रम : 0

। 6 । इ ।

परमा: जी

9173841ऽ

परमा,जीवा-राश

वर्षा, । मं.=। शु=। बु..। चं.[ सू.= बु. शु.=। मं.=। ॥100 7व। 16व.] 9व. 21व.] 5व. । 9व. ।16व.] 7. ।10व.] वर्ष । श.=। श.=। बृ=। मं.=। शु=। बु=। चं.=। सू.। बु.[85 4व. । 4व. 10व.] 7व. [16व. 9व. 21व.। 53. । 9व. । वर्ष । शु.=।’ मॆं.=। बृ.=। श..। श.=। बृ.=। मं। शु.। बु=। 83 16व. 7व. ।10व.] 4व.] 4व, 10व, 7व. [16व.] 9व. । वर्ष

चं.= सू.=। बु.। शु.=। मं.=। बृ. श.= श.=। बृ.=। 86 21व. 5व. । 9व. [16व.। 7व. [10व. 4व. । 4व. 10व.] वर्ष मं.= शु.। बु.=। चं.=। सू.=। बु.=। शु.। मं.=। बृन 197. 989.89. 299.47. अ. 989. 69.907. श= श.=। बृ.=। मं.=। शु.=। बु=। चं.=। सू=। बु.। 85 4व. । 4. ।10व.] 7व. । 16व. 9व. 21व.] 5व. । 9व. । वर्ष

शु=। मं=। बृ. श= श.= बृ. मं.=[ शु.। बु.=। 83 ।16व. 7व. ।10व. 4व. । 4व. ।10व. 7व. ।16व. 9व.] वर्ष

चं=। सू=। बु..। शु.। मं=। बृ.=। श.=। श.=। बृ.=। 86 899. 49. स. 1989. 69.909. अ. 89.907.।

- :: : बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

। झि) + । । 4 । छ । 4 । 6 । 4 । भ । 1 ।

- । - । । । छि

-

अ. 8।4,

हं

हं

भरणी, पुष्य, चित्रा, ॥

पूर्वाषाढ, उत्तराभाद्रपद

हं

हं

नक्ष,

ऎ.

दशानां नक्षत्राणि

तत्पादानि च । कृ. उ.षा.श्लॆ, रॆ, ॥ स्वां, 97. 92. 92.927. कृ. उ.षा.श्लॆ. रॆ, अ. । .॥. । कृ. उ.षा.श्लॆ.

है. । स्वा . 37. 37. 37. 37.32. कृ. उ.षा. श्लॆ. 87.89.89.

कृत्तिका, श्लॆषा, स्वाती,

उत्तराषाढ, रॆवती

च्व्ड

अथ कालचक्रदशायां सव्यमार्गचक्रम ।

परमा.दॆहा- राश.

जीवा92 38 41छलॆद

धिपाः अंशाः मं=। शु=। बु.=। चं.=। सू. बु.=। शु.=। मं.=। बृ.2।100 । 7व. [16व.। 9व. 21व । 5व. । 9व. [16व. 7व. ।10व.] वर्ष श= श,=। बृ.=। मं.=। शु= बु.] च =। सु=। बु. 85 व, [4व, 10व. [ 9व. [166, 9व. 21व.] 5व. [1व, । वर्ष शु=। मं.=। वृ=। श=। श= बृ. म.=। शु= बु.॥ 987. 07. 900. 89.89.907. 97. 989. फ.

चं.= सू=। बु.= शु. मॆं..। बृ.=। श । श:=। बृ=। 16 ।21व. 5व. [9व. [16व. 7व.]10व.] 4व. । 4वॆ. 10व.। वर्ष

ऎ । ऎ। *

॥ स्वा .

.

अथ दशाध्यायः

अथ कालचक्रदशायामपस

बु.=।

सु=

चं,

37. वॆ,

। वि. म. । .

99.

01.. । मि. म. . अ. । . ।

रॊ, वि, । म, । भ. 32. 32. 32. 37. ॥. । चि. म. । नॆ. 84. 1.87. य.

रॊहिणी, मघा, विशाखा,

श्रवण

उलु

छ । छ । छ । छः ।

ंऒन्तॆनॆग्रॊ

छ,=। रा= श,= बृ=। म = 907. 89. 89.904. अ. 9ऽ2. 99. 4. 299.

बु=। शु= मॆं =। बृ=। श= श, बृ.= म.=। शु.= 9वं, 16व.[9वॆ. [1प्ध.। 4ऎ. । 4व, 10य.]7व. [16व,

चु.=। सु-चॆ= बु =। शु=। मं.= बृ.=। श= शॊ 93. । 5व. 21व.]9व. [16व.[य. 10व.] 4व.] 4व. बृ=। मॆं शु। बु‌ऎ

बु=। सु=। चं.=बु.। शु. मॆं 1989. 89.49.299.9अ.1989. .

18

ऒछ

3910


: 380

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

अथ कालचक्रगतिभॆदमाह—प्रथमा गति मण्डूकी द्वितीया मर्कटी तथा। बाणाच्च नवपर्यन्तं गतिः सिंहावलॊकनम ॥88॥

कालचक्र की गति 3 प्रकार की हॊती है। पहली गति का नाम मण्डूकी । है, दूसरी का नाम मर्कटी और  तीसरी का नाम सिंहावलॊकन है॥88॥

। कन्यायां कर्कटॆ वापि सिंहभॆ मिथुनॆऽपि च।

माण्डूकी गति विज्ञॆया भवॆद्रॊगस्य कारणम॥89॥ कन्या सॆ कर्क मॆं और  सिंह सॆ मिथुन मॆं जानॆ कॊ मण्डूकी गति कहतॆ हैं। इसमॆं रॊग हॊता है॥89॥।

मीनवृश्चिकयॊर्विप्र चापमॆषस्तथैव च। . सिंहावलॊकनं चैव तादृशं च फलं भवॆत।

सिंहावगतिमार्गॆ च . मर्कटीगतिसम्भवः॥90॥ । मीन सॆ वृश्चिक मॆं और  धन सॆ मॆष मॆं जानॆ कॊ सिंहावलॊकन गति कहतॆ है। नाम सदृश ही इसका फल हॊता है। सिंह सॆ कर्क मॆं जानॆ कॊ मर्कट गति कहतॆ हैं॥90 ॥।

। गतिफलञ्चाहमीनात्तु वृश्चिकॆ यातॆ ज्वरॊ भवति निश्चितम।

कन्यात: कर्कटॆ यातॆ भ्रातृबन्धुविनाशनम॥91॥ मीन सॆ वृश्चिक प्राप्त हॊ तॊ उस दशा मॆं निश्चय ही ज्वर हॊता है। कन्या नॆ कर्क प्राप्त हॊ तॊ उस दशा मॆं माता और  बन्धु का नाश हॊता है॥91॥

सिंहात्तु मिथुनॆ यातॆ स्त्रिया व्याधिर्भवॆद ध्रुवम।

कर्कटाच्च हरौ यातॆ वधॊ भवति दॆहिनाम॥ पितृबन्धुमृतिं विद्याच्चापान्मॆषगतॆ पुनः॥92॥ । सिंह सॆ मिथुन प्राप्त हॊ तॊ इस दशा मॆं स्त्री कॊ रॊग हॊता है। कर्क सॆ सिंह प्राप्त हॊ तॊ उस दशा मॆं मनुष्य का वध हॊता है। धन सॆ मॆष प्राप्त हॊ तॊ पिता कॆ भा‌ई (चाचा) की मृत्यु हॊती है॥92॥।

. . पुनः गतिफलमाह—कन्यातः, कर्कटॆ पातॆ पूर्वभागॆ महत्फलम। उत्तरॆ दॆशमाश्रित्य शुभा यात्रा भविष्यति ॥93॥


388

अथ दशाध्यायः । । कन्या सॆ कर्क मॆं जानॆ कॆ समय पूर्वभाग सॆ लाभ और  उत्तर दॆश की शुभकर यात्रा हॊती है॥93॥

सिंहात्तु मिथुनॆ यातॆ पूर्वभागं विसृज्यतॆ।

कार्यान्तॆऽपि च नैर्‌ऋत्यां सुखं यात्रा भविष्यति॥94॥ सिंह सॆ मिथुन मॆं जानॆ कॆ समय पूर्व दिशा कॊ त्याग दॆना चाहि‌ऎ। कार्य हॊ जानॆ पर भी नैर्‌ऋत्य कॊण की यात्रा सॆ सुख हॊता है॥94॥

कर्कटात्तु गतॆ सिंहॆ कार्यहानिश्च जायतॆ॥ ... दक्षिण दिशमाश्रित्य प्रत्यगामनं भवॆत॥95॥

। कर्क सॆ सिंह मॆं जानॆ कॆ सपनॆ दक्षिण दिशा मॆं यात्रा करनॆ सॆ कार्य की हानि हॊती है और  दक्षिण सॆ पश्चिम की यात्रा हॊती है॥95॥।

मीनात्तु वृश्चिकॆ यातॆ उदग्गच्छति सङ्कटम। । चापाच्च मकरॆ विप्र दुःखं सङ्कटमुच्यतॆ॥96॥। । मीन सॆ वृश्चिक मॆं जानॆ कॆ समय उत्तर की यात्रा सॆ संकट हॊता है। धन सॆ मकर मॆं जानॆ सॆ दुःख और  संकट हॊता है॥96॥।

चापान्मॆषॆ तु यात्रायां वधबन्धॊ मृतिर्भवॆत॥ तुला सम्पद्विवाहश्च स्त्रीप्राप्तिर्वृश्चिकॆ गतिः॥97॥ धन सॆ मॆष मॆं जानॆ कॆ समय वध, बंधनं और  मृत्यु हॊती है। तुला सॆ वृश्चिक मॆं जानॆ कॆ समय सम्पत्ति, स्त्री की प्राप्ति हॊती है॥97॥

। अथ कालचक्रांशफलम्मॆषांशॆ चॊरकॊ विन्द्याच्छीमाञ्छुकांशकॆ भवॆत। बुधांशॆ ज्ञानसम्पन्नश्चन्द्रॆ च नृपतिर्भवॆत ॥18॥ यदि कालचक्र की दशा मॆं मॆषांश मॆं जन्म हॊ तॊ चॊर हॊता है। वृषांश मॆं लक्ष्मीवान, मिथुनांश मॆं ज्ञानी, कर्कॊश मॆं राजा॥98 ॥ . सिंहांशॆ भूपतिः प्रॊक्तः सौम्यांशॆ पण्डितॊ भवॆत। . . तुलांशॆ राजमन्त्री च भौमांशॆ निर्धनॊ भवॆत ॥19॥

सिंहाश मॆं राजा, कन्यांश मॆं पंडित, तुलांश मॆं राजमन्त्री, द बुक श

मॆं दरिद्र ॥99॥। । चापांशॆ ज्ञानसंयुक्तॊ मकरांशॆ च पापकृत।

कुम्भांशॆ च वणिक्कर्मा मीनांशॆ किल धान्यवान॥100॥


रॊ‌ऒ‌इ

है .

। बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । धन्वंश मॆं बुद्धिमान, मकरांश मॆं पापी, कुम्भांश मॆं व्यापारी और  मीनांश

मॆं धान्य सॆ युक्त हॊता है॥100॥

। अथ दॆहजीवफलम्दॆहजीवसमायॊगॆ भौमार्करविजादिभिः।

 ऎकैकयॊगॆ मरणं बहयॊगॆ तु का कथा॥1॥

यदि दॆह या जीव मॆं कॊ‌ई भी भौम, सूर्य, शनि मॆं सॆ किसी सॆ युत हॊ तॊ मरण हॊता है। यदि सभी सॆ युक्त हॊ तॊ क्या कहना है॥1॥

 दॆहयॊगॆ महाबाधा जीवयॊगॆ तु मृत्युदः। ।

द्वाभ्यां संयॊगमात्रॆण हन्यतॆ नात्र संशयः॥2॥॥ दॆह मॆं पापग्रह का यॊग हॊ तॊ महाबाधा हॊती है और  जीव मॆं पापयॊग हॊ तॊ मृत्यु हॊती है। यदि दॊनॊं मॆं पापयॊग हॊ तॊ अवश्य मृत्यु हॊती है॥2॥

दॆहॆ जीवॆ यदी राहुः सौरिर्वक्रॊ रविः स्थितः।

मृत्युकालगतिं ज्ञात्वा शान्तिं कुर्याद्यथाविधि॥3॥ । दॆह-जीव मॆं जब राहु, शनि, भौम, सूर्य स्थित हॊं उस समय मृत्य का भय, हॊता है। इसॆ जानकर शान्ति करनी चाहि‌ऎ॥3॥

दॆहॆ जीवॆ यदि सॊमॆ सौम्यजीवसितः स्थितः। .. तदा सौख्यं प्रकुर्वन्ति रॊगमृत्युविनाशनम॥4॥

दॆह-जीव मॆं जब चन्द्रमा, बुध, गुरु, शुक्र हॊतॆ हैं उस समय रॊग तथा मृत्यु का नाश कर सुख दॆतॆ हैं॥4॥

। पापक्षॆत्रॆ दशायॊगॆ दॆहजीवौ तु दुःखदौ।

शुभक्षॆत्रॆ दशायॊगॆ शुभयॊगॆ शुभं भवॆत॥5॥ दॆह-जीव पापक्षॆत्र मॆं हॊं और  पापयुक्त हॊं तॊ उसकी दशा मॆं दुःख हॊता है। दॆह-जीव शुभक्षॆत्र मॆं हॊं और  शुभयुक्त हॊं तॊ उसकी दशा मॆं शुभ फल हॊता है॥5॥।

दॆहॆ शुभग्रहैर्युक्तॆ भूषणादि ध्रुवं भवॆत।

जीवॆ शुभग्रहैर्युक्तॆ पुत्रदारादिकाँल्लभॆत ॥6। । दॆह मॆं शुभग्रह युक्त हॊं तॊ भूषण आदि का लाभ हॊता है। जीव शुभग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ पुत्र-स्त्री आदि का लाभ हॊता है॥6॥

इति कालचक्रदशाज्ञानम।

...

अथ दशाध्यायः

अथ चरदशानयनम्लग्नादि व्ययपर्यन्तं राशयॊ द्वादशॊ द्विज॥

आयुर्वर्षप्रदातार ऎभिश्चरदशा मता॥7॥ लग्न सॆ 12वॆं भाव पर्यन्त 12 राशियाँ हॊती हैं। यॆ आयु कॆ वर्ष कॊ दॆनॆ वाली हॊती हैं और  इन्हीं सॆ चरदशा भी हॊती है॥7॥

ऒजक्षणां क्रमाद्विप्र समानां व्युत्क्रमात्पुनः। नाथान्तॆन समाज्ञॆया निर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥8॥

ऒज (विषम) राशियॊं का क्रम सॆ और  सम राशियॊं का व्युत्क्रम सॆ उस राशि कॆ स्वामी पर्यन्त गिननॆ सॆ दशा कॆ वर्ष का मान हॊता है॥8॥।

मॆषॊ वृषॊऽथ मिथुनॊ तुलालिश्च धनुर्धरः। ऎतॆषामॊजसंज्ञा स्यादब्दानां गणनाक्रमात ॥9॥ मॆष, वृष, मिथुन, तुला, वृश्चिक, धन राशियॊं की ऒज संज्ञा है और  इसमॆं वर्ष कॆ गणना क्रम सॆ गिनना चाहि‌ऎ॥9॥

कर्कः सिंहश्च कन्याच नक्रकुम्भझषा द्विज। ऎतॆषां समसंज्ञा स्याद्वर्षाणां व्युत्क्रमाद्विज॥10॥ कर्क, सिंह, कन्या, मकर, कुंभ और  मीन इन राशियॊं की सम संज्ञा . है। इनमॆं व्युत्क्रम गणना सॆ वर्ष की संख्या कॊ जानना चाहि‌ऎ॥10॥ . स्वर्श्वसंस्थितखॆटस्य वर्षाणि द्वादशैव हि। । धनस्थॆ चैकवर्षं हि तृतीयॆ हायनद्वयम॥11॥ - ग्रह (राशीश) अपनी राशि मॆं हॊ तॊ 12 वर्ष की दशा हॊती है। अपनी राशि सॆ धन भाव मॆं हॊ तॊ 1 वर्ष, तीसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ,2 वर्ष॥11॥

तुर्यॆ वर्षत्रयं विप्र पञ्चमॆ तुर्यहायनम । रिपुस्थॆ पञ्चवर्षाणि षड्वर्षाणि च सप्तमॆ॥12॥ चौथॆ मॆं हॊ तॊ 3 वर्ष, पाँचवॆं मॆं हॊ तॊ 4 वर्ष, छठॆ मॆं हॊ तॊ 5 वर्षॆ, सातवॆं मॆं हॊ तॊ 6 वर्ष, आठवॆं मॆं हॊ तॊ 7 वर्ष॥12॥

रन्ध्रस्थॆ नगवर्षाणि चाष्ट्रवर्षाणि पुण्यभॆ। नभस्थॆ चाकवर्षाणि दिग्वर्षाणि तु लाभगॆ। व्ययस्थॆ रुद्रवर्षाणि राश्यकाश्च तथानघ॥13॥

402 . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

नवम मॆं हॊ तॊ 8 वर्ष, दशम मॆं हॊ तॊ 9 वर्ष, ऎकादश मॆं हॊ तॊ 10 वर्ष और  बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ 11 वर्ष की दशा हॊती है। यह पूर्व मॆं कहॆ हु‌ऎ प्रकार सॆ जानना॥13॥ .. .

द्विराश्यधिपतौ विशॆष:- । वृश्चिकाधिपती द्वौ च कुजकॆतू द्विजॊत्तम।

स्वर्भानुपगू कुम्भस्य पती द्वौ चिन्तयॆद्विज ॥14॥ वृश्चिक राशि कॆ भौम और  कॆतु यॆ दॊ स्वामी हैं और  कुम्भ राशि कॆ राहु तथा शनि यॆ दॊ स्वामी हैं॥14॥

स्वर्भॆ यदि स्थितौ द्वौ च भानुवर्षप्रदायकौ। पर सङ्गतौ द्वौ च नाथान्तॆ न विचिन्तयॆत ॥15॥ यदि दॊनॊं स्वामी अपनी राशि मॆं हॊं तॊ 12 वर्ष की दशा हॊती है। यदि दॊनॊं भिन्न राशि मॆं हॊ तॊ स्वामी पर्यन्त दशा की गणना नहीं करना

चाहि‌ऎ॥15॥

पर भिन्नभिन्नस्थौ द्वयॊर्मध्यॆ तु यॊ बली। । तस्य नाथान्तरीत्याच वर्षाणि संलिखॆद्विज॥16॥ . भिन्न राशि मॆं दॊनॊं अलग-अलग हॊं तॊ दॊनॊं मॆं जॊ बली हॊ उसी कॆ

साथ पर्यन्त रीति सॆ दशावर्ष लॆना चाहि‌ऎ॥16॥।

अग्रहात्सग्रहः प्राणी संग्रहादधिकग्रहः। साम्यॆ चरस्थिरद्वन्द्वाः क्रमात्स्युर्बलिनॊ द्विज॥17॥। बल विचार मॆं ग्रहहीन सॆ ग्रह युक्त बली हॊता है। यदि दॊनॊं ग्रह युक्त हॊं तॊ जिसकॆ साथ अधिक ग्रह हॊं वह बली हॊता है। यदि ग्रह मॆं समानता हॊ तॊ चर, स्थिर, द्विस्वभाव क्रप सॆ बल का विचार करना चाहि‌ऎ॥17॥।

राशिसाम्यॆ सदा विप्र बहुवर्षप्रदॊ बली।

तद्बाधादुच्चगः खॆटॊ बलवान्भवति द्विज॥18॥ । यदि राशि मॆं भी समानता हॊ तॊ जिसका अधिक वर्ष हॊ वह बली हॊता

है। इसमॆं भी उच्चस्थ ग्रह बली हॊता है॥18॥।

यद्यप्यल्पवर्षदॊ विप्र तदापि तुङ्गगॊ बली। नाथान्तॆन समाज्ञॆया पूर्वॊक्तॆन क्रमॆण हि॥19॥

703

अथ दशाध्यायः यद्यपि उच्चस्थ ग्रह अल्पवर्ष दॆनॆ वाला हॊ तथापि वही बली हॊता है। वहाँ स्वामी पर्यन्त दशावर्ष लॆना चाहि‌ऎ ॥19॥।

उच्चखॆटस्य सद्भावॆ वर्षमकं तु निःक्षिपॆत ।

तथैव नीचखॆटस्य वर्षमॆकं त्यजॆद्विज॥20॥ . उच्चस्थ ग्रह कॆ वर्ष मॆं 1 जॊड दॆना चाहि‌ऎ और  नीचस्थ ग्रह मॆं 1 वर्ष कम करना चाहि‌ऎ ॥20॥

। ऎकः स्वक्षॆत्रगॊ अन्यस्तु परन्न यदि संस्थितः। । तदान्यत्र स्थितं नाथं परिगृह्य दशां नयॆत ॥21॥

यदि ऎक ग्रह अपनी राशि मॆं हॊ और  दूसरा अन्य राशि मॆं हॊ तॊ वहाँ अन्यत्र स्थित ग्रह कॆ स्वामी सॆ दशावर्ष लॆना चाहि‌ऎ॥21॥

ऎकः स्वॊच्चगतस्त्वन्यः परत्र यदि संस्थितः। ग्राहयॆदुच्चखॆटस्थं राशिमन्यं विहाय वै॥22॥। ऎक ग्रह अपनॆ उच्च मॆं हॊ और  दूसरा अन्यत्र हॊ तॊ वहाँ उच्चस्थं ग्रह की राशि कॊ अन्य ग्रह की राशि कॊ छॊडकर लॆना चाहि‌ऎ॥22॥

चरदशाफलमाह—?ऎवं सर्वं समालॊच्य दशायां निधनं वदॆत। । पापयॊगॆ, पापदृष्ट्या यस्य पापत्रिकॊणगाः॥23॥

इस प्रकार सभी पदार्थॊं का विचार कर निधन कॊ कहना। जिस दशा .. की राशि मॆं पापग्रह का यॊग हॊ अथवा दृष्टि हॊ वा पापग्रह सॆ त्रिकॊण

मॆं हॊ तॊ॥23॥ । निधनं तद्दशायां वै भाषितं ब्रह्मणा यथा।

- चरमुख्यदशायास्तॆ कथयिष्याम्यहं फलम॥24॥

उस दशा मॆं अवश्य मृत्यु हॊती है, ऐसा ब्रह्मा नॆ कहा है। इस प्रकार चर दशा का फल मैंनॆ कहा॥24॥

उदाहरण- जन्मांग कॆ अनुसार जन्मलग्न मकर सम राशि है, अतः 6 उत्क्रम गणनां सॆ मकर सॆ दशा का आरम्भ हु‌आ और  उसका दशवर्ष 3 हु‌आ। कुम्भ कॊ शनिपर्यन्त 3 वर्ष, मीन का 7 वर्ष, मॆष ऒज राशि है, अतः क्रम गणना सॆ मॆष का 10 वर्ष, वृष का 1 वर्ष, मिथुन का 2 वर्ष। इसी प्रकार अन्य राशियॊं कॆ दशावर्ष भी लाना चाहि‌ऎ, शॆष चक्र सॆ स्पष्ट है।

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

मं.11 8  20 ट.छ्ट्ट

1

6

फ।

( सू. 4 ) चं.3श. /बृ.5बु.

चरदशाचक्रम

क.सि कं.मि... मॆ.मी.कॆ. राशि ।2।8॥4।1111/10/2।1।10।7।3। वर्ष । इट्वा‌इडिङ्क‌इडिड्डिडिङ्किसंवत

ळीछ

ई.

ऎट.

203

9019

ऒऽछ

2009

ऒछ9

200छ

॥ सूर्य

.

। अथ नवांशस्थिरदशा‌अधुना सम्प्रवक्ष्यामि दशास्थिरविशॆषतः। , नवांशकदशामानं तवाग्रॆ द्विजनन्दन ॥25॥ ...

पराशरजी नॆ कहा- हॆ द्विजॊत्तम ! अब मैं तुमसॆ स्थिर दशा कॆ मध्य मॆं नवांशक दशा कॊ कहता हूँ॥25॥।

प्रतिराशिप्रदिष्टॆवमकाका च दंशा स्थिरा। तन्वादिव्ययभावानां स्पष्टीकृत्वा द्विजॊत्तम॥26॥ लग्नादि द्वादश भावॊं कॊ स्पष्ट करना चाहि‌ऎ। प्रत्यॆक राशि मॆं नव नवमांश हॊतॆ हैं, इन्हीं की दशा कॊ स्थिर दशा कहतॆ हैं॥26॥

ग्रहनवांशायुरीत्या दॆशातुल्या नवांशका। । . अस्थिरा इति विज्ञॆया परपक्षमिदं क्रमात ॥27॥ । इंसॆ दॊ प्रकार की कॊ‌ई-2 कहतॆ हैं। ऎक राशि सॆ और  दूसरी ग्रह नवांशं सॆ दशा हॊती है॥27॥

पक्षद्वयं प्रवक्ष्यामि चरस्थिरं द्विजॊत्तम। पूर्वं चरदशां वक्ष्यॆ तवाग्रॆ द्विजनन्दन॥28॥

.

।. ।

ईट


यॊ‌उ

अथ दशाध्यायः । इसमॆं भी दॊ प्रकार है, पहला चर और  दूसरा स्थिर दशा। उसमॆं प्रथम प्रकार कॊ कहता हूँ॥28॥

ऒजलग्नॆ जनुर्यस्य नवांशकदशा द्विज। . लग्नादिकं समारभ्य तस्य चांशदशा मता॥29॥ जिसका जन्म विषम राशिलग्न मॆं हॊ उसकी नवांश दशा लग्न सॆ क्रम गणना कॆ अनुसार हॊती है॥29॥

समराशौ जनुर्यस्य नवांशकदशा द्विज। व्युत्क्रमाच्च समारभ्य पुरा शम्भुप्रचॊदितम ॥30॥ .

और  जिसका जन्म लग्न समराशि हॊ उसकी दशा उत्क्रर्म गणना कॆ अनुसार हॊती है॥30॥

दशाप्रवर्त्तकॊ राशिः विषम समॊऽपि वा।

राशिप्रतिनवाडकानां सर्वॆषां गणयॆत्क्रमात ॥31॥ अष्टॊत्तरशताङ्कानां संख्यापूर्वं तदंशकाः।

ख्याता स्थिरदशा विप्रनिर्विशङ्कं द्विजॊत्तम॥32॥ । । दशाप्रवर्तक राशियॊं का दशावर्ग 9 वर्ष ही हॊता है, चाहॆ वॆ विषम हॊं। वा सम हॊं। इस प्रकार सभी वर्षॊ का यॊग 108 वर्ष हॊता है॥32॥

उदाहरण- पूर्वॊक्त जन्मकुंडली मॆं जन्मलग्न मकर समराशि है, अतः उत्क्रम गणना द्वारा दशा हॊगी। चक्र दॆखि‌ऎ।

नवांशकस्थिरदशीचक्रम । म. ध.वृ. तु.क.सिं कं. मि.व.म. मी. । कुं. । रा. श1818181818181818181818 20932339।80।89।44॥0ऎछ48812903 92 33333333333 96 9च9च9च9च9च9च9च9च9च9च." ॥ अथ स्थिरदशामाह—?अधुना सम्प्रवक्ष्यामि स्थिरदशां द्विजॊत्तम। चरस्थिद्विस्वभावा रिशयॊ त्रिविधाः क्रमात ॥33॥


! यॊग

। बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । हॆ द्विजॊत्तम ! अब मैं स्थिर दशा कॊ कह रहा हूँ। चर, स्थिर, द्विस्वभाव यॆ तीन प्रकार की राशियाँ हैं॥33॥

सप्ताष्ट्रनवाकाभ्याम नयीत दशां स्थिराम॥34॥

इसमॆं क्रम सॆ 7, 8, 9 वर्ष कॆ प्रमाण सॆ दशा लानी चाहि‌ऎ॥34॥। । मॆषॆ सप्ताङ्कं विज्ञॆया वृषॆ वसुसमा द्विज।

" मिथुनॆ नव वर्षाणि कर्कॆत्यादि यथाक्रमम॥35॥

। जैसॆ मॆष का 7 वर्ष, वृष का 8 वर्ष और  मिथुन का 9 वर्ष प्रमाण । । हॊता है। इसी प्रकार आगॆ भी कर्क आदि का जानना॥35॥ .

द्वादशराशिपर्यन्तं ज्ञायतॆऽङ्का द्विजॊत्तम॥

घण्णवति समासंख्या जायतॆ द्विजसत्तम॥36॥

 बारह राशियॊं कॆ वर्षॊ का यॊग 96 वर्ष हॊता है॥36॥

ऎषा स्थिरदशा प्रॊक्ता तस्या चापि प्रवर्तकम। : ब्रह्मग्रहाश्रितारम्भस्तदग्रॆ पूर्ववत्क्रमः॥37॥

यह स्थिर दशा है और  ब्रह्मग्रह सॆ आरम्भ हॊती है॥37॥

अथ ब्रह्मग्रहलक्षणमाह—षष्ठाष्टमव्ययॆशानां मध्यॆ यश्च बली ग्रहः। , स चॆद्विषम स्तः सैव ब्रह्मा भविष्यति॥38॥।

छठॆ, आठवॆं और  बारहवॆं भावॊं कॆ स्वामियॊं मॆं जॊ बलवान हॊ वह यदि विषमराशि मॆं हॊ तॊ वही ब्रह्मग्रह हॊता है॥38॥.

लग्नसप्तमयॊर्मध्यॆ यॊ राशिः बलवान्भवॆत। तस्यानुचरराशीशॊ ऒजॆ ब्रह्मग्रहॊ भवॆत॥39॥

लग्न और  सातवॆं भाव मॆं जॊ बली हॊ उसका अनुचर (अर्थात उस भाव सॆ पीछॆ 6 राशि कॆ अन्दर जॊ ग्रह हॊ, वह) यदि विषमराशि मॆं हॊ तॊ । वही ब्रह्मा हॊता है॥39॥

मध्यॆ शनिपातानां च यदि ब्रह्मस्य सम्भवः।

तदा तस्माच्च षष्ठॆशॊ ब्रह्मग्रहःसुनिश्चितम॥40॥

 शनि, राहु और  कॆतु मॆं सॆ कॊ‌ई भी ब्रह्मा हॊता हॊ तॊ उससॆ षष्ठॆश । - ब्रह्मा हॊता है॥40॥

। बहूनां ब्रह्मसद्भावॆऽधिकांशॊ भवॆद्विधिः।

तत्र राहुसमायॊगॆऽल्पांशॊ ब्रह्मणॊ भवॆत॥41॥


॥ अथ दशाध्यायः

...800 । यदि बहुत सॆ ब्रह्मा हॊतॆ हॊं तॊ सबमॆं जिसका अधिक अंश हॊ वही ब्रह्मा हॊता है। यदि उसकॆ साथ राहु हॊ तॊ अल्प अंशु वाला ही ब्रह्मा हॊता है॥41॥ ।

कारकादष्टमस्थस्तथा चाष्टमॆश्वरॊ ग्रहः।

तयॊर्मध्यॆ च बलवान्ब्रह्मग्रहः सुनिश्चितम ॥4॥ ।, कारक सॆ आठवॆं भाव मॆं वा अष्टमॆश दॊनॊं मॆं जॊ बली हॊ वही ब्रह्मा

हॊता है॥42॥।

उदाहरण- पीछॆ दियॆ हु‌ऎ जन्मांग मॆं षष्ठॆश, अष्टमॆश और  व्ययॆश, बुध, सूर्य और  गुरु मॆं बली गुरु ही है, अतः वही ब्रह्मग्रह हु‌आ। ब्रह्मंग्रह विषमराशि सिंह मॆं है, अत: सिंह सॆ क्रम गणना कॆ अनुसार दशा का आरम्भ हु‌आ। यदि कारक सॆ अष्टमॆश लॆ तॊ आत्मकारक भौम (पृ. 97 दॆखॊ) सॆ अष्टमॆश बुध भी सिंह ही राशि विषम मॆं है, अतः सिंह सॆ ही क्रम गणना सॆ दशा का आरम्भ हु‌आ। यहाँ आत्मकारक सॆ दशा का आरम्भ लॆना चाहि‌ऎ।

अथ स्थिरदशाचक्रम्बृ. बु.। श.ल.मं. ॥ 3.सू. ग्रहाः । बृ. बु. । श न मॆं

ग्रहाः

॥ 5 ॥6।7।8।9101112।1।2।3।4। राशयः

8 ।9।7।8।9।7।8।9।7।8।9।7। वर्षाणि

। सूर्यः

2093 12:9।26।38।82।49899268642490 7098 333333333333

9च9च9च9च9च9च9च9च9च9च9च9च1

। इति स्थिरदशा।

। अथ ब्रह्मदशामाह—

 ऒजलग्नॆ यदा जन्म विधॆराश्रितराशितः। ।

स्वराशॆः षष्ठॆशपर्यन्तमङ्कास्तु सदा द्विज॥43॥ यदि विषमलग्न मॆं जन्म हॊ तॊ ब्रह्मग्रहाश्रित राशि सॆ दशा का आरम्भ क्रम सॆ हॊता है और  राशियॊं कॆ दशा का वर्ष उसॆ राशि सॆ छठी राशि कॆ स्वामी पर्यन्त संख्या हॊती है॥43॥


408

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ... समलग्नॆ यदा जन्म विधॆः सप्तमराशितः॥ । :::: व्युत्क्रमाच्च दशानॆया ऎषा ब्रह्मदशा मता॥44॥

 यदि समलग्न मॆं जन्म हॊ तॊ ब्रह्मग्रहाश्रित राशि सॆ जॊ सातवीं राशि है उससॆ विलॊम राशियॊं की दशा हॊती है। यहाँ भी वर्षसंख्या पूर्ववत ही लॆना चाहि‌ऎ। इसॆ ब्रह्मग्रहदशा कहतॆ हैं॥44॥ . उदाहरण- पूर्वॊक्त कुंडली मॆं जन्मलग्न सम है, अतः ब्रह्मग्रह गुरु सॆ । सातर्वी राशि कुम्भ है, उसी सॆ विलॊम राशियॊं की कुंभ, मकर, धन आदि

की दशा हॊगी। दशा वर्ष कॆ विचार सॆ कुम्भ सॆ छठी राशि कर्क है, इसकॆ

 स्वामी चन्द्रमा हैं जॊ कि छठॆ भाव मॆं है, अत: कुंभ सॆ गणना करनॆ सॆ 5 वर्ष कुंभ कॆ हु‌ऎ। इसी प्रकार मकर सॆ छठी राशि मिथुन है, इसकॆ स्वामी बुध आठवॆं भाव मॆं हैं, यहाँ तक गिननॆ सॆ 7 वर्ष मकर कॆ हु‌ऎ। इसी प्रकार शॆष राशियॊं कॆ वर्ष कॊ भी जानना। शॆष चक्र सॆ स्पष्ट है।

। ब्रह्मदॆशाचक्रम

--

। मं. ल. श. । 3

॥॥ ग्रहाः ।

ग्रहाः

कुं, म.ध.कृ.तु.क.सिं कं.मि. वृ.मॆ.मी, राशयः । 5 ।7।6।3।10।3।3।1।8।1।4।5। वर्षाणि

2093/94343938*88040।49।488088 2088 13333333333333

19छ 9च9च9च9च9च9च9च9च9च9च9च9च

.. अथ कॆन्द्रदशामाह—. लग्नास्तभावयॊर्मध्यॆ यॊ राशिर्बलवान द्विज। .

ततः कॆन्द्रादिस्थितानांराशीनां च बलक्रमात॥45॥ : । लग्न और  सप्तम मॆं जॊ बली राशि हॊ उससॆ आरम्भ कर पहलॆ कॆन्द्रस्थ राशियॊं की उनकॆ बल कॆ अनुसार, इसकॆ बाद पणफरस्थ राशियॊं की, इसकॆ बाद आपॊक्लिमस्थ राशियॊं की दशा हॊती है॥45॥ कॆन्द्रादिस्थितराशीनां दशा ज्ञॆया द्विजॊत्तम॥

दशाब्दाश्चात्र भॊ विप्र चरवच्च समादिशॆत ॥46॥ यहाँ राशियॊं का दशावर्ष चरदशा कॆ समान ही लॆना चाहि‌ऎ॥46॥।


अथ दशाध्यायः

ऒस गहॆन्द्राणामप्यॆवं स्वकारकाच्च दशां नयॆत॥

ऒजसमविभॆदाच्च गणनात्रापि कारयॆत॥47॥ यह लग्न की कॆन्द्रादि दशा हु‌ई। इसी प्रकार आत्मकारक ग्रह सॆ भी कॆन्द्रादि राशियॊं की दशा हॊती है, किन्तु विषम-सम राशि कॆ अनुसार क्रम-उत्क्रम सॆ गणना हॊती है। अर्थात कारक ग्रह यदि विषम राशि मॆं हॊ तॊ कॆन्द्र, पणफर, आपॊक्लिम की और  समराशि मॆं हॊ तॊ कॆन्द्र, आपॊक्लिम, पणफर की दशा क्रम सॆ हॊती है। इसी प्रकार भावॊं मॆं बैठॆ हु‌ऎ ग्रहॊं की भी दशा हॊती हैं॥47॥ । विशॆष- कॆन्द्र दशा कॆ दॊ भॆद हैं। प्रथम लग्न सॆ कॆन्द्रस्थित राशियॊं

का और  दूसरा कारक सॆ कॆन्द्रस्थित राशियॊं का। इसमॆं भी प्रथम प्रकार मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र स्थित राशियॊं मॆं जॊ सबसॆ बलवान हॊ उसकी सर्वप्रथम, उसकॆ बाद उत्तरॊत्तर न्यूनवबी की दशा हॊती है। इसकॆ बाद पणफरस्थ राशि की इसकॆ बाद आपॊक्लिमस्थ राशि की दशा हॊती है। यहाँ भी विषम-समराशि कॆ अनुसार ही क्रम-उत्क्रम गणना कॆन्द्रादि मॆं करनी चाहि‌ऎ। राशियॊं कॆ वर्ष क्रम दशा कॆ समान ही लॆना चाहि‌ऎ। दूसरॆ । प्रकार मॆं यदि कारक विषम राशि मॆं हॊ तॊ कारक सॆ कॆन्द्र, पणफर और  .

आपॊक्लिम की और  समराशि मॆं हॊ तॊ कॆन्द्र, आपॊक्लिम और  पणफर की स्थित राशियॊं की दशा हॊती है।

उदाहरण- पीछॆ दियॆ हु‌ऎ उदाहरण कॆ जन्मांग मॆं आत्मकारक भौम कुम्भ राशि मॆं और  उससॆ सप्तम सिंह राशि, दॊनॊं मॆं बली कुम्भ राशि है, अतः कुम्भराशि सॆ ही दशा आरम्भ हॊगी। इसकॆ बाद कारंक सॆ कॆन्द्रस्थित राशि कुम्भ, वृष, सिंह, वृश्चिक मॆं बलक्रम सॆ दशा हॊगी, इसकॆ बाद पणफरस्थ मकर, मॆष, कर्क, तुला राशि की, इसकॆ बाद धन, मीन, मिथुन और  कन्या राशि की बलक्रम सॆ दशा हॊगी।

कारककॆन्द्रदशाचक्रम्कुं. वृ. सिं वृ.म.मॆ.तु. क.ध.मी.मि.कं. । 3 899933908901261991 2094 9219930391894944841032012233

9


880

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बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । कारककॆन्द्रग्रहदशामाह—लग्नाद्वा सप्तमाद्विप्र गणनीयः क्रमॊत्क्रमात ॥48॥ कारकावधिराशिश्च संख्या तत्रात्मिकाः समाः॥48॥ लग्न या सप्तम सॆ क्रम वा उत्क्रम रीति सॆ गणना करना चाहि‌ऎ। कारक पर्यन्त राशियॊं का दशावर्ष हॊता है॥48॥ । कारकग्रहदशा विप्र अन्यॆषां तु व्यतिक्रमः।

ग्रहात्कारकपर्यन्तं विषमसमविरॊधतः॥49॥ कारक ग्रह की दशा इस प्रकार हॊती है। ग्रह सॆ कारक पर्यन्त विषमसम कॆ विरॊध सॆ क्रम-उत्क्रम कॆ भॆद सॆ दशावर्ष कॊ जानना चाहि‌ऎ॥49॥ .. क्रमव्युत्क्रमभॆदॆन गणनीयं प्रयत्नतः।

संख्या समा इहाब्दाश्च पुरा शम्भुप्रणॊदिताः॥50॥। कारक सॆ युक्त ग्रह की दशा की संख्या कारक कॆ तुल्य ही हॊती है। अन्य कारकॊं कॆ दशावर्ष लग्न सॆ कारक पर्यन्त संख्या कॊ लॆना । चाहि‌ऎ॥50 ॥।

। कारकंयुक्तग्रहाणां तु कारकतुल्याङ्कसंख्यया।

संग्राह्याश्च समा विप्र पूर्वॊक्तॆन दशाक्रमः॥51॥... उनकॆ साथ जॊ ग्रह हॊं उनका दशावर्ष भी उन्हीं कॆ तुल्य लॆना। चाहि‌ऎ॥51॥।

लग्नात्कारकपर्यन्तं संख्यां न्यस्य दशा भवॆत। गणनीयं प्रयत्नॆन समालब्धदशां नयॆत॥52॥ . दॊनॊं मॆं जॊ अधिक संख्या हॊ वहीं कारक कॆ दशावर्ष की संख्या हॊती है॥52॥

तद्युक्तानां तुल्याङ्काः प्रत्यॆकं स्युर्दशाक्रमात। उभयॊरधिकं संख्या कारकस्य दशासमाः॥53॥. . कारकस्य युतश्चादौ तत्कॆन्द्रादिस्थितस्ततः। दशाक्रमॆण विज्ञॆयाः शुभाशुभफलप्रदाः॥54॥ पहलॆ कारक की, उसकॆ बाद उससॆ युत ग्रह की, उसकॆ बाद उससॆ पणफरस्थ की, उसकॆ बाद उससॆ आपॊक्लिमस्थ की दशा हॊती है॥54॥


अथ दशाध्यायः

888 विशॆष- उपर्युक्त श्लॊकॊं मॆं दॊ प्रकार की दशा का संकॆत है। ऎक कारक सॆ कॆन्द्रादि मॆं स्थित ग्रहॊं की और  दूसरा आत्मादि सात कारकॊं की दशा का है। किन्तु दशा कॆ वर्ष की गणना ग्रह की राशि पर्यन्त ही क्रम‌उत्क्रम सॆ लॆना चाहि‌ऎ। जिस ग्रह की दॊ राशियाँ हैं उनमॆं जिस राशि

सॆ अधिक दशा वर्ष आवॆ उसी कॊ लॆना चाहि‌ऎ। सात कारकॊं कॆ दशावर्ष

 लग्न सॆ उन-2 कारकॊं कॆ दशावर्ष लग्न सॆ उन-उन कारकॊं तक ’ गिननॆ सॆ जॊ संख्या हॊ उतनॆ ही वर्ष दशा का लॆना चाहि‌ऎ।

अथ कारककॆन्द्रदशाचक्रम॥ मं. । कॆ. । बृ. । शु. । श. । रा. । चं. । शु. । सू. ।

&&093319999

48

2094 38 । 30 36 । 80 83 । 42

43

ऒय

अथ मण्डूकदशामण्डूक इति विख्याता त्रिकूटाख्या दशा द्विज। लग्नसप्तमयॊर्मध्यॆ ’बलवद्राशितॊ . भवॆत॥55॥ त्रिकूट दशा कॊ ही मंडूक दशा कहतॆ हैं। लग्न सप्तम मॆं जॊ बलवान राशि हॊ॥55 ॥ ॥

क्रमव्युत्क्रमभॆदॆन दशाश्चिन्त्या द्विजॊत्तम। चरस्थिरद्विस्वभावॆ सप्ताष्ट्रनवसंख्यया॥56॥ वहाँ (ऒज-सम कॆ अनुसार) क्रम-उत्क्रम भॆद सॆ चर आदि राशियॊं की दशा हॊती है। चर राशियॊं की 7 वर्ष, स्थिर राशियॊं की 8 वर्ष और  द्विस्वभाव राशियॊं की 9 वर्ष की दशा हॊती है॥56॥ ।

क्रमॆण प्रॊक्तरीत्याच प्रवृत्तः स्यात त्रिकूटका। मण्डूकॆति समाख्याता पुरा शम्भुप्रणॊदितम ॥57॥ इस प्रकार चर-स्थिर-द्विस्वभाव राशियॊं की त्रिकूट दशा कॆ मध्य मॆं 2 राशियॊं का अन्तर हॊनॆ सॆ इसॆ मंडूक गति कॆ समान हॊनॆ सॆ मंडूक दशा कहतॆ हैं। ।57॥


.

412 . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम

उदाहरण- पूर्वॊक्त जन्मकुंडली मॆं लग्न और  सप्तम मॆं बली लग्न सम राशि की है, अतः उत्क्रम सॆ 9,12,3,6,10,1,4,7,11,2,8,5 इन।

राशियॊं की दशा हॊगी। शॆष चक्र मॆं स्पष्ट है। . : : : मण्डूकदशाचक्रम

। ।3ध. मी मिक.म.मॆ. किंतु. कु. वृ. सिं। वृ.

13181818111110छ्छ्छ्छ

2009 2013 ररर14042बंददरू‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒबरू

ऒ‌ऒग ं .. . इति मण्डूकदशा।

अथ शूलदशामाह—दशाशूलं प्रवक्तव्यं फलनिर्याणराशितः। प्रवक्ति सप्तमाद्विप्र निर्दॆशॆ शूलमात्रतः॥58॥ निर्याण की राशि सॆ शूलंदशा का फल कहना चाहि‌ऎ। वह सप्तम सॆ शूल का विचार करना चाहि‌ऎ॥58॥।

माहॆश्वरर्धादि दशा निर्याणस्थानशूलभम। । बलॆन शूलसंग्राह्या मृत्युरस्य द्विजॊत्तम॥59॥

माहॆश्वर ग्रह की राशि सॆ निर्याण राशि कॊ शूल राशि कहतॆ हैं। ।59॥ - दशानॆकविधा विप्र सप्ताष्टनर्वाभिः समाः॥

अत्र ग्राह्या महाप्राज्ञ शृंलॆ निर्याणनिश्चितम॥60॥ . लग्न और  सप्तम सॆ आठवीं राशि कॊ निर्याण राशि कहतॆ हैं। इसमॆं दशा वर्ष (स्थिर दशा कॆ समान ही) 7, 8, 9 वर्ष की हॊती है॥60॥ *. लग्नसप्तमयॊर्विप्र क्रमॊत्क्रमगणनया। , तयॊस्तु रन्ध्रमं विप्र शूलराशिश्च निश्चितम॥61॥।

लग्न और  सप्तम सॆ क्रम और  उत्क्रम (विषम-सम) कॆ अनुसार आठवीं राशियॊं मॆं जॊ बली हॊ वही शूल वा निर्याण राशि हॊती है॥61॥

रन्धॆशयॊर्बली विप्र रुद्रसंज्ञॊ भवॆत्किल। रुद्रशूलान्तमायुः स्यादिति पूर्वॆश्च भाषितम॥62॥


अथ दशाध्यायः . . 33 दॊनॊं कॆ स्वामियॊं मॆं जॊ बली हॊता है वही रुद्रग्रह हॊता है। रुद्रंशूलान्त ही आयु हॊती है॥62॥

उदाहरण- जन्मांग मॆं लग्न सॆ अष्टम सिंह राशि मॆं बुध-गुरु हैं और  सप्तम सॆ अष्टम मॆं कुम्भ राशि है उसमॆं मंगल है, अतः दॊनॊं मॆं बली सिंह राशि सॆ क्रम गणना कॆ अनुसार ही शूलदशा हॊगी।

। शूलदशाचक्रम्सिं. किं तु. वृ.ध. म. कु.मी मॆ.वृ.मि. क.

1816 1814 180121810

902 र01रूररू॥

44 दादर 78853

2908

च्लॆ

9छ

इति शूलदशा।

अथ यॊगार्धदशामाह—

 चरस्थिरदशायाश्च यॊगं विप्र समाचरॆत।

तस्यार्थञ्च समाविप्रयॊगार्धाख्या तु सा दशा॥63॥ चरदशा और  स्थिरदशा की राशियॊं कॆ.दशावर्ष कॆ यॊग कॆ आधॆ तुल्य यॊगार्ध दशा मॆं राशियॊं का दशावर्ष हॊता है॥63॥

लग्नसप्तमयॊर्मध्यॆ चिन्तयॆत्तु बलाधिकम। लग्नॆ बलयुतॆ लग्नाद्दशारम्भं प्रकाशयॆत॥64॥ लग्न और  सप्तम मॆं जॊ राशि बलवान हॊ उसी सॆ दशा का प्रारम्भ हॊता है॥64॥

तस्मात्सप्तमवीर्याचॆ दशारम्भं प्रकल्पयॆत। बली लग्नास्तयॊर्विप्र ऒजसमक्रमॆण वै। क्रमव्युत्क्रममार्गॆण दशा लॆख्या द्विजॊत्तम॥65॥॥। लग्न सप्तम मॆं बली राशि विषम हॊ तॊ क्रम सॆ, समराशि हॊं तॊ उत्क्रम सॆ गणना हॊती है॥65॥ । उदाहरण- जैसॆ कुंडली मॆं लग्न राशि बली है और  सम राशि है, अतः जन्मलग्न सॆ उत्क्रम गणना सॆ दशा का आरम्भ हॊगा। जन्मलग्न


ळ!

414. बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम मकर है, चरं दशा मॆं इसका दशावर्ष 2 है और  स्थिर दशा मॆं 7 वर्ष, दॊनॊं का यॊगार्ध 4 वर्ष 6 मास हु‌आ; यह मकर का दशावर्ष हु‌आ। इसी प्रकार शॆष राशियॊं कॆ दशावर्ष कॊ निकालना चाहि‌ऎ।

अथ यॊगार्थदशाचक्रम्म. घ. वृ.तु. कसिं कं.मि वृ.मॆ.मी.कॆ. 8 21214903141986124

ऽ ऽ ऽ ऒ ऽ ऽ ऽ ऽ 2093 90।38180401481छ1030 छॆ 2812900 38 38 38 38 3838

9च9च9च9च9च9च9च9च9च9च9च9च9च

। इति यॊगार्धदशा। । अथ दृग्दशामाह—कुजादिति स विज्ञॆया विलग्ननवमादितः। । क्रमत्रयॆ कूटपदं नाम्ना वै दृग्दशा द्विज ॥66॥ . लग्न सॆ आरम्भ कर नवम राशि सॆ 9, 10, 11 राशियॊं सॆ दशा का आरम्भ हॊता है। इन तीन राशियॊं कॊ त्रिकूट कहतॆ हैं॥66॥।

दृष्टिचक्रॆ सम्मुखश्च राश्यादौ नवमस्य च। कुत्रचित्क्रमरीत्या च कुत्रचित्व्युत्क्रमॆण च ॥67॥

इन्हीं तीन राशियॊं कॊ दॆखनॆ वाली तीन-तीन राशियॊं की दशा हॊती । है, अतः इसॆ दृग्दशा कहतॆ हैं। नवम की और  नवम की दृष्ट राशियॊं

की दशा हॊगी; इसी प्रकार दशम और  उसकॆ दृष्ट राशियॊं की, पुनः ऎकादश राशि और  उसकॆ दृष्ट राशियॊं की दशा हॊगी। कहीं क्रम गणना

और  कहीं उत्क्रम गणना हॊगी॥67॥

ततॊऽपि पञ्चमस्यैवं क्रमॆण कुत्रचिद्विज। कुत्रचिद व्युत्क्रमॆणैव राश्यैकादशसम्मुखम॥68॥ उसमॆं भी पाँचवीं (सिंह राशि) और  उसकॆ सम्मुख ग्यारहवीं॥68॥।

तस्याभावप्रमाणॊ हि न ग्राह्य द्विजसत्तम। . संग्राह्य पञ्चमस्यैव दृष्टिचक्रॆ विशॆषतः॥69॥ (कुंभ) राशि की क्रम गणना करनी चाहि‌ऎ॥69 ॥


अथ दशाध्यायः

884 अभिपश्यन्ति ऋक्षाणि पार्श्वभॆ द्विजसत्तम॥ पूर्वॊक्तरीत्या तदॆव त्रिकूटपदमुच्यतॆ॥70॥ त्रिराश्यात्मकूटपदं ततॊऽपि दशमस्य च। दृग्दशैकादशॆ ज्ञॆया नवमस्यापि दृग्दशी।71॥ । इसी प्रकार दशम राशि सॆ दृष्टिचक्र कॆ अनुसार गणना करनी चाहि‌ऎ॥71 ॥ । फलार्थॆ दृग्दशा विप्र संगृह्यैकादशॆऽपि च।

तस्याः प्रकारं वक्ष्यॆऽहं पुनरुक्तं विशॆषतः॥72॥ अब मैं पुनः ऒज (विषम) समराशि कॆ अनुसार गणना कॊ कह रहा हैं॥72॥।

अथॊजयुग्मभॆदॆन गणनाक्रममिहॊच्यतॆ। यथासामान्यसंज्ञॆयं युग्मॆषु मातृघर्मयॊः॥72॥ सिंह और  कुम्भ राशियॊं मॆं विषम हॊतॆ हु‌ऎ भी सामान्य अर्थात क्रम, गणना। ई72॥।

गणनायां च सामान्यं पञ्चमैकादशॆ द्विज। क्वचिदिव्यात्मकं ज्ञॆयं सामान्यत्रयकूटकॆ॥74॥। अथॊजपदयॊर्विप्र संज्ञॆयं विपरीततः। युग्मॆ युग्मपदयॊश्च यथासामान्ययॊजकम॥75॥

क्रमाद्वृषॆ वृश्चिकॆ च इत्युक्तॆन द्विजॊत्तम। .. अत्रापि ऒजकूटस्थॆ पञ्चमैकादशॆ क्रमात ॥76॥

समपदीय राशि हॊतॆ हु‌ऎ भी और  ऒजपदीय मॆष, वृष और  तुला . वृश्चिक मॆं मॆष तुला की विषम हॊतॆ हु‌ऎ भी उत्क्रम और  वृषवृश्चिक की सम हॊतॆ हु‌ऎ भी क्रम गणना करनी चाहि‌ऎ॥74-76॥

दृग्यॊग्यं च भवॆद्विप्न दृग्दशा बलदायिका।

। युग्मकूटस्थसामान्यं व्युत्क्रमात्सिंहकुम्भयॊः॥77॥ बलवान दृग्दशा दृग्यॊग्य हॊती है। युग्म (सम) कूट मॆं सामान्य गणना हॊतॆ हु‌ऎ भी सिंह और  कुम्भ राशियॊं मॆं उत्क्रम गणना करनी

चाहि‌ऎ॥77॥

पञ्चमैकादशौ विप्र दृग्यॊग्यौ भवतस्तथा। पुंराशिद्विस्वभावस्य ज्ञॆया, तस्य क्रमॆण च॥78॥


83

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम द्विस्वभाव राशि यदि विषम है तॊ क्रम सॆ और  स्त्री राशि (सम) मॆं उत्क्रम सॆ गणना करना चाहि‌ऎ। इनमॆं पार्श्व चौथी और  दशम राशि हॊती है॥78॥

स्त्रीराशिद्विस्वभावॆऽपि व्युत्क्रमॆण द्विजॊत्तम।

चतुर्थदशमौ ग्राह्यौ पार्श्वभं तु न संशयः॥79॥ विषम राशि मॆं क्रम सॆ चौथी और  दशम राशि तथा सम मॆं उत्क्रम सॆ क्रम सॆ चौथी और  दशम राशि लॆनी चाहि‌ऎ॥79॥

ऒजसंज्ञा द्विस्वभावॆ क्रमॆण तुर्यव्यॊमकॆ। समॆ व्युत्क्रमतॊ ज्ञॆया सा ग्राह्या व्यॊमतुर्यकौ॥ राशीनां तु समा ज्ञॆया स्थिरवत्तु द्विजॊत्तम॥80॥ राशियॊं का दशावर्ष स्थिर दशा कॆ समान ही लॆना चाहि‌ऎ॥80 ॥

उदाहरण- जन्मकुंडली मॆं लग्न सॆ नवम कन्या राशि है, द्विस्वभाव विषम है, अतः क्रम सॆ इसकी दृष्ट राशि धन, मीन और  मिथुन की दशा हॊगी। पुनः दशम तुला राशि की और  इसकी दृष्ट राशियॊं की उत्क्रम सॆ सिंह, वृष, कुम्भ की दशा, इसकॆ बाद ऎकादश वृश्चिक की और  क्रमगणना सॆ इससॆ दृष्ट राशि मकर, मॆष, कर्क की दशा हॊगी। शॆष चक्र सॆ स्पष्ट है।

दृग्दशाचक्रम्क. ध.मी.मि.तु.सिं वृ. कु.वृ.म.मॆ. कं. श8श्छ छ्छ 1909

3093 2।39801884ऽऽ8 ऊ छॊ‌ऊछ84/2007 ऒ‌ऒप

92

96

96

इति दृग्दशा।

अथ त्रिकॊणदशादशात्रिकॊणनाम्नाया यथान्यायप्रकल्पना।

चरपर्यायरीत्यादि श्लॊकॊक्तॆन प्रदर्शितः॥81 ॥ त्रिकॊण दशा की यथान्याय कल्पना की ग‌ई है। वह चरपर्याय दशा की रीति सॆ है॥82॥

लग्नत्रिकॊणयॊर्मध्यॆ यॊ राशिर्बलवान्द्विज। तदारभ्यॊन्नयॆद्धीमान चरपर्या भवॆद्दशा॥82॥


। अथ दशाध्यायः ॥

 य्लॆ लग्न सॆ त्रिकॊण 59 की राशियॊं मॆं अर्थात लग्न, पंचम और  नवम राशियॊं मॆं जॊ बलवान राशि हॊ वहीं सॆ चरपर्याय कॆ समान 1 दशा का आरम्भ हॊता, हैं॥82॥

 क्रमॊत्क्रमॆण गणयॆदॊजयुग्मॆषु राशिषु । ।

चरर्यायरीत्था च समाकल्पया द्विजॊत्तम ॥83॥

ऒज राशि मॆं क्रम सॆ और  सम राशि मॆं उत्क्रम सॆ चरपर्याय कॆ समान ही दशा का वर्ष भी हॊता है॥83॥

उदाहरण-जन्म कुण्डली मॆं मकर लग्न सॆ त्रिकॊण मॆं वृष और  कन्या राशि मॆं लग्न की राशि बली है अतः वहीं मॆं आरम्भ कर समराशि हॊनॆ कॆ कारण उक्रम: सॆ त्रिकॊण राशियॊं कन्या और  वृष की दशा हॊगी फिर कुम्भ, तुला, मिथुन की. इसकॆ बाद मीन, वृश्चिक, कर्क की, फिर मॆष, धन सिंह की दशा हॊग, इनका दशा वर्ष चरदशा कॆ समान ही हॊगा।

त्रिकॊणदशाचक्र। म. क. ।वृ. कु.तु. मि. मी./बृ. कॆ. मॆ.व. सिं.

फ फ38 ॠ शॊ‌ऒफ्फ 084126 छ ऎ घ छ184148168 183

ऒस्स

फ्छ्ट्ट्ट्ट्ट्ट्ट्ट्ट8छ

इति त्रिकॊणदशा। ..

अथनक्षत्रदशा

अथनक्षत्रदशा- जन्मादौ चन्द्रनक्षत्रॆ सर्वथा घटिकौघकॆ ।

भानुना दीयतॆ भागं शॆषनाडी प्रकल्पयॆत ॥84॥

जन्म समय जन्मनक्षत्र कॆ भभॊग घटी मॆं 12 सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ घट्यादि फल आवॆ॥84॥।

प्रथमं खंडमांरम्य द्वादशॆ खंडकॆ द्विज । । . लग्नाद्वादशराशीनां गणनीय क्रमॆण च ॥85॥

उस खंड सॆ आरम्भ कर 12 खंडॊं का लग्न सॆ 12 राशियॊं की दशा हॊती । है।185॥।

या घटी कर्मवत्खंडॆ जन्मखंड% आदितः । । आरभ्य गणनायां च जन्मलग्नादितॊ द्विज ॥86॥।


8फ्छ . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥

उक्त घटी कॆ अनुसार आयात कॆ घटी कॆ तुल्य जॊ खंड हॊ॥86॥

लग्नाद्वादशराशीशमारभ्य द्विजसत्तम ॥ क्रमव्युत्क्रमभॆदॆन द्वादशदशा मता ॥87॥

वहाँ तक लग्न सॆ आरम्भ कर 12 राशियॊं कॆ स्वामियॊं सॆ आरम्भ कर क्रम उत्क्रम गणना सॆ दशा हॊती है॥86 ॥।

अथवा-"। भभॊगं विभिर्भक्तॆ यल्लब्धं घटिकादिकम । तॆन भक्तॆ भयातंच यल्लब्धं भादिकं फलम ॥88॥

पभॊग कॊ 12 सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ घस्त्रादि लब्धि हॊ उसमॆं भयात सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ राश्यादि फल मिलॆ॥88॥।

. तॆनयुक्तं जन्मलग्नं तमारभ्य दशामितिः ।

स्थिरवच्चसमामानं क्रमॊत्क्रम विभॆदतः ॥89॥

उसमॆं जन्मलग्न कॊ जॊड दॆनॆ सॆ जॊ राश्यादि आवॆ वहीं सॆ (विषम-सम) कॆ अनुसार दशा का आरम्भ हॊता है। यहाँ दशा का वर्ष स्थिर दशा कॆ समान ही लॆना चाहियॆ॥89॥

उदाहरण-पूर्वॊक्त जन्म नक्षत्र पुनर्वसु का भभॊग 55 53 है और  भयात 1032 तथा जन्म लग्न 9।15।32।51 है। भभॊग 3353 मॆं 12 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्ध घटिकादि 279।25 प्राप्त हु‌आ। इससॆ पलात्मक भयात 632 मॆं भाग दॆनॆ सॆ लब्धि राश्यादि 2।7।51।20 हु‌आ इसमॆं जन्मलग्न कॊ जॊड दॆनॆ सॆ 11।23।24।11 हु‌आ अर्थात मीन राशि सॆ उत्कम गणना सॆ दशा का आरम्भ ऎट्टी

। नक्षत्रदशाचक्रम - मी. कुं.म. ध. बृ. तु. किं. । सिं. ।क. । मि. वृ. । मॆ. । 321 322 32 9 3 3/।ऒ ऒ।6।8।6 319 ऒ ।92 । । 3 ।

18छ

ईफ6 . .

है।

इतिनक्षत्रदशा।

अथ तारादशाजन्मसम्पद्विपत्क्षॆमप्रत्यरीसाधका वधः । । मैत्रातिमैत्रमित्यॆवं दशा ज्ञॆया द्विजॊत्तम ॥9॥


पॆ

अथ दशाध्यायः ॥ जन्म, सम्पत, विपत, क्षॆम, प्रत्यरी, साधक, वध, मैत्र, अतिमैत्र इन 9 तारा‌ऒं की भी दशा हॊती है॥90॥

विंशॊत्तर्याः क्रमॆणैवमंकानिह विजानतः । । आदौ कॆन्द्रग्रहाद्यस्य विज्ञॆया तारकादशा ॥91॥

जिस प्रकार विंशॊत्तरी दशा मॆं ग्रहॊं कॆ वर्ष कहॆ गयॆ हैं वही यहां पर भी लॆना चाहियॆ। यहां जन्म कुण्डली मॆं जॊ ग्रह कॆन्द्र मॆं हॊ वहीं सॆ दशा का आरम्भ हॊता हैं॥91॥

उदाहरण-कॆन्द्र मॆं ग्रहॊं कॆ रहनॆ सॆ यह दशा हॊती है अन्यथा नहीं हॊती है। जैसॆ जन्मकुण्डली मॆं कॆन्द्र मॆं सूर्य है अत: जन्मतारा सॆ दशा का आरम्भ हॊगा। इसका भुक्त भॊग्य विंशॊत्तरी दशा कॆ समान ही निकालना चाहियॆ।

तारादशाचक्रम - । ज. स. [वि.] क्षॆ.प्र. सा. ब. । मै. अतिमै. ।

चं, । मं. ।श.। बृ. ।श.। बु. कॆ, 18 । 9 18 2 8 6 8 3 7 8 9 । । ऒ

। । ऎ॥

83

48 43 फॊछॄ3443श्छ3304137

मॊरम

8छ

। इति तारादशा। । अथ वर्णददशामाह—। . जन्महॊरातनूयॊगॊ विषमॊ वर्णदॊ भवॆत । समस्तुः चक्रतः शुद्धॊ वर्णदॊ कथ्यतॆ बुधैः ॥9॥

जन्मलग्न और  हॊरालग्न का यॊग करनॆ सॆ यॊग राशि विषम हॊ तॊ वहीं वर्णद राशि हॊती हैं यदि यॊग सम हॊ तॊ 12 राशि मॆं घटानॆ सॆ शॆष वर्णद हॊती है॥92॥ . ऎवं द्वादशभावानां वर्णदं लग्नमानयॆत । । ग्रहाणां वर्णदा नैव राशीनां वर्णदा दशा ॥93॥


य्रॊ

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ इसी प्रकार 12 भावॊं कॆ वर्णद राशि कॊ लाना। ग्रहॊं की वर्णद दशा नहीं हॊती है राशियॊं की वर्णद दशा हॊती है॥93॥

हॊरालग्नभयॊनँया सवलाद वर्णदा दशा । यत्संख्यॊ वर्णदॊ लग्नात्तत्तत्संख्या क्रमॆणतु ॥14॥ क्रमव्युत्क्रमभॆदॆन दशा स्यात्पुरुषस्त्रियॊः । वर्षसंख्यां विजानीयाच्चरदशा प्रमाणतः ॥95॥

हॊरालग्न और  जन्मालग्न दॊनॊं मॆं जॊ बली हॊ, और  विषम हॊ तॊ क्रमगणना सॆ यदि सम हॊ तॊ उत्क्रम गणना सॆ वर्णद दशा हॊती है। यहां राशियॊं का वर्ष चर दशा कॆ समान ही लॆना चाहियॆ॥94-95॥

अथपंचस्वरदशामाह—पञ्चाङ्कानाथमॆ दत्वा स्वरान्वर्णाश्च विन्यसॆत ।

आदावकछडाद्याश्च अन्तॆ ऒचटवादयः ॥96॥ कादिहांताल्लिखॆद्वर्णान्स्वराधॊञणॊज्झितान। तिर्यक्पंक्तिक्रमॆणैव पञ्च पञ्च विभागतः ॥97॥

पहलॆ 1 सॆ 5 तक कॆ अंकॊं कॊ लिखकर उनकॆ नीचॆ अकारादि स्वरॊं कॊ और  उनकॆ नीचॆ ककारादि वर्गॊं कॊ लिखनॆ सॆ किन्तु ङ. अ. ण. वणॊं कॊ छॊडकर प्रत्यॆक पंक्ति मॆं 5 पांच वर्षॊ कॊ लिखॆ॥96-97॥

न प्रॊक्ता क्षणावर्णा नामादौ सन्ति तॆ नहि । चॆद्भवन्ति तदा ज्ञॆया गजडास्तॆ यथा क्रमात ॥98॥।

ङ. अ. ण, वर्ण का उच्चारण इस चक्र मॆं नहीं हॊता है क्यॊंकि किसी कॆ नामकॆ आदि मॆं यॆ वर्ण नहीं हॊतॆ हैं यदि कदाचित हॊ तॊ ङ. अ. ग. कॆ स्थान मॆं क्रम सॆ ग. ज. उ. कॊ मानना चाहियॆ॥98॥

यदि नाम्नि भवॆद्वर्णी संयॊगाक्षरलक्षितः ॥ ग्राह्यस्तदादिगॊवर्णः इत्युक्तं ब्रह्मणापुरा ॥99॥

यदि नाम कॆ आदि मॆं संयॊगाक्षर हॊ तॊ वहां संयुक्ताक्षर कॆ प्रथम अंक कॊ लॆना चाहियॆ॥99॥।

अकाराद्याः स्वराः पञ्च ब्रह्माद्याः पञ्चदॆवताः । निवृत्ताद्याः कलाः पञ्च इच्छाद्या शक्तिपञ्चकम ॥ 1 0 0॥

अकारादि पांच स्वरॊं कॆ ब्रह्मा आदि (ब्रह्मा विष्णु शंकर-गणॆश सूर्य) यॆ दॆवता हैं। निवृत्ति आदि (निवृत्ति, उपॆक्षा, आदान, उपादान, प्रवृत्ति) पांच कलायॆं, इच्छा


_

अथ दशाध्यायः । ।

878 . आदि (इच्छा, राग, द्वॆष, अभिनिवॆश, अहंकार) पांच शक्तियां॥ 100॥।

मायाद्याश्चक्रभॆदाश्च धराद्या भूतपञ्चकम ॥

शकादि विषयास्तॆ च कामवाणा इतीरिताः ॥101॥ । प्रभवादि क्रमॆणैषां स्वराणामश्वरादिकः ॥

उदयॊद्वादशाब्दानां प्रत्यॆकं द्वादशाब्दकाः ॥102॥।

माया आदि (माया, अविद्या, तामिस्र अंधतामिस्र, मॊह) पांच चक्र, धरा आदि (पृथ्वी, जल, तॆल, वायु, आकाश) पांच महाभूत, और  शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, पांच विषय यॆ सभी पञ्चक काम कॆ बाण हैं। इसी प्रकार सॆ प्रभवादि संवत्सर

भी 12 वर्ष भॊग तुल्य पांच स्वरॊं कॆ हॊतॆ हैं। प्रत्यॆक स्वरॊं का 12 वर्ष हॊता । है॥101-102॥

उदाहरण-पुनर्वसु नक्षत्र कॆ प्रथम चरण मॆं जन्म हॊनॆ सॆ नाम का प्रथम अक्षर । ककार है वह चक्र मॆं अकार स्वर कॆ नीचॆ है अतः अकार स्वर सॆ दशा आरम्भ

हॊगा। शॆष चक्र सॆ स्पष्ट है। । अथपंचस्वरचक्रम

पंचस्वरदशीचक्रम अ, इ, उ, ऐ. । ऒ स्वराः । अ, इ, उ, ऎ, ऒ स्वराः

। 12 ।12।12।12।12 वर्ष

बा।

।12।12। वर्ष ।

4 4

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= ऎब ऎ  

फ 6 घ छि ई

घ फ।

6. । वर्षाः

ऒय ॠय्शॆ

।ञ्च = 4

84

इतिपंचस्वरदशा।

अथयॊगिनीदशामाह—मङ्गला पिङ्गला धान्या भ्रामरी भद्रिका तथा । यॊगिन्यष्टौ समाख्याता‌उल्का सिद्धाच संकटा ॥103॥ मङ्गला, पिङ्गला, धान्या, भ्रमरी, भद्रिका, उल्का, सिद्धा, संकटा, यॆ आठ यॊगिनी हॊती हैं॥103॥

पिङ्गलातॊ भवॆत्सूर्यॊ मङ्गलातॊं निशाकरः ॥

भ्रामरीतॊ भवॆद्भौमॊ भद्रिकातॊ बुधस्तथा ॥104॥


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422 :

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । पिङ्गला सॆ सूर्य, मङ्गला सॆ चन्द्रमा, भ्रामरी सॆ भीम, भद्रिका सॆ बुध॥ 104॥

धॆन्युकातॊ गुरुरभुत्सिद्धातः कविसम्भवः ॥ उल्कातॊ भानुतनथः संकटातस्तमॊऽभवत ॥ 105॥

धान्या सॆ गुरु, सिद्धा सॆ शुक्र, उल्का सॆ शनि और  संकटा सॆ राहु हुयॆ । हैं॥1051॥

स्व शिखिना संयुक्तं वसुभिर्भागमाह—रॆत । शॆषॆण यॊगिनी ज्ञॆया शुत्यपातॆन संकटा ॥10 6॥।

जन्म नक्षत्र मॆं 3 जॊडकर 8 सॆ भाग दॆनॆ सॆ ऎकादि शॆष सॆ यॊगिनी की। जानना शून्य शॆष बचॆ तॊ संकटा हॊती है॥ 106॥।

ऎकाभिवृध्या वर्षाणि मङ्गला प्रमुखासुच । । भुक्तं भॊग्यं च संसाध्यं पुरावणकॊत्तमैः ॥ 107॥

इनका दशा वर्ष 1 सॆ आरम्भ कर ऎक वृद्धि करनॆ सॆ क्रम सॆ 1, 2, 3, । 4, 5, 6, 7, 8 वर्ष हॊता है। इनका भुक्त भॊग्य पूर्ववत साधन करना

चाहियॆ॥107॥

. उदाहरण-जन्मनक्षत्रं पुनर्वसु की संख्या 7 इसमॆं 3 और  जॊडनॆ सॆ 10 .. हु‌आ इसमॆं 8 का भाग दॆनॆ सॆ 2 शॆष रहा अतः पिङ्गला सॆ दशा का आरम्भ हु‌आ।

इसका मुंक्त भॊग्य पूर्ववत भुयात भभॊग द्वारा निकालनॆ सॆ भुक्त वर्षादि 0, 4,

 16, 21, 19 हु‌आ।

अथ यॊगिनीदशाचक्रम - पि. । धा. । भा. भ. उ. सिं.[ सं. । मं. । यॊ. ।

31.

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इतियॊगीनीदशा।


अथ दशाध्यायः ।

423 । अथ पिंडांशादिदशामाह—पैंड्यांशनैसर्गिकदशामायुः परिचिंतयॆत । ।

 तथाह्यष्टकवर्गॆ च विजानीहि द्विजॊत्तम ॥108॥ पिंडायु, अंशायु नैसर्गिकायु और  अष्टकवर्गायु पर सॆ इनकॆ दशा कॊ लान।

चाहियॆ॥108॥।

अथ सन्ध्यादशामाह—परमायुर्दादशांशाः स्फुटं सन्ध्याभवॆत्ततः । .

स्वलग्नाधिपतॆरादौ क्रमॆणान्यग्रहॆषु च ॥109॥ । परमायु 120 का 12 वां भाग सन्ध्या हॊता है उसी कॆ तुल्य पहलॆ लग्नॆश की दशा इसकॆ बाद क्रम सॆ अन्य ग्रहॊं की दशा उतनॆ ही वर्ष की हॊती है॥109॥

उदाहरण-परमायु 120 का 12 वां भाग 10 वर्ष यह लग्नॆश शनि की दशा हु‌ई इसी कॆ तुल्य सभी सूर्य, चन्द्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र, राहु और  कॆतु

की दशा हॊगी।

सन्ध्यादशीचक्रम्श. रा. कॆ. सू. चं. । मं. । बु. । बृ. । शु. [ ग्रह । । 10 ।10।10। 10 । 10 । 10 । 10 । 10 । 10 वर्ष ऒ13318343 23 श ऒ 13

3 8छ

फ्छ

। अथ पाचकदशामाह—सन्ध्या रसगुणा कार्या चन्द्रवह्निहृता फलम । संस्थाप्य प्रथमॆ कॊष्ठॆ ह्यर्धमर्धत्रिकॊष्ठकॆ ॥ 110॥

सन्ध्या कॊ 6 सॆ गुणाकर गुणनफल मॆं 31 का भाग दॆनॆ सॆ जॊ वर्षादि फल मिलॆ उसॆ प्रथम कॊष्ठ मॆं लिखॆ। इसकॆ आधॆ कॊ अगलॆ तीन कॊष्ठॊं मॆं लिखॆ॥110॥

त्रिभागं वसुकॊष्ठॆषु लिखॆद्विद्वन्प्रयत्नतः ।

ऎवं द्वादशभावॆषु पाचकानि प्रकल्पयॆत ॥ 111॥ . फिर लब्ध कॆ तीसरॆ भाग कॊ आगॆ कॆ आठ कॊष्ठॊं मॆं लिखनॆ सॆ 12 भावॊं की पाचक दशा हॊती है॥ 111॥।


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878

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । उदाहरण-संध्या का दशा वर्ष 10 इसकॊ 6 सॆ गुणा किया तॊ 6 हुयॆ इसमॆं 31 सॆ भाग दॆनॆ सॆ वर्षादि 1, 11, 6, 46, 27 हु‌आ इसॆ पह । मॆं रखकर इसका आधा 0, 11, 18, 23, 13 आगॆ कॆ तीन कॊष्ठी मॆं रख . दिया इसकॆ बांद लब्ध (1, 11, 6, 46, 27) का तीसरा भाग 0, 7, 22,

15, 29 कॊ शॆष 8 कॊष्ठॊं मॆं रखनॆ सॆ 12 भावॊं कॆ पाचक दशा चक्र हॊता

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369

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पाचकदशीचक्रम - । 1 । 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 भावाः

डॊ ऒलॊ‌ऒ ऒ‌ऒ‌ऒ 881381111111

चॆचॆच 23232323122122132127 1232332484184184184124

183193203 क्स 123 ऒ 2033184282412412512012012 ऒ3

 8छ 17443103124125

328 831138 ख्श2छ14313780 144182 । 7 128क्ब्प्स 300 384 383

इतिपाचकदशा।

अथ नवांशकनवदशामाह—?अथ राशिक्रमं वक्ष्यॆ शृणुष्व द्विजपुङ्गव ।

ग्रहॆ राश्यादिकं चाल्पॆ दशा तस्यादिमाभवॆत ॥ 112॥ । हॆ द्विजपुङ्गव! अब मैं राशियॊं कॆ क्रम कॊ कहता हूँ, ग्रहॊं मॆं जिस ग्रह का राश्यादि सभी ग्रहॊं सॆ अल्प हॊ उसकी प्रथम दशा॥112॥

ततस्तदधिकस्यैवं तुल्यॆ नैसर्गिकाद्वलात । राशीशात्सप्तमांगॆशाच्चिन्त्या राशिक्रमाद्दशा ॥ 113॥

इसकॆ बाद उससॆ अधिक अंशादि की फिर इससॆ अधिक अंशादि वालॆ की इसी भाव सॆ 9 ग्रहॊं की दशा हॊती है॥113॥

यस्मिन्नवांशकस्थॆऽङ्गॆ दशा तस्यादिमा मता । अग्रादब्जाच्च यॆखॆटाः कॆत्वंताः संस्थिताः क्रमात ॥ 114॥

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अथ दशाध्यायः । यह प्रथम प्रकार हु‌आ। इसकॆ बाद सभी ग्रहॊं मॆं जॊ सबसॆ अधिक अंशवाला उसकी प्रथम दशा इसकॆ बा’ इससॆ न्युनांश की इसी क्रम सॆ नवॊं ग्रहॊं की दशा हॊता है। यह दूसरा प्रकार है। सभी ग्रहॊं मॆं नैसर्गिक वल मॆं न्यन बलवालॆ की प्रथम दशा इसकॆ बाद इससॆ अधिक बलवालॆ की इसी क्रम सॆ सभी ग्रहॊं की दशा लिखना। यह तीसरा प्रकार हु‌आ। जन्म राशश सॆ दशा का आरम्भ करना। यहां दशा वर्ष 9 वर्षक ही सबका हॊता है। यह चौथा प्रकार हैं। लग्न सॆ सप्तमॆश कॆ राशि सॆ दशा का आरम्भकरना, यह पांचवां प्रकार है। इसी प्रकार लग्नॆश का प्रथम, द्वितीयॆश का दूसरा इसी क्रम सॆ सभी भावॊं कॆ राशीशॊं कॆ राशि सॆ दशा लिखना यह छठां प्रकार हैं। जिस नवांश मॆं लग्न हैं उस नवांश कॆ स्वामी सॆ दशा का आरम्भ करना यह सातवां प्रकार है। अंतिम नवांश कॆ स्वामी सॆ क्रमशः ग्रहॊं का दशा आरम्भ करना, ’यह आठवां प्रकार है। चन्द्रमा सॆ आरम्भ कर रवि पर्यन्त सभी ग्रहॊं कॆ दशा कॊ लिखना, यह नवां प्रकार है॥114॥।

दशामानं प्रवक्ष्यादि यथॊक्तं ब्रह्मणापुरा । लिप्तीकृत्वा ग्रहं व्यॊमखाश्विभिभजितॆ फलम ॥115॥ ग्रहॊं की कला बनाकर 200 का भाग दॆनॆ सॆ जॊ फल मिलॆ॥115॥

पुनः सूर्यॆ हृतॆ लब्धं समाद्यांशकला दशा । सर्वॆषां मानवानां च दशास्त्वॆता विचिंतयॆत ॥116॥। उसमॆं 12 सॆ भाग दॆनॆ सॆ वर्षादि लब्ध हॊगा वही दशा का मान हॊता

आस

है॥116॥।

इतिनवांशनवदशा।

अथ राश्यंशकदशामाह—तन्वादिभावाः संस्पष्टाः प्रॊक्तमार्गॆणचानयॆत । . लग्नॆशसंस्थितॊ यत्र दशास्तस्यादिमॊ स्मृताः ॥117॥

लग्नादि द्वादशभावॊं कॊ स्पष्ट करनॆ लग्न और  लग्नॆश मॆं जॊ बली हॊ उसकॆ , नवांश राशि की प्रथम दशा॥117॥

द्वितीयॆशादितश्चाग्रॆ ज्ञॆया राश्ययंशका दशा ॥ चिन्त्या लग्नॆ बलवती लग्नॆशॆ वा बलान्वितॆ ॥ 118॥

इसकॆ द्वितीयादि भावॊं कॆ स्वामियॊं कॆ नवांश राशि की दशा हॊती है॥118॥

. इति राप्रयंकट,

’ इति राश्यंशकदशा।


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सः

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426, , , वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

। अथ नक्षत्रदशामाह—नक्षत्रायुर्महाप्राज्ञ पूर्णमग्रॆ प्रभाषितम ॥ विंशॊत्तरी पंचधा द्विधा चाष्टॊत्तरी मता ॥ 11 , नक्षत्रायु कॆ अनुसार 5 प्रकार की विंशॊत्तरी दशा और  दॊ प्रकार की शारी दशा कहा गया है॥119॥।

अष्टवर्गॊपरि दशा सर्वॆषां चिंतयॆदिद्वज ॥ ततॊ निर्याणमालॆख्यं निर्विशंकं भविष्यति ॥12॥

इन सभी का फल अठक वर्ग कॆ ऊपर विचार कर निर्याण दशा कॊ लिखना यहीं नक्षत्र दशा हॊगी॥120॥

वलावलविवॆकॆन फलं ज्ञॆयं दशासुच । विपरीतं फलं वाच्यं खॆटॆ वक्रगतॆ सदा ॥121॥

ग्रहॊं कॆ बल और  निर्वलता कॆ अनुसार ही दशा का फल कहना चाहियॆ यदि ग्रह बक्री हॊ तॊ विपरीत (वली ग्रह मॆं अशुभ और  दुर्बल मॆं शुभ) फल कहना चाहियॆ॥121॥

 आदिद्रॆष्कॆ स्थितॆ खॆटॆ दशारम्भॆ फलं वदॆत ॥

दशामध्यॆ फलं वाच्यं मध्यद्रॆष्काणकॆ स्थितॆ ॥ 122॥ :: यदि दशॆश प्रथम द्रॆष्काशा मॆं हॊ तॊ अपना शुभ अशुभ फल दशा कॆ आरम्भ मॆं दूसरॆ दॆष्कारा मॆं हॊ तॊ दशा कॆ मध्य मॆं॥ 122॥।

अन्तॆ फलं तृतीयस्थॆ व्यस्तं खॆटॆ च वक्रिणि । इति तॆ कथिता विप्र दशाभॆदा अनॆकशः । यस्मै कस्मै न दातव्यं ज्ञानमॆतत्सुदुर्लभम ॥123॥।

और  तीसरॆ द्रॆष्काण मॆं हॊ तॊ दशा कॆ अंत मॆं अपनॆ फल कॊ दॆता है। यदि ग्रह वक्री हॊ तॊ इससॆ विपरीत फल दॆता हैं। हॆ विप्रः यह अनॆक प्रकार कॆ दशा कॆ भॆदॊं कॊ कहा इस दुर्लभ ज्ञान कॊ जिस किसी कॊ नहीं दॆना चाहियॆ॥ 123॥

इति दशाभॆदाध्यायः। . . अथ दशाफलाध्यायः। ।

तत्रादौ विंशॊत्तरीमतॆन सूर्यमहादशाफलम - . सूर्यॊत्कृष्टदशा करॊति सुतधीप्रज्ञालिकारॊच्छ्य

। ज्ञानार्थागमकीर्तिपौरुषसुखप्राप्तीश्वरानुग्रहात ॥

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3थ दशाफलाध्यायः । । 427 भानॊः पापदशा करॊति विफलॊद्यॊगार्थह्वान्यामया- .

त्राजक्षॊभमहीशकॊपजनकारिष्टाग्निवाधॊदयात ॥1॥ उत्तमवली सूर्य की दशा मॆं पुत्र, बुद्धि, अधिकार, ऊचॆंज्ञान, धन का लाभ, यश, पौरुष, सुख की प्राप्ति हॊती है। सूर्य कॊ निकृष्ट दशा मॆं उद्यॊग मॆं विफलता, द्रव्य की हानि, व्याधि, राजा की अप्रसन्नता सॆ कष्ट, अरिष्ट, अग्नि सॆ भय हॊता। है॥1॥

मूलत्रिकॊणॆ स्वक्षॆत्रं स्वॊच्चॆ वापरमॊच्चकॆ । . कॆन्द्रत्रिकॊणलाभस्थॆ भाग्यकर्माधिपैर्युतॆ ॥2॥

। यदि सूर्य अपनॆ मूलत्रिकॊण राशि, स्वराशि, अपनॆ उच्च वा परमॊच्च मॆं हॊकर कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा ऎकादश भाव मॆं भाग्यॆश कमॆश सॆ युत हॊ॥2॥

बलं सूर्यॆ समायुक्तॆ निजव वलैर्युतॆ ॥ । तस्मिन्दायॆ महासौख्यं धनलाभादिकं शुभम ॥3॥

और  अपनॆ वर्ग मॆं हॊ तॊ इसकॆ दशा मॆं अत्यंत सुख, धन का लाभ आदि शुभ फल हॊता है॥3॥

अत्यंतं राजसन्मानमश्वांदॊल्यादिकं शुभम । सुताधिप समायुक्तॆ पुत्रलाभं च विदंति ॥4॥

पंचमॆश सॆ युत हॊ तॊ राजा सॆ सन्मान घॊडा आदि सवारियॊं का सुख तथा । . पुत्र का लाभ हॊता है॥4॥

धनॆशस्य च संबंधॆ गजातैश्वर्यमादिशॆत । वाहनाधिप सम्बंधॆ वाहनत्रयलाभकृत ॥5॥

धनॆश सॆ युत हॊ तॊ हाथी घॊडा आदि ऐश्वर्य सॆ संपन्न हॊता है। वाहनॆश सॆ युत हॊ तॊ वाहनॊं का लाभ हॊता है॥5॥

नृपालतुष्टिर्वित्ताढ्यः सॆनाधीशः सुखीनरः । वस्त्रवाहनलाभश्च इतिदायॆ रवौवली ॥6॥ तथा राजा की प्रसन्नता सॆ धनी, सॆनाधीश और  सुखी हॊता है॥6॥

नीचॆ षडष्टकॆ रिष्फॆ दुर्बलॆ पापसंयुतॆ ॥ राहु कॆतु समायुक्तॆ दुःस्थानाधिपसंयुतॆ ॥7॥

यदि सूर्य अपनॆ नीच राशि मॆं 6, 8, 12 भाव मॆं हॊ दुर्बल हॊ पापग्रह सॆ युत हॊ वा राहु कॆतु सॆ युक्त हॊ वा 6, 8, 12 वॆं भावॊं कॆ स्वामी सॆ यॆ हॊ तॊ॥7॥

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--शॆळ्श

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । तस्मिन्दायॆ महापीडा धनधान्य विनाशकृत ॥ - राजकॊपं प्रवास चॆ राजदंडाद्धनक्षयम ॥8॥ , उसकी दशा मॆं महापीडा, धन, धान्यकी हानि राजकॊप, विदॆश यात्रा, राजदंड

सॆ धन की हानि॥8॥

ज्वरपीडा यशॊहानिर्वन्धुमित्र विरॊधकृत ॥ प्रवास रॊगविद्वॆषं ह्यपमृत्युभयं भवॆत ॥9॥

ज्वर, यश की हानि, बन्धु‌ऒं मित्रॊं सॆ विरॊध, प्रवास, रॊग, शत्रुता अकाल मृत्यु का भय॥9॥

चौराहिब्रणभीतिश्च ज्वरवाधा भविष्यति । । पितृक्षयभय चैव गृहॆ त्वशुभमॆव च ॥10॥ । चौर का भय, घॊडा आदि का भय, पिता कॊ अरिष्ट, चाचा आदि सॆ मन मॆं संताप, लॊगॊं सॆ द्वॆष हॊता हैं॥10॥।

पितृवर्गॆ मनस्तापं : जनद्वॆषं च विंदति । शुभदृष्टि युतॆ सूर्यॆ मध्यॆ तस्मिन्क्वचित्सुखम ।

पापग्रहॆण संदृष्टॆ वदॆत्पापफलं नरः ॥11॥ । सूर्य शुभ दृष्ट हॊ तॊ मध्य मॆं शुभफल भी हॊता है और  पापदृष्ट हॊ तॊ पापफल । ही हॊता है॥11॥।

" इति रविदशाफलम।

अथ चन्द्रदशाफलम - चन्द्रॊत्कृष्टदशा करॊति जननीश्रॆयस्तडागादिकं

क्षॆत्रारामगृहासनद्विजवरश्रीशॊभनांदॊलिका । इन्दॊः पापदशान्नहीनकृपणानंतार्थनाशामय

प्रज्ञाहीनजुगुप्सुमातुमरणक्षॊभातिशीतज्वरान ॥12॥

 . चन्द्रमा कॆ उत्तम दशा मॆं माता का सुख, तालाब, खॆत, बगीचा, गृह आसन, ब्राह्मण, लक्ष्मी, यश, सवारी का सुख हॊता है। चन्द्रमा कॆ पापदशा मॆं धन की क्षति, कृपण बुद्धि, धन की हानि, द्रव्य की हानि, माता कॊ कष्ट, शीतज्वर सॆ कष्ट हॊता है ॥12॥।

स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆ चैव कॆन्द्रलाभत्रिकॊणगॆ । .. शुभग्रहॆण संयुक्तॆ वृद्धिचन्द्रॆवलैर्युतॆ ॥13॥

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अथ दशाफलाध्यायः ॥

8 । यदि चन्द्रमा अपनॆ उच्चराशि मॆं हॊकर कॆन्द्र व त्रिकॊण मॆं हॊ शुभग्रह सॆ

युक्त शुक्लपक्षीय चन्द्र हॊ और  बली हॊ॥13॥

कर्मभाग्याधिपॆ चन्द्रसुखॆशॆन वलैर्युतॆ । । आद्यन्तैश्चॊरुभाग्यॆन धन धान्यादिलाभकृत ॥14॥

कम~ऎश वा भाग्यॆश हॊ और  बली चौथॆ भाव कॆ स्वामी सॆ युत हॊ तॊ प्रथम अवस्था और  अन्तिम अवस्था मॆं अत्यंत भाग्यॊदय, धन, का लाभ हॊता है॥14॥

गृहॆ तु शुभकार्याणि वाहनं राजदर्शनम । यत्नकार्यार्थसिद्धिःस्यागृहॆ लक्ष्मीकटाक्षकृत ॥15॥

गृह मॆं शुभकार्य हॊतॆ हैं, वाहन का लाभ, राजा का दर्शन, यत्न, कार्य और  घन की सिद्धि, गृह मॆं लक्ष्मी की प्रसन्नता॥15॥

मित्रप्रभुवशाद्भाग्यं राज्यलाभं महत्सुखम ॥

अश्वांदॊल्यादिलाभं च श्वॆतवस्त्रादिलाभकृत ॥16॥ मित्र और  स्वामी कॆ द्वारा भाग्यॊदय राज्यसुख का लाभ, अश्व, सवारी का लाभ, सफॆदवस्त्र का लाभ॥16॥।

पुत्रलाभादिसंतॊषं गृहगॊधनसंकुलम ।

धनस्थानगतॆ चन्द्रॆ तुंगॆ स्वक्षॆत्रगॆऽपि वा ॥17॥. । पुत्रलाभ, गौ‌ऒं की वृद्धि हॊती है। यदि चन्द्रमा अपनॆ उच्च वा अपनी राशि का हॊकर दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ॥17॥

अनॆकधनलाभंच भाग्यवृद्धिर्महत्सुखम ।

 निक्षॆपराजसन्मानं विद्यालाभं च विंदति ॥18॥

अनॆक प्रकार कॆ धन का लाभ, भाग्यॊदय और  अत्यंत सुख, राजा सॆ सम्मान और  विद्या का लाभ हॊता है ॥18॥

नीचॆ वा क्षीणचन्द्रॆ वा धनहानिर्भविष्यति । दुश्चिक्यॆ बलसंयुक्तॆ क्वचित्सौख्यं क्वचिद्धनम॥19॥। दुर्बलॆ पापसंयुक्तॆ दॆहजाड्यं मनॊरुजम ।

 भृत्यपीडा वित्तहानिर्मातृवर्गजनाद्वधः ॥20॥ - यदि चन्द्रमा नीच राशि मॆं हॊ वा क्षीण हॊ तॊ धन की हानि हॊती है। यदि तीसरॆ स्थान मॆं चन्द्रमा, बली हॊ तॊ कभी सुख और  कभी धन का लाभ हॊता है॥20॥


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430. वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । धष्टाष्ठमव्ययॆ चन्द्रॆ दुर्बलॆ पापसंयुतॆ ।

" राजद्वॆषॊ मनॊदुःखं धनधान्यादिनाशनम ॥21॥ . यदि चन्द्रमा दुर्बल और  पापयुक्त हॊ तॊ दॆह मॆं जडता और  मानसिक दु:ख हॊता है। नौकर कॊ कष्ट, धन की हानि, माता कॊ कष्ट हॊता है॥21॥ ... मातृक्लॆशं मनस्तापं दॆहजाड्यं मनॊरुजम । .दुस्थॆ चन्द्रॆवलैर्युक्तॆ क्वचिल्लाभं क्वाचित्सुखम॥ 22॥

यदि दुर्बल चन्द्रमा 6, 8, 12 भाव मॆं पापयुक्त हॊ तॊ राजा सॆ द्वॆष, मानसिक दुःख, धन, धान्य का नाश॥22॥

माता कॊ कष्ट, मन मॆं संताप, दॆह मॆं जडता हॊती है। दु:स्थान मॆं चन्द्रमा बली हॊ तॊ कभी लाभ और  कभी सुख हॊता हैं॥22॥।

। इति चन्द्रदशाफलम।

। अथ भौमदशाफलम्परमॊच्चगतॆ भौमॆ स्वॊच्चॆ मूलत्रिकॊणगॆ । स्वनॆं कॆन्द्रत्रिकॊणॆ वा लाभॆ वा धनगॆऽपि वा ॥ 23॥।

मंगल परमॊच्च मॆं वा उच्च मॆं अथवा मूलत्रिकॊण मॆं वा अपनी राशि मॆं हॊकर कॆन्द्र त्रिकॊण मॆं वा ऎकादश वा धन भाव मॆं॥23॥।

सम्पूर्णबल संयुक्तॆ शुभदृष्टॆ शुभांशकॆ । ।:: राज्यलाभं भूमिलाभं धनधान्यादिलाभकृत ॥24॥

. पूर्ण बली हॊ शुभग्रह सॆ युत दृष्ट हॊ और  शुभग्रह कॆ नवांश मॆं हॊ तॊ राज्य लाभ, भुमि लाम, धन, धान्यादि का लाभ हॊता हैं॥24॥।

आधिक्यं राजसन्मानं वाहनाम्बरभूषणम । विदॆशॆ स्थानलाभं च सॊदराणां सुखं लभॆत ॥25॥ । राजसन्मान मॆं वृद्धि, वाहन, वस्त्र, आभूषण का लाभ हॊता है। विदॆश मॆं । स्थान का लाभ और  भा‌इयॊं सॆ सुख हॊता है॥25॥।

कॆन्द्रं गतॆ सदा भौमॆ दुश्चिक्यॆ बलसंयुतॆ । । . पराक्रमाद्वित्तलाभॊ युद्धॆ शत्रुक्षयॊ भवॆत ॥ 26॥ ’ . यदि बली भौम कॆन्द्र मॆं वा तीसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ पराक्रम सॆ धन का लाभ

और  युद्ध मॆं विजय हॊती है शत्रु‌ऒं का नाश हॊता है॥26॥

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अथ दशाफलाध्यायः ॥ कलत्रपुत्रविभवं राजसन्मानमॆव च ॥

 दशादौ सुखमाप्नॊति दशांतॆ कष्टमादिशॆत ॥27॥ । स्त्री, पुत्र, धन का लाभ, राजा सॆ सम्मान की प्राप्ति हॊती हैं। दशा कॆ आदि

मॆं सुख का लाभ और  दशा कॆ अंत मॆं कष्ट हॊता है॥27॥ .

नीचादिदुःस्थगॆ भौमॆ शुभवलविवर्जितॆ ॥ । पापयुक्तॆ पापदृष्टॆ, सा दशा नॆष्टदायिका ॥28॥ । मंगल नीच मॆं दुष्टस्थान (6, 8, 12) मॆं हॊ शुभग्रह कॆ सम्पर्क सॆ रहित

हॊ, पापयुक्त, पाप दृष्ट हॊ तॊ भौम की दशा कष्टप्रद हॊती है॥28॥

इति‌औमदशाफलम।

अथ राहुदशाफलम - राहॊश्च वृषभं कॆतॊवृश्चिकं तुङ्गसंज्ञकम । ’ मूलत्रिकॊण कर्क च युग्मचापं तथैव च ॥29॥

राहु का वृष और  कॆतु का वृश्चिक राशि उच्च राशि है। राहु का कर्क और  कॆतु का मिथुन धन राशि मूल त्रिकॊण है॥29॥

कन्या च स्वगृहं प्रॊक्तं मीनं च स्वगृहस्मृतम । तद्दायॆ बहुसौख्यं च धनधान्यादिसम्पदाम ॥30॥

राहु का कन्या और  कॆतु का मीन स्वराशि है। स्वगृहादि मॆं स्थित राहु की दशा मॆं अनॆक सुख, धन, धान्य आदि संपत्ति का लाभ हॊता है॥30॥

मित्रप्रभुवशादिष्टं वाहनं पुत्रसम्भवः । । नूतनगृहनिर्माणं धर्मचिन्ता महॊत्सवः ॥31॥ मित्र और  स्वामी सॆ इष्ट सिद्धि, वाहन का सुख पुत्र का लाभ, नयॆ नयॆ मकान का निर्माण, धार्मिक कार्य हॊता है॥31॥।

विदॆशॆ राजसन्मानं वस्त्रालंकार भूषणम । । शुभयुक्तॆ शुभैदृष्टॆ यॊगकारकसंयुतॆ ॥32॥ विदॆश यात्रा और  राजा सॆ सम्मान की प्राप्ति वस्त्र आभूषण का लाभ॥32॥

कॆन्द्रत्रिकॊणलाभॆ वा टुश्चिक्यॆ शुभराशिगॆ । महाराजप्रसादॆन सर्वसम्पत्सुखावहम ॥33॥


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432 . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

यदि राहु शुभग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ वा शुभयुक्त हॊ यॊग कारक ग्रह सॆ दॆख जाता है कॆन्द्र त्रिकॊण मॆं वा क्रूर भाव मॆं हॊ तॊ राजा की कृपा सॆ सभी प्रकार कॆ

सुखॊं की प्राप्ति॥33॥। - यवनप्रभुसन्मानं गृहॆ कल्याणसम्भवम ।

रन्ध्र वा व्ययगॆ राहौ तद्दायॆ कष्टमालभॆत ॥ 34॥

म्लॆक्ष फ्जा सॆ सम्मान और  गृह मॆं सुख का प्रादुर्भाव हॊता हैं। यदि राहु आठवॆं वा बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ उसकॆ दशा मॆं कष्ट की प्राप्ति हॊती है॥34॥।

पापग्रहॆण सम्बन्धॆ मारकग्रह संयुतॆ । नीचराशिगतॆ वापि स्थानभ्रंशं मनॊरुजम ॥ 35॥ ’पापग्रह सॆ सम्बंध करता हॊ और  मारकॆश सॆ युक्त हॊ वा नीचाशि मॆं गया

सॆ तॊ स्थान प्रष्ट और  मानसिक कष्ट हॊता है।135॥ हैं, " विनश्यॆद्दारपुत्राणां कुत्सितानां च भॊजनम ।

दशादौ दॆहपीडा च धनधान्य परिच्युतिः ॥ 36॥

स्त्री पुत्र कॆ सुख की हानि, खराब भॊजन मिलता है। दशा कॆ आरम्भ मॆं शरीर मॆं पीडा, धन, धान्य की हानि॥36॥।

दशामध्यॆच सौख्यं स्यात्स्वदॆशॆ धनलाभकृत ।

दशान्तॆ कष्टमाप्नॊति स्थानभ्रंशॊ मनॊव्यथा ॥ 37॥ । दशा कॆ मध्य मॆं सुख और  स्वॆदश मॆं धन का लाभ हॊता है। दशा कॆ अन्त मॆं कष्ट, स्थानच्युति और  मानसिक कष्ट हॊता है॥37॥


। इतिं राहुदशाफलम।

अथ गुरुदशाफलम - स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆ जीवॆ कॆन्द्रॆ लाभत्रिकॊणगॆ । मूलत्रिकॊणलाभॆ वा तुङ्गांशॆ स्वांशगॆऽपि वा ॥ 38॥

यदि गुरु अपनॆ उच्चराशि मॆं, अपनॆ, राशि मॆं कॆन्द्र, लाभ वा त्रिकॊण मॆं, अपनॆ मूलत्रिकॊण राशि मॆं, उच्चांश मॆं वा अपनॆ नवांश मॆं हॊ॥38॥

राज्यलाभं महत्सौख्यं राजसन्मानकीर्तनम । गजवाजिसमायुक्तं दॆवब्राह्मणपूजनम ॥39॥।

तॊ उसकी दशा मॆं राज्य का लाभ, सुख, राजा सॆ सम्मान और  कीर्ति हाथी घॊडॆ का सुख, दॆवता ब्राह्मण का पूजन॥39 ॥

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अथ दशाफलाघ्यायः ॥ . दारपुत्रादि सौख्यं च वाहनाम्बरलाभदम । यज्ञादिकर्मसिद्धिः स्याद्वॆदान्तश्रवणादिकम ॥40॥। यज्ञ आदि कार्यॊं की सिद्धि, वॆदादि का श्रवण कीर्तन॥40॥

महाराज प्रसादॆन इष्टसिद्धिः सुखावहा ।

आंदॊलिकादिलाभश्च कल्याणं च महत्सुखम ॥41॥ राजा की प्रसन्नता सॆ इष्ट सिद्धि और  सुख का लाभ, सवारी का लाभ कल्याण और  सुख॥41 ॥।

पुत्रदारादिलाभश्च अन्नदानं महत्प्रियम । नीचास्तपापसंयुक्तॆ जावॆ रिष्फाष्टसंयुतॆ ॥42॥ । पुत्र स्त्री का लाभ और  अन्नदान आदि कर्म हॊतॆ हैं। यदि गुरु नीच राशि मॆं, अस्तंगत, पापयुक्त और  6, 8, 12 भाव मॆं हॊ तॊ॥42॥

स्थानभ्रंश मनस्तापं पुत्रपीडा महद्भयम ॥ पश्वादिधनहानिश्च तीर्थयात्रादिकं लभॆत ॥43॥

स्थान भ्रष्ट, मन मॆं संताप, पुत्र कॊ पीडा भय, पशु आदि की हानि तीर्थयात्रा । आदि हॊती है॥43॥

आदौ कष्टफलं चैव चतुष्पाञ्जीव लाभकृत । मध्यान्तॆ सुखमाप्नॊति राजसन्मान वैभवम ॥44॥

दशा कॆ आदि मॆं कष्ट चतुष्पद आदि का लाभ, और  मध्य तथा अंत्य मॆं सुख राजा सॆ सन्मान की प्राप्ति हॊती है॥44॥

इति गुरुदशाफलम।

। अथ शनिदशाफलम - स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆ मन्दॆ मित्रक्षॆत्रॆऽथवा यदि । मूलत्रिकॊणॆ भाग्यॆ वा तुङ्गांशॆस्वांशगॆऽपिवा ॥45॥।

यदि शनि अपनी उच्च राशि, अपनी राशि, मित्र की राशि, अपनी मूलत्रिकॊण राशि, भाग्यभावं, अपनॆ उच्चांश मॆं, अपनॆ नवांश मॆं॥45॥..

 दुश्चियॆ लाभगॆ चैव राजसन्मानवैभवम । । सत्कीर्तिर्धनलाभश्च विद्यावादविनॊदकृत ॥46॥।

तीसरॆ वा लाभ भाव मॆं हॊ तॊ राजा सॆ सम्मान और  वैभव का लाभ, कीर्ति, धन का लाभ, विद्या का विनॊद॥46॥

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

 महाराजप्रसादॆन गजवाहनभूषणम ।

: राजयॊगं प्रकुर्वीत सॆनाधीशान्महत्सुखम ॥47॥

राजा की प्रसन्नता सॆ हाथी आदि वाहन का सुख, आभूषण का लाभ, राजयॊग, सॆनाधीश हॊनॆ सॆ सुख॥47॥

लक्ष्मीकटाक्षचिन्हानि राज्यलाभं करॊति च ॥ ... गृहॆ कल्याणसम्पत्तिदरपुत्रादिलाभकृत ॥48॥

। लक्ष्मी की प्रसन्नता सॆ राज का लाभ, गृह मॆं कल्याण, सम्पत्ति का लाभ,

स्त्री पुत्रादि का सुख हॊता है॥48॥ । वष्ठाष्टमव्ययॆ मंदॆ नीचॆवास्तङ्गतॆऽपि वा । ।.., विषशस्त्रादिपीडा च स्थानभ्रंशं महद्भयम ॥49॥

यदि शनि 6, 8, 12 भाव मॆं हॊ नीच राशि मॆं वा अस्तंगत हॊ तॊ विष, शस्त्र आदि सॆ पीडा हॊती हैं, स्थानच्युति और  भय हॊता है॥49॥।

पितृमातृवियॊणॆ. च दारपुत्रादिपीडनम । । राजवैषम्य कार्याणि ह्यनिष्टं बंधनं तथा ॥50 ॥

पिता माता सॆ वियॊग; स्त्री पुत्र आदि कॊ पीडा, राज कॆ विलॊम कार्य अनिष्ट ‘और  बंधन हॊता है।50 ॥।

’शुभयुक्तॆक्षितॆ मंदॆ यॊगकारक संयुतॆ ।

कॆन्द्रत्रिकॊणलाभॆ वा मीनगॆ कार्मुकॆ शनौ ॥51 ॥

शनि शुभग्रह सॆ युत हॊ कॆन्द्र त्रिकॊण का लाभ भाव मॆं हॊ मीन वा धन राशि मॆं हॊ तॊ॥51॥

राज्यलाभं महॊत्साहं गजाश्वाम्बरसंकुलम ॥2॥ राज्य लाभ, उत्साह हाथी तथा प्रभूत वस्त्रादि का लाभ हॊता है॥52॥। । इति शनिदशाफलम।

अथ बुधदशाफलम - स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रसंयुक्तॆ कॆन्द्रलाभत्रिकॊणगॆ । ’मित्रक्षॆत्रसमायुक्तॆ सौम्यदायॆ महत्सुखम ॥53 ॥

बुद्ध अपनी उच्चराशि अपनी राशि मॆं हॊ, कॆतु त्रिकॊण मॆं, मित्र की राशि मॆं हॊ तॊ इसकी दशा मॆं अत्यन्त सुख॥53॥

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अथ दशाफलाध्यायः । धनधान्यादिलाभश्च सत्कीर्तिधनसम्पदाम ॥ ज्ञानाधिक्यं नृपप्रीति सत्कर्मगुणवर्धनम ॥54॥

धन, धान्य आदि का लाभ, कीर्ति, धन सम्पत्ति की वृद्धि, ज्ञान की वृद्धि, राजा सॆ प्रीति, अच्छॆ कर्म और  गुण मॆं वृद्धि ॥54॥

पुत्रदारादिसौख्यंच दॆहारॊग्यं महत्सुखम ॥

क्षीरॆण भॊजनं सौख्यं व्यापारॆण धनागमम ॥55 ॥ । पुत्र-स्त्री का सुख, शरीर की आरॊग्यता, सुख, दूध का भॊजन, सुख व्यापार सॆ लाभ हॊता है॥... ॥ ।

शुभदृष्टियुतॆ सौम्यॆ भाग्यॆ कर्माधिपॆ यदा ॥ - आधिपत्यॆ बलवती सम्पूर्ण फलदायिका ॥56॥

बुध शुभग्रह सॆ दृष्ट युत हॊ, भाग्य स्थान मॆं हॊ, कर्मॆश हॊ तॊ प्रवॆक्ति सभी फल सम्पूर्ण हॊतॆ हैं॥ 6 ॥।

पापग्रहयुतॆदृष्टॆ राजद्वॆषं मनॊरुजम ।

वन्धुजन विरॊधं च विदॆशगमनं तथा ॥ 57॥।

बुध पापग्रह सॆ युत दृष्ट हॊ तॊ राजा सॆ द्वॆष, मानसिक कष्ट, बन्धु‌ऒं सॆ विरॊध, विदॆशयात्रा॥ 57॥

परप्रॆष्यं च कलह मूत्रकृच्छ्रान्महद्भयम । षष्ठाष्टमव्ययॆ सौम्यॆ लाभभॊगविनाशनम ॥58॥।

दूसरॆ की दासता, कलह मूत्रकृच्छ्र (सुजाक) का भय हॊता है। 3, 8, 12 भाव मॆं बुध हॊ तॊ लाभ आदि की हानि हॊती है। ।58॥।

वातपीडां धनं चैव पाण्डुरॊग तथैव च । नृपचौराग्निभीतिंच कृषिगॊभूमिनाशनम ॥59॥

वात पीडा, पाण्डुरॊग, राजा, चॊर सॆ भय, कृषि, गौ तथा भूमि की हानि हॊती है। । 59 ॥

दशादौ धनधान्यं च विद्यालाभं महत्सुखम । पुन्नकल्याणसम्पत्तिः सन्मार्गॆ धनलाभकृत । मध्यॆ नरॆन्द्रसन्मानंमतॆ दुःखं भविष्यति ॥ 60 ॥

दशा कॆ आदि मॆं धन, धान्य, विद्या का लाभ और  सुख हॊता है। पुत्र प्राप्ति हॊती है सन्मार्ग मॆं धन का व्यय हॊता है। मध्य मॆं राजा सॆ सन्मान का लाभ और  

अंत मॆं दु:ख हॊता है॥ 60 ॥।

इति बुधदशाफलम।


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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

अथ कॆतुदशाफलम - । कॆन्द्रलाभत्रिकॊणॆ वा शुभराशौ शुभॆक्षितॆ ।

। स्त्रॊच्चॆ वा शुभवर्गॆ वा राजप्रीतिंमनॊत्साहम ॥61॥

: कॆतु कॆन्द्र, लाभ, त्रिकॊण मॆं हॊ वा शुभ ग्रह की राशि मॆं शुभ दृष्ट सॆ अथवा अपनॆ उच्च राशि मॆं वा शुभ ग्रह कॆ वर्ग मॆं हॊ तॊ उसकी दशा मॆं राजा सॆ प्रॆम, मन मॆं उत्साह॥61॥

दॆशग्रामाधिपत्यं च वाहनं पुत्रसम्भवम ॥ दॆशान्तरॆप्रयाणं च अन्यदॆशॆ सुखावहम ॥62॥

दॆश ग्राम का आधिपत्य, वाहन, और  पुत्र का लाभ, दॆशान्तर की यात्रा और  वहाँ सुख का लाभ॥62॥

पुत्रदारसुखचैव चतुष्पाज्जीवलाभकृत ॥ .. दुश्चिक्यॆ षष्ठलाभॆ वा कॆतॊदयॆ सुखंभवॆत ॥ 63 ॥

। पुत्र-स्त्री का सुख, चतुष्पद का सुख हॊता है। 3, 6, 11 भाव मॆं कॆतु

 हॊ तॊ इसकी दशा मॆं सुख हॊता है॥63॥

। राज्यं करॊति मित्रांशॆ गजवाजिसमन्वितम ।

दशादौ राजयॊगाश्च दशामध्यॆ महद्भयम ॥ 64॥।

मित्र कॆ अंश मॆं हॊ तॊ राज्य का लाभ और  हाथी घॊडॆ सॆ युक्त हॊता है। । दशा कॆ आरम्भ मॆं राजयॊग का सुख, मध्य मॆं बडा भय॥64॥ । अंतॆ दूराटनं चैव दॆहविश्रवणं तथा ।

धनॆ रंध्रव्ययॆ कॆतौ पापदृष्टियुतॆक्षितॆ ॥ 65 ॥ . और  अंत मॆं दूरयात्रा दॆह पीडा यदि कॆतु 2, 8, 12 भाव हॊ तॊ और  पापग्रह

सॆ दृष्टयुत हॊ तॊ॥65॥ . निगडॆ बन्धुनाशं च स्थानभ्रंशं मनॊरुजम ॥

शूद्रशूद्रादिलाभं च नानारॊगाकुलं भवॆत ॥ 66 ॥

बन्धन, बन्धु‌ऒं की हानि, स्थानच्युति और  मानसिक कष्ट हॊता है। शुद्र द्वारा क्षुद्र लाभ और  अनॆक रॊग सॆ मनुष्य भ्यग्र हॊता है॥66 ॥

इति कॆतुदशाफलम।

। अथ शुक्रदशाफलम। । परमॊच्चगतै शुक्रॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रकॆन्द्रगॆ ।

नृयाभिषॆक सम्प्राप्तिर्वाहनाम्वरभूषणम ॥ 67॥।

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शाळूड

अथ दशाफलाध्यायः ।

अल शक्र परमॊच्च मॆं वा उच्च मॆं वा अपनॆ राशि मॆं कॆन्द्र मॆं हॊ तॊ इसकी दशा मॆं राज्याभिषॆक का लाभ, वाहन, वस्त्र और  आभूषण का लाभ॥67॥।

गजाश्वपशुलाभं च नित्यं मिष्ठान्नभॊजनम ।

अखंडमंडलाधीशराजसन्मानवैभवम ॥68॥ : हाथी घॊडॆ का लाभ, नित्य मिष्टान्न भॊजन, अखंड राज्य का लाभ, राजसम्मान और  वैभव का लाभ॥68॥।

मृदङ्गवाद्ययॊगं च गृहॆलक्ष्मीकटाक्षकृत । त्रिकॊणस्थॆ मीन शुक्रॆ राज्वार्थगृहसम्पदः ॥69॥

मृदङ्ग आदि बाजा का सुख, गृह मॆं लक्ष्मी का वास हॊता हैं यदि मीन राशि मॆं शुक्र त्रिकॊण मॆं हॊ तॊ राज्य धन, गृह, संपत्ति॥69॥।

विवाहॊत्सवकार्याणि पुत्रकल्याणवैभवम ॥

सॆनाधिपत्यं कुरुतॆ इष्टवन्धु समागमम ॥70॥ . विवाहादि उत्सव, पुत्र प्राप्ति, सॆनाधिपत्य और  मित्र, बन्धु‌ऒं का । समागम॥70॥

नष्टराज्याब्द्धनप्राप्तिगृहॆ गॊधनसंग्रहम ॥ षष्ठाष्टमव्ययॆ शक्नॆ नीचॆ वा व्ययराशिगॆ ॥71॥

और  नष्ट राज्य सॆ धन का लाभ और  गॊधन सॆ सुख हॊता है। 6।8।12। भाव मॆं अथवा अपनॆ नीच राशि मॆं वा बारहॆं भाव मॆं शुक हॊ तॊ॥71॥।

आत्मवन्धुजनद्वॆषं दाश्वगदिपीडनम ॥ व्यवसायात्फलं नष्टं गॊमहिष्यादि हानिकृत ॥73॥

उसकी दशा मॆं अपनॆ बन्धु‌ऒं सॆ द्वॆष स्त्री वर्ग सॆ पीडा, व्यवसाय मॆं हानि, , गौ, मैंस आदि कॊ पीडा॥72॥।

दारपुत्रादिपीडा वा आत्मवन्धु वियॊगकृत । भाग्यकर्माधिपत्यॆन लग्नवाहनराशिगॆ ॥73॥

स्त्री पुत्रादि कॊ कष्ट और  आत्मीय लॊगॊं सॆ वियॊग हॊता है। शुक्र भाग्यॆश वा कमॆंश हॊकर लग्न वा चतुर्थ स्थान मॆं हॊ तॊ ॥73 ॥।

. तद्दशायां महत्सौख्यं दॆशग्रामाधिपत्यताम ।

दॆवालयतडागादि पुण्यकर्मसु संग्रहम ॥74॥

। उसकी दशा मॆं बहुत ही सुख, दॆश वा ग्राम का आधिपत्य, दॆवालय तालाब । आदि पुण्य कार्य हॊतॆ हैं॥74॥

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । अन्नदानॆ महसौख्यं नित्यं मिष्ठान्नभॊजनम । उत्साहः कीर्तिसम्पत्ती स्त्रीपुत्रधनसंपदः ॥75॥

अन्नदान, सुख, नित्य मिष्ठान्न का भॊजन, उत्साह, कीर्ति मॆं वृद्धि, संपत्ति, स्त्री,.पुत्र धन का लाभ हॊता है॥75॥। 2. स्चभुक्तौ फलमॆवं स्याद्वलान्यानि भुक्तिषु ॥

द्वितीयद्यूननाथॆतु दॆहपीडा . भविष्यति ॥76॥. । इसी प्रकार अपनॆ अंन्तर मॆं भी फल कॊ दॆता है। शुक्र दूसरॆ, सातवॆं भाव

का स्वामी हॊ तॊ शरीर मॆं पीडा हॊती है॥76॥। । तद्दॊष परिहारार्थ रुद्रं वा त्र्यम्बकं जपॆत ॥

: श्वॆतां गां महिषष्टीं दद्यादारॊग्यं च भविष्यति ॥77॥

। इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ रुद्राभिषॆक वा ऋम्बक मन्त्र का जप करानॆ सॆ रॊगादि निवृत्त हॊ जातॆ है॥77॥ । ।

लग्नॆशस्य दशा वलं वहुधनं वित्तॆशितुः पंचतां कष्टं वॆति सहॊदरालयपतॆः पापंफलं प्रावशः । तुर्यस्वामिनि आलयं किल सुज्ञाधीशस्य विद्यासुखरॊगागारपतॆररातिजभयं. जायापतॆः शॊकंताम ॥ 78॥॥ । लग्नॆश की दशा मॆं बल पौरुष की वृद्धि, धन का लाभ हॊता है, धनॆश की दशा मॆं मृत्यु अथवा कष्ट, तृतीयॆश की दशा मॆं प्रायः कष्ट ही हॊता है। सुखॆश की दशा मॆं गृह सुख, सुतॆश की दशा मॆं विद्या का लाभ। षष्ठॆश की दशा मॆं शत्रुभय, सप्तमॆश की दशा मॆं शॊक॥78॥ . मृत्यु मृत्युपतॆः करॊति नियतं धर्मॆशितुः सल्क्रियाम्वित्तं राजपतॆर्मुपाश्चयमथॊलाभं हिलाभॆशितुः । । रॊगं द्रव्यविनाशनं च वहुधा कष्टं व्ययॆशस्य वै-पूर्वैरङ्गभृतामुदीरितमिदं तन्वादिभावॆशजम ॥79॥

’अष्टमॆश की दशा मॆं राजा कॆ आश्रय सॆ धन का लाभ, लाभॆश की दशा मॆं लाभ और  व्ययॆश की दशा मॆं रॊग द्रव्य की हानि और  अनॆक कष्ट हॊतॆ हैं॥79 ॥

भावाधिपॊ बलयुतॊ निजगॆहंगामी

तुङ्गत्रिकॊण . शुभवर्गगतॊऽपिपूर्णम ।

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- फॆश

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अथ दशाफलाध्यायः ॥

838 जंतॊः फलं खलु करॊति यदारिनीचस्थानस्थितॊऽशुभफलं विबलॊ विशॆषात॥80॥। । यदि भावॆश बली हॊ अपनॆ गृह वा उच्च वा मूलत्रिकॊण मॆं वा शुभग्रह कॆ चर्ग मॆं हॊ तॊ पूर्ण फल दॆता है। यदि शत्रुगृह, नीचराशि मॆं हॊ तॊ अशुभ फल करता है॥80 ॥।

आहुः शुभाशुभफलं नृणां कालविदॊजनाः । । ऎतद्वलं विनिर्मीतमायुषां निश्चयॊ नृणाम ॥81॥।

शुभग्रह यदि शुभद है तॊ शुभ फल दॆता है इस प्रकार दशा कॆ वश आयु का निर्णय करना चाहियॆ॥81 ॥

पंचमॆशयुतस्यापि धर्मॆशस्य दशातुया । । अतीव शुभदा मॊक्ता कालविद्भिर्मुनीश्वरैः ॥8॥ स पंचमॆशस्य तपॊधिपस्य दशा भवॆद्राज्यसुखार्थलाभदा । तथैव मानाधिपसंयुतस्य सुतॆश्वरस्यापि दंशाशुभास्यात ॥3॥ । पंचमॆश सॆ युक्त धर्मॆश की दशा अत्यंत शुभद हॊती है। पंचमॆश सॆ युक्त धर्मॆश की दशा राज्य, सुख, धन का लाभ करती है। उसी प्रकार कर्मॆश सॆ युत पंचमॆश की दशा भी शुभद हॊती है॥83॥।

घष्ठाष्टमव्ययाधीशाः पंचमाधिप संयुताः । तॆषां दशा च शुभदा प्रॊच्यतॆ कालवित्तमैः 1184॥

6।8।12 भाव कॆ स्वामी पंचमॆश सॆ युत हॊं तॊ उनकी दशा शुभद हॊती हैं॥84॥।

सुखॆशॊ मानभावस्थॊ मानॆशॊ सुखराशिगः । । तयॊर्दशां शुभां प्राहुज्यॊतिः शास्त्रविदॊजनाः ॥863 ॥

सुखॆश दशम भाव मॆं हॊ और  कर्मॆश चौथॆ भाव मॆं हॊ तॊ दॊनॊं दशा शुभद हॊती है॥85 ॥ सुतॆशमानॆशसुखॆशधर्मपा ऎकत्र युक्ता यदियन्नकुन्न । तॆषां दशा राज्यफलप्रदा वै तैर्युक्तग्रहाणामपिवै वदॆत्तथा ॥86॥

पंचमॆश, कर्मॆश, सुखॆश, धर्मॆश ऎक ही भाव मॆं हॊ तॊ इनकी दशा राज्य दॆनॆ वाली हॊती है॥86॥

वाहन स्थान संयुक्त, मंत्रनाथदशा शुभा । सुखराशिस्थकर्मॆशदशा राज्यप्रदायिनी ॥7॥

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शॆण्घाश

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ .. चौथॆ भाव मॆं स्थित पंचमॆश की दशा शुभद हॊती है। चौथॆ भाव मॆं बैठॆ हुयॆ

कर्मॆश की दशा राज्यदायिनी हॊती है॥87॥।

ताभ्यां युक्तस्य खॆटस्य दृष्टियुक्तस्य चैतयॊः ॥ । राज्यप्रदां दशां प्राहुर्विद्वांसॊ दैवचिन्तकाः ॥88॥

इन दॊनॊं सॆ युक्त वा दृष्ट ग्रह की दशा भी राज्यदायिनी हॊती है॥88॥

कर्मस्थानस्थ बुद्धीशदशा सम्पत्करी भवॆत ।

मानस्ति तपॊधीश दशा राज्यप्रदायिनी ॥89 ॥ । कर्म भाव मॆं बैठॆ हुयॆ पंचमॆश की दशा सम्पत्ति दॆनॆ वाली हॊती है। दशमस्थित

धर्मॆश की दशा राज्य दॆनॆ वाली हॊती है॥89॥ .. यस्माद्व्ययगतॊयस्तु तद्दशायां धनक्षयम ।

यस्मात्रिकॊणगा पापातत्रात्मशमनाशनम ॥90 ॥. । जिससॆ (भाव सॆ) जॊ बारह स्थान मॆं हॊ उसकॆ दशा मॆं धन की हानि हॊती हैं। जिससॆ त्रिकॊण स्थान मॆं पापग्रह हॊं उसकी दशा मॆं आत्मीय पुरुषार्थ का नाश॥90.॥ ।

पुत्रहानिः पितुः पीडा मनस्तापॊ महान्भवॆत । यस्मात्रिकॊणगाः रिःफरन्ध्रशाकॆंन्दुसूर्यजाः ॥91 ॥

पुत्र की हानि, पिता कॊ पीडा, मन कॊ संताप हॊता है जिससॆ त्रिकॊण मॆं । अष्टमॆश, व्ययॆश और  सूर्य चन्द्रमा शनि हॊं॥91॥ । पुत्रपीडा द्रव्यहानिस्तत्र कॆत्वहि संगमॆ ।

विदॆशभ्रमणं क्लॆशॊ भयं चैव पदॆ पदॆ ॥92॥।

तॊ विदॆश की यात्रा तथा क्लॆश और  कॆतु राहु युत हॊं तॊ पद पदं पर भय हॊता है॥92॥ ॥

यस्मात्यष्ठाष्टमॆ क्रूरनीचखॆटाश्च संस्थिताः । रॊगशत्रुनृपाद्वास्यान्मुहुः पीडासुदुःसहा ॥93 ॥

जिससॆ 3।8 भाव मॆं क्रूरग्रह हॊ नीच आदि स्थानगत ग्रह हॊ तॊ उसकी दशा । मॆं रॊग, शत्रु, राज सॆ दुःसह पीडा हॊती है॥93॥

यस्माच्चतुर्थगः क्रूरः स्याद्भूगृहक्षॆत्रनाशनम ॥ पशुहानिस्तत्र , भौमॆ । गृहदाहप्रमादतः ॥94॥ जिससॆ चौथॆ भाव मॆं क्रूरग्रह हॊ तॊ उसकी दशा मॆं भूमि, गृह, खॆत का नाश

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ऒश्शा

अथ दशाफलाध्यायः । । हॊता है और  पशु की हानि हॊती है। यदि भौम हॊ तॊ प्रमाद सॆ घर जलॆ जाता है॥14॥

शनौ हृदयशूत्वं स्यात्सूर्यॆ राजप्रकॊपनम । . सर्वस्वहरणं राहौ विषचौरादिजंभयम ॥95॥।

चौथॆ शनि हॊ तॊ हृदय मॆं शूल हॊता है। सूर्य हॊ तॊ राजा कॆ कॊप सॆ सर्वस्व नाश और  राहु हॊ तॊ विष तथा चॊर सॆ भय हॊता है॥15॥

यस्माद्दशमभॆ राहुः पुण्यतीर्थाटनं भवॆत । यस्मात्कर्मायभाग्यसँगताः शॊभनखॆचराः ॥96॥ जिससॆ 10 वॆं स्थान मॆं राहु हॊ तॊ उसकी दशा मॆं पुण्यतीर्थॊं का भ्रमण हॊता है। जिससॆ 10, 11, 9 स्थान मॆं शुभ ग्रह गयॆ हॊं उसकी दशा मॆं॥96॥

विद्यार्थधर्मसत्कर्मख्यातिपौरूषसिद्धयः ॥

यतः पंचमकामारिगताः स्वॊच्चॆ शुभग्रहाः ॥17॥।

विद्या, धन, धर्म और  सत्कर्म तथा पुरुषार्थ की सिद्धि हॊती है जिससॆ 5।7.6 स्थान मॆं अपनॆ उच्चराशि मॆं शुभग्रह गयॆ हॊं॥97॥

पुत्रदारादि संप्रातिर्नुपपूजा महत्तरा। यस्मिन्विद्यायकर्माम्बुनवलग्नाधिपाः स्थिताः ॥98॥॥

तॊ उसकी दशा मॆं पुत्र, स्त्री आदि का लाभ और  राज्य सॆ पूजित हॊता . है॥98॥

तत्तद्भावार्थसिद्धिः स्याच्छ्यॊ यॊगानुसारतः ॥ यस्मिन गुरुर्वा शुक्रॊ वा शुभॆशॊवापिसंस्थितः ॥99॥ जिन-जिन भावॊं मॆं 5।11।10।4।9 और  लग्न कॆ स्वामी बैठॆ हॊं। उन‌उन भावॊं कॆ फल मॆं पुष्टता हॊती है तथा यॊगानुसार विशॆष फल भी हॊता है॥99॥

कल्याणॊत्सवसम्पत्तिर्दॆब्राह्मणपूजनम -------

यच्चतुर्थॆ तुङ्गखॆटाः शुभस्वामी ग्रहश्च वा ॥10॥ . जिस भाव मॆं गुरु वा शुक्र वा 9 भावं कॆ स्वामी बैठॆ हॊं तॊ उसकी दशा

मॆं कल्याण, उत्सव, सम्पत्ति, दॆवता और  ब्राह्मण का पूजन हॊता है। जिससॆ चाय

 भाव मॆं कॊ‌ई उच्चराशि का ग्रह हॊ वा शुभ ग्रह हॊ तॊ उसकी दशा मॆं॥100।

वाहनग्रामलाभश्च पशुवृद्धिश्च भूयसी । " तत्र चन्द्रॆष्टलाभः स्याद्वहुधान्यरसान्युतः ॥101॥

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442 ... वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

वाहन, ग्राम का लाभ और  पशु‌ऒं की वृद्धि हॊती है। यदि चन्द्रमा हॊ तॊ इष्ट की सिद्धि और  रसयुक्त धान्य का लाभ हॊता है॥101॥

पूणॆंविधौ निधिप्राप्तिर्लभॆद्वा. मणिसंचयम ।

तंत्र शुक्रॆ ’ मृदङ्गादि वाद्यमान पुरष्कृतः ॥ 102॥। । यदि चन्द्रमा पूर्ण हॊ तौनिधि (गडॆ हुयॆ धन) का नाश वा मणि का लाभ ... हॊता है। यदि शुक्र हॊ तॊ मृदङ्ग आदि बाजॆ का लाभ और  मानपत्र सॆ पुरस्कृत

हॊता है॥102॥।

आंदॊलिकाप्तिर्जीवॆ तु कनकांदॊलिकाध्रुवम ॥ - लग्नकर्मॆशभाग्यॆश तुंङ्गस्थ शुभयॊगतः ॥ 103॥ -: गुरु हॊ तॊ सुवर्ण की पालकी का लाभ हॊता है। लग्नॆश कर्मॆश भाग्यॆश यदि

अपनॆ उच्च राशि मॆं हॊ तॊ शुभ यॊग हॊता है॥103॥।

सर्वॊत्कर्षमहैश्वर्यसाम्राज्यादि महत्फलम । ऎवं तत्तद्भावबलदायफलं यत्स्याद्विचिंतयॆत ॥ ऎकैवॊड्दशा स्वीया गुणैरष्टादशात्मना । भिन्ना फलविपाकस्तु कुर्याद्वैचित्रसंयुतम ॥ 104॥

इसमॆं सभी प्रकार की उन्नति, ऐश्वर्य राज्य आदि का लाभ हॊता है। इसी प्रकार सॆ सभी भावॊं सॆ फल का विचार करना चाहियॆ। ऎक ऎक राशि कॊ वा ग्रह का दशा अपनॆ 18 गुणॊं सॆ भिन्न भिन्न फलॊं कॊ दॆनॆ वाली हॊती हैं॥104॥

, परमॊच्चॆ तुङ्गमात्रॆ तदर्वाक्तदुपर्यपि ।

मूलत्रिकॊणभॆ स्व स्वाधिमित्रग्रहस्यभॆ ॥105॥

वॆ 18 गुण इस प्रकार हैं- परमॊच्च कॆवल उच्च मॆं, इसकॆ पूर्व या आगॆ, मूलत्रिकॊण, स्वराशि अधिमित्र की राशि॥105॥

तत्कालसुहृदॊ गॆहॆ उदासीनस्य भॆ तथा ॥ शत्रॊभॆऽधिरिपॊर्भॆ च नीचान्तादूर्ध्व दॆशभॆ ॥ 10 6॥

तात्कालिक मित्रराशि, सम की राशि शत्रु की राशि, अधिशत्रु की राशि, नीचराशि या उससॆ पूर्व या आगॆ॥106॥

तस्मादर्वाङ नीचमात्रॆ नीचान्तॆ परमांशकॆ । नीचारिवगै सखलॆ स्ववर्गॆ कॆन्द्रकॊणभॆ ॥ 1 0 7॥

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अथ दशाफलाध्यायः ।

783 नीच परमनीच मॆं, नीच वा शत्रुवर्ग मॆं, पापयुक्त, अपनॆ वर्ग मॆं, कॆन्द्रकॊण मॆं॥107॥

. व्यवस्थितस्य खॆटस्य समरॆ पीडितस्य च ॥

गाढमूढस्य च दशापचिति स्वगुणैः फलम ॥ 108॥

 युद्ध मॆं पीडित, परम‌अस्त मॆं गयॆ हुयॆ ग्रहॊं की दशा अपनॆ गुण कॆ अनुसार फलदायक हॊती है॥108॥।

। परमॊच्चगतॊ यस्तु यॊऽतिवीर्यचरित्रवान । ।

सम्पूर्णाख्या च तद्दशा राज्यभॊग्यशुभप्रदा ॥109॥। । जॊ ग्रह परमॊच्च मॆं हॊ और  अत्यंत बली हॊ उसकी दशा कॊ सम्पूर्ण कहतॆ हैं, उसकी दशा मॆं राज्य का सुख और  शुभफल हॊतॆ हैं॥109॥।

लक्ष्मीकटाक्षचिन्हानां चिदावासगृहप्रदा । तुङ्गमात्रगतस्यापि तथा वीर्याधिकस्य च ॥110॥

और  लक्ष्मी की कृपा हॊती है तथा गृह की प्राप्ति हॊती है। जॊ कॆवल उच्चराशि मॆं हॊ और  अधिक बली हॊ॥110॥।

पूर्णाख्या बहुधैश्वर्यदान्यपि रुजप्रदा ।

अतिनीचगतस्यापि दुर्बलस्य ग्रहस्य तु ॥111॥

उसकी दशा कॊ पूर्णा कहतॆ हैं, वह ऐश्वर्य कॊ दॆनॆ वाली हॊतॆ हुयॆ भी रॊगप्रद हॊती है। अस्तंगत नीच मॆं गयॆ हुयॆ दुर्बलग्रह की दशा कॊ॥111॥

रिक्तासानिष्टफलदा न्याध्यनर्थमृतिप्रदा ॥

अत्युच्चॆऽप्यतिनीचगॆ मध्यगस्यावरॊहिणी ॥112॥। रिक्ता कहतॆ हैं इस दशा मॆं अनिष्ट फल, व्याधि, अनॆक अनर्थ हॊतॆ हैं। अत्यत । उच्च और  अत्यंत नीच कॆ मध्य मॆं गयॆ हुयॆ ग्रह की दशा कॊ अवरॊहिणी कहतॆ हैं॥112॥।

मित्रॊच्चभावप्राप्तस्य मध्याख्याह्यर्थदी दशा । नीचान्तादुच्चभागान्तं भषटकॆ मध्यमस्य च ॥113॥

जॊ ग्रह मित्र की राशि या उच्चराशि मॆं हॊ उसकी दशा का नाम मध्या हात है वह ध्यान दॆनॆ वाली हॊती है। नीचॆ सॆ उच्च तक 6 राशि कॆ मध्य मॆं रहनॆ वालॆ ग्रह की॥ 113॥

दशाचारॊहिणी नीचरिपुभांशगंतस्य च ।

अधमाख्या भयक्लॆश व्याधिदुःखविवर्धिनी ॥114॥

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***

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ । तथा दशा आरॊहिणी- कहतॆ हैं, नीच शत्रु की राशि या नवांशगत ग्रह ग्रह की दशा कॊ अधम दशा कहतॆ हैं यह दशा भय, कष्ट व्याधि दु:ख कॊ बढानॆ वाली हॊती है॥114॥

- नामानुरुपफलदाः पाककालॆ दशाक्रमात ॥ - भाग्यॆशगुरुसम्बन्धॊ यॊगदृक्कॆन्द्रभादिभिः ॥115॥

अपनॆ-अपनॆ नाम कॆ अनुरूप ही अपनॆ-अपनॆ दशा का फल हॊता है। यदि

 अन्य ग्रह कॆ साथ भाग्यॆश, गुरु का यॊग, दृष्टि, कॆन्द्र आदि मॆं कॊ‌ई सम्बन्ध हॊता है॥115॥

। । परॆषामपि दायॆषु. भाग्यॊपक्रममुन्नयॆत । , जातकॊ यस्तु फलदॊ भाग्यप्रदॊऽथ यः ॥116॥

तॊ उस ग्रह की दशा मॆं भी भाग्य वृद्धि हॊती है। जन्म समय भाग्यॊदय आदि * फल दॆनॆ वाला ग्रह हॊ॥116॥

सफलॊ वक्रिमादूर्ध्वमन्यानपि च खॆचरात ।

दुर्वला न समर्थाश्च फलदानॆषु यॊगतः ॥117॥ - वह वक्रगति कॊ छॊडनॆ कॆ बाद फलप्रद हॊता है। इसी प्रकार जॊ दुर्बल और  असमर्थ है वह भी यॊग हॊनॆ सॆ फल दॆनॆ मॆं समर्थ हॊ जाता है॥117॥

तारतम्यात्सुसम्बन्धी दशा ह्यॆताः फलप्रदाः ॥

स्वकॆन्द्रादिजुषां तॆषां पूर्णाधिव्यवस्थया ॥118॥ . इस प्रकार तारतम्य सॆ अच्छॆ सम्बन्ध सॆ दशा फलप्रद हॊती है। तथा दशॆश कॆ कॆन्द्र, पणफर, आवॊक्लिम मॆं रहनॆ सॆ पूर्ण, आधा और  चौथा‌ई दशा का फल तारतम्य सॆ हॊता है॥118॥

शीर्षॊदयस्थिताः स्वस्वदशादौ स्वफलप्रदा । उभयॊदयराशिस्थः । मध्यफलप्रदा ॥119॥

शीर्षॊदय राशि मॆं बैठा हु‌आ ग्रह अपनी दशा कॆ आदि मॆं अपनॆ शुभ अशुभ फॆल कॊ दॆता है, द्विस्वभाव राशिगत ग्रह दशा कॆ मध्य मॆं॥119॥ । पृष्ठॊदयक्षंगाः खॆटाः स्वदशान्तॆ फलप्रदाः ॥

 निसर्गतश्च तत्कॊलॆ सुहृदां हरणॆशुभम ॥120॥। । अपनॆ शुभ अशुभ फल कॊ दॆता है। पृष्टॊदय राशि मॆं गया हु‌आ ग्रह अपनी दशा कॆ अन्त मॆं अपनॆ शुभ अशुभ फल कॊ दॆता है। नैसर्गिक वा तत्काल मॆं मित्र ग्रह कॆ अन्तरदशा मॆं शुभ फल हॊता है॥120 ॥

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अथ दशाफलाध्यायः । सम्पादयॆत्तदा कष्टं तद्विपर्ययगामिनाम ॥

दशॆशाक्रांत भावाच्चारभ्य द्वादशभम ॥121॥ । और  शत्रुग्रह की अन्तरदशा मॆं अशुभ फल हॊता है (दशॆश जिस भाव मॆं । हॊ वहाँ सॆ आरम्भ कर 12 राशियॊं की अन्तरदशा हॊती है॥121॥।

भुक्त्वा द्वादशराशीनां दशाभुक्तिं प्रकल्पयॆत । ऎकैकराशॆर्या तत्र सुहृऽस्वक्षॆत्रगामिनी ॥122॥।

उसमॆं भी जॊ राशि मित्र राशिस्थ वा अपनॆ राशिस्थ ग्रह सॆ युत हॊ उसकी अन्तरदशा मॆं राव्यादि सम्पत्ति पूर्वक शुभ फल हॊता है॥122॥

तस्यां राज्यादिसम्पत्तिपूर्वक शुभमीरयॆत । दुःस्थानरिपुनीचस्थनीचक्रूरयुता च या ॥123॥ जॊ राशि शत्रुराशिस्थ, नीचस्थ, नीचक्रूरयुक्त ग्रह सॆ युत हॊ उसकॆ॥123॥ तस्यामनर्थकलह रॊगमृत्युभयादिकम । बिन्दुभूयस्त्वशून्यत्ववशात स्वीयाष्टवर्गकॆ ॥124॥

अन्तरदशा मॆं अनर्थ, कलह, रॊग, मृत्युभय आदि दुष्ट फल हॊतॆ हैं, अष्टकवर्ग कॆ अनुसार॥124॥

वृद्धि हानिं च तद्राशियावस्य स्वगृहाक्रमात ।

भावयॊजनया विद्यात्सुताद्यादि शुभाशुभम ॥125॥ ।. धात्वादिराशिभॆदाच्च धात्वादिग्रहयॊगतः ॥

शुभपापदशाभॆदाच्छुभपापयुतैरपि ॥126॥ जिस राशि मॆं रॆखा या बिन्दु अधिक हॊ उसमॆं शुभफल और  जिसमॆं रखा वा बिन्दु अल्प हॊ उसमॆं हानि हॊती हैं। (यहाँ कॊ‌ई आचार्य अष्टकवर्ग मॆं शुभद्यात रॆखा और  कॊ‌ई शुभद्यॊतक शून्य कॊ मानतॆ हैं)। भाव कॆ यॊजना कॆ अनुसार (अथा लग्न आदि भावॊं सॆ जिस भाव का विचार करना हॊ उसी कॊ लग्न मानकर उर अन्य भावॊं सॆ उनकॆ शुभ अशुभ का विचार करना चाहियॆ) जैसॆ भा‌ई कॆ सुभ दुःख का विचार करना है तॊ तीसरॆ भाव कॊ लग्न मानकर उससॆ दूसरॆ भाव सॆ भा‌ई धन आदि का विचार करना चाहियॆ॥125॥

। राशियॊं कॆ धातु आदि कॆ भॆद सॆ और  ग्रहॊं कॆ धातु आदि कॆ भॆद सॆ उन उन राशियॊं वा शुभ पापदशा भॆद और  शुभ पाप कॆ यॊग सॆ॥126॥


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446 . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

इष्टानिष्टस्थानभॆदात फलभॆदात्समुन्नयॆत ।

ऎवं सर्वग्रहाणां च स्वां स्वामन्तर्दशामपि ॥127॥ । अन्तरदशा काल मॆं अशुभ स्थान भॆद सॆ सभी ग्रहॊं कॆ अन्तर्दशा का शुभ पापफल का विचार करना चाहियॆ॥127॥

स्वराशितॊ राशिभुक्तिं प्रकल्प्य फलमीरयॆत ।

अन्तरन्तर्दशा स्वीयां विभज्यैवं पुनः पुनः ॥128॥। . ऎवं राशि सॆ राशि की अन्तर्दशा की कल्पना कर फल कहना चाहियॆ तथा अन्तर्दशा मॆं पुनः अन्तर्दशा कल्पना कर उससॆ भी सूक्ष्म फल कहना चाहियॆ॥128॥

गुजरॆ कच्छ सौराष्ट्रॆ पांचालॆ सिन्धुपर्वतॆ ॥

ऎतॆ अष्टॊत्तरी श्रॆष्ठा अन्यॆ विंशॊत्तरी मता ॥129॥

 गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र, पांचाल, सिन्धु, पर्वत मॆं अष्टॊत्तरी दशा लॆनी चाहियॆ और  अन्यत्र विंशॊत्तरी दशा लॆनी चाहियॆ॥129॥

’ इति वृहत्याराशर हॊरायां पूर्वार्धॆ दशाफल कथनाध्यायः।

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः। । तत्रादौ अन्तर्दशाऽऽनयनप्रकारमाह—- .

दशादशाहता कार्या, दशभिर्भागमाह—रॆत । । - लब्धं मासास्तथा शॆषं त्रिंशघ्नं च दिनानिच ॥1॥

जिस ग्रह की दशा मॆं जिस ग्रह का अन्तर निकालना हॊ उसकॆ दशा वर्ष कॊ दशॆश कॆ वर्ष सॆ गुणाकर गुणनफल मॆं 10 का भाग दॆनॆ सॆ लब्धि मास और  

शॆष कॊ 30. सॆ गुणा कर 10 सॆ झग दॆनॆ सॆ लब्ध दिन हॊता है॥ 1 ॥ ‘, उदाहरण-जैसॆ सूर्य कॆ दशा मॆं सूर्य का अन्तर निकालना है तॊ सूर्य कॆ दशा वर्ष संख्या 6 कॊ 6 सॆ गुणनॆ सॆ 36 हु‌आ इसमॆं 10 का भाग दॆनॆ सॆ लब्धि 3 मास शॆष 6 कॊ 30 सॆ गुणा कर 10 का भाग दॆनॆ सॆ 18 दिन आया। अर्थात सूर्य की दशा मॆं 3 मास 18 दिन सूर्य का ही अन्तर रहॆगा। इसी प्रकार चन्द्रमा कॆ दशी वर्ष 10 सॆ सूर्य कॆ दशा वर्ष का गुणा कर 10 का भाग दॆनॆ सॆ लब्धि 6 मास चन्द्रमा का अन्तर हु‌आ॥।

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49

अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥ अन्तर्दशा लिखनॆ का क्रम

शन्यन्तर्दशाचक्रम - । श. । बु. कॆ. शु. [ सू. चं. म. रा. कृ. । प्रहाः ।

॥ 2 । 1 । 3।0 । 1 । 1 ।2।2। व.

8 । 1 । 2 ।11। 7 । 1 ।10।6 । मा.

9 । 9 । ।12।0 । 9 । 6 ।12। दि. फॊ4 छ्भ313413513613481ऒ 3310183 श्फ्फ183 । 8718472331241241820 

52

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सूर्यदशा वर्ष 6 अन्तर्दशा चन्द्रदशी वर्ष 10 अन्तर्दशा . चं. मं. रा. बृ. श. बु. कॆ.शु. अ. चं. म.रा.कृ. शि.]बु. कॆ.शु.सू. 0000000018 1316  2018 3 12010

मा.।10॥7।6।4।7।5॥ 18॥ 6246862/6 । 6 । झ्दि. 0 ॥ 5 ।

भौमदशा वर्ष 7 अन्तर्दशी राहुदशा वर्ष 18 अन्तर्दशा म. रा. वृ. श. बु. कॆ. शु. सू. चं. अ. रा. वृ. श. बु. कॆ.शु.सू. चं.मि.

0 । 1 । ।1।0 । 0 । 1 । । 0। ब.।2।2।2।2।1।3॥1॥ ।24। 2 ।11 11 1/4 । 2।4।7 मा 84 60। 6 । । 0 106

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। दि.1224।6।18।18।024068 गुरुदशा वर्ष 16 अन्तर्दशा शनिदशावर्ष 19 अन्तर्दशा बृ. श. बु. कॆ. शु. सू. चं. म. रा. अ. श. बु. कॆ. शु. सू. चं. म.रा. । 2 । 2 ॥2। ।1। ॥ब. । भ301213 । 1 । 6 ।3।11।8।9।4।11।4।मा । ।8।1।2।11।

1812।6।6 । 1 0।6 24 दिः ।3।9।9। 5

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बुधदशावर्ष 17 अन्तर्दशा । कॆतुदशावर्ष 7 अन्तर्दशा बु. कॆ. शु. सू. चं. म. रा. बृ. श.प्र. कॆ. शु.सू. चिं.मं. रा. बृ. ...

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 वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

शुक्रदशावर्ष 20 अन्तर्दशा शु.सू. चिं.मि. रा. बृ. श. । बु. कॆ. अ. 3 . ।1।1।3। 2 । 3 । 2 । 1 । व. 4 । 2 । । 3 । 2 । । 2 । 10 2 । मा. 0 । 2 । । । 0 । 0 । 0 । 0 । 0 । दि.

फलमाह—स्वद्वादशांशकॆ लग्न नाथॆ वा स्वदृकाणगॆ । तस्य भुक्तिं शुभामाहुर्मुनयः कालचिंतकाः ॥2॥

अपनॆ द्वादशांश मॆं लग्नॆश हॊ अथवा अपनॆ द्रॆष्काण मॆं हॊ तॊ उसका अन्तर शुभद हॊता है ऐसा दैवज्ञ कहतॆ हैं॥2॥

स्वत्रिंशांशॆऽथवा मित्र त्रिंशाशकॆऽपिवा । . तस्य भुक्तिः शुभाः प्रॊक्ताकालविद्भिर्मनीषिभॆः॥ 3॥।

अपनॆ त्रिशांश मॆं अथवा मित्र कॆ त्रिशांश मॆं ग्रह हॊ तॊ उसका अन्तर भी शुभद हॊता है॥3॥

मित्रक्षॆत्रॆ नवांशस्थॆ मित्रस्य द्वादशांशकॆ ।

तस्यभुक्तिः शुभाप्रॊक्ता कालविद्भिर्मनीषिभिः ॥4॥ " मित्र की राशि मॆं अथवा नवांश मॆं वा द्वादशांश मॆं ग्रह हॊ तॊ उसका अन्तर भी शुभ हॊता है॥4॥

बुद्धिक्षॆत्रनवांशस्थॆ पुत्रस्य, द्वादशांशकॆ ॥ । मित्रद्रॆष्काणगॆवापि तस्यभुक्तिः शुभावहा ॥5॥

पंचम भाव कॆ नवांश मॆं वा पंचम भाव कॆ द्वादशांश मॆं वा मित्र कॆ द्रॆष्काण मॆं हॊ तॊ उसका अन्तर भी शुभद हॊता है॥5॥

। तयॊः राशिनवांशस्थॆ धर्मस्य द्विरसांशकॆ ॥

गुरु द्रॆष्काणमॆ वापि तस्य भुक्तिः शुभावहा ॥6॥

नवम भाव की राशि या नवांश मॆं वा नवम भाव कॆ द्वादशांश मॆं ग्रह हॊ । अथवा गुरु कॆ द्रॆष्काण मॆं हॊ तॊ उसका अन्तर शुभद हॊता है॥6॥

सुखराशिनवा‌अस्थॆ बाहनद्विरसांशकॆ ॥ सुखद्रॆष्काणगॆ वापि तस्यभुक्तिः शुभावहा ॥7॥

सुख भाव की राशि वा नवांश मॆं वा द्वादशांश का सुख भाव कॆ द्रॆष्काण मॆं हॊ तॊ उसका अन्तर शुभ हॊता है॥7॥


अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥ विलम्वाथस्थितमांशनाथॆ मित्रांशगॆ मित्रखगॆन दृष्टॆ।

सुहृद्दृकाणस्यनवांशकॆ वा तदास्य भुक्तिं शुभदा वदंति॥8॥

लग्नॆश जिस राशि नवांश मॆं है उसका स्वामी अपनॆ मित्र कॆ नवांश मॆं हॊ । और  मित्र ग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ अथवा अपनॆ मित्र कॆ द्रॆष्काण वा नवांश मॆं हॊ तॊ उसका अन्तर शुभद हॊता है॥8॥

अथ वक्ष्यॆ विशॆषण दशा कष्टप्रदा नृणाम । षष्ठाष्टमव्ययॆशानां दशा कष्ट प्रदायिनी ॥9॥

अब विशॆषत: कष्टप्रद दशा और  अन्तर कॊ कह रहा हूँ। 6।8।12 भावॊं कॆ स्वामियॊं की दशा कष्टप्रद हॊती है॥9॥

ऎषां भुक्तिहिं कष्टा स्यान्मारकस्य दशायदि ॥ मारकॆशॆन षष्ठॆशॆ युक्तॆ लग्नाधिपॆ यदि ॥10॥

यदि यॆ मारकॆश की दशा मॆं इनका अंतर भी कष्ट दॆनॆवाला हॊता है। मारकॆश कॆ लग्नॆश युत हॊ तॊ॥10॥ .

तस्य भुक्तौ ज्वरप्राप्तिं प्राहुः कालविदॊजनाः ॥ सरॊगॆश शरीरॆशश्चन्द्रषड्वर्गगॊ यदि ॥11॥ इसकॆ अन्तर मॆं ज्वर हॊता है। षष्ठॆशयुक्त लग्नॆश चन्द्रमा कॆ वर्ग मॆं हॊ तॊ॥11॥

जलदॊषस्तस्य भुक्तौ स्यादजीणॊं न संशयः । षष्ठॆशयुतलग्नॆशॊ बुध षड्वर्गगॊ यदि 3।12॥ इसकॆ अन्तर मॆं जलंधर या अजीर्ण रॊग सॆ कष्ट हॊता है॥12॥।

तस्य भुक्तौ भवॆद्वायुवतॊ वा. दॆहजाड्यकृत ।

सारिनाथविलग्नॆशॊ गुरु षड्वर्गगॊ यदि ॥ तस्य भुक्तौ भवॆद्रॊगः पीडा वा ब्राह्मणॆन तु ॥13॥ षष्ठॆश सॆ युत लग्नॆश बुध कॆ षड्वर्ग मॆं हॊ तॊ॥13। । सषष्ठॆश विलग्नॆशॊ भृगु घड्वर्गगॊ यदि ।

तस्य भुक्तौ भवॆत्पीडा रॊगस्त्रीसंगमॆन च ॥14॥ इसकॆ अन्तर मॆं वायु वॊ बात सॆ शरीर जकड जाता है। षष्ठॆश सॆ युत लग्नॆश गुरु कॆ षड्वर्ग मॆं हॊ तॊ इसकॆ अन्तर मॆं रॊग वा ब्राह्मण सॆ पीडा हॊती है। घष्ठॆश सॆ युक्त लग्नॆश शुक्र कॆ षड्वर्ग मॆं हॊ तॊ इसकॆ अन्त मॆं पीडा या स्त्री प्रसँग सॆ रॊग हॊता है॥14॥

50 ... बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

सरॊगॆशविलग्नॆशः शनिषड्वर्गगॊ यदि ॥ ’ तस्य भुकौ भवॆद्वातः सन्निपातॊऽथवानृणाम ॥15॥

पैगॆश सॆ युद्ध लमॆश शनि कॆ घड्वर्ग मॆं हॊ तॊ इसकॆ अन्तर मॆं वातरॊग वा समिति रॊग सॆवा है॥15॥। मृत्युस्थितैः सैहिकमन्दकॆतुभिर्मनॊह्निकाश्वासविधूचिकामिः॥ रॊगॊनराणायथ वस्यभुक्तौ भवॆद्यदामारक संयुतिश्च॥16॥

यदि आठवॆं भाव मॆं राहु, शनि, कॆतु और  मारकॆश सॆ युत हॊं तॊ इनकॆ अन्तर मॆं काशस्वास रॊग वा विभूचिका हॊता है॥16॥

ऎवं त्रादि भावानां नायकॊ यत्र संस्थितः । , : तत्तत्वद्वर्गयॊगॆन तत्तद्धावफलं वदॆत ॥17॥ - आत्म आदि स्थानॊं कॆ स्वामी और  उनकॆ षड्वर्ग कॆ अनुसार उनकी दशा अन्तर

मैं कॆ फूलॊं सॆ कम चाहियॆ॥17॥

उच्चक्षॆत्रगतॆ सूर्यॆ कॆन्द्रलाभत्रिकॊणगॆ । स्वॆदशॆ च स्वभुक्तौ च धनधान्यादिलाभकृत ॥18॥

यदि सुर्व पन्चै उच्च राशि मॆं अथवा अपनी राशि मॆं हॊकर कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं सॆ तॊ उसकी सूर्य अन्तर मॆं धन धान्य का लाभ हॊता हैं॥18॥

दॆहॆरॊगं विचलानं राजप्रीतिकरं शुभम । सर्वकार्यार्थसिद्धिः स्याद विवाहं राजदर्शनम ॥19॥

दॆह मॆं रॊग, न य लाश, राजा सॆ श्रिन्यता हॊती हैं, सभी कार्य और  धन की सिद्धि, विवह और  अच्छा कम दर्शन हॊता है॥19॥।

। द्वितीयमनाथॆ . तु अपमृत्युर्भविष्यति ॥ ।तद्दॊष परिहारार्थं मृत्युञ्जयजपं चरॆत ॥

सुर्यप्रीतिकरौ शान्तिं कुर्यादारॊग्यप्राप्तयॆ ॥20॥।

यदि सूर्य दूसरॆ और  सातवॆं भाव का स्वामी हॊ उसकी दशा और  अन्तर मॆं अकाल मृत्युशय हॊता है अनिष्ट फल की शान्ति कॆ लियॆ मृत्युंजय मन्त्र का जप और  सूर्य कॆ सन्नार्थी शान्ति करनॆ सॆ आरॊग्यता हॊती है॥20॥

सूर्यस्यांतर्गतॆ चन्द्रॆ लग्नात्कॆन्द्रत्रिकॊणगॆ ॥ विवाहं शुभकार्यं च धनधान्यसमृद्धिकृत ॥21॥


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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः । सूर्य की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं वैठॆ हुयॆ चन्द्रमा कॆ अन्तर मॆं विवाह, शुभ कार्य, धन, धान्य और  समृद्धि का लाभ॥21॥

गृहक्षॆत्राभिवृद्धिं च पशुवाहनसम्पदाम ॥ तुङ्गॆ वा स्वगॆ वापि दारसौख्यं धनागमम ॥22॥ गृह क्षॆत्र की वृद्धि, पशु वाहन और  सम्पत्ति की वृद्धि हॊती है॥22॥

पुत्रलाभसुखं चैव सौख्यं राजसमागमम । महाराज प्रसादॆन इष्टसिद्धि सुखावहम ॥23॥

चन्द्रमा अपनॆ उच्च अपनी राशि मॆं हॊ तॊ स्त्री का सुख, धन का आगम और  महाराजा की कृपा सॆ अभीष्ट सिद्ध हॊता है॥23॥

क्षीणॆ वा पापसंयुक्तॆ दारपुत्रादि पीडनम । । वैषम्य जन सम्वादं भृत्यवर्गविनाशनम ॥24॥

यदि चन्द्रमा क्षीण हॊ वा पापग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ उसकॆ अन्तर मॆं स्त्री पुत्रादि कॊ कष्ट, लॊगॊं सॆ झगडा, नौकरॊं की हानि हॊती है॥24॥

विरॊधं राजकलहं धनधान्यपशुक्षयम ।

षष्ठाष्टमव्ययॆ चन्द्रॆ जलभीतिं मनॊरुजम ॥25॥

राजा सॆ कलह, धन धान्य और  पशु की हानि हॊती हैं। 6॥8॥12 भाव मॆं चन्द्रमा हॊ तॊ जल भय, मानसिक कष्ट॥25॥

बन्धनं रॊगपीडा च स्थानविच्युतिकारकम ।

दुःस्थानं चापि चित्तॆन दायादजनविग्रहम ॥26॥ । बन्धन, रॊग पीडा, स्थान च्युति, दुष्ट स्थान की यात्रा, दायादॊं सॆ विग्रह॥26॥।

निर्धनं कुत्सितान्नं च चौरादिनृपपीडनम ॥ मूत्रकृच्छादिरॊगश्च दॆहपीडा क्षयॊ भवॆत ॥ 27॥ निर्धनता, खराब अन्न का भॊजन, चॊर तथा राजा सॆ पीडा, मूत्रकृच्छ्र (सूजाक) रॊग और  क्षयरॊग सॆ कष्ट हॊता है॥27॥।

दायॆशाल्लाभभाग्यॆ च कॆन्द्रॆ वा शुभसंयुतॆ । भॊगभाग्यादिसंतॊषदारपुत्रादिवर्धनम ॥28॥ दशा कॆ स्वामी सॆ 11 वा 9 भाव मॆं चन्द्रमा हॊ अथवा कॆन्द्र मॆं वा शुभग्रह सॆ युत हॊ तॊ अपनॆ अन्तर मॆं भॊग, भाग्य, संतॊष स्त्री आदि की वृद्धि करता है॥28॥

विदॆ‌ऒ

" . 452 . . . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

राज्यप्राप्तिं.म्हत्सौख्यं स्थानप्राप्तिं च शाश्वतीम ॥ विवाह यज्ञदीक्षां च सुधान्याम्बरभूषणम ॥29॥।

राज्य का लाभ, अपार सुख, स्थान की प्राप्ति, विवाह, यश, दीक्षा, सुन्दर अन्न, वस्त्र, आभूषण॥29॥

वाहनं प्रपौत्रादि लभतॆ सुखवर्द्धनम ।

 दायॆशादियुरंधस्थॆ व्ययॆ वा बलवर्जितॆ ॥ 30 ॥

वाहन और  पुत्र पौत्रादि जन्य सुख कॊ दॆता है। दशॆश सॆ 6।8।12 भाव : मॆं चन्द्रमा हॊ और  निर्मल हॊ तॊ॥30॥।

अकालॆ भॊजनं चैव दॆशाद्दॆशं गमिष्यति । द्वितीयद्यूननाथॆ तु. अपमृत्युभविष्यति ।

श्वॆतां गां महर्षी दद्याच्छान्तिं कुर्यात्सुखंलभॆत ॥31॥ 0, उसकॆ अन्तर मॆं असमय भॆजन, ऎक दॆश सॆ दूसरॆ दॆश की यात्रा हॊती है।

यदि चन्द्र 27 भाव का स्वामी हॊ तॊ अकाल मृत्यु हॊती है। शान्ति कॆ लियॆ। सफॆद गौ और  भैंस का दान करनॆ सॆ सुख की प्राप्ति हॊती है॥31॥। ” अथ रविदशायांभीमान्तर्दशाफलम

सूर्यस्यान्तर्गतॆ भौमॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रलाभगॆ । लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणॆ वा शुभकार्यशुभादिकम ॥32॥ .

सूर्य की दशा मॆं अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं गया हु‌आ लग्न सॆ 11 भाव । वा कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं गयॆ हुयॆ भौम का अन्तर हॊ तॊ शुभ कार्य॥32॥।

भूलाभं कृषिलाभं च धनधान्यादिवृद्धिदम । गृहक्षॆत्रादिलाभं च रक्तवस्त्रादिलाभकृत ॥33॥

भूमि का लाभ, कृषि सॆ लाभ, धन धान्य की वृद्धि गृह क्षॆत्र का लाभ और  रळवला आदि का लाभ हॊता हैं॥33॥

लग्नाधिपॆन संयुक्तॆ सौख्यं राजप्रियं सुखम ।

भाग्यलाभाधिपैयुक्तॆ लाभश्चैव भविष्यति ॥ 34॥ । ’लग्नॆश सॆ युक्त है तॊ सुख और  राजा का प्रिय पात्र बनाता है। भाग्यॆश लाभॆश ।

सॆ युक्त ह्यॆ तॊ लाभ हॊता हैं॥34॥


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नीचॆवा दुध

अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः । 453 बहुसॆनाधिपत्यं च शत्रुनांश मनॊदृढम । ।

आत्मवंधुसुखं चैव भातृवर्धनकं तथा ॥ 35॥ सॆनापति पद का लाभ, शत्रु का नाश आत्मीय बन्धु‌ऒं का सुख और  भा‌इयॊं की वृद्धि हॊती है॥35॥

दायॆशाद्रिपुरन्ध्रस्थॆ पापयुक्तॆ च वीक्षितॆ ॥

आधिपत्यवलैहनॆ क्रूरबुद्धिं मनॊरुजम ॥36॥ दशा कॆ स्वामी सॆ 68 भाव मॆं पापग्रह सॆ युक्त और  दृष्ट तथा बलहीन भौम हॊ तॊ दुष्टबुद्धि, मानसिक कष्ट॥36॥।

कारागृहॆ प्रवॆशं च निर्गलॆ बन्धुनाशनम । । भ्रातृवर्गविरॊधं च कर्मनाशमथापि, वा ॥ 37॥

जॆलयात्रा अनायास बन्धु का नाश, भा‌इयॊं सॆ विरॊध, कर्म का नाश हॊता

 हैं॥37॥।

नीचॆवा दुर्बलॆ भौमॆ राजमूलाद्धनक्षयः । । द्वितीयद्यूनन्नाथॆ तु दॆहॆजाड्यं मनॊरुजम ॥38॥..

अपनी नीचराशि मॆं दुर्बल भौम हॊ तॊ राजा कॆ कॊप सॆ धन की हानि हॊती हैं। यदि 2।7 भाव का स्वामी हॊ तॊ दॆह मॆं जडता और  मानसिक कष्ट हॊता है॥38॥

सुब्रह्मजपदानं च अनड्वाहं तथैव च ॥

शान्तिं कुर्वीत विधिवदायुरारॊग्य सिद्धिदम ॥39॥

इसकी शान्ति कॆ लियॆ वॆदपाठ, गायत्री का जप, दान, बैल का दान आदि करनॆ सॆ आयु, आरॊग्यता आदि की सिद्धि हॊती है॥39॥

. अथ रविदशायांराह्नन्तर्दशाफलम्सूर्यस्यान्तर्गतॆ राही लग्नात्कॆन्द्रत्रिकॊणगॆ ।

आदौ द्विमासपर्यन्तं धननाशं महद्भयम ॥40॥ सूर्य की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं गयॆ हुयॆ राहु की अन्तर्दशा हॊ तॊ पहलॆ 2 मास पर्यन्त धन का नाश और  महाभय हॊता है॥40॥।

चौरादिव्रणभीतिश्च दारपुत्रादिपीडनम ॥ तत्परं सुखमाप्नॊति. शुभयुक्तॆ शुभांशकॆ ॥41॥


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* वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । चॊर आदि तथा फॊडा आदि का भय स्त्री पुत्रादि कॊ कष्ट हॊता है। इसकॆ बाद सुख हॊता है। राहु शुभग्रह सॆ युक्त और  शुभग्रह कॆ अंश मॆं हॊ तॊ॥41॥

दॆहारॊग्यं मनस्तुष्टी राजप्रीतिकरं सुखम॥ । लग्नादुपचयॆ राहौ यॊगकारकसंयुतॆ॥42॥

शंरीर मॆं आरॊग्यता, मन कॊ संतॊष, राजा सॆ मित्रता और  सुख हॊता है। लग्न सॆ उपचय (3।6।11) स्थान मॆं यॊगकारक ग्रह सॆ युक्त हॊ॥42॥

 दायॆशाच्छुभराशिस्थॆ राजसन्मानकीर्तिदम। " भाग्यवृद्धिं यशॊलाभं दारपुत्रादिपीडनम॥43॥

और  दशॆश सॆ शुभ स्थान मॆं हॊ तॊ राजा सॆ सम्मान और  कीर्ति मॆं वृद्धि, भाग्य वृद्धि, यश का लाभ, स्त्री पुत्रादि कॊ पीडा॥43॥

पुत्रॊत्सवादिसन्तॊषं गृहॆ कल्याणशॊभनम। , दायॆशात्पष्टरिःफस्थॆ रंधॆ वा बलवर्जितॆ॥44॥

पुत्रॊत्सव आदि उत्सव गृह मॆं हॊतॆ हैं। दशॆश सॆ 6।12।18 भाव मॆं राहु । हॊ और  निर्बल हॊ तॊ॥44॥ .

बंधनं स्थाननाशश्च कारागृह निवॆशनम। चौराहिब्रणाभीतिश्च दारपुत्रादिवर्द्धनम॥45॥

बंधन स्थान हानि, जॆलखाना, चॊर, सूर्य, फॊडा सॆ भय, स्त्री पुत्रादि कॊ सुख॥45॥ ...

 चतुष्पाज्जीवनाशश्च गृहक्षॆत्रादिनाशनम।

गुल्मक्षयादिरॊगश्च अतिसारादिपीडनम॥46॥

चौपायॆ जानवर की हानि, गृह क्षॆत्र की हानि, गुल्म, क्षय और  अतिसार रॊग सॆ पीडा हॊती है॥46॥।

द्विसप्तस्थॆ तथा राहौ तत्स्थानाधिपसंयुतॆ ।

अपमृत्युभयं चैव. सर्वभीतिश्च सम्भवॆत ॥47॥

2।7 भाव मॆं इन स्थानॊं कॆ स्वामी सॆ युत राहु हॊ तॊ अपमृत्यु का भय ’ तथा अनॆक विपत्तियॊं का सामना करना पडता हैं॥47॥।

दुर्गाजपं च कुर्वीत छागदानं समाचरॆत ॥ । कृष्णागां महिषीं दद्याच्छान्तिमाप्नॊत्यसंशयम ॥48॥

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः । इसकी शाति कॆ लियॆ दुर्गापाठ, वकरी, काली गौ, भैंस का दान करना चाहियॆ इससॆ आराम हॊता है॥48॥

रविदशायांगुर्वन्तर्दशाफलम - सूर्यस्यान्तर्गत जीवॆ लंग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ । स्वॊच्चमित्रस्य वर्गस्थॆ विवाहं राजदर्शनम ॥49॥।

सूर्य की दशा मॆं अपनॆ उच्च वा अपनॆ मित्र कॆ वर्ग मॆं स्थित कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं रहनॆ वालॆ गुरु कॆ अंतर मॆं विवाह राजा का दर्शन॥49॥

धनधान्यादिलाभं च पुत्रलाभं महत्सुखम । महाराजप्रसादॆन ’इष्टकामार्थलाभकृत ॥50॥।

धन, धान्य का लाभ, पुत्र सुख, बडा सुख, राजा की प्रसन्नता सॆ इष्ट कार्य, धन का लाभ॥50॥

ब्राह्मणप्रियसन्मानं : प्रियवस्त्रादिलाभकृत । भाग्यकर्माधिपवशाद्राज्यलाभं महॊत्सवम ॥51॥

ब्राह्मण और  मित्रॊं सॆ सम्मान, प्रियवस्त्रादि का लाभ हॊता है। भाग्यॆश और  कमॆंश हॊ तॊ राज्य का लाभ, बडा उत्सव॥51॥

नरवाहनयॊगश्च स्थानाधिक्यं महत्सुखम । दायॆशाच्छुभराशिस्थॆ भाग्यवृद्धिः सुखावहा ॥52॥

मनुष्य की सवारी (पालकी) स्थान लाभ, सुख हॊता है। दशॆश सॆ शुभ राशि मॆं हॊ तॊ भाग्यवृद्धि, सुख।

दानधर्मक्रियायुक्तॊ दॆवताराघनप्रियः । गुरुभक्तिः मनः सिद्धिःपुण्यकर्मादिसंग्रहः ॥53॥..

दान आदि धार्मिक क्रिया मॆं प्रवृत्त दॆवता का आराधन, गुरु की भक्ति और  पुण्य कर्मॊं का संग्रह हॊता है॥53॥

दायॆशाद्रिपुरन्ध्रस्थॆ नीचॆ वा पापसंयुतॆ ।

दारपुत्रादिपीडाच दॆहपीडा महद्भयम ॥54॥ । दशॆश सॆ 68 स्थान मॆं अपनॆ नीचराशि मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ स्त्री पुत्र आदि कॊ पीडा, शरीर मॆं पीडा, बडा भय॥54॥

. राजकॊषं प्रकुरुतॆ इष्टवस्तुविनाशनम ।

पापमूलाव्यनाशं दॆहभ्रष्टं मनॊरुजम ॥55॥

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456 . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

राजकप, इष्टवस्तु का नाश, पापमूल सॆ धन का नाश दॆह मॆं कष्ट और  मानसिक कष्ट हॊता है॥55॥।

स्वर्णदानं प्रकुर्वीत इष्टजाप्यं च कारयॆत । गवां कपिलवर्णानां दानॆनारॊग्यमादिशॆत ॥56॥

शान्ति कॆ लियॆ सॊना का और  कपिला गौ का दान करना चाहियॆ। इष्टदॆव (गुरु) कॊ जप करानॆ सॆ आरॊग्यता प्राप्ति हॊती है॥56॥

अथ रविदशायांशन्यन्तर्दशाफलम - .. सूर्यस्यान्र्तगतॆ मन्दॆ , लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ ।

शत्रुनाशं महत्सौख्यं स्वल्पधान्यार्थलाभकृत ॥ 57॥

सूर्य की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र त्रिकॊण मॆं गयॆ हुयॆ शनि कॆ अतर मॆं शत्रु‌ऒं । का नाश, सुख, अल्प धन धान्य आदि का लाभ॥57॥

विवाहॊत्सव कार्याणि शुभकार्य शुभावहम ॥ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆ मन्दॆ सुहृद्ग्रहसमन्वितॆ ॥58॥ विवाहॊत्सव आदि कार्य, शुभ क्रियायॆं हॊती हैं। यदि शनि अपनॆ उच्च, अपनी राशि मॆं हॊ अपनॆ मित्र ग्रह सॆ युत हॊ तॊ॥58॥ ।

गृहॆकल्याणसम्पत्तिर्विवाहादि च सत्कियाम ॥ राजसन्मानकीर्तिश्च नानांवस्त्रधनागमः ॥59॥।

गृह मॆं कल्याण, सम्पत्ति, विवाहादि अच्छी क्रियायॆं, राजा सॆ सम्मान, कीर्ति और  अनॆक प्रकार कॆ वस्त्र तथा धन का लाभ हॊता है॥59 ॥

दायॆशाद्रिपुरन्ध्रस्थॆ व्ययॆ वा पापसंयुतॆ ॥ वातशूलमहाव्याधिज्वरातीसारपीडनम ॥ 60 ॥

दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ वात, शूल, महाव्याधि, ज्वर, अतिसार की पीडा॥60 ॥ । बन्धनं कार्यहानिश्च वित्तनाशं महद्भयम । ।

अकस्मात्कलहश्चैव दायादजनविग्रहम ॥ 61॥।

बन्धन, कार्य की हानि, धन का नाश, बडा भय, अकस्मात झगडा, दायादॊं सॆ विग्रह हॊता है।161॥ ..

। भुक्त्यादौ मित्रहानिः स्यान्मध्यॆ किंचित्सुखावहम। .. . अन्तॆ क्लॆशकरं चैव नीचॆ तॆषां तथैव च ॥ 62 ॥

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः । अन्तर कॆ आदि मॆं मित्रॊं की हानि, मध्य मॆं कुछ सुख और  अन्त मॆं क्लॆश हॊता है, इसी प्रकार नीच राग मॆं रहनॆ सॆ भी हॊता है॥62॥

पितृमातृवियॊगं च गमनागमनं तथा । द्वितीयद्यूननाथॆतु अपमृत्युभयं भवॆत ॥63॥

यदि शनि 27 भावॊं का स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है। पिता माता का वियॊग और  आनाजाना लगा रहता है॥63॥।

कृष्णां गां महिषीं दद्यात्मृत्युञ्जय जपं चरॆत । छागदानं प्रकुर्वीत सर्वसम्पत्प्रदायकम ॥64॥

शान्ति कॆ लियॆ काली गौ, भैंस का दान करना चाहियॆ और  मृत्युञ्जय का : जप करना चाहियॆ और  बकरी का दान करनॆ सॆ सभी सुख का लाभ हॊता है ॥64॥

अथ रविदशायांबुधान्तर्दशाफलम - सूर्यस्यान्तर्गतॆ सौम्यॆ स्वॊच्चॆ वास्वसँगॆऽपिवा ॥ कॆन्द्रत्रिकॊणलाभस्थॆ बुधॆ वर्गवलैर्युतॆ ॥ 65॥

सूर्य की दशा मॆं अपनॆ उच्च राशि वा अपनी राशि मॆं कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा 11 मॆं गयॆ हुयॆ अपनॆ वर्ग मॆं बली बुध कॆ अन्तर मॆं॥65॥

. राज्यलाभं महॊत्साहं दारपुत्रादि सौख्यकृत ।

महाराजप्रसादॆन वाहनाम्बरभूषणम ॥ 66॥

राज्य का लाभ बडा उत्साह स्त्री पुत्रादि कॊ सुख, राजा की प्रसन्नता सॆ वाहन, वस्त्र आभूषण॥66॥

- पुण्यतीर्थकलावाप्तिगृहॆ . गॊधनसंकुलम ।

भाग्यलाभाधिपैर्युक्तॆ लाभवृद्धिकरॊभवॆत ॥67॥।

पुण्यतीर्थ, कला कॆ ज्ञान की प्राप्ति, गृह मॆं गॊधन की वृद्धि हॊती है। यदि 9।11 भाव कॆ स्वामी सॆ युत हॊ. तॊ लाभ मॆं वृद्धि करता है॥67॥।

भाग्यपंचमकर्मस्थॆ स्नमानॊ भवति ध्रुवम ॥ स्वकर्मद्यर्मबुद्धिश्च गुरुपित्रद्विजार्चनम ॥68॥

यदि बुध 9।5।10’ भाव मॆं हॊ तॊ सम्मान हॊता है। अपनॆ धर्मकर्म मॆं वृद्धि गुरु, पिता ब्राह्मण का पूजन॥68॥ ॥

धनधान्यादिसंयुक्तं विवाहं पुत्रसम्भवम । दायॆशाच्छुभराशिस्थॆ सौम्यभुक्तौ महत्सुखम ॥69॥


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458 . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । ’ धन, धान्य सॆ युक्त, विवाह और  पुत्र का लाभ हॊता है। दशॆश सॆ शुभ राशि

मॆं हॊ तॊ बडा सुख॥69॥

वैवाहिक यज्ञकर्म दान धर्म जपादिकम ।

स्वनामांकितपद्यानि नामद्वयमथापि वा ॥70 ॥ ’ वैवाहिक यज्ञ धर्म, जप आदि हॊतॆ हैं, नामांकित पद्य बनतॆ हैं॥70॥

भॊजनम्बरभूषाप्तिरमरॆशॊ भवॆन्नरः ।

दायॆशाद्रिपुरन्ध्रस्थॆ रिष्फगॆ नीचगॆऽपिवा ॥71॥ । भॊजन वस्र की प्राप्ति और  इन्द्र कॆ समान सुख दॆता है। दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं वा नीचराशि मॆं हॊ तॊ॥71॥।

 दॆहपीडा मनस्तापॊदारपुत्रादिपीडनम ॥ । : भुत्यादौ दुःखमाप्नॊति मध्यॆकिञ्चित्सुखावहम ॥72॥

शरीर मॆं पीडा मन मॆं सन्ताप, स्त्री पुत्रादि कॊ कष्ट हॊता है। तथा अन्तर कॆ आरम्भ मॆं दुःख मध्य मॆं कुछ सुख॥72॥।

अन्तॆ तु राजभीतिश्च गमनागमनं तथा । द्वितीयद्यूननाथॆ तु दॆहजाड्यं ज्वरादिकम ॥73॥

और  अन्त मॆं राजभय और  गमनागमन हॊता हैं। 2।7 भाव कॆ स्वामी हॊ तॊ दॆह मॆं जडता और  ज्वर आदि सॆ कष्ट हॊता है॥73॥। . विष्णुनामसहस्त्रच ह्यन्नदानं च कारयॆत ॥

. रजतप्रतिमादानं कुर्यादारॊग्य प्राप्तयॆ ॥74॥ । आँरॊग्यता कॆ लियॆ विष्णुसहस्र स्तॊत्र का पाठ, अन्नदान और  चाँदी की प्रतिमा

. का दान करना चाहियॆ॥74॥ ।

अथ रविदशायात्वन्तर्दशाफलम - सूर्यस्यान्तर्मतॆ कॆतौ दॆहपीडा मनॊव्यथा । अर्थव्ययं राजकॊपं स्वजनादिरुपद्रवम ॥75॥

सूर्य की दशा मॆं कॆतु कॆ अन्तर मॆं शरीर मॆं पीडा, मन मॆं कष्ट धन का व्यय, राजभय, अपनॆ ही लॊगॊं सॆ उपद्रव हॊता है॥75 ॥।

लग्नाधिपॆन संयुक्तॆ आद्यॆ सौख्यं धनागमम । मध्यॆ तत्क्लॆशमाप्नॊति मृतवार्तागमं वदॆत ॥76॥ लग्नॆश सॆ युत हॊ तॊ पहलॆ सुख धन का लाभ हॊता है, मध्य मॆं उन्हीं क्लॆशॊं


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 अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥ कॊ पाता है और  अन्त मॆं परण सन्दॆश कॊ सुनता है॥76॥

षष्ठाष्टमव्ययॆचैवं दायॆशात्पापसंयुतॆ । । कपॊलदंतरॊगश्च मूत्रकृच्छुस्य संभवम ॥77॥।

दाशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ कपॊल और  दांत का रॊग और  मूत्रकृच्छ्र रॊग की संभावना हॊती है॥77॥।

स्थानविच्युतिरर्थस्य मित्रहानिः पितुर्मृतिः । विदॆशगमनं चैव शत्रुपीडा महद्भयम ॥78॥

स्थान और  धन की हानि, मित्र की हानि, पिता की मृत्यु, विदॆश यात्रा शत्रुपीडा और  बडा भय हॊता है॥78॥।

लग्नादुपचयॆ कॆतौ यॊगकारकसंयुतॆ । । शुभांशॆ शुभवर्गॆ च शुभकर्म फलप्रदम ॥79 ॥

लग्न सॆ उपचय (3।6।10।11) स्थान मॆं कॆतु यॊगकारक ग्रह सॆ युत हॊ शुभांश सॆ शुभ राशि मॆं हॊ तॊ शुभकर्म हॊतॆ हैं॥79॥।

पुत्रदारादिसौख्यं च सन्तॊषं प्रियवर्द्धनम । * विचित्रवस्त्रलाभं च यशॊवृद्धिः सुखावहा ॥80॥

पुत्र स्त्री आदि कॊ सुख, संतॊष और  प्रिय वस्तु‌ऒं की वृद्धि, विचित्र वस्त्रॊं का लाभ, यश की वृद्धि और  सुख हॊता हैं॥80॥

द्वितीयद्यूननाथॆ. वा ह्यपमृत्युभयं वदॆत । दुर्गाजपं च कुर्वीत छागदानं तथैव च । महामृत्युंजय जपं कुर्याच्छान्तिमवाप्नुयात ॥81॥।

द्वितीयॆश वा सप्तमॆश हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है। शान्ति कॆ लियॆ दुर्गापाठ, बकरी का दान और  महामृत्युंजय का जप कराना चाहियॆ॥81॥

। अथ रविदशायांशुक्रान्तर्दशाफलम - सूर्यस्यान्तगतॆ शुक्रॆ त्रिकॊणॆ कॆन्द्रगॆऽपिवा । स्वॊच्चॆ मित्रस्ववर्गस्थॆ हृष्टस्त्री भॊगसम्पदाम ॥82॥।

सूर्य की दशा मॆं त्रिकॊण वा कॆन्द्र मॆं गयॆ हुयॆ वा अपनॆ उच्च वा मित्र वा अपनॆ वर्ग मॆं गयॆ हुयॆ शुक्र कॆ अन्तर मॆं प्रसन्न स्त्री का भॊग, सम्पत्ति॥82॥

आमान्तरप्रयाणं च . ब्राह्मणप्रभुदर्शनम । राज्यलाभं महॊत्साहं छत्रचामरवैभवम ॥83॥


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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ । ’ ग्रामांतर की यात्रा, ब्राह्मण, राजा का दर्शन, राज्य का लाभ, महा‌उत्सव,

छत्र, चामर आदि, वैभव का लाभ॥83॥।

 गृहॆ कल्याण सम्पत्तिर्नित्यं मिष्ठान्नभॊजनम । .. विद्मादिरत्नलाभं. मुक्तावस्त्रादिलाभकृत ॥84॥

. गृह. मॆं नित्यं कल्याण और  सम्पत्ति तथा मिष्ठान्न का भॊजन हॊता है। मूंगा

आदि रत्न का लाभ, मॊती, वस्त्र का लाभ॥84॥

चतुष्पाञ्जीवलाभः स्याद्वहुधान्यधनादिकम । । उत्साहं , कीर्तिसम्पत्तिर्नरवाहनसम्पदाम ॥85॥

चतुष्पद जीव का लाभ, बहुत धन, धान्य का लाभ, उत्साह, कीर्ति, सम्पत्ति, मनुष्य की सवारी का लाभ हॊता है॥85॥। । षष्ठाष्टमव्ययॆ शुक्रॆ दायॆशाद्वलवर्जितॆ ।

राजकॊपं मनः क्लॆशं पुत्रस्त्रीधननाशनम ॥86॥ .’, दशॆश सॆ 6।8।12 वॆं शुक्र हॊ और  निर्बल हॊ तॊ राजकॊप, मनमॆं कष्ट,

पुत्र, स्त्री और  धन का नाश हॊता है।186॥ . भुत्यादौ मध्यमं मध्यॆ लाभः शुभकरॊभवॆत ।

अन्तॆयशॊनाशनं च स्थानभ्रंशमथापिवा ॥87॥

अन्तर कॆ आरम्भ मॆं मध्यम फल, मध्य मॆं लाभ और  शुभ तथा अन्त मॆं .. यश की हानि, स्थान की हानि हॊती है॥87॥।

वन्धुद्वॆषमनन्तं च अकुलाद्भॊग नाशनम । . भार्गवॆ झूननाथॆतु दॆहॆ . जाड्यं मनॊरुजम ॥88॥

बन्धु‌ऒं सॆ द्वॆष, अपनॆ ही कुल सॆ सुख की हानि हॊती है शुक्र सातवॆं भाव कॊ स्वामी हॊ तॊ दॆह मॆं जडता हॊती है और  मानसिक कष्ट हॊता है॥88॥

रन्ध्ररिष्फसमायुक्तॆ अपमृत्युभविष्यति ॥ तद्दॊषपरिहारार्थं मृत्युञ्जयजपं चरॆत । श्वॆतां गां महिषीं दद्याद्द्र जाप्यं च कारयॆत ॥89॥

यदि 8।12 वॆं मॆं हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है। शान्ति कॆ लियॆ सफॆद गौं, भैंस का दौन, मृत्युंजय का और  रुद्राध्याय का जप कराना चाहियॆ॥89॥

इति सूर्यान्तरर्दशाफलम॥

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

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अथ चन्द्रदशायांचन्द्रान्र्दशाफलम - स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆ चन्द्रॆ त्रिकॊणॆ लाभगॆऽपिवा ।

भाग्यकर्माधिपैर्युक्तॆ गॊजाश्वाम्बरसंकुलम ॥10॥।

चन्द्रमा की दशा मॆं अपनी उच्चराशि वा अपनी राशि मॆं गयॆ हुयॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं वा लाभस्थानगत भाग्यॆश कमॆश सॆ युक्त चन्द्रमा का अन्तर हॊ तॊ ग! बकरी, घॊडा वस्त्र का लाभ॥9॥

दॆवतागुरुभक्तिश्च पुण्यश्लॊकादि कीर्तनम ॥ राज्यलाभं महत्सौख्यं यशॊवृद्धिः सुखावहा ॥91॥

दॆवता गुरु की भक्ति, पुण्यप्रद श्लॊकॊं का पाठ, राज्यलाभ, सुखयश मॆं वृद्धि हॊती है॥91 ॥।

पूर्णचन्द्रॆ पूर्णबलॆ सॆनाधिपमहत्सुखम ॥ पापयुक्तॆऽथवा चन्द्रॆ नीचॆ वा रिफषष्ठगॆ ॥93॥

चन्द्रमा पूर्ण हॊ और  पूर्णबली हॊ तॊ सॆनाधिपति ऐसा अधिकार और  बडा सुख हॊता है॥92॥

चन्द्रमा पापग्रह सॆ युक्त हॊ वा नीच राशि मॆं हॊ वा 1258 भाव मॆं है। तॊ॥12॥

तत्कालॆ धननाशः स्यात्स्थानच्युतिमथापिवा ॥ दॆहालस्यं मनस्तापं राजमन्त्रिविरॊधकृत ॥93॥

धन का नाश और  स्थानच्युति दॆह मॆं आलस्य, मन मॆं सन्ताप, राजमन्त्र सॆ विरॊध॥93॥

मातृक्लॆशं मनॊदुःखं निगडॆ बन्धुनाशनम । द्वितीयद्यूननाथॆतु रन्ध्ररिष्फसमन्वितॆ ॥94॥

माता कॊ कष्ट, दुख, बन्धन और  बन्धु‌ऒं की हानि हॊती है। चन्द्रमा 22 7 भाव का स्वामी हॊ और  8 या 12 भाव मॆं हॊ तॊ॥94॥

दॆहजाड्यं महाभङ्गमपमृत्यॊर्भयं भवॆत । श्वॆतांगां महिषीं दद्याद्दानॆनारॊग्यताभवॆत ॥95॥

शरीर मॆं जडता, और  अप मृत्यु का भय हॊता है। आरॊग्यता कॆ लियॆ सब गौ, भैंस का दान करना चाहियॆ॥95 ॥

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ ’ अथचन्द्रदशायां भौमान्तरदशाफलम - । चन्द्रस्यान्तर्गत भौमॆ लग्नात्कॆन्द्रत्रिकॊणगॆ ।

सौभाग्यं राजसन्मानं वस्त्राभरणभूषणम ॥96॥

चन्द्रमा की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं गयॆ हुयॆ भीम कॆ अन्तर मॆं सौंमाग्य, सम्म सॆ सम्मान, वस्त्र, आभूषण का लाभ॥96॥

यत्नात्कार्यार्थसिद्धिः भविष्यति न संशयः ॥ । गृहक्षॆत्राभिवृद्धिश्च व्यवहारॆ जयॊभवॆत ॥97॥ .. . ’ प्रयत्न सॆ कार्य और  धन का लाभ हॊता हैं। गृह, खॆत की वृद्धि, व्यवहार

मॆं विजय॥97 .

 कार्यलार्म महृत्सौख्यं स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆ फलम।

धष्ठाष्टमव्ययॆ भौमॆ पापयुक्तॆऽथवा यदि ॥ 98॥

कार्य मॆं लाश, बडा सुख हॊता है यदि भौम अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं सॆ भौम 6॥8॥12 झाव मॆं पापग्रह सॆ॥98॥।

दायॆशादशुभस्थानॆ दॆहार्त्तिः । शत्रुवीक्षितॆ । . : गृहक्षॆत्रादिहानिश्च व्यवहारॆ तथैव च ॥ 99॥।

अथवा दशॆश सॆ अशुभ स्थान मॆं हॊ शत्रु सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ शरीर मॆं पीडा, गृह, खॆती आदि की हानि, व्यवहार मॆं भी हानि॥99॥। । भृत्यवर्गॆषु कलहं भूपालस्य विरॊधनम ।

आत्मवन्धुतियॊगं च नित्यं निष्ठुरभाषणम ॥ 1 0 0 ॥। । मैकरॊं सॆ कलह, राज्जा सॆ विरॊध, अपनॆ कुटुम्बियॊं सॆ विक्षॊभ और  नित्य

निष्ठुर वचन सुननॆ सॆ मिलता है। 1100॥

द्वितीयडूचनाशॆतु रन्ध्र रन्ध्राधिपॊयदा । । . : तद्दॊष परिहारार्थ ब्राह्मणस्यार्चनं चरॆत ॥ 1 0 1 ॥

 यदि 2॥12 मार्यॊं का स्वामी हॊ और  अष्टमॆश मॆं हॊ तॊ इस दॊष की शान्ति कॆ लियॆ ब्राह्मण का पूजन करना चाहियॆ॥101॥

अथचन्द्रदशायांराहृन्तर्दशाफलम्चन्द्रस्यान्तर्गत राहौ लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ ।

आदौ स्वल्पफलं ज्ञॆयं शत्रुपीडा महद्भयम ॥102॥। चन्द्रमा की दशा मॆं लग्न मॆं कॆन्द्र या त्रिकॊण मॆं गयॆ हुयॆ राहु कॆ अन्तर मॆं

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥ पहलॆ अल्पफल हॊता है, शत्रुपीडा, भय, चौर, सर्प और  राजभय हॊता है॥12॥

चौराहिराजभीतिश्च चतुष्पाज्जीवपीडनम ।

वन्धुनाशं मित्रहानि मानहानि मनॊव्यथाम ॥103॥ । चौपायॊं कॊ कष्ट, बन्धु‌ऒं की हानि मित्र की नि, मानहानि और  मन मॆं कष्ट हॊता है॥103॥

शुभयुक्तॆ शुभैदृष्टॆ लग्नादुपचयॆऽपि वा ।

यॊगकारकसम्बन्थॆ इष्टकार्यार्थसिद्धिदम ॥104॥ । राहु शुभग्रह सॆ युक्त शुभग्रह यॆ दृष्ट हॊ और  लग्न सॆ 3।6।10।11 भाव मॆं हॊ यॊगकारक सॆ सम्बन्ध करता हॊ तॊ अभीष्ट कार्य और  धन का लाभ हॊता

। है॥104॥।

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नैर्‌ऋत्यॆ पश्चिमॆभागॆ कृचित्प्रभुसमागमः । वाहनाम्बरलाभं च इष्टकार्यार्थसिद्धिकृत ॥105॥

नैर्‌ऋत्य वा पश्चिम दिशा मॆं किसी श्रॆष्ठ सॆ समागम, वाहन, वस्त्र का लाभ, इष्टसिद्धि हॊती है॥105 ॥

दायॆशाद्रिपुरन्ध्रस्थॆ व्ययॆ वादलवर्जित ।

स्थानभ्रष्टं मनॊदुःखं पुत्रक्लॆशं महद्भयम 6106॥ । दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं निर्बल हॊ तॊ स्थानडॆ, मान मॆं दुःख, पुत्र कॊ कष्ट, भय॥106॥

राजकार्यप्रलापं च दारपीडा महद्भयम । । वृश्चिकादिविषाद्भीतिश्चौराहिनृपर्पीडनम ॥107॥

राजकार्य मॆं प्रलाप, स्त्री कॊ कष्ट, महाभय, बिच्छू आदि कॆ विष कम भय, । चौर, सर्प, राजा सॆ पीडा हॊती है॥1071। ।

दायॆशात्कॆन्द्रकॊणॆ वा दुश्चक्यॆलाभगॆऽपिवा । । पुण्यतीर्थकलावाप्तिर्दॆवतादर्शनं महत ॥108॥

दशॆश सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा 3।11 भाव मॆं राहु हॊ तॊ पुण्यतीर्थ कला . का लाभ, दॆवता का दर्शन हॊता है धर्म आदि कॆ संग्रह हॊतॆ हैं ॥108॥

परॊपकारकर्मादि पुण्यधर्मादसंग्रहः । द्वितीयद्यूनराशिस्थॆ दॆह्नबाधा भविष्यति ।

छागदानॆ प्रकुर्वीत दॆहारॊग्यं प्रजायतॆ ॥109॥


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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ 2 वा 7 भाव मॆं हॊ तॊ शरीर कॊ कष्ट हॊता है। इससॆ शान्ति कॆ लियॆ बकरी क्या न करना चाहियॆ॥109॥..

. : अथचन्द्रदशायांगुर्वन्तर्दशाफलम -

चन्द्रस्यान्तर्गत जीवॆ लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ । स्वगॆहॆ लाभस्वॊच्चॆ वा राज्यलाभं महॊत्सवम ॥ 110॥

चन्द्र दशा मॆं लव सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं गयॆ हुयॆ स्वगृह, लाभं स्थान वा अपनॆ ऊच्चा मॆं गयॆ हुयॆ गुरु कॆ अन्तर मॆं राज्य का लाभ, वडा उत्सव॥ 110॥

वस्त्रालङ्कारभूषादि राजप्रीतिं धनागमम ॥ इष्टदॆवप्रसादॆन गर्भाधानादिकं फलम ॥111॥

वस्त्र, आभूषण, राज्य प्राप्ति, राजा की प्रसन्नता सॆ धन का लाभ, इष्टदॆव की प्रसन्नता सॆ गर्भाधानादि फल हॊतॆ हैं॥111॥

शुभशॊभनकार्याणि गृहॆलक्ष्मीकटाक्षकृत । राजाश्रयं धनं भूमिगजवाजिसमन्वितम ॥ 112॥

और  राजा कॊ प्रसन्नता सॆ सुखकर इष्टसिद्धि हॊती है। शुभ शॊभन कर्म, लक्ष्मी या लाय, राजा कॆ आश्रय सॆ धन भूमि आदि का लाभ॥ 112॥

महाराज प्रसादॆन इष्टसिद्धिः सुखावहा ॥

षष्‌अष्टपव्ययॆजीवॆ नीचॆ वास्तंगतॆ यदि ॥113॥ .6॥8॥12 शव मॆं गुरु हॊं वा नीचॆ राशि मॆं वा अस्त हॊ वा पापयुक्त हॊं छ । ॥113॥

पापयुक्तॆऽशुभं कर्म गुरुपुत्रादिनाशनम ॥ स्थानभ्रंशं मनॊदुःखमकस्मात्कलहं ध्रुवम ॥ 114॥

अशुभ कार्य माता पिता पुत्र का नाश स्थान की हानि मन कॊ दु:ख अकस्मात कलह हॊता है॥ 114॥

गृहक्षॆत्रादिनाशं च वाहनाम्बरनाशनम । दायॆशाद्रिपुरन्ध्रस्थॆ व्ययॆ वा वलवर्जितॆ ॥115॥

गृह-भूमि की हानि, वाहन की हानि हॊती है। दशॆश सॆ 6।8।12 वॆं मॆं हॊ निर्बल हॊ त । 1115!॥

करॊति कुत्सितान्नं च विदॆशगमनं तथा । भुक्त्यादौ शॊभनं प्रॊक्तमन्तॆ क्लॆशकरं भवॆत॥ 116॥

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

यॆ4 खराब अन्न का भॊजन, विदॆश-यात्रा हॊती है, अन्तर कॆ आदि मॆं शुभफल और  अन्त मॆं कष्ट कारक हॊता है॥ 116॥।

द्वितीयद्यूननाथॆ च ह्यपमृत्युर्भविष्यति ॥

तद्दॊषपरिहारार्थ शिवसाहस्त्रकं जपॆत ॥ 117॥ . दूसरॆ वा सप्तम का स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है। इस दर्षि की शान्ति कॆ लियॆ शिव सहस्र नाम का जप॥117॥

स्वर्णदानमिति प्रॊक्तं सर्वसम्पत्प्रदायकम ॥ दायॆशाकॆन्द्र कॊणॆ वा दुश्चिक्यॆलाभगॆऽपिवा ॥ 118॥

सुवर्ण का दान करनॆ सॆ सभी सम्पत्तियॊं का लाभ हॊता है दशॆश सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा तीसरॆ या लाभ स्थान मॆं हॊं तॊ॥118॥।

भॊजनाम्बरपश्वादि महॊत्साहं करॊति च ॥ भ्रात्रादिसुखसम्पत्तिधैर्य वीर्यपराक्रमम ॥ 119॥

भॊजन, वस्त्र आदि का लाभ बडा उत्सव हॊता है। भा‌ई आदि सॆ सुख, सम्पत्ति, धैर्य, बल और  पराक्रम मॆं वृद्धि॥119॥

। यज्ञदीक्षा विवाश्च राज्यश्रीधनसम्पदः ॥

चन्द्रस्यान्तर्गतॆ मन्दॆ लग्नात्कॆन्द्रत्रिकॊणगॆ ॥ 120 ॥।

यज्ञ, दीक्षा, विवाह, राज्य, लक्ष्मी आदि की प्राप्ति हॊती है चन्द्रमा की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं गयॆ हुयॆ॥ 120 ॥।

। अथचन्द्रदशायांशन्यन्तर्दशाफलम - स्वर्सॆवा स्वांशगॆ चैव मन्दॆ तुङ्गांशगॆऽथवा ॥ शुभदृष्टियुतॆ वापि लाभॆ वा बलसंयुतॆ ॥ 121॥

अपनी राशि वा अपनॆ नवांश वा अपनॆ उच्चांश मॆं गयॆ हुयॆ शुभग्रह सॆ 18 वा युत 11 भाव मॆं बलवान शनि कॆ अन्तर मॆं॥ 121॥।

पुत्रमित्रार्थसम्पत्तिः शूद्रप्रभुसमागमम ॥ व्यवसायात्फलाधिक्यं गृहक्षॆत्रादिवृद्धिकृत ॥ 122

पुत्र मित्र धन सम्पत्ति का लाभ, शूद्रवर्ण कॆ राजा सॆ संगति, व्यवसा लाभ, गृह, भूमि का लाभ॥ 122 ॥

पुत्रलाभं च कल्याण राजानुग्रह वैभवम । षष्ठाष्टमव्ययॆ मन्दॆ नीचॆ वा धनगॆऽपि वा ॥ 123॥

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

 पुत्र का लाभ कल्याण तथा राजा कॆ अनुग्रह सॆ वैभव का लाभ हॊता है। 6।8।12 स्थान मॆं अपनी नीच राशि वा 2 रॆ भाव मॆं शनि हॊ तॊ॥123॥

तद्भुत्यादौ पुण्यतीर्थॆ स्नानं चैव तु दर्शनम ॥ । अनॆकजनत्रासश्च शस्त्रपीडा भविष्यति ॥124॥ । उसकॆ अन्तर कॆ आरम्भ मॆं पुण्यतीर्थ का स्नान और  दर्शन हॊता है। अनॆक

लॊगॊं का भय तथा हथियार सॆ पीडा हॊती है॥124॥

दायॆशाकॆन्द्रराशिस्थॆ त्रिकॊण वलगॆऽपि वा । क्वचित्सौख्यं धनाप्तिश्चदारपुत्रविरॊधकृत ॥125॥। दशॆश सॆ कॆन्द्र या त्रिकॊण मॆं बली हॊ तॊ कभी सुख धन का लाभ, स्त्री पुत्रादि सॆ विरॊध हॊता हैं॥125॥ ।

द्वितीयद्यूनरन्ध्रस्थॆ दॆहबाधा भविष्यति । तद्दॊषपरिहारार्थं मृत्युंजयजपं . चरॆत । कृष्णां गां महिषीं दद्याद्दानॆनारॊग्यमादिशॆत ॥126॥

2।7।8 भाव मॆं हॊ तॊ दॆह मॆं रॊगादि का भय हॊता है। इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ मृत्युंजय का जप, काली गौ, भैंस का दान करनॆ सॆ आरॊग्यता हॊती है॥126॥ .. अथचन्द्रदशायांबुधान्तर्दशाफलम -

चन्द्रस्यान्तर्गतॆ सौम्यॆ कॆन्द्रलाभत्रिकॊणगॆ ।

स्वर्सॆ नवांशकॆ, सौम्यॆ तुङ्गॆ वा बलसंयुतॆ ॥127॥ 2. चन्द्रमा की दशा मॆं अपनी राशि, वा- अपनॆ नवांश वा अपनी उच्चराशि मॆं

बलवान। बुध कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं हॊ तॊ उसकॆ अन्तर मॆं॥127॥ 3. धनागमं राजमानं प्रियवस्त्रादिलाभकृत ।

विद्याविनॊदसङ्गॊष्ठी ज्ञानवृद्धिः सुखावहा ॥128॥।

धन का आगमन, राज्यलाभ, प्रियवस्त्रॊं का लाभ हॊता है। विद्या विनॊद, अच्छी सभा, ज्ञान मॆं वृद्धि, सुख॥128॥।

सन्तानप्राप्ति सन्तॊषं वाणिज्याद्धनलाभकृत । वाहनच्छत्रसंयुक्तं नानालंकारभूषितम ॥129॥

सन्तान का लाभ, सन्तॊष, व्यापार सॆ धन का लाभ, वाहन, छत्र सॆ युक्त अनॆक आभूषणॊं का लाभ हॊता है ॥129॥



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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

467 । दायॆशाकॆन्द्रकॊणॆ वा लाभॆ वा धनगॆऽपि वा । । विवाहं यज्ञदीक्षां च दानधर्मशुभादिकम ॥130॥।

दशॆश सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा लाभ स्थान मॆं वा धन स्थान मॆं बुध हॊ तॊ . विवाह यज्ञ, दीक्षा, दान, धर्म आदि शुभकार्य॥130॥।

राजप्रीतिकरं चैव विद्वज्जन समागमम ॥ मुक्तामणिप्रवालानि बाहनाम्बरभूषणम ॥131॥

राजा सॆ प्रॆम, विद्वानॊं का समागम, मुक्ता, मणि, मूंगा, वाहन, वस्त्र, आभूषण का लाभ हॊता है॥131॥।

आरॊग्यप्रीतिसौख्यं च सॊमपानादिकं सुखम । दायॆशाद्रिपुरन्ध्रस्थॆ व्ययॆ वा नीचगॆऽपि वा ॥132॥

आरॊग्यता, प्रसन्नता, सुख और  सॊमपान आदि कॊ लाभ हॊता है। दशॆश . सॆ 6।8।12 भाव मॆं वा अपनी नीच राशि मॆं बुध हॊ तॊ॥ 132॥

तद्भुक्तॊ दॆहबाधा च कृषिगॊभूमिनाशनम । कारागृहप्रवॆशं च दारपुत्रादि पीडनम ॥133॥

उसकॆ अन्तर मॆं शरीर मॆं बाधा, कृषि, गौ, भूमि का नाश जॆल यात्रा, स्त्री पुत्र आदि कॊ कष्ट हॊता है॥ 133॥

द्वितीयद्यूननाथॆ च ज्वरपीडा महद्भयम ।.

छागदानं प्रकुर्वीत विष्णुसाहस्रकं जपॆत ॥134॥

2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ ज्वर सॆ पीडा और  बडा भय हॊता है। शान्त्यर्थ बकरी का दान और  विष्णु सहस्र नाम का जप कराना चाहियॆ॥134॥

। अथचन्द्रदशायांकॆवनार्दशाफलम्चन्द्रस्यान्तर्गतॆ कॆतौ कॆन्द्रलाभ त्रिकॊणगॆ । दुश्चिक्यॆ बलसंयुक्तॆ धनलाभं महत्सुखम ॥135॥

चन्द्रमा की दशा मॆं कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं वा 3 रॆ भाव मॆं बलवान कॆतु कॆ अन्तर मॆं धन का लाभ, बडा सुख हॊता है॥135॥।

पुत्रदारादि सौख्यं च मित्रकर्म करॊति च ॥

भुक्त्यादौ धनहानिः स्यान्मध्यगॆ सुखमाप्नुयात ॥136॥ । पुत्र, स्त्री कॊ सुख, मित्रॊं कॆ कार्य कॊ करता है। अन्तर कॆ आरम्भ मॆं धन की हानि और  मध्य मॆं सुख हॊता है॥136 ॥

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । दायॆशाकॆन्द्रलाभॆ वा त्रिकॊणॆ वलसंयुतॆ ।

... क्वचित्फलं दशादौ तु दारसौख्यंसुखावहम ॥137॥।

. दशॆश सॆ कॆन्द्र या ऎकादश वा त्रिकॊण मॆं बलवान हॊ तॊ कभी दशा कॆ आरम्भ मॆं ही स्त्री कॊ सुख आदि शुभ फल हॊतॆ हैं॥1375॥

गॊमहिष्यादिलाभं च भुक्त्यन्तॆ चाथनाशनम । . . पापयुक्तॆऽथवा दृष्टॆ दायॆशाद्रन्ध्ररिष्फगॆ ॥138॥

। ‘गौ मैंस आदि का लाभ तथा दशा कॆ अन्त मॆं धन की हानि हॊती है। पापग्रह सॆ युक्त वा दृष्टं हॊ और  दशॆश सॆ 2 या 12 भाव मॆं हॊ तॊ॥ 138॥

हीनशत्रुत्वकार्याणि अकस्मात्कलहं ध्रुवम । द्वितीयद्यूनराशिस्थॆ अनारॊग्यं महद्भयम ।

मृत्युञ्जयजपं प्रकुवीतॆ सर्वसम्पत्प्रदायकम ॥139॥ - हीन कार्य शत्रुता करनॆ वालॆ कार्य कॊ करता है और  अकस्मात झगडा हॊता हैं। 2 रॆ यॆ 7 वॆं भाव मॆं हॊ तॊ कष्ट और  बडा भय हॊता हैं। मृत्युंजय का जप करानॆ सॆ सब प्रकार कॆ सुख का अनुभव हॊता है॥139 ॥

चन्द्रस्यान्तर्गतॆ शुक्रॆ कॆन्द्रलाभत्रिकॊणगॆ । स्वॊच्छॆ स्वक्षॆत्रगॆ वापि राज्यलाभं करॊति च ॥140॥।

यदि चन्द्रमा की दशा मॆं कॆन्द्र या त्रिकॊण वा अपनॆ उच्चराशि अपनॆ राशि मॆं गयॆ हुयॆ शुक्र का अन्तर हॊ तॊ राज्यलाभ हॊता है॥140॥।

मंहाराजप्रसादॆनं वाहनाम्बरभूषणम । चतुष्पाज्जीवलाभं स्याद्दारपुत्रादिवर्धनम ॥141॥ नूतनागारनिर्माणं नित्यं मिष्ठान्नभॊजनम ॥ सुगन्धपुष्यदायादिरम्यख्यारॊग्यसम्पदाम ॥142॥

महाराजा की प्रसन्नता सॆ वाहन, वस्त्र, आभूषण का लाभ, चतुष्पद जीव का लाभ, स्त्री पुत्रादि की वृद्धि। नूतन मकान का निर्माण हॊता है, नित्य मिठा‌ई खानॆ कॊ प्राप्त हॊती है। सुगन्धित पुष्प, दायाद, सुन्दर स्त्री, आरॊग्यता और  सम्पत्ति . कॊ लाभ हॊता हैं॥142 ॥ । दशाधिपॆन संयुक्तॆ दॆहसौख्यं महत्सुखम ।

सत्कीर्तिर्मुखसम्पत्तिर्गृहक्षॆत्रादि - वृद्धिकृत ॥ 143॥।

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥ । दशॆश कॆ साथ शुक्र हॊ तॊ दॆह का सुख, बडा हर्ष, अच्छी कीर्ति, सुख सम्पत्ति का लाभ, गृह, भूमि की वृद्धि हॊती है॥143॥

धनस्थानगतॆ शुक्रॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रसंयुतॆ । । निधिलाभं महत्सौख्यं भूलाभं पुत्रसम्भवम ॥144॥

यदि शुक्र धन स्थान मॆं अपनी उच्चराशि वा अपनी राशि मॆं हॊ तॊ निधि (गडा धुन) का लाभ, सुख, भूमि का लाभ, पुत्र का लाभ हॊता है॥144॥

भाग्यलाभाधिपैर्युक्तॆ भाग्यवृद्धिकरॊ भवॆत । महाराजप्रसादॆन इष्टसिद्धिः सुखावहः ॥145॥

यदि भाग्यॆश वा लाभॆश सॆ युक्त हॊ तॊ भाग्य की वृद्धि करता है महाराज की प्रसन्नता सॆ इष्ट की सिद्धि हॊती है॥145॥

। दॆवब्राह्मणभक्तिश्च मुक्तंअविद्मलाभकृत ॥ ’दायॆशाल्लाभगॆ शुक्रॆ त्रिकॊणॆ कॆन्द्रगॆऽपिवा ॥146॥

दॆवता ब्राह्मण मॆं भक्ति हॊती है। मॊती-मूंगा का लाभ हॊता है। दशॆश सॆ लाभ स्थान मॆं शुक्र हॊ वा त्रिकॊण वा कॆन्द्र मॆं हॊ तॊ॥ 146॥

गृहक्षॆत्राभिवृद्धिश्च वित्तलाभं महत्सुखम ॥ नीचॆवास्तंगतॆ शुक्रॆ पापग्रहयुतॆक्षितॆ ॥147॥

गृह-भूमि मॆं वृद्धि, धन का लाभ और  सुख हॊता है। यदि शुक्र अपनी नीचा

 राशि वा अस्त हॊ, पापग्रह सॆ युत वा दृष्ट हॊ॥147॥। ।:: भूनाशं पुत्रमित्रादिनाशनं पत्निनाशनम ।

दायॆशाद्रिपुरन्ध्रस्थॆव्ययॆ वा पापसंयुतॆ ॥ 148॥।

तॊ भूमि का नाश, पुत्र मित्र आदि का नाश और  स्त्री का नाश हॊता है। दॆश सॆ 68112 वॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ॥148॥।

विदॆशवास दुःखाहिँ मृत्युचौरादिपीडनम ॥ द्वितीयद्यूननाथॆ तु अपमृत्युभयं भवॆत ॥149॥

विदॆश मॆं वास, दुःख, पीडा, मृत्यु, चौरादि सॆ पीडा हॊती है। 2।7 भाव का स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है॥149॥।

तद्दॊषॊपशान्त्यर्थं रुद्रजाप्यं च कारयॆत । श्वॆतां गां रजतं दद्याच्छान्तिं प्राप्नॊत्यसंशयः ॥150॥।

इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ रुद्र जप, सफॆद गौ, चाँदी का दान करनॆ सॆ निश्चय ।, ही शान्ति प्राप्त हॊती है॥ 150 ॥।

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । .. अथ चन्द्रदशायांसूर्यान्तर्दशाफलम। चन्द्रस्यान्तर्गतॆ सूर्यॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रसंयुतॆ ।

कॆन्द्रत्रिकॊणलाभॆ वा धनॆ वा सॊदरॆ बलॆ ॥ 151॥ । चन्द्रमा की दशा मॆं अपनॆ उच्च या अपनॆ राशि मॆं गयॆ हुयॆ कॆन्द्र या त्रिकॊण या लाभ मॆं वा धन वा तीसरॆ भाव मॆं बैठॆ हुयॆ बली सूर्य कॆ अन्तर मॆं॥ 151॥

नष्टराज्य धनप्राप्तिं गृहॆ कल्याण शॊभनम । मित्रराजप्रसादॆन : ग्रामभूम्यादिलाभकृत ॥ 152॥

नष्ट हुयॆ राज्य और  धन का लाभ, गृह मॆं कल्याण का अनुभव हॊता है तथा मित्र और  राजा की प्रसन्नता सॆ ग्राम भूमि आदि का लाभ॥ 152॥।

। गर्भाधानकलत्राप्तिगृहॆ लक्ष्मीकटाक्षकृत । . भुक्त्यन्तॆ दॆहजाड्यत्वं ज्वरपीडा भविष्यति ॥ 153॥

स्त्री की प्राप्ति और  गर्भ की संभावना हॊती है; गृह मॆं लक्ष्मी का वास हॊता हैं। दशा कॆ अन्त मॆं शरीर मॆं जडता और  ज्वर सॆ पीडा हॊती है॥153॥

दायॆशाद्रिपुरन्ध्रस्थॆ व्ययॆवा पापसंयुतॆ । ।

गुपचौराग्निभीतिश्च ज्वररॊगादिसम्भवम ॥ 154॥ । दशॆश. सॆ 6.8।12 वॆं भाव मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ राजा, चॊर अग्नि का भय, ज्वररॊग की सम्भावना॥ 154॥।

विदॆशगमनंचार्तिः लभतॆ फल वैभयम । द्वितीयद्यूननाथॆ तु ज्वरपीडा भविष्यति ।

तद्दॊषपरिहारार्थं शिवपूज़ां च कारयॆत ॥ 155॥ । विदॆश यात्रा और  कष्ट तथा भय हॊता है। यदि 27 भाव का स्वामी तॊ ज्वर पीडा हॊती है। इस दॊष कॆ शान्त्यर्थं शिवजी का पूजन करना चाहियॆ॥155॥।

इति चन्द्रान्तर्दशाफलम।

अथ भौमदशायांभौमान्तर्दशाफलम - कुजस्यान्तर्गतॆ भौमॆ. लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ । लाभॆ वा धन संयुक्तॆ दुस्चिक्यॆ शुभसंयुतॆ ॥156॥

ऎट


4

अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥ । भौम की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा लाभ वा धन वा 3रॆ भाव .. मॆं शुभग्रह सॆ युत॥ 156॥

लग्नाधिपॆन संयुक्तॆ राजानुग्रहवैभवम ॥ लक्ष्मीकटाक्षचिन्हानि नष्टराज्यार्थलाभकृत ॥157॥

वा लग्नॆश सॆ युत भौम कॆ अन्तर मॆं राजा की कृपा सॆ वैभव, लक्ष्मी कॆ आगमन का चिह्न, नष्ट हुयॆ राज्य की प्राप्ति॥157॥

। पुत्रॊत्सवादिसन्तॊषं गृहॆ गॊक्षीरसंकुलम ।

स्वॊच्चॆ वा स्वर्ट्सगॆ भौमॆ स्वांशॆ वा वलसंयुतॆ ॥158॥ । पुत्रॊत्पत्ति का उत्सव, सन्तॊष, गृह मॆं गौ, दूध आदि का संग्रह, यदि अपनॆ उच्च वा अपनॆ राशि वा अपनॆ नवांश मॆं बली भौम हॊ॥ 158॥ . गृहक्षॆत्राभिवृद्धिश्च गॊमहिष्यादि लाभकृत ।

महाराजप्रसादॆन, इष्टसिद्धिः सुखावही ॥159॥ । गृह, खॆत, भूमि मॆं वृद्धि, गौ, भैंस आदि का लाभ और  महाराजा की प्रसन्नता

सॆ इष्ट की सिद्धि और  सुख हॊता है॥159॥।

षष्ठाष्टमव्ययॆ भौमॆ पापदृग्यॊगसंयुतॆ । मूत्रकृच्छादिरॊगश्च मॆहाधिक्यं ब्रणाद्भयम ॥160 ॥

यदि 6।8।12 भाव मॆं पापग्रह सॆ दृष्टयुत भौम हॊ तॊ मूत्रकृच्छ्र (सुजाक), । प्रमॆह और  फॊडा सॆ भय॥160 ॥

चौराहिराजपीडाच धनधान्यपशुक्षयम । द्वितीयद्यूननाथॆ तु दॆहजाड्यं. मनॊरुजम ॥161॥

चॊर, सर्प राजा सॆ कष्ट, धनधान्य और  पशु की हानि हॊती है। द्वितीय, सप्तम का स्वामी हॊ तॊ शरीर मॆं जडता और  मानसिक कष्ट हॊता है॥161॥

तद्दॊषपरिहारार्थं रुद्रजाप्यं च कारयॆत । अनड्वाहं प्रदद्याच्च कुजदॊष निवृत्तयॆ । आरॊग्यं कुरुतॆ तस्य सर्वसम्यात्तिदायकम ॥ 162॥

इस दॊष की शान्ति कॆ लियॆ रुद्रजप करावॆ, बैल का दान करॆ इससॆ भौम

 कॆ दॊष की निवृत्ति हॊकर शरीर आरॊग्य हॊता है और  सभी सम्पत्ति का लाभ हॊता

है॥162॥


ड्ळ्य्टाशः!

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । अथ भौमदशायांराह्नन्तर्दशाफलम - भौमस्यान्तर्गतॆ राहौ स्वॊच्चॆ मूलत्रिकॊणगॆ ।

शुभयुक्तॆ शुभैदृष्टॆ कॆन्द्रलाभत्रिकॊणगॆ ॥ 163॥

 भौंम की दशा मॆं अपनॆ उच्च, मूलत्रिकॊण मॆं शुभग्रह सॆ युत वा दृष्ट कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं गयॆ हुयॆ राहु कॆ अन्तर मॆं॥ 163॥

तत्कालॆ राजसन्मानं . गृहभूम्यादिलाभकृत ।

कलत्रपुत्रलाभः स्यात्व्यवसायात्फलाधिकम ॥ 164॥। । राजा कॆ सम्मान, गृह, भूमि आदि का लाभ, स्त्री, पुत्र का लाभ तथा रॊजगार सॆ अधिक लाभ हॊता हैं॥164॥।

गङ्गास्नानफलावाप्तिं विदॆशगमनं तथा ।

 घष्ठाष्टमव्ययॆ राहौ पापयुक्तॆऽथ वीक्षितॆ ॥ 165॥।

गंगा स्नान का लाभ और  विदॆश की यात्रा हॊती है। यदि भौम 6।8।12 भाव मॆं पापयुक्तं वा पापदृष्ट हॊ तॊ॥165॥

। चौरादिब्रणभीतिश्च चतुष्पाज्जीवनाशनम ॥

वातपित्तक्षयं चैव कारागृह निवॆशनम ॥ 166 ॥

चॊर, फॊडा आदि का भय, चतुष्पद की हानि, बात, पित्त की हानि, जॆल यात्रा॥166॥

धनस्थानगतॆ राहौ धननाशं , महद्भयम । द्वितीयॆ द्यूनगॆवापि ह्यपमृत्युभयं महत ॥ 167॥

धन स्थान मॆं राहु हॊ तॊ धन का नाश और  भय हॊता है 27 भाव मॆं हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है॥167॥

- नागदानं प्रकुर्वीत दॆवब्राह्मण भॊजनम ।

मृत्युंजय जपं कुर्यादायुरारॊग्य प्राप्तयॆ ॥ 168॥ । इसकॆ शान्त्यर्थ नाग की मूर्ति का दान, ब्राह्मण भॊजन, मृत्युंजय का जप कराना चाहियॆ॥168॥

अथ भौमदशायांगुर्वन्तर्दशाफलम - भौमस्यान्तर्गतॆ जीवॆ त्रिकॊणॆ कॆन्द्रमॆऽपि वा । लाभॆ वा धनसंयुक्तॆ तुङ्गाशॆ स्वांशभॆऽपि वा ॥ 169॥। मंगल की दशा मॆं गुरु का अन्तर हॊ और  यदि गुरु त्रिकॊण मॆं वा कॆन्द्र मॆं :

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥ 803 वा ऎकादश भाव वा द्वितीय भाव मॆं अपनॆ उच्चांश मॆं वा अपनॆ अंश मॆं हॊ तॊ॥169॥।

सत्कीर्ति राजसन्मानं धनधान्यस्यवृद्धिकृत ॥ गृहॆकल्याणसम्पत्तिर्दारपुत्रादिलाभकृत ॥ 170॥।

श्रॆष्ठ कीर्ति, राजा सॆ सम्मान, धनधान्य की वृद्धि हॊती है। और  गृह मॆं कल्याण, सम्पत्ति, स्त्री पुत्र आदि का लाभ हॊता है॥170॥।

दायॆशाकॆन्द्रराशिस्थॆ त्रिकॊणॆलाभगॆऽपि वा ।

भाग्यकर्माधिपैर्युक्तॆ वाहनाधिपसंयुतॆ ॥171॥

यदि गुरु दशॆश सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा लाम मॆं भाग्यॆश कर्मॆश सॆ युत हॊ । वा सुखॆश सॆ युत हॊ॥171॥।

लग्नाधिपसमायुक्तॆ शुभाशॆ शुभवर्गगॆ । गृहक्षॆत्राभिवृद्धिश्च गृहॆ कल्याणसम्पदः ॥ 172॥

वा लग्नॆश सॆ युत हॊ शुभग्रह कॆ अंश मॆं शुभग्रह कॆ वर्ग मॆं हॊ तॊ गृह क्षॆत्र आदि की वृद्धि गृह मॆं कल्याण सम्पत्ति॥172॥

. दॆहारॊग्यं : महत्कीर्त्तिगॆहॆ गॊकुलसंग्रहः ॥

चतुष्पाज्जीवलाभ स्याद्व्यवसायात्फलाधिकम ॥173॥

शरीर मॆं आरॊग्यता, महान कीर्ति, गौ‌ऒं की बृद्धि, व्यवसाय करनॆ सॆ अधिक लाभ॥173॥

कलत्रपुत्रविभवं राजसन्मान वैभवम । षष्ठाष्टमव्ययॆ जीवॆ नीचॆ वास्तंगतॆ यदि ॥174॥

स्त्री पुत्रादि का सुख और  राजा सॆ सम्मान और  वैभव की प्राप्ति हॊती है। यदि गुरु 6।8।12 स्थान मॆं अपनी नीच राशि मॆं वा अस्तंगत हॊ॥174॥

पापग्रहॆणसंयुक्तॆ : दृष्टॆ वा दुर्बलॆ यदि । । चौरादिनृपभीतिश्च पित्तरॊगादि सम्भवम ॥175॥

। पापग्रह सॆ युक्त दृष्ट हॊ वा दुर्बल हॊ तॊ चौरादिकॊं सॆ और  राजा सॆ भय हॊता हैं, पित्त कॆ रॊगॊं की संभावना हॊती है॥175॥

प्रॆतवाधां भृत्यनाशं सॊदराणां विनाशनम । द्वितीयद्यूननाथॆ तु अपमृत्युज्वरादिकम । तद्दॊषपरिहारार्थ शिवसाहस्रकं जपॆत ॥176॥

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । प्रॆतबाधा का भय, नौकर की हानि, भा‌इयॊं की हानि हॊती है। 2।7 भाव कॆ स्वामी हॊं तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है, इस दॊष की शान्ति कॆ लियॆ शिवसहस्रनाम का जप करना चाहियॆ॥ 176 ॥ ।

अथ भौमदशायांशन्यन्तर्दशाफलम - .. कुजस्यान्तर्गत मन्दॆ स्व, कॆन्द्रत्रिकॊणगॆ ।

मूलत्रिकॊणॆ कॆन्द्रॆ वा तुङ्गाशॆ स्वांशगॆऽथवा ॥177॥

 भौम की दशा मॆं अपनी राशि मॆं कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं वा अपनॆ मूलत्रिकॊण " मॆं हॊकर कॆन्द्र मॆं वा उच्चांश मॆं वा अपनॆ नवांश मॆं हॊ॥177॥।

लग्नाधिपतिना वापि शुभदृष्टियुतॆ बलॆ ॥

राज्यसौख्यं यशॊवृद्धिं स्वग्रामॆ धान्यवृद्धिकृत ॥178॥ . लग्नॆश कॆ साथ शुभग्रह सॆ दृष्टयुत शनि हॊ तॊ इसकॆ अन्तर मॆं राजसुख यश की वृद्धि, अपनॆ ग्राम मॆं धान्य की वृद्धि॥ 178॥

पुत्रपौत्र समायुक्तॊ गृहॆ गॊधनसंग्रहः ।

स्ववारॆ राजसन्मानं स्वमासॆ पुत्रवृद्धिकृत ॥179॥

 पुत्र पौत्र सॆ युक्त गौं आदि कॆ सुख सॆ पूर्ण हॊता है। शनि कॆ दिन राजा सॆ सम्मान और  शनि कॆ मास मॆं पुत्र की वृद्धि हॊती है॥179 ॥

नीचादि क्षॆत्रगॆ मंन्दॆ षष्ठॊष्टव्ययराशिगॆ । म्लॆक्षवर्गप्रभुभयं धनधान्यादिनाशनम ॥18 0॥

यदि शनि अपनॆ नीच आदि मॆं हॊ 6।8।12 भाव मॆं हॊ तॊ म्लॆक्ष राजा सॆ भय, धन धान्य की हानि॥180॥।

निगडं . बन्धनं रॊगमंतॆ क्षॆत्रविनाशकृत । द्वितीयधूननाथॆ तु पापयुक्तॆ महद्भयम ॥181॥

हथकडी बॆडी का बधन, रॊग और  अन्त मॆं विनाश हॊता है। यदि शनि 2।12 भाव का स्वामी हॊ और  पापग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ महाभय॥181॥।

। धननाशं च संचारं राजद्वॆषं , मनॊरुजम ॥ ।’ चौराग्निनृपपीडा च सहॊदर विनाशनम ॥ 182॥ । धन का नाश, यात्रा, राजा सॆ द्वॆष, मानसिक कष्ट, चॊर अग्नि तथा राजा सॆ पीडा, सहॊदर की हानि॥ 182॥

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥

804 बन्धुद्वॆषकरश्चैव जीवहानिश्च जायतॆ ।

अकस्माच्च मृतॆर्भीतिः पुत्रदारादिपीडनम ॥183॥। । बन्धु‌ऒं सॆ द्वॆष, किसी जीव की हानि, अकस्मात मृत्यु भय, पुत्र, स्त्री आदि कॊ पीडा॥183॥

कारागृहादिभीतिश्च राजदण्डॊ महद्भयम । दायॆशाकॆन्द्रराशिस्थॆ लाभस्थॆ वा त्रिकॊणगॆ ॥184॥

जॆलयात्रा का भय राजदण्ड का भय हॊता है। दशॆश सॆ कॆन्द्र वा लाभ स्थान वा त्रिकॊण मॆं हॊ तॊ॥ 184॥

विदॆशयानं लभतॆ दुष्कीर्त्तिर्विविधा तथा । । पापकर्मरतॊ नित्यं : बहुजीवादिहिंसकः ॥185॥

विदॆश यात्रा, अनॆक प्रकार कॆ अपयश, निरन्तर पापकर्म मॆं संलग्न अनॆक जीवॊं की हिंसा॥185॥

विग्रहः क्षॆत्रहानिश्च स्थानभ्रंशॊ मनॊव्यथा । युद्धॆष्वपजयं चैव मूत्रकृच्छ्रान्महद्भयम ॥186॥

आपस मॆं विग्रह, क्षॆत्रादि की हानि, स्थान-च्युति और  मूत्रकृच्छ्र (सूजाक) का भय हॊता है॥186॥

दायॆशात्षष्ठरंधॆ वा व्ययॆ वा पापसंयुतॆ ॥

तद्भुक्तौ मरणं ज्ञॆयं नृपचौरादिपीडनम ॥187॥ । दशॆश सॆ 68।12 मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ अपनॆ अन्तर मॆं मृत्यु और  राजा चॊर आदि की पीडा सॆ युक्त॥187॥।

वातपीडा च शूलादिज्ञातिशत्रुभयं भवॆत । । तद्दॊषपरिहारार्थं मृत्युंजयजपं चरॆत ॥188॥

वात रॊग सॆ कष्ट, शूल रॊग और  जातीय लॊगॊं तथा शत्रु का भय हॊता है। इसकी शान्ति कॆ लियॆ मृत्युंजय मंत्र का जप कराना चाहियॆ॥188]।

अथभौमदशायांबुधान्तर्दशाफलम्कुजस्यान्तर्गतॆ सौम्यॆ लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ। सत्कथाश्चाजपादानं धर्मबुद्धिर्महद्यशः ॥189॥

भौम की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं गयॆ हुयॆ बुध कॆ अन्तर मॆं अच्छॆ लॊगॊं सॆ सत्संग, अजपा जप, धर्म मॆं प्रवीणता, यश का लाभ॥ 189॥.

श2191

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476 : वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । .. नीतिमार्गप्रसङ्गश्च नित्यं मिष्ठान्नभॊजनम ।

. वाहनाम्बरपश्वादिराजकर्म सुखानि च ॥ 190॥ ।... नीति मार्ग का अवलम्बन और  नित्य मिष्ठान्न का भॊजन, वाहन, वस्त्र, पशु

का लाभ, राजकार्य मॆं व्यस्त और  सुख॥ 190॥।

कृषिकर्मफलं सिद्धिवरणाम्बरभूषणम ।

नीचॆ वास्तंगतॆ वापि षष्ठाष्टव्ययगॆऽपि वा ॥191॥ . कृषि कर्म मॆं प्रवृत्ति और  भूषणादि तथा वाहन की प्राप्ति हॊती है। यदि बुध , नीच वा अस्त हॊ अथवा 68।12 भाव मॆं हॊ तॊ॥191॥

हृद्रॊग मानहानिश्च निगडं बन्धुनाशनम । । दारपुत्रार्थनाशंः स्याच्चतुष्पाज्जीवनाशनम ॥ 192॥

हृदय रॊग, धन की हानि, बंधन, बन्धु‌ऒं की हानि, स्त्री पुत्र चतुष्पद का नाश हॊता है॥192॥

दशाधिपॆन संयुक्तॆ : शत्रुबुद्धिर्महद्भयम । विदॆशगमनं चैव नानारॊगस्तथैव च ॥ 193॥।

दशॆश सॆ युक्त हॊ तॊ शत्रुता की बृद्धि, और  भय, विदॆशयात्रा, अनॆक रॊग॥193॥

राजद्वारॆ विरॊधश्च कलहः सौम्यमुक्तिषु । दायॆशाकॆन्द्रकॊणॆ वा स्वॊच्चॆ युक्तार्थलाभकृत ॥194॥

राजा सॆ विरॊध और  कलह हॊता है। दशॆश सॆ कॆन्द्र वा अपनॆ उच्च मॆं हॊ तॊ धन का लाभ॥194॥

अनॆकधननाथत्वं राजसन्मानमॆव च । भूपालयॊगं कुरुतॆ . धनाम्बरविभूषणम ॥ 195॥।

अनॆक धनी संस्था‌ऒं का स्वामी। राजा सॆ सम्मान, राजयॊग का सुख, धनवस्त्र आभूषण का लाभ॥195॥

भूरिवाद्यमृदङ्गादि सॆनापत्यं महत्सुखम ॥ विद्याविनॊदविमला वस्त्रवाहनभूषणम ॥196॥।

बहुत सॆ बाजॊं मृदङ्ग आदि का सुख सॆनापतित्व और  बडा सुख, विद्या का विनॊद, वस्त्र, वाहनः आभूषण॥196॥॥

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः । . . 477 . दारपुत्रादिविभवं गृहॆलक्ष्मीकटाक्षकृत ॥ दायॆशात्पष्ठरि:फस्थॆ रन्ध्र वा पापसंयुतॆ ॥197॥

स्त्री, पुत्र आदि का सुख और  गृह मॆं लक्ष्मी का प्रवॆश हॊता है। दशॆश सॆ 6।12।8 स्थान मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ॥197॥

तद्दायॆ मानहानिस्याल्कूरबुद्धिस्तु क्रूरवाक ॥ चौराग्निनृपपीडा च मार्गॆ चौरभयादिकम ॥198॥

बुध कॆ अन्तर मॆं मानहानि, दुष्टबुद्धि हॊती है कटुवचन, चॊर, अग्नि, राजा सॆ पीडा, मार्ग मॆं चॊरॊं का भय॥198॥।

अकस्मात्कलहश्चैव बुधभुक्तौ न संशयः । द्वितॊयद्यूननाथॆतु महाव्याधिर्भयंकरा ॥199॥

अकस्मात कलह हॊता है इसमॆं संशय नहीं है। यदि बुध 2।12 भाव का ।

 स्वामी हॊ तॊ महाभयंकर व्याधि हॊती है॥199॥। । अश्वदानं प्रकुर्वीत विष्णॊर्नामसहस्रकम ।

सर्वसम्पत्प्रदं सौख्यं सर्वारिष्टप्रशांतिदम ॥200॥ । इसकॆ शान्त्यर्थ अश्वदान करना चाहियॆ और  विष्णुसहस्रनाम का पाठ करनॆ सॆ सभी प्रकार की सम्पत्तियॊं का लाभ और  सभी अरिष्टॊं का नाश हॊता है॥200 ॥

। अथ भौमदशायांकॆन्वन्तदशाफलम्कृजस्यान्तर्गतॆ कॆतौ त्रिकॊणॆ कॆन्द्रगॆऽपि वा । दुश्चिक्यॆ लाभगॆ वापि शुभयुक्तॆ शुभॆक्षितॆ ॥201॥

भौम की दशा मॆं त्रिकॊण वा 3 वा 11 भाव मॆं गयॆ हुयॆ शुभग्रह सॆ युक्त दृष्ट कॆतु कॆ अन्तर मॆं॥201॥।

.. राजानुग्रहशान्तिश्च बहुसौख्यं धनागमम ।

किञ्चित्फलं दशादौ तु भूलार्भ पुत्र लाभकृत ॥ 203॥

राजा की कृपा सॆ शान्ति और  बहुत सुख की प्राप्ति, धन का आगमन हॊता हैं। कुछ फल दशा कॆ आदि मॆं हॊता है बाद मॆं भूमि लाभ, पुत्रं का लाभ है॥202॥

राजसंलाभकार्याणि चतुष्पाज्जीवलाभकृत ॥ यॊगकारकसंस्थानॆ बलवीर्यसमन्वितॆ ॥ 203॥.

लाभ हॊता

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ राज्यं लाभकारी कार्यॊं मॆं संलग्न चतुष्पद जीवॊं का लाभ हॊता है यॊगकारक। कॆ स्थान मॆं बलवान कॆतु कॆ रहनॆ सॆ॥203॥

पुत्रलाभॊ यशॊवृद्धिगृहॆ लक्ष्मीकटाक्षकृत ॥ .. भृत्यवर्गधनप्राप्तिः सॆनापत्यं महत्सुखम ॥ 204॥

-, ’ पुत्रं का लाभ, यश की वृद्धि, गृह मॆं लक्ष्मी का प्रवॆश, नौकरॊं द्वारा भी धन

का लाभ॥204॥

भूपालमित्रं कुरुतॆ यानाम्बर विभूषणम । । दायॆशात्पष्टरि:फस्थॆ रन्ध्र वा पापसंयुतॆ ॥ 205॥

राजा सॆ मित्रता और  यज्ञ आदि सॆ वस्त्र आभूषण का लाभ हॊता है। दशॆश सॆ 6।12।8 स्थान मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ॥205॥ .

कुलहॊ.. दंतरॊगश्च चौरव्याघ्रादिपीडनम । ज्वरातिसारकुष्ठादिदारपुत्रादिपीडनम ॥206॥।

कलह दांत मॆं रॊग, चॊर व्याघ्र सॆ पीडा हॊती है। ज्वरातिसार और  कुष्ठ रॊग हॊता है, स्त्री पुत्रादि कॊ पीडा हॊती है॥206॥

द्वितीयसप्तमस्थानॆ दॆहॆ व्याधिर्भविष्यति । । सन्मानं ध्रनसन्तापं धनधान्यस्य प्रच्युतिम ॥

मृत्युंजयं प्रकुर्वीत. सर्वसम्पत्प्रदायकम ॥ 207॥

2।7 स्थान मॆं हॊ तॊ शरीर मॆं व्याधि का भय, धन का संताप, धन-धान्य की हानि हॊती है। इसकॆ शान्त्यर्थ भी सम्पत्ति कॊ दॆनॆ वालॆ मृत्युंजय मंत्र का जप कराना चाहियॆ॥207॥

अथभौमदशायांशुक्रान्तर्दशाफलम। कुजस्यान्तर्गतॆ शुक्रॆ कॆन्द्रलाभत्रिकॊणगॆ ।

स्वॊच्चॆ वा स्वसँगॆ वापि शुभस्थानाधिपॆऽथवा ॥ 2 08॥

भौम की दशा मॆं कॆन्द्र, लाभ, त्रिकॊण वा अपनॆ उच्च, अपनी राशि मॆं गयॆ हुयॆ शुक्र कॆ अन्तर मॆं वा शुभ स्थान कॆ स्वामी शुक्र कॆ अन्तर मॆं॥208॥

: राज्यलाभं महत्सौख्यं गजाश्वाम्बरभूषणम ।

लग्नाधिपॆन सम्बंधॆ पुत्रदारादिवर्धनम ॥209॥

राज्य का लाभ, बडा सुख, हाथी, घॊडा, वस्त्र, आभूषण का सुख हॊता है। लग्नॆश सॆ संबन्ध करता हॊ तॊ पुत्र, स्त्री आदि की वृद्धि॥209॥


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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥ आयुषॊ वृद्धिरैश्वर्यं भाग्यवृद्धिसुखं भवॆत ॥ दायॆशात्कॆन्द्रलाभस्थॆ कॊणॆवा धनगॆऽपि वा ॥ 210॥।

आयुष्य की वृद्धि, ऐश्वर्य और  भाग्यवृद्धि तथा सुख हॊता है। दशॆश सॆ कॆन्द्र, लाभ, त्रिकॊण वा धन स्थान मॆं हॊ तॊ॥210॥।

तत्कालॆ श्रियमाप्नॊति पुत्रलाभं महत्सुखम ॥ स्वप्रभॊश्च महत्सौख्यं श्वॆतवस्त्रादिलाभकृत ॥ 211॥

तत्काल लक्ष्मी की प्राप्ति पुत्र का लाभ और  बहुत सुख हॊता है। अपनॆ स्वामी की कृपा सॆ बडा सुख सफॆद वस्त्र आदि का लाभ हॊता है॥211॥। । महाराजप्रसादॆन ग्रामभूम्यादिलाभदम ॥

। मुक्त्यन्तॆ फलमाप्नॊतिगीतनृत्यादिलाभकृत ॥212॥ । राजा की कृपा सॆ ग्राम, भूमि आदि का लाभ हॊता है, दशा कॆ अन्त मॆं गती, नृत्य आदि का सुख॥212॥

पुण्यतीर्थस्नानलाभं कर्माधिपसमन्वितॆ ॥ दानधर्मदयापुण्यं तडागं कारयिष्यति ॥ 213॥

पुण्यतीर्थ मॆं स्नान का लाभ हॊता है। कर्मॆश सॆ युक्त हॊ तॊ दान, धर्म, दया, पुण्य हॊता है और  तालाब आदि कॊ बनवाता है।:213॥

दायॆशाद्रन्ध्ररिःफस्थॆ षष्ठॆ वा पापसंयुतॆ । ।

करॊति दुःखबाहुल्यं दॆहपीडा धनक्षयम ॥ 214॥... । दशॆश सॆ 8।12।6 स्थान मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ अत्यन्त दु:ख, शरीर मॆं पीडा, धन का नाश॥214॥।

राजचौरादिभीतिश्च गृहॆ कलहमॆव च । दारपुत्रादिपीडा च, गॊमहिष्यादिनाशकृत ॥215॥

राजा, चॊर का भय, घर का कलह, स्त्री पुत्रादि कॊ कष्ट, गौ, भैंस का नाश हॊता है॥215॥

द्वितीयद्यूननाथॆ तु दॆहबाधा भविष्यति । श्वॆतां गां महीषीं दद्यादायुरारॊग्यप्राप्तयॆ ॥ 216॥

2।7 भाव का स्वामी हॊ तॊ शरीर की बाधा हॊती है। इसकी शान्ति कॆ लियॆ सफॆद गौ सफॆद भैंस का दान करना चाहियॆ॥216॥।

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480 . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

 अर्थभौमदशायसूर्यान्तर्दशाफलम्कुजस्यान्तर्गत सूर्यॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रकॆन्द्रगॆ ॥ मूलत्रिकॊणलाभॆ वा भाग्यकर्मॆशसंयुतॆ ॥ 217॥

भौम की दशा मॆं अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं वा कॆन्द्र वा मूलत्रिकॊण वा लाभ स्थान मॆं गयॆ हुयॆ भाग्यॆश कर्मॆश सॆ युत सूर्य कॆ अन्तर मॆं॥217॥

तद्भुक्तौ वाहनं कीर्तिः पुत्रलाभं च विंदति । धनधान्यसमृद्धिः स्थागृहॆ कल्याणसम्पदः ॥ 218॥

वाहन, यश और  पुत्र का लाभ हॊता है। धन धान्य आदि समृद्धि का लाभ, गृह मॆं कल्याण॥218॥॥

क्षॆमारॊग्यं महैश्वर्य राजपूज्यं महत्सुखम ॥ . . व्यवसायात्फलाधिक्यं विदॆशॆ राजदर्शनम ॥ 219॥

* कुशल आरॊग्यता, महा‌ऐश्वर्य, राजा सॆ पूजा, सुख, विदॆश मॆं रॊजगार सॆ लाभ और  राजा का दर्शन हॊता है॥219॥।

दायॆशात्वष्ठरःफॆवा रन्ध्र वा पापसंयुतॆ । दॆहपीडा मनस्तापः, कार्यहानिर्महद्भयम ॥ 220 ॥।

दशॆश सॆ 6।12।8 स्थान मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ शरीर मॆं पीडा मन मॆं संताप, कार्य की हानि, भय॥220॥

शिरॊरॊगं ज्वरादिश्च अतीसारमथापि वा । द्वितीयद्यूतननाथॆ तु सर्पज्वरविषाद्भयम ॥ 221॥।

शिर मॆं रॊग, ज्वर और  अतिसार हॊता है। 2।7 भाव कॆ स्वामी हॊं तॊ सर्प, ज्वर, विष सॆ भय॥221॥

सुतपीडाकरं चैव शान्तिं कुर्याद्यथाविधि ॥ । दॆहारॊग्यं प्रकुरुतॆ धनधान्य समृद्धिदम ॥ 222॥।

पुत्र कॊ पीडा हॊती है। इसकी यथाविधि शान्ति करनॆ सॆ दॆह मॆं आरॊग्यता । और  धन धान्य की वृद्धि हॊती है॥222॥

कुजस्यानन्तर्गतॆ चन्द्रॆ स्वॊच्चॆ, स्वक्षॆत्रकॆन्द्रगॆ । ... भाग्यवाहनकर्मॆशलग्नाधिपसमन्वितॆ ॥223॥

भौम की दशा मॆं अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं कॆन्द्र मॆं गयॆ हुयॆ भाग्य चतुर्थ, दशम, और  लग्नॆश सॆ युक्त चन्द्रमा कॆ अन्तर मॆं॥223॥।

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

छॆ करॊति विपुलं राज्यं गन्धमाल्याम्बरीदिकम । तडागं गॊपुरादीनां पुण्यधर्मादिसंग्रहम ॥224॥

बडॆ राज्य का गंध, माल्य वस्त्रादि कॆ साथ लाभ हॊता है, लालाबा किल्ला आदि का निर्माण हॊता है, पुण्य धर्म आदि हॊतॆ हैं॥224] ।

विवाहॊत्सवकर्माणि : दारपुत्रादिसौख्यकृत ॥ ’पितृमातृसुखप्राप्तिं गृहॆ लक्ष्मीकटाक्षकृत ॥225॥

विवाहादि उत्सव हॊता है। स्त्री पुत्रादि का सुख हॊता है, प्पिता-माता कम सुख हॊता है और  गृह मॆं लक्ष्मी का वास हॊता है॥225॥

महाराजप्रसादॆन . इष्टसिद्धिसुखादिकम । पूर्णचन्द्रॆ पूर्णफलं क्षीणॆ स्वल्पफलं भवॆत ॥226॥ । राजा की प्रसन्नता सॆ अभीष्ट की सिद्धि हॊती हैं पूर्णा चन्द्रमा हॊ तॊ पूर्णफल और  क्षीणचन्द्र हॊ तॊ अल्प फल हॊता है॥226॥।

नीचारिस्थॆऽष्टमॆ व्ययॆ । दायॆशादिपुरंधकॆ । मरणं दारपुत्राणां कष्टं भूमतिनाशनम ॥227॥

यदि चन्द्रमा नीच राशि मॆं 6।8।12 भाव मॆं वा दशैश सै 68 4 मैं हॊ तॊ अपनॆ अन्तर मॆं स्त्री पुत्र का मरण और  भूमि की हामि औती है॥22718

पशुधन्यक्षयं चैव चौरादिरणभौतिकृत । द्वितीयद्यूननाथॆ तु ह्यपमृत्युर्मविष्यति ॥228॥

पशु, धान्य का नाश चौर आदि का और  संग्राम का शुभ हॊता है। 27 भाव का स्वामी हॊ तॊ अकाल मृत्यु हॊती है॥228।

। दॆहजाड्यं मनॊदुःखं दुर्गालक्ष्मीजपं चरॆत । श्वॆतां गां महिष दद्याद्दानॆनारॊग्यमादिशॆत ॥229॥

दॆह जडता और  मानसिक दु:ख हॊता है। शान्ति कॆ लियॆ दुर्गा और  लक्ष्मी का जप, सफॆद गौ और  भैंस का दान कराना चाहियॆ इसकॆ करनॆ सॆ आरॊग्य हॊती है॥229॥

 इतिकुजदशायामन्त्रर्दशाफलम। । अथ राहुदशायांराह्नन्तर्दशाफलम्कुलीरै वृश्चिकॆ चैव कन्यायां वा चापगॆहगॆऽगौ । तद्भुक्तौ : राजसन्मानं वस्त्रवाहनभूषणम ॥230॥


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* 482 , , . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

कर्क वा वृश्चिक म कुया वा धन मॆं राहु हॊ तॊ राह की दशा मॆं राहु कॆ - ह्रीं स्तर मॆं राजा सॆ सम्मम, वस्त्र, वाहन का लाभ हॊता है॥230॥।

व्यवसायात्फलाधिक्यं चतुष्पाज्जीवलाभकृत । . . अश्या पश्चिमॆ भागॆ वाहनाम्बरलाभकृत ॥ 231॥

व्यवसाय (सैगर) सॆ अधिक लाभ, चतुष्पद का लाभ हॊता है। पश्चिम दिशा झी मात्रा हॊती है और  उससॆ वाहन, वस्त्र का लाभ हॊता है॥231॥।

लझापचयॆ राहौ मुभग्रहयुतॆक्षितॆ । - मित्रांशैवुङ्गलाशॆ यॊगकारकसंयुतॆ ॥ 232॥

लग्न सॆ उपचय (3॥6॥10111) भाव मॆं राहु शुभग्रह सॆ युत दृष्ट हॊ वा

 मित्रांश मॆं चा उच्चांश मॆं लाभ दशम कॆ अंश मॆं हॊ और  यॊगकारक सॆ युत हॊ , तॊ॥2325॥

ज्वलानं महॊत्साहं राजप्रीतिं शुभावहाम ॥ गृहॆ - कल्याणसम्पत्तिर्दारपुत्रादिवर्धनम ॥233॥

राज्य का लाभ, उत्साह, और  राजा सॆ प्रॆम हॊता है। गृह मॆं कल्याण, सम्पत्ति, - चै छ आदि की वृद्धि हॊती है॥233॥

अष्ठांष्टमव्ययॆ राहाँ पापयुक्तॆऽथवीक्षितॆ ॥ :चौरादिळणपौडवाच सर्वत्र, जनपीडनम ॥234॥

यदि राहु 6812 भाव मॆं पापग्रह सॆ युत दृष्ट हॊ तॊ चॊर आदि सॆ, फॊडा

, आदि सॆ पीडा और  परिवार कॆ लॊगॊं कॊ कष्ट हॊता है॥234॥

क्जद्वारञ्जनद्वॆष । इष्टबन्धुविनाशनम । ’, ’ दापुत्रादिपीडा च सर्वत्र जनपीडनम ॥ 235॥

कर्मचारियॊं सॆ शत्रुता अभीष्ट बंधु का नाश हॊता है, स्त्री पुत्रादि कॊ पीडा और  अपनॆ लॊगॊं कॊ कुष्ट हॊता है॥235॥।

द्वितीयद्युनमाथॆतु , सप्तमस्थानमाश्रितः । सदा रॊग महाकष्टं शांतिकुर्याद्यथाविधि ।

आरॊग्यं सम्पदश्चैव भविष्यति न संशयः ॥ 2036॥

2 ॥67 आवा या स्वामी हॊ और  7 वॆं भाव मॆं बैठा हॊ तॊ सदा रॊग और  महाकष्ट हॊता है। इसकी शांन्ति यथाविधि करनॆ सॆ आरॊग्य और  सम्पत्ति का लाभ हॊता है इसमॆं संशय नहीं॥।336॥


23

अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः । ।

अथराहुदशायांगुर्वन्तरफलम्राहॊरन्तर्गतॆ जीवॆ लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ ।  स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆ वापिसुङ्गाशॆस्वांशगॆपिवा ॥237।

राहु की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं वा अपनी उच्चराशि वा अपनी राशि मॆं वा उच्चांश वा अपनॆ नवांश मॆं गयॆ हुयॆ गुरु कॆ अन्तर मॆं॥237॥

स्थानलार्भ मनॊधैर्यं शत्रुनाशं महत्सुखम ॥ राजप्रीतिकरं सौख्यं महतीव समश्नुतॆ ॥ 238॥।

स्थान का लाभ, मन मॆं धैर्य, शत्रु का नाश, अत्यंत सुख, राजा सॆ श्रीति, सुख हॊता है॥238॥

दिनॆ दिनॆ वृद्धिरपि शुक्लपक्षॆ शशी यथा । वाहनादि धनं भूरि गृहॆ गॊधनसंकुलम ॥239॥ दिन दिन शुक्लपक्ष कॆ चन्द्रमा कॆ समान वृद्धि हॊती है। वाहनादि धन का लाभ और  घर मॆं गॊधन की वृद्धि हॊती है॥239॥।

नै‌ऋत्यां पश्चिमॆ भागॆ प्रयाणं राजदर्शनम । इष्टकार्यार्थसिद्धिः स्यात्स्वदॆशॆ पुनरॆष्यति ॥ 240 ॥

नै‌ऋत्य वा पश्चिम की यात्रा और  राजा का दर्शन हॊता है। इष्टकार्य की सिद्धि हॊ जानॆ सॆ पुनः स्वदॆश कॊ लौट आती हैं॥240॥।

उपकारॊ ब्राह्मणानां तीर्थयात्रादिकर्मणाम । वाहनग्रामलाभश्च । दॆवब्राह्मणपूजनम ॥241॥

ब्राह्मणॊं का उपकार तीर्थ यात्रादि कर्म हॊतॆ हैं। वाहन, ग्राम का लाभ और  दॆवता ब्राह्मण का पूजन हॊता है॥241॥

पुत्रॊत्सवादिसंतॊषं नित्यं मिष्ठान्नभॊजनम ॥ .

नीचॆ वास्तंगतॆ वापि षष्ठाष्टव्ययराशिगॆ ॥ 242॥

, पुत्रॊत्सव आदि सॆ सन्तॊष और  नित्यमिष्ठान्न का भॊजन सॆता है। यदि गुरु ।, नीच मॆं हॊ वा अस्त हॊ वा 6।8।12 भाव मॆं हॊ । 242 ॥ल.

शत्रुक्षॆत्रॆ पापयुक्तॆ धनहानिर्भविष्यति । कर्मविघ्नॊ मानहानिः धनहानिर्भविष्यति ॥ 243॥


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484 : वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । . अथवा शत्रु राशि मॆं पापयुत हॊ तॊ धन की हानि हॊती है कार्य मॆं विघ्न,

* मानहानि, धन मॆं हानि हॊती है॥243॥ ! -, कलत्रपुत्रपीडा चः, हृद्रॊग, राजकार्यकृत । ।

दायॆशाकॆन्द्रकॊणॆ वा लाभॆ वा धनगॆऽपिवा ॥244॥. - स्त्री-पुत्र कॆ पौडा, हृदय का रॊग हॊता है। दशॆश सॆ कॆन्द्र, कॊण मॆं हॊ वा

ऎकादश वा घन स्वप्न मॆं हॊ।244॥

दुश्चिक्यॆ बलसम्पूर्णॆ गृहक्षॆत्रादिवृद्धिकृत । भॊजनाम्बरप्यादिदानधर्मजपादिकम ॥245॥

वा तीसरॆ भाव मॆं हॊ बली हॊ तॊ गृह, क्षॆत्र आदि की वृद्धि करता है भॊजन, वन्न, पशु आदि का लाग, दान, धर्म, जप आदि हॊतॆ हैं॥245॥।

झुक्यंतॆ राजकॊपाच्च द्विमासं दॆहपीडनम ॥ ।. ज्यॆष्ठतुविनाशं च भ्रातृपित्रादिपीडनम ॥246॥

अन्तम दशा कॆ अन्त मॆं 2 मास शरीर मॆं पीडा हॊती है। ज्यॆष्ठ भा‌ई का "श और  भा‌ई, पिता आदि कॊ कष्ट हॊता है॥246॥

"दपॆशवदल्यॆ वा रिःफॆ वा, पापसंयुतॆ ।

वन्दुकौ धनहानिः स्याद्दॆहपीडा भविष्यति ॥247॥ . दशॆश सॆ 6॥8॥12 भाव मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ उसकॆ अन्तर मॆं धन की

नि शरीर मॆं पीडा हॊती है॥247॥

द्वितीयचूननाथॆ , वा ह्यपमृत्युभविष्यति । स्वर्णस्य प्रतिमादानं शिवपूजां च कारयॆत ॥ दॆहारॊग्यं प्रकुरुतॆ शान्तिकुर्याद्विचक्षणः ॥248॥

2।7 आव का स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु हॊती है। सुवर्ण की गुरु की प्रतिमा (मूर्ति) म झन और  शिव की पूजा करनॆ सॆ शरीर आरॊग्य हॊता है अतः शान्ति कना चाहियॆ॥248॥

अथराहूदशायांशन्यन्तर्दशाफलम-. राहॊरन्तर्गत मन्दॆ लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ । । स्वॊच्चॆ मूलत्रिकॊणॆ वा दुश्चिक्यॆलाभराशिगॆ ॥ 249॥

हु की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं वा. अपनॆ उच्च वा मूल त्रिकॊण मॆं वा तीसरॆ भाव मॆं ऎकदाशभाव मॆं गयॆ हुयॆ॥249॥

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥

छ4 तद्भुक्तौ वाहन सॆवा राजप्रीतिकरं शुभम ॥ विवाहॊत्सव कार्याणि कृत्वापुण्यानिभूरिशः ॥ 250 ॥

शनि कॆ अन्तर मॆं वाहन, नौकरी राजा सॆ प्रीति हॊती है। विवाह आदि अनॆक पुण्य कायॊं कॊ मनुष्य करता है॥250॥ ।

आरामकरणॆ दक्षॊ तडागं कारयिष्यति । शूद्रप्रभुवशादिष्टलाभं गॊधनसंग्रहम ॥ 251॥

बगीचा और  तालाब बनानॆ कॊ उत्सुक हॊता है। शूद्र स्वामी सॆ गॊधन का संग्रह॥251॥।

प्रयाण पश्चिमगॆभागॆ प्रभुमूलाग्द्धनक्षयः । दॆहायासं फलाल्पत्वं स्वदॆशॆ पुनरॆष्यति ॥ 252॥

और  लाभ हॊता है। पश्चिम दिशा की यात्रा सॆ स्वामी द्वारा धन की हानि, दॆह मॆं शिथिलता अल्पफल कॊ प्राप्त हॊ पुनः स्वदॆश कॊ आता है॥252॥

नीचारिक्षॆत्रगॆ मन्दॆ रन्ध्र वा व्ययगॆऽपिवा । नीचारिराजभीतिश्च दारपुत्रादि पीडनम ॥ 253॥

यदि शनि नीच वा शत्रु गृह मॆं हॊ वा 8॥ 12 भाव मॆं हॊ तॊ नीचशत्रु और  राजा सॆ भय हॊता है और  स्त्री-पुत्र कॊ पीडा हॊती है॥253॥

आत्मबन्धुमनस्ताप दायादजनविग्रहम । व्यवहारॆ च कलहमकस्माद्भूषणं लभॆत ॥ 254॥

आत्मीय बन्धु‌ऒं कॆ मनमॆं सन्ताप और  दायादॊं सॆ शत्रुता हॊती है। व्यवहार मॆं कलह और  अकस्मात आभूषण का लाभ हॊता है॥254॥

दायॆशात्वष्ठरिःफॆ वा रन्ध्र वा पापसंयुतॆ । ।

हृद्रॊगं मानहानिश्च विवादः शत्रुपीडनम ॥ 255॥ । दशॆश सॆ 6।12।8 भाव मॆं पापग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ हृदय का रॊग, मानहानि, विवाद और  शत्रु सॆ पीडा हॊती है॥255॥

अन्यदॆशप्रयाणं च गुल्मवद्द्व्याधिभाग्भवॆत । कुभॊजनं कॊद्रवादि जातिदुःखाद्भयं भवॆत ॥ 256॥

विदॆश की यात्रा हॊती है। गुल्मरॊग कॆ समानव्याधि कॊद्रव आदि कुत्सित भॊजन और  जातीय लॊगॊं सॆ दुःख का भय हॊता है॥256॥।


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486 , वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । । द्वितीयद्यूननाथॆ तु ह्यपमृत्युभविष्यति ।

कृष्णां गां महिषीं दद्याद्दानॆनारॊग्यमादिशॆत ॥ 257॥ ।’ 27 भाव का स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है। काली गौ और  भैंस

कॆ दान करनॆ सॆ आरॊग्यता का लाभ हॊता है॥257॥। .. .... अथराहुदशायांबुधान्तर्दशाफलम

। राहॊरन्तर्गतॆ सम्यॆ भाग्यॆ वा स्वसँगॆऽपिवा ।

 तुङ्गॆ वा कॆन्द्रराशिस्थॆ पुत्रॆ वा लाभगॆऽपिवा ॥ 258॥।

राहु की दशा मॆं भाग्य (9) वा अपनी राशि, अपनॆ उच्च, कॆन्द्र, पंचम वा ऎकादश मॆं गयॆ हुयॆ॥258)।

राज़यॊगं प्रकुरुतॆ गृहॆ कल्याणवर्धनम ॥ व्यापारॆण धनप्राप्तिर्विद्यावाहनमुत्तमम ॥ 259॥।

बुध कॆ अन्तर मॆं राजयॊग का उदय, नित्य कल्याण की वृद्धि, व्यापार सॆ धन लाभ, विद्या और  वाहन का लाभ, विवाहॊत्सव आदि कार्य, चतुष्पदॊं का लाभ हॊता हैं॥259॥

विवाहॊत्सवकार्याणि चतुष्पाज्जीवलाभकृत । सौम्यमासॆ महत्सौख्यं स्ववारॆ राजदर्शनम ॥260॥ बुध कॆ मास मॆं महासुख और  बुध कॆ दिन राजा का दर्शन॥260॥ । सुगन्धपुष्पशय्यादिखीसौख्यं चातिशॊभनम ॥

महाराजप्रसादॆन, धनलाभॊ महद्यशः ॥ 261॥

सुगन्धं पुष्प, शय्या, और  स्त्री का सुख हॊता है, महाराज कॆ प्रसाद सॆ धन का लाभ और  बडा यश हॊता है॥261॥

दायॆशाकॆन्द्रलाभॆ वा दुश्चिक्यॆः भाग्यकर्मगॆ । । दॆहारॊग्यं हृदुत्साहं इष्टसिद्धिः सुखावहा ॥ 26 2॥।

दशॆश सॆ कॆन्द्र वा लाभ वा तीसरॆ वा 9।10 भाव मॆं बुध शरीरारॊग्यता, हृदय मॆं उत्साह, इष्टसिद्धि और  सुख हॊता है॥262॥, ।. पुण्यश्लॊकादिकीर्तिश्च पुराणश्रवणादिकम ॥

विवाहॊ यज्ञदीक्षा च दानधर्मदयादिकम ॥ 26 3 ॥ * पुण्यश्लॊक, कीर्ति और  पुराण श्रवण, विवाह, यज्ञ-दीक्षा दान-धर्म दया. आदि हॊता है॥263॥

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

छ षष्ठाष्टमव्ययॆ सौम्यॆ मन्दाशियुतॆक्षितॆ ॥ दायॆशात्वष्ठरिःफॆ वा रंधॆ वा पापसंयुतॆ ॥ 264॥,

6।8।12 वॆं भाव मॆं बुध हॊ और  शनि की राशि मॆं शनि सॆ दृष्ट हॊ अथवा दशॆश सॆ 6।12।8 भाव मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ॥264॥

दॆवब्राह्मणनिन्दा च भॊगभाग्यविहीनभाक । सत्यहीनश्च दुर्बुद्धिश्चौराहिनृपपींडनम ॥265॥

दॆवता-ब्राह्मण की निन्दा, भॊगादि सॆ विहीन, सत्य सॆ हॊन, दुर्बुद्धि का उदय, चॊर, सर्प राजा सॆ पीडा हॊती है॥265॥।

अकस्मात्कलहश्चैव गुरुपुत्रादि नाशनम । अर्थव्ययॊ राजकॊपॊदारपुत्रादिपीडनम ॥266॥

अकस्मात कलह, गुरु पुत्र आदि का नाश, हॊता है। द्रव्य का व्यय, राजा का कॊप, स्त्री पुत्र आदि कॊ पीडा हॊता है॥266॥।

द्वितीयद्यूननाथॆ वा ह्यपमृत्यु तयाऽश्रियम । तद्दॊषपरिहारार्थं विष्णुसहस्त्रकं जपॆत । स्वगृह्यॊक्तविधानॆन शान्तिं कुर्याद्विचक्षणः ॥ 267॥

2।7 भाव का स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु और  दरिद्रता हॊती है। इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ विष्णुसहस्त्र नाम का जप और  अपनॆ शाखा कॆ अनुसार शान्ति करना चाहियॆ॥267॥।

. अथराहुदशायांकॆत्वन्तर्दशाफलम्राहॊरन्तर्गतॆ कॆतौ भ्रमणं राजकृब्द्धनम । वातज्वरादिरॊगश्च चतुष्पाज्जीवहानिकृद ॥268॥

राहु की दशा मॆं कॆतु की अन्तर्दशा मॆं भ्रमण और  राजा सॆ धन प्राप्ति और  वातज्वर आदि रॊग, चतुष्पदजीवॊं की हानि हॊती है॥268॥

अष्टमाधिपसंयुक्तॆ दॆहजाड्यं मनॊरुजम । ।

शुभयुक्तॆ शुभैदृष्टै दॆहसौख्यं धनागमः ॥ 269॥ । अष्टमॆश सॆ युत हॊ तॊ शरीर मॆं जडता और  मानसिक कष्ट हॊता है। शुभग्रह

सॆ युत और  दृष्ट हॊ तॊ सुख और  धन का लाभ हॊता है॥269॥


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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । राजसन्मानभूप्राप्तिगृहॆ शुभकरॊ भवॆत । । लग्नाधिपॆन सम्बन्धॆ इष्टसिद्धिः सुखावहा ॥ 270॥

राजा सॆ सन्मान, धन भूमि का लाभ और  गृह मॆं शुभ कार्य हॊंगॆ लग्नॆश हॊ सम्बंध हॊनॆ सॆ इष्ट सिद्धि हॊती है॥270॥

लग्नाधिपसमायुक्तॆ लाभॊवा भवति ध्रुवम ।

चतुष्पाञ्जीवलाभः स्यात्कॆन्द्रॆ वाथ त्रिकॊणगॆ ॥ 271॥ । लग्नॆश सॆ सम्बन्ध हॊ तॊ अभीष्ट की सिद्धि और  सुख हॊता है। यदि लग्नॆश सॆ युत हॊ तॊ धन का लाभ हॊता है। कॆन्द्र त्रिकॊण मॆं रहनॆ सॆ चतुष्पद का लाभ हॊता है॥271॥।

 रंध्रस्थानगतॆ कैतौ व्ययॆ वा वलवर्जित ।

*.तद्भुक्तौ बहुरॊगः स्याच्चौराग्निव्रणपीडनम ॥ 272॥ । 8।12 स्थान मॆं निर्बल कॆतु हॊ तॊ उसकॆ अन्तर मॆं अनॆक रॊग, चॊर, अग्नि और  फॊडा सॆ पीडा॥272॥

पितृमातृवियॊगश्च भ्रातृद्वॆषं मनॊरुजम ॥

स्वप्नभॊवा महाकष्टं वैषम्यं चित्तहिंसकम ॥273॥ . पिता माता सॆ वियॊग, भा‌ई सॆ द्वॆष, मानसिक कष्ट हॊता है और  अपनॆ मालिक सॆ बैर और  उससॆ कष्ट हॊता है॥273॥

द्वितीयद्युननाथॆ तु दॆहृवाधा भविष्यति ।

तद्दॊषपंरिहारार्थ छागदानं च कारयॆत ॥274॥ । 27 भाव का स्वामी हॊ तॊ शरीर मॆं बाधा हॊती है। इसकॆ शान्यॆ बकरी का दान करना चाहियॆ॥274॥ . . अथराहुदशीयांशुक्रान्तर्दशाफलम

राहॊरन्र्तगतॆ शुक्रॆ लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ । लाभॆ वाः वलसंयुक्तॆ यॊगप्रावल्यमादिशॆत ॥ 275॥

राहु की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा ऎकादश स्थान मॆं बलवान शुक्र हॊ तॊ प्रबल यॊग हॊता है॥275॥।

विप्रमूलाद्धनप्राप्तिमहिष्यादिलाभकृत ॥ पुत्रॊत्सवादिसन्तॊषं गृहॆ कल्याणसम्भवम ॥ 276॥।

इसकॆ अन्तर मॆं ब्राह्मण द्वारा धन का लाभ, गौ भैंस का लाभ, पुत्रॊत्सव, गृह मॆं कल्याण॥276॥

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

489

 सम्मानं राजसन्मानं राज्यलाभं महत्सुखम । ।

स्वॊच्चॆ वा स्वसँगॆ वापि तुङ्गांशॆ स्वांशगॆऽपिवा ॥ 277॥।

सम्मान, राजा सॆ आदर, राज्य सुख का लाभ हॊता है। यदि शुक्र अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं, उच्चांश मॆं वा अपनॆ नवांश मॆं हॊ तॊ॥278॥।

नूतनगृहनिर्माणं नित्यं मिष्ठान्नभॊजनम ।

कलत्रपुत्रविभवं मित्रसंयुक्त भॊजनम ॥ 278॥। । नूतन गृह का निर्माण, नित्य मिठा‌ई का भॊजन, स्त्री, पुत्र वैभव और  मित्रॊं कॆ साथ भॊजन हॊता है॥278॥।

अन्नदानप्रियं नित्यं दानधर्मादिसंग्रहम । महाराजप्रसादॆन वाहनाम्बरभूषणम ॥ 279॥

अन्नदान तथा अन्य धार्मिक क्रियायॆं और  महाराज की प्रसन्नता सॆ वाहनवस्त्र आभूषण का लाभ॥279 ॥

व्यवसायात्फलाधिक्यं विवाहॊ मौजिबंधनम । षष्ठाष्टमव्ययॆ शुक्रॆ नीचॆ शत्रुगृहॆस्थितॆ ॥ 280॥

व्यवसाय सॆ अधिक लाभ और  विवाह यज्ञॊपवीत आदि उत्सव हॊतॆ हैं। यदि शुक्र 6।8।12. भाव मॆं हॊ नीच मॆं वा शत्रु गृह मॆं हॊ॥280॥

मन्दारफणिसंयुक्तॆ तद्भुक्तौ रॊगमादिशॆत । अकस्मात्कलहं । चैव पितृपुत्रवियॊगकृत ॥ 281॥।

शनि, भौम राहु सॆ युत हॊ तॊ इसकॆ अन्तर मॆं रॊग, अकस्मात कलह पिता- पुत्र सॆ वियॊग॥281॥ .. स्वबंधुजनहानिश्च सर्वत्र जनपीडनम ।

। दायादि कलहं चैव स्वप्रभॊः स्वस्यमृत्युकृत ॥ 282॥

अपनॆ बन्धु‌ऒं की हानि, सभी जनॊं कॊ कष्ट, दायादॊं सॆ कलह, अपनॆ स्वामी तथा अपनॆ कॊ मृत्युतुल्य कष्ट॥282॥

। कलत्रपुत्रपीडां च शूलरॊगादि सम्भवम । । दायॆशाकॆन्द्रराशिस्थॆ त्रिकॊणॆ वा समन्वितॆ ॥284॥

। स्त्री पुत्र कॊ कष्ट और  शूल रॊग की सम्भावना हॊती हैं। दशॆश सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं वा युत हॊ॥284॥


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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । लाभॆ वा धर्मराशिस्थॆ क्षॆत्रपालान्महत्सुखम ॥ सुगंधवस्त्रशंय्यादि- गानविद्यापरिश्रमम ॥ 285॥ लाभ या नवम भाव मॆं शुक्र हॊ तॊ क्षॆत्रपाल सॆ सुख हॊता है॥285॥ । छत्रचामरवाद्यादिगंधपद्मसमन्वितम । 1

दायॆशाद्रिपुरंध्रस्थॆ व्ययॆ वा पापसंयुतॆ ॥ 286॥

और  छत्र, चामर, बाजा आदि गंधादि सॆ युक्त हॊता है। दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं पापग्रह सॆ मुत शुक्र हॊ तॊ॥286॥

: विषाहिनृपचौरादिमूत्रकृच्छ्कान्महद्भयम ॥ । प्रमॆहादुधिरं रॊग कुत्सितान्नं शिरॊरुजम ॥287॥

उसकॆ अन्तर मॆं विष-सर्प-राजा-चॊर आदि सॆ तथा कृच्छ्र (सुजाक) रॊग सॆ भय हॊता है। प्रमॆह सॆ रक्त का रॊग और  खराब अन्न का भॊजन तथा शिर मॆं रॊग हॊता हैं॥28711 ’,

कारागृहप्रवॆशं च . राजदंडाद्धनक्षयम ॥ .... द्वितीयद्यूननाथॆ वा दारपुत्रादिनाशनम ॥ 288॥

कारागाह (जॆल) मॆं प्रवॆश, स्त्री पुत्रादि का नाश हॊता है। 217 भाव का स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है॥288॥

आत्मपीडा भयं . चैवह्यपमृत्युस्तथाभवॆत । ’दुर्गालक्ष्मीजपं कुर्यान्मृत्युनाशकरॊ भवॆत ॥ 289॥

दुर्गा और  लक्ष्मी का जय करनॆ सॆ मृत्यु का नाश हॊकर सुख हॊता है॥289॥

अथराहुदशायांसूर्यान्तर्दशाफलम्राहॊरन्तर्गतॆ सूर्यॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रकॆन्द्रगॆ ॥ त्रिकॊणॆ लाभगॆ वापि तुंगांशॆस्वांशमॆऽपिवा ॥ 290॥

राहु की दशा मॆं अपनॆ उच्च मॆं, वा अपनी राशि मॆं कॆन्द्र त्रिकॊण, ग्यारहवॆं वा अपनॆ उच्चांश वा अपनॆ नवांश मॆं गयॆ हुयॆ॥290॥।

 शुभग्रहॆण संदृष्टॆ राजप्रीतिकरं शुभम ।

धनधान्यसमृद्धिश्च ह्यल्पसौख्यं सुखावहम ॥ 291॥

शुभग्रह सॆ दॆखॆ जातॆ हुयॆ सूर्य कॆ अन्तर मॆं राजा सॆ प्रॆम, धन धान्य समृद्धि की प्राप्ति, अल्पसुख॥291॥,


89

अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥

888 अल्पग्रामाधिपत्यं च स्वल्पलाभॊ भविष्यति । भाग्यलग्नॆशसंयुक्तॆ कर्मॆशॆन निरीक्षितॆ ॥292॥

छॊटॆ ग्राम का आधिपत्य, अल्पलाभ हॊता है। भाग्यॆश और  लग्नॆश सॆ युक्त हॊ और  कमॆंश सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ॥292॥

राजाश्रयॊ महत्कीर्तिर्विदॆशगमनं महत ॥ दॆशाधिपत्ययॊगं च गजाश्वाम्बरभूषणम ॥ 293॥

राजा सॆ आश्रय की प्राप्ति, बडा यश, विदॆशयात्रा हॊती है। यह दॆश का अधिपति यॊग हॊता है. इसमॆं ग्राम का अधिकार हाथी, घॊडा वस्त्र आभूषण की प्राप्ति॥293॥।

। मनॊभीष्टप्रदानं च पुन्नकल्याणसम्भवम ॥

दायॆशाद्रिःफरन्ध्रस्थॆ षष्ठॆ वा नीचगॆऽपि वा ॥ 294॥

मन कॆ अनुकूल इष्टसिद्धि, पुत्र कॆ लाभ का सम्भव हॊता है यदि दशॆश 12।8।6 स्थान मॆं सूर्य हॊं वा नीच राशि मॆं हॊं तॊ॥294॥ ।

ज्वरातिसाररॊगं च कलहंराजविद्विषम । प्रयाणं शत्रुवृद्धिश्च नृपचौराग्निपीडनम ॥ 295॥

ज्वरातिसार रॊग, कलह, राजा सॆ विद्वॆष, यात्रा, शत्रु‌ऒं की वृद्धि, राजा चॊर अग्नि सॆ पीडा हॊती है॥295 ॥।

दायॆशात्कॆन्द्रकॊणॆ वा दुश्चिक्यॆ लाभगॆऽपिवा ॥ विदॆशॆ राजसन्मानं कल्याणं च शुभावहम ॥ 296॥

दशॆश सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा तीसरॆ वा लाभ स्थान मॆं हॊ तॊ विदॆश मॆं राजा । सॆ सम्मान, कल्याण और  शुभ हॊता है॥296॥।

द्वितीयद्यूननाथॆतु महारॊगॊ भविष्यति ।

सूर्यप्रसन्नशान्ति च कुर्यादारॊग्यसम्भवाम ॥ 297॥

2।7 भाव का स्वामी हॊ तॊ महारॊग हॊता है। सूर्य की प्रसन्नता की शान्ति करनॆ सॆ आरॊग्यता हॊती है॥297॥।

अथराहुदशायांचन्द्रान्तर्दशाफलम्राहॊरन्तर्गतॆ चन्द्रॆ स्वक्षॆत्रॆ स्वसँगॆऽपि वा ।

कॆन्द्रत्रिकॊणलाभॆ वा मित्र शुभसंयुतॆ ॥298॥ । राह की दशा मॆं अपनी राशि, उच्चराशि मॆं कॆन्द्रत्रिकॊण, वा लाभ मॆं वा मित्र की राशि मॆं शुभग्रह सॆ युत चन्द्रमा हॊ तॊ उसकॆ अन्तर मॆं॥298 ॥


-ःळूश्श

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...

- 897

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । राज्यत्वं राजपूज्यत्वं ध्नार्थं धनलाभकृत ॥

आरॊग्यभूषणं चैव मित्रस्त्रीपुत्रसंपदः ॥299॥ । राज़ा हॊता है अथवा राजा सॆ पूज्य हॊता है, धन कॆ लियॆ धनका लाभ हॊता है, आरॊग्यता, आभूषण, मित्र, स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति का लाभ हॊता है॥299॥

पूर्णचन्द्रॆ पूर्णफलं राजप्रीत्या शुभावहम । । अश्ववाहनलाभः स्यात्गृहक्षॆत्रादिवृद्धिकृत ॥300 ॥

पूर्ण चन्द्रमा हॊ तॊ पूर्णफल हॊता है और  राजा की प्रसन्नता सॆ शुभद फल हॊतॆ हैं और  घॊडा आदि वाहनॊं का लाभ और  गृह क्षॆत्र आदि की वृद्धि हॊती है॥300॥

दायॆशात्सुखभाग्यस्थॆ कॆन्द्रॆ वा लाभगॆऽपिवा । । . . लक्ष्मीकटाक्षचिन्हानि गृहॆ कल्याणसम्भवम ॥ 3 0 1॥

दशॆश सॆ चौथॆ नवॆं, कॆन्द्र वा लाभ स्थान मॆं हॊ तॊ लक्ष्मी की कृपा कॆ चिह्न दिखा‌ई दॆतॆ हैं, गृह मॆं कल्याण हॊता है। ।301 ॥

पूर्णकार्यार्थसिद्धिः स्याद्धनधान्यसुखावहम । । . सत्कीर्त्तिलभसन्मानं दॆव्याराधनमाचरॆत ॥ 30 2॥

पूर्णकार्य और  धन का लाभ, कीर्ति वृद्धि और  सन्मान हॊता है। दॆवाराधन करना चाहियॆ॥302॥।

दायॆशात्पष्ठरंध्रस्थॆ व्ययॆ वा वलसंयुतॆ । पिशाचक्षुद्रव्याघ्रादिगृहक्षॆत्रार्थनाशनम ॥303।

दशॆश सॆ 6।8।12 वॆं भाव मॆं बलवान हॊ तॊ पिशाच, क्षुद्रजन्तु-व्याघ्र आदि सॆ गृह-खॆती और  धन का नाश हॊता है॥303॥।

मार्गॆचौरभयं चैव ब्रणाधिक्यं महाभयम । द्वितीयद्यूननाथॆतु अपमृत्युस्तदा भवॆत ।

श्वॆतांगा महिषीं दद्याद्दानॆनारॊग्यता भवॆत ॥ 304॥ - मार्ग मॆं चॊर का भय और  ब्रण (फॊडा) सॆ बडा भय हॊता है। 2।7 भाव कॆ स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है। सफॆद गौ भैस कॆ दान सॆ आरॊग्यता हॊती है॥304॥

अथराहुदशायभौमान्तर्दशाफलम्राहॊरन्तर्गतॆभौमॆ लग्नाल्लाभत्रिकॊणगॆ । कॆन्द्रॆ वा शुभसंयुक्तॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रमॆऽपि वा ॥ 305॥

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।.


3

अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः । राहु की दशा मॆं लग्न सॆ लाभ वा त्रिकॊण वा कॆन्द्र शुभ‌अह सॆ अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं गयॆ हुयॆ भौम कॆ अन्तर मॆं॥305॥

नष्टराज्यधनप्राप्तिः गृहक्षॆत्राभिवृद्धिकृत ॥ इष्टदॆवप्रसादॆन सन्तानसुखभॊजनम ॥306॥

नष्टराज्य की प्राप्ति गृह क्षॆत्र की वृद्धि हॊती है। इष्टदॆव असाळा सै सन्तान्त का सुख, भॊजन का सुख हॊता है॥306॥। ।

क्षिप्रभॊज्यांन्महत्सौख्यं भूषणाम्बरलाभकृत । दायॆशाकॆन्द्रकॊणॆवा दुश्चिक्यॆलाभगॆऽपिवा ॥307॥

शीघ्र भॊजन महासुख, भूषण, वस्त्रादि का लाभ हॊता है। दशैश सॆ कॆन्द्र वा कॊण मॆं वा तीसरॆ वा लाभ स्थान मॆं हॊ तॊ॥3076 ॥

रक्तवस्त्रादिलाभः स्यात्प्रयाणं राजदर्शनम ।

पुत्रवर्गॆषुकल्याणं स्वप्रभॊश्च महत्सुखम ॥308॥

लाल वस्त्रादि का लाभ, यात्रा और  राजा का दर्शन, पुत्र वर्ग मॆं कल्याण्णा, महासुख॥308॥

सॆनापत्यं महॊत्साहं भ्रातृवर्गधनागमम । । दायॆशाद्रिःफरंधॆ, वा षष्ठॆ पापसमन्वितॆ ॥309॥

सॆनापतिपद का लाभ बडा उत्साह और  भा‌इयॊं सॆ धन बा लामा ह्यॊलता है। दशॆश सॆ 12।8।6 भाव मॆं पापग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ। 309 ॥ । पुत्रदारादिहानिश्च सॊदाणां च पीडनम ।

स्थानभ्रंशं बंधुवर्गदारपुत्रविरॊधनम ॥310॥

 पुत्र स्त्री की हानि, भा‌इयॊं कॊ पीडा, स्थान भ्रष्ट, बंधु‌ऒं सॆ ताथ्या स्त्री, पुत्र सॆ विरॊध हॊता है॥310॥।

चौरादिब्रणभीतिश्च सॊदराणां च पीडनम ।

आदौ क्लॆशकरंचैवमध्यान्तॆ सौख्यमाप्नुयात ॥311॥

चौर तथा ब्रण सॆ भय और  भा‌इयॊं कॊ.कष्ट हॊता है। अन्तार पहलॆ कष्ट और  मध्य तथा अन्त मॆं सुख हॊता है॥311॥ ,

द्वितीयधूननाथॆतु दॆहालस्यं महद्भयम । ।

अनड्वाहॆ च गांदद्याद्दॆहारॊग्यंभविष्यति ॥312॥।

यदि 2।7 भाव का स्वामी हॊ तॊ दॆह मॆं आलस्य और  बडा अथ हॊता है। बैल और  गौ का दान करनॆ सॆ आरॊग्यता हॊती है॥3125॥

इतिराहुदशायामन्तर्दशाफलम।

अन

.


494

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

अथगुरुंदशायांगुर्वन्तर्दशाफलम। स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆ जीनॆ लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ ।

अनॆकज्याधीशश्च सम्पन्नॊ राजपूजितः ॥1॥ मुझ कॊ दॆश मॆं अपनॆ उच्च, अपनी राशि मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं मैं हुयॆ गुरु कॆ अन्तर मॆं अनॆक राज्यॊं का स्वामित्व सम्पन्नता और  राजा सॆ यूज-सीया॥13

गॊपहिय्यादिलामञ्च, वस्त्रवाहनभूषणम । जूचनस्थाननिर्माण हयप्राकारसंयुतम ॥2॥

गौं, भैंस आदि का तथा वस्त्र आभूषण का लाभ हॊता है। नयॆ स्थान का निर्माण गृह आदि य लाभ हॊता है॥2॥

जान्तैश्वर्यसम्पत्तिर्भाग्यकर्मणिसंयुतॆ । ब्राह्मणप्रभुसन्मानं समानप्रभुदर्शनम ॥3॥ मादि गुरु आग्य वा कर्म मॆं हॊ तॊ हाथी आदि कॆ ऐश्वर्य सॆ युक्त॥3॥ । स्वभॊः स्वफलाधिक्यं दारपुत्रादिर भकृत ।

बौदाशॆ नीचराशिस्थॆ पष्ठाष्टव्ययराशिगॆ ॥4॥ , और  अपनॆ स्वामी सॆ अधिक लाभ, स्त्री आदि का लाभ हॊता है। यदि गरु । नौच्चांश्च ब्वां नीच्या राशि मॆं 68112 भाव मॆं हॊ तॊ॥4॥।

नीचङ्गं अहादुःख दायादजनविग्रहम ॥ कलहॊ न विचारॊस्य स्वप्रभुह्यपमृत्युकृत ॥5॥

नौ झै सङ्गछि महादु:ख, दायादॊं सॆ विरॊध, कलह, अपमृत्यु का अङ्ग्य

य। 14 14

फुत्रदारवियॊगं च धनधान्यार्थहानिकृत ॥

सप्तमाधिपदॊषॆण दॆहवाधा भविष्यति ॥6॥ - स्त्री सॆ वियॊग, धन धर्म का नाश हॊता है। सप्तमॆश हॊनॆ सॆ शरीर मॆं : शैया हॊता है॥6॥

छौषपरिहारार्थं शिवसाहस्त्रकं जपॆत ॥ रुद्रजायं च गॊदानं कुर्यादिष्टस्य प्राप्तयॆ ॥7॥

54.

अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः । । इस दॊष की शान्ति कॆ लियॆ शिवसहस्र नाम का जप, रूद्राष्टाध्याय का जप, गॊदान करनॆ सॆ अभीष्ट की प्राप्ति हॊती है॥7॥ . .

अथगुरुदशायांशन्यन्तर्दशाफलम्जीवस्यान्तर्गतॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रभित्रगॆ ॥ लग्नात्कॆन्द्रत्रिकॊणस्थॆ लाभॆ वा दलसंयुतॆ ॥8॥

गरु की दशा मॆं अपनॆ उच्च, अपनॆ गृह वा अपनॆ मित्र की राशि मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा लाभ मॆं बलवान शनि कॆ अन्तर मॆं॥8॥

राज्यलाभं महत्सौख्यं वस्त्राभरणसंयुतम ॥ धनधान्यादिलाभं च लाभं बहुसौख्यकृत ॥9॥

राज्य का लाभ, महान सुख, वस्त्र आभूषण का लाभ, धन अन्य का लाभ, स्त्री का लाभ अनॆक सुख॥9॥

वाहनाम्बरपश्वादिभूलाभं स्थानलाभदम । पुन्नमित्रादिसौख्यं च नरवाहनयॊगकृत ॥ 10 । ।

वाहन, वस्त्र, पशु आदि तथा भूमि का लाभ और  स्थान का लाभ हॊता है। पुत्र मित्र आदि का सुख और  मनुष्य की सवारी का लाभ हॊता हैं॥10॥

नीलवस्त्रादिलाभश्च नीलावं लभतॆ च सः ॥ पश्चिम दिशमाश्चित्य प्रयाण राजदर्शनम 6, 411 ।

नीलॆ वस्त्र, नीलॆ घॊडॆ का लाभ, पश्चिम दिशा की यात्रा और  राजा का दर्शन॥11॥

 भनॆकयानलाभं च निर्दिशॆन्यन्दमुक्तिषु ॥

लग्नात्वष्ठाष्टमॆ अदॆव्ययॆ नीचॆऽस्तगॆघ्यरौ ॥ 12 ॥

 और  अनॆक प्रकार की सवारी का लाभ हॊता है लग्न सॆ 6.8॥12 स्थान मॆं शनि वा अस्त हॊ तॊ नीच वा शत्रु राशि मॆं॥12॥”

धनधान्यादिनाशश्च ज्वरपीडा मनॊरुजम ॥ स्त्रीपुत्रादिषु पीडा वा ब्रणात्यदिकयुग्यवॆत ॥13॥

धन धान्य का नाश ज्वर सॆ पीडा-मानसिक कष्ट, स्त्री पुत्रादि कष्ट क्रा‌ऎ का दु:ख॥13॥।

गृहॆत्वशुभकार्याणि भृत्यवर्गादिपीडनम ॥ गॊमहिष्यादिहामिश्च बन्धुद्वॆष्यॊ भविष्यति ॥14॥।

भॆ

-

। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । कार मॆं अशुभ आर्य, नौकरॊं कॊ कष्ट, गौ, भैंस आदि कॊ कष्ट बन्धु‌ऒं सॆ। द्वॆष हॊता है॥14॥

दायॆशाकॆन्द्रकॊणस्थॆ लाभॆ वा धनगॆऽपिवा ॥ । भूलाभार्थलाभश्च पुत्रलाभसुखंभवॆत ॥15॥

दशॆश सॆ कॆन्द्र का कॊण वा लाभ वा धन स्थान मॆं हॊ तॊ भूमि का लाभ, । पुत्र का नाम सुख।15॥

गॊगहिष्यादिलाभश्च शुद्रमूलाद्धनंभवॆत । .. . दायॆशादिपुरन्चंस्थॆव्ययॆ वा पापसंयुतॆ ॥16॥

" गौं, भैंस का लाभ और  शूद्र कॆ द्वारा धन का लाभ हॊता हैं। दशॆश सॆ ... 6॥8॥12 वॆं स्थान मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ॥16॥

धनधान्यादिनाशश्च बंधुमित्र विरॊधकृत । । .:. - उद्यॊगमङ्गॊ दॆहार्तिः स्वजनानां महद्भयम ॥17॥

धन धान्य या नाश, वंधु मित्रादि सॆ विरॊध, उद्यॊगहीन, शरीर मॆं कष्ट, और  । स्वजनॊं सॆ मान्य हॊता है॥17॥

द्विसप्तमाधिपॆ मंदॆ ह्यपमृत्युभविष्यति ।

उद्दॊषपरिहारार्थं विष्णुसाहस्रकं जपॆत । । कृष्णां गां महिथीं दद्याद्दानॆनारॊग्यमादिशॆत ॥18॥

2॥छ झाव का स्वामी शनि हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता हैं॥18॥ ’ इसकी शान्ति कॆ लियॆ विष्णु सहस्त्र नाम का जप काली गौ और  भैंस का ट्रम करनॆ सॆ आरॊग्यता प्राप्त हॊती है॥19॥

अथगुरुदशायांबुधान्तर्दशाफलम, जीवस्वान्तर्गत सौम्यॆ कॆन्द्रलाभत्रिकॊणगॆ ॥

स्वॊच्चॆ वा स्वसँगॆ वापि दशाधिपसमन्वितॆ ॥20॥।

गुरु की दशा मॆं कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं गयॆ हुयॆ अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं बचा दशैश सॆ युवा बुध कॆ अन्तर मॆं॥20॥

अर्थलाभ दॆहसौख्यं राज्यलाभं महत्सुखम । महाराजप्रसादॆन इष्टसिद्धिः सुखावहा ॥21॥

घन या लाय, अत्यंत सुख, राज्य का लाभ और  दॆह का सुख महाराज की असंत्रता सॆ इष्ट की सिद्धि सुख हॊता है॥21॥

है॥24॥

अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

497 वाहनाम्बरपश्वादिगॊधनैः संकुलं गृहम । दायॆशाद्भाग्यकॊणॆ वा कॆन्द्रॆ वा तुङ्गॆऽथवा ॥22॥

वाहन, वस्त्र, पशु आदि सॆ पूर्णता हॊती है। दशॆश सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण स्थान मॆं अपनॆ उच्च मॆं हॊ तॊ॥22॥

स्वदॆशॆधनलाभश्च । पितृमातृसुखावहम ॥ गजवाजिसमायुक्तॊ, राजमित्रप्रसादकः ॥23॥।

स्वदॆश मॆं ही धन का लाभ, पिता माता कॊ सुख हाथी-घॊडा सॆ युक्त और  । राजा सॆ मित्रता हॊती है॥23॥

शुभदृष्टौ शुभैर्युक्तॆ दारसौख्यं धनागमम ।

आदौ शुभं दॆहसौख्यं वाहनाम्बरलाभदम ॥24॥ शुभग्रह सॆ दृष्ट और  युत हॊ तॊ दॆह सुख, वाहन, वस्त्र का लाभ हॊता

अन्तॆतु धनहानिः स्यात्स्वात्मसौख्यं च जायतॆ । महीसुतॆन संदृष्टॆ शत्रुवृद्धिः सुखक्षयम ॥25॥

अन्त मॆं धन की हानि और  आत्मसुख हॊता है। मंगल सॆ दृष्ट हॊ तॊ शत्रु‌ऒं की वृद्धि और  सुख की हानि हॊती है॥25॥।

व्यवसायात्फलं नॆष्टं ज्वरातीसारपीडनम ॥ दायॆशात्पष्ठरन्ध्रस्थॆ व्ययॆ वा पापसंयुतॆ ॥26॥ शुभदृष्टिविहीनश्चॆद्धनधान्यपरिच्युतिः 1 विदॆशगमनं चैव मार्गॆ चौरभयं तथा ॥27॥

दशॆश सॆ 6।8।12 वॆं भाव मॆं हॊ और  पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ रॊजगार मॆं हानि, ज्वर और  अतिसार सॆ कष्ट हॊता है। शुभग्रह सॆ न दॆखा जाता हॊ तॊ धन धान्य का नाश और  बंधु मित्रॊं सॆ विरॊध, उद्यॊग की हानि दॆह मॆं पीडा, स्वजना कॊ पीडा, बडा भय॥26-27॥

ब्रणदाहाक्षिरॊगश्च नानादॆशपरिभ्रमम ॥ . लग्नात्वष्ठाष्टरिःफॆ वा लाभॆ वा पापसंयुतॆ ॥28॥

ब्रणा, दाह, नॆत्र का रॊग अनॆक दॆशॊं का भ्रमण हॊता है। लग्न सॆ । 6।8।12।11 भाव मॆं पापग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ।28॥

अकस्मात्कलहश्चैव गृहॆ निष्ठुरभाषणम । चतुष्पाज्जीवहानिश्च व्यवहारस्तथैव च ॥29॥


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498 . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥

अकस्मात कलह-गृहकलह चतुष्पदॊं कॊ हानि, व्यवहार मॆं क्षति, अपमृत्यु का भय शत्रु‌ऒं सॆ कलह हॊता है॥29॥

अपमृत्युभयं चैव शत्रूणां कलहॊ भवॆत ॥ ..:. द्वितीयधूननाथॆ . वा. ह्यपमृत्युर्भविष्यति ॥30॥

27 भाव कॆ अधिपति हॊ तॊ अकालमृत्यु का भय हॊता है॥30॥

तद्दॊषपरिहारार्थं : विष्णुसहस्रकं जपॆत । बुधप्रीतिकरं चैव दानं शान्तिं च कारयॆत ।

आयुवृद्धिकर चैव सर्व सौभाग्यसंपदम ॥ 31 ॥ । विष्णु सहस्र नाम स्तॊत्र का जप, बुध की प्रसन्नता की शान्ति करनॆ सॆ सभी

सौभाग्य और  सम्पत्ति हॊती है॥30॥ ॥ . : अथगुरुदशायांकॆत्वन्तर्दशाफलम -

 जीवस्यान्तर्गत कॆतौ शुभग्रह समन्वितॆ ।

अल्पसौख्यधनांवाप्तिङ्कुत्सितान्नस्यभॊजनम ॥32॥

गुरु की दशा मॆं शुभग्रह सॆ युक्त कॆतु कॆ अन्तर मॆं अल्प सुख धन का लाभ हॊता है। कुत्सित अन्न का भॊजन॥32॥.।

परान्नं चैव श्रद्धानं पापमूलाद्धनानि च । : दायॆशात्सुतभाग्यस्थॆ वाहनॆकमॆगॆऽपि वा ॥33॥

परात्र, वा श्राद्धान्न का भॊजन, पापूमल सॆ धन का लाभ हॊता है। दशॆश सॆ 5।6।4।10 भाव मॆं हॊ तॊ॥33॥

नरवाहनुयॊगश्च ॥ गजाश्वाम्बरसंकुलम । । । महाराज, प्रसादॆन । इष्टकार्यार्थलाभकृत ॥ 34॥ । मनुष्य की सवारी का यॊग हाथी-घॊडा वस्त्र और  व्यवसाय सॆ अधिक लाभ,

महाराज की प्रसन्नता सॆ इष्टकार्य की सिद्धि ॥34॥

व्यवसायात्फलाधिक्यंगॊमहिष्यादिलाभकृत । । यवनप्रभुमूलाद्वा द्रव्यवस्त्रादिलाभकृत ॥ 35॥

और  गौ, भैंस आदि का लाभ, नीच जातीय राजा सॆ द्रव्य-वस्त्रादि का लाभ

.

हॊता.है॥35॥ :

दायॆशाद्रिपुरन्ध्रस्थॆ व्ययॆ वा पापसंयुतॆ ॥ राजकॊपं धनच्छॆदं बंधनं बन्धुपीडनम॥36॥


अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

98 । दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ राजा कॆ कॊप सॆ धन

की हानि, बंधु‌ऒं कॊ कष्ट॥36॥।

बलहानिः पितृद्वॆषॊ भ्रातृद्वॆषॊ मनॊरुजः । द्वितीयद्यूननाथॆ तु दॆहबाधा भविष्यति ॥ 37॥

पिता सॆ द्वॆष, भा‌ई सॆ द्वॆष, मानसिक कष्ट हॊता है। 3 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ दॆहबाधा हॊती है॥37॥

छागदानॆ प्रकुर्वीत मृत्युंजय जपं. चरॆत ॥ सर्वदॊषॊपशमनीं शान्तिं कुर्याद्विधानतः ॥ 38॥

बकरी का दान और  मृत्युंजय का जप कराना चाहियॆ। सभी दॊषॊं कॆ शमन करनॆ वाली शान्ति कॊ विधानपूर्वक करना चाहियॆ॥38॥।

अथगुरुदशायांशुक्रान्तर्दशाफलम- - जीवस्यानार्गतॆ शुक्रॆ भाग्यकॆन्द्रॆशसंयुतॆ ॥39॥ लाभॆ वा सुतराशिस्थॆ स्वक्षॆत्रॆशुभसंयुतॆ ।

गुरु की दशा मॆं भाग्यॆश कॆन्द्रॆश सॆ युत वा लाभ स्थान वा पांचवॆं स्थान मॆं अपनी राशि मॆं शुभग्रह सॆ युत शुक्र कॆ अन्तर मॆं॥39॥

महाराजप्रसादॆन दॆशाधिक्यं महत्सुखम ॥40॥. महाराजा की प्रसन्नता सॆ दॆश का लाभ और  सुख॥40॥ नीलाम्बराणिशस्त्राणिलाभश्चैव भविष्यति । पूर्वस्यां दिशि आश्रित्य प्रयाणं धनलाभदम ॥41॥

नीलॆ रंग कॆ वस्त्र, शस्त्र, का लाभ, पूर्व दिशा की यात्रा सॆ धन का लाभ । हॊता है॥41॥।

कल्याणं च महाभीतिः पितृमातृ सुखावहा । दॆवतागुरुभक्तिश्च अन्नदानं : महत्तथा ॥42॥

कल्याण, महाभय, पिता-माता कॊ सुख, दॆवता-गुरु मॆं भक्ति और  बडॆ पैमानॆ । पर अन्न का दान॥42॥।

तडागगॊपुरादीनि कृत्वां पुण्यानि भूरिशः ॥ षष्ठाष्टमव्ययॆ नीचॆ दायॆशाद्वा तथैव च ॥43॥

ताडाग-गॊपुर आदि पुण्यदायक अनॆक कार्य हॊतॆ हैं। यदि शुक्र लग्न सॆ वा दशॆश सॆ 6।8।12 स्थान मॆं बा नीच मॆं हॊ तॊ॥43 ॥ ..


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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । कलहॊ बंधुवैषम्यः : दारपुत्रादिपीडनम ॥ मन्दारराहुसंयुक्तॆ कलहॊ राजविड्वरम ॥44॥। उसकॆ अन्तर मॆं कलंह, बंधु‌ऒं सॆ बैर, स्त्री पुत्र आदि कॊ पीडा हॊती है। शनि भौम राहु सॆ युत हॊ तॊ कलह, राजा सॆ शत्रुता॥44॥

। स्त्रीमूलात्कलहं चैव श्वशुरात्कलहं तथा ।

सॊदरॆण विवादः स्याद्धनधान्यपरिच्युतिः ॥45॥ ... स्त्री कॆ कारण कलह श्वसुर सॆ कलह, भा‌ई सॆ झगडा और  धन धान्य की

। हानि हॊती है॥45॥

दायॆशाकॆन्द्रराशिस्थॆ धनॆ वा भाग्यगॆऽपिवा ।

 धनधान्यादिलाभश्च स्त्रीलाभं राजदर्शनम ॥46॥ । दशॆश सॆ कॆन्द्र वा धन, वा भाग्य मॆं हॊ तॊ धन धान्य का लाभ, स्त्री का लाभ, राजा का दर्शन॥46 ॥

वाहनं पुत्रलाभं च पशुवृद्धिमहत्सुखम । । .’ गीतवाद्यप्रसंगादिविद्वज्जनसमागमम । 118011.

वाहन और  पुत्र का लाभ, पशु‌ऒं की वृद्धि और  सुख, गीत बाजा का प्रसंग, । विद्वानॊं का समागम॥47॥

दिव्यान्न भॊजनं सौख्यं स्वबन्धुजनपॊषकम ।.

द्विसप्तमाधिपॆ शुक्रॆ , तद्दशायां यशक्षतिः ॥48॥। । दिव्य पदार्थ का भॊजन सुख और  अपनॆ बंधु‌ऒं का भरणपॊषण हॊता है। यदि शुक्र 2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ उसकॆ अन्तर मॆं यश की हानि हॊती है॥48॥..

अपमृत्युभयं तस्य स्त्रीमूलादौषधादिभिः । तस्य रॊगस्य शान्त्यर्थं शान्तिकर्मसमाचरॆत । श्वॆतां गां महिषीदद्यादायुरारॊग्यवृद्धिकृत ॥49॥

स्त्री कॆ कारण औषधि आदि सॆ अपमृत्यु का भय हॊता है उस रॊग की शान्ति कॆ लियॆ शान्तिकर्म करना चाहियॆ और  आयु आरॊग्यता कॆ लियॆ श्वॆत (सफॆद) गौ मैंस का दान करना चाहियॆ॥49॥

अथगुरुदशायांसूर्यान्तर्दशाफलम्जीवस्यान्तर्गत सूर्यॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆऽपिवा । कॆन्द्रॆवाथ त्रिकॊणॆ च दुश्चिक्यॆलाभगॆऽपिवा ॥50॥

छूश


अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः । . 501 गुरु की दशा मॆं अपनॆ उच्च चा अपनी राशि मॆं कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा तीसरॆ वा लाभ स्थान मॆं॥50॥ ।

भाग्यॆ वा बलसंयुक्तॆ दायॆशाद्वा तथैव च । तत्कालॆ धनलाभः स्याद्राजसन्मानवैभवम ॥51॥।

वा भाग्य स्थान मॆं गयॆ हुयॆ बलवान ग्रह सॆ युक्तं, इसी प्रकार दशॆश सॆ भी , हॊं तॊ सूर्य कॆ अन्तर मॆं धन का लाभ, राजा सॆ सन्मान, वैभव की प्राप्ति॥51॥

बाहनाम्वरपश्वादिभूषणम पुत्रसम्भवम ॥

मित्रप्रभुवशादिष्टं सर्वकार्यॆ शुभावहम ॥52॥ * मित्र और  राजा कॆ द्वारा इष्ट की सिद्धि और  सभी कार्य मॆं सफलता की प्राप्ति हॊती है॥52॥।

षष्ठाष्टमव्ययॆ सूर्यॆ दायॆशाद्वा तथैव च ॥ शिरॊरॊगादिपीडा च ज्वरपीडा तथैव च ॥53॥

लग्न सॆ वा दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं सूर्य हॊ तॊ शिर मॆं रॊग, ज्वर आदि सॆ कष्ट॥53॥।

सत्कर्मणि विहीनत्वं पापकर्म तथैव च । । सर्वत्रजनविद्वॆषॊ ह्यात्मबन्धुवियॊगकृत ॥54॥

अच्छॆ कम सॆ विरक्ति, पापकर्म मॆं तल्लीनता सभी लॊगॊं सॆ विरॊध, आत्मीय : । बंधु‌ऒं सॆ वियॊग॥54॥

अकस्मात्कलहं चैव जीवस्यान्तर्गतॆ रवौ । द्वितीयधूननाथॆ तु दॆहपीडा भविष्यति ॥ 65॥।

अकस्मात कलह हॊता है। यदि सूर्य 2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ गुरु : दशा मॆं इसकॆ अन्तर मॆं दॆह मॆं पीडा हॊती हैं। ।55॥

तद्दॊषपरिहारार्थमादित्यहृदयं जपॆत । सर्वपीडॊपशमनं सूर्यप्रीतिं च कारयॆत ॥56॥

इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ आदित्य हृदय का जप कराना चाहियॆ और  सभी पीडा‌ऒं कॆ शान्थं सूर्य कॊ प्रसन्न करना चाहियॆ॥56॥

। अथगुरुदशायांचन्द्रान्तर्दशाफलम - जीवस्यान्तर्गतॆ चन्द्रॆ कॆन्द्रलाभत्रिकॊणगॆ । । स्वॊच्चॆ वा स्वर्द्धराशिस्थॆ पूर्णचन्द्रवलैयुतॆ ॥ 57॥


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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । गुरु की दशा मॆं कॆन्द्र वा लाभ वा त्रिकॊण मॆं अपनॆ उच्च वा अपनी राशि । " मॆं गया हु‌आ पूर्णचन्द्र बली हॊ॥57॥

दायॆशाच्छुभराशिस्थॆ. राजसन्मानवैभवम । । दारपुत्रादिसौख्यं च क्षीराणां भॊजनं तथा ॥58॥

वा दशॆश सॆ उक्त भावॊं मॆं शुभ राशि मॆं हॊ तॊ चन्द्रमा कॆ अन्तर मॆं राजा . " सॆ सन्मान और  वैभव का लाभ, स्त्री पुत्र आदि कॊ सुख, दूध का भॊजन॥58॥

। सत्कर्म च तथा कीर्तिः पुत्रपौत्रादि वृद्धिदम ॥

महाराजप्रसादॆन सर्वसौख्यं धनागमम ॥59॥

 अच्छॆ कर्म, यश, पुत्र पौंत्र की वृद्धि, महाराज की प्रसन्नता सॆ सभी सुख, धन का आगम॥59॥।

अनॆकजनसौख्यं च दानधर्मादिसंग्रहः । घष्ठाष्टमव्ययॆ चन्द्रॆ संस्थितॆ पापसंयुतॆ ॥ 60 ॥ अनॆक लॊगॊं सॆ सुख और  दान धर्मादि कृत्यॊं का संग्रह हॊता है॥60॥ दायॆशात्पष्ठरंध्र वा व्ययॆ वा बलवर्जितॆ ॥ मानार्थबन्धुहानिश्च विदॆशपरिविच्युतिः ॥ 61॥

यदि चन्द्रमा 68।12 भाव मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ वा दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं निर्बल हॊ तॊ इसकॆ अन्तर मॆं मान, धन, बन्धु की हानि, विदॆश मॆं हानि॥61॥

नृपचौरादिपीडा च दायादजन विद्विषम । मातुलादिवियॊगश्च मातृपीडा तथैव च ॥ 6 2॥ ॥

राजा, चॊर आदि सॆ कष्ट, दायादॊं सॆ विग्रह, मामा आदि का वियॊग और  माता कॊ कंष्ट हॊता है॥62॥।

द्वितीयषष्ठयॊरीशॆ दॆहपीडा भविष्यति ।

तद्दॊषपरिहारार्थं दुर्गापाठं च कारयॆत ॥ 63 ॥ . . 2 वा 6 भाव का स्वामी हॊ तॊ शरीर मॆं पीडा हॊती है। इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ ।

दुर्गापाठ कॊ कराना चाहियॆ॥63॥ ॥ . .. अथगुरुदशायांभौमान्तर्दशाफलम

जीवस्यान्तर्गतॆ भौमॆ लग्नात्कॆन्द्रत्रिकॊणगॆ । स्वॊच्चॆ वा स्वक्षॆत्रगॆ वापितुङ्गांशॆ स्वांशमॆऽपिवा ॥ 64॥

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ःइन्लन


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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

503 गुरु की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा अपनॆ उच्च वा अपनी राशि वा उच्चांश वा अपनॆ नवांश मॆं गयॆ हुयॆ भौम कॆ अन्तर मॆं॥64॥

विद्याविवाहकार्याणि ग्रामभूम्यादिलाभकृत ।

जनसामर्थ्यमाप्नॊति सर्वकार्यार्थसिद्धिदम ॥ 65॥ विद्या, विवाह आदि कार्य, ग्राम भूमि आदि की प्राप्ति, लॊगॊं सॆ सम्पर्क और  सभी कार्य की सफलता और  धन का लाभ हॊता है॥65॥।

दायॆशाकॆन्द्रकॊणॆवा लाभॆ वा धनगॆऽपिवा । शुभयुक्तॆ शुभैर्दष्टॆ धनधान्यादिसम्पदम ॥ 66 ॥

दशॆश सॆ कॆन्द्र कॊण मॆं वा लाभ स्थान वा धन स्थान मॆं शुभग्रह सॆ युक्त शुभग्रह सॆ दृष्ट हॊ तॊ धन धान्य आदि सम्पत्ति का लाभ॥66 ॥

मिष्ठान्नदानविभवं राजप्रीतिकरं शुभम ।

स्त्रीसौख्यं च सुतावाप्तिः पुण्यतीर्थफलप्रदम ॥ 67॥ - मिष्ठान्न का दान, वैभव का लाभ, राजा सॆ प्रॆम, स्त्री कॊ सुख, पुत्र का लाभ और  पुण्यतीर्थ का लाभ हॊता है॥67॥।

दायॆशात्यष्ठरं वा व्ययॆवा नीचगॆऽपिवा ।

पापयुक्तॆक्षितॆ वापि धान्यार्थगृहनाशनम ॥68॥। । दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं वॊ नीच राशि मॆं पापग्रह सॆ युत दृष्ट हॊ तॊ धन धान्य गृह नाश॥68॥

नानारॊगभय दुःखं नॆत्ररॊगादिसम्भवम । पूर्वार्धॆ क्लॆशमधिकर्मपरार्धॆ महत्सुखम ॥69॥।

अनॆक रॊगॊं का भय, दु:ख, नॆत्ररॊग की सम्भावना हॊती है। अन्दर कॆ पूधै मॆं अधिक कष्ट और  उत्तरार्ध मॆं बडा सुख हॊता है॥69॥

द्वितीयद्यूननाथॆतु दॆहजाड्यं मनॊरुजम ।

अनड्वाहं प्रकुर्वीत सर्वसम्पत्प्रदायकम ॥70॥

2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ दॆह मॆं जडता हॊती है और  मन मॆं विकार हॊता है। वृष का दान करनॆ सॆ सभी सम्पत्तियॊं कॊ लाभ हॊता है॥70॥

अथगुरुदशायांराह्वर्दशाफलम - जीवस्यान्तर्गतॆ राहौ स्वॊच्चॆ वा कॆन्द्रगॆऽपिवा ॥ मूलत्रिकॊणभाग्यॆ च कॆन्द्राधिपसमन्वितॆ ॥71॥

। 504 . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

गुरु की दशा मॆं अपनी उच्चराशि मॆं वा कॆन्द्र मॆं वा मूलत्रिकॊण वा भाग्य मॆं कॆन्द्रॆश सॆ युत वा॥71॥

शुभयुक्तॆक्षितॆ वापि यॊगप्रीतिं समादिशॆत । भुक्त्यादौ शरमासांश्च धनधान्य परिश्रमम ॥72॥

शुभग्रह सॆ युक्त दृष्ट राहु कॆ अन्तर मॆं यॊग की प्रखरता हॊती है, अन्तर कॆ आदि मॆं 5 मास धन-धान्य और  परिश्रम॥72॥।

दॆशग्रामाधिकारं च यवनप्रभुदर्शनम ।

गृहॆ कल्याणसम्पर्तिवहुसॆनाधिपत्यताम ॥7.3॥। । दॆश-ग्राम की स्वामिता, यवन राजा का दर्शन, गृह मॆं कल्याण कार्य, सम्पत्ति की प्राप्ति और  अनॆक अधिकार॥73॥

दूरंयात्राभिगमनं पुण्यधर्मादिसंग्रहः ।

सॆतुस्नानफलावाप्तिरिष्टसिद्धिसुखावहम ॥74॥ । दूर की यात्रा, पुण्य-धर्म आदि का संग्रह, समुद्र स्नान का लाभ और  सुखकर

इष्टसिद्धि हॊती है॥74॥

" दायॆशात्षष्ठरन्ध्र वा व्ययॆ वा पापसंयुतॆ । । .... चौरादिब्रणभीतिश्च राजवैषम्यमॆव च ॥75॥

दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ चौर आदि सॆ तथा ब्रण । सॆ भय, राज सॆ विरॊध॥75॥. .

गृहॆ कर्मकलापनॆ व्याकुलॊ भवति ध्रुवम । सॊदरॆण विरॊधः स्याद्दायादजनविग्रहम ॥76 ॥ गृह मॆं कर्म कलाप सॆ व्याकुलता, पुत्र सॆ विरॊध दायादॊं सॆ विग्रह॥76॥

गृहॆत्वशुभकार्याणि दुःस्वप्नादिभयं, ध्रुवम । । अकस्मात्कलहश्चैव क्षुद्रशून्यादिरॊगकृत ॥ 77॥

घर मॆं अशुभ कार्य, दु:स्वप्न सॆ भय, अकस्मात कलह, क्षुद्र, लकवा आदि । रॊग का भय हॊता है॥77॥

द्विसप्तमस्थितॆ राहौ दॆहबाधां विनिर्दिशॆत ॥ तद्दॊषपरिहारार्थ मृत्युंजय जपं चरॆत । छॊगदानं प्रकुर्वीत. सर्वसौख्यादिमादिशॆत ॥78॥

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

404 2 वा 7 भाव मॆं हॊ तॊ शरीर बाधा हॊती है। इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ मृत्युंजय का जप और  बकरी का दान करनॆ सॆ सभी सुख की प्राप्ति हॊती है॥78॥

इति गुर्वन्तर्दशाफलम।

अथशनिदशायांशंन्यन्तर्दशाफलम्मूलत्रिकॊण स्व वा तुलायामुच्चगॆऽपिवा । कॆन्द्रत्रिकॊणलाभॆ वा राजयॊगादिसंयुतॆ ॥1॥

शनि की दशा मॆं अपनॆ मूलत्रिकॊण, अपनी राशि, तुला राशि मॆं परमॊच्च .. मॆं कॆन्द्र त्रिकॊण वा लाभ मॆं गयॆ राजयॊग सॆ पूर्ण शनि कॆ अन्तर मॆं॥1॥

राज्यलाभं महत्सौख्यं दारपुत्रादिवर्धनम । वाहनत्रयसंयुक्तं गजाश्वाम्बरंसंकुलम ॥2॥

राज्य का लाभ, अधिक सुख, स्त्री पुत्र आदि की वृद्धि हॊती है। तीनॊं वाहनॊं का सुख, घॊडा हाथी वस्त्र का सुख हॊता है॥2॥

महाराजप्रसादॆन , अश्वदौत्यादिलाभकृत ॥ चतुष्पाञ्जीवलाभः स्याङ्ग्रामभूम्यादिलाभकृत ॥3॥

महाराजा कॆ प्रसाद सॆ घॊडा सवारी और  दूत का लाभ, चौपायॆ-जीव का लाभ और  ग्राम तथा भूमि का लाभ हॊता है॥3॥

षष्ठाष्टमव्ययॆ मन्दॆ नीचॆ वा पापसंयुतॆ । ।

तद्भुत्यादौ राजप्रीतिर्विषशस्त्रादिपीडनम ॥4॥

 यदि शनि 6।8।12 भाव मॆं वा अपनी नीच राशि मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ, अन्तर मॆं राजा सॆ प्रॆम, विष-शस्त्र आदि सॆ पीडा॥4॥

रक्तस्रावं, गुल्मरॊगातिसारादिपीडनम ॥ मध्यॆ चौरादिभीतिश्च दॆशत्यागं मनॊरुजम ॥5॥ रक्त स्राव, गुल्मरॊग, अतिसार सॆ पीडा हॊती है। अन्तर कॆ मध्य मॆं चौर‌आदि सॆ भय, दॆशत्याग, मानसिक कष्ट ॥5॥

अंतॆ शुभकरं चैव ग्रामभूम्यादिलाभकृत । द्वितीयद्यूननाथॆ तु ह्यपमृत्युभविष्यति । तद्दॊष परिहारार्थ मृत्युंजय जपं चरॆत ॥6॥


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. 506

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । और  अन्त मॆं शुभफल, ग्राम, भूमि, आदि का लाभ हॊता है। 2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है इस दॊष की शान्ति कॆ लियॆ मृत्युंजय

का जप करना चाहियॆ॥6॥ . . . . ।

  . अथशनिदशायबुधान्तर्दशाफलम

मन्दस्यान्तर्गत सौम्यॆ त्रिकॊणॆ कॆन्द्रगॆऽपिवा । , सन्मानं च यशः कीर्तिर्विद्यालाभं धनागमम ॥7॥

शनि की दशा मॆं त्रिकॊण वा कॆन्द्र मॆं गयॆ हुयॆ बुध कॆ अन्तर मॆं सम्मान, । यश, कीर्त्ति, विद्यां और  धन का लाभ हॊता हैं॥7॥

स्वदॆशॆ सुखमाप्नॊति वाहनादिफलैर्युतम । ।

यज्ञादिकर्मसिद्धिश्च राजयॊगादिसम्भवम ॥8॥ । अपनॆ दॆश मॆं सुख का लाभ वाहन आदि सॆ युक्त हॊता है। यश आदि कर्मॊं .. की सिद्धि, राजयॊग की सम्भावना॥8॥

दॆहसौख्यं हृदुत्साहं गृहॆ कल्याण सम्भवम ॥ सॆतुस्नानफलावाप्तिः तीर्थयात्रादिकर्मणा ॥9॥

दॆह मॆं सुख, हृदय मॆं उत्साह, गृह मॆं कल्याण, समुद्रस्नान और  पुण्यतीर्थ । की यात्रा का अवसर प्राप्त हॊता है॥9॥

वाणिज्यद्धनलाभश्च पुराणश्रवणादिकम ।

अन्नदानफलं चैव नित्यं मिष्टान्न भॊजनम ॥10॥ । व्यापार सॆ धन का लाभ और  पुराण आदि का श्रवण, अन्नदान का फल और  नित्यमिष्ठान्न भॊजन हॊता है॥10॥।

धष्ठाष्टमव्ययॆ सौम्यॆ नौचॆ वास्तंगतॆसति । ।

रव्यारफणिसंयुक्तॆ दायॆशाद्वातथैव च ॥11॥। । यदि बुध 6।8।12 भाव मॆं वा नीच राशि मॆं वा अस्त हॊ और  बुध 6।8।12 . भाव मॆं नीच राशि मॆं वा अस्त हॊ और  रवि, भौम राहु सॆ युक्तं हॊ इसी प्रकार दशॆश

सॆ भी स्थित हॊ तॊ अपनॆ अन्तर मॆं॥11॥।

 नृपाभिषॆकमप्तिदॆशग्रामाधिपत्यता 1

फलमीदृशमादौ तु मध्यान्तॆ रॊगपीडनम ॥12॥ राज्याभिषॆक, धन का लाभ और  दॆश वा ग्राम का आधिपत्य हॊता है। ऐसा

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ऒल्ग

अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः । फल अन्तर मॆं आरम्भ मॆं हॊता है, मध्य और  अन्त मॆं रॊग और  पीडा हॊती है॥12॥

नष्टानि सर्वकार्याणि व्याकुलत्वं महद्भयम । द्वितीयसप्तमाधीशॆ दॆहबाधा भविष्यति ॥13॥

सभी कार्य नष्ट हॊ जातॆ हैं; व्याकुलता और  बडा भय हॊता है। दूसरॆ या सातवॆं भाव कॆ अधिपति हॊ तॊ शरीर मॆं बाधा हॊती हैं॥13॥।

तद्दॊषपरिहारार्थं विष्णुसहस्रकं जपॆत । अन्नदानं प्रकुर्वीत सर्वसम्पत्प्रदायकम ॥14॥

इस दॊष की शान्ति कॆ लियॆ विष्णु सहस्र नाम स्तॊत्र का जप और  अन्नदान करना चाहियॆ इसकॆ करनॆ सॆ सभी सम्पत्तियॊं का लाभ हॊता है॥14॥

अथशनिदशायांत्वन्तर्दशाफलम्मन्दस्यान्तर्गतॆ कॆतौ शुभदृष्टियुतॆक्षितॆ ॥

स्वॊच्चॆ वा शुभराशिस्थॆ यॊगकारकसंयुतॆ ॥15॥ । शनि की दशा मॆं शुभग्रह सॆ युत दृष्ट वा अपनॆ उच्च वा शुभराशि मॆं गयॆ

हुयॆ यॊग कारक ग्रह सॆ युक्त॥15॥।

मंदस्यान्तर्गतॆ कॆतौ स्थानभ्रंशं महद्भयम । ।

 दरिद्रबंधनं भीतिः पुत्रदारादिनाशनम ॥16॥ । कॆतु कॆ अन्तर मॆं स्थानभ्रष्टता; महाभय, दरिद्रता, बंधन, भय, पुत्र, स्त्री का

नाश॥16॥।

स्वप्रभॊश्च महाक्लॆशं विदॆशगमनं तथा । लग्नाधिपॆन संयुक्तं आदौ सौख्यं धनागमम ॥17॥

अपनॆ स्वामी कॊ कष्ट, विदॆश यात्रा हॊती है। लग्नॆश युक्त हॊ तॊ अन्तर कॆ आदि मॆं सुख, धन का आगम॥17॥।

 गङ्गादिसर्वतीर्थॆषु स्थानदैवतदर्शनम ।

दायॆशात्कॆन्द्रकॊणॆ वा दुश्चिक्यॆधन राशिगॆ ॥18॥

गंगा आदि तीर्थॊं मॆं दॆवता‌ऒं का दर्शन हॊता है। दशॆश सॆ कॆन्द्र वा कॊण मॆं वा 3।2 भाव मॆं हॊ समर्थ, धार्मिक बुद्धि, सुख, राजा सॆ समागम हॊता है॥18॥

समर्थॊं धर्मबुद्धिश्च सौख्यं नृपसमागमम । षष्ठाष्टमव्ययॆ कॆतौ दायॆशाद्वा तथैव च ॥19॥।


4.ळ्ट

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...406

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । 6।8।12 भाव मॆं कॆतु हॊ इसी प्रकार दशॆश सॆ भी इन्हीं भावॊं मॆं हॊ तॊ॥19॥.

अपमृत्युभयं चैव कुत्सितान्नस्य भॊजनम । । शीतज्वरातिसारश्च ब्रणचौरादिपीडनम ॥20॥

अपमृत्यु का भय खराब अन्न का भॊजन, शीतज्वर, अतिसार, ब्रण, चौर ।’, आदि सॆ कष्ट हॊता है॥20॥

दारपुत्रवियॊगश्च संसारॆ भवति ध्रुवम । द्वितीयद्यूनराशिस्थॆ दॆहपीडा भविष्यति ।

छॊगदानं प्रकुर्वीत ह्यपमृत्युभयं हरॆत ॥21॥

स्त्री-पुत्र आदि सॆ वियॊग निश्चयरूप सॆ हॊता है। यदि 2 वा 7 भाव मॆं हॊ

तॊ शरीर मॆं पीडा हॊती है इसकॆ शान्यर्थ बकरी का दान करना चाहियॆ जिससॆ अपमृत्यु । .का भय नहीं हॊता है॥21॥

अथशनिदशायांशुक्रान्तर्दशाफलम - मन्दस्यान्तर्गतॆ शुक्रॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆऽपिवा ।

कॆन्द्रॆ वा शुभसंयुक्तॆ त्रिकॊणॆ लाभगॆऽपिवा ॥22॥

शनि की दशा मॆं अपनॆ उच्च वा राशि मॆं वा कॆन्द्र मॆं वा शुभयुक्त वा त्रिकॊण वा लाभ स्थान मॆं गयॆ हुयॆ शुक्र कॆ अन्तर मॆं॥22॥ । दारपुत्रधनप्राप्तिदॆंहारॊग्यं महॊत्सवः ।

गृहॆ कल्याणसम्पत्ती राज्यलाभं महत्सुखम ॥23॥ । स्त्री-पुत्र-धन का लाभ, दॆह मॆं आरॊग्यता, बडा उत्सव, गृह मॆं कल्याण, धन-धान्य सम्पत्ति का लाभ, राज्य का लाभ और  बडा सुख॥23॥,

महाराजप्रसादॆन . इष्टसिद्धिः सुखावहा ॥ । सन्मानः आत्मसन्तॊषः प्रियवस्त्रादिलाभकृत ॥24॥

और  महाराज की प्रसन्नता सॆ सुखकर इष्टसिद्धि, सम्मान, आत्मसंतॊष, प्रियवस्त्रॊं का लाभ॥24॥

द्वीपान्तराद्वस्त्रलाभः श्वॆताश्वॊ महिषी तथा । गुरुचारवशाद्भाग्यं सौख्यं च धनसम्पदः ॥25॥

द्वीपान्तर (परदॆश) सॆ वस्त्र का लाभ, सफॆद घॊडा, भैंस का लाभ हॊता है। गुरु कॆ संचार सॆ भाग्य, सुख और  धन सम्पत्ति का लाभ हॊता है॥25॥

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27

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यॊस

। अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः । शनिचारान्मनुष्यॊऽसौ यॊगमाप्नॊत्यसंशयम । दायॆशाद्भाग्यगॆनैव कॆन्द्रॆ वा लाभसंयुतॆ ॥26॥

और  शनि कॆ संचार हॊनॆ सॆ नि:संशय यॊग कॊ पाता है। दशॆश सॆ भाग्य , वा कॆन्द्र वा लाभ मॆं हॊ तॊ॥26॥।

राज्यप्रीतिकरं चैव मनॊभीष्टप्रदायकम । दानधर्मदयायुक्तस्तीर्थयात्रादिकं फलम ॥27॥

मनॊनुकूल अभीष्ट की सिद्धि हॊती है। दान धर्म दया सॆ युक्त हॊ तीर्थ यात्रा आदि करता है॥27॥

शास्त्रार्थकाव्यरचनां वॆदांतश्रवणादिकम । । दारपुत्रादिसौख्यं च वाहनछन्नलाभदम ॥28॥

शास्त्रार्थ और  काव्य रचना. और  वॆदांत कॊ सुनता है। स्त्री पुत्र आदि का सुख और  वाहन छत्र आदि का लाभ हॊता है॥28॥।

शत्रुनीचास्तगॆ शुक्रॆ षष्ठाष्टव्ययराशिगॆ । दारनांशं मनःक्लॆशं स्थापनाशं मनॊरुजम ॥29॥

यदि शुक्र शत्रु राशि वा नीचराशि वा 6।8।12 भाव मॆं हॊ तॊ स्त्री का नाश, मन कॊ कष्ट, स्थान का नाश, मन मॆं कष्ट॥29॥

दारनाशं स्वजनक्लॆशः सन्तापॊ जनविग्रहः । दायॆशाद्व्ययगॆशुक्रॆ षष्ठॆ वाह्यष्टमॆऽपिवा ॥30॥

स्वजनॊं कॊ कंष्ट सन्ताप, जनसमूह सॆ वैर हॊता है। दशॆश सॆ बारहॆं वा छठॆ वा आठवॆं भाव मॆं शुक्र हॊ तॊ॥30॥।

नॆत्रपीडाज्चरभयं स्वकुलाचारवर्जितः । । कसॊलॆ दन्तशूलादि हृदिगुह्यॆ च पीडनम ॥31॥।

नॆत्र मॆं पीडा, ज्वर, भय, आचारभ्रष्ट, कपॊल तथा दांत मॆं पीडा और  हृदय तथा गुह्य स्थान मॆं पीडा॥31॥

। जलभीतिर्मनस्तापॊ . वृक्षात्पतनसम्भवः ।

राजद्वारॆ जयद्वॆषः सॊदरॆण विरॊधनम ॥32॥

जल सॆ भय, मन मॆं संताप, वृक्ष सॆ गिरनॆ की संभावना, राजद्वार मॆं विजय हॊनॆ सॆ द्वॆष अपनॆ भा‌इयॊं सॆ विरॊध हॊता है॥32॥


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- 39.

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510 .. . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । ।

द्वितीयसप्तमाधीशॆ आत्मक्लॆशॊ भविष्यति ।

तद्दॊषपरिहारार्थं दुर्गादॆव्याजपंचरॆत । । श्वॆता. गां महिषीं दद्यादायुरारॊग्यवृद्धिदम ॥33॥

यदि. 2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ आत्मा कॊ कष्ट हॊता है। इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ दुर्गादॆवी का जप करना चाहियॆ और  सफॆद गौ, भैंस का दान करनॆ सॆ आयु, आरॊग्यता की प्राप्ति हॊती है॥33॥ अथशनिदशायांसूर्यान्तर्दशाफलम। ’ मन्दस्यान्तंर्गतॆ सूर्यॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆऽपि वा ।

भाग्याधिपॆन संयुक्तॆ कॆन्द्रलाभत्रिकॊणकॆ ॥ 34॥

शनि की दशा मॆं अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं भाग्यॆश युक्त अथवा कॆन्द्र लाभ-त्रिकॊण मॆं॥34॥

शुभदृष्टियुतॆ वापि स्वप्रमॊश्च महत्सुखम ॥

गृहॆ कल्याणसंम्पत्तिः पुत्रादि सुखबर्धनम ॥35॥ । शुभग्रह सॆ दृष्ट युत सूर्य कॆ अन्तर मॆं अपनॆ मालिक सॆ सुख गृह मॆं कल्याण और  सम्पत्ति, पुत्र आदि कॆ सुख की वृद्धि॥35॥

वाहनाम्बरपश्वादिगॊक्षीरैः संकुलम गृहम ॥ * षष्ठाष्टमव्ययॆ सूर्यॆ दायॆशाद्वा तथैव च ॥ 36॥

वाहन-वस्त्र पशु आदि की वृद्धि और  गौ कॆ दूध सॆ घर भरा रहता है यदि सूर्य लग्न वा दशॆशं 6।8।12 भाव मॆं हॊ तॊ॥36॥।

हृदॊगॊ मानहानिश्च स्थानभ्रंशॊ मनॊरुजा । । इष्टबंधुवियॊगश्च उद्यॊगस्य विनाशनम ॥ 37॥.

हृदय का रॊग मानहानि, स्थान हानि, मानसिक कष्ट, इष्ट बन्धु का वियॊग, उद्यॊग (व्यवसाय) की हानि॥37॥।

तापज्वरादिपीडा च व्याकुलत्वं भयं तथा ।

आत्मसम्बन्धिमरणमिष्टबन्धुवियागकृत ॥ 38॥

 तापज्वरसॆ पीडा, व्याकुलता और  भय हॊता है आत्मीय सम्बंधि का मृत्यु, प्रियबन्धु का वियॊग हॊता है॥38॥ । 

द्वितीयद्यूननाथॆ तु दॆहबाधा भविष्यति ।

तद्दॊषपरिहारार्थ सूर्यपूजां च कारयॆत ॥ 39॥


अथान्तर्दशादिफलनिचाराध्यायः ।

488 2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ शरीर बाधा हॊती है। इसकॆ शान्त्यर्थ सूर्य की पूजा करनी चाहियॆ॥36-39॥।

अथशनिदशायांचन्द्रान्तर्दशाफलम – 

मन्दस्यान्तर्गतॆ चन्द्रॆ जीवदृष्टि समन्वितॆ ॥

स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रकॆन्द्रस्थॆत्रिकॊणॆलाभगॆऽपि वा ॥40॥। । 

शनि की दशा मॆं गुरु की दृष्टि सॆ युक्त अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं कॆन्द्रत्रिकॊण वा लाभ मॆं॥40॥।

। पूर्णचन्द्रॆ सौम्ययुक्तॆ राजप्रीति समागमम ।

महाराजप्रसादॆन वाहनाम्बर भूषणम ॥41॥

पूर्णचन्द्र शुभग्रह सॆ युत हॊ तॊ इसकॆ अन्तर मॆं राजा सॆ प्रॆम और  समागम हॊता है। महाराजा की प्रसन्नता सॆ वाहन वस्त्र आभूषण॥41 ॥

सौभाग्यं सुखवृद्धिं च भृत्यॊश्च परिपालनम । पितृमातृकुलॆ सौख्यं पशुवृद्धिः सुखावहा ॥42॥।

सौभाग्य, सुख मॆं वृद्धि, भृत्यॊं का पालन, पिता-माता कॆ कुल मॆं सुख दॆनॆ वाली पशु वृद्धि हॊती है॥42॥।

दायॆशात्कॆन्द्रराशिस्थॆ त्रिकॊणॆ लाभगॆऽपिवा । वाहनाम्बरपश्वादि भ्रातृवृद्धिः सुखावहा ॥43॥

दशॆश सॆ कॆन्द्र राशि मॆं वा त्रिकॊण मॆं वा लाभ स्थान मॆं हॊ तॊ वाहन, वस्त्र, । पशु, भा‌ई की वृद्धि सुखंद हॊती है॥43.॥।

पितृमातृसुखावाप्तिः स्त्रीसौख्यं च धनागमम । मित्रप्रभुवशादिष्टं सर्वसौख्यं शुभावहम ॥44॥

पिता-माता कॆ सुख की प्राप्ति, स्त्री का सुख, धन का आगम, मित्र और  स्वा जी की कृपा सॆ इष्टं सिद्धि, और  सभी कल्याण दॆनॆ वालॆ सुख हॊतॆ हैं॥44॥

क्षीणॊ वा पापसंयुक्तॆ पापदृष्टौ विनीचंगॆ। क्रूरांशकगतॆ वापि क्रूरक्षॆत्रगतॆऽपि वा ॥45॥

यदि चन्द्रमा क्षीण वा पापग्रह सॆ युक्त पापग्रह दृष्टा वा नीचराशि मॆं हॊ अथवा क्रूरग्रह कॆ अंश मॆं वा क्रूरग्रह की राशि मॆं हॊ तॊ॥45॥

। जातकस्य महत्कष्टं राजकॊपाद्धनक्षयः ।

पितृमातृवियॊगश्च पुत्रीपुत्रादिरॊगकृत ॥46॥

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । जातक कॊ महाकष्ट, राजकॊप सॆ धन का नाश पिता माता सॆ वियॊग, पुत्रादि कॊ रॊग हॊता है॥46॥ । ।

व्यवसायात्फलं नॆष्टं नानामार्गॆ धनव्ययम ।

अकालॆ भॊजनं चैव‌औषधस्य च भक्षणम ॥47॥ 

व्यवसाय मॆं हानि, अनॆक कार्यॊं मॆं धनव्यय, कुसमय मॆं भॊजन, औषध सॆवन, हॊता है॥47॥.

फलाधिक्याद्विवादं च आदौ सौख्यं धनागमम ॥ दायॆशात्वष्ठरिष्फॆ वा रन्ध्र वा बलवर्जितॆ ॥48॥

कला अधिक हॊनॆ सॆ विवाद, प्रथम धन का आगम और  सुख हॊता है। दशॆश सॆ 6।12।8 भाव मॆं निर्बल हॊ॥48॥

शयनं रॊगमालस्यं स्थानभ्रष्टं सुखावहम । शत्रुवृद्धिविरॊधं च इष्टबन्धुवियॊगकृत ॥49॥

अधिक निद्रा, आलस्य स्थान की हानि, सुख, शत्रु वृद्धि, विरॊध, और  अभीष्ट बंधुका वियॊग हॊता है॥49॥

द्वितीयद्यूननाथॆ तु दॆहालस्यॊ भविष्यति ।

तद्दॊषशमनार्थं च तिलहॊमादिकं चरॆत ॥50 ॥।

2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ शरीर मॆं अधिक आलस्य हॊता है। इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ तिल का हवन आदि करना चाहियॆ॥50॥।

गुडं घृतं च दनाक्तं, तांडुलं च यथाविधि । श्वॆतां गां महिषीं दद्याद्दायुरारॊग्य वृद्धिकृत ॥51॥

गुड, घी, दही मिला हु‌आ चावल, सफॆद गौ, भैंस कॊ यथाविधि दान करनॆ सॆ आयु, आरॊग्यता की प्राप्ति हॊती है॥51॥

अथशनिदशायांभौमान्तर्दशाफलम. मन्दस्यान्तर्गतॆ भौमॆ कॆन्द्रलाभत्रिकॊणगॆ ।

तुङ्गॆ स्वक्षॆत्रगॆ वापि दशाधिपसमन्वितॆ ॥52॥

शनि की दशा मॆं कॆन्द्र वा लाभ वा त्रिकॊण वा उच्च वा स्वराशि मॆं दशॆश वा॥52॥ . लग्नाधिपॆन संयुक्तॆ आदौ सौख्यं धनागमम ।

राजप्रीतिकरं सौख्यं वाहनाम्बरभूषणम ॥53॥

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423

अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥ लग्नॆश सॆ युक्त भौम कॆ अन्तर मॆं पहलॆ सुख, धान वा आगाम्मा, राजा सॆ प्रशान्ति‌अ, सुख, वाहन, वस्त्र, आभूषण का लाभ हॊता है। ॥53॥॥

सॆनाधिपत्यं नृपप्रीतिः कृषिगॊधान्यसंग्रहः । । नूतनस्थाननिर्माण भ्रातृवर्गॆष्टसौख्यकृत ॥14॥

सॆनाधिपति का अधिकार, राजा सॆ प्रॆम, कृषि म धान्या का संग्रह, नावीन्ना स्थान का निर्माण, भा‌इयॊं सॆ अभीष्ट सुख का लाभ हॊता है॥॥54॥॥

नीचॆ चास्तंगतॆ भौमॆ षष्ठाष्टव्ययराशिगॆ। पापदृष्टियुतॆ वापि धनहानिर्भविष्यति ॥ 55 । । ।

यदि भौम अपनॆ नीच मॆं वा अस्त हॊ वा 6॥8॥12 भाव मॆं हॊ तॊ धन्ना की हानि हॊती है॥55 ॥

चौराहिब्रणशस्त्रादिग्रंथिरॊगादिपीडनम ॥ भ्रातृपुत्रादिपीडा च दायादजनविग्रहम ॥56॥

चॊर-सर्प-फॊडा, हथियार, ग्रंथि रॊगादि सॆ पीडा हॊती है, भा‌ई पुत्रा कॊ पीडा, दायादॊं सॆ विग्रह॥56॥।

चतुष्पाज्जीवहानिश्च कुत्सितान्नस्यभॊजनम । विदॆशगमनं चैव नानामागॆं . धनव्ययः ॥57॥।

चौपायॆ जानवर की हानि, खराब अन्न का भॊजना, विदॆश यात्रा, आनॆक प्रकार सॆ धन व्यय हॊता है॥57॥

अष्टमधूननाथॆ. तु द्वितीयस्थॆऽथबायादि ॥ अपमृत्युभयं चैव नानाकष्टपराभवम ॥ 58॥

आठवॆं वा दूसरॆ भाव का स्वामी हॊ तॊ अनॆक कष्ट और  पाराभावा हॊता है॥58॥

तद्वॊषपरिहारार्थं शान्तिहॊमं च कारयॆत ।

अनड्वाहं प्रकुर्वीत सर्वारिष्ट प्रशान्तयॆ ॥59॥॥

इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ शान्ति और  हवन करना चाहियॆ। और  सभी अरिष्ट कॆ शान्त्यर्थ बैल का दान करना चाहियॆ॥59॥॥

अथशनिदशायांराहृन्तर्दशाफलम - मन्दस्यान्तर्भतॆ राहौ कलहश्च मनॊव्यथा ॥ दॆहपीडा मनस्तापः पुत्रद्वॆषॊ मनॊरूजः । 60 ॥


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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । ’ शनि की दशा मॆं राहु की अन्तर्दशा मॆं कलह, मानसिक कष्ट, शरीर मॆं पीडा, मन मॆं सन्ताप, पुत्र सॆ द्वॆष, मन मॆं पीडा॥60॥।

अर्थव्ययं राजभयं स्वजनादि छुपद्रवम ॥ विदॆशगमनं चैव गृहक्षॆत्रादिनाशनम ॥ 61॥। । धन का व्यय, राजभय, आपस कॆ लॊगॊं का उपद्रव, विदॆश यात्रा और  गृह. क्षॆत्र आदि का विनाश हॊता है॥61॥

लग्नाधिपॆन संयुक्तॆ यॊगकारकसंयुतॆ । स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆ कॆन्द्र दायॆशाल्लाभराशिमॆ ॥ 62 ॥

यदि राहु लग्नॆश सॆ वा यॊगकारक सॆ युत हॊ तॊ अपनॆ उच्च, अपनॆ क्षॆत्र, कॆन्द्र मॆं वा दशॆश सॆ लाभ स्थान मॆं हॊ॥62॥ ।

आदौ सौख्यं धनावाप्तिं गृहक्षॆत्रादिसंपदम । दॆवब्राह्मणॆभक्तिं च तीर्थयात्रादिकं लभॆत ॥ 63॥

आदि मॆं सुख धन का लाभ, गृह क्षॆत्र आदि का सुख, दॆवता, ब्राह्मण की भक्ति, तीर्थ यात्रा आदि का लाभ॥63॥।

चतुष्पाञ्जीवलाभः स्याद्गृहॆ कल्याणवर्धनम । मध्यॆ तु राजभीतिश्च पुत्रमित्र विरॊधनम ॥ 64॥

चतुष्तपद जीव का लाभ, गृह मॆं कल्याण की वृद्धि हॊती है। मध्य मॆं राजभय, पुत्रमित्र आदि सॆ विरॊध हॊता है॥64॥

। मॆषादौ कन्यकां चैव कुलीरॆ वृषभॆतथा ।

मीनकॊदंडसिंहॆषु गजातैश्वर्यमादिशॆत ॥ 65 ॥। । मॆष-कन्या, कर्क, वृष, मीन, धन सिंह राशि मॆं हॊ तॊ गजांत ऐश्वर्य कॊ । लाभ॥65॥

राजसन्मानभूषाप्तिं मृदुलाम्बरसौख्यकृत । . द्विसप्तमाधिपैर्युक्तॆ दॆहबाधाभविष्यति ॥ 66 ॥

राजा सॆ सन्मान, आभूषण का लाभ, कॊमल वस्त्र सॆ सुख हॊता है। यदि दूसरॆ वा सातवॆं भाव कॆ स्वामी सॆ युक्त हॊ तॊ शरीर मॆं बाधा हॊनॆ की सम्भावना हॊती है॥66॥

मृत्युंजय प्रकुर्वीत छागदानं च कारयॆत ।

अनड्वाहं प्रकुर्वीत सर्वसम्पत्प्रदायकम ॥ 67॥

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

484 इसकी शान्ति कॆ लियॆ मृत्युंजय का जप, बकरी और  बैल का दान करनॆ सॆ सभी सम्पत्तियॊं का लाभ हॊता है॥67॥।

अथशनिदशायांगुर्वन्तर्दशाफलम्मन्दसस्यान्तर्गतॆजीवॆ कॆन्द्रॆ लाभत्रिकॊणभॆ । लग्नाधिपॆन संयुक्तॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆऽपिवा ॥ 68॥।

शनि की दशा मॆं कॆन्द्र, लाभ वा त्रिकॊण मॆं गयॆ हुयॆ लग्नॆश सॆ युत अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं गयॆ हुयॆ गुरु कॆ अन्तर मॆं॥68॥।

सर्वकार्यार्थसिद्धिः स्याच्छॊभनं भवतिध्रुवम । महाराजप्रसादॆन धनवाहनभूषणम ॥ 69॥

सभी प्रकार कॆ कार्यॊं की सिद्धि तथा धन का लाभ, हॊता है। महाराजा की प्रसन्नता सॆ धन वाहन आभूषण का लाभ॥69 ॥।

दॆवतागुरुभक्तिश्च विद्वज्जनसमागमः । दारपुत्रादिलाभश्च पुत्रकल्याणवैभवम ॥70॥।

दॆवता-गुरु मॆं भक्ति विद्वानॊं का समागम, स्त्री पुत्र आदि का लाभ पुत्र कॊ सुख और  वैभव की प्राप्ति हॊती है॥70॥

दायॆशात्कॆन्द्रकॊणॆ वा धनॆ वा लाभगॆऽपि वा । विभवं दारसौभाग्यं राजश्री धनसम्पदः ॥71॥

दशॆशॆ सॆ कॆन्द्र-कॊण वा दूसरॆ वा लाभ मॆं हॊ तॊ वैभव, स्त्री का सुख, राज्यलक्ष्मी, धन सम्पत्ति॥71॥।

भॊजनाम्बर सौख्यं च दानधर्मादिकं लभॆत ॥

ब्रह्मप्रतिष्ठासिद्धिश्च ऋतुकर्मफलप्रदम ॥72॥ ।भॊजन वस्त्र का सुख, दान, धर्मादि क्रियायॆं, प्रतिष्ठा का लाभ, यज्ञकर्म का फल॥72॥

अन्नदानं महाकीर्त्तिवॆदांतश्रवणादिकम ॥ षप्ठाष्टमव्ययॆ जीवॆ नीचॆ वा पापसंयुतॆ ॥73॥

अन्नदान, अत्यन्त कीर्ति और  वॆदांत का श्रवण हॊता है। यदि गुरु 6।8।12 भाव मॆं हॊ वा नीच मॆं वा पापयुत हॊ तॊ॥73॥

आत्मसम्बंधि मरणं धनधान्यविनाशनम । राजस्थानजनद्वॆषः कार्यहानिर्भविष्यति ॥74॥

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । आत्मीय सध्या या मरण, धन धान्य का नाश, राजकीय पुरुषॊं सॆ द्वॆष कार्य

की झान्सि झॊती है। ॥4॥1 .

विदॆशगमनं चैव . कुष्ठरॊगादिसम्भवः । ... दावॆशत्वष्ठरंधॆ वा व्ययॆ वा बलवर्जितॆ ॥75॥ .

-- विदॆश यात्रा और  कुष्टरॊग की सम्भावना हॊती है। दशॆश सॆ 6 वा 8 वा । 12 व्याव मॆं मिल झॊ तॊ॥ 1075॥

* बंधुदॆवं अगॊदुःखं कलहं पदविच्युतिम ।

कु‌ऒजनॆ कर्महानिरिजमूलाद्धनव्ययम ॥76॥ , बंधु‌ऒं सॆ ट्रॆवा, मम्स सॆ दुख, कलह और  पद की हानि, कुभॊजन, कार्य बझी झान्ति, बाम्मुल्ल सै ध्यन्न व व्यय॥76॥ ।

कारगृहृवावॆ : च पुत्रदारादिपीडनम । द्वितीयङ्गमाचॆ तु दॆहबाधा भविष्यति ॥ 77॥

बॆलाय्याच्या, पुत्र स्त्री कॊ कष्ट हॊता है। 27 भाव का स्वामी हॊ तॊ शशीर झॆ बाध्या झॆली है। ॥9॥1, । आत्मसम्बन्धिरणं भविष्यति न संशयः ।

। क्षपरिहारार्थं शिवसाहस्रकं जपॆत । । स्वर्णादानं अकुर्वीत आरॊग्यं भवति ध्रुवम ॥78॥

 आत्मीय सम्बन्धि‌अ या मरण हॊता है। इस दॊष मॆं शान्ति कॆ लियॆ शिकसम्म बक्कम वाष्णु और  सुवर्ण म दान करनॆ सॆ आरॊग्यता हॊती है॥78॥ . :: .. इति शनिदशायामन्तर्दशाफलम।

अथबुधदशायांबुधान्तर्दशाफलम. मुळविदुमल्लभश्च ज्ञानकर्मसुखादिकम ॥

विद्यामहत्वं कीर्तिश्च नूतनप्रभुदर्शनम ॥1॥

 बुवा की दशा मॆं बुध्या कॆ अन्तर मॆं मुक्ता (मॊती) मूडा का लाभ, ज्ञान, सत्कर्म,

लायमादि, ब्क्यि‌अ व्या महत्व, कीर्चि, नयॆ स्वामी का दर्शन॥1॥

विश्वं दारपुत्रादिपितृमातृसुखॊवहम । नीचॊयखॆटसंयुक्तॆ षष्ठाष्टव्ययराशिगॆ ॥2॥

वैभव और  झी, पुत्र प्पित्वा का सुख हॊता हैं। यदि अपनी नीचराशि उग्रग्रह सॆ शुरू हॊ व्या 6॥8॥12 राशि मॆं हॊ॥2॥

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489

।’ अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः । पापयुक्तॆऽथवा दृष्टॆ धनधान्यपशुक्षयम । ।

आत्मबन्धुविरॊधं च शूलरॊगादिसम्भवम ॥3॥ पापयुक्त वा पापदृष्ट हॊ तॊ धन धान्य पशु का नाश, आत्मीय बन्धु सॆ विरॊध, शूलरॊगादि की सम्भावना॥3॥

राजकार्यकलापॆन व्याकुलॊ भवति ध्रुवम । द्वितीयद्यूननाथॆ तु दारक्लॆशॊ ’भविष्यति ॥4॥

और  राजकार्य कॆ सम्बन्ध सॆ व्याकुलता हॊती है। 2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ स्त्री कॊ कष्ट॥4॥

आत्मसम्बंधिमरणं वातशूलादिसम्भवम । तद्दॊषपरिहारार्थं विष्णुसहस्त्रकं जपॆत ॥5॥

आत्मीय सम्बन्धी की मृत्यु आरै बातशूलादि रॊगॊं की सम्भावना हॊती है। इस दॊष की शान्ति कॆ लियॆ विष्णु सहस्र नाम का जप करना चाहियॆ॥5॥

बुधस्यान्तर्गतॆ कॆतौ लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ ।

 शुभयुक्तॆ शुभैदृष्टॆ लग्नाधिपसमन्वितॆ ॥6॥

बुध की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं शुभग्रह सॆ युक्त वा दृष्ट वा । लग्नॆश सॆ युक्त॥6॥

यॊगकारकसम्बन्धॆ दायॆशाकॆन्द्रलाभगॆ ।.. दॆहसौख्यं धनाल्पत्वं बन्धुस्नॆहसहायकृत ॥7॥

वा यॊगकारक सॆ सम्बन्ध करतॆ हुयॆ दशॆश सॆ कॆन्द्र वा लाभ भाव मॆं स्थित कॆतु कॆ अन्तर मॆं दॆह का सुख, धन की अल्पता, बन्धु‌ऒं का स्नॆह और  सहायता॥7॥

चतुष्पाज्जीवलाभः स्यात्संसारॆ दॆहसौख्यभाक । विद्याकीर्तिप्रसंगश्च समानप्रभुदर्शनम ॥8॥

चतुष्पद जीव का लाभ, दॆह सुख, विद्या, और  यश का प्रसंग अपनॆ समान स्वामी का दर्शन॥8॥

भॊजनम्बरसौख्यं च ह्यादौ मध्यॆ सुखावहम । दायॆशाद्रिपुरन्ध्रस्थॆ व्ययॆवा पापसंयुतॆ ॥9॥

भॊजन-वस्त्र, सुख पहलॆ हॊता है मध्य मॆं सुख हॊता है। दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ॥9॥


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518 . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

वाहनात्पतनं चैव पुत्रक्लॆश समायुतम ।

चौरादिराजभीतिश्च , पापकर्मरतः सदा ॥10॥ . वाहन सॆ पतनं, पुत्र कष्ट सॆ युक्त, चौर आदि सॆ तथा राजा सॆ भय, सदा पापकर्म मॆं रत॥10॥

वृश्चिकादिविषाद्धीतिर्नीचैः कलहसंयुतः । शॊकरॊगादि दुःखं च संसाराद्विचलं भवॆत ॥11॥

वृश्चिक (बिच्छु) आदि जहरीलॆ जानवरॊं कॆ विष सॆ भय, गीचॊं सॆ झगडा, शॊक-रॊग आदि दु:खॊं सॆ युक्त और  संसार सॆ विचलित हॊता है॥11॥।

द्वितीयद्यूननाथॆ तु दॆहजाड्यं भविष्यति ॥

तद्दॊषपरिहारार्थं छागदानं तु कारयॆत ॥12॥ । 2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ शरीर मॆं जडता हॊती है। इसकॆ शान्त्यर्थ बकरी का दान करना चाहियॆ॥12॥। . .. अथबुधदशायांशुक्रान्तर्दशाफलम -.

सौम्यस्यान्तर्मतॆ शुक्रॆ कॆन्द्र लाभत्रिकॊणगॆ । . । सत्कथापुण्यं धर्मादिसंग्रहः पुण्यकर्मकृत ॥13॥

’ ’बुध की दशा मॆं कॆन्द्र वा लाभ वा त्रिकॊण मॆं गयॆ हुयॆ शुक्र कॆ अन्तर मॆं अच्छी कथा, पुण्य धर्मादि का संग्रह, पुण्य कर्म॥13॥

मित्रप्रभुवशादिष्टं क्षॆत्रलाभः सुखं भवॆत । दशाधिपात्कॆन्द्रगतस्त्रिकॊणॆ लाभगॆऽपिवा ॥14॥ मित्र और  स्वामी कॆ इष्ट की सिद्धि, क्षॆत्र का लाभ, सुख दशॆश सॆ कॆन्द्र वा लाभ ग त्रिकॊण मॆं हॊ तॊ॥14॥

तत्कालॆ त्रियमाप्नॊति राजश्री धनसम्पदः ।

वापीकूपतडागादि दानधर्मादिसंग्रहः ॥15॥ , तत्काल धन का लाभ, राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति, वापी, कूप, तालाब, दान, धर्म आदि का संग्रह॥15॥ । व्यवसायात्फलाधिक्यं धनधान्यसमृद्धिकृत । ।

दायॆशात्यष्ठरंध्रस्तॆव्ययॆ वा बलवर्जितॆ ॥16॥

व्यवसाय सॆ अधिक लाभ और  धन-धान्य समृद्धि का लाभ हॊता है। दशॆश, सॆ 68112 भाव मॆं निर्बल हॊ तॊ॥16॥।

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। अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः । हृद्रॊगॊ मानहानिश्च ज्वरातीसारपीडनम । ।

आत्मबन्धुवियॊगश्च संसारॆ दॆहनिष्प्रभम ॥17॥

हृदय का रॊग, मानहानि, ज्वर अतिसार की पीडा, आत्मीय बन्धु का वियॊग, संसार सॆ विरूपता॥17॥

आत्मक्लॆशं मनस्तापमापदादि विपत्तयः । । द्वितीयद्यूननाथॆ तु ह्यपमृत्युर्भविष्यति । तद्दॊषपरिहारार्थं दुर्गादॆवी जपं चरॆत ॥18॥

अपनॆ कॊ क्लॆश, मनमॆं संताप आदि विपत्तियाँ हॊती हैं। दूसरॆ वा सातवॆं भाव का स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है। इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ दुर्गा दॆवी का जप कराना चाहियॆ॥18॥।

अथ बुधदशायांसूर्यान्तर्दशाफलम्सौम्यस्यान्तर्गतॆ सूर्यॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रकॆन्द्रगॆ । त्रिकॊणॆ धनलाभॆतु तुङ्गाशॆ स्वांशगॆऽपिवा ॥19॥

बुध की दशा मॆं अपनी उच्च, अपनी राशि, त्रिकॊण वा धन वा लाभ वा उच्चांश वा अपनॆ नवांश मॆं गयॆ हुयॆ सूर्य कॆ अन्तर मॆं॥19॥

राजप्रसादसौभाग्यं मित्रप्रभुवशात्सुखम । भूम्यात्मजॆन संदृष्टॆ आदौ भूलाभमॆव च ॥20॥

राजा की प्रसन्नता का सौभाग्य, मित्र और  स्वामी कॆ द्वारा महासुख का लाभ हॊता है। भौम सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ प्रथम भूमि का लाभ हॊता है॥20॥।

लग्नाधिपॆन संदृष्टॆ बहुसौख्यं धनागमम । . ग्रामभूम्यादिलाभं चं भॊजनाम्बरसौख्यकृत ॥21॥

लग्नॆश सॆ दृष्ट हॊ तॊ बहुत सुख और  धन का आगम, ग्राम, भूमि का लाभ और  भॊजन वस्त्र का सुख हॊता है॥21॥

षष्ठाष्टमव्ययॆ वापि शन्यारफणिसंयुतॆ ॥ दायॆशाद्रिपुरंध्रस्थॆ व्ययॆ वा बलवर्जितॆ ॥22॥

यदि सूर्य 6।8।12 भाव मॆं शनि भौम राहु सॆ युत हॊ वा दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं निर्बल हॊतॊ॥22॥

चौराग्निशस्त्रपीडा च पित्ताधिक्यं भविष्यति । शिरॊरूङ्मनसस्तापं इष्टबंधु वियॊगकृत ॥23॥


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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । चॊर, अग्नि, शस्त्र सॆ पीडा और  अधिक पित्त हॊता है। शिर मॆं रॊग, मनमॆं

संताप, इष्ट बंधु का वियॊग हॊता है॥23॥

द्वितीयसप्तमाधीशॆ, ह्यपमृत्युभविष्यति । तद्दॊषपरिहारार्थं शान्तिं कुर्याद्यथाविधि ।

सूर्यप्रीतिकरीं चैव दद्याद्धॆनं हिरण्यकम ॥ 24॥ । 27 भाव का स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है। इसकॆ शान्त्यर्थ यथाविधि सूर्य कॆ प्रसन्न करनॆ वाली शान्ति करनी चाहियॆ और  गौ तथा सुवर्ण का दान करना चाहियॆ॥24॥

। अथ बुधदशायांचन्द्रान्तर्दशाफलम - । सौम्यस्यान्तर्गतॆ चन्द्रॆ लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ ।

। स्वॊच्चॆ वा स्वक्ष्मॆ वापि गुरुदृष्टिसमन्वितॆ ॥ 25॥

बुध की महादशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं अपनॆ उच्च मॆं वा अपनी राशि मॆं गुरु सॆ दॆखॆ जातॆ हुयॆ॥25॥

यास्थानावपयन यॊगस्थानाधिपत्यॆन यॊगप्राबल्यमादिशॆत । ।

स्त्रीलाभं पुत्रलाभं च वस्त्रवाहनभूषणम ॥26॥ , यॊगस्थान कॆ अधिपति हॊनॆ सॆ यॊग प्रबल हॊता है, ऐसॆ चन्द्रमा कॆ अन्तर ’ मॆं स्त्री का लाभ, पुत्र का लाभ और  वस्त्र, वाहन, आभूषण का लाभ॥26॥ .. नूतनालयलाभं च नित्यं मिष्ठान्नभॊजनम ।

" गीतवाद्यप्रसंगश्च शास्त्रविद्याप्रशंसनम ॥ 27॥

नूतन गृह का लाभ नित्य मिष्ठान्न का भॊजन हॊता है। गाना-बाजा का सुख, शास्त्र विद्या की प्रशंसा॥27॥

। दक्षिणांदिशमाश्रित्य प्रयाणं च भविष्यति । द्विपान्तरादि वस्त्राणां लाभश्चैवभविष्यति ॥28॥ दक्षिण दिशा की यात्रा, द्वीपान्तर जॆ वस्त्रॊं का लाभ॥28॥ मुक्ताविद्मरत्नानि धौतवस्त्रादिलाभदम ॥ नीचारिक्षॆत्रसंयुक्तॆ दॆहबाधा भविष्यति ॥29॥

मला, मझ का लाभ और  धौत वस्त्र का लाभ हॊता है। अपनॆ नीच वा शत्र की राशि मॆं स्थित हॊ तॊ शरीर मॆं बाधा हॊती है॥29॥।

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अथातर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥

422 दायॆशाकॆन्द्रकॊणस्थॆ दुश्चक्यॆ लाभगॆऽपिवा । । तद्भुक्त्यादौ पुण्यतीर्थस्थानदैवतदर्शनम ॥30॥

दशॆश सॆ कॆन्द्र वा कॊण वा तीसरॆ वा ऎकादश भाव मॆं हॊ तॊ उसकॆ अन्तर कॆ प्रारम्भ मॆं पुण्यतीर्थ स्थान और  दॆवता का दर्शन॥30॥।

मनॊधैर्य हृदुत्साहं विदॆशॆधनलाभकृत ॥ दायॆशाषष्ठरन्ध्र वा व्ययॆ वा पापसंयुतॆ ॥31॥

मन मॆं धैर्य, हृदय मॆं उत्साह और  विदॆश सॆ धन का लाभ हॊता है। यदि चन्द्रमा दशॆश सॆ 6 या 8 या 12 भाव मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ॥31॥

चौराग्निनृपभीतिश्च स्त्रीसंगॆगमनंतथा ॥ । दुष्कृतिर्धनहानिश्च । कृषिगॊऽश्वादिनाशनम ॥ 32॥।

चॊर, अग्नि, राजा सॆ भय, स्त्री संग मॆं यात्रा, दुष्कीर्ति और  धन की हानि, कृषि, गौ, घॊडा की हानि हॊती है॥32॥

द्वितीयद्यूननाथॆ तु दॆहबाधा भविष्यति । तद्दॊषपरिहारार्थं दुर्गादॆवी जपं चरॆत ।

 वस्त्रदानं प्रकुर्वीत आयुर्वृद्धिसुखावहम ॥33॥।

2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ शरीर की बाधा हॊती है। इस दॊष की शान्ति कॆ लियॆ दुर्गा दॆवी का जप करना चाहियॆ। आयु बृद्धि और  सुख कॆ लियॆ वस्त्र का दान करना चाहियॆ॥33॥

अथ बुधदशायांभौमान्तर्दशाफलम्सौम्यस्यान्तर्गतॆ भौमॆ लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ । स्वॊच्चॆ वा स्वक्ष्यॆ भौमॆ लग्नाधिपसमन्वितॆ ॥34॥

बुध की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं लग्नॆश सॆ युत भौम कॆ अन्तर मॆं॥34॥

राजानुग्रह शान्तिं च गृहॆ कल्याण संभवम । लक्ष्मीकटाक्षचिन्हानि नष्टराज्यार्थभकृत ॥ 35॥

राजा की कृपा, शान्ति, गृह मॆं कल्याण और  लक्ष्मी की प्रसन्नता कॆ चिह्न, नष्ट हुयॆ राज्य तथा धन का लाभ॥35॥

पुत्रॊत्सवादिसंतॊषं गृहॆ गॊधनसंकुलम । गृहक्षॆत्रादिलाभं च गजवाजिसमन्तिम ॥ 36॥


23

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477

। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । पुत्रॊत्सव, गॊधन की वृद्धि हाथी घॊडॆ कॆ साथ गृहभूमि का लाभ॥36 ॥

., राजप्रीतिकरं चैव स्त्रीसौख्यं चातिशॊभनम । । नीचक्षॆत्रसमायुक्तॆ ह्यष्टमॆ वा व्ययॆऽपिया ॥ 37॥

। राजा की प्रसन्नता और  स्त्री का सुख प्राप्त हॊता है। यदि भौम नीच राशि मॆं आठवॆं या बारहवॆं भाव मॆं॥37॥

पापदृष्टियुतॆ. वापि दॆहपीडा मनॊव्यथा । उद्यॊगभङ्गॊ दॆशादौ स्वग्रामॆ धान्यनाशनम ॥ 38॥

पापग्रह सॆ दृष्ट वा युत हॊ तॊ शरीर मॆं पीडा, मानसिक कष्ट, दॆश मॆं उद्यॊग

की हानि और  अपनॆ ग्राम मॆं धान्य की हानि॥38॥ । ..... ग्रन्थिशस्त्रब्रणादीनां भयंतापज्वरादिकम ।

दायॆशात्कॆन्द्रगॆ भौमॆ त्रिकॊणॆ लाभगॆऽपिवा ॥39॥ । ग्रन्थि, शस्त्र, ब्रण आदि का भय, तापज्वर आदि हॊता है। दशॆश सॆ कॆ

वा त्रिकॊण वा लाभ मॆं भौम हॊ॥39 ॥। । शुभदृष्टॆश्च सम्प्राप्तिदॆहसौख्यं धनागमम ।

* पुत्रलाभं यशॊवृद्धिं मातृवर्गॊं महाप्रियः ॥4॥ । शुभग्रह सॆ दृष्ट हॊ तॊ द्रव्य की प्राप्ति, दॆहसुख, पुत्र का लाभ, यश की बलि और  भा‌इयॊं सॆ प्रीति हॊती है॥40॥

दायॆशाद्रिपुरन्ध्रस्थॆ. व्ययॆ वा पापसंयुतॆ । तद्भुत्यादौ महाक्लॆशं भ्रातृवर्गॆ महद्भयम ॥41॥

दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं पापग्रह सॆ युक्त भौम हॊ तॊ अन्तर कॆ आर मॆं महाक्लॆश, भा‌इयॊं सॆ भय॥41॥

नृपाग्निचौरभीतिश्च पुत्रमित्रविरॊधनम ।

 स्थानभ्रंशं महद्वैरं मध्यॆ सौख्यं धनागमम ॥4 2॥

राजा, अग्नि, चॊर का भय, पुत्र-मित्र सॆ विरॊध, स्थान की हानि, महावैर , हॊता हैं, मध्य मॆं सुख और  धन का आगम॥42 ॥

अंतॆ तु राजभीतिः स्यात्स्थानभ्रंशॊह्यथापिवा । द्वितीयद्यूननाथॆ तु ह्यपमृत्युभयं भवॆत ।

अनड्वाहं प्रकुर्वीत मृत्युंजय जपं चरॆत ॥43॥ और  अंत मॆं राजभय, स्थान की हानि हॊती है। दूसरॆ या सातवॆं भाव कॆ

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4

अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥ स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है। बैल का दान और  मृत्युंजय का जप कराना चाहियॆ॥43॥।

अथ बुधदशायांराह्वन्तर्दशाकलम्बुधस्यान्तर्गत राहॊ कॆन्दलाभत्रिकॊणगॆ । कुलीरॆ मकरॆ वापि कन्यायां वृषभॆऽपि वा ॥44॥।

बुध की दशा मॆं कॆन्द्र वा लाभ वा त्रिकॊण मॆं वा कर्क वा मकर वा कन्या वा वृष राशि मॆं गयॆ हुयॆ राहु कॆ अन्तर मॆं॥44॥

राजसम्मानकीर्तिं च धनंधान्यं भविष्यति । पुण्यतीर्थस्थानलाभं दॆवतादर्शनं तथा ॥45॥

राजा सॆ सम्मान, कीर्ति, धन धान्य का लाभ, पुण्यतीर्थ का लाभ, दॆवता का दर्शन॥45॥।

इष्टापूत्तॆ च महतॊ मान%अम्बरलाभकृत ॥ भुक्त्यादौ दॆहपीडा च अंतॆ सौख्यं विनिर्दिशॆत ॥46 ॥।

यज्ञ और  मान, वस्त्र का लाभ हॊता है। अंतुर कॆ आदि मॆं दॆह पीडा और  अन्त मॆं सुख हॊता है॥46॥।

। लग्गाद्युपचयॆ राहौ शुभग्रहसमन्वितॆ ।

राजसंलापसन्तॊषं नूतनप्रभुदर्शनम ॥47॥।

लग्न सॆ उपचय (3।6।10।11) स्थान मॆं शुभग्रह सॆ युक्त राहु हॊ तॊ राजा सॆ सम्मान संतॊष और  नवीन स्वामी का दर्शन हॊता है॥47॥

षष्ठाष्टव्ययराशिस्थॆ तद्भुक्तौ धननाशनम ॥ भुत्स्यादौ दॆहनाशं च वातज्वरमजीर्णकृत ॥48॥

यदि राहु 6।8।12 भाव मॆं हॊ तॊ उसकॆ अंतर कॆ आरम्भ मॆं धन का नाश, दॆह का नाश, बात ज्वर अजीर्ण सॆ हॊता है॥48॥

दायॆशात्वष्ठरिःफॆवा ह्यष्टमॆ पापसंयुतॆ ॥ निष्ठुरं राजकार्याणि स्थानभ्रंशॊमहद्भयम ॥49॥

दशॆश सॆ 6।12।8 भाव मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ कडॆ राजकार्य, स्थान की हानि, महाभय॥49॥

बंधनं रॊगपीडा च आत्मबन्धु मनॊव्यथा ॥ हृद्रॊगॊ मानहानिश्च धनहानिर्भविष्यति ॥50 ॥


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428

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ बंधन, रॊगापीडा, आत्मीय बंधु कॊ मानसिक कष्ट, हृदय रॊग, धन की हानि, मानहानि और  धनहानि हॊती है॥50॥

द्वितीयसप्तमस्थॆ वा ह्यपमृत्यूर्भविष्यति । : तद्दॊषपरिहारार्थ दुर्गालक्ष्मीजपं चरॆत ।

। श्वॆतां गां महिषीं दद्यादायुरारॊग्यदायिनीम ॥51॥

2 वा 7 भाव मॆं हॊ तॊ अपमृत्यु हॊती है। इस दॊष की शान्ति कॆ लियॆ। दृर्गा लक्ष्मी का जप करना चाहियॆ और  आयु और  आरॊग्यता कॊ दॆनॆ वाली श्वॆत

और  भैंस का दान करना चाहियॆ॥51॥।

। अर्थ बुधदशायांगुर्वन्तर्दशाफलम्बधस्यान्तर्मतॆ जीवॆ लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ । स्वॊच्चॆ वा स्वगॆ वापि लाभॆ वा धनराशिगॆ ॥52॥

बध की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा अपनॆ उच्च वा अपनी राशि वा लाभ वा दूसरॆ स्थान मॆं गयॆ हुयॆ गुरु कॆ अन्तर मॆं ॥52॥।

दॆहसौख्यं धनावाप्तिं राजप्रीतिं तथैव च । विवाहॊत्सवकार्याणि नित्यमिष्ठान्नभॊजनम ॥53॥

दॆहसुख, धन की प्राप्ति, राजा सॆ प्रॆम, घिवाहॊत्सव, नित्य मिष्ठान्न का भॊजन॥53॥

गॊमहिष्यादिलाभं च पुराणश्चवणादिकम । दॆवतागुरुभक्तिश्च दानधर्ममखादिकम ॥54॥

दॆवता गुरु मॆं भक्ति, दान, धर्म, गौ, भैंस आदि का लाभ, पुराण आदि का श्रवण॥54॥

यज्ञकर्मप्रवृद्धिं च शिवपूजाफलं तथा । दायॆशात्कॆन्द्रकॊणॆवा लाभॆ वा बलसंयुतॆ ॥55॥

यज्ञ की वृद्धि शिवपूजन का फल हॊता है। दशॆश सॆ कॆन्द्र वा कॊण वा लाभ स्थान मॆं बली हॊ तॊ॥55॥।

संपात्रहदुत्साहं शुभं शॊभनसंयुतम । । पशवछियशॊलाभमन्नदानादिकं फलम ॥56 ॥

बंधु पुत्र का सुख हृदय मॆं उत्साह और  शुभ फल, पशु वृद्धि, यश का लाभ, अन्न दानादि फल हॊतॆ हैं॥ 56॥।

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अथान्तर्दशादिफलविचाध्यायः ॥

4740 नीचॆ वास्तंगतॆ वापि षष्ठाष्टव्ययगॆपि ।

शन्यारफणिसंयुक्तॆ कलहॊराजाविशाहम ॥ ॥77 ॥ ॥ .

यदि गुरु अस्त हॊ वा 6।8।12 मॆं हॊं शान्ति, मा साहु सॆ युक्त ह्यॊ यॊ कलह, राजा सॆ विरॊध॥57॥।

चौरादिदॆहपीडा च पितृमातृविनाशनम ॥ दायॆशात्पष्ठरंध्रॆ वा व्ययॆ वा बलदार्जिति ॥ ॥8॥

चॊर आदि सॆ शरीर मॆं पीडा पिता माता का नाश हॊता है। दशैशा स्सॆ 6 ॥8॥12 मॆं निर्बल हॊ तॊ॥58॥।

अङ्गतापश्च वैकल्यं दॆहबाधा भविब्याक्कि । ‘कलत्रबंधुवैषम्यं राजकॊषॊ अनायाः ॥ ॥ 59 ॥ ॥

शरीर मॆं ताप, अङ्ग मॆं विकलता, दॆह मॆं बवाध्या, रूसी ब्लँधु सॆ बैर, याव्यॊष्ण, धन की हानि॥59॥

अकस्मात्कलहाद्धीतिः प्रमादॊ राजवि‌अद्विषाम ॥ द्वितीय सप्तमस्थॆ वा दॆहबाधा आविष्काळि ॥ 60 ॥

अकस्मात कलह सॆ भय प्रमाद सॆ राज्जा सॆ शाकुन्या झॊती है॥ 2 ॥97 मावा मॆं हॊ तॊ शरीर बाधा हॊती है॥60॥

तद्दॊषपरिहारार्थं शिवसाहस्रक जापौत ॥

गॊभृहिरण्यदानॆन सर्वाणिष्टं अस्पृश्याति ॥ ॥ 61 ॥ । इस दॊष कॆ परिहार कॆ लियॆ शिवसहस्रन्माम्म जम्मा ज्ष्म और  गौ, आमि, सॊना कॆ दान सॆ सभी अरिष्ट नष्ट हॊ जातॆ हैं॥61 ॥ ॥

। अथ बुधदशायांशॆन्यन्तर्दशाषकलाम्म - सौस्यस्यान्तर्गतमन्दॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रान्डूमौ ॥ त्रिकॊणलाभगॆ वापि गृहॆ कल्याणवर्धम ॥ ॥ 6 26 ॥

बुध की दशा मॆं अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं कॆन्द्र क्या क्रियण्णा मॆं व्या माध्यम मॆं गयॆ हुयॆ शनि कॆ अन्तर मॆं गृह मॆं कल्याण की वृद्धि॥ ॥62॥॥

राज्यलाभं महॊत्साहं गृहॆ गॊधनासंकुलाम । शुभस्थानफलावाप्तिं तीर्थादौ अमणॊं तथा ॥ ॥ 63 ॥ *

राज्य का लाभ, अत्यंत उत्साह, गौ, धन्ना की वृद्धि, शुभ्म स्थान की प्राप्ति‌अ, तीर्थ आदि मॆं भ्रमण हॊता है॥63॥ . . .।


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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥

षष्ठाष्टमव्ययॆ मन्दॆ दायॆशाद्वा तथैव च । . अरातिदुःखवाहुल्यं दारपुत्रादिपीडनम ॥ 64’ ; ।.6।8।12 भाव मॆं शनि हॊ दशॆश सॆ भी इन्हीं स्थानॊं मॆं हॊ त .... अधिक दु:ख, स्त्री पुत्र आदि कॊ पीडा॥64॥ * : बुद्धिभ्रंशं बंधुनाशं कर्मनाशं मनॊरूजम ॥

विदॆशगमनंचैवदुःस्वप्नस्यप्रदर्शनम ॥ 65 ॥ । बुद्धि का नाश, बंधु का नाश, कर्म का नाश, मन मॆं दु:ख, विदॆश या...। दु:स्वप्नॊं का दर्शन हॊता है॥65॥

द्वितीयद्यूननाथॆ तु ह्यपमृत्युभविष्यति । तद्दॊषपरिहारार्थं मृत्युंजय जपं चरॆत ।

कृष्णां गां महिषीं दद्यादायुरारॊग्यवृद्धिनम ॥ 66 ॥ । 2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है। इस दॊष की शान्ति कॆ लियॆ काली गौ और  भैंस का दान आयु आरॊग्यता की वृद्धि कॆ लियॆ दॆना चाहियॆ॥66॥

इति बुधदशायामन्तर्दशाफलम। । अथ कॆतुदशायांकॆत्वन्तर्दशाफलम्कॆन्द्र त्रिकॊणलाभॆ वा लग्नाधिपसमन्वितॆ ॥

भाग्यकर्मॆशसम्बन्धॆ वाहनॆशसमन्वितॆ ॥1॥ । कॆतु की दशा मॆं कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा लाभ स्थान मॆं लग्नॆश सॆ युत वा भाग्यॆश कर्मॆश सॆ अच्छॆ सम्बन्ध सॆ युक्त वाहनॆश सॆ युत कॆतु कॆ अन्तर मॆं॥1॥

तद्भक्तौ धनधान्यादि चतुष्पाज्जीवलाभकृत ।

पुत्रदारादिसौख्यं च राजप्रीति मनॊरूजः ॥2॥

 धन धान्य सॆ युक्त चतुष्पद जीव का लाभ, पुत्र स्त्री का सुख, राजा सॆ प्रॆम मानसिक कष्ट॥2॥

ग्रामभूम्यादिलाभश्च गृहं गॊधनसंकुलम । नीच. दखॆटसंयुक्तॆ’ ह्यष्टमॆ व्ययगॆऽपिवा ॥3॥

ग्रामं भूमि आदि का लाभ और  घर गॊधन सॆ परिपूर्ण हॊता है। नीच बा अस्त मॆं गयॆ हुयॆ ग्रह सॆ युक्त हॊ वा आठवॆं वा बारहॆं भाव मॆं हॊ तॊ॥3॥

हृद्रॊग मानहानि च धनधान्यपशुक्षयम । दारपुत्रादिपीडां च मनश्चांचल्यमॆव च ॥4॥

-ऊश

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥

426 हृदयरॊग, मानहानि, धन धान्य और  पशु का नाश, स्त्री, पुत्र आदि कॊ पीडा, मनमॆं चंचलता हॊती है॥4॥

द्वितीयद्युननाथॆन सम्बन्थॆ तत्र संस्थितॆ ।

अनारॊग्यं महत्कष्टमात्मबंधुवियॊगकृत ॥ दुर्गादॆवी जपं कुर्यान्मृत्युंजय जपं चरॆत ॥5॥

दूसरॆ वा सातवॆं भाव कॆ स्वामी सॆ सम्बंध करता हु‌आ स्थित हॊ तॊ रॊगयुक्त, महाकष्ट और  आत्मीय बन्धु का वियॊग हॊता है दुर्गा और  मृत्युंजय का जप कराना चाहियॆ॥5॥

। अथ कॆतुदशायांशुक्रान्तर्दशाफलम्कॆतॊरन्तर्गतॆ शुक्रॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रसंयुतॆ । कॆन्द्रत्रिकॊणलाभॆ वा राज्यनाथॆनसंयुतॆ ॥6॥

कॆतु की दशा मॆं अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा लाभ मॆं कर्मॆश सॆ युक्त शुक्र कॆ अन्तर मॆं॥6॥

राजप्रीतिं च सौभाग्यं राज्यात्स्वास्बरसंकुलम ॥ तत्कालॆ श्रियमाप्नॊति भाग्यकर्मॆशसंयुतॆ ॥7॥

राजा सॆ प्रॆम, सौभाग्य, राज्य सॆ वस्त्रादि का लाभ हॊता है। यदि भाग्यॆश कमॆंश, सॆ युत हॊ तॊ॥7॥।

नष्टराज्यधनप्राप्तिंसुखवाहनमुत्तमम

सॆतुस्नानदिकं चैव दॆवतादर्शनंमहत ॥8॥

तत्काल लक्ष्मी की प्राप्ति, नष्ट हुयॆ राज्य का लाभ, धन का लाभ, सुख उत्तम वाहन का लाभ, समुद्रस्नान का लाभ दॆवता का दर्शन॥8॥

महाराजप्रसादॆन ’ ग्रामभूम्यादिलाभकृत । दायॆशात्कॆन्द्रकॊणॆ वा दुश्चियॆलाभगॆऽपिवा ॥9॥

और  महाराज की प्रसन्नता सॆ ग्रामभूमि आदि का लाभ हॊता है। दशॆश सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा तीसरॆ वा लाभ मॆं हॊ तॊ॥9॥

दॆहारॊग्यं शुभं चैव गृहॆकल्याणशॊभनम ॥

भॊजनाम्बरभूपाप्तिमश्वदॊलादिलाभकृत ॥10॥ । दॆह आरॊग्य, शुभफल, गृह मॆं कल्याण, भॊजन, वस्त्र, राजा सॆ प्रॆम, अश्व

आदि का लाभ हॊता है॥10॥

28

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । दाव्यॆशादिपुरंधस्थॆ व्ययॆ वा, पापसंयुतॆ ।

आकस्मात्कल्पहुंचैव पशुधान्यादिपीडनम ॥11॥ ". टुशीशा स्वै 6 ॥8॥13 शाक मॆं पापयुक्त हॊ तॊ अकस्मात कलह, पशु, धान्य

आदि की यानि ह्यौती है। ॥ 11॥

नीचस्थखॆटसंयुक्छॆ लग्नात्वष्ठाष्टराशिगॆ ।

स्वबन्धुज्जमवैवाम्यं शिराक्षिब्रणपीडनम ॥12॥

 नीच्या मॆं गाय्चॆ हुयॆ ऋळू सॆ युक्त हॊ और  लग्न सॆ 6 वा 8 भाव मॆं हॊ तॊ आत्मीय बथु‌आ औ शामुल्ता, नाम, नैत्र छष्ण आदि सॆ पीडा॥12॥।

हृदॊमं मानहानि च धनधान्यपशुक्षयम । कलत्रपुत्रपौडाव्यवस्संचारं दॆहरॊगयुक ॥13॥

हृदय मा, म्यानह्मानि, ’धन्न मान्य पशु का नाश, स्त्री, पुत्र कॆ रॊगी हॊनॆ का शुश्च शुर मॆं हॊगा हॊता है। ॥13॥

द्वितीयमानाचॆ तु दॆहजाड्यं मनॊरूजम । त्वद्दॊ‌अपरिहार्थं दुर्गादॆवीजपं चरॆत ।

छॆता य च अहि दद्यादारॊग्यप्रदायिनीम ॥14॥ । 2 का 77 व या स्वाम्मी हॊ तॊ दॆह मॆं जडता और  मानसिक रॊग हॊता है। इम ब्यौवा कॆ शान्त्यर्थं दुर्गा दैन्की प करना चाहियॆ और  आरॊग्य दॆनॆ वाली सफॆद गौ मा औंस मा ट्रम्ह करना चाहियॆ॥14॥

अझ कॆतुदशायांसूर्यान्र्दशाफलम - कैलॊरन्तर्गत सूर्यॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆऽपिवा ।

कॆन्द्रत्रिकॊणालामॆ वा शुभग्रहनिरीक्षितॆ ॥15॥ । कैलू बझी शा मॆं अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं लाभ मॆं शुमल्ल सॆ दॆखॆ जातॆ हुयॆ सूर्य कॆ अन्तर मॆं॥15॥

धनधान्यादिलाय. राजानुग्रहवैभवम ।

अनॆकशुभकार्याणि चॆष्टासिद्धिः सुखावहा ॥16॥

या याटि बम ल्लामा, राजा की कृपा सॆ वैभव का लाभ, अनॆक शुभ कार्य और  मुस्कर अमीष्ट ना स्मिद्धि हॊती है॥16॥

 दावॆशाकॆन्द्रकॊणॆ वा लाभॆ वा धनसंस्थितॆ । ।

दॆहसौख्यं कालाभं पुत्रलाभं मनॊदृढम ॥17॥



अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥

478 दशॆश सॆ कॆन्द्र वा कॊण वा लाभ वा दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ दॆह-सुख, धन का लाभ, पुत्र लाभ और  मन मॆं दृढता॥17॥

यातुः कार्यार्थसिद्धि स्पास्वल्पग्रामाधिपत्वयुक । । षष्ठाष्टव्ययराशिस्थॆ पापग्रहसमन्वितॆ ॥18॥

तथा यात्रा मॆं कार्य और  धन की सिद्धि और  छॊटॆ ग्राम की स्वामिता हॊती है। यदि सूर्य 6।8।12 भाव मॆं हॊ पापग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ॥18॥

तद्भुक्तौ राजभीतिश्च पितृमातृवियॊगकृद । विदॆशगमनं चैव चौराहिविषपीडनम ॥19॥।

अंतर मॆं राजभय और  पिता माता का वियॊग, विदॆशयात्रा, चॊर सर्प विष सॆ पीडा॥19॥।

राजमित्रविरॊधश्च राजदंडाद्धनक्षयः । । शॊकरॊगभयं चैव उष्णाधिस्यं ज्वरॊभवॆत ॥20॥.

राजा मित्र सॆ विरॊध, राजदंड सॆ धन का नाश, शॊक रॊग का भय, अधिक " ताप सॆ युक्त ज्वर हॊता है॥20॥।

दायॆशादष्टरिःफॆवा षष्ठॆ वा पापसंयुतॆ ।

अन्नविप्नॊ मनॊभीतिर्धनधान्यपशुक्षयः ॥21॥

दशॆश सॆ 8।12।6 भाव मॆं पापग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ अन्न प्राप्ति मॆं बाधा, मनमॆं भय, धन-धान्य, पशु का नाश हॊता है॥21॥

आदौ मध्यॆ महाक्लॆशमन्तॆ सौख्यं विनिर्दिशॆत । द्वितीयसप्तमाधीशॆ ह्यपमृत्युर्भविष्यति । तस्यशान्तिं प्रकुर्वीत स्वर्णधॆनुं प्रदापयॆत ॥22॥

आदि और  मध्य मॆं महाक्लॆश तथा अन्त मॆं सुख हॊता है। 2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है। इसकी शान्ति करनी चाहियॆ और  सुवर्ण * की गौ का दान करना चाहियॆ॥22॥।

अथ कॆतुदशायांचन्द्रान्तर्दशाफलम - कॆतॊरन्तर्गतॆ चन्द्रॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रराशिगॆ । - कॆन्द्रत्रिकॊणलाभॆ वा धनॆ सुखसमन्वितॆ ॥23॥ .

कॆतु की दशा मॆं अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा लाभ स्थान वा धन वा सुख स्थान मॆं गयॆ हुयॆ चंद्रमा कॆ अंतर मॆं॥23॥


3ऒ

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ " राजप्रीतिर्महॊत्साहः कल्याणं च महत्सुखम ।

महाराजप्रसादॆन । गृहभूम्यादिलाभकृत ॥24॥

राजा सॆ प्रीति बडा उत्साह, कल्याण और  बडा सुख, महाराजा की प्रसन्नत सॆ गृह-भूमि का लाभ॥24॥

भॊजनाम्बरपश्वादिः व्यवसायॆऽधिकं फलम ॥

अश्ववाहनलाभश्च वस्त्राभरणभूषणम ॥25॥

 भॊजन, वस्त्र, पशु आदि कॆ व्यवसाय मॆं अधिक लाभ हॊता है। अश्व वाहन का लाभ, वस्त्र आभूषण का लाभ॥25॥।

दॆवालयतडागादिपुण्यधर्मादिसंग्रहम । पुत्रदारादिसौख्यं च पूर्णचन्द्रस्तथैव च ॥ 26॥

दॆवालय तालाब आदि पुण्य धार्मिक कार्यॊं का संग्रह, पुत्र, स्त्री आदि का सुख पूर्णचंद्र कॆ हॊनॆ सॆ हॊता है॥26॥।

दायॆशाकॆन्द्रकॊणॆ वा लाभॆ वा बलसंयुतॆ । कृषिगॊभूमिलाभं च इष्टबन्धुसमागमम ॥27॥

दशॆश सॆ कॆंद्र कॊण वा लाभ मॆं बलीचंद्र हॊ तॊ कृषि, गौ, भूमि का लाभ इष्टबंधु‌ऒं का समागम॥27॥।

तामसात्कार्यसिद्धिं च गृहॆ गॊक्षीरमॆव च । भूकृत्यं शुभमारॊग्यं मध्यॆ राजप्रियंशुभम ॥28॥ अंतॆ तु राजभीति च विदॆशगमनं तथा । दूरयात्रादिसञ्चार सम्बंधिजनपूजनम ॥29॥ ॥

तामसी प्रकृति सॆ कार्य की सिद्धि और  घर मॆं गॊदुग्ध का सुख भूमिसंबंधि कार्य, शुभ आरॊग्यता मध्य मॆं राजा सॆ प्रॆम, अंत मॆं राजभय, विदॆशयात्रा, दर यात्रा की सम्भावना और  सम्बंधियॊं का पूजन हॊता है॥29॥।

। नीचगॆ वा क्षीणगॆचन्द्रॆ घष्ठाष्टव्ययराशिगॆ ॥

- आत्मसौख्यं मनस्तापं कार्यविघ्नं महद्भयम ॥30॥ , । यदि चन्द्रमा क्षीण हॊ और  6।8।12 भाव मॆं हॊ तॊ अपनॆ सुख मॆं मन । कॊ सन्ताप, कार्य मॆं विघ्न, महाभयं ॥30॥

... पितृमातृवियॊगं च दॆहजाड्यं मनॊव्यथाम ॥

व्यवसायात्फलं नष्टं गॊमहिष्यादिनाशकृत ॥31॥

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

531 . पिता माता का वियॊग, दॆह मॆं जडता, मन मॆं व्यथा, व्यवसाय (रॊजगार) . मॆं असफलता, गौ-भैंस की हानि हॊती है॥31॥

दायॆशात्षष्ठरन्ध्र वा व्ययॆ वा बलवर्जितॆ ॥

धनधान्यादिहानिश्च मनॊव्याकुलमॆव च ॥ 32॥

दशॆश सॆ 6।8।12 मॆं निर्बल चन्द्र हॊ तॊ धन-धान्य की हानि, मन मॆं

 व्याकुलता॥32 ॥

स्वबंधुजनशत्रुत्वं मातृपीडा तथैव च । निधनाधिप दॊषॆण द्विसप्ताधिपसंयुतॆ ॥33॥

अपमृत्यु तस्य शान्तिं कुर्याद्यथाविधि ।

चन्द्रप्रीतिकरज्वैव ह्यायुरारॊग्य संभवम ॥34॥ । अपनॆ बंधु‌ऒं सॆ शत्रुता, भा‌इयॊं सॆ पीडा हॊती है। अष्टमॆश हॊ और  2।7 भाव कॆ स्वामी सॆ युत हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है। उसकी शान्ति कॆ लियॆ चन्द्रमा कॆ प्रसन्न हॊनॆवाली और  आयु आरॊग्यता दॆनॆवाली शान्ति करनी : चाहियॆ॥34॥।

अथकॆतुदशायांभौमान्तर्दशाफलम्कॆतॊरन्र्तगतॆ भौमॆ लग्नात्कॆन्द्रत्रिकॊणभॆ।

स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆ भौमॆ शुभदृष्टियुतॆक्षितॆ ॥35॥। । कॆतु की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं वा अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं शुभग्रह सॆ दृष्ट वा युत भौम कॆ अन्तर मॆं॥35॥

आदौ शुभफलं चैव ग्रामभूम्यादिलाभकृत । धनधान्यादिलाभश्च चतुष्पाज्जीवलाभकृत ॥ 36॥

पहलॆ शुभफल, ग्राम, भूमि आदि का लाभ, धन, धान्य आदि का लाभ, चतुष्पद जीव का लाभ॥36॥।

गृहारामक्षॆत्रलाभं राजानुग्रह वैभवम । भाग्यकर्मॆशसम्बंधॆ भूलाभं सौख्यंमॆव च ॥ 37॥

गृह, बगीचा, क्षॆत्र का लाभ, राजा की कृपा सॆ वैभव का.लाभ हॊता है। भाग्यॆश । कर्मॆश सॆ सम्बन्ध हॊं तॊ भूमि कॊ लाभ और  सुख हॊता है॥37॥

दायॆशात्कॆन्द्रकॊणॆ वा दुश्चिक्यॆ लाभगॆऽपिवा ॥ राजप्रीति यशॊलाभं पुत्रमित्रादि सौख्यकृत ॥ 38॥


2. ऎ‌ऎण्श

,

यदि *

। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । दशॆश सॆ कॆन्द्र वा कॊण वा तीसरॆ वा लाभ मॆं हॊ तॊ राजा सॆ प्रॆम, यश का लाभ, और  पुत्र मित्र आदि का सुख हॊता है॥38॥।

षष्ठाष्टमव्ययॆ भौमॆ दायॆशाद्धनगॆऽपि वा । । द्रुतं करॊति मरणं विदॆशॆचापदं भ्रमम ॥ 39॥

यदि मौम 6।8।21 स्थान मॆं वा दशॆश सॆ 2 स्थान मॆं हॊ तॊ शीघ्र ही मृत्यु हॊती है॥39 ॥।

प्रमॆहमूत्रकृच्छ्वादिचौराहिनृपपीडनम । कलहादौ व्यथायुक्तं किंचित्सुखविवर्धनम ॥40॥

प्रमॆह, मूत्रकृच्छ आदि रॊग, चौर-सर्प-राज़ा सॆ पीडा, आदि मॆं कलह और  व्यथा तथा कुछ सुख की वृद्धि हॊती है॥40॥।

. द्वितीयद्यूननाथॆ तु तापज्वर विषाद्भयम । दारपीडामन:क्लॆशमपमृत्युभयं भवॆत । अनड्वाहं प्रदद्यात्तु सर्वसम्पत्सुखावहम ॥41 ॥

257 भाव. कॆ स्वामी हॊं तॊ ताप ज्वर और  विष का भय, स्त्री कॊ पीडा, मन मॆं क्लॆश और  अपमृत्यु का भय हॊता है। सभी सम्पत्ति और  सुख प्राप्ति कॆ । लियॆ वृष का दान करना चाहियॆ॥41॥

.. अथ कॆतुदशायांशन्यन्तर्दशाफलम्कॆतॊरन्तर्गतॆ. राहौ स्वॊच्चॆ मित्रस्वराशिगॆ ।

कॆन्द्रत्रिकॊणलाभॆ वा दुश्चिक्यॆ धनसंज्ञकॆ ॥42॥.. . कॆतु की दशा मॆं अपनॆ उच्च वा मित्र कॆ गृह वा अपनी राशि वा कॆन्द्र वा कॊशा वा लाभ वा तीसरॆ भाव मॆं गयॆ हुयॆ राहु कॆ अन्तर मॆं॥42॥

तत्कालॆ धनलाभः स्यात्संसारॆ भवति ध्रुवम । म्लॆक्षप्रंभुवशात्सौख्यं धनधान्यफलादिकम ॥43॥

तत्काल धन का लाभ हॊता है, म्लॆक्ष राजा कॆ वश सॆ सुख, धन-धान्य आदि का लाभ॥43॥।

चतुष्पाज्जीवलाभः स्याङ्ग्रामभूम्यादिलाभकृत ।

भुक्तयादौ क्लॆशमाप्नॊति मध्यान्तॆ सौख्यमाप्नुयात ॥44॥ । चतुष्पद जीव का लाभ, ग्राम, भूमि आदि का लाभ हॊता है। अन्तर कॆ आरम्भ मॆं कष्ट हॊता है मध्य और  अन्त मॆं सुख हॊता है॥44॥।

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वा।

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433

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

473 रंध्र वा व्ययगॆ राहॊ पापसंदृष्टिसंयुतॆ । बहुपुत्रं कृशं दॆहं शीतज्वरविषाद्भयम ॥45॥।

यदि राहु 8।12 भाव मॆं पापग्रह सॆ दृष्ट वा युत हॊ तॊ अनॆक पुत्र हॊतॆ हैं। शरीर मॆं दुर्बलता, शीत ज्वर और  विष सॆ भय॥45 ॥ , । चातुर्थिकज्वरं चैव, शूद्रॊपद्रवपीडनम ।

अकस्मात्कलहं चैव प्रमॆहं शूलमॆव च ॥46॥

चौथिया ज्वर, शूद्र कॆ उपद्रव सॆ पीडा, अकस्मात्कलह, प्रमॆह और  शूलरॊग हॊता है॥46॥ - ।

द्वितीयसप्तमस्थॆ वा यदा क्लॆशं महद्भयम । तद्दॊषपरिहारार्थं दुर्गादॆवी जपं चरॆत । ।

अयुतहॊमश्च कर्त्तव्यः सर्वसौख्यप्रदायकः ॥47॥ द्वितीय वा सातवॆं हॊं तॊ महा क्लॆश और  महा भय हॊता है। इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ दुर्गा दॆवी का जप और  सभी सुख कॊ दॆनॆ वाला अयुत हॊम कराना चाहियॆ॥47॥

अथकॆतुदशायांगुर्वनार्दशाफलम्कॆतॊरन्तर्गतॆ जीवॆ कॆन्द्रलाभत्रिकॊणगॆ । स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆ वापि लग्नाधिपसमन्वितॆ ॥18॥

कॆतु की दशा मॆं कॆन्द्र, लाभ वा त्रिकॊण मॆं वा उच्च वा अपनी राशि मॆं वा लग्नॆश सॆ युत गुरु कॆ अन्तर मॆं॥48॥

कर्मभाग्याधिपैर्युक्तॆ धनधान्यार्थसम्पदम । राजप्रीतिं मनॊत्साहमश्वांदॊल्यादिलाभकृत ॥49॥।

अथवा कमॆंश भाग्यॆश सॆ युत गुरु कॆ अन्तर मॆं धन, धान्य आदि सम्पत्ति का लाभ॥49॥।

गृहॆ कल्याण सम्पत्तिं पुत्रलाभं महॊत्सवम । पुण्यतीर्थं मनॊत्साहं सत्कर्म च शुखावहम ॥50॥

गृह मॆं कल्याण सम्पत्ति, पुत्रलाभ का उत्सव, पुण्यतीर्थ का दर्शन, मन मॆं उत्साह, अश्व-पालकॊ का लाभ, राजा सॆ प्रॆम, अच्छॆ कर्म, सुख॥50 ॥

इष्टदॆवप्रसादॆन विजयं कार्यलाभकृत । राजसंल्लापकार्याणि नूतन प्रभुदर्शनम ॥51॥

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । इष्टदॆव कॆ प्रसाद सॆ विजय, कार्य मॆं लाभ, राजा सॆ भाषण, और  नूतन राजा का दर्शन हॊता है॥51॥.

धष्ठाष्टमव्ययॆजीवॆ दायॆशान्नीचराशिगॆ ।

चौराहिब्रणभीतिं च धनधान्यादिनाशनम ॥52॥ ’ यदि गुरु दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं हॊ नीच राशि मॆं हॊ तॊ चौर, सर्प, व्रण का भय, धन-धान्य आदि का नाश॥52॥।

पुत्रदार वियॊगं च अतीवक्लॆशसम्भवम ॥

आदौ शुभफलं चैव अंतॆ क्लॆशकरं भवॆत ॥53॥ पुत्र-स्त्री का वियॊग अत्यंत कष्ट की सम्भावना हॊती है। आदि मॆं शुभफल हॊता हैं अन्त मॆं कष्ट हॊता है॥53॥।

दायॆशाकॆन्द्रकॊणॆ वा दुश्चिक्यॆलाभभॆऽपिवा।

शुभयुक्तॆ नृपप्रीतिंर्विचित्राम्बरभूषणम ॥54॥ । दशॆश सॆ कॆन्द्र वा कॊण मॆं गुरु हॊ वा तीसरॆ वा लाभ स्थान मॆं हॊ शभग्रह , सॆ पुण्य हॊ तॊ राजा सॆ प्रीति, विचित्र वस्त्र आभूषण का लाभ॥54॥

दूरदॆश प्रयाणं च स्वबन्धुजनपॊषणम । ।... भॊजनाम्बरपश्वादि भुक्त्यादौ दॆहपीडनम ॥55॥

दूरदॆश की यात्रा, बन्धु‌ऒं का भरण पॊषण, भॊजन, वस्त्र, पशु आदि का लाभ अन्तर कॆ आदि मॆं हॊता है॥55॥

अन्तॆतु स्थानचलनमकस्मात्कलहॊ भवॆत । द्वितीयद्यूननाथॆतु ह्यपमृत्युभविष्यति ॥ 5 6॥ ’ अन्त मॆं स्थान परिवर्तन अकस्मात कलह हॊता है। दूसरॆ वा सातवॆं का स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है॥56॥

तद्दॊषपरिहारार्थं शिवसहस्रकं जपॆत ।

महामृत्युंजय जाप्यं सर्वॊपद्रवनाशनम ॥ 57॥ । इस दॊष कॆ परिहार कॆ लियॆ शिवसहस्र नाम का जप और  महामृत्युञ्जय का

जप करानॆ सॆ सभी उपद्रव नष्ट हॊ जातॆ हैं। ।57॥।

* अथकॆतुदशायांशन्यन्तर्दशाफलम - कॆतॊरन्तर्गतॆ मन्दॆ स्वदशायां तु पीडनम ॥ बन्धुक्लॆशॊ मनस्तापश्चतुष्पाज्जीवलाभकृत ॥ 58 ॥


अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥ 434 - कॆतु की दशा मॆं शनि कॆ अन्तर मॆं पीडा, बन्धु कॊ कष्ट, मन मॆं संताप चतुष्पद जीव का लाभ॥58॥

राजकार्यकलापॆन धननाशं महद्भयम । स्थानच्युतिः प्रवासश्च मार्गॆचौरभयं भवॆत ॥59॥

राजकार्य कॆ प्रसंग सॆ धन की हानि, महाभय स्थान च्युति, प्रवास, मार्ग मॆं चॊरी का भय हॊता है॥59॥।

आलस्यं मनसॊ हानिश्चाष्टमॆ व्ययराशिगॆ । मीनत्रिकॊणगॆमन्दॆतुलायांस्वर्द्धराशिभॆऽपिवा ॥ 60॥।

आठवॆं बारहवॆं भाव मॆं हॊ तॊ आलस्य और  मानसिक क्षति हॊती है। मीनराशि मॆं त्रिकॊण मॆं वा तुला मॆं वा अपनी राशि मॆं शनि हॊ॥60 ॥।

कॆन्द्रत्रिकॊणलानॆ वा दुश्चिक्यॆ वाशुभांशकॆ । शुभदृष्टि च संप्राप्तौ सर्वकार्यार्थसाधनम ॥31॥

वा कॆन्द्र, त्रिकॊण, लाभ वा तीसरॆ भाव का शुभांशक मॆं शुभग्रह की दृष्टि सॆ युत हॊ तॊ सभी कार्य और  धन का लाभ हॊता है॥61॥।

स्वप्रभॊश्च महत्सौख्यं भ्रघणं रणलाभगम । स्वग्रामॆ सुखसम्पत्तिः स्ववर्गॆ राजदर्शनम ॥62॥

अपनॆ स्वामी सॆ सुख और  रण प्रयुच्य भ्रमण लाभप्रद हॊता है। अपनॆ ग्राम, मॆं सुख और  सम्पत्ति अपनॆ वर्ग और  राजा का दर्शन हॊता है॥62॥

दायॆशाषष्ठरिःफॆ वा अष्टमॆ पापसंयुतॆ । दॆहतापॊ मनस्तापः कार्यॆ विघ्नॊ महद्भयम ॥ 63॥

दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ शरीर मॆं ताप, मन मॆं संताप, कार्य मॆं विघ्न, महाभय॥63॥॥

आलस्यं मानहानिश्च माता पित्रॊ विनाशनम । द्वितीयद्यूननाथॆ तु ह्यपमृत्युभयं भवॆत ॥ 64॥

आलस्य, मानहानि और  माता पिता का नाश हॊता है। दूसरॆ सातवॆं भाव का स्वामी हॊ तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है॥64॥

. तद्दॊषपरिहारार्थं तिलहॊमं च कारयॆत । ।

कृष्णां गां महिषीं दद्यादायुरारॊग्यवृद्धिदाम ॥65॥

1


435

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । - इसकॆ शान्त्यर्थ कृष्ण गौ, भैंस का दान करनॆ सॆ आयु, आरॊग्यता की वृद्धि

 हॊती है॥65॥ . .. अथ कॆतुदशायांबुधान्तर्दशफलम

कॆतॊरन्तर्गतॆ सौम्यॆ कॆन्द्रलाभ त्रिकॊणगॆ । - स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रसंयुक्तॆ राज्यलाभॊ महत्सुखम ॥ 66 ॥ .

कॆतु की दशा मॆं कॆन्द्र वा लाभ वा त्रिकॊण वा अपनी उच्चराशि वा अपनी राशि मॆं युक्तं बुध कॆ अन्तर मॆं राज्य का लाभ, महासुख॥ 66 ॥

सत्कथा श्रवणं दानं धर्मसिद्धिः सुखावहा ।

* भूलाभः पुत्रलाभश्च शुभगॊष्ठी धनागमः ॥ 67॥. । अच्छी कथा का श्रवण, दान, धर्म कार्य की सिद्धि, सुख, भूमि का लाभ,

. पुत्र का लाभ, शुभगॊष्ठी, धन का आगमन॥67॥।

अंयत्नात धर्मलब्धिश्च विवाहश्च भविष्यति । गृहॆ शुभकरं चैव वस्त्राभरण भूषणम ॥ 68॥ बिना प्रयत्न कॆ धर्म का लाभ, विवाह गृह मॆं शुभकार्य, वस्त्र, आभूषण का लाभ हॊता है॥68॥।

। भाग्यकर्माधिपैर्युक्तॆ भाग्यवृद्धिः सुखावहा ।

विद्वद्गॊष्ठीकलापॆन संतॊषॊ भूषणादिकम ॥ 69॥

भाग्यॆश मॆं कर्मॆश सॆ युत हॊ तॊ सुखकर भाग्यवृद्धि, विद्वानॊं कीं गॊष्ठी सॆ संतॊष, आभूषण आदि का लाभ हॊता है॥69॥

दायॆशाकॆन्द्रभॆ सौम्यॆ त्रिकॊणॆ लाभगॆऽपिवा ॥ । दॆहारॊग्यं महांल्लाभः पुत्रकल्याणवैभवम ॥7 0 ॥

... दशॆश सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा लाभ मॆं बुध हॊ तॊ दॆह मॆं आरॊग्यता, महालाभ,

पुत्र जनित कल्याण और  वैभव॥70 ॥ ।... भॊजनाम्बरषादिव्यवसायॆऽधिकं फलम ।

घष्ठाष्टमव्ययॆ सौम्यॆ मन्दराहियुतॆक्षितॆ ॥71॥

भॊजन, वस्त्र, पशु आदि कॆ व्यवसाय सॆ अधिक लाभ हॊता है यदि बुध 6।8।12 भाव मॆं शनि, भौम, राहु सॆ युत वा दृष्ट हॊ तॊ॥71॥।

विरॊधॊ राजभृत्यैश्च परगॆहनिवासनम ।

वाहनाम्बरपश्वादि धनधान्यादिनाशकृत ॥72॥

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4369

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः । राजकर्मचारियॊं सॆ विरॊध, परगृहवास, वाहन, वस्त्र पशु आदि धन-धान्य । का नाश हॊता है॥72॥।

भुक्त्यादौ शॊभनम प्रॊक्तं मध्यॆ सौख्यं धनागमम । अन्तॆक्लॆशकरचैव दारपुत्रादिपीडनम ॥73॥

अन्तर कॆ आदि मॆं शुभफल, मध्य मॆं सुख और  धन का आगम और  अन्त मॆं क्लॆश, स्त्री-पुत्र कॊ पीडा हॊती है॥73 ॥

दायॆशात्षष्ठरन्ध्र व्ययॆ वा बलवर्जितॆ । ।

तद्भुत्यादौ महाक्लॆशॊ दारपुत्रादिपीडनम ॥74॥ , दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं निर्बल हॊ तॊ अन्तर कॆ आरम्भ मॆं महाकष्ट स्त्री पुत्र आदि कॊ पीडा॥74॥।

राजभीतिकरं चव मध्यॆ तीर्थकरं भवॆत । द्वितीयद्यूननाथॆ तु ह्यपमृत्युर्भविष्यति ॥ तद्दॊषपरिहारार्थं विष्णुसाहस्रकंजपॆत ॥75॥

और  राजभय तथा मध्य मॆं तीर्थयात्रा हॊती है। दूसरॆ वा सातवॆं भाव कॆ स्वामी हॊं तॊ अपमृत्यु का भय हॊता है। इस दॊष की शान्ति कॆ लियॆ विष्णु सहस्र नाम का जप करना चाहियॆ॥75॥

।’ इति कॆतुदशायामन्तर्दशाफलम।

। अथशुक्रादशायांशुक्रान्तर्दशाफलम्भृगॊरन्तर्गतॆ शुक्रॆ लग्नात्कॆन्द्रत्रिकॊणगॆ । लाभॆ वा वलसंयुक्तॆ यॊगप्रावल्यमादिशॆत ॥1॥

शुक्र की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण वा लाभ मॆं बली शुक्र हॊ तॊ यॊग की प्रबलता हॊती है॥1॥

विप्रमूलाद्धनप्राप्तिगमहिष्यादिलाभकृत ॥ पुत्रॊत्सवादिसन्तॊषं गृहॆ कल्याणसम्भवम ॥2॥

ऐसॆ शुक्र कॆ अन्तर मॆं ब्राह्मण द्वारा धन का लाभ और  गौ-भैंस का लाभ हॊता. हैं। पुत्रॊत्सव और  कल्याण हॊता है॥2॥

सन्मानं राजसन्मानं राज्यलाभॊ महत्सुखम । स्वॊच्चॆ वा स्वक्षॆत्रॆ वापि तुङ्गाशॆ स्वांशगॆऽपिवा ॥3॥

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4ॠ

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । सन्मान और  राजा सॆ सम्मान राज्य का लाभ और  महा सुख हॊता है। यदि शुक्र अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं वा उच्चांश वा अपनॆ नवांश मॆं हॊ तॊ॥3॥

नूतनालयनिर्माणं नित्यं मिष्ठान्नभॊजनम ॥

अन्नदानं , प्रियं नित्यं दानधर्मादिसंग्रहः ॥4॥ . नवीन गृह का निर्माण, नित्य मिष्ठान्न का भॊजन, स्त्री पुत्र का लाभ मित्र * कॆ साथ भॊजन, अन्नदान, नित्य दान धन का संग्रह॥4॥

महाराजप्रसादॆन वाहनाम्बरभूषणम ॥ ’व्यवसायात्फलाधिक्यं चतुष्पाज्जीवलाभकृत ॥5॥ " और  महाराज की प्रसन्नता सॆ वाहन-वस्त्र आभूषण का लाभ और  व्यवसाय सॆ अधिक लाभ, चतुष्प जीव का लाभ॥5॥।

प्रयाण पश्चिमॆभागॆ वाहनाम्बरलाभकृत ॥ लग्नाद्युपचयॆ शुक्रॆ शुभदृष्टियुतॆक्षितॆ ॥6॥

पश्चिम दिशा की यात्रा सॆ वाहन, वस्त्र आदि का लाभ हॊता है। यदि शुक्र । लग्न सॆ उपचय (3।6।10।11) भाव मॆं शुभग्रह सॆ युत दृष्ट॥6॥

मित्राशॆ तुङ्गलाभॆशयॊगकारक संयुतॆ ॥

राज्यलाभॊ महॊत्साहॊ राजप्रीतिः शुभावहा ॥7॥ ’: अपनॆ मित्र कॆ नवांश, वा उच्च मॆं लाभॆश और  यॊग कारक सॆ युत हॊ तॊ राज्य का लाभ, महा उत्साह, राजा सॆ प्रीति॥7॥

षष्ठीष्टमव्ययॆ शुक्रॆ पापयुक्तॆऽथवीक्षितॆ ॥8॥ ’: चॊरादिव्रणभीतिश्च सर्वत्र जनपीडनम ।

गृह मॆं कल्याण सम्पत्ति स्त्री पुत्र आदि की वृद्धि हॊती है। यदि शुक्र 68।12 भाव मॆं पापग्रह सॆ युक्त और  दृष्ट हॊ तॊ॥8॥

. राजद्वारॆ जनद्वॆष इष्टबन्धु विनाशनम ॥9॥ । दारपुत्रादिपीडाच सर्वत्रजनपीडनम ।

चॊर आदि ऎवं ब्रण का भय सर्वत्र जनपीडा, राजकीय पुरुषॊं सॆ द्वॆष, इष्टबन्ध का नाश, स्त्री पुत्र आदि कॊ पीडा हॊती है॥9॥

 द्वितीय शूननाथॆ तु स्थितॆ चॆन्मरणं भवॆत ।

शक्तौ दुर्गाज़पं कुर्याद्धॆनु दानं वा कारयॆत ॥10॥

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- टाळूळ


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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ॥

439 2 वा 7 भाव कॆ स्वामी हॊं तॊ मृत्यु हॊती हैं। अनिष्ट शान्त्यर्थ दुर्गा का जप और  गॊदान करना चाहियॆ॥10॥

अथशुक्रदशायांसूर्यान्तदशाफलम्शुक्रस्यानार्गतॆ सूर्यॆ संतापं राजविद्विषम । दायादकलहं चैव व्यवहारमथापि वा ॥11॥

शुक्र की दशा मॆं सूर्य कॆ अन्तर मॆं संताप, राजा सॆ शत्रुता, दायाद सॆ कलह, वा व्यवहार हॊता है॥11॥।

स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆ सूर्यॆ मित्र कॆन्द्रकॊणगॆ । दायॆशात्कॆन्द्रकॊणॆवा लाभॆ वा धनगॆऽपिवा ॥12॥

यदि अपनॆ उच्च, अपनी राशि वा मित्र की राशि वा कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं हॊ अथवा दशॆश सॆ कॆन्द्र व कॊण वा लाभ वा धन स्थान मॆं हॊ.तॊ॥12॥

तद्भक्तौ धनलाभः स्याद्रव्यस्त्री धन सम्पदः । स्वप्रमॊश्च महत्सौख्यमिष्टबन्धु समागमः ॥13॥

धन का लाभ मॆं हॊ तॊ राज्य स्त्री धन सम्पत्ति का लाभ, अपनॆ स्वामी सॆ सुख, मित्र-बन्धु का समागम॥13॥

 पितृमात्रॊः सुखप्राप्तिं भ्रातृलाभं सुखावहम । . सत्कीर्तिं सुखसौभाग्यं पुत्रलाभं च विंदति ॥14॥

पिता-माता कॆ सुख का लाभ और  भा‌ई कॆ लाभ सॆ सुख हॊता हैं। अच्छी कीर्ति सॆ सुख-सौभाग्य और  पुत्र का लाभ हॊता है॥14॥

षष्ठाष्टमव्ययॆ सूर्यॆ दायॆशाद्वातथैव च । । । नीचॆ वा पापवर्गस्थॆ दॆहतापं मनॊरुजम ॥15॥

यदि सूर्य 6।8।12 भाव मॆं हॊ वा दशॆश सॆ भी ऐसा ही हॊ, नीच राशि । मॆं पापग्रह कॆ षड्वर्ग मॆं हॊ तॊ शरीर मॆं. ताप, मानसिक कष्ट॥15॥।

स्वजनस्यापिसंक्लॆशॊ नित्यं निष्ठुरभाषणम । पितृपीडा बंधुहानी राजद्वारॆ विरॊधकृत ॥16॥।

आत्मीयलॊगॊं कॊ कष्ट नित्य निष्ठुर भाषण, पिता कॊ कष्ट, बन्धु की हानि, राजा सॆ शत्रुता॥16॥।

। ब्रणपीडाहिवाधा च स्वगृहॆ च भयं तथा । .

नानारॊगभयं चैव गृहक्षॆत्रादिनाशनम ॥17॥


..:

480 । . - वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

ब्रण सॆ पीडा, सर्प का भय, अपनॆ गृह मॆं भय, अनॆक रॊग का भय और  ’ गृह-कॊष का नाश हॊता है॥17॥।

सप्तमाधिपदॊषॆण दॆहवाधा भविष्यति । .. तद्दॊषपरिहारार्थ सूर्य शान्ति च कारयॆत ॥18॥ . : सप्तमॆश हॊनॆ सॆ शरीर बाधा हॊती है। इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ सूर्य की शान्ति

। करनी चाहियॆ॥18॥ .. .

... अथशुक्नदशायांचन्द्रान्तर्दशाफलम

शुक्रस्यान्तर्गतॆ चन्द्रॆ कॆन्द्रलाभत्रिकॊणगॆ । स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रगॆ चैव भाग्यकमॆंशसंयुतॆ ॥19॥।

शुक्र की दशा मॆं कॆन्द्र वा लाभ वा त्रिकॊण मॆं वॊ अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं भाग्य कर्मॆश सॆ युत॥19॥

शुभयुक्तॆ पूर्णचन्द्र राज्यनाथॆन संयुतॆ । तद्भुक्तौ बाहनाधिक्यॆनापत्यॆन महत्सुखम ॥20॥।

वा शुभग्रह सॆ युत पूर्णचन्द्र कर्मॆश सॆ युत चन्द्रमा हॊ तॊ उसकॆ अंतर मॆं । अधिक वाहनॊं और  लडकॊं सॆ बडा सुख हॊता है॥20॥।

महाराज , प्रसादॆन गजातैश्वर्यमादिशॆत । . महानदीस्नानं पुण्यं दॆवब्राह्मणपूजनम ॥21॥

महाराजा की प्रसन्नता सॆ हाथी आदि ऐश्वर्य सॆ सुख, महानदी कॆ स्नान का . पुण्य, दॆवता ब्राह्मण का पूजन॥21॥

गीतवाद्यप्रसंङ्गादि विद्वज्जन विभूषणम । गॊमहिष्यादिवृद्धिश्च व्यवसायॆऽधिकं फलम ॥22॥।

गीत बाजॆ का प्रसंग, विद्वानॊं का आदर, गौ-भैंस की वृद्धि, व्यवसाय मॆं लाभ॥22॥।

भॊजनाम्बरसौख्यं च बन्धुसंयुक्त भॊजनम ॥ नीचॆ वास्तंगतॆ. वापि षष्ठाष्टव्ययराशिगॆ ॥23॥

भॊजन, वस्त्र का सुख और  बन्धु कॆ साथ भॊजन हॊता है यदि चन्द्रमा नीच राशि मॆं वा अस्त वा 6।8।12 राशि मॆं ॥23॥

दायॆशात्वष्ठगॆ वापि रन्ध्र वा व्ययराशिमॆ । तत्कालॆ धननाशः स्यात्संचरॆतमहद्भयम ॥24॥

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फॊवॆ


4.

अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

488 । वा दशॆश सॆ 6।8।12 राशि मॆं हॊ तॊ तत्काल धन का नाश और  बडा ... भय करता है॥24॥।

दॆहायासॊ मनस्तापॊ राजद्वारॆ विरॊधकृत । विदॆशगमनं चैव तीर्थयात्रादिकं फलम ॥25॥

दॆह मॆं परिश्रम, मन मॆं संताप, राजद्वार सॆ विरॊध, विदॆश यात्रा-तीर्थयात्रा, स्त्री-पुत्र आदि की पीडा, और  आत्मीय बंधु सॆ विरॊध हॊता है॥25॥

दारपुत्रादिपीडा चॆ अत्मबंधुविरॊधकृत ॥ दायॆशात्कॆन्द्रलाभस्थॆ त्रिकॊणॆ धनगॆऽपिवा ॥26॥ दशॆश सॆ कॆन्द्र वा लाभ वा त्रिकॊण, दूसरॆ भाव मॆं हॊ तॊ॥26॥

राजप्रीतिकरं चैव दॆशग्रामाधिपत्यता । धैर्य यशः सुखं कीर्त्तिवानाम्बरभूषणम ॥ 27॥।

राजा सॆ प्रीति दॆश-ग्राम की अधिपत्यता, धैर्य, यश, सुख-कीर्ति वाहन, वस्त्र आभूषण॥27॥

कूपारामतडागादिनिर्माणं धनसंग्रहः । ।

भुक्त्यादौ दॆह सौख्यं स्तदंतॆ क्लॆशकरंभवॆत ॥28॥ । कू‌आं, बगीचा, तालाब आदि का निर्माण, धन का संग्रह हॊता है। अन्तर कॆ आदि मॆं शरीर सुख और  अंत मॆं कष्ट हॊता है॥28॥।

’अथशुक्रदशायांभौमान्तर्दशाफलम्शुक्रस्यान्तर्गतॆ भौमॆ लग्नाकॆन्द्रत्रिकॊणगॆ । स्वॊच्चॆ वा स्वक्ष्भॆ भौमॆ लाभॆवा बलसंयुतॆ ॥29॥

शुक्र की दशा मॆं लग्न सॆ कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं वा उच्च वा स्वराशि मॆं वा स्थान मॆं बलवान॥29॥।

लग्नाधिपॆन संयुक्तॆ कर्मभाग्यॆश संयुतॆ । तद्भुक्तौ राजयॊगादिसंपदं शुभशॊभनम ॥30॥

लग्नॆश वा भाग्यॆश कमॆंश सॆ युत भौम कॆ अन्तर मॆं राजयॊग कॆ सभी सुन्दर सम्पत्ति॥30॥।

वस्त्राभरणभूम्यादॆरिष्ट सिद्धिः सुखावहा । षष्ठाष्टमव्ययॆ वापि दायॆशाद्वातथैव च ॥ 31 ॥.

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । * वस्त्र, आभूषण भूमि, आदि इष्टसिद्धि हॊती है यदि भौम लग्न सॆ वा दशॆश

सॆ 6।8।12 भाव मॆं हॊ तॊ॥31॥।

शीतज्वरादि पीडा च पितृ-मातृ भयावहा । ज्वराद्यधिकरॊगाश्च स्थानभ्रंशॊ मनॊरूजा ॥ 32॥।

शीतज्वर सॆ पीडा और  पिता-माता कॊ भय, ज्वरादि अनॆक रॊग, स्थान नाश, मन मॆं अशान्तिः॥32॥ ॥

स्वबंधुजनहानिश्च कलहॊ राजविद्विषम ॥ .. राजद्वारज़नद्वॆषॊ धनधान्य व्ययाधिकम ॥33॥

अपनॆ बन्धु‌ऒं की हानि, कलह, राजा सॆ और  राज कर्मचारियॊं सॆ द्वॆष, धन धान्य का अधिक व्यय॥33॥

व्यवसायात्फलं नॆष्टं ग्रामभूम्यादिहानिकृत । द्वितीयधूननाथॆतु दॆहबाधा, भविष्यति ॥ 34॥

 व्यवसाय सॆ हानि और  ग्राम भूमि आदि की हानि हॊती है। दूसरॆ वा सातवॆं भाव कॆ स्वामी हॊनॆ सॆ शरीर मॆं बाधा हॊती हैं॥34॥। . . अथ शुक्रदशायां राहृन्तर्दशाफलम

शुक्रस्यान्तर्गत राहॊ कॆन्द्रलाभ त्रिकॊणगॆ । स्वॊच्चॆ वा शुभसंदृष्टॆ यॊगकारकसंयुतॆ ॥35 ॥।

शुक्र की दशा मॆं कॆन्द्र वा लाभ वा त्रिकॊण वा अपनॆ उच्च शुभग्रह सॆ दॆखॆ। जातॆ हुयॆ यॊग कारक ग्रह सॆ युक्त॥35॥।

तद्भुक्तौ बहुसौख्यं च धनधान्यादिलाभकृत । इष्टबन्धु समाकीर्णं भॊजनाम्बर लाभदम ॥ 36॥

राहु कॆ अंतर मॆं बहुत सुख, धन-धान्य वस्त्र का लाभ, इष्ट बंधु‌ऒं का समागम । भॊजन वस्र का लाभ॥36॥।

. यातुः कार्यार्थसिद्धिः स्यात्पशुक्षॆत्रादिसंभवः । . लग्नाद्युपचयॆ राहौ तद्भुक्तिः सुखदा भवॆत ॥ 37॥

यात्रा सॆ लाभ और  कार्य की सिद्धि, पशु क्षॆत्र आदि का लाभ हॊता है। लय सॆ उपचय (3।6।10।11) भाव मॆं राहु हॊ तॊ इसका अन्तर सुखकर हॊता है॥37॥

शत्रुनाशॊ महॊत्साहॊ राजप्रीतिकरा शुभा । . भुक्तयादौ शरमासांश्च अंतॆ ज्वरमजीर्णकृत ॥38॥।

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

483 मात्रु का नाश, वडा, उत्साह राजा सॆ प्रॆम, हॊता है। अन्तर कॆ आदि मॆं 5 मास शुभफल, अंत मॆं अजीर्ण सॆ ज्वर का भय॥38॥

कार्यॆ विघ्नमवाप्नॊति सञ्चरॆच्च मनॊव्यथाम ॥ परं सुखं च सौभाग्यं महानिव समश्नुतॆ ॥39॥

कार्य मॆं विघ्न और  मानसिक कष्ट हॊता है। इसकॆ बाद सुख, सौभाग्य, महाराज कॆ समान हॊता है॥39 ॥।

नैर्‌ऋती दिशमाश्रित्य प्रयाणं प्रभुदर्शनम । यातुः कार्यार्थसिद्धिः स्यात्स्वदॆशॆ पुनरॆष्यति ॥40॥

नै‌ऋत्य दिशा की यात्रा और  स्वामी का दर्शन, यात्रा मॆं कार्य सिद्धि पुनः । स्वदॆश मॆं आगमन॥40॥

उपकारॊ ब्राह्मणानां तीर्थयात्राफलं भवॆत । । दायॆशाषष्ठराशिस्थॆ व्ययॆ वा पापसंयुतॆ ॥41॥

ब्राह्मणॊं का उपकार और  तीर्थयात्रा का फल हॊता है। दशॆश सॆ 6।12 स्थानॆ मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ॥41॥।

अशुभं लभतॆ कर्म पितृमातृजनावपि । सर्वत्र जन विद्वॆषं नानारूपादि संभवम ॥42॥ पिता-माता आदि कॆ अशुभ कर्मॊं की संप्राप्ति, सर्वत्र लॊगॊं सॆ विरॊध अनॆक प्रकार सॆ कष्ट हॊतॆ हैं॥42॥।

द्वितीयॆ सप्तमॆवापि दॆहालस्यं विनिर्दिशॆत । तद्दॊषपरिहारार्थी मृत्युंजय जपं चरॆत ॥43॥

2 वा 7 भाव मॆं हॊ तॊ दॆह मॆं आलस्य हॊता है। इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ मृत्युंजय का जप करना चाहियॆ॥43॥

अथशुक्रदशायगुर्वन्तर्दशाफलम - - शुक्रस्यान्तर्गतॆ जीवॆ स्वॊच्चॆ स्वक्षॆत्रकॆन्द्रगॆ । दायॆशाच्छुभराशिस्थॆ भाग्यॆ वा कर्मराशिगॆ ॥44॥

शुक्र की दशा मॆं अपनॆ उच्च, अपनी राशि मॆं कॆन्द्र मॆं दशॆश सॆ शुभराशि । मॆं भाग्य वा कॆन्द्र मॆं गयॆ हुयॆ गुरु कॆ अन्तर मॆं॥44॥।

नष्टराज्याव्द्धनप्राप्तिमिष्टार्थावर सम्पदम । . : मित्रप्रभॊश्च सन्मानं धनधान्यपरांगतिम ॥45॥

1498

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । ॥ नष्ट हुयॆ राज्य सॆ धन का लाभ, इष्ट की सिद्धि वस्त्रादि का लाभ मित्र और  . स्वामी का सन्मान धनधान्य का लाभ॥45॥

राजसुन्मानकीर्तिं च अश्लंदॊलादिलाभकृत ॥ विद्वत्प्रभुसमाकीर्णं शास्त्रापारपरिश्रमम ॥46॥

राजा सॆ सम्मान और  कीर्ति, घॊडा, पालकॊं का लाभ, विद्वान और  स्वामी का समागम, शास्त्र मॆं परिश्रम॥46॥।

पुत्रॊत्सवादिसन्तॊषमिष्ट बन्धुसमागम । पितृमातृ सुखप्रातिं भ्रातृपुत्रादि सौख्यकृत ॥47॥

पुत्रॊत्सव इष्टबन्धु का समागम पिता-माता कॆ सुख की प्राप्ति और  भा‌ई तथा । पुत्र का सुख हॊता है॥47॥

दायॆशाधष्ठराशिस्थॆ व्ययॆ वा पापसंपुतॆ । । राजचौरादि पीडा च दॆहपीडा भविष्यति ॥48॥

दशॆश सॆ 6 वा 12 वॆं भाव मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ राजा तथा चॊर सॆ शरीर मॆं पीडा हॊती है॥48॥

आत्मरुग्वंधुकष्टं स्यात्कलॆहन मनॊव्यथा । स्थानच्युतिं प्रवासं च नानारॊगं समाप्नुयात ॥49॥

अपनॆ रॊगी, बंधु‌ऒं कॊ कष्ट, कलह सॆ मन मॆं व्यथा, स्थान च्युति, प्रवास अनॆक रॊग हॊतॆ हैं॥49॥।

द्वितीयसप्तमाधीशॆ दॆहबाधा भविष्यति । , तद्दॊषपरिहारार्थं महामृत्युंजयं चरॆत ॥50॥

2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ शरीर मॆं बाधा हॊती है। इस दॊष कॆ शान मृत्युंजय का जप करना चाहियॆ॥50॥

अथशुक्रदशायांशन्यन्तर्दशाफलम - शुक्रस्यान्तर्गतॆ मन्दॆ स्वॊच्चॆ वा परमॊच्चगॆ । स्वर्धकॆन्द्रत्रिकॊणस्थॆ तुङ्गाशॆ स्वांशगॆऽपिवा ॥51॥

शुक्र की दशा मॆं अपनॆ उच्च वा परमॊच्च मॆं वा अपनी राशि वा कॆन्द्र त्रिकॊण मॆं वा उच्चांश वा अपनॆ नवांश मॆं गयॆ हुयॆ॥51॥

तद्भुक्तौ बहुसौख्यं स्यादिष्टवंधुसमन्वितः ।

सन्मानं बहुसन्मानं पुत्रिकागमनसम्भवः ॥52॥

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अथान्तर्दशादिफलविचाराध्यायः ।

484 शनि कॆ अंतर मॆं अनॆक सुख, इष्टबंधु सॆ युक्त ‘सम्मान’ अनॆक लॊगॊं सॆ सम्मान, कन्या का जन्म॥52॥।

पुण्यतीर्थफलावाप्तिर्दानधर्मादिपुण्यकृत । । स्वप्रभॊश्च विशॆषःस्यात्वैपरीत्यॆक्लॆशभाग्भवॆत ॥53॥

पुण्य तीर्थ कॆ फल की प्राप्ति, दान धर्म आदि पुण्य, अपनॆ स्वामी सॆ विशॆष सम्मान हॊता है। इसकॆ विपरीत यानॆ नीच राशि मॆं हॊ तॊ कष्ट हॊता है॥53॥

दॆहालस्यमवाप्नॊति आयाद्धा‌अधिकव्ययम । षष्टाष्टमव्ययॆ मन्दॆ दायॆशाद्वातथैव च ॥54॥।

शरीर मॆं आलस्य, आमदनी सॆ अधिक खर्च हॊता हैं। लग्न सॆ वा दशॆश : सॆ 6।8।12 भाव मॆं शनि हॊ तॊ॥54॥

भुकत्यादौ च महत्पीडा पितृमातृजनावपि । । दारपुत्रादिपीडा छ संसारॆ दॆहविभ्रमम ॥55॥।

अंतर कॆ आदि महा पीडा, पिता-माता कॊ भी कष्ट, स्त्री-पुत्र कॊ कष्ट, संसार । मॆं भ्रम॥55॥।

व्यवसायात्फलं नष्टं गॊमहिष्यादिहानिकृत । द्वितीयसप्तमाधीशॆ दॆहबाधा भविष्यति । तद्दॊषपरिहारार्थं तिलहॊमं च कारयॆत ॥56॥॥

व्यवसाय सॆ हानि, गौ-भैंस की हानि हॊती है। 2 वा 7 भाव कॆ स्वामी हॊ तॊ शरीर मॆं बाधा हॊती है। इसकी शान्ति कॆ लियॆ तिल सॆ हवन करना चाहियॆ॥56॥

अथशुक्रदशायांबुधानार्दशाफलम - शुक्रस्यान्तर्गतॆ सौम्यॆ कॆन्द्रॆ लाभत्रिकॊणगॆ । स्वॊच्चॆ वा स्वक्षॆत्रगॆवापि राजप्रीतिकरंशुभम ॥57॥

शुक्र की दशा मॆं कॆन्द्र वा लाभ वा त्रिकॊण मॆं वा अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं गयॆ हुयॆ बुध कॆ अन्तर मॆं राजा सॆ प्रीति॥57॥।

सौभाग्यं पुत्रंलाभं च सन्मार्गॆ धनलाभकृत। पुराणधर्मश्रवणं : : शृंगारिजनसंगमम ॥58॥

सौभाग्य पुत्र का लाभ अच्छॆ मार्ग सॆ धन का लाभ, पुराण और  धर्मवार्ता । का श्रवण, श्रृंगार करनॆ वालॊं का समागम॥58॥।

या गाना ॥

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डॊ‌ऎघॊ

। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ नष्ट हुयॆ राज्य सॆ धन का लाभ, इष्ट की सिद्धि वस्त्रादि का लाभ मित्र और  । स्वामी का सन्मान धनधान्य का लाभ॥45॥

राजसन्मानकीर्तिं च अश्वंदॊलादिलाभकृत ॥ विद्वत्प्रभुसमाकीर्णं । शास्त्रापारपरिश्रमम ॥46॥

राजा सॆ सम्मान और  कीर्ति, घॊडा, पालकीं का लाभ, विद्वान और  स्वामी .. . का समागम, शास्त्र मॆं परिश्रम॥46॥।

। पुत्रॊत्सवादिसन्तॊषमिष्ट बन्धुसमागम ।

पितृमातृ सुखप्रात्तिं भ्रातृपुत्रादि सौख्यकृत ॥47॥

पुत्रॊत्सव इष्टबन्धु का समागम पिता-माता कॆ सुख की प्राप्ति और  भा‌ई तथा .:, पुत्र का सुख हॊता है॥47॥।

दायॆशाधष्ठराशिस्थॆ व्ययॆ वा पापसंपुतॆ । राजचौरादि पीडा च दॆहपीडा भविष्यति ॥48॥

दशॆश सॆ 6 वा 12 वॆं भाव मॆं पापग्रह सॆ युत हॊ तॊ राजा तथा चॊर सॆ शरीर मॆं पीडा हॊती है॥48॥.

आत्मरुग्वंधुकष्टं स्यात्कलॆहन मनॊव्यथा । स्थानच्युतिं प्रवासं च नानारॊगं समाप्नुयात ॥49॥

अपनॆ रॊगी, बंधु‌ऒं कॊ कष्ट, कलह सॆ मन मॆं व्यथा, स्थान च्युति, प्रवास, अनॆक रॊग हॊतॆ हैं॥49॥

द्वितीयसप्तमाधीशॆ दॆहबाधा भविष्यति । । तद्दॊषपरिहारार्थं महामृत्युंजयं चरॆत ॥50 ॥ । 2 वा 7 भाव का स्वामी हॊ तॊ शरीर मॆं बाधा हॊती है। इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ मृत्युंजय कां जंप करना चाहियॆ॥50 ॥

.. अथशुक्रदशायांशन्यन्तर्दशाफलम - शुक्रस्यान्तर्गतॆ मन्दॆ स्वॊच्चॆ वा परमॊच्चगॆ । स्वर्भकॆन्द्रत्रिकॊणस्थॆ तुङ्गाशॆ स्वांशगॆऽपिवा ॥51॥

शुक्र की दशा मॆं अपनॆ उच्च वा परमॊच्च मॆं वा अपनी राशि वा कॆन्द्र वा त्रिकॊण मॆं वा उच्चांश वा अपनॆ नवांश मॆं गयॆ हुयॆ॥51॥

तद्भुक्तौ बहुसौख्यं स्यादिष्टवंधुसमन्वितः । सन्मानं बसन्मानं . पुत्रिकागमनसम्भवः ॥52॥

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फ्रॆ

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम अन्तिसौम्यादयः पापा मारकत्वॆनलक्षिताः। ऎवं फलानि वॆयानि सिहॆ यस्य जनुर्भवॆत॥23॥ बुध पापग्रहॊं कॆ साहचर्य सॆ मारकॆश हॊता है। ऐसा सिंहलग्न वालॊं का फल हॊता है॥23॥

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अथ कन्यालग्नम्कुजजीवॆन्दवः पापा ऎक ऎव भृगुः शुभः। भार्गवॆन्दुसुतावॆव भवॆतां यॊगकारकॊ॥24॥ कन्या लग्नवालॆ कॊ भीम, गुरु, चन्द्रमा पापफल दॆनॆ वालॆ, कॆवल शुक्र ही शुभफलदायक है। शुक्र-बुध यॊगकारक हॊतॆ हैं॥24॥

निहन्ता कविरन्यॆ तु मारकास्तु कुजादयः।

प्रतीक्षतॆ फलान्युक्तान्यॆवं कन्याभवॆ बुधैः॥25॥ । मारकॆश शुक्र ही हॊता है, अन्य भौम आदि मारकॆश कॆ साहचर्य सॆ फल

दॆतॆ हैं। यह कन्यालग्न का फल है॥25॥।

अथ तुलालग्नम्जीवार्कमहीनाः पापाः शनैश्चरबुधौ शुभौ। भवॆतां राजयॊगस्य कारकॊ चन्द्रतत्सुतौ ॥26॥ तुलालग्नं वालॆ कॊ गुरु, सूर्य, भौम पापफल दॆनॆवालॆ, शनि-बुध शुभफलदाता, चंद्रमा-बुध राजयॊगकारक हॊतॆ हैं॥26॥।

कुजॊ निहन्ति जीवाद्याः परॆ मारकलक्षणाः। । निहन्तारः फलान्यॆवं काव्यॊ न तु तुलाभवः॥27॥

भौम मारकॆश हॊता है, गुरु आदि अन्य ग्रह, जॊ मारकॆश कॆ लक्षण कॆ हैं, वॆ अनिष्टकारक और  शुक्र समफलदाता हॊता है; । ऐसा तुलालग्न का फल जानना चाहि‌ऎ ॥27॥

अथ वृश्चिकलग्नम। सौम्यभौमसताः पापाः शुभौ गुरुनिशाकरौ। सूर्यचन्द्रमसावॆव भवॆतां यॊगकारकॊ॥28॥ वृश्चिक लग्नवालॆ कॊ बुध, भौम, शुक्र पाप फल दॆनॆ वालॆ, गुरु-चंद्रमा शुभ फल दॆनॆ वालॆ और  सूर्य-चंद्रमा यॊगकारक हॊतॆ हैं॥28॥

जीवॊनिहन्ता सौम्याद्या हन्तारॊ मारकावयाः॥ तत्तत्फलानि विज्ञान्यॆवं वृश्चिकजन्मनः॥29॥

अथान्तर्दशादिफनविचाराध्यायः ।

484 शनि कॆ अंतर मॆं अनॆक सुख, इष्टबंधु सॆ युक्त ‘सम्मान’ अनॆक लॊगॊं सॆ सम्मान, कन्या का जन्म॥52॥।

पुण्यतीर्थफलावाप्तिर्दानधर्मादिपुण्यकृत ॥ स्वप्रभॊश्च विशॆष: स्यात्वैपरीत्यॆक्लॆशभाग्भवॆत ॥53॥

पुण्य तीर्थ कॆ फल की प्राप्ति, दान धर्म आदि पुण्य, अपनॆ स्वामी सॆ विशॆष सम्मान हॊता है। इसकॆ विपरीत यानॆ नीच राशि मॆं हॊ तॊ कष्ट हॊता है॥53॥

दॆहालस्यमवाप्नॊति आयाद्धा‌अधिकव्ययम । षष्टाष्टमव्ययॆ मन्दॆ दायॆशाद्वातथैव च ॥54॥

शरीर मॆं आलस्य, आमदनी सॆ अधिक खर्च हॊता है। लग्न सॆ वा दशॆश - सॆ 6।8।12 भाव मॆं शनि हॊ तॊ॥54॥

भुकत्यादौ च महत्पीडा पितृमातृजनावपि । दारपुत्रादिपीडा च संसारॆ दॆहविभ्रमम ॥55॥ अंतर कॆ आदि महा पीडा, पिता-माता कॊ भी कष्ट, स्त्री-पुत्र कॊ कष्ट, संसार

मॆं भ्रम॥55 ॥।

व्यवसायात्फलं नष्टं गॊमहिष्यादिहानिकृत ॥ द्वितीयसप्तमाधीशॆ दॆहबाधा भविष्यति । तद्दॊषपरिहारार्थं तिलहॊमं च कारयॆत ॥56॥

व्यवसाय सॆ हानि, गौ-भैंस की हानि हॊती है। 2 वा 7 भाव कॆ स्वामी हॊ तॊ शरीर मॆं बाधा हॊती है। इसकी शान्ति कॆ लियॆ तिल सॆ हवन करना चाहियॆ॥56॥।

। अथशुक्रदशायांबुधानार्दशाफलम - शुक्रस्यान्तर्गतॆ सौम्यॆ कॆन्द्रॆ लाभत्रिकॊणगॆ । स्वॊच्चॆ वा स्वक्षॆत्रगॆवापि राजप्रीतिकरंशुभम ॥57॥

शुक्र की दशा मॆं कॆन्द्र वा लाभ वा त्रिकॊण मॆं वा अपनॆ उच्च वा अपनी राशि मॆं गयॆ हुयॆ बुध कॆ अन्तर मॆं राजा सॆ प्रीति॥57॥।

सौभाग्यं पुत्रलाभं च सन्मार्गॆ धनलाभकृत। पुराणधर्मश्रवणं शृंगारिजनसंगमम ॥58॥

सौभाग्य पुत्र का लाभ अच्छॆ मार्ग सॆ धन का लाभ, पुराण और  धर्मवार्ता का श्रवण, शृंगार करनॆ वालॊं का समागम॥58॥

- वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ इष्टबंधुजनाकीर्णं विप्रप्रभुसमागमम । स्वप्रमॊश्च महत्सौख्यं नित्यं मिष्ठान्नभॊजनम ॥59॥ इष्ट बंधु‌ऒं का समागम तथा ब्राह्मण और  स्वामी का समागम, महा सुख और  नित्य मिष्ठान्न का भॊजन हॊता है॥59॥।

दायॆशात्षष्ठरन्ध्र वा व्ययॆ वा बलवर्जितॆ । पापदृष्टौ तथा युक्तॆ चतुष्याज्जीवहानिकृत ॥60॥

दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं निर्बल हॊ और  पाप दृष्ट वायुत हॊ तॊ चतुष्पद की हानि॥60॥

अन्यालयनिवासश्च मनॊवैकल्यसम्भवः । व्यापारॆषु तथा प्राज्ञ हानिरॆव न संशयः ॥ 61॥. दूसरॆ कॆ मकान मॆं वास मन मॆं विकलता, व्यापार मॆं हानि हॊती है॥61॥

भुक्त्यादौ शॊभनं प्रॊक्तं मध्यॆ सौख्यं विनिर्दिशॆत। अंतॆ क्लॆशकरं चैव शीतवातज्वरादिकम ॥62॥

अन्तर कॆ आदि मॆं शुभफल मध्य मॆं सुख और  अन्त मॆं कष्ट, शीत वात ज्वर हॊता है॥62॥।

सप्तमाधीशदॊषॆण दॆहपीडा भविष्यति ।

 तद्दॊषपरिहारार्थं . विष्णुसाहस्त्रकंजपॆत ॥ 63 ॥। । सप्तमॆश हॊनॆ कॆ दॊष सॆ शरीर मॆं पीडा हॊती है। इसकॆ शान्त्यर्थ विष्णु सहस्र नाम का जप करना चाहियॆ॥63॥

अथ शुक्रदशायांकॆत्वन्तर्दशाफलम - शुक्रस्यान्तर्गत कॆतौ स्वॊच्चॆ वा स्वगॆऽपिवा ॥ यॊगकारकसम्बन्धॆ स्थानवीर्य समन्वितॆ ॥ 64॥

शुक्र की दशा मॆं अपनॆ उच्च वा अपनी राशि वा यॊगकारक कॆ संबंध युक्त वा स्थान बल सॆ युक्त॥64॥

भुक्त्यादौ शुभमाधिक्यान्नित्यं मिष्ठान्नभॊजनम । व्यवसायात्फलाधिक्यं गॊमहिष्यादिवृद्धिकृत॥65॥

कॆतु कॆ अन्तर मॆं शुभफल की अधिकता सॆ नित्य मिष्ठान्न का भॊजन, व्यवसाय सॆ अधिक लाभ, गौ भैंस की वृद्धि॥65 ॥।

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449

अथ प्रत्यन्तर्दशाऽध्यायः । । धनधान्यसमृद्धिश्च संग्रामॆ विजयॊभवॆत ॥ भुक्यंतॆ हि सुखं चैव भुक्त्यादौ मध्यमंफलम ॥ 66॥

धन धान्य समृद्धि का लाभ और  संग्राम मॆं विजय हॊती है। अंतर कॆ अन्त मॆं सुख और  आदि मॆं मध्यम फल॥ 66 ॥।

मध्यॆ मध्यॆ महत्कष्टं पश्चादारॊग्यमादिशॆत । दायॆशाद्रिपुरंध्रस्थॆ व्ययॆ वा पापसंयुतॆ ॥67॥

और  मध्य मॆं बीच बीच मॆं महाकष्ट पीछॆ आरॊग्यता हॊती है। दशॆश सॆ 6।8।12 भाव मॆं पापग्रह सॆ युक्त हॊ तॊ॥67॥

चौराहिब्रणपीडा च बुद्धिनाशॊ महद्भयम । शिरॊरूजं मनस्तापमकस्मात्कलहं तथा ॥68॥

चॊर-सर्प, व्रण की पीडा, बुद्धि का नाश, महाभय, शिर मॆं रॊग, मन मॆं संताप अकस्मात कलह ॥68॥

प्रमॆहरॊगसम्प्राप्तिर्नानामागॆं . धनव्ययः । । भार्यापुत्रविरॊधश्च गमनं कार्यनाशनम ॥69॥

प्रमॆह रॊग की उत्पत्ति, अनॆक मार्ग मॆं धन व्यय, स्त्री, पुत्र कॆ विरॊध, यात्रा । और  कार्य की हानि हॊती है॥69॥ .

द्वितीयद्यूननाथॆ तु दॆहबाधा भविष्यति ॥

तद्दॊषपरिह्वारार्थ मृत्युंजय जपं चरॆत ॥ छागदानं, प्रकुर्वीत सर्वसम्पत्प्रदायकम ॥70॥

2।7 भाव कॆ स्वामी हॊं तॊ शरीर मॆं कष्ट हॊता है। इस दॊष कॆ शान्त्यर्थ मृत्युंजय का जप करना चाहियॆ और  सभी सम्पत्ति कॊ दॆनॆवाला छाग का दान करना * चाहियॆ॥70 ॥

इति पारशर हॊरायां पूर्वार्धॆ विंशॊत्तर्यामन्तर्दशा प्रकरणं समाप्तम।

अथ प्रत्यन्तर्दशाऽध्यायः॥

अथ प्रत्यन्तर्दशासाधनप्रकारःस्वान्तर्दशाब्दवृन्दं च हन्यात्स्वाब्दैग्रहस्य च । विंशॊत्तरशतॆनाप्तं धस्राः शॆष घट्यादिकम ॥1॥ .. ग्रह कॆ अन्तर्दशामान कॊ ग्रह कॆ दशा वर्ष संख्या सॆ गुणाकर गुणनफल मॆं

20

486

। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ 120 का भाग दॆनॆ सॆ लब्धि दिनादि उस ग्रह कॆ प्रत्यन्तर हॊता है॥1॥ । उदाहरण-जैसॆ सूर्य की दशा मॆं सूर्य का अन्तर 0 वर्ष 3 मास और  18 2. दिन हॊता है, इसॆ सूर्य कॆ दशा वर्ष 6 सॆ गुणा करनॆ सॆ 1 वर्ष 9 मास 18 दिन

हुयॆ इसमॆं 120 का भाग दॆनॆ सॆ 0 वर्ष 0 मास 5 दिन और  24 घटी यह सूर्य

की दशा मॆं सूर्य कॆ अन्तर मॆं सूर्य का प्रत्यन्तर्दशा हु‌आ। । .,

’ ।

0।3।18 कॊ 6 सॆ। गुणा किया तॊ 1।9।18 इसमॆं.120 का भाग दिया 120)1।9।18( 0 व

फ+श इसी प्रकार सूर्य की दशा मॆं चन्द्रमा कॆ 21

21 ( 0 मा.

( 2 मा. अन्तर्दशा वर्षादि 060 कॊ ।

ऎ‌ऒ सूर्य कॆ दशावर्ष 6 सॆ गुणाकर & 30+8छ 120 का भाम दिया

648 (5 दि. . 01ऽलॊ

00 120 )036।0( 0 व.

घॊ :

;

80( 24 घ. 073

यॊ 36 ( 0 मा,

20 1080 (9 दि. फॊचॊ

’. 9020

.

:

ऎचॊल

यॊ!

. थंह सर्य की दशा मॆं सूर्य कॆ अन्तर मॆं चन्द्रमा का प्रत्यन्तर हु‌आ। इसी प्रकार गौमादि कॆ अन्तर्दशा वर्षादिकॊ सूर्य कॆ दशावर्ष सॆ गुणकर 120 सॆ भाग दॆनॆ सॆ सूर्यान्तर मॆं भौमादि कॆ प्रत्यन्तर्दशा दिनादि आ जाती है। अर्थात जिस ग्रह कॆ अन्तर्दशा मॆं जिस ग्रह की प्रत्यन्तर्दशा लानी हॊ उसकॆ अन्तर्दशा वर्षादि कॊ अन्तर्दशॆश कॆ दशा वर्ष सॆ गुणकर 120 का भाग दॆनॆ सॆ उसकॆ प्रत्यन्तर्दशा का दिनादि मान आ जाता है।

अथ सूर्यान्तरॆसूर्यादीनांप्रत्यन्तर्दशाफलम्‌उद्वॆगश्च महद्वित्तदारात्तिः शिरसिव्यथा । ब्राह्मणॆन विवादशसूर्यः स्वविदशांगतः ॥ 2॥(सू.सू.)

शॆळ

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489

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ईट्ट

अथ प्रत्यन्तर्दशाऽध्यायः । . सूर्य कॆ अन्तर मॆं सूर्य कॆ प्रत्यन्तर मॆं उद्वॆग, धनका तथा स्त्री कॊ बडा कष्ट और  ब्राह्मण कॆ साथ विवाद हॊता हैं॥2॥

उद्वॆगं कलहं चित्तपीडा स्वहृतिमद्धताम । मणिमुक्तादिनाशश्च विदिशासु रवॆः शशी ॥3॥ (सू.चं.) :

सूर्य कॆ अन्तर मॆं चन्द्रमा कॆ प्रत्यन्तर मॆं उद्वॆग, कलह, मनकॊ व्यथा, धन का अपहरण और  मंणि-मुक्ता आदि का नाश हॊता है॥3॥

राजभीति शास्त्रभीतीं बंधनं बहुसंकटम ॥ शन्नुभंगस्तथा घातॊ विदशासु रवॆः कुजः ॥4॥ (सू.मं.) ।

सूर्य कॆ अन्तर मॆं भौम कॆ प्रत्यन्तर मॆं राजभय, शस्त्रभय, बंधन, अनॆक संकट, शत्रु और  अग्नि सॆ पीडा हॊती है॥4॥

श्लॆष्मव्याधिं शस्त्रभीतिं धॆनहानि महद्भयम । राजभंगस्तथा घातॊ विदशासु रवॆस्तमः ॥5॥ (सू.रा.)

सूर्य कॆ अन्तर मॆं राहु कॆ प्रत्यन्तर मॆं कफव्याधि, शस्त्र सॆ भय, धनकी हानि, बडा भय, राजका भंग और  चॊट आदि सॆ कष्ट हॊता है॥5॥

शत्रुनाशं जयं वृद्धिं वस्त्रहॆमादिभूषणम । वस्त्रयानादि लब्धिं च गॊधनं च रवॆर्गुरूः ॥6॥ (सू.गु.) ।

सूर्य कॆ अन्तर मॆं गुरु कॆ प्रत्यन्तर मॆं शत्रु का नाश, विजय, उन्नति, वस्त्र, . सुवर्ण कॆ आभूषण, सवारी और  गौ का लाभ हॊता है॥6॥

धनहानिः पशॊ:पीडा महॊद्वॆगॊ महारूजः ॥ अशुभं सर्वमाप्नॊति विदशासु रवॆः शनि ॥7॥(सू.श.)

सूर्य कॆ अन्तर मॆं शनि कॆ प्रत्यन्तर मॆं धन की हानि, पशु कॊ पीडा, उद्वॆग, महारॊग और  अनॆक अशुभ हॊतॆ हैं॥7॥

विद्यालाभॊ बंधुसंगॊ भॊज्यप्राप्तिर्धनागमः । धर्मलाभॊ नृपात्पूजा विदशासु रवॆर्बुधः ॥8॥ (सू.बु.)

सूर्य कॆ अन्तर मॆं बुध कॆ प्रत्यन्तर मॆं विद्या का लाभ, बंधु का समागम, भॊज्य की प्राप्ति, धन का आगम, धर्म का लाभ और  राजा सॆ आदर हॊता है॥8॥

प्राणभीतिर्महाहानी राजभीतिश्च । विग्रहः ।

शत्रुजा च महावादॊ विदशासुखॆः शिखी ॥9॥ (सू.कॆ.)

550 . ’

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । सूर्य की दशा मॆं कॆतु कॆ प्रत्यन्तर मॆं प्राण का भय, बडी हानि, राजभय,

शत्रुता, शत्रु सॆ बडा वादविवाद हॊता है॥9॥। .. दिनानि समरूपाणि लाभॊऽप्यल्पॊ भवॆदिह । ।

। स्वल्पा च सुखसम्पत्तिर्विदशासु रवॆभृगुः ॥10॥(सू.शु.)

सूर्य कॆ अंतर मॆं शुक्र कॆ प्रत्यन्तर मॆं समान रुप सॆ दिन बीततॆ हैं, लाभ थॊडा हॊता है और  थॊडी ही सुख सम्पत्ति हॊती है॥10॥ "

इति सूर्यान्तरॆ प्रत्यंतर फलम।

अथ चन्द्रान्तरॆ चन्द्रादीनां प्रत्यन्तरफलम - भूभॊज्यथश्रसम्प्राप्ती राजपूजामहत्सुखम । महालाभः दारसौख्यं विदशासु स्वयं शशी ॥11॥ (चं.चं.)

। चन्द्रमा कॆ अन्तर मॆं चन्द्रमा कॆ ही प्रत्यन्तर मॆं भूमि, भॊजन पदार्थ, धनं * की प्राप्ति, राजा सॆ पूजा, बडा सुख, अत्यन्त लाभ और  स्त्री का सुख हॊता ।. है॥11॥

मतिवृद्धिर्महापूज्यः सुखं बंधुजनैः सह ॥ धनागमं शत्रुभयं चन्द्रस्यान्तर्गतः कुजः ॥12॥ (चं.मं.) । चन्द्रमा कॆ अन्तर मॆं भौम कॆ प्रत्यन्तर मॆं बुद्धि मॆं वृद्धि, अत्यंत आदर, बंधु‌ऒं सॆ सुख, धन का आगम और  शत्रुका भय हॊता है॥12॥ भवॆत्कल्याणसम्पत्ती राजवित्तसमागमः । अशुभैरल्पमृत्युश्च चन्द्रच्चन्द्रान्तरॆ तमः ॥13॥ (चं.श.)

चन्द्रमा कॆ अन्तर मॆं राहु कॆ प्रत्यन्तर मॆं कल्याण, सम्पत्ति, राजा सॆ धन का समागम, अशुभ और  अल्पमृत्यु का भय हॊता है॥13॥

वस्त्रलाभॊ महातॆजॊ ब्रह्मज्ञानं च सद्गुरॊः ॥

राज्यालङ्करणावाप्तिश्चन्द्रचन्द्रान्तरॆ गुरुः ॥14॥ (चं.वृ.)

चन्द्रमा कॆ अन्तर मॆं गुरु कॆ प्रत्यंतर मॆं वस्त्र का लाभ, तॆज मॆं वृद्धि, अच्छॆ गुरु सॆ ब्रह्मज्ञान की राज्यचिह्नॊं की प्राप्ति हॊती है॥14॥

दुर्दिनॆ लभतॆ पीडा, वातपित्ताद्विशॆषतः ॥ धनधान्ययशॊहानिश्चन्द्रचन्द्रान्तरॆ. शनिः ॥15॥ (चं.श.)

चन्द्रमा कॆ अन्तर मॆं शनि कॆ प्रत्यन्तर मॆं दुर्दिन मॆं विशॆषकर वायु पित्त विकार सॆ कष्ट धन धान्य और  यश की हानि हॊती है॥15॥

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अथ प्रत्यन्तर्दशाऽध्यायः । पुत्रजन्महयप्राप्तिर्विद्यालाभॊ महॊन्नतिः । । शुक्लवस्त्रान्नलाभश्च चन्द्रचन्द्रान्तरॆ बुधः ॥16॥ (चं.बु.)

चन्द्रमा कॆ अन्तर मॆं बुध कॆ प्रत्यन्तर मॆं पुत्र का ज़न्म, घॊडॆ की प्राप्ति, विद्या का लाभ, अत्यन्त उन्नति और  सफॆद वस्त्र ऎवं अन्न का लाभ हॊता है॥16॥

ब्राह्मणॆन समं युद्धमपमृत्युः सुखक्षयः । सर्वत्र जायतॆ क्लॆशश्चन्द्रचन्द्रान्तरॆ शिखी ॥17॥ (चं, कॆ.)

। चन्द्रमा कॆ अन्तर मॆं कॆतु कॆ प्रत्यंतर मॆं ब्राह्मण कॆ साथ युद्ध, अपमृत्यु, सुख की हानि और  सर्वत्र कष्ट प्राप्त हॊता है॥17॥

धनलाभॊ महत्सौख्यं कन्याजन्मं सुभॊजनम ।

 प्रीतिश्च सर्वलॊकॆभ्यश्चन्द्रचन्द्रान्तरॆ. भृगुः ॥18॥ (चं.शु.)

चन्द्रमा कॆ अन्तर मॆं शुक्र कॆ प्रत्यन्तर मॆं धन का लाभ, महासुख, कन्या का जन्म, सुन्दर भॊजन और  सभी प्राणियॊं सॆ प्रॆम हॊता है॥18॥।

 अन्नागमॊ वस्त्रलाभः शत्रुहानिः सुखागमः ।

सर्वत्र । विजयप्राप्तिश्चन्द्रचन्द्रान्तरॆ. रविः ॥19॥ (चं.सू.)

। चन्द्रमा कॆ अन्तर मॆं सूर्य कॆ प्रत्यन्तर मॆं अन्न का आगभ, वस्त्र का लाभ, - शत्रु का नाश और  सर्वत्र विजय हॊती है॥19॥।

इति चन्द्रान्तरॆ प्रत्यन्तर फलम -

अथ भौमान्तरॆभौमादीनांप्रत्यन्तरफलम - शत्रुभीतिं कलिं घॊरमकस्माज्जायतॆ भयम ॥ रक्तस्रावॊऽपमृत्युश्च विदशासुस्वयं कुजः ॥20॥ (मं.मं.)

भौम कॆ अन्तर मॆं भौम ही कॆ प्रत्यन्तर मॆं शत्रु का भय, अकस्मात घॊररूप सॆ झगडा, भय, रक्तस्राव और  अपमृत्यु हॊती है॥20॥

बंधनं राजभङ्गं च . .धनहानिः कुभॊजनम । । कलहं शत्रुभिर्नित्यं भौमभौमान्तरॆ तमः ॥21॥ (म.रा.)

भौम की. दशा मॆं राहु कॆ अन्तर मॆं बंधन, राज्य का नाश, धन की हानि, खराब भॊजन, नित्य शत्रु सॆ कलह हॊता है॥21॥।

मतिनाशं तथा दुःखं संतापः कलहॊ भवॆत । विफलं चिंतितं सर्वं भौमभौमान्तरॆ गुरुः ॥22॥ (मं.वृ.) ।

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14

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448.

* वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । भौम कॆ अन्तर मॆं गुरु कॆ प्रत्यन्तर मॆं बुद्धि का नाश, दु:ख, संताप कलह

और  सभी चिंतित कार्य विफल हॊ जातॆ हैं॥22॥। .:: स्वामिनाशस्तथा पीडा धनहानिर्महाभयंम ।

वैकल्यं कलहॆस्त्रासॊ भौमभौमान्तरॆ’ शनिः ॥23॥ (मं.श.)

। भौम कॆ अन्तर मॆं शनि कॆ प्रत्यन्तर मॆं स्वामी का नाश, पीडा, धन की हानि, महाभयं, विकलुता, कलह और  त्रास हॊता है॥23॥।

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 सर्वथा बुद्धिनाशश्च धनहानिज्वरस्तनौ । . वस्त्रान्नसुहृदां नाशॊ ’भौमभौमान्तरॆ बुधः ॥ 24॥ (मं.बु.)

। भौम कॆ अन्तरदशा मॆं बुंध कॆ प्रत्यन्तर मॆं बुद्धि का नाश, धनहानि, शरीर मॆं ज्वर, वस्त्र अन्न और  मित्रॊं का नाश हॊता है॥24॥

आलस्यं च शिरः पीडा पापरॊगापमृत्युकृत ॥ राजभीतिः, शस्त्रघातॊ भौमभौमान्तरॆ शिखी ॥25॥ (मं.कॆ.) । भौम कॆ अन्तर मॆं कॆतु कॆ प्रत्यन्तर मॆं आलस्य, शिर मॆं पीडा, पाप, रॊग, अपमृत्यु राजभय और  शस्त्र सॆ चॊट लगनॆ का भय हॊता हैं॥25॥

 चांडालासंकटस्त्रासॊ राजशस्त्रभयं भवॆत ।

अतिसारॊ च वमनं भौमभौमान्तरॆ भृगुः ॥ 26॥ (मं.शु.)

। भौम कॆ अन्तर मॆं शुक्र कॆ प्रत्यन्तंर मॆं चांडाल सॆ संकट और  त्रास राजा ’: और  शस्त्र सॆ भय, अतिसार और  वमन हॊता है॥26॥।

भूमिलाभॊऽर्थसम्पत्तिः संतॊषॊमित्रसंमतिः । संर्वत्र सुख माप्नॊति भौमभौमान्तरॆ रविः ॥ 27 ॥ (मं.स.)

भौम कॆ अंतर मॆं सूर्य कॆ प्रत्यन्तर मॆं भूमि का लाभ, धन सम्पत्ति का लाभ,

संतॊष, मित्रॊं का लाभ और  सर्वत्र सुख हॊता है॥27॥ . याम्यां दिशि भवॆल्लाभः सितवस्त्रविभूषणम ।

संसिद्धिः सर्वकार्याणां भौमभौमान्तरॆ शशी ॥ 28 ॥ (मं.चं.) " भौम की दशा मॆं चन्द्रमा कॆ प्रत्यन्तर मॆं दक्षिणदिशा सॆ लाभ, सफॆद वस्त्र आभूषण का लाभ और  सभी कार्यॊं की सिद्धि हॊती है॥28॥

" इति भौमप्रत्यन्तर फलम -

अथराह्वन्तरॆराह्लादीनां प्रत्यन्तरफलम - बंधनं बहुधारॊगॊ. बाहुघातं . सुहृद्भयम ॥ अकस्मात्प्राप्यतॆ व्याधिः राहुप्रत्यन्तरॆ राहुः ॥29॥ (रा.रा.)

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अथ प्रत्यन्तर्दशाऽध्यायः ॥

443 राहु की दशा मॆं राहु कॆ अन्तर मॆं बंधन, अनॆक रॊग, बाहु मॆं आघात, मित्र सॆ भय, अकस्मात व्याधि हॊती है॥29॥।

सर्वत्रलभतॆ लाभं गजाश्वं च धनागमम ॥ राजसन्मानदं राज्यं भवॆद्राह्वन्तरॆ गुरुः ॥30॥ (रा.वृ.)

राहु कॆ अन्तर मॆं गुरु कॆ प्रत्यन्तर मॆं सर्वत्र लाभ, हाथी, घॊडा, धन का लाभ, राज सन्मान सॆ युक्त राज्य की प्राप्ति हॊती है। ।30॥।

बंधनं. जायतॆ घॊरं सुखहानिर्महद्भयम । प्रत्यहं वातपीडा च राहौ राह्नन्तरॆ शनिः ॥31॥ (रा.श.) । राहु कॆ अन्तर मॆं शनि कॆ प्रत्यन्तर मॆं घॊर व धन हॊता है। सुख की हानि

और  बडाभय और  प्रतिदिन वायु सॆ पीडा हॊती है॥31॥ सर्वत्र बहुधा लाभः स्त्री समश्च विशॆषतः । परदॆशगतिः सिद्धिं राहॊ ह्वन्तरॆ बुधः ॥ 32॥ (रा.बु.) । राहु की दशा मॆं बुध कॆ प्रत्यन्तर मॆं सर्वत्र अनॆक लाभ स्त्री संसर्ग सॆ विशॆष लाभ और  परदॆश सॆ विशॆष सिद्धि हॊती है॥32॥

बुद्धिनाशॊ भयं विघ्नं धनहानिर्महद्भयम ॥ सर्वत्र कलहॊद्वॆगॊ राहॊ राह्वन्तरॆ शिखी ॥33॥ (रा.कॆ.) । राह कॆ अन्तर मॆं कॆतु कॆ प्रत्यन्तर मॆं, बुद्धि का नाश, भय, विघ्न, धन की हानि, बडा भय और  सर्वत्र कलह और  द्वॆष हॊता है॥33॥

यॊगिनीभ्यॊभयं भूयादश्नहानिः कुभॊजनम । ..

स्त्रीनाशः कुलजं शॊकं राहॊ रा‌अतरॆसितः ॥ 34॥ (रा.शु.)

राहु कॆ अन्तर मॆं शुक्र कॆ प्रत्यंतर मॆं यॊगिनी (पिशाचिनी आदि) सॆ भय, घॊडॆ का नाश, खराब भॊजन, स्त्री का नाश और  कुलजनित शॊक हॊता है॥34॥

ज्वररॊगॊ महाभीतिः पुत्रपौत्रादिपीडनम । अल्पमृत्युः प्रभादश्च राहॊ राह्वन्तरॆ रविः ॥ 35॥ (रा.सू.) । राहु कॆ अन्तर मॆं सूर्य कॆ प्रत्यन्तर मॆं ज्वररॊग, महाभय, पुत्र-पौत्र कॊ पीडा, . अपमँत्यु और  प्रमाद हॊता है॥35॥

उद्वॆगकलहॊ चिन्ता मानहानिर्भहद्भयम ॥ पितुर्विकलता दॆहॆ राहॊ राह्वन्तरॆ शशी ॥ 36॥ (रा.चं.).

554

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ राहु की दशा मॆं चन्द्रमा कॆ प्रत्यन्तर मॆं उद्वॆग, कलह, चिन्ता, मानहानि, . महाभय, पिता आदि कॆ शरीर मॆं विकलता हॊती है॥36॥ .. भगंदरकृता । पीडा रक्तपित्तप्रपीडनम ॥ :: अर्थहानिर्महॊद्वॆगॊ राहॊ राह्वन्तरॆ कुजः ॥ 37॥ (रा.मं.) . . राहु कॆ अन्तर मॆं भौम कॆ प्रत्यंतर मॆं भगदर रॊग सॆ पीडा, रक्त पित्त सॆ पीडा,

धन हानि और  महा उद्वॆग हॊता हैं॥37॥।

। इति राहु प्रत्यन्तर फलम ।

अथ गुर्वन्तरॆ गुर्वादीनांप्रत्यंतर फलम्हॆमलाभॊ धान्यवृद्धिः कल्याणं च फलॊदयः । बहुभाग्यं गृहॆ वृद्धिं जीवजीवान्तरॆ गुरुः ॥ 38॥ (वृ.शु.)

गुरु कॆ अन्तर मॆं गुरु कॆ प्रत्यन्तर मॆं सुवर्ण का लाभ, धान्य वृद्धि, कल्याण, फलॊदय अनॆक प्रकार सॆ भाग्यॊदय और  घर मॆं वृद्धि हॊती है॥38॥।

गॊभूमिहयलाभः स्यात्सर्वत्र सुखसाधनम । . . संग्रहॊ ह्यन्नपानादि गुरुर्गुर्वन्तराशनिः ॥39॥ (वृ.श.)

। गुरु कॆ अन्तर मॆं शनि कॆ प्रत्यन्तर मॆं गौ, भूमि, सुवर्ण का लाभ, सर्वत्र सुख का साधन, अन्न, पान आदि का संग्रह हॊता है॥39॥। . विद्यालाभॊ वस्त्रलाभॊ ज्ञानलाभः समौक्षिकः ॥

सुहृदां संगमः स्नॆहॊ जीवजीवान्तराबुधः ॥40॥ (वृ.बु.) । गुरु कॆ अन्तर मॆं बुध कॆ प्रत्यन्तर मॆं विद्या का लाभ, वस्त्र का लाभ, मौक्षिक ज्ञान का लाभ, मित्रॊं सॆ समागम और  स्नॆह हॊता है॥40॥

जलभीतिस्तथा चौर्यं बंधनं कलहॊ भवॆत । । अल्पमृत्युर्भीयं घॊरं जीव जीवांतरॆ ध्वजः ॥41॥ (वृ.कॆ.)

। गुरु कॆ अन्तर मॆं कॆतु कॆ प्रत्यंतर मॆं जल सॆ भय, चॊरी का भय, बंधन, कलह, घॊर अपमृत्यु का भय हॊता है॥41॥।

नानाविद्यार्थसम्प्राप्तिहॆमवस्त्रविभूषणम । । लभतॆक्षॆमसंतॊष जीवजीवांतरॆ कविः ॥42॥ (वृ.शु.)

गुरु कॆ अन्तर मॆं शुक्र कॆ प्रत्यंतर मॆं अनॆक प्रकार सॆ धन का लाभ, सुवर्ण, . वस्त्र, आभूषण का लाभ और  कुशल, संतॊष का लाभ हॊता है॥42॥

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अथ प्रत्यन्तर्दशाऽध्यायः । नृपाल्लाभस्तथा मित्रपितृतॊ मातृतॊऽपि वा । सर्वत्र लभतॆ पूजां जीवजीवान्तरा रविः ॥43 ॥ (वृ.सू.),

गुरु कॆ अंतर मॆं सूर्य कॆ प्रत्यंतर मॆं राजा सॆ लाभ, मित्र, पिता, माता सॆ लाभ और  सर्वत्र पूजनीय हॊता है॥43॥।

सर्वदुःखविमॊक्षश्च मुक्तालाभॊ हयस्य च । सिध्यंति सर्व कार्याणि जीवजीवांतरॆ शशी ॥44॥ (वृ.चं.)

। गुरु कॆ अन्तर मॆं चन्द्रमा कॆ प्रत्यन्तर मॆं सभी दु:खॊं का नाश, मुक्ता और  अश्व का लाभ और  सभी कार्य सिद्ध हॊतॆ हैं॥44॥ - शस्त्रभीतिगुंदॆ पीडावन्हिमान्द्यमजीर्णता ॥

पीडाशत्रुकृता भूरि जीवजीवान्तरॆ कुजः ॥45॥ (वृ.मं.) । गुरु कॆ अन्तर मॆं भौम कॆ प्रत्यंतर मॆं शस्त्र का भय, गुदा मॆं पीडा, अग्निमांद्य,

अजीर्ण और  शत्रु सॆ अधिक पीडा हॊती हैं॥45॥

चांडालॆन विरॊधः स्याद्भयं तॆभ्यॊ रतिग्रहः । कष्टं स्याद्व्याधिशत्रुभ्यॊ जीवजीवान्तरॆ तमः ॥46॥ (वृ.रा.) । गुरु कॆ अन्तर मॆं राहु कॆ प्रत्यंतर मॆं चांडाल सॆ विरॊध और  उनसॆ भय, व्याधिं और  शत्रु सॆ कष्ट हॊता हैं॥46॥।

इति गुरुप्रत्यंतरफलम।. .

अथ शन्यन्तरॆशन्यादीनांप्रत्यन्तरफलम्दॆहपीडा कलॆतिर्भयमन्त्यलॊकतः । । विदॆशगमनं दुःखं शनॆः शन्यन्तरॆ शनिः ॥47॥ (श.श.)

शनि कॆ अन्तर मॆं शनि कॆ प्रत्यंतर मॆं शरीर मॆं पीडा, झगडॆ का भय, नीचॊं सॆ भय, विदॆश की यात्रा और  दु:ख हॊता है॥47॥

बुद्धिनाशॊ कलॆतिमन्नपानादिहानिकृत ॥ धनहानिर्भयं शत्रॊः शनॆः शन्यन्तरॆ बुधः ॥48॥ (श,बु.)

शनि कॆ अन्तर मॆं बुध कॆ प्रत्यंतर मॆं बुद्धि का नाश; कलह का भय, अन्नादि की हानि, धन की हानि और  शत्रु का भय हॊता है॥48॥ बन्धः शत्रुगृहॆ जातॊ वर्णहानिर्वहुक्षुधा ।

चित्तॆचिन्ता भयं त्रासः शनॆः सौरान्सरॆ शिखी ॥49॥ (श.कॆ.) । शनि कॆ अन्तर मॆं कॆतु कॆ प्रत्यंतर मॆं शत्रु गृह मॆं बन्धन, तॆज की हानि.

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । बहुत भूख लगती है, चित्त मॆं चिन्ता, भय और  त्रास हॊता है॥49॥ । चिंतितं फलितं वस्तु कल्याणं स्वजनॆ तथा ॥ .. मनुष्यकृतितॊ लाभः शनॆः शन्यन्तरॆ भृगुः ॥50॥श.श.)

। शनि की दशा मॆं शुक्र कॆ अन्तर मॆं चिंतित वस्तु का लाभ, आत्मीयजनॊं का कल्याण, मनुष्य की कृति सॆ लाभ हॊता है॥50॥।

राजतॆजॊऽधिकारित्वं स्वगृहॆ जायतॆ कलिः ।, ज्वरादिव्याधिपीडाच कॊणॆ कॊणान्तरॆ रविः ॥51॥ (श.सू.) । शनि कॆ अन्तर मॆं सूर्य कॆ प्रत्यान्तर मॆं राजा कॆ ऐसा तॆज, अधिकार की प्राप्ति, अपनॆ घर मॆं कलह और  ज्वर आदि व्याधि सॆ पीडा हॊती है॥51॥।

स्फीतबुद्धिर्महारम्भॊ मंदतॆजॊं - बहुव्ययः । बहुस्त्रीभिः समं भॊगं कॊणॆ कॊणान्तरॆ शशी ॥52॥ (श,चं.) । शनि कॆ अन्तर मॆं चन्द्रमा कॆ प्रत्यंतर मॆं स्वच्छ बुद्धि, महान कार्य का आरम्भ, कान्ति की कमी, अधिक खर्च, अनॆक स्त्रियॊं सॆ संभॊग हॊता है॥52॥

तॆजॊहानिः पुत्रघातॊ वह्निभीतिर्रिपॊर्भयम ।. . वातपित्तकृतापीडा कॊणकॊणान्तरॆ कुजः ॥53॥ (श.मं.)

शनि कॆ अंतर मॆं भौम कॆ प्रत्यंतर मॆं कान्ति की हानि, पुत्र कॊ कष्ट, अग्नि का भय, शत्रु भय और  बात-पित्त सॆ पीडा हॊती है॥53 ॥ धननाशॊ वस्त्रहानिभूमिनाशॊ भयं भवॆत । विदॆशगमनं मृत्युः कॊणकॊणान्तरॆ तमः ॥54॥ (श.रा.) . शनि कॆ अंतर मॆं भौम कॆ प्रत्यंतर मॆं धन का नाश, वस्त्र की हानि, भूमि की हानि, भय, विदॆश यात्रा और  मृत्यु हॊती है॥54॥। -.गृहॆषु . स्वीकृतं छिद्रं ह्यसमर्थॊं निरीक्षणॆ । .

अथवा कलिमुद्वॆगं दानॆ सौरान्तरॆ गुरुः ॥55॥ (श.बृ.)

शनि कॆ अन्तर मॆं गुरु कॆ प्रत्यन्तर मॆं गृह मॆं स्त्री द्वारा कलह की उत्पत्ति जिसकॆ निरीक्षण मॆं असमर्थ, कलंह और  उद्वॆग हॊता है॥55॥

। इति शनि प्रत्यंतरफलम।

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अथ प्रत्यन्तर्दशाऽध्यायः ॥

अथ बुधान्तरॆबुधादीनां प्रत्यन्तरफलम -

 बुद्धिविद्यार्थलाभॊ वा वस्त्रलाभॊमहत्सुखम । स्वर्णादिधनलाभः स्यात्सौम्यसौम्यान्तरॆबुधः ॥56॥ (बु.बु.) . बुध कॆ अन्तर मॆं बुध कॆ प्रत्यंतर मॆं बुद्धि, विद्या और  धन का लाभ, वस्त्र का लाभ और  सुख और  सुवर्ण आदि धन का लाभ हॊता है।156॥।

कठिनान्नस्यसंप्राप्तिरूदरॆ रॊगसम्भवः ॥ कामलं रक्तपित्तं च सौम्यसौम्यान्तरॆ शिखी ॥57॥ (बु.कॆ.) - बुध कॆ अंतर मॆं कॆतु कॆ प्रत्तर मॆं कठिन (कडॆ) अन्नॊं की प्राप्ति, पॆट मॆं रॊग की संभावना, कामला रॊग वा रक्तपित्त सॆ रॊग हॊता है॥57॥

उत्तरस्यां भवॆल्लाभॊ हानिः स्यात्तु चतुष्पदात ॥

अधिकारान्महाप्रीतिः सौम्यॆ सौम्यान्तरॆ रविः ॥59॥(बु.सू.)।

बुध कॆ अंतर मॆं सूर्य कॆ प्रत्यंतर मॆं कान्ति की हानि, रॊग, शरीर मॆं मन्दाग्नि सॆ पीडा और  चित्त मॆं अशान्ति हॊती है॥59॥

स्त्रीलाभश्चार्थसम्पत्तिः कन्यालाभॊमहद्धनम ॥ लभतॆ सर्वतः सौख्यं सौम्यसौम्यान्तरॆ शशी ॥60॥(बु.चं.)। । बुध कॆ अंतर मॆं चन्द्रमा कॆ प्रत्यंतर मॆं स्त्री का लाभ, धन की प्राप्ति, कन्या

का जन्म, महाधन की प्राप्ति और  सर्वत्र सुख की प्राप्ति हॊती है॥60॥ । धर्मधीधॆनसम्प्राप्ति‌औराग्यादि प्रपीडनम ।

रक्तवस्त्र शस्त्रघातः सौम्यसौम्यान्तरॆ कुजः ॥61॥(बु.म.)

बुध कॆ अंतर मॆं भौम कॆ प्रत्यंतर मॆं धर्म, बुद्धि, धन की प्राप्ति, चॊर और  . ब्राह्मण सॆ पीडा, रक्त वस्त्र और  शस्त्र सॆ घात हॊता है॥61॥

कलहॊ जायतॆ स्त्रीभिरकस्माद्भयसम्भवः ॥ राजशस्त्रकृताभीतिः सौम्यसौम्यान्तरॆ तमः ॥62॥ (बु.रा.) । बुध की दशा मॆं राहं कॆ अन्तर मॆं अकस्मात स्त्री सॆ कलह हॊनॆ की सम्भावना और  राजा तथा शस्त्र सॆ भय हॊता है॥62॥।

राज्यं राज्याधिकारी वा पूजा‌आजसमुद्भवा ॥ विद्याधरान्नवस्त्रं च सौम्यसौम्यांतरॆ गुरुः ॥63॥ (वु.कृ.)

446

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । 5. बुध कॆ अन्तर मॆं गुरु कॆ प्रत्यंतर मॆं राज्य वा राज्याधिकारी की प्राप्ति, राजा

सॆ पूजा, विद्याधर सॆ अन्न वस्त्र की प्राप्ति हॊती है॥63॥

वातपित्तमहापीडा दॆहघातसमुद्भवा ॥

धननाशमवाप्नॊति सौम्यसौम्यान्तरॆ . शनिः ॥64॥ (बु.श.) . बुध कॆ अंतर मॆं शनि कॆ प्रत्यंतर मॆं वात-पित्त सॆ महापीडा, दॆह मॆं चॊट

आदि लगनॆ की सम्भावना और  धन का नाश हॊता है॥64॥

। इति बुधप्रत्यन्तरफलम॥

अथ कॆत्वन्तरॆ कॆत्वादीनांप्रत्यन्तरफलम्‌अपां समुद्भवॊऽकस्माद्दॆशान्तरसमागमः । धननाशॊऽल्पमृत्युश्च कॆतॊः कॆत्वन्तरॆ शिखी ॥65 ॥ (कॆ.कॆ.) ... कॆतु कॆ अन्तर मॆं कॆतु कॆ प्रत्यन्तर मॆं अकस्मात जलमार्ग सॆ दॆशान्तरं की यात्रा, धन की हानि और  प्राणमय हॊता है॥65॥ म्लॆक्षभीत्यर्थनाशॊ वा नॆत्ररॊगः शिरॊव्यथा । हानिश्चतुष्पदानांच कॆतॊः कॆत्वन्तरॆ भृगुः ॥66॥ (कॆ.श.)

कॆतु कॆ अन्तर मॆं शुक्र कॆ प्रत्यन्तर मॆं म्लॆक्ष सॆ भय, अत्यंत धन का नाश नॆत्र रॊग, शिर मॆं व्यथा और  चतुष्पद जीव की हानि हॊती है॥66॥।

मित्रैः सह विरॊधश्च स्वल्पमृत्यु, पराजयः ॥

मतिभ्रंशॊ विवादश्च कॆतॊ, कॆत्वन्तरॆ रविः ॥67॥ (कॆ.सू.)

कॆतु कॆ अन्तर मॆं सूर्य कॆ प्रत्यंतर मॆं मित्रॊं सॆ विरॊध, अल्पमृत्यु, पराजय बुद्धि का नाश और  विवाद उपस्थित हॊता है॥67॥।

अन्ननाशॊ यशॊहानिर्दॆहपीडा मतिभ्रमः । आमवातादिवृद्धिश्च कॆतॊः कॆत्वन्तरॆ शशी ॥68॥ (कॆ.चं.) । कॆतु कॆ अंतर मॆं चन्द्रमा कॆ प्रत्यंतर मॆं अन्न की हानि, यश की हानि, दॆह मॆं पीडा, बुद्धि मॆं भ्रम और  आम-बात की वृद्धि हॊती है॥68॥

शस्त्रघातॆन पातॆन पीडितॊ वह्निपीडया । नीचाद्रीति रिपॊः शङ्का कॆतॊः कॆत्वन्तरॆ कुजः ॥69॥ (कॆ.मं.)

कॆतु कॆ अंतर मॆं भौम कॆ प्रत्यंतर मॆं शस्त्रलगनॆ सॆ वा गिरनॆ सॆ पीडा, अग्नि

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। अथ प्रत्यन्तर्दशाऽध्यायः ॥ सॆ पीडा, नीच सॆ भय और  शत्रु भय की शंक हॊती है॥69॥।

कामिनीभ्यॊ भयं भूयात्तथा वैरिसमुद्भवः । शूद्रादपि भवॆद्भीतिः कॆतॊः कॆत्वन्तरॆ तमः ॥70॥ (कॆ.र.) ... कॆतु कॆ अंतर मॆं राह प्रत्यंतर मॆं स्त्रियॊं सॆ भय, राजा सॆ तथा शत्रु‌ऒं सॆ भय शूद्र सॆ भी भय हॊता है॥70॥

धनहानिर्महॊत्पातॊ वस्त्रमित्रविनाशनम । सर्वत्र लभतॆ क्लॆशं कॆतॊः कॆत्वन्तरॆ गुरुः ॥71॥ (कॆ.वृ.)

कॆतु कॆ अंतर मॆं गुरु कॆ प्रत्यार मॆं धन की हानि, महा‌उत्पात, वस्त्र, मित्र की हानि और  सर्वत्र क्लॆश हॊता है॥71॥ ’गॊमहिष्यादिमरणं. दॆहपीडा सुहृद्वधः ॥ . स्वल्पाल्पलाभकरणं कॆतॊः कॆत्वंतरॆ शनिः ॥72॥ (कॆ.श.)

कॆतु कॆ अंतर मॆं शनि कॆ प्रत्यंतर मॆं गौ भैंस आदि कॊ मरण, शरीर मॆं पीडा, मित्रॊं का वध और  थॊडा-थॊडा लाभ हॊता है॥72॥।

बुद्धिनाशॊ महॊद्वॆगॊ विद्याहानिर्महाभयम । । कार्यसिद्धिर्न जायॆत कॆतॊः कॆत्वन्तरॆ बुधः ॥73॥ (कॆ.बु.)

कॆतु कॆ अन्तर मॆं बुध कॆ प्रत्यंतर मॆं बुद्धि का नाश, बडा उद्वॆग, विद्या की हानि महाभय और  कार्य की सिद्धि मॆं बाधा हॊती हैं॥73॥

इति कॆतु प्रत्यंतर फलम। । अथ शुक्रान्तरॆशुक्रादीनां प्रत्यतरफलम्श्वॆताश्ववस्त्रमुक्ताद्याः स्वर्णमाणिक्य संभवः ॥ लभतॆ सुन्दरी नारी शुक्रॆ शुक्रांतरॆ भृगुः ॥74॥(शु.शु.)

शुक्र कॆ अन्तर मॆं शुक्र कॆ प्रत्यंतर मॆं सफॆद घॊडा, सफॆद वस्त्र, मॊती का लाभ सुवर्ण माणिवय कॆ लाभ की संभावना और  सुन्दरी स्त्री का लाभ हॊता है॥74॥।

वातज्वरः शिरःपीडा राज्ञः पीडा रिपॊरपि ॥ जायतॆ स्वल्पलाभॊऽपि शुक्रॆ शुक्रान्तरॆ रविः ॥75॥(शु.सू.)

शुक्र कॆ अंतर मॆं सूर्य कॆ प्रत्यंतर मॆं वातज्वर, शिर मॆं पीडा, राजा और  शत्रु सॆ पीडा और  अल्प लाभ हॊता हैं॥75॥

। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । कन्याजन्म नृपाल्लाभॊ वस्त्राभरणसंयुतः । राज्याधिकारसंप्राप्ति शुक्रॆ शुक्रान्तरॆ शशी ॥76॥ (शु.चं.)

शक्र कॆ अंतर मॆं चन्द्रमा कॆ प्रत्यंतर मॆं कन्या का जन्म, राजा सॆ वख-आभाषा : का लाभ और  राज्याधिकार की प्राप्ति हॊती है॥76॥ रक्तपित्तादिरॊगश्च कलहंताडनं भवॆत ॥ महान्क्लॆशॊभवॆदत्र शुक्रॆ शुक्रान्तरॆ कुजः ॥77॥ (श.6

शुक्र कॆ अंतर मॆं भौम कॆ प्रत्यंतर मॆं रक्त-पित्त कॆ रॊग, कलह-ताडना , बडा कष्ट हॊता है॥77॥

कलॊ जायतॆ। खीभिरकस्माद्भयसंभवः ॥ राजतः शत्रुतः पीडा शुक्रॆ शुक्रान्तरॆतमः ॥78॥ (शश,

शुक्र कॆ अंतर मॆं राहु कॆ प्रत्यंतर मॆं काक सतत स्त्रॊं सॆ झगडा , और  राजा तथा शत्रु सॆ पीडा हॊती है॥78॥ । महद्दव्यं महद्राज्यं । वस्त्रमुक्तादिभूषणम । गजाश्वादिपदप्राप्तिः शुक्रॆ शुक्रान्तरॆ गुरुः ॥79॥ (शत

शुक्र कॆ अंतर मॆं गुरु कॆ प्रत्यंतर मॆं बडॆ द्रव्य, बडॆ राज्य, वस्त्र, मला । कॆ.आभूषण, हाथी-घॊडा पद की प्राप्ति हॊती है॥79 ॥।

खरॊष्ट्रछागसप्राप्तिहमाषतिलादिकम । । लभतॆ स्वल्पपीडादि शुक्रॆ शुक्रान्तरॆ शनिः ॥80॥ (श. शुक्र कॆ अंतर मॆं शनि कॆ प्रत्यंतर मॆं गदहा, ऊँट, बकरी की प्राप्ति लॊह.

उद और  तिल की प्राप्ति और  थॊडी पीडा भी हॊती है॥80॥ धनज्ञानमहांल्लाभॊ राज्यराज्याधिकारता ॥ निक्षॆपार्द्धनलॊभॊऽपि शुक्रॆ शुक्रान्तरॆ बुधः ॥81॥ (श.व.)

शुक्र कॆ अंतर मॆं बुध कॆ प्रत्यंतर मॆं धन, ज्ञान का महान लाभ, राज्य वा । राज्याधिकार की प्राप्ति और  व्यापार सॆ धन का लाभ हॊता है॥ 81॥

अल्पमृत्युर्महापीडा दॆशाद्दॆशान्तरागमः । - लाभॊऽपि जायतॆ मध्यॆ शुक्रॆ शुक्रान्तरॆ शिखी ॥82॥ (शु.कॆ.)

। शुक्र कॆ अंतर मॆं कॆतु कॆ प्रत्यंतर मॆं अल्पमृत्यु, अत्यंत पीडा, दॆश सॆ अन्य दॆश की यात्रा और  लाभ हॊता है॥82॥। । इति वृहत्पाराशर हॊरायाः पूर्वखंडॆ सूर्यादिप्रत्यन्तर्दशाफलं समाप्तम।

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अथ सक्ष्मान्तरदशाध्यायः ।

488 अथ सूक्ष्मान्तरदशाध्यायः।

। तत्रादौ सूक्ष्मांतरानयनप्रकारःग्रहवर्षॆण संगुण्यं प्रत्यन्तरघटिकादिकम । । : विंशॊत्तरशतॆनाप्तं सूक्ष्मान्तरदशामितिः ॥1॥

। जिस ग्रह कॆ प्रत्यंतर मॆं जिस ग्रह का सूक्ष्मान्तर लाना हॊ उस ग्रह की दशा वर्ष सॆ प्रत्यन्तर कॆ (घटिकादिपिंडबनाकर) घटिकादि कॊ गुणाकर गुणनफल मॆं 120 का भाग दॆनॆ सॆ लब्धि घटिका और  शॆष कॊ 60 सॆ गुणाकर पुनः 120 का भाग दॆनॆ सॆ फल जॊ प्राप्त हॊता है इस प्रकार घटी-पल वा दिन (यदि घटी 60 सॆ

अधिक हॊ तॊ उसमॆं साठ सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि दिन हॊता है) सूक्ष्म अन्तर हॊता

है॥1॥

उदाहरण-जैसॆ सूर्य कॆ प्रत्यंतर मॆं सूर्यादि ग्रहॊं का सूक्ष्मान्तर लाना है तॊ सूर्य का प्रत्यन्तर 5 दिन 24 घटी हैं। इसका पिड 5460+ 24 = 324 घटी हु‌आ इसॆ सूर्य कॆ दशावर्ष 6 सॆ गुणनॆ 32446 = 1944 हु‌आ इसमॆं 120 का भाग दॆनॆ सॆ लब्धि 16 घटी और  शॆष 24 कॊ 60 गुणनॆ सॆ 2460 = 1440 हु‌आ इसमॆं 120 का भाग दॆनॆ सॆ 12 पल हु‌आ अर्थात सूर्य कॆ प्रत्यंतर घटी पिंड कॊ चन्द्रमा कॆ दशा वर्ष 10 सॆ गणनकर 120 का भाग दॆनॆ सॆ 27 घटी सूर्य कॆ.प्रत्यंतर मॆं चंद्रमा का सूक्ष्मान्तर हु‌आ। इसी प्रकार सभी ग्रहॊं का सूक्ष्मांतर

लाना चाहियॆ।

अथसूर्यप्रत्यंतरॆ सूर्यादीनांसूक्ष्मन्तरदशाफलम्नृणां भूमिपरित्यागॊ. नियतं प्राणनाशनम । ।

स्थाननाशॊ महाहानिः सूर्यसूक्ष्मदशाफलम ॥ 2॥ (सू.सू.)

सूर्य कॆ प्रत्यंतर मॆं सूर्य कॆ सूक्ष्मांतर मॆं मनुष्य कॊ भूमि का त्याग करना पडता है, प्राण नाश की आशंका और  स्थान का नाश हॊता है॥2॥ दॆवब्राह्मणभक्तिश्च नित्यकर्मरतस्तथा॥ सुप्रीतिः सर्वमित्रैश्च रवॆः सूक्ष्मगतॆ विधौ ॥ 3॥ (सू.चं.)

सूर्य कॆ प्रत्यंतर मॆं चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मांतर मॆं दॆवता ब्राह्मण मॆं भक्ति, नित्यकर्म मॆं आसक्ति और  सभी मित्रॊं सॆ सुन्दर प्रॆम हॊता है॥3॥

क्रूरकर्मरतिस्तिग्मशत्रुभिः ।, परिपीडनम । रक्तस्रावादिरॊगश्च रवॆः सूक्ष्मगतॆ कुजॆ ॥4॥ (सू. म.)

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । .. . सूर्य कॆ प्रत्यंतर मॆं भौम कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं क्रूरकर्म मॆं आसक्ति, शत्रु‌ऒं सॆ पीडा

और  रक्तस्राव कॆ रॊग हॊतॆ हैं॥4॥

चौराग्निविषभीतिश्च रणॆ भंगः पराजयः । दानधर्मादिहीनश्च रवॆः सूक्ष्मगतॆ ह्यगौ ॥5॥ (सू.रा.) । सूर्य कॆ प्रत्यंतर मॆं राह कॆ सूक्ष्मांतर मॆं चॊर, अग्नि, विष सॆ भय, संग्राम मॆं विफलता वा पराजय और  दान-धर्म सॆ हीन हॊता है॥5॥

नृपसत्कारराजार्हः सॆवकैः परिपूजितः । ... राजचक्षुर्गतः शान्तः सूर्यसूक्ष्मगतॆगुरौ ॥6॥ (सू.वृ.)

सूर्य कॆ प्रत्यंतर मॆं गुरु कॆ सूक्ष्मांतर मॆं राजा कॆ समान सत्कार, नौकरॊं सॆ पूजित और  राजा का कृपापात्र और  शांत हॊता है॥6॥

धैर्यसाहसकर्मार्थं दॆवब्राह्मणपीडनम । स्थानच्युतिं मनॊदुःखं रवॆः सूक्ष्मगतॆशनौ ॥7॥ (सू. श.)

सूर्य कॆ प्रत्यंतर मॆं शनि कॆ सूक्ष्मांतर मॆं धैर्य और  साहस कॆ कार्य कॆ लियॆ दॆवता और  ब्राह्मण का पीडन, स्थान की हानि और  मन मॆं दु:ख हॊता है॥7॥ । दिव्याम्बरादिलब्धिश्च दिव्यस्त्रीपरिभॊगता ।

अचिंतितार्थसिद्धिश्च रवॆः सूक्ष्ममतॆ बुधॆ ॥8॥ (सू.बु.) । सूर्य कॆ प्रत्यंतर मॆं बुध कॆ सूक्ष्मांतर मॆं दिव्य वस्त्र आदि की प्राप्ति, दिव्य स्त्री का यॊग और  अचिंतित कार्य की सिद्धि हॊती है॥8॥।

गुरुतात्तिविनाशश्च । भृत्यदारभवस्तथा । । क्वचित्सॆवकसम्बन्धॊ रवॆः सूक्षातॆध्वजॆ ॥9॥ (सू.कॆ.)

सूर्य कॆ प्रत्यंतर मॆं कॆतु कॆ सूक्ष्मांतर मॆं गौरव नौकर और  स्त्री जनित दु:ख का नाश और  कभी किसी सॆवक सॆ संबंध भी हॊता है॥9॥। पुत्रमित्रकलत्रादिसौख्यसम्पन्न ऎवं च । । नानाविद्या च सम्पत्ती रवॆः सूक्ष्मगतॆ भृगौ ॥10॥ (सू. शु.)

सूर्य कॆ प्रत्यंतर मॆं शुक्र कॆ सूक्ष्मांतर मॆं पुत्र, मित्र, स्त्री आदि का सुख सम्पन्न । हॊता है और  अनॆक प्रकार की सम्पत्ति का लाभ हॊता है॥10॥।

इति रवौ सूक्ष्मांतरफलम॥

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अथ सक्ष्मान्तरदशाध्यायः ।

अथचंद्राप्रत्यंतरॆचंद्रादीनांसूक्ष्मांतरफलम्भूषणं भूमिलाभश्च सन्मानं नृपपूजनम । तामसत्वं गुरुत्वं च चन्दसूक्ष्मदशाफलम ॥11॥ (चं.चं.) . चन्द्रमा कॆ प्रत्यन्तर मॆं चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं आभूषण तथा भूमि का लाभ, सन्मान और  राजा सॆ पूजन, तामस और  गुरुता हॊता है॥11॥ दुःखं शत्रुविरॊधश्च कुक्षिरॊगः पितुर्मृतिः । वातपित्तकफॊद्रॆकः शशिसूक्ष्मगतॆ कुजः ॥12॥ (चं.मं.)

चन्द्रमा कॆ प्रत्यंतर मॆं भौम कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं दु:ख, शत्रु सॆ विरॊध, कुक्षीस्थान मॆं रॊग, पिता की मृत्यु और  वात-पित्त-कफ का रॊग हॊता है॥12॥।

क्रॊधनं मित्रबंधूनां दॆशत्यागॊ धनक्षयः । विदॆशान्निगडप्राप्तिरिन्दुसूक्ष्मगतॆत्यहौ , ॥13॥ (चं.स.)

चन्द्रमा कॆ प्रत्यंतर मॆं राहु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं मित्र तथा बन्धु‌ऒं सॆ द्वॆष, दॆश का त्याग, धन का नाश, विदॆश मॆं बंधन हॊता है॥13॥ छत्रचामर संयुक्तं वैभवं पुत्रसम्पदः । सर्वत्र सुखमाप्नॊति चन्द्रसूक्ष्मगतॆगुरौ ॥14॥ (चं.रा.)

* चन्द्रमा कॆ प्रत्यंतर मॆं गुरु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं छत्र-चामर युक्त राज वैभव कॊ प्राप्ति पुत्र का लाभ और  सुख हॊता है॥14॥।

राजॊपद्रवनाशः स्याद्व्यवहारॆ धनक्षयः ॥ चौरत्वं विप्रतिश्च चन्द्रसूक्ष्मगतॆ शौ ॥15॥ (च.श.)

चन्द्रमा कॆ प्रत्यन्तर मॆं शनि कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं राजा कॆ उपद्रव सॆ हानि, रॊजगार मॆं धन की हानि, चॊरी और  ब्राह्मण सॆ भय हॊता है॥15॥

राजमानं वस्तुलाभं’ विदॆशाद्वाहनादिकम । . पुत्रपौत्रसमृद्धिश्च चन्द्र सूक्ष्मगतॆ बुधॆ ॥16॥ (च..) .. चन्द्रमा कॆ प्रत्यन्तर मॆं बुध कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं राजा सॆ प्रतिष्ठा, वस्तु का लाभ, विदॆश सॆ वाहनादि का लाभ और  पुत्र-पौत्र आदि समृद्धि का लाभ हॊता है॥16॥

आत्मनॊ वृत्तिहननं सस्यशृंगवृषादिभिः ॥ । अग्निसूर्यादिभीतिः स्याच्चन्द्रसूक्ष्मगतॆध्वजॆ ॥17॥(च.कॆ.)

चन्द्रमा कॆ प्रत्यन्तर मॆं कॆतु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं धान्य मृग और  बॆल आदि सॆ

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वृहत्पाराशरहॊसशास्त्रम ॥ अपनॆ वृत्ति का उच्छॆद, और  अग्नि तथा सूर्य सॆ भय हॊता है॥17॥ .. विवाहॊ, भूमिलाभश्च वस्त्राभ्रणवैभवम ।

राज्यलाभश्च कीर्तिश्च चन्द्रसूक्ष्मगतॆ भृगौ ॥18॥ (चं.शु.) .. चन्द्रमा कॆ प्रत्यन्तर मॆं शुक्र कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं विवाह, भूमि का लाभ, वस्त्र, आभूषण आदि वैभव, राज्यलाभ और  यश हॊता है॥18॥।

क्लॆशात्क्लॆशः कार्यनाशः पशुधान्यधनक्षयः । । गात्रवैषम्यभूमिश्च । चन्द्रसूक्ष्मगतॆ , रवौ ॥19॥ (चं.सू.)

। चन्द्रमा कॆ प्रत्यन्तर मॆं सूर्य कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं क्लॆश सॆ क्लॆश, कार्य की हानि, । पशु, धान्य और  पशु. का नाश, शरीर तथा भूमि मॆं विषमता हॊती हैं॥19॥

. इति चन्द्रसूक्ष्मान्तर फलम।

अथ भौम प्रत्यन्तरॆ भौमादीनां सूक्ष्मान्तर फलम - भूमिहानिर्मनः खॆदॊह्यपस्मारी च बंधुयुक । पुरक्षॊभमनस्तापॊ भौमसूक्ष्मदशाफलम ॥20॥ (मॆ.मं.)

भौम कॆ प्रत्यन्तर मॆं भौम कॆ सूक्ष्म अंतर मॆं भूमि की हानि, चित्त मॆं खॆद, मृगी रॊग, बंधु सॆ युक्त, ग्राम सॆ क्षॊभ और  मन मॆं संताप हॊता है॥20॥।

अङ्गदॊषॊ जनाद्धीतिः . प्रमदावंशनाशनम । वह्निसर्पभयं घॊरं , भौमसूक्ष्मगतॆप्यहौ ॥21॥ (म.रा.)

भौम कॆ प्रत्यन्तर मॆं राहु कॆ सूक्ष्म‌अन्तर मॆं किसी अंग मॆं विकार लॊगॊं सॆ भय,. कन्याकी हानि, और  अग्नि तथा सर्प सॆ बडा भय हॊता है॥21॥

दॆहपूजारतिश्चान्त्र मंत्राभ्युत्थानतत्परः । लॊकपूज्यं प्रमादं च भौमसूक्ष्मगतॆ गुरौ ॥22॥ (मं.वृ.) । भौम कॆ प्रत्यंन्तर गुरु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं दॆह की पूजा, मंत्र साधन मॆं रति, लॊक सॆ पूजा और  प्रमाद हॊता है॥22॥

बंधनान्मुच्यतॆ बद्धॊ धनधान्यपरिच्छदः । । भृत्यार्थबहुलः श्रीमान्भौमसूक्ष्मगतॆ शनौ ॥23॥ (मं.श.)

भौम कॆ प्रत्यन्तर मॆं शनि कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं बंधन सॆ मुक्ति, धनं, धान्य, नौकर आदि विशॆष हॊतॆ हैं॥23॥

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अथ सक्ष्मान्तरदशाध्यायः ।

484 ’वाहनं छत्रसंयुक्तं राज्यभॊगपरं सुखम ॥

कासश्वासादिका पीडा भौमसूक्ष्मगतॆ बुधॆ ॥24॥ (मं.बु.)

. भौम कॆ प्रत्यन्तर मॆं बुध कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं वाहन, छत्र आदि राज्य कॆ सुख कां लाभ और  सुख तथा कासश्वास सॆ पीडा हॊती है॥24॥

परप्रॆरितबुद्धिश्च सर्वंत्रापि च गर्हितः ॥ अशुचिः सर्वकार्यॆषु भौमसूक्ष्मगतॆ ध्वजॆ ॥25॥ (म.कॆ.) . भौम कॆ प्रत्यन्तर मॆं कॆतु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं दूसरॆ की प्रॆरणा वाली बुद्धि, सर्वत्र ’निंदा और  सभी कार्यॊं मॆं असफलता हॊती है॥25॥

इष्ट स्त्रीभॊगसम्पत्तिरिष्टभॊजनसंग्रहः । इष्टार्थश्चैव लाभश्च भौमसूक्ष्मगतॆ भृगौ ॥26॥ (मं.शु.) । भौम कॆ प्रत्यंतर मॆं शुक्र कॆ सूक्ष्मांतर मॆं अभीष्ट स्त्री का सुख, सम्पत्ति अभीष्ट भॊजन का लाभ और  अभीष्ट की सिद्धि हॊती है॥26॥

राजद्वॆषॊद्विजात्क्लॆशः कार्याभिप्रायवंचकः । लॊकॆऽपि निंद्यतामॆति भौमसूक्ष्मगतॆ रवौ ॥ 27॥ (मं.सू.)

भौम कॆ प्रत्यंतर मॆं सूर्य कॆ सूक्ष्मांतर मॆं राजा सॆ शत्रुता, ब्राह्मण सॆ कष्ट, कार्य कॆ अभिप्राय सॆ रहित और  लॊक मॆं निंदा हॊती है॥27॥ . शुद्धत्वं धनसंप्राप्तिर्दॆवब्राह्मणवत्सलः ॥

व्याधिना परिभूयॆत. भौमसूक्ष्मगतॆविधौ ॥ 28॥ (म.च.)

। भौम कॆ प्रत्यंतर मॆं चंद्रमा कॆ सूक्ष्मांतर मॆं चित्त मॆं शुद्धता, धन का लाभ, दॆवता ब्राह्मण मॆं प्रॆम और  व्याधि सॆ पीडित हॊता है॥28॥

इति भौम सूक्ष्मांतरफलम।

अथ राहु प्रत्यन्तरॆ राद्वादीनांसूक्ष्मांतरफलम्लॊकॊपद्रवबुद्धिश्च स्वकार्यॆ मतिविभ्रमः । शून्यता चित्तदॊषः स्याद्राहॊः सूक्ष्मदशाफलम ॥29॥ (रा.) । राहु कॆ प्रत्यंतर मॆं राहु कॆ सूक्ष्मांतर मॆं उपद्रव करनॆ की बुद्धि, बुद्धि मॆं भ्रम, शून्यता हॊती है॥29॥।

दीर्घरॊगी . दरिद्रश्च सर्वॆषां प्रियदर्शनः ॥ दानधर्मरतः शस्तॊ राहॊः सूक्ष्मगतॆ गुरौ ॥30॥ (रा.वृ.)

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । राहु कॆ प्रत्यंतर मॆं गुरु कॆ सूक्ष्मांतर मॆं दीर्घ रॊग, दरिद्रता, सबका दर्शन प्रिय, और  दानादि मॆं आसक्त हॊता हैं॥30॥ कुमार्गाकुत्सितॊयश्च दुष्टश्च परसॆवकः ॥ असत्संगमतिमूढॊ राहॊः सूक्ष्मगतॆ शनौ ॥31॥ (रा.श.) । राहु कॆ प्रत्यंतर मॆं शनि कॆ सूक्ष्मांतर मॆं कुमार्ग सॆ निंदित, उग्रस्वभाव दुष्ट और  दूसरॆ का सॆवक और  दुष्टॊं का संग साथ हॊता है॥31॥। स्त्रीसंभॊगमतिर्वाग्मी लॊकसम्भावनावृतः । अन्नमिच्छंस्तनुम्लानी राहॊः सूक्ष्मगतॆ बुधॆ ॥ 32॥ (रा.बु.) - राहु कॆ प्रत्यंतर मॆं बुध कॆ सूक्ष्मांतर मॆं स्त्री प्रसंग की बुद्धि, संसार मॆं विख्यात हमॆशा अन्न की चिंता सॆ युक्त हॊता है॥32॥।

माधुर्यं मानहानिश्च बंधनं चाप्रमादकम ॥ पारुष्यं जीवहानिश्च राहॊः सूक्ष्मगतॆ ध्वजॆ ॥33॥ (रा.कॆ.)

राहु कॆ प्रत्यंतर मॆं कॆतु कॆ सूक्ष्मांतर मॆं मधुरस्वभाव, मानहानि, बंधन, कठॊरता और  किसी जीव की हानि हॊती है॥33॥। बंधनान्मुच्यतॆ वद्धः स्थानमानार्थसंचयः ॥ कारणद्रव्यलाभश्च राहॊः सूक्ष्मगतॆ भूगौ ॥34॥ (रा.शु.)

राहु कॆ प्रत्यंतंर मॆं शुक्र कॆ सूक्ष्मांतर मॆं बंधन सॆ मुक्ति, स्थान, यश, धन । का लाभ और  भाग्यॊदय हॊता है॥34॥ व्यक्ताशॊं गुल्मरॊगश्च क्रॊधहानिस्तथैव च । । वाहनादिसुखं सर्वं राहॊः सूक्ष्मगतॆ । रवौ ॥ 35॥ (रा.सू.) . ’राहु कॆ प्रत्यंतर मॆं सूर्य कॆ सूक्ष्मांतर मॆं अर्श (बवासीर) गुल्म रॊग, क्रॊध और  वाहनादि कॆ सुख की हानि हॊती है॥35॥ . मणिरत्नधनावाप्तिर्विद्यॊपासनशीलवान । दॆवार्चनपरॊभत्या राहॊः सूक्ष्मगतॆ विधौ ॥ 36॥ (रा.चं.)

राहु कॆ प्रत्यन्तर मॆं चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं मणि, रत्न, धन की प्राप्ति, विद्या की उपासना और  भक्ति सॆ दॆवता की पूजा हॊती है॥36॥ निर्जितं जनविद्रावॊ जनॆ क्रॊधश्च बंधनात ॥ चायशलिरतिः नित्यं राहॊः सूक्ष्मगतॆ कुजॆ ॥ 37॥ (रा.म.)

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अथ सक्ष्मान्तरदशाध्यायः ।

 4819 । राहु कॆ प्रत्यन्तर मॆं भौम कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं मनुष्यॊं सॆ विद्रॊह, पराजय, जन - समुदाय का क्रॊध भाजन, बंधन और  चौर भय हॊता है॥37॥

इति राहु सूक्ष्मन्तरफलम॥ अथ गुरु प्रत्यन्तरॆ गुर्वादीनांसूक्ष्मान्तरफलम - शॊकनाशॊ धनाधिक्यमग्निहॊत्रं शिवार्चनम ॥ वाहनक्षत्रसंयुक्तं जीवसूक्ष्मदशाफलम ॥38॥ (वृ.कृ.) । गुरु कॆ प्रत्यन्तर मॆं गुरु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शॊक का नाश, धन का लाभ, शिव का पूजन, वाहन और  क्षॆत्र का लाभ हॊता है॥38॥

व्रतही सूर्यवर्ती च विदॆशॆ वसुनाशनम । विरॊधॊ धननाशश्च गुरॊः सूक्ष्मगतॆ शनौ ॥ 39॥ (वृ.शॆ.) । गुरु कॆ प्रत्यन्तर मॆं शनि कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं व्रत का छूट जाना, विदॆश मॆं धन का नाश, शत्रुता और  धन की हानि हॊती है॥39॥ विद्यामानयशप्राप्तिः धनागमनमॆव च । नित्यॊत्सवस्तुसंजातः गुरॊः सूक्ष्मगतॆ बुधॆ ॥40 ॥ (वृ.बु.)

गुरु कॆ प्रत्यंतर मॆं बुध कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं विद्या, मान और  यश का लाभ, धन का आगमन और  नित्य उत्सव हॊता रहता है॥40॥ ।

ज्ञानं विभवपाणिडत्य शास्त्रश्रॊता शिवार्चनम । अग्निहॊत्रं गुरॊर्भक्तिर्गुरॊः सूक्ष्मगतॆ ध्वजॆ ॥41॥ (वृ.कॆ.)

गुरु कॆ प्रत्यंतर मॆं कॆतु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं ज्ञान मॆं वृद्धि, विभव, पांडित्य, . शास्त्र का अध्ययन, शिव की पूजा और  अग्निहॊत्र और  गुरु भक्ति हॊती है॥41

रॊगान्मुक्तिः सुखं भॊगं धनधान्यसमागमम । पुत्रदारादिकं सौख्यं गुरॊः सूक्ष्मगतॆ भूगौ ॥42॥(पृ.शु.) । गुरु कॆ प्रत्यंतर मॆं शुक्र कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं रॊग सॆ मुक्ति, सुख, भॊग, धन, धान्य का लाभ और  पुत्र स्त्री आदि का सुख हॊता है॥42॥।

वातपित्तप्रकॊष्ठ श्लॆष्मॊद्रॆकस्तु दारूणः । रसव्याधिकृतं शूलं गुरॊः सूक्ष्मगतॆ रवौ ॥43॥ (पृ.सू.)

। गुरु कॆ प्रत्यंतर मॆं सूर्य कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं वायु और  पित्त का प्रकॊप कफ की अधिकता सॆ कष्ट और  रसदॊष सॆ शूलरॊग हॊता है॥43॥

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ छत्रचामरसंयुक्तं वैभवं पुत्रसम्पदः । नॆत्रकुक्षिगता पीडा गुरॊः सूक्ष्मगतॆ विधौ ॥44॥ (वृ.चं.) . गुरु कॆ प्रत्यंतर मॆं चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं छत्र, चामर सॆ युक्त, वैभव का लाभ, पुत्र सुख, नॆत्र और  कॊख (कुक्षि) मॆं पीडा हॊती है॥44॥। स्त्रीजनाच्चविषॊत्पत्तिर्वधनं चातिनिग्रहम ॥ दॆशांतरगमॊ भ्रांतिगुरॊः सूक्ष्मगतॆ कुजॆ ॥45॥ (वृ.मं.) । गुरु कॆ प्रत्यंतर मॆं भौम कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं स्त्रियॊं कॆ द्वारा कलह, बंधन और  अत्यंत विग्रह, दॆशान्तर की यात्रा और  भ्रान्ति हॊती है॥45॥ व्याधिभिः परिभूतः स्याच्चौरॊपहृतं धनम । सर्पवृश्चिकदंष्टत्वं गुरॊः सूक्ष्मगतॆऽप्यहौ ॥46॥ (वृ.रा.)

- गुरु कॆ प्रत्यन्तर मॆं राह कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं व्याधियॊं सॆ दु:खी, चॊरॊं द्वारा धन का अपहरण और  सर्प-बिच्छ कॆ काटनॆ का भय हॊता है॥46॥

। - इति गुरु सूक्ष्मांतर फलम।

अथ शनि प्रत्यंतरॆ शन्यादीनां सूक्ष्मान्तर फलम - धनहानिर्महाव्याधिः वायुपीडां कुलक्षयः । भिक्षाहारी महादुःखी मंदसूक्ष्मदशाफलम ॥47॥ (श.श.) * शनि प्रत्यंतर मॆं शनिसुक्ष्मान्तर मॆं धन की हानि, महाव्याधि, वायु पाडा, कुल का नाश और  भिक्षा का भॊजन तथा बडा दु:खी हॊता

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है॥47॥

वाणिज्यवृत्तॆलभिश्च विद्याविभवमॆव च । । स्त्रीलाभश्च महीप्राप्तिः शनॆः सूक्ष्मगतॆबुधॆ ॥48॥ (श.बु.) । शनि कॆ प्रत्यंतर मॆं बुध कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं व्यापार मॆं लाभ, विद्या और  वैभव, स्त्री का लाभ और  पृथ्वी कॊ लाभ हॊता है॥48॥। चौरॊपद्रवकुष्ठादि , वृत्तिक्षयविगुंफनम ॥ सर्वाङ्गपीडनं व्याधिः शनिसूक्ष्मगतॆ. ध्वजॆ ॥49॥ (श.कॆ.)

शनि कॆ प्रत्यंतर मॆं कॆतु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं चॊरी का भय, कुष्ठरॊग, वृत्ति की.

 हानि, कुंठता, सर्वांग मॆं पीडा और  व्याधि हॊती है॥49 ॥

468

अथ सक्ष्मान्तरदशाध्यायः । ऐश्वर्यमायुधाम्यासं पुत्रलाभॊभिषॆचनम ।

आरॊग्यं धनकामौ च शनिसूक्ष्मगतॆ भृगौ ॥50॥ (श.शु.)

 शनि कॆ प्रत्यंतर मॆं कॆतु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं ऐश्वर्य का लाभ, आयुध का अभ्यास, पुत्र का लाभ, अभिषॆक, आरॊग्यता आदि हॊता है॥50॥ राजतॆजॊविकारत्वं स्वगृहॆ जायतॆ कलिः । किंचित्पीडा स्वदॆहॊत्था शनिसूक्ष्मगतॆ रवौ ॥51॥ (श.सू.) । शनि कॆ प्रत्यंतर मॆं सूर्य कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं राज कार्य मॆं विकार, अपनॆ घर मॆं कलि, अपनॆ शरीर मॆं कुछ पीडा हॊती हैं। ।51॥।

स्फीतबुद्धिर्महारम्भॊ मदं तॆजॊ बहुव्ययः ॥ स्त्रीपुत्रैश्च समं सौख्यं शनिसूक्ष्मगतॆ विधौ ॥52॥ (श.चं.) । शनि कॆ प्रत्यंतर मॆं चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं संगीत का प्रॆम, किसी बडॆ कार्य का आरम्भ, यज्ञ मॆं कमी, द्रव्य का भय और  स्त्री पुत्र का सुख हॊता है॥52॥

नॆत्रॊहानिर्महॊद्वॆगॊ वह्निक्षयभ्रमॊ कलिः । * वातपित्तकृतापीडा शनॆः सूक्ष्मगतॆ कुजॊ ॥53॥ (श.मं.)

शनि कॆ प्रत्यंतर मॆं भौम कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं नॆत्र की हानि, उद्वॆग, मंदाग्नि, क्षय, भ्रम, झगडा और  वात पित्त सॆ कष्ट हॊता है॥53॥

पितृमातृविनाशश्च मनॊदुःखं गुरुव्ययम । । सर्वत्र विफलं स्यात्तु - शनिसूक्ष्मगतॆप्यहौ ॥54॥ (श, रा.)

। शनि कॆ प्रत्यंतर मॆं राहु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं पिता-माता की हानि, मन मॆं दु:ख, अधिक व्यय, और  सब जगह विफलता हॊती है॥54॥।

सन्मुद्राभॊगसन्मानं धनधान्यबिवर्धनम । । छत्रचामरसम्प्राप्तिः शनॆः सूक्ष्मगतॆ गुरौ ॥55॥ (श...) । शनि कॆ प्रत्यन्तर मॆं गुरु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं द्रव्य का लाभ, धन धान्य की वृद्धि और  छत्र चामर का लाभ हॊता है॥55॥

। इति शनि सूक्ष्मान्तर फलम। । अथ बुध प्रत्यंतरॆ बुधादीनां सूक्ष्मान्तर फलम - सौभाग्यंराजसम्मानं धनधान्यादिसम्पदः । सर्वॆषां प्रियदर्शी च बुधसूक्ष्मदशाफलम ॥56॥ (बु.बु.)

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । बुध कॆ प्रत्यन्तर मॆं बुध कॆ सुक्ष्मांतर मॆं भाग्यॊदय, राजा सॆ सम्मान की प्राप्ति, .. धन धान्य का लाभ और  सबका प्रिय हॊता है॥56॥ बालग्रहाग्निभीस्तापः स्त्रीमदॊद्भवदॊषभाक । कुमार्गी कुत्सिताशी च बुधसूक्ष्मगतॆध्वजॆ ॥57॥ (बु.कॆ.)

बुध कॆ प्रत्यंतर मॆं कॆतु कॆ सूक्ष्मांतर मॆं बालग्रह तथा. अग्नि सॆ भय, ज्वर, स्त्री कॆ रजॊविकार सॆ कष्ट, कुमार्ग मॆं प्रवृत्ति और  निंदित आन्नॊं का भॊजन हॊता है॥57॥

वाहनंधनसम्पत्तिर्जलजान्नार्थसम्भवः शुभकीर्त्तिर्महाभॊगॊ

। बुधवूक्ष्मगतॆ भृगौ ॥58॥ (बु.शु.) बुध कॆ प्रत्यंतर मॆं शुक्र कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं वाहन, धन, सम्पत्ति और  जलस उत्पन्न हॊनॆ वालॆ अन्न और  द्रव्य का लाभ, यशॊवृद्धि और  महाभॊग प्राप्त हॊता है॥58॥ । । ताडनं नृपवैषम्यं बुद्धिस्खलनरॊगभाक ।

हानिर्जनापवादं

। च बुधसूक्ष्मगतॆ : रवौ ॥59॥ (बु.सू.) । बुध कॆ प्रत्यंतर मॆं सूक्ष्मांतर मॆं ताडना, राजा सॆ शत्रुता, मंदबुद्धि हॊनॆ का रॊग, हानि और  जनापवाद (कलंक) हॊता है॥59॥

 सुभगः स्थिरबुद्धिश्च : राजसन्मानसम्पदः ।

सुहृदां गुरुसंस्कारॊ बुधसूक्ष्मगतॆ विधौ ॥ 60 ॥ (बु.चं.) : : । बुध कॆ प्रत्यंतर मॆं चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं सौभाग्य, स्थिर बुद्धि, राजा सॆ सन्मान और  संपत्ति का लाभ और  मित्रॊं का समागम हॊता है॥60 ॥।

अग्निदाहं विषॊत्पत्तिर्जडत्वं च दरिद्रता ॥ विभ्रमश्चः महॊद्वॆगॊ बुधसूक्ष्मगतॆ कुजॆ ॥61॥ (बु.मं.), _ बुध कॆ प्रत्यंतर मॆं भौम कॆ सूक्ष्मांतर मॆं अग्नि सॆ जलनॆ का तथा विष का भय, जडता, दरिद्रता, भ्रम और  बडा उद्वॆग हॊता है॥61॥

अग्निसर्पनृपाद्भीतिः कृच्छ्वादरिपराभवः । । भूतावॆशभ्रमाद्धांतिबुधसूक्ष्मगतॆप्यहौ , ॥62॥ (बु.रा.)

बुध कॆ प्रत्यंतर मॆं राहु कॆ सूक्ष्मांतर मॆं अग्नि, सर्प और  राजा सॆ भय। कष्ट 3 का पराभव, भूत का आवॆश और  भ्रम सॆ भ्रान्ति हॊता है॥ 62 ॥

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अथ सक्ष्मान्तरदशाध्यायः ।

571 ग्रहॊपकरणं भव्यं त्यागं भॊगादिवैभवंम । । राजप्रसादसम्पत्तिबुधसूक्ष्मगतॆ भगौ ॥ 63 ॥ (बु.यू.)

बुध कॆ प्रत्यंतर मॆं गुरु कॆ सूक्ष्मांतर मॆं गृह कॆ सुन्दर उपकरणॊं का लाभ। त्याग भाव वैभव, राजा की प्रसन्नता सॆ सम्पत्ति का लाभ हॊता है॥63॥ । वाणिज्यवृत्तिलाभस्च विद्याविभवमॆव च ।

स्त्रीलाभश्च महाव्याधिबुधसूक्ष्मगतॆ. शनौ ॥64॥ (बु.श.) , बुध कॆ प्रत्यंतर मॆं शनि कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं व्यापार सॆ लाभ, विद्या और  वैभव का लाभ, स्त्री का लाभ और  महाव्याधि की संभावना हॊती है॥64॥।

इति बुधसूक्ष्मांतर फलम। अथ कॆतॊः प्रत्यन्तरॆ कॆत्वादीनां सूक्ष्मान्तरफलम - पुत्रदारादिजं दुःखं गात्रवैषम्यमॆव च । दारिद्राद्भिक्षुवृत्तिश्च कॆतॊ:सूक्ष्मदशाफलम ॥65॥(कॆ.कॆ.)

। कॆतु कॆ प्रत्यंतर मॆं कॆतु कॆ ही सूक्ष्मांतर मॆं पुत्र, स्त्री जन्मादि दु:ख, शरीर मॆं विकलता और  दरिद्रता सॆ भिक्षुक वृत्ति हॊती है॥65॥ रॊगनाशॊऽर्थलाभश्च । गुरुविषानुवत्सलः । संगमः स्वजनैः साधॆ कॆतॊः सूक्ष्मगतॆ भृगौ ॥66॥ (कॆ.शु.) :

कॆतु कॆ प्रत्यंतर मॆं शुक्र कॆ सूक्ष्मांतर मॆं रॊग का नाश, धन का लाभ, गुरु । और  ब्राह्मण सॆ प्रॆम और  स्वजनॊं का समागम हॊता है॥66॥ । पुत्रभूमिविनाशश्च विप्रवासः स्वदॆशतः ॥

सुहृह्निपत्तिरार्तिश्च कॆतॊः सूक्ष्मगतॆ रवौ ॥67॥ (कॆ.सू.) । कॆतु कॆ प्रत्यंतर मॆं सूर्य कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं पुत्र-भूमि की हानि, स्वदॆश सॆ प्रवास मित्र की विपत्ति और  पीडा हॊती है॥67॥

दासीदाससमृद्धिश्च युद्धॆ लब्धिर्जयस्तथा ।

ललिता कीर्तिरूत्पन्ना कॆतॊः सूक्ष्मगतॆ विधौ ॥68॥ (कॆ.च.), । कॆतु कॆ प्रत्यंतर मॆं चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मांतर मॆं दासी, नौकर और  समृद्धि का लाभ, युद्ध मॆं द्रव्यलाभ और  विजय और  सुन्दर कीर्ति हॊती है॥6 ॥


467 ..

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । आसनॆ भयमश्वादॆश्चौरदुष्टादिपीडनम ॥ गुल्मपीडा शिरॊरॊगः कॆतॊः सूक्ष्मगतॆ कुजॊ ॥69॥ (कॆ.मं.)

 कॆतु कॆ प्रत्यंतर मॆं भौम कॆ सूक्ष्मांतर मॆं आसन और  घॊडॆ सॆ भय चॊर और  . दुष्टॊ सॆ पीडा, गुल्मरॊग और  शिर मॆं पीडा हॊती है॥69॥

विनाशः स्त्रीगुरुणां च दुष्टस्त्रींसंगमाल्लघुः ।

वमनं रुधिरं पित्तं कॆतॊः सूक्ष्मगतॆऽप्यगौ ॥70॥ (कॆ.रा.) । कॆतु कॆ प्रत्यंतर मॆं राहु कॆ सूक्ष्मांतर मॆं स्त्री तथा गुरु का नाश, दुष्ट स्त्री कॆ

संग सॆ अपयश और  रुधिर तथा पित्त का वमन हॊता है॥70 ॥।

वैरं विरॊध सम्पत्तिः सहसा राजवैभवम ॥ पशुक्षॆत्रविनाशस्यात्कॆतॊः सूक्ष्मगतॆ . गुरौ ॥71॥ (कॆ.बू.)

कॆतु कॆ प्रत्यंतर. मॆं गुरु कॆ सूक्ष्मांतर मॆं वैर, विरॊध हॊता है, सहसाराज वैभव का लाभ और  पशु, क्षॆत्र की हानि हॊती है॥71॥

मृषापीडां भवॆत्क्षुद्रसुतॊत्पत्तिश्चलंघनम । स्त्रीविरॊधः सत्यहानिः कॆतॊः सूक्ष्मगतॆ शनौ ॥72॥ (कॆ.श.) " कॆतु कॆ प्रत्यंतर मॆं शनि कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं व्यर्थ ही पीडा, दुष्ट पुत्र की उत्पत्ति लंघन, स्त्री सॆ विरॊध और  सत्य की हानि हॊती है॥72॥ : नानाविधजनाप्तिश्च विप्रयॊगॊऽरिपीडनम । .. अर्थसम्पत्समृद्धिश्च कॆतॊः सूक्ष्मगतॆ बुधॆ ॥73॥ (कॆ.बु.)

। कॆतु कॆ प्रत्यन्तर मॆं बुध कॆ सूक्ष्मांतर मॆं अनॆक लॊगॊं सॆ संयॊग और  वियॊग, शत्रु सॆ पीडा और  धन-सम्पत्ति की वृद्धि हॊती है॥73॥

इति कॆतु सूक्ष्मांतर फलम। - अथशुक्रप्रत्यन्तरॆशुकादीनांसूक्ष्मान्तरफलम - शत्रुहानिर्महॊत्सौख्यं शंकरालयसम्भवम । तडागकूपनिर्माणं शुक्रसूक्ष्मदशाफलम ॥74॥(शु.शु.)

शुक्र कॆ प्रत्यन्तर मॆं शुक्र कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शत्रु की हानि, अपार सुख, शंकर कॆ मंदिर का निर्माण वा तालाब कु‌आँ कॆ निर्माण की संभावना हॊती हैं॥74॥ उरस्तापॊ भ्रमश्चैव. गतागतविचॆष्टितम । कचिल्लाभः कृचिद्धानिर्भुगॊः सूक्ष्मगतॆरवौ ॥75॥ (शु.सू.)

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डत्वं रिपुवैषम्यवर्धगॊः सूक्ष्म जडत, शत्रु सॆ

। अथ सक्ष्मान्तरदशाध्यायः । शुक्र कॆ प्रत्यन्तर मॆं सूर्य कॆ सूक्ष्मांतर मॆं उरु प्रदॆश मॆं रॊग भ्रम, गमनागमन की चॆष्टा, कभी लाभ और  कभी हानि हॊती है॥75 ॥

आरॊग्यं धनसम्पत्तिः कार्यलाभॊगतागतैः। वैरिकापारबुद्धिः स्याद्भृगॊः सूक्ष्मगतॆ विधौ ॥76॥ (शु.चं.)

. शुक्र कॆ प्रत्यन्तर मॆं चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं आरॊग्यता, धन सम्पत्ति का लाभ गमनागमन सॆ कार्य की सिद्धि, अपार बुद्धि हॊती है॥76॥

जडत्वं रिपुवैषम्यं दॆशभ्रंशॊ महद्भयम ॥ व्याधिदुःखसमुत्यत्तिर्भूगॊः सूक्ष्मगतॆ. कुजॆ ॥77॥ (शु.मं.)

शुक्र कॆ प्रत्यन्तर मॆं भौम कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं जडता, शत्रु सॆ शत्रुता, दॆशत्याग, महाभय, व्याधि और  दुःख की प्राप्ति हॊती है॥77॥::।

राज्याग्निसर्पजाभीतिबन्धुनाशॊ गुरुव्यथा । स्थानच्युतिर्महाभीतिभृगॊः सूक्ष्मगतॆप्यहौ ॥78॥ (शु.रा.)

शुक्र कॆ प्रत्यन्तर मॆं राहु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं राजा, अग्नि और  सर्प सॆ भय, बन्धु का नाश, व्यथा, स्थानच्युति (अवनति) और  महाभय हॊता है॥78॥

सर्वत्रकार्यलाभश्च क्षॆत्रार्थविमनॊन्नतिः ॥ वणिग्वृत्तॆर्महालब्धिर्भूगॊः सूक्ष्मगतॆगुरौ ॥79॥ (शु...)

शुक्र कॆ प्रत्यन्तर मॆं गुरु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं सभी कार्यॊं मॆं लाभ, क्षॆत्र धन और  वैभव की उन्नति और  व्यापार सॆ लाभ हॊता हैं॥79॥।

शत्रुपीडा महद्दुःखं चतुष्पादविनाशनम ॥ स्वगॊत्रगुरुहानिः स्याभृगॊः सूक्ष्मगतॆ शनौ ॥80॥ (शु.)

शुक्र कॆ प्रत्तन्तर मॆं शनि कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शत्रु पीडा, महादु:ख, चौपाया का हानि, अपनॆ गॊत्रजॊं की हानि हॊती है॥80॥।

बांधवादिषु सम्पत्तिर्व्यवहारॊ धनॊन्नतिः । पुत्रदारादितः सौख्यं भृगॊः सूक्ष्मगतॆ बुधॆ ॥81॥ (शु. बु.)

शुक्र कॆ प्रत्यन्तंर मॆं बुध कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं बांधचॊं सॆ सम्पत्ति का लाभ व्यवहार, धनं की उन्नति और  पुत्र स्त्री आदि सॆ सुख हॊता है॥81॥।

समाप्तम।

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । अग्निरॊगॊ महत्पीडा : मुखनॆत्रशिरॊव्यथाः। संचितार्थात्मनः पीडा भृगॊः सूक्ष्मगतॆध्वजॆ ॥82॥ (शु.कॆ.)

शुक्र कॆ प्रत्यन्तर मॆं कॆतु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं जठराग्नि का रॊग, महापीडा, मुख, नॆत्र और  शिर मॆं पीडा और  संचित धन सॆ आत्मा कॊ कष्ट हॊता है॥82॥

इति भृगॊः सूक्ष्मान्तरदशा फलम। ॥ इति वृहत्पाराशर हॊरायाः पूर्वार्धॆ सूर्यादि सूक्ष्मान्तर्दशा फलं

.. .. : समाप्तम। ।

अथ प्राणदशा फलाध्यायः। . तत्रादौ प्राणदशानयन प्रकारःस्वसूक्ष्मदशायाश्चपिंडॆ विघटिकात्मकॆ । स्वाब्दैहतॆ पुनर्भक्तॆ विंशॊत्तरशतॆन च । लब्धं विघटिकाज्ञॆया विपलानिततः परम ॥1॥ ‘ग्रह कॆ सूक्ष्मदशामान की पला बनाकर उसॆ ग्रह कॆ दश वर्ष (जिस ग्रह की प्राणदशा लानी हॊ उस ग्रह कॆ दशा वर्ष सॆ) गुणाकर गुणन फल मॆं 120 का भाग दॆनॆ विघटिकात्मक उस ग्रह की प्राणदशा हॊती हैं॥1॥ । उदाहरण- जैसॆ सूर्य की दशा मॆं सूर्य कॆ अंतर मॆं सूर्य ही कॆ प्रत्यन्तर मॆं सूर्य का सूक्ष्मांतर - 16 घटी 12 पल है इसका पला बनाया तॊ 1660+12 = 972 पल हु‌आ इसॆ सूर्य की दशा वर्ष 6 सॆ गुणाकिया । 5832 हु‌आ इसमॆं 120 का भाग दॆनॆ सॆ लब्धि 36 विपल प्राप्त हु‌आ। आर्थात सूर्य की दशा और  उन्हीं कॆ अंतर-प्रत्यंतर और  सूक्ष्मांतर मॆं सूर्य की प्राण दशा 0 घटी = 48 पल और  36 विषल हॊगी। इसी प्रकार सूक्ष्म कॆ पलात्मक पिंड कॊ चन्द्रमा कॆ दशावर्ष 10 सॆ गुणाकर 9720 मॆं 130 का भाग दॆनॆ सॆ लब्धि 81 पल यानॆ 1 घटी 21 पल 6 विपल यह सूर्य कॆ सूक्ष्मांतर मॆं चन्द्रमा की प्राणदशा हु‌ई। इसी प्रकार अन्य ग्रहॊं कॆ दशा वर्ष सॆ गुणकर भाग दॆनॆ सॆ उन लॊगॊं की प्राणदशा हॊ जाती

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ग्रहाः

। अथ प्राणदशा फलाध्यायः।

सूर्य सूक्ष्मदशामध्यॆप्राणदशा चक्रम। ग्रहाः । सू. चं. मं. रा. वृ.श. । बु. कॆ. शु. यॊ. । [ घट्य । 0 1 0 2 2 2 2 0 2 16 ।

पला, 48215625।9।33।17।5642।12। ॥ विपला । 360 4248।36545242।0 । 2 ।

अथ सूर्य प्राणदशाफलम्पश्चल्यं विषजावाधा शॊषणं विषमॆक्षणम ।

सूर्यप्राणदशायां तु मरणं कृच्छ्रमादिशॆत ॥2॥ (सू.सू.)

सूर्य कॆ सूक्ष्मांतर मॆं सूर्य कॆ प्राण मॆं दुराचार, विष की बाधा, शरीर मॆं शुष्कता, नॆत्र मॆं विकार और  मरण हॊता है॥2॥

सुखं भॊजनसम्पत्तिः संस्कारॊ नृपवैभवम ।

उदारादिकृपाभिश्च रवॆः प्राणगतॆ विधौ ॥3॥ (सू,चं.)

 सूर्य कॆ सूक्ष्मांतर मॆं चन्द्रमा की प्राणदशा मॆं सुख, भॊजन की सामग्री, संस्कार

और  उदार पुरुष की कृपा सॆ राजवैभव की प्राप्ति हॊती है॥3॥

भूपॊपद्रवमन्यार्थॆ द्रव्यनाशॊ महद्भयम । महत्यपचयप्राप्ति रवॆः प्राणगतॆ , कुजॆ ॥4॥ (सू.मं.)

सूर्य कॆ सूक्ष्मांतर मॆं भौम की प्राण दशा मॆं राजा कॆ उपद्रव की वृद्धि, धन की क्षति, भय और  धनादिका अपचय (हानि) हॊता है॥4॥ अन्नॊद्भवा महापीडा विषॊत्पत्तिर्विशॆषतः । अर्थाग्निराजभिः क्लॆशं रवॆः प्राणगतॆप्यहॊ ॥5॥ (सू.रा.)

सूर्य कॆ सूक्ष्मान्तर राहु की प्राणदशा मॆं अन्न सॆ उत्पन्न महापीडा (हैजा आदि) विशॆषत: विष की संभावना, धन, अग्नि और  राजा सॆ कष्ट हॊता है॥5॥

नानाविद्यार्थसम्पत्तिः कार्यलाभॊ गतागतैः । । नीचजनाश्रय नाशॊ रवॆः प्राणगतॆ गुरौ ॥6॥ (सू. वृ.)

सूर्य कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं गुरु की प्राणदशा मॆं अनॆक विद्या, धन सम्पत्ति का लाभ, गमना-गमन सॆ कार्य की सिद्धि और  नीचजनॊं की संगति का नाश हॊता है॥6॥

बंधनं प्राणनाशश्च चित्तॊद्वॆगस्तथैव च । । बहुबाधा महाहानी रवॆः प्राणगतॆ शनौ ॥7॥ (सू.श.) :

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । 1 । सूर्य कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शनि की प्राणदशा मॆं वंधन, प्राण का भय, चित्त मॆं उद्वॆग, अनॆक बाधा और  हानि हॊती है॥7॥

राजान्नभॊगः सततं राजलांछनतत्पदम ।

आत्मासंत्तर्पयॆदॆवं रवॆः प्राणगतॆबुधॆ ॥8॥ (सू.बु.) । । सूर्य कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं बुध की प्राणदशा मॆं निरन्तर राजभॊग राजकीय चिह्नॊं सॆ युक्त और  आत्मा कॊ शान्ति मिलती है॥8॥

अन्यॊन्यं कलहश्चैव वसुहानिः पराजयः ॥ गुरुस्त्रीबंधुहानिश्च सूर्यप्राणगतॆ ध्वजॆ ॥9॥ (सू.कॆ.) । सूर्य कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं कॆतु की प्राणदशा मॆं परस्पर कलह धन की हानि और  पराजय गुरु, स्त्री, बंधु की हानि हॊती हैं॥9॥

राजपूजा धनाधिक्यं स्त्रीपुत्रादिभवं सुखम ॥ । अन्नपानादिभॊगश्च रवॆः प्राणगतॆ भृगौ ॥10॥(सू.शु.)

। सूर्य कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शुक्र की प्राण दशा मॆं राजा सॆ पूजा, धनका विशॆष लाभ, स्त्री पुत्रादि कॊ सुख और  अन्न पानादि का सुख हॊता है॥10॥।

। इति सूर्य प्राणदशाफलम।

। अथ चन्द्रप्राणदशाफलम॥ यॊगाभ्यास समाधिं च स्त्रीपत्रादिसुखं तथा । इति सर्व समासॆन चन्द्रप्राणॆ भवन्ति च ॥11॥ (चं.चं.) ’ चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मांतर मॆं चन्द्रमा की प्राणदशा मॆं यॊगाभ्यास, समाधि, स्त्री पुत्रादि का सुख यहं सब ऎक साथ ही हॊता है॥11॥

क्षयं कुष्टं बंधुनाशं रक्तस्रावान्महद्भयम । . भूतावॆशादि जायॆत चन्द्रप्राणगतॆ कुजॆ ॥12॥ (चं.मं.) . चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मांतर मॆं भौम की प्राणदशा मॆं क्षय रॊग, कुष्ठ रॊग की संभावना,

बंधु का नाश, रक्तस्राव सॆ कष्ट और  भूत आदि का आवॆश हॊता है॥12॥

सर्पभीतिविशॆषण भतॊपद्रववान्सदा ॥ दृष्टिक्षॊभॊमतिभ्रंशश्चन्द्रप्राणगतॆप्यहौ ॥13॥(चं.रा.) । चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मांतर मॆं राहु की प्राणदशा मॆं विशॆषकर सर्प का भय, भूत का उपद्रव, दृष्टि मॆं विकार और  बुद्धि नाश हॊता है॥13॥

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अथ प्राणदशा फलाध्यायः। धर्मबुद्धिः क्षमाप्राप्तिर्दॆवब्राह्मणपूजनम । सौभाग्यं प्रियदृष्टिश्च चन्द्रप्राणगतॆ . गुरौ ॥14॥ (चं.बृ) । चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मांतर मॆं गुरु की प्राणदशा मॆं धर्मबुद्धि, क्षमा की प्राप्ति, दॆवता और  ब्राह्मण का पूजन और  भाग्यॊदय हॊता है॥14॥ सहसा दॆहपतनं शत्रूपद्रववॆदना । अंधत्वं च धनप्राप्तिश्चन्द्रप्राणगतॆ शनौ ॥15॥ (चं.श.)

चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मांतर मॆं शनि की प्राणदशा मॆं अकस्मात शरीर का पतन, शत्रु‌ऒं का उपद्रव, नॆत्रान्धता और  धन का लाभ हॊता है॥15॥

चामरछत्रसंप्राप्ती राज्यलाभॊ नृपात्ततः ॥ समत्वं सर्वभूतॆषु चन्द्रप्राणगतॆ बुधॆ ॥16॥(चं,बु.)

चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मांतर मॆं बुध की प्राणदशा मॆं राजा सॆ चामर छत्र और  राज्य का लाभ और  सभी प्राणियॊं मॆं समदृष्टि हॊती है॥16॥

शस्त्राग्नि रिपुजापीडा विषाग्नि कुक्षिरॊगता। पुत्रदारवियॊगश्च चन्द्रप्राणगतॆ शिखी ॥17॥ (चं.कॆ.)

। चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मांतर मॆं कॆतु की प्राणदशा मॆं शस्त्र, अग्नि और  शत्रु सॆ पीडा, विष भय, कुक्षिगत रॊग और  पुत्र स्त्री सॆ वियॊग हॊता है॥17॥। पुत्रमित्रकलत्राप्तिर्विदॆशाच्चॆ धनागयः। । सुखसम्पत्तिरर्थश्च . चन्द्रप्राणगतॆ भृगौ ॥18॥ (चं.शु.)

चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मांतर मॆं शुक्र की प्राणदशा मॆं पुत्र मित्र स्त्री आदि का लाभ विदॆश सॆ धन का लाभ और  सुख सम्पत्ति का लाभ हॊता है॥18॥ तीव्रदॊषी प्रदॊषी च प्राणहानिर्मनॊरुजम । । दॆशत्यागॊ महाभीतिश्चन्द्रप्राणगतॆ रवौ ॥19॥ (क.सू.)

। चन्द्रमा कॆ सूक्ष्मांतर मॆं सूर्य की प्राणदशा मॆं तीव्र दॊष सॆ प्राणहानि की संभावना दॆश त्याग और  महाभय हॊता है॥19॥

इति चन्द्रप्राणदशाफलम।

। अथ भौमप्राणदंशाफलम्युद्धॆ परजनाद्वद्धः शास्त्रॆण परकॆन वा । मृत्युना मरणं याति भौमॆ प्राणदशा फलम ॥20॥ (मं.मं.)

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ ’- भौम कॆ सूक्ष्मांतर मॆं भौम कॆ प्राणदशा मॆं युद्ध मॆं शत्रु सॆ बँधनॆ वा शत्रु कॆ

शस्त्र सॆ बँधन और  मृत्यु बात तुल्य कष्ट हॊता है॥20॥ , विच्युतः सुतदारादिवंधूपद्रवपीडितः ।

प्राणत्यागॊ विषॆणैव भौमप्राणगतॆप्यहौ ॥21॥ (मं.श.)

भौम कॆ सूक्ष्मांतर मॆं राहु की प्राणदशा मॆं पुत्र स्त्री सॆ रहित, बंधु‌ऒं कॆ उपद्रव सॆ पीडा और  विष सॆ प्राणनाश हॊता है॥21॥

दॆवार्चनपरः श्रीमान्मन्त्रानुष्ठानतत्परः ॥ पुत्रपौत्र सुखावाप्तिभमप्राणगतॆ गुरौ ॥22॥ (मं.वृ.) । औम कॆ सुध्यांतर मॆं गुरु की प्राणदशा मॆं दॆवता का पूजन मॆं तत्पर, लक्ष्मी की प्राप्ति, मन्त्र कॆ अनुष्ठान मॆं तत्पर और  पुत्र-पौत्र कॆ सुख की प्राप्ति हॊती है।133 .

अग्निबाधा भवॆन्मृत्युरर्थनाशः पदच्युतिः ॥ बॆधुभिर्वधुतावाप्तिभमप्राणगतॆ शनौ ॥23॥ (मं.श.)

औम कॆ सूक्ष्मांतर मॆं शनि की प्राणदशा मॆं अग्नि सॆ बाधा, मृत्यु, धन का नाश, पद की अवनति और  भा‌इयॊं सॆ भ्रातत्व का लाभ हॊता है॥23॥।

दिव्याम्बरसमुत्पत्तिर्दिव्याभरणभूषितः । . .. दिव्याङ्गनायाः सम्प्राप्तिमप्राणगतॆ बुधॆ ॥24॥ (मं.बु.)

भौम कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं बुध की प्राशादशा मॆं दिव्यवस्त्र का लाभ, दिव्य आभूषण का लाथ और  दिव्य स्त्री का लाभ हॊता है॥24॥।

पतनॊत्यातपीडा च नॆत्रक्षॊभॊ महद्भयम ।

 . भुजङ्गाच्च महाहानिर्भीम प्राणगतॆ ध्वजॆ ॥25॥ (मं.कॆ.)

.. भौम कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं कॆतु की प्राणदशा मॆं पतन, उत्पात - पीडा, नॆत्र मॆं पौडा महाभय और  सर्प सॆ हानि हॊती है॥25॥

धनधान्यादि सम्पत्तिलकपूजा सुखावहा ॥ । नाना भॊगैर्भवॆद्रॊगी भौम प्राणगतॆ भृगौ ॥26॥ (मं.शु.)

। भौम कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शुक्र की प्राणदशा मॆं धन, धान्य आदि सम्पत्ति का लाभ, लॊक मॆं प्रतिष्ठा और  अनॆक भॊगॊं सॆ रॊग की संभावना हॊती है॥26॥

ऎश्खूशॆश

अथ प्राणदशा फलाध्यायः।

4699 ज्वरॊन्मादः क्षयॊऽर्थस्य राजविद्रॊहसम्भवः ।

दीर्घरॊगॊ दरिद्रः स्याद्भौमप्राणगतॆ रवौ ॥ 27॥ (मं.सू.) .. भौम कॆ सूक्ष्मांतर मॆं सूर्य की प्रशादशा मॆं ज्वर, उन्माद, धन की हानि, राजा

सॆ विद्रॊह की संभावना, दीर्घ रॊग और  दरिद्रता हॊती है॥27॥।

भॊजनादि सुख प्रीतिर्वस्त्राभरण वांछितम । शीतॊष्णव्याधिपीडा च भौमप्राणगतॆ विधौ ॥28॥ (मं.चं.)

। भौम कॆ सूक्ष्मांतर मॆं चंद्रमा की प्राण दशा मॆं भॊजन आदि कॆ सुख का लाभ, । अभीष्ट वस्त्र आभूषण का लाभ और  सर्दी गर्मी सॆ कष्ट हॊता है॥28॥ .

इति भौम प्राणदशा फलम।

अथ राहॊः प्राणदशा फलम्‌अन्नाशनॆ विरक्तश्च विषभीतिस्तथैव च। । सहसाधननाशश्च राहॊः प्राणदशाफलम ॥29॥ (रा.रा.)

राडु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं राहु की प्राण दशा मॆं अन्न भॊजन सॆ विरक्ति विष सॆ भय, और  सहसा धन का नाश हॊता है॥29॥

अङ्गसौख्यं विनिर्भीतिर्वाहनादॆश्च , व्यग्रता । नीचैः कलहसम्प्राप्ती राहॊः प्राणगतॆ गुरौ ॥30॥ (रा.वृ).

। राहु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं गुरु की प्राणदशा मॆं शरीर सुख, निर्भयता, वाहन आदि

 सॆ व्यज्रता और  नीचॊं सॆ कलह की संभावना हॊती हैं॥30॥

गृहदाहशरीरॆ च नीचैरपहृतं . धनम । रॊगबंधन सम्प्राप्ती राहॊः प्राणगतॆ शनौ ॥31॥ (रा.श.) । राहु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शनि की प्राणदशा मॆं गृह और  शरीर मॆं अग्नि का भय, नीच सॆ धन का अपहरण, रॊग बंधन की प्राप्ति हॊती है॥31॥ .

गुरुपदॆश विभवॊ गुरुसत्कारवर्धनम । गुणवांच्छीलवांश्चापि राहॊः प्राणगतॆ, बुधॆ ॥32॥ (रा.बु.)

राहु की दशा मॆं बुध की प्राण दशा मॆं गुरु कॆ उपदॆश सॆ वैभव प्राप्ति, गुरु कॆ सत्कार मॆं वृद्धि, गुण और  शील मॆं वृद्धि हॊती है॥32॥

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*

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । स्त्रीपुत्रादि विरॊधश्च गृहान्निष्क्रमणादयः । साक्षात्कार्यस्यहानिश्च राहॊः सूक्ष्मगतॆ ध्वजॆ ॥33॥ (रा.कॆ.) । राहु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं कॆतु की प्राण दशा मॆं स्त्री-पुत्र आदि सॆ विरॊध गृह त्याग

और  साक्षात कार्य की हानि हॊती है॥33॥ छत्रवाहनसम्पत्तिः सर्वार्थफलसंचयः ॥ शिवार्चन गृहारम्भॊ राहॊः प्राणगतॆ भृगौ ॥34॥(रा.शु.)

 राहु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शुक्र की प्राणदशा मॆं छत्र वाहन आदि सम्पत्ति का लाभ सभी प्रकार कॆ लाभ और  संचय और  शिवपूजन तथा गृहारम्भ हॊता है॥34॥

अशदिरॊगभीतिश्च राज्यॊपद्रवसम्भवः ॥ चतुष्पदादिहानिश्च राहॊः प्राणगतॆ रवौ ॥ 35॥ (रा.सू.) । राहु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं सूर्य की प्राणदशा मॆं अर्श (बवासीर) आदि रॊग का भय, राजा सॆ उपद्रव की संभावना और  चौपायॆ जानवरॊं की हानि हॊती है॥35॥

सौमनस्यं च सद्बुद्धिः सत्कारॊ गुरुदर्शनम । पापभीतिर्मनः सौख्यं राहॊः प्राणगतॆ विधौ ॥ 36॥ (रा.चं.) । राहु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं चन्द्रमा की प्राणदशा मॆं सज्जनता, सत्कार और  गुरु

का दर्शन, पाप सॆ भय तथा सुखं हॊता है॥36॥

चांडालाग्निवशाङ्गीतिः स्वपदच्युतिरापदः ॥ मलिनः श्वादिवृत्तिश्च राहॊः प्राणगतॆ कुजॆ ॥ 37॥ (रा.मं.) । राहु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं भौम की प्राणदशा मॆं चांडाल और  अग्नि सॆ भय, अवनति और  आपत्ति, मलिनता और  कुत्तॆ की वृत्ति हॊती है॥37॥

इति राहॊः प्राणदशा फलम। ।

अथ गुरॊः प्राणदशा फलम्शॊकनाशॊ धनाधिक्यमग्निहॊत्रं शिवार्चनम । वाहनं छत्रसंयुक्तं जीवप्राणदशाफलम ॥ 38॥ (वृ.वृ.) । गुरु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं गुरु की प्राणदशा मॆं शॊकादि का नाश, धन की वृद्धि, अग्नि हॊत्र, शिव का पूजन और  वाहन छत्र का सुख हॊता है। ।38॥

468

अथ प्राणदशा फलाध्यायः। व्रतही सूर्यवर्तिश्च विदॆशॆ वसुनाशनम । विरॊधॊ धननाशश्च गुरॊः प्राणगतॆ शनौ ॥39॥ (वृ.श.)

गुरु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शनि की प्राण दशा मॆं व्रत की हानि, विदॆश मॆं धन की हानि विरॊध और  धन की हानि हॊती है॥39 ॥ विद्याधर्मविवृद्धिश्च गुरुब्राह्मणपूजनम ।

भाग्यॊदयसुखप्राप्तिर्गुरॊः प्राणगतॆ बुधॆ ॥40॥ (वृ.बु.) । गुरु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं बुध की प्राणदशा मॆं विद्या और  धर्म की वृद्धि, गुरु और  ब्राह्मण का पूजन, भाग्यॊदय और  सुख का लाभ हॊता है॥40॥

ज्ञानं विभवपांडित्यं शास्त्रश्रॊता शिवार्चनम । अग्निहॊत्रं गुरॊर्भक्तिर्गुरॊः प्राणगतॆ ध्वजॆ ॥41॥ (वृ.कॆ.)

गुरु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं कॆतु कॆ प्राण दशा मॆं ज्ञान, वैभव और  पांडित्य, शास्त्र श्रवण, शिवपूजन, अग्नि हॊत्र और  गुरु भक्ति हॊती है॥41॥ . रॊगान्मुक्तिः सुखं भॊगं धन धान्यसमागमम ॥

 पुत्रदारादि सौख्यं गुरॊः प्राणगतॆ भृगौ ॥42॥ (वृ.शु.)

- गुरु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शुक्र कॆ प्राण दशा मॆं रॊग सॆ मुक्ति, सुख, भॊग, धन, धान्य का आगमन, पुत्र स्त्री का सुखं हॊता है॥42॥

वातपित्तप्रकॊपं च श्लॆष्मॊद्रॆकं तु दारूणम । रसव्याधिकृतं शूलं गुरॊः प्राणगतॆ रवौ ॥43॥ (वृ.सू.) । गुरु कॆ सूक्ष्मान्तर सॆ सूर्य कॆ प्राण दशा मॆं वायु पित्त कॆ प्रकॊप सॆ कष्ट, और  

भयंकर कफवृद्धि तथा रस सॆ उत्पन्न व्याधि हॊती है॥43॥

छत्रचामरसंयुक्तं । वैभवपुत्रसम्पदम । । नॆत्रकुक्षिगता पीडा गुरॊः प्राणगतॆविधौ ॥44॥ (वृ.च).

गुरु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं चन्द्रमा की प्राण दशा मॆं छत्र चामर का सुख, वैभव, पुत्र सम्पत्ति का लाभ और  नॆत्र तथा कुक्षि (कॊंष्ठय) मॆं कष्ट हॊता है॥44॥ ---

स्त्रीजनाच्च विषॊत्पत्तिर्वधनमं चातिविग्रहः ॥ दॆशांतरगमॊभ्रांतिगुरॊः प्राणगतॆ कुजॆ ॥45॥ (वृ.मं.)

582

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । . गुरु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं भौम की प्राणदशा मॆं स्त्रियॊं सॆ कष्ट बंधन अत्यंत विरॊध दॆशांतर की यात्रा और  भ्रांति हॊती है॥45॥।

व्याधिभिः परिभूतः स्याच्चौरैरपहृतं धनम । सर्पवृश्चिकदृष्टत्वं गुरॊः प्राणगतॆप्यहौ ॥46॥ (वृ.रा.)

गुरु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं राहु की प्राणदशा मॆं व्याधि सॆ व्याप्त, चॊर द्वारा द्रव्य की हानि सर्प-बिच्छू-कॆ काटनॆ का भय हॊता है॥46॥

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इति गुरॊः प्राणदशा फलम। .

अथ शनॆः प्राणदशा फलम्ज्वरॆण ज्वलिता कान्ति: कुष्ठरॊगॊदरादिरूक ॥

जलाग्निकृतमृत्युः । स्यान्मन्दप्राणदशाफलम ॥47॥ (श.श.) । शनि कॆ सूक्ष्मांतर मॆं शनि की प्राणदशा मॆं ज्वर सॆ कान्ति नष्ट हॊ जाती है,

कुष्ठ रॊग की संभावना, जल अग्नि सॆ मृत्यु की संभावना हॊती है॥47॥ :: धनं धान्यं च मांगल्यं व्यवहाराभिपूजनम ।

दॆवब्राह्मणभक्तिश्चः शनैः प्राणगतॆ बुधॆ ॥48॥ (श.बु.)

। शनि कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं बुध की प्राणदशां मॆं धन, धान्य, मंगल कृव्य, व्यवहार " सॆ पूजन, दॆवता ब्राह्मण मॆं भक्ति हॊती है॥48॥

मृत्युवॆदन, दुःखं च . भूतॊपद्रवसंभवः ॥ । परदाराभिभूतत्वं शनॆः प्राणगतॆ ध्वजॆ ॥49॥ (श.कॆ.)

शनि कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं कॆतु की प्राणदशा मॆं मृत्यु तुल्य कष्ट, भूत उपद्रव की संभावना और  पर स्त्री कॆ वश मॆं हॊनॆ की संभावना हॊती है॥49॥ । * पुत्रार्थविभवैः सौख्यं क्षितिपालादिना सुखम ॥

अग्निहॊत्रं विवाहश्च शनैः प्राणगतॆ भृगौ ॥50 ॥ (श.शु.)

शनि कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शुक्र की प्राणदशा मॆं पुत्र, धन और  वैभव का सुख, राजा आदि सॆ सुख, अग्निहॊत्र और  विवाह हॊता है॥50 ॥ । अग्निपीडा शिरॊव्याधिः सर्पशत्रुभयं भवॆत ।

अर्थहानिः महाक्लॆशः शनॆः प्राणगतॆ रवौ ॥51॥ (श.सू.).

463

अथ प्राणदशा फलाध्यायः।

 शनि कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं सूर्य की प्राणदशा मॆं अग्नि सॆ कष्ट, शिर का रॊग, . सर्प तथा शत्रु सॆ भय, धन की हानि और  महाकष्ट हॊता है॥51॥

आरॊग्यं पुत्रलाभश्च शान्तिपौष्टिक वर्धनम ॥ दॆवब्राह्मणभक्तिश्च शनॆः प्राणगतॆ. विधौ ॥52॥ (श.चं.) । शनि कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं चंद्रमा की प्राणदशा मॆं आरॊग्यता, पुत्र का लाभ, शान्तिक पौष्टिक क्रियायॊं की वृद्धि और  दॆवता ब्राह्मण मॆं भक्ति हॊती है॥52॥ गुल्मरॊगः शत्रुभीतिमॆगया प्राणनाशनम ॥ सपग्निशत्रुतॊभीतिः शनैः प्राणगतॆ कुजॆ ॥53॥ (श.मं.)

शनि कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं भौम की प्राणदशा मॆं गुल्म रॊग। शत्रु का भय, प्राण जानॆ का भय, सर्प तथा अग्नि सॆ भय हॊता है॥53॥।

दॆशत्यागॊ नृपाद्धीतिर्मॊहनं विषभक्षणम । वातपित्तकृतापीडा शनॆः प्राणगतॆप्यहौ ॥54॥ (श.रा.)

शनि कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं राहु की प्राणदशा मॆं दॆश का त्याग, राजा सॆ भय और  अहिंत, विषपान, वायु-पित्त सॆ कष्ट हॊता है॥54॥।

सॆनापत्यं भूमिलाभं संगमं स्वजनैः सह ॥ गौरवं बुधसन्मानं शनॆः प्राणगतॆ गुरौ ॥55॥ (श.वृ.)

शनि कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं गुरु की प्राणदशा मॆं सॆनापति का अधिकार, भूमि का लाभ, आत्मीय जनॊं सॆ समागम, गुरुता और  राजा सॆ सम्मान हॊता है॥55॥

इति शनॆः प्राणदशा फलम। .... अथ बुध प्राणदशा फलम

आरॊग्यं सुखसम्पत्तिर्धर्मकर्मादिसाधनम । समत्वं सर्भभूतॆषु  बुधप्राणदशाफलम ॥56 ॥ (बु.बु.)

बुध कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं बुध की प्राणदशा मॆं आरॊग्यंता, सुख संपत्ति, धर्म कर्म आदि का साधन और  सभी प्राणियॊं मॆं संमता हॊती है॥56 ॥

दहनं चौरविद्धांगं परमाधिविषॊद्भवा ।

। दॆहांतकरणॆ दुःखं बुधप्राणगतॆ ध्वजॆ ॥57॥ (बु.कॆ.) ।

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ बुध कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं कॆतु की प्राणदशा मॆं अग्नि भय, चौर सॆ शरीर मॆं चॊट और  विष सॆ व्याधि की संभावना तथा मरण तुल्य कष्ट हॊता है॥57॥। प्रभुत्वं धनसम्पत्तिः कीर्तिधर्मः शिवार्चनम ॥ पुत्रदारादिकं सौख्यं बुधमणगतॆ भृगौ ॥58॥ (बु.शु.)

बुध कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शुक्र की प्राणदशा मॆं प्रभुता, धन संपत्ति का लाभ, कीर्ति, धर्म और  शिव पूजन, और  पुत्र स्त्री का सुख हॊता है॥58॥

अन्तर्दाहॊज्वरॊन्मादौ वांधवानां रतिः स्त्रिया । पापनिस्तॆय सम्पत्तिबुधप्राणगतॆ रवौ ॥59॥ (बु.सू.)

बुध कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं सूर्य की प्राणदशा मॆं अंतर्गत दाह, ज्वर और  उन्माद बांधवॊं सॆ तथा स्त्री सॆ प्रॆम और  पापाचार सॆ संपत्ति का लाभ हॊता है॥59॥

स्त्रीलाभश्चार्थसम्पत्तिः कन्यालाभॊ धनागमः ॥ । लभतॆ सर्वतः सौख्यं बुध प्राणगतॆ विधौ ॥ 60 ॥ (बु.चं.)

। बुध कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं चंद्रमा की प्राणदशा मॆं स्त्री, धन सम्पत्ति का लाभ, कन्या की उत्पत्ति, धन का आगम और  सर्वत्र सुख की प्राप्ति हॊती हैं॥60॥। पतितः कुक्षिरॊगी च दंतनॆत्रादिजा व्यथा । अशर्तिः प्राणसंदॆहॊ बुधप्राणगतॆ कुजॆ ॥61॥ (बु.मं.)

बुध कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं भौम की प्राणदशा मॆं पतन, कुक्षि मॆं रॊग, दांत नॆत्र मॆं पीडा अर्श रॊग और  प्राण हानि की संभावना हॊती है॥61॥

वस्त्राभरणसम्पत्तिः वियॊगॊ विप्रवैरिता ।

सन्निपातॊद्भवं दुःखं बुधप्राणगतॆप्यहौ ॥ 62॥ (बु.रा.)

बुध कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं राहु की प्राणदशा मॆं वस्त्र आभूषण आदि संपत्ति सॆ वियॊग, ब्राह्मण सॆ वैर, सन्निपात रॊग सॆ कष्ट हॊता है॥ 62 ॥

गुरुत्वं । धनसम्पत्तिर्विद्या सद्गुण संग्रहः । व्यवसायॆन सल्लाभॊ बुधप्राणगतॆ गुरॊ ॥ 63॥ (बु.वृ.)

बुध कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं गुरु की प्राणदशा मॆं गुरुता, धन संपत्ति विद्या और  अच्छॆ गुणॊं का संग्रह, और  व्यवसाय सॆ लाभ हॊता है॥ 63॥

चौर्यॆण निधनप्राप्तिर्विघनत्वं दरिद्रता । याचकत्वं विशॆषण बुधप्राणगतॆ शनौ ॥ 64॥ (बु.श.)

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उच

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अथ पी

अथ प्राणदशा फलाध्यायः। बुध कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं , नि की प्राणदशा मॆं चॊर सॆ मृत्युभय, निर्धनता और  भिक्षावृति का प्रादुर्भाव हॊता है॥64॥।

। इति बुध प्राणदशा फलम॥

अथ कॆतॊः प्राणदशा फलम । अश्वपातॆन घातं च पादस्खलनमॆवच । निर्विचारवधॊत्पत्तिः कॆतॊः प्राणदशाफलम ॥65॥ (कॆ.कॆ.)

। कॆतु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं कॆतु की प्राणदशा मॆं घॊडॆ पर सॆ गिरनॆ सॆ चॊट, पैर फिसलनॆ सॆ चॊट, कुत्सित विचार की उत्पत्ति हॊती है॥65 ॥ ।

क्षॆत्रलाभॊ वैरिनाशॊ हयलाभॊ मनः सुखम । पशुक्षॆत्रधनाप्तिश्च कॆतॊः प्राणगतॆ भृगौ ॥66॥ (कॆ.शु.)

। कॆतु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शुक्र की प्राणदशा मॆं कुशल-लाभ, शत्रु‌ऒं का नाश, मन कॊ सुख, पशु, क्षॆत्र और  धन का लाभ हॊता है॥66॥ स्तॆयाग्निरिपुभॊत्यादिद्यातश्चैवावरॊघयुक । प्राणांतकरणं कृछ्वं कॆतॊः प्राणगतॆ रवौ ॥67॥ (कॆ.सू.) । कॆतु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं सूर्य कॆ प्राणदशा मॆं चॊर, अग्नि और  शत्रु का भय, अवरॊध जनित घात और  प्राणांत तुल्य कष्ट हॊता है॥67॥ दॆवद्विजगुरॊः पूजा दीर्घयात्रा धनं सुखम ॥ कंठाश्रितॆ नॆत्ररॊगॊ कॆतॊः प्राणगतॆ विधौ ॥68॥ (कॆ.चं.) । कॆतु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं चन्द्रमा की प्राणदशा मॆं दॆवता, ब्राह्मण और  गुरु का पूजा दूर की यात्रा, धन और  सुख, कंठ और  नॆत्र का रॊग हॊता है॥68॥

तीव्ररॊगॊलसावृद्धिर्विभ्रमः सन्निपातजः। स्वबंधुजनविद्वॆषः कॆतॊः प्राणगतॆ कुजॆ ॥ 69॥ (कॆ.म.)

कॆतु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं भौम कॆ प्राणदशा सॆ तीव्र रॊग, आलसी बुद्धि, सन्निपात सॆ भ्रम रॊग और  अपनॆ बंधु‌ऒं सॆ विरॊध हॊता है॥69 ॥ विरॊधः स्त्रीसुताद्यैश्च गृहान्निष्कमणंभवॆत । स्वसाहसात्कार्यहानिः कॆतॊः प्राणगतॆप्यहौ ॥70॥ (कॆ.रा.)

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । - कॆतु कॆ सूक्ष्मांतर मॆं राहु की प्राणदशा मॆं स्त्री, पुत्र आदि सॆ विरॊध, घर सॆ निकाला हॊता है और  साहस करनॆ सॆ कार्य की हानि हॊती है॥70॥ - शस्त्रव्रणैर्महारॊगैर्हत्पीडादिसमुद्भवः ।

सुतदारवियॊगश्च कॆतॊ प्राणगतॆ गुरौ ॥71॥ (कॆ.बु.)

कॆतु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं गुरु की प्राणदशा मॆं-शस्त्र, व्रण और  महारॊग सॆ हृदय मॆं पीडा की संभावना, पुत्र, स्त्री आदि सॆ वियॊग हॊता है॥71॥ :

मतिविभ्रमतीक्ष्णश्च क्रूरकर्मरतः सदा । व्यसनाद्वंधनं दुःखं. कॆतॊः प्राणगतॆ शनौ ॥72॥ (कॆ.श.) - कॆतु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शनि की प्राणदशा मॆं बुद्धि मॆं भ्रम, स्वभाव मॆं तीक्ष्णता, सदा क्रूरकर्म मॆं आसक्त, व्यसन सॆ बंधन और  दुःख हॊता है॥72॥।

कुसुमं शयनं भूषा लॆपनं भॊजनादिकम । सौख्यं सर्वाङ्ग भॊग्यं च कॆतॊः प्राणगतॆ बुधॆ ॥73॥ (कॆ.बु.) । कॆतु कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं बुध की प्राणदशा मॆं पुष्प शय्या, आभूषण, लॆपन भॊजनादि की प्राप्ति, सुख और  सर्वागं का भॊग प्राप्त हॊता है॥73॥।

इति कॆतॊः प्राणदशा फलम॥

अथ भृगॊः प्राणदशा फलम्ज्ञानमीश्वरभक्तिश्च तॊषकर्मरसायनम । पुत्रपौत्रसमृद्धिश्च शुक्रप्राणगतॆ फलम ॥74॥ (शु.श)

शुक्र कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शुक्र कॆ प्राणदशा मॆं ज्ञान की प्राप्ति ईश्वर मॆं भक्ति संतॊष, रसायन और  पुत्र पौत्र तथा समृद्धि का लाभ हॊता है॥74॥।

लॊकप्रकाशकीर्तिश्च सुतसौख्यं विवर्जितः । उष्णादिरॊगजं दुःखं शुक्राणगतॆ रवौ ॥75॥ (शु.सू.)

शुक्र कॆ सूक्ष्मांतर मॆं सूर्य कॆ प्राणदशा मॆं संसार मॆं कीर्ति, पुत्र सुख सॆ हीन गर्मी सॆ रॊग और  दुःख हॊता है॥75॥।

दॆवार्चनॆकर्मरतिर्मन्त्रतॊषणतत्परः । धनसौभाग्यसम्पत्तिः शुक्रप्राणगतॆ विधौ ॥76॥ (शु.चं.)

-

। अथ प्राणदशा फलाध्यायः॥

4069 शुक्र कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं द्रमा की प्राणदशा मॆं दॆवपूजन मॆं प्रवृत्ति, संतॊष, धन, सौभाग्य और  सम्पत्ति का लाभ हॊता हैं॥76 ॥

ज्वरॊ मसूरिका स्फॊटकंडूचिपिटकादिकाः । दॆवब्राह्मणपूजा च शुक्र प्राणगतॆ कुजॆ ॥77॥ (शु.मं.)

शुक्र कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं भौम की प्राणदशा मॆं ज्वर, मसरिका, चॆचक, खलुली, रॊग और  दॆवता ब्राह्मण का पूजन हॊता है॥77॥।

नित्यं शत्रुकृता पीडा नॆत्रकुक्षिरुजादयः ॥ विरॊधः सुहृदां पीडा शुक्र प्राणगतॆप्यहौ ॥78॥ (शु.रा.)

शुक्र कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं राहु की प्राणदशा मॆं नित्य शत्रु सॆ पीडा नॆत्र, कुक्षि मॆं रॊग, मित्रॊं सॆ विरॊध और  पीडा हॊती है॥78॥

आयुरारॊग्यमैश्वर्यं पुत्रस्त्री धनवैभवम । । छत्रवाहनसंप्राप्तिः शुक्राणगतॆ गुरौ ॥79॥

। शुक्र कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं गुरु की प्राणदशा मॆं आयु, आरॊग्यता और  ऐश्वर्य की प्राप्ति, पुत्र स्त्री धन का सुख द्रव्य वाहन का लाभ हॊता है॥79 ॥.

राजॊपद्रवजाभीतिः. सुखहानिर्महारुजः । नीचैः सह विवादं च शुक्रप्राणगतॆ शनौ ॥80॥ (शु.श.)

शुक्र कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं शनि की प्राणदशा मॆं राजा कॆ उपद्रव का भय, सुख, की हानि महारॊग और  नीचॊं सॆ विवाद हॊता है॥ 80॥

संतॊषं राजसन्मानं नानादिग्भूमिसम्पदः । नित्यमुत्साहवृद्धिः स्याच्छुक्राणगतॆ बुधॆ ॥81॥ (शुबु.)

। शुक्र कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं बुध की प्राणदशा मॆं संतॊष, राजा सॆ सम्मान, अनॆक दिशा सॆ भूमि सम्पत्ति का लाभ और  नित्य उत्साह मॆं वृद्धि हॊती है॥81॥

जीवितात्मयशॊहानिर्धनधान्यपरिच्छदः । त्यागयॊगधनानिस्युः शुक्राणगतॆ . ध्वजॆ ॥82॥ (शु.कॆ.)

शुक्र कॆ सूक्ष्मान्तर मॆं कॆतु की प्राणदशा मॆं आत्मा, यश की हानि, धन धान्य की हानि और  त्यागवृत्ति हॊती है॥82॥

इति भृगॊः प्राणदशाफलम॥

588,

बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । अथ समस्त ज्यॊतिः शास्त्रतत्वकामधॆनुरूपम

सुदर्शन चक्रम।

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सुदर्शनचक्र ।

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। सू.1 ।

सुदर्शनं द्वादशारं जन्मभॆन्द्वर्कराशितः । । ग्रहान संस्थाप्य भावॆषु वर्षमासादिकल्पयॆत ॥ 1 ॥। कॆन्द्रकॊणाष्टगॊ राहुः पापात्र्यै च शुभमुदॆ । विरिःफादि शुभैः पापैस्त्रिषडायॆषु बै शुभम ॥2॥ तं तं भावं प्रकल्पयांगं तत्तत्तन्वादिजं फलम । गुरुपदॆशात्संवाच्यं भॊजनं स्वप्नपूर्वकम ॥3॥

468

सुदर्शनचक्रम॥

चक्र परिचययह चक्र वृत्ताकार जन्मपत्र मॆं ग्रहॊं की स्थिति प्रगट करनॆ कॊ खींचा गया है। बाहरी वृत्त मॆं जन्म लग्न सॆ प्रारम्भ कर ग्रह लिखॆ गयॆ हैं। दूसरॆ मॆं चन्द्रमा सॆ ग्रहॊं की स्थिति लिखी ग‌ई है तथा तीसरॆ वृत्त मॆं सूर्य सॆ ग्रहॊं की स्थिति लिखी ग‌ई है। इस प्रकार सॆ यह चक्र ऎक ही मॆं तीनॊं स्थितियॊं की तुलना कॊ दिखलाता है।

। भाव विचार करनॆ कॆ नियम। किसी भाव का विचार करतॆ समय उस भाव कॊ प्रगट करनॆ वाली तीनॊं राशियॊं का विचार करना चाहियॆ, जैसॆ दूसरॆ स्थान का विचार करतॆ समय लग्न सॆ चन्द्र सॆ और  सूर्य सॆ दूसरॆ स्थान सॆ स्थित ग्रहॊं का विचार करना चाहियॆ।

1।4।7।10।8 भाव मॆं राहु या पापग्रह हॊ तॊ कष्टकारक हॊतॆ हैं। शुभ ग्रह हॊं तॊ शुभ हॊता है। 12 वॆं भाव कॊ छॊडकर अन्य भावॊं मॆं शुभग्रह और  3।6।11 भावॊं मॆं पापग्रह शुभ फल दॆनॆवालॆ हॊतॆ हैं। विशॆषरूप सॆ राहु जहाँ रहता है वह अशुभ फल दॆता है। यदि किसी भाव मॆं शुभग्रह है। तॊ उस भाव का फल शुभ हॊगा और  पूर्ण प्रभावशाली हॊगा। शुभग्रह शुभ फल ही दॆतॆ हैं। जहाँ भी पापग्रह हॊ यदि उस पर शुभग्रह की दृष्टि हॊ तॊ शुभफल कहना चाहियॆ।

। सप्तवर्ग मॆं अधिक अशुभ वर्गॊवालॆ शुभग्रह कॆ अपनॆ शुभकारी गुण नष्ट हॊ जातॆ हैं। अनॆक शुभग्रहॊं कॆ वर्गॊं सॆ युक्त हॊनॆ पर पापग्रह भी अपॆक्षया शुभद हॊ जाता है।

यदि कॊ‌ई स्थान या भाव रिक्त हॊ तॊ उसका प्रभाव उस भाव कॆ दॆखनॆवालॆ ग्रहॊं सॆ निकालना चाहियॆ। यदि कॊ‌ई न दॆखता हॊ तॊ उसकॆ स्वामी

कॊ दॆखना चाहियॆ।

 उदाहरण-जैसॆ सुदर्शन चक्र मॆं 10वाँ स्थान रिक्त हैं तथा अपनॆ स्वामी सॆ दॆखा जाता है जॊ चन्द्रमा कॆ साथ बैठा है। अत: यहाँ यह कहा जा सकता है कि यह व्यक्ति अपनॆ पॆशॆ मॆं पूर्णरूप सॆ सफल हॊगा।

विशॆष-सूर्य प्रथम भाव मॆं शुभफल दॆनॆवाला माना जाता है अन्य स्थानॊं मॆं अशुभ माना जाता है। पापग्रह अपनी राशि मॆं अशुभ नहीं हॊतॆ हैं।

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

वार्षिक भविष्यवाणियाँसुदर्शन चक्र सॆ वार्षिक फल कहनॆ कॆ लियॆ जन्म सॆ प्रथम 12 मास तक प्रथम भाव कॊ लग्न मानकर किया जाता है। दूसरॆ वर्ष मॆं द्वितीय भाव कॊ लग्न माना जाता है, तीसरॆ वर्ष मॆं तीसरा स्थान ही लग्न माना जाता है। इस प्रकार मॆं लग्न प्रति वर्ष ऎक-ऎक राशि खिसकता जाता है। वार्षिक भविष्यवाणियॊं मॆं मंदगति वालॆ ग्रहॊं राहु कॆतु शनि आदि का ही विचार किया . जाता है। 12।2453648 वॆं वर्ष कॆ अन्त मॆं वैसी ही स्थिति हॊ जाती है जैसी कि जन्मकाल मॆं हॊती है। इसी प्रकार लग्नादि 12 भाव ऎक-ऎक

पास कॆ द्यॊतक हॊतॆ हैं। दिन फल कहनॆ कॆ लियॆ ऎक-ऎक भाव मॆं ढा‌ई दिन । कल्खु करना चाहियॆ।

, अथ राहुदृष्टिमाहुःसुतमदननवातॆ पूर्णदृष्टिं तमस्य

। युगलदशमगॆहॆ चार्घदृष्टिंवदन्ति । सहजरियुविपश्यन पाददृष्टिं मुनीन्द्रा

निजभवनमुपॆतॊलॊचनान्धः प्रदिष्टः ॥

ग्रहाणामुदयवर्षाणि‌आकृत्यॊजिनसम्मितागजकरा नॆत्राग्नयः षॊडश

तत्त्वान्यङ्गगुणाद्विवॆद प्रमिताः सूर्यादिकानां समा यः खॆटः स्वगृहॆ स्वतुङ्गभवनॆ षड्वर्गशुद्धश्च यः

तस्याब्दॆ हि नृणां भवॆदति सुखं भाग्यॊदयॊ निश्चितम ॥

इति सुदर्शनचक्र विवरणं समाप्तम। इंति वृहत्पाराशरहॊरायाः पूर्वार्धॆ सूर्यादि ग्रहाणां प्राणदशा

। फलाध्यायः। समाप्तश्चार्य पूर्वार्धभागः।

श्री.

वृहत्पाराशरहॊरायाः उत्तरार्धम

भाषाटीका सहितम । अष्टकवर्गाध्यायः।

। मैत्रॆय उवाच——भगवन्सर्वमाख्यातं जातकं विस्तरॆण मॆं । . सहस्रायुतश्लॊकैरशीत्यध्यायसंयुतैः ॥1॥

मैत्रॆयजी नॆ कहा- हॆ भगवन ! आपनॆ ऎक हजार श्लॊकॊं सॆ युक्त 80 अध्याय (पूर्वखंड) मॆं विस्तार पूर्वक सभी जातक कॊ मुझसॆ कहा॥1॥

संकरात्तत्फलानां तु ग्रहाणां गतिसंकरात ॥ नान्यॆनहीदृगस्यॆदमिति वक्तुमलं . नराः ॥2॥

किन्तु ग्रहॊं की गति कॊ परस्पर (संकर) मिश्रण हॊनॆ सॆ उनकॆ फल मॆं भी मिश्रण हॊ जाता है अत: इस प्रमाण सॆ ऐसा फल कहना ऐसा निश्चय कर कहनॆ

कॊ कॊ‌ई समर्थ नहीं हॊता है॥2॥। * . कलौ युगॆ ततॊऽल्यैव बुद्धिः पापॊतरानराः ।

अतॊ न चास्य प्रचयगमनं न प्रयॊजनम ॥3॥

क्यॊंकि कलियुग मॆं पूर्व युग सॆ अल्प ही बुद्धि कॆ और  अधिक पापी हॊतॆ हैं अत: उनकॆ लियॆ इस महान ग्रंथ का विचार करना और  उसकॆ प्रयॊजन का कहना दुर्लभ ही है॥3॥

ऎतावंतं कलामस्य प्रयॊजनं प्रचयगमनं च कथमासीत इति

। शंकायामाह—?अत्र त्रॆतायुगॆ कॆचिद्वापरॆ च कृतॆयुगॆ । कुशाग्रमतयः सर्वॆ पुण्यभाजश्चिरायुषः ॥4॥

आप यह कह सकतॆ हैं इतनॆ काल पर्यन्त इस ग्रंथ का उपयॊग कैसॆ हु‌आ और  अब क्यॊं नहीं हॊ पा रहा है, इसका उत्तर स्वयं दॆ रहॆ हैं- हॆ मुनीश्वर! इस त्रॆतायुग मॆं, द्वापर मॆं तथा सत्ययुग मॆं मनुष्य कुशाग्रबुद्धि, पुण्यवान और  दीर्घायु हॊतॆ थॆ। अत: वॆ पूर्व कॆ कहॆ हुयॆ शास्त्र कॊ दॆखनॆ और  कहनॆ मॆं समर्थ थॆ॥4॥

487

987

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । अतॊऽल्पबुद्धिगम्यं यच्छास्त्रमॆतद्वदस्य मॆ । लॊकयात्रापरिज्ञानमायुषॊ निर्णयं तथा ॥5॥ इसलियॆ इस युग (कलियुग) कॆ अल्पवुद्धि वालॆ लॊगॊं कॆ जाननॆ यॊग्य शास्त्र का निर्दॆश करॆं जिसकॆ अभ्यास सॆ प्राणियॊं की लॊकयात्रा (सुख दु:ख) का परिज्ञान हॊ और  आयुष्य का निर्णय भी हॊ सकॆ॥5॥

पराशर उवाच——साधुपृष्टं त्वया ब्रह्मन्वदामि तव सुब्रत । . लॊकयात्रापरिज्ञानमायुषॊ निर्णयं तथा ॥6॥

पराशरजी नॆ कहा- हॆ ब्रह्मन! तुमनॆ बडा ही अच्छा प्रश्न किया है मैं लॊकयात्रा का ज्ञान और  आयुष्य का निर्णय॥6॥

संकरस्याविरॊधं च शास्त्रस्यापि प्रसिद्धयॆ । प्रयॊजनस्य लॊकानामुपकाराय तच्छृणु ॥7॥

और  ग्रहॊं की गति की संकरता सॆ फल मॆं विपर्यास हॊता हैं इसॆ भी शास्त्र की सिद्धता कॆ लियॆ अविरॊध प्रकार और  प्रयॊजन भी लॊकॊपकार कॆ लियॆ कहता हूँ उसॆ सुनॊ॥7॥

। भावानांशुभाशुभत्वमाह—लग्नादिव्ययपर्यंत भावाः संज्ञानुरूपतः ॥

 फलदाः शुभसंदृष्टायुक्ता वा शॊभना मताः ॥8॥

लग्न सॆ लॆकर व्यय भाव पर्यन्त सभी भाव यदि शुभग्रह सॆ युक्त वा दृष्ट हॊं तॊ उन भावॊं कॆ संज्ञानुरूप शुभफल कॊ दॆतॆ हैं॥8॥

पापदृष्टयुताभावाः कल्याणॆतरदायकाः ।

। नितरां शत्रुनीचस्थैर्न च मित्रॊच्चगैश्च तैः ॥9॥

पापग्रह सॆ दृष्टया युक्त हॊं तॊ अशुभ फल कॊ दॆतॆ हैं। यदि पापग्रह अपनॆ शत्रु की राशि मॆं वा नीचराशि मॆं हॊ तॊ अत्यंत अशुभ फल दॆता है किन्तु अपनॆ मित्र की राशि या उच्चशि मॆं हॊ तॊ शुभफल कॊ ही दॆता है॥9॥

ऎवं सामान्यतः प्रॊक्तं हॊराविद्भिस्तु सूरिभिः ॥ । ’प्रयैतत्सक प्रॊक्तं पूर्वाचार्यानुवर्तिनी ॥10॥

"

अष्टकवर्गाध्यायः ।

483 इस प्रकार हॊराशास्त्र कॆ जाननॆ वालॊं नॆ सामान्य रीति सॆ कहा है उसॆ मैंनॆ संपूर्ण पूर्वाचार्यॊं कॆ अनुसार कहा है॥10॥

। आयुश्च लॊकयात्रा च शास्त्रॆऽस्मितत्प्रयॊजनम ।

निश्चॆतुं तन्न शक्नीति वशिष्ठॊ वा बृहस्पतिः ॥11॥ । इस शास्त्र मॆं आयु का प्रमाण और  मनुष्यॊं कॆ सुख दु:ख का वर्णन है यही इसका प्रयॊजन है। किन्तु उन सबकॆ निर्णय करनॆ मॆं वशिष्ठ या बृहस्पति भी समर्थ नहीं हॊ सकतॆ हैं॥11॥।

किं पुनर्मनुजास्तत्र विशॆषात्तु कलौ युगॆ । नष्टादिषु च नातीव द्रॆष्काणादि फलॆषु च ॥12॥

साधारण मनुष्य कहां सॆ, निश्चय कर सकता है। विशॆषकर कलियुग मॆं विशॆषकर नष्ट चौर आदि कॆ प्रश्नॊं कॆ उत्तर द्रॆष्काणादि सॆ दॆनॆ मॆं समर्थ नहीं ।

हॊ सकतॆ हैं॥12॥।

आचार्यस्य मुखादॆतच्छास्त्रं तु ’शृणुयाद्बुधः ॥ संप्रदायॆन यः श्रॊतश्चास्मिछास्त्रॆ महामतिः ॥13॥

इस शास्त्र कॊ आचार्य कॆ मुख सॆ सुन कर संप्रादायानुसार इसमॆं परिश्रम करनॆ वाला पुरुष श्रॆष्ठ दैवज्ञ हॊता है॥13॥

कर्मज्ञानविदा वॆदॊ द्विधा यद्वत्तदाह्वयॆ । । हॊराशास्त्रं द्विधा प्रॊक्तं संकीर्णनिश्चयादिति ॥14॥

जिस प्रकार कर्मकांड और  ज्ञानकांड सॆ युक्त वॆद ऎक हॊतॆ हुयॆ भी दॊ प्रकार - का है उसी प्रकार सॆ संकीर्ण और  निश्चय सॆ यह ज्यॊति शास्त्र भी दॊ प्रकार का

है॥14॥

प्रॊक्तः संकीर्णभागस्तु निश्चयांशस्तु कथ्यतॆ । । यॊवॆत्ति सम्यगॆतत्तु दॆवज्ञः स उदाहृतः ॥15॥

इसमॆं संकीर्णभाग पूर्वार्ध (पूर्वभाग) मॆं वर्णित है और  निश्चय भाग कॊ इस उत्तरार्ध मॆं कह रहा हूँ जॊ संम्यक प्रकार सॆ इसॆ जानता है उसॆ ही दैवज्ञ कहत हैं॥ 15 ॥।

भावदृष्ट्यादिषु प्रॊक्तानर्थान्सम्यग्विचार्य च ॥ समीचीनांस्तु संगृह्य विरुद्धांस्तु परित्यजॆत ॥16॥

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ । तनु आदि बारह भाव और  उसपर दृष्टि का यॊग ठीक-ठीक विचार कर जॊ. * उत्तम बल हॊं उनकॊ ग्रहण कर हीनवल का त्याग कर दॆ॥16॥।

आयुर्दायैः परं यॊगैः फलान्यष्टकवर्गतः । तन्वादीनां तु भावानां सूक्तैर्भावादिभिः फलैः ॥17॥ ज्ञात्वादौ करणं स्थानं बिन्दुरॆखॆ च वर्गणाम ॥ क्रमादष्टकवर्गस्य पृथक्कृत्य फलं वदॆत ॥18॥

पहलॆ आयुष्य का ज्ञान करॆ इसकॆ बाद नाभसादिक यॊगॊं कॆ फल का ज्ञान करॆं दॊनॊं का ज्ञान हॊ जानॆ कॆ बाद प्रत्यॆक भावॊं कॆ अष्टकवर्ग कॆ अनुसार करण और  स्थान कॊ विन्दु और  रॆखा कॆ स्थान पर मानकर यॊगकर उन भावॊं कॆ फल कॊ कहॆ॥18॥

अथ रवॆः करणसंख्यां-करणप्रदग्रहांश्चाहतनुस्वायुश्त्रिरिष्फॆषु पंचकामॆऽर्णवाः सुखॆ ।

अरौ भाग्यॆ त्रयः पुत्रॆ घट करौ खॆ भवॆ चभूः ॥19॥ लग्नॆकुजीवशुक्रज्ञास्तनौखॆ मरणॆऽपि च ॥ रविभौमाकिं चन्द्रार्या व्ययॆ ज्ञॆन्दुसितार्यकाः ॥20॥

अष्टक वर्ग क्या है- प्राय: फलकहनॆ कॆ तीन प्रकार हैं (1) जन्म लग्न सॆ ग्रहॊं की स्थिति कॆ अनुसार। (2) चन्द्रलग्न सॆ ग्रहॊं की स्थिति कॆ अनुसार। (3) नवांश कुंडली कॆ अनुसार फल कहनॆ की विधि हैं। जातक कॆ जन्म लग्न सॆ उसकॆ शरीर कॆ सुख दु:खादि का विचार किया जाता है और  चन्द्रमा सॆ मन का विचार किया जाता है। मन ही की शान्ति ऎवं अशान्ति और  सबलता वा निर्बलता कॆ अनुसार इहलौकिक और  पारलौकिक सभी शुभ अशुभ कार्य हु‌आ करतॆ हैं। अतः फलादॆश का मुख्य अंग चन्द्रमा ही हु‌आ, इसलियॆ ही आचार्यॊं नॆ यह निश्चय किया है कि मनुष्य कॆ जन्म कॆ समय चन्द्रमा जिस राशि पर हॊ उस राशि सॆ जिन जिन भावॊं मॆं ग्रहगण भ्रमण करतॆ हुयॆ जातॆ हैं वैसा वैसा ही फल उस उस समय मॆं मनुष्यकॊ हॊतॆ हैं। इसी कॊ गॊचर . फल कहतॆ हैं। किन्तु यह विधि गौण है। क्यॊं कि सम्पूर्ण मानव मात्र कॆ चन्द्रमा इन्हीं बारह राशियॊं मॆं सॆ किसी राशि मॆं रहता है। अत: साधारण गॊचर फल कॆवल बारह ही प्रकार का हॊगा किन्तु ऐसा हॊता नहीं है। इसलियॆ आचायॊं

अष्टकवर्गाध्यायः । ..

595 नॆ जन्मकालीन ग्रहस्थिति और  जन्मलग्न स्थित राशि इन आठ स्थानॊं सॆ यदि गॊचर फल का विचार किया जाय तॊ अवश्य विश्वास यॊग्य हॊगा। ऐसा निश्चय किया है। इसी कॊ अष्टक वर्ग विधि कहतॆ हैं। प्रत्यॆक जन्मकुंडली मॆं सातग्रह

और  जन्मलग्न अर्थात इन आठ पदार्थॊं सॆ किसी न किसी स्थान मॆं शुभ और  अशुभ फलॊं मॆं विशॆषता हॊ जाती है। इसी कॊ आचार्यॊं नॆ प्रत्यॆक ग्रह ऎवं लग्न अपनॆ अपनॆ स्थान सॆ जिन जिन स्थानॊं मॆं शुभ फल दॆता है इस शुभफल दायित्व स्थान कॊ रॆखा या विन्दुद्वारा दिखलाया है। किसी आचार्य नॆ बिन्दु संकॆत सॆ शुभफल माना है और  किसी नॆ रॆखा द्वारा शुभ फल माना हैं इसकॆ भ्रम मॆं नहीं पडना चाहियॆ चाहॆ जिस चिह्न सॆ मानाजाय। इस ग्रंथ मॆं शून्य कॊ करण कहतॆ हैं। अत: सूर्य की करण संख्या कह रहॆ हैं- सूर्य सॆ 1,

2, 8, 3, 12 भावॊं मॆं पांच पांच करण हॊता है।, 7, 4 भाव मॆं चार . चार करण हॊता है। 6, 9 भाव मॆं तीन तीन करण हॊता है। 5 भाव मॆं 6

करण हॊता हैं। 10 भाव मॆं दॊ करण और  11 भाव मॆं ऎक करण हॊता है। 19 अर्थात सूर्य सॆ 1, 2, 8 भाव मॆं लग्न, चंद्र, शुक्र और  बुध यॆ पांच ग्रह करण दॆनॆ वालॆ हैं, 12 वॆं भाव मॆं सूर्य, भौम, शनि, चंद्र, गुरु यॆ पांच करण दॆनॆ वालॆ हैं॥20॥।

सुखॆ हॊरॆन्दुशुक्राश्च धर्मॆऽर्कार्किकुजा अरौ । हॊराज्ञार्यॆदवः कामॆ भवॆ दैत्यॆन्द्रपूजितः ॥21॥

4 थॆ भाव मॆं बुध, चन्द्र, शुक्र, गुरु यॆ चार ग्रह करण दॆनॆ वालॆ हैं। नवम भाव मॆं लग्र, चन्द्र, शुक्र यॆ तीन ग्रह करण प्रद हैं। 6 भाव मॆं सूर्य शनि, मंगल यॆ तीन ग्रह करण दॆनॆ वालॆ हैं। 7 भाव मॆं लग्न, बुध, शुक्र, चंद्र यॆ चार ग्रह करण दॆनॆ वालॆ हैं। 11 भाव मॆं कॆवल शुक्र करण दॆनॆ वालॆ हैं॥21॥।

सहजॆऽ कर्किशुक्रार्यभौमाः खॆ गुरुभार्गवौ । सुतॆऽर्काकीन्दुलारशुक्राः स्युः करणं रवॆः ॥ 22॥

तीसरॆ भाव मॆं सूर्य, शनि, शुक्र, गुरु, मंगल यॆ पांच ग्रह करण दॆनॆ वालॆ हैं। 10 भाव मॆं गुरु, शुक्र यॆ दॊ ग्रह करण दॆनॆ वालॆ हैं। 5 भाव मॆं सूर्य, शनि, चंद्र, लग्न, मंगल, शुक्र यॆ छ: ग्रह करण दॆनॆ वालॆ हैं। यह सूर्य की करण संख्या है॥22॥।

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥

अथ सूर्य करण कॊष्ठकम। । मा. सू. चं. मं.बु. बृ.। शु. । श. । ल.स. ।

त. 0 0 0 0 0 5 । ध. 0 0 0 0 0 ।5 ।

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। व्यय 0 0 । । । 0 । । 0 । ’नॊट- इसका तात्पर्य यह है कि सूर्य जिस स्थान मॆं है वहां सॆ जिन जिन स्थानॊं मॆं बिन्दु है अर्थात 3, 5, 6, 12 स्थानॊं मॆं जायगा तब-तब अपना अशुभ फल दॆगा और  शॆष स्थानॊं (1, 2, 4, 7, 8, 9, 10, 11) मॆं जायगा तब तब शुभ फल दॆगा इसी प्रकार चन्द्रादि ग्रहॊं कॊ भी अपनॆ अपनॆ स्थानॊं सॆ शश अशुभ फलॊं कॊ समझना॥

अथ चन्द्रस्यकरण संख्या- करणप्रदग्रहांश्चाहभाग्यस्वयॊश्च घड वॆश्ममृतिहॊरासु पंच च । मानदुश्चिक्युयॊरॆकः सुतॆवॆदा अरिस्त्रियॊः ॥ 23॥

चन्द्रमा सॆ 9, 2 भाव मॆं 6 करण 4, 8, 1 भाव मॆं 5 करण 10, 6 भाव मॆं 1 करण, 5 भाव मॆं 4 करण, 6, 7 भाव मॆं 3 करण॥23॥

त्रयॊव्ययॆऽष्टावायॆ च शून्यं शीतकरस्य तु । हॊरारार्किभृगवॊऽङ्गज्ञाकॆंन्द्वार्किभार्गवाः ॥ 24॥

12 भाव मॆं 8 करण और  11 भाव मॆं शून्य करण हॊता है। चन्द्रमा सॆ 1 भाव मॆं लंग्न, सूर्य, मंगल, शनि, शुक्र यॆ पांच करण दॆनॆ वालॆ हैं॥24॥

जीवाऽर्कान्दुलग्नारा हॊरॆन्दुगुरुभास्कराः ॥ सितज्ञार्याः कुजतनुर्मंदास्तॆ सितशीतगू ॥ 25॥

अष्टकवर्गाध्यायः ।

4869 दूसरॆ भाव मॆं लग्न, बुध, सूर्य, चन्द्रमा, शनि और  शुक्र, यॆ 6 करण दॆनॆ वालॆ हैं। तीसरॆ भाव मॆं कॆवल गुरु करण दॆनॆ वाला है। चौथॆ भाव मॆं सूर्य, शनि, चन्द्र, लग्न, भौम यॆ पांच करण प्रद हैं। पाचवॆं भाव मॆं लग्न, चन्द्र, गुरु, रवि यॆ चार करण प्रद हैं। छठॆ भाव मॆं शुक्र, बुध, गुरु यॆ तीन ग्रह करण प्रद हैं। सातवॆं भाव मॆं भौम लग्न, शनि यॆ तीन करण प्रद हैं। आठवॆं भाव मॆं भौम, लग्न, शनि, शुक्र, चन्द्रमा यॆ 5 करण प्रद हैं॥25॥

हॊराकरार्किविज्जीवाः शनिः खं सकलाःक्रमात।

नवम भाव मॆं लग्न, सूर्य, भौम, शनि, बुध, गुरु यॆ 6 ग्रह करण प्रद हैं। दशम भाव मॆं कॆवल शनि करण प्रद है, ऎकादश भाव मॆं शून्य और  वारहवॆं भाव मॆं सभी करणप्रद हॊतॆ हैं।

स्पष्टार्थचन्द्रकरणचक्रम। मा.चं. । मं. । बु.। बृ. शु. श. ल. सू. स. । त. । 2 । । । । 0 0 । 5 ।

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अथ भौमस्थकरणसंख्यांकरणप्रदग्रहांश्चाह- . व्ययवॆश्मसुतस्त्रॊषु षट्सप्त धनधर्मयॊः ॥26॥ हॊराभृत्यॊः शरा वॆदा विक्रमॆ खॆत्रयः क्षतॆ ॥ द्वौभवॆ शून्यमॆवं स्यात्करणं भूमिजस्य तु ॥27॥..

भौम सॆ 12, 4, 5, 7 भाव मॆं 6 करण, 2, 9 भाव मॆं 7 करणं॥26॥ 1, 8 भाव मॆं 5 करण, 3 भाव मॆं 4, करण, 2 भाव मॆं 3 करण, 6 भाव मॆं 2 करण, 11 भाव मॆं शून्य करण हॊतॆ हैं॥27॥ ।

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598 . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

कुजस्यार्कॆदुविज्जीवसिता लग्नशनी च तॆ । सितारगुरुभॆदाः स्युर्धमॊक्तॆषु कुजं विना ॥28॥

भौम सॆ 1 भाव मॆं सूर्य, चंद्रमा, बुध, गुरु, शुक्र यॆ 5 करणप्रदग्रह हैं, 2 भाव मॆं लग्न, शनि, सूर्य, चन्द्र, बुध, गुरु, शुक्र यॆ 7 करणप्रद ग्रह हैं। 3 भाव मॆं शुक्र, भॊम, गुरु, शनि यॆ 4 करणप्रद हैं। 4 भाव मॆं सूर्य, चंद्र, बुध, गुरु, शुक्र लग्न यॆ 6 ग्रह करणप्रद हैं॥28॥

चन्द्रारगुरुशुक्रार्किलग्नानि कुजभास्करी । ज्ञॆन्द्रर्कसितलग्नार्या ऎषु शुक्रं विना ततः ॥ 29॥।

5 भाव मॆं चन्द्र, भौम, गुरु, शुक्र, शनि, लग्न य 6 ग्रह करणप्रद हैं। 6 भाव मॆं भौम, शनि यॆ-दॊ करणप्रद हैं, 7 भाव मॆं बुध, चंद्र, सूर्य, शुक्र, गुरु यॆ 6 करणप्रद ग्रह है॥29॥।

विना शनिं सप्तधर्मॆ सितॆन्दुज्ञा वियत्ततः ॥

. अर्कार्किजॆंदुलग्नाराः करणं प्रॊच्यतॆ क्रमात ॥ 30॥ . 8 भाव मॆं बुध, चंद्र, सूर्य, गुरु, लग्न यॆ 5 करणप्रद ग्रह हैं, 9 भाव मॆं . सूर्य, चन्द्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र लग्न यॆ 7 करणप्रद ग्रह है, 10 भाव मॆं शक्र.

चंद्रबुध यॆ तीन करणप्रद ग्रह हैं। 11 भाव मॆं शून्य और  12 भाव मॆं सूर्य । शनि, बुध, चंद्र, लग्न, भौम यॆ 6 करणप्रद ग्रह हैं॥30॥

स्पष्टार्थभौमकरणचक्रम। मा. सू. चं. म. बु.। वृ.। शु. श. । ल. । स. । ति..0 0 0 0 0 । । 5 ।

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अष्टकवर्गाध्यायः ॥ अथ बुधस्य करण संख्या करणप्रदग्रहांश्चाहतनुस्वगृहकर्मारि धर्मॆष्वग्निर्मृतौ करौ ।

मातृस्त्रियॊं रसा लाभॆ शून्यं पुत्रॆ व्ययॆ शराः ॥31॥। । बुध सॆ 1,2,4,10,6,9 भाव मॆं तीन करण, 8 भाव मॆं 2 करण, 3, 7 भाव मॆं 6 करण, 11 भाव मॆं शून्य और  12 भाव मॆं 5 करण हॊता है॥31॥

बुधस्याकॆंन्दुगुरवॊ गुरुसूर्यबुधाः क्रमात ।

लग्नार्कारार्किचंद्रार्या ज्ञार्या हि बुधस्यतु ॥32॥

बुध सॆ 1 भाव मॆं सूर्य, चंद्र, गुरु यॆ तीन करणप्रद ग्रह हैं, 2 भाव मॆं गुरु, सूर्य, बुध यॆ तीन करणप्रद ग्रह हैं। 3 भाव मॆं लग्न, सूर्य, शनि, चंद्र, भौम, गुरु यॆ 6 करणप्रद ग्रह हैं, 4 भाव मॆं बुध, सूर्य, गुरु यॆ तीन करणप्रद ग्रह हैं॥32॥

जीवारॆन्द्वार्किलग्नानि शुक्रमंदधरासुताः ॥ ज्ञॆन्दुलग्नार्कशुक्रार्या ज्ञाक जीवॆन्दुलग्नकाः ॥33॥ अर्कार्यशुक्राः शून्यं च हॊरॆन्द्वारार्किभार्गवाः ॥

5 भाव मॆं गुरु, भौम, चंद्र, शनि, लग्न यॆ 5 करणप्रद ग्रह हैं। 6 भाव मॆं शुक्र, शनि, भौम यॆ तीन करणप्रद ग्रह हैं। 7 भाव मॆं बुध, चंद्र, लग्न, सूर्य, शुक्र, गुरु यॆ 6 करणप्रद ग्रह हैं, 8 भाव मॆं बुध, सूर्य यॆ दॊ करणप्रद ग्रह हैं। 8 भाव मॆं बुध, सूर्य यॆ दॊ करणप्रद ग्रह हैं। 9 भाव मॆं गुरु, चंद्र, लग्न यॆ 3 करणप्रद ग्रह हैं, 10 भाव मॆं सूर्य, गुरु, शुक्र यॆ तीन करणप्रद ग्रह हैं, 11 भाव मॆं शून्य और  12 भाव मॆं लग्न, चंद्र, भौम, शनि, शुक्र यॆ 5 करणप्रद ग्रह हैं॥33॥

। स्पष्टार्थबुधकरणचक्रम। मा सू. ।चं. मं. । बु.। बृ. शु. शि. ।ल. । स त, । 2

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । अथ गुरॊः करण संख्या करणप्रदग्रहांश्चाहरूपं धनाययॊः खॆ दौ व्ययॆ सप्तक्षतॆऽर्णवाः ॥ 34॥ । गुरु सॆ 2 रॆ भाव मॆं 1 करण, 10 भाव मॆं 2 करण, 11 भाव मॆं 1 करण, 10 भाव मॆं 2 करण, 12 भाव मॆं 7 करण, 6 भाव मॆं 4 करण॥ 34॥

मृतिविक्रमयॊः पंच गुरॊः शॆषॆषु वह्नयः ॥ ... शुक्रॆन्दुमंदा लग्नॆ स्वॆ आयॆ मंदश्च विक्रमॆ ॥ 35॥।

8, 3 भाव मॆं 5 करण और  शॆष भावॊं (1, 4, 5, 7, 9) मॆं 3 करण : हॊतॆ हैं। गुरु सॆ 1 भाव मॆं शुक्र, चंद्र, शनि यॆ तीनग्रह करणप्रद हैं, 2 और  1 1. भाव मॆं कॆवल शनि करणप्रद है॥35॥। । लग्नारॆन्दुज्ञभृगवः सुतॆऽर्कार्यकुजा गृहॆ ।

शुक्रमंदॆदवॊ छूनॆ बुधशुक्रशनैश्चराः ॥ 36 ॥

3 भाव मॆं लग्न, भौम, चंद्र, बुध, शुक्र यॆ पांच ग्रह करणप्रद हैं। 5 भान मॆं सूर्य, गुरु, भौम यॆ तीन करणप्रद हैं, 4 भाव मॆं शुक्र, शनि, चंद्र य तीन । करणप्रद हैं, 7 भाव मॆं बुध, शुक्र, शनि यॆ तीन ग्रह करणप्रद हैं॥36॥

जीवारार्कॆन्दवः शत्रौ मंदं विना व्ययॆ सर्वॆ ।

कर्मणीन्दुशनी धर्मॆ मन्दारगुरवॊ मृतौ ॥ 37॥ ॥ 6 भाव मॆं गुरु, भौम, सूर्य, चन्द्र यॆ चार ग्रह करणप्रद हैं, 12 भाव ।

शनि कॊ छॊडकर सभी ग्रह करणप्रद हैं, 10 भाव मॆं चंद्र, शनि य 2 ग्रह , भाव मॆं शनि, भौम, गुरु यॆ तीन ग्रह करणप्रद हैं॥37॥

स्पष्टार्थगुरुकरणचक्रम॥ मा सू. ।चं. मं. । बु.। बृ.। शु. । श. । ल. । स ।

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अष्टकवर्गाध्यायः ॥ लग्नार्किसितचंद्रज्ञाः करणं च गुरॊरिदम ॥ 8 भाव मॆं लग्न, शनि, शुक्र, चंद्र, बुध यॆ पांच ग्रह करणप्रद हैं।

अथ भृगॊ: करणसंख्यां करणप्रद अहांश्चाहसुतायुर्विक्रमॆष्वक्षितनुस्वव्ययखॆष्विषुः ॥ 38॥ शुक्र सॆ 5, 8, 3 भाव मॆं 2 करण, 1, 2, 12, 10 भाव मॆं 5

करण॥38॥

अष्टौस्त्रियामरौ षड्भूर्धर्मॆ मित्रॆऽग्निखं भवॆ । ।

लग्नॆ स्वॆऽकरविज्जीवमंदाः सर्वॆ च काम मॆं ॥ 39॥ । 7 भाव मॆं 8 करण, 6 भाव मॆं 6 करण, 9 भाव मॆं 1 करण, 4 भाव मॆं 3 करण और  11 भाव मॆं शून्य करण हॊता है। शुक्र सॆ 1, 2 भाव मॆं सूर्य, भौम, गुरु, बुध, शनि यॆ 5 करणप्रद ग्रह हैं। 7 भाव मॆं सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि और  लग्न यॆ आठ करणप्रद ग्रह हैं॥39॥।

अर्कायौं विक्रमस्थानॆ सुतॆऽकरौ शुभॆ रविः ।,

सुखॆऽर्कवुधजीवाः स्युभमज्ञौ मृत्तिभॆ द्विज ॥40 ॥ । 3 भाव मॆं सूर्य, गुरु दॊ करणप्रद ग्रह हैं, 5 भाव मॆं सूर्य, भौम यॆ दॊ करणप्रदं ग्रह हैं। 9 भाव मॆं सूर्य, बुध, गुरु यॆ 3 करणप्रद ग्रह हैं। 8 भाव मॆं भौम, बुध यॆ 2 करणप्रद ग्रह हैं॥40॥।

स्पष्टार्थमृगॊ:करणचक्रम। । मा ।सू. ।चं. मं. । बु.। बृ. शु. श. । ल.

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । अथ शनॆःकरणसंख्यां-करणप्रद ग्रहांश्चाह। शुक्राकॆंन्द्वार्किलग्नार्याः शत्रौ शून्यं भवॆव्ययॆ ॥

हॊरार्किबुधशुक्रार्यास्तन्वारज्ञॆन्द्विनाश्च खॆ ॥41॥

6 भाव मॆं शुक्र, सूर्य, चन्द्र, शनि, लग्न और  गुरु यॆ 6 करणप्रद ग्रह है। 11 भाव मॆं कॊ‌ई नहीं है। 12 भाव मॆं लग्न, शनि, बुध, शुक्र, गुरु यॆ 5 करणप्रल ग्रह हैं। 10 भाव मॆं लग्न, भौम, बुध, चंद्र, सूर्य यॆ 5 करणप्रद ग्रह हैं॥41॥

स्वस्त्रीधर्मॆषु सप्ताङ्गं मृतिहॊरागृहॆषु च ।

आज्ञाभ्रातृव्ययॆ वॆदा रूपं शत्रौ सुतॆ शराः ॥42॥

शनि सॆ, 2।7।9 भावं मॆं 7 ‘करण, 8 लग्न, 4 भाव मॆं 6 करण 10।3।12 भाव मॆं 4 करण, 6 भाव मॆं 1 करण, 5 भाव मॆं 5 करण॥42।

. आयॆ शून्यं शनॆरॆवं करणं प्रॊच्यतॆ बुधैः ।

गृहॆ तनौ च लग्नार्कॊ स्वस्त्रियॊश्च रविं बिना ॥43॥

11 भाव मॆं शून्य करण हॊता है। शनि सॆ 4।1 भाव मॆं लग्न, कॊ छॊडकर सभी ग्रह करणप्रद हॊतॆ हैं। 2।7 भाव मॆं रवि कॊ छॊडकर 7 ग्रह॥4॥ ’ हित्वा धर्मॆ बुधं मानॆ लग्नाररविचन्द्रजान ।. ..

ततॊ भ्रातरि जीवार्कबुध शुक्राः क्षतॆ रविः ॥44॥

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9 भाव मॆं बुध कॆ बिना 7 ग्रह। 10 भाव मॆं लग्न, भौम, रवि, चंद्र बिना (चंद्र, गुरु, शुक्र, शनि) चार ग्रह, 3 भाव मॆं गुरु, सूर्य, बुध, शुक्र यॆ चार 6 भाव मॆं कॆवल सूर्य॥44॥

व्ययॆ लग्नॆन्दुमंदाकः सिताकॆंन्दुज्ञलग्नकाः ॥ सुतॆ मृतौ बुधाक च हित्वाऽऽयॆ खं शनॆविंदः ॥45॥

12 भाव मॆं लग्न, चंद्र, शनि, सूर्य यॆ चार ग्रह। 5 भाव मॆं शुक्र, सर्य चंद्र, बुध, लग्न यॆ चार ग्रह, 8 भाव मॆं चन्द्र, सूर्य यॆ 2 ग्रह, 11 भाव मॆं कॊ‌ई नहीं करणप्रद हैं। यह शनि की बिन्दु संख्या कही ग‌ई है॥45॥

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अष्टकवर्गाध्यायः ॥

स्पष्टार्थाशनॆःकरणचक्रम। मा.सू. चं. । मं, बु. बृ. शु. शि. ल. स.] त.110101 ।

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अथ लग्नस्य करणसंख्या करणप्रदग्रहांश्चाहतनौ तुर्यॆ च बह्निः स्यादुश्चिक्यॆ द्वौ धनॆ शराः ।. . बुद्धिमृत्यंकरिःफॆषु षट्खॆशक्षतराशिषु ॥46॥।

लग्न और  4 भाव मॆं 3 करण, 3 भाव मॆं 2 करण, 2 भाव मॆं 5 करण, 5।8।9.12 भाव मॆं 6 करण, 10।11।6 भाव मॆं 1 करण॥46॥

रूपं स्त्रियां गुरु त्यक्त्वा लग्नस्य करणं बिदुः । ।

हॊरासूर्यॆन्दवॊ लग्नॆ लग्नाद्विनसूर्यजाः ॥47॥ । 7 भाव मॆं 7 करण हॊतॆ हैं। लग्न मॆं लग्न, सूर्य, चंद्र यॆ तीन करणप्रद हैं। 2 भाव मॆं लग्न, भौम, चंद्र, सूर्य, शनि यॆ 5 करणप्रद हैं॥47॥

गुरुज्ञौ लग्नचन्द्रारा लसूचंमंबुसौरयः ॥ क्षतॆशुक्रस्तथा चैकः कामॆ सर्वॆ गुरु विना ॥48॥

3 भाव मॆं गुरु, बुध यॆ ’2 करणप्रद्ध हैं। 4 भाव मॆं लग्न, चन्द्र, भौम करणप्रद हैं। 5 भाव मॆं लग्न, सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, शनि यॆ करणप्रद हैं। 6 भाव मॆं शुक्र, 7 भाव मॆं सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, शुक्र, शनि यॆ करणप्रद हैं॥48॥

मृतौ भृगुवुधौ त्यस्वा धर्मगुरुसितौ विना ॥ कर्मण्यायॆ तथा शुक्रॊ व्ययॆ सूर्यॆन्दुवर्जिताः ॥49॥

08

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । 8 भाव मॆं सूर्य, चंद्र, भौम, गुरु, शनि, लग्न यॆ 6 ग्रह करणप्रद हैं। 9 भाव मॆं सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, शनि, लग्न यॆ करणप्रद हैं। 10 भाव मॆं और  11 भाव मॆं शुक्र, करणप्रद हैं।.12 भाव मॆं भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, लग्न यॆ 6 ग्रह कंरणप्रद हैं॥49॥

लग्नस्यैवं तु संप्रॊक्तं करणं द्विजपुंगव ॥ . हॆ ब्राह्मण श्रॆष्ठ! इस प्रकार सॆ लग्न कॆ करण (बिन्दु) संख्या कॊ कहा।

उक्तान्यॆ स्थानदातारं इति स्थानं विदुर्बुधाः ॥ अथ स्थानग्रहान्वक्ष्यॆ सुखवीधाय सूरिणाम ॥50॥

पहलॆ सूर्यादि ग्रहॊं कॆ बिन्दु दॆनॆवालॆ ग्रहॊं कॊ कहकर उससॆ भिन्न स्थान (रॆखा) दॆनॆवालॊं कॊ कहतॆ हैं ॥50॥।

अथ रवि भावस्थानप्रदानग्रहान आहस्वायुस्तनुषु मंदारसूर्यजीवुधौ सुतॆ । विक्रमॆ ज्ञॆन्दुलग्नानि लग्नार्कार्किकुजा गृहॆ ॥51॥

सूर्य सॆ 2॥7, 1 भाव मॆं शनि, भौम, सूर्य यॆ तीन रॆखाप्रद ग्रह हैं। 5 भाव मॆं गुरु, बुध यॆ दॊ ग्रह, 2 भाव मॆं बुध, चन्द्र और  लग्न यॆ 3 ग्रह। 4 भाव मॆं । लग्न सूर्य, शनि, भौम यॆ 4 ग्रह॥51॥

खॆ ज्ञॆन्दुरवयश्चायॆ सर्वॆ शुक्रं विना व्ययॆ । लग्नशुक्रवुधाः शत्रौ तॆ च जीवसुधाकरौ ॥52॥

10 भाव मॆं लग्न, सूर्य, शनि, भौम, बुध और  चन्द्र यॆ 6 ग्रह। 11 भाव मॆं शुक्र सॆ भिन्न (सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, गुरु, शनि, लग्न यॆ 7 ग्रह। 12 भाव मॆं लग्न, शुक्र, बुध यॆ 3 ग्रह। 6 भाव मॆं लग्न, शुक्र, बुध, गुरु, चंद्र यॆ 5 ग्रह॥52॥’

- सूर्याष्टकवर्गः। रॆ. सं. 48

सूर्याष्टकवर्गः सू. चं । मं. बु. बृ. । शु. श.

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अष्टकवर्गाध्यायः । छूनॆऽर्कारार्किशुक्राश्च धर्मॆऽर्कारार्किविद्गुरुः।

7 भाव मॆं सूर्य, भौम, शनि, शुक्र यॆ चार ग्रह, 9 भाव मॆं सूर्य, भौम, शनि, बुध, गुरु यॆ 5 ग्रह रॆखाप्रद हैं।

अथ चन्द्र भावस्थानप्रदान्ग्रहानाहज्ञॆन्दुजीवाः कुजाय, ज्ञार्कॆन्द्वारार्किभशुक्राः ॥53॥ । चन्द्रमा सॆ 1 भाव मॆं बुध, चंद, गुरु रॆखाप्रद ग्रह हैं। 2 भाव मॆं भौम, गुरु यॆ दॊ ग्रह रॆखाप्रद हैं। 3 भाव मॆं बुध, सूर्य, चन्द्र, भौम, शनि, लग्न, शुक्र यॆ 7 ग्रह ॥53॥

जीवशुक्रवुधाभौमवुधशुक्रशनैश्चराः ।, रवीन्द्वारार्किलग्नानि रवीन्द्वारार्यज्ञभार्गवाः ॥54॥

4 भाव मॆं गुरु, शुक्र, बुध यॆ 3 ग्रह रॆखाप्रद हैं। 5 भाव मॆं भौम, बुध, शुक्र, शनि यॆ 4 ग्रह रॆखाप्रद हैं। 6 भाव मॆं सूर्य, चन्द्र, भौम, शनि, लग्नयॆ 4 रॆखाप्रद हैं। 7 भावं मॆं सूर्य, चंद्र, भौम, गुरु, बुध, शुक्र यॆ 6 ग्रह रॆखाप्रद । हैं॥ 54॥

अर्कज्ञजीवाः शुक्रॆन्दृ तॆ च तौ लग्नभूसुतौ । सर्वॆ शून्यं क्रमात्प्रॊक्तं स्थानं शीतकरस्य च ॥55॥।

8 भाव मॆं सूर्य, बुध, गुरु यॆ 3 रॆखाप्रद हैं। 9 भाव मॆं शुक्र, चंद्र यॆ 2 ग्रह रॆखाप्रद हैं। 10 भाव मॆं सूर्य, बुध, गुरु, शुक्र, चन्द्र, लग्न, भौम यॆ 7 रॆखाप्रद हैं। 11 भाव मॆं सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, शुक्र, शनि, लग्न यॆ 7 रॆखाप्रद हैं। 12 भाव मॆं कॊ‌ई नहीं रॆखाप्रद है॥55॥। अथ चन्द्रभावस्थानप्रदान्ग्रहानाह रॆ, सं. 49 चन्द्राष्टकवर्गः ॥ ।चं. मं. बु. (बृ. शु. श. सू. लि. । ।सू.4 ॥।2 ।

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । . अथ भौमभावस्थानप्रदान्ग्रहानाहलग्नमन्दकुजा भौमॊ हॊराज्ञॆन्दुदिनाधिपाः ।

मन्दारौ ज्ञरवी ज्ञॆन्दुजवार्कतनुभार्गवाः ॥56॥ । भौम सॆ 1 भाव मॆं लग्न, शनि, भॊम यॆ तीन रॆखाप्रद हैं। 2 भाव मॆं भौम, 3 भाव मॆं लग्न, बुध, चंद्र, सूर्य यॆ 4 रखाप्रद हैं। 4 भाव मॆं शनि, भौम। 5 ‘भाव मॆं बुध, सूर्य। 6. भाव मॆं बुध, चंद्र, गुरु, सूर्य, लग्न, शुक्र यॆ 6 ग्रह॥56॥

। मन्दारौ तौ सितश्चार्किकुजार्कायर्किलग्नकाः ॥

सर्वॆ गुरुसितौ स्थानं भौमस्यैवंविदुर्बुधाः ॥57॥

 7 भाव मॆं शनि, भौम, 8 भाव मॆं शनि, भौम, शुक्र यॆ 3 रॆखाप्रद हैं। 9 भाव मॆं शनि, ’10 भाव मॆं भौम, सूर्य, गुरु, शनि, लग्न 11 भाव मॆं सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, लग्न और  12 भाव मॆं गुरु, शुक्र यॆ 2 ग्रह रॆखाप्रद हैं।157॥

. भौमभावस्थानप्रदान्ग्रहान

भौमस्याष्टकवर्गः 3. सं. 39 मं. बु. । बृ. शु. श. सू. चं. ल. ।ण ॥12 ॥॥10

॥। 1॥मं. 11 46 11 1176 116 ।क॥॥।

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1।सू.4 ॥बु5। अथ बुधभावस्थानप्रदान्ग्रहानाह: लग्नमुन्दारशुक्रज्ञा लग्नारॆन्दुसितार्कजाः ।

शुक्रज्ञौ लग्नचन्द्राकिं, सितारज्ञार्कि भार्गवाः ॥58॥।

बुध सॆ 1 भाव मॆं लग्नं, शनि, भौम, शुक्र, बुध यॆ 5 रखाप्रद हैं। 2 भाव मॆं लग्न, भौम, चंद्र, शुक्र, शनि यॆ 4 रॆखाप्रद हैं। 3 भाव मॆं शुक्र बुध रॆखा दॆनॆ

वालॆ हैं। 4 भाव मॆं लग्न, चंद्र, शनि, शुक्र, भौम यॆ रॆखाप्रद हैं। 5 भाव मॆं बुध. । सूर्य, शुक्र रॆखाप्रद है॥58॥

जीवज्ञार्कॆन्दुलग्नानि भूमिपुत्रशनैश्चरौ । तौ च लग्नॆन्दुशुक्रायः मन्दारार्कज्ञभार्गवाः ॥59 ॥

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अष्टकवर्गाध्यायः ॥

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ऒलॆ लग्नमन्दारविच्चन्द्राः सर्वॆ जीवज्ञभास्कराः । । 6 भाव मॆं गुरु, बुध, सूर्य, चंद्र यॆ रॆखाप्रद हैं। 7 भाव मॆं भौम, शनि यॆ रॆखाप्रद हैं। 8 भाव मॆं लग्न, चंद्र, शुक्र, गुरु, भौम, शनि यॆ रॆखाप्रद हैं। 9 भाव मॆं शनि, भौम, सूर्य, बुध, शुक्र यॆ रॆखाप्रद हैं। 10 भाव मॆं लग्न, शनि, भौम, बुध, चन्द्र रॆखाप्रद हैं। 11 भाव मॆं सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, शुक्र, शनि यॆ रॆखाप्रद हैं। 12 भाव मॆं गुरु, बुध, सूर्य रॆखाप्रद हैं।159॥।

बुधभावस्थानप्रदानग्रहानाह

2. स. 54 .

बुधस्याष्टकवर्गः । बु. । बृ. शु. श. सू. चं. मं. ल.. ॥॥।6

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। अथ गुरॊः भावस्थानप्रदान्ग्रहानाहगुरॊर्लग्नसुखॆ जीवलग्नार्कवुधाः धनॆ ॥60॥। गुरु सॆ 1।4 भाव मॆं गुरु, लग्न, भौम, सूर्य, बुध यॆ 5 ग्रह रॆखाप्रद हैं॥60॥

चन्द्रशुक्रौ च दुश्चिक्यॆ मन्दायक:शनियॆ । ।

शुक्रॆन्दुलग्नज्ञश्चन्द्रविनात्वरौ ॥ 61॥ । 2 भाव मॆं गुरु, लग्न, भौम, सूर्य, बुध, चंद्र, शुक्र यॆ 7 ग्रह रॆखाप्रद हैं। 3 भाव मॆं शनि, गुरु, सूर्य यॆ 3 दॆखाप्रद हैं। 5 भाव मॆं शुक्र,चंद्र,लग्न,बुध, शनि यॆ 5 ग्रह रॆखाप्रद हैं। 6 भाव मॆं शुक्र, लग्न, वुध, शनि यॆ 4 ग्रह रॆखाप्रद हैं॥61॥ . लग्नार्याऽ कॆंदवॊऽस्तॆ मृतौ जीवार्क भूसुताः । ।

धर्मॆ शुक्रार्कलग्नॆन्दुबुधाः मंदं विनाऽऽयम ॥ 62 ॥ मानॆ गुरुबुधारार्कशुक्रहॊरास्तथा विदुः । -

7 भाव मॆं लग्न, गुरु, भौम, सूर्य, चंद्रॆ यॆ रॆखाप्रद हैं। 8 भाव मॆं गुरु, सूर्य, भौम यॆ रॆखाप्रद हैं। 9 भाव मॆं शुक्र, सूर्य, चंद्र, बुध यॆ रॆखाप्रद हैं। 11 भाव

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ । अथ भौमभावस्थानप्रदान्ग्रहानाह: लग्नमन्दकुजा भौमॊ हॊराज्ञॆन्दुदिनाधिपाः ।

. मन्दारौ ज्ञरवी ज्ञॆन्दुजवार्कतनुभार्गवाः ॥56॥

भौम सॆ 1 भाव मॆं लग्न, शनि, भौम यॆ तीन रॆखाप्रद हैं। 2 भाव मॆं भौम, . 3 भाव मॆं लग्न, बुध, चंद्र, सूर्य यॆ 4 रॆखाप्रद हैं। 4 भाव मॆं शनि, भौम। 5 भाव मॆं बुध, सूर्य। 6-भाव मॆं बुध, चंद्र, गुरु, सूर्य, लग्न, शुक्र यॆ 6 ग्रह॥56॥

मन्दारौ तौ सितश्चार्किकुजार्कार्यार्किलग्नकाः ।

सर्वॆ गुरुसितौ स्थानं भौमस्यैवंविदुर्बुधाः ॥57॥।

 7 भाव मॆं शनि, भौम, 8 भाव मॆं शनि, भौम, शुक्र यॆ 3 रॆखाप्रद हैं। 9 भाव मॆं शनि,110 भाव मॆं भौम, सूर्य, गुरु, शनि, लग्न 11 भाव मॆं सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, लग्न और  12 भाव मॆं गुरु, शुक्र यॆ 2 ग्रह रॆखांप्रद हैं।57॥ । . भौमभावस्थानप्रदानुग्रहान

भौमस्याष्टकवर्गः ।... रॆ. सं. 39 । । । मं. बु. (बृ. शु. श. सू. चं. ल.

133 । ॥।14॥मं. 114 ॥।9

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4 1 ॥बु5वृ अथ बुधभावस्थानप्रदान्ग्रहानाहलग्नमन्दारशुक्रज्ञा लग्नारॆन्दुसितार्कजाः । । शुक्रज्ञौ लग्नचन्द्राकिं, सितारज्ञार्किभार्गवाः ॥58 ॥

बुध सॆ 1 भाव मॆं लग्नं, शनि, भौम, शुक्र, बुध यॆ 5 रखाप्रद हैं। 2 भाव मॆं लग्न, भौम, चंद्र, शुक्र, शनि यॆ 4 रॆखाप्रद हैं। 3 भाव मॆं शुक्र बुध रॆखा दॆनॆ वालॆ हैं। 4 भाव मॆं लग्न, चंद्र, शनि, शुक्र, भौम यॆ रॆखाप्रद हैं। 5 भाव मॆं बुध, सूर्य, शुक्र रॆखाप्रद हैं। ।58॥

जीवज्ञाकॆंन्दुलग्नानि भूमिपुत्रशनैश्चरौ । तौ चॆ लग्नॆन्दुशुक्रार्या मन्दारार्कज्ञभार्गवाः ॥59 ॥

ऒल्ग

अष्टकवर्गाध्यायः । लग्नमन्दारविच्चन्द्राः सर्वॆ जीवज्ञ भास्कराः ॥

6 भाव मॆं गुरु, बुध, सूर्य, चंद्र यॆ दॆखाप्रद है। 7 भाव मॆं भौम, शनि यॆ रॆखाप्रद है। 8 भाव मॆं नग्न, चंद्र, शुक्र, गुरु, भॊम, शनि यॆ दॆखाप्रद है। 9 भाव मॆं शनि, भौम, सूर्य, बुध, शुक्र यॆ दॆखाप्रद है। 10 भाव मॆं लग्न, शनि, भौम, बुध, चन्द्र रॆखाप्रद हैं। 11 भाव मॆं सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, शुक्र, शनि यॆ रॆखाप्रद हैं। 12 भाव मॆं गुरु, बुध, सूर्य रॆखाप्रद है॥59 ॥

बुधभावस्थानप्रदानग्रहानाह 2. स. 54

बुधस्याष्टकवर्गः सू. । चं. मं. ल. ] ॥॥6 ॥।सू.4/

॥॥। ॥॥बु5वृ॥।शु. ख 111116  11 टःऎ  ऊळ्ळीट टी‌ऎश

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अथ गुरॊः भावस्थानप्रदान्ग्रहानाहगुरॊर्लनॆसुखॆ जीवलग्नार्कवुधाः धनॆ ॥ 60 ॥ गुरु सॆ 1।4 भाव मॆं गुरु, लग्न, भौम, सूर्य, बुध यॆ 5 ग्रह रॆखाप्रद हैं॥60 ॥

चन्द्रशुक्रौ च दुश्चक्यॆ मन्दायर्का:शनिर्व्ययॆ । । सुतॆ शुक्रॆन्दुलग्नज्ञश्चन्द्रविनात्वरौ ॥ 61॥

2 भाव मॆं गुरु, लग्न, भौम, सूर्य, बुध, चंद्र, शुक्र यॆ 7 ग्रह रॆखाप्रद हैं। 3 भाव मॆं शनि, गुर, सूर्य यॆ 3 वापद हैं। 5 भाव मॆं शुक्र, चंद्र, लग्न,बुध, शनि यॆ 5 ग्रह रॆखाप्रद हैं। 6 भाव मॆं शुक्र, लग्न, बुध, शनि यॆ 4 ग्रह रॆखाप्रद हैं॥61॥

लायऽ कॆंदवॊऽस्तॆ मृतौ जीवार्क भूसुताः ॥ धर्मॆ शुक्रार्कलग्नॆन्दुबुधाः मंदं विनाऽऽयम ॥ 62॥ पानॆ गुरुवुधारार्कशुक्रहॊरास्तथा विदुः ।

7 भाव मॆं लग्न, गुरु, भौम, सूर्य, चंद्र यॆ रॆखाप्रद हैं। 8 भाव मॆं गुरु, सूर्य, भौम यॆ रॆखाप्रद हैं। 9 भाव मॆं शुक्र, सूर्य, चंद्र, बुध यॆ रॆखाप्रद हैं। 11 भाव

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ मॆं सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र, लग्न रॆखाप्रद हैं। 10 भाव मॆं गुरु, बुध, सूर्य, शुक्र, लग्न यॆ रॆखाप्रद है। शुक्र सॆ 1 भाव मॆं लग्न, शुक्र, चंद्र यॆ 3 रखाप्रद हैं। 2. भाव मॆं भी लग्न, शुक्र, चन्द्र रॆखाप्रद हैं॥62॥

गुरुभावस्थानप्रदान्ग्रहानाह

। रॆ. सं. 56

गरॊरष्ठकवर्गः । बृ. शु. श. सू. चं. मं. । बु. ल.

॥॥6 ॥॥सू.4

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.. अथ भृगॊः भावस्थानप्रदान्ग्रहानाह

लग्नशुक्रॆन्दवस्तॆ तॆ ज्ञार्कारास्तॆ ज्ञवर्जिताः ॥ 63 ॥ । 3 भाव मॆं लग्न, शुक्र, चंद्र, बुध, शनि, भौम यॆ 6 ग्रह रॆखाप्रद हैं। 4 भाव मॆं लग्न, शुक्र, चंद्र, भौम, सूर्य यॆ रॆखाप्रद हैं॥ 63 ॥

सुतभॆ लग्नशशिजशशांकार्यार्किभार्गवाः । ज्ञारौ शून्यं सिताकॆंन्दुगुरुलग्नशनैश्चराः ॥64॥

5 भाव मॆं लग्न, चंद्र, बुध, गुरु, शनि, शुक्र यॆ रॆखाप्रद हैं। 6 भाव मॆं बुध, भौम रॆखाप्रद हैं। 7 भाव मॆं शून्यरॆखा। 8 भाव मॆं शुक्र, सूर्य, चंद्र, गुरु, लग्न, शनि यॆ रॆखाप्रद हैं॥64॥ 

। सर्वॆ रविं बिना शुक्रगुरुमन्दाचॆ मानभॆ । ।

सर्वॆ कुजॆन्दुरवयः क्रमामृगुसुतस्य च ॥ 65 ॥। । 9 भाव मॆं चंद्र, भौम, गुरु, बुध, शुक्र, शनि, लग्न यॆ रॆखाप्रद हैं। 10 भाव मॆं शुक्र, शनि रॆखाप्रद है। 11 भाव मॆं सूर्य, चन्द्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, लग्न यॆ रॆखाप्रद हैं। 12 भाव मॆं भौम, चंद्र, सूर्य यॆ रॆखाप्रद हैं॥ 65॥

अष्टकवर्गाध्यायः ।

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भृगुभावस्थानप्रदान्ग्रहानाह

रॆ, सं. 52 शु. श. सू. चं. मं. । बु. बृ.

भृगॊरष्टकवर्गः टं

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अथ शनॆः भावस्थानप्रदान्ग्रहानाहशनॆः रवितनू सूर्यॊं लग्नॆन्दुकुजसूर्यजाः ॥ लग्नाक जीवमन्दाराः सर्वॆ सूर्य बिना क्षतॆ ॥66॥

शनि सॆ 1 भाव मॆं सूर्य, लग्न यॆ दॊनॊं रॆखाप्रद हैं। 2 भाव मॆं सूर्य। 3 भाव मॆं लग्न, चंद्र, भॊम, शनि रॆखाप्रद हैं। 4 भाव मॆं लग्न, सूर्य रॆखाप्रद हैं। 5 भाव मॆं गुरु, शनि, भौम रॆखाप्रद हैं। 6 भाव मॆं चन्द्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, लग्न रॆखाप्रद हैं॥66॥

अर्कॊऽर्कज्ञौ बुधॊऽकरतनुज्ञाः सकलाश्चताः । कुजज्ञगुरुशुक्राश्च क्रमास्थानमिदं विदुः ॥67॥

7 भाव मॆं सूर्य। 8 भाव मॆं सूर्य, बुध रॆखाप्रद हैं। 9 भाव मॆं बुध। 10 भाव मॆं सूर्य, भौम, लग्न, बुध रॆखाप्रद हैं। 11 भाव मॆं सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, लग्न यॆ रॆखाप्रद है। 12 भाव मॆं भौम, बुध, गुरु, शुक्र रॆखाप्रद हैं॥67॥

शनॆः भावस्थानप्रदान्ग्रहानाह रॆ सं. 39

शनॆरष्टकवर्ग: । श. सू. । चं. [सं. । बु. । बृ. ।शु. ल.] ॥ 9 ॥ 7/

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । अथ लग्नस्य भावस्थानप्रदान्ग्ग्रहानाह

अथ स्थानं प्रवक्ष्यामि लग्नस्य द्विजपुंगव ॥ 68॥ .. : हॆ मैत्रॆया रॆखा कॊ ही स्थान कहतॆ हैं। लग्न कॆ रॆखाप्रद ग्रहॊं कॊ कह रहा

’: हूँ॥68॥

. .

. आर्किज्ञशुक्रगुर्वाराः सौम्य दॆवॆज्यभार्गवाः ॥ हित्वा सौम्यगुरु शॆषाः सूज्ञॆज्यभृगुसूर्यजाः ॥69॥

लग्न भाव मॆं शनि, बुध, शुक्र, गुरु, भौम यॆ 5 ग्रह रॆखाप्रद हैं। 2 भाव मॆं बुध, गुरु, शुक्र यॆ रॆखाप्रद हैं॥69॥।

 तथा जीवभृगुवुधौ सर्वॆ शुक्रॆ बिना क्षतॆ । । जीव ऎकस्तथा चूनॆ मृतौ सौम्यभृगू तथा ॥70॥

3 भाव मॆं सूर्य, चंद्र, भौम, शुक्र, शनि, लग्न रॆखाप्रद हैं। 4 भाव मॆं सूर्य, । बुध, गुरु, शुक्र, शनि रॆखाप्रद हैं। 5 भाव मॆं गुरु, शुक्र रॆखाप्रद हैं। 6 भाव मॆं

सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, गुरु, शनि लग्न रॆखाप्रद हैं। 7 भाव मॆं गुरु। 8 भाव मॆं । बुध, शुक्र, रॆखाप्रद हैं॥70॥ ।

धर्मॆ गुरुसितावॆव. तॆ सर्वॆ शुक्रमंतरा ।

सूर्यचन्द्रौ रिष्फॆ स्थानं लग्नस्यकीर्तितम ॥71॥

 9 भाव मॆं गुरु, शुक्र रॆखाप्रद हैं। 10।11 भाव मॆं सूर्य, चन्द्र, भौम, बुध, गुरु, शनि, लग्न यॆ रॆखाप्रद हैं। 12 भाव मॆं सूर्य, चंद्र, रॆखाप्रद हैं॥71॥

2. लग्नभावस्थानप्रदान्ग्रहानाह। रॆ, सं. 49

लग्नाष्टकवर्गः ॥ ल सूचं मं बु. बृ. शु. श. ।

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॥ ॥॥वि-चॆ

अष्टकवर्गाध्यायः ॥

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ऎ‌ऎ करणं विन्दुवत्प्रॊक्तं स्थानं रॆखा तथॊच्यतॆ । मुनिदिग्वसुवॆदादिगिष्वद्यष्टनवॆषवः ॥72॥ रूद्रार्का वर्गणामॆषाद्विविषयॆऽष्टवायवः । पंक्तिस्वरॆषवः सूर्याद्वर्गणा प्रॊच्यतॆ बुधैः ॥73॥

करण का स्वरूप विन्दु (शून्य) का हैं और  स्थान का स्वरूप रॆखा कॆ (1) सदृश हैं। भॆषादि राशियॊं का क्रम सॆ 7।10।8।4।10।5।71819।5।11।12 यॆ गुणक हैं। और  सूर्यादि ग्रहॊं कॊ 5।5।8।5।10।7।5 यॆ गुणक हैं॥72

311

राशिगुणकबॊधकचक्रम। [ मॆ. बृ. । मि. क. सि.कॆ. तु. वृ. ध. । म. कुं. मी. (राशयः । । 741059 मिश्रिगुणकः ।

ग्रहगुणकबॊधकचक्रम। । सू. चं.मं. बु. वृ.शु.श.। अहाः

5 ।5।8।5।10॥ 5 । गुणकः।

करणस्थान लॆखनविधिः। नव. रॆखालिखॆदूवर्तियग्रॆखास्त्रयॊदश ।

तदा तु षण्णवतिः स्युः ग्रहयॊगॆ पदानि च ॥74॥

नव रॆखा ऊर्ध्वाधर (खडी) और  तॆरह रॆखा आडी (तिरछी) लिखनॆ सॆ 96 कॊष्ठ का चक्र ग्रहॊं कॆ यॊग कॆ लियॆ बन जातॆ हैं॥74॥।

तस्याशुभस्य विन्यस्य चाष्टवर्ग ततः क्रमात । । त्रिकॊणैकाधिपस्यास्य कुर्याच्छॊधनकं बुधः ॥75॥ . पूर्वॊक्त अशुभ सूर्य चन्द्र चतुर्थ और  पंचम मॆं सम्पर्क रखनॆवालॆ पूर्वॊक्त पापग्रहॊं का अष्टवर्ग रखकर त्रिकॊण और  ऎकाधिपत्य शॊधन करॆं। त्रिकॊण स्थान 3 हॊतॆ हैं अर्थात 1।5।9 इसी का संशॊधन करना॥75॥।

इति पाराशर हॊरायामुत्तरभागॆ प्रथमॊध्यायः॥

87

--------

-

-

-

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । , अथ द्वितीयॊऽध्यायः

। भावसाधनम - लग्नं सुखात सुखं कामात कामं खात खं च लग्नतः। त्र्यंशमॆकद्विगुणितं युज्याल्लग्नादिषु क्रमात ॥1॥

लग्न मॆं सुख भाव सॆ घटाना, सुख भाव कॊ सातवॆं भाव सॆ, सातवॆं भाव कॊ दशम भाव सॆ और  दशम भाव कॊ लग्न सॆ घटाकर शॆष का तृतीयांश लॆकर क्रम सॆ 1 और  2 सॆ गुणकर पूर्व कॆ भावॊं मॆं जॊडनॆ सॆ आगॆ कॆ दॊ भाव हॊ जातॆ । है। अर्थात लग्न कॊ सुखभाव सॆ घटाकर शॆष का तृतीयांश ऎक सॆ गुणकर लग्न मॆं बॊडनॆ सॆ द्वितीय भाव और  तृतीयांश कॊ 2 सॆ गुणकर लग्न मॆं जॊडनॆ सॆ तृतीय भाव हॊता हैं॥1॥

पूर्वापरयुतॆरर्ध संधिः स्याद्भवयॊर्द्वयॊः । ऎवं द्वादशभावास्तु भवन्ति च ससन्धयः ॥2॥

पूर्वभाव और  आगॆ कॆ भाव का यॊग कर आधा करनॆ सॆ भाव की संधि हॊती है। इस प्रकार संधि कॆ सहित 12 भाव हॊतॆ हैं॥2॥

ट्दाहरण-जैसॆ संवत 2013 श्रावण कृष्ण 13 शनिवासरॆ पुनर्वसुभॆ प्रथमचरणॆ इष्टम 3228/30 जन्मलग्नम 9।17।50।14।

स्पष्टग्रह।

जन्माङ्गम ॥ . चं ।मं. बु. ब. शु. श. । 118

5  801816

6 6

राश 22/12/ 2 2 रू ऎ314

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- भावस्पष्ट का उदाहरण- सुख भाव राश्यादि 1।1।29।4 इसमॆं लग्न श्यादि 91750।14 कॊ घटाया तॊ शॆष 3।13।38।50 शॆष रहा इसमॆं तीन सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि राश्यादि 1।4।32।56 हु‌ई इसॆ लग्न मॆं जॊडनॆ सॆ पृश्यादि 10।22।23।10 घनभाव हु‌आ। पुनः लब्धि कॊ 2 सॆ गुणा दॆनॆ सॆ

श्यादि 2॥9॥5॥5320 हु‌आ इसॆ लग्न मॆं जॊडनॆ सॆ राश्यादि 11।26।56।7 यह सहजभाव हु‌आ। लग्न और  धनभाव कॊ जॊडकर आधा करनॆ सॆ 4।5।6।42 क्ह दॊनॊं भावॊं कॆ वीच की संधि हु‌ई। इसी प्रकार अन्य भावॊं का भी साधन करना चाहियॆ। लग्न मॆं 6 भावॊं मॆं 6 राशि जॊडनॆ सॆ शॆष 6 भाव और  उनकी संधियां हॊ जाती हैं शॆष चक्र मॆं स्पष्ट है।

ट्ण

अथ द्वितियॊऽध्यायः।

ऎश । त. । स. । घ. सं. स. [सं. । सु. सं. सु. [ सं. । रि. [सं.]

808088.88  9614133182888 1881ऎश्फ4 40384ऽफ्फ्भॆ 38 ई‌ऎ

3819 348 34/38/38 । मा सिं. इमृ. सिं. घ. [सं. कि. सं.] आ। सं. व्य. [सं.] । 31818414 191 छ्छ्श

फू413318 ऎफ8119818 श114 40ऎ 381488317318314 3813 88

348 349 , नैसर्गिकमैत्रीचक्रम।

तात्कालिकमैत्रीचक्रम। . चिं. मं.बु.बृ. शु.

3

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20 

ऎट:

मॆं, बु. । बृ.शि.

1

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चं.

श.

  2

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4 सल तल

नल चल :49 4. चल्ल 4.

मित्राणि

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.

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मॆं # छ

4

शत्रवः

0

10

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1

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पंचधामैत्रीचक्रम।

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44.24॥

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। इफ । 

रॊ‌इ

ःऎट: । अधि मित्राणि

रॊ‌इ

मित्राणि

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भॆचौत ऒ‌इ

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ऎ. 4 .24

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शत्रवः 319। शन्नचः

4.

। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

अथ दृष्टिवलसाधनम - दृश्याद्विशॊध्य द्रष्टारं घड्राशिभ्यॊऽधिकं भवॆत । दिग्भ्यॊ विशॊध्य द्वाभ्यां तु भागीकृत्य चदृष्टयः ॥3॥

जॊ ग्रह जिस ग्रह कॊ दॆखता है उसॆ द्रष्टा कहतॆ हैं, जिसॆ दॆखता है उसॆ दृश्य कहतॆ हैं। दृश्य ग्रह मॆं द्रष्टाग्रह कॊ घटा दॆना शॆष राशि स्थान मॆं 6 सॆ अधिक बचॆ तॊ उसॆ 10 मॆं घटाकर शॆष मॆं दॊ सॆ भाग दॆनॆ सॆ-दृष्टि हॊती है॥3॥

द्रष्टाग्रह। । सू. चं. मं. । बु. । बृ. । शु. । श.

ऒ न वलॆ वॆरॆ सॊलॊ

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ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ मॊ‌ऒ‌ऒल्त लॊ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ 0. ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒव्वॊ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ

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अथ द्वितियॊऽध्यायः।

ऎ84

दृग्वलचक्र। । सू. । चं. । । मं. । बु. । वृ. । शु.। श. । ग्रह ।

ग्रह।

भॆट 21] 8 । 33 । 9 । 17 । 6 । 18 । क. ॥27।21 । 48 । 41 । 35] 20। 13 । विक । । ऋ. । ऋ. । ध. । ऋ. । ऋ. । ध.। 4. । सं.

शराधिकॆ विनाराशिं भागाद्विग्नाश्च दृष्टयः । वॆदाधिकॆ त्यजॆताद्भागादृष्टिस्त्रिभाधिकॆ ॥4॥

यदि शॆष 5 सॆ अधिक बचॆ तॊ राशि कॊ छॊडकर शॆष अंशादि कॊ दूना करनॆ सॆ दंष्टि हॊती है। चार सॆ अधिक शॆष बचॆ तॊ 5 मॆं घटा दॆ शॆष राशि कॊ छॊडकर अंशादि दृष्टि हॊती है॥4॥

विशॊध्यार्णवतॊ द्वाभ्यां लब्धत्रिंशद्युतं भवॆत ।

कराधिकॆ विनाराशिं भागास्तिथियुतं भवॆत ॥5॥ , यदि शॆष तीन सॆ अधिक बचॆ तॊ उसॆ चार राशि मॆं घटाकर दॊ सॆ भाग दॆकर लब्ध मॆं 30 जॊड दॆनॆ सॆ दृष्टि हॊती हैं। शॆष दॊ सॆ अधिक हॊ तॊ राशि कॊ छॊडकर अंश मॆं 15 जॊड दॆनॆ सॆ दृष्टि हॊती है॥5॥

रूपाधिकॆ बिना राशिं भागा द्वाभ्यांविभाजिताः । त्रिदशॆ च त्रिकॊणॆ च चतुरखॆं क्रमादथ ॥6॥

शरवॆदा खरामाश्च तिथयॊ यॊजिताः क्रमात । शनिदॆवॆज्य भौमानामादौ दृष्टिः स्फुटा भवॆत ॥7॥

यदि द्रष्टा दृश्य का अन्तर ऎक सॆ अधिक हॊ तॊ राशि कॊ छॊडकर अंशादि कॊ 2 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि तुल्य दृष्टि हॊती है। शनि की तृतीय दशम दृष्टि हॊ तॊ 45, गुरु कॆ त्रिकॊण दृष्टि मॆं 30 और  मंगल कॆ चतुरस्र (4।8) दृष्टि मॆं दृष्टिं फल मॆं 15 और  जॊड दॆनॆ सॆ स्पष्ट दृष्टि हॊती हैं॥6-7॥

" उदाहरण- जैसॆ द्रष्टा सूर्य राश्यादि 3।18।26।34 दृश्य भौम राश्यादि 10।12।32।8 दृश्य मॆं द्रष्टा कॊ घटानॆ सॆ शॆष राश्यादि 6।24।5।34 हु‌आ यह 6 सॆ अधिक है अत: इसॆ 10 मॆं घटानॆ सॆ शॆष राश्यादि 3।5।54।26 हु‌आ राशि का अंश बनाकर अंश जॊडकर 2 सॆ भाग दॆनॆ लब्धि 0/47/58 यह भौम पर सूर्य की दृष्टि हु‌ई इसी प्रकार अन्य ग्रहॊं का दृष्टि साधन करना शॆष चक्र सॆ स्पष्ट है।

उच्चबल साधन। नीचॊनं तु ग्रहं भार्धाधिकॆ चक्राद्विशॊधयॆत । भागीकृत्य त्रिभिर्भक्तं फलमुच्चबलं भवॆत ॥8॥

;

=

ऎ‌ऎ

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । ग्रह मॆं उसकॆ नीच राश्यादि कॊ घटाकर शॆष 6 राशि सॆ अधिक हॊ तॊ 12 । राशि मॆं घटाकर शॆष का अंश बनाकर उसमॆं तीन का भाग दॆनॆ सॆ फल उच्चवल । हॊता है॥8॥

उदाहरण- जैसॆ सूर्य राश्यादि 3।18।26।34 इसका नीच राश्यादि । 6।10 है इसकॊ सूर्य मॆं घटानॆ सॆ शॆष राश्यादि 9।8।26।34 वचा यह 6 राशि सॆ अधिक इसलियॆ इसॆ 12 राशि मॆं घटानॆ सॆ शॆष 2।21।33।26 बचा इसमॆं

राशि का अंश बनाकर 3 सॆ भाग दॆनॆ सॆ 27।11।8 यह सूर्य का उच्चबल हु‌आ । शॆषचक्र मॆं स्पष्ट है।

उच्चबलचक्र। । सू. चं. म. । बु. । बृ. शु. । श. । ग्रह । । 2 । 2 । । 0 . 0 0 । अंश

312ट ॥ 27 ।4355/46 ।49 ।38 ।55 । कला ॥ 21 ।30।8।47 ।52 ।19।46 । विक

सप्तवर्गज बल साधन मूलत्रिकॊणस्वर्धाधिमित्रमित्रसमारिषु ।

अधिशत्रुगृहॆ चापि स्थितानां क्रमशॊबलम ॥9॥ भूताब्धयः खरामाश्च नखास्तिथिर्दिशॊ युगाः ॥

ग्रह अपनॆ मूलत्रिकॊण राशि मॆं हॊ तॊ 45, अपनॆ राशि मॆं हॊ तॊ 30, अपनॆ अधिमित्र की राशि मॆं हॊ तॊ 20, अपनॆ मित्र की राशि मॆं हॊ तॊ 15, सम की राशि मॆं हॊ 10, शत्रु की राशि मॆं हॊ तॊ 4 और  अधिशत्रु की राशि मॆं हॊ तॊ 2 बल प्राप्त करता है॥9॥ स्पष्टार्थ चक्र कॊ दॆखियॆ॥

सप्तवर्गजबलचक्र॥ । सू. । चं. । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । ग्रहाः

इ‌इ र

। महबल

रावल ॥ इ । दॆकाबल। । ॥ 3 ॥20।सप्तमांबल

**** ॥15। 20 । 1518 । द्वादशांबल [5] ।15॥15॥ त्रिंशांशबल

* ऒहः हिः अल

नवमांबल

80

ऒल्ग

त्रिंशांशबल

ऎफीछ

गॆहाङ्गम। ण्मं.11

अथ द्वितीयॊऽध्यायः ।

हॊराङ्गम। 9। ण67 सू.चंश4/

श.8॥ 7 बुमंशु5वृ 3

फॊ

द्रॆष्काणाङ्गम।

सप्तमांशांगम।

पं.शु2/

। चं.8

चं

*श.8,

73

नवमांशांगम।

द्वादशांगम। ”

श.वृ.4 शं.वृ.4,

बु.2,

* चं,

। शु.3

त्रिशांशांगम॥

1

बु. 11 ।

फ्फ

7

31य्ट

0

1586.

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

युग्मायुग्मबलद्वाविन्दुशुक्रौ युग्मांशॆ तिथिरॊजांशगाः परॆ ॥10॥

चन्द्रमा और  शुक्रं समराशि या समराशि कॆ नवांश मॆं हॊं तॊ 15 बल अर्थात दॊनॊं मॆं हॊ तॊ 30 बल पातॆ हैं, अन्य ग्रह सूर्य, भौम, बुध, गुरु, शनि यॆ विषम । राशि या विषम राशि कॆ नवांश मॆं हॊं तॊ 15 वल पातॆ हैं॥10॥

युग्मायुग्मबलचक्र। सू. । चं. मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । ग्रह ।

ऎ ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ 240124185186

1018434184 2 । 15 । कला

छाश ....... प. 0 । 2 । । 0 । 0 । 0 । विकला

विकला : कॆन्द्रादि द्रॆष्काणबल

कॆन्द्रादिषुस्थिता लग्नात्पॆष्टत्रिंशत्तिथिः क्रमात ।

आदिमध्यावसानॆषु द्रॆष्काणॆषु स्थिताः क्रमात ॥11॥

कॆंद्रादि अर्थात कॆन्द्र, पणफर, आप्नॊक्लिम मॆं ग्रह हॊ तॊ क्रम सॆ 60, 30 . 15 बल पाता है॥11॥

 पुंन्नपुंसकॊषाख्या दद्युस्तिथिबलं ग्रहाः । - स्त्रषड्वर्गगतात्रिंशदॆवं स्थानबलं विदुः ॥12॥ .. पुरुष ग्रह (सूर्य, भौम, गुरु) प्रथम द्रॆष्काण मॆं, नंपुसक ग्रह (बुध, शनि) दूसरॆ द्रॆष्काण. मॆं और  स्त्रीग्रह (चंद्र, शुक्र) तीसरॆ द्रॆष्काण मॆं 15 बल पातॆ हैं। विशॆष- यदि ग्रह अपनॆ षड्वर्ग मॆं हॊं तॊ द्रॆष्काण मॆं 30 बल पाता है। इस प्रकार पूर्व कॆ सभी बलॊं कॊ मिलानॆ सॆ ग्रह का स्थान बल हॊता है॥12॥

कॆन्द्रादिबलचक्र।

द्रॆष्काणबलचक्र। .चं. मं. बु. बृ. शु. श. । ।चं. मं. बु. बृ. शु. श. 210

0 0 0 0

टॊ‌ऒल

018413030130184130

ऒ‌ऒ

। ऒलॊलॊलॊ ऒ‌ऒ

उच्चबल + सप्तवर्गजबल + युग्मायुग्मबल + कॆन्द्रादिबल + द्रॆष्काणबल = स्थान बल।

ऒ‌आ

0 घा

0

0

ऎण

0

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ऒ‌ऒ‌ऒ

0

0

0

अथ द्वितीयॊऽध्यायः ।

स्थानबलचक्र। सू. चं. । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । ग्रह । । 2 । 2 । 2 । 3 । 3 । 3 । 2 । अंश । । 25] 48 57। 56 । 59। 8 । 24 । कला । 11।30। 8 । 47 । 52।19। 40 [विकला

दिग्बल। अर्काकुजात्सुखं जीवाज्ञाच्चास्तं लग्नमार्कितः । मध्यलग्नं भृगॊश्चंद्राद्धित्वा षड्भाधिकॆ सति ॥13॥ चक्राद्विशॊध्य रामाप्तं भागीकृत्य च तद्वलम ।

सूर्य और  मंगल सॆ सुखभाव कॊ, गुरु और  बुध सॆ सप्तम भाव कॊ, शनि सॆ लग्न कॊ, शुक्र और  चन्द्र सॆ दशम लग्न कॊ घटाकर शॆष 6 राशि सॆ अधिक हॊ तॊ॥13॥ । इसकॊ 12 राशि मॆं घटाकर शॆष का अंश कर 3 सॆ भाग दॆनॆ सॆ दिग्बल हॊता है॥13॥

दिग्बलचक्र। सू. । चं. । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । अह ।

42 । 26 । 5 । 8 । 49 । 25 । अंश

59 । 18 । 50 । 20 । 4 । 3 । कला 0 । 25 । 58 । 55 । 14 । 39] 7 विकला

कालबल नतॊन्नबल। आमध्याह्लादर्धरात्राद्दिवारात्रिरिति क्रमात ॥14॥

अर्कभार्गवसूरीणांद्विघ्ना नाड्यॊगता दिवा । . भौमचन्द्रशनीनां तु षष्ठिभ्यॊ वर्जयॆदिमाः ॥15॥

मध्याह्न सॆ अर्धरात्रि कॆ अन्दर इष्टकाल हॊ तॊ नत कॊ दूना करनॆ सॆ सूर्य, शुक्र और  गुरु का नतवल हॊता है और  इसॆ 60 मॆं घटानॆ सॆ मंगल, चन्द्र, शनि का दिवावल हॊता है। अर्धरात्रि सॆ मध्याह्न कॆ अंतर कॊ इष्टकाल हॊ तॊ उन्नत घट : का दुना करनॆ मॆं चन्द्र, मंगल शनि का रात्रिवल हॊता है और  इसॆ 6.0 मॆं घटानॆ सॆ सूर्य, शुक्र, गुरु का रात्रिवल कलात्मक हॊता है और  बुध का सदैव 1 अंश्वल हॊता है॥14-15॥।

उदाहरण- नर्तकाल 13।13।30 कॊ 2 सॆ गुण दॆनॆ सॆ 26।27 यह चन्द्रमा, भौम शनि का बल हु‌आ और  उन्नत घट्यादि 16।47।30 कॊ दॊ सॆ गुण दॆनॆ सॆ सूर्य, गुरु, शुक्र का बल हु‌आ शॆष चक्र मॆं स्पष्ट है।

ई‌ऎ

...

1

---

---

620 ।

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥

नतॊन्नतबल। सू. । चं. मं. । बु. बृ. । शु. । श. । ग्रह ।

8 । 1 । 8 । 0 । 5 । अंश 3 । 26] 26 । 2 । 33 [33] 26 । कला ।35।27।27। 0 ।35।35। 27 । विक.

। पक्षबलदिवावलमिति प्रॊक्तं बलं. नृशं ततॊऽन्यथा ।

षष्टिरॆव सदाज्ञस्य चन्द्रादर्क विशॊध्य च ॥16॥ । अङ्गाधिकॆ विशॊध्याकद्भागीकृत्य त्रिभिर्भजॆत । ’.

पक्षकंबलमिन्दुज्ञशुक्राणां तु षष्ठितः ॥17॥ । चन्द्रमा मॆं सूर्य कॊ घटा दॆ यदि शॆष 6 राशि सॆ अधिक हॊ तॊ उसॆ 12 मॆं घटाकर शॆष का अंश वनाकर 3 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्ध चन्द्र, बुध, शुक्र और  

गुरु का पक्षबल हॊता है और  इसॆ 60 मॆं घटा दॆनॆ सॆ शॆष ग्रह-सूर्य, भौम और  ! शनि का पक्षबल हॊता है॥16-17॥

उदाहरण- 1।22।30।47 मॆं सूर्य 2।18।26।34 कॊ घटानॆ सॆ शॆष . 11।4।4।13 यह 6 राशि सॆ अधिक है इसलियॆ इसॆ 12 मॆं घटाकर शॆष 0।25।5547 मॆं 3 का भाव दॆनॆ सॆ 0।38135 यह चन्द्र, बुध, शुक्र और  गुरु का पक्षबल हु‌आ। इसॆ 60 मॆं घटानॆ सॆ शॆष 0।21। 25 यह सूर्य भौम शनि का पक्षबल हु‌आ।

पक्षबलचक्र। सू. । चं, । मं, । बु. । बृ. । शु. । श, । ग्रह। । 0 । 0 । 0 । 0 . 0 0 । 0 अंश । । 21 । 38।21॥ 38 ।38 ।34।21 । कला । ॥25।35।25।35।35।35।25 । विक. ।

- दिवारात्रित्रिभागबलहित्वामन्यॆषामहॊमानं त्रिभागीकृत्य यत्र तु । जन्मलग्नतदंशाधिपतॆः षष्ठिबलं भवॆत ॥18॥ आधानॆ चित्प्रवॆशॆ तु त्रिंशद्भूतार्णवा वलम । ज्ञार्कमन्र्दॆदशुक्राराः पतयः सर्वदागुरुः ॥19॥

अहॊरात्र अर्थात दिन और  रात्रि का तीन-तीन भाग करनॆ सॆ 6 भाग हॊता.. है इन 6 भागॊं कॆ अधिपति क्रम सॆ बुध, सूर्य, शनि, चन्द्र, शुक्र और  भौम हॊतॆ

हैं। अंशाधिपति अर्थात जिस भाग मॆं जन्मलग्न हॊ उसकॆ स्वामी का 60 कला बल 3 हॊता है। गर्भाधान मॆं 30 और  चैतन्य प्रवॆश मॆं 45 बल हॊता है और  गुरु का

टॊ‌ऒ

0

अथ द्वितीयॊऽध्यायः । सर्वदा 1 अंश वल हॊता है, शॆष चक्र सॆ स्पष्ट है॥18-19॥

दिवारानिन्निभागबलचक्र। । सू. चं. मं.। बु. । बृ. । शु.] श.] ग्रह ।

2 । । । । 1 । । 2 । अंश । । । । । । 2 कना । । । । । । 6 । विक,

अस. वर्षामासदिनहॊरॆशबलवर्षमासदिनॆशानां तिथि त्रिंशच्छरार्णवाः । कालहॊराधिपस्यैवं पूर्ण बलमुदाहृतम ॥20॥

वर्ष-मास, दिन कॆ स्वामियॊं का क्रम सॆ 15, 30, 45 बल हॊता है और  कालहरॆश का पूर्ण 1 अंश बल हॊता है। पूर्व कॆ सभी 4 बलॊं का यॊग करनॆ सॆ कालबल हॊता है॥20॥

वर्षॆशादि साधन शकॆ 1878 श्रावण कृष्ण 13 शनिवार कॊ कलियुगादि अहर्गण साधन। 1878 + 31579 = 5 0 57 गतकलिः

घॊघॊछू(छॆ‌ऎ

460

य्घ्छ यॊ

20 यॊ

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60684 -मास

3 गतमास ऎड ऎछ्घ

ऒघ 26

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264 38844 (284 ऎ2442

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820ऽ4ऒ ऎय

27 गतॆ ।

फ्छ98420 884

 29303ऒग्य246(783 864

य0ऎ ऎ9छ घ्घ 244 908

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प4

8206420

फॆ 8ऊय

8284

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3809

ऎछ

1847225 अहर्गणः ।


वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

0 वषॆश-मासॆश साधन। अर्गण-373 ,

3520 = ल । ऒ‌उम

शॆष.

शॆष

इतॆ

--

360 ल.

30 =

3+

-----

--

7 = शॆष = वषॆश ल*2+1

12 = शॆष = मासैश

,

। इसकॆ अनुसार । 8छ89234

. 363

18468.52(733’ 360)2212(6

ऎ‌ऒ

3

कॆत . . ,

) 3 3 1 3(732 ल.

80

छ्घ..

-

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837

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694 गॊ

सॊ ऊ43

ऎ 4ऒ‌ऒ । 2212 शॆष, 653+1= 5 वषॆश = गुरु

7342+1 = 3 मासॆश = भौम

फ इस प्रकार सॆ वर्षॆश गुरु और  मासॆश भौम हुयॆ। जिस दिन जन्म हॊता है। वहीं वारॆश हॊता है।

। कालहॊरॆश साधन उक्त दिन बार प्रवृत्ति सूर्यॊदय कॆ बाद 2 घटी 12 पल पर हु‌ई हैं अतः बार प्रवृत्ति सॆ इष्ट घटी 30।16 हु‌आ।

(3016  2) = ल. = 12, शॆ. = 0।32

(6032 - 0132 + 1) = 57 दिनपति सॆ 5 वाँ भौम काल हॊरॆश हु‌आ। . 7

वर्षॆशादिबलचक्र। [सू. । चं. । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । ग्रह ।

टॊ टॊतॊ1 3ट्ट

आछ्ट 2 विकला

4

.

.

2284

लॊर

नतॊत्रतवल + पक्षबल + त्रिभागबल + वषॆशादिबल = कालबल।

अथ द्वितीयॊऽध्यायः । ।

ऎ3

कालबलचक्र॥ चं. । मं, । बु. । बृ. । शु. । श. । अह ।

1 । 2 । 1 3 । 1 । 1 । अंश 4 , 4 1138 । 311233 कॆला

॥ 5 2 25 । । 0 । 52 । विकला

अयनबलसाधन‌आधानॆ चित्प्रवॆशॆ तु त्रिंशच्छरजलकराः । सायनांशग्रहभुजराशीनिष्वब्धिभिः । सुरैः ॥21॥ सूर्यैर्हत्वा क्रमाद्राशिभागः स्यादनुपाततः । ऎवं राश्यादिकॆ युंज्यादकरायशनः सु च ॥22॥ राशियमथॊ युंज्यान्मॆषादिस्थॆषु तॆष्वथ । तुलादिस्थॆषु राश्यादीस्त्रिराशिभ्यस्तु वर्जयॆत ॥23॥

चन्द्राक्यविपरीतं स्यात्सदा युंज्याधस्य तु । भागीकृत्य त्रिभिर्भक्तं ग्रहाणामयनं बलम ॥24॥

अयनांश युत ग्रह कॆ भुज राशि कॆ तुल्य ध्रुवांक सॆ 455।33।12 गुण कर

 30 सॆ भाग दॆकर लब्धि मॆं गतखंड कॊ जॊडकर राश्यादि बनाकर तुलादि 6 राशि मॆं 3 घटा दॆना मॆषादि 6 राशि मॆं हॊ तॊ 3 जॊड दॆना। परन्तु चन्द्र शनि मॆं विलॊम करना अर्थात तुलादि मॆं जॊडना और  मॆषादि मॆं घटाना, बुध मॆं सर्वदा 3 राशि जॊडना और  अंश करकॆ 3 सॆ भाग दॆनॆ सॆ अयनबल हॊता है किन्तु सूर्य कॆ बल कॊ दूना करनॆ सॆ अयन बल हॊता है। 21+24॥

उदाहरण- सूर्य 3।18।26।34 इसमॆं अयनांश 21॥51॥ 18 जॊडनॆ सॆ 4 । 10 । 17 । 53 हु‌आ इसका ज़ बनानॆ सॆ 1।19।4318 हु‌आ, यहाँ पूवक्त नियम कॆ अनुसार 1 राशि का ध्रुवांक 33 प्राप्त हु‌आ, इससॆ अंश कला विकला

कॊ गुण दॆनॆ सॆ 65 1।6।24 हु‌आ इसमॆं गतखंड 45 कॊ जॊड दॆनॆ सॆ 16।6।24 इसका राशि कर शॆषादि मॆं हॊनॆ सॆ 3 राशि जॊडकर राशि कॆ अंश बनाकर इसमॆं 3 का भाग दॆनॆ सॆ लव्ध 62।2।2 यह सूर्य का अयन वल हु‌आ इसी प्रकार अन्य ग्रहॊं का भी साधन करना॥

अयनबलचक्र। । सू. । चं. । बं. । बु. । बृ. । शु. । श. । ग्रह । 124 1 । 17 4इ6 4इ2 । 59 53 अंश ।

43 47 । विकला

3

17

.

78. .

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

युद्धादिबलरवॆर्दिगुणमॆवं, स्याद्युध्यतॊग्रहयॊरथ ॥ ’विश्लॆषं बलयॊश्चापि निर्जितस्य बलं भवॆत ॥25॥

अपनीतॆ यॊजितॆ तु जितस्य च बलं भवॆत ।

ग्रहयुद्ध का लक्षण-जन्मकाल मॆं भौमादि ग्रहॊं मॆं जॊ दॊ ग्रह राशि अंश कला विकलादि सॆ आपस मॆं तुल्य हॊं उनका परस्पर युद्ध हॊता है। ऐसॆ युद्ध करनॆ वालॆ दॊनॊं हॊं कॆ बलैक्य का अंतर करना जिसका वल अधिक हॊ वह विजयी और  विसका वल कम हॊ वह निर्जित अर्थात पराजित कहा जाता है।बलैक्य मॆं अंतर कॆ अंक मॆं घटानॆ सॆ दक्षिण दिशा कॆ निर्जित ग्रह का बल हॊता है। और  जित ह कॆ वलैक्य मॆं अंतर कॊ जॊडनॆ सॆ जित ग्रह का उत्तर दिशा का बल हॊता है।

गतिबल

गतिबलधष्टिवक्रुगतॆवीर्यमनुंवक्रगतॆदलम । 11फॆ ईट

पादं विकलभुक्तॆः स्याद्लमॆव समागमॆ । ... पादं मंदगतॆस्तस्य, दल मन्दतरस्य च ॥ 27 ॥ । शीघ्रभुक्तॆस्तु पादॊनं दलशीघ्रतरस्यतु ।

वक्रगति का 60 वल, मार्गीगति का 30 बल, सूर्य कॆ साथवालॆ ग्रह का 15 वल, चन्द्र कॆ साथवालॆ ग्रह का 30 बल, मंदगति ग्रह का 15 बल, पूर्व सॆ अल्पगति वालॆ ग्रह का 7।30 वल, शीघ्रगति ग्रह का 45 बल और  अतिशीघ्र गति वालॆ ग्रह का 30 बल हॊता है॥27॥

. . . चॆष्टाबल

मध्यमस्फुटविश्लॆषदलयुक्तॊनितं स्फुटात ॥28॥ , मध्यम ग्रह और  स्पष्ट ग्रह कॆ अंतर का आधा कर मध्यम ग्रह मॆं यदि मध्यम

ह स्पष्ट ग्रह सॆ अधिक हॊ तॊ जॊड दॆना, अन्यथा यदि मध्यम ग्रह स्पष्ट ग्रह सॆ : न्यून हॊ तॊ मध्यम ग्रह मॆं अंतरार्ध कॊ घटा दॆना॥28॥।

मध्यमॆ त्वधिकॆ न्यूनॆ शीघ्रादत्रास्फुटं त्यजॆत ॥

चॆष्टाकॆन्द्र अखॆटानां रवींद्वॊरयनांशयुक ॥29॥। । इसॆ शीघ्रॊच्च मॆं घटा दॆनॆ सॆ शॆष चॆष्टाकॆन्द्र हॊता है किन्तु यह विधि तारा.

’ग्रह भौमादि कॆ लियॆ ही है॥29॥

634

*


9

9


अथ द्वितीयॊऽध्यायः । अंगाधिकॆऽकत्संशॊध्य भागीकृत्य त्रिभिर्भजॆत । सूर्यचन्द्रौ सत्रिराशी कृत्वा प्रॊक्तविधिस्तथा ॥30॥। ऎवं चॆष्टाबलं प्रॊक्तं नैसर्गिकमथॊ शृणु।

और  चॆष्टाकॆन्द्र 6 राशि सॆ अधिक हॊ तॊ 12 राशि मॆं घटाकर अंशादि बनाकर 3 सॆ भाग दॆनॆ सॆ चॆष्टा बल हॊता है। रवि चन्द्र कॆ चॆष्टा कॆन्द्र 6 राशि सॆ अधिक हॊतॆ हुयॆ भी 3 राशि और  अयनांश जॊडकर 12 राशि मॆं घटाकर शॆष विधि यथावत करनॆ सॆ चॆष्टा बल हॊता है॥30॥

उदाहरण- संवत 2013 श्रावण कृष्ण 13 शनौ अहर्गणः 2750 चक्रम 39 इस पर सॆ इष्टकालिक मध्यम ग्रह निम्नलिखित है।

इष्टकालिक मध्यमग्रह

इष्टकालिक स्पष्टग्रह सू. चं. मं. बु.कॆ. बृ.शु. कॆ. श.॥ सू. चं. । मं. । बु. । बृ. शु. श. 33120 8 ऽ 10 2017 83122380841264

श्ळ 3312483 83

भ 1241413883  38 घ्च4814814143

भौम आदि कॆ शीघ्रॊच्च मं. । बु. । बृ. । शु. । श. । 33 ऽ 3 88388886188 अयनांश = 21 । 5 1 । 18 भ3 । घ । 8 । 8  1841338413184 स्पष्ट भौम = 10।12।32।8 मध्य भौम = 10।2।42।34 दॊनॊं अंतर करनॆ सॆ राश्यादि = 0।9।49।34 इसका आधा

= च।4।4।47 मध्यमग्रह मॆं अंतरार्ध कॊ घटानॆ सॆ 10।2।42।34

018148189 शॆष = 9।27।7।47 इसॆ

31शीश184 * शीघ्रॊच्च मॆं घटानॆ सॆ

5।21 । 51।58 चॆष्टाकॆन्द्र हु‌आ। इसका अंश बनाकर 3 सॆ भाग दॆनॆ सॆ 3)171।17।58(5717॥ 19

ळी‌ऎ ऒ 132/प3


1244612

। 33

इ 5 ===

ऎ‌ऎ

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । यह भौम का अंशादि चॆष्टाबलॆ हु‌आ। इसी प्रकार अन्य ग्रहॊं का भी चॆष्टावल साधन करना चाहियॆ।. .. .

मध्यम चॆष्टाबलचक्र । सू. । चं. । मंः बु. बृ. । शु. । श. । ग्रह। ।45 । 50 । 57 । 10 । 4 ।27।34 । अंश

57:। 20 ।17।45 । 7 । 8 । 40 । कला . [27] 33:19 । 16 । 3 । 12 । 47 । विक.

त्रिक, अयनबल + चॆष्टाबल = स्पष्ट चॆष्टाबल

। सू. । चं, : पं. । बु.। बृ. । शु. । श.

8.690 47 1848 43 12 च्च 11. ट्यॆ84: 1881 यॊ 13213311143-136 38

नैसर्गिकबल,, घष्ठिरॆकॆषवः सप्तदश. षड्विंशतिस्ततः ॥ 31॥

चतुत्रिंशत्रिवॆदांकाः सूर्यादीनांनिसर्गजाः ।:::.

सूर्यादि का क्रम सॆ 60 ।51।17।26।34।43।9 नैसर्गिक (स्वाभाविक) बल हॊता है॥31॥।

नैसर्गिकबलचक्र। । सू. । चं, । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. ।

0 0 0 0 0 0.481 96 ऽ 38 1838 ळॊलॊलॊलॊलॊलॊलॊ

: ग्रहॊं का षड्बलैक्य- . शुभपापदृगब्ध्यंशयुतहीनाग्नितानि च ॥ 32॥ षड्बलानि ग्रहाणां स्युरॆवमॆकीकृतानि तु ॥

पूवक्त पाँच बलॊं (स्थानबल, कालबल, दिग्बल, निसर्गवल, चॆष्टबल) कॆ यॊग मॆं शुभग्रह पापग्रह कॆ दृष्टियॊ कॆ चतुर्थांश कॊ जॊडनॆ और  घटानॆ सॆ (शुभग्रह

का दृष्टियॊग पापग्रह कॆ दृष्टियॊग सॆ अधिक हॊ तॊ धन करना अन्यथा ऋण करना) 1. स्पष्ट घड्वलैक्य हॊता है॥32॥ शॆष चक्र सॆ स्पष्ट है।

ऎघ

अथ द्वितीयॊऽध्यायः ।

षड्वलैक्यचक्र।

ः. बु. । बृ. । शु. । श.

133 4 46 38148 33


5 । ट।

टॆ स्थान

अच्त

चिच्त

0

2

अर

हॆत ऒ‌ऒर ऒस सॆ‌उस

0

दॆवाण अच

अ 0 0

यॆ‌अर

स्तॊरॆ ऒर लॆ‌अव

स्तॊरॆ ऒन्ल्य

चॊन ऒमर ऎन ऒ‌ऒ व

यॊ‌उर ऒव्न

दिग्बल

चॆष्टा अन

0 0 0 0 4

ऒव्न

निसर्ग अर

36 

36

0

ऒम

ऒव्न

32

दृग्बल 30.3 1.49 ध.41ध. । 35.30 ध.। 13ध.

ऎ 38 10. ऒ‌ऒ

घड्बल पॊ 3घ्फ3  फ्छ य प

भावबलशुभदृष्टि चतुर्थांशं युतं स्वमार्यदर्शनैः ॥ 32॥

हीनयुतं दृगब्ध्यंशैर्युतं स्वामिबलं भवॆत ॥ । जिन भावॊं कॆ जॊ स्वामी हैं उनकॆ जॊ शुभ पापग्रहॊं सॆ दृष्टि का अंतर करकॆ अंतर का चतुर्थाश करकॆ शुभग्रह दृष्टि अधिक हॊ यॊग और  पापदृष्टि अधिक हॊ तॊ अंतर करनॆ सॆ भावबल हॊता है॥32॥।

घ्छ

.

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । परन्तु यह उन्हीं भावॊं कॆ स्वामियॊं कॆ लियॆ है जिन पर बुध, गुरु की दृष्टि

हैं॥32॥

। विशॆषसंस्कारःगुरुज्ञाभ्यां तु युक्तस्य पूर्णमॆकं तु यॊजयॆत ॥33॥ मदाररवियुक्तस्य बलमॆकॆन वर्जितम ॥ जिस भाव मॆं गुरु और  बुध हॊवै उस भाववल मॆं 1 जॊड दॆना यदि शनि मगल युतं हॊं तॊ 1 घटानॆ सॆ भावफल हॊता है॥33॥।

कालविशॆषॆ बलाधिक्यतादिवा शीर्षॊदयाश्चैव संध्यामुभयॊदयः ॥34॥

 नक्तं पृष्ठॊदयाश्चैव बलाधिक्यम उदीरिताः ।

दिन मॆं जन्म हॊ तॊ शीर्वॊदय राशि कॆ भाव अर्थात मिथुन, तुला, सिंह, कन्या, वृश्चिक, कुम्भ कॆ भाव बली हॊतॆ हैं। संध्या समय मॆं उभयादय मीन राशि बलवान और  रात्रि मॆं मॆष, वृष, कर्क, मकर और  धन यॆ बलवान हॊतॆ हैं॥ 34॥

भानां दिग्बलम - नृयुग्मजूकपाथॊनचापपूर्वार्धकुंभभात ॥ 35॥ । भावबल विचार मॆं यदि भाव मॆं कन्या, मिथुन, तुला, कुम्भ और  धन का पूर्वार्ध हॊ तॊ उसमॆं सप्तम भाव कॊ॥35॥।

मृगचापपरार्धाख्यमॆषसिंहवृषादपि । . अलॆः कर्कटकाच्चापि मृगांत्यार्धाच्वामीनभात ॥ 36॥ * यदि मकर का पूर्वाध और  धन का उत्तरार्ध मॆष, सिंह, वृष हॊ तॊ चतुर्थ भाव कॊ, यदि वृश्चिक, कर्क हॊ तॊ उसमॆं लग्न कॊ, यदि मकर का उत्तरार्ध और  मीन हॊ तॊ उसमॆं दशम भाव कॊ घटाकर॥36॥

। अस्तं सुखं क्रमाल्लग्नं खं हित्वांगाधिकॆ सति ।

चक्राद्विशॊध्यरामैश्च भजॆद्भागीकृतं बलात ॥ 37॥ भावानां च ग्रहाणां च बलान्यॆवं विदुर्बुधाः ।

शॆष 6 राशि सॆ अधिक हॊं तॊ उसॆ 12 मॆं घटाकर शॆष का अंश बनाकर - उसमॆं 3 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि भावबल हॊता है॥37॥

इस प्रकार भाव ग्रहॊं का बल पण्डितॊं नॆ कहा है।

.

ऎश

अथ द्वितीयॊऽध्यायः ॥

षड्वलैक्यॆ शुभाशुभादिकम -. नवाग्नयः सुराः खाग्निर्दशसंगुणिताः क्रमात । रव्यादयः सुबलिनॊ राशीनां स्वामिनॊवशात ॥ 38॥

अधिकं पूर्णमॆवं स्याद्वलं चॆद्वलिनॊ मताः ॥

सूर्यादि ग्रहॊं कॆ षड्बलैक्य 39, 36, 30, 42, 39, 33, 30 इनकॊ 10 सॆ गुणा दॆनॆ सॆ क्रम सॆ 390, 360, 420, 390, 330, 300 इतना हॊ तॊ सूर्यादि सुबली इससॆ अधिक हॊ तॊ पूर्णबली हॊता हैं॥38॥

स्थानादि बलॆ पृथक पृथक सुबलित्वम - गुरुसौम्यरवीणां तु भूतषट्कॆंदवॊ द्विज ॥ 39॥

गुरु, बुध, सूर्य कॆ स्थानबल, दिग्बल, चॆष्टाबल, कालबल और  अयन बल । मॆं क्रम सॆ 165 ॥39॥।

पंचाग्नयः रवभूतानि कर भूमिसुधाकराः ।

खाग्यश्च क्रमास्थानदिचॆष्टासमयायनॆ ॥4॥ 35, 50, 112, 30 इतनॆ बल हॊ तॊ सुबली॥40॥ सितॆन्दवॊल्यग्निचंद्राश्च खॆषवः खाग्नयः शतम ॥ चत्वारिंशत क्रमाद्भौममन्दयॊः पण्णवक्रमात ॥41॥ त्रिंशतूवखवॆदाः सप्तांगा नखाश्च बलिनॊविदुः।

और  शुक्र, चन्द्र, कॆ 133, 50, 30, 100, 40 हॊ तॊ सुबली, भौम और  शनि कॆ 96॥41!!!

30, 40, 67, 20 हॊं तॊ सुबली हॊतॆ हैं॥

। भावफलदाताग्रहभावस्थानग्रहः प्रॊक्तयॊगॆ यॆ यॊगहॆतवः ॥ तॆषां बली यः कर्तासौ स ऎव फलप्रदः ॥42॥ यॊगॆष्वाप्तॆषु बहुषु न्याय ऎवं प्रकीर्तितः ॥

अनॆक प्रकार कॆ यॊग कहॆ गयॆ हैं उनमॆं जिन-जिन ग्रहॊं सॆ शुभ अशुभ यॊग हॊतॆ हैं उनमॆं जॊ व1वाना हॊ और  जिसका वल अधिक हॊ वहीं फल दॆता है॥42॥

और  वहीं यॊग का कर्ता या कारण हॊता है। इसी प्रकार अनॆक यॊग ऎक ही भाव कॆ हॊं तॊ इसी प्रकार सॆ किसी ऎक सॆ फल कॊ कहना चाहियॆ।

3ऒ

.

:

वाला हॊ, बुद्धिमान॥43॥

--

-

-

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

अथैतच्छास्त्राधिकारिलक्षणम - गणितॆषु प्रवीणश्च शब्दशास्त्रॆ कृतश्रमः । ”, न्यायविद्बुद्धिमान रास्कंधश्रवणसम्मतः ॥43॥

गत शास्त्र मॆं कुशल हॊ, व्याकरण मॆं निपुण हॊ, न्यायशास्त्र कॊ जाननॆ - दैयविद्दॆशिकॊ दॆवसंमतॊ दॆशकालवित ।

। ऊहापॊहपटुः प्राज्ञः पटः स्वजनसंमतः ॥44॥

साहित्य शास्त्र मॆं कुशल हॊ, नित्य दॆवाराधन करनॆ वाला हॊ, दॆश-काल का जाननॆ वाला हॊ, तर्क और  समाधान करनॆ मॆं समर्थ हॊ और  स्वजनॊं कॆ अनुकूल रहन वाल चतुर हॊ वह इस शास्त्र कॊ पढनॆ और  फल कहनॆ का अधिकारी हॊता है॥44॥ ।

इति पाराशरहॊरायामुत्तरभागॆभावफलाद्यानयनॆद्वितीयॊऽध्यायः।

अथॆष्टकष्टाध्यायः।

उच्चरश्मिसाधनम - . .. नीचॊनं तु ग्रहं भार्थाधिकॆ चक्राद्विशॊधयॆत ।

’ उच्चरश्मिर्मवॆद्राशिः सैकॊ द्विघ्नांशसंयुतः ॥ 1 ॥

ग्रह मॆं उसकॆ नीच कॊ घटा दॆना शॆष,6 राशि सॆ अधिक हॊ तॊ उसॆ 12 । राशि मॆं घटाकर राशि मॆं 1 जॊड दॆना और  अंशादि कॊ दूना कर राशि मॆं जॊड

दॆना तॊ उच्चरश्मि हॊगी॥1॥

जैसॆ- सूर्य 3।18।26।34 इसमॆं सूर्य का नीच 6।10 घटानॆ सॆ शॆष 9।8।26॥34 शॆष रहा यह 6 राशि सॆ अधिक है इसलियॆ इसॆ 12 राशि मॆं घटानॆ सॆ शॆष 2।21।33।26 शॆष बचा यहाँ राशि मॆं 1 जॊडनॆ सॆ 3 अंशादि कॊ दूना कर इसमॆं जॊडनॆ सॆ 3।43।6।52 यह सूर्य की उच्चराशि हु‌ई इसी प्रकार सभी ग्रहॊं की उच्चरश्मि साधन करना चाहियॆ।

उच्चरश्मिचक्र। । सू. । चं, । मं. । बु. । बृ. । शु. । श. ।

14  448

पॊ

80 88 89 46 घ48छ 43

38

आश्शॆश

अथॆष्टकष्टाध्यायः ।

। चॆष्टारश्मिसाधनम - सायनार्कः सत्रिभॊ इन्दुश्च भानुवर्जितः । चॆष्टाकॆन्द्र कुजादीनां पूर्वाध्यायॆ समीरितम ॥2॥

सूर्य मॆं अयनांश जॊडकर उसमॆं 3 राशि जॊडनॆ सॆ सूर्य का चॆष्टाकॆन्द्र और  चन्द्रमा मॆं सूर्य कॊ घटानॆ सॆ चन्द्रमा का चॆष्टाकॆन्द्र हॊता है। और  भौमादि का चॆष्टाकॆन्द्र पूर्वाध्याय मॆं कहा ही हु‌आ है॥2॥

शुभाशुभरश्मिसाधनम - उच्चश्भिवदानीय चॆष्टारश्मि द्वयॊयुतॆः । दलं तु शुभरश्मि: स्यादष्टभ्यॊ वर्जितॊऽशुभः ॥3॥

चॆष्टाकॆन्द्र पर सॆ उच्चरश्मि साधन कॆ तरहॆ चॆष्टारश्मि का साधन कर दॊनॊं (उच्चरश्मि और  चॆष्टारश्मि) का यॊग कर आधा करनॆ सॆ जॊ आवॆ वह शुभरश्मि हॊती है और  इसॆ 8 मॆं घटानॆ सॆ अशुभरश्मि हॊती है॥3॥ । जैसॆ- सूर्य 3।18।26।34 इसमॆं अयनांश 2 1।51।18 जॊडनॆ सॆ 4।10।17।52 सायन सूर्य हु‌आ इसमॆं 3 राशि जॊडनॆ सॆ 7।10।17।52 यह सूर्य का चॆ‌अकॆंद्र हु‌आ इस पर पूर्वॊक्त रीति सॆ 5।39।24 सूर्य कॊ रश्मि हु‌ई॥3॥।

चॆष्टारश्मिचक्र॥ । सू. चं. । मं. । बु. बृ. । शु. । श.

31 । 51 । 4 48 । 42 । 28 चॆष्टाकॆन्द्र 38/40 183 1304ऽ 1

1341331814

33

31। शुभ रश्मि 30फ8362077 178

अव

। 18 । 13 । 48 । 7 । 13 । 23 । 28 । अशुभ रश्मि । 2013ऽऎ 30 32 33

इष्टकष्टसाधनम - उच्चचॆष्टाकरौ व्यॆकौ दिग्भिर्हत्वा तु यॊजयॆत । दलयॆदिष्टमन्यत्स्यात्पष्टिभ्यॊ वर्जितं फलम ॥4॥

ग्रहॊं कॆ उच्चरश्मि और  चॆष्टाशिम मॆं ऎक ऎक घटाकर 10 सॆ गुणा कर दॊनॊं का यॊग कर आधा करनॆ सॆ इष्ट हॊता है इसॆ 60 मॆं घटानॆ सॆ कष्ट हॊता है॥4॥

झॆग

!

.

-

--

.भ्फ .

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । जैसॆ- सूर्य की उच्चरश्मि 3॥43॥6 मॆं 1 घटाकर 10 सॆ गुणा करनॆ सॆ 311।10 हु‌आ, चॆष्टारश्मि 6।39।34 इसमॆं 1 घटाकर 10 सॆ गुणा कॆ

5634।0 हु‌आ दॊनॊं का यॊग कर आधा करनॆ सॆ 41।5 2।30 यह सू का इष्ट हु‌आ इसॆ 60 मॆं घटानॆ सॆ 1873 कष्ट हु‌आ, इसी प्रकार सभा मॆं का इष्ट और  कष्ट साधन करना चाहियॆ॥

" , इष्टचक्रम। । चं. मं. बु. (बृ. शु. श.] सु. चं. [म.बु. बृ. शु. शि.]

श6.12.313 084 247812418218 3ट281 42814318418883

638446841ऎ. भॊलॊ लौकि ऒल्ल उज़्च्ज़ॊनॆ

। सप्तवर्गजशुभाशुभसाधनम - स्वॊच्चॆ मूलत्रिकॊणॆ च स्वसँधिसुहृदि क्रमात ।

मित्र च समक्षं च शत्रुभॆचातिशत्रुमॆ ॥5॥ . ग्रह अपनॆ उच्चराशि, मूलत्रिकॊण, अपनॆ राशि, अधिमित्र की राशि, मित्र की राशि, सम की राशि, शत्रु की राशि, अत्रिंशत्रु की राशि॥5॥

 . नीचॆ च षष्ठिरिष्वन्धिः रवाग्निःकरकरास्तिथिः ॥ । नागा वॆदाः करौ शून्यं शुभमॆतद प्रकीर्तितम ॥6॥

और  नीच राशि मॆं हॊ तॊ क्रम सॆ 60, 45, 30, 22, 15, 8, 4, 2, 0 यॆ ध्रुवांक शुभ फल कॆ प्राप्त हॊतॆ हैं॥6॥

,घष्टिम्यॊं वर्जिताश्चैतॆशष्टिं स्यादशुभं फलम ।

तदर्थं तु फलं प्रॊक्तमन्यवर्गॆ शुभाशुभम ॥7॥।

इनकॊ 60 मॆं घटा दॆनॆ सॆ अशुभ ध्रुवांक हॊता है। अन्य वर्गॊं (हॊरा आदि सप्तर्ग) कॆ राशियॊं मॆं स्व‌उच्चादि मॆं हॊं तॊ पूर्वॊक्त 60 आदि बलॊं का आधा शुभ मॆं और  आधा पापवर्ग मॆं लॆना॥7॥

पूर्वॊक्तबलॆ शुभाशुभत्वम – 

पंचस्विष्टफलं. चादौ षष्ठं सममुदाहृतम ॥ । 

अशुभास्तु त्रयः प्रॊक्ता इति शास्त्रॆषु निश्चयः ॥8॥

पूर्व मॆं कहॆ हुयॆ 9 प्रकार कॆ वलॊं (उच्चमूलत्रिकॊणादि) मॆं आदि सॆ पाँच बल (उच्च मूलत्रिकॊण, स्वराशि, अधिमिंत्र, मित्र) शुभद हैं, छठाँ (समराशि) सम

और  शॆष 3 अशुभ हॊतॆ हैं॥8॥

1- वॆदकश इति पाठान्तरम॥

अथॆष्टकष्टाध्यायः ॥

ऎ दिग्बलादौ शुभाशुभत्वम - दिग्बलं दिक्फलं तस्य तथा दिनफलं भवॆत । । तयॊः फलं शुभं प्रॊक्तं षष्ठ्या वयँ तथॆतरम ॥9॥

जॊ ग्रहॊं का दिग्बल हॆ वह दिक्फल हैं और  जॊ दिनबल है वह दिन फल है, दॊनॊं फलॊं का यॊग करनॆ सॆ शुभ फल और  इसॆ 60 मॆं घटानॆ सॆ शॆष अशुभ फल हॊता है॥9॥

शुभाधिकॆ शुभं नॆष्टमशुभॆ चाधिकॆ शुभात । बलैरॆव हतॆ स्यातां दृष्टिं हन्यात्स्फुटैव सा ॥10॥

यदि शुभफल पापफल सॆ अधिक है तॊ उस ग्रह का फल शुभ, अशुभ फल अधिक हॊ तॊ अशुभ फल हॊता है। पूर्वॊक्त इष्टबल, कष्टबल (श्लॊक 5 मॆं) उससॆ दृष्टि कॊ गुणा कर दॆनॆ सॆ इष्टदृष्टि और  कष्टदृष्टि हॊती है॥10॥

पूर्वॊक्तशुभाशुभबलस्यस्पष्टीकरणम - बलैः षभिः समॆधित्वा समानीतैः पृथक-पृथक। बलिनश्चॊक्तसंज्ञैश्च बलैरॆव हरॆत्ततः ॥11॥

ग्रह षड्वलॊं (हॊरा आदि षड्बल) कॊ 6 स्थान मॆं रखकर इष्टबल सॆ तथा कष्टबल सॆ अलग अलग गुणकर पृथक पृथक षड्बलॊं सॆ भाग दॆकर सभी फलॊं का यॊग करनॆ सॆ इष्ट स्थान स्पष्ट शुभ और  कष्ट स्थान मॆं स्पष्ट अशुभ फल हॊता है॥11॥

तत्तद्वलफलानि स्युरशुभानि शुभानि च ॥ शुभपापफलाभ्यां च दृष्टिं हन्याद्वलं तथा ॥12॥ इसी प्रकार सॆ दृष्टि कॆ इष्ट कष्ट सॆ दृष्टिबल कॊ गुणाकर भाग दॆनॆ सॆ दृष्टि का शुभाशुभ फल हॊता है॥12॥

सग्रहॆ भावफलॆ विशॆषःदृष्टॆश्च शुभ पापॊत्थॆ बलॆ स्यातां तथैव च ॥

भावानां च फलॆ प्रॊक्तॆ पतीनां च फलॆ उभॆ ॥13॥ तन्वादि भावॊं कॆ भी दॊ फल (भाव का तथा उसकॆ स्वामी का) हॊता है दॊनॊं कॆ यॊग कॆ तुल्य भाव का शुभाशुभ फल हॊता हैं॥13॥

सराशिग्रहयुक्तश्चॆद्भावसाधनसंगुणॆ । फलॆ तस्य शुभॆ युंज्यादशुभॆ वर्जयॆच्छुभॆ ॥14॥

&भ्य

ळॆ

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । यदि भावस्थ राशिग्रह युक्त हॊ तॊ भाव साधन सॆ गुणा कर दॆ और  शुभ भाव मॆं हॊ तॊ उस भाव कॆ शुभ फल कॊ फल मॆं जॊड दॆ और  अशुभ भावफल

मॆं घटा दॆ और  भाव मॆं॥14॥ । पापाझॆदन्यथा चैवं बलॆ दृष्टयां च तॆऽत्रतु । ।

गुंज्यादुच्चादिषु फलममित्रादिषु वर्जयॆत ॥15॥ . पापग्रह हॊ तॊ इससॆ विपरीत करनॆ सॆ भाव का इष्ट (शुभ) और  कष्ट (अनिष्ट) स्पष्ट हॊता है। इसी प्रकार दृष्टि मॆं भी करना चाहियॆ किन्तु यह फल यदि उच्चादि का हॊ तॊ यॊग और  शत्रु आदि का हॊ तॊ घटाना चाहियॆ॥15॥।

। अष्टकवर्गॆ विशॆषःस्थानॆ चैवं क्रमाप्रॊक्तं करणॆचान्यथाक्रमः । राशिद्वयगतॆ भावॆ तद्राश्यधिपतॆः क्रिया ॥16॥ इसी प्रकार सॆ स्थान (रॆखा) मॆं भी (अष्टकवर्ग मॆं) क्रिया करनी चाहियॆ किन्तु करण (बिन्दु) मॆं विपरीत क्रिया हॊती है, ऎक ही भाव मॆं 2 राशि हॊ तॊ उनकॆ स्वामी कॆ साथ क्रिया करनी चाहियॆ॥16॥। ... स्थानाधिकस्तु भावॆन लाभभावः प्रकीर्तितः ।

तत्समानॆ च तद्भावॆ तदानीं स्थानदान ग्रहान ॥17॥ संयॊज्य स्थानसंख्यायां दलमॆतत्समं भवॆत ॥18॥

भाव सॆ रॆखा अधिक हॊ तॊ उस भाव का फल या भाव लाभदायक हॊता । है। यदि दॊनॊं भावॊं मॆं अधिक रॆखा हॊ तॊ दॊनॊं का यॊग कर आधा करनॆ सॆ जॊ

आवॆ उसकॆ समान ही भावफल हॊता है॥17, 18॥.

’इति पाराशर हॊरायामुत्तरार्धॆ इष्टकष्टाध्यायस्तृतीयः । 3 ... अथ रश्मिफलवर्णनाध्यायः ॥

विधात्रालिखिता या सा ललाटाक्षरमालिका ।

तस्याः शरीरकथनं वक्ष्यामि च पृथक-पृथक ॥1॥ विधाता (ब्रह्मा) नॆ ललाट मॆं जॊ अक्षरॊं की पंक्ति लिखी है उसकॊ मैं शरीर कॆ रूप मॆं पृथक पृथक कह रहा हूँ॥1॥

अथ रश्मिफलवर्णनाध्यायः ॥

634 लग्नाच्छरीरचिन्ता च द्वितीयात्स्वं च पैतृकम । भरणीय कुटुंबं च पश्वादिं च वदॆद्बुधः ॥ 2॥

लग्न (तनु भाव) सॆ शरीर की चिन्ता का, विचार करना चाहियॆ और  द्वितीय भाव सॆ अपनॆ उपार्जित धन और  पैतृक संपत्ति, पालनीय कुंटुंब का तथा पशु आदि का विचार करना चाहियॆ॥2॥

तृतीयात्सॊदरं बुद्धिं दुःपूर्वा विक्रमं विदुः ॥ चतुर्थापितरं वॆश्म सुखं लालित्यमॆव च ॥ 3॥

तीसरॆ भाव सॆ भा‌इयॊं का, दुष्ट बुद्धि का और  पराक्रम का विचार करना चाहियॆ, चौथॆ भाव सॆ गृह का, सुख का, सौहार्द का विचार करना चाहियॆ॥3॥

सौमनस्यमपत्यानि प्रज्ञां मॆधां च पंचमात । हानिं व्याधिमरिं षष्ठान्मैथुनं स्त्री जयं ततः ॥4॥

पांचवॆं भाव सॆ सौमनस्य (मन की प्रसन्नता) का, संतान का, सुबुद्धि का और  धारणा शक्ति का विचार करना चाहियॆ। छठॆ भाव सॆ हानि, व्याधि (रॊग) और  शत्रु का विचार तथा सप्तम भाव सॆ मैथुन, स्त्री और  युद्ध मॆं विजय का विचार करना चाहियॆ॥4॥

मृतिं पराजयं दुःखं हानिं व्याधि तथाष्टमात । सौशील्यभाग्यधर्माश्च नवमाद्दशमात्तथा ॥5॥ मानास्पदाज्ञाकर्माणि आयादर्थं व्ययाह्ययम ।

आठवॆं भाव सॆ मृत्यु का, पराजय का, दु:ख (व्यवसन) का, हानि का, व्याधि का विचार करना चाहियॆ। नवम भाव सॆ सुशीलता, भाग्य, वैभव और  धर्म का विचार करना चाहियॆ। दशम भाव सॆ सत्कार, स्थान, आज्ञा और  शुभाशुभ कर्म का विचार करना चाहियॆ॥5॥ ग्यारहॆं भाव सॆ द्रव्य कॆ प्राप्ति का और  बारहॆं भाव सॆ व्यय का विचार करना चाहियॆ।

। उच्चस्थानस्थ रश्मि ध्रुवांकःदिग्भवॆष्विषुसप्ताष्टशराः स्वॊच्चॆ करा रवॆः ॥6॥

यदि सूर्यादि ग्रह अपनॆ उच्च राशि मॆं हॊ तॊ क्रम सॆ 10, 11, 5, 5, 7, 8, 5 यह रश्मि ध्रुयांक हॊता है॥6॥

नीचॆन चांतरा प्रॊक्ता रश्मयस्त्वनुपातजाः ॥ नीचॊनं तु ग्रह- मा‌अधिकॆ चक्राद्विशॊधयॆत ॥7॥

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । नीच राशि का ध्रुवांक नहीं है, उच्च नीच कॆ मध्य मॆं अनुपात द्वारा रश्मि का साधन करना चाहियॆ वह इस प्रकार सॆ नीच कॊ ग्रह मॆं घटा दॆ यदि शॆष . । 6 राशि सॆ अधिक हॊ तॊ उसॆ 12 राशि मॆं घटाकर ॥7॥ ।, स्वीयरश्मिहतं षड्भिर्भजॆत्स्यूरश्मयःस्वकाः ।

उच्चस्वसँसुहृत्सूर्यभार्गॆऽगाव्यि द्विसंगुणाः ॥8॥ .. नीचारिद्वादशांशॆ तु नृपांशॊनाः कराश्च तॆ ।

शष कॊ ग्रह कॆ उच्च रश्मि ध्रुवांक सॆ गुणकर उसमॆं 6 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्ध

 अश्म हॊती हैं। ग्रह उच्च, स्वराशि मित्र की राशि कॆ द्वादशांश मॆं हॊ तॊ क्रम सॆ

 6, 4, 2 सॆ गुण दॆनॆ सॆ॥8॥ , और  नीच शत्रु कॆ द्वादशांश मॆं हॊ तॊ षॊडशांश कम कर दॆनॆ सॆ स्पष्ट रश्मि

ईट

हॊती है।

। जैसॆ सूर्य 3।18।26।34 इसमॆं सूर्य कॆ नीच 6 । 10 कॊ घटानॆ सॆ 8122।26।34 हु‌आ यह 6 राशि सॆ अधिक है अत: इसॆ 12 राशि मॆं घटानॆ सॆ शॆष 3।7।33।26 हु‌आ इसॆ ध्रुवांध 10 सॆ गुणा करनॆ सॆ 31।5।34।20 हु‌आ इसमॆं 6 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि 515155152 यह सूर्य की रश्मि हु‌ई। सूर्य शनि कॆ द्वादशांश मॆं हैं और  सूर्य का शनि अधिशत्रु है अतः पूर्वॊक्त रश्मि का षॊडशांश 0।9।44।44 रश्मि मॆं घटानॆ सॆ शॆष 4॥25॥48॥52 यह सूर्य की स्पष्ट रश्मि हु‌ई इसी प्रकार सॆ शॆष ग्रहॊं की रश्मि का साधन करना चाहियॆ।

रश्मि चक्र। सू. । चं. । पं. । बु. । बृ. । शु. । श. ।

0 3 82 सॊ 134.1 331 28 4318छ 38 34 32

विशॆष संस्कारःमूलत्रिकॊणस्वक्षधिमित्रमित्रनवांशकॆ 11911

यदि ग्रह अपनॆ मूलत्रिकॊण, अपनी राशि, अधिमित्र की राशि, मित्र की राशि मॆं नक्मांश की राशि॥9॥।

द्रॆष्काणॆऽपि च हॊरायां त्रिशांशॆ च क्रमात्तथा ।

अष्टम्ना द्वयब्धिषट्सप्तभक्ता युक्तास्तुरश्मयः ॥10॥ अरावध्यरिनीचॆ च वॆदङ्ख्यखिलहीनकाः ॥


शॊ‌ऒछ

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अथ रश्मिफलवर्णनाध्यायः ।

36 द्रॆष्काण की राशि, हॊरा और  त्रिशांश की राशि जिसमॆं हॊ उसॆ दॆखकर ध्रुवॊत्पन्न रश्मि (8-9 श्लॊकॊक) कॊ 8 सॆ गुण कर क्रम सॆ मूलत्रिकॊण मॆं 2 सॆ, अपनी राशि मॆं 4 सॆ, अधिमित्र मॆं 6 सॆ और  मित्र मॆं 7 सॆ भाग दॆकर लब्धि कॆ पूर्वॊक्त रश्मि मॆं जॊडनॆ सॆ उच्च रश्मि हॊती है॥10॥ । पूर्वॊक्त वर्गॊं मॆं यदि शत्रु राशि हॊ तॊ चार सॆ भाग दॆकर लब्धि कॊ घटानॆ सॆ अधि शत्रु राशि हॊ तॊ 2 सॆ भाग दॆकर और  नीच राशि मॆं हॊ तॊ संपूर्ण कॊ घटानॆ सॆ उच्च रश्मि हॊती है।

अन्य संस्कारःउच्चॆ च त्रिगुणं प्रॊक्तं स्वत्रिकॊणॆ द्विसंगुणम ॥11॥

यदि रश्मि का स्वामी अपनॆ उच्च राशि मॆं हॊ तॊ उच्च रश्मि कॊ त्रिगुणित, अपनॆ मूल त्रिकॊण राशि मॆं हॊ तॊ द्विगुणित॥11॥ । स्वर्सॆ त्रिघ्ना द्विसंभक्तास्त्वधिमित्रगृहॆऽपि च ॥

वॆदना रामसंभक्ती मित्रमॆ षड्गुणास्ततः ॥12॥

स्वराशि मॆं हॊतॆ त्रिगुणित कर दॊ सॆ भाग दॆना और  अधिमित्र की राशि मॆं हॊ तॊ पूर्व रश्मि कॊ चार सॆ गुणाकर तीन सॆ भाग दॆकर लब्धि कॊ पूर्व रश्मि मॆं जॊडनॆ सॆ, मित्र कॆ राशि मॆं 6 सॆ गुणा कर 5 का भाग कर लब्ध कॊ रश्मि मॆं जॊडनॆ सॆ॥12॥

पंचभक्तास्त्वथ शत्रुगृहॆ द्विप्नाश्चतुर्हताः । .

अधिशत्रॊः करघ्नाश्च पंचभक्ता नॆ नीचभॆ ॥13॥ । शत्रु कॆ गृह मॆं हॊ तॊ 2 सॆ गुणा कर 4 सॆ भाग दॆकर लब्ध कॊ जॊडनॆ सॆ स्पष्ट रश्मि हॊता है। और  अधि शत्रु की राशि मॆं हॊ तॊ दूना कर पाँच सॆ भाग दॆकर लब्धि कॊ जॊडनॆ सॆ स्पष्ट रश्मि हॊती है। नीच राशि मॆं हॊ तॊ कॊ‌ई संस्कार नहीं करना॥13॥

मतांतरात रश्मि हानिवृद्धिःशनिं सितं बिना ताराग्रही अस्तंगता यदि । विरश्मयॊ भवॆत्यॆवं वक्रादौ द्विगुणास्ततः ॥14॥

शनि शुक्र कॊ छॊडकर शॆष ग्रह (भौम, बुध, गुरु) अस्त हॊं तॊ रश्मि का अभाव हॊता है, रश्मिपति वक्रारंभ मॆं हॊं तॊ पूर्व रश्मि कॊ दूना करनॆ सॆ॥14॥

636 .

। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । . . अनुपातॊंऽन्तरॆ वक्रॆ त्यागॆऽष्टांशविहीनकाः ॥

मंदायां दशभागॊना वस्वंशॊना करा: स्मृताः ॥15॥

वक्र कॆ अन्त्य मॆं हॊ तॊ रश्मि मॆं 8 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्ध स्पष्ट रश्मि हॊती है, वक्र कॆ मध्य मॆं हॊ तॊ अनुपात द्वारा रश्मि लाना चाहियॆ। रश्मिपति मंदगति हॊ तॊ रश्मि का दशांश पूर्व रश्मि मॆं घटानॆ सॆ, यदि मंदतर गति हॊ तॊ अष्टमांश हीन करनॆ सॆ॥15॥

तथा शीघ्रतरायां च वॆदांशॊनाः कराः स्मृताः ।

अंगाशॊनाश्च शीघ्रायां कॆचिदॆवं वर्दन्ति हि ॥16॥ । शीघ्रगति हॊ तॊ छठाँ भाग हीन करनॆ सॆ और  शीघ्रतर गति हॊ तॊ चतुर्थांश हीन करनॆ सॆ स्पष्ट रश्मि हॊती है ऐसा कुछ ऋषियॊं का मत है॥16॥

अथ ग्रहाणां अष्टधा गतिःवक्रानुवक्रा विकला शीघ्रा शीघ्रतरागतिः । वृद्धिहीनॆ तु शिष्टॆ , द्वॆ वर्जनीयॆ समासमा ॥17॥

वक्र, अनुवक्र; विंकला, शीघ्रगति, शीघ्रतरा, मंदगति, मंदतरा, समासमा यॆ आठ प्रकार की ग्रहॊं की गति हॊती हैं। शीघ्रतर गति वृद्धि हीन हॊनॆ सॆ मंदगति

और  शीघ्रगति बृद्धिहीन हॊनॆ सॆ अतिमंदतर हॊती है॥17॥ ।

यॊगविशॆषतहासवृद्धिः। यॊगॆषु यॆ ग्रहाः प्रॊक्तास्तॆषां यॊगॆ च रश्मयः ॥ .. पापसौम्यारिमित्राणां यॊगॆ हानिश्च कीर्तिताः ॥18॥

उच्चादिषु पूर्वॊक्ताः पापॊ बलवशाद्भवॆत ॥19॥

पूर्व मॆं जॊ राजयॊग कहॆ गयॆ हैं उनमॆं (राजयॊग कारक और  दरिद्र यॊग कारक) राजयॊग कारक ग्रहॊं कॆ रश्मियॊं कॆ यॊग मॆं दरिद्र यॊग कारक ग्रहॊं कॆ रश्मियॊं कॊ घटा दॆनॆ सॆ शॆष राजयॊग कारक रश्मि हॊती है॥18॥

इसी प्रकार पापग्रहॊं की उच्चादि नब स्थान पर्यन्त रश्मियॊं कॊ उनकॆ बल कॆ अनुसार न्धूनाधिक करनॆ सॆ उनकी स्पष्ट रश्मि हॊती है॥19॥

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ऎश

अथ रश्मिफलवर्णनाध्यायः ॥

ऎ39 द्विग्रहादियॊगॆ निर्णयःद्विग्रहादिषु यॊगॆषु ग्रहभावकलाहताः ॥ ग्रह गति संज्ञानुरूपॆण फलानां निर्णयः स्मृताः ॥20॥

दॊ तीन आदि ग्रहॊं कॆ यॊग मॆं ग्रहॊं कॆ भाव कॆ फलादि कॊ उनकॆ रश्मियॊं सॆ गुण दॆना यदि साठ 60 सॆ अधिक हॊ तॊ 60 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि स्पष्ट रश्मि हॊती है। ग्रहॊं कॆ रश्मियॊं का फल उनकॆ गति कॆ अनुसार ही हॊता है॥20॥

। इष्टकष्टरश्मॆ: प्रयॊजनम - इष्टकष्टबलसंगुणास्ततस्तत्करानथ च संयुतास्तुतान। निश्चितार्थमखिलं समीक्ष्यतत्प्रस्तुतं तु सकलं बदॆद्बुधः॥21॥

ग्रहॊं कॆ इष्ट कष्ट बल सॆ उनकॆ रश्मियॊं कॊ गुणकर उसमॆं 60 सॆ भाग दॆनॆ सॆ ग्रहॊं की इष्ट और  कष्ट रश्मि हॊती है। इन सम्पूर्ण रश्मियॊं कॊ दॆखकर ग्रहॊं कॆ फलॊं कॊ कहना चाहियॆ॥21॥

ऎकतः पंचरश्मियॊग फलम - ऎकादि पंचकं यावद्दरिद्रा भृशदुःखिताः ॥

नीचानां दासतां याता अपि जाता कुलॊत्तमॆ ॥ 22॥ । ऎक सॆ पांच रश्मि यॊग मॆं उत्पन्न पुरुष अत्यंत दु:खी हॊता है। यदि उत्तम कुल मॆं उत्पन्न पुरुष हॊ तॊ नीचॊं की नौकरी करता है॥22॥।

। दशरश्मियॊग फलन - परतॊ दशकं यावत्कॆवलं जठराय वै । । नि:स्वाः कदाचिद्दासाश्च भारवाहा: कदाचन ।

स्त्रीपुत्रगृहहीनाश्च वंशायॊग्यक्रियारताः ॥23॥

6 सॆ 10 तक रश्मियॊग हॊ तॊ पुरुष कॆवल पॆट भरनॆवाला, निर्धन, कभी दासता करनॆवाला, कभी वॊझा ढॊनॆ का काम करनॆवाला, स्त्री पुत्र सॆ हीन और  कुल कॆ विपरीत कार्य करनॆवाला हॊता है॥23॥।

ऎकादशतॊ त्रयॊदशपर्यन्तं रश्मिफलम - ऎकादशॆऽल्पपुत्रस्यादल्पस्वं स्त्रीविमानितः ॥ विभ्रति कृच्छॆण निजं स्वल्पं च कुटुम्बकम ॥24॥

ग्यारह रश्मियॊग हॊ तॊ अल्पपुत्र, अल्पधन और  स्त्री सॆ अनादर और  थॊडॆ कुटुम्ब कॊ भी कष्ट सॆ पालन करनॆवाला हॊता है॥24॥।

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ळॆश

। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । द्वादशॆ निर्धनः मूर्खाधूर्ताः सत्त्वविनाशकाः । । त्रयॊदशॆ च चौराः स्युर्निर्धनः कुलपांशवाः ॥25॥ , बारह रश्मियॊग हॊ तॊ निर्धन, मूर्ख, सत्वहीन हॊता है, तॆरह रश्मियॊग मॆं चॊर निर्धन और  कुलकलंक हॊता है॥25॥।

चतुर्दशतः पञ्चदश रश्मि फलम - विद्वाश्चतुर्दशॆ धर्मरतॊ मर्षी धनार्जकः ।

कुटुम्बभरणॆ सक्तः कुलयॊग्यक्रियॊ भवॆत ॥26॥

चौदह रश्मियॊग हॊ तॊ धार्मिक, क्रॊधहीन, धन कॊ पैदा करनॆवाला, कुटुम्ब । कॆ भरण पॊषण मॆं समर्थ और  कुलयॊग्य क्रिया करनॆवाला हॊता है॥26॥

रश्मिभिः पंचदशभिरॆवं पूर्वॊक्त गुणयुतॊऽपिसन । । .. स्ववंशमुख्यॊजनवानित्याह भगवान्मुनिः ॥ 27॥

। पंद्रह रश्मियॊग मॆं पूर्वॊक्त गुणॊं सॆ युक्त हॊतॆ हु‌ऎ भी अपनॆ कुल मॆं प्रधान,

और  धनी हॊता है ऐसा पराशर मुनि नॆ कहा है॥27॥। । घॊडशतः द्वाविंशतिपर्यन्त रश्मियॊग फलम - .

आविंशतः कुलॆशानां बहुभृत्यः कुटुम्बिनः । । कीर्तिमंतश्च पूर्णाश्च स्वजनॆन च षॊडशात ॥ 28॥

16 सॆ 20 तक रश्मियॊग हॊ तॊ कुल कॊ पालन करनॆवाला, बहुत सॆ नौकरॊं सॆ युक्त, कुटुम्बी, कीर्ति सॆ युक्त और  स्वजनॊं सॆ पूर्ण हॊता हैं॥28॥

ऎकविंशति विख्यातः पंचाशज्जनपॊषकः ॥

दानशीलः कृपायुक्तॊ द्वाविंशॆ लॊभ संयुतः ॥29॥ । 21 रश्मि हॊ तॊ बडा प्रसिद्ध और  पचासॊं लॊगॊं का पालन करनॆवाला हॊता

 है और  22 रश्मियॊग मॆं दानशील और  कृपालु हॊता है॥29॥।

त्रिंशत्पर्यन्तरश्मिफलम -

 . धनवानल्प शत्रुश्च प्रभुः स्वल्पगुणॊ भवॆत । ।

त्रयॊविंशॆ च मुख्यश्च विद्याहीनॊ धनीसुखी ॥30॥

रश्मियॊग 23 हॊ तॊ मनुष्य धनी, अल्प शत्रु, समर्थ और  अल्पगुणी हॊता है॥30॥

अथ रश्मिफलवर्णनाध्यायः ॥ आत्रिंशत्परतः श्रीमान्सर्वसत्वसमन्वितः ॥

राजप्रियश्च चंड% जनैश्च बहुभिर्युतः ॥ 31॥ । इसकॆ बाद 30 रश्मि तक मनुष्य श्रीमान सभी सत्वॊं सॆ युक्त, राजप्रिय, प्रचंड और  अनॆक जनॊं सॆ युक्त हॊता है॥31॥

। ऎकत्रिंशतझुस्त्रिंशत्यावद्रश्मिफलम - ऎकत्रिंशॆ तु सचिवः द्वात्रिंशॆ वाहिनीपतिः ।

अत ऊर्ध्वं तु सामंत श्रातु:त्रिंशत्कपरावधिः ॥ 32॥

रश्मियॊग 31 हॊ तॊ राजमंत्री हॊता है, 32 मॆं सॆनापति इसकॆ बाद, तक रश्मियॊग मॆं मांडलिक राजा हॊता है॥32॥

। पंचत्रिशद्रश्मिफलम - अत ऊध्वं नृपॆ श्रतः आपंचत्रिंशतः क्रमात । । शतपंचकमारम्य सहस्रावधिपॊषकः ॥33॥

35 रश्मियॊग हॊ तॊ मनुष्य राज्याधिकार कॆ क्रम सॆ परिश्रम करनॆ सॆ 50, सॆ 1000 तक जनॊं का भरण पॊषण करनॆवाला हॊता है॥33॥

अत ऊर्ध्वं तु दॆशानां पॊषकाः स्युः पंचविंशतिः । घडविंशतिश्च भानि स्युत्रिंशत षट्त्रिंशदॆव च ॥ 34॥

इसकॆ बाद 36 रश्मियॊग मॆं 25 ग्रामॊं का, 37 रश्मियॊग मॆं 26 ग्रामॊं का, 38 रश्मियॊग मॆं 27 ग्रामॊं का, 39 रश्मियॊग मॆं 30 ग्रामॊं का और  40 रश्मियॊग मॆं 36 ग्रामॊं का पालक हॊता है॥34॥।

अत ऊर्ध्वं नृपाः क्षात्रधर्मिणः क्षत्रियॊऽथवा । भूद्वित्र्यब्धीसुषट्सप्तभूभृज्जनपदाधिपाः ॥ 35॥ इसकॆ बाद 40 रश्मियॊग हॊ तॊ क्षत्रिय जातीय वालक राजा हॊता है। अन्य जातीय मनुष्य क्षत्रिय धर्म कॊ पालन करता हु‌आ 40 सॆ 47 रश्मियॊग मॆं क्रम सॆ 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7 ग्रामॊं कॆ राजा‌ऒं का शासक हॊता है॥35॥

पंचाशद्रश्मि संयॊगॆ सम्राट स्यादनुपाततः । अत ऊर्ध्वं तु दॆवॆन्द्रतुल्यः स्युरिति पद्भभूः ॥ 36॥ इसकॆ बाद 50 रश्मि यॊग मॆं पुरुष सम्राट हॊता है, इससॆ न्यून हॊनॆ पर

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ऎय

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । अनुपात द्वारा सम्राट यॊग मॆं न्यूनता समझना चाहियॆ। 50 सॆ अधिक हॊ तॊ इन्द्र कॆ समान हॊता है ऐसा ब्रह्माजी नॆ कहा है॥36॥

रश्मी विशॆषफलम - उच्चचॆष्टॊत्थयॊगार्धंगुणिताः षष्ठिभाजिताः । नरादीनां तु संख्याः स्युः स्पष्ट इत्याहपद्मभूः ॥ 37॥

उच्च रश्मि चॆष्टा रश्मि का यॊग करकॆ उसकॆ आधॆ कॊ पूर्व यॊग सॆ गुण कर -सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ लब्धि हॊ उस संख्या कॆ तुल्य मनुष्य घॊडा, हाथी . आदि सॆवक हॊतॆ हैं॥37॥

। राजयॊगॆविशॆष:- शूद्रादयः कलौ राजधर्मिणॊ म्लॆक्षधर्मिणः ॥ विप्राश्वॆच्छीधनैर्युक्ता यज्ञकर्मक्रियारताः ॥38॥

जॊ राजयॊग कहॆ हैं वॆ कलियुग मॆं शूद्रादि म्लॆक्ष धर्मबालॊं कॊ हॊता है। यदि यह राजयॊग और  उत्तम रश्मि यॊग ब्राह्मण कॊ हॊ तॊ वह यज्ञादि कर्मनिष्ठ हॊता है और  उसी पुण्य सॆ स्वर्ग कॆ राज्य कॊ भॊगनॆवाला हॊता है॥38॥

। , विशॆषः

यॊगरश्मिसमायॊगॆ तदान तत्फलं विदुः । है, नाभसादिषु यॊगॆषु राजयॊगॆ स्थितं तु तत ॥ 39॥

कॆवल राजयॊग मात्र सॆ ही राज्य की प्राप्ति नहीं हॊती है किन्तु रश्मियॊग राज्य फलदायक हॊ तॊ राजयॊग का फल हॊता है और  नाभसादि यॊग मॆं भी रश्मियॊग हॊनॆ सॆ उनका फल हॊता है॥39॥

’ यॊगानां फल-व्यवस्थायॊगकर्तारमारम्य बलिनं च, विनिर्णयॆत ।

पूर्वभागॆ समुद्विष्टभाग्यकर्मफलानि तु ॥40॥ . प्रथम भाग मॆं भाग्यादि का जॊ फल कहा गया है उसका शुभाशुभ फल रश्मि कॆ अनुपात द्वारा निर्णय करना चाहियॆ॥40॥

. अनुपातॆन विज्ञाय यॊजयॆद्वर्जयॆद्बुधः ।

स्थानवीर्याधिकॆ दॆशॆ मुख्यः स्यादनुपाततः ॥41॥ स्थानबल, दिग्बल, चॆष्टाबल, कालबल, अयनबल, उच्चबल, नैसर्गिकबल

अथ लॊकयात्राप्रकरणम ।

83 इनमॆं जॊ अधिक बल हॊ उससॆ उच्च रश्मि का फल कहतॆ हैं। स्थान वल अधिक हॊ तॊ दॆश मॆं मुख्य हॊ॥41 ॥

दिग्बलॆ विजयश्रॆष्टा वीर्यॆ तु प्रभुता भवॆत ॥

कालवीर्यॊऽधिकॆ कार्यॆ सदॊत्साही तथायनॆ ॥42॥ दिग्बल अधिक हॊ तॊ विजयी हॊ, चॆष्टावल अधिक हॊ तॊ प्रभुत्व हॊ, कालबल अधिक हॊ तॊ सभी कार्य मॆं कुशल हॊ और  अयनबल अधिक हॊ तॊ सभी मय आनंद मॆं रहॆ॥42 ॥।

स्ववंशॊत्कर्षता स्वॊच्चॆ नैसर्गॆ जातिनिर्णयः ॥ राशीनां च ग्रहाणां च स्वभावाः कथितामया ॥43॥

उच्चवल अधिक हॊ तॊ अपनॆ वंश मॆं मुख्य हॊं, नैसर्गिक बल अधिक हॊ तॊ अपनॆ जाति और  कर्म का विशॆष प्रतिपादन करनॆवाला हॊता है। इस प्रकार सॆ मॆषादि राशियॊं का और  ग्रहॊं का स्वभाव मैंनॆ कहा॥43 ॥।

यॆ चात्र यॊजनीयाश्च दैवज्ञॆन सुबुद्धिना ॥44॥

जॊ मैंनॆ कहा है उसॆ यथा अवसर विद्वान बुद्धिमान दैवज्ञ जहां जैसा उचित हॊ उसकी यॊजना वहां वैसा करॆं ॥44॥

। इति पाराशर हॊरायामुत्तराधॆ रश्मिफलाध्यायश्चतुर्थः।4

अथलॊकयात्राप्रकरणम।

. अष्टकवगैरॆखाणांफलम - मूलस्थानाधिकॆ स्थानॆ संभावः शुभ इष्यतॆ । न्यूनॆऽशुभः समॆ मातृपितृवंधून्वदिष्यतॆ ॥ 1 ॥

जिस ग्रह का जिस भाव मॆं जितनी रॆखा कही ग‌ई है (अष्टकवर्गाध्याय श्लॊ. 19 आदि) यदि उस भाव मॆं उससॆ अधिक रॆखा हॊ तॊ उस भाव का फल शुभ, न्यून हॊ तॊ अशुभ और  सम हॊ तॊ सम फल हॊता है॥1॥

स्ववॆश्मधर्मकर्मायलनैशुभं पतिं वदॆत ॥ मृतिव्ययारिभिस्तॆषां व्ययं हानि पृथग्वदॆत ॥ 2॥

2।4।9।10।11 और  लग्न यॆ 6 भाव अपनॆ स्वभाव कॆ अनुसार उत्तम फल दॆतॆ हैं और  8।12 यॆ दॊ भाव खर्च तथा हानि करनॆ वालॆ हॊतॆ हैं॥2॥

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ । पूर्वभागॊक्तानांराजयॊगादीनां व्यवस्था

यॆ यॊगापूर्वभागॆ तु द्विग्रहाद्या नभादयः । । राजयॊगादयः सर्वॆ यथान्यायं प्रयॊजयॆत ॥3॥

पूर्व खंड मॆं जॊ नाभस आदि राजयॊग कहॆ गयॆ हैं उनका रश्मि और  अष्टक वर्ग कॆ बलाबल कॆ अनुसार फल कहना चाहियॆ॥3॥

भरणीय कुटुम्बस्य द्वितीयॆन शुभाशुभॆ ॥ -------- अन्यॆषां चैव भावानां स्वनामसदृशं फलम ॥4॥

दूसरॆ भाव सॆ रॆखा और  शून्य कॆ न्यूनाधिक कॆ अनुसार अशुभ और  शुभ फल दॆखकर कुटुम्ब पॊषण का फल कहना चाहियॆ। अन्य भावॊं का उनकॆ नाम कॆ सदृश फल कहॆ॥4। ।

‘सूर्यॆणवॆश्मस्थानॆन पितुर्मृतिपदं वदॆत । । चन्द्रॆणपंचमॆनैव मातुर्मतिपदं वदॆत ॥5॥

सूर्य और  चतुर्थ स्थान सॆ पिता की मृत्यु कॆ समय का विचार करॆ और  चन्द्रमा और  पाँचवॆं भाव सॆ माता कॆ मृत्यु की समय का विचार करना चाहियॆ॥5॥

. . . मृत्युसमयज्ञानम - ‘सूर्यॆ चन्द्रॆ सपापॆ च तयॊश्च मरणं भवॆत ।

तयॊरतंरलिप्ताश्च शतद्वयविभाजितः ॥6॥

सूर्य चन्द्र चतुर्थ और  पंचम भाव पापग्रह सॆ युत हॊं तॊ दॊनॊं की मृत्यु हॊती है। सूर्यादि और  पापग्रहॊं का यथाक्रम सॆ अंतर करकॆ शॆष की कला बनाकर उसमॆं 200 का भाग दॆना॥6॥

। अब्दादयॊऽशुभस्यापि दृष्ट्या संगुणयॆत्ततः । ।

षष्ठयां विभज्याब्दांद्याश्च तस्मात्पापॆवलॊत्तरॆ ॥7॥ । फल वर्षादिक हॊता है यदि समबल हॊ तॊ न्यूनाधिक्य मॆं यदि सूर्य चन्द्र सॆ पापग्रह बली हॊ तॊ उस फल कॊ पापग्रह की दृष्टि सॆ गुणाकर 60 सॆ भाग दॆकर वर्षादि फलॆ लाना॥1। ।

तदामृतिर्भवॆन्यूनॆ तद्वलॆनैव वर्धयॆत । तदा मृत्युस्तयॊर्मृत्युस्थानॆ पापग्रहॆ सति ॥8॥

पापग्रह अल्पंवली हॊ तॊ सूर्य और  चन्द्रबल सॆ पूर्वॊक्त वर्षादि कॊ गुणा कर 60. सॆ भाग दॆकर लब्ध वर्षादि सॆ फल कहना चाहियॆ और  अष्टम भाव मॆं पापग्रह हॊ तॊ माता पिता कॊ अरिष्ट कहना॥8॥

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शीडॆळॆ

ऎथ

अथ लॊकयात्राप्रकरणम ॥

त्रिकॊणशॊधन‌अष्टकवर्ग शॊधन की दॊ विधियाँ हैं। 1. त्रिकॊणशॊधन, 2, ऎकाधिपत्य शॊधन। प्रथम त्रिकॊण शॊधन क्या हैं सम्पूर्ण राशि चक्र मॆं 4 त्रिकॊण हैं। त्रिकॊण सॆ तात्पर्य प्रथम, पंचम और  नवम राशि सॆ है अतः प्रत्यॆक त्रिकॊण की प्रथम राशि क्रमशः मॆष, वृष, मिथुन और  कर्क है। इसका प्रयॊजन अष्टकवर्गाध्याय कॆ श्लॊक सं. 75 मॆं कहा हु‌आ है।

। अथ पिंडॊत्पत्ति:- शॊध्यावशॆष संस्थाप्य राशिमानॆन वर्द्धयॆत । ग्रहयुक्तॆऽपि तद्राशौ ग्रहमानॆन वर्द्धयॆत ॥9॥

ऎकाधिपत्य शॊधन करनॆ सॆ जॊ अंक जिस राशि कॆ नीचॆ हॊं उन्हॆं उन-उन्न राशि कॆ गुणकांकॊं सॆ गुणा कर उसकॆ नीचॆ रख दॆ इसकॆ बाद उनका यॊग करनॆ सॆ राशि पिंड हॊता है। इसी प्रकार जिस राशि मॆं जॊ ग्रह हॊ उस ग्रह कॆ गणकांक सॆ ऎकाधिपत्य शॊधन सॆ शॆष अंक कॊ गुणा कर रख दॆ और  सबका यॊग करनॆ सॆ ग्रहपिंड हॊता है।

उदाहरण चक्रॊं मॆं है।

। राशिगुणकांकगॊसिंहौ दशगुणितौ बसुभिर्मिथुनालिगौ । वणिग्मॆषौ तु मुनिभिः कन्यकामकरौ शरैः शॆषाः स्वमानगुणिता राशिमाना इभॆक्रमात ॥10॥

ग्रहगुणकांक-

। जीवारशुक्रसौम्यानां दशवसुमुनीन्द्रियैः । बुधस्य संख्या शॆषाणां ग्रहगुणयॆत्पृथक ॥11॥ त्रिषुद्वयॊर्वा यन्यूनमितरत्रसमं । भवॆत ॥ ऎकस्मिन भवनॆ शून्यॆ तत्रिकॊणं न शॊधयॆत ॥12॥

समत्वॆ सर्वगॆहॆषु सर्वं संशॊधयॆद्बुधः । त्रिकॊण कॆ तीन राशियॊं मॆं सॆ जिस राशि की रॆखा संख्या अल्प हॊ उसॆ त्रिकॊण की अन्य दॊ राशि की संख्या मॆं सॆ घटाकर शॆष कॊ उसी राशि कॆ नीचॆ रखॆ अल्प रॆखा संख्या कॆ स्थान मॆं शून्य रखना चाहियॆ। यदि त्रिकॊण की तीनॊं राशियॊं मॆं मॆं किसी ऎक राशि मॆं शून्य हॊ तॊ अन्य दॊ राशियॊं कॆ नीचॆ वॆसी रॆखा स्थापित कर दॆं अर्थात उनका त्रिकॊण शॊधन न करॆ॥ 12 ॥

ऎ‌ऎ

ऎ‌ऎ

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । यदि त्रिकॊण कॆ तीनॊं राशियॊं की रॆखायॆं तुल्य हॊं तॊ सभी का संशॊधन करॆ अर्थात तीनॊं कॆ नीचॆ शून्य रखॆ।

। ऎकाधिपत्यशॊधनक्षीणॆन सह चान्यस्मिन शॊधयॆत ग्रहवर्जितः ॥13॥ ग्रहयुक्तॆ फलॆ हीनॆ ग्रहाभावॆ फलाधिकॆ । अनॆन सह चान्यस्मिन शॊधयॆद ग्रहुवर्जितॆ ॥14॥ फलाधिकॆ ग्रहैर्युक्तॆ चान्यस्मिन सर्वमुत्सृजॆत । उभयॊर्ब्रहसंयुक्तॆ न संशॊध्यः कदाचन ॥15॥ उभयॊग्रहहीनाभ्यां समत्वॆ सकलं त्यजॆत । संग्रहा ग्रहतुल्यत्वात्सर्वं संशॊध्यपग्रहात ॥16॥ .. ऎकत्र नास्ति चॆत्सर्वहानिरन्यत्र कीर्तिताः । कुलीरर्सिहयॊ राश्यॊः पृथक क्षॆत्रं पृथक फलम ॥17॥

1भौमादि पंचग्रहॊं की दॊ दॊ राशियाँ हॊती हैं अत: इन्हीं का ऎकाधिपत्य

 शॊधन हॊता है जिसका नियम यह है- यदि दॊनॊं राशियॊं मॆं कॊ‌ई ग्रह न हॊ तॊ अल्पसंख्या कॊ अधिक संख्या मॆं घटाकर शॆष कॊ अधिक संख्या कॆ नीचॆ रख दॆ और  अल्पसंख्या कॊ ज्यॊं का त्यॊं रख दॆना चाहियॆ।

2-यदि ऎक राशि मॆं ग्रह हॊ और  दूसरी राशि मॆं ग्रह न हॊ और  ग्रहहीन । राशि कॆ संख्या सॆ ग्रहयुक्त राशि की संख्या अल्प हॊ तॊ ग्रहहीन राशि संख्या मॆं

सॆ प्रहयुक्त राशि की संख्या कॊ घटाकर शॆष कॊ ग्रहहीन राशि कॆ नीचॆ रखना और  ग्रहयुक्त राशि की संख्या वैसी ही रख दॆना। । 3यदि ग्रहयुक्त राशि की संख्या ग्रहहीन राशि कॆ संख्या सॆ अधिक

तॊ ग्रहंयुक्त राशि की संख्या वैसी ही रहॆगी और  ग्रहहीन राशि कॆ नीचॆ शून्य रखना

चाहियॆ।

। 4-यदि दॊनॊं राशि ग्रहयुक्त हॊं तॊ संशॊधन नहीं करना चाहियॆ अर्थात जैसॆ का तैसा ही रखना चाहियॆ। यदि दॊनॊं राशियॊं मॆं ग्रह न हॊ और  संख्या भी तुल्य हॊ तॊ दॊनॊं राशियॊं मॆं शून्य रखना चाहियॆ।

. 5. यदि ऎक सग्रह हॊ और  दूसरी राशि ग्रहहीन हॊं और  संख्या भी समान हॊ तॊ ग्रहहीन राशि की संख्या कॆ स्थान मॆं शून्य और  ग्रह युक्त राशि की संख्या

।.

.

.

--

-

अथ लॊकयात्राप्रकरणम । . वैसी ही रहॆगी।

- 6-यदि दॊनॊं ग्रहयुत्त या ग्रहहीन हॊं अथवा दॊनॊं मॆं ऎक ग्रहयुक्त और  अहहीन हॊ और  त्रिकॊणशॊधन कॆ बाद किसी ऎक मॆं शून्य संख्या हॊ तॊ दॊनॊं मॆं शून्य ही रहॆगा।

7कर्क और  सिंह राशि कॆ स्वामी चंद्र और  सूर्य कॆ अलग-अलग हॊनॆ कॆ कारण इनका ऎकाधिपत्य शॊधन नहीं करना चाहियॆ।

विशॆष- त्रिकॊणशॊधन कॆ उपरान्त ही उपर्युक्त 7 विकल्पॊं सॆ ऎकाधिपत्य शॊधन करना चाहियॆ। शॆष उदाहरण चक्र सॆ स्पष्ट हैं।

-

--

-

-

---

--

। अह सि.बु.

सूर्याष्टकवर्ग शॊधन।

शि. मं..।शुयॊग यॊग राशि ।4।5।6।7।8।9।10।11।12।1।2।3॥ रॆखा ।3।4।2।4। 6 ।5।4।3। 3 ।5।5।4।48 । त्रि.शॊ. 0103201003888 ऎका.शॊ.

ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ [ रा.गु. ॥ 0॥7॥।

ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ ऒत । ग्रं.गु. ॥

0।12।12। पिंडयॊग ।

1994


ऒ‌ऒ ऒ‌ऒ

झॊ‌ऒ‌ऒ

8

0 ।

0

चंद्राष्टकवर्गशॊधन।

। यॊग यॊगपिंड ।

राशि ।3।4।5। 6 ।7।8 9 । 10।11।12।1।2।यॊग रॆखा ।5।2।4।3।4। 5 5 । 2।4। 75

1389 त्रि.श. ।10॥ 1 । ऎका.शॊ.] 1 । ॥ भ्लॊ‌ऒ‌ऒ‌ऒल्स

.गु.।

28

।32। राशिपिंड । अ.गु. 12। । ।

।27। यॊगपिंड

43

।’. वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

भौमाष्टकवर्गशॊधन। चं, सु. बु.॥

यॊगपिंड

राशि 11121।3।3।4।5।6।7।8।9।10 यॊग रॆगा ।

य 339 38 39 त्रि.शॊः ॥॥2।2।00 । 0॥4।0] 19 । ऎका.शॊ.]0 । 0 0 0 । । । । प

ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ‌ऒ

ळू‌ई

0 । राशिपिंड ग्रि.गु.  इ इ‌इ  इ इ इ इ‌इ  इ इ0इ ग्रि, पिंड ।

झ0 1 ग्र. पिंड

टॊ

ग्र.गु.

बुधाष्टकवर्गशॊथन।

अह

। श.

.

। यॊगपिंड

ऒर

। राशि ।5।6।7।8 9 10 11 12 1.।2। 3 । 4 यॊग

रॆखा ।5।5।35।4।5।4।4।4।4।6।5।54 त्रि.श. ।1।1॥1 0 ।1।1।0 । । 0।3।1।9। ऎका.शॊ.[1] 0॥0 ]001 । 0 । 2 ॥ 3 ।

रा.गु. 10॥

।24॥45 । राशिपिंड । । ग्र.गु. 15

॥36/5/64 । अ.पि.यॊ, ।

0.

गुर्वष्टकवर्गशॊधन।

ग्रह । बु.॥

। राशि : । 6 ॥5।

झ9 10 11 12 1

3

3

4 मगि

रॆखा । 4।5।6।5।3।4।6।5।6।5।3।456 । । त्रि.शॊ.] 1 । 1।3।1॥03 । 1 । 3 । 1 ॥।14।

ऎशॊ.। 1 ॥2।1॥। । 02।10॥ 7 । । रा.गु.।10॥।8॥

राशिपिंड ग्र.गु. 15 ॥5॥

- ऒ

अ.पि. ।

36

झॊरॊव

ऒ‌ऒव्व

-

--

-

ऎय

ट्ट.

अथ लॊकयात्राप्रकरणम ।

शुक्राष्टकवर्गशॊधन। । ग्रह शु. सू. बु.] ई

ऊण्ट

3।4।5। 6 ।7।8 9 ।12।11।12।1।2।यॊग रॆखा। ऊय्य्य्यॆ41864 त्रि.श. ।3।3।2।0 । 0 0 0 । 2 । 1 । 3 869 ऎ.. ॥3।2।0 । 5 । प ऒ लॊ ऒ 19 रा.गु. 12/20॥

83

राशिपि, । ग्र.गु. 15/30॥ ग्रि.गु. 1530 । । । । । 53 ग्र.पिं.

। ग्र.पि.

शॆ । शनॆरष्टकवर्गशॊधन। ग्रह ।श.। । ।मॆं.

मॊ

।स

। राशि ।8।9 10 11 12 1 2 । 3।4।5।6। 7 । रॆखा । 5।25। 1 ।3।73 । 4।4।2।12 ।नि शौ.। 2॥4। । 05 23। 1 । । 0। 118 । ऎ.शॊ.। 2।000 । 03 1 । 0

रा.गु. [16

20 । रा.दि. ग्र.गु. ।10॥

15 । 35.पि, ।

ऒ‌ऒ ळ

लॊल लॊलॊ

* ।

लग्नाष्टकवर्गशॊधन।

शु. सू. बु.]

श.

यॊग । पिंड ,

। राशि ।101 11 । 1 । 2।3।4।5।6 । 7 ।8।9। । रॆखा ।4।4।3।6।3।5। 2 । 5।5॥

त्रि.श. 18 भॊत

च्लॊ 23 । ।4। ऎ।17 । ऎ.शॊ. ॥ 1।0 ॥।2।0 । 2

ऒ । रा.गु. । 0/11. ॥ ।16॥10 ळॆश ग्रि.गु. 8 24 30 ।

91 । 16 1.पि.

ललॊ

ऒव

वृहत्पाराशरहॊराशास्रम ।

: समुदायाष्टकवर्गचक्र। । राशि मॆ... मि.क. सिकं. तु. . घ. म. कुं.मी.यॊग

ग्रह शि.सू. बु.

अल,

व्स

ई च्र ।

। ळ ।

. ’

र्य

। सू. ।5।5।4।3।4।2।4।6।5।4।3। 348 ।

। 434181831841428 मं. ।3।5।4।2।3।3।2।6।3।4।2।239 बु. ।4।4।6।5।5।5 । 3।5।4।5।4।454 बृ. । 6।5।3।4।4।5।6।5।3।4।6।5।56 शु. । 6।4।7।4।4।4।4।1।3।6।5।4।52 । श. । 7।3।4।4।2। 1 । 2 ।5।2।5। 1 । 339

रूद्र दरर रररर रूरल 20 रर8 नॊट- सर्वाष्टक वर्ग मॆं सभी अष्टवर्गॊं मॆं मॆषादि राशियॊं मॆं कितनी-कितनी रॆखायॆं प्राप्त हु‌ई हैं और  उनका यॊग क्या हु‌आ लिखना चाहियॆ।

अष्टकवर्ग कुंडली (34)898

(34) ()82

(30)20

छॆट ख . (3)

(74) (19)2

(24)सू.4

 (फॆ) 2 शु(36}3च

बु(26)वृ5 मातृपित्रॊः मृत्युकालः। ग्रहयॊगॆन हानिः स्यात वर्गणाघ्नं पृथक्ततः । संयॊज्य सप्तभिर्हत्वा सप्तविंशति भाजिताः ॥18॥।

ऎकाधिपत्य शॊधन करनॆ सॆ राशियॊं कॆ नीचॆ जॊ अंक आयॆ हैं चाहॆ वॆ शून्य हॊं यां रॆखा हॊं उन्हॆं राशि कॆ ध्रुवांकॊ सॆ पृथक-पृथक गुण दॆना और  जिस राशि मॆं ग्रह हैं उनकॆ अंकॊं कॊ उनॆ उन ग्रहॊं कॆ ध्रुवकॊं सॆ गुणकर पृथक-पृथक रखकर, राशियॊं कॆ गुणनफल का यॊग और  ग्रहॊं कॆ गुणनफल का यॊग कर दॊनॊं कॊ ऎक जगह जॊडकर सात 7 सॆ गुणकर उसमॆं 27 सॆ भाग दॆनॆ सॆ॥18॥

अथ लॊकयात्राप्रकरणम । । 651 अब्दादयस्तदा दॆहनाशः करणदॆ सति । तस्मिन पापग्रहॆ तस्माद्वलिन्यॆवं विधिः स्मृतः ॥19॥

लब्धि माता पिता कॆ आयुष्य का प्रमाण हॊता है। यदि पापग्रह बलवान हॊ । पूर्वविधि सॆ ही मृत्युकाल जानना॥19॥

बलहीनॆ तु तं हन्यात्सप्तभिः पंचभिर्भजॆत ।

आयुस्तयॊः स्यात्स्थानस्य प्रदिशॆदशुभॆ सति ॥20॥ । यदि निर्बल हॊ तॊ यॊग कॊ सात सॆ गुणकर 5 सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ वर्षादि

वहीं माता पिता कॆ आयुष्य का प्रमाण हॊता है॥20॥ ।

मुनिभक्तं वसुघ्नं स्यानैवं चॆन्नैतयॊमृतिः । वक्ष्यमाणॆन विधिना वदॆदाह पराशरः ॥21॥।

यदि रॆखाप्रद ग्रह वली हॊ तॊ पूर्व पिंड कॊ आठ सॆ गुणकर 7 सॆ भाग दॆनॆ लव्ध वर्षादिक दॊनॊं का आयुष्य हॊता है। शून्य कॆ आयुष्य सॆ रॆखा कां आयुष्य धक हॊ तॊ मृत्यु नहीं हॊती है ऐसा पाराशर का मत है॥21॥।

चतुर्थभावात्सूर्याच्च‌आयुसाधनम - , सूर्यादायुः करौ भूपा मनवॊऽर्का नवार्णवाः ॥

वॆदाक्षीणि तु लग्नस्य वक्ष्याम्यायुस्तथैवतत ॥22॥ सूर्यादि ग्रहॊं कॆ और  लग्न का क्रम सॆ आयुधुवांक 2।16।14।12।9।4।4।2

है॥22॥।

स्वॊच्चॆ नीचॆ तु पातः स्याद्धरणादिविधिस्ततः॥

आयुस्तयॊः स्यात्तौ तस्मिन भवनॆ तु तथा स्थितौ॥23॥ । यदि उच्च मॆं ग्रह हॊ तॊ ध्रुवक की आयु ही स्पष्ट हॊती है और  नीच मॆं जह हॊ तॊ अनुपात द्वारा आयु लाना चाहियॆ॥23॥ .

ध्रुवांक द्वारा आयुर्विचारःन कश्चित्स्थानदः स्याच्वॆत्तत्कालॆ च मृतिर्भवॆत । शुभमॊर्गॆ शुभा प्रॊक्ता तयॊः स्याद्रश्मिसंभवः ॥24॥ यदि वहां कॊ‌ई रॆखाप्रद ग्रह न हॊ तॊ उसी समय मृत्यु कहना चाहियॆ शुभग्रह

.

652 . . . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । " कॆ यॊग सॆ उत्तम रीति सॆ और  पापग्रह अधिक हॊं तॊ दंड पातादि सॆ मृत्यु

कहना॥24॥

.

.

.

। रश्मितः आयु साधनम - अष्टभिर्गुणयॆत्वद्भिर्विभज्यायुः परं भवॆत । वॆश्मनि स्थानदा न स्युर्जन्मकालॆ स्कुटीकृताः ॥25॥।

सूर्य और  चतुर्थभाव कॆ रश्मि संभव कॊ 8 सॆ गुणकर 6 सॆ भाग लब्ध परम आयु हॊती है॥25॥।

करणाद्यभावॆकरणादिद्वारा भाव विचार:- । कलीकृतश्च खनखैर्विभज्याब्दादयः क्रमात ।

ऎवं शुभाशुभं ब्रूयान्मातापित्रॊर्द्विजॊत्तम ॥26॥।

यदि चतुर्थभाव मॆं रॆखाप्रद ग्रह न हॊं तॊ चतुर्थ भाव का कला पिंड बनाकर उसमॆं 200 सॆ भाग दॆनॆ सॆ वर्षादि आयु हॊती है इसपर सॆ माता पिता कॆ शुभाशुभ

फल कॊ कहना॥26॥ 1. करणस्थानदातारः पापपुण्य फलप्रदाः ।

पुनश्चयॊच्चादिषु तथा त्रिगुणाद्यास्तु पूर्ववत ॥27॥

शून्य कॆ दॆनॆ वालॆ ग्रह पापफल दॆनॆ वालॆ हॊतॆ हैं और  रॆखा दॆनॆ वालॆ ग्रह शुभफल दॆनॆ वालॆ हॊतॆ हैं। यदि यॆ अपनॆ मूलत्रिकॊणादि मॆं हॊं तॊ पूर्ववत त्रिगुणादि फल दॆतॆ हैं॥27॥

शत्रुनीवाश्चि शत्रूणां स्थानॆष्वपि तु पूर्ववत । रार्शि हित्वा तु भावानां सर्वत्रैवं क्रिया भवॆत ॥28॥

जहां आयुष्य का विचार हॊ वहां राशि कॊ छॊडकर अंशादि सॆ जैसा संस्कार कहा हॊ वैसा करना, यह क्रिया सर्वत्र जानना॥28॥

। भावानां संस्कार विशॆषाद फल विचारःद्वितीयभावलिप्ताश्च राशिलिप्ताविभाजिताः । स्ववर्गणाहतास्तस्य खॆटानां वर्गणाहताः ॥29॥ दूसरॆ भाव कॆ अंशादि का कला करकॆ उसमॆं दूसरॆ भाव की राशि कॆ कला


.

अर्थ लॊकयात्राप्रकरणम ।

43 सॆ भाग दॆना लब्ध कलादि फल कॊ द्वितीय भाव कॆ ध्रुवांक सॆ गुणाकर यदि उनमॆं । ग्रह हॊ तॊ उसकॆ ध्रुवांक सॆ गुणकर॥29॥

भावरश्मिभिराहन्यात्सप्तभिश्च विभाजयॆत । मूलरश्मिसमूहॆन शिष्टं हन्यात्तथैवतान ॥30॥

उसॆ दूसरॆ भाव कॆ स्वामी कॆ रश्मि सॆ गुणाकर सात सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ अंक प्राप्त हॊ वह  भारणीय कुटुम्ब की संख्या और  शॆष कॊ मूलरश्मि समूह सॆ गुणकर॥30॥।

इष्टानिष्टफलाभ्यां . च हत्वांतरमथद्वयॊः । . : सप्तर्विशतिभिर्हत्वा सप्तभिश्च विभाजयॆत ॥31॥

गुणनफल मॆं भाव स्वामी कॆ इष्ट फल सॆ गुणन करकॆ ऎवं भाव स्वामी । कष्ट बलांकॊं सॆ मूलरश्मि समूह कॊ गुणन कर दॊनॊं कॆ अन्तर कॊ 27 सॆ गा दॆनॆ सॆ कलादि फल कॊ 7 सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ आवॆ वह स्त्रियॊं की संख्या हॊ है॥31॥

भरणीय कुटुम्बानां पुस्त्रियस्तत्समाविदुः । राशीन हित्वातु लग्नादि भावभागादिकान ॥32॥

राशियॊं कॊ छॊडकर लग्नादि भावॊं कॆ अंशादि अलग-अलग। अपनॆ अ स्वामियॊं कॆ रश्मियॊं सॆ गुणन करनॆ सॆ जॊ आवॆ उसॆ भावभागादि कहतॆ हैं॥

गुणयॆद्रश्मिभिः स्वैश्च भावभागादयॊविदुः । कलीकृत्य भलिप्ताभिर्विभज्याप्तं फलं ततः ॥33॥

इसका कलापिंड बनाकर दॊ जगह स्थापित करॆ उसमॆं राशि लिप्ता सॆ , दॆनॆ सॆ जॊ फल प्राप्त हॊ उसॆ भावफल कहतॆ हैं और  दूसरॆ स्थान मॆं 12 सॆ । दॆनॆ सॆ जॊ फल हॊ उसॆ भाव साधन फल कहतॆ हैं॥33॥

प्रकारांतर सॆ भावफल साधनसूर्यभक्तावशिष्टं तु भावानां साधनं विदुः ॥ राशीन हित्वा ततॊ लिप्ताखखनॆत्रविभाजिताः ॥ 34॥ राशिकॊ छॊडकर अंशादि की कला बनाकर उसमॆं 200 सॆ भाग दॆना॥34

शी‌आ

-

654 . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

। साधनघ्ना विभक्ताश्च. वर्गणाभिः फलाहताः ॥

उच्चादिवृद्धिहानि च कुर्यात्तत्संख्यकाभवॆत ॥35॥

लब्ध कॊ पूर्व साधित भाव साधन सॆ गुणकर अपनॆ ध्रुवांक मॆं भाग दॆना और  पूर्व प्रतिपादित भाव साधन सॆ गुण कर अपनॆ ध्रुवांक मॆं भाग दॆना पुनः इसॆ पूर्वसंपादित फल सॆ गुण दॆनॆ सॆ जॊ संख्या प्राप्त हॊ वह कुटुम्बपॊषण की संख्या हॊती है॥35॥

। अष्टकवर्गफलाध्यायः। । तत्रांदावष्टकवर्गॆ विचारणीयः

आत्मभावशक्तिश्च पितृचिन्ता रवॆः फलम ॥ मनॊवृत्तिप्रसादश्च मातृचिन्तामृगांकतः ॥1॥

आत्मा, प्रभाव, शक्ति और  पिता कॊ फल सूर्य सॆ विचार करना चाहियॆ मन । वृत्ति, प्रसन्नता और  माता का विचार चन्द्रमा सॆ करना चाहियॆ॥ 1 ॥ , भ्रातृसत्वं गुणं भूमिभौमॆन च विचारयॆत ॥

वाणिज्यकर्मवृतिश्च बुधॆन तु विचिन्तयॆत ॥2॥ ।भा‌ई, बल, गुण, भूमि का विचार भौम सॆ करना चाहियॆ। वाणिज्य कर्म वृत्ति का बुध सॆ करना चाहियॆ॥2॥ ।

गुरुणा दॆहपुष्टिं च विद्यापुत्रार्थसंपदः ॥ भूगॊर्विवाहकर्माणि भॊगस्थानं च वाहनम ॥3॥

शरीर की पुष्टि, विद्या, पुत्र, धन संपत्ति का विचार गुरु सॆ करना चाहियॆ। शक्र सॆ विवाह, संभॊग, वाहन, वॆश्या, स्त्री का विचार करना चाहियॆ॥3॥।

वॆश्यास्त्रीजनगात्राणि शुक्रॆणैवनिरीक्षयॆत ॥

आयुष्यं जीवनॊपायं दुःखशॊकमहद्भयम । सर्वक्षणं च मरणं मंदॆनैव निरीक्षयॆत ॥4॥

अन्य, जीवन, दु:ख, शॊक आदि का विचार शनि सॆ करना चाहियॆ॥4॥

अष्टकवर्गफलाध्यायः । रविः पिता शशी माता भ्राता भौमॊ बुधः सुहृत । मातुलॆयः स्मृतॊ जीवॊ ज्ञानपुण्यॆ स्त्रिय:सितः ॥5॥

सूर्य पितृ कारक, चन्द्रमा मातृकारक, भौम भ्रातृकारक, बुध मित्र और  मातुल (मामा) कारक, गुरु विद्या और  पुण्य (कर्म) कारक और  शुक्र स्त्री कारक है॥5॥

ऎषामृक्षॆ च तत्कालॆ मरणं कुरूतॆ शनिः ।

आदित्याष्टकवर्गं च निक्षिप्याकाशचारिषु ॥6॥ इनकॆ नक्षत्रॊं मॆं जव शनि आता है तॊ इन लॊगॊं कॊ कष्ट कारक हॊता है। सूर्य कॆ अष्टम वर्ग कॊ ग्रह सहित स्थापनकर विचार करॆ॥6॥

अर्कस्थितस्य नवमॊ राशिः पितृगृहं स्मृतम । । तद्राशिफल संख्याभिवर्द्धयॆद्यॊगपिंडकम ॥7॥

सूर्य सॆ नवम राशि पिता की हॊती है, उस नवम राशि मॆं जॊ रॆखा की संर हॊ उससॆ यॊग पिण्ड कॊ गुणकर॥7॥

सप्तविंशॊधृतं शॆषं नक्षत्रं याति भानुजम ॥ तस्मिन्कालॆ पितृक्लॆशॊ भवतीति न संशयः ॥8॥

27 सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ शॆष बचॆ वह अश्विन्यादि नक्षत्र की संख्या हॊ उस नक्षत्र पर जव शनि जाता है तॊ पिता कॊ कष्ट हॊता है॥8॥

तत्रिकॊणगतॆ वापि पितापितृसमॊऽपिवा । मरणं तस्य जानीयाद्दशाछिद्रॆषु कल्पयॆत ॥9॥

अथवा इसकॆ त्रिकॊण नक्षत्र मॆं जब शनि हॊता है तब पिता और  पिता सदृश लॊगॊं कॊ कष्ट हॊता है। यदि उस समय पापग्रह की दशा हॊ तॊ मृत्यु हॊ है अन्यथा कष्ट मात्र हॊता है॥9॥।

अर्कात्तु‌इ तुर्यगॆराहॊ मंदॆ वा भूमिनंदनॆ ॥ गुरुशुक्रॆक्षणमृतॆ पितृहा जायतॆ नरः ॥10॥

सूर्य सॆ चौथॆ स्थान मॆं राहु, शनि, भौम मॆं सॆ कॊ‌ई हॊ और  उसॆ गुरु श न दॆखतॆ हॊं तॊ पिता का नाश हॊता है॥10॥।

-

-

-

-

4ऎ ..

। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ लग्नाच्चन्द्राद्गुरुस्थानॆ यातॆ सूर्यसुतॆ यदि । पित्रॊनशं तदा कालॆ वीक्षितॆ पापसंयुतॆ ॥11॥

लग्न या चन्द्रमा सॆ नवम स्थान मॆं शनि हॊं और  पापग्रह दृष्ट और  युत हॊं। तॊ..पिता का नाश हॊता है॥11॥ .. लग्नात्सुखॆशराशीशदशायाम पितृक्षयः ।

दशानुकूलकालॆन यॊजयॆत्कालवित्तमः ॥12॥

लग्न सॆ चतुर्थॆश कॆ राशीश की दशा मॆं पिता का नाश हॊता है किन्तु दशा अनिष्टद न हॊ तॊ सुख हॊता है॥12॥

पितृजन्माष्टमॆ जातस्तदीशॆ लग्नगॆऽपिवा ॥ तॆनैव पितृकार्याणि करॊत्यत्र न संशयः ॥13॥

पिता कॆ जन्मलग्न सॆ आठवॆं लग्न मॆं जन्म हॊ अथवा पिता कॆ जन्मल 3

 आठवॆं भाव कॆ स्वामी बालक कॆ जन्मलग्न मॆं हॊं तॊ वह बालक ही पिता कॆ सभी ।... कार्यॊं कॊ करता है अर्थात पिता की मृत्यु हॊ जाती है और  वही सभी कार्य कॊ

करता है इसमॆं संशय नहीं है॥13॥

। पितृसुख यॊगसुखनाथ दशायां तु सुखप्राप्तॆस्च संभवः ॥ सुखॆशॆ लाभलग्नस्थॆ चन्द्रलग्नाद्विशॆषतः ॥14॥

सुखॆश की दशा मॆं पिता कॊ सुख हॊता है। सुखॆश 11 वॆं या जन्मलग्न मॆं हॊ तॊ, विशॆषकर चन्द्रलग्न सॆ॥14॥

पितृगृहं समायुक्तॆ जातः पितृवशानुगः । तॆनैव पितृकार्याणां कर्मक्षॆत्रॆ समापयॆत ॥15॥.

दशमभाव मॆं हॊ तॊ पिता कॆ वश मॆं रहनॆ वाला हॊता है और  वही पिता कॆ कर्मॊं कॊ करनॆ वाला हॊता है॥15॥

पितृजन्मतृतीय जातः . पितृधनाश्रितः । पितृकर्मगृहॆ जातः पितृतुल्यगुणान्वितः ॥16॥ पिता कॆ जन्मलग्न सॆ तीसरॆ लग्न मॆं जन्म हॊतॊ पिता कॆ धन का भॊगी हॊता

,

ऎळ्ळॆ

अष्टकवर्गफलाध्यायः । है। पिता कॆ जन्मलग्न सॆ 10वी

वौं राशि मॆं जन्म हॊ तॊ पिता कॆ गुण कॆ सदृश गुणवाला हॊता है॥16॥

तदीशॆ लग्नसंस्थॆऽऒ -

भसंस्थॆऽपि पितृश्रॆठॊ भवॆत्सुतः ।

न. । सात्वा तान्यत्रापि नियॊजयॆत ॥17॥ और  उसकॆ स्वामी यदि जन्मलय मॆं हॊं तॊ पिता सॆ श्रॆष्ट हॊता है। इस प्रकार सॆ पूवक्त कॆ फली की यॊजना यहां भी करना॥17॥

विशॆष:- सूर्याष्टवर्गॆ यच्छून्यं तन्मासॆ संवत्सरॆऽपि च । विवाहव्रतवैधादि सर्वं तत्वर्जयॆत्सदा ॥18॥

सूर्याष्टक वर्ग मॆं जिस राशि मॆं अधिक शून्य हॊ उस राशि कॆ मास मॆं और  संवत्सर (उस राशि मॆं जब गुरुहॊं) मॆं विवाह व्रत-वधादि शुभकर्म कॊ न करॆं॥18॥

कलहॊ त्रासदुःखानि शून्यमासॆ भवन्ति च । । ऎवमादिफलं ज्ञात्वा मासॆ प्रति समाचरॆत ॥19॥

अधिक शून्य वालॆ मास मॆं कलह, भय, दु:खादि हॊतॆ हैं इसकॊ ध्यान मॆं रखतॆ हुयॆ मास कॆ कार्यॊ कॊ करॆ ॥19॥

पितृ मरणकालःसंशॊध्यपिंडं सूर्यस्य रंध्रमानॆन वर्द्धयॆत ॥ अर्कॊद्धतावशॆष यदा याति शनैश्चरः ॥ तस्मिन्मासॆ मृतिं विद्यात्तत्रिकॊणगतॆऽपिवा ॥20॥

सूर्य कॆ अष्टकवर्ग कॆ पिंड कॊ सूर्य कॆ शून्य संख्या सॆ गुणकर 12 का दॆनॆ सॆ जॊ शॆष बचॆ उस राशि मॆं जब शनि जाता है तब उस राशि कॆ मा पिता की मृत्यु हॊती है या उस राशि सॆ त्रिकॊण राशि मॆं जव शनि जातॆ हैं पिता की मृत्यु हॊती है॥20॥

चन्द्राष्टकवर्गस्य फलम - चन्द्राच्चतुर्थभॆ मातुः प्रासादग्रामचिंतनम । चन्द्राष्टवर्गॆयद्राशौ शून्याधिक्यं प्रजायतॆ ॥21॥

411

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । चन्द्रमा सॆ चतुर्थ भाव मॆं माता, गृह और  ग्राम का विचार करना चाहियॆ। ॥ चन्द्रमा कॆ अष्टकवर्ग मॆं जिस राशि मॆं अधिक शून्य है॥21॥।

तं राशिं च परित्यज्य शुभकर्माणि कारयॆत । चन्द्राष्टमॆ शंनिक्षॆत्रॆ त्रिकॊणॆषु विशॆषतः ॥22॥

उस राशि मॆं जब चन्द्रमा हॊ तब शुभ कर्म कॊ न करॆ। चन्द्रमा सॆ आठवॆं । शनि की राशि सॆ विशॆष कर त्रिकॊण मॆं हॊ तॊ॥22॥

आधिव्याधिदुःखाण्यपि लभतॆ नात्र संशयः ॥ ... चन्द्रात्सुखफलात्पिडं वर्धयॆद्वैतं चतत ॥23॥

उस समय जातक कॊ मानसिक कष्ट, व्याधि और  दु:ख हॊता है। चन्द्रमा ’ सॆ यॆ भाव कॆ फल कॊ खंड (पिंड) सॆ गुणा कर 27 सॆ भाग दॆनॆ सॆ॥2॥

शॆषमृक्षॆ शनौ यातॆ मातृहानि विनिर्दिशॆत ।

तत्रिकॊणॆषु वा कॆचिद्दशाछिद्रॆषु कल्पयॆत ॥24॥ ।.. जॊ. शॆष हॊ त्तत्तुल्य नक्षत्र पर शनि कॆ रहनॆ सॆ माता कॊ कष्ट या मृत्य हॊती हैं। अथवा उस नक्षत्र सॆ त्रिकॊण नक्षत्र (10 या 19 नक्षत्र मॆं) मॆं शनि कॆ रहनॆ सॆ और  उस समय कष्टप्रद दशा कॆ रहनॆ सॆ माता की मृत्यु हॊती है॥24॥

.. ’ भौमाष्टंकवर्गफलम - भौमाष्टवर्गॆ संचिन्त्यं भ्रातृविक्रमधैर्यकम । भौमस्थितस्य सहजॊराशिभ्रतृगृहंस्मृतम ॥25॥

भौमाष्टक मॆं भा‌ई, पराक्रम और  धैर्य का विचार करना चाहियॆ। भौम सॆ तीसरॆ भाव सॆ भा‌ई का विचार करना चाहियॆ॥25॥ ।

त्रिकॊण शॊधनं कृत्वा यत्रभूयाँसि तत्रवै ।

भूमिर्भवति भार्यवा: भ्रातृगॆहसुखं तथा ॥26॥

भौमाष्टकवर्ग मॆं त्रिकॊण शॊधन कॆ पश्चात जिस राशि मॆं अधिक शॆष हॊ उस राशि मॆं जब भौम जाता हैं तॊ भूमि का स्त्री का लाभ और  भा‌ई तथा गृह का सुख हॊता है॥26॥

भौगॊ बलविहीनशॆतु दीर्घायुर्भातृकॊभवॆत । फलानि यत्र क्षीयन्तॆ तत्रभूमिहानिः स्मृतः ॥27॥

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648

। अष्टकवर्गफलाध्यायः ॥ यदि भौम निर्वल हॊ तॊ भा‌ई दीर्घायु हॊता है। और  जिस राशि मॆं फल की कमी हॊ उस पर भौम कॆ जानॆ सॆ भूमि की हानि हॊती है॥27॥

तद्राशिफलसंज्यैश्च वर्धयॆच्छॊध्यपूर्ववत ।

शॆष च शनौ यातॆ भ्रातृहानिर्विनिर्दिशॆत ॥ 28॥

फलॊं कॆ यॊग कॊ पिंड सॆ गुणा कर पूर्ववत 27 का भाग दॆनॆ सॆ शॆष नक्षत्र मॆ शनि कॆ जानॆ सॆ भा‌ई की मृत्यु हॊती है॥28॥

अथ बुधाष्टकवर्गफलम - बुधात्तुर्यॆ कुटुम्बं च धनं मित्रादिमातुलाः । । तत्पंचमॆ मंत्रविद्यालिपि बुध्यादि चिंतयॆत ॥ 29 ॥ ।

बुध सॆ चौथॆ भाव मॆं कुटुम्ब, धन, मित्र, मामा आदि का और  बुध सॆ पाँच भाव मॆं मंत्र शास्त्र, लॆखन और  बुद्धि का विचार करना चाहियॆ॥29॥।

बुधाष्टवर्ग संशॊध्य शॆषमृक्षगतॆ शनौ ॥ बंधुमित्रादि नाशादींल्लभतॆनात्र संशयः ॥30॥

बुधाष्टक वर्ग मॆं पूर्ववत संशॊधन करकॆ रशिपिंड सॆ यॊग पिंड कॊ गण 27 सॆ भाग दॆनॆ सॆ शॆष नक्षत्र या उसकॆ त्रिकॊण नक्षत्र मॆं शनि कॆ जानॆ सॆ मित्रादि का नाश हॊता है॥30॥।

अथ गुर्वष्टकवर्गफलम -

 जीवात्पंचमतॊ ज्ञानं पुत्रधर्मधनादिकम ॥

गुरॊरष्टकवर्गॆषु संतानमपि कल्पयॆत ॥31॥

गुरु सॆ पाँचवॆं भाव मॆं संतान का विचार करना चाहियॆ। इसी प्रकार ग अष्टकवर्ग मॆं भी संतान विचार करना चाहियॆ॥31॥

गुरुस्थितसुतस्थानॆ यावच्च विद्यतॆ फलम । शत्रुनीचगृहं त्यक्त्वा तावंतश्च सुताः स्मृताः ॥ 32॥

गुरु सॆ पाँचवॆं भाव । जतना फल हॊ उतनॆ हॆ ऎव्यक संतान हॊतॆ हैं। वह राशि गुरु की आ और  नीच राशि न हॊ तॊ॥3 ॥

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

: समुदायाष्टकवर्गचक्र। । राशि मॆ... मि. क. सिकं. तु. (बृ. ब. म. कु.मी. यॊग । ग्रह शु.सू. बु.।


3


*

.

। सू. ।5।5।4।3।4।2।4।6।5।4।3।348

14341य844 18 19

3143336 3313

ऽ14414418418848 बृ. । 6।5।3।4।4। 5 । 6।5।3।4।6।5॥ शु. । 6।4।7।4।4।4।4।1।3।6।5।4।

श. ।7।3।4।4। । 1 । 2 ।5। 2 । 5 । 1 3 ।39

ळ रिरर रर रररर ररकार 0.रकारी . नॊट- सर्वाष्टक वर्ग मॆं सभी अष्टवर्गॊं मॆं मॆषादि राशियॊं मॆं कितनी-कितनी

रॆखायॆं प्राप्त हु‌ई हैं और  उनका यॊग क्या हु‌आ लिखना चाहियॆ।

अष्टकवर्ग कुंडली (34)294

(34)8. (फ्छ): (30)/03  ईछॆट ख . (3)

(84)

 (19)2

(24)सू.4

(ऎ) शु(36}3च

बु(26)वृ5 मातृपित्रॊः मृत्युकालः। ग्रहयॊगॆन हानिः स्यात वर्गणाघ्नं पृथक्ततः । संयॊज्य सप्तभिर्हत्वा सप्तविंशति भाजिताः ॥18॥।

ऎकाधिपत्य शॊधन करनॆ सॆ राशियॊं कॆ नीचॆ जॊ अंक आयॆ हैं चाहॆ वॆ शून्य हॊं या रॆखा हॊं उन्हॆं राशि कॆ ध्रुवांकॊ सॆ पृथक-पृथक गुण दॆना और  जिस राशि मॆं ग्रह हैं उनकॆ अंकॊं कॊ उन उन ग्रहॊं कॆ ध्रुवकॊं सॆ गुणकर पृथक-पृथक रखकर, राशियॊं कॆ गुणनफल का यॊग और  ग्रहॊं कॆ गुणनफल का यॊग कर दॊनॊं कॊ ऎक जगह जॊडकर सात 7 सॆ गुणकर उसमॆं 27 सॆ भाग दॆनॆ सॆ॥18॥.

अथ लॊकयात्राप्रकरणम । । 651 अब्दादयस्तदा दॆहनाशः करणदॆ सति । तस्मिन पापग्रहॆ तस्माद्वलिन्यॆवं विधिः स्मृतः ॥19॥

लब्धि माता पिता कॆ आयुष्य का प्रमाण हॊता है। यदि पापग्रह वलवान हॊ । पूर्वविधि सॆ ही मृत्युकाल जानना॥19॥।

बलहीनॆ तु तं हन्यात्सप्तभिः पंचभिर्भजॆत ॥

आयुस्तयॊः स्यात्स्थानस्य प्रदिशॆदशुभॆ सति ॥20॥

यदि निर्बल हॊ तॊ यॊग कॊ सात सॆ गुणकर 5 सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ वर्षादि । वहीं माता पिता कॆ आयुष्य का प्रमाण हॊता है॥20॥

। मुनिभक्तं वसुघ्नं स्यान्नैवं चॆन्नैतयॊमतिः ।

वक्ष्यमाणॆन विधिना वदॆदाह पराशरः ॥21॥

यदि रॆखाप्रद ग्रह वली हॊ तॊ पूर्व पिंड कॊ आठ सॆ गुणकर 7 सॆ भाग दॆनॆ लव्ध वर्षादिक दॊनॊं का आयुष्य हॊता है। शून्य कॆ आयुष्य सॆ रॆखा कॊ आयुष्य धिक हॊ तॊ मृत्यु नहीं हॊती है ऐसा पाराशर का मत है॥21॥

चतुर्थभावात्सूर्याच्च‌आयुसाधनम -

 सूर्यादायुः करौ भूपा मनवॊऽर्का नवार्णवाः ।

वॆदाक्षीणि तु लग्नस्य वक्ष्याम्यायुस्तथैवतत ॥22॥ सूर्यादि ग्रहॊं कॆ और  लग्न का क्रम सॆ आयुधुवांक 2।16।14।12।9।4।4।2

है॥22॥

स्वॊच्चॆ नीचॆ तु पातः स्याद्धरणादिविधिस्ततः ।

आयुस्तयॊः स्यात्तौ तस्मिन भवनॆ तु तथा स्थितौ॥23॥ । यदि उच्च मॆं ग्रह हॊ तॊ ध्रुवक की आयु ही स्पष्ट हॊती है और  नीच मॆं ग्रह हॊ तॊ अनुपात द्वारा आयु लाना चाहियॆ॥23॥ .

। ध्रुवांक द्वारा आयुर्विचार:- न कश्चित्स्थानदः स्याच्चॆत्तत्कालॆ च मृतिर्भवॆत । शुभमॊगॆ शुभा प्रॊक्ता तयॊः स्याद्रश्मिसंभवः ॥24॥ यदि वहां कॊ‌ई रॆखाप्रद ग्रह न हॊ तॊ उसी समय मृत्यु कहना चाहियॆ शुभग्रह

-

652 . . . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । " कॆ यॊग सॆ उत्तम रीति सॆ और  पापग्रह अधिक हॊं तॊ दंड पातादि सॆ मृत्यु

कहना॥24॥

रश्मितः आयु साधनम - अष्टभिर्गुणयॆत्वद्भिर्विभज्यायुः परं भवॆत । वॆश्मनि स्थानदा न स्युर्जन्मकालॆ स्फुटीकृताः ॥25॥

सूर्य और  चतुर्थभाव कॆ रश्मि संभव कॊ 8 सॆ गुणकर 6 सॆ भाग लब्ध परम ।. आयु हॊती है॥25॥

करणाद्यभावॆकरणादिद्वारा भाव विचारःकलीकृतश्च खनखैर्विभज्याब्दादयः क्रमात । ऎवं शुभाशुभं ब्रूयान्मातापित्रॊद्विजॊत्तम ॥26॥

यदि चतुर्थभाव मॆं रॆखाप्रद ग्रह न हॊं तॊ चतुर्थ भाव का कला पिंड बनाकर उसमॆं 200. सॆ भाग दॆनॆ सॆ वर्षादि आयु हॊती है इसपर सॆ माता पिता कॆ शुभाशुभ फल कॊ कहना॥26॥

करणस्थानदातारः पापपुण्य फलप्रदाः ॥ पुनश्च‌ऒच्चादिषु तथा त्रिगुणाद्यास्तु पूर्ववत ॥ 27॥

शन्य कॆ दॆनॆ वालॆ ग्रह पापफल दॆनॆ वालॆ हॊतॆ हैं और  रॆखा दॆनॆ वालॆ ग्रह शुभफल दॆनॆ वालॆ हॊतॆ हैं। यदि यॆ अपनॆ मूलत्रिकॊणादि मॆं हॊं तॊ पूर्ववत त्रिगुणादि फल दॆतॆ हैं॥27॥

शत्रुनीचाथि शत्रूणां स्थानॆष्वपि तु पूर्ववत । रार्शि हित्वा तु भावानां सर्वत्रैवं क्रिया भवॆत ॥28॥

जहां आयुष्य का विचार हॊ वहां राशि कॊ छॊडकर अंशादि सॆ जैसा संस्कार का हॊ वैसा करना, यह क्रिया सर्वत्र जानना॥28॥

* भावानां संस्कार विशॆषाद फल विचारःद्वितीयभावलिप्ताश्च राशिलिप्ताविभाजिताः । स्ववर्गणाहतास्तस्य खॆटानां वर्गणाहताः ॥29॥ दूसरॆ भाव कॆ अंशादि का कला करकॆ उसमॆं दूसरॆ भाव की राशि कॆ कॆला

.

अर्थ लॊकयात्राप्रकरणम ।

643 " सॆ भाग दॆना लब्ध कलादि फल कॊ द्वितीय भाव कॆ ध्रुवांक सॆ गुणाकर यदि उनमॆं । ग्रह हॊ तॊ उसकॆ ध्रुवक सॆ गुणकर॥29॥

भावरश्मिभिराहन्यात्सप्तभिश्च विभाजयॆत । मूलरश्मिसमूहॆन शिष्टं हन्यात्तथैवतान ॥30॥

उसॆ दूसरॆ भाव कॆ स्वामी कॆ रश्मि सॆ गुणाकर सात सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ अंक प्राप्त हॊ वह . भारणीय कुटुम्ब की संख्या और  शॆष कॊ मूलरश्मि समूह सॆ गुणकर॥30॥ ।

इष्टानिष्टफलाभ्यां : च हत्वांतरमथद्वयॊः । सप्तर्विशतिभिर्हत्वा सप्तभिश्च विभाजयॆत ॥31॥

गुणनफल मॆं भाव स्वामी कॆ इष्ट फल सॆ गुणन करकॆ ऎवं भाव स्वामी कॆ कष्ट बलांकॊं सॆ मूलरश्मि समूह कॊ गुणन कर दॊनॊं कॆ अन्तर कॊ 27 सॆ गुण दॆनॆ सॆ कलादि फल कॊ 7 सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ आवॆ वह स्त्रियॊं की संख्या हॊती है॥31॥

भरणीय कुटुम्बानां पुंस्त्रियस्तत्समाविदुः ॥ राशीन हित्वातु लग्नादि भावभागादिकान ॥32॥

राशियॊं कॊ छॊडकर लग्नादि भावॊं कॆ अंशादि अलग-अलग। अपनॆ अपनॆ स्वामियॊं कॆ रश्मियॊं सॆ गुणन करनॆ सॆ जॊ आवॆ उसॆ भावभागादि कहतॆ हैं॥32॥

गुणयॆद्रश्मिभिः स्वैश्च भावभागादयॊविदुः । कलीकृत्य भलिप्ताभिर्विभज्याप्तं फलं ततः ॥33॥

इसका कलापिंड बनाकर दॊ जगह स्थापित करॆ उसमॆं राशि लिप्ता सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ फल प्राप्त हॊ उसॆ भावफल कहतॆ हैं और  दूसरॆ स्थान मॆं 12 सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ फल हॊ उसॆ भाव साधन फल कहतॆ हैं॥33॥

. प्रकारांतर सॆ भावफल साधनसूर्यभक्तावशिष्टं तु भावानां साधनं विदुः । राशीन हित्वा ततॊ लिप्ताखखनॆत्रविभाजिताः ॥34॥ राशिकॊ छॊडकर अंशादि की कला बनाकर उसमॆं 200 सॆ भाग दॆना॥34॥

654 . . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । . साधनम्नवा विभक्ताश्च. वर्गणाभिः फलाहताः ।

उच्चादिवृद्धिहानि च कुर्यात्तत्संख्यकाभवॆत ॥ 35॥

लब्ध कॊ पूर्व साधित भाव साधन सॆ गुणकर अपनॆ ध्रुवांक मॆं भाग दॆना और  पूर्व प्रतिपादित भाव साधन सॆ गुण कर अपनॆ ध्रुवांक मॆं भाग दॆना पुनः इसॆ पूर्वसंपादित फल सॆ गुण दॆनॆ सॆ जॊ संख्या प्राप्त हॊ वह कुटुम्बपॊषण की संख्या हॊती है॥35॥

अष्टंकवर्गफलाध्यायः।

तत्रादावष्टकवर्गॆ विचारणीयःआत्मभावशक्तिश्च पितृचिन्ता रवॆः फलम । मनॊवृत्तिप्रसादश्च मातृचिन्तामृगांकतः ॥1॥ . आत्मा, प्रभाव, शक्ति और  पिता कॊ फल सूर्य सॆ विचार करना चाहियॆ मन वृत्ति, प्रसन्नता और  माता का विचार चन्द्रमा सॆ करना चाहियॆ॥1॥ । भ्रातृसत्वं गुणं भूमिभौमॆन च विचारयॆत । ।

। वाणिज्यकर्मवृतिश्च बुधॆन तु विचिन्तयॆत ॥2॥

 भा‌ई, बल, गुण, भूमि का विचार भौम सॆ करना चाहियॆ। वाणिज्य कर्म वत्ति का बुध सॆ करना चाहियॆ॥2॥

। गुरुणा दॆहपुष्टिं च विद्यापुत्रार्थसंपदः ॥

भृगॊर्विवाहकर्माणि भॊगस्थानं च वाहनम ॥3॥

शरीर की पुष्टि, विद्या, पुत्र, धन संपत्ति का विचार गुरु सॆ करना चाहियॆ। शुक्र सॆ विवाह, संभॊग, वाहन, वॆश्या, स्त्री का विचार करना चाहियॆ॥3॥

वॆश्यास्त्रीजनगात्राणि शुक्रॆणैवनिरीक्षयॆत । आयुष्यं जीवनॊपायं दुःखशॊकमहद्भयम ।

सर्वक्षणं च मरणं मंदॆनैव निरीक्षयॆत ॥4॥ ।.. आयुष्य, जीवन, दुःख, शॊक आदि का विचार शनि सॆ करना चाहियॆ॥4॥

अष्टकवर्गफलाध्यायः । रविः पिता शशी माता भाता भौमॊ बुधः सुहृत । मातुलॆयः स्मृतॊ जीवॊ ज्ञानपुण्यॆ स्त्रियःसितः ॥5॥

सूर्य पितृ कारक, चन्द्रमा मातृकारक, भॊम भ्रातृकारक, बुध मित्र और  मातुल (मामा) कारक, गुरु विद्या और  पुण्य (कर्म) कारक और  शुक्र स्त्री कारक हैं ॥5॥

ऎषामृक्षॆ च तत्कालॆ मरणं कुरूतॆ शनिः ॥

आदित्याष्टकवर्गं च निक्षिप्याकाशचारिषु ॥6॥ इनकॆ नक्षत्रॊं मॆं जव शनि आता है तॊ इन लॊगॊं कॊ कष्ट कारक हॊता है। सूर्य कॆ अष्टम वर्ग कॊ ग्रह सहित स्थापनकर विचार करॆ॥6॥

अर्कस्थितस्य नवमॊ राशिः पितृगृहं स्मृतम ।

तद्राशिफल संख्याभिवर्द्धयॆद्यॊगपिंडकम ॥7॥ । सूर्य सॆ नवम राशि पिता की हॊती है, उस नवम राशि मॆं जॊ रॆखा की संख्या हॊ उससॆ यॊग पिण्ड कॊ गुणकर॥7॥।

सप्तविंशॊधृतं शॆषं नक्षत्रं याति भानुजम । । तस्मिन्कालॆ पितृक्लॆशॊ भवतीति न संशयः ॥8॥

27 सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ शॆष बचॆ वह अश्विन्यादि नक्षत्र की संख्या हॊती है। उस नक्षत्र पर जब शनि जाता है तॊ पिता कॊ कष्ट हॊता है॥8॥

तत्रिकॊणगतॆ वापि पितापितृसमॊऽपिवा । । , मरणं तस्य जानीयाद्दशाछिद्रॆषु कल्पयॆत ॥9॥

अथवा इसकॆ त्रिकॊण नक्षत्र मॆं जव शनि हॊता है तब पिता और  पिता कॆ सदृश लॊगॊं कॊ कष्ट हॊता है। यदि उस समय पापग्रह की दशा हॊ तॊ मृत्यु हॊती है अन्यथा कष्ट मात्र हॊता है॥9॥

अर्कात्तु‌इ तुर्यगॆराहॊ मंदॆ वा भूमिनंदनॆ । गुरुशुक्रॆक्षणमृतॆ पितृहा जायतॆ नरः ॥10॥ ।

सूर्य सॆ चौथॆ स्थान मॆं राहु, शनि, भौम मॆं सॆ कॊ‌ई हॊ और  उसॆ गुरु शुक्र न दॆखतॆ हॊं तॊ पिता का नाश हॊता है॥10॥

64

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । लग्नाच्चन्द्राद्गुरुस्थानॆ यातॆ सूर्यसुतॆ यदि । । पित्रॊनशं तदा कालॆ वीक्षितॆ पापसंयुतॆ ॥11॥ । लग्न या चन्द्रमा सॆ नवम स्थान मॆं शनि हॊं और  पापग्रह दृष्ट और  युत हॊं।

तॊ पिता का नाश हॊता है॥11॥

लग्नात्सुखॆशराशीशदशायाम पितृक्षयः । । दशानुकूलकालॆन यॊजयॆत्कालवित्तमः ॥12॥

लग्न सॆ चतुर्थॆश कॆ राशीश की दशा मॆं पिता का नाश हॊता है किन्तु दशा अनिष्टद न हॊ तॊ सुख हॊता है॥12॥।

पितृजन्माष्टमॆ जातस्तदीशॆ लग्नगॆऽपिवा ।

तॆनैव पितृकार्याणि करॊत्यत्र न संशयः ॥13॥ .’ पिता कॆ जन्मलग्न सॆ आठवॆं लग्न मॆं जन्म हॊ अथवा पिता कॆ जन्मलग्न सॆ आठवॆं भाव कॆ स्वामी बालक कॆ जन्मलग्न मॆं हॊं तॊ वह बालक ही पिता कॆ सभी कार्यॊं कॊ करता है अर्थात पिता की मृत्यु हॊ जाती है और  वही सभी कार्य कॊ करता है इसमॆं संशय नहीं है॥13॥।

-

पितृसुख यॊग

=

सुखनाथ दशायां तु सुखप्राप्तॆस्च संभवः । ‘सुखॆशॆ लाभलग्रस्थॆ चन्द्रलग्नाद्विशॆषतः ॥14॥

सुखॆश की दशा मॆं पिता कॊ सुख हॊता है। सुखॆश 11 वॆं या जन्मलय मॆं हॊ तॊ, विशॆषकर चन्द्रलग्न सॆ॥14॥

पितृगृहं समायुक्तॆ जातः पितृवशानुगः ॥ तॆनैव पितृकार्याणां कर्मक्षॆत्रॆ समापयॆत ॥15॥.

दशमभाव मॆं हॊ तॊ पिता कॆ वश मॆं रहनॆ वाला हॊता है और  वही पिता । । कॆ कर्मॊं कॊ करनॆ वाला हॊता है॥15॥

पितृजन्मतृतीय जातः पितृधनाश्रितः । पितृकर्मगृहॆ जातः पितृतुल्यगुणान्वितः ॥16॥ पिता कॆ जन्मलग्न सॆ तीसरॆ लग्न मॆं जन्म हॊतॊ पिता कॆ धन का भॊगी हॊता

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ऎळू

अष्टकवर्गफलाध्यायः ।

ऎ46 है। पिता कॆ जन्मलग्न सॆ 10वीं राशि मॆं जन्म हॊ तॊ पिता कॆ गुण कॆ सदृश गुणवाला हॊता है॥16॥।

तदीशॆ लग्नसंस्थॆऽपि पितृश्रॆठॊ भवॆत्सुतः ॥

ऎवमादिफलं ज्ञात्वा तान्यत्रापि नियॊजयॆत ॥17॥ । और  उसकॆ स्वामी यदि जन्मलग्न मॆं हॊ तॊ पिता सॆ श्रॆष्ट हॊता है। इस प्रकार सॆ पूर्वॊक्त कॆ फलॊं की यॊजना यहां भी करना॥17॥

। विशॆष:- सूर्याष्टवर्गॆ यच्छून्यं तन्मासॆ संवत्सरॆऽपि च ॥ विवाहव्रतवैधादि सर्वं तत्वर्जयॆत्सदा ॥18॥

सूर्याष्टक वर्ग मॆं जिस राशि मॆं अधिक शून्य हॊ उस राशि कॆ मास मॆं और  संवत्सर (उस राशि मॆं जब गुरुहॊं) मॆं विवाह व्रत-वधादि शुभकर्म कॊ न करॆं॥18॥

कलहॊ त्रासदुःखानि शून्यमासॆ भवन्ति च ॥ ऎवमादिफलं ज्ञात्वा मासं प्रति समाचरॆत ॥19॥

अधिक शून्य वालॆ मास मॆं कलह, भय, दु:खादि हॊतॆ हैं इसकॊ ध्यान मॆं रखतॆ हुयॆ मास कॆ कार्यॊ कॊ करॆ ॥19॥।

। पितृ मरणकालःसंशॊध्यपिंडं सूर्यस्य रंध्रमानॆन वर्द्धयॆत ॥ अर्कॊद्धतावशॆष यदा याति शनैश्चरः । तस्मिन्मासॆ मृतिं विद्यात्तत्रिकॊणगतॆऽपिवा ॥20॥

सूर्य कॆ अष्टकवर्ग कॆ पिंड कॊ सूर्य कॆ शून्य संख्या सॆ गुणकर 12 का भाग दॆनॆ सॆ जॊ शॆष बचॆ उस राशि मॆं जब शनि जाता है तब उस राशि कॆ मास मॆं पिता की मृत्यु हॊती है या उस राशि सॆ त्रिकॊण राशि मॆं जव शनि जातॆ हैं तब पिता की मृत्यु हॊती है॥20॥।

चन्द्राष्टकवर्गस्य फलम - चन्द्राच्चतुर्थभॆ मातुः प्रासादग्रामचिंतनम । चन्द्राष्टवर्गॆयद्राशौ शून्याधिक्यं प्रजायतॆ ॥21॥

64छ

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । .. चन्द्रमा सॆ चतुर्थ भाव मॆं माता, गृह और  ग्राम का विचार करना चाहियॆ। । चन्द्रमा कॆ अष्टकवर्ग मॆं जिस राशि मॆं अधिक शून्य है॥21॥

तं राशिं च परित्यज्य शुभकर्माणि कारयॆत । चन्द्राष्टमॆ शंनिक्षॆत्रॆ त्रिकॊणॆषु विशॆषतः ॥22॥।

उस राशि मॆं जब चन्द्रमा हॊ तब शुभ कर्म कॊ न करॆ। चन्द्रमा सॆ आठवॆं शनि की राशि सॆ विशॆष कर त्रिकॊण मॆं हॊं तॊ॥22॥ -

आधिव्याधिदुःखाण्यपि लभतॆ नात्र संशयः । चन्द्रात्सुखफलात्विंडं वर्धयॆद्वैर्हतं चतत ॥23॥ उस समय जातक कॊ मानसिक कष्ट, व्याधि और  दु:ख हॊता है। चन्द्र

दुःख हॊता है। चन्द्रमा ’ सॆ यॆ भाव कॆ फल कॊ खंड (पिंड) सॆ गुणा कर 27 सॆ भाग दॆनॆ सॆ॥3॥

शॆषमृक्षॆ शनौ यातॆ मातृहानि विनिर्दिशॆत । तत्रिकॊणॆषु वा कॆचिद्दशाछिद्रॆषु कल्पयॆत ॥24॥ . जॊ. शॆष हॊ त्तत्तुल्य नक्षत्र पर शनि कॆ रहनॆ सॆ माता कॊ कष्ट या मत्य कॆ ..है। अथवा उस नक्षत्र मॆं त्रिकॊण नक्षत्र (10 या 19 नक्षत्र मॆं) मॆं शनि कॆ रहनॆ . सॆ और  उस समय कष्टप्रद दशा कॆ रहनॆ सॆ माता की मृत्यु हॊती है॥24॥

..’ भौमाष्टंकवर्गफलम - भौमाष्टवनॆं संचिन्त्यं भ्रातृविक्रमधैर्यकम । भौमस्थितस्य सहजॊराशिभ्रतृगृहंस्मृतम ॥25॥

भौमाष्टक मॆं भा‌ई, पराक्रम और  धैर्य का विचार करना चाहियॆ। भौम सॆ तीसरॆ भाव सॆ भा‌ई का विचार करना चाहियॆ॥25॥।

त्रिकॊण शॊधनं कृत्वा यत्रभूयाँसि तत्रवै । ।

भूमिर्भवति भार्यवा: भातृगॆहसुखं तथा ॥16॥

भौमाष्टकवर्ग मॆं त्रिकॊण शॊधन कॆ पश्चात जिस राशि मॆं अधिक शॆष हॊ उस राशि मॆं जब भौम जाता है तॊ भूमि का स्त्री का लाभ और  भा‌ई तथा गृह का सुख

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हॊता है॥26॥

भौमॊ बलविहीनचॆत दीर्घायुर्भातृकॊभवॆत । फलानि यत्र क्षीयन्तॆ तत्रभूमिहानिः स्मृतः ॥27॥

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। अष्टकवर्गफलाध्यायः । यदि भौम निर्वल हॊ तॊ भा‌ई दीर्घायु हॊता है। और  जिस राशि मॆं फुल की। कमी हॊ उस पर भॊम कॆ जानॆ सॆ भूमि की हानि हॊती है॥27॥

तद्राशिफलसंज्यैश्च वर्धयॆच्छॊध्यपूर्ववत । शॆष च शनौ यातॆ भ्रातृहानिर्विनिर्दिशॆत ॥28॥

फलॊं कॆ यॊग कॊ पिंड सॆ गुणा कर पूर्ववत 27 का भाग दॆनॆ सॆ शॆष नक्षत्र मॆं शनि कॆ जानॆ सॆ भा‌ई की मृत्यु हॊती है॥28॥।

। अथ बुधाष्टकवर्गफलम - बुधात्तुयॆं कुटुम्बं च धनं मित्रादिमातुलाः । तत्पंचमॆ मंत्रविद्यालिपि बुध्यादि चिंतयॆत ॥ 29॥

बुध सॆ चौथॆ भाव मॆं कुटुम्ब, धन, मित्र, मामा आदि का और  बुध सॆ पाँचवॆं भाव मॆं मंत्र शास्त्र, लॆखन और  बुद्धि का विचार करना चाहियॆ॥29॥

बुधाष्टवर्ग संशॊध्य शॆषमृक्षगतॆ शनौ । बंधुमित्रादि नाशादींल्लभतॆनात्र संशयः ॥ 30 ॥

बुधाष्टक वर्ग मॆं पूर्ववत संशॊधन करकॆ रशिपिंड सॆ यॊग पिंड कॊ गुणाकर 27 सॆ भाग दॆनॆ सॆ शॆष नक्षत्र या उसकॆ त्रिकॊण नक्षत्र मॆं शनि कॆ जानॆ सॆ वंधु मित्रादि का नाश हॊता है॥30॥।

। अथ गुर्वष्टकवर्गफलम -

 जीवात्पंचमतॊ ज्ञानं पुत्रधर्मधनादिकम ।

गुरॊरष्टकवर्गॆषु संतानमपि कल्पयॆत ॥31॥ । गुरु सॆ पाँचवॆं भाव मॆं संतान का विचार करना चाहियॆ। इसी प्रकार गुरु कॆ अष्टकवर्ग मॆं भी संतान विचार करना चाहियॆ॥31॥।

गुरुस्थितसुतस्थानॆ यावच्च विद्यतॆ फलम । ।

शत्रुनीचगृहं त्यक्त्वा तावंतश्च सुताः स्मृताः ॥ 32॥ । गुरु सॆ पाँचवॆं भाव मॆं जितना फल हॊ उतनॆ हॆ यक संतान हॊतॆ हैं यदि वह राशि गुरु की और  नीच राशि न हॊ तॊ॥3॥

 660 : वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥

सुतभॆशनवांशैश्च तुल्या वा सन्ततिर्भवॆत ।

व्ययार्थसुतसंस्थैश्च पापैः स्यात्क्षीणसन्ततिः ॥33॥ । पंचमॆश कॆ नवांश संख्या कॆ तुल्य संतान की संख्या हॊती हैं। 12, 2. 5 वॆं पापग्रह कॆ तुल्य संतति की हानि हॊती हैं। पूर्व राशिपिंड कॊ यॊगपिंड सॆ गुणा कर 27 का या 12 का भाग दॆकर शॆष तुल्य नक्षत्र या राशि मॆं शनि कॆ : जानॆ सॆ पुत्र कॊ कष्ट हॊता है॥33॥

अथ शुक्राष्टकवर्गफलम - भृगॊरष्टकवर्गं च, निक्षिप्याकाशचारिषु । . यॆषु यॆषु फलानि स्युर्भूयांसि किलतत्रतु ॥ 34॥

शुक्र का अष्टक वर्ग ग्रहॊं कॆ साथ रखकर दॆखना चाहियॆ जहाँ जिस राशि । मॆं अधिक फल हॊ उस राशि पर जब शुक्र हॊतॆ हैं तॊ जातक कॊ॥34॥

भूमि कलत्रं वित्तं च तद्दॆशॆ निर्दिशॆनृणाम । शुक्रजामित्रतॊ लब्धिदरशान्वितदिग्भवा ॥ 35॥ उस समय भूमि, स्त्री और  धन का लाभ उस राशि कॆ दॆश सॆ प्राप्त हॊता है। शुक्र सॆ सातवॆं स्थान की दशा अथवा सप्तमॆश की दशा मॆं स्त्री आदि का लाभ हॊता है।13511.

भृगुदारॆशयुक्तक्षॆफलसंख्या स्त्रियॊ विदुः ।

शुक्रान्मन्दॆ त्रिकॊणस्थॆ नॆष्टं जीवॆ सुखप्रदम ॥36॥ ।. शुक्र अथवा सप्तमॆश कॆ युत राशि कॆ फल कॆ तुल्य स्त्री की संख्या हॊती

हैं। शुक्र सॆ त्रिकॊण मॆं जव गुरु हॊता है तब स्त्री कॊ सुख हॊता है। शॆष पूर्ववत दॆखना चाहियॆ॥36॥ ..

.

। अथ शनॆरष्टकवर्गफलम - शनैश्चरस्थिस्थानादष्टमं मृतिरुच्यतॆ । शनॆरष्टकवर्गाच्च स्वस्यायुष्यं विनिर्दिशॆत ॥37॥

शनि सॆ आठवाँ भाव मृत्यु का हॊता है और  शनि कॆ अष्टकवर्ग सॆ आयु कॊ विचार करना चाहियॆ॥37॥

।.

ऎ‌ऎश

। अष्टकवर्गफलाध्यायः ।

ऎ‌ऎ लग्नात्प्रभृति मंदान्तं फलान्यॆकत्र कारयॆत ॥ लग्नादिफलयॊगाब्दॆ व्याधिबैरं ’समादिशॆत ॥38॥

शनि कॆ अष्टकवर्ग मॆं लग्र सॆ शनि पर्यन्त फलॊं (रॆखा) का यॊग करना चाहियॆ उस यॊग कॆ समान वर्ष मॆं जातक कॊ व्याधि और  बैर का भय हॊता है॥38॥

मन्दादिलग्नपर्यन्तं फलान्यॆकत्र संयुतम । मंदादिफलतुल्याब्दॆ व्याधिं तस्यॆ समादिशॆत ॥39॥

इसी प्रकार शनि सॆ लग्न पर्यन्त फलॊं कॊ ऎकत्र जॊडकर जॊ हॊ तत्तुल्यवर्ष मॆं भी व्याधि भय कहना॥39॥।

तयॊर्यॊगसमाब्दॆ तु मृत्युयॊगं समादिशॆत ॥

शॊध्यादिगुणनं कृत्वा पिंडॆ संस्थाप्पयत्नतः ॥40॥। । और  दॊनॊं फलॊं कॆ यॊग तुल्य वर्ष मॆं मृत्यु हॊती है। शॊधनादि करनॆ सॆ जॊ पिंड आवॆ॥40॥

अष्टमस्थफलैर्हत्वा स्वप्तविंशति भाजितम ।

शतादूर्ध्व तु तत्पिंडॆ शतभॆवाग्रतस्त्यजॆत ॥41॥ । उसॆ अष्टमभावस्थ फल सॆ गुणा कर 27 सॆ भाग दॆनॆ सॆ यदि पिंड सौ सॆ अधिक हॊ तॊ 100 कॊ ही रखना॥41॥

आयुः पिडं तु जानीयात्प्राग्वद्वॆलांतुकल्पयॆत ॥ :. त्रिकॊणैकाधिपत्य% शॊधनं विरचय्य च ॥42॥

और  उसी सॆ गुणाकर 27 सॆ भाग दॆनॆ सॆ आयु पिंड हॊता है इस पर सॆ पूर्ववत मृत्यु काल का निश्चय करना ऎकाधिपत्य शॊधन सॆ जॊ पिंड हॊ॥42॥।

पिंडॆ संस्थाप्य गुणयॆल्लमाष्टमगैः फलैः ।

सप्तविंशतिहृच्छॆषं मृत्युकालं वदॆवुधः ॥4:3॥

उसॆ अष्टमस्थ फल सॆ गुणाकर 27 कॊ भाग दॆनॆ सॆ जॊ शॆष हॊ उस नक्षत्र पर शनि कॆ जानॆ सॆ या उससॆ त्रिकॊण कॆ नक्षत्र पर जानॆ सॆ मृत्यु हॊती है॥43॥

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । ।

विशॆषः

विशॆष:- मार्तण्डपुत्राष्टकवर्गमध्यॆ यद्यद्गृहॆ शून्यफलं भवॆच्च।

तत्तद्धमध्यॆ रविजॆऽथ सूर्यॆ तदा शरीरामयपीडनॆस्यात॥44॥ । शनि कॆ अष्टकवर्ग मॆं जिन-जिन राशियॊं मॆं शून्य फल हॊ उन-उन राशियॊं मॆं जव शनि या सूर्य जातॆ हैं तब-तब शरीर मॆं रॊग और  कष्ट हॊता है॥44॥

* अवस्थात्रयविचारःमीनाद्य मिथुनांतकं प्रथमकं प्रॊक्तं वयः प्राक्तनैः। कर्काद्यं वणिजांतकं तरुणता संज्ञं च मध्यंबुधैः॥45॥

मीन राशि सॆ मिथुन राशि पर्यन्त प्रथम अवस्था पूर्वाचार्यॊं नॆ कल्पना की हैं। कर्क सॆ तुला पर्यन्त युवा अवस्था॥45 ॥।

कुभांतं स्थविराह्वयं च बहुभिर्यत्तत्फलैः संयुतम । - : तत्सौख्यार्थविशॆषकं बलयुतॆहित्वाव्ययाष्टकम ॥46॥

और  वृश्चिक सॆ कुभं पर्यन्त वृद्धा अवस्था की कल्पना की हैं उक्त अवस्था कॆ भावॊं कॆ (सर्वाष्टक वर्ग) रॆखा‌ऒं का यॊग करना जिस अवस्था मॆं अधिक रॆखा हॊ उस अवस्था मॆं जातक कॊ विशॆष सुख हॊता है। किन्तु इसमॆं 8 वॆं और  13 वॆं भाव की रॆखा‌ऒं का यॊग नहीं करना चाहियॆ॥46॥

इत्यटष्कवर्गफलम॥

अर्थसर्वाष्टकवर्गफलम - मॆषादिभानां सकंलाष्टवर्ग

. उत्पन्नरॆखागणमॆवकुर्यात ॥ । धृत्यादि तत्वांतमितं कनिष्ठ

त्रिंशावसानं किल मध्यवीर्याः ॥47॥ सर्वाष्टकवर्ग मॆं मॆषादि राशियॊं की रॆखा‌ऒं का यॊग करना, रॆखा‌ऒं का यॊग 18 सॆ 25 तक हॊ तॊ कनिष्ठ फल, इसकॆ बाद 30 तक हॊ तॊ मध्यम फल॥47॥

त्रिंशाधिकं तूत्तमवीर्यदाः स्युः

" शरीरसौख्यार्थयशॊविशॆषः ॥

ऎ‌ऎ

अष्टकवर्गफलाध्यायः । स्वस्वाष्टवर्गॆ यदि वॆदहीनाः

क्लॆशाय सौख्यायच वॆदपुष्टाः ॥48॥ इससॆ अधिक हॊ तॊ उत्तम बल हॊता है इसमॆं शरीर का सुख, धन और  यश का लाभ हॊता है। अपनॆ-अपनॆ क वर्ग मॆं 8 सॆ अल्प रॆखा हॊ तॊ कष्टकारक

और  4 सॆ अधिक हॊ तॊ सुखकारक हॊता है॥48॥

मध्यात्फलाधिकॆ लाभॊ मध्यात्क्षीणफलॆव्ययः । यस्य रॆखाधिकं लग्नं भॊगवानर्थवान भवॆत ॥49॥

दशम भाव की रॆखा सॆ लाभ भाव की रॆखा अधिक हॊ और  इससॆ अधिक लग्न की रॆखा हॊ तॊ जातक कॆ भागसम्पत्ति की हानि हॊती है। यदि दशम भाव कॆ फल सॆ लाभभाव की रॆखायॆं अधिक हॊं और  दशम भाव की रॆखा सॆ व्यय भाव की रॆखा अल्प हॊ और  लग्न की रॆखायॆं अधिक हॊ तॊ वह जातक भॊगवान और  धनी हॊता है॥49॥

प्रादक्षिण्यादिभानां सकलफलयुतिं दिक्चतुष्कक्रमॆण कृत्वातद्भागतॊ यः समदधिकफलतः शॊभनं हानिमल्पात। सौम्यां स्वॊच्चस्वगॆहॊदितखचरयुतॆ दिग्विभागॆ स्वकार्यॆ वित्तॆशाशासु वित्तं मृतिपतिगतदिग्भागगॆ दॆहनाशः॥50॥

लग्नादि द्वादश भावॊं की तीन-तीन राशियां पूर्व सॆ दक्षिण क्रम सॆ (सव्य गणना सॆ) पूर्वादि दिशा कल्पना करना अर्थात लग्न व्यय, लाभ भाव कॊ पूर्व दिशा मॆं, दशम, नवम, अष्टम भाव कॊ दक्षिण दिशा मॆं, सप्तम, षष्ठ, पंचम भाव कॊ पश्चिम दिशा मॆं और  चतुर्थ, तृतीय, द्वितीय भाव कॊ उत्तर दिशा मॆं कल्पना करकॆ प्रत्यॆक दिशा कॆ भावॊं कॆ संपूर्ण फलॊं का यॊग करकॆ विचार करना जिन-जिन दिशा‌ऒं मॆं अल्पफल हॊ उन-उन दिशा‌ऒं मॆं हानि हॊती है॥50॥

। अथ भावफलम। भावं विलॊक्य सदसत्फलदायकंयत्तद्राशि

संभवफलैश्च तदुक्तपिंडम । पिंडॆ रॆखा ताडितॆ भावशॆषॆ राशौ

तस्मिन्याति सौरिः समायाम ॥51॥

ऎडू.

-

.. । वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ शुभ-अशुभ फल दॆनॆ वालॆ भाव कॆ फल कॊ पूर्वॊक्त लग्नपिंड सॆ गुणाकर 27 का भाग दॆनॆ सॆ शॆष राशि मॆं जब शनि जाता है॥51 ॥

यस्यां तद्भावहानि च विद्यात्प्राहुर्वंशॆऽथवा ।

तत्रिकॊणॆ । कृत्वा विन्दुभ्यस्तु कालं सुधीमांस्तस्माद्वाच्यः

प्राप्तिकालः शुभत्वॆ ॥52॥ तब उस भाव जनित फल की हानि हॊती हैं। लग्रपिंड कॊ भावफल सॆ गुणाकर उसमॆं 12 का भाग दॆनॆ सॆ शॆष राशि मॆं जिस वर्ष शनि जाता हैं अथवा उसकॆ त्रिकॊण राशि मॆं जब शनि जाता है तब उस भाव की हानि हॊती है॥52॥। ।

अथ समुदायाष्टकवर्गफलम - सर्वकर्मफलॊपॆतॆ ह्यष्टवर्गक उच्यतॆ । अन्यथा फलविज्ञानं दुर्गमं गुणदॊषजम ॥53॥ सभी कमॊं कॆ फल कॆ उपयुक्त अष्टकवर्ग हॊता है, अन्यथा फल विज्ञान दुर्गम और  दॊषपूर्ण हॊता है॥53॥

त्रिंशाधिकफलायॆ स्युः राशयस्तॆ शुभप्रदाः ।

त्रिंशांतं पंचविंशादि राशयॊ मध्यमाः स्मृताः ॥54॥ । जॊ राशि 30 सॆ अधिक फल वाली हैं वह शुभफलद हॊती है, 25 सॆ 30 तक फलवाली मंध्यम फल वाली हॊती है॥54॥

अतिक्षीणफला यॆ चॆ राशयः कष्टदुःखदाः ॥ श्रॆष्ठराशिषु सर्वॆषु शुभकार्याणि कारयॆत ॥55॥

और  अत्यन्त क्षीण फल वाली जॊ राशि हॊती है वह कष्ट और  दुःख दॆनॆ वाली हॊती हैं। जॊ श्रॆष्ठफल दॆनॆ वाली राशियाँ हैं उन सभी मॆं शुभकर्मॊं कॊ करना चाहियॆ॥55॥।

श्रॆष्ठान्नाशीन्मुहूर्तॆषु यॊजयॆन्मतिमान्नरः ॥ तत्तज्जन्मप्रभावास्तु पुंसस्तैः सार्धमाचरॆत ॥56 ॥


ऎडा‌ऎ

ऎ‌ऎळ

अष्टकवर्गफलाध्यायः ॥ और  श्रॆष्ठ राशियॊं कॊ मुहूर्तॊं मॆं यॊजित करना चाहियॆ॥56॥ . लग्नॆ यावत्फलं चास्ति तद्दशायां फलं वदॆत ।

मूर्यादिव्ययपर्यन्तं दृष्ट्वा भवफलानि वै ॥57॥

लग्न मॆं जॊ फल हॊता है वही दशा का फल हॊता है, लग्न सॆ व्यय पर्यन्त प्रत्यॆक भाव कॆ फल कॊ दॆखॆ॥57॥।

अधिकॆ शॊभनं विद्यात्क्षीणॆ हॊनॆ च मृत्यवॆ ॥ . मध्यमॆ मध्यमं चैव विचार्यैवं फलं वदॆत ॥58॥

जिस भाव का फल अधिक हॊ वह शुभफलदायक, न्यून अथवा शून्य फल वालॆ भाव कष्टकारक हॊतॆ हैं और  मध्यम फलवालॆ मध्यम हॊतॆ हैं यह विचार कर फल कॊ कहॆ॥58॥।

मॆषादियद्गृहगता वसुसंख्ययातास्तद्भाव

। पुष्टिवलवृद्धिकरा भवति । घट्पंचसप्तसहितानि शुभप्रदानि त्रिब्यॆक

। कर्णयुतभानि न शॊभनानि ॥59॥ मॆषादि जिस राशि मॆं 8 रॆखा हॊ उस राशि कॆ भाव का फल शुभ और  वृद्धि कारक हॊता है। 6।5।7 रॆखा सॆ युक्त हॊ तॊ शुभप्रद हॊता है और  3, 2, 1 रॆखा वालॆ शुभ नहीं हॊतॆ हैं ॥59॥।

मिश्रफलंभवतिसागरकर्णयॊगॆ । रॊगापवादभयदा यदि शून्यभावाः ।

ऎकादिकर्णयुतभानुमुखग्रहाणां ... भिन्नाष्टवर्गजनि सर्वफलं प्रवच्मि ॥ 60 ॥

। और  4 रॆखा सॆ युक्त भाव मिश्रित फल कॊ दॆनॆ वाला हॊता है और  शून्य रॆखा वाला भाव रॊग कलंक और  भय दॆनॆ वाला हॊता है, यह ऎकादि रॆखा का

सूर्यादि ग्रहॊं का फल भिन्नाष्टक वर्ग सॆ कहा जाता है॥60॥।

। रॆखाशान्तिफलम - रॆखाभिः सप्तिभिर्युक्तॆ मासॆ मृत्युर्भवॆर्नृणाम ।

सुवर्णं विंशति पलं दद्याद्वौ तिलपर्वतौ ॥61॥

। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । समुदायाष्टक वर्ग मॆं जिस राशि मॆं 7 रॆखा हॊ उस राशि कॆ सूर्य कॆ मास मॆं मृत्युभय हॊता है। उसकी शान्ति कॆ लियॆ 20 पल सुवर्ण और  दॊ तिल का : पर्वत दान करना चाहियॆ॥61॥ .. वसुभिर्जातिहीनः स शीघ्रं मृत्युवशॊ नरः ।

असत्फल विनाशाय दद्यात्कर्पूरजां तुलाम ॥62॥ . : जिस राशि मॆं 8 रॆखा हॊ उस मास मॆं जातिभ्रष्टता और  मृत्युभय हॊता है।

 अशुभफल कॆ नाशार्थ कंपूर का तुलादान करना चाहियॆ॥62॥ --- रॆखाभिः नवभिः सर्यान्प्रियतॆ मनुजॊ ध्रुवम ॥

अश्लैश्चतुभिः संयुक्तं रथं दद्यात्शुभाप्तयॆ ॥63॥ । जिस राशि मॆं 9 रॆखा हॊ उस मास मॆं सर्प सॆ मृत्यु का भय हॊता है। इस

 शान्ति कॆ लियॆ चार घॊडॊं कॆ रथ का दान करना चाहियॆ॥63॥ । रॆखाभिर्दशभिः शस्त्रात्प्राणास्त्यजति मानवः ।

दद्याच्छुभफलावात्यै कवचं वज्र संयुतम ॥64॥

जिस राशि मॆं 10 रॆखा हॊ उस मास मॆं हथियार की चॊट सॆ मृत्यु की संभावना हॊती है। वज्र सहित कवच का दान करना चाहियॆ॥64॥।

रुद्वैः प्राप्याभिशापं च प्राणैर्मुक्तॊभवॆन्नरः । दिक्पलैः स्वर्णघटितां प्रदद्यात्प्रतिमा विधॊः ॥65॥

 जिस राशि मॆं 11 रॆखा हॊ किसी कॆ शाप कॆ कारण मृत्युभय हॊता है . शान्त्यर्थ 10. भरी सुवर्ण की चन्द्रमा की मूर्तिदान करना चाहियॆ॥65॥

’आदित्यैर्जलदॊषॆण मानवस्य. मृतिंवदॆत ।

भूमि दद्यात ब्राह्मणाय तस्माच्छुभफलंभवॆत ॥ 66 ॥ - जिस राशि मॆं 18 रॆखा हॊ उस मास मॆं जलदॊष सॆ मृत्यु की संभावना हॊती। हैं अतः शान्त्यर्थ ब्राह्मण कॊ भूमि का दान करॆ॥66॥।

त्रयॊदशमितैर्व्याघ्रान्मानवॊ मृत्युमाप्नुयात । विष्णॊहिरण्यगर्भस्य दानं कुर्याच्छुभाप्तयॆ ॥67॥। जिस राशि मॆं 13 रॆखा हॊ उस मास मॆं व्याघ्र सॆ मृत्यु का भय हॊता है। अतः शान्त्यर्थ हिरण्यगर्भ (शालिग्राम) विष्णुमूर्ति का दान करनॆ सॆ शुभफल हॊता हैं॥67॥।

अष्टकवर्गफलाध्यायः ।

ऎ‌ऎ‌ऊ

ऎ‌ऎळ अचिराज्जीवितं जह्याच्छः कालॆनभ क्षितः । वाराहप्रतिमां दद्यात्कनकॆन विनिर्मिताम ॥68॥

14 रॆखा हॊ तॊ थॊडॆ काल मॆं अल्पायु हॊनॆ का भय हॊता है अतः शान्त्यर्थ सुवर्ण की वराह की मूर्ति दान करना चाहियॆ॥68॥

राज्ञॊभयं तिथिमितैस्तत्रहस्ती प्रदीयतॆ ॥ रिष्टभूपैः कल्पतरॊः प्रतिमां च निवॆदयॆत ॥69॥

15 रॆखा हॊ तॊ राजभय हॊता है अतः उसकी शान्ति कॆ लियॆ हाथी का दान करना चाहियॆ। 16 रॆखा हॊ तॊ अरिष्ट का भय हॊता है अतः शान्त्यर्थ कल्पतरु वृक्ष की प्रतिमा का दान करॆ॥69॥।

ऋषिचन्द्रव्यधिभयं गुडधॆतुं निवॆदयॆत ।

कलहॊऽष्टुंदुभिर्दद्याद्रत्नगॊभूहिरण्यकम । 116011 । 17 रॆखा हॊ तॊ व्याधि का भय हॊता है अतः शान्त्यर्थ गुड धॆनु का दान करना चाहियॆ 18 रॆखा हॊ तॊ भय हॊता है अतः शान्ति कॆ लियॆ रत्न, गौ और  भूमि का दान करना चाहियॆ॥70॥

दॆशत्यागॊंऽकचन्द्रौ स्याच्छान्तिं कुर्याद्विधानतः । विंशत्या बुद्धिनाशः स्यात्कुर्याल्लक्षमितंजपम ॥71॥

19 रॆखा हॊ तॊ दॆश निकाला हॊता है अतः शान्त्यर्थ विधानपूर्वक ग्रह शान्ति कराना चाहियॆ। 20 रॆखा हॊ तॊ बुद्धि की हानि हॊती है अतः शान्त्यर्थ वागीश्वरी दॆवी कॆ मंत्र का ऎक लाख जप कराना चाहियॆ॥71॥.

भूमिपक्षैः रॊगपीडा दद्याद्धान्यस्य पर्वतम । । यमाश्विभिर्वन्धुपीडादद्यादादर्शकं बुधः ॥72॥

21 रॆखा हॊ तॊ रॊग सॆ पीडा हॊती है अतः शान्त्यर्थ धान्य का पर्वत दान दॆना चाहियॆ॥72॥।

रामपक्षयुतॆ मासॆ नानाक्लॆशाप्रपद्यतॆ । सौवर्णी प्रतिमां दद्याद्रवॆः सप्तपलैः क्रमात ॥73॥

23 रॆखा हॊ तॊ उस मास मॆं अनॆक कष्टॊं सॆ युक्त हॊता है इसकी शान्ति कॆ लियॆ 7 पल की सूर्य की प्रतिमा का दान करॆं॥73॥

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । ... वॆदाश्चिभिर्वंयुहीनॊ दद्याद्गॊदानकं दश ।

सर्वरॊगादि नाशार्थं जपहॊमादि कारयॆत ॥74॥ : 24 रॆखा हॊ तॊ बंधु हीनता का भय हॊता है इसकी शान्ति कॆ लियॆ दश

 गॊदान करॆ 25 रॆखा हॊ तॊ सभी रॊग आदि कॆ नाशार्थ जप हॊम करावै॥74॥

ऋतुपलैबुद्धिहीनः पूज्या वागीश्वरी तथा । : धनक्षयः स्यान्नक्षत्रैः श्रीसूक्तं तत्र संजपॆत ॥75॥

29 रॆखा हॊ तॊ बुद्धि हीनता हॊती है इसकी शान्ति कॆ लियॆ बागीश्वरी दॆवी का पूजन करना चाहियॆ। 27 रॆखा हॊ तॊ धन की हानि हॊती है इसकी शान्ति कॆ लियॆ श्रीसूक्त का जप करावॆ।इ75॥

वसुपक्षयुतॆ मासॆ न लाभॊ हानिखॆचरैः ॥

सूर्यहॊमश्च कर्त्तव्यः विधिना शुभकांक्षिभिः ॥76 ॥. ।’ 28 रॆखा हॊ तॊ ग्रहॊं द्वारा हानि हॊती है। सूर्य कॆ मंत्र सॆ हवन कराना

चाहियॆ॥76॥ । ऎकॊनत्रिशता चापि चिंता व्याकुलितॊ भवॆत ।..

धृतवस्त्रसुवर्णानि ’ तत्र दद्याब्दिचक्षणः ॥77॥ ’ 29 रॆखा हॊ तॊ चिंता सॆ व्याकुलता हॊती है इंसकी शान्ति कॆ लियॆ थी । सुवर्ण का दान करना चाहियॆ॥77॥

त्रिशता धनधान्याप्तिरिति जातकनिर्णयः । भूवह्निभिर्महॊद्यॊगः पुत्रसंपद्गुणाग्निभिः ॥78॥

30 रॆखा हॊ तॊ धन धान्य कॊ लाभ हॊता है। 31 रॆखा हॊ तॊ बडॆ उद्यॊग कॊ आरम्भ और  33 रॆखा मॆं पुत्र संपत्ति का लाभ॥78॥

सहॆमवस्त्रलाभश्च : चतुत्रिंशत्समन्वितॆ । .. पंचरामैर्भवॆद्धीमान्पत्रिंशत्सुतवित्तदा ॥79॥

और  34-रॆखा मॆं सुवर्ण वस्त्र का लाभ रॆखा मॆं बुद्धि की प्राचुर्यता, 36 . रॆखामॆं पुत्र और  धन का लाभ हॊता है॥79॥।

सप्तत्रिंशद्धनस्याप्तिरष्टत्रिशत्सुखार्थदी । * द्रव्यरलाप्तिरॆकॊनचत्वारिंशद्धिप्रवर्धतॆ ॥80 ॥

...

11

घष्ठा

षष्ठॊऽध्यायः ।

ऎ‌ऎश 37 रॆखा मॆं धन का लाभ और  38 रॆखा मॆं सुख और  धन का लाभ हॊता है। 39 रॆखा मॆं द्रव्य और  रत्न का लाभ॥80॥

धनवान्कीर्तिमांश्चैव चत्वारिंशतिवर्धतॆ ।

अत‌ऊर्ध्व यशॊऽर्थाप्तिः पुण्यश्रीरूपचीयतॆ ॥81॥ ’ और  40 रॆखा मॆं धन और  कीर्ति की वृद्धि हॊती हैं। इससॆ अधिक रॆखा मॆं यश धन, पुण्य आदि की वृद्धि हॊती हैं॥81॥

। इतिपाराशरहॊरायामुत्तरार्धॆऽष्टकवर्गप्रकरणम। । इति पाराशर हॊरायामुत्तरथैलॊकयात्रा वर्णनंनाम पंचमॊध्यायः ॥5॥

षष्ठॊऽध्यायः। भाग्यॊत्कर्ष भाग्यहानि कुटुम्बं दुःखं हानि शत्रुमायं व्यर्यच । उद्वाहं स्त्रीपुत्रलाभादिकं च ब्रूयादॆवं चाब्दचर्या क्रमॆण ॥1॥

। भाग्यवृद्धि भाग्यहानि, पॊषणीय समूह, कष्ट, हानि, शत्रु, आय, व्यय, विवाह, स्त्री, पुत्र, लाभादिक का फल कहतॆ हैं॥1॥।

अब्दमासदिनचर्यविधानं वक्ष्यतॆ खलु मया सुमतॆ तॆ । वक्ष्यमाणविधिना परमायुः सम्यगत्र विदधीत महात्मन ॥2॥

हॆ मैत्रॆय! तुम्हॆं मैं वर्षच, मासचर्या, दिनचर्या का विधान निश्चय कर कहता हैं। इसकॆ जाननॆ कॆ लियॆ सम्यक रीति सॆ आयु का ज्ञान आवश्यक है॥2॥

। भावानां फल समयः। । भावानां साधनं हत्वा दृष्टिभिश्च वलॆन च । । षड्वर्गादिपतीनां च भावॆ पृथक-पृथक ॥3॥

 भावॊं कॊ अपनी-अपनी दृष्टि और  भाव बल सॆ गुणा कर गुणनफल मॆं॥3॥

तॆषां च दृग्वलानां च संहत्या भाजयॆदथॆ ।

स्वामिदृष्टिस्थिताना तु कालॆ भावफलं विदुः ॥4॥

उन उन भावॊं कॆ स्वामियॊं कॆ षड्बल, दृष्टि कॆ यॊग सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्ध , वर्षादिकं मॆं भावॊं कॆ फल हॊतॆ हैं॥4॥

। 670

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । ज्ञानसंभवंकालस्तु जन्मकालाद्वला यदा । लग्नदिव्ययपर्यन्ता भावाः कालॆ तथा विदुः ॥5॥

जॊ भाव अपनॆ स्वामी सॆ दृष्ट हॊ और  स्वामी बली हॊ तॊ उसकॆ दशा मॆं फल हॊता हैं। यदि अपनॆ स्वामी सॆ न दॆखा जाता हॊ तॊ उक्त समय मॆं लग्न सॆ व्ययपर्यन्त भावॊं मॆं जॊ अधिक बली हॊ उसकॆ स्वामी कॆ दशा मॆं उक्तभाव का फल हॊता है॥5॥

 अथ शुभपापभॆदात्भावफलॆ विशॆषःलग्नाषद्वर्गहॊराणां भॊक्तारः पतयः स्मृताः ॥ त्रिपंचवॆददिक्सप्तमुनिरामांशकॆ फलम ॥6॥

लग्न मॆं जॊ षड्वर्ग कहा गया है उसकॆ (अर्थात 6 वर्गॊं कॆ स्वामी) पृथक। पृथक अपनी-अपनी दशा मॆं फल कॊ दॆतॆ हैं॥6॥

। शुभग्रहास्तुद्रष्टारः, स्थानदाः सकलाग्रहाः । ।

युक्ताः तदातु सद्भावाः संज्ञानुफलदास्तदा ॥7॥

किन्तु क्रम सॆ 3।5।3।10।7।73 अंशॊं मॆं फल कॊ दॆतॆ हैं। दॆखनॆ वालॆ :, शुभग्रहॊं का ही शुभ फल हॊता है पापग्रहॊं का नहीं हॊता है। रॆखा मॆं दॊनॊं का

शुभाशुभ फल हॊता है॥7॥

पापात हानिकरान हित्वा स्वॊच्चकॊणसुहृत्स्थितान। तद्राशिर्यस्य शत्रुर्वा नीचयॊर्वा ग्रहॊ यदि ॥8॥ हानि कुर्यात्तदातस्य : दृष्टियॊगानुपाततः ।

भावॊं मॆं जॊ ग्रह पाप याः शुभ अपनॆ उच्च नीच मूलत्रिकॊण आदि मॆं शत्रु मित्रादि की राशि मॆं हॊं उसी क्रम सॆ वह फल दॆतॆ हैं॥8॥

.. अथ कारक विचारः। उद्वाहकारकौ चन्द्रशुकॊ ज्ञॊवातपॊऽथवा ॥9॥

चन्द्रमा और  शुक्र विवाह कारक हॊतॆ हैं अथवा बुध और  गरु भी विवाह कारक हॊतॆ हैं॥9॥

शनिमृतिकरॊ । भौमरवी नीचासतीपती । . . गुरुः शुभकरः पुत्रॆ कुजॊ भातरि शत्रुमॆ ॥10॥

षष्ठॊऽध्यायः ।

68 शनि मृत्युकारक हॊता है, भौम नीच (कुलटा) कारक और  सूर्य सती ‘(पतिव्रता) कारक है। पांचवॆ भाव मॆं गुरु शुभ फल दॆनॆ वाला हॊता है, भौम तीसरॆ

स्थान मॆं, छठॆ स्थान मॆं॥10॥

मदॆश्चायॆ शुभाः सवॆं स्वॊच्चगौ भौमसूर्यजौ ॥

भाग्यॆऽशुभाः शुभा पापा अशुभाः स्वपर्तिविना ॥11॥ । शनि शुभफल दायक हॊता है और  ऎकादश भाव मॆं सभी शुभ फलद हॊतॆ । हैं, भौम शनि अपनी उच्चराशि मॆं हॊ तॊ शुभद हॊता हैं। भाग्यभाव मॆं पापग्रह अशुभ और  शुभग्रह शुभद हॊता है किन्तु पापग्रह यदि उस भाव का स्वामी हॊ तॊ शुभद हॊता है॥11॥

अथ दृष्टिबलात भावफलस्य व्यवस्थापूर्वं भामॆ समुद्दिष्टदृग्वलॆन फलानि तु । विरुद्धानि परित्यज्य समीचीनानि संग्रहॆत ॥12॥

पूर्व भाम मॆं दृष्टिवल सॆ कहॆ हुयॆ फल मॆं विरुद्ध फलॊं का त्यागकर शुभफलॊं : का इस प्रकरण मॆं उपयॊग करना॥12॥।

स्त्रीपुरुषयॊः स्वभाव विचारः । ग्रहराशिस्वभावॆन पुंस्त्रियॊराशिमॆव च ॥ स्वभावं च वदॆद्बुध्या दॆशकालकुलानुगः ॥13॥

 मनुष्यॊं कॆ स्वभाव गुण कॊ राशि और  ग्रहॊं कॆ अनुसार दॆशकाल और  कुल कॆ अनुसार ही कहना चाहियॆ॥13॥

। स्वभावॆ ह्रासवृद्धिः। तॆषामिष्टफलॆवृद्धिस्त्वशुभाख्य फलादयः ।

अन्यथा त्वसदॆवस्यात्तस्यतस्मान्मृतौफलम ॥14॥। जिस भाव का इष्टबल अधिक हॊ उसका शुभफल उत्तरॊत्तर अधिक और  जिसका कष्टबल अधिक हॊ उसका अशुभ फल उत्तरॊत्तर अधिक हॊता है॥14॥

रविस्तु पाचकॊ ज्ञॆयश्चन्द्रमा बॊधकः सदा ।

पाचकॊ बॊधकश्चैव कारकॊ वॆधकः क्रमात ॥15॥ , सूर्य पाचक हॊता है और  चन्द्रमा बॊधक हॊता है और  सूर्य कॊ कारक तथा : चन्द्रमा कॊ बंधक भी कहतॆ हैं॥15॥

ऎ‌ऊ

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । सूर्यादिग्रहाणां स्थान संबन्धात्याचकादिग्रहाः। रव्यादीनां च विज्ञॆया मंदारॆज्यसितास्तथा । शुक्रारमंदरवयॊ रवीन्दुशनिचन्द्रजाः ॥16॥ चन्द्रॆज्यसितभौमाश्च मन्दारॆन्दुदिनॆश्वराः । भौमज्ञसूर्यमंदाः स्युः सितॆन्दुगुरुभूमिजाः ॥17॥ षट्सप्तनवरुदॆषु सप्तनंदभवत्रिसु ॥ द्विषडायव्ययॆष्वॆवं द्विवॆदॆन्द्रियवहिषु ॥18॥ षट्पंचसप्तरिष्फॆषु द्विषड्ढ्ययचतुष्वपि । त्रिरुद्रषट्सप्तमॆषु स्थिताः स्थानॆषु तॆ ग्रहाः ॥19॥

सूर्य सॆ 6।7।9।11 स्थानॊं मॆं क्रम सॆ शनि, भौम, गरु, शुक्र पाचक बॊधक, कारक और  वॆधक हॊतॆ हैं। ऎवं चन्द्रमा सॆ 7।9।11।3 स्थानॊं मॆं शुक्र, भौम, शनि, सूर्य, भौम सॆ 2।6।11।12 स्थानॊं मॆं सूर्य, चन्द्र, शनि, बुध सॆ 2।4।5।3 स्थानॊं मॆं चन्द्र, गुरु, शुक्र, भौम, गुरु सॆ 6।5।7।12 स्थानॊं मॆं शनि, भौम, चन्द्र, सूर्य, शुक्र सॆ 2।6।12।4 स्थानॊं मॆं भौम, बुध, सूर्य, शनि और  शनि, और  शनि सॆ 3।11।6।7 स्थानॊं मॆं शुक्र, चन्द्र, गुरु, भौम पाचक बॊधक, कारक और  बॆधक हॊतॆ हैं॥ 1619॥

पाचकाद्यास्तुचत्वारः सूर्यादिभ्यः क्रमादिह । पीडर्सॆवाप्यपीडशॆं कॆन्द्रॆ लग्नं विना तथा ॥20॥

सूर्यादि ग्रहॊं की शत्रुराशि, अपीऽ (मित्रराशि) मॆं लग्न कॊ छॊडकर कॆन्द्र मॆं गयॆ हुयॆ सभी पाचक आदि ग्रह वली हॊतॆ हैं॥20॥

षट्सप्तधर्मकर्मायमृतिष्वॆव गताः क्रमात । । पाचकाद्याश्चतुर्थॆ च बलवंत समीरिताः ॥21॥ तथा लग्न सॆ 6।7।9।10।11।8।4 इन स्थानॊं मॆं गयॆ हुयॆ सूर्यादि पाचक आदि क्रम सॆ बली हॊतॆ हैं॥21॥

कारकॊ मंदफलदॊ वॆधकॊ विघ्नकृत्स्मृतः ।

बॊधकः शीघ्रफलदः पाचकॊ विफलप्रदः ॥22॥ । कारक ग्रह न्यून फल वॆधक अपनॆ भाव कॆ फल की हानि करनॆ वाला, बॊधक ग्रह अपनॆ भाव कॆ फल कॊ शीघ्र दॆनॆ वाला तथा पाचक ग्रह अपनॆ भाव संबधित फल कॊ विफल करनॆ वाला हॊता है॥22॥

..93

अथ सप्तमॊऽध्यायः । तदंशकालस्यांतॆ वाप्यादावंत्याशकॆऽपि च ॥ धृत्यांशकॆऽपि फलदाः पाचकाद्याःक्रमादिह ॥23॥

यॆ पाचक बॊधक कारक और  वॆधक ग्रह अन्तिम नवमांश मॆं वा प्रथम तथा अन्तिम नवांश मॆं भी फल दॆतॆ हैं॥23॥ ।

सूर्यादि ग्रहाणां गॊचरॆ फलकालः।

 आदौ फलप्रदौ भौमरवी मध्यॆ सितार्यंकौ ।

सर्वदाज्ञः शशी मंदस्त्ववसानॆ फलप्रदौ ॥24॥ । भौम और  सूर्य राशि कॆ आदि मॆं, शुक्र और  गुरु राशि कॆ मध्य मॆं बुध सर्बदा । और  चंद्र शनि राशि कॆ अन्त मॆं फल दॆनॆवाला हॊता है॥24॥

इति पाराशर हॊरायामुत्तरार्थॆ लॊकयात्राध्यायॆ प्रकीर्णकाथ्यायः षष्ठः॥6॥

अथ सप्तमॊऽध्यायः . . भावफलानामवधिः। धनहानिभयानां च व्याधीनां दिवसास्तथा ॥ शुभाशुभानि कर्माणि यात्रादि विजयादि च ॥1॥

धन की प्राप्ति और  हानि, शत्रुभय और  रॊग की प्राप्ति का दिन, और  शुभ अशुभ कर्म जय पराजय और  उत्कर्ष इनका निर्णय॥1॥।

मासचर्या विधानॆन ब्रूयादन्यॆन चैतरान ।

लग्नारिमृतिरिः फॆषु कर्मणां च पर्तीस्तथा ॥2॥ ’. मासचर्या कॆ अनुसार करना चाहियॆ, इससॆ भिन्न कार्यॊं कॊ दिन और  वर्ष चर्या कॆ अनुसार करना चाहियॆ। इसमॆं भी 1।6।8।12 भावॊं कॆ स्वामी और  बिन्दु कॆ स्वामियॊं का विचार करना चाहियॆ॥2॥ . करणॆशान्समालॊच्य कथयॆन्सुनिपुंगव ॥

रंसॆषवॊमुनिः खाष्टॊ रविभूपा दिशस्तथा ॥3॥

सूर्य का 56 दिन चन्द्र का 7 दिन, भौम का 80 दिन, बुध का 12 दिन, गुरु का 16 दिन शुक्र का 10 दिन॥3॥..। । द्विशतं च क्रमात्सूर्यादिवसाञ्चाष्टमॆ स्थिताः ॥

। द्वितीयॆऽर्थं त्वंतरॆ च त्रैराशिकवशॆन तु ॥4॥

। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।. और  शनि का 200 दिन अष्टम भाव मॆं फल दॆनॆ का समय है। दूसरॆ भाव मॆं उक्त दिन संख्या का आधा और  2।8 भावॊ कॊ छॊडकर अन्य भावॊं मॆं अनुपात द्वारी दिन संख्या लॆ आकर अवधि कहना चाहियॆ ॥4॥

इति पाराशरहॊरायामुत्तराधॆलॊकयात्रायांभावफलविवॆकः सप्तमॊऽध्यायः।

अथाष्टमॊऽध्यायः।

अथयॊगानां भङ्गयॊगः। तॆषां भंगमथॊ वक्ष्यॆ यथाह कमलासनः । गर्गाय भगवान्सॊपि ममाहाहं तव द्विज ॥1॥

हॆ मैत्रॆय! पहलॆ ब्रह्माजी नॆ जॊ यॊग भंग यॊग कॊ गर्ग सॆ कहा था और  गर्ग नॆ मुझसॆ कहा था उसॆ मैं तुमसॆ कहता हूँ॥1॥ . : तथा च रिःफषष्ठाष्टस्थानानां करणाधिपाः ॥

तत्तद्भावस्य भंगस्य कर्तारः सति संभवॆ ॥2॥

यदि लग्न सॆ 12।6।8 भावॊं मॆं बिन्दु दॆनॆ वालॆ ग्रह बैठॆ हॊं या उन भावॊं ... कॆ स्वामी कॆ साथ बैठॆ हॊं तॊ भावॊं का भंग हॊता है॥2॥

.. तत्तद्भावॊऽष्टवर्गॊत्थ संख्या तद्वर्गणाहता ।

रविभक्ता ततः शिष्टा राशिमॆषादिकाभवॆत ॥3॥ ।. जिस भाव का विचार करना हॊ उस भाव कॆ करणांक (बिन्दु संख्या) संख्या सॆ उस भाव कॆ वर्गणा सॆ गुणकर 12 कॊ भाग दॆनॆ सॆ शॆष मॆषादि सॆ राशि हॊती.

है॥3॥ :

षष्ठाष्टर:फॆ राशिश्चॆद्भग ऎव प्रकीर्तितः । फलं च मुनि संवृद्धं रविभक्तं तथा भवॆत ॥4॥

यदि यह राशि 6।8।12 भाव मॆं हॊ तॊ भाव का भंग हॊता है। यहाँ 12 सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ लब्धांक हॊ उसॆ 7 सॆ गुणकर उसमॆं 18 सॆ भाग दॆनॆ सॆ दॊष राशि हॊती है यदि यह राशि 6।8।12 भाव मॆं हॊ तॊ यॊग का भंग हॊता है॥4॥

शिष्टमॆवं यदि तदा शत्रुभं वाथ भंगदम ॥ तद्भावानिष्टफलकं तच्छत्रुफलसंगुणम ॥5॥

पूर्वॊक्त प्रकार सॆ आ‌ई हु‌ई राशि यदि लग्नॆश की शत्रुराशि हॊ वा लग्न सॆ भंग. युक्त हॊ तॊ उस भाव का अनिष्टफल हॊता है॥5॥

शष्ट

94

अथाष्टमॊऽध्यायः ॥ सप्ताप्तं शिष्टमॆवात्र पापरस्मिगुणं ततः ।

अर्कशिष्टं यदि भवॆत्वष्ठरःफाष्टमॆऽपि वा ॥6॥ , जॊ शॆष हैं वह जिस भाव का भंग करता है उस भाव कॆ कष्टफल सॆ उसॆ गुणकर 7 सॆ यॊग दॆना जॊ शॆष रहॆ उसॆ शत्रु की राशि सॆ गुण दॆना उसमॆं 12 सॆ भाग दॆनॆ सॆ शॆष राशि 6।8।12 मॆं हॊ तॊ उस भाव का भंग कहना॥6॥

शत्रुभं वापिभंग‌ईं हानिस्तस्य प्रकीर्तिताः । यथॊत्तरमितीवाप्तं क्षयवृद्धिस्ततॊ भवॆत ॥7॥ इस प्रकार सॆ जॊ भंग आता है उसकॆ 1।2।3 कॆ क्रम सॆ क्षय और  वृद्धि जानना चाहियॆ॥7॥

पुनः प्रकारांतरॆण। घष्ठयंशॆ च कलांशॆ च त्वप्रकाशग्रहॊदयॆ ॥ राहुकालसमायॊगॆतद्धावफलभंगदः ॥8॥

जिस भाव कॆ भंग का विचार करना हॊ उस भाव कॆ षष्ठयंश वा कलांश (षॊडशांश) मॆं अप्रकाश मॆं सॆ किसी ऎक का उदय हॊ तॊ भाव का भंगकारक यॊग हॊता है॥8॥

अनिष्टाख्यं च रश्मिं च तद्भावफलसंगुणम ।

द्वादशाप्तावशॆषं च पूर्ववत्फलमीरितम ॥9॥ । अथवा भाव कॆ अरिष्टरश्मि कॊ उस भाव कॆ इष्टवलांक सॆ गुणाकर कॆ उसमॆं 12 कॊ भाग दॆनॆ सॆ शॆष राशि सॆ पूर्ववत भाव कॆ भंग यॊग का विचार करना॥9॥

यद्यत्फलं प्रॊक्तमथॊत्तरत्र तत्सर्वमन्यत्रच यॊजनीयम । भंगं च भंगं च मुनिश्च गर्गः प्रॊवाचयद्वन्मुनिपुंगवाहम ॥10॥

मैंनॆ जॊ भावभंग का विचार कहा है सॊ उत्तरॊत्तर जहाँ जहाँ उसका उपयॊग हॊ वहाँ वहाँ दॆखना, जॊ भंग गर्ग मुनि नॆ कहा हैं उन्हीं भंगॊं का लक्षण मैंनॆ कहा है॥10॥।

घष्ठ्यंशॆ च कलांशॆ च त्रिष्वॆकॊऽपि यदा न चॆत ।

अधिमित्रं च मित्रं च भंगभंगः प्रकीर्तितः ॥11॥ - यदि अभीष्टभाव कॆ षष्ठ्यंश वा षॊडशांश मॆं शत्रुराशि मॆं अप्रकाश ग्रहॊं का उदय, राहु समायॊग इसमॆं सॆ कॊ‌ई भी ऎक न हॊ और  अधिमित्र वा मित्र हॊ तॊ पूर्वॊक्त भंग का परिहार हॊ जाता है॥11॥

इति पाराशरहॊरायामुत्तरार्धॆ लॊकयात्रायां प्रकीर्णकाध्यायः अष्टमः।

-

. . . . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

अथनवमॊऽध्यायः।

। अथ भावानां संज्ञा॥ "... आत्मा शरीरं हॊरा च कल्यं लग्नं च मूर्तयः । ।

स्वं कुटुम्बं च दुश्चिक्यं विक्रम सहज सह ॥1॥

लग्न कॆ आत्मा, शरीर, हॊरा, कल्प, लग्न, मूर्ति नाम हैं। दूसरॆ भाव कॆ स्वं और  कुटुम्ब यॆ दॊ नाम हैं। तीसरॆ भाव का दुश्चिक्य, विक्रम, सहज, सह यॆ नाम हैं॥1॥

पातालं हिवुकं वॆश्म मित्रवंधूदकं सुखम । त्रिकॊणं प्रतिभावाद्धिमातृविद्यासुतास्ततः ॥2॥

चतुर्थभाव कॆ पाताल, हिवुक, वॆश्म, मित्र, बंधु, उदक, सुख नाम हैं, पंचम । भाव कॆ त्रिकॊण, प्रतिभा, बुद्धि, मातृ, विद्या, सुत नाम हैं॥2॥

ब्याधिक्षतारिभंगाश्च क्रॊधॊ लॊभॊऽथ मत्सर ।

कामॊ विवाहॊ यात्रा स्त्री रतियूनं मदॊऽज्ञता ॥3॥ । छठॆ भाव कॆ व्याधि, क्षत्र, अरि, भंग, क्रॊध, लॊभ, मत्सर नाम हैं। सप्तम भाव कॆ काम, विवाह, स्त्री, रति, धून, मद, अज्ञता नाम हैं॥3॥

.. पराभवॊ मृतिर्वधॊ रंध्रायुर्निधनं च्युतिः ।

शुभं धर्मस्ततॊ भाग्यं त्रिकॊणं च गुरुर्विभुः ॥4॥

अष्टम भाव कॆ पराभव, मृति, वंध, रंध्र, आयु, निधन, च्युति नाम हैं।

 नवमभाव कॆ शुभ, धर्म, भाग्य, त्रिकॊण, गरु, विभु नाम हैं॥4॥

व्यापारस्पदमॆधूरणमानाज्ञा कर्मखम । भावाय लाभाप तपॊ रिःफ हानिर्व्ययः स्मृतः ॥5॥

दशमभाव कॆ व्यापार, आस्पद मॆघूरण, मान, आज्ञा, कर्म, रव, नाम हैं। ऎकादंश भाव कॆ आय, लाभ, अप, तप नाम हैं। व्ययभाव कॆ रि:फ, हानि और  व्यय नाम है॥5॥

यात्रायां दशमॆनैव निवृत्तिः सप्तमॆन तुः ॥ वृद्धिश्चतुर्थंलग्नॆन : त्रितयं संप्रकीर्तितम ॥ 6 ॥

दशम भाव सॆ यात्रा का विचार करना चाहियॆ और  सातवॆं भाव सॆ यात्रा मॆं, निवृत्ति का विचार करना चाहियॆ। चतुर्थ सॆ वृद्धि का विचार, इन तीनॊं कॊ मिलाकर कुल 70 विषय हुयॆ॥6॥

ऎल्द्ग

अथ नवमॊऽध्यायः । स्वॊच्चमित्र स्ववर्गस्था ऎवमर्थाश्च सप्ततिः । । नीचारवर्गगाश्चान्यत्पुष्टंचापुष्टमॆव च ॥7॥

यदि ग्रह मित्र, उच्च स्वक्षॆत्र या षड्वर्ग मॆं हॊं तॊ पूर्वॊक्त सभी फल उत्तम हॊतॆ हैं और  यदि शत्रु, नीच शत्रुवर्गादि मॆं हॊ तॊ अशुभ फल दायक हॊता है॥7॥

। अथ अहात भाव विचारः। रविः शरीरॆ हॊरयां स्वॆ च भ्रातरि वॆश्मनि ॥ सुतॆ व्याघौ क्षतॆ शत्रौ मृतौ तपसि कर्मणि ॥8॥

सूर्य शरीर, लग्न, दुसरॆ भाव मॆं तीसरॆ भाव मॆं, चौथॆ घर मॆं, पुत्र भाव मॆं रॊग विचार मॆं, क्षत विचार मॆं, मृत्यु और  नवम कॆ विचार मॆं, कर्म कॆ विचार मॆं, दशम॥8॥

आयॆ व्ययॆ फलं दद्यात शीतगुविक्रमॆ सुखॆ । कुटुम्बॆ भ्रातरिक्रॊधॆ प्रतिभायां शुभॆ मृतौ ॥9॥ भाग्यॆ त्रिकॊणॆ व्यापारॆ लाभॆ रिःफॆ फलप्रदः ।

आय और  व्यय कॆ विचार मॆं फल दॆता है। चन्द्रमा प्रताप, कुटुम्ब, पॊस्यवर्ग, आ‌ई, क्रॊध, बुद्धि, विशॆषकर्म भाग्य, पंचम नवम भाव विचार और  क्रयविक्रयादि और  लाभ व्यय कॆ विचार मॆं फल दॆता है॥9॥

कुजः शरीरॆ हॊरायां कल्पविक्रमवंधुषु ॥ सहजॆ च सहॆ शत्रौ क्रॊधॆ लॊभॆ च रंध्रकॆ ॥10॥ क्रियायायतौ हानौ जयॆ भंमॆ फलप्रदः ॥11॥

मङ्गल सॆ हॊरा कल्पशास्त्र, प्रताप, भा‌ई, सहज, शत्रु, लॊभ अष्टमभाव, कर्म, प्रभाव, हानि, उत्कर्ष और  पतन का विचार करॆ॥ 10-11॥

 बुधॊ मनसि. विद्यायां बुद्धौ हिबुक वॆश्मनि ॥

लॊभॆ शिल्पॆ च गानादिप्रियॆ स्वॆलाभरिफयॊः ॥12॥ । बुध मानसिक विचार मॆं विद्या, चतुर्थभाव, लॊभ, शिल्प, गान-विद्या ग्यारहवॆ

और  बारहवॆं भाव कॆ विचार मॆं फल दॆता हैं॥12॥

गुरुकर्मॆ व तपसि त्रित्रिकॊणॆ त्रिकॊणकॆ । । । आज्ञायां च सुतॆ हानौ कारागृहनिवॆशनॆ ॥13॥ । गुरु धर्म, तच नवम पंचम, आज्ञा, पुत्र, हानि, कारागार प्रवॆश॥13॥

ऎछ

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

अभिशायॆ तथा व्याघौ स्वॆकल्पॆ मूर्त्तिवॆश्मसु । विद्याबुद्धिसुखॆभावॆ शांत्यादिषु फलप्रदः ॥14॥

अभिशाप, व्याधि, रचकल्प, मूर्ति, गृह, विद्या, बुद्धि, सुख, चतुर्थ भनॆ और  शांति मॆं फल दॆता है॥14॥

कामान्यस्त्रीविवाहॆषु गीतनृत्य प्रीयादिषु । सुखॆ वॆशपनि दुश्चिक्यॆ स्वॆ कुटुम्वॆच वॆश्मनि ॥15॥

शुक्र सॆ अन्य स्त्री समागम, विवाह, नृत्यगाना, सुख, गृह तृतीयभा द्वितीय भाव, चतुर्थभाव॥15॥

आज्ञा क्रियातपॊ भाग्यॆ लाभायव्ययहानिषु ॥ वॆदान्यत्वॆ दयायां च भार्गवः फलदः सदा ॥16॥। आज्ञा, तप, भाग्य लाभ और  हानि का विचार करना चाहियॆ॥ 16 शनिर्भतौ ध्ययॆ रि:फॆ दुश्चक्यॆक्षत चॆतसि ॥ सहजॆ च सहॆ भावॆ बंधनॆ फलदॊ भवॆत ॥ 17 शनि सॆ मृत्य, व्यय तीसरॆ भाव, क्षत, चित्त, सहज बंधु

ऎल्ल

करना चाहियॆ॥17॥।

कालहॊराकाणॆशाः क्षॆत्रार्कनवभागपाः ॥ सप्तशत्रिंशदशॆशा हॊरॆशाष्टमॊ भवॆत ॥

भवत ॥17॥ सहज बंधु बंधन का विचार

। भवॆत ॥18॥

कालहॊरॆश, द्रॆष्काणॆश, गृहॆश, द्वादशांशश त्रिशांशॆश और  हॊरॆश यॆ क्रम सॆ यथॊत्तर बली हॊतॆ है।

क्रमादावृत्तितः प्रॊक्ता बलिष्ठः पर्वतॊ यथा । सूर्यादयॊ ग्रहा लग्नपतिश्चावृत्तितः । सूर्यादि सात ग्रह और  आठवां लग्न इनमॆं जॊ

शॆश, सप्तमांशॆश

तर बली हॊतॆ हैं॥18॥

वाला हॊता है॥19॥ इति पाराशर हॊरायामुत्तरार्धॆ लॊकयात्रा

मात ॥19॥

लग्न इनमॆं जॊ बली हॊ वहीं प्रथम 5

का प्रथम फल दॆनॆ

विमॊऽध्यायः ॥9॥

दशमॊऽध्यायः। अथ आयुषः प्रकारांतराणि॥

वक्ष्यॆऽहं दायॊत्यं नृणामायुः । पैड्यॊ द्वादशधा प्रॊक्तॊ ध्रुवरश्मि ।

। नृणामायुः परं मुनॆ ॥

ध्रुवरश्मि समुद्भवौ ॥1"

फ्रॆत

दशमॊऽध्यायः ।

ऎ‌ऊश नय! अव मॆं हरण आदि सॆ शुद्ध मनुष्यॊं कॆ परम आयु कॊ तुमसॆ कह

नॆ प्रथम पिंडायु है जॊ 12 प्रकार का है, ध्रुवायु (निसर्गायु) 4 प्रकार 1211

अंशकाष्टकवर्गॊत्थौ प्रत्यॆक तु चतुर्विधम ॥ विषयॊक्तॊ द्विधा प्रॊक्तॊ नक्षत्रांशकसंभवौ ॥2॥

उत्पन्न आयु 4 प्रकार का, अंशॊद्भव 4 प्रकार का, अष्टवगॊंद्भव

मिलकर 16 प्रकार, नक्षत्रॊत्पन्न 2 प्रकार और  अंशॊद्भव 2 प्रकार ल मिलाकर 32 प्रकार कॆ आयु भॆद हॊतॆ हैं॥2॥।

अथ पिंडायुषः ध्रुवांकाःद्वात्रिंशद्धॆदभिन्नं स्यात्परमायुर्वृणामिह ।

तिधृतिरस्यॆन्दॊस्तत्वानि पंचदश ॥3॥

अपनॆ परमॊच्च मॆं हॊं तॊ क्रम सॆ सूर्य का 19, चन्द्रमा का 25,

कार का सब मिलकर 16 कुल मिलाकर 32 प्रकार

अतिधृतिरर्कस्यॆन्द सूर्यादि ग्रह अपनॆ परमा का 15, बुध का 1

परमॊच्चॆ च नीच शुक्र का 21 और  शनि अपनॆ 2 ध्रुवाक 1 अनुपात: खखभूमॆः खयुग्म

कॊ उक्त नीच कॆ मध्य मॆं ग्रहॊं की 100 या

दुधस्य च गुरॊस्तिथि: कवॆर्मूछनानखा‌अकिंः । 1 च नीचॆऽधं परॆषुभावॆषु वा तथा प्रॊक्ताः ॥4॥

और  शनि का 20 पिंडायु का ध्रुवांक हॊता है और  नीच मॆं ध्रुवक का आधा ध्रुवांक हॊता है॥4॥ पातः कर्त्तव्यस्वंतरसंस्थॆषु खॆटॆषु ॥

भूमः खयुग्मॆद्वॊ स्वांशाः पूर्ववत्कृतौ ॥5॥

"नध्य मॆं ग्रहॊ हॊ तॊ अनपात द्वारा फल की आना चाहियॆ। और  100 या 120 वर्ष की परमायु हॊती है॥5॥ । नैसर्गिक रश्मिजायुषॊः ध्रुवांकाः।

की यमौ रत्नमष्टादश नखाः क्रमात ॥

नादीनशं दायॆ नैसर्गिक स्मृतम ॥6॥

कृतिरॆकॊ यमौ र सैकंतानमिनादीन सूर्यादि अपनॆ उच्च मॆं । 9, गुरु का 18, शुक्र षॊडशविंशतिरॆकॊ

सॆ मॆं हॊ तॊ सर्य का 20, चन्द्र का 1, भौम का 3. 58, शुक्र का 20 और  शनि का 51 ध्रुवांक नैसर्गिक मॆं

6॥

1911

पंचविंशतिः । शतिरॆकॊ नवाष्टनव वशतिस्तथॊक्ष्वॆ नीचॆचाळं रश्मीचत्विमॆऽथ

उसी प्रकार सॆ

च्च मॆं हॊ तॊ सूर्य का 16, चंद्र का 20, भौम

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । का 1, बुध का 9, गुरु का 8, शुक्र का 9 और  शनि का 25 या 26 रश्म्पायु मॆं ध्रुवांक हॊता है। शॆष क्रिया पूर्ववत समझना॥7॥

अथधुवांकॆभ्यॊ आयुसाधनप्रकारःकलीकृतं ग्रहं व्यॊमखब्धिनॆत्रावशॆषितम ।

शतद्वयॆनाभिभजॆदब्दमासादयः क्रमात ॥8॥ जिस ग्रह की आयु लाना हॊ उसकॆ राश्यादि की कला बनाकर उसमॆं 2400 सॆ भाग दॆकर शॆष जॊ बचॆ उसमॆं 200 सॆ भाग दॆनॆ सॆ वर्ष मासादि क्रम सॆ आयु हॊती है॥8॥।

उदाहरण- सूर्य राश्यादि 3।18।26।34 की कला 6506।34 इसमॆं ।... 2400 सॆ भाग दॆनॆ सॆ शॆष 1706।34 बॆचा इसमॆं 200 का भाग दॆनॆ सॆ लब्ध

8 और  106।34 इसमॆं ध्रुवांक 19. सॆ गुणाकर 200 सॆ भाग दॆनॆ सॆ । 10 वर्ष शॆष 14।45 इसॆ. 12 सॆ गुणाकर 200 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्ध मास

0 शॆष 177/12 कॊ 30 सॆ गुणाकर 200 सॆ भाग दॆनॆ सॆ 26 दिन शॆष 1160 कॊ 60 सॆ गुणाकर 200 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्ध्र 24 घटी शॆष 160 ’ कॊ 60 सॆ गुणाकर 200 का भाग दॆनॆ सॆ लब्ध 48 पल प्राप्त हु‌आ। इस प्रकार

लब्ध वर्षादि 1010।26।34148 पूर्व लब्ध वर्ष 10 मॆं जॊड दॆनॆ सॆ सूर्य की वर्षादि 1810।26।34॥48 पिंडायु हु‌ई। इसी प्रकार अन्य ग्रहॊं का भी पिंडाय

 साधन करना।

। नवांशायुदयसाधनम।

सूर्यादिगुणिताच्छॆषावृद्धिं कुर्याद्यथॊत्तरम । स्वॊच्चहीनं ग्रहं कृत्वा कर्कादिच मृगादि च ॥9॥ गृहीत्वातु भुजं. कॊटि कृत्वा लिप्तीकृतं तुतम । हत्वा नवांशदायॆन भजॆद्भत्रयलिप्तिभिः ॥10॥

सूर्यादि ग्रहॊं कॆ उच्च राश्यादि कॊ उनमॆं घटानॆ सॆ कॆन्द्र हॊता है। उसका भुज और  कॊटि करकॆ, कॊटि की कला बनाकर ध्रुवांक सॆ गुणाकर उसमॆं तीन राशि की कला 5400 सॆ भाग दॆनॆ सॆ॥10॥

वत्सराद्या भवत्यॆतॆ . वर्जयॆन्मकरादिकॆ । कॆन्द्रॆ नवांशदायॆ स्वॆ, त्रिघ्नॆ कर्कटकादिकॆ ॥11॥।

लब्ध वर्ष हॊता है शॆष कॊ पुनः 12 आदि सॆ गुणाकर 5400 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्ध मासादिक हॊता है। यदि मकरादि कॆन्द्र हॊ तॊ तीन सॆ गुणॆ हुयॆ भ्रवांक मॆं घटानॆ सॆ और  ककदि कॆन्द्र हॊ तॊ ध्रुवक का आधा जॊड दॆनॆ सॆ मध्यम नवांशायुदयि हॊता है॥11॥

शीघ्ण्श

दशमॊऽध्यायः ।

। नवांशायुदयॆ विशॆषः। गुंज्यादकृतॆ तस्मिन प्रक्रमानुगतॊ मतः । द्विग्नॆ त्वपनयॆत्तस्मिन्युज्यादॆव दलीकृतॆ ॥12॥

पूर्व साधित नवांशायुर्दाय मॆं यदि कॆन्द्र मकरादि 6 राशि मॆं हॊ तॊ मूल ध्रुवांक कॊ दूंना करकॆ उसमॆं घटा दॆना और  कर्कादि 6 राशि मॆं हॊ तॊ मूल ध्रुवांक का आधा कर उसमॆं जॊड दॆनॆ सॆ आयुर्दाय हॊता है॥12॥

अष्टकवर्गायु साधनम॥ निक्षिप्याष्टकवर्गं तु राशिचक्रॆ तु पूर्ववत । त्रिकॊणैकपशुद्धिं च कृत्वा तु गुणयॆद्गुणैः ॥13॥

पहलॆ अष्टक वर्ग बनाकर त्रिकॊण शॊधन और  ऎकादिपत्यशॊधन करकॆ संख्या कॊ राशि गुणाकर पिंड बनाकर॥13॥।

खवन्हि भक्तभव्दाद्याः क्रमाद्भिन्नाष्टवर्गजाः ॥ । ऎवं कृत्वा तु संयॊज्य भाप्तसमद्वादयः स्मृताः ॥14॥

उसॆ (पिंडकॊ) 30 सॆ भाग दॆनॆ सॆ भिन्नाष्टक वर्गायु हॊता है। पूर्वॊक्त प्रकार सॆ लायॆ हुयॆ पिंड मॆं 27 का भाग दॆनॆ सॆ वर्षादि समुदायाष्टक वर्गायु हॊता है॥14॥

कृत्वा करणदैरॆवं स्वॊत्पन्नौ दायसंज्ञितौ ॥ प्रत्यॆकं भिन्नदायॊत्थास्वैवं त्रिंशद्भिदामताः ॥15॥

और  इसी प्रकार सॆ करणायु भी लाना चाहियॆ। पिंडायुर्दाय सप्तग्रहॊं कॆ 7 प्रकार की, धुवायुर्दाय सप्तग्रहॊं कॆ 7 प्रकार की, रश्म्यायुर्दाय सप्तग्रहॊं की 7 प्रकार की, अंशायुर्दाय सप्त ग्रहॊं कॆ 7 प्रकार की, रॆखाष्टक वगॊत्थ आयु 1 प्रकार और  करणाष्टकवगत्थ आयु कॆ 30 भॆद हुयॆ॥15॥।

। नवांशायुदयॆ नुवाङ्काः। । पंचमूछ सप्त रत्नं दश षॊडश वारिधिः ॥ नवांशाविधितः प्रॊक्ता अंत्यात्प्रॊक्तास्तुभादितः ॥16॥

सूर्य का 5, चन्द्र का 21, भौम का 7,’बुध का 9, गुरु का 10, शुक्र का 16 और  शनि का 4 अंशायु साधन कॆ ध्रुवांक हैं। प्राप्तनवांश सॆ आरम्भ कर अनुलॊम विधि सॆ आरम्भ कर अनुलॊम विधि सॆ अंतिम नवांश पर्यन्त गणना करना चाहियॆ॥16॥

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

नक्षत्रायुयानयनम। ’. रवींद्वाराहिजीवार्किबुधकॆतुसिताः’ क्रमात ।

 आग्नॆयाद्भगणॆशाः स्युः स्वामिनॊवत्सरा:क्रमात ॥17॥

कृत्तिका नक्षत्र सॆ आरम्भ करकॆ क्रम मॆं सूर्य, चन्द्र, भौम, राहु, गुरु, शनि, बुध, कॆतु और  शुक्र यॆ नव नक्षत्रॊ कॆ अर्थात पूर्वाफाल्गुनी तक कॆ स्वामी हैं। पुनः उत्तराफाल्गुनी सॆ पूर्वाषाढ तक 9 नक्षत्रॊं कॆ यही स्वामी हॊतॆ हैं पुनः उत्तराषाढ सॆ भरणी पर्यन्त शॆष 9 नक्षत्रॊं कॆ भी यही स्वामी हॊतॆ हैं। इस क्रम सॆ ऎक ग्रह तीन नक्षत्र का स्वामी हॊता है॥17॥

घडाशासप्त धृतयॊनृपां ऎकॊनविंशतिः ।

अत्यष्टिः सप्त च नखा उच्चॆ नीचॆऽर्धमुच्यतॆ ॥18॥ । क्रम सॆ सूर्य का 6, चन्द्र का-10, भौम का 7 राहु का 18, गुरु का 16, शनि का 19, वुधका 17 कॆतु का 7 और  शुक्र का 20 वर्ष आयु की सीमा है किन्तु यॆ जव अपनी उच्च राशि मॆं हॊ तॊ, नीच मॆं हॊं तॊ इसका आधा हरण हॊता है॥18॥।

अस्मिंस्तु हरणं तस्मात्पूर्वस्मिस्तु द्वयं हितम । अनयॊः पापदायदावंतॆ स्युरपमृत्यवः ॥19॥

पूर्व मॆं कहॆ हुयॆ पिंड ध्रुव-अंश-अष्टकवर्ग की आयु मॆं शुभ पापग्रह जनित दॊनॊं फल शुभ हॊतॆ हैं किन्तु नवांश-नक्षत्रायुर्दाय मॆं पापग्रह कॆ आयुदयि कॆ आरम्भ

और  अंत मॆं अरिष्ट की संभावना हॊती है और  शुभग्रह मॆं शुभफल हॊता है॥19॥ ।

आयुर्दायकथनॆ कारण तथा भावार्युदायसाधनञ्च।

 द्वात्रिंशद्धॆदभिन्नॊऽयमायुषॊ निर्णयः कृतः ।

लॊकयात्रा परिज्ञानहॆतवॆ दायनिर्णयः ॥20॥ . . हॆ मैत्रॆय! मैंनॆ लॊक कॆ सुख दुख कॊ जाननॆ कॆ लियॆ 32 भॆद सॆ युक्त आयु ।

’ का निर्णय कहा॥20॥।

भावानां संप्रवक्ष्यामि ऋणुष्वः, मुनिपुंगवः ॥

आयुश्च परमं हत्वा स्वॆन स्वॆन वलॆन च ॥21॥ इन 32 प्रकारॊं कॆ बाद आठवां भावॊं का आयुर्दाय कहता हूँ। पूर्वॊक्त सात प्रकार कॆ आयुर्दाय मॆं सॆ किसी ऎक कॊ लॆकर उसॆ अपनॆ-अपनॆ भावबल सॆ :: गुणाकर॥21॥

.

ऎ‌ऊ

ऎकादशॊऽध्यायः ॥ विभजॆद्वलयॊगॆन भावानां दाय ऎव सः ।

अथवांशक्षदायॆन वर्गॆशानां वलॆन तु ॥22॥

भावबल समूह सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ लब्धि हॊ वही आयुर्दाय हॊती हैं। पुनः अकारांतर सॆ नवमांशायर्दाय सॆ परमायुष्य कॊ गुणन कर षड्वर्ग पतियॊं कॆ बल सॆ भाग दॆनॆ सॆ वर्षादि भावायुर्दाय हॊता है॥22॥

स्थानाधैश्च समुद्भूतः षबिधॊ दाय‌उच्यतॆ ॥23॥ । इस प्रकार सॆ भाव, नक्षत्र, नवांश, अष्टकवर्ग, अंश और  पैंड्य यॆ 6 प्रकार कॆ आयुर्दाय भॆद कहॆ॥23॥। इति पाराशर हॊरायामुत्तरराथॆं आयुर्दायकथनॆ दशमॊध्यायः ॥10॥

ऎकादशॊऽध्यायः।

आयुषःह्यासवृद्धॆ:यॊगः ।

 आरार्की वक्रिणौमृत्युश्चान्यॊन्यभवनस्थितौ ।

वॆश्मषण्मृत्युरिःफस्था जीणॆन्दूत्यत्तिपाष्टपाः ॥1॥

भौम शनि वक्री हॊकर परस्पत ऎक दूसरॆ कॆ गृह मॆं हॊं तॊ मृत्युकारक हॊतॆ। हैं। यदि क्षीणचंद्र लग्नॆश और  अठमॆश 6।8।12 स्थान मॆं हॊं तॊ मृत्युकारक हॊतॆ हैं॥1॥

अष्टमस्था ग्रहाः सर्वॆ पापदृष्टियुतास्तु वा । भौममंदसँगाश्चॆतु. शुभदृष्टिविवर्जिताः ॥2॥

अष्टम स्थान मॆं पापग्रह सॆ दृष्टयुत सभी ग्रह मृत्युकारक हॊतॆ हैं, यदि अष्टमस्थ ग्रह भौम शनि की राशि मॆं हॊं और  शुभग्रह की दृष्टि सॆ हीन हॊं तॊ मृत्युकारक हॊतॆ हैं॥2॥

आयुष्ययॊगाः। कॆन्द्रत्रिकॊणॆ च शुभाश्चपापाः षष्ठॆत्तीयॆच मृत्युसंस्थाः । अष्टॊत्तरं जीवति वर्षमायुर्नरॊ गुणाट्यॊ नवतिः सुशीलः ॥3॥ । शुभग्रह कॆन्द्र त्रिकॊण मॆं हॊं तॊ 108 वर्ष की आयुष्य हॊती है, पापग्रह 6।3। भाव मॆं हॊं और  आठवॆं भाव मॆं कॊ‌ई ग्रह न हॊ तॊ 90 वर्ष की आयु हॊती हैं॥3॥

लग्नॆ गुरौ दैत्यगुरौ चतुर्थॆ बुधॆ सुतॆ षष्ठगतॆ च सूर्यॆ। स्थानंच शात्रॊश्च मृतिं च हित्वा त्वन्यॆ स्थिताश्चॆन्नवतिश्चषकः।

ऎछॊ

, वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । लग्न मॆं गुरु, चौथॆ भाव मॆं शुक्र, बुध पांचवॆं भाव मॆं और  छठॆ भाव मॆं सूर्य

हॊ तॊ 90 वर्ष की आयु, यदि चंद्र, भौम, शनि यॆ तीनॊं ग्रह अपनॆ शत्रुराशि और  अष्टमभाव कॊ छॊडकर अन्यस्थान मॆं बैठॆ हॊं तॊ 96 वर्ष की आयु हॊती है॥4॥

सुखादिकॆंन्द्रॆषु गुरुः स्थितचॆत्तत्पंचमॆज्ञॆ तु भृगौतुषष्ठॆ।

घडुत्तरा सप्ततिरष्टयुक्ता त्वंशीतिरॆकॊत्तरतः प्रदिष्टा॥5॥ । चतुर्थ आदि कॆन्द्र मॆं गुरु हॊं और  गुरु सॆ पाचवॆं भाव मॆं बुध हॊं तथा छठॆ भाव मॆं शुक्र हॊ तॊ 76 वर्ष की आयु हॊती है। सातवॆं भाव मॆं गुरु हॊ और  उससॆ .’ पीछॆ भाव मॆं बुध शुक्र हॊं तॊ 88 वर्ष की आयु हॊती है। तथा दशम भाव मॆं

गुरु हॊं और  उससॆ 5।6 भाव मॆं क्रम सॆ बुध शुक्र हॊं तॊ 81 वर्ष की आयु हॊती है॥5॥।

. कॆन्द्रादि आयुष्यकॆन्द्रादिस्थाः शतं दद्युर्नवाष्टादींश्च दिग्गुणान ।

मित्रं संयुज्य दलिता अनुपातॆन वत्सराः ॥6॥ . सभी ग्रह कॆन्द्र मॆं हॊं तॊ 100 वर्ष की आयु, पणकर मॆं हॊं तॊ 90 वर्ष की आयु और  सभी अपॊक्लिम मॆं हॊं तॊ 80 वर्ष की आयु हॊती है। यदि दॊ स्थान मॆं ग्रह हॊं तॊ दॊनॊं स्थान की आयु कॆ यॊग की आधी आयु हॊती है॥6॥

शत्रुनीच सप्ताशॆषु दिग्विधॆषु न चॆस्थिताः ॥ शतायुर्यॊग हीनास्तु सर्वॆ प्रॊक्ता कलौ युगॆ ॥7॥

यदि तीनॊं स्थानॊं मॆं ग्रह हॊं तॊ तीनॊं कॆ यॊग का तृतीयांश आयु वर्ष हॊता है। यदि उक्त दशदिध (32 श्लॊ., 4 श्लॊ., 5 श्लॊ, 6 श्लॊ. मॆं कहॆ हयॆ) आयुष्य मॆं कॊ‌ई न हॊ तॊ गणितागतायु लॆना। कलियुग मॆं सभी मनुष्य 100 वर्ष सॆ अल्प आयुवालॆ लॆतॆ हैं॥7॥

पूर्वॊक्तायुषॆ हानिःदायानां हरणं वक्ष्यॆ शृणुष्व मुनिपुंगव ॥

आयुर्दायॆ तु हरणं घविधं संप्रकीर्यतॆ ॥8॥ .. हॆ मैत्रॆय! आयु का हरण कहता हूँ उसॆ सुनॊ। वह हरण 6 प्रकार का हॊता है॥8॥

व्ययादिहरणं पूर्वमस्तारिहरणं तथा । क्रूरॊदयस्थ हरणं चन्द्रयुक्ततमस्तथा ॥9॥

.


ऎकादशॊऽध्यायः ॥

ऎच 1-12 वॆं भाव सॆ सातवॆं भाव तक वाम, 2- अस्तगत और  3- शत्रु राशिगत का हरण, 4- लग्न मॆं क्रूरग्रह का हरण, 5- चन्द्र सहित राहु कॊ हरश और  6 व्ययस्थ पापग्रह यॆ 6 प्रकार कॆ आयु कॆ हरण हॊतॆ हैं॥9॥

पापॊ व्ययस्थॊ हरति सर्वदायं द्विजॊत्तम । अथ द्वित्रिचतुः पंचषडंशॊनं क्रमादमी ॥10॥

वारहवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊ तॊ सम्पूर्ण आयु की हानि, ग्यारहॆं भाव मॆं हॊं तॊ आयुष्य का आधा, दशम भाव मॆं हॊ तॊ आयुष्य का तृतीयांश नवम भाव मॆं हॊ तॊ आयुष्य का चतुर्थाश, अष्टमभाव मॆं हॊ तॊ आयुष्यं का पांचवा भाग और  सातवॆं भाव मॆं हॊ तॊ आयु कां छठां भाग कम हॊ जाता है॥10॥

लाभादिसंस्थिताः खॆटा वाभतः प्रक्रियांशृणु।

हरंति सौम्याः प्रॊक्तार्ध लग्नद्वादश संधिषु ॥11॥ ।  संधिगत पापग्रह हॊ तॊ ज्यॊ का त्यॊं हरण हॊता है यदि शुभग्रह हॊ तॊ आधा हरण हॊता है॥11॥

पापश्चॆत्सकलं हंति शुभॊ दलमथॊत्तरम ।

लग्नाद्धादशसंधौ च ग्रहान्यायान्विवर्जयॆत ॥12॥

लग्न सॆ आरंभ कर द्वादश संधियॊ मॆं पापग्रह हॊ तॊ संपूर्ण आयु और  शुभग्रह हॊ तॊ आयु का आधा क्षय हॊता है। लग्न सॆ द्वादशभाव की संधियॊं मॆं पापग्रहॊं कॊ घटा दॆवॆ॥12॥।

राश्यभावॆ तु भागादीन दाद्यभ्रान्षष्ठिभाजितात ॥ दायॆ द्विघ्नॆ तु सौम्यस्य राशिरॆकॊ दलं यदि ॥13॥।

यदि राशि न हॊ तॊ अंशादि कॊ उनकॆ आयु सॆ गुणाकर 60 सॆ भाग दॆवॆ जॊ लब्ध अंशादि हॊ उसॆ संधि मॆं घटानॆ सॆ शॆष आयुष्य का हरण पज हॊता है। यदि शुभग्रह की राशि का अभाव हॊ तॊ दाय कॊ दूनी कर उससॆ दाय कॊ गुणाकर 60 का भाग दॆकर लब्धि कॊ संधि मॆं घटानॆ सॆ शॆष आयुहरण फल हॊता है॥13॥

अधिकॆनापहृततु क्रमाद्राशिं विना कृतम ॥ दायद्विगुणया सौम्यॊ लब्ध्वा वाऽपचयॆसमाः ॥14॥

इस प्रकार सॆ लाया हु‌आ फल ऎक राशि का दूसरा दल का इनमॆं जॊ अधिक । हॊ उसमॆं न्यून कॊ घटाना चाहियॆ। यह आयु कॆ हरण मॆं वर्ष हॊता है॥14॥


--

ऎछॆ

। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ . वहवशॆद्वली हंति समाश्यॆत्प्रथमॊ मतः ॥

अंशक. ग्रहयॊगॆ च द्वयॊः पापॆ हरत्युत ॥15॥ ।’ उक्त प्रकार ऎक ग्रहयॊग मॆं कहा है यदि बहुत सॆ ग्रह भावसंधि मॆं हॊं तॊ

जॊ सवमॆं वली हॊ वही आयु का हारक हॊता है। यदि दॊ ग्रह पापग्रह और  शुभग्रह, हॊं तॊ उसमॆं पापग्रह ही आयु का हरण करता है॥15॥।

सौम्यॊऽपि पापवर्गॆ च स्थितॊ रिः फादिषटसुचॆत ।

त्रिषु भावगतानां च पापानां करणं स्मृतम ॥16॥। . यदि दॊनॊं शुभग्रह ही हॊवॆं तॊ यदि वॆ पापवर्ग मॆं हॊकर 12 भाव सॆ आरम्भ कर 6ठॆ भाव कॆ अन्दर लॆं तॊ भागृहारक हॊतॆ हैं। इसी प्रकार भावगत बारहवॆं सॆ 6ठॆ भाव कॆ अन्दः पापग्रह हॊं तॊ उनमॆं कॆवल सूर्य भौम शनि ही हरण कारक - हॊतॆ है। उक्त भाव गत पापग्रहॊं कॆ फल का भी उत्पादन हॊता है॥16॥

पूर्वॊक्त .फलस्य पुष्टिःकुटुम्बभरणं चापि दुश्चित्तं लाभमॆव च । ’ मॆधां च प्रतिभा शान्तिं मंदक्रॊधं करिष्यति ॥17॥

यदि पापंग्रह 12 वॆं भाव मॆं हॊ तॊ कुटुम्ब का पॊषक हॊता है, 11 वॆं भाव मॆं हॊ तॊ दुश्चित हॊता है। 10 वॆं भाव मॆं हॊ तॊ लाभ हॊता है। 9 वॆं भाव मॆं हॊ तॊ धारणात्मिका बुद्धि हॊती है। 8 वॆं भाव मॆं हॊ तॊ शान्ति का लाभ और  7 वॆं भाव मॆं हॊ तॊ थॊडा क्रॊध हॊता है॥17॥।

अस्तंगतग्रहस्य तथा लग्नस्य आयुःअस्तंगतानां सर्वॆषां दलं दायः स्मृतस्तदा । राशिसंख्यासमाश्चाब्दी लग्नॆऽब्जॆवलवत्तरम ॥18॥

अस्तंगत सभी ग्रहॊं की आयु का आधा ही आयु शॆष रहता है। यदि लग्न मॆं चन्द्रमा हॊं और  बलवान हॊ तॊ लग्न की राशि कॆ समान वर्ष लग्न की आयु हॊती है॥18॥।

अंशान लिप्ताहतान कृत्वा खखाक्षिभ्यां समाहृताः । शॆषा मासादयः प्रॊक्ता वर्तमानाब्दयॊजनॆ ॥19॥

यदि लग्न मॆं चन्द्रमा न हॊ अथवा निर्वल हॊ तॊ लग्न की राशि कॊ छॊडकर अंश कॊ 60 सॆ गुणाकर उसमॆं कला कॊ जॊडकर 200 सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्धि

.


ऎकादशॊऽध्यायः ॥

ऎछू वर्ष और  शॆष कॊ 12 आदि सॆ गुणाकर भाजक सॆ भाग दॆनॆ सॆ मासॆ आदि हॊतॆ हैं। इस प्रकार आयॆ हुयॆ मासादि आयु मॆं पूर्वॊक्त वर्ष जॊड दॆनॆ सॆ लग्न की वर्षादि

आयु हॊती है॥19॥।

लग्नॆ कुरप्रहॆ सतिक्रूरॆ क्रूरॊदयघ्त मष्टॊत्तरशतैर्हतम ॥ लब्धं चापनयॆद्दायॆ स्वॆतथा परमायुषि ॥20॥

लग्न मॆं क्रूरग्रह हॊ तॊ लग्न कॆ अंशादि कॊ क्रूरग्रह कॆ वर्तमान नवांश राशितुल्य अंक सॆ गुणाकर 108 का भाग दॆनॆ सॆ लब्ध वर्षादि कॊ लग्न की आयु मॆं घटानॆ सॆ शॆष लग्न की स्पष्ट आयु हॊती है॥20॥ । स्वॊच्चॆ मूलत्रिकॊणॆ च लब्धस्यार्धविवर्जयॆत ॥

मित्रॆऽधिसुहृदि प्रॊक्तं पादॊनॆनापनायनम ॥21॥

लग्न मॆं पापग्रह अपनॆ उच्च वा मूल त्रिकॊण राशि का हॊ तॊ पूर्वॊक्त विधि, सॆ प्राप्त वर्षादि का आधा ही परमायु मॆं घटाना चाहियॆ। यदि पापग्रह अपनॆ मित्र या अधिमित्र कॆ गृह मॆं हॊ तॊ लब्ध का चतुर्थाश घराना चाहियॆ॥21॥

भावॆष्वॆवं विधिः प्रॊक्तॊ वर्गाणामधिपॆषु च । तिष्टन्तौ शुभपापौ चॆत्पापॊदयविधिः स्मृतः ॥22॥ .

यह हरण प्रकार लग्न मॆं क्रूरग्रह कॆ रहनॆ सॆ 6 वगॊं कॆ अधिपति क्रूरग्रह हॊं और  लग्न मॆं क्रूरग्रह न हॊ तव कॆ लियॆ कहा है। यदि लग्न मॆं शुभ पाप दॊनॊं हॊं तब भी पापग्रह का ही हरण करना। और  लग्न मॆं पापग्रह अधिक हॊं तॊ जॊ उसमॆं , अधिक बली हॊ उसी का हरण करना चाहियॆ॥22॥

अष्टमभावॆ कॆन्द्रॆ च शुभपाप यॊगॆक्रूरॆष्टमॆष्टमांशॆन भावस्याप्यनुपाततः ॥ लग्नाधिपॆतराष्टांशं पापॊ हरति मृत्युगः ॥23॥

अष्टमभाव मॆं पापग्रह हॊ तॊ भांव की आयु का अनुपात द्वारा अष्टमांश का ’हरण हॊता है। किन्तु लग्नॆश की आयु कॊ छॊडकर अन्य ग्रहॊ की आयु का अष्टमांश

हरण हॊता है॥23॥

वहवशॆद्वली सौम्यपायॆष्वॆवंविधिः स्मृतः । .. तयॊर्दायांतरं दायः कॆन्द्रस्य च विधीयतॆ ॥24॥

रण।

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छ्छ

वर.

। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । वहुत सॆ पापग्रह हॊं तॊ जॊ सबमॆं बली हॊ उसी का हरण हॊता है। पापग्रह शुभग्रह दॊनॊं हॊं तॊ दॊनॊं कॆ आयुष्य का अन्तर करकॆ जॊ शॆष रहॆ वही आयुष्य

हॊती है। इसी प्रकार कॆन्द्रस्थ शुभ पाप कॆ स्थिति कॆ अनुसार समझना॥24॥ .

राहुयुक्त चन्द्रस्यायु विचारःसॆन्दौ राहौ दशाराहॊरानीता मूलदायवत ।

चन्द्रायुः पिंडतः शॊध्या तद्राहुकरणं स्मृतम ॥25॥। । चन्द्र युक्त राहु हॊ तॊ पूर्वॊक्तवत दशा लाकर उसका पिंड बनाकर चन्द्रायु

कां पिंड बनाकर उसमॆं शॊधन करनॆ सॆ शॆष राहु का कारण हॊता है इसपर सॆ पूर्वॊक्तवत . . । अंशायु कॆ अनुसार ही राहु का आयु वर्ष हॊता है॥15॥

अंशदायक्रमॆणैव तमसॊऽब्दाः समीरिताः । । तस्मिन्सचन्द्रॆ : तल्लग्नभावसाधनतस्ततः ॥ 26॥

लग्न मॆं चन्द्रमा और  राहु हॊं तॊ लग्न कॆ ही समान आयु का साधन करना चाहियॆ॥26॥

तत्तदृष्टिहतं कृत्वा षष्ट्याप्तं धनशॊधनॆ ।

सॊदयॆ च सराहिंदावयं न्यायः समीरितः ॥ 27॥

* किन्तु राहु चन्द्र-दृष्टियॊं का परस्पर गुणाकर 60 का भाग दॆनॆ सॆ जॊ फल . .. आवॆ उसॆ मकरादि मॆं धन और  कर्कादि मॆं क्रण करनॆ सॆ स्पष्टायु हॊती हैं यदि लग्न

मॆं राहु कॆ साथ चन्द्रमा हॊ तॊ यह विधि उचित है॥27॥।

द्रॆष्काणवशात हानि वृद्धिः॥ स्थानवृद्धिः क्षयः कार्यॊंद्रॆष्काणसँसराशिकम ।

अस्तंगतानामधं स्याद्विना भृगुसुतं शनिम ॥ 28॥

। यदि लग्न, की राशि और  द्रॆष्काणॆ की राशि ऎक ही हॊ तॊ भाव स्थफल की । वृद्धि हॊती है और  दॊनॊं की भिन्न राशि हॊ तॊ भावफल की हानि हॊती है। शुक्र

और  शनि कॊ छॊडकर अन्य अस्तंगत ग्रहॊ, की आयु कॆ आधॆ का ह्रास हॊता है॥28॥

तयॊर्वॆदांशहीनं स्याल्पंशॊनं शत्रुगस्य तु । । ... अंगारकं वर्जयित्वा शत्रुक्षॆत्रगतैग्रहैः ॥29॥

यदि शुक्र शनि अस्त हॊं तॊ इनकी आयु का चतुर्थाश ह्रास हॊता है। भौम

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ऎकादशॊऽध्यायः । कॊ छॊडकर शॆष शत्रुक्षॆत्र ग्रहॊं की आयु का तृतीयांश ह्रास हॊता है। यदि ग्रह मित्रवर्ग का हॊ तॊ तृतीयांश कॆ आधॆ की ही हानि हॊती है॥29॥

सुहृद्वर्गगतानां तु तद्वलं हरति स्वकम । ऎवं भावॆषु सर्वॆषु षड्विधं हरणंनहि ॥30॥

इस प्रकार सभी भावॊं कॆ 6 प्रकार कॆ हरण नहीं हॊतॆ किन्तु ग्रहॊं कॆ ही हॊतॆ हैं॥30॥

अष्टवर्गॊत्पन्न अंशायुषिहरणम - हरणं नैव कर्त्तव्यंमंदादायॆऽष्टवर्गगॆ । स्वॊच्चॆ च त्रिगुणं प्रॊक्तं स्ववर्गॆ द्विगुणं तथा ॥31॥

अष्टवर्ग सॆ उत्पन्न अंशायु मॆं हरण नहीं करना किन्तु ग्रह उच्च मॆं हॊ तॊ आयु कॊ त्रिगुणित कर दॆना, अपनी राशि मॆं हॊ तॊ दूना करना॥31॥

अधिमित्रगृहॆ सार्थॆ त्र्यंशं मित्रगृहॆयुतम । । अरावघ्परिभावॆ च त्र्यंशखंडविवर्जितम ॥32॥

अधिमित्र कॆ गृह मॆं हॊ तॊ आयु का आधा उसमॆं और  जॊड दॆना, मित्र कॆ गृह मॆं हॊ तॊ तृतीयांश जॊड दॆना॥32॥।

अष्टवर्गॊत्यदायॆषु प्रॊक्तॊऽयं विधिरंजसा । भावदायॆषु सर्वॆषु प्रॊक्तॊऽयं विधिरुत्तमः ॥33॥

यदि शत्रु कॆ गृह मॆं या अधिशत्रु कॆ गृह मॆं हॊ तॊ आयु का तृतीयांश घटा दॆना। यह विधि अष्टवर्गायु और  सभी आयु कॆ साधन मॆं उत्तम है॥33॥

अंतर्दशाप्रकारःदायगस्य तु सर्वस्य सहगस्य दलं भवॆत । । सुर्तधर्मगयॊख्यंशं पादं मृतिसुखस्थयॊः ॥ 34॥

ग्रह कॆ आयुष्य कॆ तुल्य ही वर्षादि उसकी दशा हॊती है, उसमॆं ग्रह कॆ साथ रहनॆ वालॆ ग्रह का दशापति कॆ आयु का आधा वर्षादि अंतर्दशा हॊता है। दशापति। सॆ 59 भाव मॆं ग्रह की आयु कॆ तृतीयांश कॆ तुल्य और  आठवॆं चौथॆ मॆं स्थित ग्रह की आयु का चतुर्थाश अंतर्दशा हॊनी है॥34॥

690... वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥

सप्ताशं सप्तमस्थस्यप्रक्रिया प्रॊच्यतॆऽधुनी । अंशापरस्परहताज्छॆदॆनैव विभाजितम ॥35॥ जॊ सातवॆं भाव मॆं हॊ वह सप्तमांश हरण करता है॥35॥ . तत्तदंशविभक्तं च स्वस्य स्वस्य समं भवॆत ।

नीचार्धपक्षॆ सर्वत्र विधिरॆष विधीयतॆ ॥36॥

परस्पर अंश और  छॆदॊं का समच्छॆद करकॆ आयु कॊ गुणाकर छॆद सॆ भाग दॆनॆ सॆ क्रम सॆ अंतर्दशा का वर्षादि आ जाता है॥36॥

’... समच्छॆदाभावस्थानम - नीचाभावॆऽष्टवर्गॊंस्थं भावदायॆंऽशकक्रमॆ । नार्य विधिस्मृतस्तत्र वहवश्चॆत्तु तॆऽखिलम ॥ 37॥

पूर्वॊक्त हरण विधि नीच रहित, अष्टवर्गायु तथा अंशक क्रम मॆं नहीं करना। यदि उक्त विषय मॆं अनॆक ग्रह हॊं तॊ वॆ सम्पूर्ण आयु कॊ दॆतॆ हैं॥37॥

कॆन्द्रादिगा ग्रहाः सर्वॆ ददत्यॆवापहृत्य च । . अर्धयश च पदं च हरणाभाव सम्मतौ ॥38॥

सभी ग्रह कॆन्द्रादि स्थानॊं मॆं अर्थात कॆन्द्र, पणफर, आयॊक्लिम मॆं क्रम सॆ आधा, तृतीयांश और  चतुर्थांश तुल्य आयु का ह्रास करतॆ हैं॥38॥

अंतर्दशा कॆ नियम... सर्वद्वित्रित्रिवॆदाश्च त्रिषट्सप्ताष्टपाणयः ॥

स्वर्सहॊरादृकाणॆशास्त्रिशाशॆशाद्रि भागपाः ॥39॥

यदि अंतर्दशॆश अपनी राशि मॆं हॊ तॊ सम्पूर्ण आयु का भॊग करता है। यदि वही हॊरॆश हॊ तॊ आयुष्य कॊ आधा, द्रॆष्काणपति सॆ तॊ तृतीयांश त्रिशांश पति हॊ तॊ तृतीयांश सप्तमांश पति हॊ तॊ॥39॥

चतुर्थाश, नवांशपति हॊ तॊ तृतीयांश, द्वादशांश का अधिपति हॊ तॊ घण्ठांश, कालहॊ रॆश हॊ तॊ सप्तांश, षष्ठ्यंश का स्वामी हॊ तॊ अष्टमांश और  षॊडशांश का स्वामी हॊ तॊ द्वितीयांश भॊग करता है। इस प्रकार सॆ सभी अंतर्दशा कॆ स्वामी भॊग करतॆ हैं॥40॥

अहात्मादात्ततस्तस्मात्स्थितानां द्वादशस्वपि । भावानां चकमातॊक्ता मांशश्च स्क्यंभुवा ॥41॥


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अथ द्वादशॊऽध्यायः ।

882 ग्रहॊं सॆ भावॊं कॆ बारहॊं स्थानॊं कॆ भागांश कॊ ब्रह्माज़ी नॆ कहा है॥41॥

सर्वद्विवॆदसप्ताष्टत्रिरत्न दिशाद्रयः ॥ . वॆदांगा हारका ऎव ग्रहाणां समुदीरिताः ॥42॥।

वह इस प्रकार है- तनु आदि भावॊं का क्रम सॆ सम्पूर्ण, आधा, चतुर्थाश, सप्तांश, अष्टमांश, षष्ठांश, तृतीयांश, नवांश, दॆशांश, चतुर्थांश और  बारहवॆं भाव का षष्टांश यह ग्रहॊं कॆ हारक भाग कहॆ गयॆ हैं॥42॥।

हत्वा दायं वलैः स्वैस्तु वलं यॊगॆनभाजयॆत ।

आयव्ययॆ तु भावानां ग्रहाणां वियदादिषु ॥43॥

लाभ और  व्यय भाय मॆं हरण करनॆ सॆ जॊ शॆष आय हॊ उसॆ अपनॆ अपनॆ वल सॆ गुणा कर सर्ववल यॊग सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ प्राप्त हॊ वह लाभ और  व्यय

की अन्तर्दशा का स्वरूप हॊता है॥43॥

सर्वद्धित्रीषुवॆदत्रिपंच सप्त ततः क्रमात ॥ स्थानांतरॆ तु भागांशाः सर्वभावॆषु कीर्तिताः ॥44॥

और  तीसरॆ भाव सॆ दशम भाव पर्यन्त भावॊं कॆ क्रम सॆ संपूर्ण, आधा, तृतीयांश, पंचमांश, चतुर्थांश, तृतीयांश, पंचमांश, सप्तमांश और  शॆष दॊ भावॊं (प्रथम द्वितीय) मॆं क्रम सॆ सम्पूर्ण और  आधा भागांश हॊता है॥44॥।

सर्वत्रिसप्तरामॆषुषट न्याग्निद्वियमाः क्रमात । कालांश अर्ध हॊरांशः पत्तयॊऽर्थहरा यथा ॥45॥

सर्व, तृतीयांश, सप्तांश, तृतीयांश, पंचमांश, षष्ठांश, तृतीयांश, द्वितीयांश, द्वितीयांश यॆ कलांश और  अर्धहॊरांश पति हॊतॆ है॥45॥ . इति पाराशरहॊरायामुत्तरार्धॆ ऎकादशॊऽध्यायः॥11॥

अथ द्वादशॊऽध्यायः ॥12॥

पिंडायुषिभॆदानिग्रहॆषु सर्वॆषु वलॊत्तरॆषु स्वॊच्चांशगॆषुप्रवलस्यवर्गॆ ॥ दिग्वीर्य चॆष्टाबलपूर्तियुक्तॆ पैण्ड्यॆषु नीचार्धकृतापहाराः॥1॥

पूर्व मॆं कहॆ हुयॆ पिंडायु कॆ 12 भॆद (10 अध्याय 1 श्लॊ.) मॆं नीचार्धादि अपहार सॆ॥1॥


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87. :

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । अष्टत्रिशाद्धिदा संति ताः स्वॊच्चादिसुसंस्कृताः ।

लग्नादिभावगानां च ग्रहाणां स्थितिभॆदतः ॥2॥ .. 38 भॆद हॊतॆ हैं किन्तु सभी ग्रह बंली हॊं और  स्वॊच्चांश दिग्वीर्य चॆष्टा बल । आदि सॆ युक्त हॊं और  संस्कृत हॊं तॊ 38 भॆद हॊता है, यदि अपनॆ उच्चादि सॆ संस्कृत हॊं तॊ 76 भॆद हॊता है। लग्नादि द्वादश भाव मॆं ग्रहॊं कॆ स्थिति भॆद सॆ॥2॥ . द्विघाश्चतुरशीतिश्च भिदाः संति द्विजॊत्तम ।

स्वॊच्चादिस्थिति भॆदॆन भिन्नाः सूर्यॆषुभूमयः ॥3॥

84 भॆद हॊतॆ हैं। हॆ द्विज! स्व‌उच्चादि स्थिति भॆद सॆ 1512 भॆद हॊतॆ । हैं॥3॥

.. . आयुषः ग्रहणॆ नियमःसलग्नानां वलैः सवैर्राधिकानां ’ क्रमादिद्वज । अंशॊद्भवस्तथा पैड्यॊ निसर्गॊं त्थाभिधः परः ॥4॥

हॆ मैत्रॆय! लग्न बली हॊ तॊ अंशायुदार्य लॆना चाहियॆ, सूर्य बली हॊं तॊ पिंडायु, चन्द्रमा बली हॊं तॊ निसर्गायु॥4॥

शंतस्वरांशॊं भौमाच्च नक्षत्रांशक संज्ञकौ । स्वरांशचॆतरॊदायः करदायस्तथॆतरः ॥5॥

भौम बली हॊं तॊ शतस्वरांशायुर्दाय, बुध बली हॊ तॊ नक्षत्रायुर्दाय, गुरु बली । हॊं तॊ नवांशायुर्दाय, शुक्र बली हॊं तॊ स्वरांशयुर्दाय और  शनि बलवान हॊं तॊ :

करदाय लॆना चाहियॆ॥5॥

विशॆषः।

. विशॆषः- स्वॊच्चनीचसुहृच्छत्रुवर्गगैश्च चतुर्विधः । अतिनीचातिशत्रॊश्च भागराशिगतस्य च ॥6॥ स्वॊच्चवर्ग मॆं पिंडायु, स्वनीचवर्ग मॆं निसर्गायु, त्रिवर्ग मॆं हॊ तॊ स्वरांशायु, शत्रुवर्ग मॆं नक्षत्रायु, अति नीच नवांश मॆं हॊ तॊ समुदायष्टक वर्गायु, अति शत्रु : नवांश राशि मॆं भिन्नाष्टक वर्गायु लॆना चाहियॆ॥6॥

: समुदायाष्टंवर्गश्च भिन्नाष्टक उदीरितः । ।... (तत्र मूलत्रिकॊणॆ च भिन्नवर्गॆ च वृद्धिकृत ॥7॥

-


अथ द्वादशॊऽध्यायः ।

87 यदि ग्रह मूलत्रिकॊणादि त्रिवर्ग मॆं हॊ तॊ पूर्वॊक्त रीति सॆ वृद्धि करना नीच शत्रुवर्ग मॆं हॊ तॊ हानि करना चाहियॆ। सम-शत्रुवर्ग मॆं स्थित ग्रह कॆ आयुष्य मॆं हानि वृद्धि नहीं करना चाहियॆ॥7॥।

तथा समारिवर्गॆ च न वृद्धिहरणॆ तथा ॥ सूर्यॊदयः क्रमाल्लग्नगताश्चॆद्वलवत्तराः ॥8॥

यदि सूर्यादिग्रह अत्यंत बलवान हॊकर लग्न मॆं बैठॆ हॊं तॊ क्रम सॆ पिंडायु, धुवायु, समुदायाष्टकवर्गायु, भिन्नाष्टकवर्गायु, प्रक्रमाबुगत, अंशकायु और  करायु : लॆना चाहियॆ॥8॥

पैड्यॊध्रुवॊऽष्टवर्गॊत्थः प्रक्रमानुगतॊंऽशकः । करदायः क्रमाल्लग्नॆ रव्यादौ तु स्थितॆ सति ॥9॥

यदि सूर्यादि अपनॆ उच्च राशि कॆ लग्न मॆं हॊं तॊ पिंडायु, मूल-त्रिकॊण राशि .. कॆ हॊं तॊ स्वरांशायु, स्वराशि कॆ हॊं तॊ ध्रुवायु अधिभित्र राशि कॆ हॊं तॊ

प्रक्रमायु॥9॥ पैंड्यः स्वरांशॊ ध्रुवदाय ऎव तत्प्रक्रमांशश्च तथांशकॊत्थः। भिज्ञाष्टवर्गः समुदायसंज्ञः करॊत्थ उच्चादिषु यॊजनीयः॥10॥ । मित्रक्षॆत्र कॆ हॊं तॊ अंशायु, शत्रुक्षॆत्र कॆ हॊं तॊ भिन्नाष्टकवर्गायु अतिशत्रुक्षॆत्र कॆ हॊं तॊ समुदायाष्टकवर्गायु, स्वनीच कॆ हॊं तॊ अंशायुर्दाय लॆना चाहियॆ और  समराशि कॆ हॊं तॊ अभाव समझना चाहियॆ॥10॥

भावानुसारॆणायुविचारःध्रुवः सुखस्थस्यतु सप्तमस्य पैड्यः स्वरांशः खलुकर्मगस्य। द्वितीय संस्थस्य च पैंड्य उक्तस्तृतीयधीधर्मगतस्य चैव॥11॥ । लग्न सॆ चतुर्थभावस्थ ग्रह का धुवायु लॆना, सप्तमस्थ का पैंड्य दशमस्थ और  -

द्वितीयभावस्थ का स्वरांशायु, तृतीय पंचमनवमस्थ का पिंडायु॥11॥ घष्ठव्ययस्थस्य तु भिन्नसंज्ञस्तथॆतरॊ मृत्युगतस्यचैवम । पैंड्यः स्वरांशौ ध्रुव आयु उक्तः पैंड्यॊभवॆदायगतस्यचैव॥12॥

षष्ठस्थ का भिन्नवर्गायु, मृत्युगतस्थ का समुदायाष्टवर्गायु, ऎकादशस्थ का पिंडायु, स्वरांश-धुवायु मॆं सॆ किसी ऎक कॊ लॆना और  लग्नस्थ का पिंडायु लॆना

चाहियॆ॥12॥


 694

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

मिश्रायुर्दायक्रमःलाभॆ रवींद्वॊरबुधॆज्यशुक्रमंदाः स्थिताः प्रक्रमदाय ऎव । लग्नार्यभौमज्ञरवीन्दुमन्द शुक्रास्तृतीयॆ सुतभॆ च धर्मॆ ॥13॥ स्वॆ शुक्रमंदार्यवुधार्कभौमचन्द्राः सुखॆऽस्तॆनिधनॆऽपिचैव । वुधाक्रमात व्युत्क्रमतश्च चन्द्राद्धौमार्कमंदार्यसितज्ञचन्द्राः ॥14॥

ऎकादश भाव मॆं सूर्य, चन्द्र, भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि यॆ मिश्रायु दॆनॆवालॆ हॊतॆ हैं। लग्न, तृतीय, पंचम और  नवम भाव मॆं क्रम सॆ गुरु, भौम, बुध, सूर्य, चन्द्र, शनि, शुक्र आयु दायक, दूसरॆ घर मॆं शुक्र, शनि, गुरु, बुध, सूर्य, भौम, चंद्र आयुदायक चौथॆ भाव मॆं बुध, सूर्य, भौम, चंद्र, शुक्र, शनि, गुरु आयुर्दायक, सप्तम मॆं चंद्र, भौम, सूर्य, बुध, गुरु, शनि, शुक्र. आयु र्दायक, आठवॆं भाव मॆं

भौम, सूर्य, शनि, गुरु, शुक्र, बुध, चंद्र आयु र्दायक॥14॥

 षष्ठॆ व्ययॆ कर्मणि लाभगा वॊ रवान्दुशुक्रार्किकुजार्यंसौम्याः।

सौम्याकुजाद्धार्गवतः क्रमास्युर्मिश्रॆतु दायॆ क्रमशः प्रदिष्टम॥15॥। । पृष्ठ भाव मॆं सूर्य, चंद्र, शुक्र, शनि, भौम, गुरु, बुध आयु र्दायक। 12 वॆं भाव मॆं बुध, सूर्य, चंद्र, शुक्र, शनि, भौम, गुरु आयुर्दायक, 10 वॆं भाव मॆं भौम, बुध, गुरु, बुध, सूर्य, चंद्र, शुक्र, शनि आयुर्दायक, 11 वॆं भाव मॆं शुक्र, शनि, भौम, गुरु, बुध, सूर्य, चंद्र आयुर्दायक हॊतॆ हैं॥15॥। ::

आयुर्दायस्यसंख्यानक्षत्रदायॊंऽशकपिंडदायॊ भिन्नाष्टवर्गः समुदाय संज्ञः ॥ स्वरांशदायौ क्रमशः प्रदिष्टौ विशॆषतस्तत्रवदामि सम्यक ॥16॥

नक्षत्रायु, अंशायु, पिंडायु, भिन्नाष्टकवर्गायु, समुदायाष्टकवर्गायु, शतस्वरांशायु, स्वरांशायु और  नवमांशाय यॆ आयुर्दाय कॆ प्रकार हैं। इनमॆं किस आयु कॆ कितनॆ भॆद हैं उसकॊ विशॆष रुप सॆ कह रहा हूँ॥16॥

,, अमिश्रायुषॊभॆदः

अष्टॆ त्रिंशदमिश्रॆतु अंकसूर्यकलांशकैः । मूक्षिणी भिदाः संति रश्मिजास्त्रिंशदॆवहि ॥17॥ - अमिश्रायु कॆ 38 भॆद हॊतॆ हैं उसमॆं भी नवमांश, द्वादशांश और  षॊडशांश कॆ भॆद सॆ 221 भॆद हॊतॆ हैं उसमॆं भी नवमांश, द्वादशांश और  षॊडशांश कॆ भॆद

 सॆ 221 भॆद हॊतॆ हैं। रश्मिजायु कॆ 30 भॆद हॊतॆ हैं॥17॥


। अथ वादशॊऽध्यायः । ऎकस्य विषयॆ द्वौ चॆदाययॊगदलं भवॆत । त्र्यादयश्वॆद्युताख्यादिसंख्याप्ताश्च दशा भवॆत ॥18॥

ऎक ही भाव मॆं दॊ आयुष्य दॆनॆवालॆ ग्रह हॊं तॊ दॊनॊं की आयु कॆ यॊग का

 आधा ग्रहण करना चाहियॆ और  तीन आदि हॊं तॊ सभी की आयु कॆ यॊग कॊ ग्रह संख्या सॆ भाग दॆकर आयु लॆना चाहियॆ और  वही दशा का मान हॊता है॥18॥

पिंडायुषः भॆदःरवावुच्चगतॆ चान्यॆ बलिष्ठा मूलकॊणगाः ॥ स्वॊच्चस्थॆषु बलिष्ठॆषु सर्वॆषु शशहंसकॆ ॥19॥

यदि सूर्य अपनी उच्चराशि मॆं हॊ शॆष ग्रह बलवान हॊं वा अपनॆ-अपनॆ मूलत्रिकॊण मॆं हॊं वा सभी ग्रह बलवान हॊं अपनी उच्चराशि मॆं हॊं, शशयॊग, “हसयॊग॥19॥।

ऎवं चिरायुषां यॊगॆष्वन्यॆषु गणितॆषु च । . । चन्द्रयॊगॆषु त्रिषु च चन्द्रॆतु बलवत्तरॆ ॥20॥

- और  दीर्घायु यॊग अन्य दीर्घायु यॊगकारक यॊगॊं मॆं सुनफा अनफा दुरुधरा यॊग जॊ चन्द्रमा सॆ हॊतॆ हैं॥20॥

राजयॊगॆषु सर्वॆषु पैंड्यमाह— पराशरः । और  चन्द्रमा बलवान हॊ तॊ पिण्डायु लॆना ऐसा पाराशर का मत है।

। प्रकारांतरॆणलग्नॆ गुरौ कर्मगतॆ च भानौ चन्द्रॆ सुखॆ वास्तगतॆवलिष्ठॆ । पूणॆं त्रिकॊणॊपचयॆ शुभॆषु पापॆष्वथात्रॊक्तमसंस्थितॆषु ॥21॥ । गुरु लग्न मॆं हॊ 10 वॆं भाव मॆं सूर्य हॊ, पूर्ण चन्द्रमा 4 भाव मॆं वा 7 वॆं भाव मॆं हॊ और  बलवान हॊ, शुभग्रह 5।9।3।6।10।11 भाव मॆं और  पापग्रह . 1।2।12।8 भावॊं मॆं हॊं॥21॥ . ..।

शुभाश्च कॆन्द्र त्रिषडायभॆऽन्यॆ विपर्यंयॆपैडचमत:प्रदिष्टम ॥ रिफाष्टषष्ठॆषु सहस्ररश्मौ भौमॆ क्रमाच्छीतकरॆतुपैंण्ड्यः ॥22॥

अथवा शुभग्रह कॆन्द्र और  3।6।10।11 भावॊं मॆं और  पापग्रह इससॆ भिन्न

 स्थान मॆं हॊं तॊ पिंडायु लॆना चाहियॆ अथवा 12।8।6 भाव मॆं क्रम सॆ सूर्य, भौम

और  चन्द्रमा हॊं तॊ पिंडायु लॆना चाहियॆ॥22॥

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’.


 696 , वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥

पापा लग्नॆ चाष्टमॆ सप्तमॆ वा सौम्याः षष्ठॆ कर्मभॆरिफभॆवा॥ नीचाभावॆ पैंड्यदाय:प्रदिष्टॊ मंदॆ लग्नॆ स्वॊच्चगॆच ध्रुवाख्यः॥23॥ । अथवा पापग्रह 1।8।7 भाव मॆं और  शुभग्रह 6।10।12 भाव मॆं अपनी नींच राशि कॊ छॊडकर हॊं तॊ पिंडायु लॆना चाहियॆ। यदि शनि अपनी उच्चराशि का (तुलाराशि) हॊकर लग्न मॆं हॊ तॊ धुवायु लॆना चाहियॆ॥23॥

विशॆषःवीणायां कार्मुकै चक्रॆ गदायामर्धचन्द्रकॆ। । रवौ पैंड्यॊंऽशकॊ लग्नॆ ध्रुवश्चन्द्रॆ च भूमिजॆ ॥24॥ । वीणा, कार्मुक, चक्र, गदा, अर्धचन्द्र यॊगॊं मॆं कॊ‌ई यॊग हॊ और  सूर्य बलवान हॊं तॊ पिंडायु लॆना चाहियॆ। लग्न बली हॊ तॊ अंशायु, चन्द्र बली हॊ तॊ ध्रुवायु॥24॥। । भिन्नाष्टवर्गः सौम्यॆ तु नक्षत्रांशसमुद्भवः ॥

गुरौ नक्षत्रदायः स्यात्प्रक्रमानुगतः सितॆ ॥25॥।

भौम बली हॊ तॊ भिन्नाष्टकवर्गायु, बुधबली हॊ तॊ नक्षत्रायु, गुरु बली हॊ तॊ नक्षत्रायु, शुक्र बली हॊ तॊ प्रक्रमानुगतायु लॆना चाहियॆ॥25॥

समुदायाप्ट वर्गस्तु मंदॆ तु. बलवत्तरॆ । -:: वाप्यां पाशॆ शरॆ पट्टॆ समुद्रार्किषु क्रमात ॥26॥

शनि बली हॊ तॊ समुदायाष्टकवर्गायु लॆना चाहियॆ। वापी पाश, शर, पद्म, समुद्र इनमॆं कॊ‌ई यॊग हॊ तॊ सूर्यादि ग्रहॊं मॆं जॊ बलवान हॊ॥26॥।

वलिष्ठॆषु नवांशॊत्यॊ ध्रुवः पैड्यः स्वरांशकः ॥ : भिन्नाष्टवर्गॊं संशॊत्थॊं नक्षत्रांशक ईरितः ॥ 27॥ । उसकी क्रम सॆ नवांशायु, ध्रुवायु, पैंड्यायु, स्वरांशकायु, भिन्नाष्टकायु, अंशायु और  नक्षत्रांशायु कॊ लॆना॥27॥।

रज्जौ विहंगॆ मालायां नलॆ च मुसलॆ क्रमात ।

पैडंचॊ ध्रुवः क्रमाप्रॊक्तॊ रव्यादौ बलवत्तरॆ ॥28॥ ।: रज्जुयॊग हॊ तॊ पिंडायु, विहंग यॊग हॊ तॊ धुवायु, मालायॊग हॊ तॊ पिंडायु, जल यॊग हॊ तॊ धुवायु और  मुशल यॊग हॊ तॊ पिंडायु लॆना चाहियॆ॥28॥

प्रकारान्तरॆणगंडै शक्तौ च शकटॆ यूपॆ कॆदारशूलयॊः । । प्रक्रमानुगतश्नाथः रश्मिजौ ध्रुवसंज्ञितौ ॥29॥

..

ऎळ



अथ द्वादशॊऽध्यायः ॥

ऎश्ळॊ । गंड यॊग हॊ तॊ प्रक्रमायु, शक्तियॊग हॊ तॊ रश्मिजायु, शकट यॊग हॊ तॊ ध्रुवायु, यूप यॊग हॊ तॊ अंशायु, कॆदार यॊग हॊ तॊ भिन्नाष्टकवर्गायु॥29॥।

अष्टवर्गसमुद्भूतौ क्रमादॆवं वलॊत्तरॆ ॥ नौछत्रवज्रदामाख्यॆ स्वरदायॊऽतिनीचगॆ ॥30॥

शूल यॊग हॊ तॊ समुदायाष्टकवर्गायु सूर्यादि कॆ बली हॊनॆ सॆ लॆना। सूर्यादि अत्यंत नीच मॆं हॊ और  नौका यॊग छत्र, वज्र, दाम यॊग हॊ तॊ स्वरांशायु लॆना चाहियॆ॥30॥

। यॊगान्तरम - कूटॆ गंडा शरॆ नांगॆ गॊलॆ शृंगाटकॆ पुनः ॥ कालकूटॆ क्रमात्प्रॊक्ता पुँडाद्याः स्तवै द्विज ॥ 31॥

हॆ मैत्रॆय! कूट, गंड, शर, नाग, गॊल, श्रृंगाटक और  कालकूट यॊग हॊ तॊ क्रम सॆ पिंडादि सात हॊ आयु कॊ लॆना॥31॥

पैंड्यास्त्रयॊ ध्रुवाश्चांशदायाश्चाष्टकवर्गकॊ । द्रॆष्काणॆषु नवांशॆषु द्वादशांशॆषु च क्रमात ॥ 32॥ कलांशॆषु नव प्रॊक्ता दायाश्चैव पुनः पुनः ॥

लग्न मॆं प्रथम द्रॆष्काण हॊ तॊ पैंडव, दूसरा हॊ तॊ धुवायु और  तीसरा हॊ तॊ स्वरांश आयु लॆना, नवांश मॆं ध्रुवादि नव आयु लॆना। द्वादशांश मॆं अंशायु आदि लॆना। कलांश (उच्चादि नव स्थानॊं मॆं) भिन्नाष्टकवर्गायु आदि आयु लॆना॥32॥

रश्मिवशॆनायु ग्रहणॆनियमःत्रिंशत्खवॆदा स्वरपाचकाश्च सुराश्चदंताः क्षितिपावकाश्च॥33॥

यदि जन्म समय 30।34।37।33।32।31 ॥33॥ घत्रिंशदिष्वग्नय ऎव भानि छंदासि मूछश्च जिनाः कराश्चॆत। पैंड्यस्तथा द्वादशधा प्रभिन्न: क्रमॆणदायॊ नियतः प्रदिष्टः॥ 34॥

36।35।27।26।21।24 इनमॆं सॆ किसी संख्या कॆ तुल्य रश्मि संख्या हॊ तॊ पिंडायु दय लॆना चाहियॆ॥34॥ तत्वाग्नि नंदाग्नय ऎव रत्नदस्रास्त्रिदस्रा ध्रुवदाय भॆदाः ॥ ऎकास्त्रयश्चॆत्समुदाय संज्ञस्ततस्तु वॆदा इतरॊऽष्टवर्गः । 35॥


-.

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। 698

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ . यदि रश्मि संख्या 25॥39॥29॥33 हॊ तॊ धुवायुष्य लॆना चाहियॆ। यदि

रश्मि संख्या 1।2।3 मॆं कॊ‌ई हॊ तॊ समुदायाष्टकवर्गायु लॆना चाहियॆ। यदि 4 . रश्मि हॊ तॊ भिन्नाष्टकवर्गायु लॆना चाहियॆ॥35॥

पंचादिकॆष्वंशकदाय उकॊ रूद्राश्च सूर्या यदि पैंड्य आद्यः । विश्वॆ मनुश्चॆत्स्वरभागदायॊ नक्षत्रदायास्थितिसंज्ञकशॆत ॥36॥

। यदि 5।6।7।8।9।10 रश्मि मॆं कॊ‌ई हॊ तॊ अंशायु लॆना चाहियॆ। यदि । 11 या 12 रश्मि हॊ तॊ प्रथमं पिंडायु लॆना चाहियॆ। यदि 13 या 14 रश्मि हॊ तॊ स्वरांशायु लॆना चाहियॆ। 15 रश्मि हॊ तॊ नक्षत्रायु लॆना चाहियॆ॥36 ॥

नृपॆऽत्यष्टिचयॆ प्रॊक्ता आद्यपैड्यभि धास्तथा ॥

प्रक्रमानुगतॊ विंशत्यष्टत्रिंशॆऽष्टवर्गंजः ॥ 37॥ * यदि 16॥17॥18॥19 रश्मि हॊ तॊ प्रथम पिंडायु लॆना चाहियॆ। 20 रश्मि हॊ तॊ प्रक्रमायु लॆना चाहियॆ। 38 हॊ तॊ अष्टवर्गायु लॆना चाहियॆ॥37॥

चत्वारिंशत्रयॆ ड्यॊ नक्षत्रांशस्त्रयॆ ततः । । शॆषॆषु षट्सु मैंड्यः स्यादाद्यॊ गर्यॊऽयमाह— च ॥ 38॥।

40/4042 रश्मि हॊ तॊ पिंडायु लॆना चाहियॆ। 43।44।45 रश्मि हॊ

 तॊ नक्षत्रायु लॆना चाहियॆ। 22।28।16।47/48।49 रश्मि हॊ तॊ पिंडायु लॆना । चाहियॆ॥38॥

इष्टरश्म्यधिकप्रॊक्तक्रम ऎव कराधिकॆ । कॆन्द्रादिषु ग्रहाणां च वलॊत्तरवशात्क्रमः ॥ 39॥ यह रश्मिनायु गर्ग नॆ मुझसॆ कहा था॥39॥ ।

पूर्वॊक्तायुषःपुष्टिमाह—बलॊत्तरवशादॆव स्थानॊतरवशात्तथा । ॥ इष्टत्फलक्रमादॆव रश्म्युक्त विधिनाक्रमात ॥40॥

. इस आयुर्दाय कॆ भॆद कॊ मित्रादि स्थान कॆ वल कॆ तारतम्य सॆ इष्ट कष्ट कॆ

बल यॊग सॆ रश्मि कॆ निमित्त सॆ मैंनॆ कहा है॥40॥

कल्पादौ भगवान्गर्गः प्रादुर्भूतॊ महामुनिः ।

ऋषिभ्यॊ जातकं सर्वंमुवाच कलिमाश्चितः ॥41॥ । कल्पादि मॆं गर्ग मुनि अपनॆ शिष्यॊं कॊ कहॆ थॆ और  कलि कॆ आदि मॆं पुनः

प्रकट हॊकर अपनॆ शिष्यॊं कॊ कहॆंगॆ॥41॥

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212

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888

अथ त्रयॊदशॊऽध्यायः ॥ अस्मिन्नुत्तरभागॆ च मयानुक्तं च यद्भवॆत । तत्सर्वं गर्गहॊरायां मैत्रॆयत्वं विलॊक्त्य ॥42॥

हॆ मैत्रॆय! इस उत्तर भाग मॆं मैंनॆ जॊ नहीं कहा है उसॆ तुम गर्ग जी की कही हु‌ई गर्ग हॊरा मॆं दॆखना॥42॥ इति पाराशरहॊरायामुत्तर भागॆ आयुर्दायाभिधॊद्वादशॊऽध्यायः॥12॥

। अथ त्रयॊदशॊऽध्यायः ॥

भाग्यं कर्म च वक्ष्यामि मैत्रॆय ऋषि सुव्रत । भाग्यादॆव नृणां सिद्धिर्भाग्यादॆव धनायती ॥1॥

हॆ सुव्रत मैत्रॆय! अब मैं इस अध्याय मॆं भाग्य (वैभव) कर्म (शुभ-धर्म-कर्म) कहूँगा तुम सुनॊ। क्यॊंकि भाग्य सॆ ही मनुष्यॊं कॊ सिद्धि (संपुर्ण कार्यॊं की सिद्धि) हॊती है॥1॥

यशांसि भाग्यतॊ भाग्यविपर्यासाद्विपर्ययः ॥ करिष्यमाण कर्माणि ज्ञातव्यानि प्रयत्नतः ॥ 2॥

भाग्य सॆ ही द्रव्य और  प्रभाव का लाभ भाग्य सॆ ही कीर्ति का लाभ हॊता है, भाग्य विपरीत हॊनॆ सॆ उक्त पदार्थॊं का नाश हॊता है। अत: कियॆ हुयॆ कर्म भाग्य सूचक हैं अथवा अभाग्य सूचक हैं इसकॊ प्रयत्न सॆ जानना चाहियॆ॥2॥

। विचारस्यरीतिःलग्नादिन्दॊश्च नवमं भाग्यं बलवशाद्भवॆत ॥ शुभपापारि मित्राख्यैग्रहैरॆवं शुभाशुभैः ॥3॥

लग्न और  चन्द्रमा सॆ 9 स्थान कॊ भाग्य स्थान कहतॆ हैं इन दॊनॊं मॆं जॊ बलवान हॊ उससॆ नवम स्थान लॆना चाहियॆ॥3॥

उच्चादि पंचकाद्वद्धिन्यस्माद्धानिरिष्यतॆ । स्वस्मिन्नन्यत्र विषयॆ स्वदॆशॆतरदॆशयॊः ॥4॥ इस स्थान मॆं अपनॆ उच्चादि पाँच स्थान मॆं (उच्च, त्रिकॊण, स्वर्ट्स, मित्र, अधिमित्र) हॊकर शुभ या पापग्रह बैठॆ हॊं वा दॆखतॆ हॊं तॊ भाग्य की वृद्धि हॊती है। अन्यथा (सम, शत्रु, अधिशत्रु, नीचस्थान मॆं हॊ) तॊ भाग्य की हानि हॊती है। यदि भाग्यॆश अपनॆ वर्ग मॆं हॊ तॊ स्वदॆश मॆं भाग्यॊदय हॊता है अन्य कॆ वर्ग मॆं हॊ तॊ परदॆश मॆं भाग्यॊदय हॊता है॥4॥


1

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥

दशवर्गरीत्याभाग्यॊदयस्यविचारःस्वॆष्वन्यॆषु तु वर्गॆषु ज्यॊतिर्विद्दशसुस्थितैः । । अद्यशॊ राशिलिप्तायाः सप्तांशः संप्रकीर्तितः ॥5॥

हॆ ज्यॊतिर्विद! दशवर्गॊं मॆं यदि भाग्यस्थित ग्रह अपनॆ वर्ग मॆं हॊ तॊ स्वदॆश , मॆं अन्यथा परदॆश मॆं भाग्यॊदय हॊता है। ग्रह की राशि अंश की कला बनाकर उसमॆं सात सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्ध सप्तांश॥5॥

अष्टादशर्धकांशस्तु कलश इति कीर्तितः ।

षट्यंश ऎवं षष्ट्यंश क्रमॆण पतयः स्मृताः ॥6॥ । 18 सॆ भाग दॆकर उसमॆं पुनः 12 का भाग दॆनॆ सॆ लब्ध षॊडशांश हॊता

हैं। 60 सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ लब्ध हॊ उसॆ षष्ट्यंश कहतॆ हैं॥6॥ भाग्यत्रिकॊणौपगतैः शुभं स्याद्भाग्यंतु कॆन्द्रॊपगतैः शुभैश्च॥7॥ । लग्नं और  चन्द्र सॆ जॊ नवम स्थान उससॆ 5।9।1।4।7।10 स्थान मॆं शुभग्रह हॊं तॊ शुभद भाग्य हॊता है॥7॥। पापैस्तथा स्यादशुभंचॆ भाग्य मित्रादिभिः स्यान्नियमॊविशिष्टात॥8॥ । पापग्रह हॊं तॊ अशुभ भाग्य हॊता है। ग्रह मित्रादि गृहॊं मॆं हॊ तॊ अत्युत्तम.

और  नीचादि मॆं हॊ तॊ निकृष्ट फल हॊता है॥8॥

भाग्यॊदयसमयःऎवं भाग्यविर्यासौ भावानां च वदॆत्तथा ।

 भावग्रहांतरकला द्विशत्याप्ताः समादयः ॥9॥ : : भाव और  ग्रह का अंतर करकॆ उसका कला करकॆ उसमॆं 200 का भाग दॆनॆ

सॆ वर्ष मास दिनादि हॊता है॥9॥

द्विस्थापित करन्नाश्च षष्ट्याप्ताः समादयः ।

अथॆष्टादिफलनं च समयॊ भाग्यभावयॊः ॥10॥ . इसॆ दॊ जगह रखकर ऎक जगह दॊ सॆ गुणाकर 60 सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ वर्षादि फल प्राप्त हॊ इसका और  पूर्वस्थापित फल का गुणा करनॆ सॆ जॊ वर्षादि प्राप्त हॊ उसी वर्षादि मॆं भाग्यॊदय का समय समझना चाहियॆ॥10॥। ।

प्रकारांतरॆण- .. ।

प्रकारांतरॆणफलॆन च दशघ्न रश्मिना च हृतास्तथा ।

 भावाष्टवर्गॊत्थ समाह—तं तद्ग्रहांतरॊत्थास्तु समादयः स्युः ॥11॥

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अथ त्रयॊदशॊऽध्यायः ।

108 अथवा ग्रह और  भाव का अंतर करकॆ शॆष कॊ 10 सॆ गुणाकर उसमॆं ग्रह कॆ रश्मि सॆ भाग दॆनॆ सॆ लब्ध वर्षादि मॆं भाग्यॊदय कहना॥11॥ तत्तद्ग्रहॊत्थाब्दहतास्तथा स्युरॆवं तथा भाग्यफलानितंत्र । स्थानानि नववर्गाश्च तॆषां भाग्यफलं शृणु ॥12॥

अथवा अष्टवगत्थ वर्षॊ सॆ भाग्यॊदय कहना। इसी प्रकार सभी भावॊं कॆ फल की प्राप्ति का समय निश्चित करना चाहियॆ और  ग्रहॊं कॆ स्थान और  नव वर्ग हैं उनकॆ संबंध सॆ भाग्य कॊ सुनॊ॥12॥

ग्रहाणांविशॆषफलानिख्यादीनां क्रमाच्छंग चामरादॆश्च विक्रयॆ । कृषिकर्मणि सॆवायां पैशून्यॆ लिपिकर्मणि ॥13॥

यदि सूर्य उच्चादि शुभ वर्ग मॆं हॊ तॊ क्रम सॆ श्रृंग चामरादि राजचिह्न, कृषिकर्म, सॆवा, दुर्जन कर्म, लिपि कर्म॥13॥।

धनार्जनॆ व्ययॆ व्याधौ गमनागमविक्रयॆ । विवादॆ प्रॆतकार्यॆ च मातृणां कलहॆ तथा ॥14॥।

धन संपादन, रॊगनाशक कर्म, द्रव्य व्यवहार, फॆरी करनॆ सॆ, विवाद, भ्रातृकलह ॥14॥

धनार्जनॆ सुतॆ दारग्रहणॆ लिपिकर्मणि । उच्चादिस्थानवर्गॆषु लाभदश्च रविः क्रमात ॥15॥ पुत्र सॆ धनार्जन, विवाह, लॆखन कर्म करनॆ सॆ लाभ हॊता है॥15॥

चंद्रस्यफलम - शंखमाणिक्य मुक्तानां लाभॊ तत्क्रयविक्रयॆ । सुरतॆ । स्त्रीषु मैत्रॆ च राज्ञः पुरुषमित्रता ॥16॥

यदि चन्द्रमा अपनॆ उच्चादि शुभ वर्ग मॆं हॊ तॊ शंख, माणिक्य मुक्ता का लाभ और  इनकॆ खरीदनॆ और  बॆचनॆ सॆ लाभ हॊता है। मैथुन, स्त्री सॆ मैत्री, राजपुरुष सॆ मित्रता॥16॥

धनायतिस्तथा तत्र मैत्रं च कृषिकर्मणि । वस्त्रादि धनसिद्धिश्च ब्राह्मणॆन विरॊधता ॥17॥

धन का लाभ कृषिकर्म, वस्त्रादि कॆ व्यापार सॆ धन की सिद्धि हॊती है। ब्राह्मण सॆ विरॊध॥17॥


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702 , वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । धननाशॊ भवॆद्युद्धॆ पराजय पराभवौ ।

। काक्षांशांश्चार्ध हॊराश फलानि क्रमश:स्थितॆ ॥18॥।

युद्ध मॆं धन की हानि, पराजय और  पराभव हॊता है॥18॥। ... .. भौमस्यफलम -

स्वर्णसिद्धिर्जयॊ वस्त्रलाभॊ मित्रसमागमः । विवादॊ भ्रातृभिः शत्रुकर्म स्त्रीचंचलाक्षकः ॥19॥

यदि मंगल अपनॆ उच्च का हॊ सुवर्ण की सिद्धि, विजय, वस्त्र का लाभ, । मित्र समागम, बंधुविवाद, शत्रुकर्म स्त्री विषय मॆं चंचल नॆत्र॥19॥

स्त्रीलाभॊ दासलाभश्च कृत्स्नॆहा चवलक्षयः । वलैर्धनायतिः स्वॊच्चॆ क्षॆत्राद्यैन्ययॊ भवॆत ॥20॥।

स्त्री लाभ, दास का लाभ, सभी इच्छा‌ऒं की पूर्ति, बल की हानि, बल सॆ धन का लाभ हॊता है॥20॥

मूलत्रिकॊणॆ क्षॆत्रॆण राज्ञॊ वाथ धनायतिः ॥

स्वर्भॆ वस्त्र कांचनादि सिद्धियाथ सुहृत्फलम ॥21॥ मल त्रिकॊण राशि का हॊ तॊ कृषि कर्म या राजा कॆ आश्रय सॆ धन का लाभ हॊता है। स्वराशि का भाग्य भाव मॆं हॊ तॊ वस्त्र सुवर्णादि का लाभ हॊता है, मित्र राशि का हॊ तॊ धान्य लाभ हॊता है॥21॥

धान्यायतिश्च मैत्री च क्रूरकर्म प्रवर्तनम । कुष्ठं चाप्यग्निभीतिश्च गृहदाहॊऽतिशत्रुभॆ ॥22॥

अधिशत्रु की राशि का हॊ तॊ क्रूरकर्म मॆं प्रवृत्ति हॊती है, अग्निभय, कष्ट, सग्रहणी गुल्म आदि रॊग कॆ कारण धन हानि हॊती है॥22॥,

बुधस्यफलम - संग्रहणीगुल्मरॊगश्च धननाशंश्च तत्र तु । विद्यार्जनॆ सुखं स्त्रीभिः कलहश्च धनायतिः ॥23॥

बुध अपनी उच्चराशि का हॊकर भाग्य भाव मॆं हॊ तॊ विद्या-संपादन और  सुख प्राप्ति मॆं लाभ हॊता है। शत्रु राशि का हॊ तॊ स्त्री सॆ कलह, मित्र राशि का हॊ तॊ धन का लाभ॥23॥


ळॆस


अथ त्रयॊदशॊऽध्यायः ।

ऒ क्षॆत्रदासादिलाभं च कृषिकृत्यं धनायतिः ॥ विवादॊ घंथुपियुद्धॆ जयश्च परायजः ॥24॥

क्षॆत्रासादि का लाभ, कृषि मॆं लाभ, नीच राशि का हॊ तॊ वधु-विरॊध, युद्ध मॆं हानि, पराभव॥24॥

विद्याबुद्धिधनक्षॆत्रं यशांसि च फलंति च ॥

राज्ञस्तत्पुरुषॆणैव स्वर्णक्षॆत्रायतिस्तथा ॥25॥ उच्चादि का हॊ तॊ विद्या, बुद्धि, धन, यश, स्वर्ण, भूमि, राजपुरुष सॆ लाम॥25॥।

स्वर्भॆ धनायतिः प्रॊक्ता लिपिना शिल्पकर्मणा । वस्त्रस्वर्णादिसिद्धिश्च राजस्त्रीभिर्धनायतिः ॥26॥

स्वराशि का हॊ तॊ लॆखनक्रिया सॆ, शिल्पकर्म सॆ राजस्वी कॆ द्वारा, वस्त्र स्वर्णादि सॆ धन लाभ॥26॥

कायस्य कर्मणा लाभॊ विद्यानाशः स्वकर्मणा ।

 धननाशॊऽश्मरी कुष्ठ कलाशादि फलंततः ॥27॥

समराशि का हॊ तॊ शरीर कृत्य सॆ लाभ, अधिशत्रु गृह का हॊ तॊ विद्या की हानि, व्यापार मॆं हानि, अदमरी (पथरी) रॊग, कुष्ठ रॊग हॊ॥27॥

विवादाद्वधुभिर्दायॊ दॆशपर्यटनाद्धनम । क्षॆत्रसिद्धिर्जयॊ विद्यालाभॊथान्यविवर्धनम ॥28॥

अपनॆ षॊडशांश मॆं हॊ तॊ बंधुविवाद सॆ धन लाभ और  दॆशांतर सॆ धन लाभ, क्षॆत्रसिद्धि, जय, विद्यालाभ, धान्यवृद्धि॥28॥।

कृषिकर्मसमुद्यॊगः सॆवाकरणकौशलम । कृषिकर्म, नौकरी मॆं तरक्की, विद्या संपादन मॆं कुशलता हॊ॥ .

- गुरॊःफलम - विद्यार्जनमथप्रॊक्तं गुरॊः श्रीमान सुखी गुणी ॥29॥ गुरु भाग्य भाव मॆं हॊ तॊ लक्ष्मी सॆ युक्त, सुखी, गुणी॥29॥ . वह्लायतिरमात्यत्वं सर्वसम्पत्समन्वितः ।

धननाशः प्रमॊहॆण क्षॆत्रनाशः पराभवः ॥30॥

अधिक लाभ सॆ युक्त, प्रधानत्व, सर्वसंपत्ति सॆ युक्त हॊता है। शत्रु राशि का हॊ तं द्रव्यनाश, क्षॆत्रनाश, पराजय हॊती हैं॥30॥


...

ळ्ळ

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । विद्यार्जनं तथा सॆवाकरणं संपदस्तथा ।

पुत्रैर्धनायतिर्मित्रैः स्त्रीभिश्च कृतकमणा ॥31॥ । मित्रराशि का हॊ तॊ विद्या संपादन सॆवा करना हॊता है। अधिमित्र गृह का " हॊ तॊ ऐश्वर्य प्राप्ति, पुत्र मित्रादि सॆ धन लाभ, स्त्री द्वारा द्रव्य लाभ॥31॥

। विवाहॊ धनलाभश्च क्रमादॆवं फलं वदॆत । .. विवाह आदि सॆ धन का लाभ हॊता है॥

..भृगॊ:फलम - राज्ञां : कृत्यकरः श्रीमान्युत्रबंधुसमन्वितः ॥ 32॥।

यदि शुक्र अपनॆ उच्चादि वर्ग का हॊकर भाग्य भाव मॆं हॊ तॊ राजकर्मचारी, धनी, पुत्र तथा भा‌इयॊं सॆ सुखी॥32॥।

सॆनानाथस्तथामात्यॊ विद्यार्जन परॊधनी । पाठकॊ याजकश्नाथ, बहुस्त्रीकॊऽतिशत्रुभॆ ॥33॥।

सॆनापति, प्रधान, विद्या संपादन मॆं कुशल, धनी, अध्यापक, ऋत्विक, अनॆक स्त्री सॆ युक्त हॊता है॥33॥

स्त्रीशक्तॊ निर्धनॊमूर्खः पातकी भारकॊभवॆत । सॆनाधिकारी राज्ञश्च प्रियैर्वन्धुभिरायतिः ॥ 34॥।

अधिशत्रु कॆ गृह मॆं हॊ तॊ स्त्री लालची, दरिद्र, बुद्धिहीन, पातकी, भारवाहक हॊता है। स्वगृह का हॊ तॊ सॆनाधिकारी, प्रियबांधवॊं सॆ इष्ट प्राप्ति॥34॥

सॆवावृत्या च कृष्या च विद्यायाः पूर्तकंर्मणा । । सर्वसंपद्युतः श्रीमान शुक्रस्यैव ‘फलं लभॆत ॥ 35॥

दूसरॆ की सॆवा सॆ, कृषि कर्म, विद्या सॆ, इष्टपूर्तयज्ञ सॆ वापी, कूप तालाब : आदि कार्य सॆ सर्वसम्पत्तिमान हॊ॥35॥।

/ ., शनॆ:फलम - कुच्चादिफल चार्कॆ: कलशादि फलं भवॆत ।

कलांशादिषु यत्प्रॊक्तं कलांशादि फलंत्विदम ॥ 36 ॥ ’ : उच्चादिषु तथा प्रॊक्तं फलमॆवं विचिंतयॆत ।


अथ त्रयॊदशॊऽध्यायः । मंगल कॆ उच्चादि का जॊ फल कहा है वहीं शनि कॆ कालांशादि (षॊडशांशादि) फल है। मंगल कॆ षॊडशांशादि जॊ फल कहा है वहीं शनि कॆ षॊडशांशादि का फल हॊता है॥36 ॥।

स्वभाग्यगतानृक्षान्यूनाश्चाप्यधिकांस्ततः ॥37॥ स्वरश्मिघ्नान ग्रहॆ युक्तॆ तद्रश्मिघ्नांस्तथॊत्तरम । त्रिभिर्विभज्य नि:शॆषॆ स्वॊजराशौ नवांशकॆ ॥38॥

भाग्यभाव कॊ उसकी रश्मि सॆ गुणाकर भाग्यभाव मॆं जॊ ग्रह हॊ उसकी रश्मि सॆ भी गुणाकर गुणनफल मॆं 3 का भाग दॆनॆ सॆ यदि शून्य शॆष बचॆ और  भाग्यभाव मॆं विषम राशि नवांश हॊ तॊ॥38॥

आदिमध्यावसानॆ स्याद्युग्मॆ तत्र नवांशकॆ। आदौ मध्यॆऽवसानॆ स्याद्युग्मॆ चौजॆ नवांशकॆ ॥39॥

आदि मध्य अंत मॆं युग्म राशि और  विषम नवांश हॊ तॊ आदि मध्य अंत्य मॆं॥39 ॥

मध्यॆऽवसानॆ चाद्यॆ न युग्मॆ मध्यांतिमादिमॆ ॥

आदौ मध्यॆऽवसानॆ स्यादॆवं चॆद्भाग्यलक्षणम ॥40॥ तथा युग्म राशि और  युग्म नवांश हॊ तॊ मध्य अंत आदि कॆ स्थान मॆं आदि, मध्य अंत मॆं भाग्य का फल हॊता है॥40॥।

ऒजराशौ नवांशॆ चॆद्युग्मॆ मध्यांतिमादिमॆ ॥ युग्मॆराशौ नवांशॆ चॆदॊजॆ मध्यॆऽतिमॆऽपिच ॥41॥

यदि विषम राशि और  समनवांश हॊ तॊ मध्य, अंतिम और  आदि मॆं और  समराशि विषम नवांश हॊ तॊ अंतिम और  प्रथम मॆं और  सम राशि सम नवांश हॊ तॊ मध्य, अंतिम और  आदि मॆं॥41 ॥।

प्रथमॆऽपि वयस्यॆवं युग्मॆ मध्यॆऽन्तिमादिमॆ । । शॆषं द्वयं चॆदॆकं स्यात्कालॊ व्यत्यासतॊ भवॆत ॥42॥ यदि 1 या 2 शॆष बचॆ तॊ विपरीत समय मॆं फल हॊता है॥42॥

फलाभ्यां चाहतॆ तद्वच्चराद्यंशॆ चरॆ च भॆ ।

आदौमध्यॆवसानॆ स्यात्स्थिरॆऽन्तॆ मध्यमादिमॆ ॥43॥

यदि भाग्यगत चरलग्न हॊ तॊ भाग्यभाव कॆ कला कॊ ग्रह कॆ कला मॆं जॊडकर गुणाकर पूवक्तवत भाग दॆनॆ सॆ चर स्थिर द्विस्वभाव प्राप्त हॊनॆ सॆ क्रम सॆ आदि मध्य अंत मॆं, स्थिर मॆं अंत्य, मध्य आदि मॆं॥43॥


घॊग

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ भयॆ मध्यमॆऽन्तॆ च आदावॆवं प्रकीर्तिताः । तथा द्विस्वभाव राशि हॊ तॊ मध्य, अंत और  आदि मॆं भाग्य का फल हॊता ... ..भावानांविशॆषविचारः

भावानां चैव सर्वॆषां चन्द्रलग्नात्तु लग्नतः ॥44॥ सभी भावॊं का विचार चन्द्रलग्न सॆ और  जन्मलग्न सॆ करना चाहियॆ॥44॥ अंशदायॊक्तवत्कृत्वा शुभपापदृगाहतम । घष्ठयाप्त तद्वलाप्त’ स्याद भावादीनां च संख्यका ॥45॥।

पहलॆ अंशायुर्दाय कॆ अनुसार गणित करकॆ जॊ फल आवॆ उसॆ दॊ जगह रखकर । ऎक जगह शुभ दृष्टि यॊग सॆ और  दूसरॆ स्थान मॆं पापदृष्टि यॊग सॆ गुणाकर दॊनॊं स्थान मॆं 60 सॆ भाग दॆना जॊ फल प्राप्त हॊ वह भाव प्राप्त हॊता है॥45॥

। रश्मिघ्नं च वलाप्त’ च त्वनिष्ठमपवादनम ॥46॥ । फिर उसी अंशायु गणित कॊ रश्मि सॆ गुणाकर इस बल सॆ भाग दॆनॆ सॆ अनिष्ट

और  शुभ फल हॊता है॥46॥

इति पाराशरहॊरायामुत्तरार्धॆ भाग्यफलाध्यायत्रयॊदशः॥13॥

अथ चतुर्दशॊऽध्यायः ।

। मुहूर्तलक्षणम - नाडीद्वयं मुहूर्तः स्याद्विनाडीद्वयमॆव च । रवॆरूदयतॊ ह्यॆषाक्रमात्सर्वजितः स्मृतः ॥1॥

दॊ घटिका का ऎक मुहूर्त हॊता है किन्तु जब दिनमान 30 घटी का हॊता हैं तब अन्यथा 2 घटी सॆ कम या अधिक भी हॊता है। प्रातः काल सूर्य जिस राशि फ्र उदय हॊ वही लग्न हॊता है वहाँ सॆ आरम्भ कर मॆषादि क्रम सॆ लग्न बीतती है। दिन मॆं 15 मुहूर्त और  रात्रि मॆं 15 मुहूर्त हॊतॆ हैं॥ 1 ॥।

आश्लॆषानुराधाश्च मघाश्चार्थ घनिष्ठिकाः । उत्तराषाढसंज्ञश्च सर्वजिद्रॊहिणी तथा ॥2॥

दिन कॆ 15 मुहूर्त क्रम सॆ आर्द्रा, आश्लॆषा, अनुराधा, मघा, धनिष्ठा, उत्तराषाढा, सर्वजित नाम का अभिजित, रॊहिणी॥2॥


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ऒल्ग

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अथ चतुर्दशॊऽध्यायः ।

घॊलॆ विशाखा च ततॊ ज्यॆष्ठा मूलं च शततारकम ।

भरणीपूर्वफाल्गुन्यौ विश्वजिच्च ततॊ भवॆत ॥3॥ विशाखा, ज्यॆष्ठा, मूल, शततारक, भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, विश्वजित । अभिजित यॆ 15 दिन कॆ मुहूर्त हैं॥3॥

उत्तराप्रौष्ठपाच्चैव रॆवती च ततः परम ॥

अभिजिच्चॊत्तरा चाथ कृत्तिका रॊहिणी ततः ॥4॥ उत्तराभाद्रपदा, रॆवती, अभिजित, उत्तरा, कृत्तिका, रॊहिणी॥4॥

मूलं च रॊहिणी चाथ मृगशीर्ष च हस्तकम । पुष्यश्च श्रवणॊ हस्तचित्रॆ स्वाती क्रमात्स्मृता ॥5॥

मूल, रॊहिणी, मृगशीर्ष, हस्त, पुष्य, श्रवण, हस्त, चित्रा, स्वाती यॆ 15 मुहुर्त रात्रि कॆ हैं। इन्हॆं विश्वजित कहतॆ हैं॥5॥

विनाडॆः 32 मुहूर्ताःनाडीद्रयमुहूर्तानां संज्ञा ऎता कमाद्विज । सर्वजिद्भरणीहस्तविश्वजिद्रॊहिणी तथा ॥6॥ भरणी, हस्त, पूर्वाषाढा, रॊहिणी॥6॥। दस्त्रश्च मृगशीर्षश्च शर्वः पुष्यश्च सैंद्रभम । उत्तराविश्वजिच्छॊणी चित्रा पुष्यश्च वायुभम ॥7॥

अश्विनी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुष्य, आर्द्रा, उत्तरा, पूर्वाषाढ, श्रवण, चित्रा, पुष्य, स्वाती॥7॥

अभिजिद्विसुभं पौष्णं कृत्तिका च पुनर्वसुः ॥ पूर्वॊत्तरप्रॊष्ठपदौ शततारा च विश्वभम ॥8॥

अभिजित, धनिष्ठा, रॆवती, कृत्तिका, पुनर्वसु, पूर्वाभाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद, शतभिष, उत्तराषाढ॥8॥

ज्यॆष्ठासूर्यं च मूलं च भाग्यश्च क्रमशः स्मृताः । ।

ज्यॆष्ठा चाथ विशाखा च मूलं च शततारका ॥9॥ । ज्यॆष्ठा, हस्त, मूल, पूर्वाफाल्गुनी, ज्यॆष्ठा, विशाखा, मूल, शतभिष यॆ 32. मुहूर्त विनाडी कॆ हैं। इन्हॆं सर्वजित कहतॆ हैं॥9॥


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भॊल

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । घष्ठियट्यात्मकमुहूर्ता:- मामानि च मुहूर्तानां विनाडीद्वयरूपिणाम ।

आवृत्याषष्ठिताः प्रॊक्ता: कालांशा नाडिरुपिणः ॥10॥

पूर्व मॆं दिन रात्रि कॆ 2 घटी वालॆ मुहूर्त कॊ दूना कर दॆनॆ सॆ ऎक घटी कॆ

 60 मुहूर्त हॊतॆ हैं इसॆ कालांश कहतॆ हैं॥10॥

। कालांशराशिचक्रमुहूर्तनक्षत्रसंज्ञया प्रॊक्ताः षष्ठ्यावृत्याकलांशकाः । मॆषॊयमॊ वृषः कुंभॊ झषॊजूकश्च कर्कटः ॥11॥

पूर्व मॆं कहॆ हुयॆ दिन और  रात्रि कॆ 32 मुहूर्त कॊ दूना कर दॆनॆ सॆ नक्षत्र कालांश मुहूर्च हॊता है। सूय~ऒदय सॆ पाँच-पाँच घटी का मॆषादि राशियॊं का कालांश नॆता हैं। वॆ मॆष, मिथुन, वृष, कुंभ, मीन, तुला, कर्क॥11॥

सिंहॊऽथ वृश्चिकयाथॊ मृगःकन्या क्रमाद्भवॆत ॥

राशि चक्र कलांशॆ तु क्रमादॆवं प्रकीर्तिताः ॥12॥ सिंह, वृश्चिक, धन, मकर, कन्या यॆ राशि कालांशक हैं॥12॥

। नित्यॊदयस्यक्रमःमॆधॊ गॊर्यग कर्की लॆयकन्यातुलालयः ।

धनुर्युगघटॊमीनमुदयाङ्घटिकासु च ॥13॥ । ऊपर कहॆ हुयॆ कालांश कॆ नित्यॊदय का क्रम कह रहॆ हैं। मॆष, वृष, मिथन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धन, मकर, कुम्भ, मीन यॆ राशियाँ उदयकालीन लग्न सॆ क्रम सॆ पट तुल्य अर्थात मीन, मॆष, चार-चार घटी और  वृष कुंभ साढॆ चार घटीं तथा मकर और  मिथुन पाँच-पाँच घटी शॆष राशियाँ साढॆ पाँच 2 घटी मॆं उदय हॊती हैं॥13॥

सिंहान्मॆषाच्च चापाच्च नक्षत्रक्रम ईरितः ॥ चन्द्रज्ञ शुक्रधूमार्कपरिवॆषार्ककार्मुकाः ॥14॥ नक्षत्र लॆनॆ का प्रकार- सिंहादि नक्षत्र सॆ 1, धनुरादि सॆ 2, मॆष राशि सॆ यह तीन प्रकार है! अर्थात जन्मलग्न सिंहादि है तॊ सिंह पर चन्द्रमा, कन्या पर बुध, तुला पर शुक्र, वृश्चिक पर धूम इत्यादि क्रम सॆ कर्क पर कॆतु कॊ लिखना॥14॥

गुरुः पातः शनिः कॆतुर्ग्रहाः खुद्वदिश क्रमात । चक्र लिप्तांशकॆ चैवं कॆत्वादिस्तारकांशकॆ ॥15॥


वॊ‌इ

अथ चतुर्दशॊऽध्यायः ॥ इसी प्रकार धनु सॆ ऎवं मॆष सॆ भी ऐसॆ ही 12 ग्रहॊं कॊ न्यास कर नक्षत्र का ज्ञान करना॥15॥।

। नित्यॊदयघटीप्रमाणम - अर्कादि धूमपर्यन्ताः क्रमात्स्युर्घटकांशकॆ । सत्र्यंशा घटिकास्तिस्रॊ मॆषादि निमिषयॊद्विज ॥16॥ चतस्रः कुंभवृषयॊस्तथा मकर युग्मयॊः । पंच सत्र्यंशास्ताः कर्किधनुषॊः स्मृताः ॥17॥ सिंहवृश्चिकयॊः षट च अंशॊनाः सप्तशॆषयॊः ॥ नित्यं मानमिदं प्रॊक्तं मॆषादुदयराशिजम ॥18॥

हॆ मैत्रॆय मॆषादि राशियॊं कॆ नित्यॊदय घटीमान कहता हूँ। शॆष चक्र सॆ स्पष्ट हैं॥16-18॥

मॆषादि राशीनां उदय घटी मान। । मॆ. बु. मि. क. सिं. कं. तु. बृ. घ. म. कुं. मी. राशि

॥॥॥॥॥॥। चः ।

। प्रकारान्तरॆण राशीनांमानानिख्याक्रान्तात्तथा प्रॊक्ता ऎकद्वित्रिचतुर्घटी । मानानि मॆषतः सिंहाच्चापादर्कॊदयात्ततः ॥19॥

उदय लग्न सॆ मॆष सॆ चार सिंह सॆ चार और  धन सॆ चार लग्नॊं का क्रम सॆ ऎक, दॊ, तीन और  4 घटी प्रकारांतर सॆ मान हॊता है। जॊ लग्न हॊ उसकॆ मान मॆं दशवर्गाधिपॊं का विभाजन करना चाहियॆ॥19॥

दशवर्गाधिपाश्चिन्त्याः प्रॊक्ताश्चॆन्दुनवांशकाः । । अन्यत्र कीर्तिताः प्रश्नॆ नष्टद्रव्यस्य निश्चयॆ ॥20॥॥ इसका प्रयॊजन-नष्टद्रव्य कॆ निश्चय करनॆ मॆं तथा प्रश्न कॆ विचार मॆं चन्द्रनवांश । कॊ भी दॆखना चाहियॆ॥20॥।

दशवर्गानांफलम - श्रीमान रिक्तश्च मूर्खश्च कुशलॊवंचनः पटुः । स्त्रीशक्तॊ वॆदविद्वीरॊ मंदाग्निस्तीब्रशॆषणः ॥21॥


। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । मूलरॊगी च पिशुनः सदा दानपरॊ शुचिः । । सॆवाकरः सुभाषी च धनवाँल्लॊभसंयुतः ॥ 22॥

प्रख्यातॊ विद्यया भीरूर्बुद्धि श्रीमान्सुशीलकः । परदाररतः श्रीमान्सुशीलॊ बलवान्गुणी ॥23॥ अध्वन्यॊनिगमव्यग्रः पातकीच तपॊयुतः ॥ परदाररतॊ . वॆश्यासक्तॊऽसत्फलवासनः ॥24॥ सिंहासनस्थॊ रिक्तश्च जटिलः कुलपांशनः ॥

यॊगी बुद्धश्च सन्यासी सॆनानीवुद्धिमान्सुखी ॥25॥ । . कुष्ठी भूतकरः श्रीमानॆकपुत्र समन्वितः ॥

शास्त्रज्ञॊ दासकृत्यश्च चंडरॊष समन्वितः ॥ 26॥ स्त्रीसक्तः परदारॊक्तॊ भृत्यः पटुररॊगवान ॥ कुरूपश्चापि कुशलॊ जितारिः पुत्रवर्जितः ॥ 27॥ शूरॊवीरश्च चंडश्च कुशलः कुक्षिरॊगवन । ग्रामणीविटपॊ धूर्तः सतीपतिररिंदमः ॥28॥ वंध्यापतिः सुरापी च रिक्तसाध्यपतिः सुखी । विजयी युद्धभीरूश्च चॊरॊऽमर्षी जनार्जकः ॥29॥

धनार्जनाय सततमकृत्य शतकारकः । वृषलीपतिरिन्द्रश्च सॆनानीः सत्यवाक्छुचिः ॥ 30॥ शिरॊरॊगी च कुष्ठी च मॆही च पिशुन: सुखी । . जलवद्रॊगसंयुक्तः कृतज्ञॊ निघृणॊ घृणी ॥31॥

विवादशीलः सुमुखः क्रॊधनः कामुकः पटुः । । चलचित्तॊ धनी वाग्मी विद्यार्जनपरः सुखी ॥ 32॥

अपुत्रः कृषिकृद्धीरः परदीररतः शुचिः ॥ विद्याहीनश्च मूर्खश्च बुद्धिमान शास्त्रपारगः ॥ 33 ॥ . सदाभीफर्शठॊ वाग्मी कृत्यॆषु कुशलः सुखी ।

नीतिज्ञॊ लॆखकॊ नीचजातिकृत्यरतः पटुः ॥ 34॥


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अथ चतुर्दशॊऽध्यायः । प्रॆष्यॊ गॊमयविक्रॆता वदान्यॊधनवंचका ॥ सॆनानीः क्षॆत्रवान वीरॊ लॆखवृत्या च जीवति ॥ 35॥ मूख जितॆन्द्रियॊ वाग्मी सदाकृत्यपरः सुखी ।

अन्नदाताच मिष्ठाशी शिवभक्तॊ जितॆन्द्रियः ॥ 36॥ कुव्जॊ वकशरीरश्च जात्यंधॊ वधिरः शठः । अमर्षी नर्तकः क्रुद्धॊ दुर्जनॊ वॆदपारगः ॥ 37॥ वक्ता च गायकः श्रीमान सर्वदा चजनार्जकः ॥ तालज्ञॊ विद्यया युक्तः पंच पंचासदुत्तरम ॥38॥

शतं गुणाश्च श्रीयॊगा ऎकयॊगावसानक्रम । पूर्वपूर्वयुता ऒजॆ युग्मॆ राशौ तु वामतः ॥39॥ चरॆ क्रमः स्थिरॆ वाममुभयॊर्धपदादितः ॥

आदौ त्रिंशद्गुणा. ह्यतै वामतत्रिंशदॆवहि ॥40॥ षष्ठ्यंशॆतु गुणः प्रॊक्ता:प्राग्वदॊजचरादिकाः ॥

दशवर्ग सॆ फलादॆश कहतॆ हैं जॊ कि स्पष्ट हैं। विशॆष यह है कि विषम नवांश हॊ तॊ श्रीमान यॊग सॆ समराशि का नवांश हॊ तॊ विद्वान यॊग सॆ आरम्भ कर श्रीमान यौग तक और  चर राशि मॆं क्रम सॆ स्थिर राशि मॆं विलॊम सॆ द्विस्वभाव राशि मॆं अर्धभाग सॆ क्रम लॆना चाहियॆ॥39-40॥।

राहॊः गतिः। मॆषादुत्क्रमतॊ राहुः कॆतुर्यादि वृषात्क्रमात ॥41॥

। राहु मॆष राशि सॆ विपरीत क्रम सॆ और  कॆतु वृष राशि सॆ क्रम सॆ जाता है॥41॥

अस्य प्रयॊजनम - ऋक्ष संध्यन्तरॆ जातः प्रष्टासौ प्रियतॆ भृशम । कॆतुराहुस्थितॆ राशौ भसंधौ मरणं भवॆत ॥42 ॥

राहु कॆतु नक्षत्र प्रवॆशान्तर कॆ समय जन्म हॊ तॊ निश्चय ही प्रश्नकर्ता की मृत्यु हॊती है॥42॥

इतरॆषां त्रयाणां च प्रकाशॆ व्याधिपीडितः । दुर्बलॊ बुद्धिहीनश्च जायतॆ न मृतॊ यदि ॥43॥


वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । राहु कॆतु सॆ युक्त राशि कॆ संधि मॆं प्रश्न हॊ वा जन्म हॊ तॊ भी मृत्यु हॊती. हैं, इसी प्रकार अन्य धूम, कार्मुक परिवॆष कॆ उदय राशि मॆं प्रश्नकर्ता व्याधि सॆ पीडित हॊता है॥43॥।

अथ पित्र्याद्यरिष्ट विचार:- कलांशराशितॊऽरिष्टॆ नक्षत्रारिष्टसंभवॆ ॥ पित्रादीनां सुतस्यापि तद्वशाच्चितयॆत्सुधीः ॥44॥

यदि षॊडशांश सॆ और  नक्षत्र सॆ अरिष्ट यॊग आता हॊ और  भाव कॊ पापग्रह .::. दॆखता हॊ या उसमॆं पापग्रह गुंत हॊ तॊ पित्रादि कॊ और  पुत्र कॊ भी अशुभ हॊता

. है॥44॥

पावशनुग्रहाकांता भावास्तदृष्टिसंयुताः ।. - सौम्यपापादयश्चैवं शुभाशुभफलप्रदाः ॥45॥

 पाप शत्रु ग्रह सॆ भाव युक्त हॊ वा उसकॆ दृष्टि सॆ युक्त हॊ, तॊ शुभग्रह का दृष्टि यॊग हॊ तॊ शुभ हॊता है और  पापग्रह का दृष्टियॊग हॊ तॊ अशुभ हॊता । है॥45॥

ऎकद्वित्रिचतुः पंचषट्सप्ताष्टदिग्धराः ।

सूर्यॆन्दुनृपमूच्छॆन्द्रनृपभार्क नृपाजिताः ॥46॥ .. पंचाष्टवसुभूतॆषु सुरदंताजिनाद्रयः ।

नखात्रिंशत्खवॆदाः षट्सप्ततिः षष्टिरद्रियुक ॥47॥ नवतिश्च शतं मूच्छ जिना दंता जिना दिशः ॥ ऎवं नवशतं प्रॊक्ताः क्रमादैवं तु तत्रतु ॥48॥. पूर्व पूर्व युता संख्या लक्ष्मीयॊगफलप्रदा । नक्षत्रॆ राशिचक्रॆ तु दिवसॆ वामतः स्मृताः ॥49॥ शॆष यॊगॊं का विचार पूर्वा पर संबंध सॆ दॆखना चाहियॆ॥46-49॥

सुगतिदुर्गति‌अंशशुभमित्रग्रहाक्रांता । भावास्तदृष्टिसंयुताः । द्वित्रिपंच च षट सप्त वसुनंददिशॊऽद्रयः ॥ 5.0 ॥

यदि भाव शुभग्रह या मित्र ग्रह सॆ आक्रांत हॊ वा दॆखा जाता हॊ तॊ 2131415161छ18120 119 1140॥।

.

अथ चतुर्दशॊऽध्यायः ॥

683

1993 त्रिंशद्दिशॊ नखाः ष्ठिसूर्यपूच्र्छाजिनाजिनाः ॥

आकृतिभनिभाकग्निनखाश्छंदः शतं नखाः ॥51॥ 3018012छ1ऎ0192138178178176183131301ऽ180ऒल्प्चिप 114811

त्रिंशत्खवॆदा दिग्विश्वॆ शतं षष्ठिः शतंजिनः ॥ वॆदाः खवॆदाः पूर्वार्धॆ परार्धॆ प्राग्वदन्नतु ॥52॥

ऎतॆ यॊगवलाच्चैव कॆवलं दुर्मतिप्रदाः । । 30/40।10।13।100।60।100।24।4।40 कॆ पूर्वार्ध मॆं और  राशि कॆ उत्तरार्ध मॆं विलॊम क्रम सॆ दुर्गति हैं॥52॥।

। कुब्जादियॊगाःदिनक्षं चक्रसंख्याः स्युरादिमध्यावसानिकाः ॥53॥

दिन, नक्षत्र और  राशि इनकी संख्या आदि मध्य और  अंत्यभाग का यॊग॥53॥।

सप्तविंशतिसप्तयां शतॆ षष्ठ्यां शतद्वयॆ । षट्पंचांशतिविंशॆ च षण्नवत्यामशीतिकॆ ॥54॥. यदि 27।70।100।60।200।6।50।20।96।80 ।54॥

धष्ठिभागॆ च विंशत्यां शतषठ्यां शतद्वयॆ । । कुब्जः कलांशॆमूकस्तु शतद्वयशतत्रयॆ ॥55॥ 10।60।200 हॊ तॊ कुब्ज हॊता है। यदि 200, 300 ॥55॥

सहस्रं द्विशतॆ जातः पंचमॆ पापसंयुतॆ ॥ द्वित्रिपंचाष्टदिग्विश्वनृपातिधृतिभूमयः ॥56॥

1000, 200 हॊ और  पाँचवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊ तॊ मूक हॊगा। .213141218018318618218.114ऽ11

नवदिग्भसुरैस्तानैस्तिथिविश्वाष्टकैः क्रमात । गुणॆन वामतः प्रॊक्तॊ लक्ष्म्यंशॆ श्रीसमन्वितः ॥ 57॥

9।10।27।33।49।15।13।8. इनकॊ वायं भाग सॆ गुणनॆ प्राप्त अंश लक्षयंश मॆं श्रीमान हॊता है। ।57॥।

:

. वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ । , यॊगान्तरम - -

रविचन्द्रतभपातकालॆष्वरिभवॆषु । च । । । पंचाशीतिशतॆ वॆदॆ मनौद्वित्रिशतॆ पुनः ॥58॥

... यदि सूर्य चन्द्र राहु पातकाल मॆं 6।11 तथा 85 । 100 ।4।14।2।3।100 114611

खाव्यिपंचसु दिग्भागॆ सहस्त्रॆ चाक्षिचन्द्रगॆ ।

खखाग्निरूपं विश्वाष्ट त्रिचन्द्रखखभूमिपैः ॥ 59॥ ..... 401511011300।13।8।3।1 । 160 0 इन यॊगॊं मॆं चन्द्रमा युक्त हॊ

तॊ वधिर हॊता है॥59॥

। मृत्युकालज्ञानम - - शताधिकॆ च जातॊऽस्मिन्वधिरः षष्ठि संयुतॊ ।

कर्कवृश्चिकमीनांशॆ तद्राशीशांशकॆ तथा ॥ 60 ॥।

कर्क, वृश्चिक और  मीन कॆ अंश मॆं इनकॆ स्वामियॊं कॆ (चंद्र, भौम, गुरु) इनकॆ नवांश मॆं॥60॥ ...

पातकॆत्वॊश्च शवृक्षगतयॊ रंशकॆपुनः ।

ऎकादित्रिंशतैर्यावक्रमात्तास्तु सुभाजिताः ॥ 61॥ । * पात मॆं अथवा उच्च, शत्रु राशि मॆं स्थित ग्रह कॆ अंश मॆं जॊ संख्या हॊ उससॆ 1 सॆ लॆकर 300 तक॥61॥।

आकाशपूर्णधृतयॊ नि:शॆष लब्धसंख्यकॆ । सदॊषॆऽतराशॆतु जातस्यैतॆऽपमृत्यवः ॥ 62॥

1800 मॆं भाग दॆना जिससॆ नि:शॆष हॊ जॊ लब्धि प्राप्त वह यदि सदॊष (पापग्रह सॆ युक्त हॊ) तॊ जातक का लब्धि तुल्य वर्ष मॆं अपमृत्यु कहना॥62॥

अल्पमध्यदीर्घायुर्ज्ञानम - . . पंचाशतः घडावृत्या स्वल्पमध्यचिरायुषः ॥

। क्रमॆणॊत्क्रमशस्तॆ तु त्रैराशिकविधानतः ॥ 63 ॥

पीछॆ कहॆ हुयॆ 50 कुब्ज आवृत्ति कॆ वर्ष सॆ त्रैराशिक रीति सॆ गणना करकॆ प्रथम आवृत्ति मॆं अल्पायु दूसरॆ आवृत्ति मॆं मध्यमायु और  तीसरॆ आवृत्ति मॆं चिराय चौथॆ आवन मॆं उत्क्रम सॆ दीर्घायु पाँचवी आवृत्ति मॆं मध्यमायु और  छठी आवृत्ति ’ मॆं अल्पायु समझना चाहियॆ॥63॥

। 6 वर्षाण्याह- शरा: दिशास्तिथयः नखाः तिथयः दश ऎवं षडिति॥


1984

अथ चतुर्दशॊऽध्यायः ।

चतुर्दशग्रहाणांषष्ठ्यंशादिःखाक्ष्यद्रयस्तुषष्ठयंशास्त्रिशांशाः खरसाग्नयः ॥64॥। वारह राशियॊं मॆं 720 षष्ठ्यंश॥64॥

अष्टषट्भूमयः कालहॊराः सप्तदिनॆषु च । । . वॆदॆन्द्रा द्वादशांशा, स्युर्नवांशा गजखॆदवः ॥65॥ ’360 त्रिंशांश, 168 कालहॊरांश, 144 द्वादशांश, 108 नवांश॥65॥

सप्तांशी वॆदनागास्तु द्रॆब्काणास्तु घडग्नयः ॥

अर्धहॊराजिनाः प्रॊक्ता नक्षत्राणि चराशयः ॥66॥ । 84 सप्तमांश, 36 द्रॆष्काणांश और  24 अर्धहॊरांश यॆ क्रम सॆ नक्षत्र राशि कॆ हॊतॆ हैं॥66 ॥

मुंजतॆ च ग्रहाश्चैव मनुसंख्यैश्च भुजतॆ ॥

 राशयश्च ग्रहाश्चैव नक्षत्राणि च भुंजतॆ ॥67॥

इनकॊ 1 सूर्य, 2 चन्द्र, 3 भौम, 4 बुध, 5 गुरु, 6 शुक्र, 7 शनि, 8 राहु, 9 कॆतु॥67॥

ख्यादिशिखिपर्यन्ता नवभूमॆन्द्रकार्मुकौ । पातश्च परिवॆषश्च कालश्चॆति । चतुर्दश ॥68॥

 10 भूमा, 11 इन्द्रचाप, 12 पात, 13 परिवॆष, 14 काल यॆ भॊगतॆ हैं। कौन किस अंश मॆं है इसॆ दॆखकर फल का विचार करना चाहियॆ॥68॥

अथ नक्षत्रगणनाक्रमः। तॆषां प्रादुर्भवॆ चैव भंगदास्तु नवग्रहः ।

, दस्रात्पंच भगात्मक पंचाद्वारूणादपि ॥ 69॥

अश्विनी सॆ 5, पूर्वाफाल्गुनी सॆ 6, आर्द्रा सॆ 5, शतभिष सॆ 4॥69॥ मित्रान्नवक्रमात्प्रॊक्तास्तत्तदॆशॆषु सर्वदा ।

अक्षिणी पंचदश च नखास्तत्त्वं तथामराः ॥70॥

और  अनुराधा सॆ 7 यॆ नक्षत्र पूर्वॊक्त अंशॊं मॆं रहतॆ हैं क्रम सॆ 3184180134133 वॊल्ल .

सत्र्यंशाश्चषड्शॊनाश्चत्वारिंशत्क्रमादथः ।

शतं खॆष्विंदवः प्रॊक्ता विनाडीतनयॊऽपिच ॥71॥ 33।33।40।100।1:50 यॆ नाडियाँ अर्धहॊरा आदि कॆ यॊगकाल हैं॥71॥

.

.


716 . , वृहत्पाराशरहॊगशास्त्रम ।

। काल्यंशवद्यर्थहॊरांशभॊगकालः प्रकीर्तितः । ।

प्रमाणराशयश्चैतॆ भागहारा कलात्मकाः ॥72॥ तत्तद्दॆशकला इच्छाराशयॊ गुणराशयः । कटुकॊ मधुरत्तिक्तः कषायॊ लवणाम्लकौ ॥73॥

कलांश मॆं उत्पन्न हुयॆ का कटुक, मीठा, तीता, कषैला, नमक, अम्ल॥720311

कालांशॆक्रमतॊ गण्याःषष्ठ्यंशॆव्युत्क्रमात्स्मृताः । । त्रिंशांशॆतु कषायादिःकालहॊराशकॆ पुनः ॥74॥

। क्रम सॆ गणना करनॆ सॆ जॊ रस आवॆ वह उस वर्ष मॆं उसॆ प्रिंय हॊता है। षष्ट्यंश मॆं उसॆ अम्ल सॆ कटु पर्यन्त इस क्रम सॆ, त्रिशांश मॆं कषाय सॆ तिक्त . पर्यन्त॥74॥

त्तिक्तादि द्वादशांशॆषु मधुरादि नवांशकॆ ।

अम्लादिमुनिभागॆ तु द्रॆष्काणॆ मधुरादितः ॥75॥ । द्वादशांश मॆं मधुरादि क्रम, नवांश मॆं अम्लादि क्रम, सप्तांश, अर्ध हॊरा और  द्रॆष्काण मॆं मधुरादि क्रम सॆ गिनना चाहियॆ॥75 ॥। ...

षष्ट्यंशॊत्पत्तौफलम - अर्धहॊराशकॆ तद्वज्जातस्यैवं प्रजायतॆ । वॆदाष्टदशभैरामैः प्रषष्ठ्यंशॆ च भास्करॆ ॥ 76॥

यदि कन्या कॆ जन्म समय मॆं सूर्य 4।8।10।27।3 संख्यक षष्ठ्यंश मॆं हॊ तॊ वह कन्या बंध्या हॊती हैं॥76॥।

त्रिषट्नवत्रिरवाकव्धिजिनदंतसुराः क्रमात । नवदिग्धैर्जिनाकैश्च सूर्यैस्तारैत्रिपंचभिः ॥77॥

तथा 3।6।9।3।0।12।4।24।32।33 इन अंकॊं कॊ क्रम सॆ 9।10127।24।12।12।49।3।5।50 सॆ गुण नॆ जॊ प्राप्त हॊ उतनॆ संख्या कॆ षष्ठ्यंश मॆं सूर्य हॊ तॊ कन्या पूज्या (पूजनीया) हॊती है॥77॥ । . :: मृतपुत्र-कन्यायॊग

‘पंचशिद्भिःक्रमाद्गुण्या वंध्यावंध्या प्रकीर्तिताः ।

त्रिवॆदारांकविश्वॆंद्र नखच्छदॊजिनायमाः ॥ 78॥


अथ चतुर्दशॊऽध्यायः ।

717 पंचाशच्च शतं पूर्वयुताः मृतसुता स्मृता । । पुत्राणां तु कलांशॆ तु शॆषॆ जाता मृता द्विज ॥79॥

3।4।7।9।13।14।20।26।24।2।50।100 इनमॆं पूर्व अंकॊं सॆ दॊडनॆ सॆ जॊ संख्या हॊ तत्तुल्य अंश मॆं सूर्य हॊं मृतसुता उत्पन्न हॊती है। उक्तांश मॆं शॆष अंशॊं मॆं सूर्य हॊं तॊ उत्पत्र पुत्रॊं मॆं मृत पुत्र भी हॊंगॆ॥78-79॥

। अथ संन्यासयॊगःद्वादशॆ च चतुर्विंशॆ चतुत्रिंशॆ सुरांशकॆ । द्विसप्तांशॆ नवांशॆ षष्ठयुत्तरशतांशकॆ ॥8॥ यदि 12।24।33।72।9।160 ॥80॥ षट्शतॆ च सहस्रॆ च खखाहींद्वंशकॆ पुनः ॥

खांशतिथ्यंशकॆ जातॊ भवॆत्प्रव्रजितॊ नरः ॥8॥

60011000।180।15।10 संख्यक अंश मॆं जन्म हॊ तॊ सन्यास हॊता हैं॥81॥

परमहंसादियॊगाःगुरुशुक्रॊदयॆ राशौ तयॊः परमहंसकः ।

शत्रुराशिगतौ तौ चॆदप्रकाशयुतौ तु वा ॥8॥ । गुरु शुक्र कॆ उदय की राशि मॆं जन्म हॊ तॊ परमहंस हॊता है। यदि वॆ शत्रुराशि मॆं हॊं अथवा धूमादि अप्रकाश ग्रह सॆ युक्त हॊं तॊ॥82॥। । भ्रष्टः स्यात्तु तथा ज्ञॆतु त्रिदंडी वा वहूदकः। . . रवौ जटाधरः शैवः कुजॆ नग्नॊऽटनः स्मृतः॥83॥ .

भ्रष्ट परमहंस हॊता है। ऐसॆ ही बुध हॊ तॊ त्रिदंडी सन्यासी हॊता है वा वह्दक. हॊता है। सूर्य हॊ तॊ शिवभक्त, भौम हॊ तॊ नग्न घूमनॆ वाला॥83॥

मंदॆ बौद्धॊऽथ वाग्मी स्याद्राहौ कॆतौ तथैव च । धूमॆ कापालिकाश्चापॆ कालॆ तु परिवॆषकॆ ॥84॥ गूढपापॊ यथा लिंगी कुलमार्गगतस्तथा ।

शनि हॊ तॊ वौद्ध धर्मावलम्वी, राहु वा कॆतु जन्मराशि मॆं हॊं तॊ वौद्ध सन्यासी, धूमग्रह हॊ तॊ कापालिक, चाप, काल, परिवॆष हॊ तॊ गुप्तपापी, पाखंडी, कुलमार्गानुकूल चलनॆ वाला हॊता है॥84॥

ऎण


972

।:

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

प्रवज्यायांनिष्ठायॊगःषष्ठ्यंशॆ ऋक्षसन्ध्यंशॆ सापॆं पौष्णॆन्द्रभांशकॆ ॥85॥ षष्ठ्यंश मॆं, नक्षत्रं संध्यंश मॆं, आश्लॆषा, रॆवती, ज्यॆष्ठा कॆ अंश मॆं॥85॥ त्रिंशाशॆ कालहॊराशॆ तत्तदंशाशॆऽपि च ॥

नवमूर्छासुरांशॆ तु यथा षष्ठितमॆ युतः ॥86॥ । त्रिंशांश मॆं, कालहरांश मॆं, नवांश मॆं, मूर्धा 49 अंश मॆं 33वॆं अंश, 60वॆं

अंश ॥86॥।

। शतांशॆखाव्यितिथ्यंशॆ द्वादशांशॆ नवांशकॆ ।

राश्यताशॆ तु सप्तांशॆ ऋक्षसंधिमृगांतिकॆ ॥87॥

 100 वॆं अंश मॆं, 1540 वॆं अंश मॆं, द्वादशांश मॆं, राशि कॆ अतिमांश । मॆं, सप्तांश मॆं नक्षत्र संधि मॆं॥87॥

मृगकर्कालिसिंहादिमनतौल्यंशकादिमॆ । अंत्यांशॆऽषि च जातस्य षष्ठ्यर्थाक्षिजिनॆरदॆ ॥88॥

मकर, कर्क, वृश्चिक, सिंह, मॆष, मीन, तुला कॆ आदि या अंतिम अंश मॆं उत्पन्न हॊनॆ वालॆ, 6, 5, 2, 24, 32 अंशॊं मॆं॥88॥

द्रॆष्काणॆचाहॊरायां त्रिसप्तॆ च नखॆषु तु ॥ जातः प्रव्रजितश्चैषु सर्वत्रैकयुतॆष्वपि ॥89॥

द्रॆष्काण मॆं अर्धहॊरा मॆं 73, 20 वॆं अंश मॆं वा पूर्वॊक्त अंकॊं मॆं ऎक जॊडनॆ सॆ जॊ अंक सॆ उन अंशॊं मॆं उन अंकॊं मॆं उत्पन्न हॊनॆवालॆ सन्यास धर्म मॆं श्रद्धा

खनॆवालॆ हॊतॆ हैं॥89॥

... अथ अंशविशॆषजातायत्रीलक्षणम - पापाप्रकाशसंयॊमॆ कलत्रॆत्वशुभं भवॆत । रवौवंध्या तु शीतांशौ क्षीणॆ तु व्यभिचारिणी ॥90॥

सातवॆं भाव मॆं पापग्रह हॊ अथवा अप्रकाशग्रह हॊ तॊ स्त्रीदुष्टा हॊ, सूर्य हॊ तॊ बंध्या, क्षीणचन्द्र हॊ तॊ व्यभिचारिणी॥90॥।

कुजॆ तु म्रियतॆ मन्दॆ दुर्भगा राहुसंयुतॆ ॥ परदाररतिः स्वीयनिषॆकाभावतॊऽसुताः ॥91॥

।’

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:


अथ चतुर्दशॊऽध्यायः ॥

188 भौम हॊ तॊ स्त्री का नाश, शनि हॊ तॊ दुर्भागिनी और  राहु हॊ तॊ परस्त्रीगामी हॊता है॥11॥

धूमॆ विवाहहीनः सप्रियतॆ कार्मुकॆसति । । परिवॆषॆतु दुःशीला कॆतौवंध्याऽसतीभवॆत ॥92॥

धूम हॊ तॊ विना विवाह कॆ ही मर जावॆ, कार्मुक हॊ तॊ भी वही फल हॊ, परिवॆष हॊ तॊ स्त्री दु:शीला हॊ, कॆतु हॊ तॊ वंध्या और  कुलटा हॊ॥92॥

कालॆऽभावस्य पापॆ तु गर्भश्रावॆण संयुता ॥ सुशीली स्त्रीप्रसूता च पूर्यमाणॆ तु शीतगौ ॥93॥।

काल हॊ तॊ स्त्री का अभाव, पापग्रह हॊ तॊ गर्भस्राव हॊ, पूर्ण चन्द्रमा हॊ । तॊ सुशीला, कन्या प्रजावती हॊ॥13॥

बुधॆ त्वपुत्रा जीवॆतु गुणयुक्ता सुपुत्रिणी । । शुक्रॆ सौभाग्य संयुक्ता श्रीमतीपुत्रिणीभवॆत ॥94॥

बुध हॊ तॊ पुत्र हीन हॊ. गुरु हॊ तॊ गुणी और  पुत्रवती हॊ। शुक्र हॊ तॊ सौभाग्यवती, लक्ष्मी सॆ युक्त और  पुत्रवती हॊ॥94 ॥ ।

अथ दशमभावानुसारफलम - ऎष्वॆवं दशमॆ पापपुण्यकर्मरतॊ भवॆत ॥ पंचाशद्भिः सुरैस्तत्त्वॆनृपैश्च मुनिभिग्रहैः ॥95॥ .

जिस प्रकार सॆ सप्तम भाव सॆ स्त्री कॆ फल का विचार किया है उसी प्रकार सॆ दशम भाव सॆ व्यापार आदि शुभाशुभ कर्मफल का विचार करना चाहियॆ। दशम भाव शुभयुक्त का दृष्ट हॊ तॊ शुभ कर्मफल जानना, पापग्रह सॆ दृष्ट युक्त हॊ अशुभ कर्मफल जानना चाहियॆ। मिश्रित ग्रह हॊं तॊ मिश्रफल इसमॆं भी शुभ पाप की संख्या कॆ समान ही शुभ पापफलॊं कॊ न्यूनाधिक कहना॥95॥

अष्टभिः षड्भिरॆवाथ सप्तादिभिरनुक्रमात । पंचादिभिश्च हॊराः स्युरॆकॊपचयैरथ ॥96॥

इसमॆं भी 50।33।25।16।7।9।8।6।7 तथा पाँच सॆ ऎक पर्यन्त तथा पूर्वॊक्त अंकॊं मॆं ऎक जॊडनॆ सॆ॥96॥

पापपुण्यक्रियाकर्ता क्रमाल्लव्धांतरांशजः ।

आवृत्तिरुतरा प्रॊक्ता पापपुण्यक्रियारतिः ॥17॥


। 720

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । जॊ है उन अंशॊं मॆं जन्म हॊनॆ सॆ पाप शुभ॥97॥। - मित्रॆ तु मिश्र त्वाधिकवशादॆव निर्णयः । । मिश्रक्रिया ग्रहानुसार हॊती है। वर्णाश्रमाचारविहीबुद्धिः स्त्रियांचपापी परदारसक्तः ।

वापारी च परस्वसर्व निहत्य यॊगं सकलं करॊति ॥98॥

’र्ण और  आश्रम कॆ आचार मॆं हीन वुद्धिवाला, स्त्रियॊं कॆ प्रति पाप बद्धि बाल्ला, परस्त्रीगामी, दूसरॆ की भूमि कॊ अपहरण करनॆ वाला, दूसरॆ कॆ सर्वस्व कॊ अपहरण करनॆ वाला॥98॥

परस्यचॊत्कर्षविघातकारी विषाग्निदःघातककर्मकृच्च ॥

 अमस्य दॆशस्य चविप्रवर्यः धनापहारी व्यसनॆकृतार्थः ॥।99॥ हैं . . .. दूसरॆ कॆ उत्कर्ष कॊ नाश करनॆ वाला, विष और  अग्नि कॊ दॆनॆ वाला, ग्राम

। यॆ जलानॆ वाला, ब्राह्मण और  दॆवता कॆ धन कॊ हरण करनॆ वाला पातक कर्म * , करनॆ वाला हॊता है॥99॥

मृतिप्रदं कर्मकरॊति सूर्यात्प्राप्यप्रकाशः सितशीतगॊश्च । . : दयारखॊदानरत: सुतॆजा: स्वाचारपाला विजितॆन्द्रियश्च ॥ 1 0 0 ॥

:- सूर्य हॊ तॊ मारण कर्म करनॆ वाला, चंद्रमा और  शुक्र हॊ तॊ प्रसिद्ध हॊता है। भौम सॆ दयारत, दानरत, सुन्दर तॆजवान, आचारयुक्त, इन्द्रियॊं कॊ जीतनॆ

वाला॥100॥। . . इष्टं च पूर्तं च करॊति जीवॆ शुक्रॆवदान्यः कृतदारशीलः॥101॥

। गुरु हॊ तॊ इष्टापूर्त कर्म करनॆ वाला, शुक्र हॊ तॊ दाता, शनि हॊ तॊ स्त्रीशील

ऒ‌उम॥101॥ .... ... अथ मॆषादि राशीनां फलानि।

मॆषॆ त्वगम्यागमनप्रियश्च त्वभक्ष्यक्ष्यॊवृषभॆसुशीलः । दॆवॆशदॆवालयधर्मकारॊं युग्मॆविरक्तॊंऽत्यधनैर्विहीनः ॥ 102॥ । मॆष राशि मॆं जन्म हॊ तॊ अगम्यागमन, अभक्ष्य कॊ भक्षण करनॆ वाला वृष राशि मॆं अच्छा स्वाभव, शिव, विष्णु का उपासक, मिथुन राशि मॆं वैराग्य युः॥ ॥103॥ चांद्रॆ च तीव्र च करॊतिपापं परस्वहर्तापि च पूर्वकारी । सिंहॆ तु दॆवस्य विघातकारी पाथॊनकॆ धर्मरतिः सुकृत्यः॥103॥।

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अथ चतुर्दशॊऽध्यायः ।

1973 कर्क राशि मॆं अत्यन्त पाप करनॆ वाला, दूसरॆ कॆ धन कॊ हरण करनॆ वाला, पूर्त कार्य (कु‌आं आदि) करनॆ वाला, सिंह राशि मॆं दॆवस्थान का नाश करनॆ वाला,

कन्याराशि मॆं धर्म मॆं प्रॆम और  सत्कर्म करनॆ वाला॥103॥ जूकॆ परॆषां धनदश्च पूर्तं करॊति चापॆऽपि च वृश्चिकॆतु । परस्वहर्ता परदारसक्तॊ मृगॆऽपि चैवं घटभॆ कृतज्ञः ॥104॥

तुला मॆं दूसरॊं कॊ धन सॆ पूर्ण करनॆ वाला, धन मॆं भी पूर्वॊक्त फल, वृश्चिक राशि मॆं दूसरॆ कॆ द्रव्य कॊ हरण करनॆ वाला दूसरॆ की स्त्री मॆं आसक्त, मकर मॆं भी पूर्वॊक्त फल, कुम्भ राशि मॆं कृतज्ञ॥104॥। यज्ञस्य कर्ता झषभॆ तथैव पूर्तादिकारी वहुयॊजकः स्यात॥

और  यज्ञकर्ता और  मीन राशि मॆं पूर्त आदि काम कॊ करनॆ वाला और  अनॆक यॊजना करनॆ वाला हॊता है।

अथ सूर्यादीनां कालांश फलम - नर्तकॊ गायकॊ वंदी शिल्पी याञ्चापरस्ततः ॥105॥

सूर्यादि कॆ कालांश मॆं उत्पन्न हॊनॆ सॆ क्रम सॆ नाच कॊ जाननॆ वाला गानॆ वाला, राजा की स्तुति करनॆ वाला, कारीगरी कॊ जाननॆ वाला, याचक॥105॥

गायकॊ नर्तकॊ भारवाही प्राणतियॊजकः । । प्रॆष्यश्च भारकॊवंदी याचकॊ धातुवादकः ॥106॥

गायक, नर्तक, बॊझा ढॊनॆ वाला, नम्र रहनॆ वाला दास वृत्ति करनॆ वाला, वंदी, याचक, धातु कॆ कामकॊ करनॆ वाला॥106॥।

वॆदाध्यायी स्मृतिज्ञस्तु शैवाश्रमकृतश्रमः । शिल्पलॆखनकर्ता च मीमांशान्यायतर्कवित ॥107॥

वॆद पढनॆ वाला, स्मृति शास्त्र कॊ जाननॆ वाला, शिवदीक्षा मॆं प्रवीण, शिल्प कॊ लिखनॆ वाला, मीमांशा न्याय तर्क का जानकार॥107॥

पंचरात्रार्थशास्त्रज्ञः इतिहासपुराणवित ।

आयुधश्रमहॆतुश्च आयुर्वॆदकृतश्रमः ॥108॥ अर्कात्किलांशतश्चैव क्रमादॆवं प्रकीर्तितः ॥

आगम (तंत्र) कॊ जाननॆ वाला, अर्थ शास्त्र कॊ जाननॆ वाला, आयुध (शस्त्र) कॊ वनानॆ वाला, आयुर्वॆद (दवा) का ज्ञाता हॊता है॥108॥


677,

.’

. वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । अथ षष्ठ्यंश फलम - अध्यापकस्तु वॆदानां सॆवकः शास्त्रपाठकः ॥ 109॥

यदि विषम लग्न हॊ तॊ क्रम सॆ वॆद का’अध्यापक 1, सॆवक 2, शास्त्र पढानॆ वाला 311 1.09॥ । । ।

अश्वसादीभसादी च लिपिलॆखनतत्परः ॥

मदुरावंधकॊ नट्यौ दॆशिकॊ याज्ञिकॊ गुरुः ॥ 110॥. * घॊडसवारी मॆं कुशल 4, हाथी कॆ कार्य मॆं कुशल 5, पुस्तकादि लिखनॆ मॆं कुशल 6, घॊडॆ कॆ शाला का अधिकारी 7, वाचक 8, पाठशाला मॆं पढानॆ वाला 9, यज्ञ करनॆ वाला 10, गुरु 11॥ 1.10॥।

दानशीलस्तु तृणकॊ ग्रामणीर्व्यसनाधिपः ।

 आरामकरणॊद्युक्तः पुष्पविक्रयतत्परः ॥ 111॥ । दानशील तृण बॆचनॆ वाला 13, ग्राम प्रधान 14, व्यसन का अधिकारी 15, बाग लगानॆ मॆं कुशल 16, फूल माला बॆचनॆ वाला॥ 111॥

राजकार्यरतः सॆनालतापुष्पफलक्रयी । नृत्यगीतॆ च कुशलस्ताम्बूलफलविक्रयी ॥112॥

राजकर्मचारी 18. फलफूल खरीदनॆ वाला 19, नाचगानॆ मॆं प्रवीण 20, पान बॆचनॆ वाला 21॥112॥।

निषिद्धविक्रयकरॊ , ग्रामाणामधिकारकृत । वंदी च दॆशिकः प्राज्ञॊ धूपकलौषधिक्रियः ॥113॥

निंदित पदार्थ बॆचनॆ वाला, 22 ग्राम का अधिकारी 23, राज कर्मचारी 24, दॆशिक 25, बुद्धिमान 26, धूप वॆचनॆ वाला 27, दवा बॆचनॆ वाला 201188311

कायस्य करणॊद्यक्तॊ भारकॊ भांडविक्रयी । कृषिकृच्च वणिग्धातुचर्मकारी च कर्षकः ॥114॥

बहरूप धारण करनॆ वाला 29, भार ढॊनॆ वाला 30, वर्तन बॆचनॆ वाला 31, खॆती करनॆ वाला 32, वैश्य वृत्ति करनॆ वाला 33, धातुचर्म का व्यापारी 34, कृषक 35॥114॥

:


अथ चतुर्दशॊऽध्यायः । . 723 शास्त्राधिकारी विज्ञानी पुस्तकॊरंजकॊवणिक ॥ . वॆदवॆदांगवॆत्ता च शास्त्रज्ञॊवंदिपाठकः ॥115॥

शास्त्राधिकारी 36, विज्ञान कॊ जाननॆ वाला 37, पुस्तक का संग्रही 38, रंगनॆ वाला 39, वैश्य वृत्ति करनॆ वाला 40, वॆदवॆदांग कॊ जाननॆ वाला 41, शास्त्र कॊ जाननॆ वाला 42॥115॥

ग्रामणीरधिकारी च गणकॊ दंडकारकः ॥ भारकश्यॆधनाहारी फलमूलादिविक्रयी ॥116॥ ग्राम प्रधान 43, अधिकारी 45, गणक 46, दंड दॆनॆ वाला 47, भारक 48 ईधन का व्यापारी 49, फल फूल बॆचनॆ वाला 50 ॥116॥

शांतकृत्स्वर्णकारी च कृषिकृत्पलविक्रयी । याजकॊऽध्यापकॊऽध्यक्षः प्रतिग्रहपरः फली ॥117॥

शांतिस्थापन करनॆ वाला 51, सुनार का काम करनॆ वाला 52, खॆती करनॆ वाला 53, मांस बॆचनॆ वाला 54, यज्ञ करनॆ वाला 55, अध्यापक 56, अध्यक्ष 57, दान लॆनॆ वाला 58, फल बॆचनॆ वाला 59॥117॥

। क्रमाव्युत्क्रमतश्चैव षष्ठिः स्यादंशकॆषु च ।

’ कुछ भी काम न करनॆ वाला 60 हॊता है, और  समराशि मॆं जन्म हॊ तॊ विलॊम सॆ फल जानना चाहियॆ।

’षष्ठ्यंश कॆ विशॆषःरवीशहरिविष्णीशदुर्गागणपतिष्वथ ॥118॥

षष्ठ्यंश कॆ दॊ दॊ अंशॊं कॊ ऎक साथ करनॆ सॆ 30 हॊतॆ हैं इस क्रम सॆ जिस अंश मॆं जन्म नक्षत्र हॊ उसका फल क्रम सॆ रवि 1, ईश 2, हरि 3, विष्णु 4, हिरण्यगर्भ 5, दुर्गा 6, गजपति 7॥118॥

चंडिकायां च चंडॆश चंद्रविष्णवीशपावकॆ ॥ । त्रिपुराचॆदिराविष्णुहरिशंकरशंभुषु ॥119॥

चंडिका8, चंड9, महादॆव 10, चंद्र 11, विष्णु 12, ईश 13, अग्नि 14, त्रिपुरा 15, इंदिरा 16, विष्णु 17, हरि 18, शंकर 19, शम्भु 20 ॥ 119॥

क्षॆत्रॆशॆ गुरुडॆस्कंदॆ शास्तरिब्रह्मणीश्वरॆ । विषापहरणॊद्युक्तॆ जिनॆ बुद्धॆ क्रमात्तथा ॥120 ॥


12ऒल्ल

.

.

678

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । क्षॆत्रॆश 201, गरुड 22, स्कंद 23, शान्ता 24, ब्रह्मा 25, ईश्वर 26, गरुड 27, जिन 28, बौद्ध 29, सभी मॆं समान भक्ति हॊती है॥120॥

अथ मरण निमित्तानिज्वरश्लॆष्मातिसारासृग्जठरव्याधिमूलरुक ।

मॆहग्रहणिपिटिकापावकावनिशस्त्रतः ॥ 121॥ ..’सूर्यादि 14 ग्रहॊं मॆं सॆ जन्म राशि मॆं जॊ हॊ वा जिसका अंश हॊ उसकॆ निमित्त

सॆ मृत्यु कहना चाहियॆ। जैसॆ ज्वर 1, कफ 2, अतिसार 3, रक्तविकार 4, जठर (पॆट) व्याधि 5, मूलव्याधि 6, प्रमॆह 7, संग्रहणी 8, पिटकरॊग 9, अग्नि 10, भू 11, शस्त्र 12 ॥121॥।

दाहज्वरविषाम्यां तु सूर्याकालांतिमॆमृतिः ।

राशौ ग्रहांशकॆ पित्तवातश्लॆष्मनरॊगतः ॥ 122॥ ’ पित्तवातकफश्लॆष्मपित्तवात्तैः क्रमात्स्मृतः ॥

2. दाह 13, ज्वर विष निमित्त सॆ मृत्यु कहना। प्रकारांतर सॆ सूर्य सॆ पित्त, चन्द्र , सॆ वायु, भौम सॆ कफ, बुध सॆ पित्त, गुरु सॆ वायु, शुक्र सॆ कफ, शनि सॆ कफ,

राहु सॆ पित्त, कॆतु सॆ वायु सॆ मृत्यु हॊती है॥122॥

नवांश द्वारा मरण निमित्तानिज्वरसन्निपातजठरामयांत्ररुग्रामप्रमॆहजलाज्जलाग्नितः । ज्वरसन्निपाततॊत्रभवॆन्मृतिः क्रिय पूर्व कस्तुनिधनांशकॆषुतु। । 123॥

मॆषादि राशियॊं मॆं मरण कालीन नवांशॊं कॆ निमित्त क्रम सॆ ज्वर 1 सन्निपातज्वर 2, जठर (पॆट) कॆ रॊग 3, अत्ररॊग 4, प्रमॆह 5, जल सॆ 6, अग्नि सॆ 7, ज्वर सॆ 9 मृत्यु कहना। यह जन्म लग्न कॆ नवांश सॆ दॆखना चाहियॆ॥123॥ ..... राशिनिमित्ततॊ मृत्युविचारः

गुल्मॊदरज्वरविषाग्निजलादिपातगुदकलभगंदरॊत्था । रक्तातिसारजठरज्वरमॆहगुल्मकुष्ठातिसारपिटकादि

। भिरश्मरीयैः ॥124॥ । मॆषादि राशियॊं मॆं क्रम सॆ गुल्म 1, उदरज्वर 2, विष, अग्नि सॆ 3, शस्त्रादि सॆ 4, भगंदर सॆ 5, रक्तातिसार, जठर रॊग सॆ प्रमॆह-गुल्म सॆ 7, कुष्ठ अतिसार सॆ 8, पिटक रॊग सॆ 9॥124॥


ड4

अथ चतुर्दशॊऽध्यायः ॥ शूलाशनिक्षतजपित्तसमावृतानि ।

। शीतज्वरप्रभृतिराशिवशात्क्रमॆण ॥125॥ शूल वज्रपातादि सॆ 10, पित्तरॊग सॆ 11, शीतज्वरादि सॆ 12 मृत्यु हॊती है॥ 125 ॥

अथ कालादि सूर्यान्त चतुर्दशग्रहाणामंशॆन मृत्युज्ञानम - कालादिव्यंतखगॊजाता चॆदुर्गपातपतनज्वरसन्निपातात। गॊपातसत्वजनिता च मृतिः क्रमॆण वामॆन चापि पुनरॆवमथांशकॆषु ॥

काल आदि 14 ग्रहॊं कॆ क्रम सॆ दुर्गपात सॆ 1, पतन सॆ 2, ज्वर 3, सन्निपात सॆ 4, वैल सॆ ,, पतन सॆ 6, प्राणि निमित्त सॆ 7।8, पतन सॆ 13, दुर्गपात सॆ 14 मृत्यु हॊती है॥126॥।

अथ रश्मिद्वारा वर्षानयनॆ हरांशज्ञानम - आचतुर्थात्खभूतानि त्रयॊद्वादशहारकौ । अथस्यादष्टमात्षष्ठिः पंचाष्टौ दशमात्ततः ॥ 1 27॥ पञ्चपञ्चाशदकाः स्युत्नयॊरत्नानि हारकाः ॥ ऎकादशॆऽष्टषष्ठिः स्यात्सप्तकाष्ठाश्च हारकाः ॥128॥ त्रयॊदशॆ च तानाः स्युट्ठिसप्ततिरथॊ मनौ । रश्मयः पंचदश चॆत्यंचसप्ततिरॆव च ॥ 129॥ वॆदपंचरसा हारा दशरुद्राश्च रश्मयः ।

आत्रिंशतः क्रमादंका अशीतिरथ सप्ततिः ॥13 0 ॥ खॆषवः खाब्धयः खाद्रिवॆदसप्ततिः । षष्ठीरद्रादिष्टॆषु पंचसप्ततिरद्रियुक ॥131॥

रश्मि द्वारा वर्ष लानॆ कॆ लियॆ हारल्यांक कहतॆ हैं शॆष चक्र सॆ स्पष्ट है॥12733811

ऎकाशीतिश्चतुर्युक्ता चत्वारिंशत्स्मृताः समाः ॥

सप्तांकरसतर्कॆषु नवाद्रिरसषट्कराः ॥ 132॥


. . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

. रश्मिवर्षहारज्ञानायचक्रम -

।र.। 12 ।3।4।5।6।7।8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20] व. 0॥।50 50 50 50/600 6568049/75/758070/50407 । हा.॥॥3।3।3।35 ॥3।7॥73/54।10।7।9।6।6 [5] हा.॥॥12।12।12।12।8 । 9 ।10॥ 2 । 6 ।11॥ 0 000। र. 2र2 23 24 25 26 27 28 29 30 व. 7446078 58757781 ।85गॆ हा.766 र 10रि 6 ॥॥॥

 अथ अंशायुहारः।, रुद्रा दिनवतर्काकी अंकहाराः क्रमादमी ।

रुद्रार्कमनुविश्वॆऽष्टिः सप्तांकॆष्वर्कदिक्छराः ॥ 133॥ .. 11।13।14।13।16।7।59।12।10।5।54।90। यॆ यॆ अंशायुर्दाय कॆ हार हैं॥133॥।

"राशीनामशायुर्दायॆ हारः.. वॆदॆषुर्वॆदकांकाः स्युरंशहारा प्रकीर्तिताः ।

पंचानां च चतुर्णा च तत्तत्पण्णवतिः शतम ॥134॥। 4181 1801900 1483811 दशरुद्रानखामू हारा: स्युःक्रमशःस्मृताः ।

शतॆ. रसार्करुद्राश्च दशविंशॊत्तरं शतम ॥135॥ 10।11।2021 यॆ क्रम सॆ नवांशायुर्दाय कॆ हार हैं शतायुर्दाय कॆ क्रम सॆ 6।12।11।10।120 हार हॊतॆ हैं॥135॥

। ऎतॆहारा:क्रमात्प्रॊक्ताः कॆषांचित्परमायुषः ।

कॆषांचिदनयॊगदलमब्दाः । षिशॆषतः ॥ 136॥ किसी कॆ मत सॆ हार शतायु कॆ यॊग का करना वही वर्ष हॊता है॥136॥

अथ पूर्वॊक्तानां फल विचारः.. दशमं यावदायातःस्वकुटुम्बं विभर्ति च ॥

कृच्छ्वॆण दशमॆ पुत्रवाहुल्यानॆकसंयुतः ॥ 137॥

.

अथ चतुर्दशॊऽध्यायः ॥

ऒप्लॆ । यदि दश पर्यन्त रश्मि यॊग हॊ तॊ कष्ट सॆ कुटुम्व का भरण पॊषण करॆ, यदि दश रश्मि यॊग हॊ तॊ अधिक पुत्र हॊं॥137॥।

ऎकादशॆ तु विद्वांसी निर्धनॊ जगती सदा ॥

अरंति द्वादशॆ नित्यं निर्धनाःकुलपांशवाः ॥138॥ । ग्यारह रश्मि हॊ तॊ पुत्र विद्वान निर्धनता कॆ कारण पृथ्वी पर धूमता रहॆ, 12 रश्मि हॊ तॊ निर्धन, कुलाधम और  नीच हॊ॥138॥।

स्वदॆहार्थधना दासी अतॊ यावत्तु विंशतिः । । अतः परं मृतिं याता वाल्यॆ ऎव यथागताः ॥139॥ तॆरह रश्मि हॊ तॊ शरीर कॆ रक्षार्थ धन पैदा करनॆ वाला, नौकरी करनॆ वाला और  कितनॊं की वाल्यकाल मॆं ही मृत्यु हॊ जाती है॥139॥

अथ यॊगज्ञानम - ऎवं प्राग्वत्वत्सरा: प्रॊक्ता:प्रथमॆचॊत्तरॆस्मृताः ॥140॥ कॆन्द्रत्रिकॊणॆष्वशुभा:ग्रहास्तु त्रिलाभषष्ठाष्टमगाःशुभाश्चॆत । द्वितीयवॆश्मास्तगताश्च भौपक्षीणॆंदुमंदा यदि वा च वामम ॥141॥

कॆन्द्र (1।4।7।10) त्रिकॊण (9।5) स्थानॊं मॆं पापग्रह हॊं और  3।11।6।8 स्थान मॆं शुभग्रह हॊं अथवा 2।4।7 स्थानॊं मॆं भौम क्षीण चन्द्रमा शनि हॊ॥ 141 ॥

स्थानॆषु धनदॆष्वॆवं शत्रुवर्गगता। यदि । रव्यारार्कितमः क्षीणचन्द्रास्युरॆकदा इमॆ ॥ ऎवं त्रिकादियॊगानां खंयॊगॊ ऎकदॊ गुणैः ॥ 142॥

अथवा रवि, भौम, शनि, क्षीण चन्द्र हॊ तॊ दरिद्र यॊग हॊता है। यदि ऐसा ही त्रिक (6।8।12) भाव मॆं संबंध हॊ तॊ गुणयुक्त दरिद्र यॊग हॊता है॥142॥

अन्यथा तारतम्यॆन कदाचित्कॊभवॆद्विज । लग्नद्विधर्मकर्मायसुखपुत्रास्त विक्रमॆ ॥ 143॥ अथवा 1।5।9।10।11।4।5।7।3 स्थानॊं मॆं॥143॥। स्थित:स्थितौ स्थिताःखॆटा:शत्रुग्रहनिरीक्षिताः । ।

आदौवयसिमध्यॆऽन्त्यॆ दरिद्राः स्युःक्रमाद्भवॆत ॥ 144॥ ऎक ग्रह हॊ और  शत्रु ग्रह की दृष्टि हॊ तॊ प्रथम अवस्था मॆं दरिद्र हॊ, दॊ

1936

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ ग्रह हॊं तॊ मध्य अवस्था मॆं और  तीन ग्रह हॊं तॊं अंतिम अवस्था मॆं दरिद्र हॊता है॥144॥ ।

यॊगान्तरम - ॥ नवयॊगा इमॆ प्रॊक्तास्त्रिषुस्थानॆषु रॆकदाः । ।

ककटावृश्चिकान्मीनाच्चतुर्वॆव क्रमात्स्थिताः ॥ 145॥।

यॆ नवयॊग तीन 2 स्थानॊं कॆ कहॆ गयॆ हैं जॊ कि कर्क, वृश्चिक मीन राशि सॆ आरंभ हॊतॆ हैं॥145॥।

शत्रुगॆहॆ स्थिताः पापा मध्यॆऽत्यॆ प्रथम क्रमात । सुखान्मृत्यॊर्व्ययात्पुत्राद्धर्माल्लग्नात्तथैव च ॥ 146॥ । कर्क राशि सॆ 4 राशि कॆ अन्दर पापग्रह हॊं और  शत्रु राशि मॆं हॊं तॊ मध्य . ’अवस्था मॆं यॊगफल हॊता है, वृश्चिकादि चार राशियॊं मॆं हॊं तॊ अंत्य अवस्था मॆं

और  मीनादि चार राशियॊं मॆं हॊं तॊ प्रथम अवस्था मॆं यॊग का फल हॊता हैं। इसी प्रकार 458।12।5।9।1 भावॊं सॆ भी यॊगॊं का विचार करना चाहियॆ॥ 146 ॥ ’ ऎवमक्षा : यदि न्यूनाश्चाष्टवर्गसमुद्भवाः ।

कॆन्द्रॆषु च त्रिकॊणॆषु शुभा उपचयॆ परॆ ॥ 147॥

कॆन्द्र(1।4।7।10) त्रिकॊण (9।5) स्थानॊं मॆं शुभ ग्रह हॊं और  3।6।11 . स्थानॊं मॆं पापग्रह हॊं॥147॥

 धनदॆषु शुभाश्चान्यॆ परॆषु च यदि स्थिताः ॥

इष्टरश्मिफलाधिक्यैकश्च द्वौ च त्रयॊपि वा ॥148॥

धन स्थान मॆं शुभग्रह हॊं इष्टरश्मि फल अधिक हॊ और  उच्च मूल त्रिकॊण राशि कॆ ऎक, दॊ, तीन ग्रह हॊं॥148॥

उच्चादि पंचकस्थानॆ नवांशॆष्वॆव वा यदि । लक्ष्मीयॊगा इमॆ प्रॊक्तास्सुहृद्दृष्टास्तथापरॆ ॥149॥ अथवा उच्चादि कॆ नवांश हॊं तॊ लक्ष्मी यॊग हॊता है॥149 ॥

। यॊगान्तरम - रॆकॆ प्रॊक्ताधिकालांशाः - शुभारिःफाष्टषड्विना ॥ उच्चौ द्वौ वा त्रयः कॊणॆ चत्वारॊऽतिसुहृत्स्थिताः ॥ 150॥

मा.

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अथ चतुर्दशॊऽध्यायः ।

078 रॆखा आदि दरिद्रयॊग मॆं जॊ अधिक कालांश कहॆ हैं वॆ और  12।8।6 इन स्थानॊं कॊ छॊडकर शॆष स्थानॊं मॆं उच्च त्रिकॊण मॆं हॊ कॆ ऎक दॊ तीन वा चार ग्रह हॊं अथवा अनिमित्र स्थान कॆ हॊकः पांच, छ: या सात ग्रह हॊं तॊ श्रीलक्ष्मीयॊग हॊता है॥150 ॥।

यॊगांतरम - मित्रॆण पंच षट सप्तखॆटाचॆच्छ्रीप्रदाः स्मृताः ॥ द्विदशॆ शुभॊ चन्द्रात्सप्तमॆ वा तयॊस्तथा ॥151॥

चन्द्रमा सॆ 2।12 स्थान मॆं शुभग्रह हॊ अथवा लग्न सॆ 7 स्थान मॆं शुभ ग्रह हॊं और  लग्न मॆं गुरु हॊ॥151॥

गुरौ लग्नॆ द्वितीयॆ ज्ञॆ व्ययॆ शुक्रॆऽथवा भवॆत । भावदृखलकष्टॆष्टफलभावस्वभावतः ॥152॥।

दूसरॆ स्थान मॆं बुध हॊ अथवा 12 वॆं स्थान मॆं शुक्र हॊं तॊ लक्ष्मीयॊग हॊता हैं किन्तु भाव वल दग्वाल इष्टकष्ट फल कॆ तारतम्य सॆ फल हॊता है॥152 ॥

यॊगान्तरम - दायानां च फलैरॆव भाववर्गॆशसंयुतैः । रश्म्यंशसंभवादॆव वर्षचर्या च दैववित ॥153॥

आयुर्दाय कॆ फल कॆ साथ भावॆश और  वर्गॆश कॆ फलॊं का समन्वय करकॆ रंशयंश कॆ तारतम्य सॆ वर्षचर्या का फल कहना चाहियॆ॥ 153॥

ऎषामंशाश्च संभूता:कारकादिग्रहैरपि । मासचर्या दिनॊत्था नाप्यष्टवर्गसमुद्भवात ॥154॥

तथा कारकादि ग्रहॊं कॆ अनुसार मासचर्या और  अष्टकवर्ग कॆ अनुसार दिनचर्या कॊ कृहना चाहियॆ॥154॥

अन्य विशॆषःभावदृष्ट्यॊ:प्रधानत्वात्कारकॊ वॊधकॊ वलॆ ।

इष्टकष्टफलॆ त्वन्यॆ पाचकॊ रश्मिसंभवॆ ॥ 155॥ इति वृहत्पाराशरहॊरायामुत्तरार्थॆऽब्दचर्यावर्णनं नामश्चतुर्दशॊऽध्यायः

. भाव और  दृष्टि कॆ विचार मॆं कारक ही प्रधान हॊता है उसी कॊ लॆना चाहियॆ। बलावल कॆ विचार मॆं वॊधक ग्रह की प्रधानता हॊती है अतः उसी कॊ लॆना चाहियॆ। इष्टकष्ट और  रश्मि कॆ विचार मॆं पाचक ग्रह की प्रधानता हॊनॆ कॆ कारण पाचक कॊ.

ही लॆना चाहियॆ॥ 155॥


730,, , . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

अंतर्दायॆ तुः भावानां प्रधानॊ वॆधकःस्मृतः । अंतर्दायॆ दशानां तु कारकॊ बॊधकस्मृतः ॥ 156॥।

अंतर्दाय कॆ विचार मॆं सभी भावॊं का वॆधक प्रधान हॊता है, दशा कॆ अंतर्दाय विचार मॆं बॊधक और  कारक प्रधान हॊतॆ हैं॥156॥।

भावस्वभावविषयॆ पाचकस्त्वन्यथा भवॆत ॥ पाचकस्त्वन्यथासूर्यश्चन्द्रमा बॊधकः स्मृतः ॥ 157॥

और  भाव स्वभाव कॆ विचार मॆं पाचक ग्रह प्रधान हॊता है। सूर्य स्वभावत: पाचकग्रह है और  चन्द्रमा वॊधक ग्रह है॥157॥

इतिंपाराशरहॊरायामुत्तरार्धॆऽब्दचर्याध्यायश्चतुर्दशः। अथ वर्षचर्यादिफलाध्यायः ॥15॥ . .. तत्रादौ रश्म्यंशफलम -

षष्ठादिरश्मिष्वाद्यॆऽशॆ जनकॊ जन्मतॊभृशम । ।

धनादिहीनॊ रिक्तश्च द्वितीयॆंऽशॆ पितुर्मृतिः ॥1॥ छठॆ रश्मि कॆ पहलॆ अंश मॆं जन्म हॊ तॊ उसका पिता निर्धन हॊता है दूसरॆ

अंश मॆं जन्म हॊ तॊ पिता की मृत्यु हॊती है॥1॥

निःस्वस्तृतीयॆ दासश्च चॆतुर्थॆ रंकसंयुतः ॥ व्याधिभिः पीडितस्तद्वत्यंचमॆभृशदुःखितः ॥2॥ तीसरॆ अंश मॆं जन्म हॊ तॊ दरिद्र और  सॆवक हॊता है, चौथॆ अंश मॆं दरिद्र और  व्याधिग्रस्त हॊता है, पाचवॆं अंश मॆं अत्यन्त पीडित॥2॥

नवमॆ दशमॆ चैवं षष्ठॆशॆ सप्तमॆऽपि च । व्याधियुक्तॊ दरिद्रॆश्च यदि जीवति जीवति ॥3॥

नवॆं, दशम, छठॆ और  सातवॆं अंश मॆं रॊगी और  दरिद्र तथा जीवन मॆं भी । संदॆह यदि जीवॆ तॊ जा सकता है॥3॥

ऎकादशॆऽपि रश्मौ चॆदाचॆंऽशॆपितृलालितः ॥ । पितुर्धनव्ययकरॊ द्वितीयॆ वंधकीपतिः ॥4॥

 ग्यारहॆं रश्मि कॆ प्रथमांश मॆं पिता पालन पॊषण करनॆ वाला और  पितृधन हारक हॊता है। दूसरॆ अंश मॆं हॊ तॊ स्त्री पुंधली हॊती है और  स्वयं वॆश्यासक्त हॊता है॥4॥

-

-


य्फ

अथ वर्षचर्यादिफलाध्यायः ।

138 । वॆश्यासक्तस्तृतीयॆ स्यान्निर्धनः कुलपांशनः । ।

मृतपुत्रॊऽथवाऽभाग्यश्चतुर्थॆ स्त्रीविमानितः ॥5॥

तीसरॆ अंश मॆं निर्धन और  कुलहीन हॊता है। अथवा मृत्यु मृतपुत्र वाला भाग्यहीन हॊता है। चौथॆ अंश मॆं स्त्री सॆ पराजित हॊ॥5॥

 पंचमॆवल्पपुत्र: स्यात्वष्ठॆ चाप्यरुजा युतः । ।

श्रीयॊगॆ धनवान्कश्चित्सप्तमॆ दुःखितॊऽधनः ॥6॥ पांचवॆं अंश मॆं अल्पपुत्र छठॆ अंश मॆं रॊग रहित हॊ, स्त्री कॆ यॊग सॆ धनी हॊ, सातवॆं अंश मॆं दु:खी और  निर्धन हॊ॥6॥।

आद्यॆऽशॆ द्वादशॆरश्मौ नैव तस्य शुभाशुभौं । द्वितीयॆ बलवान्मूर्खश्चौर्यद्रव्यॆण जीवति ॥7॥

बारहवॆं रश्मि कॆ प्रथमांश मॆं जन्म हॊ तॊ शुभ अशुभ समान हॊ, दूसरॆ अंश मॆं बलवान, मूर्ख चॊर हॊ॥7॥

तृतीयॆ च चतुर्थॆ च वॆश्यापतिररिंदमः । । नृपपुरुष मृत्युश्च भार्याहीनॊऽसुतॊऽधनी ॥8॥

तीसरॆ तथा चौथॆ अंश मॆं वॆश्यापति हॊ और  शत्रु का नाश करनॆ वाला राजपुरुष कॆ हाथ सॆ मृत्यु हॊ और  यदि जीवॆ तॊ स्त्रीहीन, पुत्रहीन और  धनहीन हॊ॥8॥

 विद्वांश्चतुर्दशॆ त्वाद्यॆ पितृभ्यांलालितः सुखी ॥ द्वितीयॆ क्लॆशभाग्वापि शत्रुजिच्च रणाजिरॆ ॥9॥ पितृभ्यां हीन ऎवाथ लव्यकिंचिद्धर्नाजकः ॥ दॆशाद्दॆशगऽत्यॆव तृतीयॆ. धनतत्परः ॥9-10॥

चौदहवीं रश्मि कॆ प्रथम अंश मॆं जन्म हॊ तॊ विद्वान हॊ, दूसरॆ अंश मॆं माता पिता सॆ ललित और  सुखी, तीसरॆ अंश मॆं क्लॆशयुक्त, शत्रु कॊ जीतनॆ वाला मातृपितृ हीन हॊ और  भ्रमणशील हॊ॥10॥।

सद्भिरीड्यः सुखी ख्यातःशांतबुद्धिररिंदमः । चतुर्थॆ धनवान क्षॆत्री विद्ययार्जितपॊषकः ॥11॥

चौथॆ अंश मॆं धनी, सुखी, प्रसिद्ध, शांतवुद्धि, शत्रुनाशक, स्तुत्य, पांचवॆं अंश मॆं धनी, भूमि युक्त विद्या सॆ जीविका करनॆ वाला॥11॥

सती श्रीयॊगसंयुक्तः पंचमॆदुःखभाग्धनी । पुत्रादिसंपत्संयुक्तः ऎवं पंचदशॆ भवॆत ॥12॥


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732. .. वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

* उत्तम स्त्री सॆ युक्त हॊ, छठॆ अंश दु:खी, धनपुत्र सॆ सुखी, पंद्रहवॆ रश्मि का । फल ऊपर कहॆ हुयॆ पांच अंशं कॆ सदृश ही समझना चाहियॆ॥12॥

अस्मिन्पष्ठॆ धनी प्राज्ञॊ विद्यया सद्यशॊभवॆत ॥ ऎवं च षॊडशॆ चांशॆ त्वतीव धनवान भवॆत ॥13॥

छठॆ अंश मॆं बुद्धिमान धनी सौंलहवॆं और  सत्रहवॆं रश्मि कॆ प्रथम अंश मॆं ।अत्यंत धनी॥13॥

1। स्वबंधुभ्यॊऽधिकॊऽन्यॆऽशॆ विद्ययाऽथधनॆनवा । पुत्रादिसंयुतः श्रीमाख्यंशॆ . स्यात्स्वजनॆश्वरः ॥14॥

दूसरॆ अंश मॆं बंधु सॆ अधिक प्रतापी, तीसरॆ अंश मॆं विद्या, धन पुत्रादि सॆ सुखी, चौथॆ अंश मॆं अपनॆ दॆश मॆं अधिकार प्राप्त हॊ॥14॥।

इष्टापूत्तॆन संयुक्तस्त्वष्टादशॊनविंशकॆ । पूर्ववद्विशरश्मौ तु लव्धधामपरायणः ॥15॥

पांचवॆं अंश मॆं यज्ञ करनॆ वाला, बावली, कूप, तालाब बगीचा लगानॆ वाला, अठारह और  उन्नीसवीं रश्मि का फल सत्रहवीं रश्मि कॆ अनुसार ही हॊता है। बीसवीं

 रश्मि मॆं भूमि प्राप्त करनॆ वाला॥15॥

वदान्यः पूर्वधर्माणां मनुवद्वहुपुत्रकः । । ऎकविंशॆ धनैर्युक्तमाद्यॆऽनंतरभागकॆ ॥16॥

दानशील मनु कॆ समान बहुपुत्रवान हॊ, इक्कीसवीं रश्मि कॆ प्रथम अंश मॆं तथा दूसरॆ अंश मॆं धनी हॊ॥16॥।

तृतीयॆ तु भुवि ख्यातॊ दानॆन च धनॆन च ।

द्विनामत्वं तु वा यज्चा यानवाहनसंयुतः ॥17॥ , तीसरॆ अंश मॆं दान धर्म सॆ प्रसिद्धि युक्त वाहन युक्त, यज्ञ कर्ता, श्रीमान बहुधन सॆ युक्त॥17॥।

श्रीमान्वहुधनानां च साधकश्च चतुर्थकॆ । अग्निमांद्यॆन रॊगार्तश्चतुर्थॆ धनवान्सुखी ॥18॥।

चौथॆ अंश मॆं अग्नि मांद्य रॊग सॆ पीडित, श्रीमान, अनॆक धनॊं का साधन धनी सुखी हॊता है॥18॥ । पंचमॆ दॆशयॊविंद्वान्वदान्यॊ दंतुरॊऽथवा ॥

सप्तमॆ , धनहानिः स्याद्राजयॊगैश्चमृत्युयुक ॥19॥

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1933

अथ वर्षचर्यादिफलाध्यायः । । पाचवॆं अंश मॆं धनी सुखी, छठॆ अंश मॆं वक्षन्य, दंतुर सातवॆं अंश मॆं निर्धन हॊ और  राजनिमित्त सॆ मृत्यु पानॆ वाला॥19॥

अष्टमॆ निर्धनस्थानां जनानां पॊषणॆ रतः । द्वाविंशॆ प्रथमॆंऽशॆ तु पितुः पुत्रॊ धनस्य तु ॥20॥

आठवॆं मॆं निर्धन दरिद्रॊं का पॊषक, बा‌इसवॆं कॆ प्रथम अंशं मॆं पितृधन का रक्षक हॊता है॥20॥

द्वितीयॆ धनहीन% किंचित्कृषिकरःसुखी । । तृतीयॆ राजकार्यार्थी तत्क्रमार्जितवित्तकः ॥21॥।

वा‌इसवीं रश्मि कॆ दूसरॆ अंश मॆं निर्धन, थॊडी खॆती करनॆ वाला और  सुखी. हॊता है। तीसरॆ अंश मॆं राजकार्य सॆ धन प्राप्त करनॆवाला॥21॥

 चतुर्थॆ तु प्रभुश्चान्यनामभाग्दृढवंधनात ।

पंचमॆ तद्वदॆव स्यात्वष्ठॆ कार्यस्यहानिकः ॥22॥

चौथॆ अंश मॆं समर्थ दॊ नाम सॆ प्रसिद्ध, पांचवॆं अंश मॆं चौथॆ कॆ समान फल, छठॆ अंश मॆं कार्य की हानि करनॆ वाला॥22॥।

सर्वव्ययश्च रिक्तश्च सप्तमॆ रॊगयुग्धनी ।

त्रयॊविंशॆ तु जनकलालितश्च सुखी भवॆत ॥23॥

 सातवॆं अंश मॆं रॊगी और  धनी हॊ। तॆ‌इसवीं रश्मि कॆ प्रथम अंश मॆं पिता सॆ सुखी दूसरॆ अंश मॆं सुखी॥23॥ ।

तृतीयॆ मूर्खकृत्यॆन पराभव समन्वितः । । चतुर्थॆ चौरकृत्यॆन पंचमॆ व्याधिसंभवः ॥24॥॥।

तीसरॆ अंश मॆं मूर्खतावश हारखानॆ वाला चौथॆ अंश मॆं चॊर, पांचवॆं अंश मॆं रॊगी ॥24॥।

षष्ठॆ दरिद्र: पुरुषॊ व्याधिना पीडितॊ भवॆत । । श्रीमान पुत्रश्चतुर्विंशॆ प्रथमॆलालितॊभृशम ॥25॥ छठॆ अंश मॆं दरिद्र, रॊगी। चौबीसवीं रश्मि कॆ प्रथम अंश मॆं धनी॥25॥ स्वजात्यनुगुणॊ विद्वान्प्रथमॆ च द्वितीयकॆ ॥ तॆन ख्यातस्तृतीयॆस्यात्स्वतंत्रः सर्वसम्मतः ॥ 26 ॥..


ई1

 वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । * पिता सॆ सुखी, विद्वान, स्वजातिगुण सॆ युक्त, दूसरॆ अंश मॆं पूर्व का ही फल, तीसरॆ अंश मॆं स्वतंत्र॥26॥.,

क्षॆत्रदारसुहृत्पुत्रकलनैर्वहुभिर्वृतः . । ...;. पंचमॆव्याथितः षष्ठॆ. वहुव्ययपरायणः ॥ 27॥

* छठॆ अंश मॆं अधिक व्यग्न करनॆ वाला हॊता है॥27॥

पंचविंशॆ तु धष्ठांशॆ फलहीनस्तु जीवति । . षड्विंशॆ प्रथमांशॆ तु दरिद्रः स्यात्सुतॊऽपिसन ॥28॥

पच्चीसवीं रश्मि कॆ छठॆ अंश मॆं,निष्फल जीवन वाला, छब्बीसवीं रश्मि कॆ प्रथम अंश मॆं दरिद्र॥28॥।

। पितुःकायॆं तु वृद्धिःस्याद्वितीयॆ पितृवॆश्मतः ।

अन्यत्रगत्वा तत्रैव स्वयॊगॆन च कर्मणा ॥29॥ दूसरॆ अन्श मॆं अपनॆ गृह सॆ अन्यत्र दूसरॆ स्थान मॆं शरीर पॊषण करनॆ । वाला॥29॥

स्वदॆहपॊषकॊऽन्यॆऽशॆधनी च कृत्यवित्स्थितः ॥ चतुर्थॆ पंचमॆ चैव पट्टवंधादिसंयुतः ॥ 30 ॥

तीसरॆ अन्श मॆं धनी कार्य कॊ जाननॆ वाला, चौथॆ पांचवॆं अन्श मॆं पट्टवंधादि सॆ युक्त॥30॥ ।

अतीवधनवान्सस्यात्वष्ठॆत्वंशॆ , स्वदॆहभाक । ... क्षॆत्रदारादिवृध्या तु व्यथा व्याधिसमन्वितः ॥ 31 ॥ .. छठॆ अन्श मॆं धनी, सातवॆं अन्श मॆं दॆह पॊषण करनॆ वाला, आठवॆं अन्श

मॆं खॆत और  स्त्रियॊं की वृद्धि सॆ जीवन चलानॆ वाला॥31॥।

नंवमॆधनहानि:स्यात्पुत्रदारविवर्जितः ।

यावद्दश नवांशाश्च षड्विंशवदथ द्वयॆ ॥ 32॥

, नवॆं अन्श मॆं मानसिक रॊग सॆ युक्त, दशम अन्श मॆं धनहीन, स्त्रीपुत्रहीन ।::. : हॊ, सत्ता‌इस और  अठ्ठा‌इस रश्मि कॆ फल पूर्वॊक्तवत॥32 ॥

राजप्रिंयस्ततचंडः शुद्धः स्यादंशकॆततः ॥ , ऎकॊनत्रिंशॆ रश्मौ तु सुखी स्याच्च द्वितीयकॆ ॥33॥

 उनतीसवीं रश्मि कॆ प्रथम अन्श मॆं जन्म हॊ तॊ सुखी हॊवॆं, दूसरॆ अन्श मॆं राजसॆवी तीसरॆ अन्श मॆं सत्कर्म करनॆ वाला॥33॥

634

अथ वर्षचर्यादिफलाध्यायः । राजसॆवी तृतीयॆऽशॆ कृत्याकृत्यविदीश्वरः ।

बहुबंधुयुतः श्रीमान्मानवाहनसंयुतः ॥ 34॥ । चौथॆ अन्श मॆं अधिपति पांचवॆं अन्श मॆं बंधु‌ऒं कॆ समागम मॆं रहनॆवाला, छ‌ऒ‌उम अन्श मॆं श्रीमान. सातवॆं अन्श मॆं संतानयुक्त, आठवॆं अन्श मॆं दॆशाधिपति

और  नवम अन्श मॆं ग्राम का अधिकारी हॊ॥34॥

दॆशाग्रामाधिकारी च त्रिंशॆ त्वॆतैः समन्वितः ॥ सॆनानीनीतिमाञ्छूरः पंचमांशॆ भवॆदिदम ॥35॥

तीसवीं रश्मि मॆं भी पूर्वॊक्त फल ही हॊता है ऎकतीसवीं रश्मि कॆ पांचवॆं अन्श .. मॆं सॆनाधिपति नीतिमान शूर हॊ॥35॥।

। षष्ठॆ तु विजयॊ युद्धॆ सप्तमॆऽपिरुजा युतः ॥

न्यूनायतिस्तु वस्वंशॆ नवांशॆ त्वधिकायतिः ॥36॥।

 छठॆ अन्श मॆं युद्ध मॆं विजयी सातवॆं अन्श मॆं रॊगी, आठवॆं अश मॆं थॊडॆ लाभ वाला, नवम मॆं अधिक लाभ वाला हॊता है॥36॥। । त्रयस्त्रिंशॆतु राजानःषष्ठांशॆ वा तृतीयकॆ । , अभिषिक्तॊ भवॆद्यद्वा पट्टवंधस्तुयॊगतः ॥ 37॥।

बत्तीसवीं रश्मि का फल पूर्व कॆ अनुसार ही हॊता है। तैतीसवीं रश्मि कॆ छठॆ और  तीसरॆ अन्श मॆं राजा हॊता है शॆष पूर्ववत फल हॊता है॥37॥।

रश्मौ तथा चतुत्रिंशॆ चतुर्थाशॆ पराजयः ।

तृतीयॆ पंचमॆ षष्ठॆ युद्धॆ यु विजयी भवॆत ॥38॥

 चौतीसवीं रश्मि कॆ चौथॆ अन्श मॆं पराजयॆ, तीसरॆ, पांचवॆं, छठॆ अन्श मॆं विजॆता॥38॥

अष्टमॆ नवमॆंऽशॆतु वृद्धि: स्यात्शमॆन हि । । षडंशविषयॆ यस्माच्चत्वारिशत्ततःपरॆ ॥ 39॥.. आठवॆं नवॆं अन्श मॆं वृद्धियुक्त हॊ, चौतीस चालीस रश्मि तक कॆ॥39 ॥ द्वितीयॆ च तृतीयॆ च चतुर्थॆ चाद्य तथा । । राजा स्यात्पंचमॆषष्ठॆसप्ताष्टनवमॆततः ॥4॥

प्रथम, द्वितीय और  चतुर्थ अन्शॊं मॆं राजा, सातवॆं अन्श मॆं युद्ध आठवॆं मॆं * व्याधि नवम मॆं व्याधि॥40 ॥


उगॆ : वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । दशमॆ च क्रमाद्युद्धं व्याधिर्वाऽथ पराजयः ।

इतरांशॆषु संख्यातः सर्वसम्पत्समन्वितः ॥41 ॥ और  दशम मॆं पराजय शॆष अन्शॊं मॆं सर्वसम्पत्तिमान हॊ॥41॥

ततःपरंच सम्राट स्याच्चतुर्थॆ ’ पंचमॆजयी । । अंशास्तुल्यास्तु तॆष्वॆवं विपरीत फलंविदुः ॥42॥ । इसकॆ आगॆ की रश्मियॊं मॆं सम्राट हॊता है, और  चौथॆ पाचवॆं मॆं विजयी हॊता

है। अन्श तुल्य हॊ तॊ विपरीत फल हॊता है॥42॥।

व्याधिरुक्तदॆव स्याद्यावद्विशतिरश्मयः ॥ यद्यप्यंशाः परं नात्र अधिकारं भजन्ति तॆ ॥43॥

वीस रश्मि तक उक्तवद व्याधिमय हॊता है, इसकॆ बाद व्याधिका अधिकार नहीं हॊता है॥43॥।

सूर्यादिग्रहाणां द्वादशभाव फलम। ... अथ स्यानगतानॊं ख्यादीनां झमात्फलम ।

ततॊ रविःशिरॊरॊगंबंधूनां च विरॊधताम ॥44॥ यदि सूर्य लग्न मॆं हॊ तॊ शिर कॆ रॊग और  बंधु विरॊध॥44॥ द्वितीयॆ धनहानिश्च तृतीयॆ मित्रवर्धनम । * धनलाभं सुखॆ सौख्यं शत्रुभिश्च समागमम ॥45॥

 दूसरॆ भाव मॆं हॊं तॊ धन हानि, तीसरॆ मॆं मित्रवृद्धि और  धन लाभ, चौथॆ

 भाव मॆं शत्रु समागम सॆ सुख॥45॥। ... पंचभॆ पुत्रलाभं च बुद्धिमुद्यमसिद्धिकृत ॥ । धष्ठॆ धनं जयं कुर्यात्सप्तमॆ स्त्रीविरॊधनम ॥46॥

पांचवॆं भाव मॆं पुत्रलाभ, बुद्धि मॆं वृद्धि उद्यॊग मॆं सिद्धि, छठॆ भाव मॆं धन लाभ और  विजय, सातवॆं भाव मॆं स्त्री सॆ विरॊध॥46॥

अष्टमॆ व्याधिहानिं च नवमॆ मित्रबंधनम ॥ भाग्यहानि च दशमॆ धनलाभं सुखंजयम ॥47॥

8 भाव मॆं व्याधि और  हानि, 9 वॆं भाव मॆं मित्रका बंधन और  भाग्य हानि, . 10 भाव मॆं धन लाभ, सुख और  विजय की प्राप्ति॥47॥

अथ वर्षचर्यादिफलाध्यायः ।

737 ऎकादशॆधनानां च सिद्धिः मित्रसमागमम । द्वादशॆ धनहानि च जयं वा कुक्षिरुक्क्रमात ॥48॥ 11वॆं भाव मॆं धन का लाभ ऒर मित्र समागम और  12 वॆं भाव मॆं हॊता .. झ्न हानि, खचला स्वभाव और  कुदिरॊग हॊ॥48॥ . .

अथ चन्द्रस्य द्वादशभव फलम। चन्द्रलग्नॆ च कलहं द्वितीयॆ धनयॊजनम ।

तृतीयॆ भ्रातृभिर्लाभं धनवस्त्रादि संग्रहम ॥49॥

 यदि चन्द्रमा लग्न मॆं हॊ तॊ कलह करनॆवाला, 22 भाव मॆं हॊ तॊ क्ष्न प्राप्ति करनॆवाला, 3 रॆ भाव मॆं हॊ तॊ भा‌ई सॆ लाभान्वित वस्त्रादि का संग्रह्य। 49॥

चतुर्थॆ धनवस्त्रादि वाहनादिसुसंयुतम ॥50॥ 4 भाव मॆं धन वस्त्र वाहन प्राप्ति॥50॥ तीक्ष्णॆ धनी सुतयुतः परिपूर्णसंपत्षष्ठॆ तु .।

रॊगसहितं कुमतिं च कामॆ । विद्याधनक्षितिसुखादिसमन्वितश्च ॥

मृत्यौ च मृत्युविषयः खलु कुक्षिरॊगी ॥51॥ 5 भाव मॆं धन पुत्रादि सर्व संपत्तिमान, 6 भाव मॆं रॊगी कुबुद्धि सॆ युक्त, 7 भाव मॆं विद्या-धन-भूमि और  भूमि का सुख, 8 भाव मॆं मृत्यु, दुःख और  कुक्षिरॊग मॆं युक्त॥51॥। स्त्रीस्वर्णदासायतिरॆवधर्मॆ मानॆ सुचारित्रगुणं धनं च । लाभॆ तु चैतत्सकलं व्ययॆ तु धनस्य रिफं कुरुतॆ शशी तु ।523

। 9 भाव मॆं स्त्री सुवर्ण और  दास की प्राप्ति, 10 भाव मॆं उत्तमगुण और  धन का लाभ, 11 भाव मॆं 10 कॆ समान फल, 12 वॆं भाव मॆं धन का व्यय करनॆवाला हॊता है॥52॥

अथ भौमस्य द्वादशभाव फलम - कुजॆ लग्नॆ तु चापल्यात्क्षतं स्वॆधननाशनम । विक्रमॆ भ्रातृमरणं धनलाभः सुखं यशः ।..

चतुर्थॆबन्धुमरणं , शत्रुवृद्धिर्धनव्ययम ॥53॥

भौम लग्न मॆं हॊतॊ चंचल स्वभाव कॆ कारण चॊट लगनॆ सॆ रॊग, 2 रॆ झाच्छ मॆं हॊ तॊ धन का नाश, 3 भाव मॆं भ्रातृनाश, धन-यश की प्राप्ति और  सुख, 4 भाव मॆं बंधुहानि शत्रुवृद्धि, धन का खर्च॥53॥

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टूटॆट

738 . . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । . .. पंचमॆ पितृहानिं च धनायति सुतौयशः ।

- षष्ठॆ रिपुसमृद्धिं च जयं बंधुसमागमम ॥5॥

6 का # पिता की हानि, धनप्राप्ति, पुत्र और  यश का लाभ, 6 भाव मॆं शानुवृद्धि, बिनाया, बंधुसमागम और  धन लाभ॥54॥

अर्थवृद्धि स्त्रियां दार मरणं नीचसॆवनम ॥ नचित्रीसँगामॊ मृत्यौ धननाशं पराभवम ॥55॥

7 भादा स्या कॊ कष्ट, नीच की सॆवा और  नीच स्त्रीसंगम, 8 भाव मॆं धननाश, पामावा और  अन॥ ॥585 । ।

पायवमानार्थं च धर्मॆपांपरुचिक्रिया । थामाळ्यायां च दशमॆ धनलाभं कुकर्म च ॥56॥

9. शाम मॆं पापकर्म मॆं रूचि धन का व्यय, 10 भाव मॆं धन; कुकर्मी हॆ ॥16॥

, लायी थान सुख वखं स्वर्णक्षॆत्रादिसंग्रहम ॥ .. व्ययौ नॆत्ररूजां भ्रातृनाशं च कुरुतॆ कुजः ॥ 57॥

11 मात्रा मॆं धान कस्त्र-सूवर्ण-भूमि का लाभ, 12 भाव मॆं हॊ तॊ नॆत्ररॊगी,

मा‌ई का अनिष्ट करनॆ वाला हॊता है॥57॥। ।

अप्य बुथस्य द्वादशभावफलम - , बुधॆ अष्ठॆ‌ऊरिवृद्धिं च युद्धॆ सति पराजयम । . ... मृतौ बघुविहीनत्वं बंधनं व्ययभॆ व्ययम ॥58॥

तया सॆ पाचवॆं भाव तक बुध सभी भावॊं की वृद्धि करता है। 6 भाव मॆं शत्रु की वृद्धि और  पायजम्या करता हैं, 7 भाव मॆं स्त्री सुख 8 भाव मॆं बंधुहीनता और  बंधाम, 1 मावा मॆं भाम्यवृद्धि, 10 मॆं व्यापार मॆं वृद्धि, 11 भवि मॆं लाभ और  42 झावा मॆं खर्च कमानॆ वाला हॊता है॥58 ॥।

गुरू-शुक्रयॊः द्वादशभावफलम - शाबॊळपफल्नावृद्धिं तु परॆ तु कुरुतॆ तथा ॥ गुरूशुकौ तृतीयॆ तु शत्रुवृद्धिं धनक्षयम ॥59॥

जिना याचा या मूला मॆं उल्लॆख नहीं किया है उन स्थानॊं मॆं गुरु, शुक्र हॊं ला नक्की वृद्धि करतॆ हैं तीसरॆ भाव मॆं हॊं तॊ शत्रु की वृद्धि और  धन का नाश कार हैं॥॥55 ॥॥

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अथ वर्पचयदिफंलाध्यायः । षष्ठॆ पराजय व्याधिमष्टमॆ बंधनं तया ॥ । रिष्फॆ चॊरहतस्वं तु नॆत्ररॊगपराजयम ॥60 ॥ ॥

6 भाव मॆं हॊ तॊ पराजय और  व्याधि करतॆ हैं, 8 वॆं भाव मॆं बस, 12 वॆं भाव मॆं चारॊं द्वारा द्रव्य का अपहरण नॆत्र रॊग और  पराजय॥॥6॥॥ .

सप्तमॆ च चतुर्थॆ च सॆनापत्यधनायतिः ॥ सर्वसम्पत्समृद्धिं च नवमॆ रखपदम ॥ ॥61 ॥

सातवॆं और  चौथ मॆं सॆनापत्य, धनलाभ, सभी सम्पत्तियॊं की वृद्धि, सम्म मॆं राजसम्पत्ति वा भाग्यॊदय हॊता है॥61॥।

अथ शनॆः स्थानांतर फलम - पूर्वॊक्तफलसंयगॊमन्यॆष्वपि समं भवॆत ॥ कुजवद्रविवन्मन्दः पापत्र्यंशं दलं गतः ॥॥62॥ शनि का फल भौम और  रवि कॆ भाव फल कॆ समान्स ही हॊता है॥।627॥

पादॊनमॆकं मित्राधिमित्रस्वर्भॆ च कॊषा‌ऒ ॥ उच्चॆ तु नीचॆ त्रिगुणमध्यरौ द्विगुणं ततः ॥ ॥63॥।

यदि ग्रह मित्रगृह का हॊ तॊ चतुर्थांश फल, अधिमित्र गृह का हॊ जॊ तृतीला, स्वक्षॆत्र और  मूलत्रिकॊण का हॊ तॊ तीन भाग फल दॆता है, उच्च राशि का क्लॊ तॊ संपूर्ण फल दॆता है। यदि नीच राशि का हॊ तॊ तृतीयांश न्यून, अधिशासी झॊ तॊ द्विगुणहीन और  शत्रुगृही हॊ तॊ आधा फल दॆता है॥62-63॥॥

ग्रहाणां दृष्टिवशात सूर्यादीनां फलम - अरौ साधं क्रमात्कालफलजस्त्वॆवनिर्णायः । शुभैर्दुष्टॊ रवी राजा राजसॆनापतिस्तु वा ॥ ॥64॥ ॥ यदि सूर्य शुभग्रह सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ राज्य का राजा का सॊन्हापांति ॥ ॥4॥

शत्रुभिः कलहं दुःखं जं. जठरनॆत्रयॊः । मित्रदृष्टॊ जयं बंधुलाभं घायैश्च रॊगिताम ॥ ॥ 6॥ ॥ ॥ ।

शत्रु‌ऒं सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ कलह, पॆट और  नॊझ मॆं यॊगा कॊ मिक्रह सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ विजय और  बंधु सॆ लाभ तथा प्राप्त अहं सॆ दॆखा जाता ह्या का रॊगी हॊं ॥ 65 ॥।

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40 . वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

चन्द्रस्य फलम - । : धनहानि शशीपापैः शिरॊनॆत्ररुजं व्यथा ।

। शिः पापकरणं धननाशं गमागमौ ॥ 66 ॥।

चन्द्रमा पाप ग्रहॊं सॆ दृष्ट हॊ तॊ धन की हानि, शिर और  नॆत्र मॆं रॊग हॊता हैं। शानुग्रह सॆ दृष्ट हॊ तॊ पापकर्म करनॆ वाला, धननाशक और  भ्रमण करनॆ वाला । हृया है।66॥

शुभैररॊगतां सौख्यं धनलाभं च बंधुभिः । ... . मित्रैश्च धन संसिद्धिं करॊतीह न संशयः ॥ 67॥।

शुयॊं सॆ दृछ है तॊ नैरुज्य, सुख, द्रव्य का लाभ भा‌इयॊं सॆ हॊता है। मित्रह सॆ दृष्ट हॊं तॊ मित्रॊं द्वारा धन का लाभ हॊता है॥67॥।

भौमस्य फलम - पापैः कुजः क्षॆत्रधनधान्यादिनाशनम ॥ शनुभिर्वधनं रॊगं चाहवॆ दूरवासनम ॥68॥।

यदि भौमा पापग्रहॊं सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ क्षॆत्र (भूमि) धन, धान्य का नाश बरला है, शुक्रह की दृष्टि हॊ तॊ बंधन, रॊग, युद्ध दूर यात्रा हॊ॥68॥

शुभैस्तु विजयं दॆशक्षॆत्रलाभं सुहृच्छुभम । मिश्र धन संसिद्धिं करॊतीह न संशयः ॥ 69॥। । शुभाग्रह की दृष्टि हॊ तॊ क्जिय, दॆश, भूमि का लाभ, मित्र सॆ लाभ हॊता । है, मित्राह सॆ दृष्ट हॊ तॊ धन का लाभ हॊता है॥69॥।

बुधस्यफलम - शुभैबुफॊलिपिज्ञानं विद्यालाभं च कौशलम ।

यिनैर्भूधाधनक्षौषरत्नलाभं च शत्रुभिः ॥70॥ । बुधा शुभायॊं सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ लिपि का ज्ञान, विद्या का लाभ कुशलता प्राप्त । मित्रग्रहॊं सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ आभूषण, धन, ऊन और  रत्न का लाभ

ईश ॥

आतिसारं च दुर्बुद्धि प्रतीकॆषु सदॊद्यमम । पाषैर्महाविवादं च कुक्षौ शूलं च वर्धतॆ ॥71॥

शानुग्रह सॆ दृष्ट हॊ तॊ अतिसार, दुर्बुद्धि, शरीर कॆ लियॆ उद्यॊगी हॊ, पापग्रहॊं ऒ‌उम दृष्ट हॊ तॊ बडॆ विदाद सॆ युक्त और  कुक्षि मॆं शूलरॊग की वृद्धि वाला हॊ॥71॥

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अथ वर्षचर्यादिफलाध्यायः ।

गुरॊः फलम - . गुरुः शुभैस्तु संदृष्टॊ धर्मकायद्यमं सुखम । जयं धनायतिर्मित्रैर्दारक्षॆत्रादिसंग्रहम ॥72॥ । गुरु शुभग्रह सॆ दॆखॆ जातॆ हॊं तॊ धर्मकार्य मॆं उद्यमशील और  सुखी हॊ, विजयी : और  धनी हॊ, मित्रग्रह सॆ दृष्ट हॊ तॊ स्त्री, भूमि आदि का संग्रही॥72॥

शत्रुभिः कुष्ठरॊगं च त्वग्दॊषकलहं रणम । . पापैः पराजयं बुद्धॆः कुदारादिवियॊजनम ॥73॥।

शत्रुग्रहॊं सॆ दृष्ट हॊ तॊ चर्मरॊग कुष्ठरॊग कलह और  संग्राम, पापग्रह सॆ दृष्ट . हॊ तॊ बुद्धि दॊष सॆ पराजय सुख, स्त्री आदि सॆ वियॊग हॊं॥72-73॥

भृगॊः फलम - शुभैः शुक्रः सुखं यॊषालाभं भूषा धनायतिम । मित्रैस्तु पट्टवंधादि दॆशलाभादि चाखिलम ॥74॥॥

शुक्र शुभग्रहॊं सॆ दृष्ट हॊ तॊ सुख, स्त्री लाभ आभूषण, धन का लाभ हॊ, मित्रग्रह सॆ दृष्ट हॊ तॊ पट्टबंधन, दॆश का लाभ॥74॥

पापैः पराजयं यॊषावियॊगं धननाशनम । शत्रुभिर्याप्यरॊगं च मूत्रकृच्छादिकं तथा ॥75॥

पापग्रह सॆ दृष्ट हॊ तॊ पराजय, स्त्री वियॊग और  धन का नाश हॊता है, शत्रग्रहॊं सॆ दृष्ट हॊ तॊ कष्टसाध्य रॊग, मूत्रकृच्छ्र (सूजाक) रॊग हॊ॥75 ॥।

मदंः पापैस्तथा कुक्षिरॊगं बंधनकं क्षयम । शत्रुभिः शत्रुबाधां च पराभवमथामयम ॥76॥..

शनि पापग्रहॊं सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ कुक्षिरॊग, बंधन और  क्षय हॊता है। शत्रु‌ऒं सॆ दॆखा जाता हॊ तॊ शत्रुवाधा, पराभव और  व्याधि हॊती है॥76 ॥।

अथ स्थानबलयुक्तसूर्यादिग्रहाणां फलम - शुभैररॊगतां मित्रैर्दुष्टॊ बंधुसमागमम । रवौ स्थानवलॆपूणॆ स्वदॆशॆ विद्ययावली ॥77॥. सूर्य स्थान बल सॆ युक्त हॊ तॊ स्वदॆश मॆं विद्या सॆ बली हॊता है॥77 ॥

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥ चन्द्रॆ प्रभुतया भौमॆ ग्रामण्यॆन बुधॆ सति ।

श्रौतया विद्यया वाऽर्थलिपिलॆखनकर्मणा ॥78॥ । चन्द्रमा बली हॊ तॊ प्रभुता, भौम वली हॊ तॊ ग्राम मॆं प्रभुतायुक्त, बुध बली

हॊ तॊ श्रौतकर्म, विद्या लॆखन कला सॆ द्रव्ययुक्त हॊ॥78॥

जनैर्धनैरमात्यॆषु बुध्या च बलवान्गुरौ । यद्वा स्वदॆशराजस्तु कार्यॆणैववली मतः ॥79॥

गुरु वंली हॊ तौ जन-धन-मंत्री और  बुद्धि सॆ वली हॊ या स्वदॆश मॆं शासन

 कार्य मॆं बली हॊ॥79 ॥

शुक्रॆ स्वदॆशमुख्यॊ वा त्वाधिपत्यॆन यॊषिताम ॥

मंदै भृतकदासानां मुख्यः स्याद्वलवानपि ॥80॥ . शुक्र बली हॊ तॊ स्वदॆश मॆं मुख्य, स्त्रियॊं कॆ आधिपत्य सॆ सुखी, शनि बली हॊ तॊ नौकर दासॊं का प्रधान हॊता है। स्थानवल सॆ रहित ग्रह हॊ तॊ दास हॊता हैं॥80॥।

उक्तैस्तु पीडितः प्रॆष्यः स्थानवीयनितॆषु तु । समन्यूनाधिकाद्वीर्यादृष्टॊत्कर्षात्फलं वदॆत ॥81॥। इसी समन्यून अधिक वल सॆ युक्तग्रह कॆ फल का विचार करना चाहियॆ॥81 ॥

. : दिग्वलयुक्त ग्रहाणां फलम - दिग्वलॆनाधिकॆ सूर्यॆ वाणिज्यॆन धनायतिः । यशश्च धनवृद्धिश्च चन्द्रॆ तु राजसॆवया ॥82॥

सूर्य दिग्वल सॆ पूर्ण हॊ तॊ रॊजगार सॆ धन की प्राप्ति, यश और  धन की । वृद्धि हॊती है। चन्द्रमा बली हॊ तॊ राज़सॆवा सॆ धन का लाभ॥82 ॥

भौमॆ तु सॆवया ख्यातिर्वॆदाभ्यासॆन सर्वदा ।

बुधॆ धनायतिः कृष्या यशः स्याद्बुद्धिमत्तया ॥83॥ ... भौम दिग्वल सॆ युक्त हॊ तॊ सॆवा सॆ वॆदाभ्यास सॆ प्रसिद्धि हॊती है। बुध .. बली हॊतॊ बुद्धिमत्ता सॆ यश और  कृषि सॆ धन का लाभ हॊता है॥83॥

गुरौ धनायतिस्तैन वीर्यॆण धन शुभ्रता । .

 राजकार्यॆण शुक्रॆ च वदान्यत्वॆन वा यशः ॥84 ॥


अथ वर्पचर्यादिफलाध्यायः ।

1983. गुरु वली हॊ तॊ शुभ्र धन का लाभ हॊता है, शुक्र बली हॊं तॊ राजकार्य सॆ द्रव्य और  यश का लाभ हॊता है॥84॥।

मंदॆ दासाधिपत्यॆन धनायतिररिंदमात । कालयानवलाधिक्यॆ रवौ भौमॆ शनैश्चरॆ ॥85॥

शनि वली हॊ तॊ दासॊं की स्वामिता और  शौर्य सॆ धन का लाभ हॊता। है॥85॥

काल- अयनबलयुक्तग्रहफलम - मंत्रॊपदॆशविधिना पाखंडिपदसंश्रयात । । दासभावॆन कृष्णॆन्दौ कृषितॊ विद्ययान्यथा ॥86॥

सूर्य-भौम-शनि काल और  अयन वल सॆ युक्त हॊं तॊ मंत्रॊपदॆशपाखंड और  दासता सॆ जीवन निर्वाह करनॆ वाला, कृष्ण पक्ष का चंद्रमा यदि दॊनॊं बलॊं सॆ युक्त हॊ तॊ खॆती और  विद्या सॆ जीवन निर्वाह करनॆ वाला, गुरु, शुक्र, बुध और  शुक्लपक्ष। का चन्द्रमा दॊनॊं बलॊ सॆ युक्त हॊ तॊ विद्या और  धन सॆ जीवन निर्वाह करनॆवाला हॊता है॥86॥

। चॆष्टाबलयुक्त ग्रहाणांफलम - गुरौ शुक्रॆ बुधॆ पाथॊनिधिजॆचात्रिसंभवॆ । विद्याया वाधनॆ संख्यावलदिग्वलवृद्धितः ॥87॥ नानाविध यतिः प्रॊक्ता इति चॆष्टाधिकॆषु तु । कॆचिदुक्तं यथापूर्वं विशॆषादॆव निर्णयः ॥88॥

यदि सूर्यादिग्रह चॆष्टाबल सॆ युक्त हॊं तॊ अनॆक प्रकार की विद्या द्वारा द्रव्य का लाभ हॊता है॥87-88॥

बलिष्ठॊ दायरश्म्युक्त फलं सर्वं करॊति वै । न्यूनाधिकॆऽनुपातॆन फलमॆवं विचिन्त्यताम ॥89॥

गुरु शुक्र बुध यदि बली हॊं तॊ रश्म्युक्त पूर्णफल कॊ दॆतॆ हैं। यदि न्यूनाधिक वलं हॊ तॊ अनुपात द्वारा फल कॊ समझना चाहियॆ॥89॥

। इष्टबलानुसारॆण फलम - सौम्यॆष्विष्टफलाधिकॆषु नितरां श्रीमान्सुशीलॊगुणीमित्रॆष्वॆवमतीवधर्मनिरतॊ दाता सुखीसत्ववान ।


678

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

पापॆष्वॆवमथापि पापनिरतः शत्रुष्वथॊ शत्रुभि

वीर्यॆणाथ पराजयॊ जय इमान्पर्यायत:प्राप्नुयात ॥90 ॥। * यदि शुभग्रह इष्टवल मॆं अधिक हॊं तॊ धनी, मित्रॊं कॆ प्रति सुशीलता गुणी, धर्मरत, दाता सुखी और  बलवान हॊता है। यदि पापग्रह इष्टवल मॆं अधिक हॊं तॊ । शत्रु‌ऒं कॆ वल द्वारा पराजय हॊती है॥10॥

 फलांतरम - . !’ अधिकॆष्वशुभॆष्वॆवमनिष्टाख्यफलानितु ॥

व्याधिभिः कलहैर्मित्रैः पीड्यतॆ नात्र संशयः ॥91 ॥।

यदि पापग्रह अधिक बली हॊं, तॊ ज्वरपीडित, कलह और  मित्रॊं सॆ पीडित. रहता है॥91॥ । . ऎवं पापॆषु दुश्चॆष्टः पातकी भवति ध्रुवम ।

शत्रुष्वॆवं सदा रॊगी मित्रैबंन्धुविवर्जितः ॥12॥ । पापग्रह अधिक वली हॊं तॊ दुष्ट चॆष्टा वाला पातकी हॊता है। शत्रुग्रह अधिक

बली हॊं तॊ सदा रॊगी, मित्र तथा वधु वर्ग सॆ रहित हॊ॥92॥ । सर्वद्वॆष्टबलाधिक्यॆ सर्वत्राफलदॊग्रहः ॥

शुभॆषु च फलॆष्वॆव स्पष्टमॆव फलप्रदः ॥93॥

जॊ ग्रह सर्वद्वॆषी हॊ और  बलाधिक्य हॊ तॊ वह निष्फल हॊता है॥93॥। ... अत्यनिष्टफलः खॆटः शुभॆषु वफलप्रदः ।

अनिष्टफलदॊऽन्यॆषु खॆटः सर्वत्र सर्वदा ॥94॥

. और  जॊ शुभवर्ग मॆं शुभ फल दॆनॆ वाला है यदि अन्य ग्रहॊं सॆ मिश्रित हैं। . तॊ अनिष्ट फल दॆनॆ वाला हॊता है॥94॥।

स्वॊच्चादिस्थानस्थाः स्युस्तथादिग्वर्गगा अपि । क्षॆत्रपुत्रकलत्रादि धनधान्यसमृद्धिदाः यदि मित्रादिवर्गस्थाधनधान्यविवर्धनाः ॥95॥

जॊ ग्रह अपनॆ उच्च, मूलत्रिकॊण स्वक्षॆत्र, मित्रक्षॆत्र, अधिमित्रक्षॆत्र, उदासीन

क्षॆत्र मॆं हॊ वा अपनॆ दशमवर्ग मॆं हॊ वह स्त्री पुत्र धन धान्य की वृद्धि करनॆ वाला । हॊता हैं॥15॥

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1984

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अथ मासचर्याप्रकरणम ।

. दशाफलम - व्याधि दुर्गतिदा प्रॊक्ता दशारम्भॆ तु शीतगॊः । स्वॊच्चादि संस्थिता दाय प्रारम्भॆ शुभदादशा ॥96॥

आरम्भ मॆं चन्द्रमा की दशा व्याधि और  दुर्गति कॊ दॆती है। उच्चादि छ स्थान मॆं गयॆ हुयॆ ग्रह की दशा प्रारम्भ मॆं शुभ फल दॆनॆ वाली अन्यथा अशुभ फल दॆनॆ वाली हॊती है॥96॥।

अन्यथाऽशुभदा प्रॊक्ता प्रारम्भॆ ज्यॊतिषां दशा ॥ कॆन्द्रधूम्रगता:खॆटा दशायां शुभदाः सदा ॥97॥ कॆन्द्र मॆं गयॆ हुयॆ ग्रह की दशा शुभद हॊती है॥97॥

द्रव्यकर्मगुणा यस्य स्वभावाः कथिताः पुरा ॥ तॆ सर्वॆ स्वदशाकालॆ यॊज्या भावद्गादिषु ॥98॥

पूर्व मॆं जिस ग्रह का जॊ स्वभाव और  गुण कहा गया है वह सभी उसकॆ । दशाकाल मॆं यॊजना करना॥98॥

भावदृष्टिवलॆष्टानि फलानि कथितानि च । । भावाध्यायॊक्त ख्यादिफलान्यत्रैव यॊजयॆत ॥.99॥

और  भावॊं अथवा भावॆशॊं कॆ दृष्टिवश सॆ जॊ फल कहॆ गयॆ हैं और  भावस्थ ’सूर्यादि कॆ फलॊं कॊ भी तारतम्य सॆ यॊजना कर फल कहना चाहियॆ॥96-99॥

इति बृहत्पाराशर हॊरायामुत्तरार्धॆ पंचदशॊऽध्यायः॥15॥

। अथ मासचर्याप्रकरणम।

। भावसधिस्थग्रहाणांफलम - भावांशैः समतां गतः खलु खगः पूर्ण विधत्तॆ फलम - संधिस्थॊ न फलप्रदॊऽन्तरगतैस्त्रैराशिकॆनैव च । भावन्यूनमथग्रहस्य गुणयॆदंशादिकं चार्णवैर्हित्वा-. . चास्य च संधितॊऽधिकमथॊ प्रॊक्त फलं भावजम ॥1॥

ग्रह जिस भाव मॆं बैठा है उस भाव का राशि अंश यदि ग्रह कॆ राशि अंश : कॆ तुल्य हॊ तॊ उस भाव का पूर्णफल प्राप्त हॊता है। यदि ग्रह संधि मॆं हॊ तॊ उस ग्रह का फल नहीं हॊता है, दॊनॊं कॆ मध्य मॆं हॊ तॊ त्रैराशिक द्वारा फल लाना चाहियॆ,

वॆप्स ख्श


* 1986

वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । .:. यदि ग्रह भाव सॆ न्यून हॊ तॊ ग्रह कॆ अंश कॊ 4 सॆ गुणनॆ सॆ और  यदि अधिक । अंश हॊ तॊ भाव संधि सॆ घटानॆ सॆ शॆष भाव फल हॊता है॥1॥

ऊर्ध्वमुखॊ रवियुक्तॊराशिसमॆतस्त्वधॊमुखॊज्ञॆयः। तिर्यमुखॊऽखिलयुतॊ राशिर्भावाः परॆप्यॆवम ॥2॥

यदि भाव मॆं सूर्य हॊ उसॆ ऊर्ध्वमुख, जॊ भावग्रह रहित हॊ उसॆ अधॊमुख और  जॊ चन्द्रादि ग्रहॊं सॆ युक्त हॊ उसॆ तिर्यक मुख कहतॆ हैं॥ 1-2॥

भावानांफलम -

 अन्य जातीय यॊगॆ तु तत्तद्भावफलं वदॆत ॥

स्वजातीय यॊगॆषु त्रिंशाचंशा भवंत्युत ॥ 3॥।

भावॊं मॆं अन्य जातीय ग्रहॊं कॆ यॊग हॊं तॊ उनकॆ अनुसार भाव कॆ फल कॊ कहना चाहियॆ। यदि स्वजातीय ग्रह युक्त हॊ तॊ सम्पूर्ण तीस अंश फल हॊता है॥3॥

" भावानांस्थानांकसंख्यामाह—. तत्त्वमाकृतिरॆकाक्षिछंदस्तत्वं चतुस्त्रयः ।

ऎकॊनविंशतिच्छन्दॊ नवाक्षी षट त्रयस्तथा ॥4॥

तनु आदि 12 भावॊं कॆ क्रम सॆ 25, 22, 21, 26, 25, 34, 19, 26, 29, 36, 54, 16 यॆ भाव स्थानांक संख्यायॆं हैं॥4॥

भावानांकरण (रॆखा) संख्यामाह—वॆदॆषकॊ नृपाः स्थानॆ भावसंख्या:प्रकीर्तिताः ॥ ऎकत्रिंशत्रथस्त्रिंशद्धानि त्रिंशत्तथैव च ॥5॥ ऎकत्रिंशद्विनॆत्रॆ च मुनिरामाः खपावकाः । । मानि त्रिंशतिरॆकौ खवॆदाः कास्य तु ॥6॥

तनु आदि 12 भावॊं कॆ क्रम सॆ 31, 33, 27, 30, 31, 22, 37, 30, 27, 20, 21, 40 करणांक है॥5-6॥ । पूर्वॊक्त स्थान-करण संख्यानां शुभाशुभत्वम -

विषमायां क्रमादॊजॆ युग्मॆ स्यातां शुभाशुभॆ । समायां भवतस्तद्वत्पापसौम्य फल क्रमात ॥7॥ विषम राशि मॆं स्थान संख्या विषम हॊ तॊ शुभ फल और  सम राशि मॆं स्थान

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अथ मासचर्याप्रकरणम ।

689 संख्या सम हॊ तॊ अशुभ फलदायक। विषम राशि मॆं करण संख्या सम हॊ तॊ अशुभ फलदायक हॊता है॥7॥

विशॆषफलम - ऒजॆ व्याधिः समॆ हानिर्यावत्तुदशकं भवॆत ॥ परतः पञ्चकं चौजॆ समॆ व्याधिरथान्यथा ॥8॥ विषम राशि मॆं यदि स्थानकरण की संख्या 10 हॊ तॊ व्याधि का नाश और  सम राशि मॆं हानि हॊती है। इसकॆ बाद 15 पर्यन्त व्याधि इसकॆ बाद 25 तक सम राशि मॆं व्याधि और  विषम राशि मॆं हानि हॊती है॥8॥

शिरॊरॊगाक्षिरॊगाश्च रक्तासृक्कामलाज्वरीः । ग्रहणी शीतकॊ भॆप्लीहॊ गुल्मलतः क्रमात ॥9॥

इसकॆ बाद पुन: 35 पर्यंत क्रम सॆ शिरॊरॊग, नॆत्ररॊग, रक्तविकार, कामलारॊग, ज्वररॊग, संग्रहणी, शीतरॊग, प्रमॆहरॊग, प्लीहारॊग, गुल्मरॊग हॊता है॥9॥

रत्नैर्धन्यैश्च हॆमैश्च गॊभिः क्षॆत्रैश्च राजमिः । दासैश्च महिषैरुष्टैर्गजाश्चैर्वृद्धयः स्मृताः ॥ 10 ॥

इसकॆ बाद 45 पर्यन्त क्रम सॆ रनवृद्धि, धान्यबृद्धि, सुवर्णबृद्धि, गौ आदि की वृद्धि, क्षॆत्रादि की वृद्धि, राजा सॆ लाभ, दासॊं सॆ लाभ, महिषी आदि की वृद्धि, ऊंट आदि की वृद्धि, हाथी घॊडॆ की वृद्धि हॊती है॥9-10॥

जातिदॆशानुसारॆणफलॆ तारतम्यम - । जात्या दॆशस्य कालस्य स्वानुरूपं फलं वदॆत ॥

तत्तद्भावानुसंज्ञं च ग्रहात्भावात्फलं वदॆत ॥11॥

इस प्रकरण मॆं स्थान करण का जॊ फल कहा गया है उसॆ जाति दॆश काल कॆ तारतम्य सॆ स्वरूप कॆ अनुसार कहना चाहियॆ॥11॥

उच्चादिषु नवस्वॆव कालांशादिषु यत्फलम । भाग्याध्यायॊक्तमप्यत्र यॊजयॆत्तु विशॆषतः ॥12॥

पहलॆ कहॆ हुयॆ उच्चादि फल, कालांशादि फल और  भाग्याध्यायः फल का विचार भी स्थान करण मॆं संयॊजित करकॆ फलादॆश करना चाहियॆ॥11-12॥ इति पाराशर हॊरायामुत्तरार्धॆमासचयफलवर्णननाम षॊडशॊऽध्यायः ।


वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

दिनचर्याप्रकरणम। । ’ स्थानप्रद करणप्रदशहाणांफलम -

अकॆंन्दुगुरवः शुक्रः क्रमादन्यॆवलक्रमाद ॥

भवंति स्थानदाः खॆटाश्चत्वारश्च यदैकदा ॥1॥ । सूर्य चन्द्र गुरु शुक्र, भौम, बुध, शनि ऎक ही समय मॆं स्थानप्रद हॊं तॊ धन

कॊ लाभ हॊता है॥1॥ । धनादीनां यथा लब्धिः पंच चॆत्यूज्यतायुतः ।

आरॊग्यं वस्त्रलाभश्च षट्सु पट्टस्यवंधनम ॥2॥ इनमॆं पांच स्थानद हॊं तॊ पूज्यता प्राप्त हॊ, यदि 6 स्थानद हॊं तॊ पट्टाभिषॆक हॊता है॥2।

सप्तचॆद्राऽयलाभः स्यादॆवं करणदा यदि । धनहानिस्ततॊ व्याधिस्ततस्तु विपदादयः ॥ 3 ॥

सात ग्रह हॊं तॊ राज्यलाभ हॊता है। यदि चार करणप्रद हॊं तॊ धन की हानि, पांच हॊं तॊ व्याधि, छ हॊं तॊ विपत्ति॥3॥ - सप्तभिर्मरणं प्रॊक्तमक्षाभावॆ मृतिर्भवॆत ।

तत्र तिष्ठति चॆत्खॆटॆ त्वन्यस्मिन्यदिवामतः ॥4॥ ’सात हॊं तॊ विपत्ति और  मरण हॊता है। करण का अभाव हॊ तॊ मृत्यु यदि विलॊमग्रहस्थिति हॊ तॊ मृत्यु नहीं हॊती है॥4॥

उच्चसंख्याधिका अंशाश्चंद्रस्य स्थानदाःपरॆ । . शुभाख्याः शुभदाः प्रॊक्ता राशिनात्र क्रमात्फलम ॥5॥ : चन्द्रॊच्च की संख्या 1।3 इससॆ यदि अधिक अंश कॆ स्थानदग्रह हॊं और  - शुभग्रह हॊं तॊ शुभफल हॊता है॥1-5॥

उपसंहारः’:, हॊराशास्त्रमिदं सर्वं भाषितं तव सुव्रत ।

पुण्यं यशंस्यं धन्यं च त्रिकालज्ञानकारणम ॥6॥

हॆ मैत्रॆय! यह सम्पूर्ण हॊरा शास्त्र मैंनॆ कहा यह पुण्यकारक, यश कॊ दॆनॆ वाला, धन धान्य कॊ दॆनॆ वाला, भूत, भविष्य और  वर्तमान काल कॊ कहनॆ वाला है॥6॥


प्रश्नाध्यायः ।

नॆत

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विना मनु तपस्यॆ च शास्त्रज्ञानॆर कॆपलम । ’

हस्तामलकवत्सर्वं जगतां लॊकयॆत्फलम ॥7॥ । इस शास्त्र का उनम ज्ञान हॊनॆ सॆ मंत्र तथा दॆवता की आराधना कॆ विय हाथ मॆं रखॆ हुयॆ आंवला कॆ समान ही संपूर्ण जगत का शुभ अशुभ दॆखा जा सकता हैं॥7॥ पुत्राय शिष्याय च धीमतॆ च तपस्विनॆ मंत्रविदॆ च दात्रॆ । दद्यादिम शास्त्रमहासमुद्रं यथैव शम्भुः शिशवॆपयॊधिम ॥8॥

इस महासमुद्र शास्त्र का पुत्र, गिष्य, बुद्धिमान, तपस्वी, मंत्रवॆत्ता और  दाता कॊ दॆना चाहियॆ। जैसॆ शिवजी नॆ तपस्वी उपमन्यु कॊ पयॊधि सॆ दिया था। 38 71

बुद्धिहीनाय दम्भाय दांभिकायत्वमर्बिणॆ । . न दद्यादादि दद्याच्चॆद्विधा स्वस्य विनश्यति ॥9॥

इस शास्त्र कॊ दंभी, क्रॊधी, दुष्ट कॊ नहीं दॆना चाहियॆ ऐसॆ लॊगॊं कॊ दॆनॆ सॆ विद्या नष्ट हॊ जाती है। पूर्वांक दॊष सॆ रहित वालक भी हॊ तॊ उसॆ इसॆ शास्त्र कॊ पढाना चाहियॆ॥9॥

ऎवं तॆ कथितं शास्त्रं त्वयिस्तॆहाद्विजॊतम । । जातकांशं च विद्याशं किं भूयस्त्वं श्रॊतुमिच्छसि ॥10॥

हॆ मैत्रॆय! तुम्हारॆ ऊपर सॊह कॆ कारण मैंनॆ जातकांश कॊ कहा। अब तुम्हारी क्या सुननॆ की इच्छा है सॊ कहॊ॥6-10॥

। इति पाराशरहॊरायामुत्तरार्धॆ सप्तदशॊऽध्यायः॥17॥॥

प्रश्नाध्यायः॥18॥

. मैत्रॆय उवाच——भगवन्प्रश्नशास्त्रं तु सूचिकानां प्रकाशितम । कलौ युगॆ तु मंदानां यज्ज्ञातुं तज्दस्व मॆ ॥1॥

मैत्रॆय जी बॊलॆ- हॆ भगवन। आपनॆ बुद्धिमानॊं कॆ लियॆ प्रश्न शास्त्रं यॆ - कहा है किन्तु कलियुग मॆं मन्दबुद्धि वालॊं कॊ जैसॆ ज्ञान सॆ उसॆ कहियॆ॥13॥

। उपास्य विवॆचनम - कृतॆयुगॆ तु धर्मस्य पूर्णत्वात्तपसान्विताः । सर्वॆ जानन्ति भूतं च भवद्भावि द्विजॊत्तम ॥2॥


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70 . बृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ॥

पशाशरू जी बॊलॆ- है द्विजश्रॆष्ठ ! सत्ययुग मॆं धर्म की पूर्णता कॆ कारण मनुष्य तपस्वी स्वत सॆ इस कारण भूत, भविष्य और  वर्तमान कॊ जानतॆ थॆ॥2॥ । 3लाया लयसा युक्ताः कॆचिज्जानन्ति वै द्विजाः । ।

माझ्यान्ति‌अ द्वापरॆ शास्त्रज्ञानॆन तपसापि च ॥ 3॥

है द्धिक! कैला मैं कॆवल तपस्या सॆ कुछ लॊग जानतॆ थॆ। द्वापर मॆं तपस्या - औंस शाज्ञाना द्वाया जानतॆ थॆ॥3॥ । कलौ युगॆ तु धर्मस्य पादमात्र व्यवस्थितिः ।

तथाः शम्य तु ज्ञातुं न शक्ता मानवाभुवि ॥4॥

और  कलियुमा मॆं 1 चरण ही धर्म रहता है अतः तपस्या द्वारा ज्ञान कॊ नहीं झाप्ता कट सकतॆ हैं।4॥

ज्यॊतिषशास्त्रज्ञानॆ उपाय:- - तथ्याका फरमः शंभुर्लॊकानुग्रहकांक्षया । . लावावृत्या निवां शक्तिं विद्यामाधत्स ईश्वरः ॥5॥

’ ऎ कॆ ऊपर अनुग्रह मॆं वृद्धि सॆ परमदयालु श्री शंकरजी अपनी शक्ति ऒ‌उम आदि विद्या त्रिकालज्ञान कॊ दॆनॆ वाली अपनी कला सॆ विभक्त कर उत्पन्न किमा॥ ॥ ॥॥

बकल्लाष्णि च विभक्तानां त्रिकालज्ञानदायिनी ॥ बॆदादि वाग्भवागौरीवदद्वयमथॊगिरिः ॥6॥ प्परमैश्वार्थसिद्ध्यर्थं वाग्भवास्यादयं मनुः । सार्वज्ञॆतिपादं पूर्वं नाथ तं पार्वतीपतॆ ॥7॥ सर्बलॊकगुरॊः पच्छिवॆति द्वयमक्षरम । शारण पदं पश्चात्त्वां प्रपन्नॊऽस्मितत्परम ॥8॥ पाल्लायॊति पाद ज्ञानं प्रदापय ततः परम ॥

बहू मम नियालिस्लि‌अ है “ऒ‌उम ऐ मॆरी वदवदगिरिपरमैश्वर्य सिध्यर्थं ऐं’ यह शक्ति या मना हूँ। “सर्बज्ञानाम्बाप्पार्वतीपत सर्वलॊकगुरॊ शिव शरणं त्वां प्रपन्नॊस्मि पालय ज्ञानकॊ प्रसषय हू शिवजी का मंत्र है॥6-8॥

विनियॊगादिकम - ऋषिस्तु दक्षिणामूर्त्तिगौरी परमॆश्वरी तथा ॥9॥

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1942

इनाध्यायः ।

सर्वज्ञश्च शिवॊ दॆवॊ गायत्रीछंद इरितत । अनुष्टुप च षडंगं स्याद्वाग्भावॆन हृदयादि च ॥10॥ विनियॊग- अनयॊऽमन्त्रयॊः दक्षिणामूर्त्तिषि: गौरी परमॆश्वरी सर्वज्ञः शिवश्च

यय-ऎभॊ छंदसी ज्यॊति:शास्त्रज्ञानप्रादायॆ जपॆ विनियॊगः इसकॆ बाद ऎ इस वीज सॆ षडंगादि :यास करॆ जॊ आगॆ कह रहॆ हैं॥9-10॥

। ध्यान‌उद्यानस्यैकवृक्षाधः परॆ हैमवतॆ द्विज । क्रीडॆती भूषितां गौरी शुक्लवस्त्रां शुचिस्मिताम ॥11॥ हिमालय पर्वत कॆ ऊपर बगीचॆ मॆं ऎक वटवृक्ष कॆ नवॆ सफॆद वस्त्र कॊ धारण की हु‌ई प्रसन्न मुख क्रीडा करती हु‌ई बैठी हु‌ई हैं॥11॥

दॆवदारुवनॆ तत्र ध्यानस्तिमितलॊचनम ।

चतुर्भुज त्रिनॆत्रं च, जटिलं चन्द्रशॆखरम ॥12॥

और  इसी प्रकार उसी बगीचॆ मॆं दॆवदारु वृक्ष कॆ नीचॆ ध्यानमग्न अछि मूंदॆ हुयॆ चार भुजा‌ऒं वालॆ तीन आंखॊं वालॆ जटा धारण कियॆ हुयॆ मस्तक मॆं व

कॊ धारण कियॆ हुयॆ शंकर जी बैठॆ हैं॥12॥

शुक्लवर्ण महादॆवं ध्यायॆत्यरममीश्वरम । अनॆनाभ्यां द्विजश्रॆष्ठ बुद्धिस्तु विमलाभवॆत । जयमात्रॆण सिद्धिः स्यादैवज्ञत्वं प्रकाशतॆ ॥13॥ इस प्रकार पार्वती और  शुक्लवर्ण शंकर का ध्यान करकॆ यथाशक्ति करॆ। हॆ मैत्रॆय! इन दॊनॊं मंत्रॊं कॆ पुरश्चरण करनॆ सॆ निर्मला बुद्धि हॊकर शास्त्र का ज्ञान हॊनॆ सॆ वह दैवज्ञ हॊता है॥13॥

दैवज्ञ लक्षणम - द्विविधं गणितं ज्ञात्वा शाखास्कंधं विमृस्य च ॥ हॊरा स्कंधत्य शकलॆ श्रुत्वार्थमवधार्य च ॥14

जॊ द्विज श्रॆष्ठ दॊनॊ गणितॊं कॊ जानकर तथा जातक कॆ दॊनॊं भनि सॆ पढकर उसकॊ धारण करता है॥14॥

वाग्मी द्विजवरॊ यः स्यान्न वंध्या तस्य भारती॥ 13 वही उत्तम दैवज्ञ हॊता है और  उसकी वाणी मिथ्या नहीं हॊती है।

* यथाशक्ति जप कॊ बुद्धि हॊकर ज्यॊतिष

कॆ दॊनॊं झागॊं कॊ मुगुरु

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

प्रश्नकर्तुः नियम:- अलुब्यॊं नैष्ठिकः शुद्धॊ विनय प्रश्रयान्वितः ॥

 * रत्नं स्वर्णं धनं वस्त्र पुष्पमूल फलानि तु ॥16॥

। दैवजयुरॊ दत्वा पृच्छॆदिष्टं प्रियान्वितः ॥

त्यागी, निष्ठावान, निष्कपट, विनयादि गुणॊं सॆ युक्त जॊ प्रश्नकर्ता वह रत्न, कळ, सुवर्णा म पुष्य, फलादि कॊ दैवज्ञ कॆ सामनॆ रख कॆ मीठॆ वचनॊं सॆ अपनॆ अष्ट कॊ पूछॆ॥16॥

। दैवज्ञस्य कर्तव्यःअथ प्राङ्मुख आसीनः शुचिर्दैवविदग्रतः ॥17॥

दैवज्ञ प्रश्न कॆ समय पवित्र हॊकर पूर्व मुख वैठकर॥17॥। .... तिर्यगृथ्वशतस्वस्तु रॆखा रज्जुसमालिखॆत । :: ऎकीकुर्यात्तु चत्वारि मध्यस्थानि पदानि च ॥18॥

 चार रॆखा तिरछीं और  चार खडी रॆखा कॊ लिखॆ। ऐसा करनॆ सॆ 16 कॊष्ठ . : या चक्क हॊगा। मध्य कॆ चार कॊष्ठॊं मॆं॥18॥

तत्र ऎवं लिखॆद्रॆखामध्यं सकर्णिकम । ईशान्यकॊष्ठादारभ्य मीनाद्या राशयः क्रमात ॥19॥

मूर्णिमा कॆ साथ कमल कॊ बनावॆ इसमॆं ईशान कॊण सॆ आरम्भ कर मीनादि राशियॊं कॊ लिखॆ॥19॥ ।

मॆषवीथी वृषाद्यास्तु कौष्र्थाद्या मिथुनस्य तु । दीथयॊ मौनमॆषौ तु तुलाकन्यॆ वृषस्य तु ॥20॥।

चक्र मॆं वृषा सॆ सिंह पर्यन्त चार राशियॊं की मॆषवीथि, वृश्चिक सॆ चार राशियॊं - औं मिथुन बाँथि आँर मौन, तुला, कन्या राशियॊं की वृषवीथि संज्ञा जानकर॥20॥

आरूढात वीथिनं यावत्तावच्छत्रं तु लग्नतः ॥ आरूढराशिल्लय चैच्छत्रं चापि भवॆत्तथा ॥21॥

आरूढ लग्न का ज्ञान करॆ। प्रश्नकर्ता जिस दिशा मॆं बैठा हॊ उस दिशा कॆ । गण : आरूढ लग्न कहतॆ हैं अथवा प्रश्नकर्ता सॆ राशिचक्र मॆं अंगुली कॊ धरावॆं

शि‌अ मॆं अंगुली धरै वहीं आरूढ लग्न हॊती हैं। आरूढ लग्न सॆ वीथि की - यन्त छ हॊता है। यदि आरूढ राशि ही प्रश्नलग्न हॊ तॊ वहीं छत्र हॊता

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प्रश्नाध्यायः ॥

43 जन्मलग्नं समासाद्य यद्यत्प्रॊक्तं तु जातकॆ । तत्सर्वं प्रश्न लग्नॆन प्रश्नकालाद्वदॆद्बुधः ॥22॥।

इसका विचार कर जन्मलग्न सॆ जिस प्रकार विचार कियॆ जातॆ हैं उसी प्रकार यहां भी सभी बातॊं का विचार करॆ॥17-22॥

। आरूढलग्नादायुनिर्णय:- यत्कालावधिलग्नं तत्तत्कालावधिस्थितॆ । तॆषां बलवतां चैव निर्णयः स्वायुषाः स्मृतः ॥23॥

तात्कालिक लग्न. कॊ जितनॆ काल पर्यन्त स्थिति है उतनी ही आयुष्य की स्थित हॊती है॥23॥

आद्यद्रॆष्काणमंत्यं च मृत्युदं च क्रमाद्भवॆत । मृगालिकर्कटानां च मीनस्यारूढलग्नतः ॥ 24॥

मकर, वृश्चिक और  कर्क तथा मीन राशि का आरूढ लग्न सॆ प्रथम और  अंत द्रॆष्काण हॊ तॊ मृत्युदायक हॊता है॥23-24॥

मृत्युलक्षणम - लग्नॆ पृदॊदयॆ क्रूरवॆश्मास्तव्यगा यदि ॥

धनॆधर्मॆ कुजॆ मंदॆ चन्द्रॆ रंधॆ मृतिर्भवॆत ॥25॥ * यदि पृष्ठॊदय राशि मॆं प्रश्न हॊ और  पापग्रह लग्न सॆ 4।7।12 वॆं स्थान मॆं हॊं अथवा भौम 2।9 भाव मॆं हॊ शनि चंद्र 8 भाव मॆं हॊं तॊ मृत्यु हॊती है॥25॥

यॊगान्तरम - पापैदुरुधॊ जातॆ लग्नकामसुहृत्स्थितॆ । चन्द्रॆऽकॆ च विलग्नस्थॆ म्रियतॆव्याधिना भृशम ॥26॥ राहुकाल समायॊगॆमरणं निश्चितं भवॆत ॥

प्रश्न लग्न वा जन्म लग्न मॆं पापग्रह सॆ दुरूधरा यॊग हॊ अथवा लग्न 74 भाव मॆं पापग्रह हॊं और  सूर्य लग्न मॆं हॊ राहु काल का यॊग हॊ तॊ निश्चय ही व्याधि सॆ मृत्यु हॊती है॥26॥

राहुकालसमायॊगलक्षणम - भॆषाद्व्युत्क्रमतॊ राहुर्वृषात्काल: क्रमाच्चरॆत ॥ 27॥ राशौ राशौ तु पंचाशद्भॊगकालॊविनाडिकाः । अकॊदयादितश्चॊभौ भुंजातॆ च पुनः पुनः ॥28॥


647

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम ।

ऎकद्व्यब्धिरामॆषु षडष्टौ नाडिकाः क्रमात । अर्कवारादितॊ राहू रात्रावॆवमुदीरितः ॥29॥ राहुरुक्रमशः प्राच्यां कालश्च क्रमशश्चरॆत । उभौ सार्धविनाङचॆन राशिषु द्वादशस्वपि ॥30॥ इन्द्रद्वग्निनिशांचरशमवारीशवायवः । रुद्रचन्द्रजलॆशॆशपापकॆन्द्रयमस्थितः 113811 रक्षॊवायुस्ततॊग्नीशयमवारुणराक्षसाः ॥ वायुसॊमशनीनाथरक्षॊग्निजलपॆंदवः 113711 वाटवीशॆंद्रयमाः पश्चाद्युग्मॆंद्रौ च निशाचरः ॥ मरुद्वरूणचन्द्रॆशपावकॊवरूणॊयमः ॥ 33 ॥ वायुरुद्रशशींद्राग्नी राक्षसाश्च ततः परम । वायुरक्षः शशींद्रॆशपावतांक वारूणाः ॥ 34॥

मॆष राशि सॆ उलटॆ (मीन कुंभादि) राहु चलता है और  वृष राशि सॆ क्रम सॆ काल चलता है। प्रत्यॆक राशि मॆं इनका भॊग 50 पल हॊता है। सूर्यॊदय कालिक लग्न सॆ दॊनॊं (राहु-क~ऒल) वारंबार लग्नॊं कॊ भॊगतॆ हैं। सूर्यादि वारॊं मॆं क्रम सॆ 1, 2, 4, 3, 5, 6, 8 घटी पूर्व दिशा सॆ आरम्भ कर विलॊम दिशा‌ऒं मॆं राहु घूमता है और  इसी मान सॆ काल भी पूर्व दिशा सॆ क्रम सॆ घूमता है। दॊनॊं 2॥। घर्टी कॆ मान सॆ प्रत्यॆक दिशा मॆं घूमतॆ हैं। प्रत्यॆक वारॊं मॆं दिशा कॆ क्रम सॆ इन्द्र, अग्नि, निशाचर आदि नामॊं सॆ स्पष्ट ही है॥27-34॥ .. . नक्षत्रतिथिवारॆषु दिशाक्रमः

अर्कवारादितॊ वामं राहुः संचरतिक्रमात । रुद्रः समीरः सॊमाग्नी यमॊऽथ नि‌ऋतिर्जलम॥35॥ क्रम सॆ ईशान, वायु, उत्तर, अग्नि, दक्षिण, नै‌ऋत्य और  पश्चिम॥35 ॥

अंतिमादादिमाद्राहुः कालश्च चरतस्तथा । द्वयॊगॆतु मरणमॆकस्मिन्व्याधिरुच्यतॆ ॥ 36॥

इन दिशा‌ऒं मॆं रविवार सॆ वर्तमान वार तक, अश्विनी सॆ वर्तमान नक्षत्र तक " और  प्रतिपदा तिथि सॆ वर्तमान तिथि पर्यन्त राहु अंतिम दिशा पश्चिम सॆ विलॊम राह और  आदि ईशान सॆ क्रम सॆ काल घूमता है। इनमॆं किसी 2 का यॊग हॊ तॊ मरण, ऎक हॊ तॊ व्याधि हॊती हैं॥36॥

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प्रश्नाध्यायः । । अथ द्वितीयभावादष्टमभावपर्यन्तंनृपा मूर्छा शरास्तत्वं तिथिषॊडश पंच च ॥ द्वितीयॆत्वष्टमॆ भावस्त्वंतरॆ त्वनुपाततः ॥37॥

द्वितीय भाव मॆं 16, तृतीय भाव मॆं 21, चतुर्थभाव मॆं 5, पंचम भाव मॆं - 25, षष्ठभाव मॆं 15. सप्तम भाव मॆं 16, अष्टम भाव मॆं 5 यॆ रश्मियां हॊती हैं। अन्य भावॊं का अनुपात द्वारा पीछॆ कह चुकॆ हैं॥37॥

नागाब्दॆषु गुणा रूद्रा वाजिवॆदांगपंक्तयः । दशपंचाष्टका मॆषाद्रश्मयः संप्रकीत्तिता ॥38॥

मॆषादि राशियॊं मॆं क्रम सॆ 8, 8, 5, 3, 11, 7, 4, 6, 10, 10, 5, 8 हॊती हैं॥38॥

ऎकयॊगॆ तु सर्वॆषु व्याधिद्भ्यां भवॆन्मृतिः । लक्ष्मीयॊगॆषु सर्वॆषु व्याधिस्तस्यनवाऽपि वा ॥39॥

पीछॆ जॊ मरण यॊग कहॆ हैं उनमॆं यदि लक्ष्मी यॊग भी हॊ तॊ कभी मरण हॊता है कभी नहीं हॊता है॥37-39॥

अथ रॊगिणः मृत्युसंबंधी प्रश्नःवैधृतौ च व्यतीपातॆ सार्पॊंतिमसंज्ञितॆ । कुलीरॆ विषनाडीषु सूर्यदुष्टॆषु पंचसु ॥40॥

यदि प्रश्न समय वैधृति, व्यतीपात, श्लॆषा, रॆवती, कर्कश, विषनाडी भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि यॆ सूर्य सॆ दूषित हॊं॥40॥।

 पापयुक्तॆ तु नक्षत्रॆ राशौ तत्संयुतॆऽपि च ।

सन्थौ च मासशून्यर्थी तिथिराशिषु जन्मभॆ ॥41॥।

पापयुक्त नक्षत्र हॊ राशि पापग्रह सॆ युत हॊ, राशि संधि हॊ, मास की शून्य राशि तिथि नक्षत्र हॊ, जन्म का नक्षत्र हॊ॥41॥।

व्ययाष्टमॆ च क्षीणॆदौ शत्रुग्रहनिरीक्षितॆ । पादं पृष्ठं च जंधां च जानु नाभिं च गुल्फकॆ ॥42॥.

लग्न सॆ 12।8 भाव मॆं क्षीण चन्द्र हॊ और  शत्रुग्रह सॆ दृष्ट हॊ, पैर, पीठ, जंघा, जानु, नाभि, गुल्फ (ऎडी)॥42॥

कण च चक्षुषी मालमास्यं कंठं स्पृशॆयदा । । व्याधिर्वाम्रियतॆ तद्वन्भृतिं राशिं स्पृशॆत्तु वः ॥43॥

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, वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । कान, नॆत्र, ललाट, मुख, कंठ कॊ स्पर्श करता हॊ, तॊ व्याधि वा मृत्यु हॊती है अथवा काल राहु स्पर्श करॆ॥43॥।

अष्टॆम स्पृशॆद्यद्वा कालांशादिषु वा तथा । विपद्वधप्रत्य‌ऋक्षॆ च वैनाशं ऋक्षमॆव वा ॥44॥

आठवीं राशि कॊ स्पर्श करॆ, षॊडशांश कॊ अथवा विपत्तारा वैनाशिक नक्षत्र कॊ॥44॥

संस्पृशॆत्प्रश्नकालॆ तु व्याधिर्वा तस्य वा मृतिः ॥45॥

स्पर्श करॆ तॊ व्याधि वा मृत्यु हॊ॥45॥ । : नक्षत्रक्रमॆणकालस्थावयवाः

शिरॊललाट भ्रूनॆत्रनासाकर्णकपॊलकाः ।

ऒष्ठं च त्रिवुककंठमंशौहृदयमॆव च ॥46॥ पा च वक्षः कुक्षिश्चनाभिश्चकटिरॆव च । जघनं च नितंबं च लिङ्गमंडं च वस्ति च ॥47॥

ऊरू च जानु जंघा च गुल्फांघ्रीचाश्विभात्कमात॥ । अश्विनी सॆ आरम्भ कर रॆवती पर्यन्त 27 नक्षत्रॊं का क्रम सॆ शिर आदि 27

अंग हॊतॆ हैं॥46-47]]

प्रश्नकर्तुः अशुभलक्षणं तथा शुभप्रश्न:- तैलाभ्यक्तॊऽथवाशुद्धॊजलगर्तसमीपगः। प्रष्टा दैवविदॆ वाथ मरणं तस्यनिर्दिशॆत॥48॥

यदि प्रश्नकर्ता तॆल लगायॆ हुयॆ हॊ, अशौच मॆं हॊ, जल कॆ गड्डॆ कॆ समीप हॊकर प्रश्न करॆं और  इसी स्थिति मॆं ज्यॊतिषी हॊ और  प्रश्न का उत्तर दॆ तॊ मृत्यु

कहना॥48॥। । लग्नन्निसुतकामारिधर्माययगः .. शुभः । ।

रॊगशांतिकरा नॊ चॆद्रिपुनीचग्रहस्थिताः ॥49॥

प्रश्न लग्न सॆ 3।5।7।6।9।11 स्थानॊं मॆं शुभग्रह हॊ तॊ रॊगप्रश्न मॆं रॊग शांत हॊगा ऐसा कहॆ॥49 ॥॥

ऎषु पापा मृतिकरानॊचॆत्स्वच्चमित्रगाः । यस्य यस्य शुभं वाथ रिः फस्थानगता शुभाः ॥50 ॥ यद्वा त्रिकॊणकॆन्द्रस्थास्तस्य तस्य शुभप्रदाः ।

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प्रश्नाध्यायः ।

6469 यदि पूर्वॊक्त स्थान मॆं पापग्रह हॊं तॊ मृत्यु कहना। किन्तु शुभग्रह नीचादि स्थान मॆं और  पापग्रह उच्चादि स्थान मॆं न हॊं तॊ पूर्वॊक्त फल हॊता है। 12।9।5।1।7।10 इन स्थानॊं मॆं जन्मलग्न सॆ वा प्रश्नलग्न सॆ शुभग्रह हॊं तॊ शुभ फल हॊता है। । 50 ॥

अयनादि ज्ञानम - मृगकर्यादितः सूर्यॊराशिपूर्वापरार्धतः ॥ शनिशुक्लारचंद्रज्ञगुरवः शिशिरादयः ॥51॥

जन्मकाल या प्रश्नकाल मॆं मकरादि 6 राशि कॆ अन्दर सूर्य हॊं तॊ उत्तरायण और  ककदि 6 राशि कॆ अंदर हॊं तॊ दक्षिणायन हॊता है। इसी प्रकार मकर, कुंभ, मीन, मॆष, वृष, मिथुन राशियॊं कॆ पूर्वार्ध मॆं क्रम सॆ शनि, शुक्र, भौम, चंद्र, बुध, गुरु हॊं तॊ क्रम सॆ शिशिर वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरदू, हॆमन्त ऋतु कहना इसी प्रकार सॆ कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धन राशियॊं कॆ उत्तरार्ध मॆं यदि पूर्वॊक्त ग्रह हॊं तॊ शिशिर आदि ऋतु कहना॥ 5 1 ॥

अर्कॊ ग्रीष्मस्ततॊऽन्यैर्वा वायनादृतुरॆव च ॥ शुक्रारमंदचंद्रज्ञ जीवाश्च परिवर्तिताः ॥52॥

इसी प्रकार प्रश्न लग्न मॆं सूर्यादि ग्रह हॊं तॊ भी ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हॆमन्त, शिशिर, वसंत न:तु कहना। अथवा अयन सॆ ऋतु कहना। शुक्र, मंगल, शनि, चंद्र, बुध, गुरु इनमॆं जॊ द्वॆकाधिपति हॊ उसकॆ ऋतु कॊ कहना वा जॊ नवांश हॊ उससॆ ऋतु कहना॥ 52॥

वर्ष- मास-तिथिज्ञानम - लग्नद्रॆष्काणपाः प्रॊक्ता नवांशॆनैव चापरॆ । तत्पूर्वपरतॊ मासौ तिथिः स्यादनुपाततः ॥3॥

जॊ पूर्व प्रकार सॆ तु निणत हु‌आ हॊ वह यदि राशि कॆ पूर्वार्ध की हॊ तॊ उस ऋतु का पूर्वमास और  उत्तरार्ध की हॊ तॊ उत्तर मास जानना चाहियॆ। ऋतु कॆ भुक्त भॊग्य द्वारा अनुपात करकॆ तिथि का ज्ञान करना चाहियॆ॥3॥

वर्ष ज्ञानम - लग्नत्रिकॊणगॊ जीवॊ नवांशस्थॊऽथवा भवॆत । ज्ञात्वा यॊनुरूपॆण ह्यनुमानवशात्समाः ॥54॥

प्रश्न लग्न सॆ त्रिकॊण (9 । 5) मॆं गुरु जिस राशि मॆं हॊ उसी राशि कॆ गुरु मॆं जन्म हु‌आ है, यदि गुरु त्रिकॊण मॆं न हॊ तॊ जहां कहीं जिस राशि मॆं जिस नवांश मॆं हॊ उस नवांश राशि कॆ गुरु मॆं जन्म कहना। किन्तु अवस्था कॆ अनुमान सॆ वर्ष का निर्णय करना चाहियॆ॥54॥


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ळीळ्ळॆ

. वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । सूर्यस्थितांशतुल्यां वा तिथिं प्रॊवाच भार्गवः । राशौ रात्रिदिवाख्यॆ च जन्म स्यात्तु विलॊमतः ॥55॥ तिथिज्ञान-सूर्य जिस त्रिशांश मॆं हैं उसकॆ तुल्य तिथि कहना ऐसा शुक्राचार्य का मत हैं। दिन-रात्रि का ज्ञान प्रश्नलग्न राशि वली हॊ तॊ दिन मॆं और  दिवा । बली हॊ तॊ रात्रि मॆं जन्म कहना॥55॥

प्राण-लग्नादॆः ज्ञानम - गतप्राणैर्जन्मकालॆ तॆ च प्राणा भवत्यथ । यद्राशिगः शशी मासः समं वा श्शदंगकम ॥56॥

प्रश्न समय जितनॆ प्राण बीत चुकॆ हॊं उतनॆ ही प्राण जन्म समय मॆं जानना चाहियॆ। मास-राशि-लग्न का ज्ञान - प्रश्न समय जिस राशि का चन्द्र हॊ उसी राशि कॆ नाम वाला मास हॊता है जैसॆ मॆष मॆं चैत्र आदि॥56 ॥

तत्रिकॊणावलाधिक्यं राशिल्र्लग्नात्तु थावति ।

चंद्रस्तावतिभं चापि जन्मलग्नं विनिर्दिशॆत ॥ 57॥

 प्रश्न समय मॆं चन्द्रमा जिस राशि कॊ स्पर्श करता हॊ चाहॆ सम हॊ या विषम इससॆ त्रिकॊण की जॊ राशि दॊनॊं मॆं बली हॊ वहीं राशि हॊती है। मॆषादि गणना ..

सॆ जितनॆ संख्यक राशि पर चन्द्र हॊ उतनी ही संख्या की लग्न हॊती है। जैसॆ मीन - प्रश्न लग्न हॊ तॊ मीन राशि अन्य लग्नॊं सॆ अन्य राशि जानना॥57॥

जन्मनक्षत्र ज्ञानमीनॆ मीनं तु लग्नं वा तथान्यैस्त्वन्य लग्नभम । - छायया संयुता यामवारतिथिराशयः ॥58॥

प्रश्न समय प्रश्नकर्ता कॆ छाया कॊ पैर सॆ नाप कर उसमॆं प्रहर, वार, तिथि कॊ जॊड दॆ 27 सॆ अधिक हॊ तॊ 27 सॆ भाग दॆकर शॆष संख्या कॆ तुल्य धनिष्टादि नक्षत्र हॊता है॥58॥।

यावंस्तस्तु धनिष्ठादिजन्मक्षतद्विनिर्दिशॆत । । ... कालांशादिषु यत्प्रॊक्तमृक्षं तद्वा भवॆदिदम ॥ 59॥

अथवा पूर्व मॆं कालांशादि मॆं जॊ नक्षत्र कहा है वही नक्षत्र हॊता है। कालांश का आधा हॊरा कहा है वही हॊरा हॊती है॥56-59॥

प्रकारांतरॆणमासादिज्ञानम - कालांशाद्यर्धहॊरानां. प्रॊक्तहॊरैर्विभावयॆत । ।

 पृथग्लिप्तीकृतं लग्नं वर्गणाभिर्हतं पुनः ॥ 60 ॥


वगणाहत,

प्रश्नाध्यायः ।

148 प्रश्न लग्न का कलापिंड बनाकर उसकॆ वर्ग सॆ गुणाकर दॊ स्थान मॆं रखकर॥6॥

आरूढछत्रयॊवीर्यवलस्य वर्गणाहतम । । ऒजॆ यॊगः समॆ हानिरिति तस्य विधीयतॆ ॥61॥

आरूढ औः छत्र मॆं जॊ बली हॊ उसकॆ वर्ग सॆ गुणाकर विषम लग्न हॊ तॊ . यॊग अन्यथा पृथस्थ मॆं घटाकर ॥61॥

स्वैः स्वैभगैश्च भक्तं तत्तथा मासादयः स्मृताः । यद्वा कलीकृतं लग्नं तथा कुर्याद्विचक्षणः ॥6॥

शॆष मॆं अप 2 विभाग सॆ (मास ज्ञान कॆ लियॆ 12 दिन कॆ लियॆ 30 आदि सॆ) भाग दॆनॆ सॆ मासादि का ज्ञान हॊता है। अथवा लग्न का कला बनाकर पूर्वरीति सॆ सभी क्रिया‌ऒं कॊ करकॆ॥62॥

भावकस्य च शुद्धिं च यॊगं चैव करॊत्यतः । नवभिश्च कलांशाचैस्तथैवॊच्चादिभिःक्रमात ॥63॥

भाव शुद्धि आदि क्रिया‌ऒं कॊ करवॆ नवकलांश और  उच्च त्रिकॊणादि भॆद सॆ॥63॥

ऎकाशीतिभिदाः संति नवकारांक शॊधनैः । . :. यॆषां यॊगगतॆ कालॆ समांतॆषु सतां यतः ॥64॥

81 प्रकार कॊ करकॆ उनमॆं नव शॊधनादि करतॆ हुयॆ जहां अवसान हॊ वहीं मासादि जानना॥ 64॥

। लग्न बल विचार:- राशिस्तु बलवान्स्वामिगुरुज्ञप्रॆक्षणान्वितः । अन्यैः पापैरदृष्टः स्याच्छुभदृष्ट्या प्रयॊजयॆत ॥65॥

जॊ राशि अपनॆ स्वामी वा गुरु, बुध सॆ दृष्ट हॊ, अपनॆ पापग्रह स्वामी कॊ छॊडकर अन्य पापग्रहॊं सॆ अदृष्ट हॊ वह वली हॊती हैं॥65॥

दृष्टिविचारः॥ चन्द्रर्काचार्यशुक्रज्ञाः पादं मित्रभकर्मणि ॥ पश्यन्ति & शनिः पूणमथ धर्मसुतौ गुरुः ॥ 66 ॥।

चन्द्रमा, सूर्य, गुरु, शुक्र, बुध और  भौम तीसरॆ और  दशम कॊ पाद दृष्टि सॆ दॆखतॆ हैं। शनि 3।10 कॊ पूर्ण दृष्टि सॆ दॆखता है, 95 कॊ सभी ग्रह दॊ

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वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । चरण सॆ किन्तु गुरु पूर्ण दृष्टि सॆ दॆखता है॥ 66 ॥

सर्वऽर्धबंधुमृत्यु च पूर्णं पश्यति भूमिजः ॥ पर त्रिपादं पूर्णं च सर्वॆ पश्यंति सप्तमम ॥ 67॥ 48 स्थान कॊ भौम कॊ छॊडकर सभी ग्रह तीन चरण सॆ दॆखतॆ हैं किन्तु न पूणदृष्टि सॆ दॆखता है और  सप्तम कॊ सभी पूर्णदृष्टि सॆ दॆखतॆ हैं॥67॥

अथ ग्रहाणां स्थानदिग्वलम - उच्चमूलसुहृत्स्वसँस्वद्रॆष्काणनवांशकॆ । स्थितस्य स्थानवीर्यं स्यात्कुजाकदशमॆशनिः ॥ 68॥

प्रश्न मॆं जॊ ग्रह अपनॆ उच्च, मुलत्रिकॊण, मित्र, अपनी राशि, अपनॆ द्रॆष्काण, अपनॆ नवाश मॆं हॊ तॊ वह स्थानवली हॊता हैं। भॊम, सूर्य दशम स्थान मॆं॥68॥

सप्तमॆज्ञगुरुलग्नॆ चन्द्रशुक्रौ तु वॆश्मनि । दिग्वीर्य संयुता ऎतॆ नान्यत्र प्रश्न कर्मणि ॥ 69॥ तिवॆं स्थान मॆं शनि, बुध, गुरु लग्न मॆं, चन्द्र, शुक्र चौथॆ भाव मॆं दिग्बली

हॊतॆ हैं॥68-69॥।

अयनबलम - मृगादिराशिषट्कस्थाश्चंद्रार्कज्ञार्यभार्गवाः ॥ बलवंतः कुजातु कर्कटादिगतौ तथा ॥70 ॥ मकर सॆ 6 राशि तक चंद्र, सूर्य, बुध, गुरु और  शुक्र अयन बल कॊ प्राप्त त है। कर्क सॆ 6 राशि कॆ अन्दर भौम शनि अयन बल सॆ युक्त हॊतॆ हैं॥70 ॥

अथ पक्ष चॆष्टा दिवा-रात्रि बलम - पूर्वपक्षॆ शुभॆ कृष्णॆ पापास्तुवलिनस्तथा ॥ वक्रिणॊ वलिनः खॆटाश्चॆष्टावलसमन्वितः ॥ 71 ॥।

शुक्ल पक्ष मॆं शुभग्रह और  कृष्णपक्ष मॆं पापग्रह बली हॊतॆ हैं। वक्रीग्रह चॆष्टावली हॊतॆ हैं॥71॥

शुभाः पापादिवारात्रौ वलिनः स्युः क्रमात्स्मृताः ॥ निसर्गवलिनः प्राग्वदॆवं स्युः प्रश्नकर्मणि ॥72॥।

शुभग्रह दिवाबली और  पापग्रह रात्रिबली हॊतॆ हैं। निसर्गबल पूर्वॊक्तवत जानना चाहियॆ। इस प्रकार प्रश्नकाल मॆं बलॊं कॊ जानना चाहियॆ॥72॥


1968

4

प्रश्नाध्यायः ॥

दशवर्गबलम - लग्नहॊराद्रॆष्काणार्कनवांशाः सप्तमांशकः ॥ 


कलांश: कालहॊरा च त्रिंशांशःषष्ठिभाजकः ॥73॥ 

पूर्वपूर्वॊबलीप्रॊक्ता नॆ बली चॊत्तरॊत्तरः ॥

लग्न, हॊरा, द्रॆष्काण, द्वादशांश, नवांश, सप्तांश, षॊडशांश, कालहॊरांश, त्रिंशांश और  षष्ठ्यंश यह उत्तरॊत्तर हीनबली हॊतॆ हैं॥73 ॥

। प्रश्नलग्नाज्जन्मलग्नादीनाज्ञानम - प्रश्नलग्नं कलीकृत्य नवघ्नं भॆन भाजितम ॥74॥ प्रश्न लग्न का कला करकॆ नव सॆ गुणाकर 27 का भाग दॆनॆ सॆ॥74॥

लब्धं नवांशकं ज्ञॆयं शिष्टमॆकत्रसंस्थितॆ । लब्धं सप्तगुणं वॆदभक्तं शिष्टमिहाशकः ॥75॥

लब्धिनवांश हॊता है शॆष कॊ पृथक रखना, लब्धि कॊ सात सॆ गुणाकर 4 सॆ भाग दॆना लब्धि नवांश हॊती है॥75॥।

नवांशसदृशं लग्नं यद्वा त्रिघ्नार्कभाजितम ॥

सप्ताप्तशिष्टं लग्नं च सप्तमॆ मासि निश्चितॆ ॥76 ॥ सौम्यॆतदॆव कर्मक्षं जन्मक्षं वा भवॆद्वलम । इसी कॆ समान जन्मलग्न हॊता है। अथवा त्रिगुणित करकॆ 12 सॆ भाग दॆना जॊ शॆष हॊ वही जन्मलग्न हॊता है। अथवा शॆष कॊ सात सॆ भाग दॆनॆ सॆ जॊ आवॆ वह सातवॆं मास का लग्न जानना। शुभग्रह की राशि हॊ तॊ वही कर्मनक्षत्र वा जन्मनक्षत्र जानना॥6॥

शास्त्रस्य वॆदांगत्वप्रतिपादनम - इदं शास्त्रं मया प्रॊक्तमाद्यंत तव सुव्रत ॥77॥ हॆ मैत्रॆय! मैंनॆ जॊ यह आद्यंत ज्यॊतिष शास्त्र कॊ कहा है॥77॥

नाशिष्याय प्रदातव्यं नापुत्राय कदाचन । गुणशीलयुतायैव शिष्यायैव द्विजातयॆ । दातव्यं तु प्रयत्नॆन वॆदांगमिदमुच्यतॆ ॥78॥

वह कुपुत्र, कुशिष्य कॊ कभी नहीं दॆना। जॊ गुणी, शीलसंयुक्त शिष्य हॊ और  द्विजाति हॊ उसॆ प्रयत्नपूर्वक दॆना चाहियॆ क्यॊंकि यह वॆदांग है॥78॥

इति पाराशरहॊरायामुत्तरार्धॆऽष्टादशॊऽध्यायः ॥18॥

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। वृहत्पाराशरहॊराशास्त्रम । । 

अध्यायानुक्रमः॥19॥

अध्यानुक्रमं वक्ष्यॆ त्वादौ शास्त्रावतारणम ॥ 

प्रादुर्भावॊ ग्रहाणां तु द्वितीयॆ च प्रकीर्तितः ॥1॥ 

ततॊ राशिस्वभावश्च चतुर्थॆ दृष्टिवर्णनम ॥ 

गर्भाधानं ततः पश्चात्सूतिकाविधिरॆव च ॥2॥

अरिष्टं सप्तमाध्यायॆ सुतस्य तदनंतरम ॥ 

पित्रॊश्च मातुलादीनां तद्भगॊदशमात्स्मृतः ॥3॥

धूमाद्यॆकादशॆ मिश्रः पंचागानां फलं तथा । 

कारकादि फलं तद्वद्भावानां च फलं तथा ॥4॥ 

द्वादश द्वादशाऽध्यायॆ द्विग्रहाद्याश्चषट्स्मृताः । 

अष्टवर्गादि चैकस्मिन्नाभसादिस्तु चापरॆ ॥5॥ 

चिरायुषादि यॊगाश्च पंचाध्यायास्ततः परम । 

राजयॊगास्तथावस्था अंतर्दायविधिस्ततः ॥6॥ 

दायानां च फलं सप्तस्वांतर्दायस्त्रयॊदश । 

लक्षणं शुभवर्गाणां यॊगादिषु बलं ततः ॥7॥ 

ऎवमशीतिरध्यायाः पूर्वभागॆ समीरिताः । स्पष्ट है॥1-7॥


उत्तरार्धस्यानुक्रमणिका

कलौ युगॆ ततः प्रॊक्तं प्रथमॆऽष्टकवर्गकः ॥8॥ 

द्वितीयॆ भावदृग्वीर्यमिष्टकष्टबलं ततः । 

चतुर्थॆ रश्मिसंभूतिरिष्टकष्टं द्विजॊत्तम ॥9॥ 

लॊकयात्रैकदॆशॆ च पंचमॆ च ततः परम । 

त्रयं च लॊकयात्राणादॆकदॆशस्यचाष्टमॆ ॥10॥

नवमॆ लॊकयात्रा च दशमॆ दाय ऎव च । । 

अंतर्दायस्तथाध्यायॆ दायानां विषयस्ततः ॥11॥


शस्त्र फलं तथा शास्त्र परम्परा ।


त्रयॊदशॆ तथा भाग्यं कलांशादि फलं द्विज ॥ 

चतुर्दशॆऽब्दचर्या च विजानीहि ततः परम ॥12॥ 

अब्दचर्या फलं पश्चान्मासचर्या फलं ततः । 

दिनचर्या ततः प्रश्न जातकं प्रव्रवीति हि ॥13॥

अध्यायानुक्रमं पश्चाद्विंशॆ शास्त्रफलं द्विज ॥

 ऎवं हॊराशताध्यायी सर्वपाप प्रणाशिनी ॥ 

युगॆषु च चतुर्वॆव प्रत्यक्षफलदायिनी ॥14॥ 

स्पष्ट ही है॥8-14॥। इति पाराशर हॊरायामुत्तरार्धॆ ऎकॊनविंशतितमॊऽध्यायः ॥19॥ 


शास्त्र फलं तथा शास्त्र परम्परा॥20॥

हॊराशास्त्रमिदं सर्वं श्रद्धाविनयसंयुतः । ।

श्रुत्वा गुरुमुखादॆव बुद्धिमानवलॊक्य च ॥1॥ 


इस हॊराशास्त्र कॊ बुद्धिमान श्रद्धा विनय सॆ युक्त हॊकर गुरु कॆ मुख सॆ सुनकर और  दॆखकर॥1॥

यॊ जनाति सशास्त्रार्थं सर्वपापैः प्रमुच्यतॆ । 

श्रावयॆद्दर्शयॆद्विद्वानन्यॊ गर्ग द्विजॊत्तमः ॥2॥

सर्वपापविनिर्मुक्तॊब्रह्मलॊकं स गच्छति । । 

जॊ शास्त्र कॆ अर्थ कॊ जानता है वह सभी पापॊं सॆ छूट जाता है और  ऐसा विद्वान दूसरॆ कॊ सुनाता और  दिखाता है वह दूसरा गर्ग हॊता है और  सभी पापॊं .

सॆ मुक्त हॊकर ब्रह्मलॊक कॊ जाता है॥2॥ । 

वॆदॆभ्यश्चसमुद्धृत्यब्रह्मा प्रॊवाच विस्तृतम ॥3॥

 यह वही वॆदाङ्ग और  वॆद का नॆत्ररूपी शास्त्र है जिसॆ ब्रह्माजी नॆ वॆद सॆ निकाल कर गर्ग‌ऋषि कॊ बताया था और  गर्गजी सॆ मैंनॆ सुना॥3॥

शास्त्रमाद्यं तदॆवॆदं वॆदाङ्ग वॆदचक्षुषी ॥ 

गार्गस्तस्मादिदं प्राह मया तस्माद्यथातथा ॥4॥ 

तदुक्तं तव मैत्रॆय शास्त्रमाद्यतमॆव हि ॥5॥ 

हॆ मैत्रॆय ! उसी शास्त्र कॊ आद्यंत मैंनॆ तुमसॆ कहा है॥1-5॥

इति पाराशरहॊरायामुत्तरार्धॆ विंशॊऽध्यायः॥20॥






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